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जैन - न्यायका विकास संघर्षोंका बुद्धिमत्तापूर्ण ढंगसे शमन किया और भारतीय दर्शनक्षेत्र में न केवल अद्भुत क्रान्ति पैदा की किन्तु उत्तरवर्ती जैनतार्किकोंके लिए एक प्रशस्त मार्गका निर्माण भी किया और इसीसे कलङ्क, विद्यानन्द जैसे महान् जैनतार्किकोंने उन्हें इस कलियुगका स्याद्वादतीर्थ प्रभावक, स्याद्वादाग्रणी, आदि रूपसे स्मृत किया है । हम पहले कह आये हैं कि यद्यपि स्याद्वाद और सप्तभङ्गों का प्रयोग श्रागमों में तदीय विषयोंके निरूपणमें होता था परन्तु अपेक्षा अनपेक्षा, दैव- पुरुषार्थ, हेतुवाद- अहेतुवाद जैसे विषयों में भी स्याद्वाद और सप्तभङ्गों का प्रयोग और उनकी अत्यन्त विशद योजना सर्वप्रथम समन्तभद्रके ग्रन्थोंमें ही दृष्टिगोचर होते हैं । उन्होंने 'नययोगान्न सर्वथा', 'नयैर्नयविशारदः' ४ जैसे पदप्रयोगों द्वारा नयवादसे वस्तु व्यवस्था होनेका विधान बनाया ओर 'कथञ्चित्ते सदेवेष्टं "", 'सदेव सर्वेको नेच्छेत् स्वरूपादिचतुष्टयात् ६ जैसे वचनों द्वारा उस विधानको व्यवहार रूप दिया ।
उन्होंने उक्त संघर्षों का शमन किसप्रकार किया ? और लोगोंके एकान्त ग्रहको दूर करके उन्हें वस्तुव्यवस्था के साधनभूत अमोघ औषध स्याद्वादका दर्शन किस प्रकार कराया ?
पहले संघर्षके बारेमें वे कहते हैं कि वस्तुको कथंचित् भावरूप और कथंचित् अभावरूप मानिये । दोनोंको सर्वथा - सब प्रकार से केवल भावात्मक ही माननेमें दोष हैं'; क्योंकि केवल भावरूप ही वस्तुको माननेपर प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अन्योन्याभाव और अत्यन्ताभाव इन प्रभावोंका लोप हो जायगा और उनके लोप होनेपर वस्तु क्रमशः अनादि, अनन्त, सर्वात्मक और स्वरूपहीन हो जावेगी । इसीप्रकार केवल अभावरूप वस्तुको माननेपर भावका लोप होजायगा और उसके लोप होजानेपर प्रभाव का साधक ज्ञान अथवा वचन रूप प्रमाण भी नहीं रहेगा तब किसके द्वारा तो प्रभावैकान्तका साधन किसके द्वारा भावैकान्तका निराकरण किया जासकेगा ? विरुद्ध होनेसे दोनों एकान्तोंका मानना एकान्तवादियों के लिए संभव नहीं है और श्रवाच्यतैकान्त श्रवाच्य होनेसे ही युक्त है । अतएव वस्तु कथंचित् – स्व- द्रव्य, स्व-क्षेत्र, स्व-काल और स्वभावकी अपेक्षा से अस्तित्व - भावरूप ही है और कथंचित्पर-द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर भावकी अपेक्षा से नास्तित्व- भावरूप ही है । घड़ा अपनी अपेक्षा से
१. 'तीर्थं सर्व पदार्थ तच्च विषय- स्याद्वाद- पुण्योदधेभव्यानामकलंकभावकृतये प्राभावि काले कलौ ।
येनाचार्यं समन्तभद्रयतिना तस्मै नमः सन्ततं ॥ ' - अष्टश, पृ १
२. सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं । दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि || '
- पंचास्तिकाय गा. १४ ।
३. आ. मी. का. १४ । ४ आ. मी. का. २३ । ५ आ. मी. १४ । ६ आ. मी. १५ ।
७ देखो. आ० मी० १४, १५ । ८ देखो, आ० मी. ९, १०, ११, १२. १३ ।
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