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जैन दर्शनका उपयोगिता वादएवं सांख्य तथा वेदान्त दर्शन। श्री पं० वंशीधर व्याकरणाचार्य, आदि
जैनसंस्कृतिका विवेचन विषयवार चार अनुयोगोंमें विभक्त कर दिया गया है-प्रथमानुयोग, करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग । इनमें से प्रथमानुयोगमें जैनसंस्कृतिके माहात्म्यका वर्णन किया गया है अर्थात् 'जैनसंस्कृतिको अपना कर प्राणी कहांसे कहां पहुंच जाता है" इत्यादि बातोंका दिग्दर्शक प्रथमानुयोग है । प्रथमानुयोगको यदि अथर्ववाद नाम दिया जाय, तो अनुचित न होगा । शेष करणानुयोग, द्रव्यानुयोग और चरणानुयोगको क्रमसे उपयोगितावाद, अस्तित्ववाद ( वस्तुस्थितिवाद)
और कर्तव्यवाद कहना ठीक होगा, क्योंकि करणानुयोगमें प्राणियोंके लिए प्रयोजनभूत उनके संसार मोक्षका ही सिर्फ. विवेचन है, द्रव्यानुयोगमें विश्वको वास्तविक स्थिति बतलायी गयी है और चरणानुयोगमें प्राणियोंका कर्तव्य मार्ग बतलाया गया है। सामान्यतया करणानुयोग और द्रव्यानुयोगका विषय दार्शनिक है इसलिए इन दोनोंको जैनदर्शन नामसे पुकारा जा सकता है । विशिष्ट तत्त्व-पदार्थ व्यवस्था--
विश्वके रंगमंच पर कई दर्शन आये और गये तथा कई इस समय भी मौजूद हैं । भारतवर्ष तो संस्कृतियों और उनके पोषक दर्शनों के प्रादुर्भावमें अग्रणी रहा है। सभी दर्शनोंमें अपने अपने दृष्टिकोण के अनुसार पदार्थों की व्यवस्थाको अपनाया गया है लेकिन किसी दर्शनकी पदार्थ व्यवस्था उपयोगितावाद मूलक है, किसी दर्शनकी अस्तित्ववाद मूलक और किसी दर्शनकी उभय वाद मूलक है । जैनदर्शनमें उपयोगितावाद और अस्तित्ववादके आधार पर स्वतंत्र, स्वतंत्र दो पदार्थ व्यवस्थात्रोंको स्थान प्रात है उपयोगिता वादके आधार पर जीव, अजीव, श्रास्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्षये सात तत्त्व पदार्थ व्यवस्थामें अन्तर्भूत किये गये हैं और आस्तित्ववादके आधार पर जीव,पुद्गल, धर्म,अधर्म,अाकाश
और काल ये छः द्रव्य पदार्थ व्यवस्थासे अन्तर्भूत किये गये हैं। यदि हम सांख्य, वेदान्त, न्याय और वैशेषिक दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्था पर दृष्टि डालते हैं तो मालूम पड़ता है कि सांख्य और वेदान्त दर्शनोंकी पदार्थ व्यवस्थाका अाधार उपयोगितावाद ही माना जा सकता है तथा न्याय और
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