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बौद्ध प्रमाण सिद्धान्तोंकी जैन-समीक्षा
ग्रहिता" दोष अाया। प्रथम ज्ञानके साथही प्रमाणका कार्य समाप्त हो जाय गा फलतः उत्तर कालीन बोध व्यर्थ होंगे तथा धारावाही ज्ञानकी उपयोगिता स्वयं समाप्त हो जायगी । जैन इस आपत्तिका युक्ति-युक्त परिहार करते हैं--पदार्थका वास्तविक स्वरूप ही धारावाही बोधकी प्रामाणिकता और उपयोगिता सिद्ध करनेके लिए पर्याप्त है । संसारका प्रत्येक पदार्थ द्रव्य (स्थायि रूप ) तथा पर्याय (परिवर्तन ) मय है अर्थात् पर्याय रूपसे सतत परिवर्तन शील होकर भी द्रव्यरूपसे नित्य है । अतएव कह सकते हैं कि कोई भी पदार्थ बोधके प्रथम क्षणमें जिस रूपमें था उत्तर क्षणमें वैसा ही नहीं रहेगा । किसी भी पदार्थके उदाहरणार्थ 'घट'के धारावाही ज्ञानमें सर्वथा एकही प्रकारका अथवा सर्वथा भिन्न घट कभी भी दो क्षणोंमें सामने नहीं आता है । इस प्रक्रियाके अनुसार धारावाही ज्ञानमें भी हम द्वितीयक्षणमें उसीका ग्रहण नहीं करते जिसे पूर्व क्षणमें ग्रहणकर चुके हैं । श्रापाततः ग्रहीत-ग्राहिताका दोष धारावाही ज्ञानसे परे हो जाता है और उसकी प्रामाणिकता पर आघात नहीं करता है।
नैयायिक भी ग्रहीत-ग्रहिताको बोधकी प्रामाणिकतामें बाधक नहीं मानता है। जयन्त भट्टने अपनी न्यायमंजरीमें' इसका विवेचन किया है और यही निष्कर्ष निकाला है कि ग्रहीत-ग्राहिता अधिकांश साक्षात्कारों में होती है तथा स्मृतिका तो यह असाधारण धर्म है। किन्तु जयन्त भट्टके अनुसार भी एक ऐसी स्थिति है जहां ग्रहीत-ग्राहिता अप्रामाण्यकी जननी होती है। नैयायिक ग्रहीत-ग्रहिताके कारण नहीं, अपितु वस्तु साक्षात्कारके उत्तर कालमें ही उत्पन्न न होनेके कारण स्मृतिकी प्रामाणिकताका निषेध करते हैं । जयन्त भट्टका मत है कि साक्षात्कार जन्य बोधमें हम विषैले सर्प, सिंह, विषाक्त मछली ( Shark ) श्रादि घातक जन्तुअोंको बारम्बार देखते हैं, और विश्वास करते हैं कि हमारा बोध प्रमाण है, उक्त प्राणियोंको घातक मानते हैं और सुरक्षाके स्थानपर चले जाते हैं । इसी प्रकार माला, चन्दन, कपूर, आदिको बारम्बार देखते हैं,
और आत्मबोधमें प्रामाणिकताका विश्वास रहनेके कारण ही इन्हें उपादेय मानते हैं । जयन्त भट्टका तर्क है कि इन पदार्थों के धारावाही ज्ञानमें ग्रहीत ग्राहित्व इसलिए नहीं है कि प्रतिक्षण इन पदार्थों में नये वैशिष्टयोंका उदय होता है, क्योंकि ऐसी कल्पना करने से प्रतिक्षण विशिष्ट अवस्था हो जाती है । सच तो यह है कि इसप्रकारके बोधकी प्रामाणिकताकी ग्रहीत ग्राहिता अनिवार्य कारण नहीं है । इस कथनमें एक मनोहरमनोवैज्ञानिक तथ्य निहित है-साधारणतया ऐसा विश्वास है कि नवीन विशेषताओंका उदय ही एक पदार्थको सतत ज्ञानका विषय बनाता है किन्तु सूक्ष्म निरीक्षणने स्पष्ट कर दिया है कि सतत जिज्ञासा अथवा बोधके लिए नूतन विशेषताएं अनावश्यक है । जैसा कि जयन्तभट्टके “मनुष्यके असंख्यवार दृष्ट अपने हाथमें नूतन लक्षणोंका अविर्भाव कभी नहीं होता" कथनसे स्पष्ट है । इस क्रमसे जैनों द्वारा स्वीकृत प्रत्यभिज्ञानकी सत्य-ज्ञानता असंभव होजाती है । पुनर्बोधको सत्य ज्ञान माननेका जैन कारण यह है कि यह ज्ञात पदार्थका पुनरुत्थापन है, जिसमें पूर्वज्ञात पदार्थका अाभास मिला रहता है और उसे पुनः ज्ञेय बना देता
१. न्यायमञ्जरीका प्रमाण लक्षण प्रकरण ।