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जैन दर्शन पो० माधवाचार्य, एम० ए०।
यह दर्शन प्रधान रूपसे अर्हत् भगवानका उपासक है इसलिए कोई कोई दार्शनिक इसको 'अाहत-दर्शन' भी कहते हैं ।
संसारके त्यागी पुरुषोंको परमहंसचर्या सिखानेके लिए त्रिगुणातीत पुरुष विशेष परमेश्वरने ऋषभावतार लिया था ऐसा भागवत आदि पुराणों में वर्णित महिमा मय वर्णनसे स्पष्ट है । जगतके लिए परमहस-चर्याका पथ दिखानेवाले अापही थे। हमारे जैनधर्मावलम्बी भाई आपको 'श्रादिनाथ' कहकर स्मरण करते हुए जैनधर्मके आदिप्रचारक मानते हैं।
भगवान ऋषभदेवने सुख प्राप्तिका जो रास्ता वताया था वह हिंसा, आदि भयंकर पापोंके सघन तिमिरमें अदृष्ट सा होगया। उसके शोधनके लिए अहिंसा धर्मके अवतार भगवान महावीर स्वामीका अविर्भाव हुआ जिन्हें जैन लोग श्रीवर्धमान प्रभु कहकर श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं।
महावीर स्वामीके उपदेशों को सूत्रोंके रूपमें ग्रथित करनेवाले आचाोंने महावीर स्वामीके अवतरित होनेका प्रयोजन बताया है कि, "सव्व जगा रक्खण दाट अाअपवयणं सु कहियं भगवया" भगवान महावीर स्वामीने व्यथित जीवोंके करुण-क्रन्दनसे करुणाद्र चित्त होकर सब जीवोंकी रक्षा रूप दया के लिए सार्वजनीन उपदेश देना प्रारम्भ किया था।
यह सर्व साधारणको ज्ञात है कि भगवान बुद्धदेवने विश्वको दुख रूप कहते हुए क्षणिक कहते समय यह विचार नहीं किया था कि इससे अनेक अनेक लाभोंके साथ क्या क्या दोष होंगे । उनका उद्देश्य विश्वको वैराग्यकी तरफ ले जानेका था जिससे अनाचार अत्याचार तथा हिंसाका लोप हो जाय। महावीर स्वामीने बुद्धदेवसे बनाये गये अधिकारियोंकी इस कमीको पूरा करने पर भी ध्यान दिया था । इन्होंने कहा कि अखिल पदार्थोंको क्षणिक समझकर शून्यको तत्त्वका रूप देना भयंकर भूल है । जब सब मनुष्य रंग रूप में एकसे ही हैं तब फिर क्या कारण हैं कि कोई राजा बनकर शासन कर रहा है और कोई प्रजा बना हुआ आज्ञा पालता है । किसी में कई विशेषताएं पायी जाती हैं तो किसी को वे बातें प्रयास करनेपर भी नहीं मिलती । इसमें कोई कारण अवश्य है। वर्तमान जगतको देखकर मेरी समझमें तो यही आता है कि शरीरसे भिन्न, अच्छे बुरे कर्मोंके शुभ अशुभ फलका भोक्ता, शरीरको धारण
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