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जैनन्यायका विकास
शुरू कर दिया । उधर वैदिक परम्परामें बादको कणाद, गौतम (अक्षपाद ), वादरायण, जैमिनि, आदि महा उद्योगी वैदिक विद्वानोंका आविर्भाव हुआ और उन्होंने भी अपने वैदिक सिद्धांतों एवं मान्यताओं का संरक्षण प्रयत्न करते हुए अश्वघोषादि बौद्ध विद्वानांके खण्डन मण्डनका सयुक्तिक जवाब दिया । इसी संघर्षमें ईश्वरकृष्ण, असंग, वसुबन्धु, विन्ध्यवासी, वात्स्यायन प्रभृति कितने ही विद्वान् दोनों परम्पराश्रो में और हुए । इस तरह उस समय सभी दर्शन अखाड़े बन चुके थे और एक दूसरे दर्शनके विद्वानको परास्त करनेके लिए तत्पर ही नहीं, बल्कि जुट चुके थे । इस सबका आभास हमें उस कालमें रचे गये अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन, कणाद, गौतम, जैमिनि, वादरायण, प्रभृति विद्वानोंके उपलब्ध साहित्यसे स्पष्टतया होता है। जब ये विद्वान् अपने अपने दर्शनके एकान्त पक्षों और मान्यताअोके समर्थन तथा पर-पक्ष निराकरणमें लगे हुए थे तब इसी समय दक्षिण भारतके क्षितिजपर जैन परम्परामें समन्तभद्र का उदय हुश्रा । ये प्रतिभाकी मूर्ति और क्षात्रतेजसे सम्पन्न थे । उनका सूक्ष्म और अगाध पाण्डित्य तथा समन्वयकारिणी प्रतिभा ये सब बेजोड़ थे। इसीसे उन्होंने विद्वानोंमें सर्वोच्च स्थान प्राप्त कर लिया था' । अतएव श्रीयुत एस० एस रामस्वामी अाय्यंगर, एम० ए. जैसे विश्रुत विद्वानोंको भी निम्न उद्गार प्रकट करने पड़े हैं
'दक्षिण भारतमें समन्तभद्रका उदय, न सिर्फ, दिगम्बर सम्प्रदायके इतिहासमें ही, बल्कि संस्कृत साहित्यके इतिहासमें भी एक खास युगको अंकित करता है२
समन्तभद्रके समयमें जिन एकान्तवादोंका अत्यधिक प्राबल्य था और जिनका समन्वय करनेके लिये उन्हें अभूतपूर्व लेखनी उठानी पड़ी वे प्रायः निम्न थे
भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यकांत, अनित्यकांत, भेदैकांत, अभेदैकांत, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, आदि ।
भावैकान्तवादीका कहना था कि सब भावरूप ही है.-अभावरूप कोई भी वस्तु नहीं है 'सर्वे सर्वत्र विद्यते'-सब सब जगह है न कोई प्रागभावरूप है, न प्रध्वंसाभावरूप है, न अन्योन्याभावरूप है,
और न अत्यंताभावरूप है । इसके विपरीत अभाववादी कहता था कि सब जगत अभावरूप है-शून्यमय है, जो भावमय समझता है वह मिथ्या है। यह दाशनिकोंका पहला संघर्ष था।
- दूसरा संघर्ष था एक और अनेकका । एक (अद्वैत ) वादी कहता था कि वस्तु एक है, अनेक नहीं, अनेकका दर्शन केवल माया विजृम्भित है। इसके विरुद्ध अनेकवादी सिद्ध करता था कि पदार्थ अनेक हैं—एक नहीं है । यदि एक हो तो एकके मरनेपर सबका मरना और एकके पैदा होनेपर. सबके पैदा होनेका प्रसङ्ग अावेगा जोकि न दृष्ट है और न इष्ट है।
१ जसा कि आचार्य जिनसेन ( ई० ९ वीं शती) ने आदि पुराणमें कहा है
"कवीनां गमकानां च वादिनां वाग्मिनामपि । यशः समन्तभद्रीय मूर्षिन चूडामणीयते ।।" २ रेखों. 'स्टेडीज इन साऊथ इण्डियन जैनिज्म' ।