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अास्तिनास्तिवाद श्री डाक्टर प्रो० ए० चक्रवर्ती
अस्तिनास्तिवादको जैन तत्त्वज्ञानकी आधारशिला कहा जा सकता है । तथापि यही वह जैन मान्यता है जिसे दुर्भाग्यवश अधिकांश अजैन विद्वानोंने ठीक नहीं समझा है। जैनेतर विद्वानोंको यह सरलतासे स्वीकार करना कठिन होता है कि एक ही सत् वस्तुमें दो परस्पर विरोधी अवस्थाएं एक साथ संभव हो सकती हैं । आपाततः यह असंभव है । प्रकृतिके किसी पदार्थके विषयमें "है, नहीं है" कैसे कहा जा सकता है । ऐसा कथन सहज ही भ्रामक प्रतीत होता है अतएव जैनेतर विचारक बहुधा कहा करते हैं कि 'अस्तिनास्तिवाद' जैन तत्त्वज्ञानकी बड़ी भारी दुर्बलता है। श्री शंकराचार्य और रामानुजाचार्य ऐसे दिग्गजोंने भी इसे ठीक ग्रहण करनेका प्रयत्न नहीं किया और 'पागलका प्रलाप' कहकर इसकी अवहेलना कर दी । अतएव जैन वाङ्मयके जिज्ञासुका कर्तव्य हो जाता है कि इस सिद्धान्तको स्वयं सावधानीसे स्पष्ट समझे और इसका ऐसा प्रतिपादन करे कि 'श्राबाल गोपाल' भी इसे समझ सकें । परिभाषा
किसी भी वास्तविक पदार्थके विषयमें 'अस्ति' है तथा 'नास्ति' नहीं के व्यवहारको ही अस्तिनास्तिवाद कहते हैं । जैनाचार्योंने यह कभी, कहीं नहीं लिखा है कि एक ही पदार्थका दो परस्पर विरोधी दृष्टियोंसे निर्मर्याद रूपसे कथन किया जा सकता है। जैन अस्तिनास्तिवादसे केवल इतना ही तात्पर्य है कि एक दृष्टिसे किसी पदार्थको 'है' कहा जाता है और दूसरी दृष्टिकी अपेक्षा उसे ही 'नहीं' कहा जाता है । इस प्रकार जैनाचार्योंने तत्त्वज्ञानके गहन सिद्धान्तोंकी व्याख्यामें भी व्यावहारिकतासे काम लिया है। एक चौकीको लीजिये -यह साधारण लकड़ीसे बनी होकर भी ऐसी रंगी जा सकती है कि गुलाबकी लकडीसे बनी प्रतीत हो । आपाततः जो ग्राहक उसे खरीदना चाहेगा वह ठीक मूल्य समझनेके लिए यह जानना ही चाहेगा कि वास्तवमें वह किस लकड़ीसे बनी है। यदि वह बाह्य रूपपर विश्वास करेगा तो अधिक मूल्य देगा । अतएव वह इस विषयके किसी विशेषज्ञसे पूछेगा कि क्या वह चौकी गुलाबकी लकड़ी की है । विशेषज्ञका उत्तर निश्चयसे 'नहीं' ही होगा। बाह्यरूप गुलाबका होनेपर भी चौकी गुलाबकी तो है नहीं, रंग तो पुतायीके कारण है जो कि लकड़ीका वास्तविक रूप छिपाने के लिए किया गया है। फलतः विशेषज्ञ इस बातको पुष्ट करेगा कि चौकी गुलाबकी नहीं है। लकड़ीकी वास्तविकताको प्रकट करनेके