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श्रीगणेशप्रसादजी वर्णीके दर्शनका प्रथम प्रभाव
मंझोला कद, दुबला पतला शरीर उसपर लंगोटी और भगुवा रंगका एक चद्दर, घुटा हुआ सिर, उभरा हुआ मस्तिष्क, लंबी नुकीली नासिका, धवल दन्त-पंक्ति, सुन्दर सांवला वर्ण । ऐसे ७२ वर्षके बूढ़े महापुरुषके उन्नत ललाट तथा नुकीली लम्बी नासिकाके सम्मिलनके आजू बाजू, यदि कोई अत्यन्त आकर्षक वस्तु है तो वे हैं, छोटी छोटी मोनसम दो आवदार अांखें । इन आंखोंसे जो विद्युत स्फुलिंग निकलते हैं वह मानव को अपनी ओर सहसा आकर्षित किये बगैर नहीं रह सकते, और तब प्रथम दर्शन ही में पुरुष इस महापुरुषसे प्रभावित हो उसके अत्यन्त समीप खिंचा चला जाता है । तभी तो क्या बालक, क्या वृद्ध क्या युवक और क्या युवती अर्थात् प्रत्येक स्त्री-पुरुष वर्णीजीसे एक बार; यदि अधिक नहीं तो वार्तालापका लोभ संवरण नहीं कर सकता ।
विगत ग्रीष्म ऋतुमें इस डेढ़ पसलीके महापुषके प्रथम दर्शनका लाभ-जिसकी चर्चा बाल्यकालसे सुनता चला आता था-प्राप्त हुआ। प्राथमिक प्रभावसे हृदयमें 'वास्तवमें यह कोई महान् व्यक्ति होना ही चाहिये' भाव सहसा उत्पन्न हुआ। चाहे उस महानताकी दिशा जो कोई और चाहे जैसी हो, अच्छी अथवा बुरी।
वे चमकीली नन्ही नन्ही आंखें कह रही थीं, इन छोटी छोटी आंखोंने ही विषद वस्तु स्वरूपके अन्तस्तलमें प्रवेश कर आत्माको पहचाना है ; महान बनाया है। श्राज ७२ वर्षके अनन्त परिश्रमका फल है ; अत्यन्त सरल, मृदुभाषी, अन्तर्मुखी, अध्यात्म प्रवक्ता पूज्य श्री १०५ गणेशप्रसाद वौँ ।
ऐसा प्रतीत होता है कि यह पुरुष पुंगव महान ही उत्पन्न हुआ है, । केवल किसी उस दिशाने जिसमें वह लगा है उसे महान नहीं बनाया है। यह जिस किसी भी दिशामें जाता महान ही होता । इनकी आंखों में जो सरलता खेलती है उसका स्थान यदि क्रूरता ले पाती तो वैराग्यजन्य विरोध और विवादसे भागनेकी वृत्ति की जगह भिड़ जाने की प्रकृति पड़ती तब यह संसार का बड़ा भारी आधिभौतिक निर्माता या डाकू अथवा पीड़क होता अर्थात् जिधर झुकता उधर अन्तिम श्रेणी तक ही जाता, परन्तु जिस ओर इनकी दृष्टि है उसने इन्हें महान नहीं; महानतम बना दिया है। आज संसारको राजनीति नहीं, धर्मनीतिकी आवश्यकता है। पदार्थ विज्ञानकी नहीं आत्म विज्ञानकी आवश्यकता है। वास्तविक धर्म उन्नतिआत्मोन्नतिके सिवाय आज की दुनिया प्रत्येक दिशामें अधिकसे अधिक उन्नति कर चुकी है, और भागे बढ़नेकी कोशिशमें है । फिर भी संसार संत्रस्त है, दुःखी है । एक महायुद्धके पश्चात् दूसरा महायुद्ध । फिर भी शान्ति नहीं, चैन नहीं । क्यों ? इसी शान्ति प्राप्तिके अर्थ पुनः तीसरे महायुद्ध की आशंका है। क्या
अड़तालिस