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शब्दनय
इस परिवर्तनका विद्वत्-समाजने अादर किया-अकलंकदेवके बादमें होने वाले प्रायः समस्त दिगम्बर तथा श्वेताम्बर दार्शनिकोंने अपने ग्रन्थों में उसे स्थान दिया। अतः अकलंक देवकी दृष्टि से ही हम इस विषय पर विचार करना उपयुक्त समझते हैं। अकलंकदेव अपने 'लधीयस्त्रय' प्रकरणमें लिखते हैं
कालकारक लिंगानां भेदाच्छब्दोऽर्थ भेदकृत् ।
अभिरूढ़स्तु पर्यायै रित्थं भूतः क्रियाश्रयः ॥ स्वोप० विवृति-कालभेदात् तावद् 'अभूत्' 'भवति' 'भविष्यति' इति । कारकभेदात् , 'करोति' 'क्रियते' इत्यादि । लिंगभेदात् 'देवदत्तः' 'देवदत्ता' इति । पर्यायभेदात् इन्द्रः, शक्रः, पुरन्दर इति । तथा एतौ कथितौ। क्रियाश्रय एवंभूतः । ___अर्थ-"काल, कारक और लिंगके भेदसे शब्दनय वस्तुको भेदरूप स्वीकार करता है । 'हुश्रा' होता है, होगा' यह कालभेद है । 'करता है, किया जाता है' यह कारक भेद है । 'देवदत्त, देवदत्ता' यह लिंगभेद है, समभिरूढनय शब्दके भेदसे अर्थको भेदरूप मानता है और एवंभूतनय क्रियाके अश्रित है।
जैन दृष्टि से वस्तु अनन्त धर्मात्मक-अनन्तधर्मोंका अखण्ड पिण्ड-है । स्याद्वाद् श्रुतके द्वारा उन धौंका कथन किया जाता है । अतः जैसे ज्ञानका विषय होनेसे वस्तु ज्ञेय है उसी तरह शब्दका वाच्य होनेसे अभिधेय भी है। हम जिन जिन शब्दोंसे वस्तुको पुकारते हैं वस्तुमें उन उन शब्दोंके द्वारा कहे जानेकी शक्तियां विद्यमान हैं । यदि ऐसा न होता तो वे वस्तुएं उन शब्दोंके द्वारा न कहीं जाती
और न उन शब्दोंको सुनकर विवक्षित वस्तुओंका बोध ही होता । जैसे 'पानी' भिन्न भिन्न भाषाओंमें भिन्न भिन्न नामोंसे पुकारा जाता है या एक ही भाषाके अनेक शब्दोंसे कहा जाता है । अतः उसमें उन शब्दोंके द्वारा कहे जानेकी शक्तियां विद्यमान हैं । यह समभिरूढ़ नयकी दृष्टि है । इस नयका मन्तव्य है कि 'पानी शब्द पानो के धर्मकी अपेक्षासे व्यवहृत होता है जल शब्द उस ही धर्मकी अपेक्षासे व्यवहत नहीं होता है। संस्कृतमें पानीको 'अमृत' भी कहते हैं और 'विष' भी। प्यासेको जिलाता है अतः अमृत है और किसी, किसी रोगमें विषका काम कर जाता है अतः विष है। इसलिए अमृत और विष यह दो शब्द पानीके एक ही धर्मको लेकर व्यवहृत नहीं होते।
भिन्न भिन्न शब्दोंके विषयमें जो बात ऊपर कही गयी है वही बात एक शब्दके परिवर्तित रूपोंके विषयमें भी कही जा सकती है । कालभेदसे एक ही वस्तु तीन नामोंसे पुकारी जाती है। जब तक कोई वस्तु नहीं उत्पन्न हुई तब तक उसे 'होगी' कहते हैं । उत्पन्न होने पर होती है' कहते हैं । कुछ समय बीतने पर 'हुई' कही जाती है । यह तीनों शब्द 'होना' धातुके रूप हैं और वस्तुके तीन धर्मोकी ओर संकेत करते हैं। इसी तरह कारक और लिंगके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । भिन्न भिन्न कारकोंकी विवक्षासे एक ही वृक्ष 'वृक्षको' 'वृक्षसे' 'वृक्षके लिए' 'वृक्षमें' आदि अनेक रूपोंसे कहा जाता है। अतः ये शब्द वस्तुके