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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
भी मानते ही हैं कि विपर्यास भी निर्मूल नहीं है । जीव अनादिकालसे मिथ्यात्व, अज्ञान और अविरति इन तीन परिणामोंसे परिणत होता है । इन्हों परिणामोंके कारण यह संसारका सारा विपर्यास है, इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि हम संसारका अस्तित्व मानते है तो व्यवहार नयके विषयका भी अस्तित्व मानना पड़ेगा। वस्तुतः निश्चयनय भी तब तक एक स्वतन्त्र नय है जब तक उसका प्रतिपक्षी व्यवहार नय मौजूद है।
यदि व्यवहार नय नहीं तो निश्चय भी नहीं । यदि संसार नहीं तो मोक्ष भी नहीं। संसार और मोक्ष जैसे परस्पर सापेक्ष हैं उसी प्रकार व्यवहार और निश्चय भी परस्पर सापेक्ष हैं ।
प्राचार्य कुन्दकुन्दने परम तत्वका वर्णन करते हुए इन दोनों नयोंकी सापेक्षताको ध्यानमें रखकर ही कह दिया है कि वस्तुतः तत्त्वका वर्णन न निश्चयसे हो सकता है न व्यवहारसे क्योंकि ये दोनों नय अमर्यादितको, अवाच्यको,मर्यादित और वाच्य बना कर वर्णन करते हैं । अतएव वस्तुका परमशुद्ध स्वरूप तो पक्षातिकान्त है । वह न व्यवहार ग्राह्य है न निश्चय ग्राह्य । जैसे जीवको व्यवहारके श्राश्रयसे. बर कहा जाता है और निश्चयके आश्रयसे अबद्ध कहा जाता है । साफ है कि जीवमें अबद्धका व्यवहार भी बद्धकी अपेक्षासे हुआ है अतएव श्राचार्य ने कह दिया कि वस्तुतः जीव न बद्ध है और न अनद्ध किन्तु पक्षाति क्रान्त है । यही समयसार है, यही परमात्मा है 3 व्यवहार नयके निराकरण के लिए निश्चय नयका अवलंबन है किन्तु निश्चय नयावलम्बन ही कर्तव्यको इतिश्री नहीं है । उसके आश्रयसे आत्माके स्वरूपका बोध करके उसे छोड़ने पर ही तथ्यका साक्षात्कार संभव है । प्राचार्य के प्रस्तुत मतके साथ नागार्जुनके निम्नमतकी तुलना करना चाहिए ।
शून्यता सर्वदृष्टीनां प्रोक्ता निःसरणं जिनैः । येषां तु शून्यता दृष्टिस्तान साध्यान् बभाशिरे ॥
माध्य. १३.८॥ शून्यमिति न वक्तव्यमशून्यमिति वा भवेत् । उभयं नोभयं चेति प्रज्ञप्त्यर्थं तु कथ्यते ॥
माध्य. २२-११॥ प्रसंगसे नागार्जुन और प्रा. कुंदकुंदकी एक अन्य बातभी तुलनीय है जिसका निर्देश भी उपयुक्त है । प्राचार्य कुंदकुंदने कहा है
१-सयसार ९६ । २ समयसार तात्पर्य. पृ. ६९ ३. कम्मं बद्धमबद्ध जीवे एवं तु जाण नय पक्खं । पक्कंखातिकतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो॥
समयसार १५२. ।
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