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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ है। जैसाकि उसकी क्षणिकवादकी प्रधान मान्यताके विवेचनसे स्पष्ट है। यहां केवल उन युक्तियोंका विचार करना है जिनके द्वारा योगाचार वाह्यार्थों का अभाव सिद्ध करता है । तर्कके लिए वाह्य जगतकी सत्ताको कल्पना करके योगचार सत्वादियोंसे शास्त्रार्थ प्रारम्भ करता है। यदि वाह्य जगत सत् है तो क्या वह स्वतंत्र, अदृश्य तथा निराकार परमाणुअोके रूपमें है अथवा ऐसे परमाणुओंसे बने पुञ्ज या अवयवियोंके रूपमें है ? इन दो विकल्पोंमेंसे प्रथम तो टिकता ही नहीं है क्योंकि परमाणु आकारका प्रतिभास न होनेके कारण साक्षात्कारके अनुकूल स्थिति ही नहीं है । निराकारका प्रत्यक्ष तो आकाश कुसुमका प्रत्यक्ष होगा। प्रत्यक्ष के विषयको साकार और सहज इन्द्रिय ग्राह्य होना चाहिये । अाकारका स्पष्ट प्रदर्शन प्रत्यक्ष ज्ञेयताका पूर्वचर है' । अतः निरपेक्ष, निराकार, अदृश्य परमाणु प्रत्यक्षका विषय नहीं हो सकते । विज्ञानवादी प्राचार्य भदन्त शुभगुप्त भी अपने मतकी पुष्टि करते हुए यह मानते हैं कि अपने पृथक् एवं अणुरूपमें परमाणु ज्ञेय नहीं है । प्रत्यक्षका विषय तभी होते हैं जब वे स्कन्ध ( समूह ) रूपमें आते हैं ।
किन्तु सौत्रान्तिक शुभगुप्तकी युक्तिकी उपेक्षा करता है और मानता है कि स्कन्ध रूपता भी परमाणुओंको प्रत्ययका विषय नहीं बना सकती है। उसका तर्क है कि अविभाज्य होनेके कारण परमाणु निराकार है । फलतः यदि उसे अपने अविभाज्य स्वभावसे भ्रष्ट नहीं करना है तो वह स्कन्धरूप होकर भी कोई पारिमाडल्य (आकार ) नहीं ग्रहण करेगा। परमाणुओंके स्कन्धकी कल्पना शब्द विज्ञानमें नित्य शब्द सन्तानकी भ्रान्तिके समान है । इसप्रकार सौत्रान्तिक अविभाज्य परमाणुका स्कन्ध रूपमें भी प्रत्यक्ष नहीं मानता है।
अणु या स्कन्धरूपमें परमाणुओंको प्रत्यक्षका अविषय कहकर वह सिद्ध करता है कि परमाणु सिद्ध न किये जानेके कारण उससे बने अवयवी (स्कन्ध) का अनुमान भी नहीं किया जा सकता है । अवयविसाधक अनुमान निम्न प्रकार है- “वस्तु अवयवी स्थूलत्त्वात् पर्वतादिवत् ।" इस अनुमानमें हेतु 'स्थूलत्वात्' का विश्लेषण करनेपर ज्ञात होता है कि साध्य वस्तुमें तथा दृष्टान्त पर्वतमें इसकी कल्पना मात्र कर ली गयी है । वह दोनोंमें नहीं है क्योंकि 'सूक्ष्म प्रचय रूप' को छोड़कर और स्थूल है क्या ? यह भी नहीं कह सकते कि जो पर्वतादिके समान दिखते हैं वे स्थूल हैं और जो द्वथणुकादिके समान अदृश्य हैं वे सूक्ष्म हैं । क्योंकि यह धर्मी वस्तुमें द्विरूपता (द्वैत) को उत्पन्न कर देगा। फलतः भेद निरुद्देश्य है । तथोक्त स्थूल दृश्य होनेपर भी अपने निर्माता अदृश्य परमाणुओंके पुंजसे कैसे पृथक् सिद्ध किया जा सकता है ? यतः 'स्थूलत्व' हेतु 'अवयवी' साध्यमें नहीं है फलतः वह 'असिद्ध हेतु का निदर्शन होगा। ऊपरि लिखित कारणोंसे ही हेतु 'पर्वतादि' दृष्टान्तमें भी नहीं है। अतः वह 'साधन विकल' होगा। यदि 'सत्' वादी कहे कि 'रूप' अथवा साकारता जो समस्त 'देश वितान' युक्त पदार्थों में पायी
१ "आत्माकारप्रतिभासित्वेन प्रत्यक्षस्य व्याप्तिवत् ।" त. सं. प. पू. ५५१ । २ त. सं. श्लो. १९७२ ।।