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खतौली की आंखें
मुजफ्फरनगर जिलेके इस खतौली उपनगरमें जैनधर्मके अनुयायियोंकी अच्छी संख्या तथा सामाजिक स्थिति है। लौकिक कार्योंके साथ-साथ आत्माराधनकी प्रवृत्ति यहां पं० हरगूलाल जी, मलजी
आदिके समयसे चली आयी है। तो भी काल दोषसे यहांके लोग भी केवल बाह्य प्रभावनामें मस्त रहने लगे थे। ऐसे ही समय सन् १९२४में पूज्य पं० गणेशप्रसादजी वर्णी हस्तिनापुरसे लौटने पर यहां रुके । मझौले कदका श्याम शरीर, खद्दरका परिधान तथा माथेके श्वेतप्राय केश देखकर लोगोंकी दृष्टि ठिठक गयी ! लोगोंको लगा सिद्धि देवी (स्व० पू० माता चिरोंजाबाईजी) ज्ञानबालकको लिये घूम रही हैं । महाराज एक सप्ताह रुके 'परमात्म प्रकाश का स्वाध्याय चला। लोगोंने समझा कि उनके सुपरिचित पूज्य आदर्श तपस्वी बाबा भागीरथजीका कथन ही ठीक है । ऐसा न होता तो ज्ञानमूर्ति वर्णीजी मूर्तिमान तप बावाजी ही की बात--केवल बाह्य आचरण से ही पार न लगे गी–का, साफ-साफ व्याख्यान क्यों करते।
सन् १९२५ में गतवर्षकी प्रार्थना स्वीकार कर पूज्य बाबाजी तथा वर्णीजीने खतौलीमें चतुर्मास किया। पं० दीपचन्द्र जी वर्णी भी आगये थे । चतुर्मास भर ज्ञान-वृष्टि चली। बाबा वणी के मुखसे धर्मका मर्म सुनकर लोग अपने आपको भूल जाते थे। किन्तु वर्णीजीको ध्यान था कि साधन विन यह धर्मचर्चा अधिक दिन न चलेगी। बोले "सम्यग्ज्ञान दायी विशाल संस्कृत विद्यालय होता तो कितना अच्छा होता।" और चुप हो गये । लोग सम्हले,-न चतुर्मास सदा रहेगा, न साधु समागम और न यह ज्ञानवर्षा भी रहेगीबातकी बातमें दश हजार का चन्दा हुआ और 'कुन्द कुन्द विद्यालय' की स्थापना हो गयी।
सबलोग गुरुओं के सामने सरल तथा समझदार मालूम पड़ते थे । जन्म और कुलका घमंड भी दबासा लगा। किन्तु ; दस्से-किसी सामाजिक भूल या अपराध वश बहिष्कृत लोग-मन्दिर में आयेंगे ? मन्दिर अपवित्र हो जायगा, मूर्तियोंपर उपसर्ग आ पड़ेगा, नहीं ये कभी भी मन्दिरकी देहली न लांघ सकेंगे। चिर उपेक्षित दस्सा भाई भी इस धार्मिक दंडको सहते सहते ऊब गये थे पर लाचार थे। दुर्भाग्य वश कुछ मन चले स्थानकवासी साधु आ पहुंचे । दस्सा भाईयोंने सोचा 'चलो क्या बुराई है जैनी तो रहेंगे, कौन सदा अपमान सहे । सप्रदाय परिवर्ननकी तयारियां चल रहो थी । युवक इस धर्महठसे दुखी थे । वृद्धोंसे अनुनय विनय की 'तुम्हें तो धर्म डुवाना ही है। हमारी जिन्दगी भर तो
अंटावन