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अहिंसा की पूर्व-परम्परा स्व० आचार्य श्री धर्मानन्द कौशाम्बी
प्राचीन कालसे ही राज-संस्था हिंसाकी भित्तिपर आधारित होती अायी है । एक प्रकारकी राज्य व्यवस्था मिटाकर उसकी जगह दूसरे प्रकारकी स्थापित करनेमें रक्तपात होना अपरिहार्य है, ऐसा अब भी बहुतोंको लगता है । राजाओंसे ही देवताओंकी कल्पना निकली हो गी । राजा लोग यदि अधिक प्रिय हों, तो फिर देवता भी वैसे ही क्यों न हों ? इसीसे वैदिक कालीन भारतके समान ही मिस्र, सीरिया, ग्रीस, आदि देशोंमें भी यज्ञ यागकी प्रथा लोक प्रिय हुई । भारतमें वैदिक संस्कृति प्रथमतः सिन्धु नदीके प्रदेशमें फैली और बादमें पंजाबके मार्गसे होती हुई धीरे धीरे वह पूर्वकी ओर फैलती गयी। आदि अहिंसा संस्थापक--
अहिंसात्मक संस्कृतिकी स्थापना करनेका प्रथमतः श्रेय जैन-तीर्थङ्करों को देना चाहिये । आदिनाथसे महावीर स्वामी तक जो चौबीस तीर्थङ्कर प्रसिद्ध हैं, वे सब अहिंसा-धर्मके पुरस्कर्ता थे, ऐसा सभी जैन मानते हैं । अपनी संस्कृति वैदिक संस्कृतिसे भी प्राचीनतर है; ऐसा जैन पण्डित प्रतिपादन करते हैं । स्थानांग सूत्र में लिखा है"भरहेरवएसु णं वासेसु पुरिमपच्छिमवजा
माज्झिमगा वावीसं अरहंता चाउजामं धम्मं पणणवेति । तं जहा-सव्वातो पाणातिवायाश्रो वेरमणं, एवं दाणाश्रो वेरमणं,
सव्वातो अदिन्नदाणाश्रो वेरमणं सव्वाश्रो बहिद्धाणाश्रो वेरमणं ।” अर्थात् ---भरत और ऐरावत इस प्रदेशमें पहले और अन्तिम छोड़ कर बाईस तीर्थङ्कर चातुर्याम धर्म उपदेश देते हैं । वह इस प्रकार है 'समस्त प्राणघात से विरति, उसी प्रकार असत्यसे विरति, सर्व अदत्तादान ( चोरी ) से विरति, सर्व बहिर्धा उदान ( परिग्रह ) से विरति ।'
___ इस उद्धरणमें भरत और ऐरावत इन दो प्रदेशोंके नाम आते हैं । वैदिक साहित्यकी दृष्टि से भरत अाजकलका पंजाब ठहरता है । ऐरावत कौन प्रदेश है, समझमें नहीं आता । वह पंजाबके पूर्वकी ओर होगा । इन दोनों प्रदेशोंमें प्राचीन तीर्थङ्कर चातुर्याम ( चार संयम ) धर्मका प्रचार करते थे । पाश्चात्य पण्डितों के मतानुसार भी चातुर्याम धर्मका संस्थापक पार्श्वनाथ तेईसवां तीर्थङ्कर ही था। अतः सबसे पहिले अहिंसा धर्मकी स्थापना और प्रचार करनेका श्रेय तीर्थङ्करोंको मिलता है, क्योंकि पार्श्वनाथका काल बुद्ध-पूर्व २०० वर्ष है ।