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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
तीसरा द्वन्द्व था नित्य और अनित्यका । नित्यवादी कथन करता था कि वस्तु नित्य है । यदि वह अनित्य हो तो उसके नाश होजानेके बाद फिर यह दुनिया और स्थिर विविध वस्तुएं क्यों दिखती है ? अनित्यवादी कहता था कि वस्तु प्रतिसमय नष्ट होती है वह कभी स्थिर नहीं रहती। यदि नित्य हो तो लोगोंका जन्म, मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं होना चाहिये ।
चौथा संघर्ष था सर्वथा भेद और सर्वथा अभेदको स्वीकार करनेका । सर्वथा भेदवादीका कहना था कि कार्य-कारण, गुण-गुणी और सामान्य-सामान्यवान् आदि सर्वथा पृथक् पृथक् हैं, अपृथक नहीं । यदि अपृथक् हों तो एकका दूसरेमें अनुप्रवेश होजानेसे दूसरेका भी अस्तित्व टिक नहीं सकता। इसके विपरीत सर्वथा अभेदवादी प्रतिपादन करता था कि कार्य-कारण आदि सर्वथा अपृथक् हैं; क्योंकि यदि वे पृथक् पृथक् हों तो जिसप्रकार पृथक् सिद्ध घट और पटमें कार्य-कारणभाव या गुण गुणीभाव नहीं है उसी प्रकार कार्य-कारणरूपसे अभिमतों अथवा गुण गुणीरूपसे अभिमतोंमें कार्य-कारण भाव और गुण गुणीभाव कदापि नहीं बन सकता है ।
पांचवां संघर्ष था अपेक्षकान्त और अनपेक्षकान्तका। अपेक्षकान्तवादी कहता था कि वस्तुसिद्धि अपेक्षासे होती है । कौन नहीं जानता कि प्रमाणसे ही प्रमेय की सिद्धि होती है और इसलिए प्रमेय प्रमाणापेक्ष है ? यदि वह उसकी अपेक्षा न करे तो प्रमेय सिद्ध नहीं हो सकता। अनपेक्षावादीका तर्क था कि सब पदार्थ निरपेक्ष हैं कोई भी किसीकी अपेक्षा नहीं रखता । यदि रखे तो परस्पराश्रय होनेसे एक भी सिद्ध नहीं हो सकेगा।
छठा संघर्ष था हेतुवाद और अहेतुवादका । हेतुवादी कहता था कि हेतु-युक्तिसे सब सिद्ध होता है प्रत्यक्षादिसे नहीं, क्योंकि प्रत्यक्षसे देख लेनेपर भी यदि वह हेतुको कसौटीपर नहीं उतरता तो वह कदापि श्रदधेय नहीं है-"युक्त्या यन्न घटमुपैति तदहं दृष्टापि न श्रदधे । अहेतु-आगमवादीका कथन था कि अागमसे हरेक वस्तुका निर्णय होता है। यदि आगमसे वस्तुका निर्णय न माना जाय तो हमें ग्रहोपरागादिका कदापि ज्ञान नहीं होसकता है क्योंकि उसमें हेतुका प्रवेश नहीं है ।
सातवां संघर्ष था दैव और पुरुषार्थका । दैववादीका मत था कि सब कुछ भाग्यसे होता है । यदि तुम्हारे भाग्यमें न हो तो वह तुम्हें नहीं मिल सकती। पुरुषार्थवादी घोषित करता था कि पुरुषार्थसे ही सब कुछ होता है विना पुरुषार्थके भोजनका ग्रास भी मुहमें नहीं आ सकता।
. इसतरह कितने ही संघर्ष दार्शनिकोंमें उस समय चल रहे थे। ये दार्शनिक अपने अपने दृष्टिकोणको तो बड़ी ताकतसे उपस्थित करते थे और उसका जी तोड़ समर्थन भी करते थे, परन्तु दूसरेके दृष्टिकोणको समझने और उसका समन्वय करनेका प्रयत्न नहीं करते थे । जैनतार्किक समन्तभद्रने इन दार्शनिकोंके दृष्टिकोणोंको न केवल समझनेका ही प्रयास किया, अपितु उनके समन्वयका भी अभूतपूर्व प्रयत्न किया । उन्होंने स्याद्वाद न्याय और उसके फलित सप्तभङ्गीवादकी विशद योजना द्वारा उक्त
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