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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
तो स्वरूप है और वस्त्रादि पर पदार्थों की अपेक्षा से नास्तित्व- अभावरूप है और इस तरह उसमें अपेक्षाभेद से दोनों विधि निषेध धर्म मौजूद हैं । यही समस्त पदार्थों की स्थिति है । अतः भाववादी का कहना भी सच है और प्रभाववादीका कथन भी सच है । सिर्फ शर्त यह है कि दोनोंको अपने अपने एकान्तग्रहको छोड़ देना चाहिये और एक दूसरेकी दृष्टिका आदर करना चाहिये ।
दूसरे संघर्षको दूर करते हुए वे प्रतिपादन करते हैं कि वस्तु ( सर्व पदार्थ समूह ) सत्सामान्य ( सत् रूप ) से तो एक है और द्रव्य आदिके भेदसे अनेकरूप है । यदि उसे सर्वथा एक ( अद्वैत ) मानी जाय तो प्रत्यक्ष दृष्ट क्रिया-कारकभेद लुप्त होजायेगा; क्योंकि एक ही स्वयं उत्पाद्य और उत्पादक दोनों नहीं बन सकता - उत्पाद्य और उत्पादक दोनों अलग अलग होते हैं। इसके सिवाय, सर्वथा अद्वैत स्वीकारमें प्रतीत पुण्य-पापका द्वैत, सुख-दुःखका द्वैत, इहलोक - परलोकका द्वैत, विद्या श्रविद्याका द्वैत और बन्ध-मोक्षका द्वैत नहीं बनसकते हैं । इसीतरह यदि वस्तु सर्वथा अनेक हो तो सन्तान ( पर्यायों और
अतएव दोनों एकान्तोंका समुच्चय ही वस्तु है और इसलिए दोनों एकान्तवादियों को त्यागकर दूसरेके अभिप्रायका मान करना चाहिये । तभी पूर्ण वस्तु सिद्ध होती है अन्य कोई दोष उपस्थित नहीं होता ।
अनुस्यूत रहनेवाला एक द्रव्य ), समुदाय, साधर्म्य और प्रेत्यभाव आदि कुछ नहीं बन सकेगा । अपने एकान्त हठको और विरोध अथवा
तीसरे संघर्षका समाधान करते हुए वे कहते हैं कि वस्तु कथंचित् नित्य भी है और कथंचित् अनित्य भी । द्रव्यकी अपेक्षासे तो वह नित्य है और पर्यायकी अपेक्षा से अनित्य है । वस्तु न केवल द्रव्यरूप ही है क्योंकि परिणामभेद और बुद्धि भेद पाया जाता है । और न केवल पर्यायरूप ही है क्योंकि 'यह वही है जो पहले था' इस प्रकारका अभ्रान्त प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय होता है । यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो उनमें विकार ( परिवर्तन ) नहीं बन सकता है। इसके साथही पुण्य-पापकर्म और उनका प्रेत्यभाव फल ( जन्म-मरण सुख दुःख आदि ) एवं बन्धमोक्ष यदि कुछ नहीं बनते हैं । इसीतरह यदि वस्तु सर्वथा अनित्य हो तो प्रत्यभिज्ञान प्रत्यय न हो सकनेसे बद्धको ही मोक्ष आदि व्यवस्था तथा कारणसे ही कार्योत्पत्ति आदि सब गड़बड़ होजायगा । जिसने हिंसाका अभिप्राय किया वह हिंसा नहीं कर सकेगा और जिसने हिंसाका अभिप्राय नहीं किया वह हिंसा करेगा । तथा जिसने न हिंसाका अभिप्राय किया और न हिंसा की वह कर्मबन्धसे युक्त होगा और उस हिंसा के पाप से मुक्त कोई दूसरा होगा, क्योंकि वस्तु सर्वथा अनित्य- दाणिक है | अतएव वस्तुको, जो द्रव्य-पर्यायरूप है, द्रव्यकी अपेक्षासे तो नित्य और पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य दोनों रूप स्वीकार करना चाहिये । और तब हिंसा के अभिप्रायवाला ही हिंसा करता है और वही हिंसक, हिंसा फल भोक्ता एवं उससे मुक्त होता है, यदि व्यवस्था सुसंगत होजाती है | अतः
१ देखो. आ० मी. का. ३४, २४, २५, २८, २९, आदि। यहाँ भी सप्तभङ्गीकी योजना प्रदर्शित की गयी है । २ देखो, आ. मी. का. ५६, ३७, ४०, ४१, ५१ आदि ।
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