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वर्णी-अभिनन्दन-ग्रन्थ लोग जब चलनेको हुए तो दोपहरका एक बज रहा था । वर्णीजी स्वाध्याय समाप्त करके हमारे साथ हो लिये । मैंने कहा--आप विश्राम कीजिए। बोले, “नहीं जी, चलो थोड़ी दूर तुम लोगोंको पहुंचा आऊँ" और कोई मील भर हम लोगोंके साथ आये बिना वे नहीं रह सके।
आजकलके दो भयंकर रोग पद और प्रतिष्ठाके मोहसे वर्णीजी एक दम मुक्त हैं। जहां कहीं जाते हैं वहीं साधन जुटाकर कोई शिक्षण अथवा अन्य जन--सेवी संस्था खड़ी कर देते हैं और बिना किसी मोह या लिप्साके आगे बढ़ जाते हैं । जिसने समूची वसुंधराको स्वेच्छा पूर्वक अपना कुटुम्ब मान लिया हो, वह एकसे बंध कर क्यों बैठेगा।
... वर्णीजीको प्रकृतिसे बड़ा प्रेम है और यह स्वाभाविक ही है। बुन्देलखण्डकी शस्य श्यामला भूमि, उसके हरे भरे वन, ऊंचे पहाड़, विस्तृत सरोवर और सतत् प्रवाहित सरिताएं किसी भी शुष्क व्यक्तिको भी प्रकृति प्रेमी बनासकती है। इसी सौभाग्यशाली प्रांतको वर्णीजी को जन्म देनेका गौरव प्राप्त हुआ है। अहारके लम्बे-चौड़े महासागरके बांधपर जब हम लोग खड़े हुए तो सरोवरके निर्मल जल और उसके इर्दगिर्दकी हरी-भरी पहाड़ियों और बनोंको देखकर वर्णीजी बोले, "देखो तो कैसा सुन्दर स्थान है। सब चीज बना लोगे; लेकिन मैं पूछता हूं ऐसा तालाव, ऐसे पहाड़ और एसे बन कहांसे लाभोगे?"
बुन्देलखण्डकी गरीबी और उससे भी अधिक वहांके निवासियोंकी निरक्षरताके प्रति उनके मनमें बड़ा क्षोभ और वेदना है। प्रकृति जहां इतनी उदार हो, मानव वहीं इतना दीन हीन हो, यह घोर लज्जाकी बात है इसीसे जब लोगोंने उनसे कहा कि बुन्देलखण्डकी भूमि और वहां के नर-नारी अपने उद्धारके लिए आपका सहारा चाहते हैं तो ईसरीको छोड़ते उन्हें देर न लगी, वे बुन्देलखण्डमें चले आये और उसकी सेवामें जुट गये।
वर्णीजीका पैदल चलनेका नियम है। बड़ी-बड़ी यात्राएं उन्होंने पैदल ही पूर्ण की है। शिखरजीकी सात सौ मीलकी यात्रा पैदल करना कोई हंसी-खेल नहीं था; पर वर्णीजीने विना किसी हिचकिचाहटके वह यात्रा प्रारंभ की और पूरी करके ही माने ।
___ जिसने अपने स्वार्थको छोड़ दिया है, जिसे किसीसे मोह नहीं, जिसकी कोई निजी महत्त्वाकांक्षा नहीं, उसका लोगोंपर प्रभाव होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । जैन तथा जैनेतर समाजपर आज वर्णीजीका जो प्रभाव है, वह सर्व विदित है। उनके इस प्रभावका लाभ उठा कर यदि कोई ऐसा व्यापक केन्द्र स्थापित किया जाय जो समस्त राष्ट्रके आगे सेवाका श्रादर्श उपस्थित कर सके तो बड़ा काम हो। वैसे छोटे-छोटे केन्द्रोंका भी महत्व कम नहीं है और हमारे राष्ट्र-पिता महात्मा गांधी तो स्वयं इस बात के पक्षपाती थे
छियालीस