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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ श्री ऋषभदेव--
चौदहवें कुलकरका नाम नाभिराय था । इनके समयमें उत्पन्न होने वाले बच्चोंका नाभिनाल अत्यन्त लम्बा होने लगा तो उन्होंने इसको काटना बतलाया। इसी लिए इनका नाम नाभि पड़ा। नाभिरायके घर में श्री ऋषभदेवका जन्म हुश्रा । यही ऋषभ देव इस युगमें जैनधर्मके आद्य प्रवर्तक हुए । इनके समयमें ही ग्राम, नगर, आदिकी सुव्यवस्था हुई। इन्होंने ही लौकिक शास्त्र और लोकव्यवहारकी शिक्षा दी, और इन्होंने ही उस धर्मकी शिक्षा लोगोंको दी जिसका मूल अहिंसा है।
भगवान ऋषभदेव के समयमें प्रजाके सामने जीवनकी समस्या विकट हो गयी थी। क्योंकि जिन वृक्षोंसे लोग अपना निर्वाह करते थे वे लुप्त हो चुके थे । और जो नयी वनस्पतियां पृथ्वीपर उगी थीं उनका उपयोग करना नहीं जानते थे। तब उन्होंने उन्हें स्वयं उगे हुए इक्षु-दण्डोंसे रस निकालकर खाना सिखाया। तथा प्रजाको कृषि, असि, मषी, शिल्प, वाणिज्य और विद्या इन षटकर्मोंसे भाजीविका करने की शिक्षा दी । तथा सामाजिक व्यवस्थाको चलानेके लिए उन्होंने तीन वर्ण स्थापित किये । प्रजा पालन व स्वदेश रक्षा करनेवाला एक वर्ग, कृषि, आदि उद्योग धन्धे करनेवाला दूसरा वर्ग, तथा सेवा कार्य करनेवाला तीसरा वर्ग । और उनके नाम क्रमशः क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र रक्खा । जैनाचार
___ प्रजा सुख और शान्तिसे रहे इसके लिए उन्होंने अहिंसा धर्मका उपदेश दिया। उन्होंने बताया कि दूसरोंको सुखी देखकर सुखी होना और दुःखी देखकर दुखी होना ही पारस्परिक प्रेमका एकमात्र साधन है । प्रत्येक मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह किसी भी मनुष्य, पशु या पक्षी यहां तक कि छोटेसे छोटे जन्तु, कीट, पतंग, आदिको भी न सतावे । प्रत्येक जीव सुख चाहता है । और उसका उपाय यही है कि वह स्वयं अपने प्रयत्नसे दूसरोंको दुखी न करे । यदि प्रत्येक जन जो स्वयं सुखी होना चाहता है दूसरोंको दुखी न करे, यदि प्रत्येक जन जो स्वयं सुखी होना चाहता है दूसरोंको भी सुखी बनानेका प्रयत्न करे तो सहज ही सम्पूर्ण जनता सुखी हो जाय । अतः पारस्परिक अहिंसक व्यवहार ही सुखका एकमात्र साधन है । उसको स्थायी बनाये रखनेके लिए उसके चार उपसाधन हैं । पहला यह कि किसीको धोखा न दिया जाय, जिससे जो कहा हो उसे पूरा किया जाय । ऐसे वचन न बोले जाय जिससे दूसरोंको मार्मिक पीड़ा पहुंचे । दूसरा यह कि प्रत्येक मनुष्य अपने परिश्रमसे उपार्जित वस्तु पर ही अपना अधिकार माने । दूसरों के परिश्रम पर निर्वाह करनेवाला प्रजाके लिए घातक होता है। यद्यपि व्यवसायो व्यक्ति भी समाजके लिए उपयोगी हैं किन्तु उत्पादक और परिश्रम शील प्रजाका भाग हड़प लेनेवाले व्यवसायी नहीं हैं, घातक जन्तु हैं । ऐसे व्यवसायियोंका गरोह प्रजाकी सुख शान्तिके लिए वांछनीय नहीं है । अतः न्याय विरुद्ध द्रव्यका ग्रहण करना अशान्ति, दु:ख और कलहका बीज है । तीसरा यह कि स्त्री-पुरुषको भोगोंमें आसक्त नहीं होना चाहिये ।
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