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जैन-न्यायका विकास इन नित्य-अनित्य-एकान्तवादी दार्शनिकोंको 'सर्वथा' एकान्तके अाग्रहको छोड़कर दूसेरेकी दृष्टिको भी समझना और अपनाना चाहिये ।
इस तरह समन्तभद्रने उपस्थित सभी संघर्षोंका शमन करके तार्किकोंके लिए एक नई दिशाका प्रदर्शन किया और उन्हें स्याद्वादन्यायसे वस्तुव्यवस्था होनेकी अपूर्व दृष्टि बतलायी। उनका स्पष्ट कहना था कि 'भाव-अभाव, एक-अनेक, नित्य-अनित्य अादि जो नय (दृष्टिभेद ) हैं वे 'सर्वथा' माननेसे तो दुष्ट ( विरोधादि दोषयुक्त ) होते हैं और 'स्यात्'-- कथंचित् (एक अपेक्षासे ) माननेसे वे पुष्ट होते हैं—वस्तुस्वरूपका पोषण करते हैं । अतएव सर्वथा नियमके त्यागी और अन्य दृष्टिकी अपेक्षा करनेवाले 'स्यात्' शब्दके प्रयोग अथवा 'स्यात्' की मान्यताको जैनन्यायमें स्थान दिया गया है । और निरपेक्ष नयोंको मिथ्या तथा सापेक्ष नयोंको वस्तु (सम्यक् ) बतलाया गया है।' लेखका कलेवर बढ़जानेके भयसे हम अन्य संघर्षों के समन्तभद्रोदित समन्वयात्मक समाधानोंको इच्छा न होते हुए भी छोड़ते हैं और गुणज्ञ पाठकांसे उनके प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन और स्वयम्भूस्तोत्र नामक ग्रन्थोंसे उक्त समाधानोंको जाननेका नम्र अनुरोध करते हैं ।
__ यहां एक बात और उल्लेख योग्य है वह यह कि समन्तभद्रने प्रमाण-लक्षण, नयलक्षण, सप्तभङ्गीलक्षण, स्याद्वादलक्षण, हेतुलक्षण, प्रमाणफलव्यवस्था आदि जैनन्यायके कतिपय अङ्गों-प्रत्यङ्गोंका प्रदर्शन किया, जो प्रायः अब तक नहीं हुअा था अथवा अस्पष्ट था। अतएव समन्तभद्रको जैनन्यायविकासके प्रथम युगका प्रवर्तक कहना अथवा इस प्रथम युगको समन्तभद्रकालके नामसे उल्लेखित करना सर्वथा उचित है । समन्तभद्रके इस महान् कार्य में श्रीदत्त, पूज्यपाद, सिद्धसेन, मल्लवादी, सुमति और । पात्रत्वामी प्रभृति जैन विद्वानोंने अपनी महत्त्वपूर्ण रचनात्रों द्वारा उल्लेखनीय गति दी है । सन्मतितर्क तो समन्तभद्रके सूत्रात्मक कथनांका विशद और अनुपम भाष्य है। समन्तभद्रने जिस बातको संक्षेपमें अथवा संकेतरूपमें कहा था उसको सिद्धसेनने उसी समन्तभद्रप्रदर्शित पद्धतिसे पल्लवित एवं सुविस्तृत करके अपनी अनोखी प्रतिभाका प्रदर्शन किया है और समस्त एकान्तवादोंका समन्वय करके अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। श्रीदत्तका जल्पनिर्णय, पूज्यपादका सारसंग्रह और सर्वार्थसिद्धि, सिद्धसेन,
१. सदेक-नित्यवक्तव्यास्तद्विपक्षाश्च ये नयाः । सर्वथेति प्रदुष्यन्ति पुष्यन्ति स्यादितीहिते ॥ सर्वथानियमत्यागी यथादृष्टिमपेक्षकः । स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ।। स्वयं० १०१, १०२ ॥
य एव नित्यक्षणिकादयो नया मिथोऽनपेचाःस्वपरप्रणाशिनः । त एव तत्त्वं विमलस्य ते मुनेः परस्परेक्षाः खपरोपकारिणः ।। स्वयं० ६१ ।
निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् । आ० मी० १०८। मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थ हेतु नशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः । परस्परक्षा पुरुषार्थ हेतुदृष्टा नयास्तद्वदसि क्रियायाम् ।। युक्त्य० ५१ ।
१५० अजितकुमारजी शात्री आदि विद्वानोने भी यह स्वीकार किया है, देखो उनका 'स्याद्वादको न्यायके ढांचेमें टालनेवाले आद्य विद्वान्' शीर्षक निबन्ध, जैनदर्शन-स्याद्वादाक (पृ. १७०) वर्ष २, अंक ४--५ ।
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