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जैन प्रमाण चर्चामें-- प्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन श्री प्रा० दलसुख मालवणिया प्रास्ताविक--
प्राचार्य कुन्दकुन्दने अपने ग्रन्थोंमें स्वतन्त्र भावसे प्रमाणकी चर्चा तो नहीं की है और न उमास्वातिकी तरह शब्दतः पांच ज्ञानोंको प्रमाण संज्ञा ही दी है। फिर भी ज्ञानोंका जो प्रासाङ्गिक वर्णन है वह दार्शनिकोंको प्रमाण-चर्चासे प्रभावित है हो । अतएव ज्ञान चर्चाको ही प्रमाण चर्चा मान कर प्रस्तुतमें वर्णन किया जाता है। यह तो किसोसे छिपा हुअा नहीं है कि वाचक उमास्वातिकी ज्ञानचर्चासे प्राचार्य कुन्दकुन्दकी ज्ञानचर्चा में दार्शनिक मौलिकताकी मात्रा अधिक है । यह बात अागेकी चर्चासे स्पष्ट हो सकेगी। अद्वैतदृष्टि---
प्राचार्य कुन्दकुन्दका श्रेष्ठ ग्रन्थ समयसार है । उसमें उन्होंने तत्त्वोंका विवेचन निश्चय दृष्टिका अवलम्बन लेकर किया है। खास उद्देश्य तो है आत्माके निरुपाधिक शुद्धस्वरूपका प्रतिपादन; किंतु उसीके लिए अन्य तत्त्वोंका भी पारमार्थिक रूप बतानेका प्राचार्यने प्रयत्न किया है । आत्माके शुद्ध स्वरूपका वर्णन करते हुए श्राचार्य ने कहा है कि व्यवहार-दृष्टिके श्राश्रयसे यद्यपि आत्मा और उसके ज्ञानादि गुणोंमें पारस्परिक भेदका प्रतिपादन किया जाता है। फिर भी निश्चय दृष्टि से इतना ही कहना पर्याप्त है कि जो ज्ञाता है वही आत्मा है, या आत्मा ज्ञायक है, अन्य कुछ भी नहीं। इस प्रकारकी अभेद गामिनी दृष्टिने आत्माके सभी गुणोंका अभेद ज्ञान गुणमें कर दिया है और अन्यत्र स्पष्टतया समर्थन भी किया है कि सम्पूर्ण ज्ञान ही ऐकान्तिक सुख है । इतना ही नहीं किंतु द्रव्य और गुणमें अर्थात् ज्ञान और ज्ञानीमें भी कोई भेद नहीं है ऐसा प्रतिपादन किया है । उनका कहना है कि अात्मा कर्ता हो, ज्ञान करण हो यह बात भी नहीं, किंतु "जो जाणदि सो णाणं ण हवदि णाणेण जाणगो आदा ।"
१ समयसार ६,७। २ प्रवचन० ५९, ६० । ३ समयसार १०, ११,४३३ । पंचा०४०, ४९ । ४ प्रवचन० १, ३५। ..
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