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शब्दनय
है किन्तु यदि जातिका निर्देश करना हो तो एक वचनमें भी काम चल सकता है। यह एकान्तवादी वैयाकरणोंका मत है । अब अनेकान्तवादी वैयाकरणोंके मतका भी दिग्दर्शन कीजिये । जैन वैयाकरणोंका मत
जैनेन्द्र व्याकरणके रचयिता प्राचार्य पूज्यपाद अपने व्याकरणका प्रारम्भ ‘सिद्धिरनेकान्तात्' सूत्रसे करते हैं । हैम-शब्दानुशासनके रचयिता श्वेताम्बराचार्य हेमचन्द्रने भी 'सिद्धिः स्याद्वादात्' सूत्रको प्रथम स्थान देकर पूज्यपादका अनुसरण किया है जो सर्वथा स्तुत्य है । इन श्राचार्योंका मत है कि अनेकान्तके विना शब्दकी सिद्धि नहीं हो सकती, एक ही शब्दका कभी विशेषण होना, कभी विशेष्य होना, कभी पुलिंगमें व्यपदेश होना, कभी स्त्रीलिङ्गमें कहा जाना, कभी करणमें प्रयोग करना, कभी कर्नामें प्रयोग होना, आदि परिवर्तन एकान्तवादमें नहीं हो सकते । इसीलिए शब्दनयका वर्णन करते हुए अकलंक देवने लिखाहै-'कि एकान्तवादमें षट्कारकी नहीं बन सकती । जैसे प्रमाण अनन्त धर्मात्मक वस्तुका बोधक है अतः उसका विषय सामान्य विशेषात्मक वस्तु कही जाती है, इसी तरह शब्द भी अनन्त धर्मात्मक वस्तुका वाचक है अतः उसका वाच्य न केवल व्यक्ति है और न केवल जाति किन्तु जाति व्यक्त्यात्मक या सामान्य विशेषात्मक वस्तु शब्दका वाच्य है । यह अनेकान्तवादकी दृष्टि है । अतः पाणिनिने व्यक्ति और जातिको स्वतंत्र रूपसे पदका अर्थ मानकर जो 'एक शेष' का नियम प्रचलित किया, पूज्यपाद उसकी कोई श्रावश्यकता नहीं समझते । वे लिखते हैं-शब्द स्वभावसे ही एक दो या बहुत व्यक्तियोंका कथन करता है अतः एक शेषकी कोई आवश्यकता नहीं है ।
पाणिनि और पूज्यपादके इस मतभेदसे यह न समझ लेना चाहिये कि दोनोंके सिद्ध प्रयोगोंमें भी कुछ अन्तर पड़ता है। शब्द सिद्धि में मतभेद होते हुए भी दोनोंके सिद्ध प्रयोगोंमें कोई अन्तर नहीं है। शब्दका जैसा रूप एकान्तवादी वैयाकरण सिद्ध करते हैं वैसा ही अनेकान्तवादी सिद्ध करते हैं केवल दृष्टिका अन्तर है । इस दृष्टि वैषम्यको दूर करनेके लिए ही शब्दनयकी सृष्टि हुई है ।
इतर वैयाकरण वाच्य-वाचक सम्बन्धको मानकर भी दोनोंको स्वतंत्र मानते हैं । वाचकके
१-एकस्यैव हस्त दीघादि विधयोऽनेककारक सन्निपातः सामानाधिकरण्यं विशेषण विशेष्यभावादयश्च स्याद्वाद
मन्तरेण नोपपद्यते" । सिद्ध हैम०। २-'तन्नैकान्ते षटकारकी व्यवतिछत' । न्याय कुमुद पृ० २११ । ३-'जातिव्यक्त्यात्मकं वस्तु ततोऽस्तु ज्ञानगोचरः । प्रसिद्ध बहिरन्तश्च शब्दव्यवहृतीचणात् ॥५॥' . तत्त्वार्थश्लोक वा० पृ० ११०।। ४-स्वाभाविकत्वादभिधानस्यैव शेषानारम्भः, । १।१।९९। जैनेन्द्र सूत्र ।
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