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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
सृष्टि ही नहीं की है, किन्तु उसमें कर्म-फलवादकी मूल मान्यताको पूर्णरूपसे सुरक्षित रखा है। वैदिक दर्शनका दुःखवाद और जन्म-मरणात्मक दुःखरूप संसार सागरसे पार होनेके लिए निवृत्तिमार्ग अथवा मोक्षान्वेषणयह वैदिक, जैन और बौद्ध सबका ही प्रधान साध्य है। निवृत्ति एवं तपके द्वारा कर्मबन्धका क्षय होनेपर अात्मा कर्मबन्धसे मुक्त होकर स्वभावको प्राप्त करेगा और अपने नित्य-अबद्ध-शुद्ध स्वभावके निस्सीम गौरवसे प्रकाशित होगा । उस समय
भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्व संशयाः। ।
क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे ॥ यह स्पष्ट रूपसे जैन और वैदिक शास्त्रोंमें घोषित किया गया है।
'जन्म जन्मान्तरों में कमाये हुए कर्मोंको; वासनाके विध्वंसक निवृत्तिमार्गके द्वारा क्षय करके परमपद प्राप्तिकी साधना वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही धर्मों में तर-तमके साथ समान रूपसे उपदेशित की गयी है । दार्शनिक मतवादोंके विस्तार और साधनाकी क्रियात्रोंकी विशिष्टतामें भिन्नता हो सकती है, किन्तु उद्देश्य और गन्तव्य स्थल सबका ही एक है
रूचीनां वैचित्र्याजुकुटिलनानापथजुषां
नृणामेको गम्यस्त्वमसि पयसामर्णव इव । महिम्नस्तोत्रकी सर्व-धर्म-समानत्वको करनेमें समर्थ यह उदारता वैदिक शास्त्रोंमें सतत उपदिष्ट होनेपर भी संकीर्ण साम्प्रदायिकतासे उत्पन्न विद्वेष बुद्धि प्राचीन ग्रन्थोंमें जहां तहां प्रकट हुई है; किन्तु अाजकल हमने उस संकीर्णताकी क्षुद्र मर्यादाका अतिक्रम करके यह कहना सीखा है
यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनो बैद्धा बुद्ध इति प्रमाण पटवः कर्त्तति नैयायिकाः। अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
सोऽयं वो विदधातु वांछित फलं त्रैलोक्यनाथो हरिः ।। "ईसाकी आठवीं शतोमें इसी प्रकारके महान उदार भावोंसे अनुप्राणित होकर जैनाचार्य मूर्तिमान स्यावाद भट्ट अकलंक देव कह गये हैं
“यो विश्वं वेद वेद्यं जननजलनिधे भगिनः पार दृश्वा पौर्वापर्याविरुद्धं वचनमनुपमं निष्कलङ्क यदीयम् । तं वन्दे साधुवन्धं सकल गुणनिधिं ध्वस्तदोष द्विषन्तं बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा ॥"