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मानवजीवन में जैनाचारकी उपयोगिता
तीन गुणवत-
गृहस्थ अपने व्यावसायिक क्षेत्रकी मर्यादा निश्चित कर लेता है। इसे 'दिव्रत' कहते हैं । यह मर्यादा जीवन भर के लिए होती है। उसके भीतर भी कुछ समयके लिए जो उस मर्यादाको सीमित किया जाता है यह दूसरा 'देशव्रत' कहलाता है तथा इस नियमित क्षेत्रके भीतर भी वह व्यर्थ के काम नहीं करता यह तीसरा 'अनर्थ- दण्डव्रत' कहलाता है। इन तीन व्रतोंके पालनेसे गृहस्थकी लोभ वृत्ति घटती है । उसका जीवन नियमित और संयमित बनता है । इसीसे इन व्रतोंको गुणत्रत कहते हैं। क्योंकि उनके पालने से गृहस्थ में गुणोंकी वृद्धि होती है ।
शिक्षाव्रत
प्रत्येक गृहस्थका अन्तिम लक्ष्य स्व-पर-कल्याण है । इसी उद्देश्यसे वह प्रतिदिन तीनों संध्याओं को कुछ समय के लिए एकान्त में जाकर अपने स्वरूपका विचार करता है। श्रात्मा क्या है, मैं कौन हूं, मेरा क्या धर्म है, इत्यादि बातोंको वह विचारता है । इसे 'सामायिक' कहते हैं ।
सप्ताह में केवल एक बार नियमित दिनपर वह उपवास करता है और भोजनका त्याग करके सम्पूर्ण व्यवसायोंसे छुट्टी लेकर एकान्त स्थानमें धर्माराधना करता है । इससे उसे बड़ा लाभ होता है, इसे 'प्रोषधोपवास' कहते हैं ।
तीसरा शिक्षाव्रत 'भोगोपभोग - परिमाण' है, इसके अनुसार गृहस्थ अपने समस्त भोगोंको प्रतिदिन काम करता जाता है । किसी भी वस्तुका श्रावश्यकता से अधिक संग्रह नहीं करता ।
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चौथा शिक्षाव्रत दान है । इस शिक्षाव्रत के दो अंग हैं – दूसरोंके हितके लिए धनका त्याग तथा सेवा । दोनोंमें ही स्वार्थ त्यागकर उदारता से वर्तनेकी शिक्षा मिलती है । इसका दूसरा नाम ' वैयावृत्य' भी है ।
इस तरह जैन गृहस्थको अल्पसंग्रही, मितव्ययी और निर्लोभी बनानेका विशेष ध्यान रक्खा गया है । क्योंकि उसके लिए परिग्रह त्याग, अनर्थ दण्ड त्याग, भोगोपभोग परिमाण तथा दान इस तरह चार व्रत रक्खे गये है । इतने नियमोंके रहते हुए भी धनिककी तृष्णा इतनी बलवती है कि गृहस्थ परिग्रहका संचय कर ही लेता । इसीसे संचित धनको घटानेके लिये दान नामका शिक्षात्रत कहा गया है । जो संचित धनको दूसरोंके हित के लिये त्याग देता है उसकी भावना कम ऊंची नहीं होती । ऐसी उदार वृत्ति वाले व्यक्ति ही दीन-दुखी प्राणियोंकी सेवाके लिए एक दिन अपना सब कुछ त्याग देते
। इस तरह मानव जीवनमें सदाचारका बहुत महत्त्व है और जैनाचार मनुष्यकी पाशविक वृत्तियों का नियमन करके मनुष्यको उदार और लोकसेवक बनाता है ।
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