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वर्णी अभिनन्दन ग्रन्थ
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यथा, गायके सींग होते हैं । किन्तु जब वह बलिया होती है तब तो सींग नहीं होते; अतः बछियाके सीगों का कथन नहीं होना चाहिये । अतएव एक ही पशुके विषयमें कहा जाता है कि एक समय इसके सींग नहीं थे और बादमें इसके सींग हो गये । इसकी जीवनगाथाके क्रमसे सीगों का निषेध तथा विधि की गयी है । बलिया अवस्था में सींग नहीं थे, जब बढ़कर गाय हो गयी तो सींग हैं । अतः श्राप कह सकते हैं -- ' सींग हैं' 'सींग नहीं हैं' अथवा एफ ही गायके सीगों की सत्ता की विधि तथा निषेध उसकी वृद्धिकी अपेक्षा करते हैं अतः हम घोड़े तथा शृगाल के सीगोंकी भी विधि तथा निषेध करेंगे। किंतुऐसा नहीं किया जा सकता, यद्यपि ऐसी आपत्ति जैन विचारकोंके सामने उठायी जाती है:-यतः श्राप एकही पशुके सोगों की विधि तथा निषेध करते हैं तो क्या एक ही घोड़ा या शृगालके सींगोंकी भी विधि-निषेध कर सकेंगे ? किन्तु प्रतिपक्षीकी यह शंका निराधार है । घोड़े या शृगालके सीगों की सत्ता ही प्रसिद्ध है अतः उनका विचार सत् वस्तुके समान नहीं किया जा सकता । अस्तिनास्तिवाद संसारके पदार्थोंकी वास्तविक स्थितिकी अपेक्षा ही प्रयुक्त होता है, कल्पना जगत् इसके परे है । असत् पदार्थों में इसका प्रयोग नहीं हो सकता । सैण्टौर अथवा यूनीकोर्न' ऐसे पौराणिक जन्तुओं का विचार भी इसके द्वारा नहीं किया जा सकता । अतएव उक्त प्रकारकी आपत्ति प्रसंगिक तथा व्यर्थ है ।
सापेक्षता
एक ही सत् वस्तुका कथन परस्पर विरोधी नित्य नित्यवाद, भेद-भेदवाद के सिद्धान्तों के अनुसार करना स्तिनास्तिवाद के ही समान है । आपातत: परस्पर विरोधी होनेपर भी नित्यानित्यादि दृष्टियों का प्रयोग एकही वस्तुमें पक्षभेद को लेकर होता है। स्वद्रव्यकी अपेक्षा कोई भी वस्तु नित्य कही जा सकती है, उसी वस्तुकी भावी पर्यायवर दृष्टि डालें तो उसे ही अनित्य कह सकते हैं। सोनेका एक गहना (कटक) गलाकर दूसरा गहना (केयूर) बन जाता है अर्थात् इस स्थितिमें निश्चित ही कटकको नित्य कहना होगा क्योंकि सुनार स्वामीकी इच्छानुसार कभी भी इसे गला सकता है और इसकी सत्ताको मिटासकता है । किन्तु सुनारकी कुशलता और स्वामी की इच्छा सोनेका सर्वथा लोप नहीं कर सकते। सोनेका विनाश नहीं हो सकता वह स्थायी है, अतः यहां सोने को नित्य कहना ही पड़ेगा। अतः व्यापक द्रव्य की अपेक्षा किसी भी वस्तुको नित्य कहते हैं तथा पर्याय विशेष की अपेक्षा से अनित्य ही कहना पड़ता है । अतएव उक्त प्रकारसे एक ही पदार्थ में नित्य नित्य दृष्टियां प्रामाणिक तथा कार्यकारी होती हैं ।
द्रव्य-पर्याय
यह दृष्टि और भी विशद हो सकती है यदि हम वृक्ष या पशु ऐसे किसी अंग अंग पदार्थ को देखें । बृक्षका जीवन वीजसे प्रारम्भ होता है और वह ज्यों-ज्यों बढ़ता जाता है त्यों त्यों उसमें परिवर्तन होते जाते
१. पौराणिक जन्तु जो कमर के नीचे घोड़ा और ऊपर आदमी होता है।
२. पौराणिक अश्व दैत्य जिसके शिरपर एक सींग होता है ।
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