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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
का सन्मतितर्क, मल्लवादिका नयचक्र और पात्रस्वामीका त्रिलक्षण-कदर्थन प्रभृति जैनन्यायरचनाएं इस कालकी महत्त्वपूर्ण कृतियां है। इनमें जल्पनिर्णय, सारसंग्रह और त्रिलक्षणकदर्थन अनुपलब्ध हैं और शेष अाज भी उपलब्ध हैं । मेरा ख्याल है कि इस कालमें और भी अनेक न्याय-ग्रन्थ रचे गये होंगे, क्योंकि जैन विद्वानोंमें पठन-पाठन, उपदेश और ग्रन्थरचनाकी प्रवृत्ति सबसे ज्यादा और मुख्य रहतो थी। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान शान्तरक्षित ( ई० ७ वी ८ वीं) और उनके शिष्य कमलशीलने तत्वसंग्रह और उसकी विशाल टीकामें जैनतार्किक सुमति, पात्रस्वामी आदिके ग्रन्थ-वाक्योंको उधृत करके उनका अालोचन किया है। परन्तु उनके वे ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हो रहे हैं। इस तरह इस समन्तभद्रकालमें जैनन्यायकी एक योग्य और उत्तम भूमिका तैयार हो गई थी।
२ अकलङ्क काल--इस भूमिकापर जैनन्यायका उत्तुंग और सर्वांग सुन्दर महान् प्रासाद जिस कुशल और तीक्ष्ण बुद्धि शिल्पीने खड़ा किया वह है अकलङ्क । समन्तभद्रकी तरह अकलङ्कके कालमें भी जबर्दस्त दार्शनिक क्रान्ति हो रही थी। एक तरफ शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि, प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल, न्यायनिष्णात उद्योतकर प्रभृति वैदिक विद्वान थे तो दूसरी तरफ धर्मकीर्ति और उनके तर्कपट शिष्य एवं व्याख्याकार प्रज्ञाकर, धर्मोत्तर, कर्णकगोमि आदि बौद्ध तार्किक थे । शास्त्रार्थों और शास्त्रोंके निर्माणकी पराकाष्ठा थी। प्रत्येक दार्शनिककी हर चन्द कोशिश प्रायः यही होती थी कि किसी तरह अपने पक्षका साधन और परपक्षका निराकरण करके अपनी विजय और अपने सिद्धान्तकी प्रतिष्टा की जाय, तथा प्रतिवादी विद्वानकी पराजय और उसके सिद्धान्तकी मखौल उड़ायी जाय । यहां तक कि विरोधी विद्वानके लिए 'पश', वह्नीक' जैसे अशिष्ट और अश्लील पदोंका प्रयोग करना साधारण सी बात हो गयी थी। वस्तुतः यह काल जहां तर्कके विकासका मध्यान्ह है वहां इस कालमें न्यायका बड़ा विरूप और उपहास हा है । अनुमानके उत्कृष्ट नियमों द्वारा छल, जाति, निग्रह स्थानोंको वस्तुनिर्णयमें उपयोगी बतलाकर सारोप समर्पित करना, केवल हेतुको ही शास्त्रार्थका अङ्ग मानना, क्षणिकवाद, नैरात्म्यवाद, विज्ञानवाद, शून्यवाद आदि ऐकान्तिक वादोंका समर्थन करना इस युगका कार्य रहा है। अकलंकने देखाकि न्यायका पवित्र मार्ग बहुत कुछ मलिन होचुका है और समन्तभद्रकी अनूठी स्याद्वादन्यायकी भूमिका अनय विशारदोंने दूषित एवं विकृत करदी है तो उन्होंने दो कार्य किये- एक तो न्यायमार्गको निर्मल बनाया और दूसरा कितना ही नया निर्माण किया। यही कारण है कि उन्होंने अपने प्रकरणों ( ग्रन्थों ) में
१ देखो, तत्त्वसंग्रह पृ. ३७९, ३८६ ३८३ आदि ।
२ श्रवण बेलगोलाके चन्द्रगिरि पर्वतपर शक सं १०५० में उत्कर्ण शिलालेख न. ५४।६७में सुमतिदेवके 'सुमति सप्तक' नामके एक महत्वपूर्ण तर्क ग्रन्थका उल्लेख मात्र मिलता है ।--ले०।
३ देखो, न्यायविनिश्चयकी पहली कारिका जो पहले, फुटनोटमें उद्धृत की जाचुकी है। ४ तत्वार्थवार्तिक, आप्तमी- मांसा भाज्या (अष्टशती), सिद्धिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह और लघीयत्रय ये छह ग्रन्थ ।
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