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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
उस दिनका चावल बहुत सुस्वादु था" यह सुनकर भी ऊबती न थीं। बहुमूल्य शाल दशालों, रेशमी दुपट्टों, चादरों, रेशमी साफों, कुर्तों और अंगूठियोंको अनायास किसी गरीब याचकको देखकर वहीं कहीं दे देनेकी तो न जाने कितनी घटनाएं हैं। यह प्रवृत्ति आज भी उनमें बनी हुई है।
हरिपुर ग्राममें पं० ठाकुरप्रसाद द्विवेदीजी के पास पढ़ते थे। एक जड़ बुद्धि ब्राह्मण विद्यार्थी साथ था। पठन-पाठनसे ऊब कर और विद्यार्थी जीवनसे अपना और किसी प्रकार पिण्ड छूटता न देखकर, उसने एक दिन कहा--"पढ़ने में क्या रखा है ? दोनों जने गंगाजीमें डूबकर कष्टप्रद जीवन समाप्त कर दें और तमाम झंझटोंसे मुक्ति पा लें ।" वव वर्णीजीका अनन्य मित्र था। सखाको कोई मानसिक कष्ट न हो अपनी इस दयावृत्ति और बन्धुत्व भावसे वे उसके प्रस्तावसे सहमत हो गये। दोनों व्यक्ति गुप चुप एक इक्का करके झूसी आये। मनमें उठते हुए नाना विकल्पों और भयने ब्राह्मण विद्यार्थीको हठसे पीछे ढकेल दिया और वह छिपकर वर्णीजीको सोता छोड़ कर न जाने कहां चम्पत हो गया।
सुबह उठते ही मित्रको गायब पाकर मन में आया 'भला गुरुदेवको अपना मुह कैसे दिखाता। क्योंकि वहांसे बिना आज्ञाके भागकर जो आये थे। यदि गये तो बहुत लजित होना पड़ेगा और जो भी सुनेगा वह भी उपहास करेगा। इस हंसी ठिठोली और शर्मनाक स्थितिसे तो अब कायोत्सर्ग ही भला । इसी उधेड़-बुनमें मस्त हम गंगा घाट पर चले गये ।' अंटीके पचास रुपये और सारे वस्त्र घाट पर रख दिये और नग्न होकर श्रावण की गंगामें कूद पड़े। आधा मील बहनेके बाद होश आया कि पैर पान में चल रहे हैं। गंगाका दूसरा किनारा पास दिखायी पड़ा तथा वे पानी काटते हुए उस ओर पहुँच गये । खड़े हुए तो अपनेको नग्न देख कर शर्म मालूम हुई । उसी प्रकार घाटकी तरफ लौट पड़े। बीचमें तीव्र धाराओंकों पार करना शक्तिसे बाहर था। "मैं धाराको न काट सका और वहां पानीमें गुटके खाने लगा। जीवन और मरणके हिंडोलेमें झूलते हुए मुझे एक मल्लाहने देख लिया और साधुको डूबता समझ मुझे सहारा देकर अपनी नौकामें चढ़ा लिया। मैं थकान और घबड़ाहटसे अचेत सी अवस्था में घाट पर पहुंचा । देखा वस्त्र सब यथास्थान रखे हुए हैं। चित्तमें यह विचार आया कि कर्म-रेखाएं अमिट हैं, किसी के कुछ करनेसे क्या होता है । जो होनहार और भवितव्य है वह होकर ही रहता।" इस प्रकार लोक हास्यसे बचनेकी भावना तथा भावुकताके पूरमें वर्णीजी ने 'पूर्वोपार्जित कर्म अपरिहार्य हैं, भाग्य साथ नहीं छोड़ता' इस अडिग आस्थाको पाया। किन्तु इस संकल्पने उन्हें पुरुषार्थसे विरत नहीं किया । वे पुरुषार्थ करते हैं और विश्वास रखते हैं कि पुण्योदय होगा तो इच्छित कार्य अवश्य ही होगा। इसीलिए तो लिखा था “यहां लोग नाना प्रकारसे रोकनेकी चेष्टा कर रहे हैं। मैं प्रकृतिसे जैसा हूं आप लोगोंसे छिपा नहीं। जो चाहे सो मुझे बहका लेता है। मैं अन्तरंगसे तो कटनी आना चाहता हूं। जबलपुर और सागर दो इस मार्गमें प्रतिबन्धक हैं, शरीरकी शक्ति इतनी प्रबल नहीं जो स्वयं आ सकू' । देखें कौन सा मार्ग निकलता
चौवन