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जैन दर्शनका उपयोगिता वाद तन्मात्रासे एक एक भूतकी सृष्टिका उल्लेख किया है वह उस उस भूतकी सृष्टिमें उस उस तन्मात्राकी प्रमुखताको ध्यानमें रख करके ही किया है और इस तरह जैन दर्शनकी इस विषयकी मान्यताके साथ इस मान्यताका समन्वय करनेमें सरलता हो जाती है । दो समस्याएं
सांख्य दर्शनकी इस मान्यताका जैनदर्शनकी मान्यताके साथ समन्वय करनेके पहिले यहां पर इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक प्रतीत होता है कि सांख्य दर्शनमें मान्य सृष्टिके इस क्रममें उसके मूल
ष्कर्ताका अभिप्राय पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंको ग्रहण करनेका यदि है तो इस विषयमें यह बात विचारणीय होजाती है कि जब पुरुष नाना हैं और प्रत्येक पुरुषके साथ उल्लिखित एक प्रकृतिका अनादि संयोग है तो भिन्न भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिके विपरिणाम स्वरूप बुद्धि तत्त्वमें भी अनुभवगम्य नानात्व मानना अनिवार्य है और इस तरह अनिवार्य रूपसे नानात्वको प्राप्त बुद्धि तत्त्वके विपरिणाम स्वरूप अहंकार तत्त्वमें भी नानात्व, नाना अहंकार तत्त्वोंके विरिणाम स्वरूप पांच ज्ञानेन्द्रियां पांच कर्मेन्द्रियां मन तथा पांच तन्मात्राएं इन सोलह प्रकारके तत्त्वोंमें भी पृथक् पृथक् रूपसे नानात्व और उक्त प्रकारसे नानात्त्वको प्राप्त इन सोलह प्रकारके तत्त्वोंमें अन्तर्भूत नाना पांच तन्मात्राोंके विपरिणाम स्वरूप पांचों महाभूतोंमें पृथक् पृथक् नानात्व स्वीकार करना अनिवार्य होजाता है। इनमेंसे भिन्न भिन्न पुरुषके साथ संयुक्त प्रकृतिसे भिन्न भिन्न प्राणीकी भिन्न भिन्न बुद्धिका, भिन्न भिन्न प्राणीको भिन्न भिन्न बुद्धिसे उन प्राणियोंके अपने अपने अहंकारका और उन प्राणियोंके अपने अपने अहंकारसे उनकी अपनी अपनी ग्यारह ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियों ( पांच ज्ञानेन्द्रियों; पांच कर्मेन्द्रियों और मन ) का सृजन यदि सांख्यके लिए अभीष्ट भी मान लिया जाय तो भी प्रत्येक प्राणीमें पृथक् पृथक् विद्यमान प्रत्येक अहंकार तत्त्वसे पृथक् पृथक् पांच पांच तन्मात्राओंका सृजन प्रसक्त होजाने के कारण एक एक प्रकारकी नाना तन्मात्राओंसे एक एक प्रचारके नाना भूतोंका सृजन प्रसक्त हो जायगा। अर्थात् नाना शब्द-तन्मात्राोंसे नाना आकाश तत्त्वोंका, नाना स्पर्श तन्मात्रात्रोंसे नाना वायु तत्त्वोंका, नाना रूप तन्मात्राोंसे नाना अग्नि तत्वोंका, नाना रस तन्मात्राओं से नाना जल तस्वोंका और नाना गन्ध तन्मात्राोंसे नाना पृथ्वी तत्त्वोंका सृजन मानना अनिवार्य होगा, जोकि सांख्य दर्शनके अभिप्रायके प्रतिकूल जान पड़ता है। इतना ही नही आकाश तत्त्वका नानात्व तो दूसरे दर्शनोंकी तरह सांख्य दर्शनको भो अभोष्ट नहीं होगा। पांच स्थूल भूतोंसे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश तत्त्वोंका अभिप्राय ग्रहण करनेमें एक आपत्ति यह भी उपस्थित होती है कि जब प्रकृति पुरुषसे संयुक्त होकर ही पूर्वोक्त क्रमसे पांच स्थूल भूतोंका रूप धारण करती रहती है तो जिसप्रकार बुद्धि, अहंकार और ग्यारह प्रकारकी इन्द्रियोंकी सृष्टि प्राणियोंसे पृथक् रूपमें नहीं जाती है