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श्राचार्य कुन्दकुन्दकी देन दूधके रूपका अभिभव करके उसमें रहती है वैसे ज्ञान भी प्रथों में है । तात्पर्य यह है दूधगत मणि स्वयं द्रव्यतः संपूर्ण दूधमें व्याप्त नहीं है, फिर भी उसकी दीतिके कारण समस्त दूध नीलवर्ण दिखायी देता है । इसीप्रकार ज्ञान संपूर्ण अर्थ में द्रव्यतः व्याप्त नहीं होता है तथापि विचित्र शक्ति के कारण अर्थको जान लेता है इसलिए अर्थ में ज्ञान है ऐसा कहा जाता है । इसीप्रकार यदि अर्थ में ज्ञान है तो ज्ञानमें भी अर्थ है यह भी मानना उचित है । क्योंकि यदि ज्ञानमें अर्थ नहीं तो ज्ञान किसका होगा ? इसप्रकार ज्ञान और अर्थका परस्पर प्रवेश न होते हुए भी विषय विषयी भावके कारण 'ज्ञानमें अर्थ' और 'अर्थ में ज्ञान' इस व्यवहारकी उपपत्ति आचार्यने बतलायी 1
ज्ञान दर्शन यौगपद्य-
वाचक उमास्वामि द्वारा पुष्ट केवलीके ज्ञान और दर्शनका यौगपद्य श्र० कुन्दकुन्दने भी माना है । विशेषता यह है कि आचार्यने यौगपद्य के समर्थन में दृष्टान्त भी दिया है कि जैसे सूर्य के प्रकाश और ताप युगपद् होते हैं वैसे ही केवलीके ज्ञान और दर्शनका यौगपद्य है ।
"जुगवं वट्टइ गाणं केवलणाणिस्स दंसणं तहा । दियर पयासतापं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ॥”
सर्वज्ञका ज्ञान-
आचार्य कुन्दकुन्दने अपनी अभेद दृष्टिके अनुरूप निश्चय दृष्ठिसे सर्वज्ञकी नयी व्याख्या की है । और भेददृष्टिका अवलंबन करनेवालों के अनुकूल होकर व्यवहार दृष्टिसे सर्वज्ञकी वही व्याख्या की है जो श्रागमोंमें तथा वाचकके तत्त्वार्थ में भी है । उन्होंने कहा है
"जादि पस्सदि सव्वं वत्रहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि नियमेण अप्पा" ॥४
र्थात् व्यवहारदृष्टिसे कहा जाता है कि केवली सभी द्रव्योंको जानते हैं किंतु परमार्थतः वह श्रात्माको ही जानते हैं ।
सर्वज्ञके व्यावहारिक ज्ञानकी वर्णना करते हुए उन्होंने इस बातको बलपूर्वक कहा है कि त्रैका लिक सभी द्रव्यों और पर्यायोंका ज्ञान सर्वज्ञको युगपद होता है ऐसा ही मानना चाहिये ।" क्योंकि यदि वह त्रैकालिक द्रव्यों और उनके पर्यायोंको युगपद न जानकर क्रमशः जानेगा तब तो वह किसी एक द्रव्यको भी
१. प्रवचन० १ ३० ।
२. बडी ३१ ।
३. नियमसार १५९ ।
४, नियमसार १५८ ।
५. प्रवचन० १ ४७.
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