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जैनधर्म तथा जैनदर्शन वह असत् है ' । जो वर्तमान समयमें है, वह यदि अनादि अतीतके किसी समयमें नहीं था और अनन्त भविष्यत्के भी किसी समयमें नहीं रहेगा, तो वह सत् नहीं हो सकता-वह असत् है। परिवर्तनशील असद्वस्तुके साथ वेदान्तका कोई सम्पर्क नहीं है ! वेदान्त दर्शन केवल अद्वैत सद्ब्रह्मका तत्त्व दृष्टिसे अनुसन्धान करता है । वेदान्तकी यही प्रथम बात है 'अथातो ब्रह्म जिज्ञासा' और यही अन्तिम बात है। क्योंकि-"तस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति ।”
"वेदान्तके समान बौद्धदर्शनमें कोई त्रिकाल अव्यभिचारी नित्य वस्तु नहीं मानी गयी है बौद्ध क्षणिकवादके मतसे "सर्व क्षणं क्षणं?' । जगत्स्रोत अप्रतिहततया अबाध गतिसे बराबर वह रहा है-क्षणभरके लिए भी कोई वस्तु एक ही भावसे एक ही अवस्थामें स्थिर होकर नहीं रह सकती । परिवर्तन ही जगतका मूलमंत्र है ! जो इस क्षणमें मौजूद है, वह अागामी क्षणमें ही नष्ट हो कर दूसरा रूप धारण कर लेता है । इस प्रकार अनन्त मरण और अनन्त जीवनोंकी अनन्त क्रीड़ाएं इस विश्वके रंगमंचपर लगातार हुआ करती हैं । यहां स्थिति, स्थैर्य, नित्यता असंभव है। जैन-अनेकान्त--
"स्याद्वादी जैनदर्शन वेदान्त और बौद्धमतकी अांशिक सत्यताको स्वीकार करके कहता है कि विश्वतत्त्व या द्रव्य नित्य भी है और अनित्य भी । वह उत्पत्ति, ध्रुवता और विनाश इन तीन प्रकारकी परस्पर विरुद्ध अवस्थात्रोंसे से युक्त है । वेदान्त दर्शनमें जिसप्रकार 'स्वरूप' और 'तटस्थ' लक्षण कहे गये हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें प्रत्येक वस्तुको समझानेके लिए दो तरहसे निर्देश करनेकी व्यवस्था है । एक को कहते हैं 'निश्चयनय' और दूसरेको कहते हैं 'व्यवहार नय' । स्वरूपलक्षणका जो अर्थ है, ठीक वही अर्थ निश्चयनयका है । वह वस्तुके निज भाव या स्वरूपको बतलाता है । व्यवहारनय वेदान्तके तटस्थ लक्षणके अनुरूप है । उससे वक्ष्यमाण वस्तु किसी दूसरी-वस्तुकी अपेक्षासे वर्णित होती है । द्रव्य निश्चय नयसे ध्रुव है किन्तु व्यवहारनयसे उत्पत्ति और विनाशशील है, अर्थात् द्रव्यके स्वरूप या स्वभावकी अपेक्षा से देखा जाय तो वह नित्य स्थायी पदार्थ है, किन्तु साक्षात् परिदृश्यमान व्यवहारिक जगतकी अपेक्षासे देखा जाय तो वह अनित्य और परिवर्तनशील है। द्रव्यके सम्बन्धमें नित्यता और परिवर्तन अांशिक या अपेक्षिक भावसे सत्य है-पर सर्वथा एकान्तिक सत्य नहीं है । वेदान्तने द्रव्यकी नित्यताके ऊपर ही दृष्टि रक्खी है और भीतरकी वस्तुका सन्धान पाकर, बाहरके परिवर्तनमय जगत प्रपञ्चको तुच्छ कह कर उड़ा दिया है; और बौद्ध क्षणिकवादने बाहरके परिवर्तनकी प्रचुरताके प्रभावसे रूप-रस-गन्ध-शब्द-स्पर्शादिकी विचित्रतामें ही मुग्ध होकर इस वहिर्वैचित्र्यके कारणभूत, नित्य-सूत्र अभ्यन्तरको खो दिया है। पर स्याद्वादी जैनदर्शनने भीतर और बाहर, अाधार आधेय, धर्म और धर्मी, कारण और कार्य, अद्वैत और वैविध्य दोनोंको ही यथास्थान स्वीकार कर लिया है।
"१. “यद्विषया बुद्धिर्न व्यभिचरति तत्सत्, यद्विषया बुद्धिय॑भिचरति तदसत् ।”गीता शांकरभाष्य २–१६ । १२
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