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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
स्थानमें बहुवचन और पुलिंगके स्थानमें स्त्रीलिंग शब्दका प्रयोग करना आदि व्यभिचार कहा जाता है। शब्दनय उस व्यभिचारकी निवृत्ति करता है। कैसे करता है ? इस प्रश्नको लेकर विद्वानोंमें दो मत हो गये हैं । एकमत कहता है कि शब्दनय व्याकरण द्वारा किये जाने वाले परिवर्तनको उचित समझता है “एवं प्रकारं व्यवहारनयं न्याय्यं १ मन्यते" । दूसरा मत इसके विपरीत है। प्रथम मत
हम प्रथम मतसे किसी अंशमें सहमत हैं किन्तु सर्वार्थसिद्धि तथा राजवार्तिकके जिन वाक्योंके आधार पर उक्त मतकी सृष्टि हुई है उनकी समीक्षा करना आवश्यक जान पड़ता है । कल्लापा भरमाप्पा निटवेके जैनेन्द्र प्रेससे प्रकाशित सर्वार्थसिद्धि में उक्त पाठ मुद्रित है। तथा शब्दनयके एक दो स्थलों पर कुछ टिप्पणी भी दी गयी है । पहिली टिप्पणी 'निवृत्तिपरः' पद पर है। उसका आशय है कि, लिंग श्रादिका व्यभिचार दोष नहीं माना जाता, यह शब्दनयका अभिप्राय है।
सम्भवतः 'न्याय्य' पदको शुद्ध मान कर ही उक्त टिप्पणी दी गयी है। किन्तु, यह पद अशुद्ध है इसके स्थान पर 'अन्याय्य' होना चाहिये । सर्वार्थसिद्धि के प्रथम संस्करण से बा. जगरूपसहाय जी वाली प्रति में तथा काशी विद्यालयके भवन की लिखित प्रतिमें 'अन्याय्य' पाठ ही दिया हुआ है। पं. जयचन्द जी कृत वचनिकामें भी 'अन्याय्य' ही है। यदि न्याय्य' पद को शुद्ध मानकर उक्त वाक्य का अर्थ किया जाय तो इस प्रकार होगा- 'इस प्रकार के व्यवहारनय को शब्दनय उचित मानता है' । अर्थात् व्याकरण द्वारा शब्दों में जो परिवर्तन किया जाता है और जिसे प्राचार्य 'व्यभिचार' के नाम से पुकारते हैं वह व्यवहारनय का विषय है। उस व्यवहारनय को शब्दनय उचित माने यह एक आश्चर्य की बात है क्योंकि नयों का विषय उत्तरोत्तर सूक्ष्म होता जाता है । व्यवहारनय से ऋजुसूत्र का विषय सूक्ष्म है और ऋजुसूत्र से शब्दनय का यिषय सूक्ष्म है। यदि शब्दनय व्यवहारनय के विषय का ही समर्थक हो जाय तो नयों के क्रम में तो गड़बड़ी उपस्थित होगी ही, उनकी संख्या में फेरफार करना पड़ेगा।
___ श्राचार्य विद्यानन्दिने अपने श्लोकवार्तिकमें व्यवहारनय पद का अच्छा स्पष्टीकरण किया है । वे कहते हैं “जो वैयाकरण व्यवहारनयके अनुरोधसे कालभेद, कारकभेद, वचनभेद, लिंगभेद, श्रादिके होने पर भी अर्थभेद को स्वीकार नहीं करते, परीक्षा करने पर उनका मत ठीक नहीं जान पड़ता यह शब्दनय का अभिप्राय है"।
इससे यह बात स्पष्ट हो जाती है कि वैयाकरणों का उक्त व्यवहार शब्दनय की दृष्टिमें 'अन्याय्य' ही है 'न्याय्य' नहीं है। अतः मुद्रित सर्वार्थ सिद्धि का पाठ अशुद्ध है। तथा यदि 'न्याय्य' पाठ को ही
१ शपति अर्थमाह्वयति प्रख्यापयति इति शब्दः स च लिंग सख्यां साधनादि व्यभिचारनिवृतिपरः । २ लिंगादीनां व्यभिचारो दोषो नास्ति इत्यभिप्रायपरः । राज० वा० पृ० ६७ । ३ श्लोकवार्तिक पृ० २०२ ।