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वो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
इस समय पूर्व प्रदेशमें बहुतसे महाजन सत्ताक राज्य अस्तित्वमें थे। उनमें मगधके उत्तरकी अोर बनीका राज्य महा प्रबल था । इस राज्यमें जैनधर्मका प्रचार बहुत था। इसका कारण यह जान पड़ता है कि वहांके मुख्य वासो कृषक थे और यज्ञ-यागोंमें कृषि-उपयोगी जानवरोंकी बलि उन्हें पसन्द न थी। दूसरे जो मल्ल, शाक्य, आदि गणतन्त्र थे, उनमें भी यज्ञ यागको कोई स्थान नहीं था, ऐसा जान पड़ता है । मगध और कौशल के राजा लोग और उनके रक्षित ब्राह्मण जागीरदार लोग बीच बीचमें याग किया करते थे, परन्तु वह जनताको प्रिय न था, क्योंकि ऐसे यज्ञोंमें खेतीके जानवर ( गाय, बैल, वगैरह ) लोगों से जबर्दस्ती लिये जाते थे । इस प्रकार पूर्वको अोरसे सभी राष्ट्रोंसे अहिंसा धर्मको आपसे आप जनताका पृष्ठ पोषण मिलता था । एक उपेक्षा--
जैन साधु प्राणियोंपर दया करनेका उपदेश देते थे, तो भी मनुष्य जातिमें होने वाली लड़ाइयोंके सम्बन्धमें उदासीन रहते थे। स्त्रो-कथा, भक्त-कथा, देश-कथा, राज-कथा ऐसी कथाएं वे गर्दा मानते', अत्यन्त सूक्ष्म जन्तुओंकी रक्षाके निमित वे बड़ी चिन्ता करते । जन्तुअोंकी रक्षा करते करते एक दूसरा बड़ा दोष (?) जैन साधुत्रोंमें घुस गया वह यह कि जीवन निर्वाहके लिए वे भिक्षाटनके सिवा और कोई भी शारीरिक कर्म नहीं करते । भिक्षाटन भी नियमित जगह पर ही करते । तपस्या प्रधान नियमों के कारण जैनधर्म हिन्दुन्तानके बाहर न जा सका और इसीसे जैनधर्मको आजका संकुचित स्वरूप प्राप्त हुआ। ऐसा होने पर भी सर्वप्रथम अहिंसा धर्मका आविष्कार जैन धर्मने ही किया और हिन्दस्तानके पूर्व प्रदेशकी सामान्य जनताको मनोभूमिमें भूत-दयाका बीजारोपण किया । अतः अहिंसात्मक सत्याग्रहका श्राद्य जनकत्व पार्श्वनाथको ही देना पड़ता है।
पार्श्वनाथके बाद तीसरी सदीमें अहिंसाका बड़ा पुरस्कर्ता बुद्ध हुआ। गृह त्यागके पहले वृद्ध, रुग्ण और मृत मनुष्योंको देखकर गौतमको वैराग्य हुआ और इस सम्बन्धमें बहुत सी रसभरी कथाएं बौद्ध ग्रन्थोंमें मिलती हैं । परन्तु त्रिपिटक ग्रन्थके प्राचीन विभागमें इस बातका कोई आधार नहीं । जरा, व्याधि और मरण इस विषयमें गौतमके मनमें बार बार विचार अवश्य आता होगा, ऐसा अंगुत्तर-निकायके एक सुत्तसे जान पड़ता है। परन्तु उसे सबसे भयंकर यदि कोई बात लगी तो यह कि
'फन्दमानं पज दिस्था मच्छे अरणोदके यथा ।
__ अंज भज्जेहि वारुद्धे दिस्वामं भयमाविसि ॥' अर्थात्--सूख चले हुए पानीमें जैसे मछलियां तड़फड़ाती हैं उसी प्रकार परस्पर विरोध करके तड़फड़ाने वाली इस मनुष्य जातिको देखकर मेरे मनमें भयका संचार हुआ।
१. स्थानांग सूत्र न०२८२ ।
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