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शब्दनय
करण करके अकलंकदेवने अपनी अपूर्व प्रतिभाका परिचय दिया। इसके लिये जैनदर्शन उनका सर्वदा ऋणी रहेगा। आलापपद्धतिकारका समन्वय
दो परम्पराअोंका समन्वय करनेके बाद एक तीसरे प्राचार्यका मत अवशिष्ट रह जाता है जिसकी शब्दयोजना उक्त दोनों मतोंसे विलक्षण है, पालापपद्धतिके कर्ता लिखते हैं-'शब्दात् व्याकरणात् प्रकृतिप्रत्ययद्वारेण सिद्धः शब्दनयः' । यह शब्दनयकी लक्षण परक व्युत्पत्ति है। इसका श्राशय है कि, जो व्याकरणसे सिद्ध हो उसे शब्दनय कहते हैं । अर्थात् शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंको अपनाता है । शब्दनय और व्याकरणके पारस्परिक सम्बन्धका स्पष्टीकरण हम ऊपर कर चुके हैं अतः हमारे श्राशयमें इस मतका भी अन्तर्भाव हो जाता है । आधुनिक हिन्दी ग्रन्थोंमें शब्दनय--
___जैन दर्शनके मान्य ग्रन्थोंके अाधारपर शब्दनयका स्पष्टीकरण करनेके बाद अाधुनिक हिन्दी ग्रन्थोंमें वर्णित शब्दनयके स्वरूपके सम्बन्धमें दो शब्द कहना अनुचित न होगा। एक ख्यातनामा टीकाकार लिखते हैं-व्याकरणादि मतसे शब्दोंमें जो परिवर्तन हो जाता है उसका यदि उस परिवर्तनकी प्राकृतिके अनुसार अर्थ किया जावे तो अशुद्ध सा मालूम होगा। अतएव व्याकरणकी रीतिसे उस परिवर्तनको केवल शब्दाकृतिका परिवर्तक एवं अर्थका अपरिवर्तक मानने वाला शब्दनय है। मालूम होता है टीकाकार महोदय एकान्तवादी वैयाकरणोंकी तरह शब्दनयका सम्बन्ध केवल शब्दों तक ही सीमित करना चाहते हैं। शायद उन्होंने अर्थनय और शब्दनयको सर्वथा स्वतंत्र मान लिया है । शब्दनयका यह श्राशय नहीं है कि उसकी सीमा शब्द तक ही परिमित रहे किन्तु शब्दकी प्रधानतासे अर्थका निर्णय करनेके कारण ही उत्तरके तीनों नय शब्दनय कहे जाते हैं ? यदि शब्दनयको केवल शब्दाकृतिका ही परिवर्तक मान लिया जाय तो ऋजुसूत्र समभिरूढ तथा एवंभूत नयसे उसकी संगति कैसे बैठायी जा सकती है । पता नहीं किस शास्त्रके आधारसे इस लक्षणकी कल्पना की गयी है ?