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वर्णो-अभिनन्दन-ग्रन्थ
उन्होंने प्रात्माको ही उपनिषदकी भाषामें सर्वस्व बताया है और उसीका अवलम्बन मुक्ति है ऐसा प्रतिपादन किया है।
श्राचार्य कुन्दकुन्दकी अभेद दृष्टिको इतनेसे भी संतोष नहीं हुआ। उनके सामने 'विज्ञानाद्वैत तथा अात्माद्वैतका भी आदर्श था। विज्ञानाद्वैत वादियोंका कहना है कि ज्ञानमें ज्ञानातिरिक्त बाह्य पदार्थोंका प्रतिभास नहीं होता, 'स्व'का ही प्रतिभास होता है । ब्रह्माद्वैतका भी यही अभिप्राय है कि संसारमें ब्रह्मातिरिक्त कुछ नहीं है । अतएव सभी प्रतिभासोंमें ब्रह्म ही प्रतिभासित होता है ।
इन दोनों मतोंके समन्वयकी दृष्टि से प्राचार्यने कह दिया कि निश्चयदृष्टि से केवलज्ञानी अात्माको ही जानता है; बाह्य पदार्थोंको नहीं । ऐसा कह करके तो श्राचार्य ने जैनदर्शन और अद्वैतवादका अन्तर बहुत कम कर दिया है और जैनदर्शनको अद्वैतवादके निकट रख दिया है। प्राचार्य कुंदकुंदकृत सर्वज्ञकी उक्त व्याख्या अपूर्व है और उन्हींके कुछ अनुयायियों तक सीमित रही है । दिगम्बर जैन दार्शनिक अकलंकादिने भी इसे छोड़ ही दिया है। ज्ञानकी स्वपर प्रकाशकता--
दार्शनिक में यह एक विवादका विषय रहा है कि ज्ञानको स्वप्रकाशक, परप्रकाशक या स्वपर - प्रका शक माना जाय । वाचकने इस चर्चाको ज्ञानके विवेचनमें छेड़ा ही नहीं है। सम्भवतः प्राचार्य कुन्दकुन्द ही प्रथम प्राचार्य हैं जिन्होंने बौद्ध-वेदान्त सम्मत ज्ञानकी स्वपर-प्रकाशकतापरसे इस चर्चाका सूत्रपात जैनदर्शनमें किया। श्रा• कुन्दकुन्दके बादके सभी प्राचार्योंने प्राचार्य के इस मन्तव्यको एक स्वरसे माना है।
आचार्यकी इस चर्चाका सार नीचे दिया जाता है जिससे उनकी दलीलोंका कम ध्यानमें श्रा जायगा-(नियमसार १६०-१७०)
प्रश्न-यदि ज्ञानको परद्रव्यप्रकाशक, दर्शनको स्वद्रव्यका (जीवका) प्रकाशक और आत्माको स्वपरप्रकाशक माना जाय तब क्या दोष है ? (१६०)
उत्तर-यही दोष है कि ऐसा मानने पर ज्ञान और दर्शनका अत्यन्त वैलक्षण्य होनेसे दोनोंको अत्यन्त भिन्न मानना पड़ेगा। क्योंकि ज्ञान तो परद्रव्यको जानता है, दर्शन नहीं। (१६१)
___ दूसरी आपत्ति यह है कि स्व-परप्रकाशक होनेसे आत्मा तो परका भी प्रकाशक है अतएव वह दर्शनसे जो कि परप्रकाशक नहीं है, भिन्न ही सिद्ध होगा । ( १६२)
अतएव मानना यह चाहिए कि ज्ञान व्यवहार नयसे परप्रकाशक है और दर्शन भी । आत्मा भी व्यवहारनयसे ही परप्रकाशक है और दर्शन भी (१६३)
१. समयसार १६-२१ । नियमसार ९५-१०० २. नियमसार १५७ ।
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