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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
कि “जिस प्रकार समुद्रमें समस्त नदियां अवतरित होती हैं उसी प्रकार तुम्हारे ( स्याद्वादशासन ) में समस्त एकान्त दृष्टियां अवतीर्ण हैं । परन्तु जिस प्रकार पृथक् पृथक् नदियोंमें समुद्र नहीं देखा जाता उसी तरह पृथक् पृथक् एकान्त दृष्टियोंमें तुम्हारा स्याद्वादशासन ( अनेकान्तशासन ) नहीं देखा जाता।" फलितार्थ यह हुआ कि जैनन्याय ( स्याद्वाद ) का उद्गम इतर न्यायों (नित्यत्वादि एकान्त समर्थक दृष्टियों ) से न होकर सुदूरवर्ती स्याद्वादात्मक दृष्टिवाद नामके बारहवें श्रुताङ्ग ( सूत्र) से हुआ है। हां, यह जरूर है कि पिछले कुछ कालोंमें उक्त न्यायोंके क्रमिक विकासके साथ जैन न्यायका भी क्रमिक विकास हुश्रा है और उनकी विविध शास्त्र रचना जैन न्यायकी विविध शास्त्ररचनामें प्रेरक हुई है। . जैनन्यायका विकास
जैनन्यायके विकासको तीन कालोंमें बांटा जा सकता है और उन कालोंके नाम निम्न प्रकार रखे जा सकते हैं:
१. समन्तभद्र-काल (ई० २०० से ई० ६५० तक)। २. अकलंक-काल (ई० ६५० से ई० १०५० तक)।
३. प्रभाचन्द्र-काल (ई० १०५० से ई० १७०० तक)। १. समन्तभद्र-काल-जैनन्यायके विकासके प्रथमकालका नाम समन्तभद्रकाल है । स्वामी समन्तभद्र ने भारतीय दार्शनिक क्षेत्रके जैनदर्शनक्षेत्रमें युगप्रवर्तकका कार्य किया है । उनके पहले जैनदर्शनके प्राणभूत तत्त्व स्याद्वादको प्रायः आगमरूप ही प्राप्त था और उसका यागमिक तत्त्वोंके निरूपणमें ही उपयोग होता था और सीधी सादी विवेचना कर दी जाती थी-विशेष युक्तिवाद देनेकी उस समय आवश्यकता न होती थी; परन्तु समन्तभद्रके समयमें उसकी अत्यन्त आवश्यकता महसूस हुई क्यों कि ऐतिहासिक विद्वान् जानते हैं कि विक्रमकी दूसरी, तीसरी शताब्दीका समय भारत वर्षके इतिहासमें अपूर्व दार्शनिक क्रान्तिका समय रहा है । इस समय विभिन्न दर्शनोंमें अनेक क्रान्तिकारक विद्वान पैदा हुए हैं । यद्यपि भगवान् महावीर और महात्मा बुद्ध के कालमें यज्ञप्रधान वैदिक परम्पराका बढ़ा हुअा प्रभाव काफी कम हो गया था और श्रमण-जैन तथा बौद्ध परम्पराका प्रभाव सर्वत्र व्याप्त हो चुका था; लेकिन कुछ शताब्दियोंके बाद ही वैदिक परम्पराका प्रभाव पुनः प्रस्तुत हुअा और वैदिक विद्वानों द्वारा श्रमण परम्पराके सिद्धांतोंकी नुक्ता-चीनी और काट-छांट प्रारम्भ हो गयी । फलस्वरूप श्रमणपरम्परा-बौद्धपरम्परामें अश्वघोष, मातृचेट, नागार्जुन प्रभृति विद्वानोंका प्रादर्भाव हुआ और उन्होंने भी वैदिक परम्पराके सिद्धान्तों एवं मान्यताओंका सबलताके साथ खण्डन और अपने सिद्धांतोंका मण्डन, प्रतिष्ठापन तथा परिष्कार करना
१ "सुत्तं अट्ठासीदि-लक्ख-पदेहि ८८००००० अबंधी अवलेवओ अकत्ता अभोत्ता णिग्गुणो सवगओ अणुमेत्तो णत्थि जीवा जीवो चेव अत्थि पुढवियादीणं समुदएण जीवो उप्पज्जइ णिच्चेयणो णाणेण विणा सचेयणो णिच्चो अणिच्चो अप्येति वण्णेदि । तेरामिय णियदिवाद विण्णाणवादं सद्दवादं पहाणवादं दववादं पुरिसवाद च वष्णेदि ।--धवला, जिल्द १. पृ०११० ।
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