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आत्म और अनात्मश्री ज्वाला प्रसाद ज्योतिषी एम० ए०, एल० एल० बी०,
सृष्टिमें हम साधारणतया जड़ और चेतन, इसप्रकार दो प्रकारकी अस्तियोंपर विश्वास करते हैं । एक वे अस्तित्व, जो प्राणवान हैं—जिसमें मति, गति, धृति, चिन्तना, अनुभूति जैसी प्रक्रियाएं विद्यमान हैं । दूसरी वे, जिनमें इस तरहकी किसी हरकतको स्थान नहीं है। पौर्वात्य और पाश्चात्य, सभी विचारकोंने एक सीमातक किसी न किसी रूपमें इन दो प्रकारके अस्तित्वोंको स्वीकार किया है । किसीने दोनोंको सम्पूर्णतया पृथक माना है तो किसीने एक दूसरेको सम्बद्ध स्वीकार किया है । शक्तिको ही सब कुछ माननेवाले अाधुनिक वैज्ञानिकने भी स्वरूपको मान्यता दी है और वस्तुके अस्तित्वको साकार करनेवाले अवयवोंको स्वीकार किया है । कठोरसे कठोर अद्वैतवादी भी स्थूल विश्वकी व्यावहारिक सत्ताको स्वीकार करते हैं और विश्वके स्वरूप, गुण आदि की सत्ताको अस्थाई भले ही कहें, पर उसे स्वीकार तो करते ही हैं।
अस्तु, अात्म और अनात्म इन दोनों तत्त्वोंपर सृष्टिके सभी विचारक सुदीर्घ कालसे विश्वास करते आये हैं । इन दोनोंमें उन्होंने एकत्व, पृथकत्व अथवा अन्योन्याश्रयत्व, कुछ भी क्यों न माना हो, लेकिन उनके अस्तित्वको स्वीकृत अवश्य किया है । और आज हमारे सामने प्रश्न है—ये अात्म और अनात्म तत्त्व हैं क्या ? वे वास्तवमें दो पृथक तत्त्व हैं अथवा किसी एक तत्त्वके दो पृथक गुणमात्र हैं ? प्रश्न बहुत पेचीदा है और उसका उत्तर सहज ही नहीं दिया जा सकता। स्थूल दृष्टिसे देखनेसे सृष्टिमें कुछ ऐसे पदार्थ दिखते हैं जो चेतनासे सर्वथा शून्य हैं । उन्हें हमपूर्ण रूपेण जड़ पाते हैं । कुछ ऐसे हैं जिनमें सशरीरताके साथ सचेतनता भी है और इनसे दूर हम ऐसी कल्पना कर सकते हैं, जहाँ स्थूलताका कोई स्थान नहीं-जहां सम्पूर्णतया चेतनाका ही साम्राज्य है । और तब हमारा प्रश्न और भी जटिल होजाता है।
लेकिन सृष्टिकी दृश्यमानता ही तो सम्पूर्ण सत्य नहीं है । एक प्याले पानीमें एक चम्मच शक्कर डालिये । आप देखेंगे कि मीठा शर्बत तैयार होगया। इस शर्बतको एक ग्लास पानीमें डाल दीजिये। आप अनुभव करें गे—मिठास फीका पड़ गया है । और अब इस फीके शर्बतको कुंएमें छोड़