________________
वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
इस प्रकार जब सांख्य और वेदान्त दर्शन श्राकाशको स्वतंत्र श्रनादि पदार्थ स्वीकार कर लेते हैं तो उन्हीं की मान्यता के अनुसार उसकी प्रकृति अथवा परब्रह्मसे उत्पत्ति कैसे मानी जा सकती
? तथा जिस प्रकार उक्त दोनों की दृष्टिमें आकाश स्वतंत्र पदार्थ है ? उसी प्रकार उक्त पत्तियोंकी वजहसे पृथ्वी, जल, अग्नि और वायुको भी प्रकृति और पुरुष अथवा पर ब्रह्मसे पृथक् स्वतंत्र पदार्थ मानना ही उचित है ।
उपसंहार
उपर्युक्त विवेचनसे यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि सांख्य और वेदांत दोनों दर्शनों की तत्त्व विचारणा में जिन पांच स्थूल भूतोंका उल्लेख किया गया है वे जैन दर्शनमें वर्णित प्राणीके शरीरकी अवयवभूत पांच स्थूल इद्रियोंके अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं। इसी प्रकार पांच तन्मात्राएं उक्त इन्द्रियोंकी उपादान कारणभूत पांच नोकर्म वर्गणाओंके अतिरिक्त, पांच ज्ञानेन्द्रियों पांच लब्धीन्द्रियोंके अतिरिक्त और पांच कर्मेन्द्रियां पांच उपयोगेंद्रियों के अतिरिक्त दूसरी कोई वस्तु तर्क संगत नहीं रहती है । इनके अतिरिक्त जैनदर्शन तथा नैयायिक आदि दूसरे वैदिक दर्शनों में जिन स्वतंत्र पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंका विवेचन पाया जाता है उन पांचों तत्वों का सांख्य तथा वेदान्त दोनों हो दर्शनों में निषेध नहीं किया गया है। अर्थात् दोंनों ही दर्शनों को उनकी तत्त्व व्यवस्थामें आये हुए तत्वोंके अतिरिक्त उन तत्त्वोंकी स्वतंत्र सत्ता भी है। केवल उन तत्त्वों को उन दोनों दर्शनोंने अपनी तत्त्व व्यवस्था में इसलिए स्थान नहीं दिया है कि उन तत्त्वों का वस्तु स्थिति वादसे ही उपयुक्त संबंध बैठता है सांख्य और वेदान्त दर्शनों के आधारभूत अध्यात्म वाद से उनका कोई संबंध नहीं । स्पष्ट है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनों की जैन दर्शनके उपयोगिता वाद (अध्यात्मवाद) के साथ काफी समानता है । इसी तरह यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि नैयायिक और वैशेषिक दर्शनोंकी जैन दर्शन के अस्तित्ववाद (वस्तुस्थिति वाद ) के साथ काफी समानता है ।
३६