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जैनधर्म तथा जैनदर्शन
और जैन दोनों ही अपने अपने उपास्य देवोंके लिए प्रयुक्त करते हैं । तीसरे दोनों ही धर्मवाले बुद्धदेव या तीर्थकरोंकी एकही प्रकारकी पाषाण-प्रतिमाएं बनवा कर चैत्यों या स्तूपोंमें स्थापित करते हैं और उनकी पूजा करते है । स्तूपों और मूर्तियोंमें इतनी अधिक सदृशता है कि कभी कभी किसी मूर्ति और स्तूपका यह निर्णय करना कि यह जैनमूर्ति है या बौद्ध, बिशेषज्ञोंके लिए कठिन हो जाता है। इन सब बाहरी समानताओंके अतिरिक्त दोनों धर्मोंकी विशेष मान्यतात्रोंमें भी कहीं कहीं सदृशता दिखती है, परन्तु उन सब विषयोंमें वैदिक धर्मके साथ जैन और बौद्ध दोनोंका ही प्रायः ऐकमत्य है। इस प्रकार बहुत सी समानताएं होनेपर भी दोनोंमें बहुत कुछ विरोध है । पहला विरोध तो यह है कि बौद्ध क्षणिकवादी है; पर जैन क्षणिकवादको एकान्त रूपमें स्वीकार नहीं करता । जैन धर्म कहता है कि कर्म फल रूप से प्रवर्तमान जन्मान्तरवादके साथ क्षणिकवादका कोई सामञ्जस्य नहीं हो सकता। क्षणिकवाद माननेसे कर्मफल मानना असंभव है। जैनधर्ममें अहिंसा नीतिको जितनी सूक्ष्मतासे लिया है उतनी बौद्धोंमें नहीं है। अन्य द्वारा मारे हुए जीवका मांस खानेकी बौद्धधर्म मनायी नहीं करता, उसमें स्वयं हत्या करना ही मना है। बौद्ध दर्शनके पञ्च स्कन्धके समान कोई मनोवैज्ञानिक तत्त्व भी जैनदर्शनमें नहीं माना गया ।
बौद्ध दर्शनमें जीवपर्याय अपेक्षाकृत सीमित है, जैनदर्शनके समान उदार और व्यापक नहीं है । वैदिक धर्मों तथा जैनधर्ममें मुक्तिके मार्गमें जिसप्रकार उत्तरोत्तर सीढियोंकी बात है, वैसी बौद्ध धर्ममें नहीं है । जैन गोत्र-वर्ण के रूपमें जाति-विचार मानते हैं, पर बौद्ध नहीं मानते ।
"जैन और बौद्धको एक समझनेका कारण जैनमतका भली भांति मनन न करने के सिवाय औरकुछ नहीं है । प्राचीन भारतीय शास्त्रोंमें कहीं भी दोनोंको एक समझनेकी भूल नहीं की गयी है। वेदान्त सूत्रमें जुदे जुदे स्थलोंपर जुदे जुदे हेतुवादसे बौद्ध और जैनमतका खण्डन किया है। शंकर दिग्विजयमें लिखा है कि शंकराचार्यने काशीमें बौद्धोंके साथ और उजयनीमें जैनोंके साथ शास्त्रार्थ किया था । यदि दोनों मत एक होते, तो उनके साथ दो जुदे जुदे स्थानोंमें दो बार शास्त्रार्थ करनेकी आवश्यकता नहीं थी। प्रबोधचन्द्रोदय नाटकमें बौद्ध भिक्षु और जैन दिगंबरकी लड़ायीका वर्णन है।
"वैदिक ( हिन्दू ) के साथ जैनधर्मका अनेक स्थलोंमें विरोध है; परन्तु विरोधकी अपेक्षा सादृश्य ही अधिक है । इतने दिनोंसे कितने ही मुख्य विरोधोंकी अोर दृष्टि रखनेके कारण वैर विरोध बढता रहा और लोगोंको एक दूसरेको अच्छी तरहसे देख सकनेका अवसर नहीं मिला । प्राचीन वैदिक सब सह सकते थे परन्तु वेद परित्याग उनकी दृष्टिमें अपराध था ।
___ "वैदिक धर्मको इष्ट जन्म-कर्मवाद जैन और बौद्ध दोनों ही धर्मोंका भी मेरूदण्ड है। दोनों ही धर्मों में इसका अविकृत रूपसे प्रतिपादन किया गया है । जैनोंने कर्मको एक प्रकारके परमाणुरूप सूक्ष्म पदार्थ ( कार्माण वर्गणा ) के रूपमें कल्पना करके, उसमें कितनी ही सयुक्तिक श्रेष्ठ दार्शनिक विशेषताओंकी