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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
(पद) है। यहां हमारे पास प्रारंभ युक्त अनन्त माला है, उसका अंत नहीं है । साधारण मान्यता भी इस बातको विना कठिनताके स्वीकार करे गी । गणितकी दृष्टिसे इसके विपरीत क्रमवाली अनन्त मालाको भी निकाल सकते हैं। जैसे कि '१' श्रंक लिखिये और उसकी बाईं ओर से आदि भिन्न युक्त अंकों को लिखते जाइये । इस भिन्न युक्त अंकवाली मालाका आरंभ यद्यपि '१' अंक है, स्थापि यह हीयमान भिन्न-युक्त अनन्त माला है । वह भिन्न अंक प्राप्त नहीं किया जा सकता, जिसे अंतिम कहा जा सके। क्योंकि सदा उस मनोतीत अंतिम भिन्नसे भी अल्पतर अर्थात् आगेकी संख्या की कल्पना कर सकते हैं । यह अनंत माला जिसका प्रारंभ '१' से होता है तथा जो पीछे की ओर बढ़ती है, अनंत माला कही जा सकती है जिसका श्रादि तो नहीं है परंतु उसका अंत या पर्यवसान '१' अंक में होता है ।
काण्ट तथा अन्य दार्शनिकोंने समझा था कि आदि-हीन किंतु अंत-युक्त अनंत माला स्वविरोधी हैं । परंतु गणित शास्त्रकी दृष्टिसे '१' से प्रारंभ होनेवाली माला जो अनंत पर्यंत चली जाती है, तथा वह भिन्न माला ( Series of Fractions ) जिसका आरंभ '१' है और जो पोछे अनंत तक पहुंचती है; इनमें कोई अंतर नहीं है। इस प्रकार एक ऐसी अनंत संख्या प्राप्त की जाती है जिसका आदि तो हैं लेकिन अंत नहीं है । तथा दूसरी ऐसी अनंत संख्या प्राप्त होती है जिसका अंत तो है लेकिन यदि नहीं है । गणितकी दृष्टि से दोनों सम्भव हैं, इसलिए वे स्व-विरोधी और अपरमार्थ शब्द के द्वारा नहीं कही जा सकतीं । यदि श्रागे वर्धमान पद-युक्त प्रथम माला यथार्थ है तो उत्तरोत्तर होयमान- भिन्नरूपवाली द्वितीय माला भी यथार्थ है ।
जैन मान्यता-
गणितकी इन मान्यताओंका जैन दर्शन से बहुत बड़ा सम्बन्ध है । जैन दर्शन स्पष्टतया यथार्थ - वादी है, अतः वह आकाश और काल युक्त विश्वमें वस्तुको वास्तविक मानता है। जैनदार्शनिकों ने कालको क्षणोंकी राशि रूप कहा है जिन्हें कालपरमाणु कहते हैं । कालकी परिभाषा में कहा गया है कि वह काल-परमाणुत्रोंकी राशि मालारूप वर्धमान पंक्ति स्वरूप है, ऊर्ध्व प्रचय रूप हैं अर्थात् एक-एक परमाणु रूप पंक्ति जो उत्तरोत्तर क्षण युक्त या काल परमाणु विशिष्ट है । इस काल संख्या के अनुरूप ही गणितकी धारा है । गणितकी उस धारा में श्राकाशके प्रदेश हैं । आकाश स्वयं भिन्न भिन्न दिशाओं में अंश- मालाका पुञ्ज है जो लम्बाई - मोटाई-चौड़ाईके रूपमें विविध विस्तार युक्त हैं । श्राकाश और काल इन दोनों में अंश विभाग बताया है और आधुनिक गणितज्ञ भी आकाश और कालके इस स्व-विरोधका निराकरण करते हैं। यहां गणित सम्बन्धी धाराका विचार दार्शनिकोंकी सहायता करता है ।
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