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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
दीजिये । कुंएका पानी चखिये । देखिये! क्या आप अब भी कुंएमें उस एक चम्मच शक्करके मिठासका अनुभव कर सकते हैं ? क्या हुआ उस शक्करका ? कहां गयी उसकी मिठास ? निश्चय ही हम इंद्रियों द्वारा उस मिठासका अनुभव नहीं कर सकते । लेकिन क्या यह सच नहीं है कि मिठास अब भी जलमें मौजूद है ? वह कुएं के सारे जलके साथ एक रस-एक प्राण होगयी है !
शक्ति और पदार्थ के अविनाशपर विश्वास करनेवाला कोई भी व्यक्ति स्वीकार करेगा कि मिठास नष्ट नहीं हुई । उसका विकास इतना व्यापक होगया है कि उसके अस्तित्वको हमारी जिह्वा अनुभव नहीं कर पा रही है। वैज्ञानिक प्रयोग द्वारा उसके अस्तित्वको जाना जासकता है--सिद्ध किया जासकता है । हमारी इंद्रियां ज्ञानप्राप्तिका एक अत्यंत स्थूल साधन हैं। कुएं के जलमें शक्करके उपस्थित होते हुए भी वे उसके अस्तित्वका ज्ञान प्राप्त न कर सकीं। हमारे प्रयोग भी इसीप्रकार एक सीमाके परे अत्यंत बोथरे हैं । रहस्यके श्रावरणको चीरकर सत्यको सामने करदेनेमें वे एक निश्चित दूरी तक ही हमारा साथ देते हैं । और तब क्या यह सम्भव नहीं है कि अात्म और अनात्मके बीच हमने जो विभाजक रेखा खींची है वह पूर्णतया हमारे अज्ञान और हमारी असमर्थताका ही प्रतीक हो ? क्या यह सम्भव नहीं है कि जिन वस्तुओं को हमने जड़ताकी संज्ञा दे रखी है उनमें चेतनाका अनन्त सागर हिलोरें मार रहा होमुश्किल केवल इतनी ही है कि हमारी स्थूल इंद्रियां और बौनी प्रयोगवीरता उस सागरके तट तक पहुंचने में अक्षम हो ? - अात्म और अनात्म मेरे मतमें किसी एक तत्त्वके दो अंग है-उसकी दो प्रक्रियाएं हैं। यदि शब्दोंको रूढ न किया जाय तो मैं उस तत्त्वको 'महात्म' कह दूं ! वस्तु अपने आप क्या है ? गुणों और व्यापारोंके समुच्चयसे पृथक उसकी क्या कल्पना हो सकती है ? मैं हूं। मैं लिख रहा हूं। मैं बोल सकता हूं। मैं दौड़ सकूगा ! उपरोक्त वाक्यों द्वारा एक व्यक्ति और उसके द्वारा सम्पन्न होनेवाले अथवा हो सकने वाले कुछ व्यापारोंका बोध होता है। व्यापार वह क्रिया है जिसके द्वारा व्यक्ति अपनी अभिव्यक्ति करता है। अस्तित्वके साथ व्यापारका घना सम्बन्ध है । व्यापारके बिना अस्तित्वकी कल्पना भी सम्भव नहीं है । जब हम गाय शब्दका उच्चारण करते हैं, तब उस शब्दका हमारे लिए कोई अर्थ नहीं होता जबतक कि गायके किसी व्यापारका भी बोध न हो। गाय पायी ! गाय गयी ! गाय चाहिये ! अर्थ यह कि गायसे सम्बन्धित किसी न किसी व्यापारके विना गाय शब्द स्वयं अर्थहीन है। शब्द और स्वरूपके बीच युगोंसे स्थापित सम्बन्ध हमारे मानस पटलपर एक चित्र विशेष अंकित करता है। उस चित्रके अर्थ मौन रहते हैं उसके भाव अव्यक्त रहते हैं।
अंगोंके विना अंगीकी जिस प्रकार कल्पना नहीं की जा सकती, उसी प्रकार व्यापारके विना किसी अस्तित्वकी कल्पना सम्भव नहीं है। और क्या है व्यापार १ अस्तित्वकी चैतन्यमयी अभिव्यक्ति ही न ? अात्म और अनात्मको हमने जिस 'महात्म' की दो प्रक्रियाएं कहा वह "महात्म" अपने आपको रूपों, रंगों, गुणों, अनुभूतियों और न जाने कितने प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष व्यापारों द्वारा ही तो अभिव्यक्त कर