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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
रूपमें परिवर्तन हो जाने पर भी वाच्यके रूपमें कोई परिवर्तन नहीं मानते । किन्तु जैन शब्दिकोंका मत' है-"वाचकमें लिंग, संख्या, श्रादिका जो परिवर्तन होता है वह स्वतंत्र नहीं है किन्तु अनन्त धर्मात्मक बाह्य वस्तुके ही आधीन है। अर्थात् जिन धर्मोंसे विशिष्ट वाचकका प्रयोग किया जाता है वे सब धर्म वाच्यमें रहते हैं। जैसे यदि गंगाके एक ही किनारेको संस्कृतके 'तटः' 'तटी' और 'तटम' इन तीन शब्दोंसे कहा जाय-इन तीनों शब्दोंका मूल एक तट शब्द ही है इनमें जो परिवर्तन हम देखते हैं वह लिंगभेदसे हो गया है--यतः ये तीनों शब्द क्रमशः पुलिंग, स्त्रीलिंग और नपुंसकलिंगमें निर्देश किये गये हैं अतः इनके वाच्यमें तीनों धर्म वर्तमान हैं । क्योंकि वस्तु अनन्त धर्मात्मक है अतः उसमें तीनों धर्म रह सकते हैं । ( यदि कोई व्यक्ति स्त्रीलिंग, पुलिंग और नपुंसकलिंग इन तीनों धर्मोंको परस्परमें विरुद्ध मानकर एकही वस्तुमें तीनोंका सद्भाव माननेसे हिचकता है तो उसे अनेकान्तकी प्रक्रियाका अध्ययन करना चाहिये ) इसी तरह एक दो या बहुत व्यक्तियोंके वाचक दारा, श्रादि शब्दोंमें नित्य बह्वचनका प्रयोग होना और बहत सी वस्तुअोंके वाचक वन, सेना, आदि शब्दोंके साथ एक वचनका प्रयोग करना असंगत नहीं कहा जा सकता । क्योंकि वस्तुके अनन्त धर्मों में से किसी एक धर्मकी अपेक्षा से शब्द व्यहार किया जा सकता है।"
जैन और जैनेतर वैयाकरणोंके इस संक्षिप्त मतभेद प्रदर्शनसे उक्त निर्णयकी रूपरेखाका आभास चित्रित हो जाता है । अतः अब प्राचार्योंके लक्षणों पर विचार करना उचित होगा। शब्दनयके लक्षणों पर विचार
ऐतिहासिक परम्पराके अनुसार शब्दनयके स्वरूपका प्रथम उल्लेख सर्वार्थसिद्धि टीकामें पाया जाता है। उसके बाद दूसरा उल्लेख अकलंकदेवके तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें है जो प्रायः सर्वार्थसिद्धिके उल्लेखसे अक्षरशः मिलता है । इसे हम 'पूज्यपादकी परम्परा' के नामसे पुकार सकते हैं । पूज्यपादने शब्दनयका जो लक्षण लिखा था वह स्पष्ट होते हुए भी अस्पष्ट था-खींचातानी करके उसके शब्दोंका विपरीत अर्थ भी किया जा सकता था, जैसा कि आगे चलकर हुआ भी और जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मेरे सामने उपस्थित है । अतः इस लक्षणको दार्शनिक क्षेत्रमें कोई स्थान न मिल सका । प्रातः स्मरणीय अकलंकदेवने इस कमीका अनुभव किया । यद्यपि उन्होंने अपने राजवर्तिकमें सर्वार्थसिद्धिका ही अनुसरण किया, किन्तु अपने स्वतंत्र प्रकरणोंमें उसकी शब्दयोजनाको बिल्कुल बदल दिया। आर्ष पद्धतिके अनुकूल
१-लिङ्ग संख्यादियोगोऽपि अनन्तधात्मक वाद्यवस्त्वाश्रित एव । न चैकस्य 'तटः तटी तटम्' इति स्त्रीपुनपुस
काख्यं स्वभावत्रयं विरुद्ध, विरुद्धर्माध्यासस्य भेदप्रतिपादकत्वेन निषिद्धत्वात् अनन्तधर्माध्यासितस्य च वस्तुनः प्रतिपादितत्त्वात् । अतएव दारादिध्वर्थेषु बहुत्वसंख्या वनसेनादियु च एकत्वसंख्याऽविरुद्धा यथाविवक्षमनन्तधर्माध्यासिते वस्तुनि कस्यचिद्धर्मस्य केनचिच्छब्देन प्रतिपादनाविरोधात्। सन्मतिः टीका पृ० २६५ ।