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शब्दनय
शुद्ध माना जाय तो आगे का वाक्य–'अन्यार्थस्य अन्यार्थेन सम्बन्धाभावात्' विल्कुल असंगत हो जाता है। अगर 'न्याय्य' पाठके अनुसार एकवचनान्त और बहुवचनान्त शब्दों का एक ही अर्थ माना जाय तो अन्य अर्थ का अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध हो ही गया । क्योंकि 'जलम्' शब्द और 'आपः' शब्द दोनों का एक ही अर्थ मान लिया गया । अतः 'अभावात्' शब्द व्यर्थ ही पड़ जाता है । किन्तु जब उक्त व्यभिचारों को शब्दनय 'अन्याय्य' कहता है तब इस हेतुपरक वाक्य की संगति ठीक बैठ जाती है । इस प्रकार का व्यवहार अनुचित है क्योंकि अन्य अर्थका अन्य अर्थके साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता" । राजवार्तिकके शब्द स्पष्ट होते हुए भी कोई उनका अनर्थ करके 'न्याय्य' पद का समर्थन करते हैं । वे शब्द इस प्रकार हैं-"लिंगादीनां व्याभिचारो न न्याय्यः इति तन्निवृतिपरोऽयं नयः ।.."एवमादयो व्यभिचारा अयुक्ताः, अन्यार्थस्यान्यार्थेन सम्बन्धाभावात् ।" सर्वार्थसिद्धि की तरह यहां पर भी 'तन्निवृत्तिपरः' शब्दको लेकर मतभेद हो गया है । किन्तु इतना स्पष्ट है कि यह नय व्यभिचारको उचित नहीं मानता । जो महानुभाव 'व्यभिचारो न न्याय्यः' या 'व्यभिचारा अयुक्ता' का यह अर्थ करते हैं कि; शब्दनय लिंगादिकके परिवर्तनको व्यभिचार नहीं मानता तो उनसे हमारा नम्र प्रश्न है कि फिर लिंगादिकका परिवर्तन किसकी दृष्टिमें व्यभिचार समझा जाता है जिसे दूर करनेके लिए शब्दनयकी सृष्टि करनी पड़ी ? व्याकरण शास्त्रकी दृष्टिमें तो यह व्यभिचार है ही नहीं क्यों कि व्याकरणने ही इस प्रकारके परिवर्तन और प्रयोगकी सृष्टि की है । लौकिक दृष्टि से भी दोष नहीं है । क्यों कि लोक तो स्थूल व्यवहारसे ही प्रसन्न रहता है। इसी बातको दृष्टिमें रखकर उक्त दोनों ग्रन्थोंमें व्यवहारनयावलम्बीने तर्क किया है कि, यदि आप इन्हें व्यभिचार समझकर अयुक्त ठहराते हैं तो लोक और शास्त्र (व्याकरण) दोनोंका विरोध उपस्थित होगा इस तर्कका समाधान दोनों प्राचार्योंने एक सा ही किया है । सर्वार्थसिद्धिकार कहते हैं-'विरोध' होता है तो हो यहां तत्वकी मीमांसा की जाती है। तत्त्वमीमांसाके समय लौकिक विरोधोंकी पर्वाह नहीं की जाती कहावत प्रसिद्ध है कि औषधिकी व्यवस्था रोगीकी रुचिके अनुसार नहीं की जाती, रोगीको यदि दवा कडुवी लगती है तो लगने दो' । राजवार्तिककार कहते हैं- 'यहां तत्वकी मीभासा की जा रही है दोस्तोंको दावत नहीं दी जा रही' । सन्मति तर्कके टीकाकार अभयदेवसूरिने भी प्रकारान्तरसे इस अापत्तिका निराकरण किया है । वे कहते हैं- 'व्यवहारके लोपका भय तो सभी नयोंमें वर्तमान है'।
विज्ञ पाठकोंको मालूम होगा कि ऋजुसूत्र नयका विवेचन करते हुए भी व्यवहार लोपका भय दिखाया गया है और उसका उत्तर यह दिया गया है कि लोक व्यवहार सर्व नयोंके श्राधीन है । अभयदेवके
१ "लोकसमयविरोध इति चेत् विरुद्धयताम् तत्त्वमिह मीमांस्यते, न भैषज्यमातुरेच्छानुवति ।" सवार्थ० पृ० ८० । २ "लोकसमयविरोध इति चेत् विरुद्ध्यताम्, तत्त्वं मीमांस्यते (न) सुहृत्सूपचारः" । राजबा० पृ. ६८ । मुद्रित
राजवार्तिकमें (न) नहीं है किन्तु होना चाहिये । ३ "न चैवं लोकशात्र व्यवहार विलोप इति वक्तव्यम्, सर्वत्र व नयमते तद्विलोपस्य समानत्वात् ।“ पृ० ३१६ ।
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