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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ
ग्रहणकर उसमें अपनेको आत्मसात् कर देना चाहते हैं। वे सांसरिक स्नेह बंधनसे दूर, बहुत दूर जाकर अब किसी निर्जन प्रकृतिके सुरम्य अञ्चलमें बैठकर काययोग द्वारा एकाग्रचित्त हो एकाकी जीवन विताना चाहते हैं । जहां माया मोह बन्धनसे चिर संतप्त आत्माको विराट शान्ति मिले. प्रबल श्रात्मोद्धारकी जिज्ञासा सफल हो और वे कर्म शत्रुओंके भीषण रणक्षेत्रमें सतत युद्ध कर उनपर विजय प्राप्त कर रणधीर बन सकें।
ऐसे युग पुरुषकी पुण्य स्मृतिमें उनके पुनीत पादपद्मोंमें श्चद्धाकी यह सुमनाञ्जलि अर्पित है। वे चिरंजीव हों, और सबके मध्यमें सुधाकरकी भांति प्रकाशमान रहकर अमृत वरसाते रहें। कुमार कुटीर, कटनी ]
( स० सिं० ) धन्यकुमार जैन
झोली के फूल
फूलों से भरी हुई झोलीमेरी, मैं इन्हें चढ़ाऊंगा । जब तक शरीर में शक्ति शेष तब तक मैं तुम्हें मनाऊंगा ॥
'भारत भू' की रक्षा करते मर मिटें न पीछे हटें कभी । 'होगी रक्षा तेरी स्वदेश उद्दाम तान से कहें सभी॥
हिमगिर कांपे भू डोल उठे, चाहे सुन कर के सिंहनादवर वीरों का, चिन्ता न किन्तु फैले युगान्त तक यह निनाद ॥
हे देव अधिक कुछ चाह नहीं नव-जीवन-ज्योति जगा देवें । स्वर्णिम अङ्कों में 'भारत' का इतिहास पुनः लिखवा देगें ।।
हम चढ़ा रहे हैं फूल देव । श्रद्धा पूर्वक, झोली खालीहो गयी, प्रभुवर वर दो भर सके इसे फिर से माली॥ स्या० वि० काशी]
(वि०) ज्ञानचन्द्र 'आलोक'
छप्पन