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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
उत्तरसे भी यही प्रतिध्वनि निकलती है। अतः यदि शब्दनय एकान्तके समर्थक व्याकरण शास्त्र और लौकिक व्यवहारका समर्थक होता तो इस भयकी अाशंका न रहती। इसलिए यही निष्कर्ष निकलता है कि मुद्रित सर्वार्थसिद्धि में न्याय्यं' के स्थानपर 'अन्याय्यं' पाठ होना चाहिये ।
.. मुद्रित सर्वार्थसिद्धि में 'न्याय्यं' पदपर एक टिप्पणी दी हुई है । न्याय्यं पदका समर्थक मानकर ही उस टिप्पणको वहां मुद्रित किया गया है ऐसा मैं समझता हूं। टिप्पणीका आशय इस प्रकार है-"जलं पतति' के स्थानपर 'श्रापः पतति यह व्यवहार होता है। यहां अप् शब्दके आगे बहुवचनका वाचक प्रत्ययका लगाना वास्तवमें व्यर्थ ही है..............."फिर भी शब्दानुशासन शास्त्र (व्याकरण शास्त्र) के प्रभावसे ऐसा करना पड़ता ही है । इस आशयको यदि दो भागोंमें विभाजित कर दिया जाय तो हम देखेंगे कि पहिली दृष्टि शब्दनयकी है वह एकवचनके स्थानमें बहुवचनका प्रयोग नहीं स्वीकार करता किन्तु दूसरे हिस्सेको पढ़नेसे हमें मालूम होता है व्याकरणके नियमके अनुसार ऐसा प्रयोग करना पड़ता है, अर्थात् इस प्रकारका व्यवहार शब्दानुशासन शास्त्रकी दृष्टि में न्याय्य है शब्दनयकी दृष्टिमें नहीं। शब्दानुशासन शास्त्र शब्दनयका विषय नहीं है व्यवहार नयका विषय है। अतः यह टिप्पण भी न्याय्य पदका समर्थन नहीं करता।
इस विस्तृत विवेचनसे हम इसी निर्णयपर पहुंचते हैं कि व्याकरण सम्मत व्यवहार या वैयाकरणोंका मत शब्दनयकी दृष्टिमें दूषित है और इसलिए वह उचित नहीं माना जा सकता। दोनों परम्पराओं और शब्दानुशासन तथा शब्दनयका समन्वय--
शब्दनयके सम्बन्धमें जिन दो परम्पराअोंका दिग्दर्शन ऊपर कराया गया हैं उनमें प्राचार्य पूज्यपाद शब्दनयका विषय न बताकर कार्य बतलाते हैं । जब कि अकलंकदेव शब्दनयका विषय प्रदर्शित करते हैं । पूज्यपाद कहते हैं कि शब्दनय व्याकरण सम्बन्धी दोषोंको दूर करता है। कैसे करता है ? इस प्रश्नका उत्तर अकलंक देवके 'लधीयस्त्रय' में मिलता है । वैयाकरणोंके मतके अनुसार एकवचनके स्थानमें बहुवचनका, स्त्रीलिंग शब्दके बदले में पुलिंग शब्दका उत्तम पुरुषके स्थानमें मध्यमपुरुषका प्रयोग किया जाता है। ये महानुभाव शब्दोंमें परिवर्तन मानकर भी उनके वाच्यमें कोई परिवर्तन नहीं मानते हैं। जैसे कूटस्थ नित्यवादी कालभेद होनेपर भी वस्तुमें कोई परिवर्तन नहीं मानता। इसीलिए वैयाकरणोंका यह परिवर्तन व्यभिचार कहा जाता है । यदि वाचकके साथ साथ वाच्यमें भी परिवर्तन मान लिया जाय तो व्यभिचारका प्रसंग ही उठ जाय । अतः यदि वैयाकरण शब्द भेदके साथ साथ अर्थभेदको भी स्वीकार कर लें तो शब्दनय शब्दानुशासन शास्त्रका समर्थक बन सकता है। ऐसी दशामें पूज्यपादका यह कहना कि, शब्दनय व्यभिचारोंको दूर करता है और अकलंकदेवका व्यभिचारोंको दूर करनेके लिए काल, कारक,
आदिके भेदसे अर्थभेदका स्वीकार करना, दोनों कथन परस्परमें घनिष्ठ सम्बन्ध रखते हैं । अतः पूज्यपादने जिस शब्दनयके कार्यका उल्लेख करके उसके विषयको अस्पष्ट ही छोड़ दिया था उसके विषयका स्पष्टी