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जैन-न्यायका विकास चार निबन्ध तो केवल न्याय शास्त्रपर ही लिखे हैं। इन चार निबन्धोंमें न्याय विनिश्चय बड़ा है और सिद्धि विनिश्चय, प्रमाण संग्रह तथा लघीयत्रय उससे छोटे हैं । न्याय विनिश्चयमें ४८०, सिद्धिविनिश्चयमें (अज्ञात), प्रमाणसंग्रहमें ८७६ और लघीयस्त्रयमें ७८ मूलकारिकाएं हैं । इनकी स्वोपज्ञ वृत्तियोंका परिमाण उनसे अलग है। यहां हम अकलङ्कदेवके उक्त दोनों कार्योंका कुछ दिग्दर्शन करा देना आवश्यक समझते हैं। अकलङ्कदेवका दृषणोद्धार
(क ) समन्तभद्रने प्राप्त मीमांसामें मुख्यतः प्राप्तकी सर्वज्ञता और उनके स्याद्वाद उपदेशकी संसिद्धि की है और सर्वज्ञता -- केवल ज्ञान तथा स्याद्वादमें साक्षात् असाक्षात् सर्वतत्त्व प्रकाशनका भेद बतलाया है । कुमारिलने सर्वज्ञतापर और धर्मकीर्तिने स्याद्वाद (अनेकान्त सिद्धान्त ) पर क्रमशः मीमांसा श्लोकवार्तिक और प्रमाणवार्तिक में आक्षेप किये हैं। कुमारिलने लिखा है
‘एवं यैः केवलज्ञानमिन्द्रियाद्यानपेक्षिणः। सूक्ष्मातीतादिविषयं जीवस्य परिकल्पितम् ॥
नर्ते तदागमात्सिद्धयेन च तेनागमो विना ।'- मीमां. पृ. ८७ । अर्थात् जो सूक्ष्मादि विषयक अतीन्द्रिय केवलज्ञान पुरुषके माना है वह जैन मान्यतानुसार आगमके विना सिद्ध नहीं होता और उसके विना अागम सिद्ध नहीं होता और इसलिए सर्वज्ञताके मानने में अन्योन्याश्रय दोष अाता है । अकलङ्कदेव कुमारिलके इस दूषणका परिहार करते हुए जवाब देते हैं:
एवं यत्केवलज्ञान मनुमानविजृम्भितम् । नर्ते तदागमात् सिद्ध्येत् न च तेन विनाऽऽगमः ॥ सत्यमर्थबलादेव पुरुषातिशयो मतः ।
प्रभवः पौरुषेयोऽस्य प्रबन्धोऽनादिरिष्यते ॥- न्यायविनि. ४१२, ४१३ । अर्थात् 'यह सच है कि केवलज्ञान आगमके विना और आगम केवलज्ञानके विना सिद्ध नहीं होता तथापि अन्योन्याश्रय दोष नहीं; क्योंकि पुरुषातिशय ( केवलज्ञान ) अर्थबल (प्रतीतिवश ) से ही माना जाता है और इसलिए बीजाकुरकी तरह उनका (अागम और केवल ज्ञानका) प्रबन्ध अनादि ( सन्तान प्रवाह रूप ) बतलाया गया है ।
(ख) धर्मकीर्तिका स्याद्वाद–अनेकान्त-सिद्धान्तपर यह श्राक्षेप है१ देखो, आप्तमीमांसा कारिका ५ और ११३ । २. 'स्याद्वाद-केवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च ह्यस्त्वन्यतमं भवेत् ॥'--आ. मी. १०५ ।
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