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संस्मरण
है--भैया, संसार विडम्बनामय है और हमारी मोह लहर ही हमें इन झंझटोंमें उलझा रही है। सबसे उत्तम मार्ग स्वतंत्रवृत्ति होकर विहार करनेका था, परन्तु वह परिणाम भी नहीं और न शारीरिक शक्ति भी इस योग्य है। अन्यथा इस मध्यम मार्गमें कदापि जीवन व्यतीत न करता । पराधीनताके सदृश कष्ट नहीं। मेरा (पं0 जमन्मोहन लालजी की) इच्छाकार तथा अपनी माताजीको दर्शन विशुद्धि"
गणेश वर्णी
यह पत्र गुरुदेवकी आत्माका चित्रपट है। उनमें कुछ वैयक्तिक कमजोरियां भी हैं । उनमें से एक तो जिसने जैसा कहा उसकी हां में हां मिला देना । दूसरी है व्यवस्था शीलताका अभाव । किन्तु वास्तविक वस्तु स्थिति पर विचार करने से भली भांति समझमें आता है कि उनमें अपनी कोई त्रुटि नहीं है। किन्तु वह भी 'लोक हिताय' है। वे अपने द्वारा कभी किसीको क्षुब्ध या व्याथित नहीं करना चाहते । जो व्यक्ति उनके एक बार भी निकट सम्पर्क में आ जाता है वह उनका स्नेह भाजन बन जाता है। फिर वह उनके प्रति अपनी प्रत्यासक्तिसे उनसे सदा धर्मज्ञान लाभ और मार्ग दर्शन मिलता रहे, इस लोभसे उनके मार्गमें बाधक बन जाता है तथा समाजके लाभको दृष्टिको भल जाता है। इतने संकोच शील हैं कि लोगोंके किसी कार्य के लिए अत्यन्त आग्रह करने पर वे किंकर्तव्य विमूढसे हो जाते हैं। इनमें सीमासे अधिक सरलता और नम्रता है। वे सबको साम्यदृष्टि से देखते हैं । उनपर सबका अधिकार है। यदि किसीका थोड़ा भी भला हो सकता है तो उस कार्यसे वे कभी रुकते नहीं चाहे वह व्यक्तिका काम हो या समाजका।
गुरुदेव सार्वजनीन लोक प्रिय हैं । अतः संसार उन्हें वन्दना करता है । वर्तमान युगके वे आदर्श मानव हैं । उन्होंने जितनी लोक सेवाएं की हैं, उनका जैन समाजके बाहर विज्ञापन नहीं हुअा अन्यथा वे अनुपम माने जाते । उनका व्यक्तित्व महान् है। वे दिग्विमूढ़ मानव समाजकी दिशा और भाव परिवर्तनके लिए सचिन्त, सजग और सचेष्ट हैं।
वृत्तानि सन्तु सततं जनता हितानि-इस आदर्श भावनाका सुन्दर समन्वय पूज्य वर्णीजीमें जितना मिलता है उतना अन्यत्र देखने में नहीं आता। पश्चिमी मादक मलय मारुतने अपनी मोहिनी सुरभिसे संसारको विलासिता और लिप्सा की रंग-रेलियोंमें सराबोर कर जगत्को उस मृग मरीचिकाके किरण जालमें उलझा कर, मानवधर्मसे दिग्भ्रान्त बना दिया, किन्तु भरतसा यह दृढव्रती योगी, इस अनित्य अशरण संसारसे उदासीन हो कर विरक्ति के अभीष्ट राजपथपर आगे ही बढ़ा रहा है ।
विषयका एश्वर्य और विभूति उनके समक्ष सदैव मृतवत् रही । आज वे अपने जीवनके परम शिखरके इतने सन्निकट हैं और उनका अाकुल अन्तर इतना अधीर है कि वे अब निर्ग्रन्थ अवस्थाको
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