________________
जगतकी रचना और उसका प्रबन्ध स्व० बाबू सूरजभानु, वकील
यह जगत् किस तरह बना और किस तरह इसका यह सब प्रबन्ध चल रहा है, इस विषयमें लोगोंमें बहुत ही ज्यादा मतभेद पाया जाता है । सभी अपने मतको 'प्राप्तवचन' या 'सर्वज्ञवाक्य' बना रहे हैं । इससे इस विषयका निर्णय शब्द प्रमाणके द्वारा होना तो बिलकुल ही असम्भव प्रतीत होता है। एकमात्र अनुमान प्रमाणसे ही निश्चय किये जानेका सहारा रह गया है । तर्क या अनुमान अर्थात् बुद्धिविचारसे किसी विषयकी जांच तथा खोज करनेका अर्थ सिवाय इसके और कुछ भी नहीं होता है कि संसारमें जो कुछ भी हो रहा है उससे उन कार्यों के नियमोंको निश्चय कर लें और फिर उन्हीं नियमोंको अपनी जांचकी कसौटी बना लें। जैसा कि गेहूंके बीजसे सदा गेहूं का ही पौधा उगता हुआ देखकर हम यह सिद्धान्त ठहरा लें कि गेहूं के बीजसे तो गेहूंका ही पौधा उग सकता है । गेहूंके सिवाय अन्य किसी भी अनाजका पौधा नहीं उग सकता । इस प्रकार यह सिद्धान्त निश्चय करके और इसे अटल नियम मानकर भविष्यमें भी गेहूं के बीजसे गेहूंका पौधा पैदा हो जानेकी बात को सही और सच्ची ठहराते रहें तथा गेहूं के बीजसे चने या मटरका पौधा पैदा हो जानेकी बातको असत्य मानते रहें । इसी प्रकार स्त्री-पुरुष द्वारा हो मनुष्यकी उत्पत्ति देखकर प्रत्येक मनुष्यका अपने मां-बाप द्वारा पैदा होना ही ठीक समझें. इसके विपरीत किसी भी बातको सत्य न मानें । इसी प्रकारकी जांच और खोजको बौद्धिक जांच कहते हैं । अनुभव द्वारा खोजे हुए इसी प्रकारके नियमोंसे अापसमें लोगोंके मतभेदका निर्णय हो सकता है और होता है । प्रधान मान्यताएं
यद्यपि इस विचारणीय विषयके सम्बन्धमें इस दुनियांमें सैकड़ों प्रकारके मत चले आ रहे हैं तो भी वे सब, मोटे रूपसे तीन भागोंमें विभाजित हो जाते हैं । (१) प्रथम मतवाले तो एक परमेश्वर या ब्रह्मको ही अनादि अनन्त मानते हैं । इनमें से भी कोई तो यह कहते हैं कि उस ईश्वरमें ब्रह्मके सिवाय अन्य कुछ है ही नहीं, यह जो कुछ भी सृष्टि दिखायी दे रही है वह स्वप्नके समान एक प्रकारका भ्रम मात्र है । कुछ यह कहते हैं कि भ्रममात्र तो नहीं है, दुनियाके सब पदार्थ सत् रूपसे विद्यमान तो हैं
९५