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वर्णी- अभिनन्दन ग्रन्थ
दिगम्बर तथा श्वेताम्बर ग्रन्थोंके आलोडनके बाद मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि, शब्दनय व्याकरण सिद्ध प्रयोगोंका अनुसरण तो करता है किन्तु एकान्तवादी वैयाकरणोंका अनुसरण नहीं करता ।
शब्दार्थ मीमांसा—
इस निर्णयकी मीमांसा करनेके लिए शब्दशास्त्र के सम्बन्ध में कुछ कहना आवश्यक है । संसारमें दो वस्तुएँ मुख्य हैं— अर्थ और शब्द । इन दोनोंको क्रमशः वाच्य और वाचक कहते हैं । हम जितने अथको देखते हैं उनके वाचक शब्दों को भी सुनते ही हैं। अर्थ तो हो किन्तु उसका वाचक शब्द न हो, यह आज तक न तो देखा गया और न सुना गया । श्राजकल जितने श्राविष्कार होते हैं उनका नाम पहले से ही निर्धारित कर लिया जाता है । सारांश यह; कि संसारमें कोई चीज विना नामकी नहीं है, इसीसे दार्शनिक क्षेत्रमें प्रत्त्येक दर्शनके मूलतत्त्व अर्थ न कहे जाकर पदार्थ कहे जाते हैं । मध्ययुगके दार्शनिक टीकाकारोंमें यह एक नियम सा हो गया था कि ग्रन्थके प्रारम्भ में शब्दार्थ सम्बन्धकी मीमांसा करना आवश्यक है । शब्द और अर्थके इस पारस्परिक सहभावने 'अद्वैत' का रूप धारण कर लिया जो शब्दाद्वैतके नामसे ख्यात हुआ । पाणिनि व्याकरण के रचयिता श्राचार्य पाणिनिके नाम पर इसे परिणनिदर्शन भी कहा जाता है । जैसे अद्वैतवादी वेदान्ती दृश्यमान संसारके भेदको 'मायावाद' कहकर उड़ा देते हैं उसी प्रकार शब्दाद्वैतवादी वैयाकरणों का मत है कि घट, पट, आदि शब्द एक अद्वैत तत्त्वका ही प्रतिपादन करते हैं । दृश्यमान घट, पट, आदि अर्थ तो उपाधियां हैं; असत्य हैं। जैसा कि कहा है
'सत्यं वस्तु तदाकारै रसत्यैरवधार्यते ।
असत्योपाधिमिः शब्दैः सत्यमेवाभिधीयते ॥'
पाणिनीका मत
यद्यपि सब शब्द एक अद्वैततत्त्वका ही प्रतिपादन लौकिक वाच्य मानना ही पड़ता है, अतः पाणिनि मानते हैं ।
( सर्वदर्शन संग्रह - पाणिनि दर्शन )
करते हैं फिर व्यवहारके लिये शब्दों का व्यक्ति और जातिको पदका अर्थ पदार्थ
पाणिनिके मत अनुसार एक शब्द एक ही व्यक्तिका कथन करता है, अतः यदि हमें बहुत से व्यक्तियोंका बोध कराना हो तो बहुतसे शब्दों का प्रयोग करके “सरूपाणामेकशेष एक विभक्तौ " (१-२-६४) सूत्रके अनुसार एक शेष किया जाता है। जैसे यदि बहुतसे वृक्षोंका निर्देश करना हो तो वृक्ष, वृक्ष, वृक्ष में से रूक ही शेष रह जाता है और उसमें बहुवचनका बोधक प्रत्यय लगाकर 'वृक्षाः' रूप बनता
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१ किं पुनराकृतिः पदार्थः अहोस्त्रिद् द्रव्यम् ? उभयमित्याह । कथं ज्ञायते ? उभयथा हि आचार्येण सूत्राणि पठितानि आकृतिं पदार्थं मत्वा ‘जात्याख्यायामेकस्मिन् बहुवचनम-व्यतरस्याम्' इत्युच्यते द्रव्यं पदार्थं मत्वा 'सरूपाणाम्' इति एक शेष आरम्यते । पातञ्जल महाभाष्य पृ० ५२-५३ ।