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बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा विज्ञानवादी कह सकते हैं कि अनुमानमें भी प्रदर्शितार्थ प्रापकत्व' संभव है क्योंकि विषयके मौलिक तथा काल्पनिक रूपके सादृश्य के कारण अनुमाता अध्यवसायकी शरण लेता है। अनुमानमें पदार्थ यद्यपि वास्तविक नहीं होता तथापि अनुमितिज्ञानमें ऐसी क्षमता है कि वह अनुमेय पदार्थको पदार्थत्व प्रदान करता है अनुमेय और दृष्ट पदार्थका जिसे अभेद अध्यास कहते हैं। इस प्रकार प्रदर्शितार्थ और दृष्ट पदार्थका प्रापकत्व अनुमानका भी लक्षण होकर उसे प्रमाणता प्रदान करता है । अभयदेव कहते है कि जिस क्षणिकवादके कारण प्रत्यक्षके विषयोंमें प्रदर्शितार्थ प्रापकता असंभव है, वही क्षणिकवाद अनुमानके विषयमें इसे सर्वथा अकल्पनीय कर देगा । यदि विज्ञानवादीमें तार्किकताका लेश भी शेष हो तो उसे ज्ञान तथा इच्छाशक्तिके तात्त्विक भेदको स्वीकार करना ही चाहिये क्योंकि दर्शन और प्रापणके क्षणमें अत्यन्त भेद होता है । इससे बचनेके लिए बौद्ध ज्ञान संतानका प्राश्रय लेगा जैसा कि वह बहुधा करता है । किन्तु यदि वह सन्तानको प्रकट ज्ञानसे पृथक् मानेगा जैसा कि यहां प्रतीत होता है तो इसका तात्पर्य होगा कि वह अपने क्षणिकवादके मूल सिद्धान्तको ही छोड़ रहा है। प्रमाणकी उक्त परिभाषा को संव्यवहारिक मानकर यदि विज्ञानवादी बचना चाहे तो उसे स्वीकार करना पड़ेगा कि वह प्रमाणकी दूसरी परिभाषा कर सकता है जो कि नित्य तथा अनित्य पदार्थों में एक रूपसे रह सकेगी, केवल अनित्यमें नहीं । इसका तात्पर्थ होगा जैनोंकी नित्या-नित्य पदार्थोंके ज्ञानरूप प्रमाणकी परिभाषाको स्वीकार करना।
सिद्धर्षि गणिका उक्त परिभाषाका विवेचन अधिक विस्तृत है। वे कहते हैं कि 'अवि संवादक' के दो अर्थ हैं—प्रथम अर्थ तो यह है कि ज्ञान पदार्थको प्राप्तकरने की चेष्टा द्वारा ज्ञान प्रमाण होता है । "प्राप्तियोग्य पदार्थका निर्देश दूसरा अर्थ होता है । अब यदि हम प्रथम अर्थको सत्य माने तो जल बुदबुदका ज्ञान अप्रमाण होगा क्योंकि उन तक पहुंचते पहुंचते वे नष्ट हो जाते हैं। दूसरा अर्थ लेने पर भी हमारी पहुंचके बाहर स्थित तारा, ग्रहादिका ज्ञान प्रमाण न हो सकेगा। अतः सिद्धर्षि गणि उसका 'अविचलितार्थ विषयत्वम् ४ अर्थ करते हैं । अथ त् जब ज्ञान पदार्थको अपने निश्चित द्रव्य क्षेत्र, काल, भावादिकी अपेक्षा जानता है तब वह प्रमाण होता है जिसमें पदार्थ अनेक क्षण ठहरता है । जिसे स्वीकार करके विज्ञानवादी अपने आराध्य क्षणिकवादका ही निधन करेगा । ज्ञानका विषय स्थायी पदार्थ होनेके लिए वस्तुको अनेक क्षणों में तद्रूपसे ही ज्ञात होना चाहिये,
१. "दृश्य प्राप्य क्षणयोरत्यन्त भेदात् ।" २. स. त. पृ. ४७१। ३. न्यायावतार वृत्ति पृ. १४ । ४. नयविन्दुटीका, नियतार्थ प्र. पृ. ४ ।
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