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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
भी ये दोनों ग्रन्थ प्रभाचन्द्रकी पद्धति अनुस्यूत हैं और उनपर प्रभाचन्द्रके व्याख्याग्रंथोंका खासा प्रभाव है । इस काल में लघु अनन्तवीर्य, अभयदेव, वादी देवसूरि, अभयचन्द्र, हेमचंद्र, मल्लिषेणसूरि, श्राशाधर, भावसेन त्रैविद्य, अजितसेन, अभिनव धर्म भूषण, चारुकीर्त्ति, विमलदास, उपाध्याय यशोविजय, आदि विद्वानोंने अपनी रचनाओं द्वारा जैनन्यायको संक्षेप और विस्तारसे सुपुष्ट किया है। इस युगकी रचनात्रों में लघु अनन्तवीर्यं की प्रमेयरत्नमाला, अभयदेवकी सम्मतितर्कटीका, वादी देवसूरिका प्रमाणनयतत्त्वा लोकालंकार और उसकी स्वोपज्ञटीका स्याद्वादरत्नाकर, अभयचंद्रकी लघोयस्त्रयवृत्ति, हेमचंद्रकी प्रमाणमीमांसा, मल्लिषेणसूरिकी स्याद्वादमंजरी, श्राशाघरका प्रमेयरत्नाकर, भावसेन त्रैविद्यका विश्वतत्त्वप्रकाश, अजित सेनकी न्यायमणिदीपिका, चारुकीर्त्तिकी अर्थप्रकाशिका और प्रमेयरत्नमालालंकार ( प्रमेयरमालाकी टीकाएं ) विमलदासकी सप्तभंगितरंगिणी और उपाध्याय यशोविजयके, जो ई० १७ वीं शतीके अन्तिम तार्किक हैं, सहस्त्री टिप्पण, ज्ञानबिन्दु, जैनतर्कभाषा विशेषरूप से उल्लेखयोग्य जैनन्यायग्रंथ हैं। अंतिम तीन विद्वानोंने अपने न्याय ग्रंथों में नव्यन्यायशैलीको भी, जो गङ्ग शउपाध्याय प्रभृति मैथिल नैयायिकों द्वारा प्रचलित की गयी थी, अपनाया है और उससे अपने न्याय ग्रंथोंको सुवासित एवं समलंकृत किया है । इनके बाद जैनन्यायकी धारा प्रायः बन्द सी हो गयी और उसमें आगे कोई प्रगति नहीं हुई ।
इस तरह जैनविद्वानोंने जहां जैनन्यायका उच्चतम विकास करके भारतीय ज्ञानभण्डारको समृद्ध बनाया है वहां जैन साहित्यकी सर्वाङ्गीण समृद्धि और विपुलश्रीको भी परिवर्द्धित एवं सम्पुष्ट किया है, यह प्रत्येक भारतीय विशेषकर जैनोंके लिए गौरव और गर्वकी वस्तु है ।
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