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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
जानना अनिवार्य है। इस वास्तविक सिद्धान्तकी उपेक्षा करके यदि सत् वस्तुका विवेचन किया जायगा तो वही हाल होगा जो उस हाथीका हुआ था जिसे अनेक अन्धोंने जाना था। तथा हाथीको खम्भा, सूपा, बिटा, आदि कहकर सर्वथा विकृत कर दिया था। निष्कर्ष
यदि पदार्थके जटिल स्वभावको ठीक तरहसे जानना है तो उसे अनेकान्त दृष्टि से ही देखना चाहिये । इस प्रकार कहा जा सकता है कि तत्त्वज्ञानके लिए जैनदृष्टि अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा अधिक युक्तिसंगत तथा व्यापक है । अन्य दर्शनोंने एक निश्चित सांचा बना दिया है जिसमें डालकर वे सत पदार्थों के ज्ञानको निचोड़ लेना चाहते हैं । जिसकी तुलना प्रक्रिसयिन' पलंगसे की जा सकती है जिस पर डालकर वे सत्पदार्थरूपी पुरुषके अन्य पक्षरूपी अंगोंको काटनेमें नहीं सकुचाते हैं; क्योंकि ऐसा किये विना वह एकान्तके सांचेमें नहीं आता है | इस प्रकार पदार्थके अंगच्छेदको न विज्ञान कहा जा सकता है न दर्शन; यह तो अपने अन्धविश्वासका दुराग्रह ही कहा जा सकता है जिसका उद्गम पदार्थों की एकरूपतासे होता है। यह दृष्टि तत्त्वज्ञानके विपरीत है यह स्वयं सिद्ध है। मनुष्यको वस्तु स्थिति जानना है, वस्तुस्थितिको इच्छानुकूल नहीं बनाना है । इस दृष्टि से विचार करने पर विश्वके दर्शनोंमें जर्मन दार्शनिक हीगलका द्वन्द्व सिद्धान्त ही जैन दृष्टिके निकट पहुंचता है । हीगलकी तत्त्वज्ञान दृष्टि जैनदृष्टिके समान सी है। उसका पक्ष, प्रतिपक्ष तथा समन्वयका सिद्धान्त अस्तिनास्तिवादसे मिलता जुलता है क्योंकि वह भी विरोधियोंमें एकता या भेदका परिहार करता है। किन्तु अन्य बातोंमें हीगलका आदर्शवाद जैन तत्त्वज्ञानसे सर्वथा भिन्न है अतः इस एक सिद्धान्तकी समताके अतिरिक्त दूसरी किसी भी समानताका हम समर्थन नहीं कर सकते । इस दार्शनिक प्रक्रियाको ही हम दार्शनिक ज्ञानका प्रकार कह सकते हैं जो कि वस्तु स्वभावके प्रकाशके लिए उपयुक्त तथा पर्याप्त है क्योंकि सर्वाङ्गसुन्दर वस्तु स्वभाव ही तो ज्ञानका साध्य या लक्ष्य है। इसीलिए जैनाचार्योंने प्रत्येक तत्त्वको जाननेमें व्यापक सिद्धांतका सफल प्रयोग किया है और तत्त्वज्ञान प्राप्तका किया है।
१. क्रश्चियन पुराणों में प्रोक्रष्टियन' शय्या का वर्णन है जिसपर लेटते ही लम्बा आदमी कट कर तथा छोटा आदमी खिंच कर पलंगके बराबर हो जाता था इसीके आधार पर बलवत् घटाने बढ़ाने के अर्थमें इस शब्दका प्रयोग होने लगा है।