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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ हमें उसके अस्तित्वका बोध होजाता है । हथौड़ेसे पीटे जानेपर अथवा श्रागसे तपाये जानेपर परमाणु विखलित होजाते हैं अतएव शक्ति अनियंत्रित होजाती है, फलतः हमें उसका बोध नहीं होता। अनियंत्रितके समुद्र में शक्तिकी बूंदे घुल जाती हैं और जिसप्रकार चीनीका मिठास कुएंके जलमें खोगया था, उसीप्रकार शक्ति भी हमारी बोधकताकी दृष्टिसे अोझल होजाती है।
__अस्तु, हमारा स्थिर मत है कि चेतन और अचेतन दो तत्त्व नहीं, वे एक तत्त्वके दो गुण हैं और कम या अधिक विकसित अवस्थामें प्रत्येक वस्तुमें विद्यमान हैं । जिसप्रकार प्रत्येक पदार्थमें सभी रंगों के ग्रहण करनेकी शक्ति मौजूद है उनके खुदके कोई रंग नहीं हैं रंग सारे सूर्य की किरणोंके हैं-उन्हें ग्रहण करके वे किसी रंग विशेषको परिवर्तित करते हैं, इसलिए वे उस रंगसे रंजित दिखते हैं-उसीप्रकार चेतन अथवा अचेतनके कम व ज्यादा परावर्तनके कारण जड़ अथवा चेतन दिखता है। पीले दिखनेवाले पदार्थ केवल पीले नहीं उनमें सूर्यकी किरणों द्वारा प्रदत्त सारे रंग मौजूद हैं । वह पदार्थ अन्यान्य रंगोंकी तुलनामें पीले रंगको अधिक परिमाणमें परावर्तित कर रहा है। इसीलिए हमें पीला दिखता है। उसीप्रकार प्रत्येक वस्तु किसी महात्म द्वारा प्रकाशित हो रही है । कहीं जड़त्वकी किरणोंका अधिक परिमाण में परिवर्तन होरहा है, कहीं चेतनाकी किरणोंका । इसीलिए हमें कहीं जड़ता तो कहो चेतनाके दर्शन होरहे हैं । हमारी दृष्टिमें, जो चैतन्यको सर्वस्व माने हैं वे भी सृष्टिके रहस्यसे दूर रहे हैं और जिन्होंने जड़को ही सबकुछ समझा वे भी जीवनके वास्तविक तख तक नहीं पहुंच सके। उपनिषदमें जहां विद्या और अविद्याकी व्याख्या करते हुए दोनोंको अपनाकर चलने की बात कही गयी है, वहां हमारी समझमें जड़ और चेतनकी एकताका आभास पाकर ही परम-दृष्टाने दोनोंकी सम्यक् अाराधनाको जीवनका लक्ष्य प्रतिष्ठित किया है । अात्म और अनात्मको पृथक समझकर बहुत कुछ खोया है। जरूरत है कि उनके एकत्वकी प्रतिष्ठा करके उस खोयेको पुनः प्राप्त किया जावे।