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श्री महावीर जैन ग्रन्थमाला का तृतीय पुष्प
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श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचितं
- 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्यम्
'यशस्तिलकचम् महाकाव्यम्
यशस्तिलकदीपिकाख्यया भाषाटीकया समेतम्
उत्तरखण्डम्
-अनुवादक-सम्पादक व प्रकाशक
पं० सुन्दरलाल शास्त्री जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनन्यायतीर्थ व काव्यतीर्थ
अध्यक्ष श्री महावीर जैन ग्रन्थमाला कमच्छा बी० २१।१२९ ठाकुरवाड़ी
वाराणसी ( यू० पी०)
-प्राक्कथन-लेखकश्री० डा. वासुदेवशरणजी अग्रवाल अध्यक्ष-कला व पुरातत्त्व विभाग, हिन्दू विश्वविद्यालय बाराणसी
सम्पादन-प्रकाशन प्रभृति सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रथम आवृत्ति । २१०४ प्रति ।
श्रावण वोर नि० २४९७ वि० सं० २०२८ जुलाई १९७१
मूल्य इक्कीस २१ रु०
सजिल्द
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मुद्रक-आनन्द प्रेस, बी० १२१११२ गौरीगंज, वाराणसी-१
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प्राक्कथन
संस्कृत के गद्य-साहित्य में अनेक कथानन्थ हैं। उनमें बाण की 'कादम्बरों', सोमदेव का 'यशस्तिलक चम्पू और घनपाल को 'तिलकमञ्जरी'-ये तीन अत्यन्त विशिष्ट ग्रन्थ हैं। बाण ने कादम्बरी में भाषा और कथावस्तु का जिस उच्च पद तक परिमार्जन किया था उसी आदर्श का अनुकरण करते हुए सोमवेध और धनपाल ने अपने ग्रन्थ लिखे। सांस्कृत भाषा का समृद्ध उत्तराधिकार क्रमशः हिन्दी भाषा को प्राप्त हो रहा है। तदनुसार ही 'कादम्बनी' के कई अनुबाद हिन्दी में हुए हैं। प्रस्तुत पुस्तक में श्री० सुन्दरलालजी शास्त्री ने 'सोमदेव' के 'पशस्तिलकचम्पू का भापानुवाद प्रस्तुत करके हिन्दी साहित्य की विशेष सेवा की है। हम उनके परिश्रम और पाण्डित्य की प्रशंसा करते हैं। इस अनुवाद को करने से पहले 'यशस्तिलकचन्पू के मूल पाठ का भी उन्होंने संशोधन किया और इस अनुसंधान के लिये जयपुर, नागौर, सीकर, अजमेर और बद्धनगर के प्राचीन शास्त्रभंडारों में छानबीन करके 'यशस्तिलकचम्पू' की कई ह० लि. प्राचीन प्रतियों से मूल पाठ
और अर्थों का निश्चय किया। इस श्रमसाध्य कार्य में जान्हें लगभग ८-१० वर्ष लगे । किन्तु इसका फल 'यशस्तिलकचम्पू के अधिक प्रामाणिक संस्करण के रूप में हमारे सामने प्रस्तुत है। 'यशस्तिलक' का पहला संस्करण मूल के आठ आश्वास और लगभग साढ़े चार आश्वासों पर 'श्रुतसागर' की सं० टोका के साथ १९०१-१९०३ में निर्णयसागर' यंत्रालय से प्रकाशित हुआ था। उस ग्रन्थ में लगभग एक सहस्र पृष्ठ हैं । उसो की सांस्कृतिक सामग्री, विशेषतः धार्मिक और दार्शनिक सामग्री को आधार बनाकर श्री कृष्णकान्त हन्दीकी ने 'यणस्तिलक और इण्डियन कल्चर' नामका पाण्डित्यपूर्ण ग्रन्थ १९४९ में प्रकाशित किया, जिससे इस योग्य ग्रन्थ की अत्यधिक ख्याति विद्वानों में प्रसिद्ध हुई। उसके बाद श्री सुन्दरलालजी शास्त्री का 'यशस्तिलक' पर यह उल्लेखनीय कार्य सामने आया है।
आपने आठौं आश्वासों के मूलपाठ का संशोधन और भापाटीका तैयार कर ली है। तीन आश्वास प्रथमखण्ड के रूप में १९६० में प्रकाशित हो चुके हैं और शेष पांच आश्वास टीका-सहित दूसरे खण्ड के रूप में प्रकाशित होंगे। प्राचीन प्रतियों की छानबीन करते समय श्री सुन्दरलालजी शास्त्री को 'भट्टारक मुनीन्द्रकीति दिगम्बर जैन सरस्वती भवन' नागौर के शास्त्रमण्डार में 'यशस्तिलक-पब्जिका' नामका एक विशिष्ट ग्रन्थ मिला, जिसके रचयिता 'श्रीदेव' नामक कोई विद्वान थे। उसमें आठों आश्वासों के अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्दों का निघण्ट या कोश प्राप्त हुआ। इसकी विशेप चर्चा हम आमें करेंगे। इसे भी श्री सुन्दरकालजो शास्त्री ने परिशिष्ट दो में स्थान दिया है । इसप्रकार ग्रन्थ को स्वरूप-सम्पन्न बनाने में वर्तमान सम्पादक
और अनुवादक श्री सुन्दरलालजी शास्त्री ने जो महान् परिश्रम किया है, उसे हम सर्वथा प्रदांसा के योग्य समझते हैं । आशा है इसके आधार से संस्कृत वाल्मय के 'यशस्तिलकचम्पू' जैसे श्रेष्ठ ग्रन्थ का पुनः पारायण करने का अवसर प्राप्त करेंगे।
सोमवेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' की रचना ९५९ ईसवी में की। 'यशस्तिक' का दूसरा नाम 'यशोवरमहाराजचरित' भी है, क्योंकि इसमें उज्जयिनी के सम्राट् यशोधर का चरित्र कहा गया है। अर्थात्'यशोधर' नामक राजा की कथा को आधार बनाकर व्यवहार, राजनीति, धर्म, दर्शन और मोक्ष सम्बन्धी अनेक विषयों की सामग्री प्रस्तुत की गई है । 'सोमदेव' का लिखा हुआ दूसरा प्रसिद्ध ग्रन्य 'नीतिवाक्यामत'
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है, उसमें 'कौटिल्य के अर्थशास्त्र को आधार मानकर 'सोमदेव' ने राजशास्त्र विषय को सूत्रों में निवद्ध किया है । संस्कृत वाङ्मय में 'नीतिवाक्यामृत' का भी विशिष्ट स्थान है और जीवन को व्यवहारिक निपूणता से ओतप्रोत होने के कारण वह गन्ध भी सर्वथा प्रशंसनीय है ! उस पर भी पी गुमलाल जी शास्त्री ने हिन्दी टीका लिखी है। इन दोनों ग्रन्थों से ज्ञात होता है कि 'सोमदेव' की प्रज्ञा अत्यन्त उत्कृष्ट कोटि को थी और संस्कृत भाषा पर उनका असामान्य अधिकार था।
'सोमदेव' ने अपने विषय में जो कुछ उल्लेख किया है, उसके अनुसार वे देवसंध के साधु 'नेमिवेव' के शिष्य थे। वे राष्ट्रकूट सम्राट् 'कृष्ण' तृतीय ( ९२९-९६८ ई० ) के राज्यकाल में हुए । सोमदेव के संरक्षक 'अरिकेसरी' नामक चालुक्य राणा के पुत्र 'वाद्यराज' या 'बहिग' नामक राजकुमार थे। यह वंश राष्ट्रकूटो के अधीन सामन्त पदवीधारी था । 'सोमदेव ने अपना ग्रन्थ 'गङ्गधारा' नामक स्थान में रहते हुए लिखा । धारवाड़ कर्नाटक महाराज और वर्तमान 'हैदराबाद' प्रदेश पर राष्ट्रकूटों का अन्वण्ड राज्य था। लगभग आठवीं शती के मध्य से लेकर दशम शती के अन्त तक महाप्रतापी राष्ट्रकूट साट् न केवल भारतवर्ष में बल्कि पश्चिम के बर व साम्राज्य में भी अत्यन्त प्रसिद्ध थे | मर वों के साथ उन्होंने विशेष मैत्री का व्यवहार रक्ता
और उन्हें अपने यहां व्यापार की सुविधाएं दो। इस वंश के राजाओं का विन्द 'बल्लभराज' प्रसिद्ध पा, जिसका रूप बर व लेखकों में बलहरा पाया जाता है । राष्ट्रकूटों के राज्य में साहित्य, कला, धर्म और दर्शन को चौमुखी उन्नति हुई। उस युग की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को आधार बनावार दो चम्पू अन्थों की रचना हुई। पहला महाकवि त्रिविक्रमकृत 'नलचम्पू' है। 'त्रिविक्रम राष्ट्रकूट सम्राट् इन्द्र तृतीय ( ९१४-९१६ ई.) के राजपण्डित थे । इस चम्धू ग्रन्थ की संस्कृत शैलो श्लेष प्रधान शब्दों से भरी हुई है और उससे राष्ट्रकूट संस्कृति का सुन्दर परिचय प्राप्त होता है।
त्रिविक्रम के पचास वर्ष वाद 'सोमदेव' ने 'यशस्तिलकचम्पू' को रचना को । उनका भरसक प्रयत्न यह था कि अपने युग का सच्चा चित्र अपने गद्यपद्यमय अन्ध में उतार दें। निःसन्देह इस उद्देश्य में उनको पूरी सफलता मिली ! 'सोमदेव' जैन साधु थे और उन्होंने 'यशस्तिलक' में जेनयम को व्याख्या और प्रभावना को ही सबसे ऊंचा स्थान दिया है। उस समय कापालिक, कालामुख, शंचन चार्वाक-आदि जो विभिन्न सम्प्रदाय लोक में प्रचलित थे, उनको शास्त्रार्थ के अखाड़े में उतार कर तुलनात्मक दृष्टि से 'सोमदेव ने उनका अच्छा परिचय दिया है। इस दृष्टि से यह ग्रन्म भारत के मध्यकालीन सांस्कृतिक इतिहास का उमड़ता हुआ स्रोत है, जिसकी बहुमूल्य सामग्नी का उपयाग भविष्य के इतिहास ग्रन्थों में किया जाना चाहिए । इस क्षेत्र में श्रीकृष्णकान्त हन्दीको का कार्य, जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है, महत्त्वपूर्ण है। किन्तु हमारी सम्मति में अभी उस कार्य को आगे बढ़ाने को आवश्यकता है, जिससे 'सोमवेव' की श्लेषमयी शैली में भरी हुई समस्त सामग्री का दोहन किया जा सके । भविष्य में किसी अनुसन्धान प्रेमी विद्वान् को यह कार्य सम्पन्न करना चाहिए।
___'यशस्तिलक' को कथा कुछ उलझी हुई है । 'बाण' की कादम्बरी के पात्रों की तरह इसके पात्र भो कई जन्मों में हमारे सामने आते हैं। बीच-बीच में वर्णन बहुत लम्बे हैं, जिनमें कथा का सूत्र खो जाता है । इससे बचने के लिये संक्षिप्त कथासूत्र का यहाँ उल्लेग्ड किया जाता है।
प्राचीन समय में 'यौधेय' नाम का जनपद था । वहाँ का राजा 'मारिवत्त' था। उसने वीरभैरव' नामक अपने पुरोहित की सलाह से अपनी कुलदेवी चण्डमारी को प्रसन्न करने के लिये एक सुन्दर पुरुप और स्त्री की बलि देने का विचार किया और चाण्डालों को ऐसा जोड़ा लाने की आज्ञा दी। उसी समय 'सुदत्त'
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नाम के एक महात्मा राजधानी के बाहर ठहरे हा थे। उनके साथ दो शिष्य थे-एक 'अभयसचि' नाम का राजकुमार और दूसरी उसकी बहिन 'अभयमति' । दोनों ने छोटी आयु में हो दीक्षा ले ली थी। वे दोनों दोपहर की भिक्षा के लिये निकले हुए थे कि चाण्डाल पकड़कर देवी के मन्दिर में राजा के पास ले गया। राजा ने पहले तो उनकी बलि के लिये तलवार निकाली पर उनके तपः प्रभाव से उसके विचार सौम्य हो गए और उसने उनका परिचय पूछा । इस पर राजकुमार ने कहना शुरु किया।
( कथावतार नामक प्रथम आश्वास समाप्त ) । इसी 'मरतक्षेत्र में 'अवन्ति' नाम का जनपद है । उसको राजधानी "उज्जयिनी' शिप्रा नदी के तट पर स्थित है। वहीं 'यशोध' नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रानी 'पन्नमति' थी। उनके 'यशोवर' नामक पुत्र हुआ। एक वार अपने शिर पर सफेद बाल देखकर राजा को वैराज्य उत्पन्न हुआ और उन्होंने अपने पुत्र यशोधर को राज्य सौंपकर संन्यास ले लिया। मन्त्रियों ने यशोचर का राज्याभिषेक किया। उसके लिए शिप्रा के तट पर एक विशाल मण्डप बनवाया गया । नये राजा के लिये 'उदयगिरि' नामक एक सुन्दर तरुण हाथी' और 'विजयनैनतेय' नामक प्रइव लाया गया। यशोधर का विवाह 'अमृतमति' नाम की रानी से हुआ। राजा ने रानी, अश्व और हाथी का पट्टबन्ध धूमधाम से किया।
(पट्टबन्धोत्सव नामक द्वितीय आश्वास समाप्त )। अपने नये राज्य में राजा का समय अनेक आमोद-प्रमोदों व दिग्विजयादि के द्वारा सुख से बीतने लगा!
( राजलक्ष्मीविनोदन नामक तृतीय आश्वास समाप्त )। एक दिन राज-कार्य शीघ्र समाप्त करके वह रानी अमृतमति के महल में गया। वहाँ उसके साथ विलास करने के बाद जब वह लेटा हुआ था तब रानो उसे सोया जानकर धीरे से पलंग से उतरों और वहां गई, जहाँ गजशाला में एक महावत सो रहा था। राजा भी चुपके से पीछे गया। रानी ने सोते हुए महावत को जगाया और उसके साथ विलास किया। राजा यह देखकर क्रोध से उन्मत्त होगया। उसने चाहा कि वहीं तलवार से दोनों का काम तमाम कर दे, पर कुछ सोचकर रुक गया और उलटे पैर लौट आया, पर उसका हृदय सुना हो गया और उसके मन में संसार की असारता के विचार आने लगे। नियमानुसार वह राजसभा में गया। वहां उसकी माता चन्द्रगति ने उसके उदास होने का कारण पूछा तो उसने कहा कि 'मैंने स्वप्न देखा है कि राजपाट अपने राजकुमार 'यशोमति' को देकर मैं वन में चला गया हूँ; तो जैसा मेरे पिता ने किया मैं गो उसी कुलरोति को पूरा करना चाहता हूँ' मह सुनकर उसकी मां चिन्तित हुई और उसने कुलदेवी को लि चढ़ाकर स्वप्न को शान्ति करने का उपाय बताया। मां का यह प्रस्ताव सुनकर राजा ने कहा कि मैं पहिसा नहीं करूंगा। तब माँ ने कहा कि हम आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि चढ़ायेंगे और उसी का प्रसाद ग्रहण करेंगे। राजा में यह बात मान लो और साथ ही अपने पुत्र 'यशोमति' के राज्याभिषेक की आज्ञा दी ।। यह समाचार अब रानी ने सुना तो वह भीतर से प्रसन्न हुई पर ऊपरी दिखावा करती हुई बोली-'महाराज ! मुझ पर कृपा करके मुझे भी अपने साथ वन में ले चलें ।' कुलटा रानी की इस ढिठाई से राजा के मन को गहरी चोट लगी, पर उसने मन्दिर में जाकर आटे के मर्गे की बलि चढ़ाई। इससे उसकी मां प्रसन्न हुई, किन्तु असतो रानी को भय हुना कि कहीं राजा का वैराग्य क्षणिक न हो। अतएव उसने आटे के मुग में विष मिला दिया । उसके खाने से चन्द्रमति और यशोधर दोनों तुरन्त मर गये ।
(अमृतमति महादेवी-दुविलसन नामफ चतुर्थ आश्वास समाप्त }।
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राजमाता चन्द्रमति और राजा यशोधर ने आटे के मर्ग की बलि का संकल्प करके जो पाप किया, उसके फलस्वरूप तीन जन्मों तक उन्हें पशु योनि में उत्पन्न होना पड़ा। पहली योनि में यशोधर मोर को योनि में पैदा हुआ और चन्द्रमति कुत्ता बनी। दूसरे जन्म में दोनों उज्जयिनी को शिप्रा नदो में मछली के रूप में उत्पन्न हुए। तीसरे जन्म में वे दो मुर्गे हुए, जिन्हें पकड़ कर एक जल्लाद उज्जयिनी के कामदेव के मन्दिर के उद्यान में होने वाले बसन्तोत्सव में कुक्कुट-युद्ध का तमाशा दिखाने के लिये ले गया। वहाँ उसे आचार्य 'सुदत्त' के दर्शन हुए। ये पहले कलिङ्ग देश के राजा थे, पर अपना विशाल राज्य छोड़कर मुनिव्रत में दीक्षित हुए । उनका उपदेश सुनकर दोनों मुर्गों को अपने पूर्वजन्म का स्मरण हो आया। अगले जन्म में दे दोनों यशोमति राजा की रानी कुसुमावलि के उदर से भाई बहिन के रूप में उत्पन्न हुए और उनका नाम नामशः 'अभयरुचि' और 'अभयमनि' रक्खा गया। एक बार राजा यशोमति आचार्य सुदत्त के दर्शन करने गया और अपने पूर्वजों की परलोक-गति के बारे में प्रश्न किया।
___ आचार्य ने कहा-जुम्हारे पितामह पशोचं स्वर्ग में इन्द्रपद भोग रहे हैं । तुम्हारी माता अमृतमति नरक में है और यशोवर और चन्द्रमति ने इस प्रकार तीन बार संसार का भ्रमण किया है । इसके बाद उन्होंने यशोधर और चन्द्रमति के संसार-भ्रमण को कहानी भी सुनाई। उस वृत्तान्त को सुनकर संसार के स्वरूप का कान हो गया और यह डर हुआ कि कहीं हम बड़े होकर फिर इस भवचक में न फंस जाय । अतएव वाल्या. वस्था में ही दोनों ने आचार्य सुदत्त के रांच में दीक्षा ले ली।
इतना कहकर 'अभयरुचि' ने राजा मारिदत्त से कहा-हे राजन् । हम वे ही भाई बहिन हैं । हमारे आचार्य सुदत्त भी नगर से बाहर ठहरे हैं। उनके आदेश से हम भिक्षा के लिये निकले थे कि तुम्हारे चाण्डाल हमें यहाँ पकड़ लाए।
(भव-भ्रमणवर्णन नामक पांचवें आश्वास की कथा यहाँ तक समाप्त हुई )।
वस्तुतः 'यशस्तिलकचम्पू' का कथाभाग यही समाप्त हो जाता है। आश्वास छह, सात, आठ इन सीनों का नाम 'उपासकाध्ययन' हैं, जिनमें उपासक या गृहस्थों के लिये छोटे बड़े छियालिस कल्प या अध्यायों में गृहस्थोपयोगी धर्मों का उपदेश आचार्य सुदत्त के मुख से कराया गया है। इनमें जैनधर्म का बहुत ही विशद निरूपण हुआ है। छठे आश्वास में भिन्न-भिन्न नाम के २१ कल्प हैं। सातवें आश्वास में बाइसवे कल्प से तेतीसवें कल्प तक मद्यप्रवृत्तिदोष, मद्यनिवृत्तिगुण, स्तेय, हिंसा, लोभ-आदि के दुष्परिणामों को बताने के लिये छोटे-छोटे उपाख्यान हैं। ऐसे ही आठवें आश्वास में चौतीसर्वे कल्प से छियालीस कल्प तक उपाख्यानों का सिलसिला है। अन्त में इस सूचना के साथ अन्य समाप्त होता है कि आचार्य सुदन का उपदेश सुनकर राजा मारिदत्त और उसकी प्रजाएँ प्रसन्न हुई और उन्होंने श्रद्धा से धर्म का पालन किया, जिसके फलस्वरूप सारा यौधेय देश सुख एवं शान्ति से भर गया।
___इसप्रकार सोमदेव का रचा हुआ यह विशिष्ट ग्रन्थ जैनधर्मावलम्वियों के लिये कल्पवृक्ष के समान है । अन्य पाठक भो जहाँ एक और इससे जैनधर्म और दर्शन का परिचय प्राप्त कर सकते हैं वहीं दूसरी ओर भारतीय संस्कृति के विविध अङ्गों का भी सविशेष परिचय प्राप्त कर सकते हैं। प्रायः प्रत्येक आश्वास में इस प्रकार की सामग्री विद्यमान है। उदाहरण के लिए तीसरे आश्वास में प्राचीन भारतीय राजाओं के आमोदप्रमोद का एवं अनोखी वेजोड़ राजनीति का सविस्तर उल्लेख है। वाण ने जैसे 'कादम्बरी' में हिमगृह का व्योरे. वार वर्णन किया है वेसा ही वर्णन 'यशस्तिलक' में भी है । सोमदेव के मन पर कादम्बरी की गहरी छाप पड़ो
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यो। वे इस बात के लिए चिन्तित दिखाई देते हैं कि वाण के किये हुए उदात्त वर्णनों के सदृश कोई वर्णन उनके काव्य में छूटा न रह जाय । सेना की दिग्विजय यात्रा का उन्होंने लम्बा वर्णन किया है। इन सारे वर्णनों की तुलनात्मक जानकारी के लिए बाणभट्ट के तत्सदश प्रसंगों के साथ मिलाकर पढ़ना और अर्थ लगाना आवश्यक है। तभी उनका पूरा रहस्य प्रकट हो सकेगा। जैसा हम पहले लिख चुके हैं, इस अन्य के अर्थगाम्भीर्य को समझने के लिये एक स्वतंत्र शोधग्रंथ को आवश्यकता है। केवल मात्र हिन्दी टीका से उस उद्देश्य की आंशिक पूति ही संभव है इस पर भी श्री सुन्दरलाल जी शास्त्रो ने इस महाकठिन प्रायः निष्टीक अन्य के विषय में व्याख्या का जो कार्य किया है, उसकी हम विशेष प्रशंसा करते हैं और हमारा अनुरोध है कि उनके इस ग्रन्थ को पाठकों द्वारा उचित सन्मान दिया जाय ।
महाकवि सोमदेव को अपने ज्ञान और पाण्डित्य वा बड़ा गर्व था और 'यशस्तिलक' एवं 'नौतिवाक्यामृत' को साक्षी के आधार पर उनकी उस भावना को यथार्थ ही कहा जा सकता है । 'यशस्तिलक' में अनेक अप्रचलित पिलष्टतम शब्दों को जान बूझकर प्रगत किया गया है ! अश्युक्त और क्लिप शब्दों के लिए सोमदेव ने अपनो काव्यरचना का द्वार खोल दिया है। कितने ही प्राचीन शब्दों का वे जैसे उद्धार करता चाहते थे । इसके पूर्वखण्ड के कुछ उदाहरण इस प्रकार है-धृष्णि - सूर्य रश्मि (पूर्वखण्ड पृ० १२, पंक्ति ५) । वल्लिका= शृंखला, हिन्दी बेल; हाथी के बांधने को जंजीर को 'गजवेल' कहा जाता है और जिस लोहे से वह बनती है उसे भी 'गजबेल' कहते थे {१८ार पूर्व०)। सामज = हाथी; (१८.७ पूर्व०) कालिदास ने इसका पर्याय सामयोनि (रघु० १६.३) दिया है और माघ (१२११) में भी यह शब्द प्रयुक्त हुआ है । कमल शब्द का एक अर्थ मृगविशेष अमरकोश में आया है और बाण की कादम्बरी में भी इस शब्द का प्रयोग हुआ है । सामदेव ने इस अर्थ में इस शब्द को रमजा है (२३।१ पूर्वस्खण्ड) । इसीसे बनाया हुआ कमली शब्द ( २४.३ पूचं ) । मृगांक- चन्द्रमा के लिए उन्होंने प्रयुक्त किया है । कामदेव के लिये शूर्पकाराति ( २५।१ पूर्वखण्ड ) पर्याय कुषाण युग में प्रचलित हो गया था। अश्वघोष ने बुद्धचरित और सौन्दरनन्द दोनों ग्रन्थों में पूर्पक नामक मछुवे की कहानी का उल्लेख किया है । वह पहले काम से अविजित था, पर पीछे कुमुद्वतो नामक राजकुमारी को प्रार्थना पर कामदेव ने उसे अपने वश में करके राजकुमारी को सौंप दिया ।
आच्छोदना= मृगया ( २५।१ पूर्व०); पिथुर = पिशाच ( २८६३ पूर्व ); जख्य =पल या मांस ( २८३ पूर्व०); दैघिकोय = कमल (३७७ पूर्व विरेष= नद ( ३७१९ पूर्व); गर्वर = महिप ( ३८६१ पूर्व०); प्रघि = कूप ( ३८16 पूर्व०); गोमिनी= थी । ४२।९ पूर्व०); कच्छ - पुष्पवाटिका ( ४९।२ पूर्व ); दर्दरीक = दाडिम { १५/८ पूर्व०); नन्दिनी = उज्जयिनी ( ७०१६ पूर्व), मय - उष्ट्र (७.१३ पूर्व०); मितदु - अश्व (७५/४ पूर्व०); स्तभ = छाग ( ७८/६ पूर्व०); पालिन्दी = वीचि (१०६३ पूर्व०); बलाल - वायु ।११।५ पूर्व प्लाक = घंधक । २३५.१ पर्व हत्यादि नये शब्द ध्यान देने योग्य हैं, जिनका समावेश सोमदेव के प्रयोगानुसार संस्कृत कोशों में होना चाहिए। सोमदेव ने कुछ वेदिक शब्दों का भी प्रयोग किया है। जैसे विश्चक - श्वा ( ६११९ पूर्व०); शिपिविष्ट ( ७७१ पूर्व०); जो ऋग्वेद में विष्णु के लिए प्रयुक्त हुआ है, किन्तु पञ्जिकाकार ने जिसका अर्थ रुद्र किया है। तमङ्ग ( ९५।१ पूर्व ) शब्द भोजन समरांगण मूत्रधार में कई बार प्रयुक्त हुआ है, जो कि प्रासाद शिल्प का पारिभाषिक शब्द था। इस समय लोक में आधे खम्भे या पार्श्वभाग को तमजा कहा जाता है। सप्तर्षि अर्थ में चित्रशिखण्डि शब्द का, प्रयोग ( ५१११ पूर्व ) बहुत हो कम देखने में आता है। केवल महाभारत शान्तिपर्व के नारायणीय पर्व में इसका प्रयोग हुआ है और सोमदेव ने वहीं से इसे लिया होगा। इससे ज्ञात होता है कि नये-नये शब्दों को ढूंढकर लाने की कितनी अधिक प्रवृत्ति
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उनमें थो। सोमदेव के शब्द शास्त्र पर तो स्वतंत्र अध्ययन को आवश्यकता है। भात होता है कि माघ, वाय और भवभूति इन तीनों कवियों के ग्रन्थों को अच्छी तरह छानकर उन्होंने शब्दों का एक बड़ा संग्रह बना लिया था, जिनका वे यथा समय प्रयोग करते थे। मौकुलि = काकु ( १२५/७ पूर्व ); शब्द भवभूति के 'उत्तररामचरित' में प्रयुक्त हुआ है। हंस के लिये वहिणद्विज अर्थात्-ग्रह्मा का वाहन पक्षी ( १३७।३ पूर्व०) प्रयुक्त
इस ग्रन्थ के उद्धार करने में कवल एक व्यक्ति ने अपनी निजी वाक्ति का सदुपयोग किया है। जिस प्रकार श्री सुन्दरलाल जो शास्त्री ने यशस्तिलक का पूर्व खण्ड प्रकाशित किया जसो प्रकार के कठोर साधना करके इसका उत्तर खण्ड भी, जो कि निष्टोक व महाक्लिष्ट है, प्रकाशित करके संस्कृत प्रेमी पाटकों का महान् उपकार करेंगे।
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय व्यासपूर्णिमा ( ता०७-७-६०)
वासुदेव धरण अग्रवाल
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सम्पादकीय
पाठकवृन्द ! पूज्य आचार्यों ने कहा है-
'धर्मार्थhanting deभयं कलासु च । करोति कोतिं प्रीति व साघुकाव्यनिषेवणम् ॥'
अर्थात् — निर्दोष, गुणालंकारशाली व सरस काव्यशास्त्रों का अव्ययन, श्रवण व मनन आदि, धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थो का एवं संगीत आदि ६४ कलाओं का विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न करता है एवं कीर्ति व प्रीति उत्पन्न करता है ।'
उक्त प्रवचन से प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू' भी समूचे भारतीय संस्कृत साहित्य में उच्चकोटि का, निर्दोष, गुणालंकारशाली, सरस, अनोखा एवं बेजोड़ महाकाव्य है, अतः इसके अध्ययन आदि से भी निस्सन्देह उक्त प्रयोजन सिद्ध होता है, परन्तु अभी तक किसी विशिष्ट विद्वान ने श्रीमत्सोमदेवसूरि के समूचे 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की अनुसन्धानपूर्ण भाषाटोका डीं दी, अतः भीकी के लिए हमने ८-१० वर्ष पर्यन्त कठोर साधना करके इसकी 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषा टीका तैयार की और १९६० ई० में इसका पूर्वखण्ड प्रकाशित किया । तत्पश्चात् प्रस्तुत उत्तर खण्ड भी प्रकाशित किया 1
संशोधन एवं उसमें उपयोगी व महत्वपूर्ण प्रतियाँ
बाठ आश्वासवाला एवं आठ हजार श्लोक परिमाणवाला 'यशस्तिलक नम्पू' महाकाव्य निर्णय सागर मुद्रण यन्त्रालय बम्बई से सन् १९१६ में दो खण्डों में प्रकाशित हुआ था, उनमें से प्रथमखण्ड ( ३ आवास पर्यन्त ) मूल व संस्कृत टीका सहित मुद्रित हुआ हैं और दूसरा खण्ड, जो कि ४ आवास से लेकर ८ श्वास पर्यन्त है, ४१ आवास तक सटीक और बाकी का निष्क ( मूलमात्र ) प्रकाशित हुआ है परन्तु दूसरे खण्ड में प्रतिपेज में अनेक स्थलों पर विशेष अशुद्धियां हैं, एवं पहले खण्ड में यद्यपि उतनी अशुfat नहीं है तथापि कतिपय स्थानों में अशुद्धियाँ हैं । दूसरा खण्ड तो मूलरूप में भी कई जगह त्रुटित प्रका शित हुआ है ।
अतः हम इसके अनुसन्धान हेतु जयपुर, नागौर, सीकर, अजमेर व बड़नगर शादि स्थानों पर पहुँचे और वहाँ के शास्त्र भण्डारों से प्रस्तुत ग्रन्थ को ६० लि० मूल व सटिप्पण तथा सटीक प्रतियां निकलवाई और उक्त स्थानों पर महीनों ठहरकर संशोधन आदि कार्य सम्पन्न किया। अभिप्राय यह है कि इस महाक्लिष्ट संस्कृत ग्रन्थ की उलझी हुई गुत्थियों के सुलझाने में हमें इसकी महत्त्वपूर्ण संस्कृत टीका के सिवाय उक्त स्थानों के शास्त्र भण्डारों को ह० लि० मूल व सटिप्पण प्रतियों का विशेष आधार मिला। इसके सिवाय हमें नागौर के सरस्वती भवन में श्रीदेव विरचित 'यशस्तिलक पञ्जिका' भी मिली, जिसमें इसके कई हजार अप्रयुक्त व क्लिष्टतम शब्द, जो कि वर्तमान कोशग्रन्थों में नहीं हैं, उनका अर्थ उल्लिखित है, हमने वहाँ पर ठहरकर उसके शब्दनिघण्टु ( कोश) का संकलन किया, विद्वानों की जानकारी के लिए हमने उसे परिशिष्ट संख्या २ में
का त्यों प्रकाशित कर दिया है। इससे भी इमें भाषाटीका करने में विशेष सहायता मिली एवं भाषाटीका को पल्लवित करने में 'नीतिवाक्यामृत' (हमारी भाषाटीका ), आदि-पुराण, सर्वदर्शन संग्रह, पातञ्जल योगदर्शन, साहित्यदर्पण, आप्तमीमांसा, सर्वार्थसिद्धि, तत्वार्थं श्लोकवातिक व रत्नकरण्ड श्रावकाचार आदि अनेक ग्रन्थों की सहायता मिली ।
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अतः प्रस्तुत 'यशस्तिलक' की 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटोका विशेष अध्ययन, मनन व अनुसन्धानपूर्वक लिखी गई है, नियोक आश्वास (५ आश्वास से ८ आश्वास ) सटिप्पण र कोश-सहित ( यश. पं०) प्रकाशित किये जा रहे हैं। इसमें मूलग्रन्थकार की आत्मा ज्यों की त्यों बनाये रखने का भरसक प्रयत्न किया गया है, शब्दशः सही अनुवाद किया गया है। कहानियों का भो शब्दशः अनुवाद हुआ है । साधारण संस्कृत पढ़े हुए सज्जन इसे पढ़कर मूलग्नन्थ लगा सकते हैं।
हमने इसमें मु० सटी० व निष्टोफ प्रति का संस्कृत मूलपाठ ज्यों का त्यों प्रकाशित किया है, परन्तु जहाँपर मूलपाठ अशुद्ध व असम्बद्ध मुद्रित था, उसे अन्य ह. लि० सटि० प्रतियों के आधार से मूल में ही सुधार दिया है, जिसका तत् तत् स्थलों पर टिप्पणी में उल्लेख कर दिया है और साथ हो ह. लि. प्रतियों के पाठान्तर भी टिप्पणी में दिये गए हैं। इसी प्रकार जिस श्लोक या गद्य में कोई शब्द था पद अशुद्ध था, उसे साधार संशोधित व परिवर्तित करके टिप्पणी में संकेत कर दिया है।
हमने स्वयं वाराणसी में ठहरकर इसके प्रूफ संशोधन किये हैं, अत: इसका प्रकाशन भी शुद्ध हुआ है, परन्तु कतिपय स्थलों पर दृष्टिदोष से और कतिपय स्थलों पर प्रेस को असावधानी से कुछ अशुद्धियाँ ( रेफ व मात्रा का कट जाना-आदि ) रह गई है, उसके लिए पाठक महानुभाव क्षमा करते हुए और अन्त में प्रका. शित हुए शुद्धि-पत्र से संशोधन करते हुए अनुगृहीत करेंगे ऐसी आशा है।
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प्रस्तावना प्रस्तुत 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य की 'यशस्तिलक-दीपिका' नाम की भाषाटोका का सम्पादन विशेष अनुसन्धानपूर्वक निम्नलिखित है. लि. प्राचीन प्रतियों के आधार पर किया गया है--
१. 'क' प्रति का परिचय----यह प्रति श्री० पूज्य भट्टारक मुनीन्द्र फीति दि जेन सरस्वती भवन नागौर (राजस्थान ) व्यवस्थापक-श्री पूज्य भट्टारक श्री देवेन्द्रकीति गादी नागौर की है, जो कि संपोधन-हेनु नागौर पहुंचे हुए मुझे थी धर्म सेट रामदेव रामनाथ जी चांघाड़ नागौर के अनुग्रह से प्राप्त हुई थी। इसमें १०.४५ इञ्च की साईज के ३३१ पत्र हैं। यह विशेष प्राचीन प्रति है, इसकी लिपि ज्येष्ठ वदी ११ रविवार सं० १६५४ को श्री 'एकादेवी' थाविका ने कराई थी। प्रति का आरम्भ-श्री पाश्वं नाथाय नमः । श्रियं कुवलयानन्दप्रसादितमहोदयः । इत्यादि मु० प्रतिवत् है। इसमें दो आश्वारापर्यन्त कहीं-कहीं टिप्पणी हैं और आगे मूलमात्र है । इसके अन्त में निम्न लेख उल्लिखित है
__ 'यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये धर्मामृतवर्षमहोत्सवो नामाष्टम आश्वासः । 'भद्रं भूयात् 'कल्याणमस्तु शुभं भवतु । संवत् १६५४ कर्ये ज्येन वदी ११ तिथी रविवासरे श्री मूलसंधे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे नंद्याम्नाये आचार्यश्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये मंडलाचार्य श्री मुवनकोति तत्प? मण्डलाचार्यानुक्रमे मुनि नेमिचन्द तशिघ्य आचार्य श्री यशकीर्तिस्तस्मै इदं शास्त्रं यशस्तिलकाख्यं जिनधर्म समाश्रिता श्राविका 'झका' ज्ञानावरणीयकर्मक्षयनिमित्तं घटाप्यतं ।'
जानवान्जानवानेन निर्भयोऽभयदानतः । अन्नदानात् सुस्ती नित्यं निधिर्भेषजाद्भवेत् ॥ शुभं भवतु ! कल्याणमस्तु । इस प्रति का सांकेतिक नाम'क' है।
विशेष उल्लेखनीय महत्त्वपूर्ण अनुसन्धान–उक्त 'क' प्रति के सिवाय हमें उक्त नागौर के सरस्वती भवन में श्रीदेव-विरचित 'यशस्तिलकपत्रिका' भी मिली, जिसमें 'यशस्तिलकचम्पू के विशेष क्लिष्ट, अप्रयुक्त व वर्तमान कोशग्रन्थों में न पाये जानेवाले हजारों शब्दों का निघण्टु १३०० श्लोकपरिमाण लिखा हुआ है। इसमें १३ ४६ इञ्च की साईज के ३३ पृष्ठ है। प्रति की हालत देखने से विशेष प्राचीन प्रतीत हुई, परन्तु इसमें इसके श्रीदेव-विद्वान या आचार्य का समय उल्लिखित नहीं है उपक 'यशस्तिलक पज्जिका' का अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टु हमने विद्वानों को जानकारी के लिए एवं 'यशस्तिलक' पढ़नेवाले छात्रों के हित के लिए इसी सन्थ के अखोर में (परिशिष्ट संख्या २ में ) ज्यों का त्यो ४ आश्वास से लेकर ८ आश्वास पर्यन्त प्रकाशित भी किया है।
'यशस्तिलक-पन्जिका' के प्रारम्भ में १० श्लोक निम्नप्रकार हैं' । अर्थात्-श्रीमज्जिनेन्द्रदेव को नमस्कार करके श्रीमत्सोमदेव सूरि-विरचित 'यशस्तिलकचम्पू को परिजका श्रीदेव-विद्वान द्वारा कही जाती है ॥ १ ॥ 'यशस्तिलकचम्पू' में निम्नप्रकार विषयों का निरूपण है
१. यशोवरमहाकाव्ये सोमदेबविनिर्मित । प्रीदेवेनोच्यते पंजी नत्या देवं जिनेश्वरम् ॥ १ ॥
छंदः शब्दनिदवलंकृतिकलासिद्धान्तसामुद्रक । ज्योलिवैद्यकवंदवादभरतानङ्गदिपाश्चायुधम् ।। तरियान कम नीतिशकुनमारदपुराणस्मृति । श्रेयोऽध्यात्मजगत्स्थिति प्रवचनी व्युत्पत्तिरमोच्यते ।। २ 11
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( १३ )
१. छन्दशास्त्र, २. शब्द निघण्टु, ३. अलङ्कार, ४. संगीत आदि कलाएँ, ५. सिद्धान्त, ६. हस्तरेखा विज्ञान, ७. ज्योतिषशास्त्र, ८. वैद्यक, ९ वेद १०. वादविवाद ( खण्डन भण्डन ), ११. नृत्यशास्त्र, १२. कामशास्त्र या मनोविज्ञान, १३. गजविद्या १४ शस्त्रविद्या, १५. दर्शनशास्त्र, १६ पौराणिक व ऐतिहासिक कथानक, १७. राजनीति, १८. शकुनशास्त्र, १९. वनस्पतिशास्त्र, २०. पुण जगत में वर्तमान श्रेय ( शाश्वत कल्याण ) मोर २३. वक्तृत्व कला की व्युत्पत्ति ॥ २ ॥
अहं या काव्यफर्ता वा सो वावेवेश्वरावि । विषुद्रनातिरेकेण को नामान्यस्वमपः ।। ३ ।। कवेरगि विदम्पोऽहमेतत्सूक्ति समर्थन । यत्सौभाग्यविधी स्त्रोणां पतिवन्न पिता प्रभुः ॥ ४ ॥ प्रयोगास्तमयं छन्दस्वप्रसिद्धिमयं तमः । तत्प्रयोगोदयार्को हि निरस्यत्य समंजसम् ।। ५ ।।
मैं ( श्रीदेव ) और यशस्तिलककार श्रीमत्सोमदेवसूरि ये दोनों ही लोक में काव्यकला के ईश्वर (स्वामी) हैं; क्योंकि सूर्य व चन्द्र को छोड़कर दूसरा कौन अन्यकार- विध्वंसक हो सकता है ? अपि तु कोई नहीं || ३ || 'यशस्तिलक' की सूक्तियों के समर्थन के विषय में तो मैं ( श्रीदेव ) यशस्तिलककार सोमदेवसूरि से भी विशिष्ट विद्वान हैं; क्योंकि स्त्रियों की सौभाग्य-विधि में जैसा पति समर्थ होता है वैसा पिता नहीं होता || ४ || यशस्तिलक के अप्रयुक्त चदनिघण्टु का व्यवहार में प्रयोग के अस्त हो जाने रूपी अन्धकार को और द्विपदी आदि अप्रयुक्त छन्दशास्त्र विषयक अप्रसिद्धिरूप अन्धकार को यह हमारा प्रस्तुत ग्रन्थ ( यशस्तिकपा), जो कि उनका प्रयोगोत्पादक रूपो सूर्य सरीखा है, निश्चय से नष्ट करेगा ।। ५ ।।
व्यापकायान्धः स्वदोषेण यथा सवलन् । स्वयमक्षस्तथा लोकः प्रयोक्तारं विनिन्दति ॥ ६ ॥ नाप्रमुक्तं प्रयुज्जीवेत्येतन्मार्गानुसारिभिः । निषदुशब्दशास्त्रेभ्यो नूनं दत्तो जलाञ्जलिः ॥ ७ ॥ जहे पेलव योन्याद्यान् शब्दांस्तत्र प्रयुञ्जनं । नाप्रयुक्तं प्रयुञ्जीतेत्येषः येषां नयो हृदि ॥ ८ ॥ नाप्रयुक्तं प्रयोक्तव्यं प्रयुक्तं वा प्रयुज्यते । प्रत्येकान्ततस्ततो नास्ति वागर्थौचित्यवेदिनाम् ॥ ९ ॥ छात्रा दशपाती यायामपूर्वा समभूदिह । कर्वागर्थ सन्रज्ञाढर्णकशिती तथा ॥ १० ॥
जिसप्रकार लोक में अन्धा पुरुष अपने दोष से स्खलन करता हुआ अपने खींचनेवाले पर कुपित होता है उसीप्रकार लोक भी स्वयं अज्ञ ( शब्दों के सही अर्थ से अनभिज्ञ ) है, इसलिए शब्दों के प्रयोक्ता कवि की निन्दा करता है ॥ ६ ॥ 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' इस प्रकार के भार्ग का अनुसरण करनेवालों ने तो निस्सन्देह निघण्टु शब्दशास्त्रों के लिए जलाञ्जलि दे दी, अर्थात् उन्हें पानी में वहा दिया ॥ ७ ॥ जिनको ऐसी मान्यता है कि 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए' उनके यहाँ जले, पेलव ( पेलवं विरलं तनु इत्यमरः - छितरा ) व योनि आदि शब्दों का प्रयोग किस प्रकार संघटित होगा ? ॥ ८ ॥ इसलिए शब्द व अर्थ के वेत्ता विद्वानों का 'अप्रयुक्त शब्दों का प्रयोग नहीं करना चाहिए अथवा 'प्रयुक्त शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। यह एकान्त सिद्धान्त नहीं है ॥ ९ ॥ प्रस्तुत शास्त्र (यशस्तिलक-पञ्जिका) में १३०० श्लोक परिमाण रचा हुआ अभूतपूर्वं व प्रमुख शब्दनिघण्टु शब्द व अर्थ के सर्वज्ञ श्रीदेव कवि से उत्पन्न हुआ है ॥ १० ॥
इसके अन्त में निम्न प्रकार उल्लिखित है
इति श्रीदेव विरचितायां यशस्तिलक-पञ्जिकायां अष्टम आश्वासः । इति यशस्तिलक टिप्पणीकं समाप्तं ।
शुभं भवतु ।
इस प्रति का भी सांकेतिक नाम 'क' है ।
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२. 'ख' प्रति का परिचय-यह साटिप्पण प्रति आमेर-शास्त्रमण्डार जयपुर की है। श्री० माननीय 40 चैनसुखदासजी न्यायतीर्थ प्रिन्सिपल संस्कृत जैन कालेज जयपुर एवं श्री पं० कस्तूरचन्द्रजी फाशलीवाल एम० ए. शास्त्री जयपुर के सौजन्य से प्राप्त हुई थी। इसमें १२३४६ इञ्च को साईज के २५९ पत्र हैं। रचना शक संवत् १०८८ व लिपि सं० १८९२ की है । प्रति विशेष शुद्ध व टिप्पणी-मण्डित है। इसका आरम्भ निम्न प्रकार है
धियं कुवलयानन्द प्रसावितमहोदयः । वेवश्चन्द्रप्रभः'पुष्याज्जगन्मानसवासिनोम् ॥१॥ इसका अन्त निम्न प्रकार हैवर्णः पदं वाक्यविधिः समासो इत्यादि मु० प्रतिवत् ।
३. 'ग' प्रति का परिचय-यह ह० लि० सटि० प्रति श्री. दि. जैन बड़ा धड़ा के पंचायतो दि० जैन मन्दिर अजमेर के शास्त्र-भण्डार की है, जो कि श्री. वा. मिलापचन्द्रजी B. S, LLB एडवोकेट सभापति महोदय एवं श्री धर्म० सेठ नोरतमलजी सेठी सरीफ आं० कोषाध्यक्ष तथा युवराज पदस्थ थी. पं. चिम्मन लाल जी के अनुग्रह व सौजन्य से प्राप्त हुई थी। इसमें ११३४८: इञ्च की साईज के ४०४ पत्र हैं। यह प्रति विशेष शुद्ध एवं सटिग्मण है। प्रस्तुत प्रति वि० सं० १८५४ के तपसि मास में गंगा विष्णु नाम के किसी विद्वान् हारा लिखी गई है।
प्रति का आरम्भ-ॐ परमात्मने नमः। श्रियं कुवलयानन्द प्रसादितमहोदयः । देवश्चन्द्रप्रभः' पुष्या जगन्मानसवासिनीम् ॥ १॥
इसके अन्त में~-वर्षे वेद-शरेभ-शीस गुमिते मासे तपस्याह्वये, तिथ्यां....."तत्त्विषि मतं वेत्तु जिनाधीशिनाम् ।
गंगाविष्णुरितिप्रथामधिगतेनाभिख्यया निमिता, प्र ( न्थस्या । स्य लिपिः समाप्तिमगमद् गुर्वनिपचालिना ॥ १ ॥ श्रीरस्तु । श्रीः।
विशेष प्रस्तुत प्रति के आधार से किया हुआ यश० उत्तराद्धं का विशेष उपयोगी व महत्त्वपूर्ण मुद्रित संशोधन ( अनेकान्त वर्ष ५ किरण १-२ ) की प्रतिएं हमें थो० पं. दोपचन्द्र जो शास्त्री पांड्या केकली ने प्रदान की थीं, एतदथं अनेक धन्यवाद । उक संशोधन से भी हमें यश उत्तराद्ध' के संस्कृत पाठ-संशोचन में यथेष्ट सहायता मिली।
४'घ' प्रति का परिचय यह ह लि० सटि प्रति श्री० दि० जैन बड़ा मन्दिर वौसपन्य आम्नाय सोकर के शास्त्र भण्डार से श्री पं. केशवदेव जी शास्त्री व श्रो० ५० पदमचन्द्र जी शास्त्री के अनुग्रह व सौजन्य से प्राप्त हुई थी। इसमें १३४५६ इञ्च की साईज के २८५ पत्र हैं। लिपि विशेष स्पष्ट व शुद्ध है। इसकी प्रतिलिपि फाल्गुन कृ. ६ शनिवार सं० १९१० को श्री० ५० चिमनराम जी के पोत्र व शिष्य पं० महाचन्द्र विद्वान द्वारा की गई थी। प्रति का आरम्भ-ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।
१. प्रसादीवृतः दत्त इत्यर्थः। २. चन्द्रवत्-कर्पूरवद् गौरा प्रमा यस्य । , प्रसादितः निर्मलीकृती महानुदयो येन सः । प्रसादीकृतः दत्त इत्यर्थः । ४. चन्द्रस्य मुगाङ्कस्यैव प्रभा दीप्तिर्यस्यासो।
चन्द्रः कर्पूर: तद्वत् प्रभा यस्य स: । हिमांशुश्चन्द्रमाश्चन्द्रः धनसारश्चन्द्रसंशः इत्युभयत्राप्यमरः। ५. पुष्टि वृद्धि क्रियात् ।
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श्रियं कुवलयानंदप्रसादितमहोदयः इत्यादि मु० प्रतिवत् है ।
अन्त में-वर्ण: पदं वाक्यविधिः समासो इत्यादि मु० प्रतिवन् । ग्रन्थ-संख्या ८००० शुभं भूयात् । श्रेयोऽस्तु ।
इसका अन्तिम लेख-अयास्मिन् शुभसंवत्सरे विक्रमादित्यसमयात् संवत् १९१० का प्रवर्तमाने फाल्गुनमासे कृष्णपक्षे तियो षष्ठ्यां ६ शनिवासरे मूलसंघे बलात्कारगणे सरस्वतीगच्छे कुन्दकुन्दाचार्यान्वये अजमेरगच्छे श्रीमदाचार्यवर आचार्यजी श्री श्री श्री थी १०८ श्री गुणचन्द्रजो तत्प आचार्यजी श्री श्री कल्याणकोतिजी तरपट्टे आचार्यजी श्री श्री विशालकीतिजी सत्प? आचार्यजी श्री श्री १०८ भानुकीतिजी तत् शिष्य पं० भागचन्द्रजी, गोवर्धनदासजी, हेमराजजी, वेणीरामजी, लक्ष्मोचन्दजी, लालचन्दजी, उदयरामजी मनसारामजी, मार्जिका विमल श्री, लक्ष्मीति, हरवाई, बखती राजा', राही एतेषां मध्ये पंडित जी श्री भागचन्दजी, तत्शिष्य पं० जी श्री दीपचन्दजी तशिष्य पंडितोत्तम पंडितजी श्री श्री चिमनरामजी तत्पौत्र शिष्य महाचन्द्रेणेदं यशस्तिलक' नाम महाकाव्यं लिपिकृतं सीकरनगरे जैनमन्दिरे श्री शान्तिनाथ चैत्यालये शेखावत-महाराव राजा श्री भैरवसिंह जो राज्ये स्वात्मार्थ लिपिकृतं शुभं भूयात् । इसका सांकेतिक नाम 'घ' है।
५. 'च' प्रति का परिमय-यह प्रति बड़नगर के श्री दि० जैन मन्दिर मोट श्रो० सेठ मलूकचन्द जो होराचन्द जो वाले मन्दिर की है। प्रस्तुत मन्दिर के अध्यक्ष श्री. धम० सेठ मिश्रीलाल जी राजमल जी दोग्या सरीफ बड़नगर के अनुग्रह एवं सोजन्य से प्राप्त हुई थी। इसमें १२४५२ इञ्च की साईज के २८३ पत्र हैं। इसको लिपि पौष कृ० द्वादशो रविवार वि० सं० १८८० में श्री० पं० विरधीचन्द जी ने की थी। प्रति को स्थिति अच्छी है । यह शुद्ध बसटिप्पण है। इसके शुरु में मुद्रित प्रति की भाँति श्लोक हैं और अन्त में निम्नप्रकार लेख है
वि० सं० १८८० वर्षे पौषमासे कृष्णपक्षे द्वादश्यां तिथी आदित्यवासरे श्री मूलसंधे नंद्याम्नाये बलाकारगणे सरस्वतीगच्छे श्री कुन्दकुन्दाचार्यान्वये आचार्य श्री श्री शुभचन्द्रदेवाः तत्संघाप्टके पंडितजी श्री श्री नौनिधिरामजी तस्शिष्य पं० श्री नवलरामजी तशिष्य पं० विरघोचन्द्रजी तेनेदं यशस्तिलकचम्पू' नाम शास्त्र लिखितं स्वबाचना।
श्री शुभं भवतु कल्याणमस्तु । इसका सांकेतिक नाम 'च' है।
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ग्रन्थ-परिचय श्रीमत्सोमदेवसूरि का 'यशस्तिलकचम्पु' महाकाव्य संस्कृत साहित्यसागर का अमूल्य, अनोखा व बेजोड़ रत्न है । इसमें यहोवरमहाराज के चरित्र-चित्रण को आधार बनाकर राजनीति, धर्मशास्त्र, दर्शनशास्त्र, आयुर्वेद, ज्योतिष एवं सुभाषित-आदि विषयों के ज्ञान का विशाल खजाना वर्तमान है। अतः यह समूचे संस्कृत साहित्य में अपनी महत्वपूर्ण अनोखी विशेषता रखता है। इसका गद्य 'कादम्बरी' व तिलकमञ्जरी' की टक्कर का ही नहीं प्रत्युत उससे भी विशेष महत्त्वपूर्ण व क्लिष्टतर है। प्रस्तुत महाकाव्य महान क्लिष्ट संस्कृत में अष्टसहस्री-प्रमाण ( आठ हजार श्लोक परिमाण ) गद्य पद्य पद्धति से लिखा गया है। इसमें आठ आश्वास ( सर्ग ) है, जो कि अपने नामानुरूप विषय-निरूपक हैं। जो विद्वान् 'नवसर्गगते माघे नवशब्दो न विद्यते' अर्थात्-'नो सर्ग पर्यन्त 'माय' काव्य पढ़ लेने पर संस्कृति का कोई नया शब्द वाफी नहीं रहता' यह कहते हैं, उन्होंने 'यशस्तिलकचम्पू' का गम्भीर अध्ययन नहीं किया, अन्यथा ऐसा न कहते, क्योंकि प्रस्तुत ग्रन्थ में हजारों शब्द ऐसे मौजूद हैं, जो कि वर्तमान कोशग्नन्धों और काव्यशास्त्रों में नहीं पाये जाते । अतः 'अभिवाननिधाने प्रस्मिन् यशस्तिलकनामनि । पठिते समग्रे नूनं नक्शब्दो न विद्यते ॥ १॥' अर्थात्-'मुभाषित पदों की निधिवाले इस 'यशस्तिलकचम्पू' नामक महाकाव्य को पूरा पढ़ लेने पर निस्सन्देह संस्कृत का कोई भी नया शब्द बाकी नहीं रहता, यह उक्ति सही समझनी चाहिए।'
यश० पञ्जिकाकार श्री देव विद्वान् ने कहा है कि इसमें यशोधर महाराज के चरित्र-चित्रण के मिष से राजनीति, मजविद्या, अश्वविद्या, शस्त्रविद्या, आयुर्वेद वादविवाद, नीतिशास्त्र, ऐतिहासिक व पौराणिक कथाएँ, अनोनी व बेजोड़ काव्यकला, ज्योतिष, वेद, पुराण, स्मृतियास्त्र, दर्शनशास्त्र, अलङ्कार, सुभाषित एव अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्दनिघण्टु-आदि के ललित निरूपण द्वारा ज्ञान का विशाल खजाना भरा हुभा है ।
उदाहरणार्थ-राजनीति-इसके पूर्व खण्ड का ततीय माश्वास (पूर्व खण्ड ए० २२५-२५१,२५५ - ३१७, ३६५-३७७ आदि ) राजनीति के समस्त तत्वों से ओतप्रोत है। इसमें राजनीति की विशद, विस्तृत व सरस व्याख्या है । प्रस्तुत शास्त्रकार द्वारा अपना पहला राजनीति ग्रन्ध नीतियाक्यामत' इसमें यशोधर महाराज के चरित्र-चित्रण के व्याज से अन्तनिहित किया हुआ-सा मालूम पड़ता है। इसमें काव्यकला व कहानीकला की कमनीयता के कारण राजनीति की नीरसता लुप्तप्राय हो गई है। गजविद्या व अश्वविद्या-इसके पूर्व खण्ड के द्वितीय व तृतीय आरवास { पूर्व खण्ड-आश्वास २ पृ० १६३-१७९, एवं आवारा ३ पृ० ३२६-३३९ ) में गजविद्या व अश्वविद्या का निरूपण है। पास्त्रविद्या-इसके तुतीय आश्वास ( पूर्व खण्ड पृ० ३६२-५७४ व ३९३-३९५ ) में उक्त विद्या का निरूपण है। आयुर्वेद-इसके तृतीय आश्वास ( पूर्व खण्ड पृ० ३४०-३५१ ) में स्वास्थ्योपयोगी आयु वैदिक सिद्धान्तों का वर्णन है। वादविवाद-इसके तृतीय आश्वास (१० २१८-२४१ ) में उक्त विषय का कथन है। नीतिशास्त्र-इसके प्रथम आश्वास ( पूर्व खण्ड श्लोक नं० ३०-३२, ३५-३८, ४५, १२८, १३०, १३१, १३३, १४३, १४८-१५१, ) में तथा द्वितीय आश्वास (गर्व खंड श्लोक नं: ९.११, १३, २४, ३३, ३४, ५६-५७-आदि ) नीतिशास्त्र का प्रतीक है।
१. देखिए-इसका प्रयुक्त-किलष्टतम शब्द-निषण्ट ( परिशिष्ट २ पृ० ४१९-४४० पृय खण्ड परिशिप २ प. ४९८
५१६ उत्सर खण्ण।
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चतुर्थ आश्वास पृ० ४२ के सुभाषित पद्यों व गद्य का अभिप्राय यह है-यशोधर महाराज दीक्षा हेतु विचार करते हुए कहते हैं-"मैंने शास्त्र पढ़ लिए, पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया। याचकों अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह हमारा यशोमतिकुमार पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः मैं समस्त कार्य में अपने मनोरथ को पूर्ण प्राप्त करनेवाला हो गया है ।। २६ ॥ पंचेन्द्रियों के सार्श-आदि विषयों से उत्पन्न हुई मुख-तष्णा भी प्रायः मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि इन्द्रिय-विषयों ( भोगीपभोगपदार्थों) मैं, जिनकी श्रेष्ठता या शक्ति एकवार परीक्षित हो चुकी है, प्रवृत्त होने से बार-बार खाये हुए को खाता हुआ यह प्राणी किस प्रकार लज्जित नहीं होता ? || २७ ।। मेथुन क्रीड़ा के अन्त में होनेवाले सुखानुमान को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस सुख द्वारा यदि विद्वान् पुरुष गाए जाते हैं तो उनका तत्वज्ञान नष्ट ही है ।। २८ । इसके पश्चात् के गद्य-खण्ड का अभिप्राय यह है कि 'मानव को वाल्यावस्था में विद्याभ्यास व गुणादि का संचयरूप कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में काम-सेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए ! अथदा अवतार के अनुसार काम-सादि सेवन करना चाहिए। यह मो वैदिक वचन है परन्तु उक्त प्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है; क्योंकि आयु अस्थिर है। अभिप्राय यह है, कि उक्त प्रकार की वैदिक मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि जीवन क्षणभङ्गर है अतः मृत्यु द्वारा गृहील केशसरीखा होते हुए धर्म पुरुषार्थ का अनुष्ठान विद्याभ्यास-सा वाल्यावस्था से ही करना चाहिए।
यशस्तिलक संबंधी घार्मिक प्रसङ्ग यशस्तिलक की कथावस्तु वाण की कादम्बरी और धनपाल को तिलकमञ्जरी की तरह केवल आख्यान मात्र नहीं है, किन्तु जैन और जैनेतर दार्शनिक एवं धार्मिक सिद्धान्तों का एक सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ भी है। इसके साथ ही इसमें तत्कालीन सामाजिक जीवन के विविध रूप भी वर्णित हैं। कथा-भाग में भी सोमदेव ने जैन तत्वों व सुभाषितों का भी समावेश किया है। यशस्तिलक का चतुर्थं आश्वास विशेष महत्व पूर्ण है । क्योंकि इसमें कवि ने यशोधर और उसकी माता के बीच में पशुबलि-आदि विषयों को लेकर वार्तालाप कराया है। यशोधर जैन धर्म में श्रद्धा रखता है और उसकी माता ब्राह्मण धर्म में। इस सन्दर्भ में यशोधर वैदिकी हिंसा का निरसन करता हुआ अनेक जैनेतर शास्त्रों के उद्धरणों द्वारा जैन धर्म की प्राचीनता सिद्ध करता है।
(देखिए वैदिकी हिंसा का समर्थन पृ० ५० श्लोक ४१-४४) तत्पश्चात् यशोधर कहता है कि 'हे माता! निश्चय से प्राणियों को रक्षा करना क्षत्रिय राजकुमारों का श्रेष्ठ धर्म है, वह धर्म, निर्दोष प्राणियों के घात करने से विशेष रूप से नष्ट हो जाता है।
यः शस्त्रवृत्तिः समरे रियु: स्याधः कण्टको वा निजमाइलस्प । ____ अस्त्राणि तत्रैव नृपः क्षिपम्ति म दोनकानीनशुभाशपु ॥ ५५ ॥
अर्थात्-जो शत्रु युद्धभूमि पर शस्त्र धारण किये हुए है, अथवा जो अपने देश का कांटा है, अर्थात् जो अपने देश पर आक्रमण करने को उद्यत है, उसी शत्रु पर राजा लोग शस्त्र प्रहार करते हैं। न कि दुर्बल, प्रजा पर उपद्रव न करने वाले और साधुजनों के ऊपर शस्त्र-प्रहार करते हैं ॥ ५५ ॥ इत्यादि पृ. ५४-५६ तक यशोधर ने अनेक जैनेतर शास्त्रों के उद्धरणों द्वारा जीव हिंसा व मांस भक्षण का विरोध किया। इसी प्रकार उसने अनेक जैनेतर शास्त्रों के आधार से जैनधर्म की प्राचीनता (पृ. ६३-६४ तक ) सिद्ध की।
पश्चात् यशोधर ने माता के समक्ष वैदिक समालोचना । पु. ६६ श्लोक नं. १२. से १२८ तक ) की।
चतुर्य आश्वास' (पृ.८२-८३ श्लोक नं. १७२-१८७ ) के नी सुभाषित पद्यों में कूटनीति है। १. समुभायालंकार । २. ३. दृष्टान्ताकार ।
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(१८) ऐतिहासिक व पौराणिक दृष्टान्तमालाएं---इसके पूर्व खण्ड के तृतीय आश्वास (पृ. २८५-२८६ ) में उक्त विषय का उल्लेख है। इसी प्रकार चतुर्थ आश्वास के पृ० ८८ के गद्य में इसका विवेचन है।
अनोखी बजोड़ काव्यकाला- इस विषय में तो यह प्रसिद्ध ही है। क्योंकि साहित्यकार आचार्यों ने कहा है'-'निर्दोष (दुःषवत्व आदि दोषों से शून्य ), गुणसम्पन्न ( औदार्य-आदि १० काव्य-गुणों से युक्त ), तथा प्रायः सालंकार ( उपमा-आदि अलङ्कारों से युक्त ) शब्द व अर्थ को उत्तम काव्य कहते हैं ।
____ अथवा शृङ्गार-आदि रसों की आत्मावाले वाक्य (पद-समूह ) को काव्य कहते हैं । उक्त प्रकार के लक्षण प्रस्तुत यशस्तिलक में वर्तमान हैं। इसके सिवाय वन्यतेभिव्यज्यते चमत्कारालिङ्गितो भावोड स्मिन्निति ध्वनिः' अर्थात्-जह पर चमत्कारालिङ्गित पदाथं व्यञ्जना शक्ति द्वारा अभिव्यक्त किया जाता है, उसे ध्वनि कहते हैं। शास्त्रकारों ने ध्वन्य काव्य को सर्वश्रेष्ठ कहा है । अतः प्रस्तुत यशस्तिलक के अनेक स्थलों पर (पूर्वखंड प्रथम आश्वास पृ. ४५ ( गद्य )-४७) ध्वन्य काव्य वर्तमान है, जो कि इसकी उत्तमतां का प्रतीक है। एवं इसके अनेक गद्यों व पद्यों में शृङ्गार, वीर, करुण व हास्यादि रस वर्तमान हैं, उदाहरणार्थ आश्वास दूसरे में ( श्लोक नं. २२० ) पद्य शृङ्गार रस प्रधान है। एवं आवास चार (पृ.२० श्लोक ४) संयुक्त शृङ्गार रस प्रधान है इत्यादि ।
ज्योतिष शास्त्र-आश्वास २ ( पूर्व खण्ड पृ. १८०-१८२ ) में ज्योतिा शास्त्र का उल्लेख है। इसके सिवाय चतुर्थ आश्वास में कहा है. अब यशोधर महाराज की गाना चन्द्रमति ने नास्तिक दर्शन का आश्रय लेकर उनके समक्ष इस जीब का पूर्वजन्म व भविष्य जन्म का अभाव सिञ्च किया तब यशोधर महाराज ज्योतिष शास्त्र के आधार से जीव का पूर्व जन्म और भविष्य जन्म सिद्ध करते हैं. कि हे माना! जब इस जीव का पूर्व जन्म है तभी निम्न प्रकार आर्याच्छन्द जन्म पत्रिका के आरंभ में लिखा जाना है-'इस जीव ने पूर्व जन्म में जो पुण्य व पाप कर्म उपाजित किये हैं, भविष्य जन्म में उस बम के उदार को यह ज्योतिष शास्त्र उम प्रकार प्रकट करता है जिस प्रकार दीपक, अन्धकार में वर्तमान घट-पटादि पदार्थों को प्रकाशित करता है। अर्थात्जब पूर्व जन्म का सद्भाव है तभी ज्योतिष शास्त्र उत्तर जन्म का स्वरूप प्रकट करता है, इससे जाना जाता है कि गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही जीव नहीं है, अपितु गर्भ से पूर्व और मरण के बाद भी है इत्यादि।
अप्रयुक्त क्लिष्टतम-शब्दनिघण्टु-अर्थात्-प्रस्तुत ग्रंथ में कई हजार ऐसे संस्कृत शब्द हैं, जो कि वर्तमान कोश ग्रन्थों में नहीं हैं, अतः हमने इसके निघण्टु या कोश का अनुसंधान किया और उसे परिशिष्ट नं० २ में स्थान दिया है।
दर्शनशास्त्र-इसके पंचम आश्वास में सांस्य, जैमिनीय, वाममार्गी व चार्वाक दर्शन के पूर्व पक्ष हैं । यथा-घृष्यमाणो यथाङ्गार: शुक्लता नेति जातुचित् । विशुद्धयति कुतश्चित्तं निसर्गमलिनं तथा ॥
___ आ० ५ पृ० १५३ श्लोक ६४ न चापरमिषस्ताविषः समयोऽस्ति यदर्थोऽयं तपः प्रयास: सफलायासः स्यात् । आ. ५ पृ० १५३ १. तया च कान्यप्रकाशकार :-तबदोषौ शब्दायौं सगुणावनलती पुनः क्यापि । २. ताच विश्वनाथः कविराजः-बाक्यं रसात्मक काव्यम् - साहित्यदर्पण से संचलित-सम्पादक ३. तथा प विश्वनाथ : कविराज:--'वाच्यातिशायिनि व्यत्रये इवनिस्तत् काव्यमुत्तमम्' साहित्यवर्पण (४ परिच्छेद)
से संकलित४. यवुपचितमन्यजन्मनि पभाशुभ तस्य कर्मण:प्राप्तिम् । श्यापति पारस्वमेतत्तमसि व्याणि दीप ॥१॥
पा, ४ पृ०१२ लोक ४०
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यता 1 द्वादशवर्षा योषा षोडशवाचित स्थितिः पुरुषः । प्रीतिः परा परस्परमनयोः स्वर्गः स्मृतः सद्भिः ।।
मा०५ पृ. १५३ श्लोक ६५ अर्थात्-'धूमध्वज' नामके विद्वान् ने भीमांसक मत का आश्रय लेकर सुदत्ताचार्य से कहा-'जिस प्रकार घर्षण किया हुआ अङ्गार ( कोयला ) कभी भी शुक्लता ( शुभ्रता ) को प्राप्त भी नहीं होता उसी प्रकार स्वभावतः मलिन चित्त भी किन कारणों से विशुद्ध हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता। परलोक स्वभाव वाला स्वर्ग प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है जिस' निमित्त यह तपश्चर्या का खेद सफल खेद-युक्त होलके। क्योंकि 'बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ग की योग्य आयु वाला पुरुष, इन दोनों की परस्पर उत्कृष्ट प्रीति ( दाम्पत्य प्रेम ) को सज्जनों ने स्वर्ग कहा है।' ।
इदमेव च तत्त्वमुपलभ्यालापि नीलपटेन -
स्त्रीमुद्रां बापकतनस्य महती सर्वार्थसंपत्वारों, ये मोहादवधीरयन्ति कुधियो मिथ्याफलान्बेषिणः । ते तेनैव निहत्य निर्दयतरं मुण्डीकृताः लुञ्चिताः, केचित् पञ्चभिखीकृताश्च जटिनः कापालिकाश्चापरे ।। ७७ ॥
___आ, ५ पृ० १५६ श्लोक ७७ अर्थात् -- जो मूहबुद्धि झूठे स्वर्गादि फल का अन्वेषण करनेवाले होकर अज्ञान-वश कामदेव की सर्च श्रेय और समस्तं प्रयोजन रूप सम्पत्ति सिद्ध करने वाली स्त्री मुद्रा का तिरस्कार करने हैं. वे मानों-उसी कामदेव द्वारा विशेष निर्दयता पूर्वक ताड़ित कर मुण्डन किये गए अथवा केश उखाड़ने वाले कर दिये गए एवं मानोंपञ्चशिखा-युक्त ( चोटी धारी ) किए गए एवं कोई तपस्वी कापालिक किये गए' ।। ७७ || चण्डवार्मा-यावजीवेत् सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोचरः, भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः ॥
पृ० १५७ श्लोक ७९ अर्थात्-चण्डकर्मा कहता है, कि निम्न प्रकार नास्तिक दर्शन की मान्यता स्वीकार करनी चाहिएजब तक जियो तब तक सुख पूर्वक जीवन यापन करो। क्योंकि संसार में कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। अर्थात्-सभी काल-कवलित होते हैं । भस्म को हुई शान्त देह का पुनरागमन किस प्रकार हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता || ७९ ॥ पश्चात् उनका अनेक प्रवल व अकाटय दार्शनिक युक्तियों द्वारा खण्डन किया गया है
(आ. ५ पृ० १५९ श्लोक ९३ ) । यशस्तिलय के अन्तिम तीन आश्वासों ( आ० ६.८ ) में थावकाचार का दार्शनिक पद्धति से अनेक कथानकों सहित साङ्गोपाङ्ग निरूपण है । सोमदेवसुरि ने इसका नाम उपासकाव्ययन रक्खा है; क्योंकि इन्होंने सातवें उपासकाध्ययन अङ्गको आधार बनाकर इसको रचना की है।
उपासकाध्ययन में ४६ कल्प हैं। प्रथम वाल्प का नाम 'समस्तसमसिद्धान्ताववोधन' है; क्योंकि इसमें सैद्धान्त बैशेषिक, ताकिक वैशेषिक, पाशुपत, कुलाचार्य, सांख्य, वौद्ध, जैमिनीय, चार्वाक व बेदान्तवादीआदि समस्त दर्शनों की मुक्ति विषयक मान्यताओं की अकाटय युक्तियों से समीक्षा को गई है। यह विषय आ. ६ पृ० १८३. के गद्य से लेकर पृ० १९४ तक है। प्रस्तुत विवेचन सोमदेव का समस्त दर्शन संबंधी तलस्पर्शी अध्ययन का प्रतीक है। इस तरह का दार्शनिक विवेचन उपलब्ध श्रावकाचारों में नहीं मिलता। १. व्यङ्गयोस्प्रेक्षालंकार :। • प्रथा व सोमवेवमूरि:-'इत उत्तरं तु वक्ष्ये भुतपठितमुपासकाध्ययनम् । पा० ५ श्लोक १५५ का अन्तिममरण
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( २० )
२. दूसरे कल्प का नाम 'आस्वरूपमीमांसन' है। इसमें आप्त के यथार्थ स्वरूप का निर्देश करते हुए, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, बुद्ध व सूर्य आदि को देव मानने की युक्तिपूर्वक समालोचना की गई है। साथ में जैन तीर्थंकरों को आप्त मानने में किये हुए आक्षेपों का समाधान युक्ति पूर्वक किया गया है।
३. तीसरा कल्प 'आगमपदार्थपरीक्षण' नाम का है। इसमें आगम के पदार्थों ( जीवादि ) का स्वरूप विवेचन करते हुए कहा है कि ये सभी पदार्थ ( जीवादि ) द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय की अपेक्षा स्वभाव से वैसे उत्पाद, विनाश व स्थिर शील हैं जैसे समुद्र की तर उक नयों की अपेक्षा स्वभावतः उत्पाद, विनाश व स्थिर शील हैं। पश्चात् समस्त वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील मानने वाले बौद्धों की और समस्त वस्तु को सर्वथा नित्य मानने वाले सांख्य की अकाट्य युक्तियों से समीक्षा की है। पश्चात् जैन साधुओं में आरोपण किये हुए दीपों ( स्नान न करना, आचमन न करना, नग्न रहना व खड़े होकर भोजन करना ) का युक्ति पूर्वक समाधान किया गया है।
४. चौथा कल्प 'मूतोन्मथन' नामका है, इसमें सूर्य को वर्ष देना व ग्रहण में स्नान करना आदि मूढताओं के त्याग का विवेचन हैं। इसके पश्चात् पञ्चम कल्प से लेकर बीस कल्प पर्यन्त ( पु० २१२-२८१ ) सम्यग्दर्शन के निःशङ्कित-आदि आठों अंगों में प्रसिद्ध अञ्जन चोर, अनन्त मति, उद्दायन, रेवतीरानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ, वारिषेण, वनकुमार व विष्णु कुमार मुनि की रोचक कथाएँ ललित व क्लिष्ट संस्कृत गद्य में कहीं गई हैं। ये कथाएँ अन्य किसी श्रावकाचार में नहीं हैं। प्रत्येक कथा के पूर्व उस अङ्ग का स्वरूप महत्वपूर्ण पद्यों में कहा गया है । २१ व कल्प में सम्यग्दर्शन का विस्तृत विवेचन करते हुए रत्नत्रय का स्वरूप- आदि बतलाया है। सप्तम आश्वास, जो कि वाईस कल्प से ३३ कल्प पर्यन्त ( पृ. २९,४-३७५ ) है ।
२२-२३ कल्प में मद्य प्रवृत्ति के दोष च मद्य निवृत्ति के गुण बतलाने वाली कथाएँ हैं । २४ वें कल्प में मांस त्याग आदि का विवेचन करते हुए मांसभक्षण का संकल्प करने वाले सौरसेन राजा की कथा है। २५ वेंकल्प में मांस त्यागी चॉडाल की कथा है।
२६-३२ कल्पों में पाँच अणुव्रतों का वर्णन है एवं हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह के कटुफल वर्णन करते हुए पांच कथाएं विस्तृत गद्य शैली मे वर्णन की गई है, जो कि विशेष रोचक व नैतिक शिक्षा से ओत प्रोत हैं । ३३ में 'कल्प में' तीन गुण व्रतों का वर्णन है ।
३४ वे कल्प में सामायिक शिक्षाव्रत का कथन है, परन्तु सोमदेव ने सामायिक का अर्थ जिन पूजा संबंधी क्रियाकाण्ड कहा है । अतः ३४ वें कल्प में स्नानबिधि, ६५ में समय समाचार विधि, ३६ में अभिषेक व पूजन विधि, ३७ में स्तवन विधि ३८ में जय विधि ३९ में ध्यान विधि और ४० में कल्प में ताराधन विधि का वर्णन है । यह समस्त वर्णन विशेष महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि दूसरे श्रावकाचारों में नहीं है । सोमदेव को ध्यान विधि का वर्णन अनोखा व महत्वपूर्ण है । ४१ वें कल्प में प्रोषधोपवास का और ४२ वे कल्प में भोगोपभोगपरिमाण व्रत का कथन है ।
४३ व कल्प में दानविधि का वर्णन अनोखा व विशेष महत्व पूर्ण है । ४४ में कल्प में ग्यारह प्रतिमाओं का और मुनियों के नामों की निरुक्ति पूर्वक व्याख्या की गई है, जो कि नई वस्तु है । ४५ वें कल्प में सल्लेखना का और ४६ वें कला में प्रकीर्णक सुभाषितों का कथन है ।
इस प्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि का उपासकाध्ययन विशेष महत्वपूर्ण है ।
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अन्यकर्ता का परिचय--प्रस्तुत शास्त्रकार श्रीमत्सोमदेव सूरि द्वारा स्वयं लिखी हुई यशस्तिलक की पद्यप्रशस्ति' से विदित होता है कि 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य के रचयिता आसायप्रवर श्रीमसोमस्य सूरि है, जो कि दि. जैन सम्प्रदाम में प्रसिद्ध व प्रामाणिक चार संघों में से देवसंघ के आचार्य थे। इनके गुरु का नाम 'मिदेव' और दादा गुरु का नाम 'यशोदेव' था। मंथकर्ता के गुरु दार्शनिक चुडामणि थे; क्योंकि उन्होंने ९३ महावादियों को शास्त्रार्थ में परास्त कर बिजयश्री प्राप्त की थी। 'नीनिवाक्यामृत' की गद्य प्रशास्ति' से भी यह मालूम होता है कि श्रीमत्सोमदेच मूरि' के गुरु श्रीमान्नेमिदेव ऐसे थे, जिनके चरण वामल समस्त तार्किक समूह में चूडामणि विद्वानों द्वारा पूजे गये हैं एवं पचपन महावादियों पर विजयत्री प्राप्त करने के कारण प्राप्त की हुई कीतिरूपी मन्दाकिनी द्वारा जिन्होंने तीन भुवन पवित्र किये हैं तथा जो परम तपश्चरण रूप रत्नों के रत्नाकर (समुद्र) है। उसमें यह भी उल्लिखित है कि सोमदेव सूरि वादीन्द्रकालानल श्री महेन्द्रदेव भट्टारक के अनुज (लघुभ्राता) थे। श्री महेन्द्रदेव भट्टारक की उस 'वादीन्द्रकालामल' उपाधि उनकी दिग्विजयिनी दार्शनिक विद्वत्ता की प्रतीक है । प्रस्तुत प्रशस्ति से यह भी प्रतीत होता है कि श्रीमसोमदेव सूरि अपने गुरु व अनुज सरीखे ताकिक चुडामणि य कविचक्रवर्ती थे। अर्थात्-श्रीमसोमदेव सूरि 'रयावादाचलसिंह' 'ताकिकचक्रवर्ती', 'वादीभ पंचानन', वाक्कल्लोलपयोनिधि' व 'कविकुलराज' इत्यादि प्रशस्ति (उपाधि) रूप प्रयास्त अलवारों से मण्डित हैं।
साथ में उसमें यह भी लिखा है कि उन्होंने निम्नयकार शास्त्र-रचना की थी। अर्थात्-वे पण्णवति प्रकरण (९६ अध्यायवाला शास्त्र), युक्तिचिन्तामणि ( दार्शनिक ग्रन्थ ), त्रिवर्गमहेन्द्रमातलि-संजल्प (धर्मादिपुरुषार्थत्रय-निरूपक नीतिशास्त्र), यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य श्रीर नीतिवावयामत' इन महाशास्त्रों के बृहस्पति-सरीखे रचयिता है। उक्त तीनों महात्माओं { यशोदेव, नेमिदेव व महेन्द्र देव ) के संबंध में कोई ऐतिहासिक सामग्री व उनकी ग्रन्थ-रचना-आदि उपलब्ध न होने के कारण हमें और कोई बात जात
ताकिचूडामणि-श्रीमसोमदेव मूरि भी अपने गुरु और अनुज के सदृश बड़े भारी ताकिक विद्वान्थे । एनके जीवन का बहुभाग षड् दर्शनों के अभ्यास में व्यतीत हुआ था, जसा कि उन्होंने 'यशस्तिलक' की उत्थानिका में कहा है-'शुष्क घास सरीखे जन्मपर्यन्त अभ्यास किये हुए पक्षान्तर म ( भक्षण किये हुए ) दर्शन शास्त्र के कारण मेरी इस वुधिरूपी गौ से 'यस्तिलक' महाकाव्य रूप दूध विद्वानों के पुण्य से उत्पन्न हुआ है। उनकी पूर्वक्ति, स्पावादाचलसिह, बादीमपंचानन व ताकिक चक्रवती-आदि उपाधियां उनकी दार्शनिक प्रकाण्ड विद्वत्ता की प्रतीक हैं। साथ में प्रस्तुत 'यशस्तिलक' के पंचम, घष्ठ व अष्टम आश्वास में सांख्य, वैशेषिक, बोस, मीमांसक च चार्वाक आदि दार्शनिकों के पूर्वपक्ष व उनकी युक्ति-पूर्ण मीमांसा भी उनकी
१. श्रीमानस्ति स देवसतिलको देवो यशःपूर्वकः, शिध्यस्तस्य बभूव सद्गुणनिधिः श्री नेमिदेवालयः ।
तस्याश्चर्यशपः स्वितेस्त्रिनवते जेतुमहावादिना, शिष्योऽभूदिह सोमदेव यतिपरसत्यप काम्यक्रमः || -'मस्तिलकचम्प', २. इति सकलताकिकवचूहामणिचुम्बितचरणस्प, गंचपंचायान्महावादिविजयोपाजितकीतिगन्दाकिनोपविलितत्रिभुवनस्य,
परमतपश्चरणरत्नीदन्यत: त्रीमन्नेमिदेवभगवतः प्रियविष्यण, वादोन्द्रमालामलधीमन्महेन्द्रदेवभट्टारवान जेन, स्माद्वा. वाचलसिंह-वाकिकचक्रवति-बादीमपंचानन-वामकल्कोकपयोनिधि-विकराजप्रतिप्रशस्तिप्रशस्तालङ्कारण, रणवतिप्रकरण गुक्तिचिन्तामणिसूत्र महेन्द्र मातष्ठिसंजलप-यशोधरमहाराजचरितमहाशास्त्रघसा श्रीसोमदेवमूरिणा विरंचित (मीसिवाक्यामृ ) समाप्तमिति ।-नीतिवाक्यामृत ३.लिए मा. आ०१ एलोकनं०१७।
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( २२ ) विलक्षण व प्रकाण्ड दार्शनिकता प्रकट करती है, जिसका हम पूर्व में उल्लेख कर आये हैं। परन्तु वे केवल दार्शनिक-चूड़ामणि ही नहीं थे, साथ में काव्य, व्याकरण, धर्मशास्त्र व राजनीति-आदि के भो घुरन्धर विद्वान थे।
कचित्व-उनका यह "यशस्तिलकचम्प' महांकाव्य इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है कि वे महाकवि थे और काव्य-कला पर भी उनका असाधारण अधिकार था। उसकी प्रशंसा में स्वयं ग्रंथकर्ता ने यत्र तत्र जो सुन्दर पद्य काहे हैं, वे जानने योग्य हैं।
मैं शब्द और अर्थ पूर्ण सारे सारस्वत रस ( साहित्य रस ) को भोग चुका हूँ; अतएव अब जो अन्य कवि होंगे, वे निश्चय से उच्छिष्ट भौजी ( जूंठा खाने वाले ) होंगे-वे कोई नई बात न कह सकेंगे। इन उक्तियों से इस बात का आभास मिलता है कि आचार्य सोमदेव किस श्रेणी के कवि थे और उनका यह महाकाव्य कितना महत्वपूर्ण है। महाकवि सोमदेव को वाक्कल्लोलपयोनिधि और कविराजकुन्जर आदि उपाधियों भी उनके श्रेष्ठ कबित्व की प्रतीक हैं।
धर्माचार्यत्व-यद्यपि अभी तक श्रीमत्सोमदेवसूरि का कोई स्वतंत्र धार्मिक ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, परन्तु यशस्तिलक के अन्तिम तीन आश्बास (६-८). जिनमें उपासकाध्ययन (श्रावकाचार) का साङ्गोपाङ्ग निरूपण किया गया है, एवं यश के चतुर्थ आश्वास में वैदिकी हिंसा का निरसन करके अहिंसा तत्व की मार्मिक व्याख्या की गई है एवं अनेक जेनेतर उद्धरणों द्वारा जैनधर्म की प्राचीनता सिद्ध की गई है, इससे उनका धर्माचार्यत्व प्रकट होता है।
राजनीतिज्ञता-श्रीमत्सोमदेवसूरि के राजनीतिज्ञ होने का प्रमाण उनका 'नीतिवावयामृत' तो है ही, इसके सिवा 'यशस्तिलक' के तृतीय आवास व चतुर्थ आश्वास में यशोधर महाराज का चरित्र-चित्रण करते समय राजनीति की मन्दाकिनी प्रवाहित जीई है यह भी उनकी राजनीतिज्ञता की प्रतीक है।
विशाल अध्ययन-'यशस्तिलक' व 'नीतिवाशमत' ग्रन्थ उनका विशाल अध्ययन प्रकट करते हैं। ऐसा जान पड़ता है कि उनके समय में जितना भी जेन व जैनेतर साहित्य ( न्याय, व्याकरण, काव्य, नीति का दर्शन-आदि ) उपलब्ध था, उसका उन्होंने गम्भीर व तलस्पी अध्ययन किया था ।
ग्रन्थकर्ता का समय और स्थान-'यशस्तिलकचम्पू के अन्त में लिखा है कि चैत्र शुक्ल १३ शक सं० ८८१ ( विक्रम संवत् १०१६) को, जिस समय श्री कृष्णराजदेव पाण्डथ, सिंहल, चौल व चेरनप्रभृति राजाओं को जीतकर मेलपाटी नामक सेना-शिविर में थे, उस समय उनके चरणकमलोपजीवी सामन्त 'वहिंग' की ( जो चालुक्यवंशीय अरिकसरी के प्रथम पुत्र थे) राजधानी गंगाधारा" में यह काव्य समाप्त हुआ और 'नीति १. देखिए आ. १ पलोक नं. १४, १८, २३ । २. देखिए-आ.२ श्लोक नं. २१६ मा. ३ लोक नं. ५१।। 1. मया वागर्थसंभारे मुक्त पारस्थते रसे । पावोऽम्ये भविष्यन्ति नूनमुच्छिष्ट भोजनाः ॥ चतुर्थ पाश्वास एलोक नं. २२३
नपकालातीतसंवत्परतवष्टस्येकाशीत्यधिकष गतेष अतः/८८१) सिद्धार्थसंवत्सरांतर्गतचत्रनासमदनत्रयोदयां पाच-सहल-चोल-चरमप्रभृतीन महीपतीन् प्रसाध्य मस्याटो । मेलपार्टी ) प्रवर्धमानराज्यप्रभावे श्री कृष्णराजदेवे सति तस्यादपयोपजीविनः समधिगतपञ्चमहापाउदमहासामन्ताधिपतेय चालुक्यकुल जन्मन: सामन्तचूडामणेः श्रीमरिके
परिणः प्रथम पुत्रस्य श्रीमदागराजस्व लक्ष्मीप्रवर्धमानवसुधारायां गङ्गाधारायां विनिर्मापितमिदं काव्यमिति ।" ५. पालुक्यों की एक शाखा 'जोल' नामक प्रांत पर राज्य करती थी, जिसका एक भाग इस समय के धारवाड़ जिले में
आता है और श्री. आर. नरसिंहाचार्य के मत से चालुक्य अरिकेसरी की राजधानी 'पुलगेरी' में थी, जो कि इस समय 'लक्ष्मेश्वर' के नाम से प्रसिद्ध है। गंगापारा भी संभवतः वही है ।
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वाक्यामृत' 'यशस्तिलक' के बाद की रचना है। क्योंकि नीतिवाक्यामृत की पूर्वोक्त प्रशस्ति में ग्रन्धकार ने अपने को 'यशस्तिलक महाकाव्य का कर्ता प्रकट किया है, इससे स्पष्ट है कि उक्त प्रशस्ति लिखते समय वे 'यशस्तिलक' को समाप्त कर चुके थे।
दक्षिण के इतिहास से विदित होला है कि उक्त कृष्णराजदेव (तृतीय कृष्ण ) राष्ट्रकूट या राठोर वंश के महाराजा थे और इनका दूसरा नाम 'अकालवर्ष' था। ये अमोघवर्ष तृतीय के पुत्र थे। इनका राज्यकाल कम से कम वाक संवत् ८६७ से ८२४ ( वि० सं १००२-१०२२ ) तक प्रायः निश्चित्त है। ये दक्षिण के सार्वभौम राजा थे और बड़े प्रतापी थे। इनके अधीन अनेक माण्डलिक या करद राज्य थे। कृष्णराजदेव ने-जैसा कि सपने मुरि ने पदामिन 'शा-मिल, नोल, पाण्ड्य और चरम राजाओं को युद्ध में परास्त किया था। इनके समय में कनड़ी भाषा का सुप्रसिद्ध कवि 'पोन्न' हुआ है, जो जैन था और जिसने 'शान्तिपुराण' नामक श्रेष्ठ ग्रन्थ की रचना की है। महाराज वृष्णराजदेव के दरवार से उसे 'उभयभाषा कविचक्रवर्ती' की उपाधि मिली थी।
राष्ट्रकूटों या राठोरों द्वारा दक्षिण के चालुक्य ( सोलंकी ) चंदा का सार्बभौमत्व अपहरण किये जाने के कारण वह निष्प्रभ होगया था। अतः जब तक राष्ट्र कट सार्वभीम रहे तब तक चालुक्य उनके आज्ञाकारी सामन्त या माण्डलिक राजा बनकर रहे। अतः अरिकेसरी का पुत्र 'वहिग' ऐसा ही एक सामन्त राजा था, जिसकी गङ्गाभारा नामक राजधानी में 'यशस्तिलक' की रचना समाप्त हुई है। इसी 'अरिफ़ेसरी' के समय में कनड़ी भाषा का सर्व श्रेष्ठ जेन कवि पम्प' हुना है, जिसकी रचना पर मुग्ध होकर 'अरिकेसरों ने उसे धर्मपुर नामका एक ग्राम पारितोषिक में दिया था। उसके बनाये हुए दो ग्रंथ ही इस समय उपलब्ध हैं१. 'आदिपुराणचम्यू' और २ 'भारत या बिकमार्जुन विजय'। पिछला ग्रन्थ शक संवत् ८६३ ( वि० सं० ९९८) में- यशस्तिलक से १८ बप पहले-बन चुका था। इसकी रचना के समय अरिकेसरी राज्य करता था। तब उसके १८ वर्ष बाद–पशस्तिलक की रचना के समय-उसका पुत्र सामन्त 'वद्दिग' राज्य करता होगा, यह इतिहास से प्रमाणित होता है।
वाराणसी पावण कृ० ११ बीर नि० २४९७
विनीतसुन्दरलाल शास्त्री
-सम्पादक
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विषय
मङ्गलाचरण
विषयानुक्रमणिका चतुर्थ आश्वास
पृष्ठ
१
'अरुचि' क्षुल्लक द्वारा मारिदत्त राजा को अपना वृत्तान्त सुनाते हुए कहा जाना - 'जब ऐसा संध्याकालीन लालिमा का तेज प्रकट हो रहा था और जब स्थल-फल-समूह की ऐसी पत्र- श्रेणी संकुचित हो रह थी, तब हे मारिदत • महाराज ! में ( यशोधर ) रात्रि की वेला में अमृतमति महादेवी के महलद्वार पर पहुँचा."
२
इसके बाद है मारिदत्त महाराज ! मुझसे सरस वार्ता करने वाली ऐसी द्वारपालिका द्वारा कुछ काल कराये जा रहे मेरे द्वारा ऐसे राजमहल में वर्तमान ऐसे पल को अलंकृत किया जाना
१२
तदनन्तर मेरे द्वारा मेरे पल पर बैठी हुई ऐसी श्रमृतमति महादेवी देखी जाना, जिरासे मेरा हृदय प्रमुदित होना
१६
पश्चात् मेरे द्वारा अमृत मति महादेवी के दक्षिण पार्श्व भाग से शरीर के संघटन सहित बैठा जाना और रसिकता को प्राप्त हुए आनिनों द्वारा मेरे हृदय रूपी राजहंस का उस सुख (रतिविलास ) प्रवाह में विस्तृत हुआ जाना पुनः रति विलास के बाद मेरे द्वारा नाद-सी ली जाना...
१५
हे मारिदत्त महाराज ! मेरी ( यशोधर महाराज की ) पट्टरानी अमृतमति महादेवी द्वारा मुझे स्वभाव से शयन करता हुआ-सा देखकर और राजमहल का मध्यभाग नृत्य जानकर भाभूषणों को उतारकर सेंटर ढोरने वाली का येप धारण करके किवाड़ खुले छोड़कर शीघ्र प्रस्थान किया जाना, पुन: मेरे द्वारा भी कालक्षेप न करके उत् से अङ्गरक्षक का वेष धारण करके और प्रस्थान करके उस महादेवी के भागं को नाम वाले नीच महावत से प्रार्थना करती हुई अमृतमति महादेवी देखी जाना ।
हए ऐसे नष्ट
२२
पश्चात् मेरे द्वारा अष्टवद्ध व अमृतमति का ऐसा कुकृत्य देखकर विशेष कुपित होकर उन दोनों का बच करने के लिए म्मान में से आधी निकली हुई तलवार खींची जाना, परन्तु कर्मयोग में तलवार खींचने के अवसर पर ही नैतिक विचार-धारा के कारण मेरा क्रोध, दीपक के जलाने से अन्धकार को तरह नष्ट हो जाना और मेरे द्वारा अमृतमति के प्रति तं निश्चित किया जाना २५
इसके बाद अमृतमति का अपना कुकृत्य पूर्ण करके हटतापूर्वक मेरे समीप आना, जो कि उसका दुर्विलास न जानने वाले-सा होकर अमृतगति देवी की शय्या पर पूर्व की तरह शयन कर रहा था, और उसके द्वारा मेरी बाहुरूपी पिंजरे का आश्रय करके अत्यन्त गाव निद्वापूर्वक शयन किया जाना
२८
उक्त घटना के घटने से मेरा मन प्रसन्न न रहना व हृदय शून्य होना एवं अमृतमति के विषय में मेरी आश्चर्य जनक विचारधारा का होना
२८
तदनन्तर मेरे द्वारा स्त्रियों के विषय में नीतिकारों के वचनों का स्मरण किया जाना.. तलावात्
३०
शीधर महाराज द्वारा यह सोचा जाना कि 'भाषचर्य है, विषय-सुखों में तृष्णा करना निरर्थक
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( २६ )
है, अतः मे क्या वियों को छोड़कर उस उपलक्ष्मी को भो ? मह भी उचित नहीं; क्योंकि स्त्रीजन के बिना राज्यलक्ष्मी वन सरीखी निस्सार है।
३१
३२
से नैतिक सिद्धान्त सोने जाना और 'स्त्रियों अपनी धमाका द्वारा समर्थन किया जाना पूर्वकालीन अपने मन की रामकता का और विचार किया जाना एवं गमिष्ठ विधि को उलाहना दिया जाना आदि
३६
पुनः यशोधर महाराज द्वारा तपोवन के पति प्रस्थान करने के लिये यह उपाय सोचा जाता कि 'यदि यह आज की रात्रि निविन व्यतीत हो जायगी उस समय में 'सर' नाम के सभामण्डप में बैठकर अपनी माता चन्द्रमती देवी समस्त सेवक को बुलाकर ऐसा कूटकट ( मायाचार ) करूँगा, जो कि अद्वितीय अनुपदि व पूर्व में अनुभव में नहीं आया हुआ एवं जो अनुचित होने पर भी समस्त विघ्नों को निवारण करने वाला है, इत्यादि प्रस यज्ञ प्रभात बेलाका मरस वर्णन...
व
-समूह
४
पुनः यशोधर महाराज द्वारा स्त्रियों से विरत करने प्रकृति नहीं छोड़नी इनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है' इस बात का पञ्चाद उक्त घटना के कारण यशोधर महाराज द्वारा वर्तमान कालीन चिस की निमंत्रना आदि का वैराग्य-पूर्ण विचार किया जाना...
तदनन्तर मेरे द्वारा 'अखिलजनाचसर' नाम के समानण्डप में पहुँचना, वहाँ पर जब समस्त सेवकजन एकत्रित होकर यथास्थान पर स्थिति कर चुका था एवं शास्त्र वाचक ( पुरोहित ) प्रवृत्त हो चुका था। इसी प्रकार जब तक मेरे द्वारा चन्द्रमति माता के प्रति लेख भेरने की इच्छा से 'मनोरथवाचि' नाम के मंत्री का मुख देखा जा रहा था तब तक मेरे द्वारा अत्यन्त उष्ठापूर्वक स्वयं जाती हुई चन्द्रमति माना का देखा जाना गया उसने सन्मुख जाता और उसे लाकर मान सिंहासन पीठ पर बैठाई जाना, एवं उसकी आज्ञा से मेरा भी अपने सिंहासन पर बैठना ।
४५
पन्चात् चन्द्रमति माता द्वारा मुझे आशीर्वाद दिया जाना पथों का पढ़ा जाना और उसके लिए मेरे द्वारा ( गणांवर महाराज द्वारा एवं उसके लिए वनुष समानची द्वारा पारितोषिक दिया जाना ।
इसी अवसर पर कथावाचक द्वारा सुभाषिता पारितोषिक दिये जाने का आदेश दिया जान
इसके बाद चन्द्रमति माना द्वारा मन में ऐसा सोचा जाना कि मेरे पुत्र का मन सांसारिक भोगों से विरक्त करने वाली कैसे? ऐसा मालूम पड़ता है कि महादेवी के गृह पर प्राप्त हुए मेरे पुत्र का कोई वैराग्य का कारण अद हुआ है ? क्योंकि मेरे पुत्र ने इसे विशेष स्वाधीनता दे दी है जो कि तलवार की धारनरोपी पति के हृदय को विदा किये बिना विश्राम नहीं लेती। मुझसे प्रियंवदा ने कहा था कि आपकी पुत्रवधू की दृष्टि उम 'अ' नाम के निःकृष्ट महावत से स्नेह करने में तत्पर-सी मालूम पड़ती है...
1
४७
पश्चात् मति माता द्वारा मुझसे पूछा जाना हे पुत्र इस युवावस्था में तेरा मन धर्मकाओं में क्यों संलग्न है ? तेरी मुख-कान्ति म्लान क्यों है ? तेरा शरीर कान्ति- होन क्या है ? तुम सिहासन पर निश्चल होकर क्यों नहीं टते? इसे सुनकर यशोधर महाराज द्वारा माता को अपने द्वारा कलिक स्वप्न-वृतान्त सुनाया जाना...
४८
पश्चात् माता द्वारा भाशीर्वाद देकर मुझे समझाया जाना और मेरा स्वप्न-दर्शन असत्य साबित करने के लिए शन्तमाला उपस्थिति की जाकर मुझे समझाया जाना है ! तुम एम समस्त राज्यादि वैभव को छोड़कर किस अभिलाषा से तपश्चरण करते हो? यह तगश्वर स्वर्ग व मोक्ष-निमिल नहीं है क्या प्रत्यक्ष से परोक्ष
४९
विषयगे महान होता है ?
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इसके बाद माता द्वारा कहा जाता हे पुत्र समस्त प्राणी समूह की बलि ( घात विधान सवा से चला भा रहा है ४२-४३ ) द्वारा और वैदिक प्रभाणों वदनभर यशोधर महाराज
५७
द्वारा अपने दोनों धोत्र बन्द करके और स करके पर
करते
हुए कहा जाना — 'हे माता! यदि आपके दशरा मेरे ऊपर कुपुत्र संबंधी निन्दाख्यो पूलि न फेंकी जाय तो मेरे द्वारा कुछ कहा जाता है।'
उसे रोककर माता द्वारा नास्तिक दर्शन संबंधी पूर्वपक्ष दिया जाना । तदनन्तर यशोधर महाराक्ष द्वारा अनेक प्रवल अका युतिय से और ज्योतिष शास्त्र के आधार मे नास्तिक दर्शन का निरसन ( खण्डन )
किया जाना...
५१
( २० )
यदि आपको बुद्ध स्वप्न का भय है तो कुलदेवता के लिए करके दुष्ट स्वप्न का शमन-विधान करो। कुलदेवता के लिए प्राणियों का और लोकप्रसिद्ध भी है पश्चात् उसके द्वारा मनु के दो उरण ( द्वारा पशुबलि सिद्ध की जाना...
नं०
पुनः यशोधर महाराज द्वारा कहा जाना — "निश्चय से प्राणियों की रक्षा करना क्षत्रिय राजावों का धर्म है, वह धर्म निर्दोष प्राणियों के घात करने से नष्ट हो जाता है। निश्चय से प्राणियों के व्यवहार शास्त्र राजा के अधीन हैं। प्राणियों के तुण्य व पाप के कारण तथा चार वर्णों व चार आश्रमों के आचरण व मर्यादाएं भी राजाधीन प्रवृत्त होती है | चे राजा लोग काम, क्रोध व अज्ञान से जिस प्रकार पुण्य व पाप आरम्भ करते हैं उसी प्रकार प्रजा मी आरम्भ कर देती है। उक्त बात का दृष्टान्तमाला द्वारा समर्थन किया जाना इत्यादि अहिंसा प्रधान राजनीति की त्रिवेणी प्रवाहित की जाना' ५३
तत्पदात्मशोधर महाराज द्वारा अनेक जनेतर शास्त्रों के प्रमाणों से पशुपति गां-मक्षण का निरसन
५५
किया जाना |
तदनन्तर पांधर महाराज व 'इन्द्राचित परण' नाम के मुनिराज के मध्य हुई प्रश्नोत्तरमाला का निरूपण होना जिससे यशोधर महाराज को महिसाधर्म में रुचि का उदगम होना....
५७
1
तत्पश्चात् चन्द्रमति माता द्वारा जैनधर्म पर दोषारोपण किया जाना अर्थात् पुत्र ! दिगम्बरों के धर्म में देवतर्पण, पितृतर्पण व ब्राह्मण तर्पण नहीं है, एवं स्नान व होम की बात भी नहीं है। ये लोग बंद व स्मृति सहित है, ऐसे दिगम्बरों के धर्म में तुम्हारी बुद्धि किस प्रकार प्रवृत्त हो रही है ? जो दिवम्बरमा ऊपर खड़े हुए पशु-मरी आहार करते हैं । जो निर्लज्ज व पांच गुण से होन है ! हे पुत्र दिगम्बरों का पूर्व में (कृतयुग, त्रेता व द्वापर आदि) में नाम भी नहीं है। केवल कलिकाल में ही इनका दर्शन हुआ है। इनके मत में नियम से
मनुष्य ही देव (ईश्वर) हो जाता है।
५९ ६१
६३.
सदनवर बांधर महाराज द्वारा दिगम्बर साधुओं के दोषारोपणों का परिहार किया जाना और जैके आप्त का स्वरूप निर्देश करके जनेगर आस का निरसन किया जाना ।
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तत्पपचात् पात् वर्णाधर महाराज द्वारा मांस व वधु के त्याग का निख्गगा करके वैदिक समालोचना की जाना ६६ पुनः याधर महाराज द्वारा वयार्थ शास्त्र का स्वरूप निर्देश करके आत की मोनदा की जाना इसके बाद चन्द्रमति माता द्वारा गुनः पशुबलि से कुल देवता की पूजा का तथा मधु, मद्य व मांसभक्षण का
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'७१
७४
एवं ईश्वर भी बहुसंख्यावाना (चोवीस ) है इत्यादि
समर्थन किया जाना...
पुनः वधर महाराज द्वारा उक्त दोषों का परिहार किया जाना । पुनः यशोधर महाराज द्वारा जनधर्म की प्राचीनता सिद्ध को जाना ।
पुनः यावर महाराज द्वारा पशु बलि आदि का निरसन किया जाना..
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पश्चान है मारिदत्त महाराज | पब वह मेरी (यणोधर की) माता (पन्द्रमप्ति) मेरे उक्त प्रकार के वचनों में निरुत्तर हुई और जब उसके द्वारा कोई दूसरा उपाय नहीं देखा गया तब उसने मेरे पैरों पर पड़कर मुझ से निम्नप्रकार प्रार्थना की-है पुत्र ! यदि तुम दुर्गति-गमन की आशम्मा से अमवा किसी दूसरे कारण से जीव-वध में प्रवृत्त नहीं होते तो मत प्रवृत्त होओ, किन्तु आटे के मुर्गे से कुल-देवता के निमित बन्ति समर्पण करके उससे बचे हुए आटे में मांस का संकल्प करके तुम्हें मेरे साथ अवश्य मक्षण करना चाहिए ।'
पुनः यशोधर महाराज की स्त्रियों के विषय में मानसिक नैतिक विचारधारा का, एवं मानसिक संकल्प से होने वाले दुष्परिणाम-आदि की विचारधारा का और तत्समर्थक दृष्टान्तमाला का निरूपण किया जाना
तत्पश्चात् यशोधर महाराज द्वारा माता के प्रति स्पष्ट कहा जाना-'हे मातर ! तेरी बुद्धि प्रयोग्य आचरण में दुराग्रह से विशेष मलिन किस प्रकार हुई ? अस्तु इस कार्य ( आटे के मुर्ग का मारण के उसको मांस समझ कर भसना रूप कार्य) में धाप ही प्रमाण हैं। हे माता तुम्ही शिल्पियों को बुलाकर मुर्गा बनाने की माजा दो एवं यशोमति कुमार के राज्याभिषेक करने की लग्न के पोधन के लिये तुम्ही ज्योतिषियों को आदेश दो।
इसके बाद कुलटा अमृतमति महादेवी द्वारा उक्त वृत्तान्त सुना जाफर कूटनीति का विचार किया जाना—'इस राजा के ऐसे कूट कपट का कारण निस्सन्देह मेरे द्वारा रात्रि में किये हुए दुविलास को छोड़कर दूसरा नहीं है। पश्चान भा की परालमा मात्र हो -- को अनुरत बनाना शनय नहीं । अतः यह राजा जब तक मेरे ऊपर क्रोध रूपी विष का क्षरण नहीं करता तब तक मैं ही दसके ऊपर बोषरूपी विष का क्षरा करती है। ८१
तत्पश्चात् अमृतमति महादेवी द्वारा 'गविष्टिर' नामक मंत्री का यशोधर महाराज के पास भेजा जाकर निम्नप्रकार संदेश भेजा जाना—'इरा समय मेरे प्राणनाथ मोक्ष-सुख को इच्छा से प्रथधा उपस्थित हुए दोषों का निराकरण न होने की बुद्धि से दीक्षा धारण कर रहे हैं और मैं पुत्र यशोमति कुमार की लक्ष्मी भागती हुई गृह में ही रहूँ यह बात अनुचित है' परन्तु अदि हम दोनों परिव-पालन में तत्पर हों तो इसमें कोई आगम से विरोध नहीं है। क्योंकि शास्त्रों में पतिव्रता स्त्रियों के दुष्टान्तों द्वारा पतिव्रत धर्म का निरूपण किया गया है। दीक्षा ग्रहण के दिन चन्द्रमति माता के साथ मेरे गृह पर आपको गणभोजन करना चाहिए।'
इसके अनन्तर यशोषर महाराज द्वारा गणभोजन की स्वीकारता देकर गयिष्टिर' मन्त्री को वापिस भेज कर विशेष पश्चाताप किया जाना"
'पतः इस चण्डिका देवी के मन्दिर में गमन करना आदि में देव ही शरण है' ऐसा विचार कर कुछ निद्रा-सुख को भोग कर यशोधर महाराज का जाग्रत होना।
पश्चात् 'वैकुण्ठमति' नाम के क्षेत्रपाल द्वारा यह विदित होने पर कि चन्द्रमति माता चण्डिका देवी की परण पूजा के लिए उसने मन्दिर में सपरिवार गई है मेरे द्वारा मो ऐरायण-परनी नामको हथिनी पर सवार होकर पण्डिका देवी के मन्दिर के प्रति प्रस्थान किया जाना इसी प्रसङ्ग में मनेक अपशकुन का होना...
पूनः 'हे चण्डिका देवी। समस्त प्राणियों के मार देने पर जो कुछ फल होता है. वह फल यहाँ पर मेरे लिए प्राप्त होवे ।' ऐसे अभिप्राय से यशोधर महाराज द्वारा चण्डिका देवी के सामने छुरी से उस मुर्गे का मस्तक काटा जाना, बस आर्ट के मुर्गेधारा जीवित मुर्गे की तरह शब्द किया जाना, उस मुर्गे के चूर्ण में 'मांग' ऐसा संकल्प करके रसोई घर में भेजा जाना । उस दिन से दूसरे दिन अमृतमति देवी द्वारा माता-सहित मेरे लिए भोजन बनाया जाना, परन्तु उस पापिनी कुलटा अमृतमति द्वारा माता-हित मेरे मोषनों में विष प्रवेश किया जाना, जिससे यशोधर व उसको मासा का काल-कवलित होना, पुनः अमृतमति द्वारा दिनाऊ सदन आदि किया जाना एवं कवि की कामना तथा महाकवि सोमवेत को छोड़कर दूसरे कवि उच्छिष्ट भोजी हैं, इसका वर्णन ।
इति चतुर्थ प्रश्वासः
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मङ्गलाचरण
मुनिकुमार ने कहा-मुर्गे के बघरूपी पाप-युक्त अभिप्राय से यशोधर का ऐसे भुवन पर्वत के समीपवर्ती गदी तट पर वर्तमान वृक्ष पर गोर-कुल में मोर होना, प्रसङ्गवश सुवेन पर्वत का, वृक्ष का एवं मयुर कुल-का सरस वर्णन
__ पश्चात् पिकारी 'गजाशल्यक' द्वारा मयूर का पिंजरे में बान्दीकृत किया जाकर, उज्जयिनी नगरी में यशोमति महाराज के लिए मेंट किया जाना और भाग्योदय से मोर के लिए जातिस्मरण प्रकाट होना।
पश्चात् राजमाता चन्द्रमति का विन्ध्याचल पर्वत की दक्षिण दिशा में वर्तमान “करहाट' नाम के जनपद में गोपन' नाम के गोकुल ( गोशाला ) पति के गृह पर कुत्तों के कुल में कुत्ता होना । इमी प्रसंग में करहाट देश के ग्रामों की प्रौर गोकुल की छटा का सरस वर्णन एवं प्रस्तुत कुत्ता 'गोधन' नाम के गोकुलस्वामी द्वारा उज्जयिनी नगरी में यशोमलि महाराज के लिए मेंट किया जाना ।
पश्चात् चन्द्रमति के जीव नुतं द्वारा मार का प्रागान्त किया जाना, उसे जानकर यशोमनि महाराज द्वारा फुत्ते का प्राणान्त किया जाना । इसी प्रसंग में मयूर व कुत्ते के मरण से यशोमति महाराज का शोकाकुल होकर इनकी पूर्वजों-जैसी क्रियाएं किये जाने का आदेश देना ।
इसके बाद यशोधर वा जीव मयूर का मरकर 'शिशिताण्डवमण्डन' भाग के वन में सेहिनी के गर्म में आकर सेही होना, प्रमी प्रसंग में प्रस्तुत वन का सरल वर्णन और चन्द्रमति के जीव कुत्ते का भरकर सर्प होना, पश्चात् मेही द्वारा सपं का मक्षण किया जाना, प्रसंगवमा सर्प का वर्णन पुन: सर्प द्वारा सेहो का साया जाना । ११७
__उसके पश्चात् यशोधर के जीव सही का सिप्रा नदी के जाल में महान अजगर-सरीखी देह दाना 'गोहितान' नाम का मण्छ होना और चन्द्रमति के जीन काले सांप का सिप्रा नदी के घगाष जलाशय में "पिाशुमार' नाम का मचानक मकर होना, इसी प्रसंग में सिमा नदी का पोर उसके जल का तथा जाल-क्रीड़ा करने वालो नागरिक कमनीय कामिनियों का सरस वर्णन
११८ इसके बाद उस नागरिक स्त्रियो की जलक्रीड़ा के अवसर पर उस 'शिशुमार' नाम के मकर द्वारा, जो कि मुझ 'रोहिताक्ष' नाम के भन्छ को पकड़कर खाने के निमित्त लोटा हुआ था, 'मदन मजरिवा' नाम को स्त्री पकड़ी आना, जो कि ययामिनि महाराज की कुसुगावानी नाम की रानी की दासी थी, इससे कपिरा हाए यशोमनि महाराज द्वारा मगारों का समूह बुलाकर सगस्त जलचर दुष्ट जन्नुमा के विनाश के लिए आदेश दिया जाना, जिससे शिशुमार मकर को कण्ठनाल में लोई का ब्रा कोटा पड़ना और रोहिताक्ष मच्छ के ऊपर मयाजाल पड़ना, पश्चात् मछुवारों द्वारा लाये हुये दोनों को देखकर यशोमति महाराज द्वारा पितरों के सन्तपंण के लिए ब्राह्मण-समूह को सदावर्त शाला के रसोइए के लिए ममर्पण किया जाना इस तरह दोनों का प्राणान्त होना।
१२३ पूनः चन्द्रमति के जीव मकार का भौर यपोषर के जीव रोहिताक्ष गच्छ का, उज्जयिनी के निकटवर्ती 'काहि नाम के ग्राम में मेड़ों के भुण्ड के मध्य क्रममाः बकारी व बकरा होना, जबान होने पर एक दिन योघर के जीव बकरे द्वारा अपनी माता चन्द्रमति के जीव बकरी के साथ कामसेवन किया जाना भीर तत्काल मेढ़ी के समुह के स्वामी द्वारा विशेष तीधरण सींगों से बकरे के मर्मस्थानों में निरुर प्रहार किया जागा, एवं जराके पापात में मरकर उसका उसी बकरी के गर्भ में प्राकर बकरा होना ।
१२४ इसी अवसर पर यशोमप्ति महाराज का शिकार खेलने के लिये अन में जाता, इसी प्रसंग में शिकारी यगोमति महाराज का वर्णन होना, परन्तु कोई शिकार न मिलने से मिगण पौर बुद्ध हुए उसके द्वारा बनरिया, मेढ़ा समूह,
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व शारड-ममूह रो सहित उक्त यनारा-गमूह के मध्य में से वापिस लीटा जाना, इसी मवसर पर उसके द्वारा लोह की नोक के तीर से मेरी माता बकरी का विदीर्ण पिया जाना और उसका पेट फाड़ दिया जाना जिससे उनके द्वारा कम्मायमान शरीर वाला एवं अंगार-पूज्ज के ऊपर धारण किया हमा मांग-मरीखा । यसोधर का जीव गर्म-स्थित बकरा ) या जागा और रसोइए के लिए प्रतिपासन निमित्त दिया जाना।
१२४ इसी प्रस्तान में उस चन्द्रमति के जीव बकरी का मरकर कलिङ्ग देशों में भैसा होना, सार एक व्यापारी द्वारा खरीदा जाकर उसका उज्जयिनी में आना और सिपानदी में प्रविष्ट होगा, पुन: यशोमति महागाष के अश्व पर उसके द्वारा सांघातिक प्रहार किया जाकर मारा जाना, जिसके फलस्वरूप राणा के प्रादेण में सेवकों द्वागा घार यन्त्रणा देनार उस मैसे को मार दिपा जाना, यही माग-लम्पट अमृल-मति द्वारा बकरे को पकवाकर भक्षण किया जाना । इस तह गैसा और बकरे का प्राणान्त होना, पगले जन्म में दोनों मुर्गा-मुर्गी हए
'मन्मथमपन' नाम की चरम देहधारी एक मुनिराज द्वारा जम्बूद्वीप के विजयाई पर्वन पर ध्यानस्थ होना, इसी प्रम में यिजयाई पर्वत की छटा का गरस वर्णन किया जाना, 'य-न्दनविलास' नाम के एक विद्याधर का प्राकाशमार्ग से उपर से निकलना, मुनिराज के तप के माहात्म्य से उसके विमान का रुक जाना, जिससे कुपित होकर उसके द्वारा मुनि के ऊपर चोर उपसर्ग किया जाना, विद्याधरों के राजा राशिजण्डी का प्रस्तुत मुनिराज के दर्शनार्थ वहाँ आना और 'कन्दलपिलास' विद्याधर के दुष्कर्म को देखकर उस पर कुपित होना पौर उसे शाप देना कि इस दुष्कर्म के विपाक से न उम्जयिनी में चण्डकर्मा नाम का कोट्टपाल होगा
___ विद्याधर दास परों पर गिरकर प्रार्थना की जाने पर रत्नशिखण्डी द्वारा कहा जाना--'जब तुझे आचार्य सुदत्त के दर्शनों का नाम होगा और तू उनसे धर्मग्रहण करेगा तो सेरो इस शाप से मुक्ति हो जाएगी' इसी प्रमा में प्राचार्य सुदन का, जो कि कलिङ्ग देश के पाक्तिशाली राजा थे, विस्तृत व अलंकार-युक्त वर्णत Frया जाना १३३
रलशिखण्डी द्वारा विद्याधर में यह कहा जाना कि एक दिल दरबार में मदन राजा के ममक्ष एक चोर उपस्थिति किया मया, जो कि सोते हुए नाई को मार डालने और उसका मर्वस्वहरण करने का अपगधी था, गजा द्वारा उसे दण्ड देने के विषय में धर्माधिकारियों की और दृष्टिपात किया जाना, पर्याधिकारियों द्वारा उसके ऐसे चित्र वध करने जा भादेश देना, जिससे दस या बारह दिनों में प्राणत्याग कर देने, यह सुन कर राजा वा त्रिय जोवन से विशेष प्रचि होना, जिससे उसके द्वारा राज्य त्याग कर अपने छोटे भाई को राज्यलक्ष्मी समर्पण करके जिन दीक्षा पारण की जाना
इसी प्रसार में रलशिखण्टी द्वारा 'कन्दविलास' नामक विद्याधर के प्रति उज्जयिनी नगरी में वर्तमान 'सहस्रक्ट' नाम की बसति (जिन मन्दिर) का, जो कि विवानिखिन पांडण स्वप्नांचाली है, इलेषप्रधान अलङ्कारों द्वारा सरस वर्णन किया जाना एवं परिसंध्यालंकार द्वारा उज्जयिनी का ललित निरूपण किया जाना १४२
पुनः उस विद्याधरों के चयती ग्नशिखण्डी द्वाग उक्त निरूपण करके भोर मन्मथमथन ऋषि की पूजा करके इच्छिन स्थान को प्रस्थान किया जाना और उसके पाप-वश कन्दविलास विद्याधर का उज्जयिनी में आकर चकर्मा नामक कौद्रपाल होना
पुनः यशोघर के जीक (बकरे.) का और चन्द्रमति के जीव (मैसे) का उसी तज्जयिनी के समीप एक लाण्डालवस्ती में साथ-साथ मुर्गा-मुर्गी होना बाल्यावस्था व्यतीत हो जाने के बाद किसी अवसर पर 'चन्द्र वर्मा नाम के कोट्टपाल द्वारा दोनों मुर्गा-मुर्गी का एक चाण्डाल पुत्र के हस्तगत देखा जाना, पश्चात् उससे लेकर पशोमति महाराज के लिए दिस्परलाये जाना, पुन: उनके द्वारा यह कहा जाना कि 'ह चपटक ! यह मुर्गा का पाड़ा तब तक तुम्हारे ही
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हम्नगत रहे, क्योंकि मैं पत्रकूट चैत्यालय को उपवन में कामदेव की पूजा के लिए जाऊँगा, तुम्हें बहो पा युद्ध-बीड़ा के लि।ा ग पक्षी जोई को दिखाना चाहिए।' जैमी भाना बहकर पण्डकर्मा द्वारा पिमरा के साथ प्रस्थान किया जाना।
१५० इंगके बाद चश्वकर्मा का पिजर के साथ इसी उद्यान में पहुंचना, एवं १ माथियों ( शनसर्वज्ञ नामक विष्य भक्त विद्वान-आदि ) का भी वहां पहुंचना, यहां पर उनके द्वारा प्रशोक वृक्ष के मूल में विराजमान हुए सुदत्ताचार्य का देखा जाना, पश्चान उनके ममन, शकुन मज नामके विद्वान द्वारा सांख्यदयान का समर्थन निया जाना धमध्वज नाम के विद्वान द्वारा मोगांसक मत की स्थापना की जाना, हरप्रबोष द्वारा दक्षिणमार्ग ना बाममार्ग के सिद्धानों का समर्थन किया जाना, और मुगन कोनि द्वारा बौद्ध दर्शन की स्थापना की आना, एवं चण्डकर्मा द्वारा चार्वाक मत का मामर्षन किया जाना, परवान आचार्य सुदत्त पारा उन सभी दानिकों को मान्यता का अकाटय युक्तियों द्वारा संडन किया जागा पोर महिमा को ही धर्म का मग बताना और अपने पक्ष का समर्थन करते हुए मुदनाचार्य द्वाग उन मामी के पर्व भवों का वर्णन किया जाना, जिसके फलस्वरूप उसे यह निश्चय होना कि 'हमने यशोधर राजा व चन्द्रमनि की पर्याय में कुलदेवो के लिए आटे के मर्गे की बलि चढाई थी, जिससे हमें इस भवन में घूमना पहा, इत्यादि
पश्चात् गालोम नि महाराज द्वारा कुशुमानली महागनी के लिए अपनी शरददेधिता की काशलना प्राप्त करने के लिए भेदने में गमथं बाग छोड़ा जाना, जिससे दोनों मुर्गा-मुर्गी का श्राहत होकर मर जाना और धर्म के माहात्म्य से दोगों का मगर योनि जमलेगा. वो बार मति कुमार की रानी कमुमा पनि के गर्भ से यमज ( जोड़ा) भाई-बहन के रुप में उत्पन्न होना, इसी प्रसंग में गर्भवती कुसुमात्र लि रानी का कार्णन होना भोर रानी द्वारा अपने दोहले राजा के लिए प्रकट किये जाना और यशोमति महाराज द्वारा अधिकारियों के लिए उक्त कार्य सम्पन्न करने की प्रेरणा की जाना पचान उनका नाम 'यशस्तिलक और मदनमति रखा जाना और माता के दोगना के अधीन अभयाचि और अभय गति नाम रखा जाना, प्रसंगवश यणम्निनक और मदनमनि के कमार काल का निरूपगा किया जाना
एक दिन योमति महाराज का शिकार बोलने के लिए जाना और उनके द्वारा महसट जिनालय के उद्यान में श्री सुदप्ताचार्य का देखा जागा, अजमार नामक विदुषक द्वारा यह कहा जाना कि राजन् ! 'इस मुनि के दर्शन में माज शिकार मिलना असम्भव है. इसे सुनकर राजा या क्षध हो जाना । उसी अवसर पर सदनाचार्य को वदना के लिए बाए हुग कल्याण मित्र नाम के वणिक स्वामी द्वारा यशोधर महाराज से कहा जाना-हे राजन् । असगय में आपका मुख शोक से म्लान क्यों हो रहा है ? विदूषक पुत्र अजमार--हे वणिक स्वामी इस अमङ्गलीभून नग्न के देखने से' ।
कल्याणमित्र द्वारा यह कहा जाना-'राजन् ! ऐसा मत साची, क्योंकि यह भगवान् निस्सन्देह पूर्व में लिङ्ग देश के राजा थे, तुम्हारे पिता से इनका बंशानुगत पूज्यता का मंबंध पा । इसने व्यभिचारिणी स्त्री मरोग्यी म्वयं आई हई राज्यलक्ष्मी को चन्चल स्त्री-सी जानकर तिरस्कृत किया और त्रिलोक पूज्य तपश्चर्या में स्थित है, भारः इनकी अवज्ञा करना उचित नहीं है । पुनः नग्नता के समर्थक अनेक प्रमाण दिये तब यपोमानि कुमार द्वारा कल्याण मित्र के साथ मुनि राज को नमस्कार किया जाना और मुनिराज द्वारा उरो शुभाशीर्वाद दी जाना
यशोमति कुमार को अपनी दुर्भावना पर पश्चाताप होना, और उसके मन में यह विचार आना कि 'अपने शिर कमल से प्रस्तुत भगवान के चरणों की पूजा करनी ही इस पाग का प्रायश्चित्त है' प्रस्तुत आचार्ग द्वारा राजा के मन की बात जानकर उसे रोका जाना इससे प्रभावित हुए यशोमति कुमार द्वारा उन्हें अतीन्द्रियदर्शो जानकर अपने दादा यशोध
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महाराज और पितामही चन्द्रमति और माता-पिता के विषय में पूंछा आना कि अब वे किस लोक में है ? मुनिराज द्वारा कहा जाना--राजन् ! तुम्हारे दादा यशोघमहाराज तो ब्रह्मोत्तर स्वर्ग में देव हैं। तुम्हारी माता पांच नरक में है और तुम्हारी पितामही तथा पिता आटे के बने मुर्गे की बलि देने के गाप से अनेक जन्मों में कष्ट उठाकर अब तुम्हारे गृह में पुत्र-पुत्री के रूप में वर्तमान हैं । यह मुनकर यशोमति कुमार द्वारा अपने दुष्कृत्यों पर वेद-लित होकर बाचार्य में दीक्षा बेने की प्रार्थना की जाना एवं समस्त परिवार को बुलवाकर निगल तारा का दमा नमान
इसके पश्चात् मुनिकुमार द्वारा राजा मारिदत्त से कहा जाना 'राजन् ? हम वही अभयरुचि और अमपमति हैं, अपने पूर्व भवों का वृत्तान्त मुनकर हमें अपने पूर्वजमका स्मरण होगया जिससे हमने संसार को छोड़ देने का निश्चय किया । उस समय हम दोनों की अवस्था केवल ८ वर्ष की थी, इसलिए हमें भुल्वक के व्रत दिये गए । आचार्य सुदत्त के साथ विहार करते हुए आपकी नगरी में आए तो तुम्हारे रोवक हमें पकड़ कर तुम्हारे पास ले आए ॥ १७५
मुनिकुमार को कथा मुनकर मारिदत्त राजा को अपने ऊपर बड़ी ग्लानि हुई, उम की जीवन-धारा धर्म की और प्रवाहित होने लगी । पुन. उसने मुनिफुमार से अपने समान बना लेने की प्रार्थना को। मुनिकुमार में उन्हें अपने गुरु मुक्ताचार्य के पास प्रस्थान करने को कहा १ला कल्य
इति पञ्चम प्रावासः श्री० सुदत्ताशयं का चण्डमारी देवी के मन्दिर में पहुंचना, उससे मारिदत्त राजा को समा का क्षुब्ध हो-7 और मारिदात राजा द्वारा आघायं की पूजा की जाने पर अभयन्त्रि शुल्लक द्वारा प्रस्तुत राजा का परिचय देने के लिए आचार्य से यह कहा जाना कि-'भगवन् यदुवंश में 'चाइमहागे।' नाम का राजा या, प्रसङ्गवश यदुवंश का व उत गजा का लग्नित निरूपण किया जाना और यह कहा जाना कि ये मारिदा महाराज ऊ राजा के मुगुष हैं और हमारी माता कुसुमावलि रानी के लघु भ्राता है, अर्थात्-हमारे छोटे मामा है, अब ऐ उपदेश सुनने के पात्र हैं; ः इन्हें धर्मोपदेश दीजिए । पश्चात् मारिदल राजा द्वारा आचार्य के लिए नमस्कार किया जाना और निराकुल मनोवृत्ति बाले व बुधि गुणों से मुक्त होकर पूज्म सुदत्ताचार्य से निम्न प्रकार प्रश्न किये जाना 'भगवन् ! निस्सन्देह यह प्राणी धर्म से मुखो होता है, उस घमं का क्या स्वरूप है ? और उसके कितने भेद हैं ? एवं उसकी प्राप्ति का क्या उपाय है ? और उसका क्या फल है? १७९ इसके बाद प्राचार्य द्वारा धर्म, उसका स्वरूप व उसके भेद निरूपण किये जाना
१८२ पश्चान् राजा द्वारा मोक्षमागं व संसारकारण गृहस्थ-धर्म व मुनिधर्म के विषय में पूछा आना तत्पश्चात-- आषार्य द्वारा मोक्षमार्ग ३ संसार के कारणों का निरूपण किया जाना
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मुक्ति के विषय में अनेक मान्यताएँ व उनकी समीक्षा- या कल्प सैवानशेषिक, ताकिकवैशेषिक, पाशुपत, कील, सांरूप, मूढ़ता का निषेष-- बौद्ध, जैमिनीय, पाकि, वेदान्ती, माध्यमिक बौद्ध,
सूर्य को पूजा-निषित जल चढ़ाना-प्रादि व कसे मानवों काणाद, ताथागत, कापिल, ६ अदबवादियों के मल व
पो जैनधर्म में लाने की चेष्टा करनी चाहिए ? उनकी समीक्षा और स्यानादियों द्वारा मानी हई मुक्ति
२११
५वा कल्प फा स्वरूप।
१५३-१६४
सम्यक्त्व के प्रतिबार (मला-प्रादि ) व शङ्का का २रा कल्प
स्वरूप व उससे हानि पौर निःशंकित अंग का स्वरूप लया प्राप्तस्वरूपमोशंसा-सम्गग्दर्शन का माहात्म्य व जमदग्नि तापमी के तपोभंग की कथा २१२-२१६ स्वरूप, पाप का नक्षण, १८ दोष, ब्रह्मा, विष्णु, मद्देश- ठाकल्प मादि की आसता का निरसन, शिव को धाल मानने के
जिनदत्त और पगरथराजा की प्रतिज्ञा के निर्वाह की विश्व में विशेष प्रबल युक्तियों द्वारा समीक्षा की जाना,
कथा
२१६-२२२ एवं जैन तीथंडरों को आपस मानने में अभ्यवादियों के
७वा कल्प प्रारोपों का ममाधान करते हा उनकी पासता का समर्थन
१६५-२०४ निश्चित पंग में प्रसिद्ध मंजन बार की कथा ३रा कल्प
२२३-२२५
दवा कल्प बागमपदार्थपरीक्षा
नि:कांक्षित अंग का स्वरूप व उसमें प्रसिद्ध भनन्तआप्त को प्रामाणिकता से प्रागम की प्रामाणिकता, मति की कथा
२२६-२३० मागम का लक्षण प विषय, वस्तु का स्वरूप द्रव्याधिक
हवा कल्प व पर्यायाथिक नय की अपेक्षा उत्साद, विनाश व स्थिर पील है, दस्त को सर्वथा निक्षण बिनाशील मानने
निविचिकित्सा अंग का स्वरूप व उसमें प्रसिद्ध वाले बौजी का और सर्वया निव मागने वाले मांस का उद्दायन' राजा की कथा
२३१-२३४ युक्तिपूर्ण मंइन, आत्मा का सा, मात्मा को जान-दर्णन १० वी कल्प
न्य मानने पर और शानमात्र को जीव मानने पर अमूवष्टि अंग का स्वरूप व भवसेन नामकः मुनि आपत्ति का प्रसंग, जीव और कर्म का संबंप, लीध को आगम विम्ब प्रवृस का निरूपण २३४-२४० के भेद, अजीव द्रव्य, बघ का स्वरूप भोर मेद, मोक्ष ११ वाकल्प का समगा, बन्ध व मोक्ष-कारण, मिथ्याल्व के भेव, प्रसंगम का लक्षणा, कषायों के भेद, योग, पाहतों दवारा
अमूरदृष्टि पंग में प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा
२४०-२४५ माने गये लोक का स्वरूप, लोक फो वातवालय के प्राचार मानने की माईन्मान्यता का मगर्थन, जैन गाधुनों पर
१२ वा कल्प अन्य मतावलम्बिपों द्वारा चार दोषों ( स्नान न कारना. सम्यक्त्व के वर्धक गण. जैन शासन के वर्षका गुण, आषमन न करना, नग्न रहना मोर खन्ने होकर मोजन उपग्रहन अंग का निरूपण और इसमें प्रसिक जिनेन्द्रभक्त करना) का आरोपण किया जाना और उन दोषों का की कथा
२४६-२४९ युक्ति आगम प्रमाण से समाधान किया जाना व ऋण १३-१४ या कल्प मुंबन का प्रयोजन
२०४-२१० रितिकारमा अंग का स्वरूप मंच की पद्धि के विषय
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( ३४ )
में एवं स्थितिचारण अंग में प्रसिद्ध वातिका २४१ - २५७
कथा
१५ १६ १७ १८ कल्प
प्रभावना यंग का स्वरूप और इसमें प्रसिद्ध बच कुमार मुनि की कथा २५७-२७०
१६, २० व कल्प
atar at स्वरूप बार उसमें प्रसिद्ध विष्णु
२७०-२०१
कुमार मुर्ति की हाथा
२१ व कल्प
के
7
11
r
safer के दो कार अन्तरंग व बाह्यसाधन, दर्शन के दो मेव, तीन भेद और दशमेंद, उनमें दो भेदों का free, rose के बिल, प्रथम, संवेग अनुरुम्पा व भास्तिक्य काप सम्यक्त्व के तीन भेदों और दण भेदों का स्वरूप २८२-२६५ गृहस्थ आवक के ग्यारह मंद (११ प्रतिमाएँ और मुनि के चार भेदों के तीन शीर उनके दूर करने का उपाय, सम्यक्त्व का माहात्म्य, सम्यक्त्व के की परिता के विषय में सम्यक् के पीस दोष मोक्षमार्गी कौन है ? निश्चय नय से राय का स्वरूप, 'रत्नत्रय आत्मस्वरूप है इसका सरस समर्थन, आत्मा धीर कर्म में महान भेद, 'आत्मा अपनी पर्याय का और कर्म चरनी पर्याय का फल है इसका दृष्टान्त रा मन, जिसका मन विशुद्ध है वह है और जिसका मन शुद्ध ( कषाय-बुक्त) है वह हिंसक व पापी है. गुल-दुःख से पुण्यपाप का दध, यह चित्त अशुभ ध्यान दुवारा पापचन्ध और शुभ ध्यान द्वारा पचन्ध और प्याग द्वारा मांश प्राप्त करता है, विल को निय न्त्रित करने का उपदेश २६-२६० सम्पज्ञान का स्वरूप व माहात्म्य, जाता के दोष से बुद्धि की विपरीतता ज्ञान के मेव २६०-२६१ चारि का लक्षण व मेद, सम्पवस्य-हीन ज्ञान की व्ययंता और ज्ञानहीन चारित्र की व्ययंता, सम्यक्त्व से सुर्गात, ज्ञान से कीर्ति चारित्र से पूजा और तीनों की प्राप्ति सेनाक्ष की प्राप्ति का निवेश करके तीनों ना स्वरूप-निदेश
मनात्मावी गारद को शुद्ध करने का उपाय प सम्यग्दर्शन आदि का आश्रय
२६१-२६३
२२, २३वकल्प सप्तम आश्वास
'द सम्पदर्शन के गुणवर्धक है इसका दृष्टान्त-माळा द्वारा समर्थन भाव के दो भेद पाठ मूल गुण, मद्य के दोष, मय पीनेवाले संन्यासी की कथा, मचत्रती धुलि पोर की कमा
२६४-२६७
२४ वाँ कल्प
-क्षण के दोष प्रमं सेवन न करने वालों की भूर्खता पहिंसा व-पालन का उपदेश मधु-सेवन के दोष, पाँस उदुम्बर फलों के दोष, रथ पीनेवालों तथा अनियों के साथ खान-पान का निषेध, चर्मपात्र में रक्ने हुए जल वादि का निषेध
२६८-३००
कुछ लोगों की मान्यता है कि मूंग व उड़द-आदि एकेन्द्रिय जीवों का शरीर भी ऊंट व मेडा आदि के शरीर की मां वह जीव का शरीर है इसका बुक्ति पूर्व पूर्व निरास गाय का दूध शुद्ध है, परन्तु गोमांस शुद्ध नहीं है, इसका दृष्टान्त द्वारा समर्थन मांस स्पाय है और दूध पीने लायक है इसका मनित द्वारा समर्थन, मांस और धों में अन्तर विधि द्वारा शुद्धि के विधान की समीक्षा, बौद्ध, योग्य व चार्वाक आदि की मान्यता को न मान कर मांस-मक्षण का त्याग करना चाहिए. लालसापूर्वक मांस खाने वालों को दोहरा पाप मांस-मक्ष का संकल्प करने वाले राजा सोरसेन की या ३००-३०४ २५ व कल्प
सांसत्यार्थी चाण्डाल को कथा २६ व कल्प
धायकों के बारह उत्तर गुण, पाँच मणुव्रत व का लक्षण, पाँच पापों के सेवन से दुर्गति, हिंसा और अहिंसा को लक्षण, समस्त गृहकार्य देख-भाल कर करना और समस्त तरल पदार्थ ( घी, दूध आदि ) वस्त्र से छानकर उपयोग में लाने साहिए,
३०६
भोजन के अन्य उके पालने का उभ्य, रात्रि
३०४-३०५
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( ३५ )
भोजन का निवेष, अपने प्रधानों को भोजन कराना, भोजन में त्याज्य वस्तु ( चारमादि }, असातावेदनीय कर्म के ग्राव के कारण चारित्र मोहनीय कर्म के आसन के कारण, मंत्री, प्रमोद, कारुण्य व माध्यस्थ भावना का स्वरूप fear पर हिसा में मुख्य व गोभावों को विशेषता, निष्प्रयोजन स्थावरजीवा के घात का निषध निय आदिजीवों का घात हो जाने पर आगमानुकूल प्रायश्चित्तविधान, प्रायश्चित शब्द का अर्थ योर प्रायश्चित्त देने का अधिकार और पाप-त्याग की अमोघ प्रोपधि योग का स्वरूप व भेद, शुभाशुभ योग, पाप से बचने का उपाय, रात्रि का कर्तव्य, जीवदया का महत्व अहियाप्रती मृगसेन चोवर की कथा ३०.३-३२४
२७ व कल्प
प्रचरित का स्वरूप उसकी विस्तृत व्याख्या, भन के अतीचार अचोमं का माहात्म्य व चांगे से उभयलोक में दुःख एवं चोरी में आरक्त श्रीभूति पुरोहित की कथा
३२५-३३४
२८-३० व कल्प
सत्यावत का स्वरूप, सत्यवादी को कैसा होना चाहिए ? केवली भगवान् आदि के अववाद से व मोहनीय कर्म का आश्रय, कां विद्वान् मोक्षमार्ग को स्वयं जानता हुआ भी ज्ञान का घमण्ड करने माथि से नहीं यतलावा, उसे ज्ञानावरण व दर्शनावरण कर्म का वष होता है, सत्याणुत्र के प्रतीचार, स्त्री आदि की कथा करने का निषेध, rer के असर सत्य व सत्यासत्य प्रादि चार भेद और उनका स्वरूप, सत्यबादी को अपनी प्रशंशा न करते हुए दूसरों की निन्दा नहीं करनी चाहिए। उसे दूसरों में विश
गुणों का भात (लोप) नहीं करना चाहिए और अपने में विमान गुणों की नहीं कहना चाहिए क्योंकि प निन्दा व प्रात्मप्रशंसा आदि से नीच गोत्र का बंध होता है, सत्य बोलने से लाभ, असत्यभाषण में हानि, अमरयभाषी सु और पर्वत-नारद की कथा, इसी प्र में मुला राजकुमारी का समर राजा के शाय संगम हीना, जिससे agro का विरक्त होकर मरकर कालासुर होगान्प्रादि की कथा ३३४-३५३
३१ व कल्प
वर्यात का स्वरूप ब्रह्मचारी का कर्त्तव्य, 'ब्रह्म' पाद की निक्ति, काम का मदन लाने को प्रेरणा, सांतारिक भोगों से तृप्त न होने के विषय में दृष्टान्तमाला फार्म भोगों की जिन्दा कामको विवृत मनोवृत्ति प्रचुर मात्रा में काम सेवन करने का दुष्परिणाम, काम की क्षय-रोग की तुलना, कामरूपी अग्नि के प्रज्वनित होने पर स्वा ध्याय व घमंत्र्यान आदि का अभाव, आहार की तरह भांगसेवन करना चाहिए, ब्रह्मचर्याशुवत के प्रतीचार, काम के दशगण, क्रोध के अनुचर ब्रह्मचर्याशुवत से लाभ, परस्त्रीलम्पटता से उभर लोक में भयानक विपत्तियां मांगनी पड़ती हैं, दुराचारी कडारपिङ्ग को कथा ३५.३-३६७
३२ य कल्प
परिपरिमाणाव्रत का लक्षण, दश बाह्य व त्रोद माभ्यन्तरपरिग्रह अथवा वाह्य परिग्रह के दो मंत्र और प्राभ्यन्तरपरिग्रह का एक भेद, घन की तृष्णा का निषेध, लोगों की निन्दा, सन्तोषी की प्रशंसा परिग्रह में ग्रासक्त मनुष्य की मनोवृत्ति विशुद्ध नहीं होतों परिग्रह में अनासक्त मानव की प्रशंसा, सत्यात्र को दान देने वाला सन्चालोमी लोमश परिमारग किये हुए धन से अधिक घन का संचय करनेवाला की क्षति करता है। प्रचुर घनाकांक्षा से पाप-सचय, कोमी पिण्यान्गन्ध की कथा
३६७-३७३
३३ वॉ कल्प
तीन गुणत्रत, दिम्बत व देशव्रत का लक्षा श्रीर उससे लाभ, अनर्थदण्ड का स्वरूप अनर्थन से लाभ, मनदण्ड- विरति के प्रतीचार ३७४-३७५
प्रति सक्षम आश्वास
३४ व कल्प
चार शिक्षावत, सामायिक का लक्षण, मूर्तिपूजा का विघात वा देव-प्रतिमा की पूजन से ग्राम देवपूजा में अन्तरङ्ग व बहिरङ्गमुद्धि की भावस्यता स्नान करने का उद्देश्य क्षेत्रपूजा के लिए गृहस्य को नित्य स्नान करना चाहिए और मुनि को दुर्जन से छू जाने पर स्नान करता चाहिए स्नान के योग्य जन, स्नान के पाँच भेद, गृहस्थ
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कष्ठपर्यस्त व मस्तकपर्यन्त स्नान द्वारा बाह्म शुद्धि किंवं फीस मभिषेकी, यज्ञातस्मान, सोलह पाखडीवाले कमल बिना देवपूजा का अधिकार नहीं, प्रशस्त मिट्टी-आदि से की कणिका में अर्हन्त प्रभु को स्थापित करके उनकी पूजा शुद्धि का विधान, प्राचमन निाये बिना गृह में प्रवेश-निषिद्ध, करना व पूजा-फल स्नान करके अपग्रचित्त होकर पवित्र वस्त्र पहनकर मौन
stu त संयमपूर्वक देवपूजा की विधि करनी चाहिए, होम में
तीर्थकर अहंन्त भगवान् की स्तुति, इसी प्रसङ्ग में भूतबलि का विधान, गृहस्थों के दो यम-लौकिक व पारलो
(जिन-स्तुति को आधार मानकर ) जमिनीय मत-ममीक्षा, किक, जातियां व उनकी क्रियाएँ भनादि हैं; विशुद्ध जाति
सांख्यदर्शन-मीमांसा, चार्वाक-दर्शन-मीमांसा, कोषिक वालों के लिए जैन विधि, जैनों को वहीं लौकिक विधि
दर्शन की मुक्ति मोमामा, सृष्टि कर्तृत्व-मीमांसा, बेद की विधान ( विवाह-पादि ) मान्य है; जिसमें उनका सम्पमत्व
ईश्वर कर्तृत्व मान्यता की समीक्षा, बौखदर्शन-मीमांमा, नष्ट नहीं होता और चारित्र भी दूषित नहीं होता
बुद्ध के प्रमाणतत्व की मीमांसा व ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ३७६-३७६
(रोवविधोष ) मत-समीक्षा आदि विपपी का ललित व ३५ वी कल्प
युक्तिपूर्ण विवेचन।
४०५-४१३ देवपूजा के अधिकारी दो प्रकार के है, अन्य मत की ३८ वा कल्प प्रतिमामों में प्राप्त का संकल्प नहीं करना चाहिए, पुष्पा- जप-विधि, प्रनादि सिद्ध पैतीस अक्षरी वाले पचनमा दिक में जिनेन्द्र देव की स्थापना करने वालों के लिए पूजा- कार मन्य गे जप करने का विधान, जप की माला-आदि, विधि, पंच परमेष्ठी तथा रत्नत्रय की स्थापना की विधि, मन से बचन से जप का विधान, पंच नमस्कार मन्त्र का महन्त की पूजा, सिद्ध को पूषा, आचार्य-पूजा, उपाध्याय- माहात्म्य, जप प्रारम्भ करने के पूर्व सपालीकरण-विधानपूजा, साधु पूजा, सम्मग्दर्शन-पूजा, सम्यग्ज्ञान-पूजा सम्यम् आदि । पारित्र पूजा, दर्शन-मक्ति, ज्ञानमक्ति, चारित्र-भक्ति, प्रहन्तभक्ति, सिद्ध-भक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरु भक्ति, शान्ति-भक्ति,
३६ वो कल्प आचार्य-मति
३७६-३६८ यान-विधि, पद्मासन मा खङ्गासन से स्थित होकर
उच्छवासनिःश्वास रूप प्राणवायु के प्रवेश व निगम को सूक्ष्म ३६ वा कल्प
करते हुए पाषाण-घटित-सा निश्वल होकर घ्यानस्थ होना प्रतिमा में पास-यादि की स्थापना करने वालों के लिए वाहिए, ध्यान, ध्याता व ध्येय का स्वरूप, पगध्यानी का पूजाविधि, अभिऐन, पूजा, स्तुति, जप, ध्यान य परीषह-सहन, ध्यान के योग्य स्थान, सबोज ध्यान ( गृथअतारापना इन छह निधियों के कहने की प्रतिज्ञा, पृषक क्त्ववितर्कगवीचार शुक्लध्यान ) का रूप, प्रबीजध्यान को स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करणे स्थिा होने का (एकत्ववितक अवीचार नामक शुक्ल घ्यान ) का स्वरूप, पौर जिन प्रतिमा को पूर्वाभिमुख स्थापन करने का विधान, धर्मध्यानी को अज्ञान-निवृत्ति आवश्यक, ध्यान की दुर्लदेव-पूजा के छह विधि विधान प्रस्तापना, पुराकर्म, स्थापना भता व ध्यान का काल, धर्मध्यान की उत्पत्ति में पांच सग्निषापन, पूजा और पूचाफल, प्रभु की पारसी, जनामिका, काराण; धर्म ध्यान के अन्तराय' ९ दुर्गुण, ध्यानी को शत्रुसबका दावखरामा जिनेमका अभिषेक मित्र में समभाची होने का विधान, पालजल योगदर्शन के धुताभिषेक, पारोग्ण दुग्ध-प्रवाह से जिनाभिषेक, दही ध्यान का निरूपण भोर उसकी समीक्षा, धर्मध्यानी को से अभिषेक, इलायची, लौंग य कलोल ( सुन्ध जड़ी शत्रु-मित्र में समभाव रखने वाला व सत्यवादी होना चाहिए, बूटी ) के चूर्णों के कल्कों से प्रभु का अनिषेक, शुभ्र जल- सात व रौद्रध्यान का स्वरूप और उनके स्पागने का उपदेश, पुर से भरे हुए चार कलशों से प्रभु का जनाभिषेक, गन्धोद दोनों ध्यानों से होने वाला दुष्परिणाम, धर्मध्यान
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का स्वरूप प्राज्ञा विचय नामक धर्मध्यान का स्वरूपः ४० वा शल्प अपायविचय का स्वरूप संस्थानविनय का स्वरूप अतपूजाविपाक बिषय का स्वरूप, धर्मम्यान का फल, एक्लध्यान
वकल्प
४४०-४४२ का स्वरूप, मोक्ष का स्वरूप, ध्यान करने के योग्य बस्तु
प्रोपयोपवास का स्वरूप, उपवास की विधि, उपवास धर्म ध्यानी को क्या विचार करना चाहिये ?, अहेन्त भग
के दिन का कत्र्तव्य, उपचार के दिन प्रारम्भ के त्याग का वान् का ध्यान करने योग्य स्वरूप, इसी प्रसङ्ग में "बेश
विधान, प्रोषधोपवाग के अतीचार, कायक्लेश के बिना विक, सांख्य व बौद्धदर्णन की मुक्ति-मीमांसा करके उक्त
___ आत्म-शुद्धि नहीं होती एव चारित्र धारक का भानों दार्शनिकों के निर्वाण अनेकान्त शैली के अनुसार
माहात्म्प। अन्लोकिक महन्त भगवान् में प्रकट रूप से विद्यमान है। इसका विवेचन, महन्त भगवान का ध्यान करने से लाभ, ४२ वा कल्प पूजविधान' में व्यन्तरादिक देवतामों का अर्हन्त' भगवान के मोग घ परिभाग ( उपमाग ) का लक्षण करके भोग समान माननेवाला मनुष्य नरकगामी होता है, क्योंकि परिमागपरिमारण प्रत का स्वरूप, घम और नियम का बिनागम में जिन-शासन की रक्षा के लिए शासन देवनाओं लक्षण, प्रस्तुत व्रत को सूरगा-प्रादि के माता का निधेष, की कल्पना की गई है, अतः उन्हें पूजा का एक अंश देकर भोगपरिभोगयत के असीचार प्रौन इस व्रत से लाभ उनको सम्मानित करना चाहिए, न कि जिनेन्द्र सरीखी अभिषेक-यादि पूजा द्वाग, निवाम ( निः गृह ) होकार ४३ वा कल्प धर्माचरण करने का विधान'; पंचनमस्कार मन्त्र के ध्यान दान का स्वरूप, दान में विशेषता का कारण, दाता, को विधि तथा महत्व, इस मन्त्र के ध्यान से समस्त उपद्रव
पात्र, विधि आर. द्रव्य का स्वरूप, सज्जन दाताबों के धनशान्त हो जाते हैं। लिवा-व्याख्या के कारण लोकिक ध्यान वितरण के तीन उद्देश्य, दान के पार भेद, चारों दानों का का निरूपण; लोकिन ध्यान की विधि, ध्यान का फल, सबसे प्रथम अभयदान देने का विधाना, उसकी प्रशंसा, माहात्म्य
साधुनों के लिए ग्राहार-दान देना, नवधा भक्ति, दावा के ___शाला-संसारी जीव शिव ( मुक्त ) है और शिव सात गुण, दाता के विज्ञानगुणा का नमा, किनके गृहों संसारी जीव है। इन दोनों में क्या कुच्छ भेद है ? क्योंकि में साधु वर्ग को प्राहार-ग्रहण नही करना चाहिए ? जोयत्व की अपेक्षा एक हैं, इसका समाधान, प्रात्मध्यान गृहस्थ को दान-पुण्यादि पार्मिक कार्य स्वयं करना चाहिए, के विषय में प्रश्न व उत्तर, शरीर और आत्मा की भिन्नता स्वयं धर्म धारने का फल, मुनियो के माहार-महए के में उदाहरणमाला जसे घी मन्यनादि उपाय द्वारा ती से अयोग्य गृह, जिनदीक्षा तथा आहारदात के योग्य वर्ण, पृपा कर दिया जाता है वैसे ही यह आत्मा भ्यागादि पन-( दान ) पंचक करना चाहिए, मालिकाल में मुनियों उपाय से शरीर से पृषक को जाती है। पारीर माकार और के दर्शन को दुलंमता, प्राधुनिक, मुनियों की पूर्वकालीन मारमा निराकार है इसके ममर्थन में बाहरण-माला; मुनि-सरोख समझकर पूजना चाहिए, पान के तीन भेद, मायुरूपी खम्भे पर ठहरा हुआ यह शरीर ही योगियों का अपात्र का लक्षण और उसे दान देना व्ययं, पात्र-वान से गृह है, योगियों का मन इसी भात्मपान रूपी चन्धुजनों पुण्य, मिथ्पादृष्टि को केवल करुणा बुद्धि से ही कुछ में क्रीड़ा करता है, इन्द्रियों से प्रेरित आरमा मगर ध्यान देना चाहिए, बौद्ध व नास्तिक-आदि के साथ संबंध-विच्छेद, में स्थिर नहीं रहता; अतः धर्मध्यानी को जितेन्द्रिय होना अन्य तरह से पात्रों के पांच भेद और उनका स्वरूप. समयी मावश्यक है। आप्तस्वरूप के ध्यान की विधि, पदमासन, मादि का लक्षण और उन्हें दान देने की प्रेरणा, जिस बोरासन और सुखासन' का जक्षण और ध्यान ही साधु में ज्ञान और तप नहीं है, वह तो केवल संघको विधि।
४१५-४४० स्थान भरने वाला है। योगियों के विनय करने की
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( ३६ )
विधि, गुरु के निकट त्याज्य व्यवहार प्रहारदान के लिए साधुओं की परीक्षा करने का निषेध, गुगो को विशेषता में साधु को पूज्यता में विशेषता, गर्मी के लिए धन खर्च करना चाहिए ।
जैनधर्म अनेक पुरुषों के आश्रय से हुआ है. साधुओं के नाम आदि निक्षेप की अपेक्षा चार भेद, नागादि निक्षेपों का लक्षण, राजसदान, तामनदान का लक्ष सात्यिक दान का लक्षण, उत्तम, मध्यम, जघन्य दाग, भक्तिपूर्वक शाक-पात का दान मो प्रचुर गुण्य का कारण, महारानी रखने का आदेश मानत से लाभ,
साधुओं की परिचर्या श्रुत के पाठकों और व्याख्या ताम्रों के लिए निवास स्थान, पाास्त्र व माहारादि की सुविधा देना, क्योंकि उनके प्रभाव में श्रुत का विच्छेद हो जायगा, मुनियों को श्रुत के विद्वान बनाना चाहिए, श्रुत का माहात्म्य, ज्ञान की दुर्लभता, महता, प्रशानी और ज्ञानी में अन्तर ज्ञान के बिना पुरुष अन्वा-सा है, प्रत्येक शास्त्र में स्वरूप, रचना, शुद्धि, मलङ्कार और वर्णन किया हुआ विषय होता है, और स्वरूप प्रादि के दो दो भेद मुनिदान के बतीचार, मुनियों को नमस्कारन्यादि करने से नाम
४४५-४६१
४४ वां कल्प
श्रावकों की ग्यारह प्रतिमाएं पूर्व प्रतिनामों के चारित्र को पालन करने में स्थित होकर मागे-आगे की प्रतिभाओं का चारित्र पालन करना चाहिए। एवं समस्त प्रतिमानों में रत्नत्रय की भावनाएं एकसरीखों कहीं गई हैं, ग्यारह प्रतिमाओं के नामधारकों में संज्ञामेद, जितेन्द्रिय क्षपण श्रमस्तु माणाम्बर, नग्न, ऋषि, मृति, यति, अनगार, शुचि, निर्मम मुमुक्षु, शंसितत्रत, बाथम, अनूचान, अवाशवान्, पोगो. पंचाग्निसाधक, ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, शिखाच्छेदी, परमहंस, तपस्वी, अतिथि दोक्षितात्मा, श्रोत्रिय होता, यष्टा, अध्वर्यु व ब्राह्मण इन मुनियों के नामों की युक्तिपूर्वक निरुक्ति और इसी प्रसङ्ग में पार्थ वेद व चार्य जीविद्या की निरक्ति, धर्म से 'युक्त जातिश्रेष्ठ हैं, पौत्र, बौद्ध, सांप और द्विज की निरुक्तिव स्वरूप, दान के अपात्र व्यक्ति, वेणविरत और सर्वरित को अपेक्षा से भिक्षा के बार भेद ४६१-४६६
४५ व कल्प
परीर को विनाशोन्मुख जानकर समाधिमरण करना चाहिए, शरीरस्था करना श्राश्चर्यजनक नहीं किन्तु संयन घारण प्राश्चर्यजनक है, मनः विनश्वर शरीर के नष्ट होने में शोक नहीं करना चाहिए, शरीर स्वयं समाधि के समय की शापित कर देता है, जब मानवों की गम- दूती-सी वृद्धावस्था आजाय तथ उन्हें जीवन की लालसा क्यों करनी चाहिए ? रामाधिमरण को विधि, यदि अन्त समय मन मलिन हो गया, तो जीवनपर्यन्त किया हुआ धर्माराचन व्यर्थ है, क्रमशः मन का त्याग कर दूष व मट्ठा रख लेखे गुनः उन्हें भो छोड़कर गजल रस लेवें ।
लभ
पश्चात् सब कुछ छोड़ देवे, प्रचानक मृत्यु माने पर यह कम नही, आचार्य-भादि कुशल हो तो समाधि में कठिन या नहीं होती, सल्लेखना के बीचार समाधिमरण से ४६७-४७० कव का लक्षण धर्मकथा करने का पात्र, तत्वज्ञान में बाधक दोष, संमायालु की असफलता, आठ मद, घमण्ड में आकर साधर्मी जनों का निन्दक धर्मघाती है, गुहस्थ के छह धार्मिक कथ, देवपूजा की क्रमिक विधि (चहक्रियाएं), कल्याण प्राप्ति के उपाय, शिष्य कर्तव्य, स्वाध्याय का स्वरूप, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व पानु योग का रुवरूप, जीवसमाम, योग, गुणस्थान व मागंणा इनके प्रत्येक के मदद मेष, चारों गतियों में होनेवाले गुण-स्थानों की संख्या, तप के दो लक्षण, संयम का स्वरूप, कपाय की निरुक्ति और भेदों का लक्षण, अनन्तानुबन्धि रूपाय - सम्यक्त्व की घातक, अप्रत्याख्यान - देशव्रत की घातक प्रत्याख्यान - संयम की घातक और संज्चन्तन-यथाख्यात चारित्र को घातक कोट, मान, माया व लोभ के शक्ति की अपेक्षा वारन्तार भेद और उनके कार्य क्रांत्र का परिणाम, मान, माया और लोभ से हानि, संभय रूपो कोलां द्वारा क्रोध आदि कपा रूपी पाल्यों को निकालने का उपदेश, जितेन्द्रिय होने का उपदेश, विषय के तुल्य हैं, व्रती कर्तव्य, वैराग्य का स्वरूप तत्वचिंतन का स्वरूप, नियम व यम ४:३०-४७८
इसप्रकार सुताचार्य दुबाश गृहस्थ धर्म कहा जाना और भण्डारी देवी, मारिदत्त महाराज व नगरवासी जनीं
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दवारा अपनी मोग्यता के अनुरूप धर्मः ग्रहण किया श्रीसुदत्ताचार्ग से धर्म ग्रहण करने वाले दूसरे पशोजाना और अल्लक जोड़े द्वारा कुमारकाल व्यतीत मति कुमार-मादि का देवेन्द्र होना
४८. कार के मुनिधर्म व माथिका-धर्म महण किया जाना, ग्रन्धकार की कामना, इस अष्ट सहस्री प्रमाण वाले शुल्लक जोडे द्वारा ममाधिमरण करके दूसरे ऐशान कल्प यमास्तिलक के अध्ययन का फल, प्रत्यकर्ता को प्रभास्ति, नामक स्वर्ग में जन्म लेना और श्रावकधर्म धारण किये हुए रक नाम के लेखक का परिचय, अन्यकर्ता का समय व मारिदत्त राजा द्वारा उसी तरह स्वर्गलक्ष्मी का विलास प्राक्ष स्थान, 'यापास्तिलक' महाकाव्य की चौदह वस्तुएं ४८०-४८२ किया जाना और चण्डमारी वो हरा भाचार्य को नमस्कार
प्रत्य मंगल ब धात्मपरिचय
४८३.८८४ करके अकृत्रिम चन्यालयों के दर्शनार्थ प्रस्पान किया সাণা
श्लोकानामकाराधनुक्रमः ( परि० नं०१) ४-५-४६७
४७६ ___ श्रीसुदत्ताचार्ग द्वारा सिद्धवर क्ट पर धर्म ध्यान करके
अप्रयुक्त क्लिष्टतम-शब्द-निघण्टुः (परि० नं. २) लालय नामके मातवें स्वर्ग में समस्त देवों के नेता देव
४६८-५२८ होना।
धन्यवाद व शुद्धि पत्र
५२९-५३२
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श्रीसमन्तभद्राय नम: श्रीमत्सोमदेवसूरि-विरचित
यशस्तिलकचम्पूमहाकाव्यम्
उत्तरखण्डम् यशस्तिलकदीपिका-नाम भाषाटीकासमेतम्
चतुर्थ आश्वास श्रीमानस्ति समस्तवस्तुषिषयध्यापारपारंगमः पारेशशेषतमः पयोषि फुप्तधीमध्ये गुणाम्भोनिधिः । कि नान्यत् भुवनप्रयस्प पतयो यस्मिन्नवाप्तोवये जायन्ते प्रतिचारका इव पुरछत्रत्रयं विश्रतः ॥ १ ॥ तयानरियषि जातकल्मषमुषि प्रादुर्भवज्योतिजि लोक्यभि वत्तयात्रककुभि स्वर्गिस्मृतानुष्टुभि । यस्मिन्नच्युति सर्वलोकमति स्सोपोन्मुखश्रीकृति श्रेपोभाजनतां जनः परमगात्स स्ताच्छिये वो जिनः ॥ २॥
अनुवादक का मङ्गलाचरण जो हैं मोक्षमार्ग के नेता, अरु रागादि विजेता हैं। जिनके पूर्णज्ञान-दर्पण में, जग प्रतिभासित होता है। जिनने कर्म-शत्रु-विध्वंसक, धर्मतीर्थ दरवाया है।
ऐसे श्रीऋषमादि प्रभु को, शत-शत शीश झुकाया है ।।१।। जो अन्तरङ्ग लक्ष्मी-अनन्तज्ञानादि च वहिन लक्ष्मी--समवसरणादि विभूति से अलंकृत हैं जो समस्त जीवादि तलों के प्रत्यक्ष जानने में पारगामी हैं, जो समस्त अज्ञानसमुद्र से दूरवर्ती हैं, पूर्वजन्म में बांधी हुई तीर्थकर प्रकृति के कारण जो सार्थक नामवाले (तीर्थकर ) हैं, जो अनन्तज्ञानादि गुणरूप समुद्र के मध्य में वर्तमान हैं तथा केवलज्ञानादि लक्ष्मी के प्राप्त होने पर जिनके मस्तक पर तीन लोक के स्वामी ( इन्द्र व धरणेन्द्रादि ) तीन छय धारण करते हुए सेवकों-सरीखे आचरण करते हैं, ऐसे ऋषभदेव तीर्थङ्कर भगवान् आप लोगों को स्वर्गधी व मुक्तिश्री की प्राप्ति के लिए होवें ॥१॥
जिनके धर्मसाम्राज्य में समस्त लोक निश्चय से शाश्वत कल्याण परम्परा को प्राप्त हुआ। जिनको शुक्लव्यानरूण ज्योति समस्त कर्मों को समूल नष्ट करनेवाली है। जो पाप कर्मों को नष्ट करनेवाले हुए हैं अर्थात् ---जिन्होंने ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन चार धातिया कर्मों का तथा नामकर्म की सोलहप्रकृतियों का क्षय किया है। जिनकी विशुद्ध आत्मा में केवलज्ञानरूप तेज उत्पन्न होरहा है। अर्थात् घातिया कर्मसंघात के घातने पर जिनके केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है, जिससे तीन लोक में संचलन-आसनादि-कम्पन हुआ है, अर्थात् केवल ज्ञान प्रकट होने के अवसर पर इन्द्रादिकों के आसन धम्पायमान होते हैं
१. रूपक उपमालंकार ।
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यशस्तिलका
अह स्वकीयप्रतापमुद्रितसमस्तसमुद्रः कुवलयानन्दमचन्द्र अन्य
विनविकासोद्वेल्लरका के लिएएसबोक्लासलालशे गगनकाननप्रबोध प्रघा विघातकीप्रसपेशल स्थिणि प्रचेतःपुरकान्तारस्मेरता जिह्यतप्रसून संवहनुम्बरे त्रिदि बोधानान्तराल निलीमोन्मोलल्लाङ्गलोलतान्तकान्तरुचि पश्चिमालस्थल विलासिनो शिखण्डमण्डनोत्तंस विकसत्काश्मीरकुसुमकैसरासराला भोगभङ्गे अहतिपणानुसारिदिवसलक्ष्मी पिण्डाल तकरसप्रसा घितबरणमार्गनिर्गमद्युति सरकरानुखजनपराम्यरचरचमूखतावणमणिविमानप्रभापटलतुलने त्रिपुरदाहा जित धूर्जदिनिदि कलांचा एलान मरनोनकट सुरामुरसमरमेदिनीवरिपुरप्रकाशिनि विनकृत्करकृपाणपासित वैर्याच्चताचऋवालानुकूले मातृमण्डलको डाकोलाल कुण्डका सिनिके तिनि रविरतुरगवंग खरखुरोवस्तारतमस्तकमनःशिलाघूलिलीले घडीशताण्डवाडम्ब रामसर सुर प्रसारितमुवर्णमण्डपणि
और जिससे स्वर्गलोक में घण्टानाद -आदि होते हैं। जिसके केवलज्ञान कल्याणक की पूजा के लिए देवों ने अनेक दिशाओं में गमन किया है। जिनको अनेक इन्द्रादिकों द्वारा समवसरण में विशेष श्रद्धापूर्वक अनुष्टुप् आदि छन्दों से स्तुति की गई है। जो निश्चलता को प्राप्त हुए हैं, अर्थात् — विहार करने के बाद योग निरोध हो जाने से जो निश्चल हुए हैं। जो समस्त लोकों के परमगुरु हो जाते हैं, अर्थात् बर्हन्त अवस्था के बाद जिन्होंने सिद्धपदवी प्राप्त की हैं एवं जो स्तुति करने में उत्कण्ठा रखनेवाले इन्द्रादिकों के लिए लक्ष्मी उत्पन्न करनेवाले हैं, अर्थात् जिनका निर्वाण कल्याणक इन्द्रादिकों द्वारा विशेष उल्लासपूर्वक मनाया गया है ऐसे वे जिनेन्द्र प्रभु आप लोगों के लिए स्वर्ग श्री व मुक्तिश्री की प्राप्ति के लिए होवें ॥ २ ॥
प्रताप की विशेषता से चारों समुद्रों को चिह्नित करनेवाले व कुवलय ( पृथिनी मण्डल ) को उस प्रकार आनन्दित करनेवाले जिसप्रकार चन्द्रमा कुवलयों चन्द्र विकासी कमलों को आनन्दित ( प्रफुल्लित ) करता है, ऐसे हैं मारिदत्त महाराज ! अन्य अवसर पर में भी ( यशोधर महाराज), पैदल मार्ग से ही तब अमृतमति महादेवी के महल द्वार पर प्राप्त हुआ, जब ऐसा संध्या कालीन लालिमा का तेज प्रकट हो रहा था । जिसकी उत्कट अभिलाषा, आकाशरूपी वन के विकास से कम्पित होते हुए अशोक वृक्ष के पल्लबों के प्रफुल्लित करने में है । जिसकी कान्ति आकाशरूपी वन के उद्योत के लिए शीघ्र गमनशील धातकी पुष्पां सरीखी मनोज्ञ है । जो ऐसे पलाश पुष्पों के समूह सरीखा मनोश है, जो कि वहण नगर के वन के विकास में प्रगुण ( प्रचुर ) हैं । जिसकी कान्ति, स्वर्ग के बगीचे के मध्य में स्थित हुई व चिकसित होने वाली जल पिप्पली ( जल पोपल ) के पुष्पों सरीखी ( लालिमायुक्त ) मनोहर है। जिसकी रचना, अस्ताचल के स्थल पर स्थित हुई कमनीय कामिनियों के मस्तक को अलङ्कृत करने वाले मुकुट पर विकसित होते हुए केसर पुष्पों की पराग के प्रचुर विस्तार सरीखी है। जिसकी कान्ति सूर्य के मार्ग का अनुसरण करनेवाली दिवस लक्ष्मी के frustre लाक्षारस से सुशोभित हुए चरणों के मार्ग-निर्गम सरीखी है ।
जिसकी तुलना सूर्य के पीछे गमन करने में तत्पर हुई देवसेना द्वारा निर्मित हुए पद्मरागमणि के विमानों की कान्ति-समूह से होती है। जिसके समीप उन दानव नगरों (त्रिपुर-पुरों ) की सदृदाता है, जो कि त्रिपुर नाम के दैत्य विशेष को भस्मीभूत करने में अप्रतिहत व्यापारशाली श्री महादेव के ललाट पर स्थित हुईं तृतीय नेत्र की अग्नि द्वारा जल रहे थे । जो देव और दानवों की युद्धभूमि पर बहते हुए रुधिरपूर सरीखा प्रकाशशील है । जो सूर्य के हस्त पर वर्तमान तलवार द्वारा मारे हुए दैत्यों की मृतकाग्नि के मण्डल- सरीखा हैं। जिसकी तुलना मातुमण्डल की क्रीड़ा के रुधिर कुण्ड की कान्ति के साथ होती है। जिसमें उस अस्ताचल पर्वत के शिखर को मैनशिल सम्बन्धी धूलि की शोभा वर्तमान है, जो कि सूर्य रथ के घोड़ों की वेगशाली तोतर टापों से उठी हुई थी। जिसमें श्री महादेव के ताण्डव नृत्य के आडम्बर ( विस्तार ) के अवसर
१. अविशालंकार 1
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चतुरं श्वास
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समस्तमाला रामप्रयमतराविर्भूत किवा लस्तम्बाम्बरे अपरगिरिशिखराश्रयाश्रमादास तापसादानयितानिसमाज पाटलपटप्रसान स्पृशि पूर्वतराकूपारती रावतरतपनस्यन्त्रनातिथेयक्रियोसाल जलधिजलवेवताप्रकल्पितप्रवालाङ्कुरो पवार व्यतिकरे सकलविषमिवश्यता देश विजृम्भिष्यमाणमनसिश्वर्य पर्याप्तपत्र सिन्दूर मुद्रकरोधिषि नवयौवनरसवज्ञाङ्गनापशेषरभरा विभविष्यन्मममकन्दलकदम्बविम्बिनि रतिफलकृतिकुतूहल बहुलविलासिजनसं निकटङ्गारसं गरसं भावनोत्तरङ्गान्तरङ्गनङ्गविस्तारि तातिरिक्तसंकेतकेतुकमनीये मिथुनङ्गरागापहारादिव वरदकन्त्र रपरागसंगमावि वाडिमोकुसुमकुद्मलपरिमलनादिव नदीतीरतपोधनोन्मुक्तरक्तचन्दन वग्वनाविव फनककेतकोरजोरञ्जनादिव वृक्षोत्पलमञ्जरोमकरन्दस्पन्वादिव व नितान्तं लोहितायति निजारुणिभर ज्जित वरुणपुरपुरंधिकाघरवले सति संध्याराग महसि
तरस रसिकराक्षोभस मोक्ष पाहण कविहृदय रक्षावेक्षणादिव
अधोक्षविपक्षोत्नीवदानवावस्कन्दभीते
पर देवों द्वारा फैलाए हुए सुवर्ण मण्डप की शोभा वर्तमान है। जिसका विस्तार अन्धकाररूपी तमाल वृक्षों के वन से पूर्व में ही प्रकट हुए पल्लवोंके समूह सरीखा है। जो, अस्ताचल पर्वत की शिखर पर आश्रय वाले निवास गृहों में रहने वाले तपस्वियों के गीले व चंदेवारूप किये गए ( सुखाने के लिए फैलाए हुए ) तथा गेरु के जल से लाल किये हुए वस्त्रों के विस्तार को सदृशता धारण करता है ।
म
जिसमें समुद्र की जल देवताओं द्वारा जो कि पश्चिम समुद्र के तटपर जाते हुए सूर्य की अतिथि सत्कार क्रिया में उत्कण्ठित हो रहे थे, रची हुई गल्लवारों की पूजा की तुलना पाई जाती है। जिसकी कान्ति समस्त कामी पुरुषों के बशीकरण प्रदेश पर फैलने वाली कामदेव की लक्ष्मी के परिपूर्ण लेख में स्थित हुए सिन्दूर चिह्न की सरीखी है। जो उनकी वृक्ष के नगे अर-समूह को तिरस्कृत करता है, जो कि नई जवानी के रस में पराधीन हुई कमनीय कामिनियों के कुचकलशों के भार से प्रकट हो रहे थे । जो ऐसे भन में स्थित हुए कामदेव द्वारा फैलाई हुई विशेष लालिमा वाली संकेत ध्वजाओं-सरीखा मनोहर है, जो कि कामी पुरुषों के समूहरूपी सैनिकों के रति क्रोड़ा युद्ध की, जो कि रति क्रोड़ा सम्बन्धी कलहू विधान में विशेष कौतुक करता है, विशेष रुचि में उत्कट है। जो विशेष विस्तृत लालिमायुक्त होने से ऐसा मालूम पड़ता था मानों रात्रि निकट होने के कारण चकवा चकवी पक्षियों का बियोग हो जाने से उनके राग का अपहरण करने से ही मानों विशेष लालिमायुक्त हुआ है। अचत्रा जो ऐसा प्रतीत होता था मानों हिंगुल व गुफाओं सम्बन्धी परागों के संगम से ही ऐसा हुआ है । अथवा ऐसा मालूम पड़ता था - मानों दाड़िम वृक्ष के फूलों की कलियों के विमर्दन से ही ऐसा हुआ है । अथवा मानों-गङ्गा नदी के तटों पर वर्तमान तपस्वियों द्वारा सुयं की पूजा के लिए ऊपर फेंके हुए लाल चन्दन के सङ्गम से ही ऐसा हुआ है। जो ऐसा मालूम पड़ता था -- मानों धतुरा अथवा टेसू अथवा नाग केसर तथा केतकी के पुष्पों की पराग सम्बन्धी लालिमा के संयोग से हो ऐसा हुआ है | अथवा मानों कणिकार वृक्षों को पुष्प मरियों के पुष्प रस के क्षरण से ऐसा हुआ है और जिसने अपनी लालिमा द्वारा पश्चिम दिक्पाल नगर की कमनीय कामिनियों के दल रज्जित किये हैं ।"
इसी प्रकार जब स्थल कमलों के समूह की पत्र-श्रेणी संकुचित हो रही थी, इससे ऐसा मालूम पड़ता था— मानों - कच्चे मांस की आकांक्षा करनेवाले राक्षसों से उत्पन्न हुए क्षोभ के देखने से विशेष लालिमा-युक्त अपने हृदयों के संरक्षण की आकांक्षा से ही मानों अपने पत्र समूह संकुचित कर रहे थे । अर्थात् मानों-स्थल कमलों ने ऐसा विचार किया कि 'हमारे हृदय काल हैं, इसलिए कहीं राक्षस उन्हें मांस समझकर भक्षण न कर लें' इस प्रकार को शंका से हो मानों-कमलों ने अपने हृदयों का संवरण ( संकोच ) कर लिया था । " अथवा मानों - श्री नारायण के शत्रुभूत व विशेष अभिमानी दानवों की रात्रि संबंधी बाधा के भय १. उत्प्रेक्षाकारः । २. कारः ।
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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये दितिसुतशत्रुकलबपरित्राणचरित्रेणेव राजिमब्रह्माप्तनस्खलनसंभावनया सर्वतस्तदष्टाम्भसंभमाविव च संकोचोदम्मत्पुटप्रकाण्ञ स्थलमलिनवणे, अलिपात्रषावणीसमागमाविव मन्दागिरिशिखरजवनिकामिवितसर्षानवसरेऽपि घनघसृणाणिससुरमुन्वरोकपोलकविनि वितप्यमानतपनीयसलिकाकृतिमनोहरे भुवनान्तरप्रपाणकर्मणि पुनर्वर्शनादरादिव कमलिनीफुलकुमालप्रणामाम्नलिकारके तमोरातिमण्डले, पुनरावृत्तिभयाप्तदवतरणपषभुदीक्षितुमिय बिनविर्षभरावकाशशरोहिणि महीगहनानि रितपति बरजरच्चिकुरनिकुरम्यानुफारिणि तिमिरनिफरे, बौवरोपरागनिरस्तान्तःकरणेनापरगिरिशिखरान्तरबिहारिणा मुनिकुमारनिकामेन करघापलादिव परिमुषितमहलतरपाटलिम्नि पुनर्मुहूर्तमानमतिपुराणपिलपनलोलातुल्यतामनुशील्य झणायुपशान्तवास समस्तसंप्यारागसेजसि, सुरनरोसंभवरेखाचिकान्तेषु च समन्ततो वियत्पर्यन्सेषु, बहुलीभबन्सोधियव च योषितामलकधूपधूमेषु, वलयितास्विधावतंसकुवलयेषु, स्खलितवेगास्वियं कृष्णागुपिरितकर्णपालीषु, से श्रीनारायण की पत्नी ( लक्ष्मी ) के संरक्षण के लिए मानों स्थल कमल समूह की पत्र-श्रेणी संकुचित होरही थी । अथवा मानों-वृद्धता के कार-माहेन हो रहे हा कारकीराको उद्देश्य से ही समस्त दिशाओं में उनको थामने के लिए ( वृद्ध होने के कारण कहीं गिर न जाबें) इस प्रकार का आदर करने के कारण से ही मानों स्थल कमल समूह को पत्र-श्रेणी संकुचित हो रही यो। इसीप्रकार जब सूर्य इसप्रकार का हो रहा था। अस्ताचल की शिखररूपो जवनिका ( पर्दा) द्वारा जिसने समस्त लोक को अनवसर ( अप्रस्ताव ) सूचित किया है। इससे ऐसा प्रतीत होता था-मानों विशेष मात्रा में वारुणी-समागम ( मद्यपान पक्षान्तर में पश्चिम दिशा का आश्रय ) करने से ही उसने समस्त लोक को अनवसर सूचित किया था। इसीप्रकार जिसको कान्ति प्रचुर केसर रस से अध्यक्त लाल किये हुए सुर-सुन्दरियों ( देवियों ) के गालों जैसी थी ।
इसी प्रकार जो अग्निमें तपाई हुई सुवर्णमयो कड़ाही को आकृति सरीखा मनोज्ञ था। जिसका प्रस्थान कर्म अपर विदेहक्षेत्र में हो रहा था और 'पुत्तदर्शन हो', इस आदरसे ही मानों-कमलिनियोंके वन की अवखिली कलियाँ ही जिसके लिए प्रणामाजलि करने वाली थी।
इसी प्रकार जव अन्धकार-समूह ऐसे वृक्षों के वनों में प्रविष्ट होचुका था, जो कि नीची पृथिवी के अवकाश प्रदेशों में उत्पन्न हो रहे थे। इसलिए जो ऐसा मालूम पड़ता था--मानों-'श्वी सूर्य पुनः आवेगा' इस भय से उसके आगमन-मार्ग को बार-बार या छिर-छिप करके देखने के लिए हो मानों-यह वृक्षों के वनों में प्रविष्ट हुआ था। इसी प्रकार जो कुछ शुभ्र केश-समूह की सदृशता धारण कर रहा था।
प्रकार जब ऐसा समस्त संध्याकालीन लालिमा का तेज, अल्पकाल में अत्यन्त जरा ( वृद्धावस्था) से जीर्णहए बन्दर की मख-सोभा को सदशता का अभ्यास करके क्षण भर में नष्ट तारुण्यशाली(मन्द ते
तेजवाला) हो रहा था । इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जिसकी प्रचुर लालिगा, ऐसे मुनिकुमार-समूह द्वारा हस्त की चपलता से हो चुराई गई थी, जिसका मन गेरुआ रक्तवस्त्र की रक्तता में तत्पर ( भ्रान्ति प्राप्त ) है और जो अस्ताचल की शिखरों के मध्य भागों पर विहार करनेवाला है, इसी कारण से मन्द तेजवाला हुआ है।
इसी प्रकार जब निम्नप्रकार की घटनाएं घट रही थी तब मैं अमृतमति महादेवों के महलद्वार पर आया।
___ जय सर्वत्र आकाश के प्रान्त भाग गङ्गा-यमुना के सङ्गम की आवली को शांभा-सरी मनोहर हो रहे थे। अर्थात् कुछ दिन शेष होने के कारण जव आकाश के प्रान्त माग उज्ज्वल व कृष्ण हो रहे थे। जब ऐसी अन्धकार लहरीरूपी समुद्र-लहरियाँ, उसप्रकार प्रचुरतर होकर सुशोभित हो रही थी जिसप्रकार कमनीय कामिनियों के केशपाश सम्बन्धी धूप के धुआं प्रचुरतर होते हुए शाभापमान होते हैं। जो, वेष्टन को प्राप्त
१. उत्प्रेक्षालंकारः। २. उत्प्रेक्षालंकारः। ३. उत्प्रेक्षालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वास प्रवृत्तप्रवाहास्विव घसृणरसविस्चरितचललालेमामु, प्रसरन्सोष्विव लोचनाम्जनमागेषु, स्तिमितायमानास्थिव तामालकणिकाश्यामलिलाधरवलेषु, घनभावमुपगतास्थिय स्तनाभोगलिखितमगमदपत्रभङ्गघु, लम्बावकाशास्विय सागपुर. भितनाभिकुहरेषु, पयोधरपथ स्थितास्विव समालदलधूलिधूसरितरोमराजिनिगमेषु, मन्थरप्रकारास्थिय मेखलामणिककिगोजालववनेषु, विहितावतारास्विय मीलोपततुलाकोटिषु, मुक्ताफलवन्तुरास्वित्र निर्माजितघरणमपरम्परासु, पर्यस्तविमवनास्विष यावकपुनरुक्तकान्तिप्रमावेषु पादपल्लवेषु, पूविगन्तावितस्ततो प्रायन्तोष कृष्णालामुलमलिनचिषु तमःपयोधियोचिषु, सर्व विष्णुमयं अदिति सत्यतां नयतीव प्रतिक्षणं कृष्णसा पुष्णत्ति ....."विश्वदीधिभुवने संजाते प प्रदोषसमये, तवनु कामिनीप्रसाधनेष्विव पयास्थानमुपसरत्सु वनमगेप, प्रवसितेप्षिय वासरानयोन्मुखेषु विकिरनिकरेषु, वारवनितास्विय स्ववासाङ्गणभागिनीषु शार्दूलसमितिघु, किप्तवादित्रेषिव विमुच्यमानेषु संप्योपासनाञ्जलिमुकुलेषु, होती हुई उस प्रकार सुशोभित हो रही थीं जिस प्रकार स्त्रियोंके कर्णपुर सम्बन्धी नील कमल वेष्टन को प्राप्त हुए शोभायमान होते हैं।
"जो उस प्रकार निश्चल होती हुई सुशोभित हो रही थी जिसप्रकार कृष्णागुरु से विलिप्त हुए कों के पर्यन्त भाग निश्वल होते हैं। जो उसप्रकार चलित प्रवाह वालो हैं जिस प्रकार कुंकुम या केसर रस से व्याप्त हुई भुटिरूपी लता-पंक्तियाँ चलित प्रवाह वाली होती है ! जो उस प्रकार विस्तृत हो रही थीं जिरा प्रकार नेत्रों के कज्जल मार्ग विस्तृत होते हैं। जो उस प्रकार निश्चल हो रही थी जिस प्रकार ताम्ब्ल की कृष्णता द्वारा कृष्ण किये गए ओष्ठ दल निश्चल होते हैं। जो उस प्रकार कठिनता को प्राप्त हो रही थी जिस प्रकार विस्तृत कुच कलशों पर लिखी हुई कस्तुरी को पत्ररचना कठिनता प्राप्त करतो है। जिन्होंने उस प्रकार प्रवेश प्राप्त किया था जिस प्रकार प्रचुर व सुगन्धी कृत नाभिच्छिद्र प्रवेश प्राप्त करते हैं।
जिन्होंने उस प्रकार पयोधर-पथ (आकाश-मार्ग) में प्रस्थान किया था जिस प्रकार तमाख के पत्तों को धुलि से धूसरित रोम-राजियों के निर्गम पयोधरपथ ( कुच कलशों का मार्ग-वक्षः स्थल ) पर प्रस्थान करते हैं।
"जो उसप्रकार मन्द गमन के प्रकार से युक्त थी जिसप्रकार कटिमेखलाओं । करोनियों को रत्न-निर्मित क्षुद्र घण्टिकाओं की श्रेणी के अग्रभाग मन्दगमन के प्रकार-युक्त होते हैं। जिन्होंने उसप्रकार प्रवेश प्राप्त किया था जिस प्रकार नौल मणियों के नुपुर प्रवेश प्राप्त करते हैं। जो उस प्रकार मताफल के झाँतों से युक्त थी, जिस प्रकार निहन्नी द्वारा कृश को हुई चरणों की नन्ष परम्पराएँ मुक्ताफल के दांतों सरीखी शुभ्र होती हैं।
लाक्षारस से द्विगुणित कान्ति प्रभाव वाले चरणों के प्रान्त भागों पर जिनके द्वारा प्रवाल रत्नों के वन गिराए गए हैं, ऐसो सुशाभित हो रहो यो । जो पूर्व दिशा के प्रान्त भाग से यहाँ वहाँ वेग पूर्वक गमन कर रही थीं। इसी प्रकार जो वुधुची के मुख ( अग्र भाग ) सरीखी श्याम कान्ति युक्त हैं।'
इसी प्रकार जब रजनी मुख ( वामन योग्य रात्रि-भाग), समस्त पृथिवी मण्डल पर. प्रत्येक क्षण कृष्णता ( श्यामता पक्षान्तर में कृष्णा भगवान् ) को वृद्धि करता हुआ उत्पन्न हो चुका था। इससे ऐसा मालूम पड़ता था-मानों 'समस्त लोक विष्णुमय है' इस बात को सत्यता में ही ले जा रहा है।
तत्पश्चात्-प्रदोष समय के अनन्तर जब वन के हिरण-आदि पशु उस प्रकार अपना-अपना स्थान प्राप्त कर रहे थे जिस प्रकार कमनीय कामिनियों के उबटन-आदि परिकम अपना-अपना स्थान प्राप्त करते हैं। जव पक्षियों के समुह उस प्रकार शयन योग्य आश्रय (घोंसला आदि स्थान ) में तत्पर हो रहे थे जिस प्रकार पथिक लोग शयन योग्य आश्रय स्थान प्राप्त करने में तत्पर होते हैं । जब व्याघ्रों की श्रेणियां उस प्रकार अपने निवास-अङ्गणों का सेवन कर रही थीं जिस प्रकार वैश्याएं अपने निवास अङ्गणों का सेवन करती हैं। जब
१. उपमालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कुमुदकुश्मलेखिक विघटमानेषु चकवाकमियुनेषु, मुनिन सबलेविध संकोचनोचितेषु पहलवकलोकसृपाठोपटे, प्रदीपालिका स्वियोन्मियन्तीषु विरहिणीमा मयनशिखिशिशाम, सुरभोगिभुजिष्यागणेष्यिवाभिमयोन्मुखेपु तिरदनकुलेषु,
समुच्छलति घ पुरदेवप्तानां प्रासावपरिसरेषु चामरधारिणीमा रणमणिमञ्जीरमणिप्तमनोहारिणि मबङ्गानाशासकोलाहले, मुखरीमवत्सु मध्यमानेवर्णवार्णःस्विवाम्यर्णतर्थकरघनाकर्णनोचीणेन धनुष्याणां दोघरम्भितररवेण गोपुरमुतेषु, विधिजयमाचरितुमिच्छतामसमशरसनिफाना दधिचन्दनतिलकेष्विव , नयनविषयताश्वतरा नक्ष प्रविम्बेषु, इत्तश्च दुश्फयवनविशि चिरमवेशितसुधामूतिसाहायकेन तदासनतरागमनबिलोकनादिव पुरःसत्वरमुत्रगिरिशिखरान्तरालादुच्चलमानेन मदनसम्पेन दलितफरतरगर्भधूलिनिकर इय, शिरःपिण्जफष्टयनमियोवस्तहस्तेन हरिस्सिना मुहहरुपरिविकीर्यमाणकरपारिशीकरोल्फरागम इय, गगनपुरप्रवेाभाचरतः खण्ठपरशुनूडामणेः पुरस्तातुपुरधिकाभिरुचीयमाणप्लाजामलिसकर धन विभाघरीयपूषवनदर्शमायासोबतो निशीथिनीनापस्पान्तराप्रसारितसितकालमुनापाप्रसर दव,
संध्योपासना सम्बन्धी अलिरूपी फुलों को अविकसित कलियाँ उस प्रकार विमुच्यमान ( समाप्त ) हो रही थों जिस प्रकार जुआरी के वस्त्र, संध्या में विमुच्यग्याता । लोहे -दुर में दान पर लगाए हुए ) होते हैं । जब चबा-चकवी के जोड़े उस प्रकार विघटमान ( वियोग प्राप्त करने वाले ) हो रहे थे जिस प्रकार कुमुद पुष्पों ( चन्द्र निकासी कमलों की कलियां विघटमान (विकसित ) हो रही थीं। जब विद्वानों की पुस्तकों के अवयव जस प्रकार संकोचन (संपाटन...परस्पर छेदन या संकेतन-पलटना योग्य हो रहे थे जिस प्रकार रात्रि के अवसर पर अगस्ति वृक्ष के पत्ते संचित होते है। जब विरहिनी स्त्रियों की कामाग्नि की ज्वालाएँ उसप्रकार उद्दीप्त होरही थीं, जिसप्रकार दोपक कलिकाएं रात्रि में उद्दीप्त होती हैं एवं जब हाथियों के समूह उस प्रकार अभिनय-पूर्ववृत्तानुकरण में तत्पर हो रहे थे जिरा प्रकार कामी देवताओं को वेश्या-श्रेणियाँ अभिनय में उन्मुख-शय्यागमन तत्पर होती हैं ।
जब नगर देवताओं के चैत्यालय सम्बन्धी प्राङ्गणों में, मृदङ्ग, ढोल अथवा भेरी व शङ्खवाजों की ध्वनि, जो कि चैवर धारण करने बालो स्त्रियों के शब्द करते हुए रत्नघटित नूपुरों के मणित ( रतिकूजित ) सरीस्त्री चित्त का अनुरूजन करने वाली थी, प्रकट हो रही थी। जब नगर के प्रतोली, द्वार उत्तम गायों को दीर्घ गोध्वनि । रंभाने ) के शब्द से, जो कि समीपवती बछड़ों के शब्द श्रवण से उत्कृष्ट है, उस प्रकार शब्दायमान हो रहे थे जिसप्रकार देव व दानवों द्वारा विलोड़न किये जाने वाले समुद्र-जल, शब्दायमान होते हैं
और जब दिग्विजय करने के इच्छुक कामदेव सम्बन्धी सैनिकों के दही-मिश्रित चन्दन तिलक-सरीखे शोभायमान होनेवाले नक्षत्र-मण्डल दुष्टिमोचरता को प्राप्त कर रहे थे।
इसी प्रकार जब एक पाश्र्व भाग में पूर्व दिशा में चन्द्रमा का किरण-समूह दृष्टिमार्ग प्राप्त कर रहा था। जो इस प्रकार की ( कल्पना ) प्राप्त कर रहा था।
__जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-कामदेव की सेना द्वारा, जो कि [ अपने मित्र ] चन्द्रमा के निकटतर आगमन के देखने से ही मानों सामने शीघ्र ही उदयाचल की शिखर के मध्यभाग से सन्मुख जा रही थी और जिसने चन्द्रमा की सहायता चिरकाल से चाही है, तोड़े गए कर्पूर वृक्षों की गर्भधूलि की श्रेणी ही है। जो ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों-ऐरावत हाथी द्वारा, मस्तक कुम्मों के खुजाने के बहाने से उठाए हुए शुण्डादण्ड से वारवार ऊपर फेंके जाने वाले शुण्डा-जलकणों के समूह का आगमन हो है। जो ऐसा मालूम पड़ता था—मानों आकाशरूपी नगर में प्रवेश करते हुए चन्द्रमा के सामने नक्षन-कामिनियों द्वारा कपर फेंकी जानेवाली लाजालियों ( आर्द्रतण्डुल-आदि ) की श्रेणी ही है। जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों रात्रिरूपी वधू के मुख-दर्शनार्थ आते हुए चन्द्रमा के बीच में फैलाया हुआ (तिरस्करिणी किया हुआ-जवनिका
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चतुर्थ आश्वास लिमसुहृज्जन्मोत्सवधिभितस्य जलराभेदण्डलहरिकोत्तम्भितफेनपुम्जोमछम इव, उष्णकराभितापःखितस्प घरणिपरफुम्बिनामस्य शिशिरकरमहीपतेः प्रसावावलोकनोदय इव, उत्प्रेक्षागहति विरहिणीकपोलपाण्डरे पुरंदरसुरपुरधिकास्मितसितचोरिणि हसितसितपताकांशकाइयरे विम्बितकेतकोरजःपटलकान्तिनि दृष्टिपथमवतरति सरस्वतीकटाक्षवलक्षलासराले किरणजाले, ततः प्रथमसरमधिरहतमतङ्गाजविरमलज धिमानभुपनेनुमिच्छना करिवरिकिशोरकेण मष्ठलिससटाघवालहारिणि समोपतराशोकतरुणपल्लवधि फपिशकुसुमस्तबकसुन्वरे कुसुम्भाशकपिहितगौरीपयोधरविम्बिनि
जटिगटायोतिरभन्दमन्दाकिनोडिण्डीपिण्डहृदयंगमे पुरुहूतनिकेतकेतुरफ्ताञ्चलकलितकालयोप्तकलशलक्ष्मीलिहि रोहिणीमुखयम्बमसंगणितजसरसारणिता निर्माण धाममुपतपर्यमाणे, पनरनसिधिराखेव निकटगतगगनापगासरजसंगमाविष मनसिजीत्सवप्रसापिस सितातपरोचिषि, योषिदौषधीनामधरदलेषु रागसंक्रमाविय पितामहमोलिमनोहरविषि, निखिल जगामधवलनसुधाकुम्भ रतिचिनोवविद्योपदेशिनि, मदनरनिमदोद्दीपन पिण्डे, सुरतश्रमाम्भाकपालुण्ठिनि, पौलोमीविलासपड़दा ) उज्वल रेशमी वस्त्र का विस्तृत मुखवस्त्र ही है। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-अपने मित्र चन्द्रमा के जन्मोत्सव से विशेष प्रमुदित हुए समुद्र की अत्यन्त चञ्चल तरङ्गों द्वारा उठे हुए फेनपुञ्ज की उन्नति ही है। जो ऐसा प्रतीत होता था--मानों सूर्य के सन्ताप से दुःखी हुए पर्वत सम्बन्धी कृषक समूह के चन्द्रमारूपी राजा की प्रसन्नता के निरीक्षण का प्रादुर्भाव ही है । जो विहिणी स्त्री के गालों-सरीखा उज्वल है | जो इन्द्र नगर की कामिनियों के हास्य की उज्वलता को तिरस्कार करने वाला है, अर्थात् उसके गरीखा है। जिसके द्वारा शुभ्र ध्वजाओं का विस्तृत बस्त्र तिरस्कृत किया गया है। जिसने केतकी सप्पी के पराग-पटल की कान्ति तिरस्कृत्त की है। इसी प्रकार जो सरस्वतो ( श्रुत देवता ) के नेत्र प्रान्तों की उज्वलता से असराल-- अपर्यन्त है।
तदनन्तर जव उदयकाल में चन्द्रमा एक मुहूर्त पर्यन्त इस प्रकार की उत्प्रेक्षा के योग्य हो रहा था
जो ( चन्द्रमा) शीघ्र मारे हुए हाथियों के रुधिर जल को जड़ता को ग्रहण करने के इच्छक सिंहबालक द्वारा कृण्डलाकार किये हुए स्कन्ध के कसर-मण्डल का तिरस्कार करता है, अर्थात् उसकी सदुशता धारण कर रहा है। जिसकी कान्ति ( लालिमा ) चन्द्र के निकटवर्ती अशोक वृक्षों की नवीन कोपलों सरीखी है। जो अशोक वक्ष के पाण्डुर व लाल फूलों के गुच्छों-सरीखा मनोहर है। जो कुसुम्भ ( रागद्रव) रंगवाले सूक्ष्म वस्त्र से ढके हुए गौरी ( पार्वती) के कुचकलश को तिरस्कृत कर रहा है। अर्थात् उसके सदश है। जो श्री महादेव की जटाओं की कान्तियों से प्रचुर हुए गङ्गा नदी के फेनपिण्ड-सरीक्षा मनोहर है। जो इन्द्र (पूर्व दिशा का स्वामी ) के महल पर वर्तमान ध्वजाओं के रक्ताञ्चलों से वेष्टित हुए सुवर्ण अथवा चाँदो के कलश की लक्ष्मी का आस्वादन करनेवाला है। जिसको शरीर-गचना रोहिणी ( चन्द्र-प्रिया ) के मुखचुम्बन से निर्गलित हुए लाशारस से अव्यक्त लाल की गई है।
फिर शीघ्र ही लाल होने के बाद जिसकी शोभा कामदेव के महोत्सव में धारण किये हुए शुभ्र छत्रसरीखो हो रही है। अर्थात् जो उज्वलता को प्राप्त हो गया है। इससे ऐसा मालूम पड़ता था-मानोंसमीपवर्ती आकाशगङ्गा की विशाल तरङ्गों के संसर्ग से ही उज्वलता को प्राप्त हुआ था। जिसको कान्ति ब्रह्माजी के मस्तक सरीखी उज्वल है। इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों कमनीय कामिनियों के
ओष्ठों में तथा औषधियों के पल्लवों में अपनी लालिमा का संक्रमण ( स्थापन ) करने के कारण ही वह शुभ हो रहा है । मानों-जो समस्त लोकरूपी महल को शुभ्र करने में सुधाकुम्भ ( चूना का घड़ा ) ही है । जो रति के क्रीड़ा विज्ञान वा उपदेष्टा है । जो कामदेवरूपो हाथी के मद के उद्दीपन में जीवन है।
जो स्त्रीसङ्ग के श्रम से उत्पन्न हुए जलकणों का लुण्ठन-शील है। मानों-जो इन्द्राणो का क्रोड़ा
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यस्तिलकचम्पूकाव्ये वर्मणे, कमेण च नमुधिरिपुविगतपर्व तानां पावस्थलागुतोष मखमणिभूयमुपगम्य संविषय मेखलाम नायकमणिगणितिमनुस्योपकण्ठदेशेषु कुण्डलमणिथियमाश्रित्य च शिरःश्रेणिष्ठ शिखण्डमण्डनमणिभाव को नु खल सकालभवनोपकारबहुकक्षाणामकान्सस्थितिवहीं रेभिरबलैः सह संगमश्राम इति विचिन्त्येवरनवरसमुदयाचलासरसः कलहंस इवाकाबादेशनिधेणिमुपेयुपि कुमुदचक्षुषि, विजृम्भमाणासु च बालसखीशिव पयोधिवेलानाम्, उपकल्पितपारणास्थिय चकोरकुलकामिनीनाम, उपाध्यायिकास्थिव युवतिरतिकतबानाम्, गति नियन्त्रणमन्त्रसिविविधाभिसारिकाभुजङ्गानाम्, तिमिरतिरस्कारसितशलाकास्चिय च भुवनलोचनमार्गाणाम्, अमतधौतातसप्तन्तुसंतानमन्थरामाममिव व्योम निर्मापयन्तीषु शिशिरकरकिरणपरम्परासु, प्रकटोभवति ५ लोकान्तराधिहानुसरतो रोहिणीपतेबिरहविनावनाय निजाङ्गनालिङ्गनमतिकाविव दययप्रतिरिचितस्तनतमालरसलिखितपत्रस्पृहणीये, हससिबिलग्नवलविलासिनि, अपहसितविरहिणीकपोलतलविलम्ब लामालकानो मुगारनितिजधान, मध्यमातङ्गकटनिकटमबलेखारेख, सुधासिन्धप्रफुल्लनीलाम्बुजद्दिनि,
दर्पण है । जिसने अनुक्काम से पूर्व में पूर्व दिशा-सम्बन्धी इन्द्र के और पूर्व दिशा के प्रान्तभाग संबंधी पर्वतों के पादस्थलों ( प्रत्यन्त पर्वतस्थलों व पक्षान्तर में चरणस्थलों ) को अंगुलियों में मणि-सरोखा नखपना प्राप्त किया था। बाद में मानों-जो, उक्त पर्वतों को कटिनियों में मध्यमणि की गणना में प्रविष्ट हुआ था। इसके वाद-मानों-जिसने उक्त पूर्व दिशा के प्रान्तभाग संबंधी पर्वतों को शिखरों के अधोभूमि-भागों में माणिक्यसरीखे कुण्डलों की शोभा प्राप्त की थी। इसके बाद जिसने उक्त पर्वतों को मस्तक श्रेणियों में शिरोरत्नपना प्रास किया था। फिर जिसने निरन्तर निम्न प्रकार विचार करके 'जिन्होंने समस्त पृथ्वीमण्डल के उपकार करने में प्रीति बांधो है, उनको सर्वथा स्थिति में प्रचुरता रखनेवाले इन प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले अचलों। दुष्ट पर्वतों) के साथ निश्चय से सङ्गम करने का क्रम क्या उचित है? अर्थात् नहीं है। जिसने उस प्रकार आकाश देशरूपी सीढ़ी प्राप्त की थी, जिस प्रकार कलहंस उदयाचल के अग्रसरोवर से उड़कर आकाश प्राप्त करता है।
इसी प्रकार जब चन्द्रमा की ऐसी किरण-श्रेणियाँ प्रसारित हो रही थीं, जो समुद्र-तरङ्गों की बाल सखो-सरीखों, चकोर पक्षियों के समूह की कामिनियों के लिए मारणा ( वृत्तान्त भोजन ) देने वाली सों, युवति कामिनियों के संभोग कपटों को सिखाने के लिए अध्यापिकाएं जैसी, व्यभिचारिणी स्त्रीरूपी सपिणियों के गमन को रोकने वाली मन्त्र सिद्धि सरीखीं, शोभायमान हो रही थीं। जो जगत में स्थित प्राणी-समूह के नेत्र मार्ग में वर्तमान तिमिर नामक नेत्ररोग को नष्ट करने वाली उज्वल शलाकाओं के समान सुभोभित हो रहीं थीं
और जो आकाश को इस प्रकार का, जिसकी दीर्घता, अमृत द्वारा उज्वल किये हुए अलसी के तन्तु समूह से मन्दगामी है, निर्मापित करती हुई सरीस्त्री सुशोभित हो रही थीं।
इसी प्रकार जब मृग-सरीखा चन्द्र-चिह्न प्रकट हो रहा था। जो कि चन्द्र के हृदय में प्रतिबिम्बित हुई (स्थासक की तरह स्थित हुई ) स्तनरूपी तमाल रस से लिखी हुई पत्र रचना-सरीखा मनोहर था। इससे जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों पूर्वविदेह क्षेत्र से इस भरत क्षेत्र पर आते हुए चन्द्र का अपनी प्रिया ( रोहिणी) से विनाश करने के लिए, अपनी प्रिया रोहिणी के आलियन के सम्बन्ध से हो मानो जो उक्त प्रकार की पत्र रचना से मनोज्ञ था।"
जो हँस के पक्ष-मूल पर लगे हुए बोवाल-सरोखा शोभायमान हो रहा था। जिसने विरहिणी स्त्री के गालों के स्थल पर शोभायमान होते हुए विखरे हुए केश तिरस्कृत किये हैं। जो कुमुद ( चन्द्र विकासो कमल ) के मध्य में स्थित हुए भ्रमर-समूह के साथ सदृशाता धारण करता है। जिसकी सदशता इन्द्र के ऐरावत हाथी के गण्डस्थल के उपरितन भाग में वर्तमान दान रेखा के साथ होती है। जिसमें क्षीर सागर में विकसित
१. उत्प्रेक्षालंकार।
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चतुर्थ आश्वास
प्रसूनस्तथान्तरोद्गतत्तिच्छदच्छायापि पा
न मानवः पुरुषाणामनारभ्य कांचिन्महतो मापदमुपशाम्यतीति मनीषयेव निजान्वयबीज संरक्षणाय परं केन्निवृतगनप्रादादेशेषु निभृश्य स्थितिकुशले च तमःपटले, भवत्सु च मघुगन्धलुब्धमधुपसंबाधनिरुध्यमानविधितिरेषु पिलासिनामुदवसितवातायन विवरेषु,
करविलम्बितकुसुमसर सौरभसुभगेषु श्रमजीविनामामणरङ्गभागेषु
परिवर्तमान काश्मीर्मलयनागुदपरिमलोद्गार सारेषु सौगन्धिकानां विपणिविस्तारेषु,
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ससंभ्रममितस्ततः परिसर्पता संभोगोपकरणाहिता वरेण पौरनिकरेण निजवलासदर्शनां कारिममोरयाभिरवधारिता संकथाभिः स्मरकुरङ्गको बावन वसतिभिः पप्याङ्गनासमितिभिरात्मपतिसंविष्टधटनाकुलितद्दश्येनावमोरितसखीजनसंभाषणोत्तरदानसमयेन संचरता संचारिका निकायेन च समाकुलेषु समन्ततो राजयोथीमण्डलेषु,
हुए नीलकमल उपमा वर्तमान है। इसीप्रकार जो उज्चल पुष्प गुच्छों के मध्य में उत्पन्न हुए नौलपत्र की शोभा को स्पर्श कर रहा है- उसकी उपमा धारण कर रहा है।
जन्न अन्धकारपटल 'महान पुरुषों के साथ युद्ध करना, निश्चय से पुरुषों के ऊपर कोई महात् विपत्ति उत्पन्न किये बिना शान्त नहीं होता। इसप्रकार की वृद्धि में ही मानों - अपने वंशवीज ( अन्धकार ) की रक्षा के लिए केवल ऐसे प्रदेशों में, जो कि नीचे, ढँक हुए, गहन व सूर्यादि तेज से होन थे, छिपकर अपनी स्थिति करने में निपुण होरहा था ।
विलासी पुरुषों के गृह सम्बन्धी झरोखोंके छिद्र, जिनमें मद्य की गन्ध में लुब्ध हुए मैवरों के जमाव द्वारा, चन्द्र-किरणों का प्रसार रोका गया है, ऐसे हो रहे थे ।
जब मालाकारों के बाजार के अग्रभाग, हाथों से ऊपर चलाए हुए पुष्पहारों की सुगन्धि से विशेष मनोहर हो रहे थे !
जब सुगन्धि द्रव्य बेंचनेवाले व्यापारियों की दुकानों के विस्तार, पलटे जानेवाले कुङ्कुम, मलयागिर , व अगुरु की सुगन्धि के प्रादुर्भावों से अत्यन्त मनोहर हो रहे थे ।
चन्दन,
जब राजमार्गों की श्रेणिय, नागरिक लोक-समूह से, जो कि सादर यहाँ वहाँ चारों ओर जा रहा था व जिसने भोग सामग्री के उपकरणों ( साधनों - ताम्बुल आदि ) में बादर किया था, चारों ओर से व्याप्त हो रही थीं ।
जो ( राजमार्ग - श्रेणियां), वेश्या -समूहों से व्याप्त हो रही थीं, जिनके मनोरथ कामी पुरुषों के लिए अपने हाव-भाव विभ्रम आदि दिखाने से अहङ्कारयुक्त हैं, जिन्होंने कामी पुरुषों के निरर्थक प्रयनों की वार्ताएं ठीक-ठीक निश्चय की थीं एवं जो कामदेवरूपी हिरण की कोड़ा की वनस्थलियाँ हैं ।
२
इसीप्रकार जो ऐसी दूती - समूह से व्याप्त हो रही थीं, जिसका हृदय, अपने स्वामी द्वारा सिखाई हुई घटना से भरा हुआ है और जिसने सखीजनों के परस्पर भाषण सम्बन्धी प्रत्युत्तर देने का अवसर तिरस्कृत किया है एवं जो विवक्षित गृहों में प्रवेश कर रहा था।
१. उत्प्रेक्षाकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रवृत्तासु च दिवसथ्यापारविगुणितानुरागवेगवृत्तानु नगरमिथुनानामनगरसरहस्पगोष्ठीषु,
निखिलजनमनोलिनसंभव सकलभवनोत्पत्तिप्रजापते रतिरमण प्रियतमाषरामृतवर्षावग्रहावफापजन्मनः कृशानुकणगर्भानिब कराविकिरतोऽमुष्मादुत्पातरधिमण्डलाचन्द्रात्स्वयमेव शुकवारःकमलिनीवनापि कष्टतरमवस्थान्तरमुपगतवति विरहिणीजने कि पञ्चभिरपि बाणभवतः प्रतुं युक्तमिति प्रबसितधिकवनितामिकपालभ्यमाने च कुसुम
धनुषि,
अहमपि तबाही मनसिमातिशामिशरीरपरिकर कामिनीमुखकमलमधुकर विभ्रमविवृक्षयेव विलासिनीनां नयनेषु प्रतिफलन्तीभिः लावण्यरसपिपासयेव गोनेणु विष्कमा विमान नि:पमा गयेनारे परिस्फुरन्तोभिः परामर्शमनीषयेष स्तनतटेषु चोहण्डया प्रवृत्ताभिरमृतमरीचिदीधितिभिराज्यातिभिरिव संध्यमाणमदनवनः, रतिरहस्यक्या स्याभिरिव शिथिलोक्रियमाणमानबन्धनः, प्रत्यायमतिकाभिरिध संपाथमानप्रियतमासमागमः, कुसुमारप्रवेशोत्सवपता
जब उज्जयिनी नगरी के स्त्री-पुरुषों के जोड़ों सम्बन्धी कामरस को गोप्यतत्व-बाणिं, प्रवृत्त हो रही थीं, जो कि सेवा, कृषि व व्यापार-आदि दैनिक कर्तव्यों द्वारा दुगुने हुए अकृत्रिम स्नेह की उत्कण्ठा से प्रवृत्त हुई थी।
जब प्रवासी पथिकों की विरहिणी उत्तम नायिवाओं द्वारा, कामदेव निम्नप्रकार से निन्दा-युक्त उलाहना के वचनों में प्राप्त किया जा रहा था 1 'हे समस्त लोक के हृदय कमल में उत्पन्न होनेवाले व हे समस्त पृथिवी मण्डल सम्बन्धी उत्पत्ति के प्रजापति ( ब्रह्मा ) एवं हे रतिवल्लभ !
ऐसी विरहिणी स्त्रियों के समूह पर पांच बाणों ( उन्माद, मोहन, संतापन, शोषण व मारण ) द्वारा निठुर प्रहार करने का तेरा यह कार्य क्या उचित है ? जो कि स्वयं शुष्क सरोबर सम्बन्धी कमलिनी-चन से भो कष्टतर अवस्थान्तर को प्राप्त हुआ है और जो इस प्रत्यक्ष दष्टि-गोचर हुए चन्द्र से, जो विरहिणी स्त्रियों के लिए चन्द्र न होकर उत्पात सम्बन्धी सूर्य-मण्डल है, एवं जिसमें प्रियतम के ऑष्ठपान पीयूष की वर्षा का प्रतिबन्ध ( वृष्टि रोकना ) पाया जाता है एवं जो अग्नि कणों से भरे हुए मध्य प्रदेशों के समान किरणों को फेंक रहा है, विशेष कष्टतर अवस्थान्तर को प्राप्त हुआ है।
कामदेव से भी अतिशयवान् शरीर समुदायवाले तथा कमनीय कामिनियों के मुखरूप कमलों के मकरन्द-आस्वादन करने में भ्रमर-स्वरूप ऐसे है मारिदत्त महाराज | उस चन्द्रोदय काल में मैं भी, जिसकी कामाग्नि ऐसी चन्द्र किरणों द्वारा उसप्रकार उद्दीपित की जा रही थी जिसप्रकार घो की आहुतियों द्वारा अग्नि उद्दोपित की जाती है, अमृतमति महादेवी के महल द्वार पर आया, जो (चन्द्रकिरण ), ऐसी मालूम पड़ती थों-मानी--भ्रटि-संचालन की शोभा को देखने की इच्छा से ही रसिक कामिनियों के नेत्रों में प्रतिविम्बित हो रही बों। जो, लावण्यरूपी रस के पोने की इच्छा से ही मानों-कमनीय कामिनियों के गालोंपर विलुण्ठन कर रही थीं। जो, ओठों के चूमने की अभिलाषा-बुद्धि से ही मानों-कामिनियों के अधरों पर चमत्कृत हो रही थीं।
जो कुचकलशों के स्पर्श करने की बुद्धि से ही मानों-स्त्रियों के कुच तटों पर दण्डाकाररूप से प्रवृत्त हुई थी।
जिसका मानवन्धन चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार शिथिल किया जा रहा था जिसप्रकार संभोगक्रीड़ा सम्बन्धी गोप्यतत्व की शिक्षा देनेवाली सखियों द्वारा मानबन्धन शिथिल किया जाता है। जिसे चन्द्रकिरणों
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चतुर्थ आश्वास
किकाभिरिव सुभ्यमानतदाराषनक्रमः शृङ्गारजलधिविजृम्भमाणवत्याभिरिव प्रसर्पमाणमनः कल्लोलः सुरतसूत्राकर्षणसुचिभिरिव पूर्यमाणवक्षःस्थलः, प्रतीहारक्षेत्रलताभिरिव निषेध मामसभाबिस जनकाल:,
कोमल एवं निशीथन्याः प्रथमाष्टमभागेऽपरिसमाप्त एव च सेवावसरे विसृज्य भूलतोल्लासेन प्रणामावजितमौलिमणिमकरिकामरोति परिवेषपुनरुपा पठक्षितो सामन्तमहीपतीन् अवलोकन प्रसादानेन मन्त्रिपरिषदम् कालापसंभ्रमेण बलमुख्मान् उपासनोपचारेण पुरोधसम् उपभोगपारितोषिकेण राजकुमारकान् पाववन्दनेन पितृपितामहसंबन्धवतोर्भरतोः अनुव्रजमविनयेन च गुरूस्, आसन्नचरवाभरणारिणानुजविस सभ्यस्तथामहः । गुलिनिदेशन विनोदरवीनापासतो जनस्य मन्दिराणि वर्शयन् सृष्टि प्रवानसं भावितान्तःपुरसमारशकलोकः स्मरनिशिस विशिखाप्रभागानियोपहा विडम्बयतैव विद्रुमोद्भेव शितादम्बरमुल्ला स्यतेव सहषिहरन्तीनां विलोचनानि विस्तारयतेव दानरश्मीनुपचित्व
द्वारा प्रियतमा का समागम उसप्रकार भविष्य में प्राप्त किया जा रहा है जिसप्रकार वर को प्रियतमा के गृह पर लानेवाली दूतियों द्वारा प्रियतमा का समागम प्राप्त किया जाता है। जिसे चन्द्रकिरणों द्वारा प्रिया को सेवा परिपाटी उसप्रकार सूचित की जा रही थी जिसकार कामदेवके आगमन के अवसर पर फहराई जानेबाली महोत्सव ध्वजाओं द्वारा कामदेव की सेवा परिपाठी सूचित की जाती है। जिसके चित्तकी संकल्प लक्षणबालो तरङ्गे चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार फैलाई जा रहीं थीं जिसप्रकार शृङ्गारसमुद्र में व्याप्त हुई वायुमण्डलियों द्वारा free को संकल्प लक्षणवाली तर फैलाई जाती हैं। जिसका वक्षःस्थल | हृदयस्थल ) प्रस्तुत चन्द्रकिरणों द्वारा उपप्रकार भरा जा रहा था जिसप्रकार मैथुनतन्तुओं के प्रवेश में समर्थ सुइयों द्वारा मेथुनवस्त्र का हृदय भरा जाता है और जिसकी सभा का विसर्जनकाल, प्रस्तुत चन्द्रकिरणों द्वारा उसप्रकार ज्ञापित किया जा रहा था जिसप्रकार द्वारपालों की तलताओं द्वारा सभा का विसर्जनकाल सूचित किया जाता है ।
जब रात्रिसंबंधी प्रथमप्रहर का मृदु अर्धभाग व्यतीत हो चुका था और जब सेवा का अवसर अर्द्धपरिसमाप्त हुआ था, अर्थात् - जब मेरी सभा के सदस्यों से आधी भेंट हुई थी तब मैंने सेवा में आए हुए सामन्त नरेन्द्रों को, जिनके द्वारा प्रणाम से नम्रीभूत हुए मुकुटों या मस्तकों पर वर्तमान सुवणं घटित रत्नजडित ( आभरणविशेषों ) को किरणों के मण्डल द्वारा चरणावशेषवाली सिहासनभूमि द्विगुणित की गई है, भ्रकुटिलता के उल्लास द्वारा विसर्जित किया। इसकेबाद सम्मुख निरीक्षण से व्याप्त हुए वस्त्राभरणादि के समर्पण द्वारा मन्त्रीपरिषत् का विसर्जन किया। बाद में सेनापतियों की आभरणों के आदर ( दान ) द्वारा विसर्जित करके एवं राजपुरोहित को चरणों में नमस्कार करना आदि सेवा व्यवहार द्वारा विसर्जित किया। तत्पश्चात् राजपुत्रों की वस्त्राभरणादि उपभोग सामग्री के पारितोषिक दान द्वारा विदाई करके पिता ( यशोर्घमहाराज ) तथा पितामह ( पिता के पिता - यणोबन्धु-महाराज ) से संबंध रखनेवाली वृद्ध स्त्रियों की पादवन्दनपुर्वक विदाई करके गुरुजनों की पोछे गमन तथा पूजनपूर्वक विदाई की। इसके बाद मैं ( यशोधर महाराज ), जिसने समीपवर्ती चेंबरढोरनेवाली स्त्रियों के स्कन्ध- प्रदेश पर बांया भुजादण्ड स्थापित किया है, दूसरी हस्ताङ्गुलि के निदेश ( आज्ञा ) द्वारा क्रोडागजों के समीपवर्ती जनों ( महावत वगैरह ) के लिए गृहस्थान दिखा रहा था । अर्थात् – 'आप लोग यहाँ वैठिए इसत्रकार कह रहा था । और इसके बाद मैंने सन्मुख अवलोकन द्वारा अन्तःपुर संबंधी रक्षक - स्त्रियों का समूह अनुकूल किया ।
इसके बाद मैं कर्पूर व तेल से जलाए हुए व हस्तों द्वारा धारण किये हुए ऐसे दीपक मण्डल से वेष्टित हुआ। जो कामदेव के तीक्ष्णवाणों के अग्रभागों का उपहास करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था । जी प्रवालवृक्ष के अंकुरों के अग्रभागों के विस्तार को तिरस्कृत कर रहा था। जो साथ गमन करती हुईं कामिनियों
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यशस्तिलक काव्ये
तैवाधरवलानि रूपन्दयलेव वक्नलावण्यमवस्फारयतेष वक्षोजमण्डलानि तरलयतेष त्रिवलितरङ्गान् गम्भीरयशेष नाभीकुहराणि ariana नखशुक्त: समन्तात्प्रभापटलपल्लवितानिव च कुर्वताशरणमणीत् कर्पूरतंलप्रबोधिलेन करवोपिकाचक्रवालेन परिवृतः, तारामण मध्यगतः शर्वरीपतिरिय, कल्पवल्लरी प्रदालपरिवारितः सुरतपरिय, कनककेलकी फुलान्तराल वि लासरसः कलहंस इव तत्कालोचितालापनपेशनमंकेलिकिलहरु/माणप्रसाद परम्परः मन्दार सिन्धुर व पुरधारिवीवारिवात्मभूमी नास्मि ।
तस्मश्यामृतमतिमहादेबोलावण्यशेषाचि बोत्पलया भूविजृम्भिते नान्तर्वशिकानां घापकोटीरिव बिफल्यम्या, नयनविनमेण बाणाम्बरमिव व निरारक्षाणया, वचनसौष्ठवे गोपुरपरिघानिव प्रत्याविधस्या, स्तनाभोगेन कपाटयुगलमिवापकुर्वाणया, रोमराजिनिर्गमेन क्षेत्रलतामिवामिभिपन्त्या उभारेण तोरणस्तम्भानिय विजयमानया, मेलाजालेन वन्दनमाला मिश्र पुनरारकयन्त्या चरणनखस्फुरितेन रङ्गावलमणीनिवासहमानया, बेकचयकलक्ष्य दक्षिणेतर कक्षान्तरविनि
के नेत्रों को उल्लासित करता हुआ जैसा व उनको दन्तकिरणों को विस्तारित करता हुआ-सा तथा उनके ओष्ठyear को पुष्ट करता हुआ सरीखा शोभायमान हो रहा था। जो साथ जाती हुई स्त्रियों की मुखकान्ति को कुछ संचालित करता हुआ जेसा, एवं उनके स्तन चक्रबालों को चारों ओर से वृद्धिंगत करता हुआ जैसा तथा उनकी निलिरूप तरों को चञ्चल करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था ।
जो उनके नाभिच्छिद्रों को गम्भीर करता हुआ जैसा, तथा उनके नखरूपी सीपों को विस्तारित करता हुआ सरीखा सुशोभित हो रहा था और जो साथ जाती हुई स्त्रियों के आभरणों के मणियों को प्रभापटलों से उल्लासित करता हुआ जैसा सुशोभित हो रहा था। उस अवसर पर मैं उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार तारागणों के मध्यवर्ती चन्द्र सुशोभित होता है और जिसप्रकार कल्पवेलों से वेष्टित हुआ कल्पवृक्ष सुशोभित होता है एवं जिसप्रकार सुवर्णकेतकी मुकुलों के मध्यवर्ती विलासरसवाला राजहंस सुशोभित होता है । मैं, जिससे नवसरोचित वचन भाषण में मनोहर नर्म ( हँसी मजाक ) क्रीड़ा में चतुर पुरुषों द्वारा बारम्बार उचित दानपरम्परा ग्रहण को जा रही है एवं जिसके लिए बनेसर द्वारपालों द्वारा मार्गभूमि प्रदर्शित की जा रही श्री, मदोन्मत्त हाथी-सरोखा चरणमार्ग से ही अमृत्तमति महादेवी के द्वारपर आया !
T
इसके बाद हे मारिदत्त महाराज । ऐसी द्वारपालिका द्वारा कुछ कालक्षेप कराये जा रहे मैंने उस 'मनसिजविलासहंस निवासतामरस' ( कामसेवन रूपी हंस की स्थिति के लिए कमल सरीखा ) नाम के राजमहल में वर्तमान पलङ्ग को अलंकृत किया। जो ( द्वारपालिका), मानों-- अमृतमति महादेवी के लावण्यशेष से उत्पन्न हुई थी, अर्थात् — जो कुछ महादेवी- सरीखी थी । जो प्रकुटि-संचालनादि व्यापार से रानियों की रक्षार्थ नियुक्त हुए पुरुषों के धनुषसंबंधी अग्रभागों को तिरस्कृत करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी । जो नेत्रों की शोभा द्वारा उक्त पुरुषों के बाणों के विस्तार को निराकृत करती हुई-सी शोभायमान हो रही थी । जो बचन चातुर्य द्वारा प्रतोली- द्वार के अगों को निराकृत करती हुई-सी थी। जो स्तनों के उद्घाटन द्वारा दोनों किवाड़ों को उद्घा टित करती हुई जैसी सुशोभित हो रही थी। जो रोमराज के दिखाने से रानियों की रक्षार्थ नियुक्त हुए पुरुषों की बेंतलता को तिरस्कृत करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी। जो उरुस्थल से तीरणखम्मों को निराकृत करतो हुई-सी थी । जो मेखलाजाल ( करधोनो ) की रचना द्वारा वन्दनमाला को द्विगुणित करती हुई-सी सुशोभित हो रही थी। जो चरण नखों के तेज द्वारा रङ्गावलि के मणियों को निरस्कृत करती हुई-सी यो | जिसने वैकक' ( उत्तरीय वस्त्र ) सरोखे दिखाई देनेवाले और दाहिनी व वाई बगलों के मध्यभागपर
१. तदुक्तं तिर्यग्वक्षसि विक्षिप्तं वस्त्रं वैकक्ष्यकमुच्यते ।
सं० टी० ० २४ से संकलित - सम्पादक ।
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चतुर्थं आश्वास
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क्षिप्त कौक्षे किया प्रतापानुगतमेव मन्मयकीय मुजराराधिष्ठितयेव कल्पलतिकमा, सतडिद्गुणयेव बलाहक मालया लान्छन सालंकृतमेव चन्द्रकला, मधुकर कुलकलितमेव पारिजातमञ्जरिकया, विकृताकल्परामणीयकेन सकुतूहलमयलोकना निःशेष विषयभाषा वेदधिषणया, प्रणयशठभावेनार्ष मूर्धप्रणाम गलितकर्णावतंसया प्रतीहारपालिका मनाम्बिलम्यमानः 'किमकाण्डे कठिनहृदया देवीं । धतस्त्वमेषं संवृतासि ।' 'कथयामि देवस्य किलाद्या परंथ कावायिन्यमूदिति निशम्य देवी महति फोपे कृताशेवास्ते । विज्ञापयत्यपि च मन्मुखेन देवस्य तथैव पर्याप्तत्वाबलमस्मासु कितवोपचारदिन इति सचाटुकारं देव, बेबस्योपरि प्रसाधनाथ देव्याः पावयोः पतितावास्तवलतिकाविलं मे भालं कि न पश्यति देवः ।
अपि च
नयननदनिवार्नरेभिरप्रवाहैः स्तनकलामुखाद्यव्यप्रषारासहस्रैः ।
सुनु हृदयमध्यस्थे प्रियेऽस्मिन् भवत्या कथमिह वहिरेषा सज्यते मज्जनयोः ॥ ३ ॥
उत्तरीय वस्त्र-जैसे धारण किये हुए खड्गों को धारण किया था। इससे जो ऐसी मालूम पड़ती थी- मानोंप्रताप सहित कामदेव की कीर्ति ही है। अथवा मानों दोनों सापों से वेष्टित हुई चन्दनवल्ली हो है । अथवा मानों - बिजली के गुणसे संयुक्त हुई मेघमाला हो है। जो चन्द्रचिह्न रेखा से अलंकृत हुई चन्द्रकला-सरीखी व भ्रमर श्रेणी से हुई कल्पवृक्ष की लता सरीखी सुशोभित हो रही थी । जो खड्गधारण करने से विकृत वैिप के सौन्दर्य से कौतुक सहित निरीक्षण करने योग्य थी। जो समस्त देशों की भाषाओं तथा वेपों में बुद्धि धारण करनेवाली थी। थोड़ा स्नेह दिखाने से थोड़े मस्तक मात्रके नमाने से जिसका कर्णपूर नीचे जमीन पर गिर गया था।
एवं जिसने महारानी के प्रति राजा साहब का योग्य अनुराग जान लिया है तथा 'राजन् ! आप विशेष बलवान हैं, अतः में आपको रोकने में समर्थ नहीं है इसप्रकार कहकर जिसने हास्यपूर्वक गृहका देहलीप्रदेश छोड़ दिया है।
[ उक्त महल में बर्तमान पलङ्ग को अलंकृत करने के पूर्व ] है मारिदत्त महाराज ! उक्त द्वारपालिका द्वारा कुछ कालक्षेप कराए हुए मैंने उससे कहा – 'हे द्वारपालिके । क्या अमृतमति महादेवी असमय में मेरे प्रति कठोर हृदयवाली है ? अर्थात्- क्या प्रस्तुत महादेवी का मेरे ऊपर प्रेम नहीं है ? जिससे तुम मेरे प्रति इसप्रकार को नमस्कार न करनेवाली व मायाचारिणी हो रहीं हो । उक्त बात को सुनकर द्वारपालिका ने राजा से कहा
'में आपसे कहती हूँ' अर्थात् — आप मेरे वचन सुनिए ।
'आज कोई दूसरी ही स्त्री आप से स्नेह प्रकट करनेवाली हुई हैं' |
इस बात को कहीं से सुनकर आज अमृतमति महादेवी आप से विशेष कुपित-सी हो रही है और मेरे मुख से आपको निम्नप्रकार विज्ञापित करती है।
'asi ही प्रिया पर्याप्त है, अतः हमारे साथ कुटिलता का बर्तावपूर्ण मायाचार करने से कोई
लाभ नहीं ।'
'हे राजन् ! मेरे, जो कि आपके ऊपर महादेवी को प्रसन्न करने के लिए उसके चरण कमलों में पड़ी थी, ललाट को, जो कि देवी के चरणकमलों में लगे हुए लाक्षारस से लिप्स हुआ है, क्या स्वामी नहीं देख रहे हैं ।'
विशेषता यह है कि—
[ प्रकरण - है राजन् ! एक अवसर पर मैंने प्रस्तुत महादेवी से कहा था--]
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यशस्सिलकचम्पूकाव्ये ___खदिरिक, मामपि महादेवी प्रत्येवमुपालभेयाः । ननु विविसमेवैतद्देष्या यया न स्वप्नेऽपि मे विप्रलम्मनकराः काश्चिपि प्रवृतपः । कितु तववेवमशेषं पूर्तविलसितम् । त्वं हिं न भवसि सामान्येति किमह न जाने । कुलागतं च सब परनरप्रसारणे परमनपुण्यम् । अयमपि व जनो नन्वशेषविटट्टिनोचूर्णघटितवेह एव न भवति भवात्याश्चेष्टिताना भूमिः । तदलमत्र मुषाप्रयासेन । गृहाणेवं मुखसाम्बूलम् । इतः समागमछ । भव पुरोसिनी । मा प्रहस्त्रियामपोरिषा. षयोमध्ये संध्येय समागमविलम्बिनी' प्रति विवितामुगतनावया, 'एलवानाल' देवः । नाहमलं निवारयितुम्' इति सपरिहासं समुत्सृष्टगहावग्रहणीवेशया, निषिध्य व तियंपप्रवृत्तकुण्डलमणि किरणपल्लवितरलांशुषलयेनोत्तालतरलागुस्सिना हस्तेन मया सहागमछम्तमलिसमानुचरबलमोधवाकेकरनिरीक्षणेन मनाप्रतित्यगर्भसंभाषणेन ५ प्रतिपदमुल्लास्यमानमानसः, फक्षान्तराणि वशया बनगा इच । सया नीयमानः, सहेलमन्तःपुरप्रचारिभिरस्मदर्शनप्रवृत्तमनोनुरागर्गः कुलवामन
'हे शोभन शरीरवाली अमृतमति महादेवी ! जब यह प्रत्यक्षीभूत तुम्हारा प्राणवल्लभ तुम्हारे हृदय के मध्य स्थित है, अर्थात्-तुम्हारे समीपवर्ती हो रहा है, तब आपके द्वारा इस तुम्हारे शरीर पर यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली ऐसे आंसुओं के प्रवाहों द्वारा, जिनके आदिकारण दोनों नेत्ररूपी तालाब हैं, और जो प्रत्यक्षा दृष्टिगोचर हो रहे हैं एवं जिनको हजारों धाराएँ कुचकलशों के मुखों के अग्रभागों पर व्यापारवाली हैं, होनेवाली स्नानलक्ष्मो बाह्म में क्यों रची जा रही है ? भावार्थ-प्रस्तुत द्वारपालिका यशोधर महाराज से कहती है कि हे राजन् ! एक अवसर पर मैने रानी साहब से कहा था कि हे शोभन शरीरशालिनि । जब तुम्हारा भर्ता तुम्हारे चित्त में स्थित है तब यह रुदनलक्षणनाली स्नानलक्ष्मी तेरे द्वारा क्यों रची जा रही है ? ॥३॥
[ उक्त द्वारपाली की बात सुनकर ] प्रस्तुत राजा ने कहा-हे धूर्त खदिरिके ! तुम अमृतमति महादेवी से इस माया-प्रकार से मेरी निन्दा के वचन कहती हो! अहो घूर्त खदिरिके। देवो को विदित हो है कि मेरों कोई भी प्रवृत्तियों स्वप्न में भी फिर जाग्रत अवस्था का तो कहना ही क्या है, वञ्चना करनेवाली नहीं है, तब तो तुम्हारी ही यह सब प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाली वञ्चना की चेष्टा है । तुम सब लोक की तरह सामान्य नहीं हो, इस बात को क्या मैं नहीं जानता? तुम्हारी मुझे और दूसरे लोगों के उगने को विशेष चतुराई कुल परम्परा से चली आ रही है। यह मानव भी ( यशोधर महाराज भी ) निश्चम से समस्त कामुक व कुट्टिनियों के चूर्ण से घड़े हुए-रचे हुए शरीरवाला ही है, इसलिए आपको वञ्चना-क्रियाओं का पात्र नहीं हो सकता। अत: मुझ सरीखे मनुष्य में निष्फल वञ्चना करने के प्रयास से कोई लाभ नहीं है। मेरे इस प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुए मुख-ताम्बूल के उद्गार को स्वीकार करो। इस स्थान से मेरी दृष्टि के सम्मुख आओ और अग्रगामिनी होओ। तुम हम दोनों के मध्य में उसप्रकार समागम में विलम्ब करनेवाली मत होओ जिसप्रकार दिन व रात्रि के मध्य में संध्या उनके समागम में विलम्ब करनेवाली होती है । इसके बाद मैंने ऐसे हाथ द्वारा, जिसमें चक्र के आकार प्रवृत्त हुई कुण्डल-मणियों को किरणों द्वारा रत्न किरणों से व्याप्त हुए कङ्कण, पल्लव युक्त किये गए हैं और जिसकी अंगुलियाँ उत्सुक व चञ्चल हैं, मेरे साथ आए हुए समस्त किंकर-समूह को रोका । अर्थात् 'आप लोग यहीं उहरिए' ऐसा कहते हुए रोका ।
इसके बाद में, जिसका मन, कुछ कटाक्षों के देखने द्वारा और ऐसे संभाषण द्वारा, जिसके मध्य संमोग सम्बन्धी गोप्यतत्व वर्तमान है, प्रत्येक चरण-स्थापन में विशेष उल्लास में प्राप्त किया जा रहा था। इसके बाद मैं उस द्वारपालिका द्वारा उसप्रकार कक्षान्तरों ( गृह-प्रकोष्ठों-राजमहल के मध्यवर्ती कमरों) में लाया जा रहा था जिसप्रकार हथिनी द्वारा जंगली हाथी कल्पान्तरों ( वन के मध्य भागों) में लाया जाता
१. रूपकालंकारः।
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चतुर्थ आश्वास किरातकञ्चकौभिः कृतेन विकृतालापनर्तनकतवन विकास्थमानलोधनः, समन्तायाकुलाफुलविरलीमवत्सकलपरिणने,
पक्षकदमखधितकपुरदलहन्तुरितमातरूपमित्तिनि मृगमदशकलोपलिप्तरजसवातायनविवरविहरमाणसमोरसुरमिते सान्द्रस्यन्दसमाजितामलकवेहलीशिरसि धुणरसाणितमरकलपरागपरिकल्पितभूमितलमागे मनाइमोबमानमालतीमुफुलमितितरङ्गालिनि सापाला माणसरितवितानपर्यन्सावलम्बितमुक्ताफलमाले कूचस्यानविनिर्देशितप्रसनसमूहामीवमिलितालिकुलमारिणि संचारिमहेमकरयकांसोत्तसितमुखपासतामूलकपिलिके तुहिनतविनिर्मितवलीकान्तरमुक्तासुमनक्सौरभाषिवास्यमानसुरतापमानिकोपकरणवस्तुनि मणिपिञ्जरोपविष्टशकसारिकामिनकामाममश्मप्रयासनाये सारसजितफलकोपिणा प्रसाथितकृतपवावनयपलेम समुबगकव्यम्नमाधमनकविलोपिना कलमूकलोकन पर्यालितसौचिवल्लपरिषद विविषमणिमनोहराषिरोहिणीसरणिके सरतप्तलप्रासादोपरितनभागवत्तिनि मनसिजविलासहंसनिवाससामरसनामनि वासभवने, सरसचवमसरुस्तम्भिकाचतुष्टयमध्यावतीर्णमुल्लपपारापतपतङ्गपेशलप्रतिपादोपरिविन्यस्त
हैं और मैं कुबड़ों, बौनों, भीलों व कन्चुकिमों द्वारा, जो कि एक साथ अथवा लीला-सहित अन्तः पुर में संचार करनेवाले हैं और हमारे देखने से जिन्हें हृदय में कृत्रिम स्नेह व उत्कण्ठा उत्पन्न हुई है, क्रमशः किये हुए विकृत ( विचित्र कृत), व भाषण, नृत्य ब कैतव द्वारा उल्लास-युक्त नेत्रोंवाला हुआ। इसके बाद मैंने ऐसे 'मनसिज-बिलासहसनिवासतामरस' नाम के महल में, वर्तमान पलङ्ग को अलङ्कृत किया, जिसमें (प्रस्तुत महल में ), समस्त सेवक अत्यन्त व्याकुल होते हुए दूर हो रहे थे।
जिसको सुवर्ण-भित्तियाँ, यक्षकर्दम ( कपूर, अगर, कस्तुरी व कोल इनको समभाग मिलाकर बनाया हुआ लेपन अथवा कुङ्कम व श्रीखण्ड ) से लिप्त हुईं व कर्पूर खण्डों से ज्याप्त होने के कारण उत्पन्न हुए दाँतीबालो-सौं प्रतीत हो रही थीं। जो, कस्तूरो-खण्डों से लिप्त हुए चांदी के झरोखों के छिद्रों से संचार करती हुई वायु से सुगन्धित था। जिसका स्फटिक मणियोंका देहलो-मस्तक विलेपन विशेष के रस से लिप्स था। जिसका भूमि-तलभाग, कुङ्कुमद्रव से अध्यक्त लालिमावाले नौल मणियों के चूर्ण से रचा गया था। जहां पर रङ्गावली (नानारंग के चूर्ण से रचा हुआ मण्डन-विशेष) कुछ विकसित होती हुई मालतो पुष्पों की कलियों से सुशोभित थी। जहां पर चंदोवा के पर्यन्त भाग पर लटकी हुई मोतियों को मालाएं निरन्तर जलते हुए काला गुरु धूप के धुएं से धूसरित हो रही थीं । जहाँ पर सॅभोग सम्वन्धी उपकरणों के स्थापन प्रदेश पर रक्खी हुई नाना प्रकार को पुष्प राशियों की सुगन्धि से एकत्रित हुई भ्रमर-श्रेणी का शङ्कार ( गूंजना ) हो रहा था । जहाँ पर मुख को सुगन्धित करनेवाली सुगन्धि युक्त ताम्बूल की कपिलिका रांचरण करनेवाली सुवर्ण-पुतली का कर्णपूररूप हुई है। जहाँ पर मैथुन के अखीर में होनेवालों उपकरण बस्तुएँ ( व्यञ्जनादि ), कपूर वृक्षों से रची हुई पट्टियों के मध्य भागों से बंधी हुई पुष्प मालाओं की सुगन्धि से सुगन्धित की जा रही हैं। जो रत्न-घटित्त पिञ्जरों में बैठी हई तोता-मैना के जोड़ों द्वारा कहीं जानेवाली काम-कथाओं से सहित है। जहाँ पर ऐसे नपुंसक-समूह द्वारा कञ्चुकियों को परिषत् व्याकुलित हो रही है, जो खदिरादि वृक्ष के तख्ते को उठानेवाला और संवारे हुए बाजे को बजाने में चञ्चल है तथा जो संपुटक ( सन्दूक ), पंखे व उदकपान को दूर करनेवाला है और जिसमें नाना प्रकार के रत्नों की मनोहर सीढ़ियों का मार्ग वर्तमान है एवं जो सात तल्लेवाले राजमहल के ऊपर आठवें तल्ले पर वर्तमान है।
अथानन्तर हे मारिदत्त महाराज 1 मैंने किस प्रकार के पलंग को अलकृत किया? जो ( पलंग), नवीन चन्दन वृक्ष के छोटे चार पायों के मध्य में प्राप्त हुआ है। अर्थात्-जिसमें उच्च प्रकार के चार पांव
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यशस्तिलफचम्पूकाव्ये पादमण्डलं तरङ्गितबुकलपटप्रसाधिताहंसतूलिकमन्सरातरा हरिचन्दनस्वासकाङ्कितपर्यन्तमपिरलोपान्तपरिकल्पितघूपपिकाविवरविसरमपटलमुभयपाश्चोंपदर्शितमणिप्रत्रीपिकमुश्वानहोत्तम्भितपूर्वापरभागमुत्फुल्लकमलाकरमिव सरोवरमन्नुघरपरिवारितमिष शंभुशिखरिणमरासुग्गुरुमध्यतिनमिव तुहिनकिरणमषरोत्तरसैतुबन्धावपद्धमिव भन्नाकिनीप्रवाहमुच्छवसिलमात्रेणापि तरलतरान्तरालविहिनसुखसंवेशभनेकविस्मयनीयस्मरग्रहावेशकर पन्त्रसुन्वरमन्यदिशम् ।।
___ अतः शयनतप्तमसंकुर्वतीमपरामिव लक्ष्मीम्, अनिमिषनिवासान्नरलोफसुप्ततृष्णावतीर्णामिय सरस्वती, अचलारूपपरिणतामिव कलासमितिम्, उपात्तमानुषोभावाभिव सागराम्बराम, अतिरोहितारमशरीरामिव राज्याधिवेवताम्, अहिलसुखसारखानिमिय स्वीत्वमुपागताम, अनङ्गतोरणजमिव पापालनाभिरामाम्, अनङ्गभूषणानिमिष स्फुरन्नखमणिपरम्पराम, अनङ्गशरविमिव पूर्वानुवृतजडाभोपाम्, अनङ्गमनपिकामियोतस्तम्भश्रिताम्, अनङ्गयोगाम्यासभूमिमिष हैं। उत्कर्ष रूप से अव्यक्त शब्द करते हुए कबूतरपक्षियों से मनोहर प्रतीत होनेवाले प्रतिपादों ( चार पांवों के नीचे स्थित हुए पात्रों) के ऊपर जिसमें पलंग के चारों पाँव' स्थापित किये गए हैं। जिसपर लहरों से व्याप्त हुआ--अर्थात्-मछली की चित्रकारी होने के कारण नीचा-ऊँचा प्रतीत होनेवाला- रेशमी वस्त्रों से निर्मित हुआ प्रास्तरण-विशेष ( गद्दा ) बिला हुआ है। जिसका प्रान्तभाग बीच-बीच में परमोत्तम चन्दन के हस्तप्रतिबिम्बों ( हाथाओं ) से चिह्नित था, अतः जो उसप्रकार शोभायमान हो रहा था जिसप्रकार प्रफुल्लित कमलसमूहवाला तालाब सुशोभित होता है। जहाँपर अविच्छिन्न ( कट के निकटवर्ती ) ममीप में रचे हुए छोटे धूप-घड़ों के छिद्रों से फैलते हुए धूमपटल वर्तमान हैं, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था, जिसप्रकार कालमेघ से वेष्टित हुआ कैलाशपर्वत सुशोभित होता है । जिसके बाएं व दाहिने भाग के समीप रत्नों के छोटेछोटे दीपक स्थापित किये गए हैं, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार बृहस्पति और शुक्रके मध्यवर्ती परिपूर्ण चन्द्रमण्डल मुशोभित होता है । जिसके पूर्व व अपर भाग–अर्थात्-शिरभाग व पादभाग, तकियों के जोड़ों द्वारा रोक थाम किये गए थे, इसलिए जो उसप्रकार सुशोभित हो रहा था जिसप्रकार अधोभाग व पूर्वभाग पर स्थित हुए सेतु-बन्धों से रुका हुआ गङ्गा नदी का पूर सुशोभित होता है। जहां पर उल्ल. सन मात्र से ही विशेष चञ्चल मध्यभाग द्वारा अनायास सुरत ( मैथुन ) किया गया है, इसीप्रकार जो मनेक आश्चर्य-जनक कामदेवरूपी पिशाच-प्रवेशों को करनेवाला है।
उक्त प्रकार के पलंग को अलङ्कृत करने के बाद [हे मारिदत्त महाराज ! ] मैंने अपने पलंग पर बैठो हुई उस प्रसिद्ध ऐसी अमृतमति महादेवी को देखा, जो ऐसी प्रतीत हो रही थी-मानों-दुसरी राज्य श्री ही है । अश्रवा मानों-मनुष्य लोक की सुखाभिलाषा से स्वर्ग लोक से आई हुई सरस्वती ही है । अथवा मानोंस्त्रीरूप से उत्पन्न हुई बहत्तर कलाओं की श्रेणी ही है । जो ऐसी मालूम पड़तो थो-मानों-मानुषो स्यो पर्याय घारिणी पृथिवी ही है। अथवा मानों-अपना स्वरूप प्रकट करनेवाली राज्य की अधिष्ठात्री देवी ही है । अथवा मानों..स्त्रीत्व को प्राप्त हुई समस्त सुखसारों की खानि ही है। जो उसप्रकार चरणरूपी पल्लबों से मनोज्ञ थी जिसप्रकार कामदेव की तोरणमाला पल्लवों से मनोज होती है। जो उसप्रकार देदीप्यमान नखरूपी मणि. माला से अलकृत थी जिसप्रकार कामदेव की भूषणभूमि मणिमालासे अलङ्कृत होती है। जिसकी जवाओं का विस्तार उसप्रकार क्रमशः पूर्वानुवृत्त ( गो-पुच्छ को आकृति-सरोखा) था जिसप्रकार कामदेव के बाणों का भाता पूर्वानुवृत्त-फैला हुआ होता है। जो उसप्रकार घुटनों के ऊपरी भागरूपो खम्भों से आश्रित थी जिसप्रकार कामदेव को उपकारिका वसति खम्भों से आश्रित होती है। जिसका जघन-स्थल उसप्रकार विस्तीर्ण
१. यथासंस्थोपमालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वास
विशालघनस्याम्, अनङ्गजयपताकामित्र विततरोमरानिष्टिकाम् अमङ्गल केलियापिकामित्र गम्भीरनाभिमण्डलाम् अनङ्गावतरणवसतिमिथ बलिविराजिताम्, अनङ्गामुपयष्टिमित्र मुष्टिमित मध्यभागाम्, अनङ्गशरासार वृष्टिमिव परिपूर्णपयोधराम् अनयनवसुधामिव भुजलतानन्दिनीम्, मनङ्गादेशपत्रिका भिवालक लिपिलिखित भाल मध्याम्, अभ्युत्तिष्ठन्तीमिव भ्रूलताविलासेन, स्थागतप्रणयिनीमिष विस्वाधरस्कुरितेन विहितासन प्रजानामिव नोवीनिवेशोल्लासेन, पार्थक्रयोपरा fishing निवारितस्तनखप्रभाप्रवाहेण, अर्धमुत्क्षिपत्तीमिव प्रत्यङ्गनिर्गत रोमाञ्चकदन्वेन, संपादित मधुपर्काम बालकचल्लरीब्यापारितत्वाहुमूलप्रदर्शनेन आचामयन्तीमिव च शृङ्गाररसोत्तरङ्गितः कटाक्ष बोलिले, भूतवरसकसज्जिकायिति साममृमहादेषी भपश्यम् । आहो पण महारष्यनिर्गमनादिव तदा हि मे समुल्लसितं हृवयेन, दिव्याञ्जनपवेहाबिय प्रसन्नं चक्षुषा, अमृतवर्षाभिषेकादि प्रशान्तं देहेन सिद्धोषधिवन्धनादिव विरसं विरहज्वरेण, चिन्ता
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था जिसप्रकार कामदेव के ध्यानानुशीलन का स्थान विस्तीर्ण होता है। जिसकी रोमराजिरूपी यष्टि उसप्रकार विस्तृत थी जिसप्रकार कामदेव की विजयपताका विस्तृत होती है। जिसका नाभिमण्डल उसप्रकार गम्भीर था जिसप्रकार कामदेव की जलकोड़ा की बावड़ी गम्भीर होती है। जो उसप्रकार त्रिवलियों-उदर रेखामों से अलकृत थी जिसप्रकार कामदेव का अवतार- गृह बलियों ( पुजाओं ) से अलङ्कृत होता है ।
जिसके शरीर का मध्यभाग ( कमर ) उसप्रकार मुष्टि ( संकुचित हाथ ) द्वारा नापा गया है, अर्थात् जो कृशकटि ( पतली कमर वाली ) है जिसप्रकार कामदेव का धनुष दंड मध्यभाग में मुष्टिमित होता है । जो कामदेव की शरासार-वृष्टि - ( बाण - समूह की वर्धा ) सरीखी परिपूर्ण ( परस्पर में सटे हुए पीत -स्थूल ) गोवरों (स्तनों) से अलङ्कृत थी । अर्थात् — जिसप्रकार पयोवर (मेघ) शरासार वृष्टि ( जल की वेगशाली वर्षा ) से महिल होते हैं। जो उसप्रकार बाहुरूपी लताओं को मानन्द दायिनी थी जिसप्रकार कामदेव को वनभूमि लताओं से आनन्ददायिनी होती है । जिसका सिर का मध्यभाग उसप्रकार केशपाशों के अक्षर- विन्यास से लिखित था जिसप्रकार कामदेव की शासन पत्रिका का मध्यभाग लिपि-लिखित होता है । भ्रकुटी रूपो लता के उल्लसन से अभ्युत्थान करती हुई-सी और विम्बफल सरीखे ओष्ठों के संचलन से स्वागत - प्रणयिनी ( प्रशस्त रूप से आई हूँ इसप्रकार अपने को कहती हुई- सरोखी ) जैसी सुशोभित हो रही थी। जो नीवी (स्त्री की कमर का वस्त्र बन्धन ) स्थान को ऊँचा उठाने से बैठने के लिए आसन-दान करती हुई सरीखी सुशोभित हो रही थी। जो कानों की खुजली को नष्ट करने के लिए ऊपर उठाए हुए हाथों के नखों की प्रभा-प्रवाह द्वारा पादप्रक्षालनोदक सम्बन्धी आधार में उद्यमशील सरीखी और सर्वाङ्गीण रोमाञ्च समूह द्वारा पूजा-पात्र को प्रदान करती हुई जैसी एवं केशपाशरूपी वल्लरी के कारण फैलाई हुई भुजा का मूलभाग ( कुचकलश ) के प्रदर्शन द्वारा मधुपर्क (दही मधु, घृत पाददान) को उत्पन्न करनेवाली-सी एवं जो शृङ्गाररूपी अमृत रस से उत्कृष्ट तरङ्गोंवाले नेत्रों के कटाक्षों के विलोकन द्वारा आचमन देनेवाली सरीखी सुशोभित हो रही थी एवं जिसने वासकसज्जिका —-शृङ्गारकारिणी को क्रिया की है ।" हे महापुण्यशाली मारिदत्त महाराज ! उसे देखकर मेरा हृदय जसप्रकार हर्षित हुआ जिसप्रकार दण्डकारण्य से निकलने पर हृदय हर्षित होता है और मेरे नेत्र उसप्रकार प्रसन्न हुए जिसप्रकार दिव्य अज्जन के लेप से नेत्र प्रसन्न होते हैं एवं मेरे शरीर को जसप्रकार शान्ति मिली जिसप्रकार अमृत वृष्टि के स्नान से शान्ति मिलती है। मेरा विरहज्वर उसप्रकार
१. तथा चोक्तम्— 'उचित वासके या तु रतिसंभोगलालसा । मण्डनं कुरुते हृष्टा सा वै वासकस [ज्जिका 11' - सं० टी० पृ० ३३ से संकलित - सम्पादक
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यशस्तिलकधम्यूकाव्य मणिलाभादिव फलितं ममोरयः, कामधेसुसमागमायिव चाभवस्कृतार्थागमा समतोऽपि प्रजापालमाश्रमः परिश्रमः ।
ततस्तच्ययनतले बक्षिणतः ससंबाधमुपविश्य तस्यास्ततस्तेन तेना|क्तिमुभगेन मुग्धविवग्पभाषितेन मनागरिसमाप्तम्यापारेण निधमपुरावलोकितेन ईवन्निषेधार्पणरसिफेन समालिङ्गितेनान्यश्च स्तरनमा नटरहस्योपदेशप्रगल्भवृत्तिभिषिलासेस्सत्र तत्रावस्यान्तरं सुखस्रोतसि विशम्भमाणमनःकलहंसः, वसन्त इय बक्षिणाशाप्रवृत्तमावतः विसर्य मनसिजरसोल्लासादिव तरलतारोक्येम लोचनपेन कामसमीरसमागमादिव सपारिफ्लवेनापरपरलयेन पृङ्गापामृतपानाविव संजातोरसेकेम कपोलपुलकेन मरनानलसंधुक्षणादियोष्मलेन स्तनयुगलेनानन्यापर्जन्यामिवर्षाविध घ साम्बसन तेमाल न संपानष्ट हो गया जिसप्रकार सिद्धपुरुषों की औषधिके सम्बन्ध से ज्वर नष्ट होता है एवं मेरे मनोरथ उसप्रकार सफल हुए जिसप्रकार चिन्तामणि रत्न की प्राप्ति से मनोरथ सफल होते हैं और मेरा प्रजारालन में समर्थ हुआ समम्म खेत जसप्रकार मारला कामनार कामधेनु को प्राप्ति से समस्त खेद सफल होता है ।
प्रसङ्गानुवाद-इसके बाद मैं उस महादेवी के पलंग पर नींद-सी लेता हुआ। इसके पूर्व में अमृतमति महादेबी के दक्षिण पार्श्वभाग से शरीर के संघटन सहित बैठा। बाद में उसके कामीजनों में प्रसिद्ध, आधी उक्ति से मनोहर, कोमल और चतुर बचन द्वारा और कुछ आधे बिलोकनवाली स्नेह-पूर्ण अमृतधारा-सी चितवन द्वारा तथा कुछ निषेध व अङ्गापंण से रसिकता को प्राप्त हुए आलिङ्गन द्वारा एवं दूसरे चतुर कामीजनों में प्रसिद्ध ऐसे विलासों द्वारा, जिनमें कामदेवरूपी नट की कामदेव सम्बन्धी गोप्यत्तत्व की शिक्षा सम्बन्धी उपदेया को प्रौढतर प्रवृत्ति पाई जाती है, उस उस सुख के प्रवाह में जिसका हृदयरूपी राजहँस विस्तृत हो रहा है, ऐसा हुआ। उस दूसरी सुख की दशा को प्राप्त हुआ मैं उसप्रकार दक्षिणाशाप्रबृत्तमारुतशाली हुआ। अर्थात्जिसकी श्वासोच्छ्वास वायु पिङ्गला नाड़ी में संचार कर रही है, ऐसा हुआ जिमप्रकार वसन्त ऋतु, दक्षिणाशाप्रवृत्तमारुतवाली होती है। अर्थात् जिसमें वायु का संचार दक्षिण दिशा में होता है। इसके बाद मैंने ऐसे स्मरमन्दिररूपी महल का चितवन किया, जिसमें निम्न प्रकार की घटनाओं-मुख साधनों द्वारा मानसिक हर्ष उत्पन्न किया गया है।
जैसे चञ्चल व उज्वल उदयवाले दोनों नेत्रों से, जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-कामदेव सम्बन्धी रस { रागरूप जल ) के उल्लसन से ही चञ्चल व उज्ज्वल हुए हैं, अर्थात्-जिसप्रकार जल के उल्लास से वस्तु चञ्चल व उज्ज्वल होती है और चन्चल ओष्ठपल्लव से, मानों--कामदेवरूपी वायु के समागम से ही 'पञ्चल हुए हैं। अर्थात्-जिसप्रकार वायु से वस्तु चञ्चल होती है। एवं गालों के स्थल पर उत्पन्न हुए प्रचुर रोमाञ्चों से, मानों--पृङ्गाररूपी अमनपान से ही जिनमें भली प्रकार प्रचुरता उत्पन्न हुई है, अर्थात्जिसप्रकार अमृतपान से गालों पर रोमाञ्च प्रकट होते हैं। मानों-कामरूपी अग्नि के संयुक्षण से ही कम होनेवाले कुचकलशों ( स्तनों) से, अर्थात्-जिसप्रकार अग्नि के संधुक्षण से ऊष्मा प्रकट होती है। एवं कामदेवरूपी मेघ की चारों ओर वृष्टि होने से ही मानों-स्वेद जल से व्याप्त हुए शरीर से 1
१. तथा धौनं स्वरोदयशास्त्रे-'दाक्षिणात्योऽनिलः श्रेयान् कामसंग्रामयाणाम् ।
क्रियास्वन्यास्वन्यः स्पासामनाडीप्रभजन: 1।' २. सथा चौक्तम्-'पारिप्लवं नयनपोरघर प्रकम्पः कामं कपोलफलके पुलकप्रबन्धः । मागमः स्तनयुगै मकरन्धसङ्गः क्रीडाम्बुजे च नियतं वनितासु रागः ॥'
-सं०टी०१० ३५ से संकलित--सम्पादक
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चतुर्थ श्राश्वास पिसहवयोमानं स्मरमग्विरप्रासादम्, प्रस्तुत्य च माटुकारपरिभाषामनोहराः प्रणस्युपोधातबिस्तारिणीपदानानुतन्त्रप्रवृत्ताः स्मरसूविवरणवतोस्तास्ताः कयाः, पुद्विरेफ व मकरन्दपानेन, राजहंस इष मणालखणनेन, कुरा इव मृगीशक्षविलेखनेन, वनपास इस सप्तादेष्टनेन, सिंह इव मेखलाधिरोहणेन, पुष्पाकर इव पिकघजितेन, उध्यावविनपालब इव पूर्णकुम्भाशयणन, करभ इव विटपाकर्षणेन, सरित्पतिरिवापगावर्तपरिवर्तकालनेन, मकर इव कल्लोलताउनेन, वनगन इब कमलिनीसर परिमलेन, द्रवन्निव विलीनयन्निव निमज्जम्निव विवान्निव निर्वापन्निद ख, संस्तरनन्पजन्मनो रसप्रसरः
इसके बाद मैंने कामीजनों में प्रसिद्ध ऐसी कथाएँ कहाँ, जो चाटुकार परिभाषा से मनोहर थीं। अर्थात्-जो स्नेह जनक व मिथ्या प्रशंसा से व्याप्त हुई परिभाषा (भाषण) से हृदय को उल्लासित करनेवाली थीं। पक्षान्तर में अनियम में नियमकारिणी परिभाषाएं ( शास्त्र विशेष ) जिसप्रकार मनोहर होती हैं। जो प्रणति ( पादपतन ) व उपोद्घात ( समीप में मस्तक-ताड़न ) से विस्तृत थीं। पक्षान्तर में कथा-प्रारम्भ में मङ्गलार्थ प्रणति ( इष्ट देवता को नमस्कार ) की जाती है, पश्चात् उपोद्घात ( विवक्षित वस्तु का अवतरण-क्रम ) द्वारा कथाएं विस्तुत होती हैं।
इसीप्रकार जो दाहप्रदानानुतन्त्रप्रवृत्त हैं । अर्थात्-जो पुरुषकार ( पुरुषत्व ) दानानन्तर पश्चात् सुरत ( मैथुन ) में प्रवृत्त हुई हैं। पक्षान्तर में जो, दण्डप्रदान ( दक्षिणापथ-गुरुदक्षिणा के मार्ग पूर्वक ?) अनुसन्त्र (बातिका-शकाएं उठाकर उनका समाधान करना ) द्वारा प्रवृत्त हुई हैं। एवं जो स्मरसूत्र धारण ( जवाओं के कपर जंघाओं का स्थापन ) द्वारा विवरण-युक्त हैं। अर्थात्-गोप्यस्थान-प्रकटन-युक्त हैं। पक्षान्तर में शास्त्रों के मूल सूत्रों का विवरण वृत्तिन्नन्थ द्वारा होता है।
इसके बाद मैंने उस अमृतमति महादेवीके साथ उसप्रकार मकरन्दपान ( ओष्ठ-चुम्बन ) द्वारा मैथुन-सुख भोगा जिस प्रकार भ्रमर मकरन्द-पान (पुष्परस-पान ) द्वारा सुखानुभव करता है। मैंने उसके साथ मृणाल-खण्डन (ओष्ठ-खण्डन ) द्वारा उसप्रकार सुरत-सुख भोगा जिसप्रकार राजहंस मृणालखण्डन ( कमल की नाल के स्खण्डन ) से सुखानुभव करता है। मैंने उसके साथ मृगीशृङ्गविलेखन ( प्रिया के केशपाशग्रहण ) द्वारा उसप्रकार सुरत-सुख भोगा जिसप्रकार हिरण मृगौशृङ्ग विलेखन । हिरणी के सींगों का खरोचना । द्वारा सुख भोगता है। मैंने उसके साथ लतावेष्टन ( भुजाओं द्वारा आलिङ्गन ) द्वारा उसप्रकार कामसुख का अनुभव किया जिसप्रकार वन का वृक्ष लतावेष्टन द्वारा सुखानुभव करता है। मैंने उस महादेवी के साथ मेखलाधिरोहण ( कटिंदेश-कमर के ग्रहण ) द्वारा उसप्रकार काम-सुख का अनुभव किया जिसप्रकार सिंह मेखलाधिरोहण ( पर्वत-नितम्ब' पर आरोहण) द्वारा सुखानुभव करता है । मैंने उसके साथ पिकवघुकूजित ( कोयल सरीखो सरस बाणी के श्रवण) द्वारा उसप्रकार कामसुख का अनुभव किया जिसप्रकार वसन्त कोयल के कलकल कूजित द्वारा सुखानुभव करता है। मैंने उस देवी के साथ पूर्णकुम्भाश्चयण ( स्तनों के मर्दन ) द्वारा उसप्रकार सुरत-सुख का अनुभव किया जिसप्रकार उत्सव दिवसरूपी पल्लष पूर्णकुम्भाश्रयण ( पूर्णकलशों) के स्थापन द्वारा सुखानुभव करता है। मैंने उसके साथ विटपाकर्षण ( बाहुलताओं के आकर्षण द्वारा उसप्रकार कामसुख का अनुभव किया जिसप्रकार ऊँट विटपाकर्षण ( वृक्ष-शाखाओं के आकर्षण ) द्वारा सुखानुभव करता है। मैंने उस महादेवी के साथ आपगावतपरिवर्तकलन ( नाभि प्रदेश के अवलोबान) द्वारा उसप्रकार कामसुख भोगा जिसप्रकार समुद्र नदियों के मवर धारण द्वारा सुखानुभव करता है। जिसप्रकार मकर कल्लोलताड़न ( समुद्र-तरङ्गों के ताड़न । द्वारा सुखानुभव करता है उसीप्रकार मैंने उस महादेवी के कल्लोलताड़न ( वाहुदण्डों के ताड़न ) द्वारा कामसुख का अनुभव किया । एवं जिसप्रकार विन्ध्याचल का हाथी कमलिनीसरःपरिमलन ( कमलिनियों से व्याप्त हुए तालाब में डुबकी लगाने ) द्वारा सुखानुभव करता है उसो
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रणयकोपसंधितानुरागमनुनयोपचारद्विगुणितस्नेहसङ्गमन्योन्यकलाकौशलोपधितरसधेगममर्यादमुल्लासक्रमापदमनपेक्षितवपुःखेगमपुनर्लम्यमिवापश्चिमं तया सह संवैशसुखमनुभूय, उपान्तयन्नपुत्रिकोत्क्षिप्यमाणपजनपचनापनीयमानसुरतषमः,
गलिते नितम्बदेशारकाचोगुणमण्डने निलम्विन्याः । नखरेख: पुनरधिको शोभा मनयन्ति जघनस्य ॥ ४ ॥ भवति कचप्रयोगात्सरलत्वं कुन्तलेषु युवतीनाम् । सन्निक्षेपविरिष कुटिलाः श्वरसास्तु जायन्ते ॥ ५॥ बन्सलतमिदमघरे रमणीनां नेसि मन्मनः किं तु । मन्मथतरोग्यं पल्लवोल्लासः ॥६॥ पशुवि लाक्षाराग: कमलमपरे ध मण्डनं कुरुते । दिग्यासस इव चित्रा वृत्तिमंचनस्य विपरीता ॥ ७ ॥ रमपलि मनो नितान्तं स्वेचोद्गमबिम्नुमचरीलालम् । लग्मित हब कुधमध्ये प्रषिवासि हारः पुरन्धीणाम् ॥ ८ ॥
उरसि नखक्षतपंक्तिनितानां भाति सरसविनिवेश । स्मरशरपाल्पविनिर्गममनितः प्रापेग मार्ग इव ॥ ९ ॥ प्रकार मैंने उस प्रिया के साथ कमलिनीसर परिणाम स्मरमतिर में सुरा को हार कासमुन्न का अनुभव किया।
उस अवसर पर में क्षरण करता हुआ-सा, तन्मय होता हुमा-सा, उसके मध्य प्रदोश करता हुआसरीखा, उसमें प्रविष्ट हुआ-सा तथा अपने को उस विशेष सुख में प्राल कराता हुआ-सरीखा प्रतीत हो रहा था। हे मारिदत्त महाराज ! मैंने उस प्रिया के साथ कैसे कामसुख का अनुभव किया? उन-उन प्रसिद्ध कामदेव के रस प्रवाहों द्वारा व प्रणयकोप द्वारा जिसमें अनुराग बुद्धिंगत किया जाता है। जिसमें मानव-व्यवहार द्वारा प्रेम का सङ्ग द्विगुणित किया गया है। जिसमें परस्पर के कलाचातुर्य द्वारा राम-वेंग वद्धिगत किया गया है। जो बेमर्याद है। जिसमें अपनी स्थिति के स्थान का अतिक्रमण किया है। जिसमें शारीरिक कष्ट की गणना नहीं की गई और जो अपश्चिम–अत्यन्त है एवं जो पुनः प्राप्त न होने योग्य सरीखा है। उस अवसर पर में ऐसा था जिसका संमोग-खेद समीपवर्ती अथवा दोनों पार्श्व भागों में वर्तमान कला पुतलियों द्वारा प्ररित की जानेवाली पंखों को बायु से दूर किया जा रहा था।
जब निम्बिनी (कमनीय कामिनी ) के नितम्बदेश से करधोनी रूपी आभूषण खिसक जाता है तब जवाओं को नखरेखाएँ फिर भी अधिक शोभा उत्पन्न करती हैं ॥मा युवती स्त्रियों के केशपायों को मुष्टि द्वारा ग्रहण करने से केशों में सरलता हो जाती हैं और श्वास कुटिल हो जाते हैं। इससे ऐसा मालूम पड़ता हैमानों-केशों की कुटिलता के त्याग के दुःख से ही श्वास कुटिल हार हैं। 11५|| रमणियों के मोटों में वर्तमान यह प्रत्यक्ष दिखाई देता हुआ दन्तक्षत ( व्रण नहीं है, फिर क्या है ? मेरा मन यह कह रहा है कि भद्र द्वारा पूर्व में भस्म किये हुए पश्चात् उत्पन्न हुए कामदेवरूपी वृक्ष का यह प्रवालों का उल्लास ही है" |६|| नेत्रों में लगा हुआ लाक्षारस ( अलक्तक या ताम्बूलरस ) और ऑष्ठ में कज्जल शोभा को धारण करता है। अभिप्राय यह है कि पुरुप ने स्त्री के नेत्रों का चुम्बन किया, अतः उनमें लाक्षारस या ताम्बूलरस लग गया । इसीप्रकार
१. ध्वन्यलंकारः । तथा चोकम्-'अन्यार्थवानकर्यत्र पदरन्यार्थ उच्यते । सोऽलंकारो ध्वनि यो वक्तुराशयसूचनातू ।'
सं०टी० पु. ३६ से संचालित-सम्पादक २. क्रियासमुच्चयालकारः। ३. संयुक्ताङ्गाररसः । ४. उत्प्रेक्षालंकारः । ५. अपहृसिरलंकारः ।
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चतुर्थं आश्वास
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स्तनमलकपोलभुजगा राजन्ते करजराजयः कुटिलाः । मदनस्य युवतिवसतिषु निवासलिखिता प्रशास्तिरिव ।। १० ।। मानि मलिनत्यं वातुः कस्यापि युज्यते कर्तुम् । स्तमविवेकि कठिनं कुचयुग्मं कोऽपि किं व्यजति ॥ ११ ॥ मोतियांत एव मन्वन्ति विरतरं पुरुषाः । नूपुरवरिक सुरते महोत्सवः केशकुतुमेषु ॥ १२ ॥
अपि च ।
पुष्पेष्व शिलीमुखावलिर सुन्नीलालक भीरियं नेत्रे श्रोत्रसमीपमाश्रितवती किञ्चित्मियी भाषितुम् । ari चुम्बितुमुन्नताविव कुवावस्थाः पुनः सुभुवः कास्थानसमृद्धिमारितया मध्यं कुशत्वं गतम् ।। १३ ।। मनसिजकलभोऽयं नूनमस्मिन् प्रवेशे निवसति वनितानामुयमूलप्रचारः ।
यदिह तनुज राजिवयाजतो नाभिवाप्य प्रसृतवपुरिवास्या लक्ष्यते हस्त एषः ।। १४ ।।
स्त्री के नेत्रों का जल पुरुष के ओष्ठ पर लग गया । अतः कामदेव की चेष्टा दिगम्बर मुनि सरोत्री विपरीत होने के कारण आश्चर्यजनक होती है । वर्षात् जिसप्रकार ध्यान योग से दिगम्बर मुनि के नेत्र रक्त हो जाते हैं एवं विशेष प्यास के कारण ओष्ठ श्याम हो जाते हैं ॥७॥ स्त्रियों की प्रकट हुई स्वेदविन्दुरूपी मजरो-श्रेणी मन को विशेष रूप से प्रमुदित करती है एवं हार मानों - लज्जित हुआ सरीखा स्तनों के मध्य प्रवेश करता है ||4|| स्त्रियों के हृदय पर तत्काल की हुई नखों को व्रणराजि ( श्रेणी ) ऐसी प्रतीत होती है— मानों— कामदेव के वाणरूपी कॉटों के निकलने से उत्पन्न हुआ प्रायः मार्ग ही है ||९|| कमनीय कामितियों के कुचों, गलों व गालों को स्थली तथा भुजलताओं पर स्थित हुई व वक्र नखात श्रेणियां सुशोभित होती हुई ऐसी मालूम पड़ती थीं— मानों – कामदेवसंबंधी युवतीरूपी महलपर निवास करने से उकीरी हुई प्रवास्तियाँ ही हैं ||१०||* याचक अथवा प्रयोजनार्थी पुरुष के आनेपर किसी दाता को अपना मुख म्लान (श्याम) करना उचित नहीं है । उदाहरणार्थ- क्या कोई पुरुष ( उदरस्थित बालक या कामसेवन में प्रवृत्त हुआ पुरुष ) ऐसे स्तनों के जोड़े को, जो कि स्तब्ध (उन्नत - उठा हुआ व पक्षान्तर में अभिमानी) और अविवेकी ( अघटित व पक्षान्तर में सदसद्विवेक- शून्य ) एवं कठिन । कर्कश – कड़े एवं पक्षान्तर में निर्दयी या लुब्ध ) है, छोड़ता है ? अपितु स्थिति) होती नहीं छोड़ता ||११||५ जिन पुरुषों में नीचेर्वृत्ति ( विनयशीलता व पक्षान्तर में निकृष्ट पद है, वे ही पुरुष निरन्तर वृद्धिंगत होते हैं । उदाहरणार्थ- सम्भोग कीड़ा में नूपुरों ( पाद-मजीरों ) सरोखा महोत्सव क्या चिर पर स्थित हुए पुष्पों में होता है ? ||१२|| सुन्दर भ्रकुटिशालिनी इस कमनीय कामिनी की यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई श्याम कंशपाश-लक्ष्मी, कामदेव द्वारा प्रेरित की गई बाणश्रेणी सरीखी हुई । अर्थात् इसके श्याम केशों की लक्ष्मी ऐसी प्रतीत होती है— मानों – कामदेव द्वारा प्रेरित की गई वाण श्रेणी ही है । tear इसकी पुष्पों के मध्यवर्तिनी श्यामकेशलक्ष्मी भ्रमर-रहित हो गई। इसके दोनों नेत्र दोनों कानों के समीप आश्रित हुए ऐसे प्रतीत होते थे मानों--परस्पर में कुछ कहने के लिए हो श्रोत्रों के समीप आश्रित हुए हैं। इसके दोनों स्तन उन्नत हुए ऐसे प्रतोत होते थे मानों - इसका मुख चुम्बन करने के लिए ही उन्नत ( उठे हुए ) हुए हैं । एवं करधोनी के स्थान की उन्नति से द्वेप करने के कारण से ही मानों - इसका मध्यभाग ( कमर ) कुश हो गया" ||१३|| करुमों ( घुटनों के उपरितन भागों ) के मूल में संचार करनेवाला यह कामदेव रूपी हाथी का बच्चा fear से कामिनियों के इस स्मर- मन्दिर प्रदेश में निवास करता है ।
१. दीपको मात्वलंकारः । २. रूपकोपमालंकारः । ३. उत्प्रेक्षादीपकालंकारः । ४. समुच्चयरूपकोत्प्रेक्षालंकारः । ५. पलेवा क्षेपालंकारः । ६. माक्षेपालंकारः । ७. उत्प्रेक्षालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाब्ये इति भगवतः कुसुमारस्य धरिसचिन्तासन्सानस्तिमितान्तःकरणः स्लोकोन्मेषस्फुरितलोचनपर्यन्तो निवामिवामकरवम् ।
महादेवी तु मा स्वभावमुप्तमिवालक्ष्म, निभतमाक्षिप्य मत्कण्ठदेशानुपधानीकृत करम्, अवेक्ष्य मृवर्मुहुराकुलाफुलविलोचना मवीयाननम्, उत्सृज्य शनःशनैः शयनम्, उपविषायार्घमुहूर्तमानं पहिरन्तश्चाटनचाफ्लत्यम्, अनुवितक्यं निःसंचारतया शून्यतावन्ध्यमित्र राजभवनमध्यम्, अवकीर्यात्मनः शोलमिव पम्मिल्लकुसुमानि, परामृश्य सरितमिवाङ्गरागम, अवनाय हितोपदेशामिव कर्णाभरणम्, अवघोर्य मत्प्रणयमिष वयभूषणम्, अवधूय प्रियसखोमिष काचीवाम, निर्भत्स्य बान्बदमिव नपुरयुगलम्, अपहाय बहायकोघितपतिक्षेव सकल वलपारिक भण्डनम्, अन्यच्च राजमहिषोयोग्यमाकल्पम्, अतिरवरितमुपाल निजासन्नचरचामरधारिणोवेया विषाय विधिषर्षोद्गलिप्तमुपकरणमुत्सङ्गाधिकरणमसंधाय च कपाटपुटमाश प्रस्थितवती । ममाप्यकरवा कालक्षेपम् 'अहो, महादेव्याः कोऽप्यपर एव महासाहसव्यवसायो लक्ष्यते । यवस्थामपंरात्रवेश्यायां निश्यकाकिन्यसतीजनोचिताचरणेव लथुतरमुच्चालिता। तालमत्र चित्तश्रमकारिणा विचारचक्रेण । अबलोकयेयमहमेवास्यास्तावबाकूतपरिपाकम् ।' यह प्रस्तुत प्रदेश में निवास करता है, यह कैसे जाना जाता है ? क्योंकि इस प्रदेश पर वर्तमान रोमावली के मिष में रस कामदेव की हाथी के इन्ते को दिखाई देनेवाली सैंड, जिसका शरीर इस नाभिरूपी बावड़ो पर फैला हुआ-सा है, दिखाई दे रही है ||१४||
उक्त प्रकार से मैं, जिसका मन श्रीमान् कामदेव संबंधी चेष्टा की चिन्ताश्रेणी द्वारा निश्चल है और जिसके नेत्रों का प्रान्तभाग कुछ नेत्रों के उद्घाटग द्वारा स्फुरित ( तेज-व्याप्त) हो रहा है, उस महादेवो के पलङ्ग पर नींद-सी लेता हुआ।
हे मारिदत्त महाराज ! मेरी पट्टरानी अमृतमति महादेवी ने तो मुझे स्वभाव से शयन करता हुआ-सा देखकर मेरे द्वारा तकिया रूप की हुई अपनी बाहु को मेरे कण्ठदेश से धीरे से खींचकर शीघ्र प्रस्थान किया। प्रस्थान करने से पहले, अतिव्याकुल नेत्रोंवाली उसने वारम्बार मेरा मुख देखा। बाद में उसने धीरे-धीरे पलङ्गको छोड़कर बाह्यरूप से व मन से गमन करने की चञ्चलता आघेक्षण में करके राजमहल के मध्यभाग को, जिसमें किसी का प्रवेश न होनेके कारपा शून्यता-सहित-सा निश्चय करके अपने बंधे हुए कोशपाशों के पुष्प उसप्रकार फैके जिसप्रकार उसके द्वारा अपना उज्वल ब्रह्मचर्य फेंका जा रहा है। बाद में उसने सदाचारसरीखा अङ्गराग ( कपूर, कस्तूरी, आदि के रस का विलेपन) दूर किया । पश्चात् उसने कर्ण-कुण्डल-आदि आभूषण उसप्रकार तिरस्कृत किये जिसप्रकार गुम्वचन तिरस्कृत किये जा रहे हैं। बाद में उसने वक्षःस्थल के आभूषण ( मोतियों की माला व हार आदि ) वेसे दूर किए जैसे उसके द्वारा मेरा प्रेम दूर किया जा रहा है। इसके बाद उसने प्यारी सखो-सी कमर की करधोनी दूर की। बाद में बन्धु सरीखे नूपुरों के जोड़ों को उतारकर विधवा-सरीखी होकर इसने समस्त हस्त व पाद को आभूषण ( कटकादि ) दूर किए एवं दूसरा पट्टरानी के योग्य वेष को छोड़ा । इसके बाद शीघ्र ही अपने समीपवर्ती वर ढोरनेवाली का वेष धारण करके उसने उत्तरीयबस्त्र और उपकरण ( वक्षःस्थलपर धारण किया हुआ जम्फर वगैरह ) को सिकुड़ा हुआ करके किवाड़ों के जोड़े खुले छोड़कर शीघ्र प्रस्थान किया । हे मारिदत्त महाराज ! मैंने भी निम्नप्रकार मन में निश्चय करते हुए कालक्षेप न करके उत्सुकता से अपने समीपवर्ती अङ्गरक्षक का वेष धारण करके उस महादेवी के मार्ग
१. वर्तमानालंकारः।
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चतुर्थ आश्वास दत्ययसितचेतसा, सोत्तालं विहितनिजनिकटचतिक्षगवाहवषेण गवेषयता च तत्पदवीम्,
राजमन्दिरस्य प्रथमकक्ष्यायो दक्षिणस्या विश युधराजविनोवहस्तिमो विजयमकरध्वजनामधेयस्थापानयाषितरपतिनि कटङ्करकुटीरके करिकवलावशिष्टयवसप्रस्तर विस्तारण्यवगुण्ठितरज्नुपुञ्जपरिकल्पितशिरस्पबे निजायन्तम्, इभाभ्पनकपःपिहितलज्जास्पानम्, अतिकठिनकचकण्टकोडमरमुण्टमण्डलम्, अनवानुपदीनापटल समश्रवसम्, उत्तानकपिकराभौगनिभललाम्, अङ्गारलिक्षितकशेखासमानभूकम, उपचनशषिरातिशामिलोचनम्, अर्धवाजिनमलिनपक्ष्मपुटम्, अविषमभतनलदण्डद्वपसदृशनासोरम्, उदरविकर्तरितसंघाटतटतुलितोभयवशानवसनम्, अतिपुराणकुजकोटरप्रतिमपल्लम्, असमस्यापितवरातकविकटवन्तम्, अजमधूदुर्दर्शचिबुकमध्यम्, एरणकाण्डविम्बिधमनीगलनालम्, अवालधोरणदलपटिसकिटिकास्यमुटवक्षसम्, उहलम्बितमृतमोनसानुकारिक्षिपस्तिनिर्गमम्, मनिलभूतमात्राध्मातजठरम्, अवमालानुकारिकढीभागम्, अग्निलतिस्थाणुगणनोरकम्, अतनुर्मकर्षरप्रतिष्ठापठीवत्प्रदेशम्, उन्नसिरान्यिाटिलपिकिम्, अग्निर्गतोत्करण्टिकाकोकसम्, अनेकचिपाधिकाविलविरलयकाङ्गुलिफटकपावम्, अघसंघातमिव बुनिरोकरम्, अमङ्गलको ढूंढते हुए मैंने ऐसे 'अष्टवक' नामवाले महावतों में नीचमहावत से प्रार्थना करती हुई महादेवी देखी । मैंने मन में किस प्रकार का निश्चय किया ?
"अहो आत्मन् ! इस महादेवी का कोई (कहने के लिए अशक्य ) अपूर्व ही महान् अद्भुत करने में उद्यम दिखाई देता है, क्योंकि इसने इस प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई रात्रि में, जिसमें अर्धरात्रि की बैला थोड़ो-सो समाप्त हुई है, अकेलो व्यभिचारिणी स्त्रीजनों के योग्य चेष्टा-सरोखी होकर शीघ्न प्रस्थान किया, इसलिए इस विषय में हृदय में सन्देह उत्पन्न करनेवाले विचार-समूह से क्या लाभ है ? अतः मैं ही इस महादेवो के अभिप्राय का परिपाक देखता हूँ । अर्थात्-मैं दूसरों की कही हुई बात नहीं मानता।'
[ उक्तप्रकार का मन में निश्चय करनेवाले मैंने कैसे 'अष्टवक' नामके नीच महावत से प्रार्थना करती हुई महादेवी देखी?]
जो ऐसी बुक्षशाखा की कुत्सित कुटी में नींद ले रहा है, जो कि राजमहल के प्रथम प्रकोष्टक की दक्षिणदिशा में वर्तमान 'विजयमकरध्वज' नामवाले युवराज ( यशोगति कुमार ) संबंधी क्रीडागज के राज्य स्थान से ममीप थी एवं जिसमें हाथी के पास से बची हुई धारा का विछोना विछा हुआ था तथा जिसमें कुण्डलाकार की हुई रस्सियों को श्रेणी से बनी हुई तक्रिया वर्तमान थी, जिसने हाथियों के तेल-मालिश संबंधी ( मलिन ) वस्त्र द्वारा अपने अण्डकोश आच्छादित किये हैं। जिसका मुखमण्डल अत्यन्त कर्कश केशरणो कोटों से भयानक जिसके कान जोणं जता के चमड़े सरोचे हैं। जिसका ललाट फेलाए हए बन्दर के हाथ के विस्तार-सरीखा है । जिसको दोनों भ्रकुटियां कोयले से लिखी हुई मलिन एकरेखा-सी थीं। जिसके नेत्र नारियल के खप्पड़ के छिद्र-सरीखे भद्दे थे। जिसके नेत्र-पटल आवे जले हुए चमड़े जैसे मलिन है। जिसकी नासिका समरूप से धारण किये हुए कमलदण्डों के जोड़ों-सी थी। जिसके दोनों ओष्ठ, चूहों द्वारा नानाप्रकार से कुतरे हुए चनों सरीखे थे। जिसके गाल अत्यन्त जीर्णवृक्ष की फोटर-सरीखे थे। जिसके दांत पंक्ति-रहित कौड़ियों जैसे वाहिर निकले हुए थे 1 जिसकी ठोडी बकरे की दाढ़ी-सो देखने में भद्दी थी।
जिसका प्रकट हई नसोंबाला गलारूपी नाल ( कमल-इंठल ), एरण्ड वृक्ष के तना या पत्रसमूह सरीखा है। जिसका हृदय विशाल तृणविशेष-चित कुटी जेसा ऊँचा-नीचा है । जिसकी बाहुओं का विस्तार कपर लटके हुए व मरे हुए दो सांपों सरीखा है । जिसका उदर वायु से भरी हुई लुहार को धोंकनी-सा भरा हुआ है। जिसकी कमर ओखलो जैसी है। जिसके ऊरु अग्निसे आधे जले हुए ठों सरीखे हैं। जिसके
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ર
यशस्तिलकश्चम्पूकाव्यै
स्थानमिव नितरामुदेजनीयम् अखण्डमण कुलमिव मनुष्यरूपेण परिणतम्, अलिमिय वैरूप्यमवचित्य वेषसा निष्पादितम्, अतिस्थूलवासस्फूर्जर क्षिपरिसरम्,
घोषणपोरणघोषधरितदिग्विवरम् उबूप्त निद्राभरण्यावीर्णच बनकन्दरम् उपलसंपुटनिष्पीडितमिव सर्व तरपूर्वभागम् उभयतः परिकृष्टमिव दोघंतरापरागम्, छह करिणिजनस्य दृष्टिविवमापतेदिति मषीपुण्डमिव द्विपसमीपविकिम् अखिलगजोपजीयि फेलाजोवनमण्डव जूनामपवं लेसिकापसव शुरु कशामलीविटपकर्कशस्पर्शे स्मूले धरणाष्ठमूले विनिवेश्य मत्प्रेमप्रासाव परिलोपोगवन्ानलस्फुलिङ्गमिय करमुत्थापयन्ती, पुनयरिपतेन च तेम फिचिलीलमाता वितुदलिनेन वामहस्तेनाकृष्य कुरङ्गाङ्ककलङ्कसंकाशं केशपाशमङ्कुश प्रहारनिदयेन चेतरेण करेण हन्यमाना, 'अये प्रियतम, अलमलमनेनावेगेन । क्षमस्वनमेकमनुचितसंबन्धमपराधम् ।
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आकर्णय सावत् । एवास्मि तव दासी धृतो व ते मया पाधी । इयं च वासतेधी मम कुशलेन मा विभासीत्, यद्यहमात्मवशेय स्थितवती । किं तु ह्तविधिनाहं मन्दभाग्यवती परवती विहिता । स च तपनः क्षणमपि दुष्ट
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जानुओं ( घुटनों ) के प्रदेश महान कछुए के खर्पर-सरीखे हैं। जिसकी जाएं सूजी हुई नसों की गाठों से सर्वत्र व्याप्त थीं। जिसके पैरों की गाठों की दोनों हड्डियों ऊपर निकली हुईं व उत्कट हैं। जिसके फटे हुए पाँच अनेक प्रकार की खुशियों से व्यायों से शुक थे। जो पाप-समूह सरीखा महान कष्ट से देखने लायक था । जो श्मशान सरीखा अत्यन्न भयानक था । जो ऐसा मालूम पड़ता था— मानों - मनुष्य पर्याय को परिणमन हुआ मण्डूर ( लोह-मल ) समूह ही है । अथवा मानोंपूर्वजन्म संबंधी पापकर्म द्वारा समस्त कुरूपता को ग्रहण करके निर्माण किया गया है। जिसके उदर का पर्यन्त भूमि-प्रदेश महान वासों से अप्रतिहतव्यापारशाली था। जिसने उत्पटित नासिका के निद्राशब्दों से दिशाओं के छिद्रों को बहरे या जरित किये हैं। जिसको मुखरूपी गुफा उन्माद को प्राप्त हुए निद्रा भार से विदारित की गई है। जिसका पूर्व शरीर लघु होने से ऐसा मालूम पड़ता था— मानों - पाषाणपटल का जोड़ा पित हुआ है। जिसका नीचे का शरीर विस्तृत है, इससे ऐसा प्रतीत होता था - मानोंअपर शरीर के दोनों भागों में लाना गया है। जो कज्जल के तिलक-सा हाथियों के समीप नियुक्त हुआ ऐसा प्रतीत हो रहा था मानों- इन हाथियों के निकट महावन समूह का दृष्टिविष ( नजर-दोष ) पड़ जायगा, इसलिए मानों - जो कज्जल-तिलक ही है एवं जी समस्त महावत लोगों का जूंठा भोजन करनेवाला या 1
[ हे मारिदत्त महाराज मैंने उक्त 'अष्टवद्ध' के सामने कैसी ? या क्या करती हुई ? अमृतमलि
देवी देखी
जो ( अमृतमति ) उसके पैरों के अंगूठे के समीप, जो कि विशेष सूखी हुई शाल्मलि वृक्ष की शाखासरीखा कठोर स्पर्श बाला व महान् था, बेठकर उसके हाथ को, जो कि मेरे प्रेमरूपी महल को नष्ट करने के लिए उत्कट बच्चाग्नि के कण सरीखा था, ऊपर उठा रही थी । एवं जिसके चन्द्र लाञ्छन सरीखे श्याम केशपाश सोकर उठे हुए व कुछ गाली देते हुए अष्टषक द्वारा राहु- सरीखे मलिन बाएँ हाथ से खींचे गए वे और जो अङ्कुश के निष्ठुर प्रहार सरीखे निर्दय दाहिने हाथ से पीटी जा रही थी एवं जिसने उस अष्टब से निम्नप्रकार प्रार्थना की थी ।
‘अहो स्वामिन् ! इस प्रत्यक्ष प्रतीत हुए क्रोध से कोई लाभ नहीं | अद्वितीय, प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुए व प्रयुक्त मेरे अपराध को क्षमा कीजिए। अनुक्रम से सुनिए। यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई मैं आपकी दासी
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चतुर्थं आश्वास
वन सुखति । तत्किं नु खलु करोमि । नन्वहं हताशा । बलीयश्व ने निर्भागिन्याः पुराकृतं दुष्कृतम्, म
पोमि जीवितेश, मनोनुरागववमेन मुषागलल्लावण्यकेन फायेन सदा सन्निधातुम् । तत्समागम समये च यदि त्वामेव हृदये निधाय तेन सह नासे, सदास्यामेव निशि भगवती कात्यायनी मां पातु । पृथिस्पेनसा व भागिनो स्याम्प्रसीद । एष से पादपतनं प्रणयदण्डः संभावय । हृवमुपकरणम् । आलिङ्गध निर्वापयेमकान्यङ्गकानि । गतेनं पर्याप्तमन्तरायेण ।' इत्यनुनयन्तो व दुष्टा ।
तव पड़वानलपरिष्वङ्गमिव मे संसारसुखतरङ्गस्यापुनरागमनवेलशामिल विषयाभिलाषगजस्य लयोरभिसन्धिमात्मसमक्ष विधिमवेक्ष्य आशुशुक्षणिकक्षीकृतः क्षितिरुह् इव दह्यमानान्तदेह, च्युतमर्यादमुद्रः समुद्र हवानिवार्य कोपप्रसरः संहिकेयगृहीतशिशिरकर व विभिन्नाननकान्तिः, बरसन्नमरणः प्राणिगण इव कम्पोसरलतरकरणः छिद्यमान
हूँ । इस समय में आपके चरण कमलों की शपथ करती हूँ । यदि में स्वाधीन होती तो यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुई रात्रि [ आपके बिना 1 मेरी कुशलता पूर्वक नहीं व्यतीत होती । किन्तु निन्दित ब्रह्मा ने मुझ 'अभागिनी को पराधीन बनाया है । वह कामदेव पिशाच सरीखा आकर मुझे क्षणभर भी नहीं छोड़ता । अर्थात्-तुम्हारो अभिलाषा से ही में जीवित रह रही हूँ, इसलिए मैं अनुनय पूर्वक पूछती हूँ कि मैं क्या करू ? अर्थात् — मेरा क्या दोष है ? विधि का हो दोष है । मेरा मनोरथ निश्चय से नष्ट हो गया। मुझ पापिनी का पूर्वजन्म में उपार्जन किया हुआ पाप विशेष शक्तिशाली है, जिससे में तुम्हारे पास इस शरीर से, जिसकी कान्ति निरर्थक नष्ट हो रही है, सदा निकट रहने के लिए उसप्रकार समर्थ नहीं हूँ जिसप्रकार आपका अनुराग मेरे हृदय में सदा निकट रहता है । अर्थात् -- जिसप्रकार आप प्राणेश्वर में मेरा मानसिक अनुराग सदा रहता है उसप्रकार शरीर से समीप रहने के लिए समर्थ नहीं हूँ । यदि में यशोधर के साथ काम सेवन के अवसर पर आपको ही हृदय में धारण करके नहीं रहती हूँ तो इसी रात्रि में परमेश्वरी चण्डिका माता मुझे खाजाय और पृथिवी के पापों की भागिनी हो जाऊं । इसलिए प्रसन्न होइए। यह प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ आपके चरण कमलों में नमस्कार ही प्रेम प्रायश्चित्त है, उसे ग्रहण कीजिए। इस उपकरण ( कपूर, कस्तूरी, चन्दन-विलेपनादि ) को ग्रहण कीजिए। इन शारीरिक अङ्गों को आलिङ्गन देकर सुखी कीजिए। व्यतीत हुआ अन्तराय ( विघ्न बाधा ) ही पर्याप्त है। अर्थात् — इतने समय तक जो में न आ सकी वही काफी है ।'
इसके बाद मैंने उन दोनों ( अमृतमति देवी व अष्टव) का वध करनेके लिए स्थान में से आधी निकली हुई तलवार खींची।
[ हे मारिदत्त महाराज ! इसके पूर्व मैंने क्या किया ? ]
मैंने उन दोनों अष्टवक व अमृतमति का ऐसा कुकृत्य देखा, जो कि संसार समुद्र सम्बन्धी सुख की लहर सरीने मुझे बडवानल के सम्बन्ध-सा था । अर्थात् जैसे समुद्र तरङ्ग को बडवानल अग्नि का सम्बन्ध दुःखदायी होता है वैसे ही मुझे उन दोनों का कुकृत्य दुःखदायी हुआ। जो विषयों की लालसारूपों हाथी-सरीखे मुझे अपुनरागमनये लजद्वार सरीखा था । अर्थात् — जैसे हाथी जिस दरवाजे से पीड़ित होता है, उस दरवाजे से फिर दूसरी बार नहीं आता, उस दरवाजे को 'अपुनरागमन वेलज-द्वार' कहा जाता है वैसे ही उन दोनों का दुविलास भी, मेरे विषयों की अभिलाषारूपी हाथी को अपुनरागमन वेजल द्वार- सरीखा था एवं जो, मेरी आत्मा द्वारा ( स्वयं ) प्रत्यक्ष किया हुआ था । उससे में वैसा जाज्वल्यमान हृदयवाला हुआ जैसे अग्नि से व्याप्त हुमा वृक्ष जाज्वल्यमान मध्यभागवाला होता है । [ उस समय ] मेरो क्रोध-प्रवृत्ति वैसी निषेध करने के अयोग्य हुई जैसे मर्यादा -रहित समुद्र को क्रोध प्रवृत्ति निषेध करने के अयोग्य होती है। जैसे राहु से निगला
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै लषः पालव इव प्रवेपमानावरदलः, त्रिपुरवाहप्रवृत्ततिः पार्वतीपतिरिव भ्रकुरिमारितभालमप्या, साप्यमानावगाहः बाटाह इव लोहिततरवक्षःस्थलः, तिमिरचीधिकाभिरिवामर्षात्कलिकाभिरघोक्रियमाणलोचनस्समधाम कोशावर्धानुरोधमसिमहमाकृष्टवान् । अमवसच वैवात्तदंच में प्रवीमवोधासिव मनस्तमस्तनुच्छेवः । भाः किमिदमहो कर्माहमनुष्कातं पसितः । न खलु नार्य इव शुभमशुभ वा कर्म सहसंबारम्भन्ते मिनीतमतयः, नापि विपदि संपवि या कृपणप्रकृतय इवाशु विकियां पयन्ति महानुभावाः, न पाल्पमेधसामिव महोयसामुपपन्ना भवम्ति कामचारेण प्रवृत्तयः, न चतबगहनं कितु प्रातभयंब लज्जायनतमस्तकेन शिरः पिघाय स्थासम्पम् । गोचितपं च ममेष प्रणपिना पुरः पश्चात्तापधुःप्रतिष्ठानमिवमनुष्ठामम् । श्रोतम्या भविष्यन्ति मर्यव कर्णकटताकाराः पुरजमस्य धिक्काराः । सुष्ठ मलिनोकृतं स्यान्मयवात्मीयं मामीयं च फुलम् । सोदव्या मयव स्वदुष्यनिरुत्त रविषाश्चित्तशस्यस्पृशः कुलवद्वानामभिषाः । अहमेवोदाहरणं भविष्यामि दुखीनां कुदम्पविघटने । कलुषतामेप्रत्येषवास्थाने बिनियोजिता खङ्गलता।
स्त्रीवधावयमजनि तपस्योति मृतस्यापि मे न बुर्यशः प्रशान्तिमर्हति । शोकातके पतिष्यति । सापराषसहुआ चन्द्र कान्ति-हीन होता है वैसे ही में भी दूर की हुई मुख-कान्तिवाला हुआ। जैसे निकट मृत्यु प्राणि-समूह चञ्चल देह से व्याप्त होता है वैसे ही मैं भी विशेष चञ्चल शारीरिक अवमव-युक्त हुआ। में वैसा कम्पित होते हुए ओवदलवाला हुआ जेसा छेदे जानेवाला विलास-युक्त पल्लव कम्पित पल्लव-युक्त होता है। जैसे देत्य विशेष के भस्म करने में प्रवृत्त हुई बुद्धिवाला रुद्र भकुटियों के चढ़ाने से वक्र हुए ललाट के मध्यभागवाला होता है वैसे ही में भी भौंहों के चढ़ाने से वक्र किये गए मध्यभागवाला हआ। जैसे विशेष तपाए जानेवाले मध्यभागवाली कड़ाही विशेष रक्त होती है वैसे मैं भी विशेष रक्त वक्षः स्थलवाला हुआ और अन्धकार लहरीसरीखों क्रोध-तरङ्गों से मेरे नेत्र अन्धे किये जा रहे थे।
हे मारिदत्त महाराज ! कर्मयोग से तलवार खींचने के अवसर पर ही मेरे मन में स्थित हुआ क्रोधरूपी अन्धकार-शरीर वेसा नष्ट हो गया जैसे दीपकके जलाने से अन्धकार नष्ट होता है। उस समय मैंने निम्न प्रकार चिन्तवन किया
'अहो आत्मन् ! दुःख है कि मैं ( यशोधर ) इस अष्टव व अमृतमति देवी के वध कर्म करने में श्यों प्रवृत्त हो रहा हूँ? क्योंकि विद्वान् पुरुष स्त्रियों-जैसे शुभ व अशुभ कर्म सहसा ( विना बिचारे ) आरम्भ नहीं करते। जैसे मुखं लोग विपत्ति व संपत्ति के अवसर पर विकृत हो जाते हैं, अर्थात् विपत्ति में व्यालित य सम्पत्ति में हर्षित हो जाते हैं वैसे महापुरुष विपत्ति व सम्पत्ति के समय वित नहीं होते । जैसे मुर्ख पुरुषों की चेष्टाएँ स्वेच्छाचार पूर्वक होती हैं वैसी महापुरुषों की नहीं होती। यद्यपि मेरे लिए इन दोनों का वध करना कठिन नहीं है किन्तु ऐसा करने से मुझे प्रात: काल में ही लज्जा से नम्रीभूत मस्तकबाला होकर मस्तक ढककर स्थित रहना पड़ेगा और स्नेही पुरुषों के आगे मुझे ही पश्चातापरुपी दुष्ट मूलवाला इस अमृतमति देवी का कुकृत्य प्रकाशित करके शोक करना होगा एवं कानों में कटुकता प्राप्त करनेवाले नागरिक लोगों के धिक्कार वचन मुझ से हो श्रवण करने योग्य होंगे। मुझ से ही मेरा व मामा का वंश विशेष मलिन किया हुआ होगा। मुझ से ही अपने कुल के ज्येष्ठ पुरुषों के वचन, जो कि मन को शल्य सरीखे छूनेवाले हैं और जिनके प्रकार अपनी स्त्री के वन लक्षणचालं पाप में उत्तरहीन है, सह्न करने योग्य होंगे एवं मैं ही कुटुम्बी जन के नष्ट करने के विषय में दुष्ट बुद्धिवालों का उदाहरण होऊँगा और यह प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हुई तलवार अयोग्य स्थान में अधिकृत हुई कलुषता प्राप्त करेगी। अर्थात्-वर देनेवाली च विजय लक्ष्मी प्राप्त करानेवाली नहीं होगी।
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चतुर्थ भावास
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विश्रीमृतिदुःखितो युवराजः परं च बह्नपराधेहि देहिनि क्षणमात्रध्याशरणं मरणमनुग्रह इय । यदि मरनवेक्षणभुपस्थितस्य, असंभावणमासनस्थ, उपेक्षणं विज्ञपयतः, अवधारणमसमैः परिभूयमानस्य, आशाभङ्गकरणमर्थयतः प्रीतिवितरणं तदनभिमतानाम् अस्मरणं प्रियगोष्ठीषु, अनवेक्षणं तत्परिजनस्य, अपवार्य व्याहरणं स्वप्रकाशे ष्वप्यालापेषु, अनक्षसरानुसरणमसङ्गभावेष्वपि प्रस्तावेषु क्रियेत, स्पास्प्रत्यानीतश्विरमस्थाने कृतसमयः प्रणयः । साचितं श्राभिमतम् । इदमेव निश्चित्याविति वृतान्तस्यैव तस्यनतलमुपगम्य पुरावस्थितवतः प्रलयकालक लिएप्रसरस्य मकराकरस्येव निर्मर्यादमन्तविकल्पहरूलोलदोलायमान मानसस्थ, सा निवृत्यात्मनो दुविलसितमतित्वरितगतिजनितं वातमन्तरंग जयन्ती
'यह यशोधर स्त्री का घात करने के कारण सन्यासी होगया' ऐसी मेरी अपकीर्ति मर जानेपर भी शान्त नहीं होगी एवं युवराज ( श्री यशोमति कुमार ) पाप करनेवाली माता के वध से दुःखित होकर पश्चाताप रूपी रोग में प्रविष्ट होगा ।
'अतः मैंने निम्नप्रकार!निश्चय किया - दूसरी बात यह है कि विशेष पाप करनेवाले प्राणी से किया हुआ मरण उसको थोड़े समय के लिए दुःख का स्थान है, अतः उसका उपकार सरीखा है। इससे यदि आये हुए पुरुष की ओर दृष्टिपात न किया जाय तो अयोग्य स्थान में किये हुए अवसरवाला प्रणय ( स्नेह ) चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जाता है । यदि सन्मुख आये हुए पुरुष के साथ भाषण न किया जाय तो अयोग्य स्थान में किये हुए अवसरबाला प्रणय ( स्नेह ) चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जाता है। अर्थात् जैसे सन्मुख आए हुए पुरुष के साथ भाषण न करने से स्नेह नष्ट हो जाता वैसे ही सन्मुख आईं हुई अमृतमति देवी के साथ for न किया जाय तो मेरा उसके साथ उक्त प्रकार का स्नेह चिरकाल तक के लिए नष्ट हो जायगा । यदि योग्य शिक्षा देनेवाले का अनादर किया जाय तो उक्त प्रकार का प्रणय नष्ट हो जाता है। यदि विशेष बलिष्ठ शत्रुओं से तिरस्कार किये जानेवाले पुरुष का निरादर किया जाय तो उक्त प्रकार का स्नेह नष्ट हो जाता है । यदि याचना करनेवाले पुरुष की आशा का भङ्ग किया जावे तो स्नेह नष्ट हो जाता है। यदि द्वेष करनेवाले पुरुषों से स्नेह प्रकट किया जाये तो उक्त प्रकार का स्नेह नष्ट हो जाता है । जैसे प्रेमी पुरुषों की सभाओं में प्रेमी का स्मरण न करना प्रणयभङ्ग करनेवाला होता है वैसे ही प्रिय गोष्ठी में अमृतमति देवी का स्मरण न करना भी उक्त प्रकार प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा । एवं जेसे प्रेमी पुरुष के परिवार की ओर दृष्टिपात न करना प्रणव भङ्ग कारक होता है वैसे ही अमृतमत्ति देवी के परिवार ( सखीजन) की ओर दृष्टिपात न करना भी मेरे उक्त प्रकार के प्रणय की भङ्ग करनेवाला होगा । जैसे स्वाधीन भाषणों में स्नेही की दूर होने की कहना प्रणय भङ्गकारी होता है वैसे ही स्वाधीन वार्तालाप के अवसर पर अमृतमति देवी को दूर होने की कहना भी उक्त प्रकार के प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा। जैसे वैराग्यजनक अवसरों पर भी अनादर करना प्रणय भङ्गकारी होता है वैसे ही वैराग्य व शृङ्गार जनक सभी अवसरों पर अमृतमति देवी का अनादर मेरे प्रणय को भङ्ग करनेवाला होगा | मैंने कर्तव्य निश्चित कर लिया 'मैं उस अमृतमति देबी के साथ वार्तालाप - आदि नहीं करूँगा ।'
इसके बाद वह अमृतमति अपना कुकृत्य पूर्ण करके अपनी शीघ्र गति से उत्पन्न हुई बाबू पर मध्य में ही विजय श्री प्राप्त करती हुई और ऊर्ध्व श्वाँस द्वारा कञ्चुक को ऊँचा नीचा करनेवाले हृदय कम्पन को रोकती हुई उद्दण्डता पूर्वक मेरे समीप आई और उसने मेरे, जो कि दुर्विलास न जाननेवाले सरीखा होकर अमृतमति देवी की शय्या पर पूर्व की तरह सो रहा था और जिसका चित्त वैसा बेमर्यादा वाली मानसिक विकल्परूपी महातरङ्गों द्वारा कम्पित हो रहा था जैसे प्रलयकाल द्वारा विस्तृत होनेवाला समुद्र मर्याद महातरङ्गों से कम्पित होता है, बहुरूपी पिजरे का वैसा आश्रय करके अत्यन्त गाढ़ निद्रा पूर्वक शयन किया
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निभाना घोत्कम्पोत्तालितवारवाणं हषयतरङ्गिमाणमविनीतरुपसृरपाश्रिरय च मम भुजपञ्जरं कुजनिकुञ्जमिव ज्याली, पजन्योत्सनामिय सौदामिनी, कुस्कीलकन्दरमिव भुजली, जगवन्तरालमिष कालदूती, गलषिममिव मकरी, बनगनमिय निशाचरी, निजाङ्गस्पर्शबीमत्सयेब मदीयां तनुमशेषतः कण्टकयन्सी, बहुकालमात्मनुष्कर्मणः परिणतारम्भरवादविवि तसाहलेवाङ्गनिक्षेपमानणवातिसान्द्र ग्यवाप्सोत् ।
न खलु वियतेशिताकारस्य पुंसः काचिपि भवति कार्यसिद्धिरिति जानतोऽपि न मे मनागपि प्रसीदति ममः । पिशाचच्छलिसस्येव शून्यहृदयला, महाशोकतप्तस्यैव वीर्घतरमुच्य भिातम्, अग्निपतितस्येव परिवर्तनबहलता, रितस्पेवाताव मुखशोषः, कोसीधोपहतस्पेव माहविजृम्भणम्, उन्मत्तस्येव यत्किचित्मालपनम्, निषादानुगताडो रहीवन
क्वचिदेव पवनारमाति बुवा, मनोरंप पनविनमिन भावमन्धकारयत्याशाम्, आत्मनः क्षणमात्रमुयोतमानमिव प्रतिमासते, भवति च पुनर्बाष्पजलप्रवाहविनम् । अहो महाश्चर्यम् । इयं हि पुरा स्वरविहारेष्वपि रममाणा भग्नघरणेष नकाकिनी परमेकमपि बवाति, जलक्रीसासु मालमृणालस्पर्शनापि संविग्यजीवितेव मूति, कुसुमावषयेष्वगोफवलाल्पिजैसे दस हथिनी लताओं से आच्छादित मध्यवाले स्थान का आश्रय करके शयन करती है। जैसे विजली मेध प्रदेश का आश्रय करके निद्रा लेती है। जिस तरह सर्पिणी पर्वत-गुफा का आश्रय करके शयन करत्तो है। जैसे यमराज की दुती तीन लोक के मध्य का आश्रय करके शयन करती है। जैसे मकरी समुद्र के मध्य का आश्रय
के शयन करती है और जैसे राक्षसी बन के मध्य का आश्रय करके शयन करती है। क्या करती हुई उसने शयन किया ? मेरे शरीर को रोमाञ्चित करती हुई जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानों-मेरे शरीर के छूने में ग्लानि होने के कारण से ही उसने मेरे शरीर को पूर्णरूप से रोमाञ्चित किया था। अज्ञात दुराचारवाली वह ऐसी मालूम पड़ती थी-मानों-दीर्घकाल तक किये हुए अपने पाप सम्बन्धी दुराचार की जीर्ण करने के कारण ही वह विना जाने हुए दुर्विलास-सरीखी थी ।
भारिदत्त महाराज ! उक्त घटना के घटित होने से 'निश्चय से मानसिक विचार व उसके अनुसार शारीरिक चेष्टा ( आकृति ) को प्रकाशित करनेवाले पुरुष की कोई भी कार्य सिद्धि नहीं होती। अर्थात्मानसिक विचार व उसके अनुकूल शारीरिक चेष्टा को गुप्त रखनेवाले पुरुष को हो कार्य में सफलता प्राप्त होती है उक्त नीति को जानते हुए भी मेरा मन जरा भी प्रसन्न नहीं रहता । मेरे हृदय की शून्यता ( जडता ) बैंसी होती थी जैसी ग्रह द्वारा गृहीत पुरुष की हृदय-शून्यता होती है । उस समय मेरा श्वांस वैसा विस्तृत हो रहा था जैसा महान् शोक से पीडित हुए पुरुष का श्वाँस चिस्तृत होता है। मेरे शरीर के वारे व दाहिने पाव भागों में परिवर्तन को अधिकता वैसी होती थी जैसे अग्नि में पड़ा हुआ पुरुष विशेष परिवर्तन करता है। ज्वर से पीड़ित पुरुष-सा मेरा मुख-शोष होता था। आलस्य से नष्ट होनेवाले पुरुष-सरोखो मुझे बार-बार जमाई आती थी। मेरे यद्वा तहा अनर्थक वचन वैसे हो रहे थे जैसे मद्यपान करनेवाले के वचन यद्वा तद्धा अनर्थक होते हैं। मेरी बुद्धि कहीं पर वैसी स्थान प्राप्त नहीं करती थी जैसे जिसके शरीर के पीछे घ्याध लगा अ हिराणी कहीं पर स्थान प्राप्त नहीं करती। मेरा मन भो वैसा आशा (धन व भोगादि की वाला।
को अन्धकार युक्त (शून्य) करता था जैसे वर्श-दिन अतिशयरूप से आशा ( पूर्व-आदि दिशा) को अन्धकारित ( अन्धकार से व्याप्त ) करता है और मेरा मन अपना क्षणमात्र उद्योत करता हुआ-सोखा प्रतिभासित हो रहा था तथा अश्रुजल से पूर्ण हो रहा था।
प्रसङ्गानुवाद-हे राजन् ! मैं निम्न प्रकार भली-भांति विचार करके 'अखिल-जनावसर' नाम के सभा मण्डप में प्राप्त हुआ। 'अहो महान् आश्चर्य है, कि यह अमृतमति महादेवी निश्चय से पूर्व में बन क्रीडा
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चतुर्थ आश्वास: तास्वपि शय्यासु शरिलवेशापतितेव न सुखायते, मणिमुट्टिमष्वपि संघरन्ती कण्टफोत्कटमेव स्वलसि, मलिकलहेष्वपि विमुभयमाना कृतपिशाचोपनयेव विलपति, कथं चेदानी तु सझुटोटिता घोटिकेव भशायमानगमना तथाविधमहारसंपासेऽम्यरमेव माथिद्धृतेब तिष्ठति, तृणस्तरेऽपि निवसन्ती न मनागपि दुःखायते, परुषमार्गप्रचारेष्वपि कमान्तरेयु प्रमिष्टमाना रयारूठेव प्रयाति, वीरचर्यातिवतिन्यामप्यत्या थेलायामवपणा न बित्ति । कर्ष तु नाम महिलानो स्वप्नेऽपि सरलभावः संभाव्यते, यासामन्तरमनवाप्तावगाह इष मनः कुटिलतासरित्प्रवाहः कुन्तलच्छस्टेन ललाटतटेषु, भूधपना प्रवगान्तरालेषु, विलोकनबाजेन लोचनकुहरेषु, आलापमिषेण वइनफारेषु, गतिविभ्रमेण चरणवत्मंसु, बहिर्शनपघमगात् ।
अतएव प्रालि चाहिनीनामिव सीमन्तिनौनां प्रायेण भवन्ति मलीममाः प्रवृत्तयः । तथाहि नावेशितो ममात्मनश्च कुलस्य परिवावः, ने गांगतो मनायतामाराय:, नासोनिमावि प्रणयकलहेष्वपि मया विहितपरमार्थापसेन कृत्तान्मनुनयन सारनानि, न स्मृतमननुभूतपूर्वमिवाजन्मसंवधितं सहावसथसस्यम्, न चिन्तिता साल आदि ऐच्छिक विहारों में आमोद-प्रमोद प्राप्त करती हुई अकेली भग्न पैरवाली-सरीखी होकर एक पैर रखने योग्य स्थान प्राप्त नहीं करती थी।
यह देवी जल क्रीड़ादि के अवसरों पर कोमल कमलिनी-कन्द के छु जाने से भी मरी हुई-सरीखी मूच्छित हो जाती थी। यह देवी पुष्पों के तोड़ने के अवसरों पर अशोक वृक्ष के पत्तों से रची हुई शय्याओं पर भो ककरीले प्रदेश पर गिरी हुई-सी होकर मुख नहीं मानती थी। यह देवी रत्नखचित भूमियों पर संचार करती हुई कण्टकों से ताड़ित पैरखाली-सरीखी स्खलन करती हुई चलती थी। यह कोड़ा कलहों में भी तिरस्कृत होती हुई ग्रह द्वारा ग्रहण की हुई सरीखी विलाप करती थी। वह इस समय घुड़साल से छूटे हुए बन्धनवाली घोड़ी-सरीखी अत्यन्त तेजी से गमन करनेवाली कोरी हो गई ? वैसे प्रहारों ( दक्षिण हाथ द्वारा तासनों ) के संपात होनेपर भी जो दूसरी कोई धारण की हुई-सरीस्त्री स्थित हो रही है। जो घास के बिछौने पर निवास करती हुई जरा-सी भी दुःखी नहीं होती। जो कठिन मार्गपर गमन करने पर भी बड़े-बड़े प्रकोष्ठों ( कोठों) में प्रवेश करती हुई रथ पर चढ़ी हुई-सी प्रयाण करती है। वीर पुरुषों द्वारा प्राप्त होने के अयोग्य इस गाढ़ रात्रि में अकोली होकर क्यों भयभीत नहीं होती? स्त्रियों में स्वप्न में भी सरलता हो सकती है, यह कैसे विचार किया जा सकता है ? जिन स्त्रियों की मानसिक कुटिलतारूपी नदी का प्रवाह मन में न समाता हुभा ही मानों-निम्न प्रकार वाह्य प्रदेशों में दृष्टिं गोचर हो रहा है। जैसे-जो कुटिलतारूपी नदीप्रवाह केशी के बहाने से उनके मस्तक तटों पर दृष्टिगोचर हुआ। जो भृकुटियों के मिप से कानों के मध्य प्रदेशों पर बाहर दृष्टि पथ को प्राप्त हुआ । जो देखने के बहाने से नेत्र-छिद्रों में बाह्य दुष्टि पथ को प्रा हुआ। जो वचनों के बहाने से मुखरूप गुफा में चाहर दृष्टि गोचर हुआ एवं जो गमन के मिष में पादमागों में बाहर दृष्टि मार्ग को प्राप्त हुआ।
अतः स्त्रियों की प्रवृत्तियाँ प्रायः करके वैसी मलिन ( पाप-पुक्त ) होती हैं जेसे वर्षा ऋतु में नदियों की प्रवृत्तियाँ प्रायः करके मलिन होती है। उक्त बात का निरूपण-इस कुलटा अमृतमति महादेवो ने मेरे तथा अपने वंश को निन्दा नहों देखी। इसने अपने में रहनेवाले मेरे असाधारण प्रणय ( स्नेह ) की ओर थोड़ा सा भी विचार नहीं किया। इसने प्रणय-कोपों के अवसर पर भी यथार्थ अपराध करनेवाले मुझ से किये गए अनुनय-प्रसादनों (मान को दूर करनेवाली प्रसन्नताओं की ओर दृष्टिपात नहीं किया। इसने जन्म पर्यन्त वृद्धिंगत हुई सहवास मैत्री का इसलिए चिन्तबन नहीं किया--मानों-जिसे हमने पहिले कभी अनुभव ही नहीं किया है। इसने सर्वलोक से पूज्य अपने महादेवो पद का विचार नहीं किया । मुझ से होनेवाली पराभव
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मनमान्मा स्वस्य पदवी, कथमिव न स्मिता मतः परिभवाशा, कमिव ने सजितं सपत्नौजनात्य, कमिव न सोभत्सितमयशःपटहस्य, कथमिव च नावधारितमनन्यनमसुलभबिलासानां संपावनम् । यद्यपि 'स्त्रियः चलेषु रम्यन्ते बासहस्सिपकादिषु' इति 'अपात्रे रमते चारों' इति बपनमस्ति, तथापि क्योभोपश्चायषिता कलाम विश्रुतस्वं वा पुरुवाणा संगमयन्त्यसंस्तुता अपि वनिताः । न चास्यतेष्वन्धतमोऽपि गुणः । तरिक नु खल्वस्याः कश्वरलोचनाम्जेस्मिन् कुम्जे प्रीतिकारणम् । आः, अशासिषमनासिषम् । एष हि किल निसर्गकालकण्ठतषा शुष्कानपि तस्य पहलवयतीत्यनेकशः कषित कुमारेण । गृणन्ति घ कलासु गीतस्यैव परं महिमानमुपाध्यायाः। सुप्रयुक्तं हि पोतं स्वभावद्भागममि मरं करोति पुवतीना नयनमनोविश्रामस्थानम् । भवति फुरूपोऽपि गायमः कामयावपि कामिनौनां प्रियवनः । पानेन हि दुर्दशा अपि घोषितः पार्शनाफूष्टा इव सुसरा संगायन्ते । कुशलः कृतप्रयोग हि गेयभपनीय मानप्रहमपरमेव कंसिवनन्यजनसाध्यमा. धिमुत्पावति मनस्थिनीनाम् । अत एवोशन्ति नोतिवेदिनः-तरपयोऽपि पुंयोगः स्त्रियो दूषयति, हि पुनर्म मानुषः । चंतासामकालताशितामिष प्रवृत्तावपेक्षास्ति । प्रत्युत केतक्य इवाशुचिष्वेव वस्तुषु प्रायेण बघ्नन्ति प्रोतिम् ।
भीसि इसके मन में क्यों स्थित नहीं हुई ? यह सौत-समूह से क्यों लज्जित नहीं हुई ? इसने अपकीर्तिरूप नगाड़े की ध्वनि से कैसे घृणा प्राप्त नहीं की? इसने ऐसे भोगों को उत्पत्ति का, जो कि दूसरे लोगों के लिए दुर्लभ हैं, स्मरण क्यों नहीं किया ? यद्यपि स्त्रियाँ दुष्ट सेवक व महावत-आदि में अनुरक्त होती हैं 'स्त्री अयोग्य पुरुष से रमण करती है ऐसी उक्ति है । तथापि युवावस्था, कपूर, कस्तुरी च चन्दनादि भोग, सुन्दर
आभरण-आदि तथा संगीत आदि कलाओं में प्रसिजि.पुरुषों के ये गण, उन्हें अपरिचित स्त्रियों से भी संगम करा देते हैं। परन्तु इस कुब्जक में तो उक्त गुणों में से एक भी गुण नहीं है तव में फिर सोचता हूँ कि इस अमृतमति देवी का इस कुत्सित नेत्र कमलबाले कुब्जक में प्रेम करने का क्या कारण है ? [ उक्त बात को सोचकर ] सन्ताप पूर्वक यशोधर महाराज कहते हैं-मैंने प्रेमका कारण जान लिया, जान लिया।
यशोमति कुमार ने मुझ से अनेक वार कहा है कि यह ( अष्टवक) स्वभाव से ही मधुर स्वरपाली होने के कारण सूखे वृक्षों को भी पल्लवित-उल्लसित कर देता है । अर्थात्-नोरस पुरुषों को भी अनुरञ्जित कर देता है। विद्वान् अध्यापक लोग वहतर कलाओं में गान कला का उत्कृष्ट माहात्म्य कथन करते हैं। अच्छे प्रयोग में लाया हुआ गीत निश्चय से स्वभाव से कूरूप मनुष्य को भी युवती स्त्रियों के नेत्र व हृदय को सुख उत्पन्न करनेवाला स्थान कर देता है।
गायक कुरूप होने पर भी कामिनियों के लिए कामदेव से बढ़कर प्रिय दर्शन-शाली होता है। गानकला के प्रभाव से वे स्त्रियाँ, जिनका दर्शन भी दुर्लभ है, जाल से खोंची हुई-सरीखी विशेषरूप से संगत हो जाती हैं । संगीतशास्त्र में प्रवीण गायकों से अच्छी तरह गाया हुमा गोत मानवती स्त्रियों के अभिमान रूपी पिशाच को दूर करके दूसरी हो कोई अपूर्व मानसी पीड़ा, जो दूसरे के द्वारा न होनेवाली अर्थात्-गीत के बिना ऐसी मानसी पीड़ा कोई उत्पन्न नहीं कर सकता, उतान्न कर देता है। अतः नीतिशास्त्र वेत्ता कहते हैं 'पशुसंबंधी पुस्पसंयोग स्त्रियों को दूषित कर देता है फिर मनुष्यसंबंधी पुरुषसंयोग क्या दूषित नहीं करेगा? ये स्त्रियाँ प्रवृत्ति (संभोग ) में वैसे सुन्दरवस्त्र व मनोज्ञ वस्त्राभरपादि की अपेक्षा नहीं करती जैसे असमय में चमकनेवाली विजली प्रवृत्ति (चमकने ) में कोई अपेक्षा नहीं करती। विशेषरूप से स्त्रियाँ वैसी अशुचि ( मलिन ) वस्तुओं ( पुस्खों ) में ही प्रायः करके प्रेम करतो है जैसे केतकी पुष्प अशुचि वस्तुओं (विष्ठा ) में हो प्रीति रखता है। विद्वानों ने कहा है-'ये स्त्रियाँ पुरुष के सुन्दर रूप को प्रतीक्षा नहीं करतीं, इन्हें पुरुष को जबानी में भी संस्था ( मन का टिकना ) नहीं है। स्त्रिया 'यह पुरुष है' ऐसा मानकर उसे भोग लेती हैं चाहे वह रूपवान हो अथवा कुरूप हो ॥ १॥
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चतुर्थं आश्वास
जवाहरन्ति -
'नेता रूपं प्रतीक्षन्ते नासां वयसि संस्थितिः । विरूपं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुञ्जते ॥ १॥ इति
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आः पाण्डरपुष्टत्ववालम्बनंकजीविते हि मयि दुष्कर्ममाचरन्ती कथं द्विघा न विदीर्णासि । अहो पर्याप्तं विषयसुतर्षेण तविदानी किमिमाः परित्यक्य परमाज्ञाफलोपचर्थ मैश्वर्थमनुभवामि । तन्न । बिना हि विलासिनोजनेमारष्यमिवेदं राज्यम्, मृतकमण्डन मित्राभरणम्, पोपवेह व विलेपनम् सुप्तसंवाहनमिव शरीरसंस्कार:, प्रकरणमिव धामरातपत्त्राडम्बरः, कालहरणोपाय हव कलानामभ्यासः, तुण्डकण्डूविनयमभित्र काव्याध्ययनम् प्रहाभिनिवेश इव मन्त्रविन्सनम्, कारागारप्रवेशनमिव सभाप्रदानम्, वृथाजीवितपुत्कार इव गेयसमाचारः, संसारसुखोत्सारण पटना इव दुन्दुभीनां नाव:, शैलकन्यरावकाशा इव भवनविनिवेशा:, पितृवनानीवोद्यानानि जठरभृतिवेतनमिव प्रजापालनम् नगरनापितकर्मेव प्रकृतीनामनुनयकरणम्, शुष्कनवीतरणमिव वाञ्गुण्यप्रयोगः, अन्धकारनर्तनमिव धनसंग्रह प्रयासः, पुराकृत
पीड़ापूर्वक यशोधर महाराज सोचते हैं
हे कुलटे अथवा निर्भागिनी ! मेरे विषय में, जिसके तुम्ही आधार व अद्वितीय जीवन हो, निस्सन्देह ऐसा पापाचरण करती हुई तू कैसे दो टुकड़ों में प्राप्त नहीं हुई ? अहो आश्चर्य है। विषयसुखों में तृष्णा करना निरर्थक है । अतः अब क्या स्त्रियों को छोड़कर उस उत्कृष्ट ऐश्वर्य राज्य लक्ष्मी ) की भागें, जो कि आज्ञारूपी लाभ से पूज्य है । वह भी उचित नहीं है; क्योंकि स्त्रियों को छोड़कर यदि ऐश्वर्य भोगा जाय तो स्त्रीजन के बिना राज्य वन सरीखा निस्सार है। कामिनोजन के बिना सुवर्णमय आभूषणों का धारण मुर्देको अलंकृत करनेसरीखा निष्फल है और कपूर, कस्तुरी व चन्दनादि का लेप करना कीचड़ के विलेपन-सा है | स्त्रीजन के बिना शरीर-मण्डन करना सोते हुए के पेर- दावने जैसा निष्फल है । स्त्रीजन के बिना चमर ढोरने का व छत्र धारण का विस्तार प्रकरण-सा है। अर्थात् — क्षेत्रपाल आदि के वर्धापन ( वर्षगांठ का उत्सव ) सरीखा है । लेखन व पठनादि कलाओं का अभ्यास समय व्यतीत करने का उपाय सा है । कामिनीजन के विना काव्यशास्त्र का अध्ययन ( पठन ) मुख की खुजली दूर करनेसरीखा है और पञ्चाङ्ग मन्त्र का विचार भूतावेश-सा है । रमणीजन के बिना सभा का मण्डन करना जेलखाने में प्रविष्ट होने जैसा है और गानकला की समीचीन प्रवृत्ति वृथाजीवन का पूत्कार-सा है । कामिनीजन के बिना दुन्दुभियों को ध्वनि संसार-सुख को दूर करनेवाली पटह-ध्वनि सो है और नन्द्यावर्त व स्वस्तिकादि महलों में निवास करना पर्वत- गुफाओं में निवास करने सरीखा है तथा प्रमद वन श्मशान-तुल्य है । स्त्रीजन के बिना प्रजा की रक्षा उदरपूर्ति के लिए वेतन - सरीखा है और प्रकृतियों ( अमात्य आदि ) का विनय करना नगर के नाई-कर्म-सा है। अर्थात् जिस प्रकार नाई सभी के कर्म करता है। स्त्रीजन के विना सन्धि व विग्रह-यदि पाजण्य नीति का प्रयोग सूखी नदी में तैरने के समान कष्टप्रद है । कामिनी जन के बिना धन संचय करने का कष्ट अन्धकार में नाचने सरीखा निरर्थक है और शरीर को पुष्ट करना पूर्वजन्म में किये हुए गाय कर्म के भोग निमित्त सरीखा
| अहो आश्चर्य है कि ब्रह्मा को एक पदार्थ में विरुद्ध गुणों को रचना सम्बन्धी उत्कृष्ट निपुणता क्या है ? अर्थात् - यदि ब्रह्मा से ऐसी उपयोगी स्त्री रची गई तो उसे गुणहीन क्यों बनाया? क्योंकि वही पदार्थ त्रिप फल सरीखा पूर्वारम्भ में सुस्वादु और परिणाम में विरस होता है, यही ब्रह्मा की एक पदार्थ में बिरुद्ध गुणों की रचना है । समुद्र की तरङ्गों सरीखे प्राणियों का जो उत्पत्ति स्थान है वही विनाश का स्थान है । अर्थात् — जैसे समुद्र तरङ्गों का उत्पत्ति स्थान व विनाश स्थान होता है वैसे स्त्री-आदि इन्द्रियों के भी भोग तत्काल में सुखोत्पत्ति के स्थान और परिणाम में नोरस होने के कारण दुःखोत्पत्ति के स्थान हैं । इन्द्रजाल सरीखे जिस
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कर्मानुभवनामिव च देहपोषणम् । अहो किमिवं विधातुरेकत्र विश्वगुणनिर्माणे परमं नैपुणम् । यत्किपाकफलमियापातमधुरः परिणामविरसश्च स एव भवति भाषः, ससुबकल्लोलानामिव यवेव जन्तुमासुत्पत्तिस्थानं तदेव भवति दिलपस्य घ, माहेन्द्रविज्ञान इव पये ननो बाढमुत्कण्ठते तब भवति मुहः शिपिलावरं च पयिकसंगतमिव पदेबानम्वजननं तदेव भवति हेतुमहतः परिसापाग ग. द्विारा शनि का 4 ५५ णामारम्भस्तत एव भयत्युपरमात्र । संप्रति हि मे विघटिततमःपटलावकाशमिव सप्रकाशं मानसम्, उल्लिखिततिमिरवोवमिष पयायवर्शनमनीषं चक्षुः । फौतसकुतोऽयमन्यया ममाय सुविवेकनिश्चयपरश्चित्तप्रसरः । तथाहि-युवफ्नमृगाणा बन्यायालाय हब वनितासु कुन्तलकलापः, पुनर्भवमहोम्हारोहणोपाय इव धूलतोल्लासः, संसार-सागरपरिभ्रमाय मौयुग्ममिव लोचनयुगलम्, दुःखायीविनिपातकरमिय बाचि माधुर्यम्, मृत्युगलप्रलोमनकवल इवायमघरपल्लवः, स्पर्शविषकन्दोभेन इव पयोधरविनिवेशः, यमपाशवेष्टनमिव भुजलतालिङ्गनम्, उत्पत्तिजरामरणवत्मय बलोना प्रपम्, आलम्भनकुण्डमिव नाभिमण्डलम्, अखिलगुणविलोपननप्लरेशेष रोमराजीब्रिनिगमः, कालव्यालनिवासभूमिरिव मेखलास्थानम्, व्यसनागमनतोरणामियोपनिर्माणम्,'
गुणग्रामविलोपेषु साक्षाछुनौतयः स्त्रियः । स्वर्गापवर्गमार्गस्य निसर्गावर्गला इव ॥१५॥ स्थान में यह मन दृढता से उत्कण्ठित होता है उसी स्थान ( स्त्री-आदि विषय ) में बार-बार उदासीन हो जाता है। पथिकों के संगम-सरीखा जो स्थान अथवा वस्तु आनन्द जनक होती है वही महान परिताप फा कारण होती है। हल्दी के राग सरीखे हृदयवाले अस्थिर चित्त-युक्त राजा सरोजे जिससे समस्त कार्यों की उत्पत्ति होती है उसी से विनाश भी होता है । इस समय मेरा मन, जिसमें से अज्ञान-समूह का प्रदेश दूर किया गया है, उसके सरीजा प्रकाशमान हो रहा है। इस समय नष्ट तिमिर-आदि दोषवाली सी मेरी चक्षु यथार्थ वस्तु के देखने की बुद्धिवाली है। अन्यथा-यदि ऐसा नहीं है तो मेरा यह प्रत्यका प्रतीत हुआ मानसिक व्यापार, जी कि विशिष्ट विवेक व निर्णय करने में तत्पर है, कहाँ से हुआ ? उसी अज्ञान के निराकरण का कथन करते हैं
कमनीय कामिनियों के केरापाश युवकजनरूपी हरिणों के बांधने के लिए जाल-सरीखा है। उनकी भृकुटिलताका विलास संसाररूपी वृक्ष पर चढ़ने का उपाय-सरीखा है। रमणियों का नेत्र युगल संसार समुद्र में पर्यटन करने के लिए नौका युगल के बन्ध-सा है एवं उनकी वचन-मधुरता दुःखरूपी अटवी में पातन कारक ( गिरानेवाली ) सी है।
स्त्रियों का विम्बफल-सा ओष्ठपल्लब मृत्युरूपी हाथोके प्रलोभन के लिये प्रास-सरोग्ना है । कामिनियोंके कुचकलशों का विनिवेश स्पर्शविप ( जिसके छूने से विष चढ़ता है ) वाले गोलाकार मूल की उत्पत्ति-जैसा है और उनकी भुजारूपो लतासे आलिङ्गन करना यमराज के जाल द्वारा अपने शरीर का वेन्दन गरीखा है एवं उनके उदर को त्रिवलिया ( तीन रेखाएं ) जन्म, जरा व मरणके मार्ग जैसी हैं। कामिनियों का नाभिमण्डल आलम्भन कुण्ड-शा है। अर्थात्-जिस कुण्ड में ब्राह्मणों द्वारा पशु हो जाते हैं-मारण कुण्ड सा है एवं उनकी रोमराजि का वाहिर निकलना समस्त गुणों ( कवित्व शक्ति व बक्तृत्वकला-आदि ) के दूर करने में मखरेखा-जैसा है। स्त्रियों का मेखला स्थान ( गुह्य ) यमराजरूपी कालं साँप की निवास-भूमि-सरीखा है और उनके करुओं की रचना दुःखरूपी राजाके प्रवेश करने के तोरण-सरीखो है।
गुणरूपी नगर को उजाड़ करने में, स्त्रियाँ प्रत्यक्ष से अन्याय-सरीखी है। अर्थात्-जैसे अन्याय से आम उजाड़ हो जाते हैं वैसे ही स्त्रियों से गुण नष्ट हो जाते हैं और स्वर्ग व मोक्षमार्ग को स्वभाव से अर्गला ( वेडा ) सरीखी हैं ।। १५ ।। अमृतप्राय नेत्रोंवालों स्त्रियाँ परिपाक ( फर्मोदय ) में विष के समान कौन-कौन
१. शिलटोपमालंकारः । २. पकीपमालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वासः विषवत् परिपाकेषु को विपत्ति न कुर्वते । जनयन्ति म को प्रीतिमापासे मपुरेक्षणाः ॥१६॥ मार्पयन्ति मनः सही कुर्वन्ति मिरहे भयम् । अव स्थितिः कानिस्खलानामिष योषिताम् ॥१७॥ ध्येवं गन्धरयुपेक्षायां प्रीतो प्रोति न तन्वते । रोपे तोषे च नारीणां सुलमस्ति न कामिषु ॥१८।। प्रियोपचारसंचारे फुले रूपे वयस्यपि । अन्येष्वपि गुणेष्वासामपेक्षास्त न मृत्युवत् ॥१९॥ यूनुष्यो बाणास्त्रिशूलं च वलित्रयम् । हवयं कर्तरी यासा ताः कर्म नु म धष्णिकाः ॥२०॥ स्त्रीय सामाविषं दृष्टौ न सखिति मे मनः । सद्दष्ट एवं लोको हि दृश्यते भस्मतां गतः ।।२।। एतदेव द्वधं तस्मात् कार्य श्री हितविभिः । आहारवत्प्रवृत्तिर्वानिवृत्तिरयवापरा ॥२२॥
कि च । मपि त्यजत्पेनोपायपटुभिरनुप्रविश्यमानः सप्ताभिस्यात्मनः स्वभावम्, अपि भवति विवितवितव्यैरुपयुज्यमानं विषमपामृतम्, अपि शश्यते महासाहसंघश्यतामानेत कमसोनामपि फुलम्, अपि भवन्त्युपप्रलोभनप्रवीणश्मवर्षमागः यूरजन्तयोप्यनुलोमचरिताः, सुलभाश्च बल शिलामामपि भृकरने सन्ति विषयः, न पुनः स्त्रीणाम् । इमा
सीमाणिसन्न महीं कर? अनुगग काक होन से स्नेह को उत्पन्न नहीं करती ?' || १६ ।। स्त्रियाँ संयोग के अवसर पर अपना चित्त अर्पण नहीं करती. अर्थात मानसिक अभिप्राय प्रकट नहीं करती और वियोग में भय उत्पन्न करती हैं, इसलिए स्त्रियों की स्थिति ( स्वभाव ) दुष्टों-सरीखी कहने को अशक्य और अपूर्व { अभिनव ) ही होती है । अर्थात्-जैसे दुष्टोंका संगम करने पर वे लोग मानसिक अभिप्राय प्रकट नहीं करते और दूर किये हुए भय उत्पन्न करते हैं ।।१७॥ स्त्रियां निरादर करनेसे द्वेष करने लगती हैं और प्रेम करनेसे प्रेम नहीं करती, अतः स्त्रियों के कुपित व सन्तुष्ट होने पर उनसे कामो पुरुषोंको सुख प्राप्त नहीं होता ।। १८ ।। स्त्रियों को उपकार करता, उच्चकुल, सुन्दर रूप तथा जवानी एवं दूसरे गुणों की अभिलाषा वैसो नहीं होती, अर्थात-उक्त गणोंके कारण वे अनुरक्त नहीं होती, जैसे यमराज को उक्त अनुग्रह, उच्चकुल आदि गणों की अपेक्षा नहीं होती। अर्थात-उक्त गणों के कारण वह किसी से अनरक्त होकर उसे अपने मुख मा ग्रास बनाना नहीं छोड़ता ॥ १९॥ जिन स्त्रियों को भृकुटि धनुष है, तिरछी चितवन बाण हैं व उदर को त्रिवली त्रिशूल हैं एवं हृदय कैंची है, वे स्त्रियाँ चण्डिका देवो क्यों नहीं हैं ? "॥ २० ।। मुझे ऐसा प्रतीत होता है-मानों-स्त्रियों की दधि में साक्षात विष होता है और सपा की दृष्टि में विष नहीं होता। क्योंकि उन्न स्त्रियों से दष्टिगोचर हुआ मनुष्य तो भस्म होता हुआ देखा जाता है परन्तु सों से दृष्टिगोचर हुआ पुरुष भस्म होता 'हबा नहीं देखा जाता ॥ २१ ।। अतः सुखाभिलाषी पुरुष को स्त्रियों के विषय में यही निम्न प्रकार दो कर्तव्य करने चाहिए । या तो उनमें आहार की तरह प्रवृत्ति करनी चाहिए अथवा उनसे नोहार-सी निवृत्ति ( त्याग ) करनी चाहिए ॥२२॥
__ संभावना है कि उपाय-चतुर पुरुषों द्वारा मन्त्रित की जानेवाली अग्नि अपनी उष्णत्व प्रकृति को छोड़ देती है परन्तु स्त्रियाँ अपनी प्रकृति नहीं छोड़ती। मान्त्रिक व तान्त्रिक पुरुषों द्वारा उपयोग किया जानेवाला विष भो अमृत हो जाता है। इसीप्रकार संभावना है कि अद्भुत कार्य करनेवाले पुरुषों से राक्षसो-समूह चशमें लाने के लिए शक्य है परन्तु खोटी स्त्रियां वश में नहीं लाई जा सकती। लोभ दिखाने में प्रवीण पुरुषों से आराधन किये जानेवाले सिंह-व्यात्रादि करजन्तु अनुकल हो जाते हैं परन्तु स्त्रियाँ अनुकूल नहीं होती। सम्भावना है कि पाषाणों को मृदु-कोमल बनाने के उपाय हैं, परन्तु कठोर हृदयवाली स्त्रियों को मृदु हृदयवाली करने के उपाय नहीं हैं। ये कामिनियाँ निरन्तर शिक्षित
१. आक्षेपोपमालंकारः । २. जपमालंकारः । ३. जात्यलंकारः । ४. समुच्चयोपमालंकारः। ५. उपमाक्षेपालंकारः । ६. उत्प्रेशानुमानालंकारः। ७. उपमालंकारः ।
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यशस्तिलकचंम्पूकाव्ये शनिशमनुनीयमाना गृहमदमिव विडम्पयन्ति पुरुषम्, उपचारंगशमाणा वानसुभराः स मेष इत्याधिक्षिपन्ति, अपेक्षमाणाः पशुमिव मन्यन्ते, हापभुश्यमाना श्मशानकुटमिन परिहरन्ति, सेर्पमनुपुज्यमाना भुगम्य इव वशन्ति, गुणवद्भयो मिम्बाधिवोद्विजन्ते, शुचिक्रियेषु मृत्पिण्ड इवाभिनिविशन्ते । अनुरज्यन्स्य एवं भयरित कारणमनयंपरम्परावाः, हसन्त्य एव शाल्ययन्त्यङ्गानि. पायरय एवं वहन्ति बेहन, आलपन्त्य एव स्खलन्ति मनसः स्वयम्, आसजन्य एव फुर्वन्ति तृणादपि लघुतरं मनुष्यम्, भारल्यमाणाः स्वछले दारभन्ते दुष्कर्माणि । म वासामस्ति रक्षणोपायः । तथाहि अनुभवः कृतरक्षाशल्याप्यहल्या शिलाखण्डलेन सह संविषेश, हरयेहा धितापि गिरिसुता गजासुरेण. यमजठरालयापि छापा पाधकेज, की जानेवाली मनुष्य को वैसी विडम्बित ( क्लेशित ! करती हैं जैसे गह का सुन्दर ले दिन मिया जाता है। ये स्त्रियां पूजा ( सन्मान ) आदि द्वारा स्वीकार की जानेवाली परन्तु दान द्वारा भरण-पोषण के लिये अशक्य हुई पुरुष को बकरा मानकर उसका तिरस्कार करती हैं। ये स्त्रियाँ चाहों हुई पुरुप को पशु-सरीखा मानती हैं और जब ये बलात्कारपूर्वक भोगी जाती है तब पुरुष को वेसे छोड़ देती हैं जैसे श्मशान-घट अपवित्र जानकर छोड़ दिया जाता है एवं ये स्त्रियां क्रोधपूर्वक पूंछो जानेवालों सर्पिणी-सरीखी पुरुषको काट लेती है। ये स्त्रियां गुणवान पुरुषों से वैसी भयभीत होती हैं जैसे लोग कटुक होने से नीम वृक्ष से भयभीत होते हैं। ये पवित्र आचारवान पुरुपोंमें अपवित्र मिट्टी के ढेले सरीखा अभिप्राय रखती हैं। ये स्त्रियां स्नेह प्रकट करती हुई ही अनर्थपरम्परा को कारण होती हैं एवं हसतो हुई ही पुरुष के शरीरों को शल्य-सरोखों क्लेशित करती हैं। ये देखती हुई हो पुरुष-शरीर को भस्म कर डालती हैं और भाषण करतो हुई हो नित्त की स्थिरता भष्ट कर देती हैं । रतिविलास करती हुई ही मनुष्य को तृण में भी नीचा कर देती है और अनेक प्रकार से पालनपोषण की जानेवालों अपने कपट से दुष्कर्म (जार-गमन-आदि कुकृत्य) आरम्भ करती हैं, इनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं है । उक्त वात को दृष्टान्त-माला द्वारा समर्थन करते हैं
लोक-प्रसिद्ध वैदिक बचन है कि अहल्या (गौतम-भार्या ) ने, जिसको रक्षा-शल्य ( रक्षा के लिए काटों की बाड़ ) की गई है, इन्द्र के साथ रतिविलास किया।'
शिवजी के शरीर के अर्ध भागपर स्थित हुई पार्वतीने गजासुरके साथ भोग विलास किया । इसी प्रकार बम के पेट में स्थित हुई भी 'छाया' नाम की कन्या ने पावक के साथ रतिविलास किया और एक
अहत्या (गोतम पल्ली) की कथागोतम व कौशिक साथ-साथ विशेष तपश्चर्या कर रहे थे। ब्रह्माजी उन दोनोंकी तपश्चर्या के प्रभाव से प्रसन्न हुए, इसलिए उन्होंने मन से अहल्या को उत्पन्न किया और उन दोनों में से किसी एक फो इन्द्रपद देन की इच्छा को । कौशिक ने 'ऐश्वयं होनेपर समस्त वैभव प्राप्त होते है" ऐसा विचारफर इन्द्रपद ग्रहण किया और अहल्या के साथ
रमण किया । गौतम ने उसे शाप दिया, जिससे उसका शरीर भगों ( योनियों ) से आच्छादित हुभा । २. पार्वती को कन्या--हिमालय पर्वतराज को पुी गौरी ने हाथो का रूप धारण करनेवाले शियजो को हपिनी बनाया
फिर स्वेच्छापूर्वक विहार करनेवाली उसने मजासुर के साथ भोग-विलास किया । उस दोष से उसे शिवजों ने मार दिया। ३. छाया की कथा-वत्सगोत्र में जन्मधारण करनेवाले माकम्पनि ने तीर्थयात्रा करने के इच्छुक होते हुए यह यम
धर्मराज है' ऐसा सोचकर अपनो युवती छाया नाम की कन्या को उसके लिए रक्षणार्थ समर्पण कर दिया। यम ने
भी उसे अपने पेट में स्थापित कर लिया । एक समय जब यम उस छाया नामको कन्या को सरकण्डों के वन में स्थापित कर मामसरोवर में स्नान करने के लिए गया तब उस छायाने पापक के साथ मोग-विलास किया !
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चतुर्थ आश्वासः
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एक सनयेवेहकवधूर्मूलवेयेस एवमन्याश्चोपाध्यायिकाप्रभृतयो भिजयतिसमक्षमुपपतिभिः सहारेभिरे महासाहसानि । अतिशुल्कसगंश्चार्य मार्गों यथा न देवोऽपि प्रहीतुं शक्नोति महिलानां हृवयम् । कथमन्यथेमे पुरातन्यो भूत-
परिचल्याच्चलचित्तत्वाग्नेः स्नेाच्च स्वभावतः । रक्षिता यत्नतोऽपीह मतृष्वेता विकुर्वते ||२३| यदयं व महो त्यक्ता जीवितार्थं च हारितम् । सा म स्वजति निःस्नेहा कः स्त्रीणां वल्लभो नरः ||२४||
अहो, फ्वेयं तु as fतस्य वचनगोचरातिचारिणो पुरस्तात् संय्याधनस्येव रामफलुपता, पत्र चेदानों भारतस्य समस्येव निभावः, नव साशं पाशपतितस्य पक्षिण इव चक्षुषश्चापलम् पव चेदाम कुलिशकौलिलक्ष्येव निश्चलभावः । हृतविधे, किमपरः कोऽपि न तवास्ति वषोपायो येनैवमुपप्रलोभ्य प्राणिनः संहरति । कथं हि
शाह नाम के वणिक की पत्नी ने मूलदेव के साथ काम सेवन किया। इसी प्रकार दूसरी भी 'उपाध्यापिका आदि स्त्रियों ने अपने पति के समक्ष जारों के साथ रतिविलास किया। स्त्रियों के हृदय को देवता भी नहीं जान सकता, अतः वह अतिसूक्ष्म सृष्टिवाला है । अन्यथा ये पुरानी बातें कैसे सुनी जाती हैं ।
व्यभिचारिणी होने से व चञ्चल चित्तवाली होने से तथा स्वाभाविक स्नेह-हीन होने के कारण स्त्रिय सावधानता पूर्वक रक्षा की हुई भी इस संसार में अपने पतियों के साथ विकृत होती हैं, अर्थात् उन्हें धोखा देती हैं ||२३|| जिसकी रक्षा के लिए मैंने राज्य छोड़ा और जिसकी रक्षार्थ मैंने ( छुकार नगर के राजकुमार ने आधी आयु दी वह मेरी पत्नी स्नेहशून्य होकर देवकेशी के साथ जाकर मुझे छोड़ रही है, मतः संसार में कौन पुरुष स्त्रियों का प्रेमपात्र हुआ है ? ||२४||
}
१. एकशाटवाणिम्-पत्नी की कथा - 'एकशाट' नामके महाजन ने जो कि सर्वत्र अविश्वास था, अपनो स्त्री को रक्षा के लिए अपने को पत्नी के साथ एक साड़ी में ढक लिया। शशिमूलदेव उस बात को सुनकर गाया और वहाँपर हाथों के कड़े पहनने के बहाने से जब संकेस किये हुए मेघों से पानी बरस रहा या मत्र अर्धरात्रि में उसने उसको पत्नी को, जो सात तल्लेवाले महल के अमभागपर सो रही थी, अपहरण कर लिया।
★ जात्यलंकारः ।
२. उन्ह श्लोक को कया-पटना नगर को राजकुमारी समस्त शास्त्रों में प्रवीण थी, उसने यह प्रतिज्ञा को कि जो मुझे संगीत आदि कलाओं में जीत लेगा उसो की में पत्लो होऊंगी। उक्त बात को सुनकर छुकार नामक नगर के राजकुमार ने आकर उसे कलाओं में जीतकर उसके साथ विवाह किया। एक समय उस कन्या के पिता को महान साध्य बीमारी हुई। वहीं पर किसी कुलाचार्य ने ऐसा उपदेश दिया 'यदि इसकी राजकुमारी की देवी को बलि दी
यह जीवित रह सकता है, अन्यथा नहीं। उक्त बात को सुनकर जमाई राजकुमार राज्य को छोड़कर स्त्री को लेकर महान् ट में प्रविष्ट हुआ। वहाँ पर दुष्ट साँप ने उम्र राजकुमारी को काट खाया। अपनी पत्नी के मोह से राजकुमार के हृदय में साहस पूर्वक अग्नि में प्रवेश करने का अभिप्राय हुआ। उस समय वन देवता ने इसके ऊपर दया करते हुए कहा - यदि जाप अपनी आधी बायु दोगे तो तुम्हारी पत्नी जीवित हो पकती है । प्रस्तुत राजकुमार ने अपनी पत्नी की रक्षा के लिए वैसा ही किया। अर्थात्--- अपनी आधी बायु दे दी, जिससे उसकी प्रिया जीवित हो गई। वह अपनी प्रिया के साथ एक नगर में प्रवेश करता हुआ प्याऊ के पास सो गया । उसी अवसर पर स्वेच्छाचार से आया हुआ उस नगर का निवासी देवणी उसे जगा कर ले गया। फिर सोकर उठे हुए उसके पति ने देवकेशी के साथ उसी नगर में प्रवेश करती हुई उसे देखा और पकड़ लिया । कहाँ जा रही है ? ऐसा विवाद होने पर उनको पत्नी ने कहा---यह देवकशी मेरा पति है। पुनः राजपुत्र ने कहा यदि तेरा यह निश्चय है तो देवता के
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये त्वमेषमसि मध्यस्मो थदेवमसको वस्तुनि बेहिनः स्नेहयसि । मुधा व तक्मतिवारुणकर्मणो धर्म इति प्रसिद्धिः । अहो, कमिव लोकस्याहार्यगुणरमणीयताधुषि वपुषि शुनः स्वतासुक्षतसोहितपरिष्वरले शुष्के कोकस इव तर्षः । अताम्धूलमुख हघुपानकरनिकेतनमिव करोति महोदव घिसस्य । अनुपनीतं हि वक्षः स्फुटितपिण्डगण्डमिय महतीं करोति विचिकिसामन्तःकरणस्य । अविहितसंस्कारं हि शिरः क्षणादेव भवति गोगर्मुनिवारणावपि कष्टतरम् । मनागेवोपेक्षितसृष्टिः शरीरयष्टिश्चर्मकरवृतिरिव विवाति पियनसमासनचरम् । अरे, हत्तपत्त वित्त, कामव त्वमत्र प्राप्तसंसारफलमिवा. मिनिविशसे । प्रसरमालभम्गमं प्राणव्यवैरपि गन्तमिजासि. विष्पमान परिमुषितप्तस्वमिव ताम्यसि. अनुष्यामानं महराहीसमिवात्मानं विषमसि । महो, किमिवमस्य जगतो महान्ध्यं यवनिधामस्यातासारतामवयुद्धधमानमपि भकरिव
___आश्चर्य है मैं सोचता है कि कहां यह पूर्व में होनेवाली काहने के लिए अशक्य मेरे मन की सन्ध्याकालीन मेघ-सरीखी रामकलुषत्ता और कहाँ इस समय होनेवाली चित्त की बैसी निर्मलता जैसे खेत द्रव्य के जल से प्रक्षालित हुमा वस्त्र निमल (शुभ्र ) होता है । कहाँ पूर्व में होनेवाली जाल में पड़े हुए पक्षो-सरीखी मेरी मेत्र-मपलता और कहा इस अवसर पर होनेवाली वज्र द्वारा कोलित हुई-सी मेरी चक्षु-निश्चलता । हे पापिष्ट विधे! क्या तुझे दूसरा कोई भी घात करने का उपाय नहीं था, जिससे तुम अमृतमति देवी को इस प्रकार का लोभ दिखाकर वशीभत करके मान-सरीखे प्राणियों का घात करते हो। निस्सन्देह आप कैसे मध्यस्थ हो ? जिससे ऐसे अतुल्य पदार्थ में प्राणियों को स्नेह युक्त करते हो। ऐसा होनेपर विशेषरूप से हिंसा करनेवाले आपकी 'धर्म ऐसी ख्याति झूठी है। आश्चर्य है किस प्रकार से विवेक-हीन लोक को सुगन्धित वस्त्रादि के संयोग से मनोज्ञता को पुष्ट करनेवाले शरीर में वैसी तृष्णा कैसे हो रही है ? जैसे कुत्ते को आपनी तालु में हुए व्रण से उत्पन्न हुए रक से आर्द्र ( गीली } हुई नीरस हड्डी में तृष्णा होती है। जैसे चमड़ा बेचनेवाले (चमार) का गृह चित्त को दुःखित करता है वैसे ही ताम्बूल मे रहित हुआ मुख महान् दुःख उत्पन्न करता है। जैसे शरीर का व्रणस्फोट ( पका हुआ फोड़ा) विशेष घृणा उत्पन्न करता है वैसे ही संस्कार ( प्रक्षालन-क्रिया) हीन नेत्र चित्त में विशेष घृणा उत्पन्न करता है एवं निश्चय से संस्कार-हीन ( तैलमर्दन-आदि क्रिया से होन) हुआ मस्तक तत्काल ही डांस-मच्छड़ को निवारण करनेवाले पंखा से भी मिन्धतर प्रतीत होता है। यह शरीर-यष्टि योड़ी-सी हो संस्कारों ( स्नान-आदि क्रिया) से उपेक्षित हुई । होन हुई) वेसी निकटवर्ती पुरुष को नाक बन्द करनेवाली कर देती है जैसे चमार की चमड़े को मशक निकटवर्ती पुरुषको नाक बन्द करनेवाली कर देती है।
अरे दुरात्मन् नष्ट आचरण-शील मन! तू इस स्त्रीजन में, प्राप्त हुए संसार फल-सरोखा क्यों अभिप्राय करता है ? रे मन! तू अप्राप्त इध वस्तु के संयोग को महान कष्ट उठा करके भी प्राप्त करने की चेष्टा करता है। अरे चित्त ! स्त्रियों से वियोग-प्राप्त किये जा रहे तुम उनकी प्राप्ति की बसो आकाङ्क्षा करते हो जैसे नष्ट हुए समस्त धन की पुनः प्राप्त करने को आकाङ्क्षा की जाती है। अरे चित्त ! तुम स्त्रोजन का संयोग प्राप्त करते हुए अपने को पिशाच से पकड़े हुए-सरीखे पीडित करते हो । आश्चर्य है कि इस लोक का यह अज्ञान क्या है ? जिससे यह लोक इस शरीर व स्त्रीजन के आभ्यन्तर स्वरूप को निरन्तर जानता हुआ भी उनकी प्राप्ति के लिए बंसा [वश्वनाथं ] प्रयत्नशील किया जाता है जैसे विदूषकों द्वारा राजाओं या नाटक-दर्शकों का
समक्ष जो जो वस्तु तूने मेरी ली है, वह मेरे लिए दे जा । उसवे कहा-दे दो। ऐसा कहते ही वह तरफाल काल-कवलित हो गई। बाद में विद्वानों ने उस राजकुमार से पूछा-यह कैसी घटना है? तब उसने प्रस्तुत श्लोक पड़ा । अर्थात्मैंने इसके लिए राज्यादि छोड़ा-तथापि कठोर हृश्यवाली यह मुझे छोड़कर देधकेभी के साथ जा रही है।
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तुर्थं माश्वासः
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बाह्यते । न वेत्तिाियाप्रतारितमुतुम्बरफलस्येवास्य कलेवरस्यान्तमत्सताम् । न चैतदवथा शौच्यं किं तु शल्यर्थ वराः करोतु जन्तुः 1 कर्मेव तावत्प्रथममनुकूलं न भवति जीवलोकस्य । यतः क्व निसर्गतः पर्वदिवसानीच पुराकृतपुष्य लवPaurngभानि प्राणिषु स्त्रीविलसितानि वव च तदुच्देवनकरागमः कृतान्तपश्वकुलसमः स्वच्छन्दवृत्तंर्गुणषिद्ध वणस्याधर्मरुरज्ञानतिमिरस्यैश्वर्य महाप्रहस्य च समवायः । यथाजनाभिप्रायमुपदशित विघयस्ते व ते चागमाः प्रमाणम् । उपलपित्तदेवपिचतिथिचेतसि हि पुंसि किमप्यशुभं कर्म न भवति दोषायेति, तेस्तनिदर्शनंरभ्युपगमयितारः प्रायेण समीपतः पुरुषाः । यौवनाविर्भावः पुनः कादम्बरोयोग इव परं मुमुक्षूणामपि नाविकार्य मनांसि विभापति ।
श्रीमदः सर्वेन्द्रियाणां जनुषाम्पत्यमिवाप्रतीकारमुपधातकरणम् । अनङ्गसिद्धान्तः खल्लोपदेश इवान भुजङ्ग मानामुत्परएनवण्डः । कवयः पुनः पिशाचा इव विषयेषु विभ्रमयन्ति निसर्गादजिह्मान्यपि चित्तानि । डिण्डिमध्वनिरिय पनव्या प्रबोधनकरः कलातामन्यासः । नियोगलाभ प्रापातसुन्दरः प्रसह्यत्मादयति सुविधोऽपि पुरुषान् । प्रणयजनfamrat eryपनिपत्य वर्षयति । याचितकमण्डनभिव छन्दानुवर्ती परिजनः । तदेतेष्वेकमप्यमुपहन्तुं प्राणिनः कि पुनरभीषां न समवायः । तदहमेवमनुसंभाषयेयम्, स्वयमुचितं कर्मानुष्ठातुमशक्तेः स्वव्यसनतपंणाय कामचारक्रियासु प्रवन्ते विवेकविलाः । न खलु जात्यपेक्षया पापमपापं धर्मो वा भवत्यधर्मः । स्यादपि यदि कर्मविपाकस्तथैव दृश्येत न
समूह हँसी मंजाक के लिए प्रयत्नशील किया जाता है। यह लोक इस शरीर के बाहिरी वर्णन से धोखा खाया हुआ उदुम्बर फल - सरीखे इस शरीर की भीतरी ग्लानि नहीं जानता । अथवा इस विषय में शोक नहीं करना चाहिए । निस्सन्देह यह विचारा प्राणी क्या करे ? अनुक्रम से पूर्व में इस प्राणी समूह का पूर्वजन्म में किया हुआ कर्म अनुकूल (सुखजनक ) नहीं होता, क्योंकि कहाँ तो प्राणियों में वर्तमान स्त्रियों के विलसित ( प्रेमोधोतक हाव-भाव - आदि), जो कि स्वभाव से दीपोत्सव आदि पर्व दिनों सरीखे प्रमुदित करनेवाले हैं और जो पूर्वोपार्जित पुण्य-लेश के उदय से दुर्लभ हैं, और कहीं वह पुण्य का नाश करनेवाला मिथ्याशास्त्र, जो कि सिद्धान्त में कहे हुए पञ्चकुल बढ़ई व लुहार आदि-सरीखा आचार-विचार को नष्ट करता है। जो ( मिथ्याशास्त्र ), स्वच्छन्दवृत्ति, गुण-विद्वेषण, अधमंरुचि, अज्ञानरूप अन्धकार तथा ऐश्वयं महाग्रह उक्त पाँचों का समुदाय है । प्रस्तुत मिथ्या शास्त्र लोक के मानसिक अभिप्रायानुसार कर्तव्य प्रकट करने वाले हैं। अर्थात्जैसे जन साधारण चाहता है वैसा ही शास्त्र मिथ्या दृष्टि पड़ते हैं। वे आगम जगप्रसिद्ध सिद्धान्त ( वेद व स्मृतियाँ) प्रमाण माने जाते हैं ।
प्राय: करके समीपवर्ती पुरुष, 'देवता, पिता व अतिथियों को चित्त से तृप्त करनेवाले पुरुष से किया हुआ कोई भी अशुभ (पाप) कर्म निश्चय से दोपजनक नहीं होता' ऐसे खोटे दृष्टान्तों द्वारा अशुभ कर्म करानेवाले होते हैं। जवानी की उत्पत्ति मदिरापान सरीखी निश्चयसे मोक्षाभिलाषी पुरुषोंके चित्तों को भी बिना विकार प्राप्त किये विश्राम नहीं लेती । लक्ष्मो का मद पांचों इन्द्रियों के विनाश का कारण है, जो जन्मान्धसरीखा चिकित्सा के अयोग्य है । कामशास्त्र दुष्टोपदेश- सरीखा धन, धान्य व जीवन का क्षयरूपी सर्पों को जगानेवाली यत्रि है। फिर कवि लोग व्यन्तरों- सरीखे स्वभावसे सरल चित्तों को भी इन्द्रियों के विषयों में भ्रान्ति उत्पन्न कराते हैं। संगीत आदि कलामों का अभ्यास डमरू की ध्वनि सरीखा दुःखरूपों कालसर्प को जगानेवाला है । सचिव आदि उत्तम पदों की प्राप्ति सरीखा स्त्रीजनों का भोग प्रथमारम्भ में मनोहर प्रतीस होता हुआ हठात्कार से विशिष्ट विद्वान पुरुषों को भी उन्मत्त बना देता है। यह केवल उन्मत्त ही नहीं करता अपितु चित्त में प्राप्त हुआ दर्प कराता है । इच्छानुसारी परिवार याचना की हुई वस्तु को सुसज्जित करनेसरीखा केवल शोभा के लिए है। अतः इनमें से एक भो पदार्थ जब प्राणियों का विशेष रूप से पतन करने में
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
चंथम् । तथाहि - बाच्यमानं पुस्तकमिव प्रतिक्षणमवहीयन्ते सकलजनसाधारणानामीश्वराणामप्पायूंषि । मुनिशिरसिषु बुद्धिरियन चिरस्यापिनी भवति देहकान्तिः । स्त्रीमनसोऽप्यस्थिरतरमियं गौवनमा जवजवीसानोपनाते विनिपाते च पतति । न भयत्यक्ष्य इव महानगोचरः । कोनाशस्तु यः परं बीभत्सुर्मापि कारौरिणमतिस्पृहयालुतया गिलति स कथं स्वभावसुभगं परिहरेत् । लब्जेव मे वृत्तिच्वो मा भूदिति स यदि कवाचिकानिचिद्दिनानि दन्तान्तर प्रवास्ते, तदावश्यं विषयविजयप्रासाविनिर्माणाविव भवितव्यं शिरसि पलितल्ल रोपताका रोहणेन, हितोपवेदानिधेधपरिपाकादिव बाढमुत्कम्पितव्यमुतसमर्थ है तब इन सब का समुदाय क्या प्राणियों का अनर्थ नहीं करेगा ? इससे में ( यशोधर ) निम्न प्रकार विचार करता हूँ ।
स्वयं पुण्य कर्म करनेमें असमर्थ पुरुषोंसे अपने व्यसन-पोषण के लिए अज्ञानी पुरुष स्वेच्छारों में प्रवृत्त किये जाते हैं । निस्सन्देह जाति ( ब्राह्मणत्वादि ) को अपेक्षा से पाप पुण्य नहीं होता और धर्म अधर्म नहीं होता। हो सकता है यदि कर्म का उदम विपरीत रूप से देखा जावे । अर्थात् — अधर्म से सुख और घमं से दुःख होता हुआ देखा जाय तब कहीं अश्रमं धर्म हो सकता है किन्तु चैसा नहीं देखा जाता, किन्तु पाप से दुःख और पुण्य से सुख होता हुआ देखा जाता है ।
अब उसी का निरूपण करते हैं- समस्त लोक सरीखे धनाढ्यों या राजाओं को भी आयु पढ़ी जानेवाली पुस्तक-सी क्षण-क्षण में क्षीण हो रही है । जैसे मुनियों को केश वृद्धि चिरस्थायिनी नहीं होती वैसे शरीरकान्ति भी चिरस्थायिनी नहीं होती। यह जवानी स्त्री- चित्त से भी विशेष चञ्चल है । यह प्राणी संसार स्वभाव से आए हुए मरण के अवसर पर भरता हो है । महापुरुष भी साधारण लोक सरीखा मृत्यु का विषय होता है । निस्सन्देह जो यमराज कुरूप प्राणी को भी विशेष चाहनेवाला होने से खा लेता है वह स्वभाव से सुन्दर राजा को कैसे छोड़ेगा ? 'मुझ यमराज को शीघ्र हो जीविका ( लोक को अपने मुखका ग्रास बनानेरूप वृत्ति ) का उच्छेद ( नाश ) नहीं होना चाहिए' इससे यदि वह कुछ दिनों तक अपने दांतों के मध्य में स्थापित करनेवालासास्थित रहता है । अर्थात् यदि किसी को तत्काल नहीं निगलता तो उस कालमें निश्चय से वृद्ध के शिर पर सफेद बालों की लतारूपी ध्वजा का आरोहण होना चाहिए। जिससे ऐसा मालूम पड़ता है मानों -विषयविजय- प्रासाद के निर्माण से ही ऐसा हुआ है । अर्थात् --जैसे जब राजा किसी विषय (देश) पर विजयश्री प्राप्त कर लेता है, जिससे वह उस देश को ग्रहण करता हुआ वहां पर प्रासाद (महल) का निर्माण करके उसके ऊपर ऊँची ध्वजा स्थापित करता है, वैसे ही यमराज भी जब वृद्ध पुरुष इन्द्रिय-भोगों पर विजय प्राप्त कर लेता है तब वह (यमराज) प्रासाद ( प्रसन्नता ) का निर्माण करता है इससे वृद्ध के मस्तक पर श्वेत बालरूपी ध्वजा स्थापित करता है | इससे हो मानों - उसके मस्तक पर श्वेत केशरूपी ध्वजा का बारोहण होता है । वृद्ध का शिर विशेष रूप से कम्पित होता है मानों - हितोपदेश के निषेध की परिपूर्णता से ही अतिशयरूप से कम्पित हो रहा है । एवं उसके नेत्र अन्धकार- पटल से सदा आच्छादित होते हैं- मानों - मानसिक स्फूर्ति के नष्ट हो जाने से ही ऐसे हुए हैं । वृद्ध पुरुष की मुखरूपी गुफा से लार बहती है, इससे ऐसा मालूम पड़ता है— मानों - शारीरिक सन्धिबन्धनों के टूट जाने से हो ऐसा हुआ है। तथा वृद्ध पुरुष की दन्त-पंक्ति चारों ओर से गिरने योग्य होती है - इससे मानों - रति शक्ति के विधवा होने से ही ऐसा हुआ है तथा वृद्ध शरीर प्रचुररूप से त्वचाओं की संकोच रूपी लहरों से व्याप्त होता है। इससे मानों ---मोहरूपी वायु के प्रसार से हो ऐसा हुआ है । उसकी पीठ झुक जाती है— मानों -- सरसता के विनाश से ही टेड़ी हुई है । उसका स्वसानल जाल ( शरीररूपी महान वृक्ष के लता-समूह-सरीखी नसों व हड्डियों की श्रेणी ) विशेषरूप से प्रकट होती है— मानों - लावण्यरूपी समुद्र के जल के विनाश होने से ही ऐसा हुआ
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चतुर्थ आवास:
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भागेन, मनःस्फुरितगिमाविष नितरामाच शेतव्यं चक्षुस्तिमिरपटलेन, संघियन्यविघटनाविवासीय स्पन्दितव्यं वदनकन्दरेन. रतिशयादि समन्ततः पतितव्यं बतवलयेन मोहानिलविजृम्भणादिव धनतरं तरङ्गमयितव्यमपघनेन, सरसत्वयादिव नितान्तमवनमनीयं पृष्ठवंशेन, लावण्यजलधिगलना दिवात्यर्थं प्रकटितव्यं स्मसानलआलेन, आसन्नतरमरणभयादिय प्रकामं व्यङ्गेन । यस्यां पुनर्लक्ष्म्यामयं महानाग्रहो लोकस्य सः देवात्करमुपागतापि इतककणिकेव न भवति स्थिरा, पलमंत्रीय संगच्छमानापि जनयत्यवश्यं काचिद्वियवम्, अपामार्गयवागृरिव लब्बापि न सभ्यते परिणमपितुम्, प्रयत्नपरिपालितापि कुलदेव करोत्युपपतावभिातम् अनुभूयमानापि भविरेव मोहमत्यन्तःकरणम् ग्रहोपरागलेखेव ताप्यसंतापयन्ती न व्यवतिष्ठते साहसरुपस्थितापि राक्षसोव थयति केवलं महापुरुषेषु प्रतिष्ठां प्रत्यवसादयितुम्, दुर्जनेषु क्षणमात्रं सतीभावमुपयाति । तमतिविस्तरेण ।
अहं तावत्परवशेनैव गलितमोहपाश इवाभुवम् । किंतु सफलजन विदितमप्रियं न मे किमप्यस्ति प्रव्रजतः । पाणिपरिगृहीता भुजङ्गीव सकृदेय मोक्तुमशक्या चेयं राज्यलक्ष्मीः । कष्टश्च खलु महत्यश्वयं देहिनामात्मलाभः, यंत्र थासमपि कर्माचरितुं न लभ्यते स्वातन्त्र्येण । मन्ये च मद्दर्शनावलम्बनजीविता कुलदेवतेव न मामनुमंस्यते तपस्यायामदेवी | नवें व दर्यास मयि संजातनियदे विधास्यन्तेऽशुभकमं परिणामः इव संहत्य मन्त्रिणो मनोषितस्यान्तरायम् इतोऽ
है । विशेष निकटवर्ती मरण के भय से ही मानों ---वृद्ध का शरीर अधिक कम्पित होता है ।
जिस घनादि सम्पत्ति में लोक का महान आदर है वह भाग्योदय से हस्त में प्राप्त होती हुई भी पारद रस को कणिका सरीखी स्थिर नहीं रहती । वह ( लक्ष्मी ) प्राप्त होती हुई भी निश्चय से चुगलखोर की मैत्री - सरीखी कोई भी आपत्ति उत्पन्न कर देती है तथा प्राप्त हुई भी लक्ष्मी अपामार्ग के बीज की तरह पचाने ( भोगने ) की शक्य नहीं होती। वह लक्ष्मी प्रयत्न पूर्वक रक्षा की गई भी व्यभिचारिणी स्त्री-सी उपपति--दूसरे पुरुष – की अभिलापा करती है। जिस प्रकार मद्य भोगी जा रहो भी मन को मूर्छित करती है उसी प्रकार लक्ष्मी भोगी जा रही भी मनको मोहित - अज्ञानी करती है । यह लक्ष्मी नष्ट होती हुई चन्द्रग्रहण व सूर्य ग्रहण की रेखा -सी अवश्य क्लेशित करती है। यह लक्ष्मी राक्षसी-सी साहसों से प्राप्त हुई भी केवल महानुभावों की प्रतिष्ठा (शोभा) को नष्ट करने के लिए उन्हें धोखा देती है । वह लक्ष्मी क्षण भर में दुष्टों की सखी हो जाती है । विशेष विस्तार पूर्वक कथन करना पर्याप्त है ।
मैं ( यशोधर ) अनुक्रम से पराधीनता से ही मोहजाल को नष्ट करनेवाला सरीखा हुआ हूँ, किन्तु दीक्षा ग्रहण करते हुए मेरे पूर्वा वैराग्य का कारण छोड़कर दूसरा कोई भी सर्वलोक विख्यात वैराग्य का लिए अशक्य कारण नहीं है । हस्त से धारण की हुई सर्पिणी- सरीखी यह राज्यलक्ष्मी एकवार में ही छोड़ने है। महान धनादि ऐश्वर्य में प्राणियों की उत्पत्ति कष्टदायक है। क्योंकि जिसके होने पर बनाढ्य पुरुष कल्याणमेरे दर्शनाधार से कारक आचरण भी स्वाधीनतापूर्वक करने के लिए समर्थ नहीं होता। मैं जानता हूँ जीवित रहनेवाली व कुलदेवता-सी चन्द्रमती महादेवी ( मेरी भाता ) मुझे दीक्षा ग्रहण करने की अनुज्ञा नहीं देगी । जब मुझे इस धुवावस्था में संसार, शरीर व भोगों से वैराग्य उत्पन्न होगा तब मन्त्रीगण एकत्रित होकर मेरे मनोवाच्छित कार्य में वैसे विघ्न करेंगे जैसे पापकर्म के उदय मनोवाञ्छित कार्य में विघ्न करते हैं। जो अमृतमति महादेवी इतने वेराग्य का कारण है, वह अपने ऊपर लोगोंको प्रसन्न करने के लिऐ मेरे तपोवन में गमन करने का निषेध करनेवाली वैसी होगी जैसे सममकरण गगन करने का निषेध करता है । मेरी आज्ञानुसार चलनेवाला नृप-समूह पिशाचवृन्द-सा मोक्षसाधन कार्य में मेरे अनुकूल होगा यह बात असम्भव है । स्वभाव से स्नेह करनेवाला युवराज ( यशोमति कुमार ) चरणों को ग्रहण करता हुआ तपदचरणार्थं प्रस्थान
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यशस्तिलकचम्पूकाव्मे
वस्यान्सरस्य हेतुर्लोकरञ्जनेनापि भविष्यति मे विष्टिरिव प्रस्थानविघातकारिण्यमृतमतिमहादेवो । दुष्करमसमग्रहसंदोह इव भेयसि मामनुलोमयिष्यति सामन्तनिवहः । प्रार्थिते वस्तुनि पाश इव करिष्यति गतिभ पायोः पतन्निस प्रणयी युवराजः । किमेकविषलता शेषादेव सकलमपि वनमुपहन्तुं युक्तमिति बिसपबन्तःपुरं शिवाकुलमिव विघ्नविष्यस्यभिलषितयात्रासमयम्। तिर्यग्गमिष्यन्ति च पतत्रिण हव पुरवृद्धः कामितस्य प्रतिलोमनाथ । यतः ।
अप्रार्थितोऽपि जायेत पापायाप्रेसरो जनः । धर्मानुष्ठानवेलायां निसर्गात्प्रतिलोमनः ॥ २५ ॥
तमत्र कं नु शायमारथयामि । अथवा रचित एवोपापः । तयाहि-यदीयं विभावरी कुशलेन विभास्पति तथा सर्वायसर सभामण्डपमास्थायाहूय चाम्यावेवमखिलं खानुचरलोकमिवमेकमशिक्षितम ननु भूतपूर्व मनुचितमप्यु पस्थित षल मिस्तरणोपायं निकटकूटकपट मनुष्ठास्यामि । भवति हि मृषोद्यमपि प्रायेण ब्रह्मोद्यकर्मणे यत्रात्मनो हिकापुत्रिक फलविलोपः । मायापि खलु परं निःपसमेवारभते, या न भवति परेषां परमार्थतः प्रतारणकरो ।
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महरतिपदापि क्रिया सुकृतमेवासनोति यदि न ममस्तमोबहुलम् । अवसाने ध्वन्यथावृत्तिरपि व्यापारों न करोति कामप्यर्थंशतिम्, यदि न विनेद्यानां जनयति व्यसनानि ।
तथा च प्रवचनम् — वासुपूज्य भगवतो वन्चनामिषेण मतो मिथिलानगरीनाथः पद्मरथो बभूव गणधरदेवः । मातुः कानिचिद्दिनानि बत्तान्तरोऽपि पश्वशतयुषतिरतिमाएः सुकुमारश्च साधयामासाभिमतम् ।
करने में वैसा विघ्न करेगा जैसा चरणों पर पड़ा हुआ जाल गमन करने में विघ्न करता है। 'क्या एक जहरीली लता के दोष से समस्त वन का उच्छेद ( काटना ) उचित है ?' ऐसा सार्थक बिलाप करती हुई मेरी पत्नी -समूह
गाली समूह सी तपोवन के प्रति प्रस्थान करने में विघ्न करेगी। जैसे आड़े आए हुए पक्षी गमन करने में अपशकुन करते हैं वैसे नगर के सम्पत्तिशाली पुरुष तपोवन के प्रति प्रस्थान करने में विरोध करने के लिए आड़े आ जाएँगे, क्योंकि - लोक विना याचना किया हुआ भी पाप-निमित्त अग्रेसर होता है परन्तु पुण्यकर्म करने के अवसर पर वह स्वभाव से प्रतिकूल हो जाता है ||२५||
अतः मैं निस्सन्देह तपोवन के प्रति प्रस्थान करने के लिए कौन-सा उपाय रखूँ ? अथवा मैंने उपाय प्राप्त कर लिया। उसी उपाय को दिखाते हैं-
यदि यह आज की रात्रि निर्विघ्न व्यतीत हो जायगी उस समय में 'सर्वावसर' नामके सभामण्डप में बैठकर अपनी माता चन्द्रमती देवी व समस्त सेवक समूह को बुलाकर ऐसा समोपवर्ती कूटकपट ( मायाचार ) करूँगा, जो कि अद्वितीय, किसीके द्वारा उपदेश नहीं दिया हुआ, पूर्व में अनुभव में नहीं आया हुआ एवं जो अनुचित होनेपर भी समस्त आए हुए विघ्नों को निवारण करनेका उपाय है, क्योंकि वह असत्य वचन भी बहुलता से कल्याण-निमित्त होता है, जिसमें अपनी आत्माका इसलोक व परलोक संबंधी सुख का विनाश नहीं होता । जो मायाचार निश्चय से दूसरों को धोखा देनेवाला नहीं है, वह भी निस्सन्देह उत्कृष्ट पुष्य को ही उत्पन्न करता है । बाह्यरूप में अत्यन्त कठोर भी क्रिया ( आचार – केशलुञ्चन व उपवासादि ) पुण्य को ही उत्पन्न करती है यदि उसमें मन अज्ञान - बहुल न हो । समाप्ति में असत्य व्यापार भी कोई पुण्य - विनाश नहीं करता, • यदि वह शिष्यों को दुःख उत्पन्न नहीं करता ।
उक्त बात के समर्थक सिद्धान्त-वचन हैं - मिथिलानगरी का स्वामी पद्मरथ नामका राजा बारह में तीर्थर श्री वासुपूज्य भगवान् को वन्दना के बहाने से चम्पा नगरी में प्राप्त हुआ। वहीं दीक्षा धारण करके गणधर देव हो गया । इसी प्रकार सुकुमाल स्वामी, जो कि पांच सौ युवतिरूपी रतियों के लिए कामदेव सरीखे
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चतुर्थ आश्वासः
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तविलम्बम् अम्ब मन्मनोरथानां कल्पलतिके, निशमय ममैकां विज्ञप्तिम् । अयमामुक्तस्तत्र भवरमाः प्रणामा जलिः । निस्वभाव कर्जाको नागवधानं कर्तुमर्हसि । उबिलोक्तिकुलशीलाविगुणबरणे दुरापफलसंपादनचिन्तामणे पुरोहित, सपादपतनं याचितोऽसि । प्रयच्छतः प्रियशिष्याय कम् वीरश्रीविलासकमलाकर सकलविग्वलयप्रसाधनकर सेनापते भव व्यासङ्क्रमपहाय प्रयतचेताः । कीर्तिधावलितरशेषराजनिवास महाहवभरारम्भनियूँक महासाहस सामन्तसमाज, समाकर्णय सम्यगिममुदन्तव्यतिकरम् । राज्यलक्ष्मीरक्षाक्षमप्रतापत्रसर निक्षिलमण्डलेश्वरप्रणामकर्कशंकर धौवारिक, निषीवावधारयितुमेनं वृतान्तम् । एवमन्योऽपि यः कचिन्म• प्रणयी परिजनः स क्षणमेकमनन्यमनाः शृणोतु । अद्य विभातशेषायां निशि स्वप्नममेषमदर्शम् - आत्मनः किलापनीम राज्यभारं यशोमतिकुमार एव निहितवान् । विहाय राजधानीमा श्रमावन्यामिव प्राविक्षम् । उत्सृज्य कनकासनमुपलगहन
विष्टवान् । श्रवमत्य राजमन्दिर मद्रिकन्दरमिवाशिश्रियम् । अवधूय वसुधाधिपत्यचिह्नानि तपःश्रीलिङ्गानीव गृहोलवान् । परिहृत्य विषपरसमनुष्ठानमानस इवाभूयम् । विमुथ्य भवादृशं परिजनं मुमुक्षुजर्नरिव संगतोऽस्मि । परित्यव्य विलासिनीजनमरण्यलता रखनमिवोपाप्नुहियम् । अवगणय्य बान्धबंधु परिचितत्वमटमोसत्येष्विव प्रीति गतवान् । एवम. या
थे, और जिन्होंने अपनी माता से कुछ दिनों तक दीक्षा ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की थी और जिन्हें माता द्वारा कुछ दिनों तक दीक्षा ग्रहण में विघ्न बाधाएँ उपस्थित को गई थीं, दोक्षा ग्रहण को सिद्ध किया ।
उस कारण से मेरे मनोरथों की पूर्ति के लिए कल्प लता सरीखी है माता चन्द्रमती में पूजनीय आपके लिए यह प्रणामाञ्जलि अर्पित करता है । मेरा एक विज्ञापन सुनिए । निर्दोष प्रकृतिशाली व समस्त सन्धि व विग्रह आदि कार्यों के प्रारम्भ में निविघ्न मन्त्र - प्रभावशाली हे मन्त्री मण्डल ! आप भी थोड़ी एकाग्रता धारण के योग्य हैं । विशेष उदयवाएं पवित्र वंश और परस्त्री के प्रति मातृ भगिनीभाव आदि गुणों की पृथिवी (आधार) एवं दुर्लभ अपूर्व लाभों को प्राप्ति करने में चिन्तामणि सरीखे हे पुरोहित ! में चरणों में नमस्कार पूर्वक आप से प्रार्थना करता हूँ कि प्रिय शिष्य मेरा विज्ञापन ध्यान पूर्वक सुनिए । वीर लक्ष्मी को क्रीड़ा करने के लिए कमल-वन सरीखे व समस्त दिशा समूह को वश करनेवाले हे सेनापति | आप चित की अस्थिरता छोड़कर सावधान चित्त-युक्त होवें । कीर्तिरूप सुधा द्वारा समस्त राजमहलों को उज्वल करनेवाले और महासंग्राम भार के प्रारम्भों में महान् अद्भुत कर्मों को वृद्धिंगत करनेवाले हे मेरे अधीनस्य राजसमूह ! प्रत्यक्ष किये हुए इस वृत्तान्त प्रघट्टक को सावधानी पूर्वक श्रवण कीजिए जिसके प्रताप का विस्तार, राज्यलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ है और जिसका हाथ, समस्त मण्डलेश्वर राजाओं को नस्त्रीभूत करने में विशेष कठिन है, ऐसे हे द्वारपाल 1 तुम मेरी बातको यथार्थं निश्चय करने के लिए बैठी । इसी तरह दूसरा भी मुझसे स्नेह करनेवाला कोई कुटुम्ब वर्ग 'है, वह सब क्षणभर सावधान चित्त होकर सुने - मैंने आज इसी पश्चिम रात्रि में निम्न प्रकार स्वप्न देखा । अर्थात् — मैंने स्वप्न में अपने को निम्नप्रकार देखा
मैंने निश्चय से अपना राज्यभार छोड़कर युवराज ( यशोमत कुमार ) में स्थापित करते हुए सरीखा अपने को देखा और इस राजधानी ( उज्जयिनी नगरी ) को छोड़कर तपोवन में प्रविष्ट होता हुआ सा जाना । मैंने सुवर्ण सिंहासन को छोड़कर स्वयं को पाषाण पर्वत पर स्थित हुआ जैसा देखा और राजमहल को अनावृत करके पर्वत गुफा का आश्रय किये हुए सरीखा तथा छत्र चेंबर आदि राजचिह्नों का परित्याग करके पलक्ष्मी के चिह्न (पोछी व कमण्डलु आदि ) ग्रहण करते हुए सरीखा देखा । में विषय स्वाद को छोड़कर क्रिया सरोवर में लौन हुआ-सा हो गया और आप सरीखे कुटुम्बी जनों को छोड़कर मोक्षाभिलाषी महामुनियों के साथ संगत हुआ जैसा हो गया ।
मैंने स्त्री-समूह को छोड़कर स्वयं को चलताओं के वन का आलिङ्गन करते हुए सरीखा देखा एवं
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यशस्तिलक चम्पूका
म्यभ्यनेकशः संसारसुखविमुखानि मत्पुराकृतपुण्यावसानसूचनोल्लेखानि चतुरं पुरुवाणं समर्थनोचितानि स्वप्नजातान्यद्राक्षम् । अववच तवाहं वदतापि केनचिद्विबोधित इव । सत्यफलाश्च भवन्ति प्रायेण निशावसानेव्ववलोकिताः स्वष्टाः । नापि तामसगुणमयी घोषमयी वा प्रकृतिः येनान्यथापि संभाष्येरम् । न चामीविहामुत्र च विशेषाश्रितं किंचिनिरीक्षितम् । अपि च ।
श्रुतान्यधीतानि मही प्रसाषिता वलानि बिलानि ययार्थभने । पुत्रोऽप्ययं वमंहरः प्रवर्तते सर्वत्र सम्पूर्ण मनोरथागमः ॥२६॥ विजोऽपि सुखतर्षो न मे मनः प्रायेण प्रत्यवसादयितुमीश्वरः । पतः ।
सकृद्विज्ञातसारेषु विषये मुहुर्मुहुः । कथं कुर्व
लज्जेत जन्तुइदवितचर्वणम् ॥ २७ ॥
न श्भ्रमान्तकसंपर्कात्मुखमन्यद्भवोद्भवम् । तेन सन्तः प्रतार्यन्ते यदि तत्वज्ञता हता ॥ २८॥ वाल्मे विद्यायहणानर्थान् कुर्यात् कामं यौवने, स्थविरे धर्म मोक्षं चेत्यपि नायमेकान्ततोऽनित्यत्वादापुषः योपपदं वा सेवेतेत्यपि श्रुतेः । अपि च ।
वधु आदि वर्गों में परिचय को छोड़कर अटवी के हरिण आदि प्राणियों में अनुराग को प्राप्त हुआ सरीखा अपने को देखा ।
इसी प्रकार मैंने दूसरे भी अनेकप्रकार के स्वप्न-समूह देखे, जो कि संसार-सुख छुड़ानेवाले हैं और जिनका उद्देश्य मेरे पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य कर्म के विनाश को सूचित करता है एवं जो मोक्ष पुरुषार्थं के समर्थन मैं उचित हैं | जैसे मैंने स्वप्न समूह देखे वैसे जाग गया - मानों - बोलते हुए किसी से जगाया गया हूँ ।
पश्चिम रात्रि में देखे हुए स्वप्नों का फल प्रायः करके सत्य होता है । मेरी प्रकृति तामसी नहीं है तथा दोषमय भी नहीं है, जिससे मेरे स्वप्न मिथ्याफलवाले संभावना किये जायें। इन स्वप्नों के मध्य में मैंने इस जन्म व भविष्य जन्म को विनाश करनेवाला कुछ नहीं देखा । विशेष यह है
मैंने शास्त्र पढ़ लिए। पृथ्वो को अपने अधीन कर ली । याचकों अथवा सेवकों के लिए यथोक्त धन दे दिए और यह यशोमतिकुमार पुत्र भी कवचधारी वीर है, अतः में, समस्त कार्य में अपने मनोरथ को पूर्ण प्राप्ति करनेवाला हो गया हूँ ||२६||
पचेन्द्रियों के स्पर्श आदि विषयों से उत्पन्न हुई सुख-सूष्णा भी प्रायः मेरे मन को भक्षण करने में समर्थ नहीं है। क्योंकि — इन्द्रिय विषयों ( भोगोपभोग पदार्थों) में, जिनको श्रेष्ठता या शक्ति एकवार परीक्षा की गई है, बार-बार खाये हुए को खाता हुआ यह प्राणी किसप्रकार लज्जित नहीं होता ? ||२७|| मैथुन कोडा के अखीर में होनेवाले सुखानुमान को छोड़कर दूसरा कोई भी सांसारिक सुख नहीं है, उस सुख द्वारा यदि विद्वान् पुरुष ठगाए जाते हैं, तो उनका तत्वज्ञान नष्ट ही हैं ||२८|| 'मानव को वाल्य अवस्था में विद्याभ्यास गुणादि कर्तव्य करना चाहिए और जवानी में कामसेवन करना चाहिए एवं वृद्धावस्था में धर्म व मोक्ष पुरुषार्थ का अनुष्ठान करना चाहिए। अथवा अवसर के अनुसार काम आदि सेवन करना चाहिए। यह भी वैदिक वचन है । परन्तु उक्तप्रकार की मान्यता सर्वथा नहीं है, क्योंकि आयुकर्म अस्थिर है। अभिप्राय यह है कि उक्त प्रकार को वैदिक मान्यता आदि उचित नहीं है, क्योंकि जीवन क्षणभङ्गुर है, अतः मृत्यु द्वारा गृहीत केशसरीखा होते हुए धर्मपुरुषार्थं का अनुष्ठान विद्याभ्यास-सा वाल्यावस्था से ही करना चाहिए। तथा च
१. समुचयालंकारः ।
२. आक्षेपाळंकारः ।
३. नाविरलंकारः ।
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चतुथं आश्वासः ध्यानानुष्ठानशक्तात्मा पुवा यो न तपस्पति । स जराजरोऽन्येवां तपोविघ्नकरः परम् ॥२९॥
सदहमेतत्स्वप्नदर्शनमशून्यपरामर्शनं कर्तुंमोहे. यदि तभवन्तो न मे भवन्त्युत्सर्गाणाममषावा इव प्रतिबन्योपापाः । प्रत्युपपन्नं चैतत् । पुरा हि युष्माफमेकक्षमाः परिगणनातीतानि परमुखेनाप्ययितात्यहं संपावितवान् । भवद्भिः पुनरोधः किमेकमपि स्वयमभ्यथितं न मे संपावत इति । तथाप्यमौ परमार्थम प्रतिस्थानमाजेन वा तपस्यायो यपि न मामनुमस्यन्ते, मिरस्याप्येतानारहितमनुष्ठास्यामि । को नु खलु विघटितं चेतः स्फटिकवलयमिव मुषामि संपातुमर्हति । निसर्गावस्निग्धे हि मनसि मरुभूम्माभिव वृथा भवन्ति परजनस्य रसानपनश्लेषाः । अन्यत्र कृतनिश्चय हि चेतसि मरगोपवेश इब विकलो भवति निकटवतिनां प्रतिकूलतया ममःसमागमनविनियोगः । स्वभावनिष्ठरं हि मनः शिलापाकलमिव न देवोऽपि भाक्नोति पल्लवयितुम् । अभिनिवेशकर्कशे हि दवपे कुलिश इव न प्रवेश लभन्ते गुणवत्पोऽपि वधूना प्रार्थनाः ।
देवस्यापि बचः प्रायः पंसि जातामहमहे । अक्षरे वर्षवन्न स्यात् गुणकारि मनापि ॥३०॥
धर्मध्यान व चारित्र के पालन में समर्थ आत्मावाला जो पुरुष जवान होकर तपश्चर्या नहीं करता, वह पुरुष वृद्धावस्था में भग्न शरीर-युक्त होकर तपश्चर्या करता हुआ, केवल दूसरे साधुओं की तपश्चर्या में विघ्न उपस्थित करनेवाला होगा ॥२९|| अत: मैं ( यशोधर ) इस स्वप्न-दर्शन को सफल विचारवाला करने की इच्छा करता हूँ। यदि आप लोग मुझे निषेध करने के उपाय उसप्रकार न हो जिसप्रकार विशेष पहीं हुई विधियो, सामान्य कही हुई विधियों के निषेध करने के उपाय होती हैं। आपके द्वारा यह मेरी प्रार्थना पालन की हुई होगी, क्योंकि जब मैंने पूर्व में आप लोगों में से एक एक की अगणित प्रार्थनाएं दूसरों के संदेश वचन मात्र से भी पालन की हैं तब आप समस्त सज्जन मेरी स्वयं की हुई एक भी प्रार्थना को क्या पालन नहीं करोगे? तथापि यदि आप मेरी प्रार्थना सम्पादन नहीं करेंगे और आप लोग यदि मुझे तपश्चर्या करने की अनुमति नहीं देंगे तो में परमार्थ रूप से अथवा स्वप्न-प्रतीकार के बहाने से इन स्वप्नों का निषेध करके आत्महित कलंगा, अर्थात्-तपोवन के प्रति गमन करूंगा। क्योंकि निश्चय से स्फटिक मणि के कण सरीखे विघटित हुए ( विरक्त हुए ) चित्त को कौन पुरुष निरर्थक भी संधान ( जोड़ना पक्षान्तर में अनुराग-युक्त ) करने के योग्य है। स्वभावतः स्नेह-हीन चित्त में निश्चय से दूसरे लोगों के रसानयन क्लेश वृथा होते हैं । अर्थात्शृङ्गाररस का प्रदर्शन मरुभूमि की तरह नेत्रों के संताप के लिए होता है | भावार्थ-जैसे मभूमि में स्वयं प्यासे होने पर रसानयन क्लेया-दूसरे के हाथ में रस ( जल ) देखकर नेत्रों को क्लेश होते हैं, वैसे वैराग्ययुक्त पुरुष को तपश्चर्या को प्यास होने पर दूसरे मनुष्यों द्वारा शृङ्गाररस का दिखाना नेत्रों के संताप के लिए होता है। दीक्षा-आदि धारण करने का निश्चय किये हुए चित्त को निश्चय से निकटवर्ती पुरुपों को प्रतिकूलता द्वारा वापिस लाने का अधिकार वैसा निष्फल होता है जैसे मरणोपदेश निष्फल होता है। अर्थात्-'तू मरजा' इसप्रकार का उपदेश सुननेवाला क्या कोई मरता है ? अर्थात्-जिसतरह दिया हुआ भरणोपदेश निष्फल होता है उसीतरह वैराग्यशील चित्तको सरागी बनाने का प्रयत्न भी निष्फल होता है। पाषाणखण्ड-सरीखे स्वभाव से कर्कश मन को निस्सन्देह देवता भी उल्लासितः- रामयुक्त करने समर्थ नहीं होता। जैसे वज़ में गुण ( तन्तु) प्रवेश नहीं होता वैसे निश्चय से अभिप्राय से कठिन हृदय में स्त्रियों को याचनाएं गुणकारिणो होती हुई भी प्रवेश ( संक्रमण ) नहीं करतीं।
थोड़ा-सा कहता हूं-उस पुरुष में, जिसमें प्रायः करके आग्रह रूप पिशाच उत्पन्न हुआ है, देवता
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पशस्तिलफचम्पूकाध्ये प्ति संकल्प्य अवश्यमिह जन्ममि म मे शयनललमारोहन्ति महिला प्रति घ पालोख्य लोकालोकाचल दव 'प्रकाशाषकाराप्तिमन्परितमनःप्रसरे विवाभोगभगुरे नभसीष निमेषोन्मेषाकुलितनयनमयले स्यापप्रयोषयतिरिकामपरामेव कांचिवसालामिव संकीर्णरसासरालां निद्रावधामनुभवति मयि सति । बहो धर्मावलोक, मदभिमतसाधुकारवानेव ध्वनितं शलेन, मत्प्रव्रजनमङ्गलरयणेव समुण्यलितं संगीतकनिनादेन, मत्कार्पपरिच्छेदेनेव स्फुटितं पूर्वसिग्मागेन, मवाज्याभिलाषेणेव विरलीमूतं तारकमिफरेण, मन्मनसिजविलासेनेव विच्छायितमिन्दुबिम्बेन, म राप्यमनमेव विकसितमरविन्धवृन्देन, मविषयसुखतव विघटितं तमःपटलेम, मन्मोहपाशेनेव विलितं सध्यारागेण, मवपुषेव लोकलोचनगोचरसामुपगतमरुणकिरणेन, मड्रपनविन्यासरिय पर्याकुलितं नग. निगमगोपुरसरित्भदेवर्जनसमाजेन । तपश्यहमनवाप्तनिशानिनोऽपि वातायनविपरलब्धप्रसरेण रविणा प्रायनेव शररपत्ि के भी वचन उसतरह थोड़े भी उपकारक नहीं होते जिसतरह ऊपर भूमि में मेघों की दृष्टि जरा-सी भी उपकारक नहीं होती ||३०||
प्रसङ्गानुवाद हे भारिदत्त महाराज ! मैं पूर्व में क्या-क्या करके 'अखिलजनाबसर' नामके सभामण्डप में प्राप्त हुआ?
पूर्वोक्त विषय को मन में धारण करके और 'निश्चय से इस भव में मेरी शय्या पर स्त्रियाँ आरोग नहीं कर सकतीं' इसप्रकार पूर्व में विचार करके में उक्त सभामण्डप में प्राप्त हुआ।
है राजन् ! क्या होनेपर मैं उक्त सभामण्डप में प्राप्त हुआ ? जब मैं, जिसको चित्तप्रवृत्ति देसी बसी प्रकाश व अन्धकार के आचरण से मत्थरित ( व्याप्त या भरी हुई ) हुई है, अर्थात् जो चैराग्य व उद्वेग दोनों से व्याप्त है, जैसे उदयाचल व अस्ताचल प्रकाश व अन्धकार दोनों से युक होते हैं। जिसके नेत्रप्रान्त निमेष ( नेत्रों का मौंचना) व उन्मेष ( नेत्रों का खोलना) से संयुक्त हैं, अतः जो बिजली के विस्तार से बिनाशशील आकाश-सरीखा था | अर्थात्-जिसप्रकार बिजली मेघों के मध्य में प्रवेश करती हुई अन्धकार उत्पन्न करती है और प्रकट होती हुई प्रकाश करती है उसीप्रकार. मेरे नेत्रप्रान्तों में निमेष व उन्मेष उत्पन्न हुए। में कैसी निद्रावस्था का अनुभव कर रहा था ? जो शयन व जागरण-युक्त थी । अतः जो अपूर्व, अनिर्वचनीय तथा संमित्र रसों से अधिक हुई रसाला ( शकर व मसाला पड़ा हुआ दही-शिखरन ) सरीखी थी। अर्थात्-जिसप्रकार रसाला संमित्र ( मिले हुए ) रसों से व्यास होती है।
धर्म का अनुसन्धान करनेवाले हे मारिदत्त महाराज ] इसके बाद शङ्ख की स्वनि हुई, उससमय ऐसा मालुम पड़ता पा–मानों-मेरे मनचाहे दीक्षाग्रहण का समर्थक माधुकारवचन ही है । हे राजन् ! उससमय गीत, नृत्य व वादित्रों को ध्वनि प्रकट हुई, जो—मानों-मेरे दीक्षाग्रहण की माङ्गलिक ध्वनि ही है। पूर्वदिशा का प्रदेश विकसित हुआ, जो मानों-मेरी दीक्षा ग्रहण का निश्चय ही है । उससमय ताराओं की श्रेणी मेरी राज्याभिलाषा-सी विरलीभूत हुई। उस समय चन्द्रमण्डल मेरे कामभोग-जेसा कान्ति-हीन हो गया। हे राजन । उस समय कमल-समूह वैसा विकसित हुआ जैसे मेरा वैराग्य, चित्त से विकसित-उल्लासित हुआ। हे राजन् ! उससमय अन्धकार-पटल मेरी विषय सुख की अभिलाषा-सरीखा नष्ट हुआ । उससमय सायंकालीन संध्या की लाली मेरे मोहजाल-सरीखी नष्ट हुई 1 हे मारिदत्त महाराज | उससमय सूर्य की किरणें मेरे शरीर-नी लोगों को दृष्टिगोचर हुई । हे राजन् ! जनसमाज ( लोक-समूह ), पर्वत-मार्ग, नगरद्वार व नदी स्थानों से आकर उसप्रकार व्याप्त हुआ जिसप्रकार जनसमाज ( सेवक-समूह ) मेरी महल-रचनाओं में व्याप्त होता है। हे राजन् ! इसके बाद में, रात्रि में निद्रा को प्राप्त न करता हुआ मो गवाक्षजालों (झरोखों) से प्रविष्ट होने
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चतुर्थ आश्वासः प्रबोधितः । सिन्धुर इव शय्यामुत्सृष्य, उत्तानपेविनो हि नरस्य सुखसाध्यमपि कार्यमुदके विशीर्ण चूर्णमित्र न भवति यनपातरपि कर्तव्यं प्रतिविधेयमित्यवधाय, तस्याः सुष्कर्मणी महादेव्याः शारीरसंगमादिव विहितोषस्पमजनो नित्यं च गोसर्गमामयभविनमुपामयिघिर अपामोखावे नि मनसि न शस्नु परोपनीतः परिग्रहासङ्गो भवति कर्मपरिष्वङ्गायेत्यनुष्याय महोतोगमनीयमङ्गलदुकूलः, समाचर्य तपश्चर्यानुरागेणेव हरिरोहणेनाङ्गरागम्, आवृत्त्य हितोपदेशमिय कर्णाभरणम्, 'अहो गुणवतां वर हार, खरं सुरतबिनोदेषु सेवितोऽसि । तदस्य प्रायनः सर्व क्षम्यताम्' इत्यनुनयेनेव कण्ठे गृहोत्या मुक्ताफलभूषणानि, ईषत्प्रागभारश्रीपरिणयोत्कण्ठयेष निधाय करे कङ्गालफारम्, मामनि मम तपस्पायाः कोऽप्यन्तराय इति सिद्धशेषामिय शिरसि विनिवेश्म कुसुमानि, हस्ते कृत्य वेतिकर्तव्यतासारमिव ताम्बूलमखिलजनाबसरं सभामण्डपमुपागतोऽस्मि । मिलिते यथाभागमस्थिते च सबंत्मिन्ननुनौविलोके प्रवृत्तं च पुस्तकषाचनके चन्द्रमतिम्बादेवों प्रति मूल प्रहेतुमिच्छया यावन्मनोरथसारथेः मन्त्रिणो मुखमवलोकयामि, तावत्स्वयमेव मय्येकपुत्रे परमपरसततया रात्रिकृतमन्तरं वर्षामिव गणयन्तीमतियातयामत्रयोभिराप्तपुरुषरधिष्ठिता वाले सूर्य द्वारा उसप्रकार कर-स्पर्श { किरणों के स्पर्श व पक्षान्तर में हस्तस्पर्ण) से जगाया गया जिसप्रकार स्नेही पुरुष द्वारा कर स्पर्श से मित्र जगाया जाता है। फिर हाथी-सरीखे मैंने शय्या ( गलन) को छोड़कर निम्नप्रकार भलीभांति विचार किया। निश्चय से अस्थिर चित्तवाले पुरुष का विना प्रयत्न सिद्ध होने योग्य कार्य, पानी में फेंके हुए चने-सरीखा सेकड़ों प्रयत्नों से भी चिकित्सा करने योग्य नहीं होता । अभिप्राय यह है कि उक्त नैतिक सिद्धान्त को स्मरण करते हा मैंने उक्त घटना किसी के सामने प्रकट नहीं की। इसके बाद हे मारिदत्त महाराज ! उस दुराचारिणी महादेवी ( अमृतमति ) के अस्पृश्य गरीर के स्पर्श से ही मानों-- प्रातःकालीन स्नान करनेवाले मैंने प्रभातकालीन उपासना विधि पूर्ण की । 'मोह-बन्ध से रहित चित्त में दूसरे पुरुष द्वारा समीप में लाए हुए वस्त्रादि-परिग्रह का स्वीकार करना, निश्चय से कर्मबन्ध के निमित्त नहीं होता' ऐसा चिन्तवन करके मैंने धुले हुए वस्त्र का धोती जोड़ा व माङ्गलिक दुपट्टा धारण किया। पश्चात् मैंने गोशीर्ष चन्दन द्रव से विलेपन किया, जो-मानों-तपश्चर्या करने में उत्पन्न हुभा अकृत्रिम स्नेह ही है, फिर मैंने हितोपदेश-सरोखे दोनों कर्ण-कुण्डल धारण किए।
'हे गणवानों में श्रेष्ठ हार ! तुम संभोग-क्रीड़ा में विशेष रूप से खेदखिन्न किये गा हो, अतः इस स्नेही का समस्त अपराध क्षमा करो' इसप्रकार अनुनय से ही मानों-मैने मोतियों का हार कण्ट में वारण किया । थोड़ी-सी पूर्व की राज्य पालन रूपी भार को लक्ष्मो के विवाह की उत्कण्ठा से ही मानों-मैंने हस्ताभूषण ( कङ्कण-अलङ्कार ) हस्त में धारण किए। फिर मैंने पृष्प मस्तक पर धारण किए, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-मेरी तपश्चर्या में कोई विघ्न न होवे' इसकारण से सिद्धचक-पूजा गंबंधी पुष्पमाला ही है। और मैंने ताम्बल हस्त में ग्रहण किया, जो-मानों-मेरी दीक्षाग्रहण का निश्चय ही है।
उपसंहार-तदनन्तर मैं 'अखिल जनावसर' नाम के सभामण्डप में प्राप्त हुआ।
हे राजन् ! जब समस्त सेवकजन एकत्रित हो चुका था व यथास्थान पर स्थिति कर चुका था एवं शास्त्र वाचनेबाला ( पुरोहित ) प्रवृत्त हो चुका था। इसीप्रकार जब तक में चन्द्रमति माता के प्रति लेख भेजने की इच्छा से 'मनोरथ सारथि' नाम के मन्त्री का मुख देख रहा था तब तक अत्यन्त उत्कण्ठा पूर्वक स्वयं आती हुई ऐसी चन्द्रमति माता को मैंने देखा । जो, मुझ एकलौते पुत्र में उत्कृष्ट स्नेह के कारण रात्रिसंबंधी बिरह को सौवार्ष-समान जान रही थी। जो अत्यन्त वृद्ध उम्रवाले मन्त्री-आदि हितेपी पुरुषों से अधिष्ठित्त थी। १. 'हरितरोहिणेन' इति इ. लि. (क) प्रती पाठः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मुस्सुकोत्सुकमागच्छन्तीममरसरितमिर हंसकुलपरिवसापुत्फुल्लसिलतरोजवनविहारिणीमिव सरस्वतीमखिसगुणानुगतामिव मपितुः कीर्तिमनेककक्षान्तरविनियुक्तविनतमहासामन्सारुणमणिमौलिमनखोन्मुलरामिरजितोपसंख्यानां संध्यारागोत. रोयवसनामुदयमानचन्द्राकृतिमियापक्ष्याम्, शिपयलं च । पावसानुम-
ममोपम्मिाजलः सकल्लोल: सिन्धरिय पुनस्तचरणनसकरोत्सार्यमाणोसंसकुमुमसौरमासक्तभृङ्गाजितोत्तमाङ्गः पातासमुलं स भुजङ्गमालो दिवं स देवाधिपतिर्यथा च । मग्मोवनेनापि तथा त्वमेनामावन्द्रतारं वसुषां प्रशाषि ॥३१॥
इति विहिताशीवोच्चारः शिरःसमानाणपरिकल्पितमालकालोचितोपचारः सुखशयनसंकथाभिमहर्मुहुर्मामालापयन्तीमपितहस्लावलम्मनः पुरः परिसरन्नमृतमरीचिमूर्त्यनुगतस्तबालोक इव तं सभामण्डपमुपनीय महासिंहासनपोठिकरयामुपावौविशम्, उपाविशं च तवावेशान्तिजासने। प्रवृत्तासु च तासु तासु किंवदन्तीषु वाचकः संसारस्वल्पनिरूपणप्रस्ता. पायातभिवमध्यगोष्ट । परेव पन्या वनिताजनानां यस्याः समालिङ्गनभाजि सि । अन्याङ्गनायीक्षणविनमाणो न जातु जायेत समागमोः ।।३।।
जो उसप्रकार इसकुल ( गुरुजनों या निर्दोष पुरुष-समूह ) से वेष्टित थी जिसप्रकार गङ्गानदी हंसश्रेणी-से वेष्टित होती है। जो उसप्रकार विकसित हए. उज्वल कमलवनों में विहार करनेवाली थी जिसप्रकार सरस्वती विकसित हुए उज्वल कमल खण्डों में विहार करती है। जो मेरे पिला यशोघमहाराज की कीतिसरीखी सर्वगुण सम्पन्न थी। जिसकी साड़ी बहुत से गृह प्रकोष्ठकों में नियुक्त हुए नम्रोभूत महान् सेवक राजाओं के अरुण ( लाल ) मणियों से व्या ( जड़ित ) मुकुटों की किरणोन्मुख श्रेणी द्वारा रञ्जित की गई है। जिसका दुपट्टा, संध्याकालीन लालिमा-सरीखा है और जिसकी आकृति उदित हुए चन्द्र की आकृति-जैसी थी। फिर मैं उसके सन्मुख गया और मैंने उस सभामण्डप में उसे लाकर महान सिंहासन पीठ पर बैठाया एवं मैं भी उसकी ( माता की आज्ञा से अपने सिंहासन पर बैठा । हे राजन् ! मैं उससमय ऐसे समुद्र-सरीखा था, जिसके जल उदयाचल के शिखर पर संचार करती हुई चन्द्र प्रतिमा के उदय से वृद्धिमत हो रहे थे और जो विशाल तरङ्गों से व्याप्त था । जिसने (मुझ घश्योधर ने) ऐसा मस्तक स्वीकार किया था, जिसपर उस चन्द्रमती माता के चरणनखों की किरणों से तिरस्कार किये जा रहे मुकुट के पुष्पों की सुगन्धि में लम्पट हुए भौरे वर्तमान थे। एवं जिसे माता ने निम्नप्रकार आशीर्वाद का उच्चारण किया था। हे पुत्र ! 'जैसे वह जगत्प्रसिद्ध शेषनाग पाताल-लोक का प्रतिपालन करता है एवं जैसे वह देवेन्द्र स्वर्ग का शासन करता है वैसे हो तुम मेरी आयु से भी (विशेष समय तक ) चन्द्र व ताराओं पर्यन्त इस पृथिवीं का शासन कारों' ।।३।। एवं जिसका मस्तक-सूघने से वाल्यकालोचित व्यवहार किया गया है । हे राजन् ! मैंने केसी मेरी माता को सिंहासन पर वैठाया? जो सुखपूर्वक निद्रा को कथाओं से मुझ से बार-बार एकान्त में भाषण कर रही थी । हे राजन् ! हस्तावलम्वन देनेवाला व माता के आगे गमन करता हुआ मैं चन्द्र-मूति से अनुगत चन्द्रोद्योत-सरीखा था। हे राजन ! जब वे वे जगप्रसिद्ध किंवदन्तियाँ-प्रवृत्त हो रही थी तब कथावाचक विद्वान ने संसार स्वभाव के कथनावसर पर प्राप्त हुए निम्न प्रकार सुभाषित श्लोक पढ़े
स्त्रीजनों में वृद्धावस्था हो पुण्यवती है, क्योंकि जिस वृद्धावस्था रूपी स्त्री का आलिङ्गन करने. वाले मानव में । वृद्ध पुरुष में) परस्त्रियों के देखने की शोभा-प्राप्तिरूपी लक्ष्मी कभी भी उत्पन्न नहीं होती ॥३२॥ उस कारण से हे आत्मन् ! जब तक वृद्धावस्था, शारीरिक शक्ति को नष्ट नहीं करती एवं इन्द्रिय-समूह में अन्धकार का विस्तार नहीं करती तब तक आप इस समय उस अनिर्वचनीय कर्त्तव्य को १. उपमालंकारः । २. अप्रस्तुतप्रशंसालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वासः ततश्च । पावजरा जरपसे न शरीरशक्ति यावत्तमश्च न तमोति हषीकवर्गे। सावत्यमाघर विधार्य तवन किंचिज्जन्माकुरा पुनरयं रमते न पत्र ॥ ३३ ॥ त्वं मन्दिरविणवारतन नहायेस्तृष्णातमीभिरनुग्धिभिरस्तधुद्धिः।
पिलधनात्यहनिशमिमं न तु चित्त सि इण्यं यमस्य निपतनसमकाण एव ॥ ३४ ॥
राजा-(स्वगतम् ।) साघु भो वाचक, माधु। पतः, कथमिव त्वमा मच्चेसःप्रविष्ट इव वर्षे । पुनरपि वाचको मामसीच संसारसुखासनायासु कथासु पसारवान पतपय को नाम न अति जनः कुशलः स्वस्य क्रियेत वशवती। स्त्रीषु सलेष्विव विधिपि मूढः खलु वपतोपाये ॥ ३५॥
हतीव च। राजा-(सविस्मयः। स्वगतम् ।) अहो रात्रिप्रवृत्तवृत्तान्तदिन इवास्याच सरस्वती प्रेरपति दयांसि । बाढमानन्वितश्यामनेन । न स्वामिनसावः सेवकेषु प्रसिद्धविधतामणिरिव फलमसंपाय विश्राम्पतीति । (प्रकाशम् ।) अहो असुवर्ष, वितीयंतामस्मं सुभाषितवर्षाय पारितोषिकम् ।
वसुवर्ष:- यथाज्ञापयति देव इति । तथा कूतवति वसुवर्षे माता-(स्वगतम् ।) अहो, कुतोऽध मे पुत्रल्प भवभोगनिभर्सनपरागु कामिनीजनसंभावनभगुरारम्मनिर्भरासुर गोष्ठीविदं परं मनः । कि नु खल न महादेवीगेहं विचार करके उसका आचरण करो, जिस कर्तव्य के फरने पर यह प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाला संसाररूपी अङ्कुर ( संसार प्रादुर्भाव ) फिर से क्रीड़ा नहीं करता' ||३३।। हे आत्मन् ! तुम पापानव को उत्पन्न करनेवाले व महल, धन, कलत्र व पुत्रादि को आकाङ्क्षा रूपी अन्धकारों द्वारा नष्ट बुद्धिवाले होते हुए निरन्तर क्लेशित हो रहे हो। हे चित्त ! तुम विना अवसर के गिरनेवाले यमराज के प्रत्यक्ष दिखाई देनेवाले मरणलक्षण-वाले दण्ड को नहीं जानते हो ॥३४|| उक्त सुभाषित शत्रण कर यशोधर महाराज अपने मन में निम्नप्रकार चिन्तवन करते हैं-हे सुभाषित वाचनेवाले ! तुमने विशेष प्रशस्त निरूपण किया। क्योंकि आज तुम मेरे मन में प्रविष्ट हए सरीखे स्पष्ट बोलते हो। हे मारिदत्त महाराज ! कथावाचक विद्वान् ने मुझे संसार-सुख से विमुख करनेवाली कयाओं में विशेष रूप से ध्यान देनेवाले देखकर फिर से निम्नप्रकार सुभाषित श्लोक पढ़ाविद्वानों से संसार में कौन पुरुष अपने वशवर्ती नहीं किया जाता? परन्तु दुष्टों या चुगलखोरों की तरह स्थियों के वशीकरण के उपाय में विधि भी मढ़ है । अर्थात्-वशीभूत करना नहीं जानता ॥३५॥ यशोधर महाराज आश्चर्यान्वित होते हुए अपने मन में निम्न प्रकार चिन्तवन करते हैं—आश्चर्य है कि आज दिन रात्रि में उत्पन्न हुए वृत्तान्त को जाननेवाले सरीखी इस कथावाचक की सरस्वती ( वाग्देवता ) बचनों को प्रेरित कर रही है। इसने मुझे विशेष आनन्दित किया । सेवकों में प्रसिद्धि प्राप्त किया हआ स्वामी का प्रसाद (प्रसन्नता) चिन्तामणि-सरीखा कुछ लाभ उत्पन्न किये विना विधाम नहीं लेता । इसप्रकार विचार कर यशोधर महाराज ने स्पष्ट कहा है 'वसुवर्ष' नामके खजानची ! तुम सुभाषित की वृष्टि करनेवाले इस कथावाचक के लिए पारितोषिक दौ।
वसुवर्ष नामका कोषाध्यक्ष-स्वामी की जैसी आज्ञा है। जब उक्त कोपाध्यक्ष ने उस कथावाचक विद्वान् के लिए पारितोषिक वितरण कर दिया तब चन्द्रमती माता अपने मन में निम्न प्रकार विचार करती है-'आश्चर्य है, आज के दिन ऐसी वार्ताओं में, जो सांसारिक भोगों का तिरस्कार करने में तत्पर हैं, एवं
१. रूपकालंकारः।
२. रूपकालंकारः।
३. रूपकोपमासकारः।
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४८
यशस्तिलफचम्पूकाव्ये पलस्यास्म किपि वैराग्यकारणमभूत् । ममानिच्छन्त्या एव हि पुरणयं महति स्वातम्ध्ये स्थापिता। अतिप्रसक्त स्त्रीपु स्वातन्त्र्यं करपत्रमिव परयुनाधिवाय हृदयं विरमति । कषितं च मे खायोपायनविनियुक्तमा रसायनसिद्धेमर्माहानसिकस्य सुतया प्रियंवनया यथा--अम्बादेवि, तष स्नुषायाः प्रणयपर इव दृश्यते तस्मिन् फुजे- दृष्टिपिमिपाता।' (प्रकाशम् ।। वत्स, कामच लक्ष्मीविलासहसाभिनवसमागमसरस्यान वयसि चतुर्थपुरुषायंप्रार्थनोख्यासु कथामु गत. सृष्णमपि षष्णमिवाय ते प्रतिभाति चेतः। वयनच्छायाप्यन्यर्थच ते वयते। यपुरपि मलिनं कमममिवासीव ते विधायम् । श्वासा अपि होमधुमोगमा इष तयाघरदलं मलिनयन्तो वीर्घतरमापच्छन्ते। लोचने अपि सान्त्रनिनोक
विने शत्रुफुलमिव ले मन्दस्पन्वे । मदारम्भे सामम इव मुहर्महरायासमायासि नम्भितेषु । कर्मणि विनियुक्तस्तुरग इव न स्थिरस्तिष्ठसि चासने । राजा--(स्वगतम् ।) अहो, प्रारम्भ देवस्य महतो खलु कार्यघटनासु तत्परता, मातुश्च मपि संप्रश्नेषु । (प्रकाशम् 1) अम्र, विनापयामि स्वोपनपथमुत्थितं कथयामास । मातापि निशम्यनम्
यातु द्विवरपक्षमदः समीक्षितु प्रतीक्ष्यलक्ष्मीस्त्वमिहोवितास्चिरम् ।
महीं घ रत्नाकरवारिमेखलां समं स्तुषानप्तृजनेन रखतात् ।। ३६ ॥ जो स्त्रीजनों की अनुकूलता को स्वयं विनश्वरता के आरम्भ से गाढ़ है, मेरे पुत्र का यह मन विशेष संलग्न कैसे हो गया? मैं ऐसा सोचती हूँ कि महादेवी के गह में प्राप्त हुए मेरे पुत्र को निश्चय से क्या कोई वैराग्यकारण नहीं हुमा ? अपि तु अवश्य हुआ है। क्योंकि न चाहती हुई ही मेरे पुत्र ( यशोधर । ने इसे विशेष स्वाधीनता में स्थापित कर दिया है। क्योंकि विशेष मात्रा में प्राप्त हुई स्त्रियों की स्वाधीनता, तलवार की धार-सरीखी पति-हृदय को बिना विदीर्ण किए विश्राम नहीं लेती । 'रसायनसिद्धि' नाम के रसोईये की प्रियंवदा नाम को पुत्री ने, जो कि मुझे लाडू-आदि भंट लाने के अधिकार में नियुक्त की गई है, मुतसे कहा थायथा-है माता ! आपकी पुत्रवधू ( अमृतमति महादेवी ) को दृष्टि उस प्रसिद्ध 'अष्टवत' नामके निकृष्ट महा स्नेह करने में तत्पर हई-सरीखी देखी जाती है।' फिर चन्द्रमती माता ने मुझसे स्पष्ट कहा-हे पुत्र! इस युवावस्था में, जो कि लक्ष्मी-भोग रूपी हंस के नवीन समागम में सरोवर-सी भी है, मोक्ष पुरुषार्थ को आकाङ्क्षा का उत्थान करनेवाली धर्म-कथाओं में, अभिलाषा-रहित हुआ भी तेरा मन, इस समय तृष्णायुक्त-सरोखा किस प्रकार प्रतिभासित हो रहा है ? हे पुत्र! तेरी मुख-कान्ति भी दूसरी-सरीखी ( म्लान) दिखाई देती है। तरा शरीर भी मलिन वामल-जंसा विशेष कान्ति-हीन दृष्टिगोचर हो रहा है । तेरे श्वांस भी होम संबंधी धुएँ को उत्पत्ति-सरोखे तेरे ओण्ठदलों को मलिन करते हुए विस्तृत रूप से निकल रहे हैं। है पुत्र ! वेरे दोनों नेत्र भी विशेष निद्रा की अधिकता से आच्छादित हुए शत्रुसमूह-सरीखे मन्द स्पन्द ( ईषच्चलन) युक्त हैं । अर्थात्-जिसप्रकार तेरा शत्रु समूह मन्दस्पन्द (अल्पव्यापार ) युक्त है। हे पुत्र! तुम बार-बार
भाई लेने में मद के आरम्भ में हाथो-जैसे कष्ट प्राप्त कर रहे हो । हे पुत्र ! तुम गमनादि क्रिया में अधिकृत होते हुए सिंहासन पर घोड़े-सरीखे निश्चल होकर नहीं बैठते । फिर यशोधर महाराज अपने मन में निम्न प्रकार विचार करते हैं-'आश्चर्य है देव ( पुराकृत कर्म ) को निस्सन्देह प्रारम्भ में कार्य करने में विशेष एकापता है
और माता की मेरे विषय में शिष्टतापूर्ण अनुसन्धान करने में विशेष एकाग्रता है।' इसके बाद यशोधर महाराज ने स्पष्ट निवेदन किया-हे माता ! "विज्ञापित करता हूँ। ऐसा कहते हुए उसने अपने द्वारा कल्पना किये हुए मागंवाला स्वप्न में प्राप्त हुआ वृत्तान्त कहा । माता ने भी स्वप्न में प्राप्त हुए वृत्तान्त को सुनकर सर्वरूप से रक्षा करने के लिए निष्ठीबन । थूक ) सम्बन्धी विन्दुओं को भय सहित व कम्पित हृदय पूर्वक एवं दयालुता के उदय-सहित नाना प्रकार से क्षरण करके निम्नप्रकार मुझे समझाया।
हे पुत्र ! यह दुःस्वप्न शत्रुपक्ष पर गिरे। पूज्य राज्यलक्ष्मीवाले आप, इस भूमण्डल पर दोघंकाल
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चतुर्थं मारवासः
इति समयं सोई गहुवयं सानुकम्पोषयं व समन्ताद्ब्रह्मविप्रुधो विकिरन्तो मामेवमघत्--- पुत्र एवंशास्त्रेषु सङ्गविवम्पोऽपि कथं श्वमद्याचारान्य इवावभाससे । करे हि नाम सचेतमः स्वप्नेषु भक्तमुपलभ्य गोणि प्रसारयति । afe च नियमेन सत्फला भवन्ति स्वप्नास्तहि हतमेतदायकस्य त्रियामायां मन्दमठिकावलोकनाचा मन्त्रित महोपतेदपाख्यानम् । प्राणिनो हानिलानल पोनसान्तरिताः स्वप्नावस्थायामर्थजातं भूतपूर्वं मधूसपूर्ण वा निरीक्षन्ते । कथितवती वाव में पथि सहाच्यम्तीयं तव पानी दुहिता वसन्तिका, यथा-आर्याणि प्रभावशेषायां निशि स्वप्ने किलाह यत्रारिव संवृतास्मि । भुक्ता च मन्मातुः श्रामन्त्रितं भूरिति ।
निष्कपटक राज्यांभवं प्रवृद्धाभनिवेशावहिताश्व भूपाः ।
दिशो दशैतास्तव कामितानि यच्छन्ति चिन्तामणिभिः समानाः || ३७ ॥
अनि पूर्वभवताजितानि त्यागाय भोगाय वसूनि सन्ति । इद्राविषेयश्च विलासिनीनामयं गणस्तेऽप्सरसां सदृद्धः ॥ ३८ ॥ निष्कारणं सर्वमिदं विहाय त्वं केन कामेन सपो हि कुर्याः । स्वर्गापवर्गामिवं न सम्यग्दृष्टादष्टं खल गरीयः ।। ३९ ।। अयातया कोऽपि न वर्तते ते तत्रोत्सृज कोषविषं न दोषः । भयेन कि विसपिणीनां कन्यां स्यजन्कोर्णप निरीक्षितोऽस्ति ।। ४० ।।
पर्यन्त उदय प्राप्त करें और बघू व पोते वर्ग के साथ समुद्रजल मर्यादावाली इस पृथिवी का प्रतिपालन करें ।' ।। ३६ ।।
हे पुत्र ! समस्त शास्त्रों में विद्वानों की सङ्गति से विचक्षण होते हुए भी तुम इस समय मूर्ख या क्रियामूढ़-सरोखे किस प्रकार प्रतीत होते हो ? निश्चय से कौन चतुर पुरुष स्वन में धान्य प्राप्त करके [ उसे भरने हेतु ] गोणी ( बोरा या थैला) धारण करता है ? अपि तु कोई नहीं करता । यदि स्वप्न नियम से सत्य फलवाले होते हैं तो आचार्य की, जिसने रात्रि में स्वप्न में लड्डुओंों से भरी हुई छात्रशाला को देखने से राजा को परिवार सहित निमन्त्रित किया था, यह जगत्प्रसिद्ध नष्ट दृष्टान्त कथा [ सच्ची ] समझनी चाहिए। अतः प्राणी वात पित्त व कफ सहित होते हुए स्वप्नावसर में पूर्व में उत्पन्न हुए या पूर्व में नहीं उत्पन्न हुए वस्तु समूह को देखते हैं। इस समय में ही मेरे मार्ग में साथ आती हुई इस तुम्हारी धाय की पुत्री बसन्तिका नामवाली ने मुझ से निम्न प्रकार कहा था—यथा - 'हे स्वामिनि । पश्चिम रात्रि के प्रान्तभाग में निश्चय से में स्वप्न में यवागू- सरीखी हुई । अर्थात् मैंने स्वप्न में विशेष मात्रा में यवागू ( पतले भात ) देखे । और जिन्हें, मेरी माता के श्राद्ध में निमन्त्रित किये हुए ब्राह्मणों ने भक्षण किये १
हे पुत्र । मह राज्य, क्षुद्र शत्रुओं से रहित होता हुआ वृद्धिगल हुआ है व यह सामन्त वर्ग (अधीनस्थ नृप समूह) आपका आशावर्ती हुआ सावघान है। ये दश दिशाएं चिन्तामणि- सरीखों आपके लिए अभिलषित वस्तु देती हैं ||३७|| ये धनादि लक्ष्मियां, जिन्हें आपने पूर्वजों ( यशोवन्बु व यशोर्घ राजा) से उपार्जित की हैं, दान तथा भोग निमित्त वर्तमान हैं एवं रम्भा, तिलोत्तमा, मेनका और उवंशो आदि अप्सराओं-सरीखी यह कामिनियों की श्रेणी आपकी इच्छानुसार प्रवृत्ति करती हुई विनयशील है | |३८|| हे पुत्र ! तुम इस समस्त पुर्वोच राज्यादि वैभव को निष्प्रयोजन छोड़कर निश्चय से किस अभिलापा से तपश्चरण करते हो ? यह तपश्चरण स्वर्ग व मोक्ष निमित्त नहीं है । हे पुत्र ! क्या प्रत्यक्ष फल से परीक्ष फल निश्चय से विशेष महान् होता है ? अपि तु नहीं होता ||३९|| हे राजन् ! यदि कोई पुरुष तुम्हारी आज्ञानुसार प्रवृत्ति नहीं करता तो
१. समुच्चयालंकारः । २. मेण समुच्चयालंकारः काक्षेपश्च ।
७
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यथास्तिलकचम्पूकाव्ये दुःस्वप्मशता तव चेवथास्ति सस्वः समस्तः कुलदेवताय ।
कृस्या बलि शान्तिपोष्टिकार्थ पश्चात् लिस्वप्नविषि विहि ॥४१॥ मव मनागपिकमलौकिक वा। तथाहि
मधुप च यज्ञे च पितृदबाप्तकर्मणि । अव पशवो हिस्या मान्यत्रेत्याधीन्मनुः ॥ ४२ ।।
एष्यर्थेषु पयान्हिसम्वेदनेवार्थसिद्धिजः । आत्मानं च पश्चैिव गमयत्युसमा गतिम् ॥ ४३ ।। सया बेभ्यात्मक्षयोधमशेषविघ्नोपशमनायं च राजसूयपुण्डरीकाश्वमेवगोतववाजपेयाविषु वषिकामेष्टिकारीरित्यारिषु च यशेषु प्रवृत्तोऽये प्राणिवधः स वयो न भवति । यतः ।
यज्ञार्थ पशवः पृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा । यज्ञो हि भूत्यै सर्वेषां तस्मारने वषोऽवषः ।। ४४ ॥
इति । राजा--(कणी पिघाय निःश्वस्य च : ) कि नु खल्ल न करोति वेहिनामयं मोहबन्धः, तस्य प्रसवउस पर क्रोघरूपी जहर छोड़ो, क्योंकि ऐसा करने में कोई दोष नहीं है । है राजन् ! क्या खटमलों के भय से कन्या ( शीत-निवारण वस्त्र-गोदड़ी ) को छोड़ता हुआ कोई भी पुरुष देखा गया है ? अपि तु नहीं देखा गया १४०।।' हे पुत्र! यदि आपको दुष्ट स्वप्न का भय है तो कुलदेवता के लिए समस्त प्राणिवर्गों की बलि ( पात ) करके लाट में हट स्पप्न का ऐमा शमा निधान कगे, जिसमें शान्ति देनेवाला कर्म और शारीरिक पुष्टि निमित्त कम इन दोनों का प्रयोजन वर्तमान है ॥४१।।
हे पुत्र ! यह कुलदेवता के लिए प्राणियों का बलि विधान सदा से प्रचलित हुआ चला आ रहा है और लोक-प्रसिद्ध है। तथाहि यशोधर को माता निम्न प्रकार से उक्त बात का समर्थन करती है-मनु नाम के ऋषि ने कहा है कि निम्नलिखित चार स्थानों में ही पशु-बध करने योग्य हैं, अन्यत्र अर्थात्- भक्षण, व शारीरिक पुष्टि-आदि के निमित्त पश-बध करने योग्य नहीं है। मधुपर्क ( अतिथि सत्कार के अवसर पर अर्थात्-ब्राह्मण के गृहपर यदि ब्राह्मण अतिथि आता है, उस समय उसके चरण प्रक्षालित करके उनपर दही, मथु व पी छोड़े जाते हैं एवं बड़ा बैल व बड़ा बकरा मारकर उसे व अन्य ब्राह्मणों को खिलाया जाता है एवं चन्दन व पुष्प माला से उस अतिथि की पूजा की जाती है, इसे 'मधुपर्क' काहते हैं) २-यामकर्म ( अश्व. मेध-आदि यज्ञ), ३-पितृकर्म ( श्राद्ध कर्म ) एवं ४–रुद्र-आदि की पूजा विधान के अवसर पर ॥४२॥ वेदपाठ व वेद के अर्थ को जाननेवाला इन पूर्वक्ति चार कार्यों में पशुओं का घात करता हुआ अपनी आत्मा व पशुओं को उत्तममति ( स्वर्ग-आदि ) में प्राप्त कराता है ॥४३॥
शास्त्र में मात्मा के पुण्य-निमित्त व समस्त विघ्नों के बिनाशार्थ निम्न प्रकार के यज्ञों में किया हुआ प्राणि-वध, प्राणि-बध ( जीव हिंसा ) नहीं है। राजसूय, पुण्डरीक, अश्वमेघ, गोसब ब वाजपेय-इत्यादि अन्य भी यज्ञों के भेद हैं। एवं वार्षिकामेष्टि ( यज्ञ विशेष ) व कारी। क्योंकि ब्रह्मा ने स्वयं ही यज्ञ-निमित्त पशुओं की सृष्टि की है। निश्चय से यज्ञ समस्त याचक, आचार्य व मजमानादिकों के ऐश्वर्य हेतु है, इसलिए यज्ञ-निमित्त को हुई प्राणि हिंसा हिसा नहीं है [४४|| उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज ने श्रोत्रों को बन्द करके व श्वांस-ग्रहण करके निम्न प्रकार कहा-'प्राणियों का यह मोहबन्ध (रागादि ) व उसका उत्पत्ति स्थान अनान-सम्बन्ध भी क्या-क्या अनर्थ नहीं करता ? कैसे हैं यशोधर महाराज? जिसका मन निर्दय
१. दृष्टान्ताक्षेपालंकारः। २. जातिमात्रालंकारः । ३. जातिरलंकारः । ४. समुच्चयालंकारः ।
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पतुर्थ आश्वासः धमिरज्ञानसंबन्धश्चेति, कर्कशोदकवितर्फकर्करसंपातस्तिमितचेताः क्षणमात्रमितिकर्तव्यताविमूढममाश्रीता इव मूत्वेदमवाचौल--प्रसोदाम्ब । ववामि किचिदहम्, यदि तत्र भवती मयि तुष्युत्रापवावपरागं न विकिरति । माता-पुत्र, मैवं ममि शरिष्का। प्रतिष्ठस्त्र ग्यायनिष्ठुरतया गोष्ठोसौष्ठवेषु । न खलु केवलमहं प्रसवधर्मिणी, कि तु भवपितुः प्रसाबारसकालव्यवहारवेदिनी च। यद्येयं युक्त एवं पूर्वपक्षः । यस्मात् 'न धर्माचरेत्, एष्यस्फतरवारसंशयितत्वाच्च । को छबालिशो हस्तगतं पावगतं कुर्यात् । बरमद्यफपोतः श्वोमयूरात् । वरं सांशपिकान्निएकादशियिकः कापिगः' हति महामस्तु लोके लोकायसिकलोशकोलाहलः । स धात्मनो गाविमरणपयस्ततामा सुघट एव । राजा
सस्यं न धर्मः किमते यदि स्पावगर्भावसामान्तर एवं जीवः । म चंवम् । जाति-मराणामथ रक्षसां न वृष्टेः परं कि न समस्ति लोके (लोसः') ॥ ४५ ॥ उत्तर फल के विचाररूपी पाषाण के पतन से निश्चल है और जिसकी चित्त-संगति अल्पकाल तक कत्तंव्यनिश्चय में विमूढ़-सी है।
हे माता! प्रसन्न होइए । मैं कुछ कहता हूँ, यदि उस वचन के कहने पर आप मेरे ऊपर कुपुत्र संबंधी निन्दारूप धूलि नहीं फेंकतों। इसके बाद यशोधर की माता कहा---हे पुष! तुम मुझ से इस प्रकार का भय मत करो। हे पुत्र । मेरी वार्ता-प्रारम्भ की प्रतिभा-शीलता में न्याय-निष्ठुरता पूर्वक पूर्वपमा करो। हे पुत्र! निश्चय से में केवल तुम्हें जन्म देनेवाली ही नहीं हूँ किन्तु आपके पिता की करुणा से समस्त व्यवहार को जाननेवाली है। अतः हे पुत्र ! मेरा पूर्वपक्ष करना उचित ही है, अतः ग्रशोधर की माता उसो वार्ता का प्रारम्भ करती है-जिस कारण हे पुत्र ! लोक में निश्चय से निम्न प्रकार नास्तिक दर्शन विशेषरूप से है-यथा 'घों का आचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि धर्माचरण में भविष्यकालीन फल है। वर्तमान काल में धर्माचरण का फल दृष्टि गोचर नहीं होता। इतना ही नहीं, अपि तु-धर्माचरण नहीं करना चाहिए, क्योंकि संशयित्वात् । अर्थात्- यह नहीं जाना जाता कि धर्माचरण से फल मिलेगा? अथवा नहीं मिलेगा? इस प्रकार का सन्देह होने के कारण भी धर्माचरण नहीं करना चाहिए अब उक्त विषय को दृष्टान्त से दृढ़ करते हैं।
निश्चय से कौन विद्वान् पुरुष हस्तगत सुवर्ण-आदि वस्तु को पादगत करेगा? अर्थात्-दोनों पैरों से ग्रहण करेगा? अभिप्राय यह है कि हाथ निकटवर्ती हैं और पैर तो दूरवर्ती हैं, अतः जिस प्रकार निकटवर्ती हायों में प्राप्त हुई सुवर्ण-आदि वस्तु को विज्ञान दूरवर्ती पेरों से धारण नहीं करता उसीप्रकार प्रत्यक्ष फलवाले कामिनी-आदि भोग ही ग्रहण करना चाहिए और अदृष्ट-परांश-फलवाले धर्म का आचरण छोड़ देना चाहिए । कल प्रातःकाल प्राप्त होने वाले मयुर की अपेक्षा आज प्राप्त होनेवाला कबूतर श्रेष्ठ है। यद्यपि मयुर में मांस अधिक है और कबूतर में अल्प है तथापि भविष्य में प्राप्त होनेवाले विशेष मांसशाली मयूर को अपेक्षा आज वर्तमान में प्राप्त होनेवाला अल्प मांस-यूक्त कबूतर ही शोर है। अर्थात्-उसी प्रकार भविष्य में स्वर्गादि विशेष फलशाली धर्म की अपेक्षा वर्तमान में अल्प फलवाली जवानी व कमनीय कामिनी-आदि उपभोग वस्तुएं हो श्रेष्ठ हैं । सन्देह-युक्त २१६ तोला परिमाणवाले सुवर्ण सिक्के या सुवर्णमयी हृदय-भूषण ( हार ) की अपेक्षा रत्तीभर तोल का निश्चित सुवर्ण श्रेष्ठ है । जब आत्मा गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त हो है तब वह नास्तिक दर्शन युक्ति-युक्त ही है । फिर यशोधर महाराज ने कहा
हे माता ! तेरा वचन सत्य है परन्तु यदि जीव ( आत्मा ) गर्भ व मरण के मध्यवर्ती ही होता १. 'पर: किन समस्ति लोकः' ह. लि. ( क ) प्रती पाठः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
स्वयं कृतं जन्तुषु कर्म नो चेत्समः समस्तः खलु किन लोकः । भूतात्मकं चित्तमिदं च मिथ्या स्वरूपभेदात्पवनावतीव ॥ ४६ ॥ एवं चेदमपि संगच्छते
यदुपचितमन्यजन्मनि शुभाशुभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्ययति शास्त्रमेतसमास प्रयाणि दीप इव ॥ ४७ ॥
नवं ययश्वास्तरास्तरुण्यो रम्याणि हम्र्याणि शिवरः प्रियश्च ।
एतानि संसारतरोः फलानि स्वयं: परोऽस्तीति मृषच वार्ता ॥ ४८ ॥ dreaषां पुनरेक एव स्वर्याय यन्नास्ति जगत्युपायः । तत्संभवे तत्त्वविधां परं स्यात्खेवाय देहस्य तपः प्रयासः ।। ४९ ।।
सब धर्म नहीं किया जाता परन्तु यह बात नहीं है । अर्थात् — जीव गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही नहीं है । अब उक्त बात को आक्षेप ( दृष्टान्त ) द्वारा समर्थन करते हैं - निश्चय से क्या लोक में जाति स्मरणवाले पुरुष दृष्टिगोचर नहीं होते ? अर्थात् - यदि जीव, गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त ही होता तब जाति स्मरणवाला पुरुष क्यों इसप्रकार कहता है । 'में पूर्व जन्म में इसप्रकार ( अमुक कुल में अमुक रूप से उत्पन्न होनेवाला ) हुआ था ।' अथवा पाठान्तर में जब जाति स्मरणवाले पुरुष दृष्टिगोचर हो रहे हैं तब क्या परलोक | पूर्वजन्म ) नहीं है ? एवं क्या निश्चय से लोक में राक्षस ( व्यन्तर ) दृष्टिगोचर नहीं होते ? अर्थात् - किसी का पिताआदि भरकर राक्षस हुआ श्मशान भूमि में जन्म धारण करता हुआ सुना जाता है । यदि गर्भ से लेकर मरण-पर्यन्त ही जीव होता तब व्यन्तर किस प्रकार हुआ ? अथवा पाठान्तर में जब पुरुष मरकर राक्षस हुए सुने जाते हैं तब क्या परलोक - (भविष्यजन्म) नहीं है ? अपितु अवश्य है । सारांश यह है उक्त राक्षसों के दृष्टान्त से भविष्य जन्म सिद्ध हुआ समझना चाहिए ||४५ || यदि प्राणियों का स्वयं उपार्जित किया हुआ पुण्य च पापकर्म नहीं है तो निश्चय से समस्त लोक समान ( सदृद्दा ) क्यों नहीं होता ? अर्थात् — फिर राजा किङ्कर, गुरु, शिष्य, धनाढ्य व दरिद्र इत्यादि भेद किसप्रकार संभव होगा ? 'यह आत्मा पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चारों भूतों से निष्पन्न है' इसप्रकार को नास्तिक दर्शन की मान्यता मिथ्या है, क्योंकि इनमें स्वरूप- मेद वर्तमान है। अर्थात् — विज्ञान, सुख व दुःख-आदि गुणवान् जीव है और भूत ( पृथिवी, जल, अग्नि व बायु } अचेतन (जड़) होने के कारण जीवद्रव्य से भिन्न है। उदाहरणार्थ - जिसप्रकार वायु और पृथिवी द्रव्य स्वरूप भेद के कारण भिन्न-भिन्न हैं । अर्थात् – वायु चञ्चल स्वभाव-युक्त व पृथिवी स्थिर स्वभाववालो है | उसीप्रकार आत्मा चेतन ज्ञानादिगुणवान् है और पृथिवी आदि भूत अचेतन होते हुए वारण-आदि गुणसंयुक्त हैं ||४६ ॥
जब इसप्रकार उक्त भेद सिद्ध है तभी निम्नप्रकार आर्याच्छन्द जन्मपत्रिका के आरम्भ में लिखा जाता है - इस जीन ने पूर्व जन्म में जो पुण्य-पाप कर्म उपार्जित किये हैं, भविष्य जन्म में उस कर्म के उदय को यह ज्योतिशास्त्र उसप्रकार प्रकट करता है जिसप्रकार दीपक अन्धकार में वर्तमान घटपटादि वस्तुओं को प्रकट ( प्रकाशित ) करता है। अर्थात् - जब पूर्वजन्म का सद्भाव है तभी ज्योतिःशास्त्र उत्तर जन्म के स्वरूप को प्रकट करता है। इससे जाना जाता है कि गर्भ से लेकर मरणपर्यन्त ही जीव नहीं है, अपितु गर्भ से पूर्व व मरण के बाद भी है | १४७/१ पुनः यशोधर महाराज ने कहा- नवीन यौवन, विशेष सुन्दर युवतियाँ, मनोज महल और विशेष शुभ घनादि लक्ष्मिय, ये संसाररूपी वृक्ष के फल हैं। 'स्वर्ग भिन्न है' यह बात मिथ्या है, किन्तु यौवन, स्त्री व धनादि सुख सामग्री ही स्वर्ग है ॥४८॥ परन्तु इस यौवन, स्त्रीव धनादि सुख सामग्री में एक ही ( महान् ) दोष है, क्योंकि संसार में यौवन, स्त्री व चनादि सुख का कारण
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चतुर्थ आश्वासः बालस्म मायान्न तपोषिकारो युवा तपस्येवि तत्र वः । कुटुम्बभाराधिकृतश्च मध्यो वृक्षः पुनर्वृविहाय एव ।।५०॥ परोपरोधाश्यमेवमात्मा मिथ्याग्रहास्तमनःप्रतानः । स्वयं विजामन्नपि देवदूतैराकृष्य मोयेत भवभ्रमाय ॥५१॥
चरमोऽपि पक्षः श्रेयानेव । द्विषा खलु प्राणिनामापदो भवन्ति-संभवत्मतीकारा, कालकृमावताराश्च । तत्राधानामुपशमनाय प्रतिस्वप्नविधिः श्रेयःसंनिषेरेव रणाजिरेषु राजव्यम्मनग्याजेन विषद्विपपराणाममयिषवर्षस्य प्रसीकार इन । मध्यमस्तु पक्षोऽतीच मध्यमः।
अहोरानं यथा हेतुः प्रकाशघ्यान्सजन्मनि । तपा महीपतिहेतुः पुण्यपापप्रवर्तने ।। ५२॥ उक्त च रानि धमिपि भामाठाः पापे पापाः समे समाः। राजानमनवर्तन्ते यथा राजा तथा प्रजाः ।। ५३ ।।
इति । भूतसंरक्षण हि क्षत्रियाणां महान् धर्मः। स च निरपराधप्राणियों नितरां निराकुतः स्यात् । नृपतिप्रतिष्ठानि च खल देहिनां व्यवहारतन्त्राणि प्रवर्तन्ते । नृपल्यायताः पुण्यपापहेतवो वर्णाश्रमाणामाचारव्यवस्थाश्च । ते स्थिर नहीं है, किन्तु यौवन-आदि सब क्षणिक ही हैं। यदि मे यौवन-आदि स्थिर होते तो तत्त्वज्ञानियों का तपश्चर्या-प्रयास केवल शारीरिक खेद-निमित्त होता ॥४९||
हे माता ! शिशु को दोक्षा-ग्रहण का अधिकार नहीं है, क्योंकि उसकी प्रकृति हिताहित के विवेक से शून्य होती है। यदि जवान पुरुष तपश्चर्या करे तो उस तपश्चर्या करने में प्रायश्चित्त है, अथवा शरीरदण्डन का कष्ट होता है । इसीप्रकार अर्द्धवृद्ध पुरुष तो कुटुम्ब की उदर-पूर्ति करता है। वृद्ध पुरुप दीर्घकाल में उदर-पूर्ति करता है ॥५०॥ यह जीव माता-पिता-आदि के अनुरोध से असत्य पिशाच-ग्रह से ग्रहण किये हुए मानसिक व्यापारवाला होता है । अतः स्वर्ग विशेष जानता हा भी यमराज के किङ्करों द्वारा खोंचकर संसार-भ्रमण के लिए ले जाया जाता है ॥५१॥ हे माता । यद्यपि धरम पक्ष (शान्तिक पौष्टिक लक्षणवाला अखीर का कथन ) शुभ ही है, परन्तु प्राणिहिसा के कारण कल्याण-कारक नहीं है। निश्चन से प्राणियों की विपत्तियाँ दो प्रकार की होती हैं, १-संभवत्प्रतीकार ( जिनके दूर होने का उपाय हो सकता है ) एवं २यमराज द्वारा उत्पन्न होनेवाली मृत्यु । उन दोनों विपत्तियों के मध्य पहिलो संभवत्प्रतीकारवाली आपत्तियों के उपशमन के लिए स्वप्नशमन-विधान पुण्याचरण से ही होता है, जो कि ( स्वप्न-मन-विधान ), संग्रामाङ्गणों पर राज-चिह्नों के मिप से शवसपों के क्रोधरूप बिष-वर्षग की प्रतिक्रिया ( दूर करने का उपाय-विद्याधरऔषधि, मन्यजल व हवनादि ) सरोखा है। मध्यमपक्ष 'द्रास्वाप्नशङ्का' इत्यादि सो जोवहिंसा के कारण नि:कृष्ट है । जिसप्रकार प्रकाश को उत्पत्ति में दिन कारण है और अन्धकार को उत्पत्ति में रात्रि निमित्त है उसीप्रकार पुण्य-पाप की प्रवृत्ति में राजा कारण है ॥५२॥ अर्थशास्त्रकार 'चाणक्य ने कहा है राजा के धर्मात्मा होने पर प्रजा धर्मात्मा होतो है और राजा के पापी होनेपर प्रजा भी पापी हो जाती है एवं राजा के मध्यस्थ होने पर प्रजा भी मध्यस्थ हो जाती है। प्रजा के लोग राजा का अनुसरण करते हैं। जैसा राजा होता है, प्रजा मी वैसी होती है ।।५३|| हे माता निश्चय से प्राणियों की रक्षा ( प्रतिपालन ), क्षत्रिय राजकुमारों का श्रेष्ठ धर्म है, वह धर्म, निषि प्राणियों के घात करने से विशेष रूप से नष्ट हो जाता है । निश्चय से प्राणियों के व्यवहार शास्त्र राजा के अधीन हैं। प्राणियों के पुण्य व पाप के कारण तथा चार वर्णों ( ब्राह्मणादि ) व चार आश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) के आचरण व मर्यादाएँ भी राजाधीन प्रवृत्त होती है। वे राजालोग काम, क्रोष
१. जात्यलंकारः।
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५४
यशस्तिलकचम्मूकाव्ये च नपतयः कामक्रोषाभ्यामज्ञानेन वा पर्थव शुभमशभं धा कमरिमन्ते तयेव जानपदा अपि । श्रूयते हि-बङ्गीमण्डले नपतिदोषान्भूदेवेवासवोपयोगा, पारसीकेषु स्वसवित्रीसंपोगः, सिंहलेषु च विश्वामित्रसृष्टिप्रयोग इति । ततश्च । यथैव पुण्यस्य मुकर्मभाजा पष्ठांशभागी नृपतिः सुवृतः । तथैव पापस्य कुकर्ममाजा षष्ठांशभागी नुपतिः कुवृत्तः ॥ ५४ ।।
अपि । यः शास्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्याद्यः कण्टको वा निजमण्डलस्य ।
अस्त्राणि तत्रैव भूपाः क्षिपन्ति न बीनकानीनशुभाशयेषु ॥ ५५ ॥ तन्मातः, अहमैहिकामुधिकरिमानपत्रपस्तेषु प्राणिषु कथं नाम अस्त्रं प्रमोजयामि । कि घ । न कुर्वीत स्वयं हिंसा प्रवृत्ती च निवारयेत् । जीवितं अलमारोग्यं वद्वान्महीपतिः ।। ५६ ॥ यो दद्यात्काञ्चनं मे कृत्स्ना चापि वसुंधराम् । एकस्य जीवितं दद्यात्फलेन म समं भवेत् ॥ ५७ ॥ पथात्मनि शरीरस्य दुःखं नेच्छन्ति जन्तवः । तथा यदि परस्यापि न दुःखं तेषु जायते ।। ५८ ॥
इति लोकत्रयं गतवत्येव विने हिरण्यगर्भस्य मन्त्रिणः सुतेन नीतिगृहस्पतिना मामष्यापितवती भवरमेव । कथं नाम विस्मृता । विधेयमेव चाशुभमपि कर्म । को दोषो पति हन्यमानस्येवात्मनो न भवेयुः सुलम्यान्यापति विम्भितानि। व अज्ञान से जिसप्रकार पुण्य या पाप आरम्भ करते हैं उसीप्रकार प्रजाजन भी आरम्भ कर देते हैं । उक्त बात का समर्थन दृष्टान्त-माला द्वारा करते हैं-निश्चय से सुना जाता है कि रत्मपुर नाम के नगर में राजा के दोष ( मद्यपान ) से ब्राह्मणों में मद्यपान की प्रवृत्ति हुई एवं राजा के दोष से राश्वान देशों में अपनी माता के साथ संयोग प्रवृत्त हुआ । राजा के दोष से सिंहल देशों में वर्ण-सङ्करता प्रवृत्त हुई सुनी जाती है। अत:
जिसप्रकार सदाचारी राजा पुण्यकर्म करनेवाले लोगों के पुण्य के छठे अंश का भोगनेवाला होता है उसीप्रकार दुराचारी राजा पापी लोगों के पार के छठे अंश का भोगनेवाला होता है ॥५४॥ तथा च । ओ शत्रु युद्धभूमि पर शस्त्र धारण किये हुए है अथवा जो अपने देश का कांटा है, अर्थात्---जो अपने देश पर आक्रमण करने को उद्यत है, उसी शत्रु पर राजा लोग शस्त्र प्रहार करते हैं, न कि दुर्बल, प्रजा पर उपद्रव-आदि न करनेवाले और साधुजनों के ऊपर शस्त्र प्रहार करते हैं ||५५।। अतः हे माता! में इस लोक व परलोक के आचरण में निर्लज्ज होता हुआ किसप्रकार उन दोन-आदि निरपराध प्राणियों पर खड्ग-आदि शस्त्र चलाऊँ ?
हे माता ! में और कुछ विशेष कहता हूँ
राजा दीर्घायु, शारीरिक सामर्थ्य व निरोगता की निरन्तर अभिलाषा करता हुमा स्वयं प्राणियों का घात न करे और दूसरों द्वारा किये हुए प्राणिघात को रोके ॥५६॥ जो पुरुष सुमेरु पर्वत प्रमाण सुवर्णदान करता है और समस्त पृथिवी का दान करता है। एवं जो एक जीव के लिए अभयदान ( रक्षा ) देता है, वह पुरुष फल से समान नहीं है। अर्थात्-उसे दोनों दानों की अपेक्षा अभय दान ( जीवन-दान ) का विशेष फल प्राप्त होगा ॥५७|| जिसप्रकार प्राणी, अपने शरीर के लिए दुःख देना नहीं चाहते उसीप्रकार यदि दूसरे प्राणी को दुःख देना नहीं चाहें तो उन प्राणियों को दुःख उत्पन्न नहीं होता ।१५८। हे माता ! उक्त तीनों एलोक, कल आपने ही हिरण्यगर्भ नाम के मन्त्री के पुत्र 'नोतिबृहस्पति' से मुझे पढ़ाये थे | हे माता ! तुम उक्त श्लोकों का किसप्रकार से भूल गई? जब पापकर्म करना चाहिए, उसमें क्या दोष है? यदि पाते जानेवाले प्राणी की तरह अपनी आत्मा को आपत्तियों के सुलभ व व्यापार-युक्त विस्तार न होवें। अर्थात्-जब धाते जानेवाले प्राणी को तरह धातक पुरुष को विशेष दुःख भोगने पड़ते हैं तब हिंसादि पातक क्यों करना चाहिए? जब ब्राह्मणों व देवताओं के सन्तुष्ट करने के लिए एवं शारीरिक पुष्टि के लिए संसार में प्राणिहिंसा को छोड़कर
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चतुर्थ आश्वासः सन्तर्पणाथ द्विजदेवतानां पुष्टचर्यमङ्गस्य च सन्त्युषायाः । अन्येऽपि लोफे बहवः प्रशस्ताः सन्तः कुतः पापमिहापरन्ति ॥५५॥
शुत्रशोणितसंभूसमशुचीनां निकेतनम् । मांसं चत्प्रीण येद्देवानेत व्याघ्रानुपास्महे ।। ६० ।।
मिथ्या चायं प्रपादः पशूपहारेण वेवतास्तुष्यन्तीति । हताः कुपाणेन बनेऽपि जन्तवो बाडं नियम्से गलपोडनाच्च । अवन्ति चतास्वयमेव देव्यो व्याघ्राः स्सवाहाः परमात्र सन्तु ॥६॥ कृत्वा मिषं देवमयं हि लोको मये च मांसे घ रति करोति । एवं न चेषदुर्गतिसंगतिः स्माष्कर्मणां कोऽपर एव मार्गः ॥६॥
यदि च हिसैव परमार्थ तो भवति धर्मः कथं तहि मृगयापाः पापपिरिति रूतिः, मांसस्य च पिषायानयनम्, सत्संस्कर्तुंगहावहिर्वासः, रावणशाक इति नामान्तरण्यपवेषः, पर्ववियप्तेषु वर्णन च
यान्ति पारोमाणि पशुगात्रेषु भारत । तावद्वर्षसहभागि पच्यन्ते पशुपातकाः ।। ६३ ॥
इति कमियं पौराणिको श्रुतिः । दूसरे भी बहुत से प्रास्त उपाय हैं तब हे माता! सज्जन पुरुष इस लोक में किस कारण से हिंसादि पापकर्म करते हैं ? ॥५॥ हे माता! मांस, जो कि शुक्र ( वीर्य ) व शोणित ( रुधिर ) से उत्पन्न हुआ है एवं विष्ठादि का स्थान है, यदि देवताओं को सन्तुष्ट करता है, तो आप लोग आइए, हम व्यानों ( चीता या वाघों) की उपासना करते हैं, क्योंकि वे भी मांस से सन्तुष्ट होते हैं ॥६०11
'पशुओं को बलि करने से देवता सन्तुष्ट होते हैं। यह कथन असत्य है । हे माता ! पशु-आदि प्राणी वन व नगर में तलवार से मारे हुए विशेषरूप से मरते हैं एवं गला-मरोड़ने से भी मरते हैं। कुलदेवता-आदि इन मरे हुए पशुओं का स्वयं मक्षपा करते हैं। अर्थात्--जब ये हम लोगों से दान-ग्रहण करने में कुछ अपेक्षा करते हैं तब तो निश्चय से इस संसार में व्यान हो स्तुति करने योग्य होवें, क्योंकि व्याघ्रादि हिंसक जन्तु तो पशुबों को मारकर स्वयं भक्षण करते हैं और देवता तो हम लोगों को प्रेरित करके मरण कराकर बाद में खाते हैं, अतः देवता स्तुति-योग्य नहीं है ।।६१।। यह पापी मनुष्य, निश्चय से देवसा का बहाना करके मद्यपान व मांस भक्षण में अनुराग करता है। यदि इस प्रकार का देवता का बहाना न होता तो पापियों को दूसरा कौन सा दुर्गति ( नरकादिगति ) का मार्ग होता? क्योंकि यहीं तो-देवता का मिष हो–पापियों का दुर्गतिमार्ग है ।।६।।
हे माता! यदि प्राणियों का वध करना ही निश्चय से धर्म है तो शिकार की 'पापधि' नाम से प्रसिद्धि क्यों है ? और मांस को 'पिधायआनयन' ( ढक करके लाने लायक ) नाम से प्रसिद्धि किस प्रकार से है ? एवं मांस पकानेवाले का 'गृहाबहिर्वास' ( घर से बाहिर निवास करना), तथा मांस का 'रावण शाक' इस प्रकार का दूसरा नाम-कथन किस प्रकार से है ? एवं अष्टमी, चतुर्दशी, अमावस्या व एकादशी-आदि पर्व दिनों में मांस का त्याग किस प्रकार से है ?
हे युधिष्ठिर महाराज ! जितने पशुओं के रोग पशु-शरीरों में वर्तमान हैं उतने हजारों वर्ष पर्यन्त पशुघातक नरका में पकते हैं ॥६।। इस प्रकार की यह महाभारत शास्त्र की श्रुति किस प्रकार से है ? प्राणों के घात से निवृत्त होता, अर्थात् समस्त प्राणियों की रक्षा करना, दूसरों के धन का अपहरण करने का जोवन पर्यन्त नियम करना, मिथ्या भाषण का त्याग, अर्थात्-हित, मित व प्रिय वचन बोलना, मुनियों या दूसरे अतिथियों को आहार-वेला में अपनी शक्ति के अनुसार दान देना, पर पुरुषों की युवतिजनों से मौन भाव, अर्थात्-दूसरे को स्त्रियों को प्रशंसा न करना-परस्त्रियों के प्रति मातृ-भगिनी-माव एवं लोभरूपी जल
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्राणाधाताग्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं काले शक्या प्रवेयं युवतिजनकथामूकभाषः परेषाम् । सृष्णास्त्रोतोविन्धो गुरुषु च विनतिः सर्वभूतानुकम्पा सामान्यं सर्वशास्त्रेष्यनुपहविधिः श्रेयसामेष मार्गः ॥६४॥ इति कयमेतत्सर्वपथौनमुवाच वररुचिः।
होमस्नानतपोजाप्यानह्मचर्मादयो गुणाः । पति हिसारते पार्थ चाण्डालसरसोसमाः ॥६५॥ इति कमि व्यासोक्तिः ।
भूषितोऽपि चरेवमं यत्र तत्राथमे रसः । तमः सर्वेषु भूतेषु न लिग धर्मकारणम् ॥६६॥ इति कमिदमाह वैवस्वतो मनुः ।
अवक्षेपेण हि सतामसतां प्रग्रहेण च । तया सत्त्वेष्वभिटोहावधर्मस्य - कारणात् ॥६७॥ विमाननाच्च मान्यानां विश्वस्तानां च धातनात् । प्रजानां जायते लोपो मपतेश्चायुषः क्षयः ॥१८॥ कमियमभाषत पाण्यप्रस्तावे भारद्वाजः।
चातुर्मास्यग्घर्षमासिकम, दर्शपौर्णमासयोश्चातूरात्रिकम्, राजनक्षत्रे गुरुपर्वणि च प्रेरानिकम, एवमन्यासु घोपहतामु सिथिधु विराममेकरा था सर्वेषामघातं घोषयेबायुबलबद्ध पर्यमिति कयमुपनिषति वदति स्म विशालाक्षः । प्रवाह का बांधना-अर्थात्-परिग्रह का परिमाण करना, गुरुजनों के लिए नमस्कार करना एवं समस्त प्राणियों के प्रति दयालुता, यह सर्वसाधारण सर्वशास्त्रों में पुण्यों का मार्ग है, जिसे कोई उल्लङ्घन नहीं करता ॥६४|| वररुचि-कात्यायन नाम के विद्वान् ने यह सर्वसाधारण कल्याण का मार्ग किस प्रकार कहा?
हे अर्जुन ! होम, स्नान, सांतपन आदि तप करना, मन्त्रों का जाप करना, ब्रह्मचर्य-आदि गुण, हिंसक पुरुष में वर्तमान हुए चाण्डाल के तालाब के अल-सरीखे अग्राह्य है ॥६५।। इस प्रकार का यह व्यास-बचन किस प्रकार से है ? समस्त प्राणियों में समता ( दयालुता परिणाम रखता हुआ गृहस्थ भी जिस किसी आश्रम ( ब्रह्मचर्य-आदि ) में रत हुआ धर्म का अनुष्ठान करे, जटी व मृण्डो-आदि चिह्न धर्म का कारण नहीं है ।।६६॥ इस प्रकार यह सूर्यपुत्र मनु ने किस प्रकार कहा? निश्चय से शिष्ट पुरुषों का तिरस्कार करने से, दुष्ट पुरुषों के स्वीकार ( आदर ) करने से, प्राणियों का घात करने से, पान के प्रयोजन से, माननीय ( पूज्य ) पुरुषों का भङ्ग करने से, एवं विश्वस्त पुरुषों का घात करने से प्रजाजनों का विनाश होता है और राजा को आयु क्षीण ( नष्ट होती है ।।६७-६८11 यह वचन पाड्गुण्य (सन्धि व विग्रह-आदि) के अवसर पर भारद्वाज नाम के ब्राह्मण विज्ञान ने किस प्रकार कहा?
'राजा का कर्तव्य है कि यह आयु व शक्ति की वृद्धि के लिए वर्षा काल में पन्द्रह दिन तक समस्त प्राणियों के घात न करने की घोपणा करे । तथा वर्षा ऋतु में अमावस्या व पूर्णमासो के समय चार दिन तफ, अर्थात् वर्षा ऋतु सम्बन्धी दो अमावास्या व दो पूर्णमासी इस प्रकार चार दिन तक, समस्त प्राणियों के वध न करने की घोषणा करे। इसी प्रकार राज नक्षत्र ( जिस नक्षत्र में राजा का जन्म हुआ है) में तथा संक्रान्ति आदि गुरुपर्व में तीन दिन तक समस्त प्राणियों को हिंसा न करने की घोषणा करे। इसी प्रकार दूसरी उपहत (ग्रहण-आदि से पित्त ) तिथियों में दो दिन तक अथवा एक ही दिन समस्त प्राणियों के पास न करने की घोषणा करे।' इस प्रकार वेदान्त शास्त्र में विशालाक्ष ( प्रभाकर ऋषि) ने किस प्रकार कहा? 'मधु व मांसआदि का आहार शिष्ट पुरुषों द्वारा निन्दित हैं। इस प्रकार शिकार करने की जीविका में आनन्द माननेवाले
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चतुसादास आहार; साघुमन विनिन्वितो मधुमासाविरिति कर्य चे मृगयोपयोगानन्दं शबरन्य निन्दितावादिधाणेन ।
माता--(स्वगलम् ।) अहो, मघीये सुते सांप्रतं जनजनवात इव लग्नः प्रतिभासते । विषमवच स्खल भवस्वयं माना, यस्माविरं समयान्तरोपरचितप्रतीकाराग्यप्यन्येषां मनांसि प्रायेण पश्यतोहर इष हरत्याहंतो लोकः । तवासनावासितं हि चेतो न ब्राह्मणापि शक्यतेऽन्ययाफर्तम् । बुश्चिकित्स्यश्व खलु करिणा कूटपाफल इस प्राणिनां क्षपणकोपमोसश्चित्तस्याभिनिवेशः। कथितं च मेऽपरेखुरेव शिवभूतेः पुरोहित स्थात्मजेन शिवशर्मणा, यथा-अम्बावेषि, राजान भ्रमणिकायो गतस्तरमूलनिवासिनमवाससमिन्द्राचितभरणनामधयमवासीत् । तदर्शननिधारणे च कृशकापेयमपि मामवमत्म तेन सह महतो बेलामिति प्रश्नोत्तरपरम्पराप्रवृत्तमुवन्तमकार्षोत्
को भगवनिह धर्मा यन्त्र बया भूप सर्वसरवानाम् । नो नामाप्तो यत्र हि न सन्ति सांसारिका दोषाः ।। ६९ ॥
भीलों के समूह की निन्दा करते हुए 'चाण' नाम के महाकवि ने यह किस प्रकार कहा ? फिर यशोधर महाराज की माता ( चन्द्रमति ) अपने मन में निम्न प्रकार चिन्तवन करती है आश्चर्य है कि इस समय मेरे पुत्र में जैन लोगों को वासना संगत हुई सरीखी प्रतिभासित होती है। निश्चय से यह जनलोक असाध्य होता है। क्योंकि यह चौर-
सखा दुसरों के वित्तों को, जिनके प्रतीकार (प्रतिक्रिया या चिकित्सा) दूसरे शास्त्रों से रचे गए हैं, अर्थात्-जिनकी वासना दूसरे शास्त्रों से रची गई है, प्रायः करके हरण कर लेता है । अर्थात्उनमें अपनी वासना लगा देता है ( अपने धर्म में ले आता है)। जन लोक की भावना से वासित हुए मन को ब्रह्मा भी अन्यथा करने को समर्थ नहीं है। दिगम्बर मनि द्वारा प्राप्त कराया गया प्राणियों के मन का अभिप्राय, उस प्रकार चिकित्सा करने के अयोग्य है अथवा प्रतीकार करने के अयोग्य है जिस प्रकार हाथियों का कूटपाकल ( सद्यः प्राणहर ज्वर ) चिकित्सा करने के अयोग्य होता है। परसों शिवभूति पुरोहित के पुत्र शिवशर्मा ने मुझ से कहा था। है माता! वन क्रीडाथं गए हुए यशोधर महाराज ने आज वृक्ष की मूल में बैठे हुए 'इन्दाचितचरण' नाम में दिगम्बर मुनि को देखा। उन्होंने उसके साथ गोप्ठी निवारण में चञ्चलता करनेवाले मुझे तिरस्कृत कारके उस मुनि के साथ विशेष समय तक इसप्रकार का वार्तालाप किया, जो प्रश्न-परम्परा व उत्तर-परम्परा में प्रवृत्त हुआ था, अर्थात्-मेरे राजा सा० ( यशोधर महाराज ) ने प्रश्न-परम्परा को और प्रस्तुत मुनि ने उत्तर-परम्परा दी।
अब यशोधर महाराज व उक्त 'इन्द्राचितचरण' नामके मुनि के मध्य हुई प्रश्नोत्तरमाला का निरूपण करते हैं
राजा है भगवन् ! इस संसार में धर्म का क्या स्वरूप है ? ऋषि-हे राजन् ! जिस धर्म में समस्त प्राणियों की दया है, उसे धर्म कहते हैं। राजा-हे ऋषिराज ! आम' ( ईश्वर ) का क्या स्वरूपा है ?
ऋषि-हे राजन् ! जिसमें क्षुधा व पिपासा-आदि संसार में होनेवाले अठारह दोष नहीं हैं वही आम है ॥६॥
राजा–आप्त के जानने का क्या उपाय है ? ऋषि-हे राजन् ! पूर्वापर के विरोध से रहित निर्दोष शास्त्र हो आप्त के जानने का उपाय है। राजा हे भगवन् ! तपश्चर्या-दीक्षा--का क्या स्वरूप है ?
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पंढ
यशस्तिलकचम्पूका
ज्ञाने कः शाहि
F
विनिग्रो यत्र ॥ ७० ॥ भवति ।। ७१ ॥ नमसः ॥ ७२
कर्म
जीवः को यत्रते भवन्ति बुद्धघावयः स्वसंवेद्याः । तस्यामूर्तस्य सतः शरीरबन्धः स्वकुतः कर्मभिरेष प्रयति जीवः शरीरबन्धं वा । वातेरितः परागं भवति यथा संगमो तैरेव गर्भवासेल नीयते निजफलोपभोगार्थम् । अशुचिनि मवनत्रयेनिपात्यते श्रोत्रियो अस्मादृशां स धर्मः कथं तु निजशक्तितो व्रतग्रहणात् । किं व्रतमिह वाद्वाया यो वर्शनपूर्वको कि दर्शनार्या श्रद्धा युक्तितः पवार्येषु के पुनरमी पदार्था मेरेतद्वर्तते जगन् ।। ७५ ।।
यद्वत् ॥ ७२ ॥ नियमः ॥ ७४ ॥
ऋषि-हे राजन् ! जिसमें विषयों ( स्पर्श, रस, गन्ध, रूप व शब्द ) की संगति का त्याग है, उसे - दीक्षा कहते हैं ॥७०॥
तप
राजा - हे ऋषिराज ! आत्मा (जीव ) का क्या स्वरूप है ?
ऋषि-हे राजन् ! जिसमें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होने योग्य बुद्धि, सुख व दुःख-आदि गुण पाये जाते हैं, उसे जोब ( आत्मा ) कहते हैं ।
राजा - हे भगवन् ! जब आत्मा अमूर्तिक है तो उसके साथ मूर्तिक शरीर का बन्ध किस प्रकार से हुआ ? ॥७१॥
ऋषि हे राजन् ! स्वयं अपने द्वारा उपार्जन किये हुए कर्मों द्वारा यह जीव वैसा पारीर के साथ बन्ध को प्राप्त होता है जैसे वायु द्वारा प्रेरित हुई धूलियों से आकाश का संगम होता है ||७२|| और उन्हीं कर्मों के द्वारा गर्भवास ( सम्मूच्र्छन, गर्भ व उपपाद लक्षणवाले जन्म स्थान ) में अपने पुण्य-पाप लक्षण वाले कर्मों के सुख-दुःख रूप फलों के भोगने के लिए लाया जाता है— जिसप्रकार चारों वेदों का पढ़नेवाला ब्राह्मण विद्वान्, धतूरा व मादक कोदों द्वारा विष्ठा में पटका जाता है ||७३ ||
राजा - हे भगवन् ! यह पूर्व में कहा हुआ समस्त जीवों में दया लक्षणवाला धर्म हम सरीखे गृहस्य पुरुषों को किसप्रकार से प्राप्त होता है ?
ऋषि - हे राजन् ! अपनी शक्ति के अनुसार अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचयं व परिग्रह त्याग आदि व्रतों के पालन करने से उक्त धर्म प्राप्त होता है ।
राजा - हे भगवन् ! इस संसार में व्रत क्या है ?
ऋषि - हे राजन् ! सम्यग्दर्शन ( तत्व श्रद्धा ) पूर्वक इच्छाओं के निरोच ( रोकने ) को व्रत कहते हैं ||७४||
राजा - हे ऋषिवर ! सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?
ऋषि -- हे राजन् ! तत्वों ( जीव, अजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष) को तर्कशास्त्र के अनुसार यथार्थ श्रद्धा को सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
राजा - हे भगवन् ! वे श्रद्धा के योग्य तत्व ( पदार्थ ) कौन है ?
ऋपि राजन् ! जिन जीव, नजीब, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा व मोक्ष आदि पदार्थों से यह तीन लोक व्याप्त हैं, वे ही पदार्थ है" ॥७५॥
१. प्रश्नोत्तराचंकारः ।
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चतुर्थं आश्वास
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तत्प्रभुति न साभिलायं सेवते मधूनि न मांसमभिनन्दति नाटकमनुमन्यते न ह्यकव्यामालभते पशून्, षुतिस्मृतिवाक्येषु च प्रतिकूलतया प्रयच्रपुराणीति । ( प्रकाशम् । मुक्तोष्ठतया प्रसायं समीपवर्तिनः । )
देसम पुत्रस्य तन्त्रस्य व सर्वस्ववादिनः प्रजानां चलवालुवा: निशाचराः किमस्मपुत्र wari नाशयितुं युक्तः । ननु सदाहं तिवारयामि भवतः यत्रुतापमद्याप्यपरिपक्वबुद्धिः उपलीफर्वदग्ध्यात्म समारोपितपि मन्यभावः श्रीविलासरसवासनासंगात मुकुमारप्रकृतिदत्तन्वहित इव प्रसिद्धेष्वपि वस्तु विस्मयोस्फुल्ललोचनविद्यमानगलवाहितकारिणोऽपि जनस्य मुग्धतयातीवमुखनिरीक्षण कुतुहली कदाचिदपि जगन्मोहनाम्यस्तकोशलेरिखजाल फेरिव विगचर्न संगमयितव्य इति कोपसकम्पां वाचमुच्चारयन्ती तर्जयित्वा च मनाम्भूक्षेपेण मामू- अहो असंजातबुद्धिपरिपाक चार्वाक, समाकर्णय । ज्ञातः खलु भवतोऽभिप्रायः ।
तत्राहमेव समर्था धातुमुत्तरमित्यभिप्रेत्येवमवादीत्
न तर्पणं देवपितृद्विजानां स्वानस्य होमस्य न चास्ति वार्ता ।
धुतेः स्मृतेर्वासरेच बीस्ते धर्मे कथं पुत्र दिगम्बराणाम् ॥ ७६ ॥
शिवभूति पुरोहित के पुत्र शिवशर्मा ने कहा- हे माता ! तभी से यशोधर महाराज मधु आदि को रुचि - पूर्वक सेवन नहीं करते, न मांस की प्रशंसा करते हैं और न शिकार को अनुमोदना करते हैं एवं देव व पितृ कार्य में पशु हिंसा नहीं करते और वेद व स्मृति शास्त्र के वचनों में पराङ्मुखतापूर्वक उत्तर देते हैं। उक्त को सुनकर चन्द्रमति माता निकटवर्ती सेवक जनों की ओर [ क्रोध-वंश ] मोष्ट दीर्घ करके उन्हें उलाहना देती हुई प्रकट रूप से निम्नप्रकार कहती है- मेरे पुत्र व सैन्य का समस्त धन भक्षण करनेवाले एवं प्रजा से घूस लेनेवाले अरे पिशाचो ! क्या मेरा पुत्र ( यशोधर ) आपको इसप्रकार के दिगम्बरों का संगम कराकर विनाश करने योग्य है ? निश्चय से में सदा आप लोगों को निषेध करती हूँ कि हमारा पुत्र अब भी परिपक्व बुद्धिवाला नहीं है एवं जिसने झंदी विद्वत्ता द्वारा अपनी आत्मा में अपने को पण्डित मानने का अभिप्राय आरोपित किया है और लक्ष्मी की क्रीड़ा सम्बन्धी भोगानुराग की वासना द्वारा जिसको सुकुमार प्रकृति उत्पन्न हुई हैं एवं जो प्रसिद्ध पदार्थों में भी वैसा आश्चर्य से नेत्रों को प्रफुल्लित करनेवाला है जैसे चन्द्रग्रहिल (जी गर्भिणी स्त्री चन्द्रग्रहण होने पर खुली जगह शयन करती है उसका पुत्र चन्द्रग्रहिल होता है ) बालक विख्यात पदार्थों में भी आश्चर्य से नेत्रों को प्रफुल्लित करने का विनोद करनेवाला होता है । एवं जो मूर्खता से बेसा बहितकारी मनुष्य का भी विशेष रूप से मुख-निरीक्षण करने का विनोद करनेवाला है जैसे कण्ठविदारण किया जानेवाला बकरा मूर्खता से अहितकारी जन ( घातक - कसाई ) का विशेष रूप से मुख निरीक्षण का विनोद करनेवाला होता है। ऐसा हमारा पुत्र, वन दिगम्बरों के साथ कदापि संगम कराने योग्य नहीं हैं, जो कि इन्द्रजालियों सरीखं जगत को वशीकरण करने में ! प्रवीणता का अभ्यास किये हुए हैं।' इसप्रकार क्रोध से कम्पन-युक्त बाणो उच्चारण करती हुई मेरी माता चन्द्रमति ने कुछ भृकुटि शेप द्वारा मेरा अनादर करके मुझसे कहा - अहो बुद्धि परिपाक को उत्पत्ति से शून्य व नास्तिक मतानुयायी यशोधर ! सुन । निश्चय से मैंने आपका अभिप्राय जान लिया । में ही उस विषय में उत्तर देने में समर्थ हूँ, ऐसा निश्चय करके उसने मुझसे निम्न प्रकार कहा
हे पुत्र ! इन दिगम्बरों के धर्म में देवतर्पण, पितृतर्पण व ब्राह्मणतर्पण नहीं है एवं स्नान व होम की बात भी नहीं है। ये लोग वेद व स्मृति ( धर्म शास्त्र ) ले विशेष रूप से वाह्य हैं, ऐसे दिगम्बरों के धर्म में तुम्हारी बुद्धि किसप्रकार प्रवृत्त हो रही है ? ॥७६॥ जो दिगम्बर साधु ऊपर खड़े हुए पशु-सरीखे आहार
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
उद्धरः पशूनां सशं प्रसन्ते ये लज्जमा शीलगुणेन होना: । त्वत्तः परस्तेः सह कोहि गोष्ठों करोतु देवजनिन्वपच ॥७७॥१ नामापि पूर्व न समस्त्यभोषामभूत्कलौ दर्शनमेतदीयम् । देवो मनुष्यः किल सोऽप्यनेकस्त एवमिच्छन्ति च निविचारम् ॥७८॥ धर्म प्रमाणं खल वेद एव वेदापरं मत्र नास्ति । यो वेव सभ्य न हि वेबमेनं वर्णाश्रमाधारमसी न वेद ।। ७६ ॥ हरे रे नाकरं का नयन्ति रुष्टाः स्वपु क्षणेन तुष्टाः प्रवन्ति च राज्यमेते ॥ ८० ॥ राजा - (स्वगतम् ।) अहो, निसर्गाबङ्गारमलिने हि मनसि न भवति खलु सुष्वासंबन्धोऽपि शुद्धये । यतः ।
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अन्तर्न विज्ञाय मुषानुरागिता स्वभावदुष्टाशयता विमूखता । युक्तोपदेशे च विगृह्य वादिता भवन्त्यमी तत्त्वविदहेतवः ॥ ८९ ॥
अपि च यः कार्यवादेषु करोति संघ स्वपक्षहानौ च भवेद्विलक्ष्यः । तत्र स्वयं सामपरेण भाव्यं केनाप्युपायेन फलं हि साध्यम् ॥ ८२ ॥
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इयं हि तावज्जननी मदीया राज्यस्य साक्षादधिदेवता व सवं तदस्या घटते विधातुं प्रभुयंवेवेच्छति तत्करोति ॥ ८३ ॥ ( प्रकाशम् । ) अज्ञानभाषावथ श्रापनाद्वा कारुण्यतो शधिगतावकाशः । पूर्व स्वयंवाहितगुणं बुवे यदि शन्तुमतास्त्वमन् ॥ ८४ ॥
करते हैं। जो निर्लज्ज तथा शौचगुण से हीन हैं। उन दिगम्बरों के साथ, जो हरि (विष्णु), हर ब्रह्माआदि देवताओं तथा ब्राह्मणों की निन्दा करनेवाले हैं, तुमको छोड़कर दूसरा कोन पुरुष स्पष्ट रूप से गोष्टी (वार्ता ) करता है ? ॥७७॥ है पुत्र | दन दिगम्बरों का पूर्व में ( कृतयुग, त्रेता व द्वापर आदि) में नाम भी नहीं है । केवल कलिकाल में ही इनका दर्शन हुआ है । इनके मत निश्चय से मनुष्य हो देव ( ईश्वर ) हो जाता है एवं वह ईश्वर भी बहुसंख्या-युक्त ( चोबीस ) है । वे दिगम्बर ही इसप्रकार विचारशून्य बातको मानते हैं ||७८|| हे पुत्र ! धर्म के विषय में निश्चय से वेद हो प्रमाण है। वेद को छोड़कर संसार में देव नहीं है । अर्थात् वेद ही देवता है। जो पुरुष भली प्रकार इस वेद को नहीं जानता, वह चारों वर्गों (ब्राह्मणादि ) तथा चारों आश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) के आचार को नहीं जानता ॥ ७९ || हे पुत्र ! यदि तुम्हारी देवताओं में भक्ति है श्री महादेव अथवा लक्ष्मीकान्त अथवा श्री सूर्य देवता की पूजा करो। क्योंकि ये देवता कुपित हुए मृत्यु प्राप्त करते हैं व सन्तुष्ट हुए राज्य देते हैं ||८०||
उक्त बात सुनकर यशोधर महाराज अपने मन में विचारते हैं
अहो आत्मन् ! निश्चय से स्वभाव से अङ्गार-सरीखे मलिन मन को अमृत से प्रक्षालन भी शुद्धिनिमित्त नहीं होता। क्योंकि ये निम्न प्रकार चार पदार्थ तत्वज्ञान के निषेध के कारण है । चित्तवृत्ति न जान करके वृथा स्नेह करना, स्वभाव से दुष्ट हृदयता, अज्ञानता व युक्त उपदेश में बलात्कार से वाद विवाद करना ||८१|| जो पुरुष कर्तव्य- विचारों में प्रतिज्ञा करता है । अर्थात् —'यदि ऐसा नहीं होगा तो में अपनी जीभ काट लूँगा' इत्यादि प्रतिज्ञा करता है । एवं जो अपने पक्ष के निग्रह स्थान ( पराजय ) होने पर व्याकुलित या लज्जित हो जाता है उस पुरुष के प्रति मृदुभाषी होना चाहिए, क्योंकि स्पष्ट है कि किसी भी उपाय से कर्तव्य सिद्ध करना चाहिए ||८२|| यह चन्द्रमती निश्चय से मेरी हितकारिणी माता है और इतना ही नहीं, अपितु राज्य की अविष्ठात्री भी है । अतः इसको मेरे विषय में सभी कार्य ( राज्य से निकालना - आदि) करने का अधिकार प्राप्त है । क्योंकि स्वामी जो चाहता है, वही करता है अर्थात् — प्रकरण में माता जो चाहेंगी वही होगा ॥ ८३ ॥
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चतुर्थ आश्वासः पुत्रस्य पित्रानुवरस्य भर्ना शिष्यस्य वादो गुरुणा च सायम् । सुशिक्षितस्यापि सुमेधसोऽपि न श्रेयसे स्याविह नाप्यमुत्र ॥४५॥ धवाभिषेकार्चनवन्दनानि जपप्रसंख्याश्रुतपूजनानि । यथा स लोकः कुरुते सयाम्ब प्रष्टव्य एवेष जनो भवत्या ।। ८६ ॥ मत्र्येषु घेत्सद्मसु नाकिनां वा विधाय पुण्यं पितरः प्रयाताः । तेषामपेक्षा तिजकाकभुक्तः पिपरभवेवर्षकृतनं कापि ।। ८७ ॥ गत्यन्तरे जन्मकृतां पितृणां स्वकर्मपाकेन पुराफुलेन । तत्रापि कि तनं घ इष्टमेतत्तप्तिः परेषा परपिणोति ॥ ८८ ॥ पेनापि केनापि मिषेण मान्यधर्मो विषेयः स्वहितंकसानैः । अनेन कामेन कृतः पुराणर्मार्योऽयमात्माम्मुदयप्रवीणः ।। ८९ ॥
निनिमित्त म कोऽपीह जनः प्रायेण धर्मधोः । अतः धाडारिकाः प्रोक्ताः क्रियाः कुशलबुद्धिभिः ॥ १० ॥
कि छ पर्वतोतिथिश्राद्धवारदासरतारकाः । नित्यं दातुमशक्ताना पुण्यायोक्ताः पुरातनः ॥ ९१ ।। जन्मेकमारमाधिगमो द्वितीयं भवेन्मुनोना व्रतकर्मणा च । अमी द्विजाः साषु भवन्ति तेषो संतपणं जनजन: करोति ।। ९२ ॥ द्वयेन मार्गेण जगत्प्रवृत्त गृहस्पवृत्त्या पलिकर्मणा च । तस्य यस्यापि विभिन्नसृष्टेः शीतोष्णवन्नकतया प्रवृत्तिः ॥१३॥
अब यशोधर महाराज स्पष्ट कहते हैं-है माता ! अवसर प्राप्त किया हुआ में यदि अज्ञानता से अथवा चञ्चलता से अथवा दयालुता से अथवा पूर्व में आपके द्वारा स्थापित किये हुए गुणों के कारण अपना पक्ष स्थापन करू तो आपका हृदय क्षमा करने योग्य होवे ।।८४॥ हे माता ! पुत्र का पिता के साथ, सेवक का स्वामी के साथ एवं शिष्य का गुरु के साथ वाद विवाद करना इस लोक व परलोक में कल्याणकारक नहीं है, चाहे वह ( पुत्र-आदि ) कितना ही सुशिक्षित ( विद्वान् ) व प्रशस्त बुद्धिशाली भी हो ॥८५॥ है माता! वह प्रशस्त आहेत ( जेन ) लोक, जिसप्रकार से देवरलपन, पूजन, स्तवन, मन्त्र-जाप. ध्यान व श्रत पूजा करता है उसीप्रकार से आप इससे पूछ सकती हैं, मैं क्या कहूं ॥८६॥ हे माता! जब पूर्वज लोग पूण्य कर्म करके यदि मनुष्यजन्मों में अथवा स्वर्ग लोकों में प्राप्त हो चुके तब उन्हें उन श्राद्धपिण्डों की कोई भी अपेक्षा नहीं होनी चाहिए, जो कि ब्राह्मण व काकों द्वारा भक्षण किये गये हैं एवं जो एक वर्ष में किये गए हैं॥८॥ हे माता! पूर्वजन्म में उपार्जन किये हुए अपने कर्मों के उदय से दूसरी गति (स्वर्गादि ) में जन्म धारण करनेवाले पूर्वजनों की दूसरी गति ( स्वर्गादि ) में भी उन पूर्वजनों ने क्या यह नहीं देखा ? अथवा नहीं जाना? कि 'बाह्मणादि का तर्पण पिताओं ( पूर्वजनों को तृप्त करनेवाला है। क्योंकि वे भो श्राद्ध-आदि नहीं करते और न बेसी प्रवृत्ति करते हैं ।।८८।। हे माता ! 'आत्म-हित में श्रद्धा रखनेवाले सत्पुरुषों को, जिस किसी भी बहाने से धर्म ( दान-पुण्यादि ) करना चाहिए इस इच्छा से अपनी आत्मा की सुख-प्राप्ति करने में विचाक्षण चिरन्तन पुरुषों ने यह श्राद्ध लक्षणवाला मार्ग किया है ।।८९|| हे माता ! इस संसार में कोई भी पुरुष, निष्कारण प्रायः धर्म में बुद्धि रखनेवाला नहीं होता, इसलिए चतुर-बुद्धिशाली विद्वानों ने श्राद्ध-आदि क्रियाएँ कही हैं ॥१०॥
पूर्वाचार्यों ने निम्न प्रकार के अवसर सदा दान करने में असमर्थ पुरुषों के पुण्य निमित्त कहे हैंपर्व ( अमावास्या-आदि), तोर्थ ( गङ्गा-गोदावरी-आदि), अतिथि, श्राद्ध ( पक्ष के मध्य में आहार. दान ), वार ( रविवार-आदि ), वासर ( जिस दिन में पिता-आदि पूर्वजों का स्वर्गवास हुआ है । एवं रोहिणी-आदि नक्षत्र ॥२१|| हे माता ! मुनियों के दो जन्म होते हैं-पहला जन्म उत्पन्न होना ( गर्भ से निकलना ) और दुसरा जन्म दीक्षा कर्म द्वारा । इसलिए ये मुनि लोग यथार्थरूप से द्विज ( दो जन्मवाले-श्राह्मण । हैं। उन मुनिलक्षण-युक्त ब्राह्मणों का सन्तर्पण ( चार प्रकार के दान द्वारा सन्तुष्ट करना ) जैनजन ( आर्हत लोक ) करता है [ अतः हे माता ! आपने कैसे कहा कि जेनों के यहाँ ब्राह्मण-सन्तर्पण नहीं है ] ॥९॥
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૬ર
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये स्नात्वा यजेताप्तमयागमं वा पचवि ध्यानमुपाबरेना । स्नानं भवेदेव गृहाश्चिताना स्वर्गापवर्गागमसंगमाय ॥ ९४।। सरित्सरोपारिविवापिकामु निमज्जनोन्मजनमानमेव । पुण्याय चेत्तहि जलेनराणां स्वर्गः पुरा स्यावितरेषु पश्चात् ।। ९५ ॥ तदाह-रागद्वेषमवोन्मत्ताः स्त्रीणां ये वशतिनः । न ते कालेन शुवधन्ति स्नानात्तोर्थशतरपि ।। ९६ ।।
षट्कर्मकामियान्नशुद्ध होमो भवेद्भूतबलिदच नाम ।
सुपरसः स्वर्गसुविस का बहिगत निलिम्पाः ।। ९७ ।। सत् 'अग्निमुखा वै वेवाः' इत्यस्यायम:-अग्निरिय भासुर मुखं येषां ते तया। चन्द्रमुखी कन्येतिवत्, न पुनरग्निरेब मुखं येषामिति, प्रतीतिविरोधात् । भोमार्थमुक्तधिया नराणां स्नानेन होमेन च नास्ति कार्यम् । गृहस्यथौ न पतेयतेर्वा धर्मो भवेन्नो गहिणः कदाचित् ॥९८।। तदुक्तम्- विमत्सरः कुचेलाङ्गः सर्वदन्तुविजितः । समः सर्वेषु भूतेषु स यनिः परिकीर्तितः ॥ १९ ॥
हे माता! यह मनुष्य लोक दो धर्म-गार्गों से प्रवृत्त हुआ है। गृहस्थों के आचार मार्ग द्वारा और मुनियों के आचार-मार्ग द्वारा । उन दोनों गृहस्य ब मुनिमार्गों की एकरूप से प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि उन दोनों के आचार ( क्रियाएँ) झोत व उष्ण-सरीखे भिन्न-भिन्न हैं । अर्थात् -जिस प्रकार शीत स्पर्श पृथक और उग्ण स्पर्श पृथक् है उसी प्रकार गृहस्थ श्रमं पृथक और मुनि धर्म पृयक है। क्योंकि दोनों के आचार एक सरीखे नहीं हैं |१९३!! गृहस्थ श्रावक को स्नान करके सर्वज्ञ, बोतराग अर्हन्त भगवान् की, अथवा आगम की पूजा करनी चाहिए, अथवा शास्त्रों का अध्ययन या धर्म ध्यान करना चाहिए। इस प्रकार गृहस्थों का जल स्नान स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के संगम के लिए होता ही है। अर्थात्-गृहस्थ धर्मानुष्ठान करने से पूर्व में स्वर्ग जाले हैं, वहाँ से चय करके मनुष्य जन्म धारण करके मुनि धर्म के अनुष्ठान द्वारा मोक्ष प्राप्त करते हैं ।।१४।। हे माता! नदी, तालाव, समुद्र व न्यावड़ी में डुबकी लगाना और निकालना मात्र यदि पुण्य निमित्त है तो मछली-आदि जलचर जीवों को पूर्व में स्वर्ग होना चाहिए और अन्य ब्राह्मणादि को बाद में ॥९५। शास्त्रकारों ने कहा है जो पुरुष राग, द्वेग व मद से उन्मत्त हैं, अर्थात्-खाए हुए. चतुरेन्सरीग्वे हैं एवं जो स्त्रियों में लम्पट हैं, वे सैकड़ों तीर्थों में स्नान करने ने भी चिरकाल में भी शुद्ध नहीं होते ।।२६।। स्तम्भन, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, विद्वेषण और मारण इन छह कमों के लिए अथवा अन्न को पवित्र करने के लिए होम होता है । एवं व्यन्तरों के सन्तुष्ट करने के लिए उनकी पूजा होती है। अमृत मात्र भोजन करने वाले और स्वर्ग-सुम्न के योग्य शरीरवाले देवता क्या अग्नि में आहुति किये हुए पदार्थ का भक्षण करते है ? अपि तु नहीं करते ॥९७|| उस कारण से 'अग्निमुखा वे देवाः' इस वेदवाक्य का यह अर्थ है कि जिनका मुख अग्नि के समान प्रकाशमान है वे देव हैं। 'चन्द्रमुखी कन्येतिवत्' अर्थात्-जिस प्रकार उक्त पद का चन्द्रसरोखे मुखवाली कन्या, यह अर्थ होता है। अर्थात्-इसका यह अर्थ नहीं है कि कन्या का मुख चन्द्र ही है। उसी प्रकार उक घेद बाक्य का यह अर्थ नहीं है कि 'अग्नि ही है मुख जिनका', क्योंकि इस अथ म प्रताति से विरोध है। क्योंकि मुख को प्रतोति दन्त, ओष्ठ, नासिका, नेत्र व श्रोत्रों से होती है, अग्निरूप से नहीं। मोक्षप्राप्ति के लिए प्रयत्नशील बुद्धिवाले मुनियों को स्नान व होम से प्रयोजन नहीं है। तथ्य यह है कि गृहस्थधर्म, मुनि धर्म नहीं है एवं मुनि धर्म कभी भी गृहस्थ का धर्म नहीं हो सकता ॥२८॥ कहा है जो पुरुष मात्सयं ( दूसरों के शुभ में द्वेप करना) से रहित है एवं जिसका शरीर मलिन वस्त्र-सा मलिन है तथा जो समस्त कलह से रहित होता हुआ समस्त प्राणियों में समान बुद्धि रखता है, वह यति { मुनि । कहा गया है ।।२९|| स्नान तीन प्रकार का होता है-जल स्नान, व्रत स्नान और मन्त्र स्नान ! उक्त तीन प्रकार के स्नानों
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चतुर्थ आश्वासः आपस्नान प्रतस्नानं मन्त्रस्नानं तव च । पापस्नान गृहस्यस्य वसमम्प्रेस्तपस्विनः ॥ १० ॥ में स्त्रीभिः संगमी यस्य यः परे ब्रह्मणि स्थितः । तं शुचि सर्वर प्रादूर्मावलं च हताशनम् ॥ १०१ ।।
इति। ऋयः सामान्यथर्वाणि यजूण्यङ्गानि भारत । इतिहासः पुराणं च त्रयीचे सर्यमुच्यते ॥ १०२ ।। देताश्च श्रुतिस्मृतिम्पामतीच पाहोऽधत्वेनाईसमये कार्य नाम ज्योतिषागे वचनमियमुक्तम्---
समग्र शनिना वृष्टः क्षपणः कोपितः पुनः । ततस्तस्य पोसायो तावे परिपूजयेत् ।। १०३ ॥ सांस्यं योगो लोकायतं चान्वीक्षिकी । तस्यां च व्यावस्ति स्यान्नास्तीति नग्नश्रमणक इति वृहस्पतिराखायलस्य पुरस्तं समयं कथं प्रत्यवतस्ये। प्रजापसिसोक्तं च चित्रकर्मणि--
यमणं तललिप्ताङ्ग नभिभित्तिभिर्युतम् । मो लिखेस्स लिखेत्सर्वा पृथ्वोमपि सप्तागराम् ॥ १०४ ।।
में से जल स्नान गृहस्थ का होता है और प्रत व मन्त्रों द्वारा स्नान तपस्वो का होता है ।।१०।। विद्वानों न उस पुरुप को, जिसका स्त्रियों के साथ संगम नहीं है, एवं जो आत्म भावना में लोन हैं, सदा शुचि कहा है एवं वायु तथा अग्नि का सदा पवित्र कहा है ||११|| ऋग्वेद-वाक्य, सामवेद-वाक्य, अथर्वण वेद के मन्त्र, पजुद वाक्य (काण्डी) और निम्न प्रकार वेद की सन्न अङ्ग । शिक्षा, कन्म साकरण, मन्द ज्योतिष व निरुक्त । तथा इतिहास ( महाभारत व रामायण ), पुराण, मोमांसा व न्याय शास्त्र इन १४ विद्यास्थानों को त्रयी विद्या कहते हैं ॥१०॥
___ अब जेमवर्म को प्राचीनता सिद्ध करते हैं-हे माता! आपके कहे अनुसार जन्त्र जेन दर्शन वेद व स्मृति से विशेष बहिर्भूत है एवं अभी कलिकाल से ही उत्पन्न हुआ है तब ज्योतिष शास्त्र में, जो कि वेदाङ्ग है, यह निम्न प्रकार वचन कैसे कहा ? 'जो पुरुष पूर्ण रूप से पानश्चर द्वारा देखा गया है। अर्थात्जो सप्तम स्थान में स्थित हुए शनैश्चर ग्रह द्वारा देखा गया है और जिसने दिगम्बर साधु को कुपित किया है, जिससे जब उसे शनैश्चर ग्रह सम्बन्धी व दिगम्बर मुनि सम्बन्धी पीड़ा (शारीरिक कष्ट ) उपस्थित हुई है, तब उस पीड़ा के निवारण के लिए उसे शनिभक्त व दिगम्बर भक्त होते हुए शनैश्चर व दिगम्बर साधु की ही पूजा करनी चाहिए न कि उक्त पीड़ा के निवारणार्थ अन्य देवता की पूजा करनी चाहिए' ||१०३|| सांख्य, नेयायिक व चार्वाक ( नास्तिक ) दर्शन ये तीनों आन्वीक्षिकी ( अध्यात्मविद्याएँ ) हैं । अर्थात्अध्यात्म विद्या के प्रतिपाइक दर्शन है। एवं उसी आन्वीक्षिकी { अध्यात्म विद्या) में अनेकान्त ( प्रत्येक वस्तु अपने स्वरूपादि चतुष्टय की अपेक्षा सद्रूप ( विद्यमान है और परचतुष्टय की अपेक्षा असद्रूप ( अविद्यमान) है-इत्यादि ) के समर्थक वचन को दिगम्बर साधु कहता है । अर्थात् -- वक्त आन्वीक्षिकी विद्या में जैन-दर्शन भी अन्तर्मत है।' इसप्रकार वृहस्पति ( सुराचार्य) ने इन्द्र के समक्ष उस अनेकान्त-समर्थक जैनदर्शन को कैसे प्रतिपादन किया ? अर्थात्-यदि जैनदर्शन नवीन प्रचलित होता तो वृहस्पति ने इन्द्र के समक्ष उसे आन्वीक्षिकी विद्या में कैसे स्वीकार किया? इसीप्रकार हे माता ! यदि जेन धर्म अभी का चला हुआ होता तो प्रजापति द्वारा कहे हुए चित्रशास्त्र में निम्न प्रकार वचन कैसे कहे गए-जो चित्रकार, करोड़ सूर्य-शरोखे तेजस्वी व नब भित्तियों ( कोट, बंदी-आदि नौ भित्तियों) ने संयुक्त श्रमणतीर्थकर परमदेव को चित्र में लिखता है--चित्रित करता है-.बह असंख्यात समुद्र-सहित पृथिवी को भी चित्र में लिखता है। अर्थात्उसे पृथिवी, पाताल व स्वर्ग लोक को चित्र में चित्रित करने का प्रचुर पुण्य होता है ।।१०४।। इसीप्रकार सूर्यसिद्धान्त में निम्न प्रकार अर्हत्प्रतिमा-सूचक वचन किसप्रकार कहे गये हैं? वे तीर्थङ्कर परमदेव, जो कि
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै आवित्यमते च--
मषबीजाइपुरमथना अष्ट महानातिहाविभवसमुपेताः । ले देवा शताला: शेषा देषा भवन्ति नवतालाः ।। १०५ ॥ बराहमिहरव्याहते प्रतिष्ठाकाण्डे च-विष्णोर्भागवता भयाश्च सवितुर्विप्रा वितुर्वाणो मातगामिति मातुमण्डलभिवः शंभोः समस्मा द्विजः । शाश्याः सर्वहिताय शान्तमनसो भग्ना जिनानां विदुय में देषमुपाश्रिताः स्वविधिना ते तस्य कुणी क्रियाम् ॥ १०६ ।। निमित्ताध्याये च- पपिनी राजहंसाश्च मिन्याश्च सपोधनाः । पं देशमुपसर्पन्ति सुभिक्षं तत्र निविशेत् ॥ १०७ ।।
तथा--उर्व-भारवि-सयभूसि-भसंहरि भतुमेष्ठ-कष्ट-गुणावध-व्यास-भास-वोस-कालिवास-याण - मयूर - नारायण-फुमार-माघ-राजशेखराविमहाकषिकायेषु तत्र तत्रावसरे भरतप्रगौते काश्याध्याये सजनप्रसिद्धेषु तेषु तेवपाल्यानेषु च कथं तद्विषया महतो प्रसिद्धिः। तस्मात् चत्वार एते सहनाः समुद्रा यायव लोके ऋतवोऽपि षट् च । चत्वार एते समयास्तव पद दर्शनानीति वन्ति सन्तः ॥१०८॥
संसार के बीजरूप रागद्वेषों के अङ्कर (मोहनीय कर्म का क्षय करनेवाले हैं एवं जा आठ महाप्रातिहार्य ' रूपों ऐश्वयं में व्याप्त हैं, दश हाथ परिमाणवाल होते हैं, अर्थात्- उनकी प्रतिमा दश हाथ का होनी चाहिए और बाको के हरि च हादि देवता नो हाथ के परिमाणवाले होते हैं । अर्थात उनको प्रतिमाएँ नो हाथ की होनो चाहिए ॥१०॥
इसीप्रकार हे माता! आपके कहे अनुसार यदि दिगम्बर मत जैनदर्शन ) अभी बालिकाल में ही उत्पन्न हुआ है तो 'धराहमिहिर' आचार्य द्वारा कहे हुए 'प्रतिष्ठाध्याय' में निम्न प्रकार के वचन किसप्रकार से उल्लिखित हैं? वेष्णवों को विष्णु को और आदित्योपजीवी ब्राह्मणों को श्री सूर्य को प्रतिष्ठा करनी चाहिए। श्राह्मण, ब्रह्मा को प्रतिष्ठा करना जानते हैं एवं मातृमण्डल वेत्ताओं को सात माताओं को व भस्म सहित ब्राह्मण को गांभु की प्रतिष्ठा करनी चाहिए । बौद्धों को बुद्ध की तथा शान्त मनवाले दिगम्बरों को जिनेन्द्रों को प्रतिष्ठा करना जानना चाहिए । अतः जो गृहस्थ पुरुष जिस देव की सेवा में तत्पर हैं, उन्हें अपनी शास्त्रोक्त विधि से उस देव की प्रतिष्ठा करनी चाहिए ।।१०६||
इशोप्रकार निमित्ताध्याय में निम्नप्रकार के वचन कैसे कहे गए ? कमलिनी, राजहंस एवं निष्परिनही दिगम्बर साधु जिस देश में आते हैं। अर्थात्-कलिनी जिस तालाव-आदि में उत्पन्न होती है एवं राजहंस व दिगम्बर साघु जिस देश में आते हैं, उसमें सुकाल कहना चाहिए ॥१०७॥ उसोप्रकार में उर्व, भारवि, भवभूति, भतृहरि, भतृमेण्ठ, कण्ट, गुणाढ्य, व्यास, भास, बोस, कालिदास, बाण, मयूर, नारायण, कुमार, माघ व रानमेवर-त्रादि महाकवियों के काव्यग्रन्थों में उस उस अवसर पर एवं भरतप्रणीत काव्याध्याय में तथा सबंजन प्रसिद्ध उन उन दष्टान्त कथाओं में किसप्रकार से दिगम्बर सम्बन्धी विशेष प्रसिद्धि वर्तमान है ? उम कारण हे माता ! जिस प्रकार ये चारों समुद्र स्वभाव से उत्पन्न हुए वर्तमान हैं एवं जिस प्रकार लोक में छह ऋतुएं । हिम, शिविर, बसन्त, ग्रीष्म, वर्षा व शरद ) भी वर्तमान में उसी प्रकार ये चार आगम ( जैन, १. अशोक वृक्ष, दिव्यपुष्पवृष्टि, दिव्यध्वनि, चौसठचामर, विमसिहासन, करोड़ सूर्यों से अधिक प्रिय शरोर-तंज,
साईबारह करोड़ दुन्दुभिवाजे और छा । २. सप्तमातृमपटल प्रालाणी, इन्द्राणी, बाराही, भैरवी, चामुण्डा, कर्ण मोटो घ चर्चा |
यश .टी.प्र.११३से संकलित-सम्पादक
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चतुर्थं आश्वासः यावरसमर्थ वपुषद्धतायां पावच पाणिद्वयमेति बन्यम् । सावामुनोनामशने प्रवृत्तिरित्याशयेन स्थितभोजनास्ते ।।१०९॥ बालापकोटायपि यत्र स निष्किचनापं परमं न तिष्ठत् । मुमुक्षवस्ता कथं नु कुपति चुकूलाभिनवल्फलेषु ।।११०॥ शौचं निकाम मुनिपुंगघानां कमण्डलोः संश्रयणात्समस्ति । में चायौ हिनविता मितिमा इस दिन ! १५॥
वन्ति जमास्तमिहाप्तमेते रागावयो या न सन्ति घोषाः ।
___मद्यादिशब्दोऽपि च पत्र पुष्ट: शिष्टः स निन्दोत कथं नु धर्मः ॥११२।। परेषु योगेषु मनीषयान्धः प्रीति वधात्यास्मपरिग्रहेषु । तयामि देवः स यदि प्रसक्तमतग्जगद्देवमयं समस्तम् ।।११३॥ लज्जा न सज्जा कुमालं न शील श्रुतं न पूतं न वरः प्रचारः । मधेन मन्दीकृप्तमानसानां विषेकनाशान्य पिशाचभावः ।।११४॥ आतङ्कशोफामयकेतनस्य जीवस्म दुःखानभवाश्रमस्य । देहस्य को नाम कृतेऽस्य मांसं सचेतनोऽद्याक्षणभङ्गुरस्य ।।११५।। उक्तं च-- तिलसर्पगमानं पो मांसमानाति मानवः । स श्वनान्न निवर्तेत यावच्चन्द्रदिवाकरो ॥११६॥ जैमिनी, शाक्य व शंकर ) और छह दर्शन ( जैन, जेमिनी, माक्य, शङ्कर, सांख्य व चार्वाक दर्शन ) बर्तमान हैं, इस प्रकार सज्जन पुरुप कहते हैं ॥ १०८ ॥ [ हे माता! जो तूने कहा है कि 'उद्धाः पशूनां सदृशं नसन्ते' अर्थात्-दिगम्बर साधु खड़े होकर पशु-सरीखे भोजन करते हैं। उस कद-भालोचना का उत्तर यह है ] कि 'जब तक दिगम्बर साधुओं का शरीर ऊपर खड़े होने में समर्थ है एवं जब तक दोनों हाथ परस्पर में मिलते हैं तभी तक मुनियों को भोजन में प्रवृत्ति होती है इस अभिप्राय से धे खड़े होकर भोजन करनेवाले हैं ।।१०९।। हे माता ! जिस दिगम्बर शासन में जब केश के अग्नभाग को नोंक बराबर भी सूक्ष्म परिग्रह रखने पर उत्कृष्ट निष्परिग्रहता नहीं रह सकती तब उस दिगम्बर शासन में मुमुक्षु साधु लोग दुपट्टा, मृगचर्म व दृटा की छाल रखने में किस प्रकार बुद्धि करेंगे ? ।। ११० ॥
हे माता ! [ जो तूने कहा है कि दिगम्बर साघु 'शोचगुणेन हीनाः' अर्थात्-शौच गुण से होन हैं बह भी मिथ्या है, क्योंकि दिगम्बर मुनिश्रेष्ठ कमण्डलु ग्रहण करते हैं, इससे उनमें विशेष रूप से शौच गुण ( जल द्वारा गुदा-प्रक्षालन ) है, क्योंकि जब अंगुलि सर्प द्वारा हसी जाती है तब अंगुलि ही काटी जाती है, उस समय कोई पुरुष नाक नहीं काटता । अर्थात्---जो अपवित्र अङ्ग है वही जल द्वारा प्रक्षालन किया जाता है ॥१११॥ ये जैन लोग संमार
मार में उसो पुरुष श्रेष्ठ को आR ( ईश्वर ) कहते हैं. जिसमें राम. देष बमोह-आदि १८ दोप नहीं हैं। जिस धर्म में मद्यपान आदि का शब्द सुनना भी भोजन-त्याग के निमित्त है, वह घम विद्वानों द्वारा किस प्रकार निन्दा योग्य हो सकता है। अपि तु नहीं हो सकता ॥११२॥ जो देव, जरासन्ध व कंस आदि शत्रुसम्बन्धों में बुद्धि से क्रोधान्ध है एवं सत्यभामा व रुक्मिणी-आदि स्त्रियों में प्रोति धारण करता है, तथापि वह हरि व हर-आदि देव ( ईश्वर ) है तब तो 'समस्त संसार देवमय है' यह प्रसङ्ग उत्पन्न हुआ समनना चाहिए। अर्थात् जब शत्रुओं से द्वेप करनेवाले व स्त्रियों में अनुग़ग करनेवाले को ईश्वर माना जायगा तव तो सभी ईश्वर हो जायगे विना ईश्वर कोई नहीं होगा ॥११३|| जिन रुद्रादिकों के चित्त, मद्यपान द्वारा जड़ हो चुके हैं, उनको न लज्जा, न इच्छानुसार उद्यम, न निपुणता न ब्रह्मचर्य, न पवित्र शास्त्र ज्ञान और न प्रशस्त प्रवृत्ति ही है [ यदि उनमें उक्त गुण नहीं है तो क्या है ?] प्रत्युत उनमें प्रमाद दोष के कारण पिशाचता ही है ॥११४॥ हे माता! जीव के ऐरो शरीर के लिए, जो कि सद्यः प्राण हर व्याधि, पश्चाताप व सामान्य रोगों का निवास है तथा दुःखों के उदय का स्थान है एवं जो क्षणभङ्गुर है, कौन बुद्धिमान् पुरुष मांस-भक्षण करेगा ? अपि तु नहीं करेगा ।।११५।। शास्त्रकारों ने कहा है कि जो पुरुष तिल व सरसों बराबर मांस भक्षण करता है, वह नरक
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द्यर्शास्तलकचम्पूकाव्यं
बिपि परलोके त्याज्यमेवाशुभं बुषः । यदि न स्यात्ततः किं । स्यावस्ति चेलालिको हसः ।। ११७ ।। मक्षिकागर्भसंभूतकाला डनिपीडनात्। जातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते कानलाकृति ।। ११८ ||
तथा च स्मृतिः
सप्तधामेषु यत्पापमननः भस्मसात्कृते । तस्य तद्भवेत्पापं मघुविन्दुनिषेवणात् ॥ ११९ ॥ यथाजनाकूतमयं प्रवृत्तः परस्परार्थप्रतिकूलवृत्तः । विषौ निषेधेन निश्वयोऽस्ति कथं स वेदो जगतः प्रमाणम् ॥ १२० ॥ तथाहि-- मांसं वेदार्घारितुमिच्छसि आवर। किंतु विधिपूर्वकमारितथ्यम् । तदाह
प्रोक्षितं भक्षमेग्मां ब्राह्मणानां तु काम्यया । यथाविधिनियुक्तस्तु प्राणानामेव चात्यये ॥१२१॥ वायं वा हृयुत्पाद्य परोपहृतमेव च । अर्चयित्वा पितॄन वैवान्यादन्मांसं न दुष्यति ।। १२२ ।। मातरि स्वर वा चेत्प्रवतितुमिच्छसि प्रवर्तस्व । किं तु विधिपूर्वक प्रवतितव्यम् । तवाह — गोसवे
I
चन्द्र-सूर्य पर्यन्त नहीं निकल सकता ॥ ११६ ॥ स्वगं आदि के संदिग्ध ( सन्देह युक्त ) होनेपर भी विद्वानों को - मांस आदि का भक्षणरूप पाप छोड़ना ही चाहिए। यदि स्वर्गादि नहीं है, तो क्या है ? अर्थात् - मांस आदि के त्यागी का कुछ भी अरुचिर ( बुरा ) नहीं होगा, अपि तु अच्छा ही होगा और यदि स्वर्गआदि हैं तब तो चार्वाक ( नास्तिक) खण्डित हो है ॥११७॥ विद्वान् लोग ऐसे मधु (शहद) का किस प्रकार भक्षण करते है ? जोकि शहद की मक्खियों के गर्भ में उत्पन्न हुए मक्खियों के बच्चों के अण्डों के निचोड़ने से उत्पन्न हुआ है एवं जिसकी आकृति जरायुपटल - सरीखी है ॥ ११८|| स्मृति शास्त्र में भी कहा है-सात ग्रामों को अग्नि से जलाने पर जितना पाप लगता है, उतना पाप पुरुष को मधु की बूंद का आस्वा दन करने से लगता है ।। ११९|| वैदिक-समालोचना - हे माता ! यह वेद (ऋग्वेद-आदि), जो कि मनुष्यों की इच्छानुसार प्रकृतिवाला है । अर्थात्-लोक जिसप्रकार से विपयादि सेवन करना चाहता है वेद भी उसी प्रकार से कहता है । एवं परस्पर पूर्वापर के विरोध सहित होता हुआ प्रवृत्ति को प्राप्त हुआ है तथा जिसमें विधि ( कर्तव्य ) व निषेध का निश्चय नहीं है, संसार को प्रमाणभूत किस प्रकार से हो सकता है ? ॥१२०॥ अब वेद सम्बन्धी उक्त बात का समर्थन किया जाता है-यदि मांस भक्षण करना चाहते हो तो उसका भक्षण करो किन्तु वेद में कही हुई विधि से भक्षण करना चाहिए।
मांस भक्षण की विधि ---
प्रोक्षणादिविधि ( कुवा-दर्भ व मन्त्र जल से पवित्र करना आदि ) से अधिकृत हुआ पुरुष ब्राह्मण इच्छा से कुश व मन्त्र जल से पवित्र किये हुए मांस का भक्षण करें । परन्तु प्राणों के विनाश होनेपर भी प्रोक्षदि विधि के विना मांस भक्षण न करे ||१२|| पितरों ( पूर्वजों ) व देवताओं की पूजा करके एस मांस को खानेवाला दोषी नहीं है, जो कि खरीदकर प्राप्त हुआ है, अथवा जो निश्चय से स्वयं जीव घात किये विना उत्पन्न किया गया है तथा जो दूसरे पुरुष द्वारा लाया गया है ।। १२२|| यदि माता वा बहन के साथ मैथुन करना चाहते हो तो मैथुन करो किन्तु विधि पूर्वक प्रवृत्त होना चाहिए। वह विधि कौन सी है, उसका निरूपण करते हैं— गोसव नाम के यज्ञ में केवल ब्राह्मण ( दूसरा नहीं ) गोवध से यज्ञ करके एक वर्ष के अन्त में माता की मी ( अपि-भी- शब्द से बहिन को भी ) अभिलाषा करता है। माता का सेवन करो और बहिन का सेवन करो। इस प्रकार का वचन एवं इसप्रकार के दूसरे भी विधान वेद में वर्तमान है, के के विधान
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चतुर्थ आश्वासः आह्मणो गोसवेनेष्ट्या संवत्सरान्ते मातरमप्यभिलषतीति । उपेहि मातरमुपेहि स्थसारमिति । एवमन्येऽपि सन्ति यथालोकाभिप्रायं प्रवृत्तास्ते से विधयः ।
प्रसिद्धिरत एवास्य सर्थसाधारणी मता । को हि नाम भवेन्द्रज्यो लोकन्छन्वानुवर्तनः ।। १२३ ॥ हिताहितावेदि जगन्निसर्गतः परस्परस्त्रीषनलोलमानसम् । तत्रापि यद्यागम एष तन्मनोवशेन वर्तस तवा किमुच्यते ॥१२४॥ 'सुरा न पेया, ब्राह्मणो न हन्तव्यः' इत्यपि धनमस्ति । 'सोश्रामणो य एवंविधां सुरां पिबति न तेन सुरा पोता भवति' इत्यपि । तथा ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत' इति । अपि च--
___शूवान्नं शूद्रशुश्रूषा शूद्रप्रेषणकारिणः । शूदद्धता च या वृत्तिः पर्याप्त नरकाय ते ॥ १२५ ।।
तथा मांसं श्वचाण्डालव्यादाविनिपातितम् । बाहाणेन गृहीतव्यं हव्यकव्याय कर्मणे || १२६ ।। इत्यपि । सद्यः प्रतिष्ठितोवन्ते सिद्धान्ते परमाग्रहः । कि वोक्तरिमः' (?) वक्तरेत पिङ्गानुपास्महे ॥ १२७ ॥
प्रमाणं व्यवाहारेऽपि जन्तुरेकस्थितिमतः । को नामेत्थं विरुद्धार्थ सावरो निगमे नरः ।। १२८ ॥ लोगों के अभिप्रायानुसार प्रवृत्त हुए हैं। इस कारण से इस वेद को ख्याति सर्वसाधारणी ( समस्त लोगों को सामान्यरूप ) मानी गई है। अर्थान्तर न्यास अलमार द्वारा उक्त बात को दढ़ करते हैं स्पष्ट है कि लोगों के अभिप्रायानुसार प्रवृत्ति करनेवाला कोन पुरुष द्वेष करने योग्य होता है ? अपि तु कोई नहीं ॥१२३।। हे मासा ! यह संसार, जो कि स्वभाव से पुण्य व पाप को जाननेवाला नहीं है और जिसको चित्तवृत्ति एक दूसरे की स्त्री व धन में लम्पट है, इसप्रकार के संसार में यदि यह बेद स्वरूप शास्त्र, जगत् के अभिप्रायानुसार कहता हैप्रवृत्त होता है-उस समय क्या कहा जावे ? अर्थात्-फिर तो संसार परस्पर की स्त्री व धन में विशेषरूप से लम्पट मनवाला होगा ही।।१२४॥ अब वेद में पूर्वापर विरोध दिखाते हैं
'मद्यपान नहीं करना चाहिए, 'ब्राह्मण को नहीं मारना चाहिए' यह बचन भी वेद में हैं, उक वाक्य के विरुद्ध वाक्य-यथा--'जो पुरुष सौत्रामणि नाम के यज्ञ में पैष्टी, गोपी व मावची लक्षणवाली सुरा ( मन पोता है, उस पुरुष द्वारा सुरा पी हुई नहीं 'समझी जाती' यह वाक्य भी थेद में है। इसीप्रकार 'ब्रह्मा ( सृष्टिकर्ता ) के लिए ब्राह्मण ( चारों वेद का ज्ञाता ब्राह्मण विद्वान् ) को मार देना चाहिए' यह वाक्य भी बेद में है। अब मांस बिरुद्ध वाक्य दिखाते हैं--पाद का अन्न, शूद्र की सेवा, और शुद्र की नौकरी करनेवाले एवं शूद्र द्वारा दो गई जीविका यह तेरे लिए पूर्णरूप से नरक में गिराने के हेतु हैं ॥१२५।। अब मांस भक्षण का समयंक वेद वाक्य दिखाते हैं-वेद-पाठक ब्राह्मण को देवतर्पण व पितृतर्पण कार्य के लिए कुत्ता, चाण्डाल,
और व्यायादि द्वारा पशुओं को मारकर लाया हुआ मांस ग्रहण करना चाहिए' ॥१२६॥ यह वचन भी वेद में है। वेद की समालोचना-वेद व स्मृति शास्त्र में, जिसमें तत्काल विषयों को वार्ता स्थापित को गई है यदि आप लोगों का विशेष आग्रह है, तो वेद में, कहे हुए निरर्थक सुभाषितों से क्या प्रयोजन है ? आप लोग आइए हम लोग विटों (जारों-कामुकों) को उपासना करते है, क्योंकि वे लोग भी तत्काल पूंछी हुई विषयों की बात का उत्तर ( व्यभिचार-आदि का ) देते हैं ॥१२७|| जब व्यापार-आदि व्यवहार में भी एक वाक्यताशाली ( पूर्वीपरबिरोध-रहित-सत्य वक्ता ) मानव प्रमाण माना गया है तब कौन पुरुष इस प्रकार ( पूर्व में काहे हुए ) पूर्वापर-विरुद्ध अर्थ फहनेवाले वेद में आदर-युक्त होगा ।।१२८॥ १. किं वैदोनच्यामूक्त' यद्यपि सर्वत्र ह. लि. प्रतिषु मुदितः व्याकरण-विस्वः पाठः समुपलभ्यते परन्तु भन्मते मुधा
इति चेत् सम्यक् स्यात् -सम्पादकः
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ययास्तिलफचम्यूकाव्ये यपि च वेदोक्तेन विधिना विधीयमाना हिंसा न भवस्यधर्मसाधनम्, कर्थ तहि मार्यमाणः परेवं संबोध्यते 'अन्धेनं मातानुभन्यतामनुपितानुभ्रातानुसान्धोऽनुसखा सम्पः' इति ।
अय पोषवेयागमवच्चोदनायां विचारे महत्पातकम् । तदाह--
मानवं व्यासबासिष्ठ वधर्म वेवसंपुतम् । अप्रमाणं तु यो पात्स भवब्रह्मघातकः ।। १२९ ।।
पुराणं मानयो धर्मः सालो वेदश्चिकित्सितम् । आशासिद्धानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ।। १३० ।। इत्येतन्मुग्धभाषितम् ।
बाहच्छेवकषाशुद्ध हेम्नि का शपथक्रिया । वाहन्छेवकषाशुद्धे हेम्नि का शपथक्रिया ॥ १३१ ।। तस्मात् बत्तानुपानं सफलः प्रमाणवण्टेषु तत्वेषु भवत्प्रमाणम् । अन्यत्र शास्त्रं तु सा प्रवृत्य पूर्वापरस्थित्यविरोषनेन ।। १३२ ।। उमापतिः स्कन्दयिता त्रिशूली संध्यासु यो नस्यति चर्मवासाः । भिक्षाशनो होमजपोपपन्नः कर्ष स वेबोऽन्यननेन तुल्यः ॥१३३॥
यदि वेद में कडे हा विधान से की जानेवाली हिसा. अधर्म साधन नहीं है तो माग जानेवाला पश. इसप्रकार से क्यों संबोधन किया जाता है? 'हे पश! इस हिंसक पुरुष के माता-पिता बबन्ध [ दोषी 1 जाना जावे एवं इसका सम्बन्धी और समाह-सहित मित्र दोषी जाना जाय। अब जिसप्रकार पुरुषकृत शास्त्र किया जाता है उसी प्रकार वैदिक वचनों में विचार ( तर्क-वितकं) करने में महान पाप है, जैसा कि कहा है—मनुरचित धर्म शास्त्र और व्यास व वसिष्ठ ऋषि-प्रणीत शास्त्र वेद में कहे हुए-सरीखा प्रमाण है । जो मानव उक्त धर्म शास्त्र को अप्रमाण-असत्य-कहेगा, वह ब्राह्मण-धात के पाप का भागी होगा ।।१२५।। पुराण ग्रत्य ( महाभारत व रामायण-आदि), स्मृति शास्त्र, छह अङ्गों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, ज्योतिष व निरुक्त ) सहित वेद ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद व सामवेद ) एवं आयुर्वेद ये चारों शास्त्र आज्ञा सिद्ध हैं। अर्थात्-इनके वचन ही प्रमाण माने जाते हैं। ये हेतुवादों ( युक्तियों) द्वारा खंडनीय नहीं हैं ॥१३०॥ उक्त दोनों श्लोकों को कपोल कल्पित-मिथ्या-समझना चाहिए। क्योंकि जब सुवर्ण अग्नि में तपाने, काटने व कसोटीपर कमने आदि की क्रियाओं द्वारा परीक्षण किया हुआ शुद्ध है तब उसमें शपथ-खाना क्या है ? अर्थात्-उक्त क्रियाओं द्वारा परीक्षित-शुद्ध सुवर्ण के विषय में कसम खाने से कोई लाभ नहीं, क्योंकि उसको शुद्धता प्रत्यक्ष प्रतीत ही है । एवं जन सुवर्ण उक्त क्रियाओं द्वारा परीक्षण किये जानेपर अशुद्ध है तब उसे शुद्ध बताने की कसम खाने से क्या लाभ है ? क्योंकि अशुद्ध वस्तु कसम खाने से शुद्ध नहीं हो सकती ॥१३१।। उस कारण से--
वही शास्त्र, जो कि अविसंवादि होने से स्वीकृत व्यवहारवाला है एवं प्रत्यक्ष व अनुमान-आदि समस्त प्रमाणों द्वारा परीक्षित है, प्रत्यक्ष देखे हए शास्त्रों में सत्यार्थ है। इसके विपरीत जो भास्त्र, प्रत्यक्ष व अनुमानादि प्रमाणों द्वारा परीक्षा किया हुआ नहीं है न स्वर्ग-आदि परोक्ष ( विना देख्ने हए ) विषयों का निरूपण करनेवाला विसंवादी है, यदि वह पूर्वापर के विरोध से रहित है तो प्रमाण होता हआ विद्वानों की प्रवृत्ति-हेतु है ॥१३२।। देव-समीक्षा-बह ( जगत्प्रसिद्ध ) रुद्र ( श्री महादेव ), जो कि उमा--पार्वती-का पति व कार्तिकेय का पिता होने से ब्रह्मचर्य का भङ्ग करनेवाला है। जो त्रिशूल-धारक होने से शत्रुओं से द्वेष करनेवाला है, जो प्रभात, मध्याह्न व सायंकाल में नृत्य करता हुआ मृगचर्म को धारण करनेवाला है, अर्थात् मोह-युक्त है। एवं जो भिक्षा भोजन करने के कारण क्षुधा दोष-युक्त है तथा होम व जप करता है । उक्त बातों के कारण वह रास्तागौर-सरीखा होने से देव ( ईश्वर ) किसप्रकार हो सकता है ? ||१३३।। जो ( ऋषभादि तीर्थङ्कर ) देवों व
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चतुर्थं आश्वास
देवेषु चाप्येषु विचारचक्षुपंथार्थवता कि जिन्दकः स्यात् । एवं न चेतहि यथायंदर्शी भानुः प्रोपोऽपि च निन्दकः स्यात् ।। १३४ ॥ यो भाषते दोषमविद्यमानं सतां गुणानां ग्रहणं च मूकः । स पापभावस्यात् विनिन्दकरण यज्ञोवधः प्राणिवधात् गरीयान् ॥ अमाप्तः पर एव न स्यादेवंविधो रहगणोऽपरस्तु परः पुनः किंगुण एव देवः संसारदोषानुगतो गुणाः कुतस्तस्य भवन्ति गम्याः शास्त्रात्प्रणीतारस्वयमेव तेन । बने परोक्षेऽपि पतत्रिसायें वृष्टो ब्वनेस्तत्र विनिश्चयो हि ॥ १३७ ॥ सर्गस्थितिप्रत्ययहारवृत्तेहिमातपाम्भः समयस्थितेर्वा आद्यन्तभावोऽस्ति यथा न लोके तथैव मुक्तागममालिकायाः ।। १३८ ।। श्रुतात् देवः श्रुतमेतदस्माविमो हि बोजाङ्कुरवत्प्रवृत्ती । हिताहितले स्वयमेव देवाकि पुंसि जातिस्मरयत्परेण ।। १३९ ।।
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६९.
१३५ ॥
न यो हि ।। १३६ ।।
दूसरे गुरु आदि के विषय में विचार चक्षु ( ज्ञाननेवाला ) है और दिगम्बर होकर यथार्थबक्ता (सत्यवादी ) है माता ! क्या वह निंदा का पात्र हो सकता है ? यदि वह निन्दा का पात्र है तब तो यमार्थं वस्तु को प्रकाशित करनेवाला सूर्य व दीपक भी निन्दा का पात्र हो जायगा || १३४|| जो पुरुष दूसरे के गैरमौजूद दोष कहता है व साधुओं के ज्ञानादि गुणों में मूक रहता है, वह पुरुष पापी व निन्दा का पात्र है, क्योंकि किसी को कीति का घात करना उसकी हिंसा करने से भी महान होता है || १३५ ॥ | यदि 'रुद्र लक्षणवाला देव ही आप्त ( ईश्वर ) है और निश्चय से अर्हन्त ईश्वर नहीं है' ऐसा आप कहते हैं तो बापके द्वारा माने हुए ग्यारह रुद्रों में तो ईश्वर होने योग्य वीतरागता व सर्वज्ञता आदि गुण नहीं है, इसलिए ईश्वर होनेलायक गुणों से युक्त दूसरा रुद्रगण होना चाहिए। यदि आप पूँछें कि फिर यह ईश्वर होने योग्य दूसरा रुद्रगण किन गुणों से युक्त होना चाहिए ? तो उसका उत्तर यह है, कि जो सांसारिक क्षुधा व तृपा आदि अठारह दोषों से व्याप्त नहीं है — वीतराग है - वही देव ( ईश्वर ) है | अभिप्राय यह है कि आपके द्वारा कहे हुए ग्यारह रुद्रों में ईश्वर होने योग्य गुण नहीं है, अतः राग, द्वेष रहित जिनेन्द्र ही देव है ।। १३६ ।।
जैनों द्वारा माने हुए ईश्वर के गुण किससे जानने योग्य हैं ? उस आप्त गुरु द्वारा स्वयं कहे हुए शास्त्र से वे गुण जानने योग्य हैं। उस शास्त्र का निश्चय किसप्रकार होगा ? इसका समाधान यह है कि शास्त्र की ध्वनि । शब्दों का वाचन ) से शास्त्र का निश्चय होगा। जिसप्रकार वन के परोक्ष ( दृष्टि द्वारा अगम्य ) होनेपर भी पक्षी समूह का निश्चय उसको ध्वनि - शब्द से होता है । जिस पक्षी की ऐसी ध्वनि है, वह पक्षी अमुक होगा, उस ध्वनि से ही पक्षी जाना जाता है, उसीप्रकार जिस देव ने यह शास्त्र कहा है उस शास्त्र से ही उसके दोपवान् व निर्दोष होने का निश्चय होता है ॥१३७॥ जिसप्रकार लोक के मध्य में सृष्टि (उत्पत्ति), स्थिति संहार ( विनाश ) की प्रवृत्ति का आदि | शुरू ) व अन्त - अखीर नहीं है, अर्थात् - सृष्टि आदि अनादि काल से चले आ रहे हैं व अनन्त काल तक चले जायेंगे । एवं जिसप्रकार शीत ऋतु उष्ण ऋतु व वर्षा ऋतु की प्रवृत्ति अनादि काल से चली आ रही है व अनन्त काल तक चली जायगी । उदाहरणार्थ- उत्पत्ति के बाद विनाश होता है व विनाश के बाद उत्पत्ति होती है एवं शीत ऋतु के बाद ग्रीष्म ऋतु होती है और ग्रीष्म ऋतु के बाद वर्षा ऋतु होती है, उसके बाद शीत काल होता है । अर्थात्एक से एक सदा होता है उसीप्रकार मुक्त परम्परा व श्रुतपरम्परा की शुरू व अखीर नहीं है । अर्थात्ईश्वर व श्रुत भी अनादि हैं । उदाहरणार्थ- मुक्त ( ईश्वर ) से आगम ( द्वादशाङ्ग श्रुत) होता है और आगम ( शास्त्र ) से मुक्त होता है || १३८ | उसी का निरूपण - आगम ( शास्त्र ) से वह जगत्प्रसिद्ध तीर्थकर अहंस
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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये असंशयं हेतुविशेषमावाधयोपलः स्यात्कनकं तव । अन्तहिणधास्तसमस्तदोषो ज्योतिः परं स्यादपमेव जीवः ॥१४०॥ अङ्गारवत्तद्धि न जातु शुद्धचेटूपान्तरं वस्तुनि यत्र नास्ति । दृष्टो मणीनां मतसंक्षपेण सेनःप्रभावः पटुभिः कृतेन ॥१४॥
भूता भविष्यन्ति भवन्ति चान्ये लोकत्रयशाः प्रमशः लिप्तीशाः । यथा तथाप्ता यदि को विरोधो ब्रहत्वभन्यत्र च बाढमस्ति ॥ १४२ ।। हरिः पुनः क्षत्रिय एवं कश्चिज्योतिर्गणस्तुल्यगुणोरविश्च ।
देवी स्त एतौ यषि मुनिमायौं प्रश्न सोहन कुतस्मथा न ।। १४३ ॥ अयोषमतापुषा विभति दशावतारेण स वर्तते च । शिला लवावयतिविस्मयाई मातः कथं संगतिमङ्गलीवम् ।।१४४।। देव होता है और उस तीर्थकर देव से आगम की उत्पत्ति होती है, निश्चय से दोनों श्रुत व देव, बीज व अङ्कर को तरह प्रवृत्त होते हैं। अर्थात्-जिसप्रकार वीज से अङ्कर होता है और अङ्कर से दोज होता है । हित ( सुख व सुख के कारण ) व अहित ( दुःख व दुःख के कारण ) को जानने की शक्ति जन्म से स्मरणवाले पुरुष की तरह पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य व पाप से होती है । दूसरे पुरुष से क्या प्रयोजन है ? अपि तु कोई प्रयोजन नहीं । अर्थात्-जिसप्रकार जन्म से स्मरणवाला पुरुष दूसरे से नहीं पूछता किन्तु स्वयं ही जान लेता है उसीप्रकार यह आत्मा, जो कि तीर्थकर होनेवाला है, पूर्वजन्म-कृत पुण्योदय से उत्पन्न हुए ज्ञान द्वारा स्वयं हिताहित को जानता है उसे दूसरे पुरुष ( गुम्-आदि ) की अपेक्षा से कोई प्रयोजन नहीं रहता ॥१३९||
___जिसप्रकार भिन्न भिन्न कारणों ( अग्नि में तपाना व छेदन-आदि साधनों) से सुवर्ण पाषाण, निस्सन्देह सुवर्ण हो जाता है उसीप्रकार यही संसारी जीव ( मानव ), अन्तरङ्ग कारण ( कर्मों का क्षय-आदि ) वहिरङ्ग ( गुरु-आदि का उपदेश-आदि) कारणों से कर्ममल कलङ्कको क्षीण करनेवाला होकर मुक्त । ईश्वर) हो जाता है ॥१४०।। अभव्य पुरुष में रूपान्तर नहीं है, अर्थात्-वह मिथ्यात्व को छोड़कर कभी भी सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं कर सकता-कभी शुद्ध नहीं हो सकता । वह अभव्य लक्षणवाला पुरुष, उसप्रकार कदापि शुद्ध नहीं होता जिसप्रकार अङ्गार ( कोयला ) कदापि जलादि द्वारा शुद्ध नहीं हो सकता एवं जिसप्रकार विचक्षण पुरुषों द्वारा किये हुए मल-विनाश से मणियों-रत्नों-में कान्ति का प्रभाव देखा गया है, अर्थात्-उसीप्रकार यह संसारी भव्य मानव, अन्तरङ्ग ( सम्पग्दर्शन-आदि ) व बहिरङ्ग ( गुरु-उपदेश-आदि ) कारणों द्वारा कर्ममल कला का क्षय करता हुआ शुद्ध-मुक्त-हो जाता है' ॥१४।। जिसप्रकार भूतकालीन, भविष्यकालीन व वर्तमानकालीन दूसरे लोकत्रय के जाननेवाले राजा लोग क्रमशः हुए होवेंगे व हो रहे हैं जसीप्रकार यदि अतीत, अनागत व वर्तमानकालीन तीर्थकर परमदेव हुए, होंगे व हो रहे हैं तो इसमें क्या विरोध है ? अपि नु कोई विरोध नहीं। इसीप्रकार तीर्थङ्करों की अधिकता के विषय में भी कोई विरोध नहीं, क्योंकि परमत में भी देवताओं को प्रचुरता अतिशय रूप से है । अर्थात्-जिसप्रकार ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नवग्रह, तिथि, देवता व बारह सूर्य इनमें संख्या की अधिकता पाई जाती है उसीप्रकार तीर्थङ्कर परम देवों में भी प्रचुरता समझनी चाहिए।।१४। फिर श्रीनारायण कोई क्षत्रिय ही हैं और सूर्य भी शुक व शनैश्चर-आदि-सरीखा है। जब ये दोनों (श्री नारायण ब सूर्य) मुक्ति का उपाय बलानेवाले देवता हैं तो आदि क्षत्रिय पृथुराजा व चन्द्रमा ये दोनों मुक्ति का उपाय बतानेवाले देवता क्यों नहीं हैं ? अपितु होने चाहिए ॥१४॥
१. तथा चोक्तं समन्तभद्रेण महर्षिणा
दोपावरणयोहनिनिःशेषास्त्यतिशायनात् । मबधिधथा स्वतुम्मोहिरतिमलक्षयः ॥१॥'
देवागमस्तोत्र से~
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चतुर्थ आश्वासः स्वयं स कुष्ठी पदयोः फिलाः परेषु रोगातिहरवन्ध चित्रम् ।
अजा परेषां विनिहन्ति वातं स्वयं तु दातेन हि सा प्रियेत ॥ १४ ॥ मासा-(स्वगतम् ।) गतः कालः खलु यत्र पुत्रः स्वतन्त्रमस्या हक्येप्सितानि । कार्याणि कार्यत हठायेन भयेन वा फणंचपेटया वा ।।१४६।। युवा निजादेशनिशितधीः स्वयंप्रभुः प्राप्तपवप्रतिष्ठः । शिष्यः सुतो धात्महितसाद्धि न शिक्षणीयो न निवारणीपः ॥१४७।। (प्रकाशम् ।) तवोपदेशः जल कि नु कुर्याविनीतचित्तस्य बहुश्रुतस्य । को नाम घोमालवणासुराशेरुपायनार्थ लवणं नयेत ॥१४॥ विचक्षणः किं तु परोपदेशे न यस्य कार्य सफलोऽपि लोकः । नेत्रं हि रेऽपि निरीक्षमाणमात्मावलोके त्वसमर्थमेव ॥१४९।।
निम्नन्ति निःसंशयमेव भूपाः पुत्रं च मिनं पितरं च बन्धम् ।
स्वस्य निये जीवितरक्षणाय राज्यं कुतः भान्तिपरायणानाम् ॥१५॥ सदस्य वःस्वप्नविधः शमा संरक्षणार्थ निजजीवितस्य । दुर्वासना वत्स विहाय जो विहि मकं कूलदेवतायाः ॥१५॥ ___किमङ्गः महामुनि!तमः प्राणत्राणार्पमात्मोपकारिणमपि नामीजङ्घ न जपान । विश्वामित्रः सारमेयम् ।
हे माता ! जब वह विष्णु इस समस्त संसार को अपने उदर के मध्य में धारण करता है तब शूकर, कच्दछप-आदि दश अवतार कैसे धारण करता है ? अर्थात-जो समस्त तीन लोक को उदर के मध्य धारण करता है, वह दश अवतार कहां ठहरकर ग्रहण करता है ? यह बात "शिला पानी में तैरती है' इससे भी विशेष आश्चर्यजनक है, अतः किसप्रकार युक्तिसङ्गत हो सकती है ? अपितु नहीं हो सकती ॥१४॥ वह सूर्य स्वयं तो निश्चय से पादों में कुष्ठ रोगवाला है और भक्तों की रोग-पोड़ा-विध्वंसक है, यह उसप्रकार आश्चर्यजनक है जिसप्रकार बकरी दूसरे लोगों की दुषित वायु नष्ट करती है और स्वयं बात रोग से मृत्यु प्राप्त करती है।।१४५।। अब उक्त वात को सुनकर माता चन्द्रमति अपने मन में निम्नप्रकार चिन्तवन करती है-निश्चय से वह अवसर निवाल गया, जिसमें यशोधर पत्र, मेरी स्वतन्त्र वृत्ति से मनचाहे कार्य कराने के लिए हठ, नीति व भय से अथवा कान उमेठ कर प्रेरित किया जाता था । अर्थात्-अब हटादि से कर्तव्य कराने के लिए समर्थ नहीं रहा ।।१४६॥ इस समय यह जवान है. शिशु नहीं है, जिसने अपनी आज्ञा में लक्ष्मी आरोपित-स्थापितको है एवं स्वयं सब का स्वामी है तथा जिसने राज्य पद में प्रतिष्ठा प्राप्त की है, अतः यह स्पष्ट है कि अपना कल्याण चाहनेवाले पुरुषों द्वारा विद्यार्थी अथवा पुत्र बलात्कार से न शिक्षा देने योग्य है और न रोकने योग्य है ॥१४७॥ हे पुत्र! तुम सब' विषयों में प्रवीण हो, इसलिए निश्चय से बिनय में तत्पर चित्तवाले और अनेक शास्त्रों में निपुणता प्राप्त किये हुए तुम्हें मेरा उपदेश क्या करेगा? उदाहरणार्थ-कौन बुद्धिमान् पुरुष लवण समुद्र को भेंट देने के लिए नमक लाता है ॥१४८|| हे पुत्र ! तुम बुद्धिमान हो, परन्तु सभी लोग दूसरों को उपदेश देने में प्रयोण होते हैं, परन्तु अपने कर्तव्य-पालन में प्रवीण नहीं होते। जैसे चक्षु दुरवर्ती वस्तु को देखनेवाली होती है परन्तु स्वयं अपने को देखने में असमर्थ ही होती है ।।१४९|| हे पुत्र ! राजा लोग अपनी लक्ष्मी व जीवन-रक्षा के लिए निस्सन्देह पुत्र, मित्र पित्ता व भाई को मार डालते हैं। क्योंकि क्षमाशील राजाओं का राज्य किस प्रकार सुरक्षित रह सकता है ? ॥१५०11 अतः हे पुत्र ! इस दुष्ट स्वप्न की शान्ति के लिए व अपनी आयु के संरक्षण के लिए दिगम्बरों का उपदेश छोड़कर पशुओं में कुलदेवता की पूजा करो ||१५१॥
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यपास्तिलकचम्पूकाव्ये एदमन्येऽपि शिविदधीचिबलिवाणासुरप्रभृतीनामवनिपतीना सुरमितमयाबीनामितरेषां च सत्त्वानामालम्भनेनात्मनः शान्ति कर्माणि सम्पगारेभिरे। यथा जलः पङ्कजिनोवलानां पङ्कन लेपो नमसो यया च । राशस्तथा द्धमतेनं पापः संबन्धगन्धोऽस्ति कयंबनापि ॥१५२॥ विषं विषस्यौवषमग्निरग्नेरियं प्रसिद्धिमहतो यर्थक । पुण्याय हिसापि भवेत्तथैव सर्वत्र हे पुत्र न पड्डलानि ॥१५३॥
गोब्राह्मणस्त्रीमुमिदेवतानां विचारयेत्कश्चरित विपश्चित् ।
श्रुतिस्मृतीनिहासपुराणवाचस्त्यजारमना चेन्न तवास्ति कार्यम् ।।१५४।। न कापि सः पुरुषार्थसिद्धि सूमेक्षयातीवपरीक्षकस्य । जगत्प्रवाहेण तु तितम्यं महालनो येन गतः स पन्याः ॥१५५।। विलासिनीविभूमदर्पणानि कंदर्पसंतपंणकारणानि । क्रियाश्रमच्छेवकराणि हातु मधूनि को नाम सुषोयतेत ॥१५॥
मताः ममा मम्मयतत्वविवर्मताः स्त्रियो मद्यविजिताइन ।
ये भजते मांसरसेन हीनं ते भजते कि नु न गोमयेन ॥१५७।। अहो पुन ! गौतम नाम के महामुनि ने प्राण रक्षा के लिए अपना उपकार करनेवाले बन्दर को क्या नहीं मारा ? इसीप्रकार हे पुत्र ! विश्वामित्र नाम के महामुनि ने अपना उपकार करनेवालं कुते को क्या नहीं मारा ? इसीप्रकार दूसरे राजाओं ने भी शिषि, दधीचि, बलि व वाणासुर आदि नामबाले राजाओं के घात द्वारा और गाय वगैरह पशुओं के एवं दूसरे प्राणियों के घात द्वारा अपने शान्ति कर्म भली प्रकार आरम्भ किए। हे पुत्र ! जिसप्रकार कलिनियों के पते जलों से लिप्त नहीं होते एवं जिसनवार कीचड़ से बाकाश लित नहीं होता उसीप्रकार शुद्ध बुद्धिवाले राजा का पापों से वन्धलेश भी किसी प्रकार नहीं होता ॥१५२।। हे पुत्र ! जिसप्रकार विष की औगधि विप व अग्नि को औषधि अग्नि है यह विशेष प्रसिद्धि है उसी प्रकार जीव वध भी कल्याण हेतु होता है । हे पुत्र | सभी खेतों में छह हल ही नहीं होते, अर्थान् --किसी खेत में कम और किसी में ज्यादा भी हल होते हैं एवं किसी में छह ही हल होते हैं ।।१५३॥ कौन विद्वान् पुरुष गायों, ब्राह्मणों, स्त्रियों, गौतम-आदि महामुनियों एवं देवताओं के आचार का विचार करता है ? यदि तुम्हें अपनी आत्म-रक्षा से प्रयोजन नहीं है तो वेद, स्मृति ( धर्म शास्त्र ), इतिहास और रामायण-महाभारत-आदि पुराणों के वचन छोड़ो। अर्थात् यदि तुम आत्म रक्षार्थी हो तो वेद-आदि के वचन मत छोड़ो ॥१५४॥ हे पुत्र ! मुक्ष्म दृष्टि से विशेष परीक्षा करनेवाले मानव की कोई पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष ) सिद्धि नहीं होती । अतः मनुष्य को लोक मार्ग से प्रवृत्ति करनी चाहिए, क्योंकि जिस मार्ग से सज्जन प्रवृत्त होता है, वही कर्तव्य मार्ग है ॥१५५।। है पुत्र ! कौन विद्वान् पुरुष ऐसे मधु व मद्य-आदि के छोड़ने का यल करेगा? जो ( मधु-आदि ), कमनीय कामिनियों के विलासों ( हाव-भाव-आदि ) के देखने में दर्पण-सरीखे हैं और कामोद्रेक के उद्दीपन के कारण हैं एवं कर्तव्य करने से उत्पन्न हुए परिश्रम को नष्ट करनेवाले हैं ॥१५६॥ हे पुत्र ! कामशास्त्र के रहस्य में प्रवीण पुरुषों ने नरी हुई स्त्रियाँ और मद्य न पीनेवाली स्त्रियाँ समान मानी हैं। हे पुत्र ! जो मांस रस-रहित भोजन करते हैं वे लोग क्या गोबर-सहित भोजन नहीं करते?।।१५७।। १. गौतम नाम के महामुनि की कथा-एक समय गौतम नाम के महामुनि तीर्थयाथार्थ गए परन्तु मार्ग भूल जाने
के कारण महान वन में प्रविष्ट हुए । प्यास से क्यालित हुए एवं भूख को अग्नि द्वारा जलती हुई कुक्षिवाले उन्हें स्वच्छन्द विहार करनेवाला बन्दर तालाव-आदि जसस्थान पर ले गया। बाद में उस मुनि ने बन्दर द्वारा विक्षाया हमा पानी पीकर उस बन्दर को मार कर उसके मांस का भोजन करके धन को पार किया 1
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चतुर्थं आश्वासः पति च मधुमासनिवर्ण महादोषस्तवा मयमेतन्महषिभिययाहुतम
'न' मांसभक्षणे दोषो न म न च मयने । प्रवृत्तिश्व भृशमा लियतेनन महाफलम् ।।' इति १५८॥ कब हव्यकव्यविधिषु प्रयन्धन तद्ग्रहणम् । तदार
"तित्राहियविरहिमलफालेन च । दत्तन . पाटे मिति: १५२ । द्वी मासो मत्स्यमांसेन जोन्मासात हारिन च । और श्रंणाय चतरः शानन पञ्च चे ॥१६॥ पग्मासोश्यागमांसेन पार्षतेन हि मप्त है । अष्टावेशस्य मसिन शेरवंण नबंव तु ।।११।। बश मासास्तु तृप्यन्ति बरामहिपाभिः । शर्मस्प मापन मासानेकादशं तु ॥१२॥
संवत्सरं नु गरयेन पयसा वायसेन मा । बाझुणसस्य मसिन तृप्तिाश्यावाविकी ॥१६॥' नि । राजा-(स्वगतम् ।) ऐश्वर्ष मेकं तिमिरं नराणामेचंविधो बन्धुगणो द्वितीयम् । कि नाम पापं न करोतु जन्तुर्मदन मोहेन च निविचारः ।।१६४|| पियां मनोकरीविलासरापातरम्पश्न विलासिनीनामा प्रारितान्तःकरणो रमतां भवारयामेष विशत्यवश्यम् ||१६५।। बलाबमोभिविषवराकः प्रायेण जानापि मोहितात्मा। त्योः पुरोवारिविहारभाजा वन्यः करीबास्परमापदां स्यात् ।।१६६।।
॥१७। हे पुत्र ! यदि मद्यपान व मारा-भक्षण में महान दार है गाय महगियों में निम्न प्रकार बचा। केरी कहा? 'मांस-भक्षण में पाग नहीं है एवं मद्य-गान व कामवन में भी पाप नहा है, क्योंकि प्रागिरां की मद्यान आदि में प्रवृत्ति ही होती है । परन्तु मद्यपान व भास-क्षिा के त्याग की महान फल होता है ।।१५।। हे पुत्र !
और किस प्रकार से देवकार्य व पितृकायं विधानों में शास्त्र प्रमाण से मांस-ग्रहण वर्तमान है। उक्त बात चा निरूपण-"तिलो, धान्य, जी, बड़द, पानी और मृलोक साथ मांस को विधिपूर्वक दन मानवों के पूर्व न सन्तुष्ट होते हैं ।। १५९ ॥ मछली के मांस ने दो महीनों तक हरिण-मांस से तीन महीनों तक और भेड़ व मांस से चार महीने तक एवं शकुनि । पक्षीविशेष ) के मांस में पांच महीने तक पिला-आदि पूर्वज तृप्त होते हैं ॥१६०|| निश्चय से बकरे के मांस से छह माह तक पापंत ( मगविशेग ) के मांस से सात माह तक और कस्तूरी मृग के मांस से आठ महीनों लक तथा सामग के मांस से नो महोने तक पितरगण ( पूर्वज ) तृप्त होत है ।। १६१ ॥ शूकर च भंसा के मांस मे तो दश महीनों तक एवं खरगोमात्र कक्षा के मांग से ग्यारह महीनों तक पितृगणा तृप्त हति है ।। १६२ ।। गाय के दूध अथवा उसकी स्वीर में एक वर्ष तक पितृगण तृप्त होते है एवं गण्डक-मांस से पूर्वजों की बारह वर्ष तबा होने वाली तृप्ति होती है ।। १६६ ।।'
___ उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज अपने मन में निम्नप्रकार सोची है-ऐश्वयं ( राज्यादि वैभव ), मानबों का पहिला अन्धकार है। इसी प्रकार माता-पिता-आदि लवादाला बन्धुवर्ग दूसरा अन्धकार है । अतः ऐश्वर्य के गर्व से ब इसप्रकार के बन्धुवर्ग के मोह से बिवेवागून्य हुआ प्राणी कौन सा पाप नहीं करता' ? ||१६४। लक्ष्मी के होने पर हृदय में मद उतान्न करनेवाले प्रथम प्रारम्भ में रभगोक प्रतीत हुए कमनीय कामिनियों के विलासों ( नेत्र शोभाओं ) द्वारा वञ्चित मनवाला यह प्राणी निश्चय से दुष्ट स्वभाववाली संसाररूपी अटवा में प्रवेश करता है ।।१६५|| इस इन विषयों के कारण अज्ञान-युक्त आत्मावाला विचारा यह प्राणी प्रायः करके जानता हुआ भी हट से उम्सप्रकार मृत्यु भाग) में विहार करनाला आत्तियों का स्थान होता है, जिसप्रकार जंगली हाथो मृत्यु-नगरी कपी गज-बन्धनी । हाथी पकड़ने के लिए बनाया हुआ गड्ढा ) में विहार करनेवालो आपतियों का स्थान होता है ॥१६॥ १. पपासंस्पाक्षेपाल कारः। २. हपकालंकारः। ३. 'वारी तु गजबन्दनो' इत्यमरः । ४. रूपकदृष्टान्ताले शारः ।
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( प्रकाशम् । )
'प्रशस्तिलकचम्पूकाव्ये
नान्येषु पावं मनसा विचिन्त्यं साक्षात्कथं तत्यिते माध । स्वा श्रुताकि तु कथा न लोके सशालिशिक्यस्य वसोः प्रसिद्धा ।। १६७७
पिबेद्विषं यमृतं विश्वित्य जिजीविषुः कोऽपि नरो बराकः । किं तस्य तन्नव करोति मृत्युमिच्छायज्ञान्नव मनोषितानि ।। ९६८ ॥ रजस्तमोभ्यां बहुस्य पुंसः पापं सतां नैव निवर्शनाय । नाप्येनसामा सजतामपेक्षा जाती फुले या रजसामिवालि ।। १६९॥ जाति मृत्युरवामपाद्या नृपेषु धान्येषु समं भवन्ति । पुण्यंजनेयोऽधिकाः क्षितीशा मनुष्यभावे त्वविशेष एव ।। १७० ।। यथा मम प्राणिषधे भवस्था महान्ति दुःखानि भवन्ति मातः । तथा परेषामपि जीवहानी भवन्ति दुःखामि तदस्यिकानाम् ॥ १७१ 11 परस्य जीवन यदि स्वरक्षा पूर्व क्षितीशाः कुत एव मन्त्रः । शास्त्रं तु सर्वत्र यदि प्रमाणं हवकाक मांसेऽपि भवेत्प्रवृत्तिः ॥ १७२ ॥ भवप्रकृत्यावहितो हि लोकः कदापि नेवं जगदेकमार्गम् । यद्धबुद्धधा विपाति पापं तन्मे मनोऽतीव दुनोति मातः ॥१७३॥ लोके विनिन्द्यं परवारकर्म मात्रा सहैतत्किमु कोऽपि कुर्यात् । मांसं जिघत्सेनि कोऽवि लोलः किमागमस्तत्र निवर्शनीयः ।। १७४ ॥
अब यशोधर महाराज ने अपनी माता ( चन्द्रमति ) से निम्नप्रकार स्पष्ट कहा है माता ! जो पाप दूसरे प्राणियों के प्रति मन से चिन्तवन करने योग्य नहीं है, वह गाप इस समय मेरे द्वारा प्रत्यक्ष से किस प्रकार किया जा सकता है ? हे माता ! नूने वसुराजा व शालिसिक्य नाम के मच्छ की लोक प्रसिद्ध कथा क्या नहीं सुनी' ? ॥१६७॥ यदि कोई भी विचारा मानव जीने का इच्छुक होता हुआ जहर की अमृत समझकर पी लेने तो क्या वह जहर उस मनुष्य की मृत्यु नहीं करता ? क्योंकि चाही हुई वस्तुएँ केवल मनोरथ से प्राप्त नहीं होतीं । अर्थात् - उसी प्रकार धर्म बुद्धि से पाप करता हुआ प्राणी क्या पुण्य प्राप्त कर सकता है ? ॥१६८॥ पाप और अज्ञान से अधिकता प्राप्त किये हुए पुरुषों ( गौतम व विश्वामित्र आदि ) का पाप विद्वज्जनों के दृष्टान्त के लिए नहीं होता । अर्थात् जिस प्रकार उन पापियों ने प्राणियों का मांस भक्षणरूप पाप किया उसप्रकार हेयोपादेय का ज्ञान रखनेवाले सज्जन पुरुष नहीं कर सकते । सम्बन्ध प्राप्त करते हुए पापों को उसप्रकार जाति ( मातृपक्ष ) व विषयक वाञ्छा नहीं होती जिसप्रकार धूलियों को जाति व कुल विषयक अपेक्षा ( इच्छा ) नहीं होती । अर्थात् — जिसप्रकार उड़ती हुईं धूलियाँ सभी के ऊपर गिरती हैं, किसो को नहीं छोड़तीं उसी प्रकार बंधने वाले पाप भी किसी को नहीं छोड़ते ' ॥ १६९॥ जन्म, जरा, मृत्यु, और रोग वगैरह दुःख राजाओं व दूसरे प्राणियों में समानरूप से होते हैं। उनमें राजा लोग पुण्यों के कारण मनुष्यों से अधिक होते हैं, राजा लोगों व पुरुषों में मनुष्यता की अपेक्षा कोई भेद नहीं है | ११७०॥ हे माता ! जिसप्रकार मुझे प्राणी के वध होने पर आपको महान दुःख होते हैं उसीप्रकार दूसरे प्राणियों के वघ होनेपर भी उनकी माताओं को विशेष दुःख होते हैं ॥ १७१ ॥ हे माता ! यदि दूसरे जीयों के जीव से अपनी रक्षा होती है तो पूर्व में उत्पन्न हुए राजा लोग क्यों मर गए? यदि शास्त्र सर्वत्र प्रमाण है तो कुत्ता
कौए के मांस के भक्षण में भी प्रवृत्ति होनी चाहिए ॥ १७२॥ हे माता ! [ संसार में | मनुष्य-समूह पाप कर्म में सावधान होकर विद्यमान है। यह संसार किसी भी अवसर पर एकमत में आश्रित नहीं होता । निश्चय से मानवगण जिस कारण धर्म बुद्धि से पाप करता है उस कारण मेरा मन विशेषरूप से सन्तप्त होता है ॥१७३॥ जब परस्त्री-भोग संसार में विशेषरूप से निन्दनीय है तब यह परस्त्री-भोग क्या कोई भी माता के साथ करेगा ? अपि तु नहीं करेगा। इसीप्रकार यदि कोई भी पुरुष जिह्वालम्पट हुआ मांस भक्षण की इच्छा करता है तो उस मांस भक्षण के समर्थन में क्या वेद शास्त्र उदाहरण देने योग्य है ?" ॥१७४॥ इन्द्रिय-लम्पट और लोगों की
१. आपालंकारः । २. आक्षेपालंकारः । ३ उपमालंकारः । ४. जाति: अतिशयालंकारश्च । ५. दृष्टान्तालंकारः । ६. जाति रलंकारः । ७. जातिरियम् । ८. पालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वासः लोलेन्द्रियर्लोकमनोनुकलः स्वामीधनायागम एष पृष्टः । स्वर्गो यदि स्याल्पशुहिसकार्ना सूनाकृता सहि भवत्स कामम् ॥१७५।। मन्त्रेण शस्त्रर्गलपीरनाद्वा बेधा महिश्चापि वपः समानः ।
स्वर्णी यदि स्यान्मख हिसितानां स्ववानविभिनं किं तु ॥१७६।। मातः, आकर्णयानोपल्यानम्, यन्मयापरेखुरेव विद्यानवधनामहायुपासकावुपधुतम् । तथाहि-किलामण्डलसभायां ब्राह्मणाचरणं प्रति विश्ववमानमनसी द्वो विवौकसाषेतत्परीक्षार्थमेकाछगलच्छलेनापरस्तबाजीवनग्याजेन पाटलिपुत्रपुरयाहिरिफायामवतेरतुः । तस्मिन्नेवायसरे सपश्चागतं पश्वाती छात्राणामध्यापयन्नुपाध्यायः सकलषेदवेदाङ्गोपाङ्गोपवेशा काङ्कायमनामय टिभीका प्राय विधिनुस्तंत्रवाजगाम । ईक्षांचवे च पुरुषेणाधिष्ठितमतीव महावेहमजम् । 'अहो, साधु भवत्ययमजास्तनंधयः खलु पज्ञकर्मण' हरमनुष्याय तं गोधमेवमम्यधात्-'अरे मनुष्य, समानीयता. मित इतोऽपं छागस्तव बेदस्ति वितुमिरछा' इति । पुषधः-'भट्ट, विचिक्रीपुरेवनं यदि भवानिवं मे प्रसादीकरोत्यहागुलीयकम् । उपाध्यायस्तथा विधायापवयं च तं पुरुषमात्मदेशीयं शिष्यमाविशति-'अहो कुशिक परस. बलीयानयममास्तनंषयः । तदतिवनमुपसंग्यानेन बलवानीयतावसितम्। अहमप्येष तवानुपक्मेवागच्छामि ।' तपाचरति सच्छिष्ये स वसुधा कुलिशकोलित हव निषण्णः संभूय सवैरपि तदन्तेवासिभिरुत्यापयितुमशक्मः 'प्रोपन्तामत्रवास्प चित्तवृत्ति के अनुकूल चलनेवाले पुरुषों ने अपने विषयों के पोषणार्थ यह वेद सिद्धान्त रचा है। यदि अश्वमेघआदि यज्ञकर्म में पशु-बध करनेवालों को स्वर्ग प्राप्त होता है तो वह स्वर्ग कसाईयों को विशेषरूप से प्राप्त होना चाहिए' ||१७५।। अथर्वणमन्त्र व संहिता-वाक्य अथवा शस्त्र व कण्ठ-मरोड़ना इनसे यज्ञ-वेदो ( प्रालम्भन कुण्ड ) पर अथवा याग मण्डा के बाह्य स्थानपर जीव घात करना एक सरीखा पाप है। यदि यज्ञ में मन्त्रीच्चारण पूर्वक होमे गए पशुओं को स्वर्ग होता है? तो अपने पुत्र-आदि कुटम्ब वगों से यज्ञ-विधि क्यों नहीं होतो ? ॥१७६।। हे माता ! इस जीव-धात संबंधी दृष्टान्त कथा सुनिए, जिसे मैंने परसों 'विद्यानवद्य' नाम के श्रावक से सुनी थी।
सौधर्मेन्द्र की सभा में ब्राह्मणों के आचरण के प्रति विवाद करते हुए दो देवता उनके आचार की परीक्षा के लिए एक बकरा के बहाने से ( बकरा बनकर ) और दूसरा बकरे की जीविका करनेवाले के बहाने से ( बकरा ले जानेवाला शूद्र बनकर ) पटना नगर के समीपवर्ती वन में अवतीर्ण हुए। उसी अवसर पर 'काङ्कायन' नाम का उपाध्याय ( पाठक ), जो कि साढ़े पांच सौ छात्रों को अध्यापन करनेवाला था एवं जिसकी मर्यादा चारों वेद व छह वेदाङ्गों ( शिक्षा व कल्प-आदि । व उपाङ्गों के उपदेश देने में है, तथा जो साटवीं वार यज्ञ करने का इच्छुक था, वहीं आया। उसने महाशूद्र-सहित व विशाल कायवाले बैल-सरीखे बकरे को देखा । फिर यह विचारकर कि 'आश्चर्य है कि यह बकरी का बच्चा निश्चय से यज्ञ फर्म में अच्छा है' उस बोझा ढोनेवाले पुरुष से निम्न प्रकार कहा--अरे मनुष्य ! उस स्थान से इस स्थान पर इस बकरे को लाओ यदि तुम्हारो इसे बेचने की इच्छा है।' फिर बकरा ले जानेवाले मानव ने कहा-'भट्ट ! मैं तो इस बकरे को बेचने का इच्छुक हूँ यदि आप यह मुद्रिका मेरे लिए प्रसन्न होकर अर्पण करें।' फिर उपाध्याय ने मुद्रिका देकर उसे वापिस भेजा और शिष्य को आशा दो। 'अहो 'कुशिक' नामवाले बच्चे ! मह बकरी का बच्चा विशेष बलिष्ठ है, अतः इसे विशेष यत्न पूर्वक दुपट्टे से बांधकर मेरे गृहपर ले जाओ। मैं भी आपके पीछे ही आऊंगा।
१. आक्षेपालंकार; 1
२. अपमालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये चेटस्य मांसेन विधिपूर्वक देवाः पितरो बाह्मणारच' इत्पलापालचारपममविषोन्मेषकलषरक्षुषमाशु स्वयमेव वपापो. पतपर्वताकारपापाणात स पलस्तमुपाग्यायं मनुष्यपद्धभावे-ननु भट्टस्य किमो महान प्रयासः' इति । भट्टः समयः सविस्मयश्च प्रत्याचपटे-'महापुरुष, तब स्वागमनाम' इति । छाप:--'अन्य खलु ते घराकतनधः पावो में मनमिषेण भवता भक्षिताः। अत्र तु प्रस्तरप्रतिमाफवलन इच केवलं पन्नमङ्गलव' इति थिचिन्त्य किनिद्विहस्य छ स हतमस्तं पुनरेवमवोचल
'माहं स्वर्गकोपभोगतृपितो नाभ्यायतस्त्वं मया सन्तुष्टस्तृणभक्षणन सततं हन्तुं न युक्तं तव । स्वर्ग यान्ति यदि त्वया विनिहता यज्ञ ध्रुषं प्राणिमो यजं कि न करोषि मातृपितृभिः पुत्रस्लया पाम्पवः ।।१७।।'
____ तक्ष्नु भो महाराज, सा महोयाम्बिका गमोक्तिषु निरुसरा सती परमुपायानरमपश्यन्ती 'सम्धप्रतिष्ठातन्त्रेषु हि राजनेशमार्यमन्तिमावि मारिष्टाः मराः। सरेत कुशलमतिभिः शान्तिकमणंष कर्तव्याः काययभ्यन्तराः' इति, तथा 'महत्यपि हि पुत्रे सवित्रीगो बाल माल इव चाटुकारलेला एकालापाः बलाध्यन्ते, न पुनः कर्णकलुकाः' इति स विचिन्त्य, 'मातः, 'आलमलमनेन भमाधेयस्करणोपचारेण' इति स्या सहबदमानं विनिवार्यमाणापि जब शिष्य वेसा ही कर रहा था अर्थात् जन वह बकरे को बांधकर ले जा रहा था तब वह बकरा पृथिवीपर बच से कीलित हा गरीखा बेठ गया और प्रस्तुन उपाध्याय के साढ़े पांच मी शिष्य मिलकर भी उसे उठा न सके । 'इस बकरे के मांग द्वाग बेदीक विधि से विवादि चेवता, पिता-आदि पूर्वज एवं बाह्मग-आदि तृप्ति प्राप्त करें इस प्रकार के भाषण री उत्कट योध करनेवाले व जिसके नेत्र क्रोधरूप विष की उत्पत्ति से लाल हुए हैं एवं जो शीघ्र स्वयं ही बघ करने के लिए उठाए हा पर्वताकार सरोखे पाषाणों से कर्कश हो रहा था ऐसे उपाध्याय से बह घबरा मनुष्य-सरीखा ( मनुष्य की वाणी से ) निम्न प्रकार बोला--'भट्ट का यह महान प्रयास किस कारण से ही रहा है ?' उपाध्याय भयभीत ब आश्चर्यान्वित होता हुआ निम्न प्रकार बोला'हे महापुरुष ! आपके स्वर्गगमन के लिए मेरा प्रयास है। उक्त बात को सुनकर बकरे ने मन में विचार किया । 'दूसरे पशु, जो कि यज्ञ के बहाने से आपके द्वारा भक्षण किये गए हैं, वे अविनिकर ( अल्प ) वारीरधारी थे, परन्तु विशाल शरीर-धारक मेरे त्रिपय में चट्टान की मूर्ति को चबाने समान केवल तुम्हारे दांत टूटेंगे।' फिर उस बकरे ने कुछ हंसकर उपाध्याय से कहा-'हे भट्ट! मैं { बकरा ) स्वर्ग के भोग नहीं चाहता। 'मुझे स्वर्ग पहुँचाओ' इसप्रकार मैंने तुमसे प्रार्थना नहीं की 1 में तो वेरी आदि के पत्तों को चबाने से हो निरन्तर सन्तुष्ट है। श्रेष्ठ वर्णवालं तुम्हें कगं चाप्डाल-सरीखे होकर मेरा वध करना उचित नहीं है । यदि तुम्हारे द्वारा यज्ञ में मारे हुए प्राणी निश्चय में स्वर्ग जाते हैं, तो तुम माता-पिताओं तथा अपने प्रमों व बन्धुवर्गों से यज्ञ क्यों नहीं करते? ||१७७||
_फिर हे मारिदत्त महाराज | जब यह मेरों माता ( चन्द्रमत्ति , जो कि मेरे उक्तप्रकार के वचनों में उत्तरहीन है व जिसने दूसरा उपाय नहीं देखा और जो 'है माता ! मेरे इन पैरों पर पड़ने रूम अकल्याणकारक दिनय से पर्याप्त है' इमप्रकार विशेष मान-सहित मेरे द्वारा निवारण भी की जा रही है, मेरे पैरों पर विशेष प्रकट की हुई करणापूर्वका व प्रबाट हुई विशेष विनय सहित गिरी और उसने मुझसे निम्नप्रकार प्रार्थना की । मेरी माता ने क्या विचार कर? मुझमे निम्नप्रकार प्रार्थना की? 'निस्सन्देह समस्त संसार में सम्मान-समूह प्राप्त करने वालं राजपुत्रों के तंत्र्य स्वभाव से कुटुम्बवर्ग के प्रति घतला के कारण निर्दय होते हैं, अत: निपुणबुद्धिपाली पुरुषों को इन राजपुत्रों के लिए सामनीति से ही कर्तव्यों में अपने अधीन करना चाहिए ।' और निश्चय से महान पुत्र के प्रति माताओं के शिशुकालसरीखे मिथ्यास्तुतिबाले व स्नेहपूर्ण मोठे वचन ही प्रशंसनीय होते
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चतुर्थ आश्वासः सप्रणयमतिप्रकटितकायणामय गाविभूतप्रधयं च पादयोनिपश्य मामेधमक्तिवली-'पुन, अहमनाथेत्यनुसम्पया बा, मातेति वरमलतया बा, मशंगायत्तनोबितरयुपरोधेन वा. वृद्धति ट्याललया था. गुरुवचनभनुल्लङ्घनीयमित्याशयेन वा, भविष्यत्यवश्यमनेनापयिताइोग पूर्वमारितस्यापि कृतस्य हानिरिनि परामर्शन वा, फिमपरः कोऽपि नास्ति तव पण्डितमन्यभावस्यास्पदं येन मयि जरत्यामेवमतोब विहितविचारचपनोऽसीत्यपालम्भन भयेन वा, युक्तमपुतं वा गरेव जानातोति मार्गानुसारणेन वा. न भवति प्राभं चेदनुष्ठानमहझेव स्यामेनसां भागीति मनोषमा वा, चिरमियं महीपति पदे स्थिता मयापानिता रातन गोवियतोति संभावनेन वा, पुरा हि तस्या एवं मम प्रभवन्ति वासि कुतो नाति स्नेहानुगमनेन या, नो चेदाय करिष्यामि देवतोपहाराय त्वमेष ताधवनुभव भयकुलविशवः श्रियोश्याः फलमित्यपवादबीमाया घा, यदि परलोकबोयाशङ्कननान्येन वा केदिकारणेन प्राणिधाते न व्याप्रियसे, मा प्रावतिष्ठाः। किंतु विनिवेदितवक्षिणोत्सवानिधिः परिधाविलसकलसस्वीपहारकलोत्कटेम पिष्टकुक्कुटेन कुलदेवतार्य अलिभुपकस्थ्य सदवशिष्टं पिट मांसमिति च परिकल्प्य मया सहावश्यं प्राानीयम्' इति ।
नाजा- स्थगतम् ! ) 'अहो, महिलानां दुराग्रहनिरयग्रहाणि परोपधातापहाणि च भवन्ति भामेण चेष्टितानि । स्त्रियो हि नाम भवन्तु भर्तृषु शम्माविषये पुत्रेषु च प्रनिपालनसमये प्रकामं निसृष्टार्था निरङ्कुशाचरणसमर्थाश्च, म है न कि कानों को कटु प्रतीत होनेवाले ।' उगने मुझसे बोसी प्रार्थना की?- 'हे पुत्र ! यदि तुम दुर्गसि-गमन की आशङ्का से अथवा किसी दूसरे कारण से जीवबंध में प्रवृत्त नहीं होते तो मत प्रवृत्त होओ, किन्तु आटे के मुर्ग से, जिसमें ऐसे राह्ममा अग, निकाः ३२.हिले जिले की हुई दक्षिणा के लिए है और जो त्रयीवेदविद्या में निपुण हैं, समस्त प्राणियों को बलि का फल विविध ग्रन्थों के प्रमाणपूर्वक ज्ञापित किये जाने से महान है, कुलदेवता के निमित्त बलि ( पूजा ) समर्पण करके तथा उससे बचे हुए आटे में मां का संकल्प करके निम्न प्रकार कारणों से तुम्हें मेरे साथ अवश्य भक्षण करना चाहिए।
हे पुत्र ! तुम्हें किन कारणों से उक्त कार्य करना चाहिए ? 'हे पुत्र' ! में अनाथ हूँ, इसप्रकारकी दयालुता से अथवा 'यह मेरी माता है सो अनुरागता से, अथवा 'यह मेरे दर्शनावीन जीवनवाली है' इसप्रकार के आग्रह से, अथवा, 'यह बुन्द्र है' इगप्रकार की दयालुता से, अथवा 'माता-पिता-आदि मुरुजनों का वचन उल्लडन करने लायक नहीं है' ऐसे नेत्तिक अभिप्राय से, अथवा 'इसका मनोरथ पूर्ण न होने से पूर्वकाल में विधिपूर्वक किये हुए पुण्य का नाश अवश्य ही होगा इगप्रकार के विचार से अथवा हे पुत्र! तुम्हारी मूर्खता का स्थान क्या कोई दुगरा गुण या स्वभाव नहीं है ? जिससे तुम मुझ बृद्धा के विषय में भी उक्तप्रकार किये हा विचार से विशेष अस्थिर प्रकृतिबाले हो रहे हो' इसप्रकार को उलाहना के भय से, अथवा 'योग्य-अयोग्य को माता पिता ही जानते हैं इमप्रकार के मार्ग का अनुसरण ( स्वीकार ) करने से, अथवा 'यदि यह शुभ अनुष्ठान नहीं है तो में ही पाप-भागिनी होऊँगो' ऐसी बुद्धि से अथवा 'विशेष पूज्य स्थान पर अधिष्ठित ६ई भी, मेरे द्वारा तिरस्कृन होने के कारण यह चिरकाल तक जीवित नहीं रहेगो' इसप्रचार के विचार में अलवा जन्म उसके परोक्षकाल ( पाठ गोछे । में ही परं वचन उसको आज्ञापालन में समर्थ हाते हैं तब इससमय उसके सगक्ष क्यों नहीं आज्ञापालन में समर्थ होंगे ?' इसप्रकार के प्रेम का अनुसरण करने से अथवा 'यदि भेग वचन स्वीकार नहीं करते तो मैं हो अपने वो देवता की बलि निमित्त कार दंगो, फिर मातृ-पितृवंश में शुद्ध हुए तुमही इस राज्य की लक्ष्मी ना फल भोगा' इसप्रकार के अपवाद के भय से ।
___ उक्त बात को सुनकर, यशोधर महराज ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया 'आश्चर्य है कि स्त्रियों के कार्य, बहुलता से दुराग्रह से रुकावद-हीन और दूसरों का बध करने में दृढ़प्रतिज्ञा-युक्त होते हैं। क्योंकि
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पुन: पौरुषेयेषु कर्मसु । यत्कमलिनीले
लत्वादतीव निःसारत्वान् । पुरुषोऽपि काय स्त्रियं प्रमाणयन्नवप्रवाहपतितः पावय इस न वि नन्वति । स्त्री तु पुरुषपुष्टिस्थिता खड्गयष्टिरिव साधयत्यभिमतमर्थम् | अभिनिवेशं च पुनः पापपुण्यक्रियासु प्रधानं निधानमामनन्ति मनीषिणः । बाह्यानीन्द्रियाणि तपनतेजांस शुभेष्यशुभेषु च वस्तुषु समं विनिपतन्ति न चंतायतर भवति सर्वाधिष्ठातुः कुशले पाष्टेन संचयः । संकल्पोपपन्न प्रतिष्ठानि च देवसायुज्यभाजि शिलाशकलानि किमत्यासावयन् पुरुषो न भवति लोके महापश्वपालकी सकृदेव प्राशुभसंकल्पमलिने मनसि दुरवाकलुषिते सत्पुरुषचेतसीय दुर्लभाः खलु पुनस्तत्प्रसन्नतायामुपायाः । चिरेणापि
कालेन कृतः कल्याणकर्मणां प्रचयः प्रमादवशेन सकृदपि संजातविभिदुरभिसंधि: पात्रक निक्षेपात्भासाव हव मणेन विनश्यत्यमूलतः । संकल्पेन च भवन्ति गृहमेधिनोऽपि मुनयः । यथा - उत्तरमथुरायां निशाप्रतिमास्थितस्त्रिदिवसूत्रितकलत्रपुत्रमित्रोपद्रवोऽप्येकवत्वमावनमान सोऽहंदासः । मुनयश्च गृहस्थाः । यथा - कुसुमपुरे चिरावारुणित सुतस मरस्थितिरातापनयोगधुतोऽपि पुरुहूतवेषः ।
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स्त्रियां, पति के साथ सुरत ( मैथुन - भोग ) समय में और पुत्रों के पालनपोषण के अवसर पर यथेष्ट गृह कार्यों में छोड़ी हुई व सामु आदि से निर्भय - स्वाधीनता पुर्वक कार्यसम्पादन में समर्थ होनें न कि पुरुषों द्वारा किये जानेवाले कार्यों में। क्योंकि स्त्रियों का मन कमलिनी-पत्तों पर पड़े हुए जलविन्दुसरीखा विशेष चञ्चल
अत्यन्त निर्बल होता है । पुरुष भी गृहकार्य ( भोजन बनाना आदि) को छोड़कर दूसरे कार्यों में स्त्री को प्रमाण मानता हुआ नदीप्रवाह में पड़े हुए वृक्ष सरीखा चिरकाल तक स्थिर नहीं रहता एवं स्त्री तो पुरुष की मुट्ठी में स्थित हुई - पुरुष से परतन्त्र हुई - उसप्रकार अभिलषित प्रयोजन सिद्ध करती है जिसप्रकार उत्तम खगयष्टि (तलवार) योग्य पुरुष की मुष्टि में स्थित हुई अभिलपित प्रयोजन ( विजयश्री सिद्ध करती है। विद्वान् लोग चित्त की आसक्ति को ही पाप-पुण्य कियाओं का मुख्य स्थान कहते हैं। क्योंकि यद्यपि चक्षु-आदि इन्द्रियों पुण्यजनक व पापजनक कार्यों में सूर्य प्रकाश सरीखों एककाल में ही प्रवृत्त होती है, परन्तु इतने मात्र से-- केवल दर्शनमात्र से ही दर्शन व स्पर्शन करनेवाले मानव को पुण्य व पाप से संबंध नहीं होता । उदाहरणार्थ - मानसिक संकल्प द्वारा प्रतिष्ठा प्राप्त करनेवाले व देव ( ईश्वर ) की समानता को प्राप्त हुए पाषाणखण्डों (पाणमयी देवमूर्तियों) की आसादना (तिरस्कार ) करता हुआ मानव क्या लोक में महापच पातको " ( स्वामी द्रोह व स्त्री-चब-आदि का करनेवाला) नहीं होता ? जब मन एकचार भी पापपरिणाम से दूषित ( मलिन ) हो जाता है तब निश्चय से उसे निर्मल करने के उपाय वेसे दुर्लभ होते हैं जैसे निन्दा से मलिन हुए सत्र के चित्त को निर्मल बनाने के उपाय दुर्लभ होते हैं। जैसे अग्नि डालने से गृह नष्ट-भस्म हो जाता है वैसे ही चिरकाल से संचय किया हुआ पुण्यकर्म-समूह भी, जिसमें असावधानी से एक बार भी नष्ट अभिप्राय उत्पन्न हुआ है, क्षणभर में समूल नष्ट हो जाता है। पुण्यपरिणाम से गृहस्य भो मुनि-सरीखी मान्यता प्राप्त करते हैं । जैसे उत्तर मथुरा में रात्रि में ध्यानस्य हुआ बर्हदासनामका सेठ, देवविशेष द्वारा किया गया है स्त्री, पुत्र व मित्र का उपद्रव जिसका, ऐसा होनेपर भी एकत्व भावना के चिन्तदन में मग्नचित्त हुआ मुनिसदृश मान्यता को प्राप्त हुआ । एवं मुनि भी पापपरिणाम से गृहस्थसरीखे हो जाते हैं । उदाहरणार्थ – जिस प्रकार
१. उस च शमिद्रोहः स्त्रीवधी बालहिंसा विश्वस्तान घात निभेदः । प्रायेणैतत्वकं पातकानां कुर्यात्सद्यः प्राणिनः प्राप्तदुःखान् ॥ १ ॥'
२. अहंदास की कथा -- उत्तर मथुरा में जब अर्हदास नाम का सेठ चतुर्दशी भूमिवर ध्यानस्थ होकर एकत्व भावना में लीन था तब उसके व्रत को अनेक उपद्रव किये, तथापि उसे जरा भी मानसिक क्षोभ नहीं हुआ, जिससे उसे मुनिसदृश मान्यता प्राम हुई ।
का उपवास किये हुए रात्रि में पान नष्ट करने में तत्पर हुए वनदेवताओं में
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चतुर्थं आश्वासः अस्ति च जगत्प्रसिमियमुवाहरणम्-एकस्मिन्नेव किल कामिनोफलेवरे मुनिकामिकुणपाशिनामभिनिवेशनिमित्तो विचित्रनिकः कर्मविपाक इति । कि च ।
नरेषु संकल्पवशेन मन्मथो यथा प्रवर्तेत पयवच धनुषु ।
तर्थव फर्माप्पुभयानि मानसावधाति योषाषिपतिविम्भितात् ॥१५८॥ इथमिज्या छ मे मोहथिङ्गला कालरात्रिरिव दुष्परिहारा जानुभजिनीव में गतिभङ्गाय प्रत्यवस्थिता । तवत्राहम् 'इतस्तटमितो ध्याघ्रः केनास्तु प्रागिनो गतिः' इतीमं न्यायमापतितो यथवगणयेयमस्याः प्रतिश्रुतम्, तदेत एष समोपतिनो 'देव, बुद्धेः फलमनाग्रहः' इत्पुपविशन्तो भविष्यनस्युपाध्यायाः । सकलजनसमर्श परमपमानिता चेयं जरती न जाने कि करिष्यति । स्वस्य च मनसि चोक्षामि क्रियोटोशा सा न भवति सः श्रेयस्करी, या न रजयति परेषां चेतांसि ।
पटना नगर में 'पुरुहूत' नामका देवर्षि ( दिगम्बर मुनि ), आतपन योग में स्थित हुआ भी, जिसने गुप्तचर द्वारा अपने पुत्र को युद्धस्थिति सुनी थी गृहस्थसरीस्त्रा हो गया'1'सर्वलोक में विख्यात निम्न प्रकार दृष्टान्त वचन है-केवल मरी हुई धेश्या के शरीर को देखकर दिगाना पनि न सापक विद् तथा कने के अभिप्राय में कारण नानाप्रकार के आनयवाला कर्मविपाक ( उदय ) है।
जैसे कामवासना के अभिप्राय से मनुष्य में काम ( मैथुनेच्छा ) उत्पन्न होता है और जैसे मरे हुए बछड़े का करक ( ढाँचा ) देखने से गायों के थनों से दूध झरता है. वैसे ही यह जीव मानसिक शुभ-अशुभ अभिप्राय से क्रमशः पुण्य-पाप कर्मों का वध करता है ।। १७८ ॥
मोह ( अज्ञान ) से विह्वल-व्याकलित हुई मेरी माता ( चन्द्रमति ) और मोह ( प्राणि-हिसा ) से विह्वल ( भयानक । यह यज्ञ, बेसा मेरे लिए दुःख से भी त्यागने के लिए अशक्य है जैसे मोह । मूर्छा ) से विह्वल-व्याकुलित करनेवाली-कालरात्रि दुःख से भी त्यागने के लिए अशक्य होती है। एवं जैसे यन्त्र विशेष गतिभङ्ग ( गमन-रोकने ) के लिए स्थित होता है जैसे यह मेरी माता व यज्ञ गतिभङ्ग ( ज्ञान नष्ट करने ) के लिए स्थित है। उससे में यहाँपर 'इस ओर जाने से नदी का तट है और उस ओर जाने से ध्यान
१. 'गपा फुसुमपुरे प्रतोदन्ताल्लेशवाहकादाकणितसुतसमरस्थिति रातपनयोग सुतः पुरुहूतो देवपिः' नागौर की है. लि. (क)
से समुन्दुत पाठान्तर
नोट:-यद्यपि इसका अर्थ भी उपर्युक्त सरीखा है तथापि यह पाठ मु० प्रति के पाठ की अपेक्षा विशेष उत्तम है। . २. पुरुहूत देवर्षि की कन्या--पाटलिपुत्र नगर के 'पुरुहूत' नाम के राजा ने पुत्र के लिए राज्यभार समर्पण करके जिन
दीक्षा धारण कर 'दशपि' नाम प्राप्त किया। एवं पर्वत-मेखलापर शासपन योग में स्थित हुआ। उसने पत्रबाहक गुमचर से, जिसने प्रस्तुत विद्याधर की उपासना के लिए आए हुए श्रावक के साथ बातचीत को थी, शत्रुओं के साथ अपने पुत्र का युद्ध सुला । फिर कुगित हा. उसनं मुख करने का उद्यम किया और पहाड़ी से बने हुए सरीखा हो गया। बाद में अधिवानो चरणमद्धिधारी मुनि ने उसे समझाया--कि ऐसे त्रिक दिगम्बर वष को धारण
करके इसप्रकार चिन्तवन करना योग्य नहीं है। ३. पमशान भूमि पर पड़ी हुई मृत वैश्या को देखकर दिगम्बर मुनि ने विवार किया-इसन तपश्चरण क्यों नहीं किया ?
वृथा हो मर गई। जिससे मुनि को स्वर्ग का कारण पुण्य बन्ध हुआ। फिर उसे देखकर वेश्यावत विद ने विचार किया कि यदि यह जोक्ति रहती तो मैं इसके साथ मोग करता अतः उसे पाप का कारण दुर्गति का वन्ध इमा। फुले ने उसे देखकर उसके मांस-भक्षण की इण्या की, इससे उसे पाप का कारण नरक बन्य हुश्रा ।
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यशस्तिलकचम्पूजयव्ये तपा व लोकिको श्रुतिः-किल वृहस्पतिः सव्वतोऽपि त्रुङ्कारमगरे लोचनाञ्जनहरेण स्तियन मिखापवादषितः शत. ऋतुसमाया प्रवेश न लेभे । अलब्धाशनशेिन तु पजकमाग्ना धाग्जोयनेन 'अयं भिक्षाप्रमणध्यानाभकामक्षयति' इत्युपहतश्चक्रपाणिः परित्रावाराणस्याम् । मधुपेषु मध्ये गीतपयाश्च मार्कण्डतापमस्तापसाट । ज्ञान ध प्रतिकूलबंदोपनिपातमोषमिव न भवति विहितोपयोगमप्यक्रियाकारि । किं नु खल्वनो पायनो येन म सानु कम समाचार । पौलस्त्यो नीतिशास्त्रषु नाघोषीदाण्डक्योपाख्यानम्, पेन स परदारानपाइरत् । नपंग न सम्यगृपासितं गुरुकुलं येन सप्तर्षीम्सयुग्यानझार्थोत । प्रजापति एव एटो वा. येनात्महितरि अनश्चकार । वरचिश्च वृषलीनिमित्तमासबनिपोहनमिति ।
(प्रकाशम् ।) अन्न, न बाललिपि में कदाचिन्ततिलोमतां गतासि । न बांध कथमधंव ते चन्द्रमसेर प्यस्थाने दुराग्रहमालीममा मतिः सममनोति । तत्पर्याप्त मत्रालापपरम्परा। भवतु । भवरान प्रमाणम् । उत्तिष्ठ । ननु सर्वव पूर्यन्तामत्र कामितानि । आहूय स्वमेयाविश कृकवाकुषिनिर्माण शिल्पिनः । सापु समाज्ञापय स्वमेव भगवतीभवनशोभारम्भाय देखभोगिनम् । अनुशाधि स्वमेव यशोमतिकुमारस्य राज्याभिषेक दिवसगणनाय मौहतिकान । है, अत: किस मागं से प्राणी का गमन हो ?' इगप्रकार की पास में पढाइमा मैं गगि इम माता द्वारा प्रतिज्ञा की हुई बात :आटे के मुर्ग की बलि) तिरस्कृत करता हूं तो य समीपवर्ती लाम हे राजन् ! बुद्ध का फल आग्रह न करना है' इसप्रकार उपदेश देते हुए मेरे उपाध्याय हो जाँगग एवं रापस्त पुरुषों को रागक्ष तिरस्कृत को हुई यह वृद्ध माता न मालूम क्या करेगी ? अपने मन में वर्तमान शुद्ध भी कर्नव्य करने की इच्छा यदि दूसरों के चित्त को प्रमुदित नहीं करती तो बह पुरुष को कल्याण करनेवाली नहीं होती । उक्त बात को समर्थक लौकिक कथाएँ-निस्सन्देह 'बृहस्पति' सदाचारी होनेपर भी अब जुझार नाग के मगर में 'लोचनान्जनहर' नामक जुआरी द्वारा मिथ्या-अपबाद से दूषित हुआ तब इन्द्र-सभा में प्रविष्ट न हो सका। दूसरी कथा--'चक्रपाणि' नामका सन्यासी 'बजक' नाम के स्तुतिपाठक से, जिसे प्रस्तुत संन्यासी से भोजन का भाग नहीं मिला था, 'यह मिक्षार्थ घूमने के बहाने से बच्चों को खाता है' ऐसी निन्दा रो दूषित होने के कारण काशीनगर में प्रवेश न कर सका । 'मार्कण्ड' नामका तपस्वी, जिसने शरावियों के बीच में उनके स्नेह से वोवल दुध ही निगा था, 'इसने शराब पी लो' इसप्रकार की लोक-निन्दा के कारण तपस्वियों के आश्रम में प्रवेश न कर सका। प्रतिकूल माग्य के उदय से व्याप्त हुआ ज्ञान, उपयोग किया हुआ भी सेवन की हुई बीधि की तरह सफल नहीं होता।
निस्सन्देह क्या 'द्वैपायन' नाम के गुनि मूर्ख थे, जिससे उन्होंने द्वारिका नगरी को भस्म किया । क्या लक्षाधिपति रावण ने नीतिशास्त्रों में 'दाण्डनप' राजा का उदाहरण नहीं सुना था जिसमें उसने परस्त्री ( सती सीता ) का अपहरण किया। क्या 'नहुष' राजा ने भली प्रकार गुमपाल को उपासना नहीं की? जिससे उसने सप्तर्षियों को बेलों सरीखे बाहन बनाए । क्या ब्रह्मा विवेक-हीन या बहिरे थे? जिससे उन्होंने अपनी पुत्री के भोगने की इच्छा की । कात्यायन नाम के तपस्वी ने दासी के निमित्त शराय से भरा हुआ घड़ा उठाया।
अब यशोधर महाराज ने स्पष्ट कहा-हे माता ! जब बाल क्रीड़ाओं में भी किसी भी अवसरपर तुमने मेरी प्रतिकूलता प्राप्त नहीं की, अर्थात्-सदा मेरे अनकल रही-तघन जाने आज चन्द्रमति (निर्मल बुद्धि-युक्त ) तेरी बुद्धि अयोग्य आचरण में दुष्ट आग्रह से विशेष मलिन किस प्रकार हुई? अतः इस कार्य में विशेष वार्तालाप करने से कोई प्रयोजन नहीं। अस्तु इस कार्य ( आटे के मुर्गे का मारण व उसको मांस समझकर मक्षणरूप कार्य ) में आप ही प्रमाण हैं। हे माता ] उठो । निस्सन्देह प्रस्तुत कार्य में आपके हो मनोरथ पूर्ण हों। तुम्ही शिल्पियों को बुलाकर मुर्गा बनाने की आज्ञा दो व तुम्ही कुलदेवता-गह की शोभा करने के
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चतुर्थ शाश्वासः एवमन्यान्यपि विधापय त्वमेव वेचहिमपरिजनपूगापुरःसराणि गृहकार्याणि । अहो वैरिकुलकमलाकरनीहार प्रतीहार, विसृज्य तामयमशेषोऽपि पंचायधमनुजोविमिवहः । अहम ध्येय विरप्रवृत्तमासिंजातश्रमो मनागम्यस्माद्वसुमतोतिलकास्सभामण्डपारवेशावतिनि तस्मिन्मदनविलासनामनिवाराभवने स्वगविहाराम गामि। सदनु तस्मिन्मथ म्यातलमसंकृतपस्यहो विक्रमालंकार, सा भवोयामृतमतिमहादेवी विवसादोयमादातुमागत्य गमात्सुमशेखरकात्पुर.पबाटोमंदनवमयन्तिकायाः प्रसाधिकाया दुहिनुविनोदकलहंसिकायाश्च सधीस्याः संजातसकलसेवायसरायो संसदि प्रयत्तमुदन्तमाकर्ण्य, 'न बल में यामिनोसमाचरितसाहसावस्प वसुमतीपतेरपरमेवंविषकूटकपटानुष्ठानमस्ति । मन्ये च नुष्करमेवमस्मास्थिरचित्तस्य चिरकालभावीनि भविष्यस्यापि । फुलवधूनां हा यभन्यश्च देवधिजाग्निसमक्षं मातापितृविजोतस्प कायस्यैव भवतीयर, न मनसः । तस्य पुनः स एव स्वामी यत्रायमसाधारणः प्रवर्तते परं विध्यविश्माषरः प्रणयः । तथाहि
पुरापि कि न रेमे गङ्गा सह महेश्वरेण, राधा नारायणेन, बृहस्पतिपत्नी विजराजेन, तारा च यालिना । महासत्वेषु हि मगति न किचिद्दष्करभस्ति । अन्यत्र विरक्त सि रागप्रत्यानधनात् । को हि नामायःपिण्ड इय लप्नातप्ते मनसी संपातुमर्हति । किं च परमकुहन इव पुरंत्रीषु बुद्धिमानवाप्नोति स्वर्भपसम् । अन्यथा कृत्यारायक इव भ्रवं पवजनः लिए देवता-यूजक पुजारी ब्राह्मण को भलो प्रकार आमा दो। एवं यशोमति कुमार के. राज्याभिषेक करने की लग्न दलोन के लिए जगहों -पोतिषियों को उपदेश को : देवपूजा, द्विजपुजा व परिजन ( कुदम्ब ) पूजाआदि दूसरे मा गृहकार्य तुम्ही कराया। शन समूहरूपी काल वन के शोषण के लिए हिम-सरोवे हे द्वारपाल ! तुम इस समस्त किंकर-समूह को भी उपयुक्त स्थानपर भेज दो एवं यह में भी, जिसे लम्बी वेला पर्यन्त उतान्न हुए वार्तालाप में खेद उत्पन्न हुआ है, इस 'वसुमतीतिलक' नाम के मभा मण्डप से कुछ निकटवर्ती उस 'मदनदिलाम' नाम के निवास भवन में स्वच्छन्द विहार-निमित्त जाता है। इसके बाद जब में प्रस्तुत 'मदनविलास' नाम के निवास भवन में स्थिति हुए पलंग को अलङ्कत कर चुका था तब अहो ! पराक्रम-पञ्चानन मारिदत्त महाराज ! उस मेरी अमृतमति महादेवी ने दिन सम्बन्धी भोजन-ग्रहण करने के निमित आकर वापिस गये हुए 'कुसुम शेम्बर' नाम के विद्यार्थी से एवं विनोद कलहंसिका' नाम को मखी से, जो कि 'मदनदमयन्तिका' नाम की गृङ्गार कारिणी को पुत्री श्री, सभा में, जिसमें समस्त पुरुषों को सेवा का अवसर उत्पन्न हुआ है, उत्पन्न हुए वृत्तान्त को सुनकर निम्न प्रकार विचार किया-'इस ग़जा के ऐसे कुट कपट का कारण निश्चय से मेरे द्वारा रात्रि में किये हुए दुबिलास को छोड़कर दूसरा नहीं है। ऐसे अस्थिर चित्तवाले इस यशोधर महाराज को आयु ( जीवन ) दीर्घ होगी, इसे मैं असम्भव मानती हूँ। अर्थात्- यह निकट मृत्यु है। निश्चय से यह यशोधर अथवा इससे भिन्न दुसरा कोई भी मानव देव, ग्राह्मण व अग्नि के समन्न माता-पिता द्वारा दिये गए कुलवघुओं के शरीर का ही स्वामी होता है, न कि उनके चित्त का । उन कुलवधुओं के चित्त का वही स्वामी होता है, जिस पुरूष में ऐसा प्रेम पाया जाता है, जो कि अनोखा और विश्वास एवं दुःख-निवारण का स्थान होता है । अब अमृतमति उक्त वात को दृष्टान्त-माला द्वारा समर्थन करती है
पूर्वकाल में भी शन्तनु राजा की पत्नो गल्ला ने क्या महेश्वर के माय रतिविलाम नहीं किया ? राधा नाम की गोपी ने क्या श्रीनारायण ( श्रीकृष्ण) के साथ रतिविलास नहीं किया ? और बृहस्पति की पत्नी ने क्या चन्द्रमा के साथ रमण नहीं किया ? एवं सुग्रीव की पत्नी तारा ने चालि के साथ कना रतिबिलास नहीं किया ? निश्चय से महासाहसियों को संसार में कोई भी कार्य असम्भव नहीं है, परन्तु विरचित को अनुरक्त बनाना शक्य नहीं । निश्चय से कौन पुरुष लोहे के गोलों-सरीखे तप्त और अतप्त चित्तों को जोड़ने में समर्थ होता है ? विशेषता यह है कि केवल स्त्रियों से ई न करनेवाला बुद्धिमान पुरष हो अपना कल्याण प्राप्त करता है,
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पश्चतामञ्चेत् । भवेद्वावश्यमक्षिगतः । तवेष यावन्न मयि रोषविवं वर्षति तावबहीवास्य तवर्षामि पया चैये ममात्मजस्य राम्याभिषेकवार्ता प्रतिस्वप्नविषि किंवदन्ती च बाढमुन्छलिता। सा यदि वैवात्तव परमार्थसती तदापिरात्प्रकाम मे मनोरथाः फलिताः । सिद्धं च मे समोहितम् । न तवामचर्यम् । अनुकलं हि देवं करोति कुरङ्गमपि कठीरवातिवर्तनम् । अचलानपि च विदारयति नलदण्डन । केवलमत्रोत्तायकत्यं परिहले व्यम् । उत्तायकस्य हि पुरुषस्य हस्तायातमपि कार्य निधानमिव न सुखेन जीर्यति । भवति च जोषिलव्यसंवेहाय । किं च न स्थल अक्षितवशाहुम्बाराणि पच्यन्ते । नाप्युदपयरे पातुम्' इति च विलक्यं, तथामनुमयत बबत मधुरं यत्कायं तदपि मानसे कुरुत । रोति कलं हि भपूरः सविणं च भूजङ्गम पति ।। १७ ।। मूर्ना बहति लोकोऽयं पथा म्युमिहेन्धनम् । अनुशील्य भयं नेयस्तथारासिमहात्मना ।। १८० ॥
पुंसामसारसत्त्वाना कि फुहिक्रमझमः । भस्मीभवन्ति काष्ठानि तेजसानुगतान्यपि ।। १८१ ।। ज्ञानवानपि कार्येषु जनः प्रायेण मुह्यति । हस्तन्यस्तप्रधोपस्य कि म स्वलति शेमुषी ॥ १८२ ।। प्रायः सरलचित्तानां जायते विपवागमः । ऋजुर्याति यथा छेवं न बत्रः पादपस्तथा ।। १८३ ॥
अथांत ईर्ष्यालु तो मर जाता है । अन्यथा स्त्रियों से ईर्ष्या करनेवाला पुरुष निश्चय से वैसा मरण प्राप्त करता है जैसे कृत्या देवी विशेष) की आराधना करनेवाला पुरुष मरण प्राप्त करता है । अथवा यह निश्चय मे स्त्रियों से द्वेष करने योग्य होता है ! अतः यह राजा जब तक मेरे ऊपर क्रोधरूपी विप का क्षरण नहीं करता तब तक मैं हो इसके ऊपर कोषरूपी विष का क्षरण करती है। जिसप्रकार से यह मेरे पुत्र ( पशोमतिकुमार ) की राज्याभिषेक-वाती, दुष्ट स्वप्न का शमन-विधान और राजा के दीक्षा-ग्रहण की लोक-वार्ता विशेषरूप से उठो है, वह दीक्षा ग्रहण-वार्ता यदि पुण्ययोग से वास्तविक सत्य होगी तब तो इस समय ही मेरे मनोरथ विशेष रूप से पूर्ण हए ! मेरा मनोरथ अवश्य सिद्ध होगा ही। यह मनोरथ-सिदि लक्षणाला कार्य आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि निश्चय से जब देव अनकल होता है तब वह ( हितकारक पुण्य) हिरण को भी सिंह का घातक कर देता है और पर्वत को भी नलदण्ड रो विदीर्ण कर देता है, परन्तु इझा कायं में उत्सुकता-अस्थिरता छोड़ देनी चाहिए । क्योंकि अस्थिर चितवाले पुरपका हस्त में आया हया भी कार्य निधि-सरीखा अनायास से परिणमन नहीं करता-सिद्ध नहीं होता एवं अस्थिर चित्तता जीवन को संदिग्ध कर देती है। अर्थात् - अस्थिरता में मरण भी उत्पन्न हो जाता है। नियचय से भूखे पुरुष को इच्छामात्र से उदम्बर फल नहीं पकते किन्तु प्रयत्न द्वारा पकाये जाते हैं । इसोप्रकार उबलता हुआ जलादि पोने के लिए शक्य नहीं होता।
'तुम लोग मनुष्यों का सन्मान करो व कानों को अमृत सरीखे मिष्ट वचन बोलो तथा जो कर्तव्य चित्तमें वर्तमान है, उसे करी । जैसे मयूर मधुर शब्द करता हुआ विषैले सांप को खा लेता है ॥१७२।। जैसे पह लोक ईंधन को जलाने के लिए मस्तक पर धारण करता है, वैसे नीतिशास्त्र में प्रवीण पुरुष्य को भी शत्रु को शान्त करके क्षय करना चाहिए ॥१८०|| स्वाभाविक शक्तिहीन पुरुषों की पराक्रम-परिपाटो क्या कर सकती है ? जैसे ईंधन अग्नि से सहित होते हुए भी भस्म हो जाते हैं। ।।१८।। ज्ञानवान पुरुष भी प्रायः करके कर्तव्यों में अज्ञान युक्त हो जाता है। जैसे अपने हाथ पर दीपक स्थापित करनेवाले पुरुष की बुद्धि क्या स्खलित नहीं होती? 1॥१८२१ सरल ( निष्कपट ) चित्तशाली पुरुषों का प्रायः करके मरण होता है। जैसे सरल-सीधा-वृक्ष काटा जाता है वैसे वक्र ( टेडा ) वृक्ष नहीं काटा जाता । अभिप्राय यह है कि इससे मनुष्य को कुटिल ही होना १-२. दृष्टान्तालंकारः। ३, दृष्टान्तालंकारः। ४. आक्षेपालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वासः रक्तभावं समस्तानां प्रयोदेति यः पुमान् । आविस्यवस कि न स्यात्पावाकान्सजगत्त्रयः 11 १८४ ।। बहिर्मुडुलंधूल्यानः पूर्व य: स्यात्प्ररोहवत् । किमसी न भिनत्येव प्राप्य कालं महीभृतः ॥ १८५ ।।
शूरोऽपि सत्ययुक्तोऽपि नौति त्ति न यो नरः । तत्र संनिहिता नित्यमापदः शरभोपमे ।। १८६ ।। अपि च । पूर्तेषु मायाविषु उर्जनेषु स्वार्थकनिष्ठेषु बिमानितेषु । वर्तेत यः साधुतया स लोके प्रतार्यते मुग्धतिर्न केन ।। १८७ ॥
इति च विमृष्य, पाठप्रतिशठन्यायेन किमपि निःशलाके शिक्षायित्वा कुमारवयस्येनालकमानेनापिष्टितं गधिष्ठिरममात्य प्रहितपती । स तथवागत्य प्रविश्य प निवितावसरो मामुन्मूलितमगमिवातोव परिप्लानम्, आलिण्यपरामृष्टं चित्रमिव मलिनायम्, अग्निङ्कितं रत्नमिव नष्टतेजस, उत्पादितपक्षं लायमिव गलितप्रभावमवलोषप 'महान्सल्वस्य महोपतेनंवग्रहस्येव गजस्य दौर्मनस्याभिनिवेशः । कुतोऽन्यथाधवाय नीलिकोपवेपितदेहस्निपणाप्रवाह इव नितरां मलीमसम्यविः समपादि' इति परामर्शविस्मितान्तरमः कृतागमनपर्मतुपोगश्चषं मां व्यजितपत्-वेव, देवी चाहिए' ।।१८।। जो पुरुष समस्त प्राणियों में रक्तभाव ( अनुराग ) प्रदर्शित करके उदित होता है, वह, क्या वैसा' पादाक्रान्तजगत्त्रय-चरणों द्वारा तीन लोक को व्याप्त करनेवाला ( तीन लोक का स्वामी ) नहीं होता? जैसे सूर्य, पूर्व में रक्तभाव ( अरुणता-लालिमा | प्रदर्शित करके उदित होता हुआ बाद में पादाकान्त जगस्त्रय (किरणों द्वारा तीन लोक को व्याप्त करनेवाला) होता है ॥१८४|| जो पुरुप पीपल के अङ्कर सरीखा पूर्व में बाह्य में मृदु । कोमल ) होता हुआ लधु रूप से उत्पत्ति-युक्त होता है, वह समय पाकर क्या वैसा महीभृतों (राजाओं) को विदीर्ण नहीं करता ? जैसे पीपल का अङ्कर समय पाकर महीभूतों ( पर्वतों) को विदीर्ण करता है। ॥१८५|| जो पुरुष बहादुर व शक्तिशाली होता हुआ भी नीतिशास्त्र को नहीं जानता, अष्टापद-सरोखे उस पुरुष के पास सदा आपत्तियाँ ( मृत्युएँ ) निकटवर्ती होती हैं। अर्थात्-जिसप्रकार अष्टापद मेघ की गर्जना से ही मर जाता है" ।।१८६॥ तथा जो पुरुष, घोखेबाजों, कपटियों, शत्रुओं, स्वार्थ-साधन में तत्पर रहनेवालों एवं मानभङ्ग में प्राप्त कराये गए पुरुषों के साथ हितरूप से प्रवृत्ति करता है, वह विवेकहीन पुरुष शंसार में किस पुरुष द्वारा नहीं ठगाया जाता ? ॥१८७।।
हे मारिदत्त महाराज 1 उस अमृतमति देवी ने उक्त विचार करने के बाद शठ-प्रतिशठ न्याय ( तोते के पंखों का लुञ्चन व स्त्री के शिर का मुडना रूप प्रकार ) से कुछ भी ( सत्य-असत्य ) एकान्त में शिक्षा देकर 'अलकभज्जन' नाम के कुमारकाल के मित्र से युक्त 'गविष्ठिर' नाम का अपना मन्त्री मेरे पास भेजा। उसने उसी तरह से आकर द्वारपाल द्वारा सूचित अवसर-बाला होकर मेरे पतिलक भवन बिलास' नाम के महल में प्रविष्ट होकर मुझे निम्न प्रकार का देखा । जैसे उखाड़ा हुआ वृक्ष कान्तिहीन होता है वैसे मैं भी विशेष कान्तिहीन था । जैसे लिखकर मिटाया हुआ चित्र मलिन कान्ति-वाला होता है वैसे मैं भी मलिन कान्ति-युक्त था। जिसप्रकार अग्नि से व्याप्त हुआ माणिक्य कान्ति-हीन होता है उसी प्रकार में भी कान्ति-होन था और जिस तरह लौंचे हुए पंखोवाला गरुड पक्षी नष्ट हुए माहात्म्यवाला होता है उसी प्रकार मैं भी नष्ट हुए माहात्म्यवाला था। फिर उस मन्त्री ने 'निश्चय से तत्काल में पकड़े हुए हाथी-सरीखे इस राजा को उद्विग्नउदास चित्तता का अभिप्राय अत्यधिक है, अन्यथा—यदि यह उदास चित्त नहीं है तो इस समय ही यह वेसा विशेष मलिनता से दुषित कान्तियुक्त कैसे हुआ? जैसे गुलिका मिश्रण से दूषित देहबाला गङ्गा नदी का १. पृष्टान्तालंकारः । २. श्लेष व दृष्टान्तालंकारः । ३. आक्षेपालंकारः । ४, उपमालकारः । ५. आक्षेपालंकारः ।
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८४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये भन्मुखेनेवमाह-पबुत देवः किसाथ दुःस्वप्नोपशमनार्थ भगवत्याः कात्यायन्याः पिष्टकुमकुम यसिमुपहर्तुमावत इति कर्णपरम्परया श्रुतम्, तद्यवि सत्यं तवास्तामसो ताम्रचूजस्तात् । महमेवात्मना परिकल्पिततदुपहारवर्मना परितोषयामि भगवतीम् । प्रशाम्यस्तु देवस्य सर्वेऽपि प्रत्यूहव्यूहाः । प्रवर्षता च देवस्येदमाचन्द्रार्कमसमधीप्राज्यं राज्यम् । न च मया विना भवति रेवस्य कोइम्यूनः प्रवेशः । मद्विधानां हि देवाय फिकरीणामतीय सुलभस्वात् । नीतिरपि तथास्ति
'आग्मानं सततं रक्षेद्दाररपि घनैरपि ।' इति । अप ममवविध प्रेषणाबरोध देवो न करोति करुणां तवा मिथुनवरस्य पक्षिणश्चयाकोव देवस्याहं सहपर्यत एव रात्री षियुक्तासि, गरमः कमलिनीवात एष जठरतासि, जलनिवलेवात एव घपलासि. मभसः शशिप्तिमेवातएव सकलकासि, विपिन शनायेवाप्त एवान्योपभोग्यासि, कुलशेलस्य मेखलेवात एष क्षुब्राधिष्ठताप्ति, तपनस्य प्रभवात एव संतापिकासि, पूर विशेष मलिनता से दुषित कान्ति-युक्त होता है। इस प्रकार के विचार से जिसका मन आश्चर्यान्वित हुआ है और जिससे आने का प्रयन ( आप किस प्रयोजन' से आए हैं ?) किया गया है, मुश्श से निम्न प्रकार विज्ञापन किया
हे राजन् ! अमृतमति महादेवो मेरे मुख से निम्न प्रकार कहती है-'जो कि राजा सा निश्चय से आज दिन दुष्ट स्वप्न की शान्ति के लिए परमेश्वरी कात्यायनी कुल देवता की आटे के मुर्गे से वलि ( पूजा) देने के लिए आदरयुक्त है। यह बात मैंने कर्ण-परम्परा से सुनी है | यदि वह बलिदान सत्य है तो यह आटे का मुर्गा तब तक एक और रहे, मैं ही स्वयं अपने आप किये हुए उसके पूजा-मार्ग से परमेश्वरी चण्डिका को
प्रसन्न करतो हूँ। ऐसा करने पर मेरे स्वामी के समस्त विघ्नसमूह शान्त हो जायगे। मेरे स्वामी का अनोखी , लक्ष्मी से प्रचुरता-प्राप्त हुआ राज्य चन्द्र सूर्य पर्यन्त वृद्धिंगत होवे | मेरे प्राणवल्लभ को कोई भी स्थान मेरे बिना न्यून नहीं है, क्योंकि निश्चय से मुझ सरीखी दासियाँ मेरे स्वामी को विशेष सुलभ हैं। नीतिशास्त्र का मार्ग भी वैसा है-'मनुष्य को स्त्रियों से व धनों से अपनी रक्षा निरन्तर करनी चाहिए। यदि मेरे इस प्रकार के बलिविधान लक्षणवाले कार्यकारण के योग्य कर्तव्य में मेरे स्वामी दया नहीं करते। अर्थात्-मेरा मरण नहीं चाहते हैं तो मैं मेरे प्राणवल्लम की वैसी सहचरी होऊँगी जैसी चकवी, चकवा पक्षी की सहचरी होती है. उक्त बात को सुनकर ययोधर महाराज चिन्तवन करते हैं, 'इसी कारण तू रात्रि में वियुक्त ( वियोगप्राप्त ) हुई है । अर्थात्-जैसे चक्रवी रात्रि में चकवा से वियुक्त रहती है वैसे तू भी उस मूर्य कुबड़े में अनुरक्त होने के कारण मुझसे रात्रि में वियुक्त रही। मैं मेरे स्वामी को बैसी सहचरो होतो हूँ जैसे कमलिनी तालाब की सहचरी होती है। उक्त बात को सुनकर यशोधर महाराज मन में विचार करते हैं इसी कारण तू वैसी जदरत ( उस मुर्ख कुबड़े में अनुरक्त ) हैं जैसे कमलिनी जड़रत ( इकार लकार का इस्पालङ्कार में अभेद होने के कारण जलरत-पानी में लीन ) होती है।
मैं अपने स्वामी को वैसी सहचरी होती हैं जैसे समुद्र की लहर उसकी सहचरी होती है, यशोधर सोचता है, इसी कारण न समुद्र-लहर-सी चञ्चल है। मैं आपकी वैसी सहचरी होऊँगी जैसे चन्द्रमूर्ति आकाश की सहचरी होती है । गशीधर सोचता है कि इसी कारण तू वैसी कलङ्क-सहित ( व्यभिचार-पित ) है जैसे चन्द्रमूर्ति कलङ्घ-सहित ( श्यामलाञ्चन से व्याप्त) होती है। मैं आपकी वृक्ष की छाया-सरीखी सहचरी होऊँगी, यशोधर सोचता है कि इसी कारण तु छाया-सरीखी अन्य-उपभोग्या ( जार द्वारा भोगने योग्य व पक्षान्तर में दूसरे पुरुषों द्वारा सेवन करने योग्य ) है। मैं आपकी कुलाचल को तटो-सी सहचरी होऊंगी,
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चतुर्थ आश्वासः
८५ रथस्य मार्गभूमिरिदात एव पांशुलासि. प्रवीगस्म शिखेवात एव मलिनोवगारासि, वसन्तस्य बनलमोरिघात एव मन्मथकथासमायासि, मलयाचलस्य चन्वनाललेवात एव कदस्वभावासि. गजस्म मदलेखेपात एष कामचारप्रवर्तनासि. हिमगिरेगांगेयात एव नौचानुगतासि, रहनस्य रानतिरिवास एव परमागरितासि । एवमन्यदपि ममाम्ययार्थीपकस्यविषयममिषाय तबस्य सर्वदा राज्यसुखं वायभागिनोव समशितयानुभूयेशामा मेकाम्येवं परमानोपस्थितप्रत्यवायवचनमनीषया या देवः प्रवति । अहं तु पुत्रस्य बियमनुभवन्ती गृत् एव तिष्ठामि । इत्यतीवासंगतमुभयकुलानुनितं विटजनविहित .। न चंचमाक्योरनुष्ठानाधिष्ठितयोः कोऽम्यागर्मायरोधो जनापपावानुबन्धो वा । तपा घोक्तम्
'संत्यज्य प्राम्पमाहार सर्व चच परिच्छवम् । पुत्रेषु वारानिक्षिप्य वनं गच्छेस्सहैव वा ॥ १८॥
यशोधर चिन्तवन करता है कि इसी कारण तू हाटी-सरीखी क्षुद्र-अधिष्ठित है । अर्थात्-हीन बुबड़े से सहित घ पक्षान्तर में क्षुद्र ---व्याघ्रादि-सहित है । मैं आपकी सूर्य की कान्ति-सी सहचरी होऊँगी, यशोधर सोचता है कि इसीलिए तू सन्ताप (दुःखद पक्षान्तर में गर्मी ) देनेवाली है। मैं आपकी वैसी सहचरी होऊगो जैसे रय की मार्गभूमि उसको सहचरी होती है, अगोघर सोचता है, इसी कारण तू मार्गभूमि-सरीखो पांसुला ( कुलटा व पक्षान्तर में धूलि-सहित ) है। मैं आपकी दीपक ज्वाला-शो सहचरी होगी, यशोधर सोचता है, इसी कारण तू दीपक-लौं-मरीखी मलिनोद्गारा ( कपट-पूर्ण बचनों को प्रकट करनेवाली व पक्षान्सर में धुएँ का वमन करनेवाली । है । मैं आपकी बंसी सहचरी होऊँगी जैसे वनलक्ष्मी वसन्त को सहचरी होती है, यशोधर सोचता है इसी कारण तु बनलक्ष्मी-मी कामकथा-संयुक्त है। मैं आपकी वैसी सहचरी होती है जैसे चन्दन वृक्ष की लता मलयाचल की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है इसी कारण तू चन्दनलता-सो कटुस्वभाववाली है। मैं आपकी वैसी सहचरी होगी जैसे मदलेन्खा हाथी की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है कि इसी कारण त यथेष्ट पर्यटन करनेवाली है। में आपको वैसी सहवरी होऊँगो जैसे गंगा नदी हिमालय पर्वत की सहचरी होती है, यशोधर सोचता है-इसी कारण तू नीचानुगता ( निकृष्ट कुजक के साथ अनुराग करनेवाली व पदान्तर में नीचे बहनेवाली ) है । एवं में आगको वैसो सहचरी होऊँगी जैसे रत्न को तेजोवति उसको सहचरी होती है।
___ यद्योघर सोचता है-इसी कारण तु परभागघटिता (विद् के भाग्य के लिए रची हुई व पक्षान्तर में शोभा से घटित ) है | हे मारिदत्त महाराज ! इसप्रकार गविष्ठिर मन्त्री ने मुझ से अमृतमति महादेवी के दुसरे भी ऐसे बचन कहे, जो कि काकु व वक्रोक्ति अलङ्कार से अलङ्कत थे। फिर उसने निम्न प्रकार वचन कहे उस कारण मैंने अपने प्राणवल्लभ के राज्य मुख को सर्वदा दाय-मामिनी-सरोखी होकर समान भागरूप से भोगा, परन्तु इस समय मेरे प्राणनाथ अकेले ही मोक्ष सुख के इच्छुक होने के कारण अथवा उपस्थित हुए, दोपों का निराकरण न होने की वद्धि से दोश्ना धारण कर रहे हैं और में पुत्र यशोमतिवमार की लक्ष्मी भागती हई गह में हो रह, यह बात अनुचित व दोनों कूलों ( ससर व पिता का वंश के अयोग्य एवं शिष्ट पूरूपों से निन्दित है। परन्तु यदि हम दोनों ( राजा व रानी) चरियपालन में तत्पर हों तो इसमें कोई आगम ( शास्त्र ) से विरोध नहीं है और न लीकानन्दा का हो संबंध है। 'मैं अपने स्वामी की सहचरी होऊँगी इसका शास्त्रप्रमाण द्वारा समर्थन करती है
____ मोक्षाभिलाषी मानव को सर्वलोक साधारण भोजन छोड़ कर अर्थात्-धान्य व फलों एवं पत्तों में प्रवृत्ति करके समस्त परिवार को छोड़कर एवं स्त्रियों को पुत्रों के लिए समर्पण करके तपश्चर्या के लिए वन में जाना चाहिए अथवा स्त्रियों के साथ बन में जाना चाहिए ।।१८।। स्त्रियों के लिए भिन्न कोई यज्ञ
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८६
किच
यशस्तलकचम्पूकाव्ये
नास्ति स्त्रीणां पृथग्पो न व्रतं नाप्युपोषितम् । पति शुषमेव तेन स्वर्गे महीयते ।। १८९ ।।
'विशीलः कामवृत्तो वा गुगंध परिवर्जितः । उपचर्थः स्त्रिया साध्या सततं देववत्पतिः ।। १९० ॥ इति ।
तथाच श्रुतिः किल यानप्रस्थभावेऽवि रामस्य सोता सधर्मचारिण्यासीत् । द्रौपदी धनंजयस्य, सुदक्षिणा विलोपस्य लोपामुद्रागस्त्यस्य, अरुन्धती वशिष्ठस्य रेणुका च जमदग्नेरिति । पतिविरहे होकेनाप्यगुष्ठेन तपस्यन्त्यः स्त्रियो भवन्त्यवदयं धिवकारगोचराः । यथा प्रयागे प्रायोपवेशनस्थितापि ब्रह्मबन्धू ब्राह्मणी गोविन्देन परिब्राजा सह किल परीवादभागिनी बभूवेति । सपोग्रहण दिवसे वाम्बावेमा मह मदीये निलये प्रवहणं कर्तव्यमिति वाम्यध्ये विरते तस्मिन्न मिटवा दियम् अहो सत्ययुधिष्ठिर गविष्ठिर, यदि तसं कर्मणापि कदाचिन्महावेव्याः प्रतिकूलम्ब धरानस्मि तदा त्वमेवात्र साक्षी । तवेषं निवेदय देव्याः - यदाह भक्ती तत्सर्वं देवेन प्रतिपद्मम् । अन्यत्र पूर्वमुत्थापितात्पक्षात् । इति निवेदितेतिकर्तव्ये समहमानं विसर्जिते च तवमा मया चिन्तितम् अहो महावेदयामतीव खल संवीणताबहि. स्थायाम् । किच----
राज्यस्थित मामवहाय यंषा फुन्जेन सार्धं रतिमातनोति । सा मे वनस्थस्य मुमुक्षुते भवेत्सदाचारमतिः किलेति ।। १९१ ।।
'
नहीं है और न व्रत है एवं न उपवास भी है। दो फिर क्या है ? जिस कारण उसे पति की सेवा शुश्रूषा करनी चाहिए, जिससे स्त्री स्वर्ग में पूजी जाती है || १८२५|| विशेष यह है - पतिव्रता स्त्री द्वारा पति चाहे वह शीलरहित है, अथवा स्वेच्छाचारी है, अथवा गुणहीन है, निरन्तर ब्रह्मा, विष्णु व महेश आदि देवताओं- सरीखा सेवा करने योग्य है ॥ १९०॥ बंद में भी कहा है-वन प्रस्थान के अवसर पर भी सीता ( जनक पुत्री ) श्रीरामचन्द्र की धर्मचारिणी ( साथ गमन करनेवाली ) हुई। द्रोपदी बन प्रस्थान के अवसर पर अर्जुन की सचारिणी हुई एवं सुदक्षिणा दिलीप राजा की सहगामिनों हुई तथा लोपामुद्रा नाम की अगस्त्य - पत्नी अगस्त्य को सहचारिणी हुई एवं अरुन्धतो नाम की वशिष्-पत्नी वशिष्ठ को सहचारिणी हुई इसी प्रकार रेणुका नाम को कन्या अपने पिता परशुराम का सहचारिणो | नाथ जाने वालो ) हुई ।
पति के वियोग में निश्चय से एक पैर के अंगूठे पर भी स्थित होकर तपश्चर्या करती हुई स्त्रियाँ निश्चय से निन्दा योग्य होती हैं । उदाहरणार्थ - प्रयाग तीर्थ पर प्रायोपवेशनत्रत में स्थित हुई भी 'ब्रह्मबन्धू' नाम की ब्राह्मणी गोविन्द नाम के तपस्वी के साथ निन्दा को प्राप्त हुई। 'दीक्षा ग्रहण के दिन चन्द्रमति माता के साथ मेरे गृह पर आपको गणभोजन करना चाहिए। ऐसी याचना करके जब गविष्ठिर नाम का मन्त्री चुप हो गया तब मैंने उसरी ऐसा कहा - युधिष्ठिर महाराज सरीखे सत्यवक्ता हे गविष्ठिर ! यदि मैंने मनोरञ्जन या हँसी मजाक में भी किसी अवसर पर भी अमृतमति महादेवी का अहित किया हैं तो उस अवसर पर आपही साक्षी हो । उस कारण मेरी प्रियतमा से ऐसा कहो कि जो कुछ भी आपने कहा है वह सब यशोधर महाराज ने अमृतमती महादेवी के शरीर का बलिदान कार्य को छोड़कर, स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार जब महादेव का मन्त्री, जिसने निश्चित कार्य निवेदन किया है, विशेष सन्मान के साथ भेज दिया गया तब मैंने ( यशोधर ने } निम्न प्रकार विचार किया - आश्चर्य है कि अमृतमति महादेवी में आकार-गुप्ति की प्रवीणता अवश्य हो विशेष रूप से वर्तमान है ।
जो बह महादेवी राज्य में स्थित हुए मुझे छोड़कर कुबड़े के साथ रतिविलास करती है, वह क्या वन में स्थित हुए व मोक्षाभिलापी मेरे साथ सदाचारिणी होगी ? ।।१९१ ।। स्त्रीजनों की चित्तवृत्ति, जो कि
१. आपालंकारः ।
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८७
चतुर्थ आश्वासः देवमनुष्यैरय राक्षसर्या निसर्गतो गूढत्तरप्रचारा । वृक्तया जातुमियतया वा न शक्यते स्त्रोजनचित्तवृत्तिः ।। १९२ ।।
हैव पात्स्यायनगोत्रज पुत्री भूगोः काञ्चनिकेतिनानी।
पति च पुत्रं च विटं च हत्वा भन्नां तु साधं बहनं विवश ॥ १९ ॥ अयवतवप्यस्यामसंभाव्यम् । राषिशो लोकः प्रापेणान्धष्टिरिख परामर्शमकृत्वा शभायाशुभाय वा कर्मणे तोलयत्यारमानम् । इयं पुनः प्रकृस्यैव विषप्ततिरिव दुष्टस्वभावा, मफरदं व दत्राशीलिगी, कणिसुतकवेव , बहुकूटकपटबेष्टिता, फुमारविद्येदानेककुन्जक बिनो, खड्गीय जिह्वयापि स्पृशान्ती वारयत्यङ्गानि । छलयति व नियतिरिय बुबघा वृहस्पतिमपि पुगषम् । मदीयं तु विलसिस स्वहस्ताक्षराकर्षणमिव मे संगातम् । अस्याश्च बचिल्वसंयोगप्तमम् । कालच सवस्येति में नरं कालकाक्षिणम् । दुर्लभः स पुनः काश्मस्तस्य कर्म चिकीर्णतः ।। १९४॥
एतदेवाधशास्त्रस्य नित्पमध्ययने फलम् । यत्परानभिसंषसे नाभिसंघीयते परः ।। १९५ ॥ इति मां च नीतिमसौ बहुधा पठति । स्वभावसुभगाशोऽपि च शास्त्रोपदेशः स्त्रीषु शस्त्रीष्विव पयोलवः परं परोपघाताचैव प्रभर्याप्त फिच।
स्वभाव से विशेष गहन होती है, इन्द्र-आदि देवताओं से, पुरषों से, अथवा राक्षसों से इस रूप से अथवा इतनी रूप से जानने के लिए शक्य नहीं होतो' १९२६॥ उदाहरणार्थ-इसी भरतक्षेत्र की उज्जयिनी नमरी में वात्स्यायन ऋषि के कुल में उत्पन्न हुए 'भृगु' नामक ब्राह्मण को 'काञ्चनका' नामवाली पुत्री ने पति, पुत्र व विद को मारकर पति के साथ अग्नि में प्रवेश किया ।।११३।। अथवा यह बात भी इस महादेवी ( अमुतमति) में असम्भव है। अर्थात्--यह मरेगी यह कदापि सम्भव नहीं, प्रत्युत्त मुझे मारेगी। क्योंकि निश्चय से विना बिचारे उतावलो में आकर कार्य करनेवाला जन-समूह अन्धे की लकड़ो-सरीखा होता है। अर्थात्-जैसे अन्धे पुरुष की लकड़ी अविचार पूर्वक यहां-वहाँ पड़ती है वैसे ही लोक भी विना बिचारे कार्य करता है, इसलिए लोक तो शुभ अथवा अशुभ कर्म करने के लिए अपनी आत्मा को संशय में डालता है। अर्थात्-विना विचारे उतावली पूर्वक कार्य करनेवाला लोक मरता है, परन्तु यह तो कदापि नहीं मरेंगी। फिर यह महादेवी सो प्रकृति से विषजाति-सरीखी दुष्ट स्वभाववाली है। यह मगर की दाढ-सरीखी वक्र स्वभाव-धुक्त एवं मूलदेव के चरित्रसरीखी बहुत से कूट कपदों से वेष्टित है तथा धूर्तशास्त्र-रचगिता की विद्या-सरीखी यहत से मायाचारों को जाननेवाली है । जैसे तलवार जिह्वा से छूती हुई अङ्ग विदीर्ण करती है वैसे यह भी मुझे स्पर्श करती हुई मेरे अङ्ग विदीर्ण करती है। यह देधी बुद्धि से बृहस्पति-सरीखे विद्वान पुरुप को भी वैसा धोखा देती है जैसे नियति (भाग्य) वृहस्पत्ति-सरीखे विद्वान् पुरुष को धोखा देतो है। मेरा कार्य तो अपने हाथ से अङ्गारखींचने-सरीखा ( दु:खदायक ) हुमा ।
एवं इसका कार्य खल्वविल्व के संयोग मरीखा घातक हुआ । अर्थात्-जिस तरह गब्जे पुरुष के मस्तक पर वेलफल का गिरना घातक होता है उसी तरह इसके कार्य भी मेरे घातक हैं। अवसर एफ बार मिलता है। अवसर चाहनेवाले पुरुष को व अवसर के अनुकूल कार्य करने के इच्छुक पुरुष को अवसर दर्लम होता है । अभिप्राय यह है कि यह जानती है कि यशोधर की मृत्यु करने का यही अवसर है, वह वाद में नहीं मिलंगा ॥१९४11 नीतिशास्त्र के सदा काल पढ़ने का यही फल है कि नीतिवेत्ता मानव शत्रुओं को धोखा देता है और स्वयं शत्रुओं से धोखा नहीं खाता ॥१९५।। यह महादेवो मेरे सामने ऐसी नीति को अनेक बार
१. मतिपायालंकारः ।
२. आक्षेपार्णकारः ।
३. जात्यलंकारः।
४, जातिरलंकारः ।
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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये इच्छन्गृहस्पात्मन एव शान्ति स्त्रियं विदग्धां खल कः करोति ।
दुग्धेन य: पोषयते भुजङ्गों पुंसः कुतस्तस्य सुमङ्गलानि ।। १९६ ॥ इति बुद्धिवृद्धरुपविश्यमानमिदं पूर्वमेव नाचरितम् । तदमेवमाकलयेयम्-मतपःप्रत्यवायपरः सकलजनरञ्जनकररुचायमस्याः सर्योऽपि मृतुनोपायेन कार्योपकमः । धूयते हारमनः किल स्वच्छन्दयत्तिमियन्ती विषषितमधगवषेष मणिकुण्डला महादेवो यवनेषु निजतनुजराज्या यमराजं राजानं जघान, विषालस्तकदिरामापरेण घसन्तामतिः सुरसेनेषु पुरतविलासम्, विषोपलितेन मेखलामणिना वृकोदरी दशार्णेषु मवनार्णवम्, निशितनेमिना पुकुरेण मबिरामी मगथेषु भन्मयविनोदम्, कबरीनिगूढनासिपत्रेण घण्डरसा पाण्डषु मुण्डोरम्, इति ।
यथोचिछापण्डा मण्डूक्यो लोकविप्लवहेतवः । तथा स्त्रियः स्वभावेन भतश्यसनतत्पराः ॥ १९७ ॥ सांप्रतं च में समस्तापि कार्यपरिणत. "iary मुण्डयित्वा मानमः' इनोम न्यायममुसरति । न चास्ति मत्तः परोऽसीवप्रमादरी। यस्मात् अन्तःपुरे भूमिपत्तिमंचायः करोति यः संगतिमङ्गनाभिः । तस्य ध्रुवं स्यादचिरेण मृत्युधिलप्रवंशादिव दर्बुरस्य ।। १९८ ।। पढ़ती है। शास्त्रोपदेश, जो कि स्वभावत: दूसरों को प्रतिजनक अभिप्रायवाला भी है, स्त्रियों के लिए दिया हा केवल वैसा दूसरों के घात करने में समर्थ होता है जैसे छुरी पर पड़ा हुआ पानी केवल दूसरों के पात करने में ही समर्थ होता है ! अपने गृह त्र आत्मा की शान्ति का दाटछुक कोन पुरष निश्चय से स्त्री को चतुर करता है ? उदाहरणार्थ-जो पुरुष सर्पिणी को दूध पिला कर पुष्ट करता है, उसे उत्तम सुख केसे प्राप्त हो सकते हैं ? ' |1१९६।। विद्वानों द्वारा उपदेश दिये जानेवाले इस शास्त्रोपदेश को मैं पहिले से ही व्यवहार में नहीं लाया । उससे मैं ऐसा जानता हूँ कि इस महादेवी का सभी कार्य प्रारम्भ, मेरी दीक्षा में विघ्न उपस्थित करने में तत्पर व मगस्त लोगों को अनुरक्त करनेवाला एवं कोमल उपाय से किया हुआ है। उदाहरणों में सुना जाता है-मलच्छ देशों में 'मणिकुण्डला' नाम की महादेवो ने अपना स्वेच्छाचार चाह कर अपने पुत्र को राज्य देने के लिए विमिली हुई शराब के कुरले से 'अजराज' नाम के राजा को मार डाला । 'सुरसेन' नाम के देश में 'वसन्तमति' नाम की महादेवी ने विष-मिथित लाक्षारस से लिप्स हा अघर ( ओष्ट ) से 'सुरतविलास नाम के राजा का वध किया । 'दशाणं' नामके देश में 'वृकोदरी' नाम की महादेवी में विष से लिप्त हुए करधोनी के रत्न से 'मदनाणव' नामक राजा की हत्या को एवं मगध नाम के देश में मदिराक्षी' नाम की मात्रादेवी ने तीक्ष्ण धारखाले दर्पण से 'मन्मविनोद' नाम के राजा का घात किया तया पाण्डु नामक देश में 'चण्डरसा' नाम को महादेवी ने बोशपाश के मध्य में छिपाई हुई तलवार की धार से मण्डोर नाम के राजा का धात किया । जैसे शिखा-सहित छोटे मेढ़क वर्षा ऋतु में लोगों के उत्पात के कारण होते है वैसे ही स्त्रियाँ भी स्वभाव से भापति व पक्षान्तर में राजा को दःख देने में तत्पर होती है ।।१९७॥ इस समय मेरा समस्त कर्तव्य का उदय 'शिर-मुण्डन कराकर शुभ नक्षत्रों ( पुष्प व पुनर्वसु-आदि ) का [छना' इस न्याय का अनुसरण करता है । अर्थात्--जे से बाल बनवा कर शुभ-अशुभ नक्षत्र पूछना निरर्थक है, बसे ही अवसर निकल जाने के बाद कर्तव्य करने का विचार भी निरर्थक है । मुझसे दूसरा कोई विशेष आलसी नहीं है । जो राजा भदाब हुआ अन्तःपुर में स्त्रियों से संगम करता है उसको निस्सन्देह वसी शीघ्र मृत्यु होती है जैसी सर्प के दिल में प्रवेश करने से मेंढ़क को मृत्यु होतो है" ॥१२८॥ [ हे मारिदत्त महाराज ! ] में उक्त नीति को निरन्तर पढ़ता
१. दुष्टान्तालंकारः। २. दृष्टान्तालंकारः।
. दृष्टान्तालंकारः ।
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चतुर्थ आश्वास
इति प्रत्यहमधीयानोऽपि तस्या दुष्कर्मणः समानि संयासपरः समभवम् । अपि च ।
अज्ञानभावादथवा प्रमाबादुपेक्षणाद्वात्ययभाजि कार्ये । पुंसः प्रयासो विफलः समस्तो गलोबके कः खलु सेतुबन्धः || १९९ ।। विहाय शास्त्राप्यवमत्य मन्त्रिणो मित्राण्यवज्ञाय निरुद्धघ बान्धवान् । भवन्ति ये नयनोतयो नृपाशिवराय तिष्ठन्ति न तेषु संपवः ॥ २००॥ न चापि मे सन्ति विनीतचेतसस्तुलात्तमाः कार्यविचारकर्मणि । परं ते भवयन्त्युपाकृताः ॥ २०१ ॥
अ
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अपि च ।
प्रशास्ति यः श्रोतृवशेन धर्म नपेच्छा यो निगुणाति कार्यम् । अकल्पकामोपचमेन वंशस्त्रयस्त एते कलिकालपादाः ॥ २०२ ॥ एकैकमेषां गुणमाकलय्य भयर हामी मन्त्रिपदे नियुक्ताः ।
सिंहेषु दृष्टं यदि नाम शौर्य क्षेमोऽस्ति किं तैः सह संगलस्य ॥ २०३॥श प्रवर्तते यो नृपतिः खलानां प्रमाणयन्नात्महिताय वाचः । नूनं स कल्याणमतिर्न कि स्यादाशीविषः केलिकरां यथैव ॥ २०४ ॥
हुआ भी उस दुष्टात्मा अमृतमति महादेवी के महल में उसके साथ सहवास करने में तत्पर हुआ । तथा च - जब कर्तव्य, अज्ञानता अथवा असावधानता से अथवा अनादर के कारण अवसर चूंकनेवाला हो जाता है तब उसको सिद्ध करने के लिए किया हुआ मनुष्य का समस्त श्रम निरर्थक है। क्योंकि जैसे जल के निकल जानेपर उसको रोकने के लिए पुल बाँधना निरर्थक है' ।। १९९ ।। जो राजालोग नीतिशास्त्र के सिद्धान्तों को छोड़कर मन्त्रियों का तिरस्कार करके व मित्रों का तिरस्कार करके एवं बन्धुजनों का अनादर करके दुष्ट नोति का अनुसरण करनेवाले होते हैं, उनके पास चिरकाल तक धनादि लक्ष्मियाँ नहीं ठहरतीं ॥ २०० ॥
मेरे मन्त्री-आदि राजकर्मचारी विनयशील नहीं हैं और कर्तव्य का विचार-कर्म करने में तराजू के दण्डसरीखे कर्तव्य विचारक व न्यायवान नहीं हैं। जो ये सदा मेरे निकटवर्ती हैं, स्वीकार किये हुए वे लोग चित्त को मव-युक्त करते हैं, अर्थात् नीतिशास्त्र से पराङ्मुख है || २०१ ।। जो बक्ता श्रोता की अधीनता से धर्म - आचार का निरूपण करता है । अर्थात् श्रोता जिस धर्म में लीन है, वक्ता भी उसी धर्म का उपदेश करता है । एवं जो मन्त्रो राजाकी इच्छानुसार मन्त्र ( कर्तव्य विचार ) करता है और जो वेद्य ज्वरादिरोग पीडित पुरुष को बढ़ी हुई इच्छा ( अपथ्य सेवन की रुचि ) के अनुकूल उपदेश देता है । अर्थात् जो वैद्य, रोगी को जैसा रुचता है उसी के अनुसार औषधि का उपदेश करता है। पूर्वोक्त ये तीनों लोग ( धर्मवक्ता, मन्त्री व वैद्य ) कलिकाल के तीन पेर है । अर्थात् कलिकाल विशेष पापी है, जो कि पूर्वोक्त सोन पैरों से प्रवृत्ति करता है, यदि इसके चार पैर होवें तो लोक में समस्त अधर्म - पन्ही प्रवृत्त हो जाय || २०२ ।। मन्त्री पदपर नियुक्त हुए इनका एक-एक गुण ( दयालुता आदि ) निश्चय करके मैंने इन्हें अवश्य मन्त्री पद पर नियुक्त किये हैं। अभिप्राय यह है कि केवल एक एक गुणसे अलङ्कृत हुए ये लोग कार्यसिद्ध करनेवाले नहीं हो सकते । उदाहरणार्थ – यदि सिद्धों में शूरता देखी गई तो क्या उनके साथ संगम करनेवाले मानव का कल्याण हो सकता है ? उसीप्रकार दयालुता आदि एक-एक गुण से युक्त मन्त्रो भी राज्य संचालन कार्य करनेवाला नहीं हो सकता" ||२०|| जो राजा दुष्टों के वचनों को अपने सुखके लिए प्रमाण मानता हुआ प्रवृत्ति करता है क्या वह निश्चय
१. आक्षेपालंकारः । २. जात्पलंकारः । ३. उपमालंकारः । ४. रूपकालंकारः । ५. आक्षेपालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
प्रतिक्षणं संशयितायुषो ये न येण्यपेक्षास्ति च कार्यवावे । त एव मन्त्रेऽधिकृता नृपाणां न ये जलौका समवृत्तयश्च ॥ २०५ ॥
कि च ।
प्रजाविलोपो नृपतीच्या स्मात्प्रजेच्या चाचरिते स्वनाशः । न मन्त्रिणां श्रेषविधायिनीवत्सुखं सर्वयोभयतः समस्ति || २०६ || तपाप्य मौभिः कुशलोपदेशंर्भाव्यं नृपे दुर्नयचेष्टितेऽपि । अन्धः स्वचद्यपि धात्मदोषावाकधकं तत्र शपन्त लोकाः ॥२०७॥ मतो पार्थ बदतां नराणामात्मभ्यः स्थास्परमेक एव ।
राष्ट्रस्य राजो ध्रुवमात्मनश्च मिथ्योपदेशस्तु करोति नाशम् ॥२०८॥
तदेतदित्थं मम हुनंमेन दुर्मन्त्रिणां संश्रयणेन चैव यथायथं कार्यमिदं प्रयतं देवोऽपि शक्तो घटनाय नास्य ॥ २०९ ॥ गविष्ठिरस्यापि मया पुरस्तादिकचित्प्रतिज्ञा विषयीकृतं च । सत्यस्युतानां किमु जीवितेन राज्येन वा लोकविगहितेन ॥ २१ ॥
से पैसा कल्याण करनेवाली बुद्धि से युक्त हो सकता है ? जैसे सर्पों के साथ क्रोडा करनेवाला पुरुष क्या कल्याण करनेवाली बुद्धि से युक्त होता है ? || २०४ || जो मन्त्री, प्रत्येक क्षणमें अपने जीवन को संशय में डालनेवाले होते हैं ! अर्थात- 'यह राजा हमको मार डालेगा इसप्रकार भयभीत चित्तवाले होते हैं, एवं जिनके मन्त्रोपदेश में घन ग्रहणकी लालसा नहीं पाई जाती तथा जो गोंच-सरीखी चेष्टावाले नहीं है। अर्थात्--जैसे गाँव स्तनपर लगाई हुई रक्त पीती है किन्तु दूध नहीं पोती वैसे ही जो मन्त्री दोषों को ही ग्रहण करते हैं और गुणों का उपदेश नहीं देते, ऐसे गुणोंको छोड़कर केवल दोष-ग्रहण करनेवाले जो नहीं हैं । वे ही मन्त्री, राजाओं के मन्त्र में अधि कारी हैं ॥। २०५ || जब मन्त्रीलोग राजाकी इच्छानुसार राजकार्य करते हैं तब प्रजाका नाश होता है । अर्थात् अधिक टेक्स आदि द्वारा प्रजा पीडित होती है। जब मंत्रीलोग प्रजा को इच्छानुसार राजकार्य करते हैं तो घन का क्षय होता है, क्योंकि प्रजा राजा के लिए धन देना नहीं चाहती, इससे राजकोश खाली हो जाता है । इस कारण दोनों प्रकार से राजा की इच्छानुसार व प्रजा को इच्छानुसार प्रवृत्ति करनेवाले मन्त्रियों को सदेव बैसा सुख नहीं है जैसे कुल्हाड़ी या घण्टा मस्तक पर धारण की हुई घट्टन से दुःखी करती है और मुख पर स्थापित की हुई मुखभङ्ग करती है ।। २०६ ।। तो भी अन्याय करनेवाले राजा के प्रति इन मन्त्रियों को कल्याण कारक उपदेश देनेवाले होने चाहिए। जैसे- अन्धा पुरुष यद्यपि अपने नेत्र -दीप से गिरता है तो भी लोग उसके खोचनेवाले मनुष्य को ही दोषी कहते हुए चिल्लाते हैं, अर्थात् वैसे ही जब राजा अन्याय करता है तब प्रजा मन्त्री को ही दूषित करती है* ॥ २०७ ॥ क्योंकि जब मन्त्रीगण सत्यवादी होते हैं तब उनके मध्य केवल मन्त्री ही मरता है, परन्तु झूठा मन्त्र ( कर्तव्य- विचार ) तो देश, राजा व मंत्रों का निस्सन्देह विध्वंस कर देता है । भावार्थ - मन्त्रियों का कर्त्तव्य है कि वे राजा को ठीक परामर्श दें, चाहे इससे राजा उनसे कुपित ही क्यों न हो जाय; क्योंकि राजा के कुपित होने से एक मंत्री की ही मृत्यु की सम्भावना है परन्तु मृत्यु भय से झूला मंत्र देने पर तो राजा, राष्ट्र और मंत्री सभी का नाश हो जाता है। अभिप्राय यह है कि मंत्रियों को सदेव उचित परामर्श देना चाहिए" ।। २०८ ।। उस कारण पूर्वोक्त यह कार्य अपनी इच्छा से मेरी दुर्नीति के कारण व दुष्ट मन्त्रियों के आश्रय से नष्ट हो गया, अब इसे प्रयत्नपूर्वक सफल बनाने के लिए देवता भो समर्थ नहीं है ॥ २०९ ॥
मैंने 'गविष्ठिर' नाम के मन्त्री के सामने कुछ वचनों (महादेवी के गृह पर जाना व भोजन करना )
१. काकु वक्कोमत्यलंकारः । २. उपमालंकारः । ३. उपमालंकारः । ४. दृष्टान्तालंकारः । ५. समुचयालंकारः । ६. समुच्चया ंकारः ।
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चतुर्थं आश्वास
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वे तु पुंसः प्रतिकूलवृत्तौ विवेकितर नव भवद् गुणाय । कि लक्ष्मणस्यास्ति रणेषु भङ्गः सीतामसौ येन मुमोच रामः || २११ ॥ लव दंषमेव शरणम् ।' इति विचिन्त्य किचिन्महासुखमनुभूय प्रव
'कुन्भूपतिमन्दिरेषु करिणामानन्दलीलारसं नासाग्रस्फुरितेन केलिरभसं वाजिव्रजानां बहुन् । कीवालनिकुञ्जकन्दर भुखां वृत्तं वधन के किनामद्यायं किमकाण्ड एव नगरे तूरध्वनिः श्रयते ॥ २१२ ॥ ' बुधप्रबोधं सन्धिविग्रहणमापृच्छमाने, वातायनोपान्ततनी निवत्यं च मेत्रे
“नृत्यैः समं वारविलासिनोनां संगीतकस्यापि महाप्रबन्धः । गृहेषु सर्वेषु च पूर्णकुम्भाः पुष्पाक्षतव्याकुल एवं लोकः ।।२१।' इत्यस्य च हेतुविजातचेतसि मयि देव परिकल्पित निलिन मसितोपचारा सद्धमति महादेवी सपरिवार चण्डिकाचरणालिता प्राप्ता च पुरवीषीमध्यम यतोऽयमारुष्यते महानातोद्यध्वनिः । तदर्थं चंष नगरे पौराणामुद्याद्यमः । तत्र वेवः कालविलम्बनमकृत्वा सज्जीभवतु मज्जनादिषु क्रियासु ।' इत्यागत्य वैकुण्ठभतिना वरिष्ठकेन विज्ञप्ते सबै सहजनं सफलीकृत्य,
करने को प्रतिज्ञा को हैं । उसे यदि नहीं करता है । अर्थात् — महादेवी के महल पर नहीं जाता है, और भोजन नहीं करता हूँ, तो सत्य से च्युत हुए पुरुषों को लोकनिन्दित जीवन से व लोक-निन्दित राज्य से क्या लाभ है' ? || २१० ।। जब पुरुष का भाग्य पराङ्मुख होता है तब उस मनुष्य की चतुरता गुणकारिणो नहीं होती। जैसे—क्या युद्ध भूमि पर लक्ष्मण की पराजय हो रही थी ? जिससे यह श्रीरामचन्द्र श्रीसीता को बन में अकेली छोड़कर लक्ष्मण की सहायता के लिए गए थे ।। २११ । अतः इस चण्डिका देवी के मन्दिर में गमन करना आदि कार्य में देव ( भाग्य ) हो शरण | रक्षक ) है, ऐसा विचार कर कुछ निद्रा के सुख को भोगकर फिर जाग्रत होकर मैंने अपने दोनों नेत्र गवाक्ष ( झरोखे) के निकटवर्ती किये। फिर जब मैं 'युवप्रबोध' नामके महादूत से निम्नप्रकार पूँछ रहा था - [ हे दूस ! ] आज बिना अवसर ही नगर में मेरे द्वारा यह बाजों की क्यों सुनी जा रही है ? जो कि राजमहल के हाथियों में आनन्दलीला के रस को उत्पन्न कर रही है । जो घोणा ( नयने) के स्फुरण से घोड़ों की श्रेणी में क्रीडा करने को उत्कण्ठा उत्पन्न कर रही है और जो क्रीडापर्वतों के लता-आच्छादित प्रदेशों में व कन्दराओं में रहनेवाले मयूरों का नृत्य धारण कर रही है || २१२ ।' 'वेश्याओं के नृत्य के साथ गीत, नृत्य व वादित्र का भी महान प्रघट्टक ( जमाव ) वर्तमान है एवं समस्त गृहों पर पूर्ण मङ्गल कलश स्थित हैं और यह लोक पुष्पाक्षतों के ग्रहण करने में व्याकुल हुआ दिखाई दे रहा है" ।। २१३ ।।' जब में उक्त घटनाओं के कारण-विचार में अपना मन संलग्न कर रहा था तव ' बैकुण्ठमति' नागके क्षेत्रपाल ने आकर मुझे निम्न प्रकार सूचित किया – 'हे राजन् ! चन्द्रमति महादेवी, जिसने समस्त प्रार्थना किये हुए पूर्वजों व देवताओं के निमित्त नैवेद्य का व्यवहार उत्पन्न किया है एवं जो परिवारसहित है, कि देवी की चरण पूजा के लिए गई है और नगर के मार्ग के मध्य में प्राप्त हुई है, जिससे यह महान् बाजों को ध्वनि सुनाई दे रही है । उसी निमित्त से यह नगर में नागरिकों का महोत्सव संबंधी उत्साह हैं। उस देवी को चरणपूजा में राजाधिराज ( यशोधर महाराज ) काल-विलम्ब न करके स्नानादि क्रियाओं में उद्यत होवें। फिर मैंने प्रस्तुत 'वैकुण्ठमति' क्षेत्रपाल के वचन स्नानादि क्रिया द्वारा सफल किये व निम्नप्रकार चिन्तवन करके 'ऐरावण-पत्नी' नामको हथिनी पर सवार होकर चण्डिका देवी के मन्दिर के प्रति चन्द्रमति माता के पीछे प्रस्थान किया ।
१. आपालंकारः । २. दृष्टान्ताक्षेप । ३, जात्मलंकारः । ४, समुच्चयालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
न व्रतमरिग्रहणं शाकपयो मूलभैक्षचर्या वा । व्रतमेतस तबियामङ्गीकृतवस्तुनिर्वहणम् ॥२१४ ॥ इत्यनुस्मृत्य विहिततवारापनोचितावारे समावलाभ्रभूनाम करेणुका माणायंपुरोहितसले भैरवोभवनं प्रति गन्तुमुद्यते च 'हंहो विवेकबृहस्पते, स्वभावत एव महासत्त्वमसते कण्ठतेष्वपि प्राणेषु किमनुमिते भाचरितेतात्मनः प्रियं कर्तुं युक्तम्' इति भतिकयेव प्रतिमतया वृहितमिङ्गितं व मतङ्गजगणिया, 'कथमयं विद्वानप्यहितोपदेशाद्दुःखमकराकरवलि भवादन्यवि निमकुमुद्यतः' इति कृपयेक कम्पितभवन्या, 'अये दुर्गासनावश विशामीश, कयमीवृग्विषरभिसंधरेष्यत्कल्मषनिषेकमा भवान्सहिष्पते' इति सूचयतेव धूमधूसरतामुपगत माशाषलयेन, 'अपि पन्चमीकल, लोकपाल, वनमजनितपुष्पवर्षेण दुरेनसोऽस्माद्वदासीस्वस्थ भवतः कथं भमा सोढव्या भविष्यन्ति चिताचित्रभानोः कलुषितानिमिषमुज्ञाः शिलालेखा:' इति शोकानलल्य ने वोह काश्यानाभिराम्बरितमम्बरेण 'अयि प्रविपन्नोत्पयकय पृथ्वीनाथ तेषु तेषुत्सवेषु संपा मिन्दुन्दुभिनादापुष्म । वनुवशर्मणः कर्मणस्त्वपि कपाशेवे सति कथं तु मया नाम कर्णकटुप्रभावत्ववान्धवहारावः श्रोतव्यों भविता' इति शोचनादिव प्रवृत्तवाष्पस्यन्दया दुदिनीभूतं दिवा 'त्वमेवमवश्यमहो राजन्, जानीहि । न खलु भवस्यमायतिषु हिताय क्रियोपायः । तदलमत्राग्रहेण । निवृत्य गम्यतां हृम्यंम्' इत्पाचरितकालियेन सुहृदेव प्रतिमा
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'कानों में शङ्ख के कुण्डलों का धारण करना अथवा शाकमात्र का भक्षण व दुग्धपान, जलपान, कन्द भक्षण व भिक्षासमूह का भोजन व्रत नहीं है किन्तु स्वीकार किये हुए पदार्थ का निर्वाह करना हो उन्नत बुद्धिशाली महानुभावों का व्रत है | २१४ ॥ इसके पूर्व में, जिसने चण्डिका देवी की पूजा संबंधी योग्य क्रिया की है एवं जिसके समीपवर्ती आचार्य व पुरोहित हैं, जब चण्डिकादेवी के मन्दिर की ओर प्रस्थान करने उद्यत हुआ तब निम्नप्रकार अपशकुन हुए और दुसरे भी शकुनशास्त्र प्रसिद्ध अपशकुन हुए, जिनकी सङ्गति दुष्टस्वभाव वाले फलों को देनेवाली है । 'बुद्धि में वृहस्पति- सरीखे व स्वभाव से ही महान धर्मपरिणाम के निवासस्थान ऐसे अहो यशोधर महाराज । प्राणों के कण्ठगत होनेपर भी आपको अनुचित आचरण द्वारा अपनी आत्मा का प्रिय करना क्या उचित है ? अपि तु नहीं है' इसप्रकार की बुद्धि से ही मानों-- ऐरावण-पत्नी नाम की हथिनो ने उल्टी चिहारने की ध्वनि को व चेष्टा की 'यह यशोवर महाराज विद्वान होकर के भी पापो पदेश से, दुःखरूपी मकर समूह से व्याप्त हुए संसार समुद्र में डूबने के लिये किसप्रकार उद्यत हुआ ?" इसप्रकार की कृपा से ही मानो भूमि कम्पित हुई । 'अये दुर्वासना के अधीन राजन् ! इसप्रकार के मानसिक अभिप्राय से उत्पन्न हुए दुःखसन्ताय को, जिसमें भविष्य में समूहरूप से आनेवाला पापबंध वर्तमान है, आप कैसे सहन करोगे ?' इस प्रकार के अभिप्राय को सूचित करता हुआ ही मानों - दिशासमूह बुएँ से धूसरता की प्राप्त हुआ ।
भाग,
'हे मध्मलोकपाल यशोवर महाराज ! इस दुष्ट पाप से मरे हुए आपको चिताग्नि की ज्वालाओं के अग्र जो कि देवों के मुख मलिन करनेवाले हैं, आपके जम्मावसर पर पुष्पवृष्टि करनेवाले मुझसे कैसे सहन करने योग्य होंगे ? ऐसी पश्चातापरूपी अग्नि से व्याप्त हुआ ही मानो आकाश उल्फा ( बिजली ) ज्वालाओं से बाच्छादित हुआ । 'उन्मार्ग की वार्ता स्वीकार करनेवाले हे राजन् ! मुर्गे के वरूप पाप से, जिसमें उत्तरकाल में सुख नहीं है, तुम्हारे मरनेपर, मेरे द्वारा, जिसमें उन उन प्रसिद्ध उत्सव ( राज्याभिषेक आदि ) के अवसर पर आनन्द दुन्दुभिवाजों की ध्वनि उत्पन्न कराई गई है, आपके बन्धुवर्गों की कर्णशूल प्राय रोदनध्वनि कैसे करने योग्य होगी ? ऐसे शोक से ही मानी - अश्रुपतन उत्पन्न करनेवाला भूमि-समीपवर्ती आकाश मेघाच्छादित जलविन्दुओं से व्याप्त ) हुआ 1 धूलि -चिह्न वाली वायु सन्मुरन प्राप्त हुई, जो ऐसी मालूम पड़ती थी मानो - निम्नप्रकार सन्मान करनेवाला अभीष्ट मित्र ही है-
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आश्वासः पांशुलक्षणेन, 'खरकिरणफरमिवारण एवाहं प्रभवामि न पुमरापात चण्डे यमवण्डे' इति विषेष भूवि निपतितमातपत्रेण, * भवतीयं सा परागसंततियस्माभिः शक्यते निवारयितुम् । एषा स्त्रपरं यनिवारणं न कुशलः प्रलयकाला निलोऽपि इति चिन्तयेव विकणं विसिनीफरेम्पश्चामरनिवहेन, 'महापुरुष, एवमशुभाभिनिवेशेषु युथमावृशेषु न चिरमस्मावृशैः कल्याणपरम्पराचिह्न विनिवेशः सह समागम:' इति प्रकटितसाचिभ्येनेव फुटिलितं पताकासंतानेन सर्ववा महोत्सवपुरारिणामerri fhaniणि कर्मणि विनियोगो युक्त:' इति स्वदुःखनिषेदनाविव परिसमातोद्यवार्थन, 'यद्यपि देवः कामश्रोघाम्यामज्ञानेन वाद्यान्यथाभावः संजातः, तथापि न खलु भवत्प्रसादाशि रत्तर श्रीषिलासप्रकाशानामस्मा वृशानामुपेक्षितुमुचितम्' इति बुद्धद्येव निपत्य पुरस्तियंम्भूतं तोरणेन, 'शितिप, अद्यापि न किचिद्विनश्यति । तदावासमनुसृत्यापर मेव ffer शिवकर प्रतिष्ठान मनुष्ठानमाचरितथ्यम्' इत्युपदिशतेव पृष्ठतः शब्दितं दधिमुखेन हे महीपाल, कि कोऽपि परोपरोधावात्मन्ययासि कुर्वन्नवलोकितोऽस्ति येनेत्थमकत्थने पथि प्रस्थितोऽसि' इत्युपहसते बापाचीनतया बासितमादित्यसुतेन, एवमन्यैरपि सद्योबुरन्त फलप्रापि सङ्गतंस्ता लिङ्गेरभावि, तथापि 'नियतिः केन लङ्घते' इति सस्यता नयमिव त्रिशूलिनीतिमनुजगाम ।
'है पृथिवीपति यशोधर महाराज ! आप इसप्रकार निश्चय से जानों कि यह कर्तव्य ( मुर्गे का वध ) का उपाय निश्चय से उत्तरकाल में सुख के लिए नहीं है, अतः इस कर्तव्य के उपाय में आग्रह करना निरर्थक है। यतः लौटकर गृह पर जाइए।' छत्र पृथिवी पर गिरा। इससे जो ऐसा प्रतीत होता था मानों मैं ( छत्र ), सूर्य किरणों के रोकते में ही समर्थ हूँ, न कि दुःख से भी निवारण के लिए अशक्य भरणकाल के रोकने में समर्थ हूँ इसप्रकार को बुद्धि से ही मानों - वह पृथिवी पर गिरा एवं वेश्याओं के करकमलों से चमर-समूह नानाप्रकार से यहाँ वहाँ गिरे। इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों - निम्नप्रकार की चिन्ता से ही वे यहाँ वहाँ गिरे है- 'ग्रह वह रेणुमण्डली नहीं है, जो कि हमारे ( चमरों ) द्वारा रोकने के लिए शक्य है, यह योगी महा पुरुषों द्वारा प्रत्यक्ष को हुई दूसरी ही ( पापरूपो ) रेणुमण्डली है, जिसे रोकने में कल्पान्त ( प्रलय ) काल का वायुमण्डल भी समर्थ नहीं है ।' ध्वजा-समूह कुटिल हो गया। जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसने निम्नप्रकार मन्त्रित्व प्रकट किया है
'हे राजन् ! इसप्रकार का पाप करने यदि जाते हो तो तुम्हीं जाली हम नहीं जाते। क्योंकि ऐसा जीवसंबंध पापकर्म का अप्रियाय वाले आप- सरीखे पुरुषों का हमसरीखे पुरुषों के साथ समागम, जिनका स्थापन बहुत से कल्याणों (पुत्रजन्म आदि महोत्सवों) के चिह्न के लिए है, चिरकाल तक नहीं होता ।' 'हे राजन् ! ऐसे विपरीत स्वभाव वाले जीववधरूप पापकर्म में पुत्र जन्म-आदि महोत्सवों में अग्रेसर रहनेवाले हमलोगों का अधिकार क्या युक्त है ? अपितु नहीं है। ऐसा दुःख-निवेदन करने से ही मानोंबाजों की ध्वनि कुत्सित शब्द करती हुई । 'यद्यपि राजा राग, द्वेष अथवा अज्ञान से इससमय विपरीत परिणाम वाला हो गया है तो भी हमको, जिनके लिए आपके प्रसाद से निरन्तर लक्ष्मियों के भोग उत्पन्न होते हैं, निश्चय से आपके विषय में अनादर करना योग्य नहीं है । अर्थात् - हम राजा को महल के मध्य में ही रोकना चाहते हैं, जाना नहीं देना चाहते।' ऐसी बुद्धि से ही मानों - तोरण, आगे गिरकर तिरछा हो गया। फिर गधे ने रैंकना शुरू किया। इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों निम्नप्रकार उपदेश
दे रहा है
'हे राजन् ! अब भी कुछ अशोभन नहीं है, उससे राजमहल में जाकर आपको ऐसा कोई दूसरा ही कर्तव्य आचरण करना चाहिए, जिसका मूल इस लोक व परलोक में कल्याणकारक है ।' एवं कोए ने प्रतिकूलता से कर्णकटू शब्द किया । इससे ऐसा मालूम पड़ता था— मानों वह निम्नप्रकार उपहास कर रहा है
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
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तत्र च सवित्र्या प्रोक्षितदक्षिणानां च ब्राह्मणानां वचनात्
सर्वेषु सवेषु हतेषु यन्मे मवेत्फलं देवि सदा भूयात् । इत्याशयेन स्वयमेव वेष्याः पुरः शिरस्तस्य चतं दास्या' ।। २१५ ।। विज्ञानिनां शिल्पविशेषभावावेवंविबारमेऽभिनिवेशतश्च स हन्यमानो हि न कामवस्थां सचेतना इत्यधिकां चकार ॥ २१६ ॥ पिष्टं मांसं परिकल्प्य तस्य महानसे प्रेषितवांस्ततश्च । अत्येषुरम्बासहितस्य देवी सा मे व्यघाड्रोजन मावरेण ॥ २१७॥ तानसा युष्टधीमें जननीयुतस्य संचारयामास विद्यामिषाणि || २१८ || चाय दूताः प्रहिता हि यावद्यावद्गृहेष्वाषथमीश्यते । जातं नृपे वृष्टिविषं जनानामिति स्म तावद्विससर्ज लोकम् ॥ २१९ ॥ errearratea fart केशान्हा नाथ नायेति गिर्फ गिरन्तो निपत्य में वक्षसि दुःखितेव हरोष कण्ठं यमपाशिव || २२० ॥ अभ्येऽपि ये स्त्रीचतुरक्तविसा विश्वासमायान्ति नराः प्रमत्ताः । प्रायो वशेयं नतु तेष्वक्यं नदीतटस्येष्विव पावपेषु ॥ २२९॥ आeed परिपूर्णकामितफलाः कामं भवन्तु प्रजः क्षोणीशाः प्रतिपालयन्तु वसुधां धर्मानुयहोत्सवाः ।
'हे राजन् ! क्या कोई भी दूसरों के आग्रह से पापकर्म करता हुआ देखा गया है ? जिससे तुम ऐसे निन्द्य मार्ग में प्रवृत्त हुए हो ।' उक्त अपशकुन होते के अनन्तर में, चण्डिकादेवी के मन्दिर में माता के पीछे गया । इससे ऐसा मालूम पड़ता था मानों नियति ( भवितव्यता ) किसके द्वारा उल्लङ्घन की जा सकती है ? इस वचन को सत्यता में प्राप्त करा रहा हूँ। उस चण्डिकादेवी के मन्दिर में प्रोक्षित करने के कारण दान प्राप्त करनेवाले ब्राह्मणों के वचन से
afisarat ! 'समस्त प्राणियों के मार देने पर जो कुछ फल होता है, वह फल यहाँपर मेरे लिए प्राप्त होवे ।' ऐसे अभिप्राय से मैंने स्वयं चण्डिकादेवी के सामने छुरी से उस मुर्गे का मस्तक काट दिया * ।। २१५ ।। विज्ञानियों को शिल्पकला के अतिशय से और सर्वजीव-वघ के संकल्परूप मेरे अभिप्राय से मेरे द्वारा घात किये जानेवाले उस आटे के मुर्गे ने जोवित मुर्गे से भी अधिक कोनसी अवस्था नहीं की ? ॥ २१६ ॥ मैंने उस मुर्गे के चूर्ण में 'मांस' ऐसा संकल्प करके रसोई घर में भेज दिया, फिर उस दिन से दूसरे दिन अमृतमत्तिदेवी ने माता सहित मेरे लिए आदरपूर्वक भोजन बनाया " ॥ २१७ ।। उस पापिनी अमृतमति ने, माता के साथ व कुसुमावली नाम को पुत्रवधू तथा यशोमतिकुमार के साथ हर्षपूर्वक भोजन करनेवाले मातासहित मेरे भोजनों में विषभोजन प्रवेश कर दिया । अर्थात्-उसने मेरे लिए व मेरी माता के लिए विषभोजन दे दिया | अर्थात् - यशोमतिकुमार व कुसुमावली का भोजन पात्र एक था और चन्द्रमति एवं यशोधर का भोजन-पात्र एक था" ।। २१८ ।। जब तक वैद्य बुलाने के लिए दूत भेजे गए और जब तक गृह में जहर उतारने की औषधि देखी जाती है तब तक उसने लोगों को इसलिए भेज दिया कि राजा में लोगों का दृष्टिविष उत्पन्न हुआ है ॥ २१९ ॥ एकान्त देखकर व केश विख़राकर 'हा' नाथ हा नाथ' इसप्रकार वाणी बोलती हुई वह दुःखित- सरीखी होकर मेरे वक्षःस्थल पर गिरी। फिर यमराज को जाली सरीखी उसने मेरा res बाँध लिया ।। २२० ।। यशोधर के सिवाय दूसरे भी जो पुरुष स्त्रियों में अनुरक्त होने से असावधान होते हुए विश्वास प्राप्त करते हैं, निश्चय से उनकी भी प्रायः करके यही दशा होती है, जैसे नदी के तटवर्ती वृक्षों की होती है || २२१ ।। प्रजा के लोग प्रलयकाल पर्यन्त अभिलषित फल परिपूर्ण करनेवाले यथेष्ट होवें । धर्मो
१. 'शत्रात्' इति पाठान्तरं । २. अतिशयालंकारः । ३. व्यतिरेकालंकारः । ४. रूपकालंकारः ५. सहोवत्यलंकारः । ६. नात्यलंकारः । ७. उपमालंकारः । ८. उपमालंकारः ।
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चतुर्थं आवास:
सन्तः सन्तु सरस्वतीप्रणयिनः सार्धं धियः संगर्भ भूगावेष जिनोक्तिमीतिकसतारामस्त्रिलोकीमुदे ||२२२|| मया वागर्थसंभारे भक्ते सारस्वते रसे कवयोऽन्ये भविष्यन्ति नगपुष्टिभोजनाः ॥ २२३॥
I
इति सकलतार्किकलो कचूडामणेः श्रीमन्नेमिदेव भगवतः शिष्येण सद्योनवद्यगद्य पद्म वापरच कति शिखण्डमण्डनीयचरणकमलेन श्रोसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते
यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्येऽमृतमति महादेची बुजिलसमो नाम चतुर्थ आश्वासः ।।
( पुजा व दानादि) में आनन्द प्राप्त करनेवाले राजालोग पृथिवो को रक्षा करें। विद्वान् पुरुष लक्ष्मियों के सायं सरस्वती (जिन वचन । से स्नेह करनेवाले हों एवं यह जिनवचनरूपी मोतियों को लता का बगीचा तीन लोक के आनन्द के लिए होते' ।। २२२ ।। जब मुझ सोमदेव ने शब्दसंस्कार व शब्दार्यसंस्कार सहित शास्त्ररूप अमृतरस का आस्वादन कर लिया तब दूसरे कविलोग निश्चय से उच्छिष्ट भोजी होंगे ।। २२३ ।। इसप्रकार समस्त तार्किक - ( पड् दर्शन वेत्ता ) चकवतियों के चूडामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्यं नेमिदेव के शिष्य श्रीमत्सोमदेव सूरि द्वारा, जिसके चरणकमल तत्काल निर्दोष गद्यपद्य विद्यावरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशस्तिलक महाकाव्य' है, 'अमृतमति महादेवी दुर्विलसन' नामका चतुर्थं आश्वास पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार दार्शनिक चूडामणि श्रीमदम्बादासजो शास्त्री व श्रीमत्पाद आध्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद जो वाणीं न्यायाचार्य के प्रधानशिष्य अनन्यायतीर्थ, प्राचीन न्याय तीर्थं काव्यतीर्थ व आयुर्वेद विशारद एवं महोपदेश आदि अनेक उपाधिविभूषित सागर निवासी श्रीमत्सुन्दरलाल जी शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरिविरचित 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' की 'यशस्तिलकढीविका' नामकी भाषाटोका में अमृतमतिमहादेवी - दुविलखन नामका चतुर्थ भारवास पूर्ण हुबा ।
१. अशियालंकारः ।
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२. रूपकोपमालंकारः ।
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पञ्चम आश्वासः श्रीमानशेषभुवनाविपतिजिनेन्द्रश्चन्नप्रभस्तव तनोतु मनीषितानि ।
यहीक्षणादपि ममःकुमुवाकरः स्याल्लोकस्य लोधनदलामृतपूरसारः ॥१॥ तवं सर्पस्य समातिजिनपते त्यं नाप कर्मान्तभूस्खं राता परमस्वमद्भतरुधो लोफेश ते ज्योतिषी ।
स्वन्नामामृतमत्र योगिविषयं त्वं देव तेजः परं एवं खानङ्गम सर्वगोऽपि नियतः पापा: लमस्तो भगत् ॥२॥ सदन्हो सकलविक्सीमन्तिनोसीमन्तसंतानिसप्रतापसिन्दूर चुरितविदूर, तस्मादरम्तव्यसनम्पालव्यासपाशासुरभिनिवेशात
ऐसे श्री चन्द्रप्रभ जिनेन्द्र आपके कल्याणों को वृद्धिंगत करें। जो कि अन्तरङ्ग लक्ष्मी ( अनन्तदर्शनादि ) व बहिरङ्गालक्ष्मी ( समवसरण-नादि विभूति ) से विराजमान होते हुए समस्त तीन लोकों के स्थामी हैं। जिनके दर्शनमात्र में भी चित्तरूपी कुमुद-( चन्द्रविकासो कमल) वन, भव्यजीव-समूह के नेत्ररूपपत्तों को अमृतधारा के प्रवाह से विशेष कृतार्थ हो जाता है। ॥ १ ॥ हे जिनेन्द्र ! आप समस्त प्राणी-समूह को सदाशरण ( दुःख-नाश करने में समर्थ ) हो। है नोक के स्नायो : ला का ज्ञानआदि ) की विनाशभूमि हैं।
हे भगवन् ! आप स्वगं व मोनसुख के देनेवाले व अभिलषित वर देनेवाले हैं। हे तीनलोक के स्वामी ! आपके ज्ञान-दर्शन लक्षणवाले दोनों नेत्र, आश्चर्यजनक लोक व अलोक को प्रकाश करनेवाली दीप्ति से युक्त है । हे भगवन् ! आपका नामरूपी अमृत ( मोक्ष-सुख का कारण होने से ) इस संसार में गौतममण घरादि योगोपुरुषों द्वारा जानने योग्य है । हे परम आराधना योग्य प्रभो! आप कर्ममल कलर को भस्म कारनेवाले होने से उत्कृष्ट अग्निरूप हैं। हे स्त्री-रहित प्रभो ! आप केवलज्ञान से लोकाकाश व अलोकाकाश में व्यापक ( मर्वत्र व्याप्त ) होते हुए भी चरमशरीरप्रमाण होने से मर्यादीभूत है, अतः आप संसार में स्थित प्राणी-समूह को अज्ञान से रक्षा कीजिये । अभिप्राय यह है-कि पृथिवी, जल, वायु, अग्नि, यजमान, आकाश, चन्द्र व सुर्य ये शंभु की आठ मूर्तियां हैं, उसके निराकरणाचं आचार्यश्री ने चन्द्रप्रभ तीर्थंकर को उक्त आठ भूतियुक्त निर्देश किया है ! यथा 'सदागनिः' पद से वायुमूर्ति व 'कर्मान्तभूः' पद से पृथ्वी मूर्ति सूचित किये गए । 'कर्मान्तभूः' पद का यह अर्थ है कि कर्मक्षय को पृथ्वीरूप गणधरादिसमूह या भव्यसमूह को रक्षा करनेवाले। इसीप्रकार 'दाता' पद से यजमानमूति, 'ज्योतिषी' पद से 'चन्द्रभूति' व 'सूयंमूति' कथन किये गए एवं 'वन्नामामृतम्' पद से जलमूर्ति, परसतेज: पद से 'अग्निमूर्ति' और 'सवंगोऽपि' तथा 'अनङ्गन' इस संबोधनपद से आकाशमति निरूपण की हुई समझनी चाहिए ॥ २॥ उसके बाद समस्त दिशारूपो स्त्रियों के शिर के फेशमार्गों पर प्रतापरूपी सिन्दूर को विस्तारित करनेवाले व पाप से दूरवर्ती ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! उस मुर्ग के बघरूपी पाप-युक्त अभिप्राय से, जिसमें दुष्ट स्वभाववाले दुःख-रूपी दुष्टगज अथवा कालसर्प का गंगमरूपी पाश ( बन्धन ) बर्तमान है, देवी-समूह द्वारा मेवन किये हा मध्य भागवाले 'सुवेल' नामक पर्वत के ईशानकोण की समीपवर्ती स्वभावतः प्रचुर जलवाली भूमि में वर्तमान वृक्ष पर में (यशोधर, मयूरकुलमें जन्म लेनेवाला हुआ। अर्थात्-उस सुबेल पर्वत के समीपवर्ती नदी तट पर वर्तमान वृक्ष पर मैं ( यशोधर ) मोरफुल में मोर हृझा । सुवेल पर्वतका निरूपण१. तपमानकारः। २. रूपक: फ्लेषालंकारश्च ।
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पञ्चम आश्वास
२७ हिमालयाद्दक्षिणचिषकपोलः शैलः सुवेलोऽस्ति सताबिलोलः । चकार यः कान्ततयामरीणां वीतस्पृहं नाम नगेषु चेतः ।। ३॥ नभः परिनोत्तुमियोद्यतस्य द्रष्टुं विगन्तानिव विस्तृतस्प । ऊध्वंस्चतिर्यवस्वमहत्यमुच शक्यते यस्य जनेन मातुम् ।।४।। नमेगसंतानकपारिजातमाकन्दमन्दारमनोहरासु । यस्यामराः केलिकृतः स्थलोषु स्मरन्ति नो नन्दनकाननस्य ॥५॥ फलस्सझणाममृतानुकूलमणिप्रकाशश्च दरोनिवेशः । दिवौकसा ससुखानि यत्र लोकः स्थितः प्रार्थयते न जातु । ६।। यसङ्गपृङ्गाविसम्बिनिम्बः पर्यन्तनक्षत्रमणिप्रद्युम्यः । आभाति राकातुहिनांशुमाली प्रसाधितं छत्रमिमाम्बरस्म ॥७॥ यश्चित्रमेषाम्बरमण्डिसाङ्गः समन्ततनामरणसङ्गः । पूषातपत्त्री निगोतकीतिरिन्मोत्सवस्पेव बिभति लक्ष्मीम् ।।८।। एसब पचित्किटिकटकयष्ट्रोत्पाटितानिपुटकिनीकग्ववन्तुरपरवानविन्यासः सानहास इव, पविन्निकटतटतटाकोदरबरदेहबोलेयरुपालसंकुलमेखलः प्रतियन्नकपालिकुल इव, वशिन्निखिलतरूपनीतानेफनेत्रसंततिः शततिरिय, पवित्प्रान्तप्रतापगाप्रवाहविषमवरलनः पचनाशन इव. क्वचित्केसरिकिशोरहरनखरोखातकरिकुम्भस्थलोच्छलन्मुक्ताफलजालजटिल
हिमालय पर्वत की दक्षिण दिशारूपी स्त्री के गालों-सरीखा शोभायमान 'सुवेल' नाम का पर्वत है, जिसमें मन्द-मन्द वायु द्वारा कम्पित होती हुई लताएं वर्तमान हैं एवं जिसने मनोहरता के कारण देवियों के हृदय को दूसरे पर्वतों में इच्छा-रहित किया था' ||शा जिस सुवेल पर्वत की ऊंचाई व दोघंता का महत्व अतिशय रूप से मनुष्यों द्वारा मापने या जानने के लिए अशक्य है। जो विशेष ऊँचा होने से ऐसा प्रतीत होता था-मानों-आकाश को विदीर्ण करने के लिए ऊपर गया है और विस्तृत होने के कारण-मानों-- दिशाओं का अन्त देखने के लिए दीर्घता को प्राप्त हुआ है। जिस पर्वत के उन्नत प्रदेशों पर, जो कि नमेझ, सन्तानक, पारिजात ( देववृक्ष), आमवृक्ष और मन्दार वृक्षों से हृदय को अनुरजित करनेवाले हैं, फ्रीडा करनेवाले देवता लोग नन्दन-वन का स्मरण नहीं करते ।।५।। जिस 'सुवेल' पर्वत पर स्थित हुआ जनसमूह वृक्षों के अमृततुल्य स्वादिष्ट फलों व रत्तकान्ति-युक्त गुफास्थानों के कारण देवविमान संबंधी सुखों की कभी प्रार्थना नहीं करते ॥६॥ जिस सुवेल पर्वत को ऊँची शिखर के उपरितन भाग पर जिसका मण्डल ठहरा हुआ है और जो पर्यन्त भाग पर स्थित हुए नक्षत्ररूपी मणियों को चुम्बन करनेवाला है, ऐसा पूर्णिमाचन्द्र आकाश के सजाये हुए छत्र-सरीखा शोभायमान हो रहा है" ||७11 जो प्रस्तुत पर्वत इन्द्रोत्सन्न की लक्ष्मी धारण करता हुआ-सा शोभायमान हो रहा है। जिसका शरीर नानावर्ण-वाले मेघरूपी वस्त्रों से मण्डित है और इन्द्रोत्सब भी नाना वर्णवाले मेघों का आवास है। जो, चारों ओर से घामरों (चमरी-मृगों के समूह ) से चारुसङ्ग [ सुन्दर सङ्गम-वाला ) है और इन्द्रोत्सब भी च-अमरों ( देवताओं) के सुन्दर संगम से युक्त होता है । सूर्य ही है छत्र जिसका, और इन्द्रोत्सब भी सूर्य-सरीखे तेज से विराजित होता है। इसीप्रकार जिसकी कीर्ति द्विजों ( पक्षियों) द्वारा गान की गई है और पक्षान्तर में जिसकी कीर्ति द्विजों ( ब्राह्मणों) द्वारा गान की गई है, ऐसा होता है | जिस 'सुबेल' पर्वत की गुफाओं का बदन विन्यास, किसी स्थान पर, शूकर-समूह की दाढों द्वारा उखाड़े हुए तरल कमलिनियों के मूलों से उन्नत दन्तशाली है। इससे जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-अट्टहास ही कर रहा है। किसी स्थान पर जिसकी मेखला ( पर्वत-नितम्ब ), तट के निकटवर्ती सरोवरों के मध्य भाग में विदीर्यनाण शरीरबाले कछुओं के पृष्ठ भागों से व्याप्त है। इससे मानों-रुद्र-समूह को अङ्गीकार करनेवाला ही है। किसी स्थान पर जिसके द्वारा अनेक नेत्रों ( वृक्ष-मूलों
१. रूपकातिशयालंकारः। ५. उपमालंकारः।
२, उत्प्रेक्षालंकारः । ६. प्लेषोपमालंकारः ।
३. समुपयातिशयालंकारः।
४. हेतूपमातिशयालंकारः ।
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मस्तिलकाचम्पूकाव्ये बल्लरीप्रतानः कामिनीवुन्तलसंतान इव, स्वचितनेचरसहधरोचरणनननक्षत्रपवित्रोपत्यकानिचयः सुरशितोवय इव, क्वचिन्निनरजलजरितशिलान्तः कृतकुमरताधामः सामन्त इव. माकलोक इच कृशि मुतावलोकः, शरदामम इव कृतकमलसमागमः, सरस्वतीसमावेश इस पुण्डरामावकाशोपदेशः, समीक्षासिद्धान्त इन कपिलकुलकानः, शुद्धान्त इव सकञ्चकिवृत्तान्तः, पवनमार्ग इव सदन्तोत्सर्पः, सरोक्कादा इव पारापतनिवेश:, कात्यायिनोनिलम इव घिहितहेरम्यप्रणयः, पिङ्गलेषणावास इव शापचरनिवासः, कल्याशापचन इच समदनः, अनात्मवानपि सचेतकः, वीभत्सुप कविश्वजचिह्नः अमेवारासनोऽपि सर्गः, अमनसिजरसोऽपि संभात भोगिनौसङ्गः भरेवतीपतिरपि ताललाञ्छनः, अवधिकोऽपि विहङ्गिकाध्यासितस्कन्धः, अकुसुमायुषोऽपि सपुष्पवाणः, व मृग-विशेषों ) का समूह समस्त वृक्षों के समीप लाया गया है। इससे मानों-इन्द्र ही है अर्थात्- जैसे इन्द्र अनेक नेत्रों ( चक्षुओं ) से अलवृत्त होता है। किसी स्थान पर बहती हुई मदियों के प्रवाही का जहागर वक वलन ( घुमाय-फिराव) हो रहा है। इससे मानों-सर्प ही है अर्थात् -जैसे सप, वक्र बलन-( संचार) युक्त होता है । किसी स्थान पर जहाँपर. लता-समूह, ऐसे मोतियों के समूह से मिश्चित हो रहे हैं, जो कि तरुणसिंहों के कठिन नखों द्वारा विदारण किये गए हाथियों के कुम्भस्थलों से उछलकर गिर रहे थे। इससे मानों-कमनीय कामिनियों का कैश-पाश ही है। अर्थात जेसे कामिनियों के केश-पाय मोतियों को मालाओं से अलस्कृत होते हैं। किसी स्थान पर जिसका उपत्यका-(तालहटी । समूह, भीलों की स्थिगों के चरणनखरूपी नक्षत्रों से पवित्र हो रहा है, इससे मानों-सुमेरू पर्वत ही है। अर्थात-जैसे सुमस पर्दत नक्षत्रों से मण्डित होता है । किसी स्थान पर जिसने झरनों के जलद्वारा दिलाओं का प्रान्त भाग जर्जरित किया है, इससे मानों-हाथी के पाव भागों पर निष्ठुर प्रहार करनेवाला राजा ही है। कुपिकसुतों ( उल्लुओं) के लिए अवलोक ( नेत्रकान्ति ) देनेवाला यह ऐसा प्रतीत होता था-मानों-कुशिकस्त । इन्द्र ) के अवलोक ( दर्शन ) चाला स्वर्गलोक ही है। कमलों { मृगों ) का सम्मुख आगमन करनेवाला जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-कमलों का समागम किया हुआ शरद ऋतु का आगमन ही है । जो, पुण्डरीक-अवकाश-उप-देश है । अर्थात--जहाँपर व्यानों के स्थान ( गुफा-आदि ) के समीप प्रदेश वर्तमान है। इससे मानों-गुण्डरीकअवकाश उपदेश वाला सरस्वती का सभादेश ही है। अर्थात् सरस्वती का सभास्थान, जिस में श्वेत कमल के अवकादा के चारों ओर व्याख्यान वर्तमान है 1 जो कपिलकुल-कान्त है । अर्थात् - यो फैपिलकुलों (बानर-समूहों ) से मनोज्ञ है अथवा वानर सम्हों के लिए अभीष्ट है। इससे मानों-सांख्य दर्शन हो है। अर्थात्-जैसे सांख्यशास्त्र कपिल-कुल-कान्त ( कपिलमुनि के शिष्य वर्ग को अभीष्ट) होता है। जो साञ्चुकि वृत्तान्त है । अर्थात्-जिसका मध्य भाग चुकी ( सो ) द्वारा कुण्डलाकार किया गया है। इससे मानाअन्तःपुर ही है। अर्थात्-जैसे अन्तःपुर कञ्चुकिगों ( रक्षकों ) के वृत्तान्त-सहित होता है। जो सत् दन्तउत्सर्ग है । अर्थात्-जिसके तटों की उत्कृष्ट रचना समीचीन है। इससे मानों-आकाश ही है । अर्थात्-जेसे आकाश, सत्-अन्तोत्सर्ग (चारों ओर नक्षत्रों सहित ) होता है। जो पारापत-निवेश (क्यूतरों को स्थिति वाला) है। इससे मानों-तालाब का स्थान ही है । अर्थात्-जैसे तालाब का स्थान कबूतरों के स्थानसहित होता है। जो विहित हेरम्बप्रणय है। अर्थात-जो हेरम्बों ( भमाओं के साथ स्नेह करनेवाला है। इससे-मानों--पार्वती-मन्दिर ही है। अर्थात् --जैसे पार्वती मन्दिर हेरम्ब ( श्रीगणेश ) के साथ किये हुए स्नेह-युक्त होता है । जो शाम्बरों । गायों ) का निवास है, इससे नातों-द्राबास ही है, अर्थात्-जेंगे ( भद्रावास शाक्वरों । वृषभों) का निवास होता है । जो समदन. ( राजवृक्षों से सहित ) है, इससे मानों-विवाहदिन का शरीर ही है । अर्थात्-जैसे विवाह दिन का शरीर, समदन ( कामदेव को जाग्रत करनेवाला ) होता
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पञ्चम आवास:
कि च।
पाताले पाबमूलोपविलसदहिग्यूहवासान्तकान्तस्तियंकप्रारभारभागाअयशवरवधूबन्धुराधित्यकान्तः । अपं गन्धर्वरामारतिरमसभरोल्लोलचूलाकरालालोक्यालोक्यलक्ष्मीजयति गिरिरचं मेरुलीलासरालः ॥९॥
तस्य नुरसुन्दरीसमाजसेवितसकामेखलायाघलस्पेशान्यां दिशि निसर्गादफवल्यामुपत्यकायामस्ति भो भूवनश्यीयवहाराग्नितागण्यगफ्यपुण्यजनानवानापः पादपः । यः ल्वनेकर्शिकरकुलफामिनोनिशिनशिसोल्लेखनखमुख
है । जो अनात्मवान् हो करके भी सचेतक है, अर्थात् जो जितेन्द्रिय न होकर के भी आत्मज्ञानी है। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, चयोंकि जो जितेन्द्रिय नहीं है, वह आत्मज्ञानी कैसे हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि जो अगात्मवान् । अचेतन-जड़) है और सचेतक ( हरीतकी-वृक्ष-सहित ) है । जो 'अवीभत्सु' होकर के भी कपिध्वर्जाचह्न है । अर्थात्-जो अर्जुन न होकर के भी वानर के चिह्नवाली ध्वजा मे सहित है। यहाँपर विरोध मालग होता है क्योंकि जो अर्जुन नहीं है, वह वानर के चिह्न वाली ध्वजा से घुक्त केसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अवीभत्सु ( अकर ) हैं एवं जिसके चिह्न कपि ( वानर ) व ध्वजा (वृक्ष) है।
जो अमझशरासन ( रुद्र-रहित ) होकर के भी सद्गं . पार्वती-सहित ) है यहाँपर विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जो रुद्र-रहित होगा, वह पार्वती परमेश्वरी से सहित कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जहाँपर अमेम ( नमेरु यक्ष), शर । बाणतण, अमन ( सर्जक वृक्ष व प्रियाल वृक्ष ) वर्तमान हैं ओर जो निश्चय में सदुर्ग ( विषम-ऊबड़-खाबड़ प्रदेश सहित है। जो अमनसिजरस ( काग-राग रहित ) होकर के भी संजातभोगिनीराङ्ग ( जिसको भोगने योग्य स्त्रियों के साथ संग उत्पन्न हुआ है ) है । यहाँपर भी विरोध मालम पढ़ता है; क्योंकि कामवासना से अन्य पुष स्त्री-संगम नहीं कर सकता। उसका समाधान यह है, कि पर्वत के कामवासना नहीं होती, क्योंकि वह जड़ है। अतः जो काम-राम-रहित है एवं निश्चय से संजात भोगिनी सङ्ग ( जिसको सपिणी का सङ्गम उत्पन्न हआ है। है। जो अरेवतीपति होकर के भी लाललाग्छन है । अर्थात्-जो बलभद्र न होकर के भी ताडवृक्ष के चिह्नवाली ध्वजा से ज्याप्त है। यहाँपर विरोध प्रतीत होता है क्योंकि जो बलभद्र नहीं है, उसके तालवक्ष के चिह्नवाली ध्वजा कैसे हो सकती है। उसका समाधान यह है कि जो रेवतो के एवं उपलक्षण से दूसरों के क्षेत्रों ( खेतों से रहित है, क्योंकि "शिलायाँ सस्यं न भवति' अर्थात्-चट्टानों पर धान्य उत्पन्न नहीं होती एवं निश्चय से तालवृक्षों से सहित है।
जो अवैवधिक होकर के भी विङ्गिका-अध्यासित स्कन्ध है । अर्थात् जी वैवधिषा ( काबड़ी-- वहगीधारबा) न होकर के भी विङ्गिका (वहगी) से समाधित स्कन्ध वाला है। यहीं पर भी विरोध प्रतीत होता है कि जो वहगीधारक नहीं है, वह बहंगी से आश्रित स्वाध चाला कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है जिसमें वैधिक (ताराओं का सम) नहीं है और निश्चय से जिसका तट प्रदेश बिहशिकाओं-पक्षिणियों-में आश्चित है। और जो अकुसुमायुध हो करके भी सपुष्पवाण है । अर्थात-जो कामदेव न हो करके भी मुल्यों के घाण वाला (कामदेव) है। यहां पर भी विरोध है क्योंकि जो कामदेव नहीं है, वह कुसुमशर-- कामदेव-बोर हो सकता है ? उसका समाधान यह है कि जो 'अकु:-सुमः-आ-युधः' है। अर्थात्-जो अकु: (भूमि-रहित), व सुभः (उत्तम शोभा-युक्त) एवं जिसमें चारों ओर से सिंह व हाथियों का युद्ध वर्तमान हे और निश्चय या जिसमें पुष्पों से व्याप्त हुए दाण वृक्ष वर्तमान हैं।
विशेषता यह है-मुमेपर्वत की शोभायाला यह सुमेझ-सा सर्वोत्कर्ष रूप से वर्तमान है । जो अघो
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तिलक काव्ये
विलिख्यमान शाखा भुज शिखरः शिखरशिखाडम्बरितनिधिमण्डल डिम्भतुण्डखण्डमानकुम्पलपर्यन्तः कुम्पलपर्यन्त संचरच्चारणम्रप्पू विमान मणिकिङ्किणीजालविलुण्ठित चिटपा पल्लवपुर पटलः, पल्लवपुटपटलात लखेलद्वावासको र कुटुम्बिनीकृतकितवालापविस्मापितपथिकसार्थः पथिकसार्थक पारध्थायात मिलितानेकदेशि को चितविचित्र वातकर्णी नोवीणं वचनवनदेवतो. लएलसरहस्ताहूयमानसचरीनिचयः, सहचरीनिचकर किशलय संघान सुख सुप्तागन्तुक लोकोपसेव्यमानबहुलशीतलच्याछुन्नतलवेशः, छायाच्छनतलदेशाध्यमृषावादविन्निखिन्न । ध्वन्य संबाषकलहः कुलितपुरः प्रयातपाम्यसंदर्भः, पान्यसंदर्भपरिभ्रमथ मविश्राम्याश्वमार्भकदमं गर्भितस्कन्धा भोगपरिसरः, स्कन्धाभोगपरिस रोपचितबनकर निवासनिषण्णािध्वगमिन्युनरतपुष्टताकुलितशकुन्तप्रनः प्रजापतिरिव प्रवशतानेकवर्ण प्रसूतिः निखिलभुवन विनिर्माणप्रवेश
भाग में पादमूल के पाषाणों पर क्रीडा करते हुए सर्ग-समूहों के कुण्डलाकार किये हुए शरीररूपी पवंत से मनोहर है और मेरुपवंत भी 'अहिव्यहवृत्तान्तकान्तः' अर्थात् नागदेव की कथा से मनोहर है। जिसकी ऊर्ध्वभूमि का अन्त तिरछे विस्तृत प्रदेशों पर आश्रय करनेवाली किरात-कामिनियों से व्याप्त है और सुमेरुपर्वत भी जिसकी ऊर्ध्वभूमि का प्रान्तभाग वरखाली देवियों व विद्याधरियों से व्यास है । ऊर्ध्व प्रदेशों पर गर्वयों की कामिनियों के संभोग क्रीडा सम्बन्धी वेगातिशय से चञ्चल हुए अग्रभाग से उन्नत है । एवं मेरु भी गन्धर्व्वं कामिनियों की रति से व्याप्त है एवं जिसकी लक्ष्मी (शोभा) तीनों लोकों (ऊर्ध्व, मध्य व अधोलोक) से निरीक्षण करने योग्य है ॥ ९ ॥
जिसका असंख्य गुणरूपी पण्य (बेंचने योग्य वस्तु) तीन लोक के व्यवहार में आचरण किया गया है ऐसे हेमारिदत्त महाराज ! कैसा है वह वृक्ष ? जिस पर मैं (यशोधर) मोरों के कुल में मार हुआ ? जो (वृक्ष), यक्षों के आनन्द की क्यारी है। जिसकी लताओं के बाहु-शिखर अनेक पक्षी समूह की कामिनियों (पक्षिणियों) की तीखी शिखा के अग्रभागों से व्याप्त हुए नखों व चोचों द्वारा चुण्टन किये जा रहे हैं। जिसकी कोपलों के अग्रभाग वृक्ष-शिखर के अग्रभागों पर वर्तमान विस्तृत व घने घोंसलों पर क्रीडा करते हुए पक्षियों के शावकों कोबोंचों से छंदन किये जा रहे हैं। जिसकी शाखाओं के अग्रभागों के पल्लव पुट-पटल (समूह) कोंपलों के अग्रभागों पर संचार करते हुए देवविशेषों की सेना के विमानों की रत्नजड़ित सुवर्णमयी क्षुद्रघण्टिकाओं की श्रेणी से तोड़े गये है । जहाँ पर संयुक्त प्रवाल- (कोमल पत्ते ) समूहों के मध्य भागों पर क्रीडा करती हुई व विशेष शब्द करने वाली शुक्र- कामिनियों (मेनाओं) से किये हुए घूर्तता युक्त एकान्त भाषणों द्वारा पथिक-समूह आश्चर्यान्वित कराये गये हैं। जिस पर ऐसे वन देवताओं के, जो कि पथिक समूह की कथारूपो जिह्वारथो से आकर मिली हुई, अनेक देशों के योग्य तथा चमत्कार करनेवाली किम्बदन्तियों के सुनने से विशेष वाणी बोलने वाले हैं, विशेष चञ्चल करकमलों द्वारा वन- देवताओं का कामिनी समूह बुलाया जा रहा है। जिसका अधःप्रदेश, ऐसी छाया से आच्छादित है, जो कि स्त्री समूह के हस्तपल्लवों से किये हुए पाद-मर्दन से उत्पन्न हुए सुख से सोए हुए पथिकजनों द्वारा स्वीकार की जा रही है एवं जो घनी व शीतल है। जहां पर ऐसे पथिकों के, जो कि छाया से आच्छादित हुए अधःप्रदेश के आश्रय के लिए बढ़ती हुई प्रचुर अभिलाषा से जा रहे थे एवं जो घने व श्रान्त ( थकित थे, संघटन से उत्पन्न हुई कलह के कारण पहिले से आया हुआ पथिक-समूह व्याकुलित हुआ है | जिसके विस्तृत स्कन्ध का समीपवर्ती स्थान पथिक समूह के साथ पर्यटन करने से उत्पन्न हुए श्रम के कारण विश्राम करते हुए तपस्वी बालकों के कुशों से आच्छादित हुआ है । विस्तृत स्कन्ध की आगे की भूमि पर निर्माण कराये हुए किरात भवनों में स्थित हुए विट ( कामुक ) पथिकों के स्त्री-पुरुषों के जोड़ों के मैथुन की
१. हेतूपमालंकारः ।
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पञ्चम आश्वास:
१०१ इव बलबल, काकुरस्यकथावतार इव कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसरः सत्रमण्डप इव द्विजराजविराजितः पर्जन्यागम इवइयामलिताखिलविलयः, धन्यः प्रस्तार इव पावप्रबन्धावन बचः क्षितिपजययात्राकाल इव मुच्छायपत्त्रः काननधीप्रसातितपत्त्राभोग इव सुयुमण्डलः, पुण्योदयश्विस इव संपादित फलपरम्परः शरणागतसंभावनाविव दूरतरमभ्युत्थितः प्रार्णकपरिरम्भसंभ्रमाविव प्रसारितशास्त्रमञ्जलिः सिधालय इवानकशस्त्रिवशदमितोपयाचितमिष्टपश्चाङ्गुलावद्ध बुष्मः कुबेरपुरनिवास इव प्ररोहबावक्षयकुलकुमारः, पशुपतिरिव ग्रामधिष्ठितः समोपत रविनायकश्च नारायण इव धनमालाविभूषणः परिकल्पित भुजगशयनदच पितामह व वयःपरिणतः
निर्लज्जता के कारण जहाँ पर पक्षियों के बच्चे व्याकुलित हो रहे हैं । जिसने अनेक वर्णों (श्वेत व पीतआदि) की उत्पत्ति वैसी प्रकट की है जैसी ब्रह्मा अनेक वर्णों (आह्मणादि) की उत्पत्ति प्रकट करता है। जो बैसा दलबहुल (पत्तों से प्रचुर ) है जैसे समस्त लोक की रचना का स्थान दलबहुल (कारण सामग्री की अधिकतायुक्त) होता है ।
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जो वैसा कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसर है। अर्थात् जिसके पलाशों ( पत्तों ) का विस्तार या समूह कपिकुल्लों (वानर-समूहों से तोड़ा जा रहा है, जैसे रामायण का प्रवेश कपिकुलविलुप्यमान पलाशप्रसर होता है । अर्थात् — जिसमें कपिकुलों । सुग्रीव-जादि वानरवंशजों) से पलाशप्रसार ( रादास व्यापार) मारनेयोग्य होता है । जो वैसा द्विजराजों ( मुख्य पक्षियों) से सुशोभित है जैसे दानशाला द्विजराजों ( मुख्य ब्राह्मणों) से सुशोभित होती है। जो वैसा समस्त दिशा-समूह को नीलवर्ण-युक्त करनेवाला है जैसे वर्षाकाल समस्त दिशा-समूह को श्यामवर्णशाली करता है । जो वैसा पादप्रबन्धों ( जड़-समूहों द्वारा पातालभूमि को ब्याप्त करनेवाला है जैसे छन्दप्रस्तार पादप्रबन्धों ( अक्षरसंघात समूहों द्वारा पृथिवी को व्याप्त करता है । जो वैसा सुच्छापत्र | शोभनकान्तियुक्त पत्तोंवाला है जैसे राजाओं की दिग्विजय की यात्रा का अवसर सुच्छायपत्र ( तेजस्वी आदि वाहनों से युक्त ) होता हैं । जो वैसा सुवृत्तभण्डल (जिसका मण्डल - वर्तुलता अच्छी तरह निष्पन्न ! है, जैसे बनलक्ष्मीका मण्डित छत्रविस्तार सुवृत्त मण्डल | निष्पन्न वर्तुलाकार वाला ) होता है । जो वैसा संपादित फलपरम्पर (अनार आदि फलसमूह को उत्पन्न करनेवाला अथवा भेंटरूप से उपस्थित करनेवाला) है जैसे पुण्योदय का दिन सम्पादित फलपरम्पर, ( अभिलषित सुखरूपी फल-समूह की उत्पन्न करनेवाला ) होता है । दूर से पथिकों के सन्मुख थाया हुआ जो ऐसा प्रतीत होता था मानों - शरणागत पथिक आदि को प्रसन्न करने के कारण से ही दूर से उनके सन्मुख आया है । मानों - अतिथियों के आलिङ्गन के आदर से हो जिसने अपनी शाखारूपी हजारों भुजाएँ ( बाहू) फैलाई हैं। मानों अपनी सम्पत्ति को दान करने के विनय से हो जिसने संयुक्त पुष्प कलियों को नमस्कार अञ्जलि बाँधी है। जिसका मूलप्रदेश बैसा देवियों के अनेकवार की हुई प्रार्थनाओं एवं पिष्टपञ्चाङ्गुलों (टूटे हुए एरण्ड-वृक्षों ? ) घिरा हुआ है जैसे देवमन्दिर देवियों के नमस्कारों व पञ्चाङ्गुलों ( चूर्ण के हाथाओं ) से घिरे हुए बुत ( नीचे का भाग) से व्याप्त होता है। जपर शाखाओं पर बँधे हुए झूलाबों से झूलने में यक्ष-समूह के कुमार दक्ष ( निपुण ) हो रहे हैं, अतः जो अलका नगरी के मन्दिर सरीखा है । अर्थात् — जैसे अलकानगरी का मन्दिर जहाँपर बंधे हुए झूलाओं के तूलने में यक्ष समूहों के कुमार प्रवीण होते हैं। जो बैसा गो-अधिष्ठित ( पृथिवी पर स्थित ) व समीपतर विनायक ( जिसके समीप पक्षियों के नायक - गरुड आदि ) हैं जैसे रुद्र गो-अधिष्ठित (वृषभ अधिष्ठित व समीपतर विनायक ( जिसके समीप श्री गणेशजी वर्तमान हैं ) होता है । जो नारायण सरीखा वनमाला विभूषण ( वनश्रेणी को अलंकृत करनेवाला ) व परिकल्पित भुजगशयन ( जिस पर सर्पों द्वारा स्थिति की गई है ) है |
अर्थात् — जैसे श्री नारायण वनमाला - विभूषण (जालन्धर देत्यभार्या सहित ) और परिकल्पित भुजग
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निरवरिमाड र भूरा वाणिसंगमय, तापस इव विहितवल्कप्तपरिणतः कृतजटाबन्धश्च, समुद्र इय महासत्वसंश्रयः प्रचारापाटलितफटनिश्च, सत्पुरुष इव प्रियालोकनः पराधंघटनानिानाच,
___ यश्चानधरतमखिलबनोपसेव्यमानसर्वस्यः पवनवशविकाापरेण पल्लवापरणोपहसतीव प्रतिवेशितानस्मिन्दु संचारे कान्तारे वैयाववाप्यमानसमागमनस्याधिभनस्माविधाय कमप्युपकारमरे पदिर, कि सबान्तःसारतया। सरल, वृषवं सरलत्वम् । संपाक, मुधेयं राजवक्षता । शाल्मले, निष्कारण कण्टाकितं वपुः । अर्जुन, प्रात्मक्षेवाम फलभारपरिग्रहः । तृणराज, निजफखविभवगोपनाप नितान्त वृद्धिः। पूतीक, अपिजनाशाभङ्गाय मार्गावस्थितिः, कि च।
पान्यः गल्लवलण्टनं कटिभिः स्कन्धस्य संघदन संबायो हरिभिः शकुन्तनिकरः क्षोवस्तु कि यष्यते ।
कि चान्यत्तम देवदेहसशस्त्रलोक्यमान्यस्थिते रात्मीया इब पस्य पाचकजनः स्वच्छन्दसेय्याः श्रियः ।।१०॥ शयन (नागशय्या पर दायन करनेवाले ) होते हैं। जो वैसा वयःपरिणत (पक्षियों से चारों ओर नम्रोभूत ) और शुचि-छद-परिच्छद ( पवित्र पत्तों से वेष्टित या आच्छादित ) है जैसे श्री ब्रह्मा वयःपरिणत ( वृद्ध ) व शुचिच्छद-परिच्छद ( हंस-बाहनवाला) होता है । जो वैसा मयूर-आसन । जिसपर मोरों की श्रेणी वर्तमान है ) व सुरवाहिनीसंगम ( देव-सेना के संगमवाला) है जैसे कार्तिकेय मयूगसन ( मयूर वाहन वाला) घ सुरवाहिनीरांगम । गङ्गा नदी का संगम करनेवाला) होता है । जो वैसा विहितबल्कलपरिग्रह ( वृक्ष की छाल को धारण करनेवाला ) ब कृतजटायुबन्ध (शाखाओं का बन्धन करनेवाला) है जैसे तपस्वी विहितवल्कलपरिग्रह ( वृक्ष की छाल का धारक ) और कृतजटायुबन्ध ( मोरपंखों को पीछी का धारक ) होता है। जो वैसा महासत्वसंश्रय ( विमोष बल का आश्रय ) व प्रवालपादलितकटनि ( जिसने तट को छोटी छोटी कोपलों से पादलित किया है। है जैसे समुद्र महासत्वसंथय ( मकर-आदि जलजन्तुओं का आश्रय ) व प्रवालपाटलितकानि ( जिसने तट को मूंगारत्नों में पाटलिप्त रक्तवर्णशाली-किया है। होता है । एवं जो वैसा प्रियालोकन (प्रिय दर्शनवाला) व परार्थ घटनानिन ( दूसरे लोगों व पक्षियों के प्रयोजन की घटना में सत्पर) है जैसे सत्पुरुष प्रिया-अलोकन ( परस्त्रियों को ग देखनेवाला ) व परार्थघटनानिध्न ( परोपकार करने में तत्पर ) होता है।
जो वृक्ष, जिसको पुष्प व फलादि सर्व विभूति समस्त प्राणियों द्वारा निरन्तर जीविका-योग्य की जा रही है। जो वायु से विकसित हुए फ्ल्व रूपो ओष्ठों से निकटवर्ती वृक्षों का निम्नप्रकार उपहास हो कर
'अरे! कत्थे के वृक्ष ] याचक मानव का, जिसका समागमन इस दुःख से भी संचार करने के लिए अशक्य वन में दैवयोग में प्राप्त किया जारहा है, जब तूने कुछ भी उपकार नहीं किया तब तेरी अन्तःसारता से क्या लाभ है ? हे देवदारु ! जब तू कुछ भी उपकार नहीं करता ती तरी सरलता वृथा है। हे संपाक ( वृक्ष-विशेष ) ] अनुपकारी तेरी मह राजवृक्षता निरर्थक है। हे सेमर वृक्ष ! अनुपकारी तेरा यह शरीर निकारण माटों से व्याप्त है। हे अर्जुन ! अनुपकारी तेरा यह फलों का बोझारूपी परिग्रह स्वयं के खेद के लिए है; क्योंकि तेरे का अखाद्य हैं। हे ताड़ वृक्ष ! अनुपकारो तेरी अतिशय ऊंचाई अपनी फल संपत्ति को रक्षा के लिए है। बरे करआवृक्ष ! उपकार न करते हुए तेरी मार्ग पर स्थिति याचकों को आशा को भङ्ग करने वाली है।
पान्यों ( वटोहियों ) से पल्लवों का चुण्टन किया जाता है व हाथो तेरा तना रगड़ते हैं और बन्दर तुझे पीड़ित करते हैं एवं पक्षो-समह से तेरे खोदने के विषय में क्या कहा जावे ? विशेष यह है कि देवता
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पञ्चम आश्वासः
समहो महाराज, विटपिनमनिवसति, संस्तः स्वरविहारचरितैरनेकरत्नचिता इव गिरिवरोचिरचपत्ति, यिचिमोट्स मस्तम्बसुबम्बाडम्बरा इय शाखिशिखाः कुर्बाणे. बुमच्यवनचापचापताविता इव दिशो वर्शयति, वारचित्रोल्लेला व मेदिनीपाने, विविषमणिमेचकिता इव सरसोः सज्जयति, वनवेक्ताचामरचतुरा इस लतापहावनीविनिर्माण, फैशपाशपेशाला हवोपवनश्रियः संपावयति, भयरशिबिरशिकण्डमनोचिसकलापे, पुलिसुन्दरीवतंसीकृतघन्टके. वनेश्वरबनिताहितबहवलयविनोदे, नरेश्वरभीलाञ्छनपिम्याग्नि , महामुनिसंयमोपधिनियन्धमाङ्गबहसंकुले. प्रचलाकिना फुलेऽहमवाप्तजन्मा। फवानिनिः वारसासरा सारि पारपर तिमरमशिखण्डमण्ड सोगतिस्खलितकलषरसरम्, किमपि खेपसमप्रमप्रेसरतरणतररविकरनिकरनिरुध्यमानमार्गादयः वशन्तोमान्तातोयमावाया संनातकलापोच्चयोऽम्यागामिसरसंपत्तिवशारप्रवृत्त प्रतीचीनचरणप्रचारः, सच्चरित्रचित्रकस्य दुराचारविश्वणम्य पक्षणपतेः मसजवस्यात्मजेन गजशल्कासमान शरीरखाले च तोनलोक के प्राणियों द्वारा माननीय आचारवान तेरी फलादि सम्पत्तिनी याचा गनों से अनी-सरीखो समझकर यथेष्ट भोगने योग्य होती है ।।१०।।
हे मारिदत्त महाराज ! मैंने कैसे मयूर-कुल में जन्म-धारण किया? जो ( मयूर कुल ), उस वृक्ष पर निवास कर रहा था । जो जन उन प्रसिद्ध इच्छानुसार की हुई पर्यटन की चेष्टाओं से पर्वत की गुफाओं को अनेक रत्नों से रची हुई-गरीखों रच रहा था । जो वृक्षों को शिखरों को विचित्र उत्पन्न हुए गुच्छों के समूह को रचना-वाला कर रहा था। वो दिशाओं को इन्द्रधनुष को चञ्चलता से व्याप्त हुई सरीखी दिग्पा रहा था । जो, पथिवियों को मनोज्ञ चित्रों से महित हुई-मों धारण कर रहा था। जो महासरांबरों को नाना माणिक्यों से रंगविरंगे-से कर रहा था। जो लनामण्डप को भूमियों की वनदेवताओं के चमरों से शोभित हुई-सरोग्यो रच रहा था। जो उपवन की लमियों को केशपाशों से मनोज्ञ-सी उत्पन्न कर रहा था। जिसका पिच्छ-समूह भोल-समूह के मस्तकों के भूपण-योग्य है। जिसके पिच्छों के अनभाग भोलों की सुन्दरियों द्वारा मुकुट किये गए हैं अथवा कर्णपूर किये गये हैं। जिसकी पिच्छरूपी कण-कीड़ा भीलों की स्त्रियों के लिए गुणकारिणी है। जो राजलक्ष्मी के योग्य चिन्ह रूपी पिच्छों से वृद्धि प्राप्त कर रहा था एवं जो महानियों के चारित्रोपकरण ( पीछी । के कारणीभूत पिच्छों में व्याप्त है। इसके बाद है मारिदन महाराज ! किसी अवसर पर मुझे सदाचार के पालन में भारती व पापाचार में आसक्त 'मलङ्गजद' नाम के भीलों के गृहस्वामी के पुत्र गजशाल्मक' नाम वाले ने देखा। कैसे मुझ को ? गशल्यक ने देखा?
जिसने लघु सरोवर के तट से गोसा जल पिया था, जिसकी छोटी-छोटी तरङ्ग-प्रेणियाँ अपनी निःश्वास सम्बन्धी अवसान वायु से प्रेरित की गई हैं एवं जिसकी कलुफ्ता की च्याप्ति दिशेप वृद्धिगत मोर की चोटी-श्रेणी के हिलाने शे वृद्धिंगत हुई है, फिर नहीं उत्पन्न हुए पिच्छकालाप-समूह वाला होने पर भी भविष्य से प्रकट होनेवाली पिच्छ-कलाप-समूह की संपत्ति के कारण जिसका चरण-प्रचार पैरों की प्रवृत्ति) भय से विपरोत (पीछे गमन-युक्त) हया था। जिसके मार्ग का अग्नभाग कुछ अनिर्वचनीय विशेष खेदपूर्वक आगे जानेवाले प्रोड यौवनशाली मौर-समूहों से रोका जा रहा है।
हे मारिदत्त महाराज ! फसे 'गजशल्यक' ने मुझे देखा? जो कि इसी लघु सरोबर के समीप पक्षियों व वायु-सरीखे तेज दौड़नेवाले भूगों को मारने के लिए आया हुआ था। जो मैत्रों की किरणों से, जिनकी कान्ति मदोन्मत्त हाथी के रुधिर से अव्यक्त लालिमाचाले सिंह-कण्ठ के केशों सरोत्री थी, दिशाओं में बन्धन श्रेग्गियों' का विस्तार (फैलाव) करता हुआ-सरोखा शोभायमान हो रहा था | जा, मोरों के नेत्रान्त-सरीखे शुभ्र व विस्तृत १. समासोक्त्युपमालंकार: 1 २. उक्त –वोतं शस्त्रोपकरण बन्धने मृगपक्षिणाम् ।'
सं०टी० पु. १९७ से संकलित-सम्पादक
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यतिलकचम्पुकाव्ये माम्ना तव शकुन्तवातप्रमोसमामुपहन्तुमापतेन, सिन्धुररुषिरावणहरिकण्ठकेशकान्तिभिष्टिवीधितिभिवातंसजालानीव विक्ष प्रतन्यता, मयूरापाङ्गपाण्डरवंशनरीप्तिप्रसरंराशामुखेषु मृगमन्थानिय प्रसारयता. भाविभवापारपटलरिव लता. प्रसानवलस्तिरोहितप्तनुना, शनिनेव मधीमाषाङ्गारकालकायेन, पलिशावेशापिणा तेनान्तकेनेवावलोपितः। पक्षाणामयापि पक्षतिप्रदेश एवासावितोदयत्वातिबोनरयत्वाच्च रोबस्योरन्यतस्मिन्नपि विषये विहतमसमर्थः, परिगा पञ्जरे कृतकारागारकियः, प्रदप्रचसाप्रधयश्स, तज्जनकेन पौराङ्गनापाङ्गपताकिलशालायां विशालायां पुरि यशोमतिमहारामायोपायनीकृतः, समवलोक्य च ता संसारसारावनों तक्षिसर्विव सुन्वर मन्दिरं च यावाविर्भूतभवसंभालन:,
संवेयं नगरी, तवेष भवनं, ता एवं कोलोथराः, सयेषा वनभुः, स एव सरप्तीसारे विलासाचलः, ।
संवासो यनिता, स एव तमयस्ते चंष मे बाधा ल मेक ए जि Hindi-En: 11 इति क्षणमुपजातान्तर्वाष्पोदन्तः, पुनरन्तःपुरकशोवरोणां निवासतरस्कन्षावरोहावकारियोत्सनादेशगिरिशिखररिव पयोपरैःप्रमबबनवल्लरीगहनरिव बाहूपगूहनः सरोजसरप्राणरिव मुखाघ्राणः शयनकुञ्जकलिचूलरिव कुन्तलमालविनोद्यमानः, पुत्र इब प्रियोपचारेषु सहवर इव विहारकर्मसु बीपोत्सवादी गृहमिव पर्वप्रासाव इव मण्डनविधिषु शियय इव मर्तनक्रियालु
दन्तकान्ति से दिशाओं के अग्नभागों पर मृग-बन्धनों का आरोपण करता हुआ-सा प्रतीत हो रहा था । जिसका शरीर, लत्ताओंणो के पत्रों से, जो ऐसे प्रतीत होते थे—मानों-भविष्य जन्म-सम्बन्धी अज्ञानान्धकार के समूह ही हैं, आच्छादित था। जिसका शरीर कज्जल, उड़द के कण व कोयला-सरोखा काला था एवं जो पलिश' देशा ( जहां पर स्थित होकर हिरण मारे जाते हैं। का आश्रय करनेवाला था, अतः मानों-यमराज ही है । फिर मुझे ( मोर पर्याय के धारक यशोधर को), जिसके पिच्छ अभी भी पिच्छों के मूल-प्रदेश में ही उदित हुए थे एवं जिसका वेग अति दीन था, इसीलिए आकाश व पृथिवी में से किसी भी स्थान पर पर्यटन करने के लिए असमर्थ था। उस गजशल्यक ने पकड़कर पिञ्जरे में वन्दीकृत किया । अर्थात्-जेलखाने में प्रविष्ट किया । इसके बाद उत्पन्न हुए पिच्छसमूह से अलंकृत हए मुझ को उक्त गजशल्यक' के पिता 'मतङ्गजव' ने उज्जयिनी नगरी में, जिसके गृह नगर की कामिनियों के कटाक्ष प्रान्तों द्वारा ध्वजाओं से संयुक्त किये गए हैं, यशोमति महाराज के लिए भेंट कर दिया। सांसारिक सार बस्तुओं की भूमि उस उज्जयिनो को और स्वभावतः मनोज्ञ राजमहल को देखकर मुझे भाग्योदय से जाति स्मरण प्रकट हुआ। फिर मुझे निम्नप्रकार जातिस्मरण के साथ क्षण भर में नेत्रों के मध्य आंसुओं के पतन को प्रवृत्ति उत्पन्न हुई।
वही यह उज्जयिनी नगरी है। वही यह 'त्रिभुवन तिलक' नाग वा राजमहल है ! बे ही क्रीड़ा भूमियां हैं। वहीं यह वनभूमि है । वही सरोवर के समीपवर्ती क्रीडापर्वत है। वहीं यह अमृतमति महादेवी पत्नी है और वहीं यह यशोमति नाम का पुत्र है एवं वे ही मेरे कुटुम्ब वर्ग हैं, परन्तु आश्चर्य है कि केवल अकेला मैं हो (यशोधर हो) अन्यादृश (विलक्षण-मोर की पर्यायधारक) हो गया हूँ" ||११||
फिर मैं अन्तःपुर की स्त्रियों व मन कामिनियों के उत्सङ्ग देशों (गादियों) से, जो कि निवास वृक्ष के तना से उतरने के स्थानों की तरह थे, क्रीड़ा किया जा रहा था और उनके पर्वत-शिखर सरीखे कुचकलशों से क्रीड़ा किया जा रहा था। उनकी भुजाओं के आलिङ्गनों से, जो कि उनकी कोहा योग्य उपवन-सम्बन्धी
१. 'पत्र स्थित्वा मृया हन्यन्ते स प्रदेशः पलिश उच्यते'
सं.दी० प. १८० से संकलिन-सम्पादक २, समुच्चयोपमालंकारः।
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पठचम आश्वासः
१०५ प्रणयस्थानमिवापरास्वपि क्रीसासु वरारोहाणां च स्पर्म नखनिस्तुषितमण्डल: कलमतन्दुल: प्रतिनिकायभुपनार्म्यमानः, क्षितिपतिना च तेन अमनावतरेषु स्थहस्तवतितकायः प्रममावल: संभाव्यमानः, तत्र सम्मीविलासाकुले राजकुले सभा. स्सार इव प्रगल्भप्रचारः मुखेनाहमासांचक । इसपास्ति बल विन्ध्यादक्षिणस्यां विशि विशवेशाभयश्रीनिकटः करहाटो नाम जनपदः। यत्र
सस्यसंपत्तिसंक्षिप्तसीमाभुवः, प्रचुरपथिकप्रियापणिसपथिवस्तवः । सत्त्रवापीप्रपारामरम्योचमाः, पग्निनोखण्डताविततोमाशयाः ॥१२॥ श्रीविलासोत्सवस्खलितसुरसमितयः, फुल्मफलपल्लवोल्लासिवनवृत्तयः । पिकवधूस्तमनोहारिसर्वतवः, सकलसंसारसुखसेवितागन्तवः ॥१३॥ समरभरभागिभटभाववादोत्कटाः, खेसबुन्मयधोखाततटिनीसटाः । स्यागमोगप्रभावाद्भुतल्यातयः, शुद्धवर्णाश्रमाचरितविगततयः ॥१४॥
लतावन-सरीखे थे तथा कमलों से अलंकृत हुए सरोवर के जीवन-सरोखे मुम्ल-चुम्बनों से एवं शय्यावृक्ष के क्रीड़ापिच्छों (मोरपंखों) सरीखे केश पाशों से क्रीड़ा किया जा रहा था। मैं मत्त कामिनियों के स्वयं दिये हुए धान्य-तण्डुलों से, जिनका समूह नखों द्वारा भूसी-रहित किया गया है, प्रत्येक गृह में वैसा प्रतिपालन किया जा रहा था, जैसे हित करने के विषय में पुत्र प्रतिपालन किया जाता है, जैसे पर्यटन क्रियाओं में मिन्न सेवन किया जाता है, जैसे दोपोत्सव-मादि में गृह मेसन किया जाना है (माया जाता है, जैसे भुषाविधानों से अमावस्या-आदि पों के समय राजमहल सेवा किया जाता है ( सुसज्जित किया जाता है ) और जेसे नरम-शिक्षाओं से शिष्य सेवन किया जाता है-कला-प्रवीण किया जाता है एवं जैसे दूसरी रमण क्रियाओं से प्रेमपात्र सेवन किया जाता है। यशोमति राजा द्वारा भोजनावसरों में अपने करकमलों से रचे हुए प्रथम प्रासों से सन्तुष्ट किया हुआ मैं उस लक्ष्मी के भाग से परिपूर्ण राजमहल में सभ्य-सरीखा प्रोढ़ प्रवेशवाला होकर सुखपूर्वक स्थित हुआ।
हे मारिदत्त महाराज ! एक पार्श्वभाग में निश्चय से 'बिन्ध्याचल' नामके पर्वत में दक्षिण दिशा में स्वर्ग लक्ष्मी के समीपवर्ती 'करहाट' नाम का देश है। जिसमें ऐसे ग्राम-विन्यास ( समूह । हैं। जिनमें धान्यसम्पत्तियों से श्याप्त हुई सीमाभूमियाँ ( खेत ) वर्तमान हैं। जिनमें बहुत सी पथिक-कामिनियों द्वारा मार्ग में वस्तुएं खरीदी गई हैं। जिनकी उत्पत्तियां या उन्नतियां उपवनों, बावड़ियों, प्याऊओं एवं बगीचों से मनोहर हैं एवं जिनमें कमलिनी-वनों से तडाग नचाए गए हैं ।। १२ ।। जिन्होंने लक्ष्मीभोग-महोत्सबों से देव-समूह तिरस्कृत किये हैं | जहाँपर उद्यान-वृत्तियाँ, फैले हुए फलों व पल्लवों से शोभायमान हैं। जहाँपर समस्त ऋतुएँ (हिम व शिशिर-आदि ) कोकिलाओं के मञ्जुल गानों से मन को हरण करनेवाली हैं एवं जहाँपर पथिकलोग समस्त सांसारिक मुखों से सेवा किये गए हैं ॥५३॥ जो संग्राम-भार को सेवन करनेवाले योद्धाओं के अभिप्राय से उत्पन्न हुए युद्ध से उत्कट हैं। जहाँपर नदियों के तट कोड़ा करनेवाले व हषित हुए बैलों द्वारा गिराए गए हैं । जिनकी प्रसिद्धि लक्ष्मियों के दान व उपभोग के माहात्म्य से आश्चर्य कारिणी है। एवं जहाँपर शुद्ध ( संकरतारहित ) वर्णों ( ब्राह्मणादि ) व आश्रमों ( ब्रह्मचारो-आदि ) के आचरणों से ईतियाँ ( अतिवृष्टि वा अनावृष्टि आदि उपद्रव ) नष्ट हुई हैं।। १४ ॥ जिनमें सरल शरणागतों की रक्षा करने में कुलपरम्परा से चली आई कीर्ति पाई जाती है। जहाँपर धर्म, अर्थ व काम इन तीनों पुरुषार्थों के अनुष्ठान में समाननीति रखनेवाले मानव पाये जाते हैं । अर्थात्-जहाँपर लोग धर्म नष्ट करके धनोपार्जन नहीं करते एवं धन को अन्याय पूर्वक नष्ट करके
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अपि च यत्र
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
प्रवणशरणागतोद्धरणकुलकीर्तयः सन्ति धर्मार्थकामेषु समनीतयः । सुकृतफलभूमयो प्रामविनिषेशिकाः, कामितामाप्तिविजितामरोद्देशकाः ॥ १५ ॥
सोपीयांश
भागमः प्रविभ्राध्य
भूयः ।
संख्यागमाविव विवापि रहन्ति कान्ताः कोकाः सरःसु कृतकूजितकण्ठपीठाः ॥ १६ ॥
तत्र भवत इव सकलगोमण्डलाधिपतेनाभिधानवसतेरस्ति खलु गोकुलविशालं श्रीशालं नाम बनधान्यषामाशमनेविष्टं गोष्ठम् । यत्क्वचिद्धि गलमण्डलवा लाकुलितवस्तवर्करकम् क्वचिद्गोपालपोलपम्पमानवृद्ध यु ष्णिकम्, क्वचि नृत्से क्षणक्ष रत्न धेनुदुग्धधाराधान्य मानघरापीठम्, नवचित्कालक्षेपकलशराशिविभाजन प्रीयमाणातिथिपेठम् क्वचित्थनविनियुतनिचिकीनिटिल निकट निक्षिप्यमाणवधिव भंक्षितप्रसवम् क्वचिद्दलितदामवासेरका कमासिशङ्कित शकृत्करिषुरमानापनिवेशपल्लवम् क्वचि तरुणतराभीरोर्णघनदुषणधीरघातधूष्यंमामरणरभस झोस संधुमित रक्ताक्ष कक्षम् क्वचि न्यायनापहरियूचयुद्धबाध्यमानत्रष्ठो हौ पक्षम् क्यचिद्बष्कयगोक्षीर तोक्ष्यमाणगुहगृहाब ग्रहणीगृहदेवताकुलम् क्वचिद्गोमिथुनपरिणयोत्फुल्लपल्लवस्यवासिनीजनोष्यार्यमाणमङ्गलम् क्वचिदभिन्यमन्यामध्य निविनत्य मानभवनमहणम्, क्वचित्मा
1
भोग नहीं भोगते एवं भोग नष्ट करके धर्म व धन का संचय नहीं करते । एवं जो पुण्य के फलों (सुखों ) स्थान हैं तथा जिन्होंने अभिलषित फलों की प्राप्ति से स्वर्गलोक जीते हैं' ।। १५ ।।
जिस करहाट देश में --मज्जुल शब्द करनेवाले कण्ठपीठों से व्याप्त हुए चकवा विपुल आकाश को ऊँचे महलों की शिखरों पर आश्रय करनेवाले सुवर्ण की शोभायमान कान्ति से सर्वत्र व्याप्त हुआ देखकर शब्दायमान कण्ठोंवाली चकवियों को दिन में भी तालाबों पर वैसे छोड़ देते हैं, जैसे संध्या के आगमन काल में छोड़ देते हैं ॥ १६ ॥
हे मारिदत्त महाराज ! उस करहाट देश में 'गोवन' नामके गोविन्द का, जो कि वैसा समस्त गोमण्डल ( गायों के समूह ) का स्वामी है जैसे आप समस्त गोमण्डल ( पृथिवी मण्डल) के स्वामी हैं, गायों के समूह से बहुल. वन एवं धान्यों का स्थान तथा बगीचों के निकटवर्ती 'ओशाल' नामका गोकुल । गोशाला ) है । जो (गोकुल ), किसी स्थान पर बन्धन रहित ( छूटे हुए ) कुत्तों के बच्चों से जहाँ पर बकरियों के बच्चे व्याकुलित किये गये हैं । जो कहोंपर ग्वाल-बालकों की मैथुन क्रिया से जहाँपर वृद्ध मेढे दुःखित किये जारहे हैं। किसी स्थान पर बछड़े के देखने से यनों सेझर रहे गो-दुग्ध को वाराओं पृथ्वीतल प्रक्षालित किया जारहा है । कहीं पर मट्टा के घड़ों की राशि वितरण करने से जहाँपर अतिथि समूह सन्तुष्ट किया जारहा है। कहीं पर वन से लौटी हुई उत्तम गायों के ललाट- परिभागों पर दही, कुश, दूर्वा व अक्षत पुष्प स्थापित किये जा रहे हैं । कहीं पर टूटे हुए बन्नाले ( छूटे हुए ) ऊँट बालकों के पर्यटन से भयभीत हुए बछड़ों के खुरों से जहाँ पर घास चरने की नादों के पत्ते, कुचले या रौंदे जारहे हैं। कहींपर प्रौढ़ यौवनवाले अहारों से घूमाये हुए प्रचुर मुद्गरों के निष्ठुर प्रहारों द्वारा जहाँपर युद्ध-वेग के संचलन से कुछ हुआ भैंसाओं का झुण्ड मूच्छित हो रहा है। कहीं पर विशेष वलिष्ट अथवा उन्मत्त साड़ों के झुण्ड की लड़ाई से जहाँगर वालगर्भिणी गार्यो का झुण्ड भूमि पर लोट-पोट किया जा रहा है। कहीं पर प्रोढ़ बछड़ों वाली गायों के दूध से गृह देहली के गृह देवताओं का समूह पूजा जारहा है । कहीं पर गाय- बेल के विवाह के अवसर पर विकसित पुष्प-पल्लवों से युक्त हुई सुहा२. हेतूपमालंकारः भ्रान्तिमानलंकारस्य ।
१. संकरालंकारः ।
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पञ्चम आश्वासः
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हेवीवोहव्याहाराहयमाम्पयःपानपरपषिकगणम, सचिरसंवानवामिनीपतचपलतरतणकक्षोपवितधारकवीयमानजरतीरक्षाविधानम्, सुरसुरभिनिषानमिवमपराभिरपि गणसिपिभिष्टिभिः सिपिमिः परेष्टुकाभिः सङ्घतिथिभिः समांसमोनाभिः बहुतिधिभिः सुवताभिः संख्यातासाभः पालनारम: विगतबहादसावतोकासधिमासृष्टिभिरुनाभिर्वाभिषेसरवालेयकारेयजातिमिश्च प्रभूलम्, वषिषघृतोवधी नामिव समवायभूतम् । तत्र सस्य विक्रमासरालाय प्रजपालस्य सनि मृगवंशवंशे सा मदीया चन्द्रमतिर्माता अवस्थानरूपातिरेहरतिशयितसकलशालाकलोक: कोलयको बमूब जातयुवभावश्च । योग्यस्वभावः खत्वयं श्वसपिङ्गास्नपराक्रमी निसर्गान्मार्गायुकक्रमवम् विश्वकरवडूनीन्माणी मृगयाविनोवस्येत्यनुयाय सेम बम्पतिना तस्यामेव मालबोमुखेन्दुमणानरजन्यामुज्जयिन्यां यशोमतिमहाराजाय वैवात्सोऽपि प्रामृतमानायि । राजा तं नित्यजागरूकतमबलोषय स्वगतम्
निसास्यः कपिलनयनः स्वल्पतीक्षणापफर्णः इक्षिक्षामः पृथुलजधनः पूर्णवक्षःप्रवेशः ।
पुग्धस्निग्धप्रतनुक्शनः सारमेयो महीपामालेटाय प्रजवसरपाः किषियाभग्नवालः ॥१७॥ मन्ये धानेन शरमासुतेनाकुरङ्गमिव हरिणलाञ्छनम्, भरतालमिव महिषवाहनम्, भष्ट्रायुधमिवाविवराहचरितम्, अहयंशामिव सिंहवाहिनीम्, असस्वसंचाराश्च बनावनोपरपराः। मृगयाममोरपाश्चाच में फलिष्पन्ति कामितकपाः ।' प्रकाशम्-'मविनोबानन्धनमते पशुपते, इत इतः समानीयताममं पक्षपुरुषः ।' पशुपतिः-'यथाज्ञापयति देवः ।' राजा प्राप्तमेनं क्वानं समं हस्ताभ्यां परामृश्य प्रलोभ्य तरियतस्तर्वस्तुभिनिष्ठीय च सदानने 'यत्राहं क्वचिववतिष्ठे तत्रायं परावैरी संयमनीयः' इत्युक्त्वा वान्तामणिमुक्ष्यायाकाण्डमृत्यये समर्मयामास ।
गिनी स्त्री समूह द्वारा जहाँपर मङ्गल-गान गाया जारहा है । कहीं पर दही के मथने से उत्पन्न हुई मथान-ध्वनि से जहाँपर गृह के मयूर विशेष रूप से नचाए जारहे हैं। कहींपर गायों की दोहन-ध्वनि से दूध पीने में तत्पर हुआ पथिक समूह बुलाया जा रहा है । कहींपर बन्धन की खूटी से छूटे हुए चञ्चल बछड़े के रोंदने से होनेवाले बच्चे का रक्षा-विधान वृद्ध स्त्रियों के लिए सौंपा जा रहा है।
इसीप्रकार जो ( गोकुल-गोशाला ) दूसरों भी बहुत सी एकबार ब्याई हुई गायों से प्रचुर हुआ कामचेतुओं के स्थान-सरीखा सुशोभित हो रहा था। फिर कौन २ सों गायों से वह प्रचुर था? जो बहुत सी प्रचुरप्रसूतिवाली ( अनेकबार ब्याई हुई। गायों से एवं बहुत सी समांसमोदा' ( प्रतिवर्ष प्रसन्न करनेवाली ) गायों में प्रचुर था | जो बहुत मी सुखपूर्वक दुही जानेवाली गायों से व बहुत सी अल्प दिनों के गर्भवाली गायों से प्रचुर था। जो ऐसी दूषित गायों से रहित था। जिनमें गिरे हुए गर्भवाली, बन्ध्या, सोंगों से रहित । मुण्डो ) व भिणी होकर बैल द्वारा मेथुन की गई, दूषित माएँ हैं, इसीप्रकार जो घोड़े, खच्चरगधे, गधे, और मेंढ़ों की जालियों से प्रचुर था एवं जो दधिसागर, क्षीरसागर व घृतसागरों का समुच्चय-सरीखा शोभायमान था ।
उक्त गोकुल में उस पूर्वोक्त विशेष पराक्रमी गोधन नाम के गोकुल पति के गृह पर कुत्तों के कुल में वह मेरी चन्द्रमति माता कुत्ता हुई। जो कि वेग, बल व रूप की अधिकता से समस्त गोकुल संबंधी कुत्तों के मध्य अतिशयवान् व युवावस्था प्राप्त करनेवाला हुआ। "सिह-सरीखा पराक्रमी यह कुत्ता. जिसके चारों पैर स्वभावतः शिकार करने में कुशल हैं, निश्चय से राजाओं को शिकार क्रीड़ा में योग्य स्वभाव वाला है ऐसा चिन्तवन करके उस गोषन नामके गोकुल-स्वामी द्वारा उसी उज्जयिनी नगरो में, जो कि मालवा देश को
१. 'समासमीना तु या मा प्रतिवर्ष प्रजायते' इत्यभिधान चिन्तामणिः ।
सं. टी. पु. १८६ से वंकलित-सम्पादक
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यशस्सिलाई एवं स्वाचरितोचितप्रयोगादिपिनियोगायोरप्याषयोस्तत्र पूर्वभवानुभूतभूमिप्पासे नपनियासे सह संवसतोरेकदा निशान्तनिवासाशयानामन्तःपुरपुरप्रिकालंकारचिकृतकायानां शाम्भलोनाममृतमतिमहादेवीपशनापाशु प्रकाशितगतिफलौना गमनाभिनिवेशबारसप्रसनामुक्तमणिकङ्किणीजालकलकोलाहलेन सजलजलपरध्वनिनेव नपुरनावेन बिनोधमानमानसः सुभपवर्षाभिषस्य सौषस्याधिरोहणावना सप्तमं तलमध्यारूडोऽस्मि ।
तत्र च क्षणमात्रमिव स्थिरवा प्रतिनिवृत्तासु तासु प्रतीपदशिनीष्वहं भूतभवानुभूतभवनभूमिसंभावनाविभूतान्त:करणतया मनाविलम्बमानस्ताममृतमतिमहादेवीं तेन कुन्जेन सह विहितमोहनामवलोक्य प्रवृद्धानषिकोविषयी लोचनः कोपादोपत्रुटस्त्रोटिशरकोल्काजालवर्ष विष्यवस्तुण्डतण्डनः, निमिडावेशवशषिशीयमाणबर्हषिहिलाकालकेतूद्गतिभिः पक्षप्रतिभिः, कोकसावसामविश्रान्तनावमुक्षमार्गोद्गलबुषिरधाराकाण्डताण्डवितसंप्यारागसंततिभिः कातिभिश्च तयोराधरितसुरतमुखान्तरायः, संवापिरिवाश्यानमविषारीरिकया कथाचित्परिवारवारिकया सुप्रतिष्ठेन कपानिदेवलतया कयाचित्तालयन्तेन कयाचित्रकोणपिजरूया कयाचिगुलीगालेन कयाचिक्नुपानया, तथापराभिरपि समुत्साहितसोविचल्लसकवारोराभिरवरोवषिलासिनीभिश्व तेन तेनोपकरणकलापेनातिनिर्दयहचर्य प्राणप्रयाणपन्तजरितकाया, स्त्रियों के मुखरूपी चन्द्रों को कान्तियुक्त करने में पूर्णिमा की रात्रि है, भाग्य से यशोमति महाराज के लिए भेंट कर दिया गया।
__ यशोमति महाराज ने उस कुत्ते को देखकर अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया-'ऐसा कुत्ता राजाओं की शिकार के लिए होता है। जो दुबैल मुख वाला व पीत-रत नेत्रोंवाला है। जिसके दोनों कान, कुछ तोक्षण प्रान्त भागवाले हैं। जो दुर्बल उबर बाला, विस्तीर्ण कमर के अग्रभाग से युक्त एवं स्थूल हृदयशाली है, जिसके सूक्ष्म दौत दूध जैसे सचिक्कण हैं। जो वेगशाली ( तेज) पैरों से युक्त होता हुआ कुछ टेढ़ी पूंछवाला है ॥ १८ ॥
मैं इस कुत्ते के कारण चन्द्र को मृग-रहित-सा मानता हूँ । अर्थात्-मानों-यह कुना चन्द्र के मृगको मार डालेगा । मानों-इससे महिष-वाहन वाले यम को महिष-रहित सरीखा मानता हूँ। अर्थात् यह यमवाहन महिष ( भैंसा) को भी नष्ट कर देगा। इसके कारण आदिवराह-चरित को वराह-शून्य-सा मानता है। इससे सिंह-वाहन-शालिनी पार्वती को सिंह-रहित मानता हूँ। अर्थात्-यह भवानी-वाहन सिंह का भी वध कर देगा। इससे अटवी, पर्वत व पृथिवी को प्राणियों ( मृग, व्यान व वराह-आदि ) के प्रवेश से रहित हुई मानता हूं। अर्थात्-यह, अटवी, पर्वत, व पृथिवी के ( मग-आदि ) को मार डालेगा। आज मेरे शिकार के मनोरथ अभिलाषित कथा वाले होकर. फलेंगे ( पूर्ण होंगे। इसके बाद पशोमति महाराज ने निम्नप्रकार स्पष्ट कहा-'मेरी क्रीड़ा को वृद्धिंगत करनेवाली बुद्धि से अलंकृत हे पशुपति ( कुत्तों के रक्षक ) इस कुत्ते को इस स्थान से इस स्थान पर लाओ। पशुपति-स्वामी की जैसी आज्ञा है उसके अनुसार करता हूँ। फिरयशोमति महाराज ने प्राप्त हुए इस कुत्ते को साथ-साथ दोनों करकमलों से छुआ और उसको प्रिय लगनेवाली वस्तुओं। दूध-जलंदी-आदि ) का प्रलोभन देकर उसके मुख का चुम्बन किया । 'हं अकाण्ड मृत्यु ! 'जहाँ कहींपर में ठहरू वहाँपर तुम्हें इस कुत्ते को बांधना चाहिए' ऐसा कहकर प्रस्तुत राजा ने उसे कुत्तों के प्रतिपालकों में मुख्य 'मकाण्ड मृत्यु के लिए दे दिया । इसप्रकार स्वयं उपार्जन किये हुए कम से वृद्धिंगत व्यापार वाले कर्म की अधीनता से जब हम दोनों भी ( मोर व कुत्ते का जीव, जो कि पूर्व भव में क्रमश: यशोधर व चन्द्रमती चा ) पूर्वभव ( यशोधर व चन्द्रमति की पूर्व पर्याय ) में भीगे हुए विस्तृत भूमिवाले त्रिभुवन तिलक नाम १. रूपकजातिसमुच्चयालंकारः।
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पञ्चम आश्वासः
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केकिनमेनमापाविप्तामृतमतिमहादेवोनोहं घरत बनीताहत मारयतेति परिदेवनमुखरमुखीभिः सोपानमार्गेण निलोठितः, शुनीमनुना व तेम ममापातामपूरमारणे प्रेरणोपक्रम इति मन्यमानेनापवान्तरेऽवसन्नशरीरतया समागतः समबतिवशां शामहमानिन्ये ।
क्षितिपसिना च सेन समीपसंपादिततेन मुच्च मुञ्चेमं चित्रपिङ्गलमातीवरवरगलं पिरता सारफेलिमपहाषाफाण शीर्षनेयो वृद्धवत प्रहारकलः सोऽपि भण्डिलस्तामेव विकसकरात्मजायल्यामवस्थामनु ससार ।
राजा गलनिर्गतप्राणयोरावयोरकामकृतामुपसंपन्नतामवेत्य शोकातसंकुलकायः
प्रासादमण्डनमणी रमणौविनोवे फोडावनीधरशिलातलचित्रलेखे ।
को नाम केलिफरतालविधि बधूनां नृत्तानुगं त्वयि करिष्यति कीतिशय ॥१८॥ के राजमहल में साथ-साथ निवास कर रहे थे तब एक समय में (यशोधर का जीव जो मोर हुआ हूँ) ऐसी अन्तःपुर में निवास करनेवालो दासियों के नूपुरों की मञ्जुल ध्वनि से, जिसमें गमनाभिनाय की अधीनता से शब्द करते हुए कमर को करधोनी में बंधे हुए मणिकङ्किणी-समूह की मधुर ध्वनि पाई जाती है एवं जिसकी ध्वनि जलसे भरे हुए मेघों की ध्वनि-सरीखी है, आनन्दित किये जा रहे मनवाला होकर सुभगकन्दर्प' नामक राजमहल को मोड़ियों से सातवें तल्ले पर चढ़ गया । वे दासियां ? जिनका शरीर अन्तःपुर की कुटुम्बिनी स्त्रियों के अलंकारों से विकृत होरहा है एवं जिन्होंने अमृतयति महादेवी से मिलने के लिए अपनी गमनक्रीड़ा शीन प्रकट को है।
फिर-भूतकाल संघमा कोचर मान्दर में ए ना हार की भूमि के स्मरण से प्रकट हुई चित्तवृत्ति के कारण मैं { यशोधर का जीव मोर ) उस 'सुभग कन्दर्ग' नामक महल के मांतवें तल्ले पर कुछ विलम्ब करता हुआ उस महल में अल्पकाल पर्यन्त स्थित हुबा और जब वे ( अमृतमति महादेवी के दर्शनार्थ आई' व स्त्रियों )वापिस चली गई तब उस अमृतमति महादेवी को उस कुबड़े के साथ मैथुन मोहा करनेवाली देखकर मेरे बुद्धिरूपी नेत्र बढ़े हुए अमयांदीभूत क्रोध से विकल ( अन्ध ) हुए। फिर मैंने निम्न प्रकार उपायों से उस कुबड़े व अमृतमसि महादेवी के संभोग-सुख में विघ्न उपस्थित किया। ऐसी चांचों के प्रहारों से, जिनमें विस्तृत क्रोध से टूटती हुई चोंच के टुकड़ेरूपी उल्काजाल ( बिजली-समूह ) को वृष्टि से टुकड़े पाये जाते हैं और धाएं व दाहिने पंखों के प्रहारों से, जिन्होंने गाढ़ क्रोध से मष्ट होते हुए पिच्छों द्वारा अकस्मात् केतुग्रह का उदय उत्पन्न किया है, एवं दिर के गले के प्रहारों से, जिन्होंने हड्डियों के अखीर में लगे हुए नख व मुख के मार्गों से ऊपर उछलती हुई रुधिर को छटाओं से असमय में संध्याकालोन लालिमा को श्रेणियाँ विस्तारित की हैं। फिर ऐसा करने से मुझे किसी कुटुम्बदासी ने जिसका शरीर, युद्धरूपी ब्रह्मा को मानसिक एकाग्रता के समीप है, ताम्बूलादि के पात्र के संपुटक से अत्यन्त निर्दयपन पूर्वक प्राण निकलने पर्यन्त जरित वरोरवाला किया। किसी कुटुम्बदासी ने वेतलता से, किसी दूसरी कुटुम्ब दासो ने पंखे से किसी दासी ने विस्तृत लाठी से तथा किसी ने सुपारो-वगैरह फल-समूह को एवं किसी ने जूते से मुझे जरित शरीरवाला किया 1 इसीतरह दुसरी अन्तःपुर की स्त्रियों ने भी, जिन्होंने करचुकी-समूह के शरीर अच्छी तरह उत्साहित किये हैं, एवं 'अमृतमति महादेवी के साथ द्रोह करनेवाले इस मयूर को तुम लोग पकड़ा, चाँधी, नावित करो व जान से मारो' इसप्रकार रोने व विलाप करने में जिनके मुख वाचाल हैं, उन प्रसिद्ध उपकरण-समूह ( कपूर का पिटारा व हँसिया आदि साधन ) से मुझे अत्यन्त निदंय हृदय पूर्वक प्राण निकलने पर्यन्त जर्जरित शरीरखाला किया। उक स्त्रियों से सीढ़ियों के मार्ग से भेजे हुए मुझे ( मोर को 7, जो कि आखिरी शरीर के
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सिंहः सुखं निवसतापचलोपकण्ट्रे सोत्कष्ठमेणनिश्चयाचरतरत् स्थलोषु ।
सत्याः परेपि विपिने विलसन्वशङ्क नाकं गतोऽयमधुना मनु विश्वकटुः ॥१९॥ इति संशोध्य 'हहो स्वपरजनपरीक्षणमायाकार मायाकार, कार्यन्तामनयो देवसंदोहसाक्षिणीः पितृप्तोकसाहाचारिणोः पायकप्रदानवहायिकाबाहायपुरःसरसमयाः क्रियाः । प्रवाप्पन्सामनयोम्मिा बननीजनकयोरिव सर्वत्र सत्त्रसभामण्डमा. धिपाः प्रपाः' इत्यन्वतिष्ठत् । समस्तप्तस्वसवयहस्य, शुभषामोदय, पुनरस्सि बल खेचरीसंगौतकमुखरचूलिकाचक्रवालासुबेलशलापरविग्वेवताविनोबायतनं शिखण्डिताण्डवमण्डनं नाम धनम् । यबेयं देहिनो वर्णविषयतां नयन्ति।
सपाहि-तुर्जनहृदयमिय दुष्प्रवेशम्, प्रलयकालमिव भयानकम, निगद्यागममिय गहनावसानम्. युद्धापकमियाकारण कुत्ते के समीप आया था, उस कुत्ते ने ( जो कि पूर्वभव में चन्द्रमति का जीव था), जो इस प्रकार मान रहा था कि इस मोर के घात करने में मेरा यह प्रेरणा का उपक्रम ( जानकर मारम्भ करना ) है.यमराज की अधीन अवस्था में ला दिया (मार डाला। फिर वह कुत्ता भी निकटतर जुआ खेलनेवाले व 'इस मोर को छोड़ो-छोड़ो' इस प्रकार से विशेषरूप से वेग-वाले गले के शब्द पूर्वक चिल्लाते हुए राजा द्वारा शतरंज-क्रीड़ा छोड़कर फलक से जिसको मस्तक पर प्रहार की निष्ठुर अवस्था दो गयी है, मरणावस्था को प्राप्त करता हुआ । अथानन्तर यशोमति महाराज ने गले से निकले हुए प्राणवाले इन दोनों मोर व कुत्ते को बिना इच्छा से उत्पन्न हुई मृत्यु जान कर शोकरूपी रोग से व्याप्त हुए शरीरवाला होकर निम्न प्रकार शोक प्रकट किया-हे मयूर ! जब तुम, जो कि राजमहल को अलंकृत करने में शिरज सरीखे हो च रमाणयों का मानारजन करनेवाले हो एवं जिससे क्रीड़ा भूमि पर स्थित पर्वत की शिलातल पर चित्ररचना होती है, मर चुके तब स्त्रियों की क्रीडा से उत्पन्न हुए हस्तताड़न-विधान को, जो कि नृत्य का अनुसरण करनेवाला है, कौन करेगा ? ॥ १८ ॥ यह शिकारी कुत्ता निस्सन्देह स्वर्ग चला गया, अतः अब सिंह पर्वत के समीप सुखपूर्वक निवास करे एवं मृग-समूह उत्कण्ठापूर्वक वनस्थलियों में यथेष्ट विहार करे तथा दूसरे प्राणो भी वन में निःशङ्कतापूर्वक विशेषरूप से क्रोड़ा करें। ॥ १५ ॥ फिर यशोमति महाराज ने इस प्रकार किया अपने व दुसरे लोगों की परीक्षा करने में श्रीनारायण-सरीखे परीक्षक हे द्वारपाल ! इस मयूर व कुत्ते के निमित्त से तुम्हारे द्वारा ऐसी क्रियाएं कराई जावें, जो कि ब्राह्मण समूह के प्रत्यक्ष विषयीभूत हों एवं पितृलोक-सरीखों (मशोध व यशोधर-आदि पूर्वजों-जैसो ) हैं। तया अग्निसंस्कार, वैहायिक व मृत की मासिक क्रिया और पाण्मासिक आदि काल जिनमें वर्तमान है। इसीप्रकार चन्द्रमति व यशोधर महाराज सरोखे इनके उद्देश्य से सर्वत्र विशेषरूप से ऐसो प्याऊँ दान कराई जावें, जिनमें भोजनशाला, गोष्ठीशाला व छत्रादि स्थान, इनके अधिकारी वर्तमान हों।
समस्त प्राणियों में करुणा से व्याप्त मनवाले व पुण्यरूपी तेज के उत्पत्तिस्थान ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! इसके पश्चात्-मोर-पर्याय व कुत्ते की पर्याय के अनन्तर-दूसरा भव वर्णन किया जाता है। विद्यारियों के संगीत से शब्दायमान शिखर-मण्डलवाले सुवेल पर्वत से पश्चिम दिशारूपी देवता का क्रोडा-मन्दिर विखण्डिताण्डवमण्डन' नाम का धन है। विद्वान् लोग जिसका निम्न प्रकार वर्णन करते हैं जो दुष्ट-हृदयसरीखा दुष्प्रवेश ( दुःख से भी प्रवेश करने के लिए अशक्य ) है। जो प्रलयकाल-जैसा भयानक है । जो गणितशास्त्र-सा अवसान ( अखीर ) में गहन (प्रवेश करने के लिए अशक्य व पक्षान्तर में क्लिष्टता से जानने. योग्य ) है। जो आत्मज्ञान-सरीखा अलब्धमध्य संचार है ( जिसके मध्यभाग में पर्यटन प्राप्त करने के लिए अशका १, रूपकाक्षेपालंकारः।
२. हेत्वलंकारः।
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चतुर्थं भाश्वासः
लक्ष्मध्यसंचारम्, राजकुलभित्र शुद्रलोकाधिष्ठितम् वामेक्षणाचरितमिव स्वभावविषमम् निःस्वामिकमिवामर्यादन्यवस्सू छत्रभङ्गमिव बहुकण्टकपद्रवम्, खलोपदेशमिव दुरन्तम् नृपतिचित्तमिव दुःखीपसेष्यम्. समराङ्गणमिव सलगसंघट्टम्, बेतालकुलभित्र महावेहभोषणम्, फलिङ्गवनमिव वन्तिदुर्गमम्, स्वर्धुनीप्रचामिव कृताष्टापदावतारम् नाटेर मिश्र चित्रकम् वर्षारात्रिमिव घनमेघरावम्, रघुवंश मित्र मागधीप्रभषम्, चन्द्रमिषामृताम्पदम् गिरिसुतारितमिव विजयाविस्तृतम् जलनिधिमिव जम्बुकायुवितम् रथचरणपाणिमिव सुदर्शनाधारम्, युधिष्ठिरमिव मत्वार्जु ननकुल सहदेवागम्, सुभटानीकमिवाभीरुप्रतिष्ठितम् हितम्, समर्थ स्थान
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है व पक्षान्तर में जिसके मध्यभाग का ज्ञान अशक्य ) है । जो वैसा क्षुद्रलोकों (व्याघ्रादि दुष्ट जीवों) से व्याप्त है जैसे राजकुल क्षुद्रलोकों ( असहिष्णु लोगों ) से व्याप्त होता है । जो स्त्रियों के चरित्र - सरीखा स्वभाव से विषम (बड़-खाबड़ व पक्षान्तर में कुटिल ) है । जो वैसा अमर्याद व्यवस्थित वेमर्याद स्थितिवाला ) है जैसे राजा-रहित नगरादि अमर्याद व्यवस्थित ( सदाचार नियम से विचलित ) होता है। जो वैसा वहु कण्टको पटन ( सूक्ष्म तीक्ष्ण काँटों के उपद्रव वाला ) है जैसे छत्रभङ्ग ( राज्य-नाश अथवा राजसिंहासन से राजा का च्युत होना) वहुकण्टकोपद्रव ( दुष्ट शत्रुओं के उपद्रवों से व्याप्त ) होता है। जो दुष्ट शास्त्र- सरीखा दुरन्त { अन्त-रहित व पक्षान्तर में दुष्ट स्वभाव वाला ) है । जो वैसा दुःखोपसेव्य ( दुःख से आश्रय के योग्य ) है जैसे राजा का चित्त दुःखोप सेव्य ( आराधना करने को अशक्य ) होता है। जो बेसा सखङ्ग-संघट्ट ( गण्डकोंगेडों के युद्ध से व्याप्त ) है जैसे संग्राम-भूमि सखङ्ग-संघट्ट- खड़ों ( तलवारों) की टक्करों से सहित होती है। जो वैसा महादेह-भोषण ( विस्तृत होने के कारण भयानक ) है जैसे बेतालों ( व्यत्स॒रादिदेवों ) का समूह महादेह भीषण ( महान् शरीर के कारण भयानक ) होता है । जो कलिङ्ग देश के वन सरीखा दन्तियों (पर्वतों ) व पक्षान्तर में हाथियों से दुर्गम है ।
जो कि गङ्गा के प्रवाह सरीखा कृत-अष्टापद अवतार ( शरभ जीवों से किये हुए प्रवेशबाला व पक्षान्तर में कैलाश पर्वत से अवतरण करने वाला ) है । जो नट सरीखा सचित्रक ( चित्रको व्याघ्र विशेषों से व्याप्त व पक्षान्तर में आश्चर्यजनक ) है । जो वर्षाकाल-सा घन- मेघराव ( बहुत सी मोरों से व्याप्त व पक्षान्तर में प्रचुर मेघों की गर्जना वाला ) है । जो वैसा मागधी प्रभव ( पीपलों की उत्पत्तिवाला ) है जैसे रघुवंदा मागवीप्रभव ( सुदक्षिणा नाम की दिलोप राजा की पत्नी के वर्णनवाला ) होता है । जो चन्द्र-सरीखा अमृता-आस्पद ( गुडूची का स्थान व पक्षान्तर में अमृत का स्थान ) है । जो वैसा विजया- विस्तृत ( हरीतकयों-हरड़ों से विस्तृत ) है जैसे पार्वती का चरित्र विजया ( विजया नाम की अपनी सखी) से विस्तृत होता है। जो वेसा जम्बुक-अध्युषित ( शृगालों से सेवन किया हुआ) हैं जैसे समुद्र जम्बुक-अध्युषित ( वरुण दिवपाल से सेवन किया हुआ ) होता है । जो बेसा सुदर्शन-आधार ( सुदर्शन नाम की औषधि विशेषों का स्थान ) है जैसे श्रीनारायण सुदर्शन-आधार ( सुदर्शन नाम के चक्र से अधिष्ठित ) होते हैं। जो वैसा मरुद्ध व अर्जुन-नकुल, सहदेवा अनुग ( वायु की उत्पत्ति, मोर या वृत्तविशेष, नेवला, बला ( खरहंटो ) से व्याप्त है जैसे युधिष्ठिर महाराज जिसके अनुगामी भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव नामके पाण्डुपुत्र हैं ऐसे हैं । जो ( सुभटों की सैन्यसरीखा ) अभीरु ( शतावरी सहित व पक्षान्तर में अकातर - वीर पुरुषों से सहित ) है । जो क्षीरसागर के मन्यन-सा लक्ष्मी-सनाथ ( ऋद्धि व वृद्धि नाम की औषधियों से सहित व पक्षान्तर में लक्ष्मी सहित ) है | जो वैसा जातवृहतीक द्रवार्ताकी ( रान कटेहली की उत्पत्तिवाला ) है जैसें छन्दशास्त्र जातवृहतीक ( दो अक्षरवाली छन्दजाति से व्याप्त ) होता है। जो वैसा तपस्विनी-प्रचुर ( जटामांसी व शुभ्रकमलों से प्रचुर ) है जैसे माश्रमस्थान तपस्विनियों-संन्यासिनियों से प्रचुर होता है। जो श्रीमहादेव की जटा अन्य सरीखा चन्द्रलेखा
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मिव तपस्विनीप्रचुरम्, पूर्णटिजटाजूटमिव चन्द्रलेखाप्यासितम्, मुगप्रयावसानमिव कलिपरिगहीत, विवसमिय साकमण्डसम, अनम्बरिषमप्परिमेवार फारम्, अमाहेरघरमपि जातशिवप्रियम्, अवेबवचनमपि गायत्रीसारम्, अकविलोकगणनमपि सकालिकासम्, अप्रथमाधममपि ब्रह्मारिबहुलम्, अस्थानापसमयमपि सवाईमावम, अध्यासित ( वाकुचियों से आश्रित ) व पक्षान्तर में चन्द्रकला से सहित ) है । जो वैसा कलिपरिगृहीत ( विभौतक तरु-चहेड़े के वृक्ष से सहित ) है जैसे कृतयुग, त्रेता व द्वापर इन तीन युगों का पर्यन्त भाग कलिपरिगृहीत ( दुःखमकाल-सहित ) होता है। जो वैसा सार्कमण्डल ( अकोआ वृक्षों के वन से व्याप्त ) है जैसे दिन सा(मण्डल (श्रीसुर्यमण्डल-सहित ) होता है।
जो अनम्बरिष ( युद्ध-रहित । होकर के भो अरि-मेद-स्फार ( शत्रुओं की मेदधातु से प्रचुर ) है । यहाँपर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो युद्ध-रहित होगा, वह यात्रुओं की मेदधातु से प्रचुर कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जो अनम्बरिष (नुपरहित ) है और निश्चम से अरिमेद (विट खदिर वृक्षों ) से प्रचुर है। जो अमाहेश्वर ( रुद्र-रहित ) होकर के भी जातशिवप्रिय ( उत्पन्न हुई पार्वती प्रिया वाला है। यह भी विण्ड है, क्योंकि जो मद्र-रहित होगा, वह पार्वती प्रिया-शाली कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जो अमा-हि-ईश्वर ( निश्चय से लक्ष्मी व स्वामी से रहित ) है और निश्चय में जातशिप्रिय ( उत्पन्न हा तविशेष से व्याप्त ) है । अथवा-जो अमाहेश्वर ( महेश्वर देवता की आराधना न करनेवाला) होकर के भी जात शिवप्रिय (शिवजी से प्यार करनेवाला) है। यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो महेश्वर (शिव) देवता का माराधक नहीं है वह शिव से प्यार करनेवाला कैसे हो सकता है ? अब परिहार करते हैं जो, अ +मा + हि ईश्वर अर्थात्-प्रायः करके वन स्वामी-हीन होता है. अतः जिसमें लक्ष्मी व स्वामी नहीं है और निश्चय से जो, जात शिव प्रिय ( धतूरों की उत्पत्ति वाला है। जो अवेदवचन ( वेद-वचन से रहित होकर के भी गायत्रीसार (साठ छन्द-जातियों से सार) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो वेदवचन नहीं हैं, वह साठ प्रकार की छन्दजातियों से सार कैसे हो सकता है ? उसका परिहार यह है कि जिसमें अवेदों ( स्त्रीवेद, पुवेद व नपुंसक वेद-रहित मुनियों) के वचन पाये जाते हैं, क्योंकि मुनिलोग वनवासी होते हैं। एवं निश्चय से जो गायत्रीसार ( खदिर वृक्षों से मनोहर ) है।
जो अकदिलोकगणन ( कवि-समूह की गणना से रहित ) होकर के भी सकालिदास ( कालिदासकविसहित है। यह भी विरुद्ध है; क्योंकि जो कविलोक की गणन से रहित होगा, वह कालिदास महाकवि-से सहित नौसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अक-विलोक-गणन है । जिसमें काट के देखने को गणना है ) और जो निश्चय से सकालिदास ( आम्रतर-सहित ) हैं । जो अप्रथमाश्रम ( ब्रह्मचर्याश्रम से रहित ) होकर के भी ब्रह्मचारी बहुल है। यह भी थिरुद्ध है, क्योंकि जो ब्रह्मचर्याश्रम-रहित होगा, वह ब्रह्मचारियों से बगुल कैसे हो सकता है? इसका परिहार यह है कि जो अप्रथमान-आ-श्रम है, अर्थात्-जिसमें चारों ओर से कष्ट विस्तृत नहीं होरहा है और जो निश्चय से ब्रह्मचारी-बहुल है ( पलापा वृक्षों से प्रचुर है ) । जो अस्याद्वाद समय (एकान्त समय ) हो करके भी सवर्धमान ( महावीर तीर्थङ्कर-सहित ) है। यहाँ पर भी विरोध प्रतोत होता है, क्योंकि जो एकान्तदर्शन होगा वह चरमतीर्थकर सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अस्याद्वादसमय ( शून्य वन होने के कारण जो शब्दामसर-रहित ) है और निश्चय से जो सवर्धमान ( एरण्डवृक्ष सहित ) है। १. श्लिष्टमालोपमासंफारः । २. उक्तं प-शिवमतली पाशुपत एकाष्ठीको नुको वसुः ।' से दी०ए० १९५ से संकलित-सम्पादक
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पञ्चम आश्वास:
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faraमपि सवामनम् अराकाननमपि ससोमम्, अराक्षसक्षेत्रमपि सपूतनम् अमहानवमी विनयपि समानयनम् असलमपि सनिःश्रेणीकम् वराजसममपि सलेखपत्त्रम्, अभ्यम्बकमपि सत्रिनेत्रम्, असंभलीपाटकमपि तवम्बरतनीकम् असमतीकरसिकमपि सकवचम् अक्षयकालविनमपि नष्टविविना बिपेन्शनम् ।
जो अदिग्गजकुल ( दिग्गजेन्द्रों के समूह से रहित ) हो करके भी सवामन ( यम- दिग्गज सहित ) है | यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो दिग्गजेन्द्रों के समूह से रहित होगा वह यमदिग्गज सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अ-दिग्गजकुल ( जिसमें शब्द- समूह विद्यमान नहीं है। ऐसा है । और निश्चय से जो सवामन (खाये हुए को वमन करानेवाले मदनवृक्ष से सहित ) है | जो अराकानन (पूर्णिमा का आनन न ) होकर के भो ससोम ( चन्द्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो पूर्णिमा का आनन नहीं हैं, वह चन्द्र-सहिल कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अ-राकानना । देखो हुई रजःस्वला कन्या से रहित ) है और जो निश्चय से समोम ( हरीतकी वृक्ष सहित ) है । जो अराक्षस क्षेत्र राक्षस-भूमि न ) हो करके भी सपूतन ( पूतना नाम की राक्षसी सहित) है। नहीं विरोध है, यो राक्षसों की भूमि नहीं है वह पूतना राक्षसी सहित कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो अर- अक्षस क्षेत्र है। अर्थात् — जो पहिए की नाभि व नेमि के बीच की लकड़ी एवं धुरी का स्थान नहीं है और निश्चय से सपूतन ( हरीतकी - वृधा सहित ) है । जो अमहानवमी दिन ( महानवमी दिन न हो करके भी समातृनन्दन ( देवियों को आनन्ददायक ) है | यह भी विरुद्ध है। क्योंकि जो महानवमी का दिन नहीं है वह चामुण्डा आदि माताओं को आनन्ददायक कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अमहा नवमी दिन ( रोग व हाहाकार शब्द से व्याप्त अष्टांगों का नवमी रांग ) है और निश्चय से जो समातृनन्दन ( फरञ्ज-वृक्ष सहित ) है जो असोबत ( राजमहल का उपरि भाग न ) हो करके भी सनिःश्रेणीक ( सीढ़ियों से सहित । है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो राजसदन का उपरिभाग नहीं है, वह सीढ़ियों सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो असौधन्तल ( निर्जल प्रदेश ) है और निश्चय से जो सनिःश्रेणीक ( खजूर वृक्षों से सहित । है । जो अराजसदन ( राजमहल न ) हो करके भी लेखपत्र ( दूतों के लेखपत्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो राजमहल नहीं है, वह दूतादिकों के लेख पत्र से सहित कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अराजसदन ( राजाओं के समीचीन जीवन से रहित ) है और जो निश्चय से सलेखपत्र ( ताड़वृक्षों से सहित ) है । जो अत्र्यम्बक ( रुद्र-रहित । हो करके भी सत्रिनेत्र ( त्रिलोचन - मुद्र सहित ) है । यह भी विरुद्ध हैं, क्योंकि जो राद्र-रहित होगा यह तीन नेत्रों वाला रुद्र कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो अध्यम्बक ( अत्रि ऋषि वगैरह का गमनशील स्थान ) नहीं है और निश्चय से जो सत्रिनेत्र ( नारियल के वृक्षों से व्याप्त) हैं । जो व्यसंभलीपाटक (कुट्टित्नियों का समूह न) होकर के भी सलम्बस्तनीक (वृद्ध स्त्रियों से सहित ) है | यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो कुट्टिनियों का समूह नहीं है, वह वृद्ध स्त्रियों से सहित कैसे हो सकता है ? उसका समाघान यह है कि जो असंभलीपाटक ( समीचीन पटलों या तख्तों का चीरने वाला) नहीं है और निश्चय से सलम्बस्तनीक ( चिञ्चा वृक्ष सहित ) है । जो असमनोकरसिक ( संग्राम में अनुरक्त न ) होकर के भी सकवच ( बख्तर सहित ) है । यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो संग्राम में अनुरक्त नहीं है, वह बख्तर- धारक कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो असमानीका रसिक ( वक्र ( टेढ़ीं ) क्षुद्र नदियों के जल वाला ) है और निश्चय से जो सकवच ( पर्यटक वृक्ष सहित ) है । जो अभयकालदिन ( प्रलय काल का दिन न ) होकर के भी नष्टदिग्दिनाधिपेन्दुदर्शन ( जिसम में दिशा, सूर्य व चन्द्र का दर्शन नहीं देखा गया है ) ऐसा है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि जो प्रलय काल का दिन नहीं हैं, वह दिशा, सूर्य व चन्द्रादि के न दिखाई
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गतिलाये अपि च । स्वविवक्ततुण्डकुटुमिनीलपनचापलच्युतोच्चिलिङ्गावपश्चनसंरबघण्यावयुद्ध मध्यागत सहरीप्रणीतफरकारकोलाहलफुत्कोलाजकुहरम्, कपिपलम्बाप्रलमस्तबपिलम्बमानजानकोत्नासितहरिणप्रयाणभरमौतभस्सूकनिकरम, क्वचिदनेकनाकुनिर्गतनिर्मोकालोकनकुपितकलापिनीपोतखरनखरमुखावलिश्पमानमे विनीववनम्, स्वचिवनवरतमृगमार्गमार्गणश्रमथान्तविलातल्लिकोश्वुलुश्चितधुरीपारिवीक्षणातुरतरक्षुषालयनानिम्नगायुलिनम्, पचिड़ामरिकनिकायसायकविद्धवृद्धवराहविरसविरसितस्रावस्कुरङ्गमनमागर्भनिभरम, पवचिदुन्मवमहिषमण्डलारस्थरणविषाणसंघट्टोच्चलत्स्फुलिङ्गसङ्गशीर्यमाणागमानपल्लवभरम्, पधिद्विपप्तपरनपावपाटितेभकुम्भस्थलोत्प्रवाहवहल्लोहितविधीयमानधियग्छवारुणमणिवण्डम्वरम्, स्वविविम्यिान विहारवानरनिकरविकीर्यमाणनीडक्रोमोडोनापजजच्छवच्छन्नाम्बरम, पवधिभ्रकयानोकहप्रकाण्डमण्डलीकोटरेड्डमरडाकिनोकरालितोत्सर्गम्, पाविघन घनघोरपूत्कारधूयाणपुराणविपिकोटरप्रयतवायसीवर्गम, पविघलवालालोन्मूलितमलाकुलकलभप्रचारम्, पविधियोश्वनिकुञ्जमुजरभज्यमामकुजराजिकूजितजरमञ्चममनकारम्, क्वचिचित्रककुलाघ्रातपृषतपरसण्डधमानकालीप्रबालान्तरङ्गम, क्वचिवनन्यसामान्योन्यानु तद्रवरकुदेने वाले दर्शनवाला कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो अक्षयकालदिन । जिसमें जरा भी कहीं पर क्षय करनेवाले सिंह, ज्याघ्रादिकों का अवसर नहीं है और निश्चय से नष्टदिग्दिनाधिपेन्दुदर्शन) सघन होने के कारण जिसमें पूर्वादि दिशाएं नहीं जानो जाती एवं चन्द्र-सूर्यादि भी दिखाई नहीं देते, ऐसा है।'
तथा च---किसी स्थान पर जिस पर्वत को लताओं से आच्छादित प्रदेश वाली गुफा का मध्यभाग ऐसी व्याघ-कामिनियों से किये हुए फूत्कार से अव्यक्त वाचालित है, जो कि तोतों की प्राणवल्लभाओं ( मैनाओं) के मुख की चपलता से नीचे गिरे हुए दाडिम फलों की रक्षा के ग्रहण में प्रारम्भ किये हुए व्याध-युद्ध के मध्य सुद्धनिवारण के लिए प्रविष्ट हुई थीं। किसी स्थान पर जहाँ पर गाल-समूह विस्तृत लताओं की बाड़ियों में विलम्ब करते हुए जंगलो बैलों अथवा वानरों द्वारा भयभीत कराये गये मृगों के पलायन (भागने) के अतिशय से भयभीत किया गया है। जहां पर पृथिवी का अग्रभाग वहत सी बामियों से निकली हुई सापों को कांचलियों के दर्शन से कुपित हर मयुरी के बच्चों के द्रणयुक्त नखों में चोचों द्वारा विदीर्ण किया जा रहा है। किसी स्थान पर, जहाँपर निरन्तर मृगों के मार्ग की खोज करने से उत्पन्न हुए कष्ट से दुःखित हुए भोल-बालकों से चुण्टन की गई रेत की वावड़ियों के जल को देखने से व्याकुल हा जंगली कुत्तों के द्वारा पर्वत की नदियों का वालुकाद्वीप प्रविष्ट करने के लिये अशक्य है। किसी स्थान पर जो चौर-समूह के बाणों द्वारा ताड़ित हुए वृद्ध शूकरों के कर्कश शब्दों से गिरते हुए हिरणियों के गर्भो से व्याप्त है ।
किसी स्थान पर, जहाँ पर मदोन्मत्त भैसा-समूह से किये हुए युद्ध में सींगों के प्रहार द्वारा उछलते हुए अग्नि-कणों के संगम से वृक्षों का उपरितन प्रवाल-समूह विध्वंस किया जा रहा है। किसी स्थल पर सिंह के चरणों पक्षों ) द्वारा विदीर्ण किये हुए हाथी के गण्डस्थल से ऊर्व प्रवाह रूप से उछलते हुए रुधिर से, जहाँ पर आकाशरूपी छत्र के लाल रत्नमयी दण्ड का विस्तार किया जा रहा है। किसी स्थान पर, निरन्तर पर्यटन करने वाली वानर-श्रेणी द्वारा निकाले जारहे या उड़ाये जा रहे घोंसलों के मध्यभाग से उड़े हुए पक्षियों के पंखों से जहां पर आकाश व्याप्त हो रहा है। किसी स्थान पर विशेष ऊँचे वृक्ष-समूहों की श्रेणी पर क्रीड़ा से भयानक डाकिनियों से जहां पर सृष्टि भयङ्कर की गई है। किसी स्थान पर प्रचुर उल्लुओं के शब्दविशेषों द्वारा घुर्यमान ( हिलाये जानेवाले ) जीर्ण वृक्षों की कोटरों में काकिनियों का समूह, जहाँ पर प्रसूति
१. विरोधाभासालंकारः।
२. भासिमानलंकारः।
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पञ्चम आश्वासः
११५ जिलाबलिद्यमानमृगतृष्णिकातरङ्गाम, पयश्चित्प्रचण्डगडकवधन विधार्यमाणहरुधिररीक्षवृक्षानीकम, बधिनियाल्यशस्लाशालाकाणालफोल्पमानरल्स फलोफलोकम्, एवमररपि सस्वरनायकायकाशवेशमिय माध्यमानपरस्परजीवित्तन् ।
___यन य वल्लयो. मृगावाः , या व्यासमवर्शनाः, सरवोऽपि निस्त्रिशपत्तप्तमालकाः, तृणान्यपि विषाणीव प्रागादेव मनोमोहनकराणि । कप।
यप्रिमोद्गमस्थलस्तबकामोगसंगमम् । सिंहशारकुलाकीर्ण महानौलनगोपमम् ॥२०॥
पत्ते पद्विकिराकीर्णकुड़मलाविलभूषणम् । करिवरिप्रमिन्नेभनुम्ममुक्ताफश्रियम् ॥२१॥ प्राप्त कर रहा है। किसी स्थान पर प्रचण्ड बायु से उखाड़े हुए वृक्ष समूह द्वारा व्याकुलित हुए हाथियों के बच्चों का, जहाँ पर पर्यटन पाया जाता है। किसी स्थान पर, पर्वतों के लताओं से आच्छादित प्रदेशों पर हाथियों द्वारा तोड़ी जानेवाली वृक्षश्रेणी पर वर्तमान पक्षियों की व्यनि से जहां पर जरा-जीर्ण खञ्जरोटों के चित्त का विस्तार हो रहा है।
किसी स्थल पर व्याघ्रविशेषों के समूह द्वारा दांतों से पकड़े हुए मृगों के खुरों से जहां पर कदलियों ( मुगविशेषों) के प्रवालों ( प्रकृष्ट बच्चों) का मन, अथवा लघु वृक्षों के पल्लवों का मध्य भाग खण्डित (चूरचूर ) किया जा रहा है। किसी स्थान पर विशेष प्यास से पीड़ित होने के कारण दौड़ते हुए मृगों की जिह्वाओं से जहाँ पर मृगतृष्णा की तरफ़ चाटी जा रहीं हैं। किसी स्थान पर विशेष शक्तिशाली गेंहों के मुखों से विदीर्ण किये जा रहे मूगों के रुधिरों से जहां पर वृक्ष-समूह दुःख से भी देखने के लिये अशक्य है। किसी स्थान पर निर्भय सेहियों की शलाका-श्रेणियों द्वारा जहाँ पर मृगविशेषों के विश्वलोक ( समूह ) घायल किये जा रहे हैं ।
इसी प्रकार दूसरे हिंसक प्राणियों द्वारा जहां पर परस्पर का जोबन, वेसा घात किया जा रहा है जैसे राजा मे शून्य देश में प्राणियों द्वारा परस्पर का जीवन घात किया जाता है । जहां पर लताएं भी मृगादनीप्रायाः ( लताविशेषों की प्रचुरता से युक्त ) हैं। एवं दुसरा अर्थ-जहां पर मृमादनी ( मृगों का भक्षण करने वाली बहेलियों की स्त्रियाँ ) बहुलता से पाई जाती हैं। जहां पर लताएँ भी व्याघ्री-समदर्शन ( बृहती-भटकटैया ( कटेहलो) सरीखो दर्शनवाली ) है । अथवा व्याघीसमदर्शन (चीते की मांदा-सरोखे दर्शनदाली) है। जहाँ पर वृक्ष भी निस्विशपत्रसमालोक ( सेहुण्ड वृक्षों के दर्शन वाले ) हैं अथवा निस्त्रिशरत्त्रसमालोक (निर्दयवाहन जीवों-सिंह व शूकर-आदि के दर्शनवाले ) हैं! एवं जहाँ पर तृण (घास ) भी विष-सरीखे गन्ध-ग्रहण करने मात्र से चित्त में अचेतनता उत्पन्न करते हैं। अब उक्त वन का विशेष वर्णन करते हैं
जो मुख्य और विशाल पुष्पों के गुच्छों को परिपूर्णता का संगम वाला है एवं जो सिंहों के बालकसमूह से व्याप्त है तथा जो महानील पर्वत-सरीखा है |२०|| जो ( वन ) पक्षियों से गिरी हई पूष्प-कलियों से व्याप्त हुए भूमिभाग को धारण करता है और सिंहों द्वारा विदीर्ण किये हुए हाथियों के गण्डस्थलों की मोतियों की श्रेणी की शोभा को धारण करता है ।।२१।।
विशेष वर्णन-जो समस्त अटवी ब्रह्माजिसितमण्डला ( ब्रह्मा से अवक्र प्रदेश वालो होकर के भी सव्याधा ( बहेलियों-सहित ) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो श्री ब्रह्मा द्वारा अबक्रप्रदेश वाली होगी, वह वहेलियों से व्याप्त कैसे हो सकती है? इसका परिहार यह है कि जो ब्रह्मा-आ-जिलिसमण्डला
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१. उपमालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पुकाव्ये अपि च । ब्रह्मानितिमण्डाला हरिकुलवालोलशलस्थलो स्थाणुस्थानविसंस्थलापि समभूचित्र तथापोवृदयो ।
सव्याधा समालया समदनोत्सा व सर्वाटयो फो नामवमिहाबलः सह ललासो प्रदेषामपि ॥२२॥
तत्र चिलचिकिमाणकलोचनायो बाढमवगाहमध्यमावस्थानायामेणान्वेषणघिषणनिषादपरिषत्सवापरषाव. रस्सलमखरसेवलम्जासिलखुरायामनेकमृगङ्गासंघट्टोन्मुष्टप्लोमत्तया निस्त्रियानिशातशाणाकारायामिव परुषतरतनुपपत्या तमाविधेनव पृषतेन गर्भावासविषयता नीता, पुनरकाण्डचण्हतडिण्डसंघट्टमयप्रभावायपरिपूर्णविषय एवं प्रसवरुपये लावास्मलाममात्रः, सविमाः शून्यस्तग्यस्तनतयानुपान्ताशनाशयः, पामाङफुरेषु च तृप्तिमलभमानः, पवनाशानापानाधयाशक्तया शशिरःप्रदेशान्विषाणमण्डलेनोविक्षनिषुः, (पलाश वृक्षों से चारों ओर विषम प्रदेश वालो ) है एवं जो निश्चय से सव्याधा ( बहेलियों से व्याप्त ) है। जो हरिकुलव्यालोलशैलस्थली ( यादवघंश से मनोज्ञ रैवत पर्वतस्थली) होकर के भी समवत्सवा ( मधुदैत्य के उत्सवन्सहित ) है । यह मो विरुद्ध है। क्योंकि जो यादववंश से मनोज्ञ रैबतपर्वत-स्थली होगी, वह मधुदैत्य के उत्सव से व्याप्त को हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो हरिकुलव्यालोलशैलस्थली ( सिह-ममूहों से चञ्चल पर्वत स्थल-शालिनी ) है और निश्चय से जो समघत्सवा ( मधु ( शहद या वसन्त ) के उत्सव वाली है। जो स्थाणुस्थानबिसंस्थुला ( श्री महादेव के निवास से शिथिल ) हो करके भी समदनोत्सर्गा ( कामदेव की सृष्टिसहित ) है, यह' मी विरुद्ध है; क्योंकि जो श्री महादेव की स्थिति से शिथिल होगी वह कान्दर्प की सृष्टि-साहित कैसे हो सकती है ? क्योंकि कन्दर्प ( कामदेव ) तो श्रीमहादेव जो द्वारा पूर्व में भस्म कर दिया गया था, इसका समाधान यह है कि जो स्थाणुस्थानविसंस्थुला ( स्थाणुओं-टूठ वृक्षों की स्थिति से व्याम ) है और निश्चय से जो समदनोत्सर्गा ( आट वृक्षों की सृष्टि-सहित ) है। अब उक्त बात को 'अर्थान्तरन्यास' अलंकार से पुष्ट करते हैं। इस संसार में इसप्रकार कौन पुरुष खललोक ( दुष्टलोक ) से रहित है ? क्योंकि जन्न' इन ब्रह्मा, विष्णु व महेश्वर का भी दुष्टों ( बहेलियों-आदि ) के साथ निवास वर्तमान है ॥२२॥
प्रसङ्गानुवाद-हे मारिदत्त महाराज ! उस पूर्वोक्त वन में में ( यशोधर का जीव ) मयूरपर्याय के बाद विशेष कठिन शरीरवाली सेही (सेही को स्त्री के गर्भावास में बैसा ही कठिन शरीरवाला, लैगढ़ा व रगड़े हुए रुएं बाला सेही रूप से आया ! मैं, कैसी सेहिनी के गर्भावास में आया ? जो दुषित व निन्द्य केवल एक ही नेत्रवाली ( कानी ) थी। जो विशेष संकीर्ण उदरस्थान प्राप्त करने वाली थी ! मुगों की अन्वेषण बुद्धि से निकट दौड़नेवाले बहेलियों के समूह से गमन-भङ्ग के कारण उत्पन्न हुए विशेष कष्ट से जिसके चारों खुर लँगड़े हो गए हैं। अनेक मृग-शृङ्गों की टक्कर से रगड़े गए मैंओं के कारण जिसको आकृति खड्ग को तीक्ष्ण करनेवाले शाण-सरीखो ( ककश शरीर वाली ) थी। हे राजन् ! फिर मयूर-मरण के बाद उत्पन्न हुआ मैं ( यशोधर का जोव--सेही) बिना अवसर के ( वर्षाकाल के विना भी ) विशेष शक्तिशाली बिजली दंड की टक्कर से उत्पन्न हुए भय के प्रभाव से थोड़े हो महीनों में उत्पन्न हुए प्रसनकाल में केवल अपना शरीरलाभ ही कर सका । अर्थात्-एक दिन में ही मर गया क्योंकि मेरी माता सेहिनी का स्तन दुग्ध-शून्य होने से मेरी भोजन की इच्छा शान्त नहीं होती थी ( मैं भूला ही रहता था)। छोटी-छोटी हरी घास से तृप्त न होकर में सौ के भक्षण के चित्त का अभिप्राय वाला होने में दन्तश्रेणी से बॉमी के शिखर
१. यथासयार्थान्तरन्यासालंकारः। मोट-उस काग्य में विरोधाभास अलंकार भी है।
--सम्पादक
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पञ्चम आश्वासः
११७ अन्यत्र कुरुते जन्तुर्यत्सुखं पुःखमेव वा । तदुपाबीजवक्षेत्रे भूयः फलववात्मनि ॥२३॥ इति ग्यापाद्य थाहं पुरा जन्मनि शिखावलपर्यायस्तेनाग्निजन्मना स्वकीयवंष्ट्राककचकवरयंमानतां मीतातर्थनमपि कृष्णत्वं शरिष, फुटिलता स्त्रीन्यः, क्रौर्य कृतान्तात्, विश्वसद्धि मसुरेग्यः, विषारपत्वं जलधेः, पिशितप्रियवं यातधानेभ्यः, परोपावं च दुर्जनेभ्य: समादायासादितसरीसृपाकारं वामविपरप्रविष्टायशरोरं चालादाकृष्य पुरीतत्प्रतान मिष मेचिनीकुर्राष्ट्रकायाः, लाग़लमिव महीसिंहिकायाः, मूलमिवानन्तालतायाः, मृगालमिय भूमिकालन्याः, वेणिवामिव समाराक्षस्पाः, पौनःपुन्यप्रवृत्तोत्रुणमहारजरितवदनमुत्कृत्यमानमिवाधरायाम, उम्मसन्तमिव क्षतजेषु, स्फुरन्समिष तरसेषु, टमन्तमिष सिराम, स्फुटन्तमिवास्थिषु, विवर्तमानमिवारत्रेषु, समीपतरकबम्बस्तम्बशायिना प्रबलजाङ्गलकवलाविलगलगुहाघोरघुरघुरारप्रतियोधितेन गतमेव श्लोकं तव जन्मनि सफलयता तराणा भक्ष्यमाणस्तेन पुषवाकुना सम. कालमेघाहं परामुरभघम् । प्रदेशों को खोदने का इच्छुक था। 'यह जीव, दूसरे प्राणी में जो कुछ भी सुख अथवा दुःख उत्पन्न करता है, वह सुख व दुःख अपने जीव में वैसा प्रचुर फल देनेवाला ( अधिक सुख-दुःख देनेवाला ) होता है जेसे खेस मैं बोया हुआ बीज प्रचुर फल देने वाला होता है.२शा
इस न्याय से जो पूर्वजन्म (मोर की पर्याय) में मयर-पर्याय के धारक मुझे उस चन्द्रमति के जीव कुत्ते ने अपनी दादरूपी आरा से मार डाला था वैसे ही मैंने ( यशोधर के जीव सेहो ने ) इस चन्द्रमत्ति के जीव सपं को भी अपनी दाढरूपो आरा से मृत्यु में प्राप्त किया ( मार डाला )। कैसे चन्द्रमति के जीव सर्प को मैंने मारा? जिसने मानों-दानि नामक ग्रह से कृष्णता ( कालापन), स्त्रियों से कुटिलता ( वकता ) व यम से क्रूरता प्राप्त करके सर्प को आकृति प्राप्त की थी। जिमने असुरों से बृप-विध्वंसवुद्धि । मूषिक-विनाश-बुद्धि पक्षान्तर में धर्म-नष्ट करने की बुद्धि ) को ग्रहण करके सर्पाकार प्राप्त किया था। जिसने समुद्र से विषाश्रयत्व ( मुख में पहर को सुरक्षित करना पक्षान्तर में विष का स्थान ) प्राप्त करके साकार प्राप्त किया था। जिसने राक्षसों से मांसप्रियता और दुर्जनों से परोपद्रव ( दूसरों को दुःख उत्पन्न करना) प्राप्त करके सर्प की आकृति प्राप्त को थी। जिसका अर्धशरीर वॉमी के मध्य में प्रविष्ट हुआ था। जो मानों-पथिवीरूपो हिरणी को नसों की श्रेणो ही है। अथवा लोकभक्षक होने से मानों-पृथिवीरूपो सिंहनी की पूछ ही है। अथवा-मानोंपृथिवीरूपी लता का मूल ही है। अथवा माना--पृथिवीपी कमलिनी का मृणाल ही है। अथवा मानोंपृथिवीरूपी राक्षसी को मुंथी हुई केशयष्टि ही है। ऐसे सांप को मैने । यशोधर के जोब सेहो ने ) बॉमी से जबर्दस्ती खींच कर मार डाला। जिसका मुख वार-बार उत्पन्न हुए उन्नत फणों के आघातों से जर्जरित (क्षीण ) हो गया है। जो अपनी त्वचा के विषय में फासा जा रहा सरीला एवं स्वनों के विषय में ऊपर उछलता हुआ-सा, माँस के विषय में चमत्कार करता हुआ-सा तथा सिराओं के विषय में टूटता हुआ-जैसा, तथा हडियों के बारे में कट-कट गाब्द के समान आचरण करता हुआ-सा व आंतों के विषय में भीतरी शरीर को बाहिर प्रकट करता हआ सा प्रतीत हो रहा था। इसके बाद मुझे ( घशीधर के जोव सेही को ) प्रस्तुत साँप ने, जो कि पूर्व-कथित लोक को उसो जन्म में सत्यता में प्राप्त कर रहा था। जो वाँमी के विशेष समीप में वर्तमान कदम्ब वृक्ष को वने पर शयन कर रहा था एवं जो उत्तम सर्प-मांस के ग्रास से भरी हुई गलेरुपी गुफा के भयानक घुघुर ( अव्यक्त ) शब्द द्वारा जमाया गया था, भक्षण कर लिया। उसी साँप के साथ मैं ( सेही ) एक समय में ही काल-कवलित हुआ। अर्थात्--हम दोनों ( यशोधर का जीव-सेहो चन्द्रमती का जोब साँप ) काल-कवलित हुए। अर्थात्-मैंने साँप को खाया और सांप ने मुझे खाया।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पुनरहो कविलोकपजविकास भास्कर, सौजन्यरत्नाकर, अस्ति मलु तेष्वेव त्रिवि निवासःखितकिवदन्तीषु अन्तषु इमणिमेखलेव पद्मावतीविलासिन्याः जलकेलिवोधिकेय माल्दवानीपालविलासिनीनाम् निरथोत्सविता केव भुजङ्गमलोकस्थ, वरणमालेव मागंनहीषराणाम्, मुक्तावलीय मेदिनीदेवतायाः, कीर्तिवंजयन्तीव प्रभवभूषरस्य सैकसारणिरिव सिन्धुरत्नाकुराणाम् दशरसृष्टिरिव व जगत्प्रसाधनमतोनां प्रजापतीनाम् भोगवतीष पद्मषिष्ठता भुजङ्गांकोचिता च राज्यलक्ष्मीरिव कुवलयोपगता द्विजभोगभूता च, कामनयोरिव संवरप्रचुरा पुनिजनगोबरा व सीते लक्ष्मणानुगता रामानविता] घ, भारतकयेव घृतराष्ट्रावसाना जातव्यासाधिष्ठानाच आस्फूर्जितमूतिरिव कान्तावलोकना प्रसाचितबलि संताना च. सुधासृष्टिरिव कुमुदावहा विहितवेवमहा च विपणियथिरिव सौगन्धिकावसया ग्राहकमउपतिसनाभा च सफल. कल्लोलकलशाभिषेकतोषितोपान्साथ माथ यविप्रा सिप्रा नाम नयी ।
११८
इसके बाद (सेही व संभव के वर्णन के वाद ) कवि समूह रूपी कमलों को विकसित करने के लिए श्री सूर्य- सरीखे एवं परोपकाररूपी अमुल्य माणिक्य की खानि ऐसे हे मारिदत्त महाराज ! देवों के योग्य वृत्तान्त वाले उन पुर्वोक्त अबन्ति देशों में ऐसी 'सिप्रा' नाम को नदी है। जो ऐसी मालूम पड़ती है मानों-उज्जयिनी नगरीरूपी कमनीय कामिनी को चन्द्रकान्त मणि की मेखला ( करघोनी) ही है। मानों- मालवदेश संबंधी राजाओं की रानियों की जलकोड़ा करने की बावड़ी ही है। मानों पाताललोक संबंधी नित्य महोत्सवों की पताका हो है । मानों— मार्गपर्वतों की बरमाला ही है । मानों पृथिवोरूपी देवता की मोतियों की माला ही है । मानों इसको ( सिप्रा को ) उत्पन्न करनेवाले पर्वत को कीर्तिपताका ही है। जो मानों-समुद्र संबंधी रत्नाकरों को सिञ्चन करने वाली कृत्रिम नदी ही है। मानों पृथिवीमण्डल की व्यवस्था करने की बुद्धिवाले राजाओं की बाण सृष्टि ही है। जो वैसी पद्माधिष्ठित ( कमल-मण्डित ) व भुजङ्गलोको चित ( कामी पुरुष समूह के योग्य ) है जैसे अहिपुरी ( नागलोक ) पद्माधिष्ठित ( पद्म नाम को नागदेवता से युक्त ) जङ्गलको चित (सर्प समूह के योग्य) होती है। जो वैसी कुवलयोपगता ( चन्द्रविकासी कमलों से मण्डित ) एवं द्विजभोगभूता (पक्षियों के भोगने योग्य ) है जैसे राज्यलक्ष्मी कुवलयोपगता ( पृथिवीमण्डल - मण्डित ) एवं द्विजभोगभूता ( ब्राह्मणों की भोगभूत ) होती है। जो वैसी संवर- प्रचुर ( जल-बहुल ) व मुनिजनगोचर (तापमपक्षी-युक्त ) हैं जैसे वनलक्ष्मी संवरप्रचुर (शृंगल सहित मृग आदि चतुष्पद जौवों से बहुल अथवा मानव-निरोध सहित ) तथा मुनिजनगोचर ( दिगम्बर साधुओं के गोचर ) होती है । जो वैसी लक्ष्मणानुगत ( सारस पंक्ति सहित ) व रामानन्दित ( स्त्रियों को आनन्दित करने वाली ) है जैसे सोसा ( जनक राजा की पुत्री), लक्ष्मणानुगत ( लक्ष्मण से अनुगत ) व रामानन्दित ( श्रीरामचन्द्र से आल्हादित ) होती है । जो सो धृतराष्ट्रावसाना ( दोनों तटों पर हंसों वाली ) एवं जातव्यासाघिष्ठाना ( विस्तार के मूल को उत्पन्न करने वाली ) है जैसी भारतकथा ( महाभारत शास्त्र ) धृतराष्ट्रावसाना ( धृतराष्ट्र के मरण वाली ) एवं जातव्यासाधिष्ठाना ( व्यास से उत्पन्न हुए पीठबन्धवाली ) होती है । जो वैसो लोकना ( मनोहर दर्शनबाली ) व प्रसाधितबलिसंतान ( पूर्ण किये हुए पूजासमूह वाली ) है जैसी चन्द्र मुर्ति कान्तावलोकन ( सुन्दरियों के दर्शन सहित ) और प्रसाधितवलिसंतान ( वलि नाम के दावविशेष को वश में करनेवाली ) होती है । जो वैसी कुमुदावहा ( श्वेत कमलधारिणी) व विहिता देवमहा (वि-हिता-पक्षियों के लिए हित करनेवाली ) और देवमहा ( राजाओं के उत्सव वाली ) है जैसी अमृतसृष्टि कुमुदावहा ( पृथिवी में हर्ष उत्पन्न करनेवाली } व विहितदेवमहा ( जिसमें देवों की पूजा उत्पन्न की गई है ) होती है । जो वैसी सौगन्धिकावसया ( लालकमलों व कारों (कमलों ) के निवास-युक्त ) है एवं ग्राहक मऊ-पति-सनाथा ( ग्राह ( मकर आदि), कमठ ( कछुओं ) एवं पक्षियों से सहित ) है जैसी दुकानों को श्रेणी सौगन्धिकावसथा ( सुगन्धि वस्तु वेंचनेवालों के स्थान वाली ) व ग्राहक
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पञ्चम आश्वांसः
A
यत्र मलमलकामिनी वरमवार चलद्वि कम कजकिञ्जल्कवुज पिजरतरङ्गम् आवंदाघाट पेटपर्यटन मानकिनीपुटपटलान्तरसम् उत्तररूत रतरस्कारण्डी ब्रण्डण्ड काण्डखण्ड मानकरण्डदलोत्लसत्करूलोलम्, अनेकमहिलाका कुटुम्बिनीकवम्बचुग्ध्य मानजम्बालजालन दिलजलवेवतादोलम्, अनवरतर तिफलमोदमेदुरमिथुन वरपतङ्गपक्षचापलोच्छलच्छोकरा सारसिध्य मानतीरतरुनिकरण, अन्योन्यापघनघनापट्ट कुटितकुम्मोरभय भ्राम्यत्क कुमकुटाकारमुखरम् अवाचाटवकोटचेष्टित चकितफ मलमूलनिलौ यमानपोताषानम् अम्बुसहकुहरविदवहारविनितवैखानस कुसुमविधानम् वीनंदमंदी चितुमुलक लिकोलाहला वलोकमूक मूककलोकम्, उम्मतमकरकरास्फालनो तालनहरिको तालि तारविश्व कन्चरद्ववन्मकरत्वमिन्दु चन्द्रकाषचयञ्चतच श्वरीकमेकवी चिकन कम् उद्दामपिवशन वश्यमान मृणालिनीसकलसारप्रसरम् अच्छकन्पापाठीन पृष्ठपोठी कुण्ड डण्डीर पिण्डशिखण्डितत टिनोनिकटकर्करम् उपान्तसँकतोल्लोलबालोविहारखाचाल बारलम्, अधूरजकुजकुजकुलायकोस्कुररकूजितबलम् अमृतस्रोत देव सुतस्पर्शावालम्,
पति- सनाया ( सुगन्धित्रस्तु खरीदने वाले गृहस्थों से सहित ) होती है और जिसके द्वारा पुष्प - सहित तरङ्गरूपी कलशों के अभिषेक से नदी के समीपवर्ती गृहों में आश्रित हुए ब्राह्मण हर्षित किये गये हैं ।
प्रसङ्गानुवाद -- जिस सिप्रा नदी में जलक्रीड़ा के अवसरों पर नगर की स्त्री समूह से मोतियों के चूर्णसमूह सरीखा स्वच्छ जल वैसा उत्कलिकाओं ( तरङ्गों से मलिन किया जाता है रही= स्त्री का हृदय उत्कलिकाओं ( उत्कण्ठाओं ) से अनच्छ ( व्याकुलित ) होता है । कैसा जल मलिन क्रिया जाता है ?
जिसकी तरङ्गे मदको प्राप्त हुई हंसिनियों के चरण- संचारों से हिलते हुए विकसित कमलों को केसर श्रेणी से पीत-रक्त हुई हैं। जिसमें ऐसी कमलिनियों के पुटसमूहों का मध्य वर्तमान है, जो कि दोघंतर गर्व करनेवाली सारस श्रेणी के पर्यटन ( संचरण ) से हिलाई बुलाई जा रहीं थी । विशेष चञ्चल च तैरते हुए चकवा पक्षियों की चोंचोंरूपी वाणों द्वारा खंड-खंड किये जानेवाले कमल पत्तों के साथ जहाँपर तर उछलती हुई शोभायमान होरहीं हैं । जहाँपर जलदेवताओं के मूल बहुत से हंसविदोषों की कामिनियों के समूह द्वारा चोचों से छूए जा रहे शैवाल-समूहों से फर्बुरित ( रंग-विरङ्गे) हो रहे हैं । निरन्तर रतियुद्ध से उत्पन्न हुए हर्ष से स्नेह सहित चकवा चकवी पक्षियों के पलों की चपलता से ऊपर उछलते हुए जलबिन्दुओं को श्रेणी द्वारा जहाँपर तटवर्ती वृक्ष-समूह सींचे जा रहे हैं। जो परस्पर शरीरों की टक्कर से कुपित हुए मकरों के भय से भयभीत किये जानेवाले वालकुकुटों के अव्यक्त शब्दों (घाँध देने) से बाचालित हो रहा है । जहाँपर कमल-मूलों में प्रवेश करनेवाली क्षुद्र मछलियों का समूह मीनी बगुलों के व्यापारों से भयभीत हुआ हैं । कमलों के मध्य पर पर्यटन करनेवाले जलब्यालों ( ग्राह्नों) से जहाँपर तपस्वियों को कमल-ष्टन विधि विघ्न-युक्त की गई है । उरकट भद करनेवाले जलसप के रौद्रयुद्ध संबंधी कोलाहल के देखने से जहाँपर मंडकों का समूह मूक हो गया है । जिसमें तरङ्ग श्रेणी ऐसे भौरों द्वारा श्यामलित हुई है, जो कि विशेष मद को प्राप्त हुए जलहाथियों के शुण्डादण्डों के संचालन से विशेष वेग बाली तरङ्गों से कम्मित हुए कल-कोशों से झरते हुए मकरन्द - ( पुष्परस ) बिन्दुओं के चन्द्राकार मण्डल के संचय करने में चञ्चल हो रहे थे। जिसमें कमलिनियों के समस्त विस्तृत कन्द शक्तिशाली जलहाथियों के दाँतों से चावे जा रहे हैं । ( चट्टान सरीखे ) महान् कलुओं के फड़फड़ाने से कुपित होनेवाले महामच्छों को प्रशस्त पीठों पर लोट-पोट करती हुई प्रचण्ड फेनराशियों से जिसने नदियों के दोनों तट के समीपवर्ती पर्वत शिखर मुकुट वाले किये हैं। निकटवर्ती वालुकामय प्रदेशों पर वर्तमान चञ्चल तरङ्गों पर पर्यटन करने से जहाँपर हंसिनियाँ वाचालित हो रही हैं। जो निकटवर्ती वृक्षों के लतापिहित प्रदेशों
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आमलकशिलातलमिव स्वस्छकलम्, इन्दुमणिनिःस्यन्दनभिय मुभगावलोकनम्, शव्ययं ज्योतिरिब जनितजगरप्रणयम्, मलकपल्लरोरङ्गिभिर्वमनारपिन्दामोदधिर्म असतावानीरसंततिभिः कुचोकमियनमनोहरवप्लिवजुभवल्लीविज्ञासिभिनाभिमण्डणावर्तीवामितम्नलिमस्थललाधिभिकरुकरिमकरकरामोगहृदयंगमः पावनखमयूलफेनस्फीतः प्रतिनरीप्रवाहरिव नगराङ्गनानिव्हर्जलकोजावसरेषु विरहिणीवमिवोत्कस्लिकाविलोदयं क्रियते मुक्ताफलतिवमः पयः । अपि च ।
करिगमरमुखोद्गीण मस्यामणः पुनः पतभाति । सुरमिथुनकलहविगलितमुक्ताफलभूषण भान्ति ॥२४॥ जलवेदीकरयन्त्रपरिष्टायन पारि विक्षिप्तम् । दुर्वणवण्डवीति पाति वियवासपत्रस्य ॥२५॥ पदचरणचलितजलहमकरस्यविन्दुकन्दलितम् । यस्याः पापः घलपति पुतणमति पौरलोकस्य ॥२६॥ पपलकलहंसबालकरिप्लस: पटपोग्बुजे भाति । यस्यां धर्मभयादिव पलायमानोषसंघातः ॥२७।। मध्यमषुलपमयकरालमा पुण्डरीकमुद्दण्डम् । हरति हरिमणिकलश सितातपक्षियं यत्र ॥२८॥
उद्गतमकाम्बरः सिताम्बुज पत्र मोवमन्धरितम् । उपरिचलघूलियूसरपवलमात्रच्छवि पति ॥२९॥ में स्थित हुए घोंसलों में क्रीड़ा करनेवाले उत्क्रोश पक्षियों से प्रचुर है। जो अमतप्रवाह-सरोखा सखोत्पादक स्पर्श से उज्ज्वल है। जो आमलक-स्फटिक-शिलातल-सा स्वच्छ पारीरवाला है । जिसका दर्शन चन्द्रकान्तमणि की तरलता-सा प्रीतिजनक है | जो केवलज्ञान सरीखा समस्त लोक को प्रीति-जनक है ।
कैसे नागरिक स्त्री-समूह द्वारा प्रस्तुत सिप्रा नदी का जल मलिन किया जाता है? जो ( नागरिकस्त्री. समूह ) दुसरी नदी के पूरों-सरीखे हैं। जिनमें केशलतारूपी तरङ्गर मना पाई जाता है। जो मुखरूपो कमलों की सुगन्धि से व्याप्त हैं। जिनमें बाहुलतारूपी वंतवृक्षों की श्रेणियां हैं। जो कुच ( स्तन ) रूपी चकवाचकवी के जोड़ों से मनोहर है। जो त्रिवली ( उदररेखाएँ ) रूपी लताविशेषों से उल्लसनशील है। जो नाभिमण्डलरूपी आवतों । कूपों) से मनोहर हैं। जिनमें नितम्ब । स्त्रियों की कमर के पृष्टभाग ) रूपी प्रशस्त पुलिन्न-स्थलों की प्रयांसा वर्तमान है। जो करु (जंघा ) रूपो जलहाथी व जलग्राही के शुण्डादण्डों के विस्तारों से रमणीक हैं एवं जो चरणों के नख-फिरणरूपो फेनपुञों से प्रचुर हैं।
जिस सिग्ना नदी में वर्तमान जल, जो कि जलहाथियों व मकरों के मुखों से उड़ेला हुआ व फिर भी आकावा से नीचे गिरता हुआ ऐसा सुशोभित होता है, जिसमें देवों के स्त्री-पुरुषों के जोड़ों ( देव-देवियों ) की मैथुनकलह से नीचे गिरे हुए मोतियों के आभूषणों की सदृशता वर्तमान है ।। २४ ॥ जिस सिना नदी में जलदेवो के हस्तरूपी यन्त्रों से आकाश में फेंका हुआ जल आकाशरूपी छत्र के चाँदी के दण्ड की शोभा को धारण करता है ॥ २५ ।। अमरों से कम्पित हुए कमलों की पुष्परस संबंधी धारण-विन्दुओं से व्याप्त हुआ जिस सिप्रानदी का जल नागरिक लोगों को सरल कुङ्कम के स्वीकार करने को अभिलाषा को शिथिल करता है। ॥ २६ ।। जिस सिप्रा नदी में कमल में स्थित हुआ और चञ्चल कलहंस शिशु के मुख से उछला हा भ्रमर धर्म के भय से भागता हुआ पाप-समूह सरीखा शोभायमान होता है ।। २७ 11 जिस सिम्रा नदी में पुष्परस में लम्पट हुए भ्रमर-समह का आधार व जल से वाहिर निकला हुआ श्वेतकमल ऐसी उज्ज्वल छत्र को शोभा को, जिसमें श्याम रत्नमयी कलश वर्तमान है, तिरस्कृत करता है । अर्थात्-कृष्णरत्नों के कलशवाली उज्ज्वल छत्र की शोभा को तिरस्कृत कर रहा है" ॥ २८ ॥ जिस सिप्रा नदी में वर्तमान श्वेतकमल, जो कि ऊपर स्थित हुए
१. उपमालंकारः। ५, उपमालंकारः।
२. रुपकीपमालंकारः ।
३, हस्वलंकारः।
४. प्रतिकस्तूपमालंकारः ।
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पञ्चम प्राश्वासः
१२१ संपन्नपुरवधाये तलवेशे यत्र राजसे वारि । उन्मोभितभुजगजगत्सुरलोकालोकवर्षणति च ॥३०॥ ईशानशीर्षोषितविभ्रमाणि खानसावासनिरन्तराणि । नीराणि पस्याः सुरशेखराणि सरितरावारिमनोहराणि ॥३१॥ देवार्चनासङ्गविधौ जनानां यस्यां प्रसूनाअलिगन्धालुब्धः । विनिर्गलत्पूर्व भवाघसङ्घः समन्ततो भाति मधुव्रतौघः ॥३२॥ यस्याः प्रधाहः सरितः प्रकामं बलिप्रसूनप्रकराभिरामः । रत्नोत्करापूरितसत्प्रवृत्तमहाध्वजस्व तनोति कान्तिम् ॥३३॥
चिलोचिमनिरीक्षणा सितसरोमहासाग, कालपाणि, १६ :शालिमाटिसा ।
उपान्तपुलिनाननोमालितबोचिनावानुगा मनः पुरजनस्य या हरति कामिनीवापगा ॥३४॥ तस्याः प्रभावमालयोजन के लिसरस्याः सरितो मतकोडोप्तासजलदेवताहस्तोवस्तसलिलासारधारासहस्रसंपादितानेकगगनलालशतहवे महालदे व्यतिक्रम्य तं पृषतपर्यायोदन्तमसरालशयालप्रमाणवेहः पुनरहमहो महाराज, रोहिताक्षनामा पपरोमा समभूवम् । यस्मिञ्जलीकारते फूलकषा मानतनी मपि स्पाइमिग्नकापे प्रतनुप्रवाहा । स्थिते तिरश्चीनतया च सिन्धुः सा सेतुमाधयमावधाति ।।३५।। पुष्परस से व्याप्त पराग वाला है और जो सुगन्धि के भार से नम्रीभुत है, उपरितन भाग पर स्थित हुई चञ्चल घुलि से धूसरित ( ईषत्पाण्डुर ) उज्ज्वल छन्त्र को शोभा को स्पर्श करता है। ।। २९ ।। जिस सिप्रा नदी में अधः प्रदेश में स्थित हुमा जल उज्जयिनी नगरी के प्रतिबिम्ब से प्रतिविम्बित होने से ऐसा शोभायमान होता है, जो प्रकट हुए नागलोक-सा है और जो स्वर्ग नगर के दर्शन के लिए दर्पण-सरीखा है. 1३० |1 जिस सिप्रा नदी के जल, जो कि गङ्गा नदी के जल-सरोखे मनोहर हैं। थो महादेव के मस्तक पर स्थित होने में जिनकी योग्य शोभा है । जो तपस्वियों के निवास स्थानों ( गृहों ) से अविच्छिन्न हैं और जो देवताओं के मुकुट हैं । अर्थात्देवों से मस्तकों पर धारण करने योग्य हैं । ।। ३१ ।।
जिस सिप्रा नदी में देवपूजा के अवसर पर मनुष्यों को पुष्पाञ्जलि की मुगन्धि में लम्पट हुआ भ्रमर-समूह दूसरे जन्मों का निकलता हुआ पाप-समुह-सा सर्वत्र शोभायमान होता है ||३२|| पूजा-निमित्त [लाए हुए] पुष्पसमूहों से मनोहर जिस सिप्रा नदी का प्रवाह, गृत्ति (गृह के चारों ओर का स्थान ) को रत्न श्रेणियों से भरनेवाली इन्द्रध्वज पुजा को कान्ति को विशेषरूप से विस्तारित करता है"।। ३३ || जो सिधा नदी कमनीय कामिनी-सरीखी नगरवासी लोगों का चिन चुराती है। जो मछलीरूपी नेत्रोंवाली है और कामिनी भी मनोज नेत्रों से सुशोभित होती है | जो श्वेतकमलरूपी हास्य से उल्याण ( अधिक ) है और कामिनी भी हास्य-युक्त होती है। जो मधुर शब्द करनेवाली हंसनियों की सुशोभित श्रेणी रूपी कटिमेखला (करघोनी ) वाली है एवं कामिनी भी करधोनी से अलअकुत होती है। जो समीपवर्ती पुलिन (जल-मध्यवर्ती वालुका द्वीप) रूपी मुख पर उछली हुई लहरियों के शब्द से अनुगमन करती है और कामिनी भी प्रियतम को प्रमुदित करने के लिए मञ्जुल गीत गाती है' ॥ ३४॥
अहो मारिदत्त महाराज ! मैं ( यशोधर का जीव सेही ) उस पूर्वोक्त सेहो को पर्याय व्यतीत करके आलस्य से व्याप्त हुई मालब देश की कामिनियों को जलक्रीड़ा के लिए सरसी-(महासरोवर ) सी उस सिपा नदी के अगाध जलाशय में, जिसमें जलक्रीड़ा में उत्कट जलदेवतामों के हस्तों से ऊपर फेंके हुए जल-समूह की
१. हेतूपमालंकारः । ४. जपमालकारः।
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२. हेसपमालंकार: 1 ५. दातालंकारः।
. उपमालंकारः। ६. सग्विणीछन्दः उपमालंकारः।
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१२२
यतिलकचम्पूकाव्य
सापि मपीयाम्बा कृतकृष्णपन्तगतनुस्यागात्तत्रैव शिशुमारलया जन्मासादयामाप्त । एकवा तु तस्यामेव सीकरासारतारफितसकलहरिति सरिति निवाघधाहवायणरसेषु शुचितमाशाखादिवसेष
मध्यकर्णवतंसकाः सरलितप्रान्सप्रलम्बालकाः शोर्यत्कम्जललोचनाः परिगलगण्डस्थलीचन्दनाः । संस्कम्पस्तनमण्डलाः प्रयिलमल्लीलाजशाहाकुलाः क्रोन्ति स्म पुराणमाः प्रियतमरासेव्यमाना इव ॥३६॥
तत्रवायसरेऽमडीणाक्षोभक्षामनिद्रोफेणानुमापुच्छाच्छोटनो लदविच्छिम्नच्छटस्वच्छसलिलकस्लोलकल्पितजलवेवसानिकेतकेतुमालेन निजनिरवधिप्रधावप्रारम्भर्मण्यमानपरस्पां कलशामिव फेनाविलावतंमण्डली फूलवन्ती कुर्वता प्रतिक्षणसंधुक्यमाणावाशुशुक्षणिक्षापितपुदिर कक्षेण नीरेचरत्यक्षपक्षभक्षणाशितक्षणेनेव शूलाक्षपतिना तेम चुप्लुकोमनुना
हजारों धाराओं से जहाँपर गगन तल में अनेक विजलियाँ उत्पन्न को गई हैं, महान अजगर सरीखी देहवाला 'रोहिताना नामका मच्छ हुआ। रोहिताक्ष नाम के मच्छ के जलक्रीड़ा में रत होनेपर जब मैं ( रोहिताक्षमच्छ) सिप्रा नदी में अपना शरीर डुवोता था तब वह सिप्रा नदी अपना तट भेदन करनेवाली होती थी और जब मेरा (रोहिताज का ) शरीर सिप्रा नदी से बाहिर उछलता था तब वह सिप्रा नदो अल्पपूरवाली हो जातो थी, एवं जब में उसमें तिरछे रूप से स्थित होता था तब वह पुल-बन्ध की शोमा को आचरण करने लगती है ॥ ३५ ॥
हे मारिदत्त महाराज ! उस मेरी माता चन्द्रमति ने भी धारण की हुई काले साँप को पर्याय छोड़कर उसी सिप्रा नदो के अगाध जलाशय में "शिशुमार' नाम के भयानक जलजन्तु ( मकर-विशेष ) का जन्म धारण किया। पुनः एक समग उछले डा जलकण रामदों में समस्त दिशाओं को ताराओं से व्याप्त करनेवाली उसी सिप्रा नदी में ज्येष्ठ मास के दिनों में, जिनमें धूप के सन्ताप से भयानक रस पाया जाया है, ऐसी स्त्रियां क्रीड़ा करती यों। जिनके कर्णपूर जलबेग से नीचे गिर रहे हैं। जिनके [ मस्तक के ] प्रान्तभागों पर वर्तमान लम्बे केश सरल हुए हैं। जो ऐसे नेत्रों वाली हैं, जिनका कज्जल जलवेग से गल रहा है। जिनके सुन्दर मालों को विलेपन रचना चारों ओर से गल रही है। जिनके स्तनमण्डल ( कुच-भर ) कान्तियुक्त या आनन्द-प्रद हैं । जो शोभायमान लीलाबाली कमल-खरोखी भुजाओं से अस्थिर हैं और जो अपने पतियों से सुख क्रीड़ा में भोगी जारही कामिनियों-सी शोभायमान हो रही है। अर्थात्-जिसप्रकार प्रियतमों द्वारा सुखक्रीड़ा में भोगी जा रही कमनीय कमिनियाँ उक्त गुणों से युक्त होती हैं। अर्थात्-जिनके कानों के कर्णपूर, कामक्रीड़ा से नीचे गिर रहे हैं, जोर जो सरल कैश युक्त, कामक्रीड़ा से निकालते हुए कज्जलों से युक्त नेत्रवाली, सुन्दर गालों पर की हुई चन्दनादि को चित्ररचना से होन, चञ्चल स्तनमण्डलों से सुशोभित एवं नृत्य करतो हुई भुजाओं से व्याप्त होतो है ॥ ३६ ॥
उस नागरिक स्त्रियों को जलक्रीड़ा के अवसर पर उस मकरी-पुत्र मकर ने, जिसकी निद्रा को अधिकता मच्छों के क्षोभ ( विशेष चलने ) से क्षीग हो गई है। प्रचुर पूंछ के ताड़न से ऊपर उछलते हुए अखण्ड धारा वाले निर्मल जल को तरङ्गों से जिसने जल को अधिष्ठात्री देवताओं के गृहों में उज्वल ध्वजाओं की श्रेणी रची है। जो प्रस्तुत सिप्रा नदी को वैशी फेनों से व्याप्त हुए आवतंमण्डल (भ्रमण-श्रेणी ) वाली कर रहा है जैसे दधिमन्थिनी कलशो ( जिसमें दही मन्थन किया जाता है, ऐसा अल्प घट ) जिसका दही अपने वेमर्यादीभूत वेग-युक्त गति के वेगों से विलोड़न किया जा रहा है, फेनों से व्याप्त हुए आवर्तमण्डल वाली
१. दीपकालंकारः अतिभायालंकारश्च ।
२. जपमासंघारः।
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पञ्चम आश्वासः
१२३ मा यहीत प्रत्यायसेन तासु अलकेलिसक्तस्वान्तासु मध्ये यशोमसिमहारानमहादेमाः जलिका मदनमञ्जरिका मामानाहि ।
ततस्तख़त्ताताकणनकुपित मतिः स महोपतिराहूया विदेश सफलजलष्यालविलोपमाय वैवस्वतसंन्यसन्निभसरवर संचरखीवरनिकरम् । ते घ कैवतास्तदादेशादुत्तरलतरोतामकराचरितलिताः सत्वरं सगुगलमालयापाणय'स्तरीतर्गतवरतरणतरण्डवेडिको पसंपन्नमरिकरास्ता तरङ्गिणौमवतेः।
उडीनाडिम्भमाकुलभवनालोमिनोकामनं लोत्तालबिलान्तरालयसनग्लानालगर्वा कम् ।
प्रायः पङ्किलगर्तपरमिलहीलयबाले मुहस्तस्त्रोतः कलुषोवमूव विवाग्राहं विगाहत्ततः ॥३७॥ पुनरहमहमिकया तत्सरिस्नोतसि तेषु विहितसफलजलचरग्रहणोपायेषु तस्य चौलूकेयस्य यमदंष्ट्राकोटिकुष्टिल: पपात गलनाले गलः । तत्संगमान्मम छोपरि भ्रमणकालचककरालं जालम् । पुनरस्मग्रहणानन्दितममोभिस्त पवेधिभिरा
होती है। जिसका उदररूपी वन क्षण-क्षण में गोली हुई मारपीमि से जिन एनं जिसने वैसा मच्छों के समस्त पक्ष ( पिता, माता व पुत्रादि कुटुम्ब ) के भक्षण करने में अवसर प्रारम्भ किया है जैसे यमराज जीवों के समस्त पक्ष के भक्षण करने में अवसर प्राप्त करता है और जो, मुझ रोहिताक्ष नामके मच्छ को पकड़कर खाने के निमित्त लौटा हुआ था, ऐसो 'मादनमजरिका' नाम की स्त्री को पकड़ लिया, जो कि जलकोड़ा में आसक्त चित्तवाली उन नगर की स्त्रियों के मध्य यशोमतिमहाराज की कुसुमावली नाम की महादेवी की दासी थी।
इसके बाद ‘मदनमरिका' नामकी दासी के पकड़ने का समाचार सुनने से कुपित बुद्धिवाले यशोमति महाराज ने यमराज की सेना-सरीखे शोघ्र सम्मुख आते हुए मछुआरों के समूह को बुलाकर समस्त जलचर दुष्ट जन्तुओं के विनाश के लिए आदेश दिया। फिर वे सम्मुख आये हुए मल्लाह यशोमति महाराज की आज्ञा से ऐसे होकर उस प्रसिद्ध सिप्रा नदो में उतरे । जिन्होंने विशेष बेगशाली व ऊँचे किये हुए हस्ततलों से प्रास्फोटित (कोड़ाएँ या विहार ) किये हैं और जिनके हस्त लट्ठ, गल ( मच्छों को वेधन करनेत्राला लोहे का काँटा) व जालों के ग्रहण करने में व्यापार-युक्त हैं तथा जिनका परिवार नौका, तृणमयघोटक, तुवरतरङ्ग ( तुम्बी), फलक, क्षुद्रनीका व परिहार नोका इनसे परिपूर्ण है। फिर बिलोषित हा सिना नदी का पर वारम्वार कलखित आ. जिसमें पक्षियों के बच्चे उड़ गए हैं। लिनी-वन कम्पित हो रहा है । जिसमें जलसों के बच्चे दोनों तटों में उत्कण्ठित हैं एवं बिलों के मध्य में चलने से ग्लान ( नष्ट उद्यमशील ) हैं एवं जहाँपर कछुओं के बच्चे बहुलता से कीचड़-सहित गड्डे के मध्य में स्थित हुए भंसाओं के साथ एकत्रित हो रहे हैं, एवं जिसमें करादि जलजन्तु पराधीन हुए हैं ।। ३७ ।। तदनन्तर ( सिपा नदी के प्रवाह में अवगाहन करने के बाद ) जब ये मल्लाह परस्पर के अहङ्कार-से उस सिप्रा. नदी के प्रवाह में समस्त जलचर जन्तुओं ( मकर-आदि ) के पकड़ने का उपाय करनेवाले हुए तब उग शिशुमार (चन्द्रमति का जीव-मकर-विशेष) को कण्ठरूपी नाल में यमराज की दाँद के अग्रभाग-सरीखा वक्र लोहे का कांटा गिरा ओर उस शिशुमार के संगम से मेरे ( यशोवर का जीव-रोहिताश महामच्छ के ) अपर भी ऐसा जाल पड़ा, जो कि भ्रमण करता हुआ व असमय में प्राप्त हुआ यमगज के चक्र के समान रोग (भयानक) था। तत्पश्चात् उस यशोमति महाराज ने हमारे पकड़ने से हर्षित चित्तवाले इन मछुआरों से लाये हा मुझे ( रोहि १, 'तरीवर्णतुम्बतरण्डवैडिकोपसम्पन्नपरिकराः' ह. लि. प्रति घ। २. अतिशयालंकारः।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मीतं मां तं च स महीपतिरवलोश्य पितृसतर्पणार्य निजसमाजसत्वरसवतीकाराय समर्पयामास । तत्र छ तदुपयोगमात्र. तपा प्रत्यहमुस्कृस्यमामकायकवेशः
अहं पिता पूर्वभवेऽस्य राज्ञः पितामही चाम्बुचरोऽयमासीत् ।
इयं व्यवस्था ननु नाविवानीमहमासुलार्घ च विधिः किस्तषः ।।३८t इति विचिन्तयन्स चाहं च कर्यकथमपि जीवितमस्यणाय । पुनरहो एमधनंजय, तामेव समस्सा भूतजननीमुज्जयिनी निकषा तमतानिनजेणाजीबनोटजाकुले बम्लबवरोफरीरप्राएअपाक्षिप्तपर्यन्तस्थले काहिनामके प्रामधामके स जलव्यालो महत्पुरभसंदर्भ छगलो बभूव । अहं च तव छगलः । पुनरावयोतिक्रान्ते वर्करभाषवृत्तान्ते जातस्मरस्मयस्तामैवाहमजाममिक्रामग्नशिलोरणीभक्षुभितविनाविकटाधिपतिनाताक्ष को ) और उसे ( शिशुमार को) देखकर पितरों के सन्तर्पण के लिए ब्राह्मण-समूह की सदावतंशाला के रसोइए के लिए समर्पण कर दिया। उन ब्राह्मणों को सदावर्तशाला में ब्राह्मणमात्र का भोजन होने से मेरे शरीर का एक भाग प्रत्येक दिन काटा जा रहा था । और निम्नप्रकार विचार करके मैं (रोहिताक्ष मत्स्य। और बह शिशुमार दोनों महान् कष्टपूर्वक कालकवलित हुए 1 पूर्वजन्म में मैं इस यशोमति महाराज का पिता ( यशोपर) था और यह शिशुमार ( मकर ) पिता की माता थी। निश्चय में इस समय हम दोनों की ऐसी [ कष्टप्रद] व्यवस्था है। यह विधि ( कर्तव्यता ) ब्राह्मणों के भोजन से हमारे सन्तुष्ट कराने के निमित्त है। ॥ ३८॥
तदनन्तर महो धर्मधनञ्जय ( धनुर्विद्या में अर्जुन सरीखे अथवा धर्मरूपी धन से उत्कृष्ट अथवा धर्मरूपी धन का उपार्जन करनेवाले ) हे राजन् ! वह पूर्वोक्त चन्द्रमति का जीव शिशुमार ( मकार-विशेष ), अनेक शाश्चयों की उत्पत्ति भूमि उस उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती 'कङ्काहि नामवाले ग्रामस्थान में, जो कि ऊन का बिछौना या चादर एवं चर्ममयी पलान इन दोनों का उदरपुरण व्यवसाय करनेवालों के गृहों से च्याप्त है एवं जिसका समीपवर्ती स्थल, बबूल, बेरो, व करीर. इन वृक्षों की बहुलताबाले छोटे वृक्षों के अग्रभागों से वेष्ठित है, मेढों के झुण्ड के मध्य बड़ी बकरी हुआ। मैं ( यशोधर का जीच रोहिताक्षमच्छ) उसी कङ्काहि नामके ग्राम में मेड़ों के समूह के मध्य बकरा हुआ। जब हम दोनों { बकरी व बकरा ) का शैशवकाल का वृत्तान्त व्यतीत हुआ। अर्थात्-शिशुमार के जोव बकरी के उदर से उत्पन्न होकर जब मेरा शैशवकाल व्यतीत हुआ तन में, जिसको कामदेव का दर्प ( मद ) उत्पन्न हुआ है, अर्थात् जवान हुआ और जब उसी चन्द्रमति के जीव बकरी के साथ काम सेवन कर रहा था तब ऐसे मेढ़ों के समूह के स्वामी ने, जिसका चित्त, समस्त मेड़ों के क्षोभ से कुपित्त हुआ है, विशेष तीक्ष्ण सींगों से जिलके मर्म (जीव) स्थानों में निष्ठुर प्रहार किया गया है, ऐसा हुआ में वीर्यधातु के क्षरणानन्तर ही वैसे अपने को अपने द्वारा उत्पन्न करता हुआ जेसे श्री ब्रह्मा, अपने को अपने द्वारा उत्पन्न करता है। अर्थात्-मैं ( यशोवर का जीव बकरा ) दूसरी बार भी उसो पूर्वोक्त बकरी के गर्भ में बकरा रुप से स्थित हमा। तदनन्तर कुछ महीनों के व्यतीत हो जाने पर मैंने जन्माबसर प्राप्त किया।
___ इसी अवसर पर ( मेरी जन्म प्राप्ति के समय ) वह यशोमति कुमार निम्न प्रकार पड़े हुए नीतिशास्त्र का भी अनादर करके शिकार के लिए निकला। कैसा है वह यशोमति कुमार ? जिसके चित का विस्तार
१. जात्यलंकारः।
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पञ्चम आश्वासः तीवतीइणविषानिमितमममहारः सौम्यमासुमाप्तामन्तरमेघ प्रेतभावमनुसर स्वयंभूरिदात्मनात्मानभुत्पाचयामास । अभूवं पातिक्रान्तेयु कतिचितिपक्षेषु प्राप्तप्रसबावसरः । अत्रान्तरे स यशोमतिकुमारः पापद्धिप्रबुद्धभनस्कारस्तत्फलमिहद जन्मनि दर्शयन्निव विरितनिखिलराजलक्ष्मीचिह्नः कूटशाल्मलितासम्बनबन्धनरिव लताप्रतानढोग्रन्थिलमौलिनरकान्यकारकालकादमिकांशुकाधिकृतकायपरिकरः दवभ्राटदोप्रवेशदण्डकसकाण्डकोवण्डोनचण्डदोईण्डमण्डल: कीनाशपाशाकारागुरोर्तसितांसः प्रादुर्भवदुरन्तपातकपातपिशुनरिष श्वगणिभिः समावरितपुरःप्रचारः कृतान्तानीकभोकररनणुकोणोरकूणितपाणिभिः फिरातः परिवृतः पवातिरिव राफलसवसंघापसाधितमतिः
'स्तेन वितिषव्यालश्वापदप्रभवं भयम् । शर्मधर्मविरामश्च मृगयायां महीपतेः' ॥३९॥ इति नीतिममीतामध्यवमत्य मृगयार्थ निश्चत्राम । प्रविवेश = वनदेवताविनिवेदिततशगमनमिव प्रशान्तसमस्तसत्त्वसंचारं कान्तारम् । शिकार-क्रीड़ा में विशेष वृद्धिंगत हुआ है। जिसने राज्य लक्ष्मी के चिह्न (छत्र, चमर व ध्वजा-आदि) छोड़ दिये हैं, इससे ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जो इसी जन्म में लोगों को शिकार खेलने का फल प्रदर्शित कर रहा है। अर्थात्-शिकार खेलनेवाला मानव अगले जन्म में राज्य लक्ष्मो के चिह्नों ( छत्र आदि ) से च्युत होता है, इस घटना को इसी भव में लोगों को दिखाता हुवा ही मानों-वह राज्यलक्ष्मी के चिह्नों का त्यागनेवाला हुआ। जिसने अपना मस्तक, लताश्रेणियों से विशेष रूप से ऊपर बांधा है, जो ( लताएँ ) ऐसी मालूम पड़तो थों-मानों-कूटशाल्मलि तरु ( नरक में दण्ड देने का वृक्ष विशेष) पर लटकने वाले बन्धन ही हैं। जिसका शारीरिक बेष नरक के अन्धकार सरीखे काले ब कृष्ण वर्ण बाले वस्त्र से बंधा हुआ है। जिसका विशेष प्रचण्ड (बलिष्ठ या भयानक ) बाहरूपोदण्ड मण्डल नरकरूपी अटवी में प्रवेश करने के लिए क्षमार्ग सरीखे बाणसहित घनुष पर वर्तमान है। जिसके दोनों कन्ये यमराज के जाल सरीखी मृगवन्धनो से मुफुट-युक्त हैं । कुत्तों के स्वामियों ने जिसको अग्रसरता प्राप्त की है। जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-प्रकट होते हुए दुष्टस्वभाव. वाले पाप के आगमन के सूचक ही हैं। जो यमराज के सेन्य-सरीखे भयङ्कर व महान् दण्ड से संकुचित हस्तवाले किरातों ( म्लेच्छों) से वेष्टित है। पैदल चलनेवाले सैनिक सरीखे जिसने समस्त प्राणियों को कष्ट देने में या भय उत्पन्न करने में अपनी बुद्धि स्वीकार की है। किसप्रकार के नोतिशास्त्र का अनादर करने वह शिकारनिमित्त निकला? राजा को शिकार खेलने में चोरों, शत्रुओं, विष, सौ व सिंह-व्याघ्रादि हिंसक जन्तुओं से उत्पन्न होनेवाला भय होता है एवं शिकार खेलने से उनके सुख व धर्मका नाश होता है और 'च' शब्द से शीलभङ्ग व प्रजा को क्षति आदि दोष उत्पन्न होते हैं ।। ३९॥
तत्पश्चान्-बह ऐसे वन में प्रविष्ट हुआ, जहाँपर समस्त मृग-आदि जीवों का प्रवेश शान्त होगया है। अर्थात्-उसके आने पर समस्त मृग-आदि जीव भाग गए। अत: समस्त प्राणियों के प्रवेश से शून्य हुआ वह ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-जिसमें बनदेवताओं ने उसका आगमन कह दिया है। वहाँ पर उसे शिकार नहीं मिली; क्योंकि यमराज के पेशकारों ( जीवधारियों के पुण्य-पाप का लेखा-जोखा करने वालों) ने पृथिवीतल पर संचार करनेवाले ( मृगादि ), बिलों में बिहार करनेवाले ( सदि) व जल में विहार करनेवाले ( मछली-आदि ) एवं अन्तराल-( आकाश ) विहारी ( कबूतर-आदि ) जीवों को वर्तमान. काल में भी शस्त्रादि से नष्ट होनेवाली आयु से रहित कहा है। अतः वह कोध से रक्तमध्य भागवाले नेत्रों के प्रान्तभागों के विस्तारों से मानों-अपने क्रोधरूपी देवता की रुधिर-पूजा को वखेरसा हुआ-सा प्रतीत हो
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यशस्तिलकचम्पूकाच्ये
स्थल विषजलान्तराल विहारिणां प्राणिनामद्यापि चित्रगुप्तेनापरिमृष्टमानस्यादनासादितहिसः कोपारुणान्तरंरपानप्रसरः वामदेवतायाः शोणितोपहारभित्र विकिरस्तस्य गताविक कसनाथस्य यूथस्य मध्येन प्रध्यावतं मानस्तिर्यग्गतिमार्गोस्लेवेन कपोलस्थली चुम्बनोन्मुखनायोमुखेन मारव्यकृतयस्तवृन्दारकस्तं मदीयां मातरं च निविभे । तावता चापर्याप्तपरितोषः स्वयमेव तदुदरमवदारयत् । ववर्श व मामला लग्नकलिन मित्र विवर्तमानयपुषम् | आयुषः शेषराव विहितप्रमोतभावभवाप्तसग्नरतसूपशास्त्राषिगम्पाटबाय पौरोगवाय पोषणार्थमपयत् । तवहं गेह एव पोष्यमाणतनूनां छागलधेनूनां शून्यस्तनावले हलालोपरि रवतीगृहे अतिकराधिकविवेकेषु पाचकलोकेषु पिशिताको पदेशदानडुर्ललित हुदयामात्मकमवियातय संपन्नस्तिवित्रगात्री मनवरत पर देवयास्वादासीदम्भन्धमक्षिकाक्षेपक्षोभपात्रमतिप्रतिपूयपिहितनासिकस विधसंच रत्परिवारों स्वकीयेन दारिकाजनेन यं ल हले, पापकर्मा सकल राजायगारा अमृतमतिमहादेवी तं निखिलभुवनमामनीयमनङ्गावतारं यशोधरमहाराजं गलप्रयोगादृवृष्टान्तोर्लि विषाय तत्फलेन संवति संजाता सकलकुष्ठापिष्ठानम्' इति द्वन्द्वमितस्ततो मन्त्रयमाणेन राजपरिजनलज्जिकास माजेन च कृतधिकारपरम्परां कथमपि विदित्वा कथं नाम
भवे
रहा था। उसने बकरियों, मेढा-समूह व गारड़-समूह से सहित उक्त वकरा - समूह को मध्य में करके वापिस लौटते हुए ऐसे लोहे की नोक के तीर से, जो तिरछी गति के मार्ग का उल्लेख करनेवाला है एवं जिसका पुङ्ख (पत्रा) प्रशस्त पोस्थली के चुम्बन (मुख- स्पर्धा ) से सन्मुखोभूत है, बकरों में से मुख्य बकरे को वाण का निशाना बनाया। जिससे उसने मेरो माता बकरी को विदीर्ण कर दिया। उतने मात्र से उसे पर्याप्त सन्तोष नहीं हुआ, अतः परिपूर्ण संतोष प्राप्त करने के लिये उसने स्वयं बकरी का पेट फाड़ डाला, जिससे कम्पायमान शरीखाले एवं अङ्गारपुञ्ज के ऊपर धारण किये हुए मांस सरीखे मुझे ( यशोधर के जीव गर्भस्थित वकरे को देखा। फिर मेरो आयु शेष होने से उसने मुझे नहीं मारा और समस्त पाकशास्त्र की पटुता प्राप्त करनेवाले रसोइए के लिए प्रतिपालन- निमित्त दे दिया। तत्पश्चात् पुष्ट शरीरवाली बकरियों के दुग्ध शून्य थनों के आस्वादन करने से लार से शरीर को लिप्स करनेवाले मैंने किसी प्रकार से भी ऐसी अनन्तमती महादेवी को जाना, जिसका हृदय उसी रसोईघर में समस्त रसों ( मधुर व आम्ल आदि ) की प्रसाधन विधि के संबंध में विशेष निपुण रसोइयों के समूहों के मध्य मांस पकाने की शिक्षा देने में आसक है। अपने पापकर्म के उदय से उसो भव में जिसके शरीर में श्वेत कुष्ठ उत्पन्न हुआ है। जो निरन्तर विदारण किये जानेवाले शरीर की पौष-बरह के आस्वादन के लिए बैठती हुई ( आती हुई ) प्रचुर मक्खियों के फेंकने अथवा चूर्ण करने में उत्पन्न हुए क्षोभ ( शरोर मोड़ना ) की पात्री ( भाजन ) हैं एवं अत्यन्त दुर्गेन्व पीप के बहने से नाँक बन्द करनेवाला परिवार जिसके समीप प्रवेश कर रहा है तथा जिसकी निम्नप्रकार तिरस्कार-श्रेणी अमृतमति की दागी समूह से ब ऐसी राजपरिवार की दासी समूह से, जो कि यहाँ वहाँ स्त्री पुरुषों के जोड़े को बुला रही है एवं दूसरे लोगों द्वारा की गई है। 'हे सखी! यह अमृतमत्ति महादेवी विशेष पापिनो व समस्त दुराचारों की गृहप्राय है, क्योंकि इसने उस समस्त जगत् के पूज्य व कामस्वरूप यशोवर महाराज को विष प्रयोग से मार डाला, पाप के फल से यह समस्त अठारह प्रकार के कुष्ठ-समूह का गृह हुई ।'
प्रसङ्गानुवाद - तदनन्तर मैंने ( यशोधर के जीव बकरे ने ) निम्नप्रकार चितवन करते हुए राजमहल की उसी भोजनशाला में कुछ महीने व्यतीत किये। अमृतमति महादेवी का यह केशकलाप मकड़ियों के तन्तुसमूह - सरीखा विरूपका – कुछ शुभ्र क्यों हुआ ? मोर यह भोहों का जोड़ा शतखण्ड किये हुए शरीर वालं पिंजड़ा - सरीखा क्यों हो गया ? एवं उसके नेत्रयुगल दावानल अग्नि से दुग्ध हुई-सी कान्ति-होनता धारण करता हुआ दिखाई दे रहा है तथा इसका यह शरीर घुणों ( कीड़ों ) द्वारा किये हुए छिद्र-समूह से नीचे गिरते
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पञ्चमं आश्वासः
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अलिकुलमिदं लूतासन्तुप्रतानभिसरं मनप्तिमधनुनाले जीर्यसनुस्थितिपञ्जरम् ।
सुषलयवन दय निम्नाबाई घुणवरमरभ्रस्यरस्तम्भप्रभाषमभूतपुः ।।४।। अथवा न चतदाश्चर्यम् । यतः।
स्वामिदोडा त्रीवषो, शलहिंसा, विश्वस्तानां धातनं. लिङ्गभेवः ।
प्रायेणतत्पश्चर्फ पातकानां कुर्यास्सथः प्राणिनः प्राप्तःस्त्रान् ॥४१॥ इति विचिन्तयन् कतिचिधिशदावानतियाहयामास । इत्तश्च कलिङ्गाविषयेषु महसि महिषीसमुदने महो स्वकीयपशःकुसुमसौरभोन्मादितबुधमधुपसमाज महाराज,
रक्तप्रान्तविलोललोचनयुगः प्रोगप्रतिष्ठाननः प्रोस्कूणामविषाणभीषणयपु लाम्जनाविनभः ।
वस्कर्णः पृथकन्धरो गुरुलुरः स्यूलप्रिमोरयला सा मृत्वा कमनीयवासधिरभूमधागी पुनः कासरः ॥४२॥ पुनरसावशेषमहिषपरिपतिशापिशरीरसंनिवेशः सार्थपाभिवस्वीकारवशात्
मुनदुःखानुभवार्थ मिलकमंगलपहात्सुदूरोऽपि । जालावसम्मतिमिधज्जन्तुर्यमसमयमायाति ॥४३॥ यत्र मुखं घा नुः लिखितं निटिले यपास्य देवेन । तत्रापासि प्राणी पाशाकृष्टः पत त्रीव ॥४४॥
हुए स्तम्भ-( सम्भा) सरीखी शोभावाला क्यों हो गया? ।। ४० ॥ अथवा ऐसा होना उचित ही है, यह आश्चर्यजनक नहीं है। क्योंकि ये पांच महापाप प्रायः करके प्राणियों को तत्काल ( उसी जन्म में) दुःखों को प्राप्त करनेवाले कर देते हैं। राजहत्या, स्त्रीहत्या, बच्चों का वध, अभयदान दिये हुए का धात और जननेन्द्रिय का छेदन करना ।। ४१ ।। अथानन्तर अपने यशरूपी पुष्पों की सुगन्धि से चितरजनरूपी भ्रमर-समूह को हापित करनेवाले हे महाराजाधिराज ! इस प्रस्ताव में कलिङ्ग देशों ( दन्तपुर से व्याप्त कोटिशिला देशों) में महान् भैंसों की श्रेणी के मध्य में वह चन्द्र पति का जीव बकरी बाण से भेदी जाने से मरकर फिर ऐसा भैंसा हुई। जिसके दोनों नेत्र रक्त प्रान्त वाले व चञ्चल हैं। जिसका मुख नासिका के समीपवर्ती है। जिसका शरीर तीक्ष्ण अग्रभाग वाले सींगों से भयानक है। जिसको कान्ति नीलपर्वत व अस्ताचल पर्वत-सरीखी (कृष्ण) है। जो ऊँचे कानों वाला व विस्तीर्ण गर्दनशाली एवं महान् खुरों वाला है। जिसका त्रिक (पौंठ का नीचा प्रदेश-पीठ के नीचे जहां तीन हाड़ मिले हैं उस जोड़ का नाम ) और उरःस्थल (आगे का भाग--- यक्षःस्थल ) मांसल-विशेष पुष्ट है एवं जो मनोहर पूंछवाला है' ॥ ४२ ॥
फिर भी यह प्रस्तुत भै सा ( चन्द्रमति का जीव ), जिसको शरीर-रचना समस्त भैसानों के झुण्ड से विशेषता लिये हुए है, सौदागरों के स्वामी द्वारा खरीदने के अधीन होने से, ( किसी ने बंचा और सौदागरों के स्वामी से खरीदा जाने के कारण ) उसी उज्जयिनी नगरी में, जो कामिनियों के भोगरूपी हसों के अवतरण के लिए महासरोवर-सरीखी है, मानों-निम्नप्रकार के सुभाषित श्लोकों का सत्यार्थता में प्राप्त कराता हुआ ही प्राप्त हुआ । यह जीव विशेष दुरवर्ती होकर को भी अपने पुण्य-पाप कर्मों को गले में स्वीकार करने से अथवा अपने-अपने कर्मरूपी लोहे के कांटे को ग्रहण करने से, सुख-दुःख भोगने के निमित्त मृत्यु की अधीनता में वैसा आता है जैसे जाल में फंसी हुई मछली, मृत्यु की अधीनता में आती है ॥ ४३ ।। यह जीव जाल से खींचे हुए पक्षी-सरीखा उस स्थान पर आता है, जिस स्थान पर विधाता ने इस प्राणो के ललाट पर जिस प्रकार से १. जारयुपमा कारः। २. गल: लोहकष्टकः सं. टी. पृ० ३१७ से संकलित-सम्पादक ३. उपमालंकारः ।
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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये इति सत्या नयन्निव तो विलासिनीविलासहंसावतारसरसीमेकानसीमनुप्राप्य तस्यामेवोभयतीरावतीर्णतमालतरुपतितप्रसूनपरागएरवशवंगायामापगायां प्रतिपन्नपयोवगाहविटणः, अहिनकुलबजातिजनितामार्शेत्कर्षान्धान्तःकरणः, यशोमति महाराजयाजिसननितदौजन्यप्रकरणः, तन्नृपतिनिधिष्टनकटिकानोककरकोलितचतुमचरणः, प्रस्फोटनस्फारमावतस्फुरस्खदिराङ्गानिकरपूरितकरणः, समन्तावभीषयाशुशुक्षणिक्षसक्षिप्यमाणभारबारिवर्षणः, कर्णकटघोरारवरसनशल्पितपुरदेवताविषणः, यूषणकपायोल्मणालन्दकोदकावानविनिरुतनिखिलगोवरगणः, नरकःलवेवनावप्पसहयथावेगमातङ्कसङ्गमनुभम्मिरंमवदाहगृषिविटपः पादप इव कथाओषतामवाप, तथापि तया जागसमक्षणाक्षिप्तपित्तयामृतमतिमहादेव्या प्रत्यहं धगद्धगिसीधीधाममध्यभटित्रीकृतफवारणायचरमाधिकरणां दशामशिक्षियम् ।
पुमरहो धर्मधारय, अस्ति खल्विदेव रत्नाफरमेखसिन्यमरलोकोप्तामनस्तम्भेनेय मेरुणालंकृतनाभिमणाले जम्मूलक्ष्मणि द्वीपे विजयार्थो नाम पर्वतः । यः
गन्धर्वालपर्धानकनिनवनवस्कंदराभोगरभ्यः स्वर्गस्त्रीगीतकान्ताटनिरमरतहरलाध्यशालालिपस्सिः ।
गङ्गातुनोत्तरङ्गोचलवनणुकणासारहाराभिरामः प्रोत्तालानर्तनोतिनंट इव विजयावनी प्रश्वकास्ति ।।४५।। सुख-दुःख भोगना लिपि-बद्ध किया है। ॥ ४४ ।। तदनन्तर पूर्वक्ति चन्द्रमती के जीव भंसा ने जब उसी सिप्रा नदी में । जिसमें बह पूर्व में शिशुमार मकर हुबा था, जिसका वहाव दोनों तटों के नोचे की और स्थित हुए तमाखू के वृक्षों से गिरी हई गुष्य-पराग के पराधीन है. जल दिलंदन के लिए प्रवेश किया तय सर्प-नोले सरीखे जातिस्वभाव से उत्पन्न हुई क्रोध की तीव्रता से विवेक-शून्य मनवाले उस भंसे ने यशोमति महाराज के घोड़े का मृत्यु-प्रस्ताव भली प्रकार उत्पन्न विया (प्रस्तुत घोड़े का बध कर दिया )। जिससे यशोमति कहाराज द्वारा आज्ञापित किये हुए किंकर-समूह के हाथों में उस भैंसे के चारों पैर कोलित ( कोले य सांकलों द्वारा निश्चल ) किये गये। जिसके शारीरिक अवयव सूपों की प्रचुर वायुओं से प्रदीप्त किये जानेवाले खदिर वृक्षों के अङ्गार-समूहों से आच्छादित किये गए हैं। जिसके ऊपर सभी ओर से निरन्तर अग्नि के स्फुटित प्रहारों ( घावों ) पर नमक के जल की वृष्टि की जा रही है एवं जिसने कर्ण-कटु भयानक शब्दों के आरटन से पुर देवताओं की बुद्धि दुःखित की है तथा तृपा से सोंट, मिर्च व पीपल के चूर्ण के काढ़े से उत्कट हुए मृत्ति का कुण्ड में भरे हुए जल-ग्रहण से जिसके परिचम द्वार से समस्त मोवर श्रेणो निकली है, ऐसा वह भैंसा ऐसी दुःखसंगति को भोगता हुआ, जिसका दुःख-वेग नरक की दुःख वेदना से भो असह्य है। अतः वह ऐसे वृक्षा-सरीखा होकर, जिसकी शाखाओं का विस्तार वज्ञाग्नि की दाह से भस्म किया गया है, मृत्यु को प्राप्त हुआ।
हे राजन् ! उसो प्रकार मैंने ( यशोधर के जीव बकरे ने ), जिसका खुर-सहित एक पैर मांस-भक्षण में आसक चित्तवाली उस अमृत मति महादेवी द्वारा निरन्तर जाज्वल्यमान प्रदीप्त चुले के मध्य पकाया गया है ऐसा हो कर मरणावस्था प्राप्त की । फिर भी-भैसे व बकरे की पर्याय-कथन के वाद- धर्मप्रवर्तक मारिदत्त महाराज ! जामुन के वृक्ष से उपलक्षित एवं लवण समुद्ररूपी मेखलावाले इसी जम्बूद्वीप में, जिसका नाभिमण्डल ( मध्यवती विस्तृत प्रदेश ) स्वर्गलोक को थामने के लिये स्तम्भ-सरोखे सुमेरुपर्वत से सुशोभित है, ऐसा विजयाचं नाम का पर्वत है।
जो नट-सरीखा शोभायमान हो रहा है। जो ऐसे गुफाओं के परिपूर्ण विस्तारों से मनोश है, जो कि देवगायकों के महान् उत्सव-नगाड़ों की ध्वनियों से प्रतिध्वनि कर रहे हैं। जैसे जहां पर नट नृत्य करता
१. उपमालकारः ।
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पञ्चम आश्वासः
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कि । पाबान्तलक्ष्मीरपरः पयोषिः पूर्वोऽम्युधियस्य शिरस्यवनीः । शय्यापकाशा छ वसुंधरेयं नातामरस्त्रीजनसेवितस्य ॥४६॥ चल्लोलकल्लोलकरप्रचारात्पूर्वापर स्वप्नुमिव स्थितस्य । सीमन्तसंबाहनयोरिवाग्धो जातोद्यमी यस्य गिरेश्यकास्सः ॥४७॥ यत्राषिः पुष्कररिस्थतागे तरङ्गहस्ताहलकंदरास्यः । शत्राप्रवेतःपुरकामिनीनां नृत्ताय वृत्तः कुतपीष भाति ॥४८॥ सन्न विद्याधरसुन्दरोविलासमणिर्पणपछि चारणश्रमणचरणातिमेखले सततस्यन्दपुदिनवरीसरसमोरसीफराप्तारिणि सुरतभनिन्नखबरसहधरीसेव्यमानसंतानकम्मकाये मुरानोफहकुहरविहरमाणमधुकरीकुलकलहगलप्रमूनमकरन्दामोहिन्य. अंलिहशिखरोस्सङ्गसंगतगगनगणिकोपषीणनमनोहरे मयुमिथुनसंगीतकानन्दिनि निरकवेशमध्यास्य फिल घरमदेहलारी मगवानसरस्वतीसरिजलकेलिकुञ्जरो मन्मथमथनाभियानावसरस्चारणमहर्षिः है, वहाँपर नगाड़ी की ध्वनि होती है। जिसका कटिनीतट स्वर्ग-कामिनियों ( देवियों ) के गीतों से मनोहर है। जहाँपर नट नृत्य करता है, वहाँ पर स्त्रियाँ गाने गाती हैं । जिसको लतारूपी भुजाएं कल्पवृक्ष से प्रशंसनीय हैं। जैसे नट भी भुजाओं से नृत्य करता है। जो गङ्गा की ऊँची उत्कृष्ट तरङ्गों से आकाश में उछलते हुए स्थूल जलबिन्दुओं के समूहरूपी हार ( मोतियों की माला ) से मनोज्ञ है। जैसे नट भी हार से अलकृत होता है। एवं जिसको आगतं-( घुमाव ) नीति प्रात्ताल ( उत्सुक ) है। जेसे नट भी उत्ताल नृत्य-कारक होता है॥ ४५ ॥ विशेषता यह है—पश्चिम समुद्र ही जिसकी चरणक्ति की शोभा है। एवं पूर्वसमुद्र ही जिसके मस्तक का उच्छीर्ष ( तकिया ) है तथा यह पृथिवी ही जिसकी शय्या ( पलङ्ग) है। यहाँ पर शङ्का होती है कि जब पलङ्ग के ऊपर कामिनीजन देखा जाता है तो इसका स्त्रीजन कौन है ? उसका समाधान करते हैं; जो कि देवी की स्त्रीजनों । दवियों ) से भोगा गया है। 1॥ ४६॥ जिस विजया पर्वत के पूर्व व पश्चिम समुद्र चञ्चल व विशाल तरङ्गरूपी हस्तों के संचालन से ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-निद्रा लेने के व्यापार-युक्त हुए-सरीखे उस विजया के मस्तक-संमार्जन (प्रक्षालन ) व पादमदन करने में जिनको क्रमश: उद्यम उत्पन्न हुआ है, ऐसे सुशोभित हो रहे हैं 11 ४७ ॥ मृदङ्गमुख-सरीखे व्यापार-युक्त शरीरवाले जिस विजवाध पर्वत पर ऐसा समुद्र, जिसने तरङ्गोंरूपी हस्तों द्वारा गुप्श-मुख ताडित किये हैं, मृदङ्ग-बजानेवाले सरोखा' शोभायमान हो रहा है। यहाँ पर शङ्का होती है कि मृदङ्ग-आदि वादित्रों का वादन ( बजाना ।, नृत्य के लिए होता है, अतः यहाँ पर नृत्य क्या है ? इसलिए नृत्य-कारण से गर्भित हुए समुद्र-विशेषण का निरूपण करते हैंफैसा है समुद्र ? जो इन्द्र ( पूर्वदिग्पाल ) व वरुण ( पश्चिम दिग्पाल ) के दोनों नगरों की कामिनियों ( देवियों) के नृत्य के लिए प्रवृत्त हुआ है ॥ ४८ !!
ऐसे उस विजयाचं पर्बत पर, जिसमें विद्याधरों की कमनीय कामिनियों के नेत्र-विभ्रम के दर्शननिमित्त माणमय दर्पणसरीखे पाषाण-शिलातल वर्तमान हैं। जिसको मेखला ( पत्रंत का मध्यभाग) आकाशगामी मुनियों के चरणों से चिह्नित है । जहाँपर निरन्तर जल-स्रवण के कारण मेधों से आच्छादित हुई गुफाओं में संचार करनेवाली वायु से जल-कण-समूह वर्तमान हैं। जहाँ पर मेथुन-खेद से खिन्न हुई विद्याधरों को कामिनियों से कल्पवृक्षों की छाया का आश्रय किया जा रहा है । जहाँपर ऐसे पुष्पों के मकरन्द ( पुष्परस) को मुगन्धि विद्यमान है, जो कि फल्पवृक्षों के कुहरों (छिद्रों) में विहार करतो हुई मवेरियों के समूह के कलह के कारण नीचे गिर रहे हैं । जो विशेष ऊँचे शिखरों के उपरितन भागों पर एकत्रित हुई विद्याधरों की वेश्याओं
१. युग्म श्लेषोपमा।
२. रूपकहेत्वलकार !
३. यथासंस्पोत्प्रेक्षालंकारः । ४. रूपकोपमालंकारः ।
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प्रशस्तिलकचम्पूकाव्य मन्दस्पन्दीभति हषये नाचिन्ताविदूरव्यापारेऽस्मिन्करणनगरे पोगमग्ने घ मुसि ।
यत्रापत्ति न भजति कुलिका वचिणापि प्रयुक्तं पुष्पास्त्राणां कुसुमधनुषस्तत्र का माम वृत्तिः ।।४।। इति विचिन्त्य निष्पन्नयोगिलोकोदाहरणतपश्चर्यः सूर्यप्रतिमागतो बभूव । तस्यैवं स्मितस्य महरलोकाकाशवस्वभावादेव सकलरपि जन्तुभिरमुहलङ्घनीयमाहात्म्यस्य हिमवन्सीमकायागाजि कामना पुच्चलित: कन्वलविकासो नाम विद्याधरः कंदवर्पणायाः प्रियतमायाः तमक्ष मदनविनोदं नाम विमानं स्खलितगमनमवेक्ष्य जातवलक्ष्यमात्साघुसमाधिविध्वंसनषिया बहरूपिणी विद्यामनुष्याय विषाय छ हिण्डसंघट्टस्फुटब्रह्माष्टमरिष घोरघोषप्रचणः प्रलयकालप्रसूतिविवसैरिव जनितसमस्तसस्वसाध्वसः, क्षयक्षपान्धकाररिष भीषणाकारः, उरिक्षप्तकृतान्तवृष्टिपात रिवोकामालकरालद्योतः, यमायुषविहरिव मुशलप्रमाणवारिधारावर्षिभिः, स्फुदितामरलोकशैलधिणारंरिषापतस्यीय पाषाणैः, के बीणा-वादन के कारण मनोज्ञ है और जहाँपर किन्नरों के जोड़ो ( देव-देवियों ) के संगीत से हर्ष पाया जाता है, 'मन्मथमथन' नामकी योग्यतावाले, आकाशगामी, चरपदेहधारी मुनि, इन्द्रादि द्वारा आराधना के योग्य व सरस्वती ( द्वादशाङ्ग-वाणो) रूपो नदी के जल { शब्दलक्षण वाला जल ) की अनुभवन कोड़ा के गजेन्द्र हैं व जिसको तपश्चर्या, धगध्यान व शुक्लन्यान का पूर्ण अभ्यास किये हुए ध्यानियों के समूहों को उदाहरण ( दृष्टान्त-वचनरूप) है, निर्भय स्थान पर स्थित होकर निम्नप्रकार चिन्तवन करके कायात्सर्ग में स्थित हुए। [प्रस्तुत ऋषि का ध्यान-]
"जब मन किञ्चित् भी चलायमान नहीं होता । स्थिरीभूत-निश्चल हो जाता है । और जब इन्द्रिय लक्षणवाला नगर वाह्यस्पा से शून्य हो जाता है। अर्थात् जब इन्द्रियरूपी नगर शब्द, वर्ण, गन्ध, रस व स्पर्श इन पांचों इन्द्रिय-विषयों की अभिलापा से दूरवर्ती व्यापार वाला हो जाता है एवं जब आत्मा धमध्यान व शुक्लध्यान में मग्न हो जाती है, अर्थात्-एकलोलोभाव प्राप्त कर लेती है तब जिस कायोत्सर्ग में इन्द्रद्वारा प्रेरित किया हुआ वज गी प्रवृत्ति प्राप्त नहीं करता, उस कायोत्सर्ग में कामदेव के पुष्परूपी अस्त्रों की क्या प्रवृत्ति हो सकती है ? अपि तु महों हो सकतो' ।। ४९ ॥'
इस प्रकार कायोत्सर्ग में स्थित हुए और जिसकी महिमा अलोकाकाश-सरीखी स्वभाव से ही समस्त प्राणियों द्वारा उल्लङ्घन करने योग्य नहीं है ऐसे मन्मथमन्थन नाम के महर्षि के कपर कन्दल-विलास नाम के विद्याधर ने, जो हिमवन् पर्वत के ऊपर स्थित हुए बनों को देखने निमित्त विमान से आकाश में ऊपर प्रस्थान कर रहा था। जिसने 'कन्दर्पदपणा' नाम की अपनी प्रिया के समक्ष अपने मदनविनोद' नाम के विमान को रुका हुआ देखकर जिसे ऋषि के प्रति क्रोध उत्पन्न हुआ है, जिससे उसने प्रस्तुत 'मन्मथमथन' नामक मुनि के ध्यान में विघ्न करने की बुद्धि से वहुरूपिणी विद्या का चिन्तवन' करके निम्न प्रकार उपसर्ग किये । प्रसङ्गानुवाद- बाद में प्रस्तुत (मन्मथमथन) ऋषि की सेवार्थ आये हुए 'रत्नशिखण्ड' नामके विद्याघर-चक्रावर्ती ने उन कर्म करनेवाले इस विद्याधर को देखा और ऐसा करने से उसके प्रति विशेष क्रोष प्रकट किया। [प्रस्तुत पि के
पर उपसर्ग करने के लिए ] उसने पूर्व में ऐसे मेघों से आकाश को आच्छादित किया। जो (मेघ ) भयानक गरजने की ध्वनियों से विशेष शक्तिशाली हुए ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-जिनमें विजलीदण्डों के संघट्ट से त्रैलोक्य-खण्डों के सैकड़ों टुकड़े हो रहे हैं। समस्त प्राणियों को भयभीत करनेवालं जो ऐसे प्रतीत होते थेमानों-प्रलयकाल संबंधी उत्पत्ति-दिन ही हैं। जो भयानक मूर्तिवाले होने के कारण ऐसे मालूम पड़ते थे
१. भाक्षेपालंकारोऽसिशयालंकारश्च । मन्दाकान्ता अम्बः ।
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पञ्चम आश्वासः
१३१ असितशिलाषिष्ठामबन्धरिख ज्योतिर्वसतीनाम्, असमयतमिलासमागमरित्र भुवनवलपल्म, अकाण्डकपाटघटनैरिव बाकम्पामाम, समवसरसंहारवासररिव नेत्रवृत्तीनाम्, अफालकालायसोपहाररिव क्षितः, घनाघनरावसं गगनमाभरणभुनम माभोलतालराकम्पिताखिलभूगोलजलालच बुर्दशा किसः प्रप्ताध्य स्वयं च समाचरितमालङ्गवेषश्वकर्माचरन्नेनं पोगिनमुपासितुमागतेन रत्नशिखण्डिनाम्ना विद्याधरचक्रवर्तिना ध्यलोकि खुकुरी छ ।
___ पुनः 'अरे वाचाराधार पराकारात्मन् सलपुरोभागिन् विद्याधरापम खेचरखेट बिहायोगमवाप्य वियचर खेल हेठ मरकनिषास पापाचार बहपुमतिभूतचिस गुणमटह निहोन गन्धर्वलोकापसद मारिपुरुष सकलसत्त्वानम्धनीयतपत्ति त्रिभुवममान्ययशसि भगवति परं ब्रह्मासनमुपगतवति फिमेवमाचरितुमुचितम् । म चेह महामुनिसंनिधाने शास्त्राणामिवा
वाणो व्यापारस्पायसरः । तदन्यपापि ते व्यपमयामि समुन्न भावम्' इति वदुर्जनाविनयप्तमवती स नभश्चरचर वर्ती तस्य समस्ता अपि विधायरलोकलमीलाञ्छनाश्चिच्छेद विद्याः । शशाप च भविष्यस्यनेन दुश्चेष्टितेनास्तिषु राजधान्या मातङ्गसमवृत्तिाचण्डकर्ममामको वण्डपाशिकः' । स खेचरः स्वकृतानवशरसम्छापेन गोचरता प्रतिपय मानों-प्रलयकाल की रात्रि के अन्धकार ही हैं । उल्काजालों ( तारों के टूटने की श्रेणियां ) के मयानक प्रकाश वाले जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-ऊपर फेंके हुए यमराज के दृष्टिपात हो हैं। मूसलप्रमाण ( विशेष स्थूल) जलधारा की बुष्टि करने के स्वभाव वाले जो ऐसे प्रतीत हो रहे ५-मानों-जिनमें यमराज के दण्ड से छेद किया गया है । जिनसे विस्तीर्ण पाषाण गिर रहे हैं, अतः जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-विदीर्ण हुए स्वर्गपर्वतों के शिखर ही हैं। इसी प्रकार जो ऐसे प्रतीत हो रहे थे-मानों-चन्द्र, सूर्य, ग्रह व ताराग्रहों की कृष्णवर्ण वाली शिलाओं के अधिष्ठान-बध ( आवास स्थानसमूह ) ही हैं । अधवा मानों-पृथिवीमण्डल के अकाल काल रात्रिसंबंधी समागम ही हैं। अथवा मानों-जिन्होंने दक्षकन्याओं (तारकों) को असमय में किवाड़ों की रचना की है। अथवा मानों नेत्र व्यापारों के असमय संबंधी प्रलयकाल के दिन ही हैं और जो मानोंपृथिवी के असमय में होने वाले लोह के चूर्ण प्रकार हो हैं। इसी प्रकार उसने स्वयं चाण्डाल-वेष धारण करते हुए आभरण संबंधी सपो से भयानक वेतालों ( भूत विशेषों) से और समस्त पृथिवी-मण्डल को कम्पित करने वाली प्रचण्ड वायुओं से दिशाओं को दुष्ट अवस्था बाली की ।
अथानन्तर प्रसङ्गानुवाद-दुष्टों की उद्दण्डता को नष्ट करने के लिए यमराज-सरीखे उक्त रत्नशिखण्डी' नाम के विद्याधर-चक्रवर्ती ने प्रस्तत 'कन्दलविलास' नाम के विद्याधर के प्रति निम्न प्रकार कोप-यक्त बचन कहते हुए उसकी समस्त विद्याएं भी, जो कि विद्याधर-समूह की लक्ष्मी के चिह्न हैं, छेद दौं ( नष्ट कर दी)। उक्त विद्याधर चक्रवर्ती वो कोप-पूर्ण वचन-'अरे ! निन्द्य आचार वालं ! अरे बध स दुष्ट आत्मा वाले ! अरे दुष्टों में अग्रेसर व विद्याघरों में निकृष्ट! अरे विद्याधरों में कुत्सित अथवा विद्याधरों को विशेष भय उत्पन्न करने वाले व विद्याघरों द्वारा निंदनीय एवं विद्याधरों के मध्य में निंदनीय ! अरे वाघा उत्पन्न करने वाले व नरक में निवास करने वाले अथवा नरक ( गूथ–मल ) के निवास एवं पाप को ही आचार मानने वाले ! तथा प्रचुर मायाचार से परिपूर्ण चित्तवाले ! अरे गुणों से लघु, नोच और विद्याधर लोक में जाति से वहिष्कृत ! अरे मातृमैथुन ! तुझे ऐसे भगवान् ( गुणों से इन्द्रादि द्वारा पूज्य ) ऋषि के ऊपर, जिसकी तपश्चर्या समस्त प्राणियों को आनन्द देनेवाली है तथा जिसका पवित्र गुण कीर्तन त्रैलोक्य पूज्य है, एवं जो उत्कृष्ट धर्मध्यान में लीन है, क्या इस प्रकार का उपसर्ग करना उचित है ? इस महामुनि के समीप जैसे शास्त्रों की प्रवृत्ति का अवसर है वैसे शस्त्रों की प्रवृत्ति का अवसर नहीं है। अतः मैं शस्त्रों के बिना भी तेरा मद चूर-चूर करता हूँ।
अथानन्तर प्रस्तुत "रत्नशिखण्ड' नाम के विद्याधर चक्रवर्ती ने उक्त कन्दल विलास नामक विद्याधरों की केवल विद्याएँ ही नहीं छेदी अपितु उसने उसे निम्नप्रकार शाप भी दिया-'इस कुकृत्य से तू अवन्ति देश
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पशतिलकधम्पूकाव्ये मानस्तं भगवद्विप्नकासन चक्रवतिनमुपसृत्यावनतमुखाब्जः सन्धमाधीत्-'नाय, भवतु नामवम् । कथमन्यतालकोयं दृष्कर्म विफलोवयं स्यात् । स एष निसर्गजन्मभाव: सरसामिव स्वामिनाम्, यः खन युक्तायुक्तकारिषु सेवकेषु स्वच्छकलुषभावो नाम । तरक्षम्यतामिवमेकं स्खलितमपुण्यभाजोऽस्य जनस्य । अनुगृह्यता च शापावसानमनीषया पुनविद्यापरलोकावास्तिकरेग वरेण' इत्यभिषग्य तत्पादयोरुपरि निपपान । स महामुनिगुणपणनोशौर्णमोतिनों विद्यापरचक्रवर्सी ।
दण्ड एव हि नोचानां विनयाय न सस्क्रिया । ऋजुत्व जिह्मकाप्ठस्य नारस्ति परो विधिः ।।५०||
म तापपु 4 Risgadg मन लोकोऽयं गुणकार्यपरायणः ॥५१॥ इति परामृश्य, उपयुज्य प तस्य भगवतः पर्युपासन विशेषाल्लम्पमधिमुपजातानुक्रोषाः 'स्वर, मा साम्य । इत्तिष्ठ । की राजधानी सज्जयिनी नगरी में चाण्डाल-सरीखी जीविका वाला' व 'चण्डकर्मा' ऐसे कुत्सित नामवाला कोट्टपाल होगा।' अथानन्तर उस 'कन्दलबिलास' नाम के विद्याधर ने स्वयं किये हए अन से उक्त, रत्नपाखण्ड के शाप से भूमि-गोचरीपन स्वीकार किया और गुरु के उपसर्ग को छेदन करने वाले उस 'रत्नगिखण्ड' नामक विद्याधर चक्रवर्ती के समीप जाकर उसके चरणों में पड़कर नम्रीभूत मुख कमल वाला होकर उसने इस प्रकार कहा-'हे स्वामिन् ! ऐसा हो, अर्थात्-में कोट्टपाल होऊँगा । अन्यथा-पदि |मैं भूमिगोचरी नहीं होऊँगा तो मेरा यह पापकर्म विफलोदय (विषम फल के उदय वाला) कैसे होगा? हे स्वामिन् ! सरोवरसरीखे स्वामियों का वह जगप्रसिद्ध एवं प्रत्यक्षोभूत स्वाभाविक परिणाम होता है, निश्चय से जो (स्वाभाविक परिणाम), युक-अयुक्त करने वाले सेवकों के विषय में क्रमश. स्वच्छता व कलुषता उत्पन्न करता है । अर्थात्-जैसे नालाबों में स्नान करने वाले जब योग्य जल का उपयोग करते हैं तब तालाबों में स्वच्छता । निर्मलता होती है और जब अमुक्त (बहतर) स्नानादि करते हैं तब तालाबों में कलषता मलिनता) हो जाती है वैसे ही स्वामियों के सेवक जन युक्त ( उचित ) कर्तव्य में प्रवृत्त होते हैं तब स्वामियों में स्वच्छता { प्रसन्नता) उत्पन्न होती है और जब सेवक अधिकता से प्रवृत्ति करते हैं । अनुचित कार्यों में प्रवृत्ति करते हैं। तब स्वामियों में उनके प्रति कलुषता {सकोपता ) उत्पन्न होती है। उस कारण से इस मुझ पापी सेवक का एक अपराध क्षमा किया जाय और केवल मेरा अपराध क्षमा ही न किया जाय अपितु आप शाप को अन्त करनेवाली बुद्धि से फिर हो बिद्याघर-लोक की प्राप्ति करनेवाले वरदान से इस सेवक का अनुग्रह कीजिए।
इस प्रकार कह कर उसके चरणों में गिर गया। तत्पश्चात् उस विद्याधर-चक्रवर्ती । रत्नाणखण्ड) ने, जो कि दिगम्बर महामुनियों के गुण-वर्णन से उत्पन्न हुई कोति से नत्य करनेवाला है और जिसे प्रस्तुत विद्याधर के ऊपर दयालुता उत्पन्न हुई है, चित्त में निम्नप्रकार विचार किया-'जैसे देही लकड़ी को सरल करने में उसमें अग्नि लगाने को छोड़कर दूसरा कर्तव्य नहीं है वैसे ही निश्चय से नीच पुस्पों को शिक्षा देने के लिए (नम्र बनाने के लिए ) दण्डनीति ही उपाय है। न कि उनका सत्कार उनको नम्र बनाने में कारण है' ॥५० ।। राजा का अपराधियों पर जो क्रोध होता है और उसका अनुकूल प्रवृत्ति करवाले शिष्ट पुरुषों में प्रसाद (दानादि द्वारा सन्मान ) होता है, उस कोष व प्रसाद से यह लोक गुण व कर्तव्य पालन में तत्पर होता है॥५१॥
तत्पश्चात् उसने उस पूज्य मन्मथमधन नामक ऋषि की भक्ति विशेप से प्राप्त हए अवधिशान से जानकर कहा-हे विद्याधर ! खेद मत कर। उठो । देवताओं सरीखे राजाओं को आजा सेवकों के प्रति
१. दृष्टान्तालंकारः।
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पञ्चम आश्वासः
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म खल प्रभूणां देशनामिय तोषरोषयोः रोधकेषु शुभमशुभं या फलमसंपाच तदेव प्रत्यावर्तले शासनम् । तदाकर्णणन्यदेव तव तल्लोकावाप्तेः कारणम् ।
तपाहि-अस्ति खल सकलसांसारिकालोपफरणरत्नाकराबनिसगेषु कलिङ्गेषु द्विरदमदामोवमन्दकन्दरोदरपरिसरस्पषनपानपरमधुकरावलानीलमणिमेखलाडिएसनितम्बवसुंधरस्य महेन्द्रमहोघरस्याधिपतिः संजासमेविनारतिचित्तोऽपि द्विजातिस्तूयमानवृत्त अकारणरोषप्रमत्तोऽपि निःशेषशिष्टाचारप्रवृत्तः सुबत्तो नाम राना।
यस्य विभवामिद्धिस्सकलोकसंतपंणाय, विद्याधर, विमानोपचरणाय, शौर्यपर्यायः धारणागतरक्षणाय, राज्यावर्जनपरिणतः प्रजापरित्राणाय, प्रभुत्वावलम्बनं समाश्रितभरणाय, क्षात्रचरित्रवृष्टिः परार्थकरपाय, देवताप्रसावन सत्पुरुषपरवितरणाय, साहसोसालानुष्ठान महामुनिप्रत्यूहनिम्हणाय, वीरविक्रमः सापकसा वसापहरणाय, सात्विकत्यमादिअत्रियपतषमनिर्वहणाय।
संतुष्ट होने पर शुभफल व रुष्ट होने पर अभ फल उत्पन्न किये बिना, तत्काल में ही शाप देने के अवसर में ही नहीं लोटती। अर्थात्-जैसे देवता भक्तों पर सन्तुष्ट हुए शुभ फल देते हैं व रुष्ट हुए अशुभ फल देते हैं वैसे ही राजा लोग भी सेवकों पर सन्तुष्ट हुए शुभ फल व रुष्ट हुए अशुभ फल देते हैं। अतः जो मैं रुष्ट हमा तुझे पाप दे चुका है उसके अनुसार तुझे अशुभ फल अवश्य भोगना पड़ेगा। अतः तू मुन, पुनः विद्याधर-लोक को प्राप्ति का सारा दूसरा ही तुझे माता, समी बात का निरूपण करता है
समस्त सांसारिक सुखों को आधार-भत रत्न-खानियों की भूमि के संगम वाले कलिज देशों में 'महेन्द्र' नाम के पर्वस का, स्वामो ऐसा सुदत्त नाम का राजा है। जिसकी नितम्बभूमि ऐसी भ्रमर श्रेणीरूपी नीलमणिमयी मेखला । कटिनी) से चिलित है, जो कि हस्तियों के मद ( दानजल ) को सुगन्वि से आ हाई गुफाओं के मध्य भागों पर चारों ओर संचार करती हुई वायु के आस्वाद में लम्पट है। जो संजातमेदिनीरति वित्त ( मलेच्छ स्त्रियों के साथ भोगविलास के मनवाला) हो करके भी द्विजातिस्तूयमान वृत्त ( ब्राह्मणों से स्तुत्य आजार वाला) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो म्लेच्छ-भार्याओं में अनुरक्तचित्त होगा, वह ब्राह्मणों से स्तुत्य आचार वाला कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि 'जो मेदिनीरतिचित्त ( आसमुद्रान्त पृथिवी के पालने के मनवाला ) है और अपि ( निश्चय से ) जो द्विजातियों ( तपस्वी ब्राह्मणों से प्रशंसनीय चरित्रवाला ) है और जो अकारणरोपप्रमत्त ( निष्कारण कोध करनेवाला ) होकर के भी निःशेषशिष्टाचार प्रवृत्त ( समस्त मिष्टाचारों में प्रवृत्त) है यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो निष्कारण क्रोध करनेवाला होगा, वह समस्त शिष्टाचारों में प्रवृत्त हुआ कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो अक-आ-रणरोपप्र-गत्त है। अति-जो अकुत्सित व चारों ओर से किये हुए संग्राम-कोप के कारण प्रकर्षरूप से हर्ष को प्राप्त हुआ है, जिससे जो समस्त शिष्टाचारों में प्रवृत्त है !'
जिस सुदत्त राजा को धनवृद्धि याचकजनों को भली प्रकार संतुष्ट करने के लिए है। जिसकी शास्त्रचतुरता विद्वज्जनों की पूजा-निमित्त है। जिसकी शूरता का अनुक्रम शरणागतों के प्रतिपालन-निमित्त है। जिसका राज्य का उपार्जन स्वीकार प्रजालोक की रक्षा के लिए है। जिसके सामर्थ्य ( शक्ति ) का आश्रयण सेवक लोगों के पोषण के लिए है। जिसका क्षतत्राण लक्षण-वाला क्षात्र ( क्षत्रियधर्म ) एवं उसके आचार की प्रवृत्ति दूसरों के प्रयोजनों के पोषण के लिए है। जिसका देवी का प्रसन्न करना सत्पुरुषों के लिए वर ( अभि
१. विरोधाभासालंकारः।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये यस्य च जनन्यः परकलत्राण्येव, बन्धुषर्गः समाणितलोक एव, कुटुम्बकं सप्तसमुदावधि अनुभव, जोषितं साल. प्रतिपालनमेव, महाव्यसनं परोपकारनिघ्नतंब, यताधरणं क्षितिरक्षणमेव, योग्योद्योगः प्रभाकार्यामुशासनमेव, दक्षिणादसावं जगाचवहारज्यवस्थापनमेय; अवभूषस्नान परह च हितवृत्तिप्रवृत्तिषु स्वातन्त्र्यमेध, वीरत्वमरिषवर्गविजय एव, असि. धारानतमन्यायखण्डनमेष, ऐश्वयंमाशानुल्लङ्घनमेव । पस्य वासंतोषः श्रुतेषु, तर्पः सापुरुषसंग्रहेषु, मूकमावः स्वकीयगुणस्तयनेषु, बधिरत्वं बुर्जनोपदेशेषु, वर्शनपरावृत्ति रनर्थसंगमेषु, कामः पुण्यार्जनेषु. अामा परोपतापेषु, विद्वेषो व्यसनेषु, असंतृप्तिः सुभाषितमवणेषु, आसक्तिः पुनः भगोष्ठीषु ।
यस्य च परिमितत्वं वाघि, कालहरणं कालासु. आशादर्शनं विग्विजययात्रायाम, अषणगतत्वं पूर्वपुरुषचरितेष, अवधारणमात्मसुखानाम्, अनवसरः कलिकालविलम्भितस्थ, महासास्विकं सकलजगदम्युचरणेष, ऐश्वर्य विश्वम्भरतायाम, * पुनरमीषा पन्नानि तस्य यदान्यातायां प्रत्युपकृतिषु माग्यजनसंभावनायां स्वच्छन्दवृत्तिषु च विषयभाषमाणग्मुः । लषित वस्तु ) देने के निमित्त है। जिसका अद्भुत कम संबंधी उद्यम विधान मुनियों के उपसर्ग-निवारणार्थ है। जिसका जयकुमार-आदि वीरों सरीखा पराक्रम साधकों (विद्या देवता को वश करनेवाले महात्माओं के भय को नष्ट करने के लिए है और जिसका प्रसाद ( प्रसन्नता ) भगवान ऋषभदेव से धारण किये हुए धर्म के निर्वानिमित्त है। दूसरों की स्त्रिया ही जिसकी माताएं हैं। सेवकगण हो जिसका भ्रातृवर्ग है । सातसमुन पर्यन्त पृथिवी पर स्थित हुआ लोक हो जिसका परिवार वर्ग है । सत्यधर्म का प्रतिपालन ही जिसका जीवन है। परोपकार करने की अधीनता हो जिसका महाव्यसन है | पृथिवी का परिपालन हो जिसका व्रताचरण है। प्रजाजनों के कर्तव्य की शिक्षा देना ही जिसका उचित उद्यम है। पृथिवी महल पर स्थित हुए तीन लोक की सदाचार प्रवृत्ति को निश्चल करना ही जिसका दानचातुर्य है । परलोक व इस लोक में सुख उत्पन्न करनेवाले पुण्य कर्मों को प्रवृत्तियों में स्वाधीनता ही जिसका प्रशान्त स्नान है। अरिषड्वर्गों ( काम, क्रोधादि छह शत्रु-समूहों पर विजयश्री प्राप्त करना ही जिसकी वीरता है। अन्याय का खण्डन करना हो जिसका असिधाराव्रत ( तलवार को बार सरीखा कठोर नियम ) है एवं आदेश का प्रतिपालन ही जिसका ऐश्वर्य है।
जिसे तृष्णा शास्त्रों के अभ्यास में है व लोभ महापुरुषों के स्वीकार में है। और जो अपने गुणों की प्रशांसा करने में मौन रखता है। जो चुगलखोरों के वचनों के श्रवण करने में बहिरा है। अलाभ-संगतियों में जो नेत्र बन्द करता है। जो पुण्य-संचयों में अभिलाषा करता है। जिसका क्रोष परोपतापों के अवसर पर होता है। अर्थात्-दूसरों से सन्ताप दिये जानेपर जो क्षमा नहीं करता है। जिसे अप्नोति जुआ खेलना-आदि सातव्यसनों में है एवं असन्तोष सुभाषितों के श्रवण में है तथा आसक्ति विद्वानों की मोष्ठी में है। जो वचन में परिमित ( अल्पभाषी ) है किन्तु दान करने में परिमित ( थोड़ा देनेवाला ) नहीं है । जो समय-यापन लेखन व पठनआदि कलाओं में करता है परन्तु दान करने में समय-यापन ( विलम्ब ) नहीं करता, अर्थात तत्काल देता है। जिसका आशादर्शन ( दिशाओं का देखना ) दिग्विजय के लिए प्रस्थान करने में है परन्तु दान में जो आशादर्शन (याचकों की आकान्सा का यापन) नहीं करता, (तत्काल देता है) । जो पुराणपुरुषों की कथाओं के श्रवण में श्रुतिदान (च्यान पूर्वक सुनना ) करता है परन्तु प्रजाजनों की प्रार्थनाओं में श्रुतिदान-श्रवण-खण्डन (नहीं सुनना) नहीं करता। अर्थात् उनकी प्रार्थनाएं अवश्य सुनता है। जो अपने सुखों का अनादर करता है परन्तु याचकों का अवधारण---अनादर नहीं करता। जिसको दुष्ट कलिकाल के प्रसार का अनवसर (अप्रस्ताव है, परन्तु जिसे याचकजनों के लिए अनवसर नहीं है। अर्थात्-जिसे दान करने का सदा अवसर है। जो समस्त लोक की रक्षा करने में प्रसन्न है एवं जिसका ऐश्वर्य सकल लोक के भरण-पोषण में है। इनके
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पंञ्चम अाश्वास:
यस्य चरत्मसंधानविनीतवृत्तयः परविग्रहप्रवामनकुशलाः स्वभावगुणप्रणयिनः परिप्राप्तधवणा वाणा एवासाम्यसापनोस्सवाः सचिवाः, परे । फेवलं सभाशोभायमस्वाषराण्यलंकरणानि । स्वपरप्रजानां संपस्यापसिकरमसहाय साहसमेव पुरोहितः, परस्तु पर्वविवसेषु यसुवितरणस्थानम् । अशेषशाश्वलस्यानहेतुरप्याजवयं पौर्यमेव सेनापतिः, परस्तु भत्यभरणीपसमयसूचनं चेतनभुपकरणम् । अखिलसमुशवषिवसुधालले दुर्वारप्रसरपर्यमैश्वर्यमेष द्विपदण्डपरः प्रतीहारः, परस्तु सेवकानामुपासनावसरनिवेवनस्तीर्थपुराषः । समराङ्गणेषु परहदयंगमप्रवणानि शास्त्रसंप्रेषणान्येक दूतमणिपः, परे तु राजनीतिमपन्थाः । त्रिवारप्यप्रतिहताटोपाः प्रतापा एव दुर्गमूममः, परास्तु विभवधिनियोगद्वाराणि । बेधसाप्प
जोड़े अर्थात-परिमितत्व (थोड़ा दान करना) व कालहरण ( दान में बिलम्ब करना ) यह पहला जोड़ा । आशादर्शन । याचकों की आकांक्षा का भङ्ग करना ) श्रवणगतल ( प्रार्थनाओं का न सुनना ) यह दूसरा जोड़ा। अवधीरण (याचकों का तिरस्कार) व अनवसर (मौका न होना) वह तीसरा जोड़ा और महासात्विकत्व ( प्रसन्न रहना) व ऐश्वर्य यह चौथा जोड़ा । उक्त चारों जोड़े क्रमशः जिसकी प्रेमपूर्वक त्यागशीलता में और प्रत्युपकारों के करने में एवं पूज्य पुरुषों के सत्कार करने में तथा स्वेच्छाचारों ( अनैतिक प्रवृत्तियों) में विषय भाव को प्राप्त नहीं हुए । अर्थात्-जिसकी प्रेमपूर्वक की हुई दानशीलता में थोड़ा दान करना व विलम्ब से दान करना नहीं है। जो प्रत्युपकारों के करने में याचकों की आकाङ्कामों का भङ्ग न करता हुआ तत्काल दान देता है तथा उनकी प्रार्थनाओं को सुनता है। गवं जो पज्य पुरुषों में शन्कार करने के अवसर पर उनका तिरस्कार नहीं करता एवं अवसर नहीं चूकता । अर्थात् आज मेरा कुटुम्बीजन भर गया है। अतः अभी दान देने का अवसर नहीं है इत्यादि नहीं करता। जो अपनी प्रसन्नता व ऐश्वर्य का उपयोग स्वेच्छाचारों में नहीं करता।'
जिसके ऐसे वाण ही मन्त्री हैं, जो कि अपने सन्धान ( योजन ) में नम्रवृत्ति-युक्त हैं और मंत्री भी सन्धि कार्य करते हैं। जो, शत्रुओं के युद्ध को शान्त करने में दक्ष हैं और मन्त्री भी युद्ध को यान्त करते हैं। जो स्वभावगुणप्रणयी (प्रकृति से धनुष को डोरी पर स्थायी ) हैं और मन्त्री भी स्वभावगुणप्रणयी (बन्धि व विग्रह-मादि में स्नेह करनेवाले ) होते हैं तथा जो परिप्राप्तश्रवण ( आकर्षण-वेला में खींचनेवाले के श्रवण (कान) प्राप्त करनेवाले हैं और मन्त्री भी परिप्राप्त श्रवण गुलमन्त्र के कथन के लिए कानों के समीप जानेवाले) हात है एवं जो असाध्य साधनोत्सव (शत्रु को मृत्यु-भाषण में उद्यम करने वाले हैं और मन्त्री भी असाध्य कार्य को सिद्ध करते हैं दसरे मंत्री तो केवल राजसभा की शोभा के लिए जङ्गम आभरण मात्र हैं अपनी प्रजाओं में लक्ष्मी उत्पन्न करने वाला और शत्रुओं की प्रजाओं में आपत्ति उत्पन्न करने वाला अद्वित्तीय साहस (अद्भत कर्म हो जिसका पुरोहित ( राजगुम् ) है दूसरा पुरोहित तो अमावस्या-आदि पर्वदिनों में धन वेने का स्थानमात्र है। समस्त शमु समूह को शक्ति को नष्ट करने में कारणीभूत व स्वभाव से मुख्य जिसकी वीरता हो सेनापति है, दूसरा सेनापति तो संघकों के भरणपोषण संबंधी समग्न का कथन करने वाला सजीव उपकरण है । चार समुद्रों की मर्यादावाले पृथिवीमण्डल पर दुःख से भी निवारण करने के लिए अशक्य प्रवृत्ति वाला जिसका ऐश्वर्य ( प्रभुत्व ) ही शत्रुओं के कार दण्ड-निपातन करने वाला प्रतीहार (द्वारपाल) है, दूसरा द्वारपाल तो सेवकों को सेवा का अवसर निवेदन करनेवाला यात्राभूत पुरुषमात्र है । मुबाङ्गणों पर शत्रुओं के हुँदय विदीर्ण करने में चतुर जिसके शस्त्र-मोचन ही दूत ( राजा का संदेश व शासन ( लेख ) को ले जानेवाले ) व प्रणिधि ( गुप्तचर ) हैं, दूसरे दूत व गुप्तचर तो अर्थशास्त्र के विस्तारमात्र हैं। देवों द्वारा भी नष्ट करने के लिए अशक्य विस्तारदाले जिसके प्रताप ही दुर्गभूमियाँ ( जलदुर्ग, वनदुर्ग व पात्रुदुर्ग-भूमियो )
१. पथासंस्थालंकार: 1
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यशस्तिलकच काव्ये
सुलि बाहुबलविजृम्भितमेव अप्रः परस्तु विनोदर वनिता मपाश्रयभूमिः । वनमृगं रप्यनुस्ल सुनोयप्रभावाशेव प्राकारः परस्तु मुरस्य पांशुपाविनिवारणपरिच्छदः । सकलसपत्नव्याप्तिदर्थं न समर्थ नावतारः सव्येतरः कर एवं परिमा, परंतु बोबारि काणां विश्रामविष्टराणि । दुर्वृत्तारातिकुल निमज्जनजलाधारा खड्गधारव परिखा, परास्तु नगराङ्गानां जलकोजाधिकरणानि । समस्तक्षितिरक्षणक्षमः पराक्रम एव परिवार: परस्तु श्रीविलासाम्बरः । निजकीर्तिसुधा वर्षालितापघनं त्रिभुवनमेव विहारहम्र्म्याणि, पराणि तु राज्यलक्ष्मी चिह्नानि चतुदधिमेखला वनमनोहरा वसुंधरेव प्रियकलत्राणि, पराणि तु वंशाभिवृद्धिनिबन्धनानि धर्मक्षेत्राणि ।
यस्य चावाङ्गरङ्गेष्वनचरतमुक्तशरसारयर्थ विकले रिस मुखमण्डलाना महितकन्यानां नर्तक्रियासु परमेकान्तरसिकता, न पुनरितरास्यंदूषण परासु । असमसमावसरेष्वाश्चर्यशौयं परितोषितानाममरवृन्दारकाणामानन्वरतोद्यबादनेषु प्रकर्षणाता, न पुनतिरेषु शरीरायासकरेषु । त्रिविष्टपकुटीकोट रविहारिणा नरनिलिम्पाम्बरपरलॉकेन जिविजयनामामुभगस्य गीतस्य गायते नितरां स्पृहयालुता न पुनरितरस्य हृदयहरिणहरस्य । कदनवन -
हैं। दूसरी जलदुर्गादि भूमियाँ तो केवल लक्ष्मियों के विशेष रूप से अधिकार द्वार हैं। जिसकी भुजाओं का सामर्थ्यं प्रसार ही, जिसकी तुलना श्रीब्रह्मा के साथ भी नहीं की जा सकती, वन ( दुर्ग की आधारभूत भित्ति ) है और दूसरा व तो क्रीड़ागजों का आश्रयस्थान मात्र है । जंगली मृगों द्वारा भी उल्लंघन करने के अयोग्य माहात्म्य वाली जिसको आज्ञा हो प्राकार (कोट) है, दूसरा दुर्ग तो नगर संबंधी धूलियों के स्पर्श-निवारण के लिये उपकरणमात्र है । जिसका दक्षिण इस्त ही विना जन्तुओं के विस्तार को नष्ट करने के निश्चय वाला है, अगला ( बेड़ा ) है और इसके सिवाय दूसरी अगंलाएं तो द्वारपालों के खेद को दूर करने के आसनमात्र है । दुराचारी शत्रु-वंशों के डूबने में जल की आधारभूत जिसकी खड्गधारा ही परिखा ( खाई ) है दूसरी परिखाएँ तो केवल नागरिक कार्मिनियों की जलकीड़ा के स्थानमात्र हैं। जिसका समस्त पृथिवी के परिपालन करने में समर्थ पराक्रम ही परिवार ( कुटुम्ब ) है और दूसरा परिवार तो लक्ष्मी के बिलास का विस्तारमात्र है । अपनी कीर्तिरूणी सुवा से उज्वलोकृत शरीरवाला तीन लोक ही जिसका क्रीडागृह है । और दूसरे क्रीडागृह तो राज्यलक्ष्मी के चिह्नमात्र हैं । जिसकी चार समुद्ररूपो मेखला ( करधोनी ) वाली ब वनों मनोज्ञ ऐसी पृथिवी ही प्यारी स्त्रियाँ हैं और दूसरी प्यारी स्त्रियों तो वंश ( कुल व पक्षान्तर में बांस ) की चारों ओर से बुद्धि में कारणीभूत धर्मक्षेत्र ( दान आदि पुण्य कर्मों का स्थान ) हैं, अर्थात् — जैसे वंश - बसों की वृद्धि होती है !
खेलों में
जो सुदत्त महाराज शत्रु कबन्धों ( शिर-रहित शरीर घड़ों ) को, जिनके मुखमण्डल संग्रामाज्जगरूपी नाटधशालाओं में निरन्तर फेंके हुए बाणों की मूसलधार वेगशाली दृष्टि से विशेषरूप से खण्डित किये गये हैं, नृत्यचेष्टाओं में ही केवल विशेषरूप से रसिक ( अनुरक्त हृदय ) हैं और दूसरी कामिनियों की नृत्यक्रियाओं में, जो कि धन संबंधी दोष ( विनाश ) उत्पन्न करने में तत्पर हैं, रसिक — आसक्त नहीं हैं । जो विपम संग्राम कालों में आश्चर्यजनक वीरता से आनन्दित किये गए देवों के मध्य प्रधान देवों के मानन्दजनक वाजों की ध्वनि के सुनने में विशेषरूप से तृष्णालु है किन्तु शरीर को कष्ट करनेवाले दूसरे तत्त बितरा, धन व सुपिररूप वाजों के वादन में तृष्णाशील नहीं है। जो सुदत्त महाराज तीन लोकरूपी गृह के मध्य विहार करनेवाले भूमिगोचरी मानव, देवता व विद्याधरों के समूह से अपनी विजयश्री के कारण जीते हुए राजाओं के नामाङ्कन से प्रीति
२. निजकीति सुघाषवलितं त्रिभुवनमेव' इति ( क ) पाठः ।
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पञ्चम आश्वासः
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वैरिफरिशिरोविकारणेषु महतो मृगयाव्यसनपरवशता, न पुनरितरेषु निरपराधेषु वनमृगेषु । नपयशाजिराष्टापवभूमिकायां चरगापगतिबन्धररातिचतुरङ्गेषु प्रफामं घूसदुलखितप्ता, न पुनरितरेषु नरपासकुलफलधरेषु । सकलरत्नाकर. मणि मेखलायां वसुमतीयोषायां रिटान्स सक्तप्ता, न पुनरिण मानविध्वंसने मिग्लासिनीजनेषु । अनन्यसामान्यअन्योपागितभयानिलविम्भितेन सुभटकुटमायोचिलाउन पहनावलपानलन दुर्धर्षाणां रिद्विषामशेषयन.पानेश्वतीवशण्डता, न पुनरिसरेवेहिकामुत्रिकफलविलोपनो मेष्वासर्वेषु । अकाउजगदुपद्रवदानवेषु मानवे वण्डपाये वाद मनोमनीषितानि, म पुनर्मूलतोल्लासक्शावर्तनेषु परिजनेषु । रणकेलिकण्ट्रलानामरीणामायोधनवसुभापामभिमुखीभावकरणेषु वच.कर्कशयनहारे परमं नपुग्यम्, न पुनरवलोकनमात्रविनयपरिष्वजासु प्रजामु। आखण्ड ब्रह्माण्डम्बहमरफरालः प्रसिपमध्याल: संचितस्य होतिकुलपनस्यापहारे गा पृष्लुता, न पुनरात्माम्युक्यप्रणमिभिकपालिस्य प्रविणोजितस्य, संपरायवरावारिषु शवशल्लकीनगभङ्गप्रसोभनेन गजग्रहणेषु महान्ति कुतहलानि, न पुनरितरेण चौरपारपाशादिनोपाययतिकरण । आसंसारमवमश्वयंमुरभिधु यशश्चन्दनवन्धनेषु साभिलाषं मनः, न पुनरितरेषु क्षणमात्रपरिमसमनोहरानुधन्येष गन्धेष ।
जनक हुए गीत के माने में विशेष उत्कष्ठित है, न कि मनरूप मग के मोहक दूसरे शृङ्गार-आदि गीतों के गाने में उत्कष्ठित है। जो सुदत्त महाराज युद्ध भूमियों में दुग्न से भी जीतने के लिए अशक्य शत्रु संबंधी हाथियों के गण्डस्थली के छेदने में विशेषरूप से शिकार व्यसन के पराधीन है किन्तु दूसरे निरपराधी जंगली मगों की शिकार करने रूपी ब्यसन के पराधीन नहीं है। जो सुदत्त महाराज घुम्नाङ्गणरूपी ( शतरज खेलने की भूमि ) पर चरगम ( गुप्तचरों का भेजना ), व गतिबन्धों ( शत्रु-शिविर के चारों ओर घेरा छालना) से शत्रुओं की नतुरङ्ग सेनाओं ( हाथी व घोड़े-आदि ) के विषय में विशेषरूप से चूत-दुर्ललित (विजयश्री प्राप्त करने की इच्छा के कारण विचार-हीन ) है परन्तु राजवंश को फलडित करनेवाले दूसरे चतुरङ्गों ( शतरञ्ज व पासों मी क्रीड़ाओं) में चर (दूसरे स्थानों में घोड़े आदि का प्रवेश) व गम (दूसरे स्थान में घुसना एवं गतिबन्ध । दूसरे शतरज संबंधी घोड़े आदि को चारों ओर से घेरना) से विशेषरूप में धुतदुललित ( जुआ खेलने का अनिवारल) नहीं है ( जुआ खेलने का त्यागी) है। जो सुदत्त महाराज चार समुद्ररूपी मणिमेखला-शालिनी पृथिवी रूपी स्त्री में विशेषरूप से आसक्त हैं परन्तु दूसरी बेन्याओं में, जो कि शरीर धर्म व धन को नष्ट करनेवालो हैं, आसक्त नहीं हैं।
जो सुदत्त महाराज ऐसी गवरूपी अग्नि से भयङ्कर शत्रुओं के, जो कि अनौखें संग्नाम में स्वीकार की हुई बिजयरूगो बायु से वृद्धिंगत हुई है और जो वीर योद्धारूपी कुटजों ( शक्रतरओं) के बन को भस्म करने में दक्ष है, समस्त यशों के पान करने में हो मद्यपो (नशेवाज) हैं परन्तु इसलोक व परलोक संबंधी सुख को नष्ट करने में गर्विष्ठ दूसरे भधों--शरावों-से मद्यपी नहीं हैं। जिस भूदत्त महाराज के सहमा जगत के ऊपर उपद्रव करने म दंत्यप्राय मनुष्यों के लिए कठोर दण्ट देने के चित्त-मनोरय विशेषरूप से है, परन्तु भ्रकुटिलता के क्षेपमात्र से अपने अधीन हुए सेवकों के लिए कठोर दण्ड देने के चित्त-मनोरथ नहीं है। जो संग्राम-क्रीड़ा में विशेष उत्कण्ठित हुए शत्रुओं के प्रति संग्राम के लिए मुद्धभूमि पर आने के अवसरों पर आंत कठोर भाषण करने में विशेष निपुण है परन्तु सामने देखने मात्र से विनययुक्त हुई प्रजाओं के प्रति अति कठोर भापण करने के व्यवहार में निपुण नहीं है। जिसे समस्त पृथ्वीमण्डल का विनाश करने से उत्पन्न हुए गय से भयङ्कर शत्रुरूपी कालसों से रक्षा किये हुए कीर्तिरूपी कुलधन के अपहार की विशेष लुब्धता है, परन्तु अपनी उन्नति में स्नेह करनेवाले हितषियों से संचय किये हुए प्रशस्त धन का अपहरण करने में लुब्धता नहीं है । युद्धभूमि, हाथियों के पकड़ने की भूमि व हाथियों के पकहने को खाई, इनमें शत्रुरूप शल्लको वृक्षों के भङ्ग का लोभ दिखाकर, जिस सुदत्त महाराज
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यशास्तलकचम्पूकाव्ये अपरमनासाधारणेष गुणमणिविभूषणेषु महानाग्रहः, न पुरितरेषु देहलेदावहेपलशमलनिकहेषु । निखिलजगामगलविधानाऽमनेषु' सञ्चरित्रेवभोवणं रक्षणप्रयत्नः, न पुनः जनसागारमानारगे' को
यस्य च सप्तसमुद्रमेस्सलायनिविलोमनातकोतुकल्याभूषभिमुखीभाषः शश्रूणां प्राभूतेषु, न शस्त्राणाम् । विग्रहः। प्रतिषु, नापकारमनीषायाम् । द्विषाभावः सेवाफपटेष, नोपचारकार्याणाम् । पसनं भृत्यभावेष, न चामराणाम् । प्रसारणं सवल्यार्पणेगू, नातपत्त्राणाम् । प्रबन्धः कण्ठकुठारेषु, न भवविम्भितानाम् । 'प्रतापावलम्पनमसहायसाहसावेशविधिषु, नैश्वयंसंभावनायाम् । आरोपर्ण शिरसि प्रणामाजलिघु. न धनुषि मोागाम् ।
के हाथियों के पकड़ने के महान कौतूहल हैं, परन्तु चौर, गुप्तचर, पाश-समूह हैं आदि में जिसके ऐसे दुसरे उपाय प्रघट्टक द्वारा जिसे हाथियों के पकड़ने से महाच कौतुहल नहीं है ।
जिस सुदत्त महाराज का चित्त संसार पर्यन्त स्थिरतारूपी सुगन्धिवाले यशरूपी चन्दन के विलेपनों में अभिलाषा-युक्त है किन्तु विनश्वर सुगन्धि से गनोज्ञ संबंधचाले दूसरे सुगन्धि पदार्थों ( चन्दनादि ) में अभिलाषा-युक्त नहीं है। दूसरे मनुष्यों में न पाये जानेवाले ज्ञानादि गुणरूपी मणियों के आभूषणों में जिसे प्रगाढ अनुराग है किन्तु शरीर में खेद-जनक दूसरे पापाण-खण्डों ( रत्नादि ) के समूहों में प्रगाढ अनुराग नहीं है। समस्त लोक को आनन्दित करने के पात्र सदाचारों की निरन्तर रक्षा के लिए जिसकी चेष्टा है किन्तु समस्त प्राणियों में साधारण रूप से पाये जानेवाले प्राणों की रक्षार्थ जिसकी निरन्तर चेष्टा नहीं है । सातसमुद्र रूपी करधोनी वाली पृथिवी को देखने के उत्पन्न हए कूतहलवाले जिस सुदत्त महाराज को शत्रुभूत रामाओं के उपहारों के ग्रहण करने में सन्मुखता थी, न कि शस्त्रों के ग्रहण करने में । जो नमस्कारों के करने में विग्रह ( अभिमुखीभूत ) था, परन्तु अपकार करने को बुद्धि का विग्रह (विस्तार ) नहीं करता था। जो सेवा करने में कुटिल शत्रुओं के साथ विवाभाव ( शत्रुता ) करता था, परन्तु उपचार ( प्रजापालन-आदि व्यवहार ) कार्यों में द्विषाभाव (चितवृत्ति के दो खण्ड करना-अस्थिरता) नहीं करता था अथवा उपचार (सेवनीय) शरणागतों का द्विधाभाव' (बिनाश ) नहीं करता था। जिसके यहाँपर भृत्यभावों (मृत्यरूपी पदाथों-सेवकों ) में पतन (नम्रता) था परन्तु चमरों का पतन ( विनाश ) नहीं होता था । अर्थात्-निरन्तर चंदर ढोरे जाते थे। जिसका प्रसारण ( विस्तार गुण ) समस्त धनादि के अर्पण में था परन्तु जिसके छत्रों का प्रसारण (निर्गमनहटना नहीं था अर्थात्-सदा छत्रधारी था। जो अभिमानी पात्रुओं के मलों पर [उनका मद चूर-चूर करने के लिए ] कुछार का प्रबन्ध (प्रकृष्ट बन्धन) करता था परन्तु अहङ्कार के विस्तारों का प्रबन्ध (संबंध नहीं करता
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१. निखिल जगन्मङ्गलविधायिषु' इलि ह. लि. (क) प्रती पाठः । २. अमत्राणि माजनानि इति पत्रिकाकारः। ३. 'सर्वजनसाधारणेषु' इति ह. लि. ( क ) प्रती पाठः । ४. विग्रहोऽभिमनीमतः "विग्रहो युधि विस्तारे प्रविमागशरीरयोः । ५. शत्रणामिति भावः पक्षे हिस्टेडकरण । ६. सेवायां कुटिले । उपचारस्तु लञ्चायां व्यवहारोपयर्ययो । ५. प्रकृष्टबन्धनं दावणी मानत्यजने गले ठारस्य नाहकारस्म बंधनं । ८, बसमर्थानां साहाय्यकरणे। २. परिसंस्थालंकारः । अस्य लक्षणं तु एकत्र निषिध्यान्यत्र वस्तुस्थापन परिसंख्या ।
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पञ्चम आश्वासः
कटिघटाकरादोपविलुण्ठित समस्त
यस्य च निप्रतापसंपादितोत्सव भरायां विश्वंभरायामनन्यसामान्यमात्मंश्वयं मवलोकमानस्य रथचमूचचर्याभूणितनिःशेषशैलमूलेषु हयानीको कखरपुरोद्भूतधूलीपटलपूरितसकलपातालमूलेषु महाट योगनैषु सुभटसैन्य पोण्डवलितनिखिलस ालयलनेषु द्विषद्विषयेषु परं कात्यायनी प्रतिमास्वेव दुर्गःथमवतस्थे । एवं तस्याधिपतेः सप्तषापयोराशिरत्मालंकारपात्रं कुलकलत्रमिवावनिलयं निहालयतः १ यभावादेव यक्ष्यस्य धर्मामृतरसा स्थावदो हदविदूरितसंसारसुखोदयस्य 'समलकलश इवायं कायो बहिष्कृतयत्ननिणजनोऽपि न महाति निजां प्रकृतिम् अत्याधानकाष्ठमिव देहिनां भवदुः खपरपाताय विषयोपसेवन माधुर्यमिति विदन्तोऽपि कथमनया बहिः प्रवशितापातसुन्वराडम्बरवासानविरसया पांसुलयेव थिया प्रतार्यन्ते मुग्धबुद्धयः क्षोणीश्वरा ' इति परामर्शलयसाम्राज्यग्रहाभिनिवेशस्य प्रतिपुष्पमिव केवलं त्वथि मनोहरं कणिनीजनम् वितयतः 'फो नु खलु विश्वंभरे था। जो असमर्थों की साहसादेशविधि ( सहायता करने) में प्रताप ( सैनिक व कोशशक्ति) का अवलम्बन ( आश्रय-सहारा ) करता था, परन्तु अपने ऐश्वर्य ( राज्य विभूति ) की संभावना ( प्रसिद्धि ) में प्रताप ( प्रकृष्ट सन्ताप का प्रकाशन ) नहीं करता था । अर्थात् — किसी को सन्तापित नहीं करता था । जो मस्तक पर नमस्कार अञ्जलियों की आरोपण ( धारण ) करता था परन्तु धनुष पर डोरियों का बारोपण - स्थापन ( चढ़ाना ) नहीं करता था। जिस सुदत्त महाराज के, जो कि अपने प्रताप से प्राप्त किये हुए उत्सवों की अधिकता वाली पृथिवी पर अपनी अनोखी राज्यविभूति को देख रहा था, ऐसे शत्रुदेशों में, केवल कात्यायनी ( पार्वती - दुर्गा ) की मूर्तियों में ही दुर्ग ( दुर्गापन-पार्वतीपन ) स्थित था, परन्तु शत्रुदेशों में दुर्ग ( किले } नहीं थे ।
जिनमें ( शत्रुदेशों में ) रथ- सेना के पहियों के संचार से समस्त पर्वतों के मूल (नीचे के भाग ) चूरचूर किये गए हैं। जिनमें घोड़ों की सेनाओं को अत्यन्त तीक्षण टापों से उड़ी हुई धूलो समूह द्वारा समस्त पातालमूल ( अधोलोक के नीचे भाग ) पूरित ( व्याप्त ) किये गए हैं। जिनमें हाथियों के समूह की सूंडों के विस्तार से समस्त विशाल अटवियों के वृक्ष समूह उखाड़े गए हैं और जिनमें बीर सैनिकों के भुजारूपी दण्डों से समस्त प्राकारों ( कोटों) के घुमाव तोड़े गए है । प्रसङ्गानुवाद - अथानन्तर 'रत्नशिखण्ड' ने कहा है नवीन अपराधों के पात्र 'कन्दलविलास' विद्याधर । एक समय राजदरबार में स्थित हुए उस ऐसे कलिङ्ग देशाविपत्ति मुदत्त महाराज के समक्ष, जो सात समुद्ररूपी रत्नमयी करधोनी के पात्र पृथिवीमण्डल का वैसा प्रतिपालन कर रहा था जैसे रत्नाभरण - विभूषित कुलवधू प्रतिपालन की जाती है | स्वाभाविक दया से सरस हृदयवाले जिसने धर्मरूपी अमृत के रसास्वादन की उत्कट अभिलापा के कारण सांसारिक सुखों का उदय दूर कर दिया है। जिसका साम्राज्यरूपी ग्रहाभिनिवेश ( भूतपिशाच को लोनता ) निम्न प्रकार के उत्कृष्ट विचार से शिथिल हो गया है। 'यह शरीर सूथ (मल) से भरे हुए घटसरीखा है, जो कि बाह्य स्नानादि प्रयत्नों द्वारा प्रक्षालन किया हुआ भी अपना स्वभाव ( अपवित्रता ) नहीं छोड़ता । विषयों के भोग की मधुरता प्राणियों के ऊपर वैसी सांसारिक दुःखरूपी परशु के पादन ( गिराने ) के निमित्त है जैसे अधस्तनकाष्ठ ( लकड़ी के ऊपर रखी हुई लकड़ी ) परशु के पातन के निमित्त होता है। इस प्रकार जानते हुए भी मूढबुद्धिवाले राजा लोग व्यभिचारिणी स्त्री- सरीखी इस राज्यलक्ष्मी द्वारा, जिसने अनुभव काल में बाह्य मनोश आडम्बर प्रकट किये हैं और जो परिणाम ( उत्तरकाल ) में विरस ( दुःख देनेवाली ) है, किस प्रकार ठगाए जाते हैं ?
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इसी प्रकार जो 'स्त्रीजन को सड़े हुए कूष्माण्डफल-सरीखा केवल त्वचा से मनोज्ञ प्रतीत होनेवाला' विचार रहा है एवं निम्न प्रकार के निर्दोष उपदेश से जिसका मोहरूपी जाल छिन्न भिन्न किया जा रहा है'समस्त विश्व का भरण-पोषण करनेवाले राजाओं में निश्चय से कौन ऐसा राजा है ? जो यमराज के नगर में
९. निलति विंडति ? मध्यादयः कर्षकाः खेटयन्ति तान् राजा प्रयुङ्क्ते — 'प्रतिपालयतः' इत्यर्थः ।
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या स्तिलक चम्पूकाव्ये
प्रवरेषु विशांपतियों न विवेश कीनाशनगरम् मं चेयं निसर्गचपला न तत्याज लक्ष्मीः, येन समं जगामेयं भूमिः स्न
ह् प्रयत्नपरिपालितोऽपि स्लोकः यस्मादवरु न जन्मजरामरणवर्गेण, यस्य न वमूत्रुराधिराक्षस्यः, यस्मिन्न लेभिरे गोचरतां संसारारणिसमुत्यानोल्लोलाः प्रायेण दुःखानसम्बालाः' इत्यनादीनखोपदेशविशीर्यमाणमोहपाशस्य विततमप्यात्ममो fare परलोकावलोकन प्रतिसर मिवाकलपतः 'हो सरसापराधगोचरखेचर, एकवा प्रणामोन्मुख सेवंवानसीमुखमण्डनघनघुण रसलोहित करे विकच निचुसमज रोजालशेष रितशिरीषक सिन्दूरपरागपि 'रितसुरवारण कुम्भस्थाले हरिरोहिणीषणितगगनग मनाङ्गनाकपोलशालिनि प्रवालाङ्करोत् करनि कोर्णविषचक्र वाले रविकान्तगिलासंचारित नर्षात नि तमिरजस्वलता पुरस्तावसरम्तोषु नक्षत्र पङ्क्तिषु रक्ताम्यरशोभामिव बिनाणे अनवरतनचरसहचरीकविकीर्यमाण रक्तचन्दनब्रच द्विगुणशोणिनि सति सवितृबिम्बे नृपतिमनोदाहरण कयास्विव विशालतां गतासु विक्षु, निर्मुक्तनो निचोलेटिव
प्रविष्ट नहीं हुआ ? कौन ऐसा नरेश है ? जिसे इस स्वभावचञ्चला लक्ष्मी ने नहीं छोड़ा ? कौन ऐसा पृथिवीपति है ? जिसके साथ इस पृथिवी ने प्रस्थान किया ? कौन ऐसा राजा है ? जिससे प्रयत्नपूर्वक भरण पोषण किये हुए भी स्त्री समूह ने द्रोह नहीं किया ? कौन ऐसा नरेश्वर है ? जिससे जन्म, वृद्धावस्था व मरण लक्षणवाला दुःख समूह उत्तीर्ण हो गया ( दूर हो गया ) ? कौन ऐसा भूमिपति है ? जिसको मानसिक व्यथाएँ रूपी राक्षसियां उत्पन्न नहीं हुई ? कौन ऐसा भूपति है ? जिसके ऊपर प्राय: करके दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाओं ने, जो कि संसाररूपी अरणि ( दशमी काष्ठ ) से उत्पति के कारण विशेष लपटोंवाली है, अधिकार नहीं जमाया ? जो अपनी विस्तृत राज्य सम्पत्ति को भी परलोक (स्वर्गादि ) दर्शन के लिए यवनिका ( नाटक का परदा ) सरीखी निश्चय कर रहा है, कोट्टपाल ने प्रविष्ट होकर एक चोर को, जिसने नगर के नाई के प्राण लेकर उसका समस्त धन अपहरण किया था, लाकर दिखाया ।
किस बेला में कोट्टपाल ने चोर दिखाया ? एक समय जब प्रभात - वेला में सूर्यविम्ब निन्नप्रकार का हो रहा था। जिराकी किरण नमस्कार करने में उद्यत हुई देव-तापसियों ( अहम्थती आदि) के मुखों को ( अलङ्कृत - सुशोभित करनेवाले घने कुङ्कुमरस-सरीखीं लालिमायुक्त है। जिसने पर्वत संबंधी शिखर के विस्तृत पाषाण विकसित कदम्बमञ्जरी के रक्त पुष्प-समूह-सरीले मुकुट-युक्त किये हैं । जिसने ऐरावत हाथी के गण्डस्थल सिन्दूर के चूर्ण सरीखे पिञ्जरित ( पोतरक्त ) किये है | जो हरिरोहिण ( लालचन्दन ) से लाल किये हुए विद्यारियों के गालोंसरीखा शोभायमान हो रहा है। जिसने दिशासमूह, प्रवाल को अङ्कर श्रेणियों से प्राप्त किये हैं। जिसके द्वारा सूर्यकान्तमगियों को शिलाओं पर अग्नि-ति (बत्ती) संचारित की गई है। जब नक्षत्र- श्रेणियाँ जिनमें अलङ्कार से स्त्रियों का आरोप किया गया है । अन्धकार से रजस्वला ( अन्धकाररूपी धूलि-युक्त व पक्षान्तर में पुष्पवती ) होने से सामने से भाग रही थी -- अस्त हो रहीं थीं तब जो (सूर्यविम्ब) उनकी रक्ताम्बर (लाल आकाश व पक्षान्तर में लाल साड़ी) सरीखी कान्ति धारण कर रहा है। जिसकी लालिमा निरन्तर विद्यावरियों के हस्तों द्वारा फेंके हुए तरल रक्तचन्दन से दुगुनी हो गई है। इसी प्रकार जब दिशाएं वैसी विशालता ( मृग, पक्षी, या वृक्ष विशेषों से युक्तता ) को प्राप्त हो रहीं थीं जैसे राजाओं की यशोगान कथाएँ विशाल (विस्तृत या प्रसिद्ध ) होती है । जब प्रकट आकारवाले महलों के शिखर ऐसे मालूम पड़ते थे, मानों - उनका अन्धकाररूपी अंगरखा हट गया है ।
१. पिअरस्तु पीतवनेश्वभिद्यपि पिञ्जरं शातकुम्भे ।'
२. 'हरिरोहण' इति ह. लि. ( क ) प्रती पाठ 'हरिचन्दनं' |
३. वर्गात्रानुलेपित्यां दशायां दीपकस्य च । अपि मेंषज निर्माणनयनाञ्जनलेखयोः ॥ १ ॥
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पञ्चम आश्वासः
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प्रकटाकृतिषु प्रासादशिखरेषु, क्षितौद्रयरेष्विव राजहंसोपसेव्यमान कोशेषु पौष्करेयकानतेषु प्रफुल्लकमलकानन मधुपानयत
मन्द मन्दसंचारिणि प्रचाति भातिके मवति, प्रत्यावृत्तेषु च वत्तदक्षिणेषु द्विजेष्विव राजकुलानां सेवावसरेषु कृतास्थानस्य प्रविश्य तलवरः परिभूषितनगरना पितप्राणद्रविण सर्वस्त्र मेकमेकागारिक मानो यावर्शयत् । स राजा तमवलोक्य धर्मस्यानां मुखानि व्यलोकिष्ट । धर्मस्थीयाः- वेव, अनेन मलिनात्मना मलिम्लुचेना वितीयं साहसमनुष्ठितमेकं तावदात्रिपिताम्यच सुसुप्त मनुष्यहिंसा कृता । तवस्य पाटच्चरस्य चक्रीववारोहणोच्छिष्टशालाजि राजिबन्धविम्वमपूर्वक चित्र वम्रः कर्तव्यो मषार्य व नक्षत्रवाणिज्यो दशभिविभिर्या दिवसेर सुविसृजति' ।
राणा स्वगतम् 'अहो कष्टं खलु प्राणिनां सत्यगोत्रेश्यमाविर्भावः यतो यदि न्यायनिष्ठुरतया श्रोणीधराः क्षितिरक्षा वक्षन्ते तवावश्यं पापोपनिपातः परलोक तिसंपातश्च । तदुक्तम्— 'नरकान्तं राज्यं बन्धनान्तो नियोगः' इति ।
अन वान्ते वर्णाश्रमध्यवस्थाविलोपः कापुरुषोल्लापश्च ।
तथाहि ।
श्रीघेतायं क्षणाल्लोकः अतरक्षः क्षितीश्वरः । लक्ष्मीक्षपः क्षये तस्य कि राजस्वं च जायते ॥ ५२॥
जब कमल वन वैसे हंस पक्षियों द्वारा सेवन किये जा रहे कोश ( मध्य भाग ) वाले थे जैसे राजा लोग राजहंसों ( सामन्त राजाबों) द्वारा सेवन किये जा रहे कोश ( धन-संपत्ति या राजखजाना | वाले होते हैं और जब प्रातः कालीन वायु मन्द मन्द संचार कर रही थी, इससे ऐसी प्रतीत होती थी- मानों-प्रफुल्लित कमळबनों का मधुपान (पुष्परस या मद्यपान ) करने से मत- उन्मत्त हुई है। अब सामन्त राज-समूह की सेवाओं के अवसर वैसे प्रत्यावृत्त ( व्यतीत ) हो रहे थे जैसे जिन्हें दक्षिणा (दान) दी गई है. ऐसे ब्राह्मण [ सन्तुष्ट हुए ] प्रत्यावृत्त ( वापिस जाने वाले ) होते हैं । तदनन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने उस चोर को देखकर [ समुचित न्याय करने के हेतु ] धर्मस्थयों' ( अपराधानुकूल दंडव्यवस्था करनेवाले धर्माधिकारियों) के मुखों की बार दृष्टिपात किया ! तब धर्माधिकारियों ने कहा- हे राजन् ! इस पापी चोर ने अनोखा या बेजोड़ साहस ( लूटमार, हत्या व बलात्कार आदि कुकृत्य ) किया है। क्योंकि एक तो इसने रात्रि भर चोरी की और दूसरे सोये हुए मनुष्य की हत्या कर डालो ! अतः इस पाटच्चरर (चोर) का गधे पर चढ़ाना व जूँ सकोरों को श्रेणी बांधने की विडम्बना (दुःख) पूर्वक ऐसा चित्र वध करना चाहिए, जिससे यह, दश या बारह दिनों में प्राण त्याग
कर देवे ।
अन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार करते हुए निश्चय किया । 'आश्चर्य है निस्सन्देह प्राणियों को क्षत्रियवंशों में यह उत्पत्ति कष्टप्रद है' क्योंकि यदि राजालांग न्याय की उग्रता से पृथिवी की रक्षार्थ हिंसा करते हैं तो निश्चय से उन्हें गाप का आगमन व परलोक (स्वर्गादि) की हानि का प्रसङ्ग होता है। क्योंकि नीतिकारों ने कहा है--' राज्य अन्त में नरक का कष्ट देता है और राज्याधिकार अन्त में बन्धन का कष्ट देता है । और यदि राजा लोग न्याय की उग्रता से पृथिवी की रक्षायं हिंसा नहीं करते ( अन्यायियों को दण्डित नहीं करते तो वर्णों ( ब्राह्मण आदि ) व माश्रमों ( ब्रह्मचारी आदि ) की मर्यादा ( सदाचार ) नष्ट होती हैं। एवं उनके ऊपर कायरता का आक्षेप होता है। उक्त बात को कहते हैं - यह लोक ( पृथ्वीमण्डल ) राजाओं द्वारा की हुई रक्षा से रहित होने से क्षण भर में नष्ट हो जाता है और लोक के नष्ट हो जाने पर सम्पत्ति नष्ट हो जाती है और सम्पत्ति नष्ट हो जाने पर राजापन कैसे रह सकता है ? ॥ ५२ ॥
१. तदुक्तं सर्ववर्णाश्रमाचार विचारोचितचेतसः ।
दण्वाचो यथा दोघं धर्मस्थोयाः प्रकीर्तिताः ॥ १ ।।
२. एका गरि मलिम्लुच पाटयचर-नक्षत्राणिजकाः चौरपर्यायाः
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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये तसाव्यव्याधिपरिगृहीतदेहबदस्य राज्यस्य परित्याग एव स्वास्थ्य नान्धया' इत्यवार्य ।
एषोऽहं मम कर्म शर्म हरते तद्बन्धनान्याबस्ते क्रोधाविवशाः प्रमावनिताः क्रोषादयस्त्ववतात् ।
मिथ्यात्वोपचित्ताततोऽस्मि सततं सम्यक्त्ववागतंयमी इसाक्षीणकषाययोगतपसां कर्तेसि मुक्तो यतिः ॥५३|| इति न सुभाषितमात्पनिले निधाय, पतेषु कतिपयेषु गणराप्रेष्यनुजस्य राज्यधियं समर्प, प्रसिपन्न जिनशचितावरण चतुर्थ माधमशिधियत् ।
अस्तीवानी तस्यामेवैकानस्यामममिथुनमान्यमानर्माणमयकटं सहस्रकूट नाम निजहिमायोरिनामरावतीवसतिसतिः, या नयनोतिरिव नवभूमिका, योगस्थितिरिव विहितवृषभेश्वरावतारा, सांख्यजनतेय कपिलतालयशालिनी,
अतः इस राज्य का त्याग ही वैसा श्रेयस्कर है जैसे असाध्य व्याधियों से चारों ओर से ग्रहण किये गये पारीर का त्याग श्रेयस्कर होता है । अन्यथा ( यदि राज्यथी का त्याग नहीं किया जाता ) तो यथार्थ सुख प्राप्त नहीं हो सका ।
तदनन्तर प्रस्तुत सुदत्त महाराज ने अपने मन में निम्न प्रकार का सुशापित श्लोक धारण किया । कर्म ( ज्ञानावरण-आदि ) मेरा आत्मिक सुख नष्ट करते हैं और कर्मबन्धन आत्रवों ( कषायादि कर्मों के आगमन द्वारों ) के कारण होते हैं। एवं आसव, क्रोध, मान, माया व लोमरूप कषायों के अधीन हैं, और क्रोधादि कपाय, प्रमादों से उत्पन्न होते हैं तथा प्रमादों द्वारा उत्पन्न हुए क्रोधादि, मिथ्यात्व से वृद्धिमत हुए अव्रत ( हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह ) से होते हैं। इसलिए प्रत्यक्ष प्रतीत हुआ मैं [ उन कर्मबन्धनों के नष्ट करने के लिये ) सम्यग्दृष्टि, संयमी, प्रमादरहित, कषायों का क्षय करनेवाला, धर्मध्यान व तपश्चर्या करनेवाला एवं मोक्षमार्गी ऐसा दिगम्बर तपस्वी होता हूँ ॥५३॥
तत्पश्चात् उसने कुछ रात्रि-समूह के व्यतीत हो जाने पर अपने छोटे भाई के लिए राज्यलक्ष्मी समर्पण करके दिगम्बर मुद्रा के योग्य आचरण स्वीकार करते हुए मुनि-आश्रम में प्रवेश किया। [ हे 'कन्दल. विलास' नाम के विद्याधर !]
___ उसी उज्जयिनी नगरी में देव-देवियों द्वारा पूजने योग्य मणियों के शिखरों वाली और अपनी महिमा से अमरावती (स्वगपुरी ) के प्रासादों को तिरस्कृत करनेवालो सहस्रकूट नाम की वसति (प्रासाद या जिनमन्दिर ) है । जो वेसी नवभूमिका या पाठान्तर में नवभूकः' (नवीन भूमि बालो ) है जैसे नयों को नीति नवभूमिका' या नवभूका ( नौ भेद वाली) होती है। जो वेसों विहित वृषभेश्वरावतारा' (वृषभ जिन के अवतरण वालो ) है जैसे योगस्थिति ( नैयापिक व वैशेषिक के दर्शन ) विहित वृषभेश्वरावतारा (कोभु के अवतार वालो ) होती है। जो वैसी कपि-मतालय-शालिनो' ( वन्दरों व लतागृहों से सुशोभित ) है, जैसे १. 'नवभूका' इति ह. लि. सदि. ( ख ) प्रती पाठः । २. नयनीतिनवविधा-नगमस्त्रिविधी द्रव्यपर्यायोभय भेदेन, संग्रव्यवहारादयश्च षड्भेदाः ।
६. लि. स. टि. प्रति (4) से संकलित३. वृषभेश्वरः पांभुरादितीर्थकररुच । ४. नैयायिक वैशेषिकप्रयोगाः । ५. कपिलदेवतालयेन शालते इत्येवं शीला, पझे मर्कट: लतागृहः शालिनी शोभमाना।
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पञ्चम आश्वासः
अमरगुरुभारतीच निधारितपरलोकवर्शना, मीमांसव निरूप्यमाणनियोगभाषनाविप्रपश्चा, पिटकश्यपचतिरिय योगाचारगोचरा, महापुरुषमंत्रीव स्थिराषिष्ठाना, सत्सचिवप्रयुकिरिष सुटिससन्धिः, अभिनवविलासिनीष मुफुत्रहलविलोफना, कुषुमारविष्य बयिस्मयावहा, विजयसेनेव बाहुबलिविविता, क्ष्यगुणनिकेव सुपाश्र्वागता, कुबेरपुरोष यक्षमिपनसनाया, नन्दनवनलक्ष्मीरिवाशोफरोहिणोपेशला, शंभुसमाधिविध्य सबैलेख प्रकटरतिजीवितेशा, सुविकृतिरिव चित्रबहला, मुनि
सांपजनता कपिलता-लय-शालिनी ( कपिल मुनि में लय से होने वाली स्वरूप प्राप्ति से मुशोभित ) होती है । जो वैसी निवारित परलोकदर्शना' ( मिथ्याष्टियों के मतों को निवारण करने वाली ) है जैसे अमरगुरुभारती (वृहस्पति का दर्शन ) निवारितपरलोकदर्शना ( परलोक ( स्वर्गादि ) की मान्यता को निराकरण करने वाली) होती है। जो वैसी निरूप्यमाणनियोगभाबनादिप्रपञ्चा (नियोग--चरपानुयोगादिप्रश्न व दर्शनविशुद्धि-आदि षोडश कारण भावनाओं के विस्तार को निरूपण करने वाली) है, जैसे मीमांसा ( मीमांसकदर्शन ), निरून्यमाणनियोगभावनादिप्रपञ्चा ( नियोग व भावनारूप वाक्यार्थ के विस्तार को निरूपण करने वाली ) होती है। जो वैसी योग-आचार-गोचरा { योग । आप्त, आगम व पदार्थों के यथार्थ ज्ञान से व्याप्त हलन-चलनरूप आत्मप्रदेश) व आचार ( संचित कर्मों के क्षय का कारण च भविष्यत् कर्मों के आगमन को रोकने में कारण संयमधर्म । की पद्धति है, अथवा योग ( धर्मध्यान व शुक्लध्यान ) तथा आचार (सम्यग्चारित्र की पद्धत है। अर्थात् जो धर्मध्याना, सुक्लध्यानी व चारित्रनिष्ठ महापयों से व्याप्त है, जैसे पिटकवयंपद्धति ( धर्म, संघ या संज्ञा तथा ज्ञान ये बौद्ध-दर्शन में पिटकत्रय हैं ) योगाचार गोचरा ( ज्ञानाद्वैतवादी बौद्धों से माननीय ) होती है। जो वैसी स्थिर-अधिष्ठाना ( निश्चल आचार बाली या स्थान वाली ) है, जैसे महापुरुषों की मित्रता स्थिराधिष्ठाना ( चिरस्थायिनी) होती है। जो वैसी सुघटितसन्धि" ( अच्छी तरह रची हुई मिलापवाली ) है, जैसे प्रशस्त सचिव ( मन्त्री) को सन्धि-प्रयुक्ति ( सामनीसि का उपयोग ) सुघटित सन्धि ( अच्छी तरह से तैयार किये हुए मैत्री के विधानवाली ) होती है । जो वैसी सुकुतुहल विलोकना ( कौतुक. जनक दर्शनबाली) है जैसे नवीन वेश्या सुकुतूहलविलोकना (उत्तम नेत्रांवाली या कामो पुरुषों के लिए श्लाघनीय दर्शनवाली ) होती है। जो वैसी बहुविस्मयावहा (विशेष आश्चर्य जनक पदार्थों ( चित्रादि ) को धारण करनेवाली) है, जैसे कुचुमार विद्या ( इन्द्रजालिया को कला ) बहुविस्मयावहा ( दर्शकों के चित्त में विशंप आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली ) होती है ।
जो वैसी बाहुबलिविदिता' (जहाँ पर बाहुबलिस्वामी केवली चित्र-लिखित ) हैं, जैसे विजयसेना
१. वहस्पति मा परलोको नास्ति, पक्षे परेपा मियादष्टीना मलानि यत्र वार्यन्ते । २. मीमांसकमने नियोग मावनावाक्यार्थः, स्वपक्षे चरणानुयोगादिप्रश्नः दानविशुद्धयादिकाः भावनाः । ३. योगः आसागमपदार्थ यायात्म्यज्ञानानुवियसपरिस्पन्दात्मप्रदेशः, उपात्तागामिककमक्षयप्रतिबन्धहेतुराचारः । ___अथवा-योगे ध्याने दे, आचारतयोः पञ्चतिः, पक्षान्तरे तु योगाचारः ज्ञानावंतवावी । ४. धर्म: संघः ज्ञानमिति पिटकार्य । अथवा धर्म संजाज्ञानानि इति पिटकत्रयं । ५. सन्धिर्योनो पुरंगाया नद्यांगे हलेष मेदयोः । 'सन्यिदल' सन्धि विग्रहीयानमित्यमरः । ६. सदैवत-संपत्तो स्वामिनः स्त्रस्य विपसीस्तदरातिषु यः साधयति बुद्धपैव तं विदुः सचिव वृषाः ।। १ ।। ७. कुसुमार: अथवा पाठान्तर में कचुमारः कुहविद्योपाध्यायः । हलि. सटिप्पण प्रतियों से संकलित-सम्पादक ८. बाहुबलीश्वर: केवली च । ९. विजयो जये पार्थ बिमाने विजयोमातत्सख्योस्तिथापि ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मतगतिरिव चरणकरणानन्दिनी, भरतपदवीव विविधलयनाटपाडम्बरा, पुरंदरपुरीव संनिहितरावता, हरपरिवदिवासीनसौरभेया, शिशिरगिरिदरीब निकोनोपफण्ठकठोरवा, मायानाचलतटोव रमोपशोभिता, ब्रमण्यसंस्थेष प्रलम्बितकुसुमारा, मुरसीसाटनिरिव सविवियु अध्नमण्डला, पायमुरेव पुलियुगलाङ्किता, समयकुमसंपत्तिरिव पूर्णकुम्भाभिरामा, फैटभातितनुरिव कमलाकरसेषिता, समवसरणसभेव प्रसाधितसिंहासना, अजडाशयानुगतापि जनिषिमतो,
( गौरी-पार्वती को सेना ) चाहालविदिता (श्रीमहादेव ईश्वर से अदियिता होती है। जोसी सपाश्र्वागता' ( पार्श्वनाथ तीर्थङ्कर से मुशोभित ) है, जैसी रूपगुणानका' (चित्रकर्म ) सुपाचगिता ( समीप में वृत्तविशेष वाली या चित्रलिखित चन्द्रसूर्य विम्ववालो) होती है। जो सो यक्षमिथुनसनाथा चित्र-लिखित कुबेरों के जोड़ों से सहित ) है जैसी बुवेरपुरी यक्षमिथुनसनाथा ( यक्ष जाति के देवों के जोड़ों ( यक्ष-यक्षिणियों) से सहित ) होती है। जो वैसी अशोकरोहिणी पेशला ( चित्र-लिखित अशोक राजा व रोहिणी रानो से मनोज्ञ ) है, जैसे नन्दनवन-लक्ष्मी अशोक रोहिणी पेशला (अशोक वृक्ष व रोहिणी वृक्षों से मनोज्ञ) होती है। जो वैसी प्रकटरांतजीवितेशा (जहांपर प्रद्युम्नस्वामी चित्र-लिखित है ) है जैसे "शंभुसमाधिविध्वंसबेला (रुद्र के ध्यान को विध्वंस करने का समय } प्रकटरतिजीवितेशा ( कामदेव को प्रकट करने वाली) होती है। जो वेसी चित्रबहला चित्रसष्टिवाली है, जैसे उत्तम कवि की काव्य-रचना चित्रबहला (छत्र, मुरजबन्धादि की बहलता-युक्त) होती है। जो वैसी चरणफरणानन्दिनी" (चरणानुयोम व करणानुयोग संबंधी शास्त्रों से आनन्द देनेवाली ) है जैसे मुर्निमतगति [ नास्तिक-माल व कामसूत्र ) चरण-करण-आनन्दिनी ( चरण ( भक्षण । व कर्ण ( उत्फुल्ल विज़म्भादि ) से आनन्ददायिनो) होती है । जो वैसी विविधलय-नाटयाइम्बरा ( नाना भांति के संगीत-लय के साथ नृत्य के विस्तार वालो) है, जैसे भरतमुनिपदवी (भरतमुनि का नाटचशास्त्र) विविधलयनाट्याहम्बरा नानाप्रकार का यों चे साथ नृत्य का विस्तार वर्णन करनेवाली ) होती है |
अव शास्त्रकार पुरन्दर इत्यादि विशेषणों से प्रस्तुत बसतिका की चित्रलिखित स्वप्नावलि ( १६ स्वप्नों ) का वर्णन करते है--जो वैसी सन्निहित रावत्ता ( चित्र-लिखित ऐरावत हाथीवाली ) है जैसे इन्द्र-नगरी सन्निहि रावता ( निकटवर्ती ऐरावत हाथी-युक्त ) होती है । जो वैसी आसीन सौरभेया (चित्र-लिखित शुभ्र वृषभ वाली) है जैसे हरिषद ( श्री शिव को सभा ) आसोन सौरभेया (वृषभ-नदिया को) स्थिति वाली होती है । जो वेसी निलीनोपकाठकण्ठीरवा ( समीग में चित्रलिखित सिह्यालो ) है जैसे हिमालय की गुफा निलोनोयकण्ठ
१. पागितं विषकर्मणि वृत्तविशेषाः, तीर्थक विशेषागतं च । २. चित्रकर्मणि समीपे चन्द्रसूर्यविनास्विलिखिताः । ३. अशोकतनः, रोहिणीवृक्षः पक्षे अशोकरोहिणी या चित्ररूपं । ,, अषोकवृक्षः, राजा च रोहिणीवृक्षः राशी च । ४. प्रकटः फामी यत्र, पक्ष प्रद्युम्नस्थामी घिलिखितो यत्र ।
६. चित्रार्गः, पक्ष छत्रमुरजबन्यादिः । ७. चरण नगं करणं उत्फुस्कविम्भादिक, चरणकरण आगमविशेषौ । ८. चाकमतं कामशास्त्र वा। ९. पुरन्दर इत्यादिना चित्रालिखिता स्वप्नावली वर्णयति । १०, वृषभः।
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पञ्चमें आश्वासः उन्मीलिताहिलोकापि सकलजनोपभोग्या, अहोमवालापि प्रत्यानुसाहताशना, निःस्पृहोपभोग्यापि समणिनिश्चया, विहितमावतारापि प्रवशितदेवालया।
कण्ठीरवा ( समीपवर्ती सिंहबाली ) होती है। जो वैसी 'रमोपशोभिता ( चित्रलिखित लक्ष्मी मे सुशोभित ) है जैसे सुपेरु पर्वत की नटी रमोपगाभिता ( स्त्रियों से मण्डित ) होती है । जो वैसी प्रलम्बितकुमुमशरा (चित्र-लिखित लटकी हुई पुष्पमालाओं बाली ) है जैसे सपण्यसंस्था ( फूलमालाओं के बैंचने का स्थान ) प्रलम्बित कुसुमारा (लटकी हुई फूल-मालाओं से घुस) होती है । जो वैसी सविधविधुबध्नमण्डला ( समोप में चित्र-लिखित चन्द्र व सूर्य मण्डलबाली ) है जैसे सुमेरुपर्वत को तटो सविधविधुबघ्नमण्डला ( समीपवर्ती चन्द्र व सूर्य मण्डलवाली) होती है। जो बैसी शकुलियुगल-अद्विता ( चित्र-लिखित मछलियों के जोड़ा वाली) है जैसे पाण्डुराजा की मुद्रिका (अँगुठी ) शकुलियुगल-असित्ता ( मत्स्य चिह्नवाली) होती है। जैसे प्रशस्त शकुन-सम्पत्ति ( लक्ष्मी) जल-पूर्ण घट के दर्शन से मनोज्ञ होती है वैसे ही जो चित्र-लिखित जल-पूर्ण घर के दर्शन से मनोज्ञ है। जैसे श्री विष्णु की शरीर-सम्पत्ति कमलाकर सेविता ( लक्ष्मी के करकमलों से सेवा की हुई) होती है वैसे जो कमलाकर सेविता ( चित्र-लिखित सरोवर वाली ) है । जैसे समवसरणसभा प्रसाधित सिंहासना (सिंहासन से अलङ्क त) होती है वैसे जो प्रसाधित सिहासना (चित्र-लिखित सिंहासनरो महित) है।
अब विरोधाभास अलवार से शेष स्वप्नावली का निरूपण करते हैं जो अजड़ाशय-अनुगता'(चतुर अभिप्रायवाली) होकर के भी जड़ निधिमती ( मूर्खता की निधि ) है। यहां पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जो चतुर अभिप्राय से युक्त होगी, वह मूर्खता की निधि कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि फ्लेपालंकार में इ और ल एक समझे जाते हैं, अतः जो अजलाशय-अनुगता ( तालावरूप नहीं ) है और अपि (निश्चय से ) जलनिधिमती (चित्र-लिखित समुद्र-युक्त है। जो उन्मीलिताहिलोका' : प्रकट हुए सर्पसमूहबाली होकर के भी सकलजनोपभोग्या ( समस्तजनों द्वारा सेवन करने योग्य ) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जहाँ पर साँपों का समुह प्रकट होगा वहां पर समस्त जन कैसे निवास कर सकते हैं ? इसका परिहार यह है कि जो उन्मीलित अहिलोका ( प्रकट हुए चित्र-लिखित नागेन्द्र-भवन वाली ) है एवं जो निश्चय से समस्त मानवों द्वारा सेवन करने योग्य है । जो अहोमशाला ( होमशाला न ) होकर के मो प्रत्यक्षहुत' हुताशना ( जहाँ पर प्रत्यक्ष में अग्नि में हवन किया गया है, ऐसी ) है ! यह भो बिरुद्ध है, क्योंकि जो होमशाला नहीं है, वहाँ पर प्रत्यक्ष में अग्नि में हवन करना कैसे संभव हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो सहस्रकूट मन्दिर होने के कारण होमशाला नहीं है एवं निश्चय से जो प्रत्यक्ष हुतहुताशना (प्रत्यक्ष प्रतीत हुई चित्र-लिखित अग्नि ज्वाला बाली) है। जो निःस्पूह उपभोग्या ( कामना-शून्य या' सांसारिक बन्धन-मुक्त साघु-पुरुषों द्वारा सेवन करने योग्य ) होकर के भी समणिनिचया" ( बलराशियों से मुक्त ) है ! यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो नि:स्पृह साधुपुरुषों द्वारा सेवन योग्य होगी, वह रत्नराशि से युक्त कैसे हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि जो १. रमा लक्ष्मीः स्त्री च। २. तटी-कटणी । ३. पाण्डुराजः मुद्रिकायो मत्स्थचिहं भवति । ४. लक्ष्मीहस्त, पक्षे सरोवर चित्रे लिखितं । ५. प्लेषोपमालंकारः। ६. दक्षाशयप्रासा।
समुद्र । ७. प्रकरितनागालया।
८.६ता लिखिता अग्निज्वाला। १. लिखितरत्नसमूहा-रत्नराशिः लिखिता।
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यतिलकचम्पूकाव्य यत्र चाभिषेकासलिलेय कलुषता, मलयजेषु जडघर्षगम्, अक्षतेषु मुशलाभिघातः, वपुष्पेषु गुणविभुखता, चरुधु रससंकरः, प्रदीपेषु मलिनोद्गारः, धूपमेष्ववसानवरस्यम्, फलस्तवकेच पालाशोपरोषः, कुसुमाञ्जलिषु विनिपातः स्तुतिष परलोकप्रार्थनम्, जपेष गूढमन्त्रप्रयोगः, प्रसंख्यानेषु वेहसन्नता, अगुरुबहतशालाजिरेषु मलीमसमुखत्वम्, मुनिषुधर्मगुणविजम्भणम्,
निःस्पृहों ( कामना-शून्य महापुरुषों) द्वारा सेवनीय है और निश्चय से जो समणिमित्रया ( चित्र-लिखित रत्नराशि-युक्त ) है और जो विहित-मत्यं-अबतारा ( मनुष्यों के आगमन बाली) होकर के भी प्रदर्शित देवालया ( देवों का स्थान प्रदर्शित करनेवाली ) है। यह भी विरुद्ध है, क्योंकि जो मनुष्यों का आगमन स्थान होगा वह देवों का स्थान फेसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो विहितमावतारा ( मनुष्यों के आगमन वाली ) है और निश्चय से जो प्रदर्शितदेवालया' (चित्र-लिखित स्वर्ग-विमान को प्रदर्शित करनेवाली ) है।'
जहां पर कलुषता' (कपुर-आदि को मिश्रता ) अभिषेक संबंधी जलों में थी परन्तु मनुष्यों के हृदयों में कलुषता ( राग ) नहीं थो । जहाँ पर मलयागिर चन्दनों में जडधार्पण ( इलेप में इ और ल का अभेद है; अत: जल-घर्षण-जल म पीसना) या परन्तु मनुष्यों में जम-धर्षण (जड़ता--मूर्खता से कूटे जाने का काष्ट) नहीं था । जहाँपर मुशलाभिषात ( मूसलों से कूटना ) चांवलों में था परन्तु मनुष्यों में मुशलाभिवात ( अनैतिक प्रवृत्ति से मूसलों द्वारा दण्डित किया जाना ) नहीं था। जहां पर पुष्पमाला के पुष्पों में गुणविमुखता (तन्त-गम्फिता थी परन्तु मनुष्यों में गण-विमुखता (ज्ञानादि गणों से घिमखता-पराङमावता नहीं थी। जहां पर रससंकरता ( माध्य-आदि रसों की मिश्नता) चरुद्रव्यों । मोक्कादि मेवेद्य पदार्थों ) में थी परन्तु मनुष्यों के हृदयों में रससंकरता ( राग) नहीं थी । जहां पर मलिनोद्गार" ( कृष्णा कज्जल का वमन) दीपकों में था, परन्तु मनुष्यों के हृदयों में मलिनोद्गार ( दोषों का उदय ) नहीं था। जहां पर अवसान वेरस्य ( अन्त में विरसता) धूप के धूमों में था परन्तु मानवों में अवसान वैरस्य (मृत्यु के अवसर पर पीड़ा) नहीं था अथवा अकाल मृत्यु का कष्ट नहीं था। जहाँपर पलाशोपरोध (पलाशों-पल्लवों से गहित) फलों के गुच्छों में था। अर्थात्-जहाँपर फलों के गुच्छे कोमल पत्रों से मण्डित थे एवं जहाँपर मानवों में भी पलाशोपरोध ( राक्षसों का निवारण ) था। अर्थात्-जहाँ पर मनुष्यों में कोई भी मांसभक्षी नहीं था।
जहाँ पर विनिगात ( अवपातनीचे भूमि पर गिरना ) पुष्पाजलियों में था परन्तु मनुष्यों में विनिपात (देवत-व्यसन-कुभाग्योदय से उत्पन्न होनेवाला आकस्मिक कट) नहीं था। जहां पर परलोकप्रार्थन ( स्वर्गलोक की इच्छा ) स्तुतियों में था परन्तु मनुष्यों के हृदयों में परलोक-प्रार्थन ( शत्रुता की भावना ) नहीं था। जहां पर गूढमन्त्र'-प्रयोग ( एकान्त में मन्त्रों का उच्चारण ) जपों में था परन्तु मनुष्यों
१. स्वर्गविमाना। २. विरोधाभासालंकार:--ह. लि. सटि. ( ख ) प्रति से सफलित-सम्पादक ३. कर्पूरादिमिश्रितत्वात मित्रता, न तु हृदयेपु रागः । ४. मिश्रना, न तु हृदयेप रागः । ५. 'मलिनं कृष्णदापयोर्मलिनो रजःस्वलायाम् । ६. राक्षासनिवारणं, मांसभक्षी कश्चिन्नास्ति पक्षे पत्रसहिताः फलगुच्छाः वर्तन्ते। ह0 लि. (ख) प्रतिरो संकलित-- ... 'पलायो राक्षसः पल्लवश्च यशपञ्जिका से-संकलित ७. विमिपातस्तु दैवतं व्यसममवपातश्च । ८, गूढ़ रहः संवृतयोः देवादिसाधने वदांगे गुसवादे च ।
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पञ्चम माश्वास:
शिलीमुखसंपातः पटहेषु कराहतिः, नमसितेषु पदबन्धः, रङ्गलिषु
परभागम्
प्रसून पहारेषु पतिचरित्रेषु विग्रहाश्रुतिः सोपानेषु विषमता, बेहलीषु लखनापराधः सृपाटीषु करग्रहणम्, अररेषु द्विषाभाषः,शास्त्रेषु परषणपश्रवणम्, उपन्यासयोग्यासु विगुह्यवादः पर्व क्रियासु वर्णसंकीर्णता, विनेयवनयनेषु भ्रुकुटिकरणम्, वातायनेषु मार्गता, केतुकाण्डेषु स्वभावस्तत्त्वम्, वैजयन्तीषु परप्रणेयता, मणिवितानेषु गुणनिगूहनम् रजनिमुखेषु गलग्रहोपदेशः, शकुनावासेषु विलयविलसितम् लिपिकरेषु नाञ्जनोपार्जनम् ।
मैं गूढ़मन्त्र प्रयोग | गुप्तमन्त्रों से प्रयोग — उच्चाटन आदि कर्म करना ) नहीं था । जहाँ पर वसंध्थानों में देहसन्नता (शारीरिक कष्ट) थी परन्तु मनुष्यों में देहसन्नता ( शारीरिक पीड़ा ) नहीं थी। जहां पर मलीमसमुखता (कृष्णता -- मलिनता) अगर, अग्नि व गृहाङ्गणों में श्री परन्तु मानवों के हृदयों में मलीमसमुखता (दुष्टता) नहीं थी । जहाँ पर धर्मगुण-विजृम्भण' (धर्म-- प्राणिरक्षा आदि व गुण-विजृम्भण - ज्ञानादि प्रशस्त गुणों का विस्तार) मुनियों में था परन्तु योद्धाओं में धर्मगुणविजृम्भण ( धनुष पर डोरी का झारोपण ) नहीं था। जहाँ पर शिलोमुखसंपात * ( भीरों का पतन ) पुष्पहारों में था, परन्तु संग्राम में शिलीमुख संपात ( वाणों का प्रक्षेप) नहीं था । जहाँ पर कराहति ( हस्तों से ताड़न ) मृदङ्गों या नगाड़ों में थी, परन्तु मनुष्यों में कराहति ( विशेष राज्य टैक्स से पीड़न नहीं थी ।
}
जहाँ पर पदबन्त्र (श्लोकों के चरणों का गुम्फन) नमसितों * (नमस्कारों) में था परन्तु मनुष्यों में पदबन्ध ( अन्याय करने से पैरों का बन्धन ) नहीं था । जहाँ पर परभाग कल्पन ( शोभा करना ) रङ्गबल्लियों ( नाटचभूमियों या चित्र - रचनाओं ) में था, परन्तु जहाँपर पर-भागकल्पन ( शत्रुओं को धन की प्राप्ति या शत्रुओं का उदय नहीं था । जहाँ पर विग्रहृदण्डभूति ( शारीरिक कष्ट सहन की प्रतिज्ञा ) मुनियों के चरित्र - पालन में थी परन्तु मानवों में विग्रहृदण्डभूति ( युद्ध और तीक्ष्ण दण्ड विधान का श्रवण ) नहीं था । जहाँ पर विषमता (असमानता ) सीढियों में थी। परन्तु मनुष्यों में विषमता नहीं थी । जहाँ पर लङ्घनापराध ( लांघने का दोष ) देहलियों में था परन्तु मनुष्यों में लङ्घनापराध ( कड़ाका करने या तिरस्कार करने का दोष ) नहीं था। जहाँ पर करग्रहण ( हाथों से उठाना व धरना ) पुस्तकों में था परन्तु मनुष्यों में कर ग्रहण ( दान ग्रहण ) नहीं था । जहाँ पर द्विद्यामान ( खोलना ) अररों (किवाड़ों) में था, परन्तु जनता में द्विधाभाव ( वेमनस्य ) नहीं था । जहाँ पर दूपणोपत्रवण ( श्रुतिकटु व अश्लील आदि काव्य दोषों ) का श्रवण काव्यशास्त्रों में था परन्तु मनुष्यों में परदूषणोपश्रवण ( दूसरों की अपकीर्ति या अपवाद की प्रतिज्ञा ) नहीं था । जहाँ पर विगृह्यवाद (समासपूर्वक कथन ) उपन्यास योग्य में था । अर्थात्--नीतिशास्त्रों या वाक्यों का अभ्यास समास पूर्वक होता था परन्तु मनुष्यों में विगृह्यवाद - संग्रामवाद नहीं था । जहाँ पर वर्णसंकीर्णता' ( स्तुतियों की मिश्रा) पर्वक्रियाओं ( उत्सव-दिनों) में थी परन्तु मानवों में वर्णसंकरता नहीं थी । जहाँ पर भ्रुकुटि - करण ( भोहों का चढ़ाना) शिष्यों की शिक्षाओं में था परन्तु मनुष्यों में युद्ध - निमित्त भ्रुकुटि चढ़ाना
१. 'प्रयोगः कार्मणे पुंसि प्रयुक्तो निदर्शने' इति विश्वः । 'गूढं रहसि गुप्ते च' इति विश्वः । २. पीड़ा । ३. न तु सुभटेषु 1
३. धर्ग: स्थादस्त्रियां पुण्ये धर्मो न्यायस्वभावयोः । उपमायो यमाचारवेदान्तेऽपि धनुष्वपि ॥ १ ॥ इति विश्वः ॥ गुण रूपादिसाविव। विहरितादिषु । सूरेऽरधाने सध्यादी रज्जो मौध्य वृकोदरे इति विश्वः । ४. भ्रमर न तु संग्रामे वाणाः ।
५. नमस्कारं ।
परभागः शोभा, गरोदयं च ।
६. शोभा न तु परेषां श्रूणां द्रव्यभागः ८. योग्यामोपति, अभ्यासे अभ्यासविषये समासपूर्ववादः न तु संग्रामवाद::
९. 'वर्णो द्विजादी शुक्लादी स्तुतो वर्णं तु वाक्षरे' इत्यमरः ।
१४७
"
"
७. कपाटेषु ।
योग्या अभ्यासः ।
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यशस्तिलक चम्पूका
यस्याश्च प्रतिदिवस दिविजसभाजन पौरजनरुपहितानि भगवतः स्वकीयपादमुद्रितन गत् अयपतेजिनपतेमं जनमङ्गलानिविन्दमानायाः सकृत्प्रकान्ताभिषेक महोत्सब लज्जित इव जातखवंसरभावः पुरो निवसति मन्वरः । अपि च । आयभिकः
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यामेवं प्रावुष्पवनल्पसंकल्पनो विनैयजनः [वृष्ट्वा ] शिक्षूरभावादुत्प्रेक्षापक्षता नयति ॥ ५४ ॥ श्रीरेया स्वर्गसिन्धोः किमु पवनबलोल्लोलकल्लोलवारेः स्वर्णच्छायाप्रतानस्तवतु विसरति व्योति कोऽयं प्रकारः । वृम्पोताववाला दिशि दिशि च तताः कान्तयो भान्ति मध्ये स्थानेऽस्मिनसौधावलि रूपरलसत्केतुसीवर्णकुम्भाः ॥ ५५ ॥
नहीं था। जहाँ पर बहुमार्गता ( वायु-प्रवेश व उसके निस्सरण हेतु अनेक मार्ग ) वातायनों ( |खड़कियों-आदि) में थी परन्तु वहाँ पर बहूमागंता ( अनेक मार्गशिर - अगहन मासों की स्थिति ) नहीं थी । जहाँ पर स्वभावस्तब्धत्व' ( स्वाभाविक कठिनता ) केतुकाण्डों ( ध्वजादंडों) में था परन्तु मनुष्यों में स्वभावस्तत्व ( स्वाभाविक निर्दयता ) नहीं था। जहाँ पर परप्रयता ( दूसरों के द्वारा ले जाना ) वैजयन्तियों ध्वजाओंमें थी परन्तु वैजयन्ती — सेना - में प्रेरणता नहीं थी । जहाँ पर गुणनिगूहुन* ( तन्तुओं का प्रेरण) मणिवितानों - चदेवों में था परन्तु वहाँ की जनता में गुणनिगूहन ( दूसरों के ज्ञानादि गुणों का आच्छादन) नहीं था । जहाँ पर गलग्रहोपदेश" ( गाय-वगैरह पशुओं का बन्धन ) रजनीमुख (संध्या) में था परन्तु मनुष्यों में गलग्रहोपदेश - अप्रत्युपकार ( कृतघ्नता अथवा आकस्मिक कष्ट ) नहीं था ।
जहाँ पर विलय विलसित' (पक्षियों के निवास का विलास ) शकुनावासों ( घोंसला ) में था, परन्तु मनुष्यों में विलय विलसित (विनाश का विस्तार-अपमृत्यु ) नहीं था। जहाँ पर 'अनोपार्जन ( अञ्जन – स्याही द्वारा धनोपार्जन ) लिपिकरों' ( लेखकों ) में था। परन्तु मनुष्यों में अजनोपार्जन ( कलङ्क का उपार्जन ) नहीं था१० । जिस वसतिका के सामने, जो कि प्रत्येक दिन देवों-सरीखे नागरिक मनुष्यों से किये गए ऐसे भगवान् जिनेन्द्र के अभिषेक भङ्गल प्राप्त कर रही है, जो कि अपने चरण कमलों द्वारा तोनलोक स्वामियों । इन्द्र आदि ) को अधःकृत करने वाले हैं, शोभा के लिए कृत्रिम सुमेरु पर्वत स्थित है । जो ऐसा मालूम पड़ता है— मानों - अभिषेक मेरु [ देवों से केवल एक बार किये हुए मनोज्ञ अभिषेक महोत्सव से लज्जित हुआ ही लघु हो गया है ।
]
विशेषता यह है प्रचुर कल्पनाएं प्रकट करने वाला शिष्यजन जिस वसतिका को दूर से देखकर उसे निम्न प्रकार की उत्प्रेक्षाओं के पक्ष में ले जाता है ॥ ५४ ॥
जो ( वसतिका) ऐसी मालूम पड़ती यो- मानों - वायु की शक्ति से चञ्चल हुईं तरों के जलवाली स्वर्गगंगा की यह लक्ष्मी ही है । अथवा मानों कलश सहित सुवर्ण की कान्ति का समूह हो हैं । अघवामानों— कोई यह प्राकार ( कोट ) ही आकाश में विस्तृत हो रहा है। अथवा उसकी प्रत्येक दिशा में विस्तृत
२. प्रेरणता ।
३. पताका वैजयन्ती स्यात्केवनं ध्वजमस्त्रियामित्यमरः । ५. गवादीनां वन्धनं न तु प्रत्युपकारः ।
१. दंडेषु कठिनत्वं ।
४. गोपनं प्रेरणं आच्छादनं । ६. वीनां लयः तस्य विलसितं पक्षे न पुनवनाश: । विलयो विनाशः पक्षिमं यस्व । यंत्रसाम्ये संश्लेषण विनाशयोः ।
७. शकुनः शकुनिश्व पक्षी ।
rt
८. अञ्जनेमार्थोपार्जनं, न तु कलङ्कः 'अशनं मष रसान्ने उक्त सौवीरे' । ९. लेखकेषु । १०. परिसंख्याकारः । * उत्प्रेक्षालंकारः ।
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पञ्चम आश्वासः
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कि च मेद्धिविवृद्ध वन्यशिल रोल्लेख खलज्योतिष अथितिविना मलविषः । सुङ्गोत्सङ्गतमङ्गसङ्ग विवशव्यापारसारादराः स्वर्गवास निवासमानसरसा: संजज्ञिरे
तामराः ॥५६॥
या स
किं पुण्यपुञ्जनिफर त्रिजगज्जनानां लोकेष्वमात्किसु यशः प्रथितं जिनानाम् । इत्थं वितर्कसतिसतिविभाति विश्वंभराम्बर विशां प्रविभक्तभाषा ||५७।। ततो महामुनिजनारायन विनीतवनदेवतावितीर्ण प्रनोपहारपरिसरत्परिमलोद्याने सबुद्याने यवा तेन त्रिजगतोय मानवसंग भगवता सुबत्तेन सह तव विवादाविशेषस्य धर्मावबोधो भविष्यति तदा भवतो भविष्यन्ति प्रेषणानवद्याः पुनरपीमा विद्याः भविष्यति च भवान्नभश्वरप्रभुप्रभाव:' इत्युक्त्वा तदनूचानचरणार्थनोपचितागण्पपुण्यतया समस्त महाभागभुवनचक्रवर्तीस विद्याधरचक्रवर्ती जगामाभिलषितं विषयम् । अम्बरधरोऽप्यालगामोज्जयिनीम् ।
इतश्च
तस्यामेधोरणपुरोपधिन्यामुज्जयिन्यामतूर देशर्षात नि
भाविभकुरित कन्यं रिवस्यित्वं परितवाहिके, तिमद्भिः पर्मभिरिव श्रभिः किमरगोपामसीपयन्ते, पुरोजन्मदुःखानलक्बालाभिरिव वल्लूरमालाभिः पाटलोटहुई कान्तियाँ, जिनमें ऊपर शोभायमान होती हुई ध्वजाएँ व सुवर्णकलश वर्तमान हैं, ऐसी मालूम पड़ती थी — मानों - इस स्थान पर दुग्ध कान्ति-सी शुभ्र जिन मन्दिरों की श्रेणी ही शोभायमान हो रही है' ।। ५५ ।। जिस बसतिका की, जिसकी सुमेरु के साथ स्पर्धा करने वाली वृद्धि में सफल हुईं (विशेष ऊँची) शिखरों की रगड़ से नक्षत्र मण्डल पतित हो रहे हैं और जो कि गिरते हुए समीपवर्ती भित्तियों के रत्नों की प्रचुर कान्तियों से शोभायमान हो रही है, ऊँची मध्यभागवाली उपरितन भूमि के सङ्गम से पराधीन व्यापार से उत्तम आदर वाले देवता लोग स्वर्ग भूमि पर निवास करने के अभिमान से सरस (रमिक - प्रमुदित) नहीं हुए ।। ५६ ।।
पृथिवी, आकाश व दिशाओं का विभाग करनेवाली एवं इस प्रकार कल्पना को आधार रूप जो वसतिका शोभायमान होती हुई ऐसी मालूम पड़ती थी मानों-क्या तीन लोक के प्राणियों को पुण्यपुञ्ज की श्रेणी ही है । अथवा क्या तीन लोक में अवकाश प्राप्त न करता हुआ ( न समाता हुआ ) जिनेन्द्रों का विस्तृत यश ही है | ५७ ॥
अथानन्तर उस वसतिका के उद्यान (बगीचे) में, जो कि प्रशस्त मुनिजनों की आराधना -- सेवा — से नम्रीभून वनदेवता द्वारा दिये हुए पुष्पोपहारों की फैलती हुई सुगन्धि से बहुल दीप्त है, जब तीन लोक द्वारा स्तुति किया जा रहे चरित्र वाले उस भगवान् ( पूज्य ) सुदत्ताचार्य के साथ, वाद-विवाद से विरोधरहित हुए आपको (कन्दल विलास नाम के विद्यावर को) यथार्थं धर्म का ज्ञान होगा, तब आपको पुनः ये [ विद्याधरोचित ] विद्याएं भी आकाश में भेजने में निर्दोष ( समर्थ ) होजायगी और आप भी विद्याधर के समर्थ प्रभाव से युक्त होजाओगे।' ऐसा कह कर उस अनुचान ( साङ्गोपाङ्ग द्वादश श्रुत के अभ्यासी 'मन्मथमथन' नाम के ऋषि) की चरण पूजा से संचित किये हुए नगण्य - असंख्यात पुण्य से समस्त भाग्यशाली धर्मात्मा लोक का चक्रवर्ती वह विद्याधरों का चक्रवर्ती ( 'रत्नशिखण्ड' नाम का ) अभिलपित देश को प्रस्थान कर गया और 'कन्दल विलास' नामका विद्याधर भी उज्जयिनी नगरी में आगया ।
अथानन्तर हे मारिदप्त महाराज ! इसी धरणेन्द्र नगरी से स्पर्धा करनेवाली उज्जयिनी नगरी के समीपवर्ती ऐसे चाण्डाल के निवास स्थान में, जिसकी बाह्यभूमि ( बाह्यप्रदेश ) ऐसी हड्डियों की श्रेणियों से
१. उत्प्रेक्षालंकारः ।
२. उत्प्रेक्षालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पविषि, तमस्काण्डखण्हापसदं रिज करछदै सराङ्गणे, कृष्णलेश्यापटलरिव करटकुलंगकलषितगेहाप्रभागवि, निरनियासिभिरिव कुणपकलेवरेषु युद्धोद्धवान्याहुतिः मृयाट्रिलदेजनीयनिवेश, जनंगमावासोद्देशे, तस्मादमृतमतिमहावेधीकृतपरापायप्रयोगायशोमतिमहाराजवाजिबिनाशोद्योगाच्च व्यतीत्य तं वस्तकातरानभावमझ सा च मयो. पाम्बिका परणायुधान्वये सहेब जन्म प्रत्यपद्यावहिं । तबनन्तरमेय ष वृषवंशयंण्ट्राक्रफचगोथरतयाचयो कान्तरगिरि मातरि पुनः काकतालीमकन्यायेन कृतकोणिकोत्कलिका, मालबालिकातीव जरत्कुटीरमिकटोत्कुष्टकुन्लायकोटरे चिराक्षवहिता सती कर्णापर्णवर्णनिर्णनावां निगृह्य परिगृह्य च तनहनिषिशेषं पोषयामास ।
व्यतोतस्वभावे च बालभावे फवापिसावासनविद्यापरीजनकेलिशर्मा चण्डकर्मा समाचरितस्वरविहारस्तान श्यपचपाटकोपकण्ठभूमिकायामामेकस्यांतावसापिमुतस्य हस्तगतो समालोक्यास्मत्रूपसंपदालोविस्मिसमनस्कारस्तुष्टिप्रवानोत्पाचितविवाफोतिनन्दनानन्दः समादापानीय च यशोमतिमहाराजायाधीशत् । राजाप्यावामवेक्ष्य जालाश्च: वान्न वर्णवाली है जो ऐसी मालूम पड़ती धी-मानो-भविष्य जन्म संबंधो पापी के अकुर हो हैं। जिसकी गोपानसी ( गृहाच्छादन पटलैकदेश) का पर्यन्त भाग ऐसे चमड़ों से चित्रवर्ण-युक्त है, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-मूर्तिमान कर्म ही हैं। जिसका तृणकुटी-पटल ऐसी शुष्क मांस श्रेणियों से पाटल ( श्वेत-रक्त) है, जो ऐसी मालम पड़ती थीं-मानों-पूर्वजन्म संबंधी दुःखरूपी अग्नि की ज्वालाएं ही हैं। जिसका अङ्गण ऐसे जलकाक-पंखों से धूसर (धुमेले रंग का ) है, जो ऐसे प्रतीत होते थे-मानों-गाढ अन्धकार के निकृष्ट खण्ड ही हैं। जिसके गृह की अग्रभागभूमि, ऐसी काक-श्रेणियों से उत्कलुषित (विशेष मलिन ) है, जो ऐसी मालूम पड़तों श्रीं-मानों-कृष्णलेश्याओं ( रोद्रपरिणामों) की श्रेणियाँ ही हैं। जिसका निवेश ( प्रवेश-द्वार ) ऐसे कुत्तों से भयङ्कर है, जिनके चित्त दुर्गन्धित मुर्दा-शरोरों में युद्ध-गर्व से अन्धे हो रहे हैं, ( अथवा पाठान्तर में जो दुर्गन्धित मुर्दा शरीरों में युद्ध करने में उद्यमशील होते हए ऊपर उछलने का प्रयत्न कर रहे हैं। जो ऐसे मालूम पड़ते थे-मानों-नरकों में निवास करनेवाले नारकी ही हैं, उस अमृतमति महादेवी द्वारा किये हुए द्वितीयवार मारण के प्रयोग से एवं यशोमति महाराज संबंधी घोड़े के विनाश के उद्योग से उस बकरे को व भैसे की पर्याय व्यतीत करके [उपर्युक्त चाण्डाल के निवास स्थान में] मैंने (यशोधर के जीव ने) और मेरी माता (चन्द्रमति नो जीव) ने मुर्गों के बंश में साथ-साथ ही जन्म धारण किया। पश्चात् हम दोनों की माता मुर्गी विलान की दाढरूपी आरे का विषय होने से काल-कवलित हुई । पश्चात्-काकतालीय न्याय ( अचानक संयोग ) से क्रीड़ा करने में उत्कण्ठा करनेवाली चाण्डाली ने, जो कि अत्यन्त जर्जरित झोपड़ी के निकटवर्ती मुर्गा पक्षी के घोंसले के निकट चिरकाल तक एकान स्थित हो रही थी, श्रोत्र समीपवर्ती शब्द के निश्चय से हम दोनों को निश्चय करके ग्रहण किया और पुत्र-सरीखा पालन किया ।
अथानन्तर जब हमारी वाल्यावस्था व्यतीत हुई तब किसी अबसर पर स्वच्छन्द पर्यटन करनेवाले इस चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल ने, जिसको विद्याधरीजनों के साथ क्रीड़ा करने का सुख समीपवर्ती है, उस क्षद चाण्डाल-की समीपवर्ती भूमि पर हम दोनों ( मुर्गा-मुर्गों) को एक चाण्डाल पुत्र के हस्तगत देखा। फिर हम दोनों की लावण्य सम्पत्ति के दर्शन से आश्चर्य-युक्त चित्त के विस्तार बाले उसने, सन्तोष (पारितोषिक) प्रदान से प्रस्तुत चाण्डाल-पुत्र को आनन्द उत्पन्न करके हम दोनों को ग्रहण किया और लाकर यशोमति महाराज के लिए दिखाया। फिर राजा ने भी हम दोनों को देखकर आश्चर्यान्वित होते हुए निम्न प्रकार विचार करके चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल से कहा-'अहो आश्चर्य है 'इन पक्षियों की शारीरिक रचना (लावण्य संपत्ति) समस्त मुगों को श्रेणी में श्रेष्ठतम व दूसरी ( कहने के लिए अशक्य ) व अनोखी ही है' हे चण्डकर्मा कोट्टपाल । १. गौपानसी-गृहाच्छादनपटालैकदेशः यशः ६० से संकलित-सम्पादक ।
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पंचम आश्वास
'अहो, अपर एव कोऽप्यनयोः शकुनयोः सफलताम्रसूचकुलातिशायी शरीरसंनिवेशः' इति विमृदय 'चण्डकर्मन्, तिष्ठतु ताघदेतत्तवैध हस्ते पत्रिरमिथुमम् । अहमिधानीमेवम पुष्परथं सनायीकृश्यतत्कीरयारुतमिलासिनीजनपरिवृतः सहान्त:पुरेण पीठमविविधूपकनायकसामाजिकतोकानुगतः सहनफूटवस्यालयोपवने मारध्वजपूजार्थ यजिष्यामि । तत्र पुनर्पत. विनोदामेवं प्रदर्शयितव्यम्'। चण्डकर्मा 'यथाज्ञापयति देषः' प्रत्यभिधाय निश्वकाम | आजगाम च गरिकरसागितपटकुटीप्रभाजालविराजमानकुजराशीकमनेकोपकार्यापर्यायपरिगतपर्यन्तावनीकं तदुद्यानम् । सत्र च शाकुनासर्वज्ञेन परिणा भागवसेन, नक्षत्रपाठकेन धूमध्वजेन द्विजातिना खन्यवादविदा हरप्रबोधेन जटिना खरपटौषबुधेन सुगतकोतिना शाश्येन सह मुषा संबन्धसार्घकस्कन्धाक्लखितपतगपजरः स चण्डकर्मा
मदनशचित्रकान्सेवनदेवोमाणिपेशलप्रान्तः । अपरदलरागपतनश्लाघ्यरित्र काननयोणाम् ॥५८।।
'यह पक्षियों ( मुर्गों का जोड़ा तब तक तुम्हारे ही हस्तगत है क्योंकि इस पाप कोइल करके इस कणीरथ' ( दोनों पाश्वस्कन्धों से ले जाने योग्य पालकी विशेष ) पर आरूढ़ हुई बिलासिनीजनों ( कामिनियों ) बेटित हुमा अन्तःपुर की रानियों के साथ पीटमर्द ( कामशास्त्र के अध्ययन से मनोज्ञ बद्धिचाला पुरुष ), विट (विकृत वेषधारक ), विदुषक ( मसखरा ), नायक (विट-आदि वेपों का अधिकारी प्रधान पुरप) व सामाजिक संगीत-प्रवीण पुरुष) लोक से अनुगत हुआ सहस्रकूद वैत्यालय के उपवन में कामदेव को पूजा निमित्त जाकैगा । पुनः तुम्हें वहाँ पर पुल क्रीड़ा के लिए इस पक्षी जोड़े को दिखाना चाहिए।' चण्डकर्मा कोटपाल ने कहा-'जैगी राजा सा० की आज्ञा है ।' ऐसा कहकर वहां से निकला और उक्त उपवन में, जहाँ पर वृक्ष-श्रेणी गेरू के रस में रञ्जित हुई तम्बुओं को कान्ति-थेणी से शोभायमान है एवं जिसकी समोपवर्ती भूमि अनेक उपकार्या' (मठमन्दिर-आदि राजसदन' की रचना से व्याप्त है, आया। वहां पर उस चाहकर्मा नाम के कोट्टपाल ने, जो कि शकुन सर्वज्ञ (पाकुन शास्त्रवेत्ता) नाम के विष्णुभक्त विद्वान् के साथ व 'धूमध्वज' नाम के ज्योतिषशास्त्र वेता ब्राह्मण बिद्वान के साथ एवं पृथिवो के मध्य गड़े हुए धन को जाननेवाले हरनबोय नाम के जटावारी तपस्वी के साथ तथा ठकशास्त्र वेता बद्धधर्मानुयायो सूगतकीति नाम के विद्वान के साथ वर्तमान है और जिसने व्यर्थ के संबन्धवाल सार्धक ( साडूभाई ) के स्कन्ध पर पक्षियों का पिजरा स्थापन किया है, ऐसे अशोक वृक्ष के मूल में निवास करने वाले भगवान् (पूज्य ) श्री सुदत्ताचार्य को देख कर मन में निम्न प्रकार विचार किया।
मनोज्ञ अशोक वृक्ष को देखिये, जो कि एसे पल्लवों से मनोज्ञ है, जो काम-वाणों-सरोखे चित्र व मनोज्ञ
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१. 'वीरपः प्रवहणं उपनं च समे त्रयम्' इत्यमरः , कणिपु स्वन्ध रश कर्णीरथः दीर्षोभमपाल स्कन्धेनोहमानो
रघः विमानाख्यः । २. तथाहि-पीटमर्दः स विज्ञेयो : कामागमवावधीः । स्त्रीप्रसादविनोदजी विटो विकृतवैपभाका ॥१॥ जलवस्य यः पात्रं स विषक उमायते। यो गोष्ठधा बिटबंषानामधिगत सनायकः ॥ ३ ॥ यो गोतवाद्यनत्यज्ञो नेपथ्यविधिकोविदः । सामाजिकः स चोदव्यो यदच देवाः कलागमे ॥३॥
ह.लि. सटि (ख) प्रति से संकलित-सम्पादक ३. उपकार्योपकारिका मठमन्दिरादि राजसदन । *. 'पर्यायोऽवसरको निर्माणे द्रव्यधर्म च । ४. साधुक:--निजभाभिगिनीपतिः ।
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मशस्तिलकथम्पूकाव्ये
तरुणीवरणास्फालनसंक्रान्ता प्रक्कद्र कोत्रे कम् । विकिर्शद्भरिव पलाशंरशोक मालोकयत कान्तम् ॥५९॥ सन्मूलनिवासवन्तं सुदत्त भगवन्तं च स्वगतम् 'अहो कथमनेम भगवता परलोकलादनकरावकाशः कमनीयतां नीतः शरीरसंभवाभिनिवेशः क्लेशः । यतः ।
कार्य क्षुत्प्रभवं फबन मशनं शीतोष्णयोः पात्रता पारुष्यं च शिरोरुहेषु शयनं मह्यास्तले केवले । एतान्येव गृहे वहन्त्यवति यान्युन्नत कानने । दोषा एवं गुणो भवन्ति मुनिभियोग्ये पदे योजिताः ||६० ॥ तदसमत्र विकल्पपरम्परा । संभाषामहे तवदेनं संयमिनम् । न खलु रत्नाकर कल्लोला इव प्रायेण भवन्ति मुनयः शून्यशीला: । ततः समुपसद्य निषद्य च तत्र विवावाष्येषणोत्कर्ष कलुष धिषणः किलंषमाह मूरिः-
'अहो विवेकशून्यानामात्मातर्याश्रयाः क्रियाः । न ह्यङ्गो तो मुस्किन् णां महकुरङ्गवत् || ६१ ॥ यस्मादेष खलु
अकर्ता निर्गुणः शुद्धो नित्यः सर्वगतोऽक्रियः । अमूर्तश्चेतनो भोक्ता पुमान्कपिलशासने ॥ ६२॥
हैं एवं जिनके प्रान्तभाग वनदेवी के कर-कमलों-जैसे कोमल हैं। अतः जो ऐसे मालूम पड़ते हैं-मानों वनलक्ष्मियों की ओष्टदलसंबंधी लाली को श्रेणी से ही प्रशंसनीय हुए हैं एवं जो ऐसे प्रतीत होते हैं- मानों-युवती स्त्रियों के पादताडन से संक्रमण को प्राप्त हुए तरल लाक्षारस की प्रचुरता को ही फेंक रहे हे ।।५८-५९।।
अहो आश्चर्य है कि कैसे इस पूज्य ने शरीरजनित अभिप्रायवाला व स्वर्गलोक के प्रतीक अवसरवाला शारीरिक कष्ट प्रशंसनीयता में पाप्त किया है। उत्पन्न वाली शारीरिक दुर्बलता, कुत्सित या स्वल्प मत वाला भोजन, शोत व उष्ण के सहन करने की योग्यता, केशों में कठोरता एवं केवल पृथिवी तल पर शयन करना. ये ही वस्तुएँ गृह पर अवनति को धारण करती हैं, अर्थात् मानव की दखिता की प्रतीक हैं परन्तु वन में उन्नति को धारण करती है, अर्थात्-वन में उक्त कष्टों को सहन करनेवाले साधु की महत्ता सूचित करती है, क्योंकि साधु पुरुषों द्वारा योग्य स्थान (धर्म ध्यानादि) में योजना किये हुए दोष ही गुण हो जाते हैं || ६०|| अतः इस विषय में सन्देह समूह करने से पर्याप्त है। इसी चरित्रधारक साधु से हमलोग वार्तालाप करें। निस्सन्देह मुनिलोग प्राय: करके समुद्रतरङ्गों-सरीखे शून्य स्वभाववाले ( निरर्थक प्रयास फरनेवाले ) नहीं होते ।' फिर श्री सुदत्ताचार्य के समीप जाकर व स्थित होकर उनमें से सूरि ( शकुन सर्वज्ञ नामक विष्णुभक्त विद्वान ) ने, जो कि विवाद संबंधी अध्येषण ( सत्कारपूर्वक व्यापार ) की वृद्धि से कलुषित बुद्धिवाला है, इस प्रकार कहा - 'अहो ! ज्ञान होन पुरुषों की क्रियाएं ( कर्तव्य ) आत्मा को विपत्तियों का सङ्गम करानेवाली होती हैं, क्योंकि निश्चय से जैसे मृगतृष्णा में वर्तमान मृगों को शारीरिक कष्टों ( निरर्थक दौड़ने ) से सुख प्राप्त नहीं होता ( उनकी प्यास पान्त नहीं होती) वैसे ही विवेक शून्य पुरुषों को भी शारीरिक कष्टों से मुक्ति प्राप्त नहीं होती ।। ६१ ।।
क्योंकि निश्चय से यह आत्मा निम्नप्रकार है- सांख्यदर्शन में यह आत्मा अकर्ता (पुण्य-पाप कर्मों का बन्ध न करने वाला ), निर्गुण (सत्व, रज व तम आदि प्रकृति के गुणों से रहित), शुद्ध (कमल पत्र सरीखी निर्लेप ), नित्य ( सकलकालकलाव्यापी - शाश्वत रहने वाली अविनाशी ), सर्वगत (व्यापक - समस्त मूर्तिमान पदार्थों के साथ संयोग करने वाला ), निष्क्रिय ( एक देश से दूसरे देश को गमन करना रूप किया से शून्य ), अमूर्तिक ( प्रकृति के रूप, रस, गन्ध च स्पर्श तथा शब्द गुणों से शून्य ), वेतन ( शान्त चैतन्य-युक्त ) और भोक्ता (पुण्य-पाप कर्मों के सुख दुःख रूप फलों का भोगने वाला है ।। ६२ ॥
* उत्प्रेक्षालंकारः । १. सत्कारपूर्वी व्यापारोऽयेषणः सटिप्पण प्रति से संकलित-
२. उपमालंकारः ।
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पञ्चम आश्वासः
स यदा दुःखत्रयोपतप्तचेतास्तद्विघात:कहेतुजिज्ञासोकिप्तविवेकनोताः स्फाटिकाश्मानमिवानन्दात्मानमप्यात्मानं मुखातुःखमोहावहारिवतमहबहकाराविधिवत: पस्या: सरसाम.ENIT : सनातनम्यापिगुणांधिकृतेः प्रकृतेः स्वरूपमवगच्छति. तवायोमयगोलकानलतुल्यवर्गस्य बोधवबहुधानकर्मसगस्य सति विसर्ग सकलझानजेएसंबन्धबंफल्यं कैवल्पमषसम्यते । 'समा टुः स्वरूपेऽस्थानमिति वचनात् । ततश्च
____ अनुभवत्त पिचत खायत विलसत मानयत कामितं लोकाः । आत्मव्यक्तिविवेकान्मुक्तिननु कि क्या तपत ।।६३॥' धूमध्वजः
'घृष्यमाणो यथाजारः शुक्लता नंति जाचित् । विशुद्धति फुतविधतं निसर्गमलिनं तथा ॥६४!! न चापमिषस्ताविषः समर्थोऽस्ति यवोंऽयं तपःप्रयाप्तः सफरनायासः स्यात् । यतः। वादावर्षा योषा षोडशवर्षोधित स्थितिः पुवधः । प्रोतिः परा परस्परमनयोः स्वर्गः स्मृतः सविः ॥६५||
वह आत्मा, जिसका चित्त तीन प्रकार के दुःखों (आध्यात्मिक आधिभौतिक व आधिदैविक कष्टों) से सन्तप्त है, अथवा पाठान्तर में उपलुप्त है और जिसका विवेक (सम्यग्ज्ञान) रूपो जलप्रयाह समस्त दुःखों को ध्वंस करने के कारणों के जानने की इच्छा से वृद्धिंगत हो रहा है, अथवा पाठान्तर में जिसका बिवेकरूपी जलप्रवाह उक्त दुःखों के ध्वंस करने के कारणों को जिज्ञासा व उत्कण्ठा से अङ्कित चिह्नित है, जब ऐसी प्रकृति का स्वरूप जानता है, जो कि स्फटिक मणि-सरोसी शुद्ध व आनन्द स्वरूप वाली आत्मा को महान्' । बुद्धि ), अहकार व १६ गण ( पाँच ज्ञानेन्द्रिय-स्पर्शनादि व पांच कर्मेन्द्रिय ( पायू, उपस्थ, वचन, पाणि व पाद एवं मन तथा रूप, रस, गंध, स्वर व स्पर्शतन्मात्रा ) आदि विकारों से, जिनमें सुख, दुःख व मोह ( अज्ञान ) को धारण करनेवाले परिवर्तन पाये जाते हैं, कलुषित ( मलिन-पापिष्ठ ) कर रही है एवं जो सत्व, रज व तम गुणों को समतारूप मरे नाम वाली है और जो, शाश्वत व्यापी गुणों पर अपना अधिकार किए हुए हैं तब यह
आत्मा ज्ञान के संसर्ग-सरीखे प्रकृति के ससर्ग का त्याग करती है, जो कि लोहे के गोल और अग्नि के संयोग सरीखा है, । अर्थात्-जैसे गरम लोहे में लोहा और अग्नि का संयोग संबंध है वैसे ही प्रकृति व पुरुष का संयोग संबंध है ) ऐसे कैवल्य ( चैतन्य रूप को धारण करता है, जो कि समस्त ज्ञान व ज्ञेय ( पदार्थ । के संबंध से शून्य है, तब आत्मा का अपने चैतन्य स्वरूप में अवस्थान ( स्थिति हो जाता है उसे मुक्ति कहते हैं । अत: जब आत्मा और प्रकृति के भेद ज्ञान से ही मुक्ति होती है तब हे सज्जनो! इच्छित वस्तु भोगो, पिओ, खाओ, मनचाही वस्तु के साथ विलास करो एवं इच्छित वस्तु का सम्मान करो, क्योंकि जब निश्चय से प्रकृति व आत्मा के भेद जान से मुक्ति होती है, तब क्यों निरर्थक तपश्चर्या करते हुए कष्ट उठाते हो ? ॥ ६३ ।।'
अथानन्तर 'घूमध्वज' नाम के ज्योतिःशास्त्र वेता ब्राह्मण विद्वान् ने कहा-'जैसे घर्षण किया जानेदाला अङ्गार ( कोयला ) कभी भी शुक्लता-शुभ्रता को प्राप्त नहीं करता वैसे ही स्वभाव से मलिन चित्त भी किन कारणों से विशुद्ध हो सकता है ? अपितु नहीं हो सकता ।। ६४ ।। परलोक स्वरूप वाला ताबिष ( स्वम ) प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है (अथवा पाठान्तर में दूसरा लोक विशेष स्वर्ग प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं है, जिसके लिये यह सपश्चर्या का खेद सफल खेदवाला हो सके । क्योंकि-बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ष को योग्य आयु वाला
१. महानियुक्त माध्यमते बुद्धिलभ्यते, चस्मादेवाहंकारो जायते, अहंकाराच्च षोडश प्रकृतयस्तपाहि-स्पर्शनादि पंच
बुद्धीन्द्रियाणि, पायूपस्थवचः पाणिपादाः मनश्चेति षट् कर्मेन्द्रियाणि, रूपतन्मात्र, रसवन्मात्र, गन्धत मात्र, स्वरतन्मात्र,
स्पर्शतन्मात्र पनि पंचतन्मात्राणि । ह. लि. सटिक ( ख ) प्रति के आधार से संकलित-सम्पादक २. साविषः स्वर्गः।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
ततविहाय वेहस्य मुखानि येषां दुःखेन सौख्येषु मनीषितानि । ते फोरके कर्षणकारशीला: शालीन्युननमुणहरन्ति ॥६६॥' हरप्रबोधः
'मत्यथा लोकपाण्डिस्यं पंपाण्डित्यमन्यथा। सन्यथा तत्पदं शान्तं लोकाः क्लिश्यन्ति चान्यया ।। भगवतो हि भगस्य सकलजगवनप्रहस! द्विवागमस्य मार्गा वक्षिणो वामश्च । तत्रलोकसंचारणार्थ दक्षिणोमार्गः। तदाह--
प्रपञ्चरहितं शास्त्रं प्रपञ्चरहितो गुरुः । प्रपञ्चरहितं मानं प्रपञ्चरहितः शिवः ।।६८ः।
शिवं शक्तिविनाशेन ये वाञ्छन्ति नराधमाः। ते भूमिरहितातीजात्सन्तु नूनं फलोत्तमाः ॥६५॥ भक्तिमुक्तिप्रवस्तु वाममार्गः परमार्थतः । तबाह
अग्निवत्सर्वभक्षोऽपि भयभक्तिपरायणः । भुसि जीपमवाप्नोति मुक्ति तु लभते मृतः ।।७०॥ इममेव च मार्गमाश्रित्याभाषि भासेम महाकविना--
ऐया सुरा प्रिपतमामुक्षमोक्षणीयं प्रायः स्वभावललितोऽविकृतश्च वेधः ।
पुरुष इन दोनों को परस्पर. उत्कृष्ट प्रीति को सज्जनों ने स्वर्ग कहा है ।। ६५ ।। अतः जिनके मनोरथ, शारीरिक सुख त्याग कर कष्ट सहन द्वारा सुख-प्राप्ति करने के हैं, वे धान्यकों पर हल चलाने की प्रकृति वाले होते हुए निस्सन्देह खेत से धान्य उखाड़ते हैं | भावार्थ-जैसे हरी धान्य के पुष्पों पर हल चलाते हुए या उनको जोतते हुए, मानवों के लिए उपजाऊ भूमि के बिना खेत से पान्य उखाड़ना असम्भव है, वैसे ही शारीरिक सुखों को तिलाञ्जलि देकर तपश्चर्या का कष्ट करते हुए मानवों को निस्सन्देह सुख प्राप्त होना अगम्भव है। ॥६६॥' फिर गड़े हुए धन को बताने वाले शास्त्र के वेत्ता 'हरप्रबोध' नामक तपस्वी ने कहा
'लोकपटुता ( व्यवहार-चातुर्य ) दुसरी वस्तु है और वेदों की विद्वत्ता दूसरी चीज है एवं शान्तियुक्त मोक्षपद दुसरी असाधारण वस्तु है और मनुष्य समूह उसकी प्राप्ति के लिए दूसरे प्रकार से कष्ट उठाते हैं। अभिप्राय यह है कि लोक में ऐसा देखा जाता है कि विद्वान् पुष्प व्यवहार-गून्य होता है और व्यवहारो विद्वत्ता-शून्य होता है, इसी प्रकार परम शान्ति स्थान मुक्ति भिन्न है और उससे अशान्त उपाय भिन्न है ।। ६७ ॥ भगवान् ब्रह्मा या श्री शिव के आगम ( वेद ) का मार्ग, जिसको सृष्टि समस्त संसार के अनुग्रह निमित्त हुई है, निश्चय से दो प्रकार का है। दक्षिण मार्ग और वाममार्ग। उनमें से दक्षिण मार्ग लोक व्यवहार-संचालन के लिए है, उसके विषय में कहा है-शास्त्र (वेद व स्मृतिशास्त्र ) प्रपञ्च-रहित ( भ्रम-शून्य ) है और गुरु प्रपञ्च-रहित (मायाजाल-शून्य ) है एवं ज्ञान प्रपञ्च-रहित ( संदेह, मिथ्या व विपर्यम्त-रहित) है तथा शिव प्रपञ्च-रहित (मांसार के माया-आदि से मुक्त ) है ॥ ६८ ।। जो मनुष्यों में क्षुद्र मनुष्य शक्ति-विनाश' से ( माया के विनाकामनीय कामिनी के बिना) शिव ( सदाशिव ) को प्राप्ति चाहते हैं वे, निश्चय से खेत के विना ही केवल धान्यादि के बीज से धान्य-फलों के प्राप्त करने में उत्तम हों। अर्थात्-जैसे भूमि के विना केवल धान्य-बीज से धान्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती, वैसे स्त्री के विना भी सुख प्राप्त नहीं हो सकता ॥ ६९ । निश्चय से वाममार्ग विषय-भोग और मुक्ति देनेवाला है। उसने विषय में कहा है--जो मानव अग्नि के समान समस्त ( खाद्य-अखाद्य ) वस्तुओं का भक्षण करता हुआ भी केवल श्री शिव की भक्ति में तत्पर है, वह जीवित अवस्था में विषय भोग प्राप्त करता है और मरने पर मुक्ति प्राप्त करता है ।। ७० ॥ इसो वाममार्ग का आश्रय लेकर महाकवि भास ने कहा है-मद्य पीना चाहिए और प्रियतमा ( विशेष प्यारी स्त्री ) का १. निदर्शनालंकारः। २. स्वियं विमा ।
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पञ्चम आश्वासः
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येनेवमीशमवृश्यत मोक्षवम बोर्यायुरस्तु भगवास पिनाकपाणिः ॥७१।।' सुगतकीति:--'आत्मग्रह एवं प्राणिनां तावन्महामोहावन्ध्यान्ध्यम् । __ यतः--यः पश्यत्यात्मानं तस्यात्मनि भवति शाश्वतः स्नेहः । स्नेहासुखेषु तृष्यति तृष्पा दोषांस्तिरस्कृष्ते ॥७२।।
आत्मनि सति परसंना स्वपरविभागास्परिप्रदेषो । अनयोः संप्रतिबमा सधै घोषाः प्रजायन्ते ।।७।। विगलिताग्रहे चास्मग्रहे निराशचित्तोत्पत्तिलक्षणो निरोवापरनामपक्षो मोक्षः स्वलक्षणेऽक्षिणामणः स्वलक्षणं । तदाह- यथा स्नेहमयाहीपः प्रशाम्यति निरन्वयः । तथा क्लेशमयाजन्तुः प्रशाम्यति मिरवयः ।।७४॥ एवं व सति के शोल्लुमबनतप्तशिलारोहणकेचादर्शनाशनविनाशब्रह्मचर्यावयः केवलमाएमोपयातायव । तयुक्तम्--
घेवप्रामाण्यं कस्यचित्यातवावः लाने धर्मेच्छा जातिवावावलेपः ।
संतापारम्भः पलेशनाशाय चेति ध्वस्तप्रजानां पञ्चलिङ्गानि जाजचे ॥७५।। इनमेव च तत्त्वमुपलभ्यालागि नीलपटेन
पोषरभरालमाः स्मरणिणितामा मानित मलयप नोन्नति तशङ्कारिणीः।
मुख देखना चाहिए एवं स्वाभाविक सुन्दर विकार-शून्य वेप धारण करना चाहिए। वह भगवान शिव चिरञ्जीवी हो, जिसने ऐसा मोक्षमार्ग प्रदर्शित किया ।। ७१ ॥ तदनन्तर ठकशास्त्र घेता बुद्ध धर्मानुयायी सुगतकौति नाम के विद्वान् ने कहा-'सबसे प्रथम आत्म ग्रह ( आत्म द्रव्य का आग्रह-ह) ही प्राणियों की महान् मोह फी सफल अन्धता है।
क्योंकि-जो आत्मा को जानता है, उसका आत्मा में निरन्तर स्नेह (राग) होता है और स्नेह होने से पंचेन्द्रियों के सुखों को तृष्णा करता है एवं सुखों को तृष्णा दोषों को स्वीकार करतो है। आत्मा के होते पर दूसरो जीब संजा होती है और जिससे स्त्र' ओर पर के विभाग से परिग्रह व दाप उत्पन्न होते हैं और इससे परिग्रह दोपों में अच्छी तरह बंधे हुए समस्त दोष उत्पन्न होते हैं ॥७२-७३ ।। जब आत्मदव्य का आग्रह ( हठ ) दूर नष्ट ) हो जाता है तर सन्तान-( द्रव्य ) रहित वित्त की उत्पत्ति लक्षणवाला द निरोध नामक दुसरे नाम वाला ऐमा मोक्ष स्वलरण' ( एसा क्षणिक निरंग परमाणुमात्र, जो कि स्वजातीय व विजातीय परभाणु से व्यावृत्त । निवृत्त ) है) प्राणियों का परिपूर्ण होता है । ससके विषय में कहा है-जैसे तेल के नष्ट हो जाने से दीपक अन्वय-( संतान ) रहित हुआ शान्त हो जाता है (बुझ जाता है वैसे ही यह जोब समस्त क्लेशों के क्षय हो जाने से अन्वय ( सन्तान ) रहित हुआ शान्त ( गष्ट ) हो जाता है ।।७४) ऐसा निश्चय होने पर केशों का उखाड़ना, तपी हुई शिला ( चट्टान } पर चढ़ना, केश के दिखाई देने पर भोजन का त्याग और ब्रह्मचर्य-आदि केवल बात्मा के उपघात के लिए है। कहा है--
ऋग्वेद-आदि वेदों को प्रमाण मानना, किसी का कर्तवाद ( ईश्वर को सुष्टि कर्ता को मान्यता गङ्गा-आदि में स्नान करने में धर्म को अभिलाषा, याह्मग-आदि जाति का गर्व करना और शरीर को कष्ट देना इस प्रकार नष्ट बुद्धिवालों की जड़ता के सूचक पांच चिन्ह हैं ॥ ७५ ।। गोलपट नामके कवि ने इसी विषय को लेकर निम्नप्रकार कहा है-इन ऐसो रमणियों ( कमनीय कामिनियों) को छोड़कर, जो कि कुचकलशों के भार से मन्द हैं, जिन्होंने काम से आये नेत्र चारों और संचालित किये हैं. और जिनमें किसी स्थान पर लयसहित पञ्चम स्वर से गाये हुए गीतों को कानों का सुख देनेवाली शङ्कार ( मनोज्ञ ध्वनि ) वर्तमान है, इमरे मोक्ष मुख १. स्वजातीयविजातीयव्यातक्षणिकनिरंशपरमाणुमात्र ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
विहाय रमणीरवरपर मोक्ष सौख्याथिनामहो जडिमडिण्डिम विफलभण्डपाखण्डिनाम् ॥७६॥ केतनस्य महतो सर्वार्थसंपरकरी ये मोहादवधीरयन्ति कुषियो मिष्याफलान्वेषिणः । ते तेन नित्य नियतरं सुण्डीकृता लुम्बिता: केचित्पञ्चशिखीकृताइत्र जटिन: कापालिका श्चापरे ॥७७||
स्त्रीमुद्रा
१५६
खण्डकाव्यात् स्वस्त.-
पश्यन्ति मे जन्म सृतस्य जन्तो: पश्यन्ति ये धर्ममदृष्टसाध्यम् । पश्यन्ति मे ऽन्यं पुरुषं शरीरात् पश्यन्ति ते नौलकपीतकानि ॥ ७८
सतश्च प्राणापानसमानोदानव्यानव्यतिकीर्णेभ्यः कायाकारपरिणतिसंकीर्णेभ्यो वनपवनावभिपवनसत्वेभ्यः पिष्टोवकगुडघातकीप्रमुखेभ्य इव मशक्तिः पर्णचूर्णक्रमुकेभ्य इव राग संपत्तिस्तदात्मकार्य गुणस्त्रभाषतया चैतन्यमुपजायते । तच्च गर्भावरण
की अभिलाषा करने वाले निरर्थक चित्तमात्ररञ्जक पाखण्डियों की महो | यह ( कायक्लेशादि ) मूर्खता को घोषणा ( चिह्न) है || ७६ || जो मूढबुद्धि झूठे स्वर्गादि फल का अन्वेषण करनेवाले होकर अज्ञानवश कामदेव की सर्वश्रेष्ठ और समस्त प्रयोजन रूप संपत्ति सिद्ध करनेवाली स्त्री- मुद्रा का तिरस्कार करते हैं, वे मानोंउसी कामदेव द्वारा विशेष निर्दयता पूर्वक साहित कर मुण्डन किये गए अथवा केश उखाड़ने वाले कर दिये गए एवं मानो - पञ्चशिखा युक्त ( चोटीधारी ) किए गए एवं कोई तपस्वी कापालिक किये गए ॥ ७७ ॥ फिर चण्डकर्मा नाम के कोट्टपाल ने कहा – कि बुद्धधर्मानुयायी सुगत कीर्ति विद्वान् ने निस्सन्देह अच्छा कहा --- क्योंकि - जो भरे हुए प्राणी का जन्म ( पुनर्जन्म ) देखते हैं और जो ऐसे धर्म को देखते है, जिसका फल प्रत्यक्ष प्रतीत नहीं है एवं जो शरीर से पृथक् वात्मा को देखते हैं वे ( मूढ़ बुद्धि ) भ्रमवश नीलक ( नीलवर्णवाली वस्तु ) पीतक ( पीतवर्णवाली ) समझते हैं और पीतवर्णवाली वस्तु की नील वर्ण वाली समझते हैं । अर्थात् - जैसे, नील को पीत व पीत को नील समझना भ्रम है वैसे ही पुनर्जन्म, धर्म तथा शरीर से भिन्न द्रव्य की मान्यता भी भ्रम है ॥ ७८ ॥
म
अतः जल, वायु, पृथिबी व अग्नि इन ऐसे चार पदार्थों से, जो कि शरीराकार परिणति ( दूसरी पर्याय- अवस्था ) से मिश्रित है और प्राण' ( हृदय में स्थित हुई वायु ), अपान ( गुदा में स्थित हुई बाबु ), समान (नाभि में वर्तमान वायु उदान ( कण्ठ देश में स्थित वायु ) और व्यान वायु ( समस्त शरीर में वर्तमान वायु ) द्वारा क्षिप्त ( फेंके गये) हैं, वेसा चैतन्य ( आत्मद्रव्य ) उत्पन्न होता है, जैसे चूर्ण किये हुए जलमिश्रित गुड व धातकी पुष्प ( घाय-फूल ) आदि पदार्थों से मद शक्ति ( मद्य ) उत्पन्न होती है । अथवा जैसे पान, चूना व सुपारी से रागसम्पत्ति ( लालिमा रूपी लक्ष्मी ) उत्पन्न होती है। क्योंकि यह चैतन्यशक्ति ( ज्ञानशक्ति ) देहात्मिका* ( शरीर रूप ) देहकार्या ( शरीर से उत्पन्न हुई कार्यरूप ) व देहगुण ( शरीर का गुण ) है | वह चैतन्य ( आत्मा ), गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त रचना-युक्त है, इसलिए नष्ट हुआ वह ( चैतन्य ) वैसा पुनः उत्पन्न नहीं होता जैसे वृक्ष से गिरा हुआ पत्र पुनः उत्पन्न नहीं होता । इसलिए परलोक ( पुनर्जन्म ) का अभाव सिद्ध होने पर और जब जल के बबूलों सरीखे क्षणिक जीवों में मदशक्ति सरीखी चैतन्य शक्ति सिद्ध
२. व्यत्प्रेक्षालंकारः ।
१. काम्यलिङ्गाकारः । ३. हृवि प्राणो पानः समानो नाभिसंस्थितः । सदानः कण्ठदेणे स्वानुपानः सर्वशरीरगई' ॥ १ ॥ इयमरः । ४. 'देहात्मिका कार्या देहस्य च गुणतो मतिः । यतवयमिहाश्रित्य नास्त्यभ्यासस्य संभवः ॥ १ ॥ इति
ह० लि० सटि (ग) प्रति से संकलित०---
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पञ्चम आश्वास:
१५७ पर्यापर्यातीतं सत्, पावपात्पतितं पत्रमिव न पुनः प्ररोहति । तथा च परलोकाभावे जलबुदबुदस्वभावेषु जोर्वेषु मदप्रतिज्ञानेकिमयं ननु लोकस्यात्मसपत्नः प्रयत्नः । तदपहायामीषां जोवन्मृत मनीषाणां मनीषितमेतत् कुशलारा
यम् ।
भगवान् —
कि छ ।
इस्यमुष्याय
यावज्जीवेत् सुखं जीवेनास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य शान्तस्य पुनरागमनं कुतः ।। ७९ ।। रिस्य अन्ततस्य गुणदोषावपश्यतः । विलब्धा बत केनामी सिद्धान्तविषमग्रहाः ॥८०॥ समाधिकरी वादस्तस्याख्यानं बिरुद्धबोधानाम् । भवति हि कोपाय परं शिक्षा व्यालेण्विक गजेषु ॥ ८१ ॥ अपि च व्याक्रोशी ध्यापहासी वा विपर्यस्तैः सहोविते । स्वस्य मयंपेक्षायामही कष्टर विशिष्टता ॥ ८२ ॥ यघातस्योपदेशनं ॥८३॥ स्तौ नित्य सोको विविधविधायक
दशनोटिशः कुखपुण्याकुरिता इव । सूरिः सभूतवामेवं बभाषे स्वरितस्वरः ॥ ८४ ॥ बन्धमोक्ष सुखं दुःखं प्रवर्तननिवर्तने । यो प्रकृतेर्धर्मः कि स्यात्पुंसः प्रकल्पनम् ।। ८५ ।।
होगई तब लोक का यह आत्मा के साथ शत्रुता करने वाला तपश्चर्या रूप प्रयत्न किस प्रयोजन से है ? अर्थात्निरर्थक है । अतः जोते हुए भी मुरदे सरीखी बुद्धि रखने वाले इन मुनियों के सिद्धान्त ( पुनर्जन्म आदि की मान्यता ) को छोड़कर कुशल अभिप्राय बालों को निम्नप्रकार की नास्तिक दर्शन की मान्यता स्वीकार करनी चाहिए। जब तक जिओ तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो, क्योंकि [ संसार में ] कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं हैं, अर्थात् - सभी कालकवलित होते हैं । भस्म रूप हुई शान्त देह का पुनरागमन कैसे हो सकता है ? ( इति पूर्वपक्षः समाप्तः ) । अर्पित नहीं हो सकता ॥ ७९ ॥
तदनन्तर इन्द्रादि द्वारा पूज्य श्री सुदत्ताचार्य ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया- 'खेद है कि जन्म-काल में मिथ्याज्ञान से रहित और गुण व दोष न देखते हुए इस जीत्र में ये सिद्धान्तरूपी भोषण ग्रह किसने अर्पण कर दिये ? ||८०|| विशेष यह है कि मिथ्यादृष्टियों के साथ वादविवाद करना, उनका समाधान करनेवाला नहीं होता एवं उनके लिए दी हुई यथार्थ शिक्षा निस्सन्देह वैसी उनके केवल क्रोध-निमित्त होती है जैसे दुष्ट हाथियों के लिए दी हुई शिक्षा केवल उनके क्रोध निमित्त होती है ॥ ८१ ॥ विशेष यह है कि जब मिथ्यादृष्टि वादियों के साथ कुछ कहा जाता है तो वे वक्ता को गाली देनेवाला और उपहास करनेवाला - निन्दा करनेवाला कहते है और जब बक्ता उनके प्रति माध्यस्थ्यभाव धारण करता है ( कुछ भी नहीं कहता ) तो उन्हें वक्ता की मूर्खता प्रतीत होती है । अहो आश्चर्य है कि इसप्रकार विद्वत्ता भी कष्टप्रद है | १८२|| यह लोक अनेक प्रकार की इच्छाओं का स्वामी है, अतः यह बक्ता की स्तुति करे या निन्दा करे, तथापि सज्जनों को यथार्थं तत्व का उपदेश देनेवाले होना चाहिए ॥ ८३ ॥
फिर सत्यवक्ता श्री दत्ताचार्य ने मध्यम ध्वनि वाले होते हुए व दन्तकिरणों से दिशाओं को पुष्यरूपी अङ्कुरों से व्याप्त करते हुए-से होकर निम्न प्रकार कहा' ॥ ८४ ॥ [ 'शकुन सर्वज्ञ' नाम के विष्णुभक्त विद्वान द्वारा कहे हुए सांख्यमत का खंडन ] यदि वन्धु मोक्ष, मुख, दुःख, प्रवृत्ति, व निवृत्ति यह प्रकृति का धर्म है सो आत्मतत्व की मान्यता का क्या प्रयोजन होगा ? अर्थात् - जब आपने पुरुषतत्व (आत्मा) को माना है तो जाना है कि प्रकृति अचेतन ( जड़ ) है और आत्मा चेतन है, अतः बंध व मोक्ष आदि आत्मा के ही धर्म मानते चाहिए न कि जड़ प्रकृति के ॥ ८५ ॥ 'जब आप 'प्रकृतिः कर्थी पुरुषस्तु पुष्करपलाशवनिर्लेपः किन्तु चेतनः '
१. उपमालंकारः ।
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यदास्तिलकचम्पूकाव्ये
कि च ।
अकर्ता पुमान्भोक्ता क्रियाशून्योऽप्युवासिता । नित्योऽपि जातंसंसर्गः सर्वगोऽपि वियोगभाक् ॥ ८६॥ शुद्धोऽपि बेहसंबद्धो निर्गुणोऽपि शमुध्यते । इत्यन्योन्यविरुद्धोक्तं न युक्तं कापिलं वचः ॥ ८७॥ वियापी भवेदात्मा यदि व्योमयबजसा । सुखदुःकादिसद्भावः प्रतीयेताङ्गवहिः ॥८८॥ नित्ये सदा पुंसि कर्मभिः स्वफलेरिनिः । कुतो घटेल संबन्धो यथरकापास्य रज्जुभिः २८९ ॥ घृष्यमाणाङ्गारवदन्तरङ्गस्य विशुद्धभावे कयमिदमुदाहारि कुमारिलेन
विशुद्धज्ञानदेहाय frवेषीदिव्यचक्षुषे । श्रेयःप्राप्तिनिमित्ताय नमः सोमार्धधारिणे ॥१०॥ कयं चेदं वचनमजम्
समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेकं समस्तानि वस्तूनि यम्म स्पृशन्ति । विद्वत्सदा शुद्धिः स तिश्योऽहमात्मा ॥ ११ ॥
१५८
कथं चेयं श्रुतिः समस्त
अर्थात् - प्रकृति को करनेवाली मानते हो और आत्मा को कमल पत्र की तरह निर्दोष व अकर्ता किन्तु चेतन मानते हो तब यदि आत्मा कर्ता नहीं है तो वह भोक्ता (भुजि किया का कर्ता - मोगनेवाला) कैसे हो सकता है ? जब आत्मा निष्क्रिय (क्रिया रहित ) है तो वह उदासिता ( उदासीनता युक्त ) कैसे हो सकता है ? क्योंकि क्या उदासीनता क्रिया नहीं है ? इसीप्रकार जब आत्मा नित्य ( अधिकारी नित्य ) है तब वह प्रकृति के साथ संबंध वाला कैसे हो सकता है ? एवं जब आत्मा व्यापक ( समस्त मूर्तिमान् पदार्थों के साथ सदा संयोग रखनेवाला ) है तब शरीरादि प्रकृति के साथ वियोग रखनेवाला कैसे हो सकता है ? जब आत्मा शुद्ध है तब शरीर के साथ संबंधवाला कैसे हो सकता है ? और जब यह गुण होन है तब सुख रूप कैसे हो सकता है ? ( अथवा पाठान्तर का अभिप्राय यह है कि जब आप आत्मा को शुद्ध व निर्गुण मानते हो तब वह शरीर के साथ संयोग संबंध रखनेवाला कैसे हो सकता है ? इसप्रकार परस्पर विरुद्ध सांख्य दर्शन के वचन युक्ति-संगत नहीं हैं ॥ ८६-८७ ।। यदि आत्मा वस्तुतः आकाश की तरह सर्व व्यापी है तो सुख दुःखादि का सद्भाव शरीर को सरह बाह्यप्रदेश में प्रतीत होना चाहिए । अर्थात् जैसे शरीर में सुखादि मालूम पड़ते हैं वैसे हो वाह्यदेश में भी मालूम पड़ना चाहिए परन्तु शरीर से बाल्यदेश में जत्र सुखदुःखादि प्रतीत नहीं होते तब आत्मा सर्वव्यापी कैसे हो सकती है ? ॥ ८८ ॥ जब आत्मा सदा नित्य व अमूर्तिक है तो उसका अपने सुख-दुःख रूप फलों को देनेवाले कर्मों के साथ संबंध सा कैसे घटित हो सकता है ? जैसे नित्य व अमूर्तिक आकाश का रज्जुओं ( रस्सियों ) के साथ संबंध घटित नहीं हो सकता ॥ ८५ ॥
अव ज्योतिःशास्त्रवेत्ता घूमध्वज नामके ब्राह्मण विद्वान की मान्यता का निराकरण करते हैं- जब आपण किये जानेवाले कोयले सरीखे मन को विशुद्धि नहीं मानते तो कुमारिल विद्वान् ने निम्नप्रकार आत्मबिशुद्धि के विषय में कैसे कहा ? 'उन चन्द्रकला-युक्त चन्द्रशेखर श्री शिवजी के लिए शाश्वत कल्याण को प्राप्तिनिमित्त नमस्कार हो, जो विशुद्ध ज्ञानरूपी शरीर वाले हैं व तीन वेदों का समूहरूपी दिव्य चक्षु वाले हैं ॥ ९० ॥ एवं निम्नप्रकार का वचन कैसे संगत होगा ? 'जो समस्त पदार्थों में व्याप्त हुआ एक हैं, जिसे समस्त वस्तुएँ स्पर्श नहीं करतो, जिसका स्वरूप आकाश सरोना सदा शुद्ध है, वह सिद्ध उपलब्धि वाला नित्य आत्मा में हूँ' ।। ९९ ।। एवं निम्नप्रकार के वैदिक वचन कैसे युक्ति-संगत होंगे ? यह स्पष्ट है कि शरीर सहित आत्मा के पुण्यपाप कर्मों का विनाश नहीं होता ( पुण्यपाप कर्मों का संबंध बना रहता है) और शरीर शून्य (परम सिद्ध ) रहनेवाले आत्मा को पुण्य-पाप कर्म स्पर्श नहीं करते, (नष्ट हो जाते हैं) ॥९२॥ अतः अब आत्मशुद्धि समर्थक युक्तियों
१. 'समुच्यते इति ह. लि. ( क ) पाठः ।
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पञ्चमं आश्वांसः
नहि सशरीरस्य प्रिया प्रिमयोरपहति रहित । मशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्तः ॥ १२ ॥
इति । ततश्च ।
मलकलुषतापात र विशुद्धपति यत्त्रतो भवति कनकं तत्पाषाणो यथा च कृतक्रियः । कुशलमतिभिः कंश्विद्वत्यैस्तचाप्सनयाश्रितं रथमपि गलत्श्लेशाभरेगः क्रियेत परः पुमान् ॥ ९३ ॥ रागाद्युपहतः शंभुरशरीरः सदाशिवः । अप्रामाण्यरयत्पत्तेः कथं तत्रागमोत्सवः ॥ ९,४।१ सयुक्तम् -- का नंब सदाशिवो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् विध्यावपर तृतोयमिति चेत्तत्करूप हेतोरभूत् । शक्रया चेत्परकीयया कथमसौ तद्वरन संबन्धतः संबन्धोऽपि न जायटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ।। ५५ ।। एवं च सतीदं न संगच्छते
अवृष्टविग्रहाच्छान्ताखिवारपरमकारणात् । नाव रूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमभम् ॥९६॥ fare स्याप्ततायां श्लेशकर्मविपाककषायंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वर' इति पेश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्ति निसर्ग जनिता आत्यन्तिकं सुखमनावरणा च शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं
श्रशितेन्द्रियेषु ।
भगवंस्तवैव ॥ ९७ ॥
१५९
का निरूपण करते हैं— जैसे मल (कीट) से कलुषित (मलिन) माणिक्य आदि रत्न यत्नों (माणोल्लेखन- आदि उपाय ) से बिशुद्ध हो जाता है और जैसे सुवर्ण-मापाण, जिसकी क्रियाएँ (अग्निलागन व छेदन आदि ) की गईं हैं, सुवर्ण हो जाता है, वैसे ही कुशल-बुद्धि-शाली व आप्त ( वीतराग सर्वज्ञ ) तथा उसके स्याद्वाद का आश्रय प्राप्त किये हुए किन्हीं धन्यपुरुषों द्वारा आत्म-वृद्धि के उपायों ( सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारिश्र आदि ) से यह मिथ्यास्वादि से मलिन आत्मा भी क्लेशों के विस्तार को नष्ट करनेवाला ऐसा उत्कृष्ट - शुद्ध किया जाता है ।। ९३ ।। अब हरप्रबोध तपस्वी द्वारा निरूपण की हुई वैदिक मान्यता (वाममार्ग) का निरास करते हैं--शंभु (पार्वती - कान्त ) राग व द्वेषादि विकारों में पीडित होने से अप्रमाण है और सदाशिव से आगम ( वेद ) की उत्पत्ति कदापि हो नहीं सकतो; क्योंकि वह शरीररहित है, अतः उसके द्वारा आगम की उत्पत्ति रूप माङ्गलिक कार्य कैसे हो सकता है ? भावार्थ-शंभु जब रागादि दोष से दूषित है तब वह वैसा प्रमाण नहीं है जैसे रथ्यापुरुष ( मार्ग में जानेवाला मानव ) प्रमाण नहीं है, अतः अप्रमाणभूत उसका कहा हुआ आगम (वेद ) प्रमाण कोटि में नहीं आ सकता एवं सदाशिव अशरीरी होने से उसके द्वारा वेद की उत्पत्ति वैसी नहीं हो सकती जैसे शरीर रहित आकाश से वेदोत्पत्ति नहीं हो सकती ।। ९४ ।। कहा भी है
सदाशिव वेदों का बक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह शरीर या इन्द्रियों से रहित है । एवं उससे दूसरा पार्वती - कान्त ( श्री शिव ) बक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह सरागी है। यदि आप कहोगे कि उन दोनों से भिन्न तीसरा कोई बक्ता है, उस विषय में प्रश्न यह है कि ( उसका उत्पादक कारण कौन हैं ? ) यदि आप कहोगे कि कोई ऐसी शक्ति है, जिससे वह उत्पन्न हुआ है, तब बताइए कि जब वह शक्ति उससे भिन्न है तो भिन्न शक्ति से वह शक्तिमान् कैसे हो सकता है ? क्योंकि दूसरी शक्ति के साथ उसका संगम नहीं है। यदि आप कहेंगे कि उस भिन्न शक्ति का उसके साथ समवाय संबंध है, तब युक्तियुक्त विचार करने पर वह संबंध भी विशेष रूप से घटित नहीं होता अतः आपका नादरूप शास्त्र (वेद) वक्ता रूप आलम्बन से शुन्य हो गया ||१५|| ऐसा होने पर निम्न प्रकार का वचन युक्तिसंगत घटित नहीं होता 'शरीर-रहित, शान्त व उत्कृष्ट कारण रूप शिव से नादरूप विशेष दुर्लभ शास्त्र (वेद) उत्पन्न हुआ ||२६|| ' यदि आप रागादि से पीडित रुद्र ( श्रीशिव) को ईश्वर मानोगे तो 'क्लेशकर्मविपाकाशयेरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः' अर्थात् - ऐसा पुरुष विशेष, जो कि समस्त दुःखों
१. मदकलुषतां जातं ।
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इति व विद्धयते । अन्यथाभूतस्याप्ततायाम्
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
आस्तां सवान्यवपि तावदतुल्यकामैश्वर्यमीश्वरपदस्य निमित्तभूतम् । वच्छेफसोऽपि भगवन्न गतोऽवसानं विष्णुः पितामहयुतः किमुतापरस्य ॥१८॥ इति, रथः क्षोणी बन्त शततिरगेन्द्रो धनुरथो रमाङ्ग चन्द्रार्को स्थचरणपाणिः शर इति । विघशांस्ते कोऽयं त्रिपुरतॄणमाडम्वरविधिविधेयैः क्रीडन्यो न खलु परतन्त्राः प्रभुवियः ॥ ९६९ ॥ इति च पहिलभाषितम् । तथेदमपि न प्राप्रहरम् ।
अज्ञो जन्तुएनोशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गलवर्ग या वनमेव वा ॥ १००॥ इति,
भोग्यामाहुः प्रकृतिमृषयश्चेतनाशक्तिशून्यां भोला नैनां परिणमयितुं बन्धवर्ती समर्थः ।
भोग्येऽप्यस्मिन्भवति मिथुने पुष्कलस्तत्र हेतुनोलग्रीवस्त्वमसि भुवनस्थापनासूत्रधारः ॥ १०१ ॥ इति च आकाशकल्पस्य aाशिषस्य परं प्रति प्रेरकता न युक्ता । स्वयं पराप्रेषित एवं शंभूर्भवेल्परप्रेरथितेति चिन्त्यम् ॥
व पुण्य-पाप कर्मों तथा उनके सुख दुःनरूप फलों से रहित हैं, ईश्वर है।' यह कथन तथा निम्नप्रकार कथन विरुद्ध प्रतीत होता है- 'नष्ट न होनेवाला ऐश्वर्य, स्वाभाविक वीतरागता स्वाभाविक तृप्ति ( सन्तोप ), जितेन्द्रियता, अत्यन्त - अनन्तमुख, आवरण- शून्य शक्ति और समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाला ज्ञान, समस्त गुण हे भगवन् ! तेरे में ही हैं ||२७|| यदि आप वीतरागी सदाशिव को आप्त (ईश्वर) मानोगे तो आपका निम्न प्रकार का कथन ( शिव रुद्र-स्तुति) विरुद्ध पड़ता है— 'हे भगवन् ! तुम्हारा दूसरा अनोखा व ईश्वर पद का निमित्तभूत ऐश्वर्य भी एक जगह रहे परन्तु ब्रह्मा सहित विष्णु ने भी जब आपके शेफ' ( रामवृन्द-परिवेष्टित जननेन्द्रिय या टि० से अभिप्राय के साधन ) का भी अन्त नहीं पाया तब दूसरे की क्या कथा ?
भावार्थ-यहाँ पर यह बात विचारणीय है कि जब वीतरागी सदाशिव के शरीर ही नहीं है तब उसमें शेफ (जननेन्द्रिय) कैसे घटित हो सकता है ? अतः उक्त श्लोक में शेफ का कथन भी विरुद्ध है ||२८|| इसी प्रकार निम्नप्रकार ग्रहिल के वचन भी विरुद्ध हैं— 'जहाँपर पृथिवो हो रथ है, इन्द्र अथवा ब्रह्मा ही सारथि है, सुमेरुपर्यंत ही धनुष है और चन्द्र व सूर्य ही पहिये हैं एवं चक्रपाणि ( श्रीनारायण ) ही वाण हैं। इस प्रकार से त्रिपुररूप तृण को दग्ध करने के इच्छुक हुए तुम्हारी यह आडम्बर विधि क्या है ? क्योंकि प्रभु की वृद्धियाँ निश्चय से पराधीन नहीं होतीं परन्तु आज्ञाकारियों के साथ क्रीड़ा करती हुई होती हैं। अभिप्राय यह है-तब विष्णु प्रभूति को उक्त कार्य करने निमित्त क्यों एकत्रित किये ? ||९|| इसी प्रकार निम्न प्रकार का कथन भी श्रेष्ठ नहीं है - 'यह अज्ञानी प्राणो अपने सुख-दुःखों को उत्पत्ति में असमर्थ है, अल: ईश्वर के द्वारा प्रेरित हुआ स्वर्ग अथवा नरक जाता है ||१००||' इसी प्रकार निम्न प्रकार कथन भी विरुद्ध हैं---
'ऋषियों ने प्रकृति की चेतना ( ज्ञान ) शक्ति से शून्य व भोगने योग्य कहा है और बन्ध सहित यह भोक्ता ( जीव ) प्रकृति को परिणमन कराने में समर्थ नहीं है और जब भागने योग्य स्त्री पुरुष का जोड़ा वर्तमान है, तब उसकी उत्पत्ति में प्रचुर या समर्थं कारण होना चाहिए, अतः हे शिव! तुम ही लोक की स्थापना करने के लिए सूत्रधार ( संसार रूपी नाट्यशाला के व्यवस्थापक या प्रधान कारण ) हो || १०१ ॥ आकाश सरीखे शरीर-रहित व व्यापक सदाशिव को दूसरे को प्रेरणा करनेवाला होना युक्तिसंगत नहीं है। यदि आप कहेंगे
१. मेहनस्य – मयुपरिवेष्टितलिङ्गस्य
समे मेहनशेफसी' वत्यमरः । तथा च विरागस्य सदाशिवस्य शरीराभावे शेफः कथं घटते इति विरुद्धं ।
वोफस: सावनस्य । २. रूपकालंकारः ।
12
ह. दि. टि. प्रति ( ख ) से समुद्धृत-
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पश्चम आश्वासः
नगरकर्तवावरच पूर्वमेव चिन्तितः । तथाहि
कर्ता न तावविह कोऽपि बियेच्छया वा दृष्टोऽन्यथा कटकूताबपि स प्रसङ्गः ।
कार्य किमत्र सबनाविषु तबकायराहत्य घेत् त्रिभुवन पुरुषः करोति ॥१०२॥ कर्मपर्यायत्वे वेश्वरस्य सिद्धसाध्यता । तदाह--
विधिविधाता नितिः स्वभावः कालो प्रहश्चेश्वरवकर्म ।
पुण्यानि भाग्यामि तथा कृतान्तः पर्यायनामानि पुराकृतस्य ||१०३।। कपमवेतन फर्म परोपभोगाय प्रवतंत इति चेत् तन्न ।
रनायकान्तवातादे'रचितोऽपि पर प्रति । यथा क्रियानिमित्तत्वं कर्मणोऽपि तथा भवेत् ॥१४॥ तयुक्त रत्नपरोक्षायामन केवलं सबष्टुभकृन्नपस्य मन्ये प्रजानामपि सद्विभूत्यै । यद्योजनानां परतः वातादि सर्वाननान्विमुखीकरोति ॥१०५।।
विष्टिकर्मफरादीनां चेतमान सचेतनात् । दृष्टा चेष्टा विधयेष जगत्लष्टरि सास्तु वः ॥१०॥
कि दूसरे के द्वारा अप्रेरित हुआ (अथवा पाठान्तर में प्रेरित हुआ) भी शिव स्वयं दुसरे को प्रेरणा करने वाला है यह बात भो विचारणीय है । ईश्वर को जगमष्टा को मान्यता विषय पर हम पूर्व में विचार कर चुके हैं।
विशेष यह कि इस संसार में कोई भी । ईश्वर । ज्ञानाफि ब इच्छा शक्ति द्वारा जगत का कर्ता नहीं देखा गया। तथापि पदि कोई कर्ता मानोगे तो उसे घटाई-आदि-कार्य का भी कर्ता मानना पड़ेगा । यदि ईश्वर परमाणों को एकत्रित करके हठ से तीन लोक की सष्टि रचना करता है तो लोक में गहादि कार्यों के निर्माण में बढ़ई वगैरह से क्या प्रयोजन रहेगा? क्योंकि ईश्वर ही सबको सृष्टि कर देगा ।। १०२ । यदि
आप जगत्स्रष्टा ईश्वर को कर्म का पर्यायवाची मानकर उसे ( कर्म को ) जगत् का सष्टा मानते हैं तो सिद्ध साध्यता है । अर्थात् हमारे द्वारा सिद्ध की हुई वस्तु को ही आप सिद्ध कर रहे हैं, अभिप्राय यह है कि इसमें हमें (स्याद्वादियों को ) कोई आपत्ति नहीं है। क्योंकि कर्म के निम्न प्रकार नामान्तर हैं
कर्म के निम्न प्रकार पर्यायवाची शब्द ( नाम ) है--विधि, विधाता, नियति, स्वभाव, काम, ग्रह, ईश्वर, देव, कर्म, पुण्य, भाग्य व कृतान्त ।। १०३ ।। शङ्खा-जब कम अचेतन ( जड़ । हैं तब वे दूसरों के उपभोग के लिए कैसे प्रवृत्त होते हैं ? यह शङ्का उचित नहीं है, क्योंकि इसका समावान निम्न प्रकार है-जैसे रत्न ( नर-मादा मोतो-आदि), चुम्बक पत्थर व वायु वगैरह (अपवा पाठान्तर में नौका वगैरह। पदार्थ, जो कि अचेतन ( जड़ ) होते हुए भी पर के प्रति क्रियानिमित्त हैं वैसे ही अचेतन कर्म भी परोपभोगार्थ क्रियानिमित्त ( प्रवृत्ति में हेतु ) हैं। भावार्थ-जैसे मोती के पास दूसरा मोती आजाता है और चुम्बक पत्थर लोहे को खींचता है एवं वायु पत्ता-आदि को उलाती है, यद्यपि ये जड़ हैं, वैसे ही वर्म भी अचेतन होकर दूसरों के उपभोग निमित्त प्रवृत्त होते हैं ॥ १०४ ॥ रत्नपरीक्षा ग्रंथ में कहा है-मेरी ऐसी मान्यता है कि वह पुण्य कम सजा का ही कल्याण कारक नहीं है अपितु प्रजाजनों को विभूति-निमित्त भी है, जो कि निश्चय से संकड़ों योजनों से भी आगे (हजारों व लाखों योजन ) दूरवर्ती प्राणी को समस्त आपत्तियों से छुड़ा देता है। १०५ ।। यदि आप ऐसा कहते हैं कि जेसे पालकी ले जानेवाले व नौकरी लेकर काम करने वाले ( मजदुर-आदि । सचे. सन ( ज्ञानवान ) होते हुए भी ( सचेतन स्वामी द्वारा प्रेरित होकर ) चेष्टा (प्रयत्ल-उद्योग) करते हैं वैसे ही सचेतन ईश्वर भी सचेतन संसारी प्राणियों द्वारा प्रेरित हुमा चेष्टा करता है. ऐसा मानने से तो यह आपत्ति
१. 'नाका' इति ह. लि. (क) प्रती पाठः।
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२. दृष्टान्तालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तस्मावि सुभाषितधमत्रावसरवत् ।
स्वयं रुमं करोग्यात्मा स्वयं तत्फलमश्नुते । स्वयं भमति संसारे स्वयं तस्माद्विमुच्यते ।। १०७।। नमस्यामो देवान्ननु हतविपस्तेऽपि वशगाः विधियन्याः सोऽपि प्रतिनियतकान्तफलदः ।
फलं कर्मायत्तं यदि किममरः किं च विधिना नमः सस्कर्मभ्यः प्रभवति न येन्यो विधिरपि ॥१०॥ सोऽहं तवेव पात्रं तान्येतानि च गृहाणि वासृणाम् । इति निस्थं विदुषोऽपि च दुराग्रहः कोऽस्य नराम्ये ।।१०९॥
संतानो न मिरवये विसशे सादृश्यमेतत्र हि प्रत्याससिहते कुत: समुदयः का वासना स्थिरे ।
तस्वं बाधि समस्तमानरहिते ताथागते सांप्रत धर्माधर्मनिबन्धनो विधिरयं कोतस्कूलो वर्तसाम् ॥११॥ (दोष) आती है कि जैसे आज्ञाकारी सेवकों में जो चेष्टा देखी गई है, वह आपके जगत्स्रष्टा ईश्वर में हो । अभिप्राय यह है कि फिर तो आपका माना हुआ स्रष्टा वृथा हो है, क्योंकि वह तो सरका दास ही हुआ ॥१०६|| अतः निम्न प्रकार ये दो सुभाषित अवसर वाले हैं यह आत्मा ( जीव ) स्वयं पुण्य-पाप कर्मों का बन्ध करती है और स्वयं ही उनके सुख-दुःख रूप फल भोगती है एवं स्वयं ही संसार में भ्रमण करती है तथा स्वयं ही संसार से छटकारा पाकर मुक्ति रूपी लक्ष्मो प्राप्त कर लेती है॥ १०७॥ किन्हीं विद्वानों ने कहा है. फि हम देवों को नमस्कार करेंगे परन्तु निस्सन्देह वे भी तो दुष्ट विधि ( भाग्य ) के अधीन है [ अतः देवों को छोड़कर ] हमसे विधि ( भाग्य ) हो नमस्कार-योग्य है परन्तु वह भी प्रतिनियत ( निश्चित ) पुण्य-पाप कर्मों के अनुसार सुख दुःख रूप फल देने वाला है। (विधि भी कर्माधीन है। और यदि फल कर्माधीन है तो देव. ताओं और विधि से क्या प्रयोजन है ? अतः उन पुष्प कर्मों कों हो नमस्कार हो, जिनके लिए विधि भो समर्थ नहीं है। मीर-जिन ग्य-कों को सुख रूप फल देन में विधि भी नहीं रोक सकता ।।१०८ ।। अब ठकशास्त्र के वेत्ता बुद्धधर्मानुयायो सुगतकोति विद्वान् द्वारा निरूपित बौद्ध दर्शन का निराकरण करते हैं-वही मैं है' 'वही (पूर्वदष्ट ) पात्र है' 'वे ही दाताओं के गृह हैं। इस प्रकार के सदा ज्ञानबाले बौद्ध को आत्मा की शून्यता में कौन सा दुगनह है ? अपितु नहीं होना चाहिए ॥ १०९॥ [ र्याद बुद्ध की यह मान्यता है कि आत्मद्रव्य नष्ट हो जाती है परन्तु जैसे बहुत से वस्त्रों के मध्य में खाली हुई कस्तूरी-आदि । सुगंधि पदार्थ ) यद्यपि नष्ट हो जाती है, परन्तु वस्त्रों में उसकी संतति या वासना बनी रहती है वैसे ही क्षणिक पात्मा की भो संतति या वासना आदि बनी रहेगी, जिससे उसे उक्त प्रकार का ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं है, उसका निराकरण करते हैं-] आत्मद्रव्य को अन्वय-शून्य मानने पर अर्थात्-पूर्व व पर पर्यायों में व्यापक रूप से रहने वाले मात्मद्रव्य संबंधी अन्वय के विना सर्वथा क्षणिक आत्मा को स्वीकार करने में, सन्तान' ( संतति ) नहीं बन सकती | भावार्थ- जैसे सर्वथा नष्ट हुए मयूर से केकावाणी (मयूरध्वनि) नहीं निकल सकती वैसे ही अन्वय-शून्य ( सर्वथा नष्ट हुई ) आत्मा में सन्तान नहीं बन सकती और क्षण-क्षण में अनोखो क्षणिक आत्मा को स्वीकार करने से सादृश्य भी घटित नहीं होता। एवं आत्मद्रव्य को निरन्वय विनाश चाली व क्षणदिनश्वर मानने से सजातीम उत्पत्ति भी केसे बन सकती है ? यदि कहोगे कि इन्द्रियादिक की वासना बनी रहेगी तो आत्मा को क्षण-विनश्वर मानने से वासना भी घटित नहीं होती; अतः तुझ बोद्ध के यहाँ, जिसके तारिबफ बचन समस्त प्रमाणों { प्रत्यक्ष व परोक्ष प्रमाणों द्वारा बाधित हैं, धर्म (दान-पुण्यादि) व अधर्म (हिसादि) निमित्तक विधान कैसे घटित होंगे? अपितु नहीं घटित हो सकते । अर्थात् आत्मद्रव्य को सत्रंथा क्षणिक मानने से दान गुण्यादि कर्ता के सर्वथा नष्ट हो जाने से उसका फल ( स्वर्ग ) दूसरा भोगेगा ! इसी प्रकार हिमक के सर्वथा नष्ट हो जाने से राजदण्डादि लोकिक कष्ट व नरकमति संबंधो भीषणतम यातनाएं दूसरे को भोगनो होगी॥ ११ ॥
१. सन्तानोऽपत्यगोत्रयोः संततो देववृक्षायोः ।
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पञ्चम आश्वासः
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वृष्टात्ययात्तत्वमदृष्टमेष प्रसाधयेच्चेद्वन्दनासरालः । तवा खरोष्णोः अतितो विषाणे 'विनिमंपच अयी कुतालः ॥११॥ कि नातं न परोन कमिरिह प्रायेण बन्धः क्वचिद्धोक्ता प्रेत्य न लस्फलस्य च क्वेरिम सोबो यरि। कस्मादेव तपःसमुद्यतमनाश्चस्याविक छन्वते कि वा तत्र तपोस्ति केवलमयं पुर्तजयो वञ्चितः ।।११२॥
तदनम्तनेहातो रोष्टे भषस्मृतेः । भूनानन्वयनाजीबः प्रकृतिज्ञः सनातनः ।।११३१॥ पयिष्यादिववाश्माषमनाद्यनिधनात्मकः । मध्ये सत्त्वाकुतस्तत्वमन्यथा तब सिद्धपति ।।११४॥ कापाकारेषु भूतेषु चित्तं थ्यक्तिमवाप्नुवत् । समापुरमा यो आया ११५॥
यदि यह बकवादी बौद्ध प्रत्यक्ष प्रमाण के लोप बाले । प्रत्यक्ष से विरुद्ध ) आत्मविनाश से अदुष्टतस्व ( प्रत्यक्ष प्रतीत न होनेवाला तत्व-सन्तानादि ) सिद्ध करेगा तब तो केवल बचनमात्र से गये में सींगों का विधान करनेवाला बीर बेल में सींगों का निषेध करने वाला कुंभार क्या जयशील हो सकता है? अपितु नहीं हो सकता ।' भावार्थ-जंस कुंभार किसी के समक्ष कहता है कि मेरे गधे में दो सौंग है और उस बैल में दो सौंग नहीं हैं, तो जयशील नहीं होता वैसे ही प्रस्तुत बौद्ध भी, जो कि प्रत्यक्ष-विरुद्ध आत्मा का विनाश मानता है व प्रत्यक्ष से प्रतीत न होनेवाले सन्तान-शादि तत्व का समर्थन करता है, जयशील नहीं हो सकाता ॥ १११ । 'में नहीं हूँ, न कोई दूसरा । शिष्य-आदि । है, इस लोक में कहीं पर प्रायः करके आत्मा के साथ पुण्य-पाप को का बन्ध नहीं होता एवं यह जीव मरकर दूसरे जन्म में पृण्य-पाय कर्मों के मुख-दाख रूप फल का भोक्ता भी नहीं है। ऐसा यदि बोद्ध कहता है तो हम पूंछते हैं, कि यह ( बौद्ध किस कारण से तपश्चर्या में उद्यत मनवाला होकर चैत्य ( मूर्ति ) आदि की नमस्कार करता है ? अथवा वहाँ पर क्या तपश्चर्या है ? केवल यह मूर्ख धूतों से ठगाया गया मालूम पड़ता है ।। ११२ ।। अब चण्डकर्मा कोट्टपाल द्वारा निरूपण किये हुए चार्वाकदर्शन (नास्तिकमत ) का निराकरण करते हैं
प्रकृति (शरीर व इन्द्रिय-आदि ) को जाननेवाला यह जीव ( आत्मद्रव्य ) सनातन ( शाश्वत-सदा से चला आया) है, क्योंकि पूर्वजन्म संबंधी दुग्धपान के संस्कार से उसी दिन उत्पन्न हुए बच्चे की दुग्धपान में चेष्टा देखी जाती है. इस यक्ति से आत्मा का पर्व जन्म सिद्ध होता है। इसी प्रकार कोई मरकर राक्षस होता हुआ देखा जाता है, इससे आत्मा का भविष्य जन्म भी है और किसी को पूर्व जन्म का स्मरण होता है, इससे भी पूर्वजन्म सिद्ध होता है, क्योंकि इस जाब में पृथिवी, जल, अग्नि घ वायु इन चारों जरूप भूत पदार्थों का अन्वय नहीं है । भावार्थ-क्योंकि मौजूद होनेपर भी इसे उत्पन्न करनेवालो कारण सामनी नहीं है, अतः यह शरीर व इन्द्रियादि से मित्र चैतन्यका होता हुआ आकाश को तरह अनादि अनन्त है ॥११३|| जैसे पृथियो, जल, अग्नि व वायु ये चार भूत द्रव्य अनादि व अनन्त है वैसे हो आत्मा भी अनादि अनन्त है, क्योंकि सत्त्वे सति अनादिस्वात्, क्योंकि यह पृथिवी आदि की तरह मौजूद होकर के अनादि है। यदि आप कहोगे कि (मध्ये सत्त्वात) यह आत्मा मौजूद होने पर भी पृथिवी-आदि के मध्य पश्चात् उत्पन्न हुआ है, तो बतलाइए कि जो वस्तु पूर्व में अविद्यमान ( गैरमौजूद ) थी, वह पीछे कहाँ से आ गई? [ क्योंकि अमत् ( गैरमौजूद ) वस्तु पैदा नहीं होती, अन्यथा-गधे का सींग आदि असत् पदार्थ भी उत्पन्न होना चाहिए ] अन्यया, अर्थात् यदि सदा मौजद होनेपर भी आत्मा अनादि अनन्त नहीं है तो आपका भूतचतुष्टय ( पृथिवी, जल, अग्नि व वायु ये चार पदार्थ) अनादि अनन्त केसे सिद्ध होगा?॥११४|| यदि आप 'बुद्धि देहात्मक है व देह का कार्य है एवं देह का गुण हैं, ऐसी १. विघन-कुर्वन् बिए विधाने इत्यस्य झा ( क ) से संकलित । २. सरपच उक्षा च (यलीवः ) रोलाणी सा., कुम्भकारी यथा कस्यचिदने कथयति 'मम गर्दमस्य दिपावते,
ते तदुक्ष्ण; न स्तः स कि जयो भवति ? तमसो बौद्धः इति भावः । राटि० ( ख ) प्रति में संकलित
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये जलान्मुक्तानलकाष्ठाच्चन्द्रकान्तास्पयःप्रसवः । भवन्यजनतो वायुस्तस्वातल्यां बिहापयेत् ।।११६।। जलावि तिरोताऽपरादेस्तबुडवे । घराविषु सिरोभूतास्चित्तासितमपीध्यताम् ॥११॥ पुति तिति तिष्ठन्ति शरीरेन्द्रियधातवः' । पान्ति याऽभ्यतासां सस्वे सत्त्वं प्रसस्पताम् ।।११८।। विवस गणसंसर्गावात्मा भूतात्मको न हि । भूजलानलवासानामन्यषा न भयवस्थितिः ||११||
तीन मान्यताओं का आश्रय लेकर शरीराकार परिणमन को प्राप्त हुए पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार भूतों से यह बुद्धि या जीव प्रकट हुआ है अथवा उत्पन्न हुआ है, ऐसा मानोगे तो शरीराकार परिणत पृथिवीआदि भूतों की तरह जीव भी प्रकट रूप से दृष्टिगोचर होना चाहिए परन्तु वह दृष्टिगोचर नहीं होता, अतः वह पुषक् चैतन्य द्रव्य है ।।११५।। यदि आप कहेंगे कि कार्यकारण विजातीय भी होता है जैसे जल से मोती पृथिवीरूप) उत्पन्न होता है और काष्ठ से अग्नि पैदा होती है एवं चन्द्रकान्तमणि से जलप्रवाह प्रकट होता है तथा पंखें हो वायु उत्पन्न होती है, ऐसा मानने से तो आपकी पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार तत्वों की संख्या विघटित हो जायगी । अर्थात्-जल से उत्पन्न हुआ पार्थिव मोती जलात्मक हो जायगा, जिसमे पृथिवी तत्व का अभाव हुआ और काष्ट से उत्पन्न हुई अग्नि काष्ठरूप हो जायगी, इससे अग्नि तत्व का अभाव हुआ और चन्द्रकान्तमणि से उत्पन्न हुए सलाह चनाकात मामा-पिता हो गया, जल तत्त्व का अभाव हो गया। इसी प्रकार पंखे से उत्पन्न हुई वायु पंखेरूप हई तन्न वायु तत्त्व का अभाव हुआ । अर्थात्-ऐसा मानने से (बुद्धि देहात्मक है व देह का कार्य है, आदि के कारण शरीरात्मक है } तो आपके उक्त प्रकार से पृथिवी, जल, अग्नि व वायु ये चारों भूत पदार्थ विघटित हो जाते हैं ॥११६।। यदि आप कहेंगे कि उक्त मोती-आदि के दृष्टान्त इस प्रकार संघटित होते हैं कि जल-आदि में तिरोहित ( अप्रकट रूप से स्थित ) पृथिवी-आदि से मौतो-आदि उत्पन्न होते हैं। अर्थात्-जल में तिरोहित (अप्रकट रूप से स्थित ) पृथिवी से मोती हुआ और काष्ठ में तिरोहित हुई अग्नि से अग्नि उत्पन्न हुई एवं चन्द्रकान्तमणि में तिरोहित जल से जल पैदा हुआ तथा पंखे में तिरोहित वायु से वायु उत्पन्न हुई तब हमारे पृथिवी-आदि चारों तत्त्वों को संख्या कैसे विघटित होगी? सब हम कहते हैं कि पृथिवी-आदि में तिरोहित हुए (स्वतंत्र रूप से पृथक् चैतन्य की सत्ता लिए हुए) जीव से जीव को अभिव्यक्ति मान लो ।।११७।। जीव के जोवित रहते शरीर, इन्द्रिय व बुद्धियां स्थिर रहती हैं और जीव के चले जाने पर नष्ट हो जाती है, अत: चैतन्य रूप जीव स्वतंत्र पदार्थ है। यदि ऐसा नहीं मानोगे तो मृत शरीर में इन शरीर व इन्द्रिय-आदि की सत्ता में जीव की सत्ता का प्रसङ्ग होगा। अर्थात्-~-आत्मा चेतन है और पृथिवी-आदि भूत अचेतन हैं । पृथिवी-आदि भूतों में चेतन की सत्ता नहीं है उस अपेक्षा से भूतों को अचेतन समझना चाहिए ।।११।।
निश्चय से जीव भूतात्मक (पृथिवी-आदि रूप-जड़ ) नहीं है, क्योंकि इसमें अचेतन ( जड़ ) पृथिवी-आदि भूतों की अपेक्षा विरुद्ध गुण (चैतन्य-बुद्धि) का संसर्ग पाया जाता है। अन्यथा-यदि भूतात्मक मानोगे तो पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार तत्त्वों की सिद्धि नहीं होगो, अर्थात् आत्मा के नष्ट हो जाने पर भूत भी नष्ट हो जायगे परन्तु सत का नाश नहीं होता । अथवा-अन्यथा-विरुद्ध गुण ( चेतन गुण ) के संसर्ग होने पर भी जीव को भूतात्मक ( जड़ ) मानोगे तो आपके पृथिवी-आदि चारों तत्त्वों की सिद्धि नहीं होगी, क्योंकि ये (पथिवी-आदि ) भो भिन्न-भिन्न धारण, ईरण व दाहादि गुणों के कारण पृथक-पृथक स्वतंत्र सत्ता-युक्त है ।।११९।। क्योंकि यह जीव विज्ञान, सुख व दुःखादि गुणों से पहचाना जाता है, अर्थात्इसकी स्वतंत्र सिद्धि में उक्त गुण प्रतीक हैं जब कि पृथिवी, वायु, अग्नि व जल क्रमशः धारण, ईरण, दाह १. 'बुख्यः' इति ह. लि. (ग ) प्रत्तो पाठः ।
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पञ्चम आश्वास:
विज्ञानसुखदुःखादिगुणलिङ्गः पुमानयम् । धारणेरणदाहादिधर्माधारा वरादयः ॥ १२० ॥ प्रथमतम् - पित्तप्रकृतिर्धीमान्मेघावी कोषनोऽल्पकामस्व प्रस्वेद्यकापलितो भवति नरो नात्र सन्देहः ।। १२१ ॥ प्रवम् । वृद्धिहानी यवाग्नेः स्लामेबोरकर्षापकर्षतः पित्ताधिकोन भावास्यां बुजेः संप्राप्नुतस्तथा ।। १२२ ।। पुरुपासनमम्यासो विशेषः शास्त्रनिश्चये । इति दृष्टस्य हानिः स्यात्तथा तव वशं ॥ १२३ ॥ कुतश्चित्पित्तनाशेऽपि बुद्धेरतिशयेक्षणात् । कल: प्रभवभावोऽय स्याद्वीजा कुरयोरिव ॥ १२४॥ बुद्धि प्रति यदीष्येत पित्तस्य सहकारिता । का जो हानिर्भवत्येवं नालवृद्धो यथाम्भसः ॥ १२५॥ एवं च सतीवं न किंचित् ।
घ
नेहात्मिका बेहकार्यां वेोहस्य च गुणो मतिः । मतत्रयमिहावित्य नास्यम्यासस्य
संभवः ॥ १२६ ॥
'बुद्धि देहात्मिका ( शरीर रूप ), देह का श्रय करने से बुद्धि की प्राप्ति के लिए शास्त्रों का इति नास्तिक मतनिरास: 1
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दाह तथा जल पृथित्री आदि जड़
शैत्यगुण के आधार हैं । अर्थात् पृथिवो का गुण धारण, बाधु का ईरण व अग्नि का का शैत्यगुण है । - इस प्रकार यह जीव इसलिए भूतात्मक नहीं है, क्योंकि इसमें भूतों की अपेक्षा विरुद्ध गुणों ( ज्ञान, सुख व दुःखादि ) का संसर्ग है ॥१२०॥
यदि आपकी ऐसी निम्न प्रकार मान्यता है— निस्सन्देह पित्त प्रकृतिवाला मानव बुद्धिमान्, धारणाशक्तियुक्त, क्रोधी, अल्प मैथुन करने वाला पसीनायुक्त और असमय में सफेद बालोंवाला होता है' ।। १२१|| उक्त मत्त शोभन नहीं है, क्योंकि जैसे ईंधन की वृद्धि व हानि (न्यूनता - कमी) से अग्नि की वृद्धि व हानि होती है वैसे ही पित्त-वृद्धि से बुद्धि की वृद्धि व पित्त को न्यूनता से वृद्धि को हानि प्राप्त हो जायगी || १२२|| यदि आपके मत में सर्वथा पित्त प्रकृतिवाला पुरुष बुद्धिमान आदि होता है तब तो | बुद्धि को प्राप्ति के लिए ] गुरुजनों की उपासना, शास्त्रों का अभ्यास व शास्त्र-निश्चय संबंधी विशेषता इत्यादि प्रत्यक्ष प्रतीत हुई कारण सामग्री का अभाव हो जायगा । अर्थात् — फिर तो बुद्धि की प्राप्ति के लिए गुरुजनों की उपासना आदि निरर्थक सिद्ध होंगे || १२३|| [ आपकी उक्त मान्यता में विशेष आपत्ति ( दोष ) यह है ] कि किसी मानव में पिन का नाम हीनता) होने पर भी बुद्धि की अधिकता का दर्शन होता है, अतः इनमें (पित्त प्रकृति व बुद्धि में ) बोज व अङ्कुर सरीखा कार्यकारण भाव कैसे घटित हो सकता है ? अर्थात्पित्तप्रकृति बीज ( उपादान कारण है और बुद्धि अङकुर ( कार्य ) है, ऐसा कार्यकारणभाव नहीं घटित होता || १२४|| यदि आप बुद्धि के प्रति पित्त को सहकारी कारण मानते हैं तो हमारी कोई हानि नहीं है । अर्थात् - हम भी बुद्धि के प्रति पित्त को वैसा सहकारी कारण मानते है जैसे कमल-नाल की वृद्धि में जल सहकारी कारण होता है । अर्थात् कन्द सरीखा जोब है और नाल सरीखी बुद्धि है, उसमें पित्तरूपी जल सहकारी है | १२५ || जब उक्त बात सिद्ध हो चुको अर्थात् जब चेतनाशक्ति सम्पन्न आत्मद्रव्य पृथिवी आदि चार भूतों से भिन्न व अनादि अनन्त विविध प्रमाणों द्वारा सिद्ध किया गया तब आपको निम्न प्रकार की मान्यता युक्तिसंगत नहीं है
"
कार्य व देह का गुण है, ऐसी तीन मान्यताओं का अभ्यास आदि संघटित नहीं होंगे ||१२६||
केवल तत्त्वज्ञान चारित्र के बिना वेसा सांसारिक तृष्णा ( वाञ्छा ) की शान्ति का कारण नहीं होता जैसे जलादि का ज्ञान कर्तव्य पालन ( जलपान ) के बिना तृष्णा (पिपासा - प्यास) की शान्ति का कारण नहीं होता । अर्थात् जैसे किसी प्यासे मनुष्य को सरोवर का ज्ञान हुआ परन्तु यदि वह वहाँ जाकर जलपान नहीं करता तो उसे प्यास की शान्ति रूप सुख कैसे हो सकता है ? वैसे ही मुमुक्षु मानव का केवल तत्त्वज्ञान भो सदाचाररूप कर्त्तव्य पालन के बिना उसकी सांसारिक तृष्णा की शान्तिरूप सुख प्राप्त नहीं कर सकता ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तत्यानं व जलाविज्ञानमिवाविहितामुष्ठान न भवति संसारतृष्णोपशान्तिकारणम् । प्रसंगातसयंत्रिपारम्भः समधिगतेतिकर्तव्योऽपि कृषीवल इव न संपुज्यते फलः । अनायास्य कार्य सेवक इवात्मवानपि न लभते परी परतीम् । ततश्य
मत्वं गुरोः समधिगम्य पार्यरूपं तबाघभावनमनोरपनि तारमा।
माय माना पोभिजन्तुः परं पदमुपंति यथा क्षितीशः ।।१२७।।' सविविद्याधर विमोदकर्मा चपडकर्मा-भगवन, विरदुरागमवासनामनसा को नु खलपायः सुमेधसामम्पुश्यनिःश्रेयसाधिगमाय ।' 'धर्मः ।' 'को मामायं धर्मः ।' 'अहिंसापूर्वकाग्र हस्तत्त्वपरिग्रह एव ।' 'ननु हिंसास्माकं कुलधर्मः । सा कथं त्यजनीया ।' 'अहो महापुरुष, एवमेवेतस्कुक्कुटमियन पुरा सम्मनि हिसा लषममनमग्यमाने महतों दःखपरम्परामनुबभूव ।' वण्डकर्मा ( सविस्मयः )-'भगवन, कि पुनः पुरा जन्मनीवं किंचिद् दुष्कृतमकार्षीत् । कर्ष का सवन्यभूत् ।' 'भगवान्, तमाकर्णय । अस्यामेवोज्जयिन्यामस्व यशोमतिमहाराजस्य वंशे ।
आसोच्छन्द्रमतियंशोधरनुपस्तस्यास्तननोऽभवसौ घar: तिपिष्टफुक्कुटपली बंडप्रयोगाम्मृतो ।
श्या केको पवनाशनश्च पृषतो प्राहस्तिमिछागिका भात्यास्तनयश्च गबरपतिजतिी पुनः कुनकुटौ ॥१२८|| इसीतरह प्रशस्त कर्तव्य का ज्ञाता मानब, जिसने प्रशस्त प्रयोजन के लिए कर्तव्य का आरम्भ ही नहीं किया, अर्थात्-जो आलसी (श्रद्धा-हीन ) है, तो वह भी वैसा सुखरूप फलों से संयुक्त नहीं होता जैसे आलसी किसान खेती करने के तरीकों का शान रखता हुआ भो धान्यरूपी फलों से संयुक्त नहीं होता। इसी तरह तपश्चर्या के विना आत्मा का वश करनेवाला ( जितेन्द्रिय ) मानव भी वैसो उत्तम पदवो ( मुक्तिस्यान ) को प्राप्त नहीं होता, जेसे सेवक जितेन्द्रिय होनेपर भी शारीरिक कष्ट उठाए विना उत्तम पदबो ( स्थान ) प्राप्त नहीं करता। अतः यह प्राणी ( मुनि) गुरु से सत्याचं मोक्षोपयोगो तत्वों का निश्चय करके आत्मस्वरूप की भावना के मनोरथ से व्याप्त हुई बात्मा से युक्त हुमा ( सम्बग्दृष्टि हुआ) निर्दोष तपश्चर्याओं के द्वारा शरीर को कष्ट देकर वैसा उत्तम पद ( मोक्ष स्थान ) प्राप्त करता है जैसे राजा उक्त प्रकार कर्तव्य पालन करता हुआ उत्तम पद ( राज्यश्री का सुख ) प्राप्त करता है। अर्थात्-जैसे राजा पिता के वचन सुनता है और उनपर श्रद्धा करता है एवं पश्चात् प्रजापालन रूप कर्तव्य-पालन में उद्यम करता है तब उत्तम पद (राज्य) प्राप्त करता है वैसे ही मुनि भी गुरु से तत्वज्ञान प्राप्त करके सम्यग्दृष्टि हुषा निर्दोष तपश्चर्या करता है, जिससे मुक्तिश्री को प्राप्त करता है ।। १२७ ।।
। अथानन्तर प्रस्तुत श्री सुदत्ताचार्य के अमृततुल्य व युक्ति-पूर्ण बचन सुनकर ] चण्डकर्मा नामके कोपाल ने, जिसके समीप विद्याधरों का क्रीडाकर्म या आमोद-प्रमोद है, कहा-'भगवन ! मिथ्याशास्त्रों को वासना ( संस्कार ) से रहित चित्तवृत्तिवाले ज्ञानो पुरुषों के लिए निश्चय से स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति का क्या उपाय है ?"
आचार्यश्री-धर्म हो उपाय है। चण्डकर्मा-'इस धर्म का क्या स्वरूप है?
आचार्यधी-'अहिंसा (प्राणिरक्षा) के साथ प्रगाढ़ अनुराग वाले तत्वनिश्चय को धर्म कहते हैं।' चण्डकर्मा-निस्सन्देह प्राणियों को हिंसा करना हमारा कुल-धर्म है, उसे कैसे छोड़नो पाहिए? आचार्यश्री'अहो महापुरुप ! इस मुर्गा-मुर्गी के जोड़े ने, इस प्रकार ही पूर्व जन्म में हिंसा को कुलधर्म मानने से विशेष दःस्व श्रेणो भोगी।' चण्डकर्मा ने आश्चर्यान्वित होते हुए पूछा-'भगवन् । इस मुर्गा-मुर्गी के जोड़े ने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया? और किस प्रकार से उसका फल ( दुःख-समूह ) भोगा?' प्रस्तुत आचार्य-'सुनिए। इसी उज्जयिनी नगरी में इसी यशोमति महाराज के वंश में [ यशोधराजा की ] चन्द्रमति नामकी रानी थी, उसका पुत्र यशोधर नाम का राजा था। उन दोनों ने चण्डमारी देवो के लिए आटे के मुर्गे को बलि चढ़ाई। फिर दोनों विषप्रयोग से कालकलित हुए | अर्थात्-यशोधर की रानी अमृतमति द्वारा किये गये विप-प्रयोग
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पञ्चम आश्वासः
१६७ ततः प्रान्सामापारेवमलजालास्से पन्चापि लोकपाला इव से सुबत्तभगवन्तं प्रणम्य अगाः पाण्डतनया इव सदर्शनपूर्वकाणि त्रिवारपि दुरापाणि भावकवतानि । प्रमुफ्तलोकायतमधर्मा अधिरसमासजन्मावरमवावास्तिशर्मा अपकर्मापि धर्मावघोषात्परिपूर्णशापावधि पूर्वविद्यासंबोहासाबसंपादितार खरबिहारः समाचरितसहसरामचर्यव्यवहारः प्रथिचचार लेवरनियंश देशम् ।
___सस्नु चावामप्यहो मारदत्तमहाराण. सुदत्तभगवद्भाषिमपुरावृत्तवृतान्तभवनातीवजानियाभूतपरिपाहायचेदानी खल्लारपोरग्निस्पृष्टमीजवनाविर्भावः कर्मणामित्यानन्दनायोदोर्णनिगरणाचण्यधयुषावपि चूष्याम्यन्तरस्थितः # शोमतिमहाराजः शम्योत्सङ्गमागसायाः कुसुमावलोमहादेव्याः पावधित्वकौशल दर्शयितं शयनासन्नशरकुरप्लीमभ्यावलंकर्माणकायमेकं सायकमादाय विव्याध । ततश्न विधानुः कल्मषशेषमनुविभावयिषोशात्परित्यक्तकुक्कुटपापयोरशुनौ लालाद्वारे कृमिजालसमाकुले एभूव तई ज्या अपर इव निरनिलये गर्भ पुनरावमोजन्म । आवाभ्यामवाप्तापाना का सा फिल यशोमतिमहोपालप्रणयपादपप्रयमकन्दली फुसुमावली महादेवी रहसि
नेत्र विलासविरले शरपापापापड़ गाजवयं हरितरत्नरुची कुचाप्ने । से मरे । फिर कुत्ता च मोर हुए। मर्थात्-यशोधर का जीव मरसार मोर हुआ और उसकी माता चन्द्रमति का जोव मरकर कुत्ता हुई। इसके बाद सर्प व सेही हुए। अर्थात्-यशोधर का जीव ( मार ) मरकर सेही हमा और उसको माता चन्द्रमति का जोब (कुता) मरकर गर्म हुआ। फिर वे दोनों भरकर मकर च मच्छ हुए। अर्थान् -यशोधर का जीव रोही रोहिताक्ष नामका मच्छ हुआ और उसकी माता चन्द्रमति का जीव । सर्प ) शिशमार नाम का मकर हुआ। फिर वे दोनों बकरी व उसका पति बकरा हुए। बर्थात-चन्द्रमति का जीव (शिशमार नाम का मकर ) मरकर बड़ो बकरी हुआ और यशोधर का जीव ( रोहिताक्ष नाम का मच्छ) मरकार उसका पति बकरा हुआ। इसके बाद दोनों पकता व भैसा हुए । अर्थात् पशोधर का जीव ( बकरा) पुनः अपनी स्त्री (बकरी) से बकरा हुआ, और चन्द्रमति का जीव ( बकरी) मरकर भैंसा हुई। फिर दोनों मरकर मुर्गा-मुर्गी हुए ॥ १२८ ।।
अथानन्सर उक्त प्रवचन सुनने से उक्त पांचों पुरुषों ने भी ( चण्डकर्मा आदि ने ), जिनके हृदय से समस्त पापसमूह नम हो गया है ऐसे होते हुए और जो दिक्पालों या राजाओं सरीखे हैं, पूज्य श्रो मुदत्ताचार्य को नमस्कार करके पाण्डवा-सरोखे देवताओं को भी दुर्लभ भावकों के व्रत धारण किये। फिर नास्तिक मत के सिद्धान्त छोड़ने वाले चण्डकर्मा ने भी, जिसे शीघ्र हो विद्याधरों की पद-प्राप्ति का सुख प्राप्त हो रहा है, जैनवर्म का ज्ञान होने से जिसकी शाप की अवधि पूर्ण हो चुकी है । जिसने पूर्व की विद्याबर-विद्याओं की अंगो प्राप्त हो जाने से आकाश में विहार करना नार कर लिया है एवं जिसने साथियों के साथ आश्चर्यजनक व्यवहार प्रकट किया है, ऐसा होकर विद्याधरों के निवास वाले स्थान में [ आकाश मार्ग से | प्रस्थान किया। तदनन्तर अहो मारिदत्त महाराज ! ऐसे हम दोनों ( मुर्गा-मुर्गी ) को भी, जो कि मानों-इसलिा आनन्द जनक शब्दों से उत्कट गलेयाले हुए थे कि श्री मुदत्त भगवान् द्वाग काहे हुए पूर्वजन्म संबंधी वृत्तान्त के सुनने से विशेष उत्पन्न हुए वैराग्य की उन्नत स्वीकारता से हम दोनों । मुर्गा-मुर्गी ) में अब भी निश्चय से वैसी कर्मों की उत्पत्ति नहीं होगी जैसे अग्नि से छुआ हुआ बीज अङ्कुर उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता और जिनका शरीर दुष्या (तम्यू ) में भी नहीं था, (जो यशामति महाराज के तम्बू से भी दूर थे ), दूष्या (तम्बू अथवा पापप्रति) के मध्य में स्थित हुए यशोमति महाराज ने शय्या के मध्य में प्राप्त हुई कुसुमावली महादेवो को शब्दवेधिता की कुशलता दिखाने के लिए शय्या के समीपवर्ती तूणीर (वाणों का भाता ) के मध्य से भेदने में समर्थ एक वाण लेकर उससे हम दोनों को भेद दिया { विदीर्ण कर दिया)1 पश्चात् मुर्गा-मुर्गी की पर्याय छोड़नेवाले हम दोनों का जन्म शेष पाप का भोग कराने के इच्छुक विधाता ( भाग्य ! के वश से कुसुमावली
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तिलक चम्कायै
मध्यो बलित्रयलिस्तमुजावलीय मुसम्मितेव विकटा वनिता सुगर्भे ।। १२९ ।।
जातस्वागताय तस्मै महीशाय निजोहान्येवमावश्शंस- 'देव, विधीयतां विष्वष्टेन सर्वेषामपि सत्वानामभयप्रदानम् । देव निवार्यतां कल्यपालापणेषु मैरेयव्यवहारः । देव प्रतिषिध्यतां महानसेषु व्यागमः । देव प्रस्तूयतामेवमपरा अपि तास्ताः क्रिया यत्र नोपयोगी मकारादित्रयस्य देव श्रवणकुलानि महान्ति मे जोवनयागमेषु । देष, परमवलोकनाभिलाषः संयतोपास्तिषु । देव परं मनोरथाः संयमपरायणीनां तापसीनां चरणाराषमेषु ।' राजा 'नूनमेवंविधप्रसादादेवीदोहदादस्माद्रवतीर्णस्य कस्यचित्सुकृतिनो भविष्यति महतो सुरवाती पासना । भवतु मामैवम् । तथाप्येतदभिलाव: पूरयितव्य एव । अन्यथा
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गर्भिणीनां मनः सेवारस्यादपत्ये ष्व कल्पतः । लतानां फलसंपत्तिः कुतो भूलव्यथानमे ।। १३२ ।'
इति चितक्यं आहूय व प्रथाप्रसिद्धिप्रवृत्ताख्यान्न रान्गुख्यान्तमेवान्वतिष्ठिपत् । सापि देवी व्यतिक्रम्य किल चिक्कसाकीर्णो रुपयोधरव्यवस्थामवस्यामवाप्य चावोसमयमभावाममृतमयन वेलेव लक्ष्मीचन्द्रमसो पुनरादयोः कृते महादेवी के ऐसे गर्भ में हुआ, जो कि अपवित्र है, जिसमें लार का ही भोजन है और जो कीड़ों के समूह से व्याप्त है तथा जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों-दुसरा नरक स्थान ही है ।
• हम दोनों को गर्भ में धारण करनेवाली उस कुसुमावली महादेवी ने, जो कि यशोमति राजा के प्रेमरूपी वृक्ष की कोमल शाखा है, उम्र राजा के लिए, जिसके प्रति विनय प्रकट की गई है, एकान्त में निम्न प्रकार अपने are ( दोहले ) कहे । बह पशोमति महाराज की प्रिया कुसुमावली महादेवी गर्भवती के अवसर पर ऐसी सुशोभित हो रही थी, जिसके दोनों नेत्र विलास' ( हावभाव व लीला ) से मन्द हैं। उसके दोनों गाल पके हुए सरकंडा सरीखे पाण्डु हुए। जिसके कुचों ( स्तनों ) के अग्रभाग हरितमणि की कान्ति-सरोखे (नीले ) थे । उसका उदर भग्नरेखा बाला हुआ एवं जिसको रोमराजि विकट ( मनोज्ञ ) थी एवं रोकथाम करती हुई-सोमालूम पड़ती थी ॥ १२९ ॥
[ कुसुमावली महादेवी के दोहृद - ] 'हे राजन् ! सर्वत्र घोषणा द्वारा समस्त प्राणियों के लिए अभयदान कीजिए | हे स्वामिन् ! कल्यपालों मद्य बेंचने वालों ) की दुकानों पर मद्य बेंचने का व्यवहार रोकिए । हे देव ! पाकशालाओं में मांस का आगमन रोकिए । हे राजन् ! दूसरी भी उन-उन क्रियाओं का आरम्भ कीजिये, जिनमें मद्य, मांस व मधु का उपयोग न हो। हे स्वामिन ! मुझे जीव दया का निरूपण करने वाले शास्त्रों के श्रवण सम्बन्धी विशेष कौतुहल हो रहे हैं। देव ! मुनिजनों की पूजाओं के दर्शन की मेरी उत्कट इच्छा है। राजन् ! चरित्र पालन में तत्पर रहने वाला तपस्विनियों (आर्यिकाओं) के चरण कमलों को सेवाओं के मेरे उत्कट मनोरथ है।' [ उक्त दोहों को सुनकर ] यशोमति महाराज ने निम्न प्रकार विचार किया-'ऐसी प्रसन्नता बाले रानी के दोहले से, इस गर्भ में अवतीगं हुए किसी पुष्पवान् पुरुष की जैनधर्म सम्बन्धी महान वासना ( भावना - संस्कार ) मालूम पड़ती है । अस्तु ऐसा हो, तथापि इसकी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करनी चाहिए । अन्यथा - यदि गर्भवती प्रिया का दोहला पूर्ण नहीं किया जावे गर्भवती स्त्रियों के मानसिक खेद से उनके वच्चे रुग्ण होते हैं। क्योंकि जब लताओं की जड़ों में रोग प्राप्त होता है तब उनमें फल सम्पत्ति कैसे प्राप्त हो सकसी है ? || १३० || फिर यशोमति महाराज ने उन प्रमुख अधिकारी मनुष्यों को, जिनका नाम यथायोग्य प्रवृत्ति करने में प्रसिद्ध है (जो उक्त दोहों की पूर्ति करने में समर्थ हैं), बुलाकर उन्हें वैसा ही स्थापित किया ( उनसे उक्त कार्य सम्पन्न करने की प्रेरणा की ) । इसके बाद उस कुसुमावली रानी ने भी निस्सन्देह ऐसी
१. बिळासो हामलीलमोरिति विश्वः ।
२. विक्ट कराले पृथुरम्ययो: 'ह० लि० खटि० प्रति (ख) से संकलित - सम्पादक ३. कल्यपालाः मद्यसंधायिन ।
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पश्चम आश्वासः यशस्तिलक इति भवनमतीरिति व वंशोधित मातृदोहवाधिते चाभयचिरित्यभयमतिरिति च नामती । व्यतिक्रान्तवति च शेशये, जातपति व सकलकलामलिनोलावतारसरसिकमारपसि, सष सपस्माननेपिय समरिकमधिस्वति कुन्तलेषु कृष्णवे. तव पुणेष्विव विशालता प्रतिपन्नेषु लोधनेषु, तव सीव परिपूर्णवति वनमण्डले, तव वरिवर्ग इव शामतामाश्रितपति मध्यभागे, तव पराक्रमविर प्रकटतां गतेषु समस्तेष्वपि निम्नोन्नतदेवोष प्रवेश, अस्य खस्वभयरुचिकुमारस्य राजा करिष्यति भविष्यस्यां पलतो पुबराजकण्ठिकादधमिमां चाभयति राजपुत्रों भदारिको गस्पत्यहिन्यवापिपलये क्षत्रियायेत्पमात्यपरिवारवनितात्वाविर्भवन्तोषु जनश्रुतिष, स यशोमतिमहीपालः स्वयं करापितदेशेरडलामास: सह स्वगणिभिर्गोषषिषणपुरुषालापोल्लास्यमतिरेकवा पापविबुद्धचा विधीतविषयमनुसरंस्तत्सहरकूटोद्यानप्रसूमपरिभलाघ्राणचलितलाच मालियुगलस्तं सुवासभगवन्तमबललोके । नर्मसचिवकुमारोऽअमारः शितिपते, ठुष्करस्य मुनेश्वलोकनाव न भविष्यति पापतिः सफद्धिः । राजा मनागाविग्नमनाइचुक्षोभ । सत्राषसरे सुबत्तभगवदन्वनार्थमागतेन प्रणयप्रथयाथपेण कल्याणमित्रनाम्ना वैदेहकेचवरेण स विवापितिरेवमूचे-'राजन्, किमकाण्डे मन्पुमलिनमाननम् ।' अजमार:-राज
अवस्था को, जिसमें पीन कुचकलशों की व्यवस्था तेलात होती है, अर्थात्-जिसमें नैलाभ्यङ्गन व मदनादि सौमन्त स्नान होता है, व्यतीत करके एवं प्रसूति-व्यचा का अवसर प्राप्त करके हम दोनों को वैमा उत्पन्न किया जैसे अमृत-मथन की बेला लक्ष्मी व चन्द्रमा को उत्पन्न करती है। फिर हम दोनों (पुत्र-पुत्री ) का 'यशस्तिलक' और 'मदनमति' ऐसा वंश के योग्य एवं 'अभयरुचि' और 'अभयमति' ऐसा माता के दोहला-धीन नाम संस्कार किया गया । अहो मारिदत्त महाराज ! जब हम दोनों का वाल्यकाल व्यतीत हो गया और जब समस्त कलारूपी कमलिनी श्रेणी के अवतरण के लिए सरोवर-सा कुमारकाल प्राप्त हुआ उस समय जब हम दोनों के केशों में कूष्णता (श्यामता वैसी विशेष रूप से अधिरूढ ( प्राप्त ) हुई जैसे आपने यात्रु-मुखों पर कृष्णता(म्लानता) विशेष रूप से अधिरूढ होती है। जब हम दोनों के नेत्र से विशालता ( दीर्घता ) प्राप्त किये हुए थे जैसे आपके गुण (प्रताप-आदि) विशालता ( महत्ता ) प्राप्त करते हैं। जब हमारा मुख-मण्डल वैसा परिपूर्ण हो गया जैसे आपका यश परिपूर्ण । समस्त पृथिवी मण्डल में व्याप्त ) होता है। जब हमारा मध्यभाग ( कमर ) वैसी क्षामला ( कृशता ) प्राप्त कर चुका था जैसे आपका शत्रु-समूह क्षामत्ता ( विनाश ) प्राप्त करता है और जब हमारे नीचे-ऊँचे स्थानवर्ती शारीरिक प्रदेश ( हस्त-पाद-आदि अवयव ) बैसे प्रकट हो चुके थे जैसे आपके पराक्रम प्रकट होते हैं एवं जब यशोमति महाराज अभयरुचि कुमार के [ गले पर ] आगामी प्रतिपदा को
दा को बेला में यवराजपद की कण्ठो बांधेगे और राजकमारी अभयमति वां अद्विच्छन्न देश के स्वामी क्षत्रिय राजकुमार के लिए देंगे' मन्त्रियों के परिवार को स्त्रियों में ऐसी जन अतियों ( किम्बदन्तियांअफवाह प्रकट हो रही थों-पुताई पड़ रही यों तक एक समय शिकार खेलने को बुद्धि में यशामति महाराज ने, जिसने स्वयं हस्त से शिकारी कुत्तों को जंजोर श्रेणी धारण की है, जिसकी बुद्धि सेवक जनों के साथ वार्तालाप करने से आनन्दित हो रही है एवं जो कनों के रक्षक मनुष्यों के साथ जंगल के क्रीडावन में कर रहा है तथा जिसकी नेत्रपंक्ति का जोड़ा सहस्रकूट मन्दिर के बगीचे के पुरूषों की सुगन्धि के सूंघने से चञ्चल हुए हैं, श्री पूज्य सुदत्ताचार्य को देखा। उस समय 'अजमार' नाम के नमंसचिव । विदुषक । कुमार ने कहा-'हे राजन् ! कष्टदायक इस मुनि के दर्शन हो जाने से आज शिकार सफल वृद्धि वाली नहीं होगी।' [ उक्त बात को श्रवण कर ] यशोमति महाराज कुछ उद्विग्न चित्त होते हुए मन में मुनि से क्षुब्ध क्रुद्ध हुए। इसी अवसर पर श्रीसुदत्त भगवान् को वन्दना के लिए आये हुए और भक्ति व विनय के आश्रम 'कल्याणमित्र' नाम के वणिक् स्वामी ने यशोमति महाराज से ऐसा कहा-'हे राजन् ! बिना अवसर के आपका मुख शोक से म्कान (कान्ति-हीन) क्यों हो रहा है ?
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पेष्ठिन् एतस्यामशालीभूसस्म मग्नस्यावलोकनात् ।' कल्याणमित्र:--'राजन, मेवमभिनिवेश कृपाः । एष खलु भगवान्पुरा कलिङ्गाषिपतिस्तव पितुरन्धपतबन्धादेव निसरी माननीयः सकलविश्चक्रषिकमाकान्तविनतसामन्तमुखमुकुपन्दीकुतकणसमवलोऽभिसारिकामिव स्वयमागता भिमं अपलाङ्गनाभिषावमस्य निखिललोकमहनीये तपनि वर्तमानः परमेष्की कर्ष मामाबंशिकलोकलोचनानन्देन त्वरा मनसाप्मषमतयः । किच।
सुझानुभवने मानो नपनो जम्मसमागमे । बाल्ये नग्नः शिवो नानो नग्नचिन्मशिनो पतिः ।।१३१।। नग्नत्यं सहजं लोके विकारो वस्त्रवेष्टनम् ! नग्ना चे कार्य बन्या सौरभेयो दिन दिने १५१३२।। पापिष्ठं पापहेतुर्या पश्चानिष्ट विचेष्टमम् । अमलकरं वस्तु प्राधितार्थविधाति च ॥१३३॥ शानध्यानतपःपूताः सर्वसत्त्वहिते रताः । किमन्यन्मङ्गलं लोके मुनयो पद्यमङ्गलम् ॥१३४॥ भाषः क्वापि भवेदानां सर्वासिम्यक्रमः समः । कि व्योमापामयः पूषा पक्षपाताप्रकायते ।।१३५।। लोलम्बिया राम्नायाः परेशावशवलयः । अशक्तास्तत्वं गन्तं ततो निन्नां प्रपत्रिरे ॥१३६।। धर्मकर्मोद्यसोऽप्येष मुनिलोकस्त्वया यया । नोयेतावति वेव तवा कास्य नपःक्रिया ।।१३७।। बने वा नगरे वापि वपुःशंषा मुनीश्वराः । निविघ्नं यत्तपस्यन्ति तन्माहात्म्य तब प्रभोः ।।१३८|| साल दुराग्रहैनाथ मान्यमेतन्मुनि प्रति । प्रतिबध्नाति हि धेयः पूज्यगुजामतिक्रमः ॥१३९॥ बिदपक-पुत्र अजमार'हे बणिक-स्वामी इस अमङ्गलीभूत ( अशुभ ) नग्न में दखने से।
कल्याण मित्र-ऐसा अभिप्राय ( बिचार ) मत करो। क्योंकि निश्चप से यह भगवान पूर्व में कलिङ्ग देश के राजा थे, जो कि तुम्हारे पिता के वंश-संबंध से ही सदा माननीय ( पूज्य ) हैं, जिनके चरणनखमण्डल समस्त दिशा समूह में रहने वाले व पराक्रम से पराजित होने से नीभूत हाए सामन्ती (अधीनस्थ माण्डलिक राजाओं) के मुखों के लिए दर्पण किया गया है। जिसने व्यभिचारिणी स्त्री-सरोवो स्वयं आई हुई राज्यलक्ष्मी को चञ्चल स्त्री सरीखी समझकर निरस्कृत किया और जो समस्तलांक से पुज्य रापश्चर्या में स्थित हो रहा है, ऐसा परमेष्ठी (मोक्षपद में स्थित) अतिथिजनों के नेत्रों का आनन्दित करने वाले आप से किस प्रकार मन से भी तिरस्कार करने योग्य है ? विशेषता यह है
यह मानव काम-सुख भोगने के अवसर पर नग्न होता है. जन्म-प्राप्ति में नग्न होता है, वाल्यावस्था में नग्न रहता है और शिवजी भी नग्न हैं तथा चौल-रहित संन्यासी भी नग्न होता है ॥ १३१ । लोक में नग्नता स्वाभाविक है । बस्त्र से आच्छादित होना यह तो विकार है। नग्ग गो प्रत्येक दिन किस प्रकार से पूजनीय होती है ।। १३२ ।। ऐसी वस्तु अमङ्गल ( अशुभ ) कड़ी जाती है, जो पाप-पुक्त अथवा पाप का कारण है, जो अनिष्ट ( अप्रिय ) है और विचेष्टन ( ग्लानि-जनक ) है तथा जो प्रार्थना किये हुए पदार्थ का विघात (नाश ) करने वाली है ॥ १३३ ॥ ज्ञान, ध्यान व तपश्चर्या से पवित्र नथा समस्त प्राणिगों के कल्याण करने में अनुरक्त हुए साधु लोग यदि अमङ्गलीक (अशुभ) है तब लोक में दूसरी कौन वस्तु मङ्गलोक होगी? ॥१३४।। राजाओं के परिणाम यद्यपि किसी भी मत में होते हैं तथापि उन्हें समस्त मुनियों को विनय समान रूप से करनी चाहिए । आकाश च समुद्र के आश्रय रहने वाला सूर्य क्या पक्षपात से पदार्थों को प्रकाशित करता है ? ॥१३५।। ऐसे मानवों ने, जो चञ्चल इन्द्रियों वाले हैं, जो दुष्ट आम्नाय वाले हैं, जिननी प्रवृत्ति दूसरा को इच्छा के अधीन है एवं जो मुनिपद प्राप्त करने में असमर्थ हैं, उसकारण से मुनि-निन्दा की है ।। १३६ ॥ देव ! धार्मिक क्रियाओं के पालन करने में तत्पर हआ भी यह मनि-समह जब तुमसे अनादर में प्राप्त कराया जाता है, तब इसकी तपश्चर्या क्या है? ॥ १३७॥ ऐसे मुनीश्वर जिनका शरीर ही शेष है (जो छत्र-आदि रक्षा के साधनों से रहित हैं), वन में अथवा नगर में भी जो निर्विघ्न तपश्चर्या करते हैं, वह आप स्वामो का हो माहात्म्य है ।। १३८ ।। हे स्वामिन् । पूजनीय इस मुनि के प्रति दुराग्रह करने से कोई लाभ नहीं है, क्योंकि
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पञ्चम आश्वासः
पर्याप्तमनया दुर्यासनया 1 arere. तपःप्रभावप्रणतमि लिहिपाल मीलिमणिवेदिकाषिदेवतायमानचरणमे परमेष्ठिनम् । अतस्ती द्वापि मेमिन सूर्याचन्द्रमसौ तं भगवन्तं प्रदक्षिणीकृत्य कृतप्रणाय च पुरः प्रत्यक्ष नवम विपविविशतुः । भगवान्तरेश्वरमुनरोकृत्यो, त्मच भविष्यलक्ष्मोलतोल्लासप्रथमपत्स्वोहामिव पत्राश्रम्
कामधेनुरोगे श्रमागमनी देवमानवमनोरसिद्धिर्धर्मबुद्धिरियमस्तु सदा वः ।। १४० ।। अनि च। त्वं यर चैरिवनिताननेकान्त निष्यन्दसंपदि मतोऽसि नरेश राजा । आदित्य एव च भवान्नहितानाङ्गनिस्तोकशोकतपत पलदीपनेषु || १४१ ।। *
राजा 'वाविधानि मनोदुविलसितानि । पचेयं भगवतामस्तुङ्कारकरूयाणपरम्पराशंसनपरायणता । तदत्रास्य grafरितस्य निजशिरःकमलेन भगवकारणाचंनमेव प्रायश्चेतनं नात्यत् । इति परमपराक्रमतया निःसौमसाहसतपा कुत्ताभिनिवेशी सुनीशेन महीशः किलेवमादिदिनों विशांपते, मंद संस्थाः । वितानि हि बेहिनां स्वभावच उचलपा
निश्चय से पूजनीयों को पूजा का उल्लङ्घन कल्याण को रोकता है ।। १३९ || अतः इस दुष्ट विचार से कोई लाभ नहीं। आगे इस परमेत्री को नमस्कार करें, जिसके चरण तपश्चर्या के प्रभाव से झुके हुए समस्त दिक्पालों के मुकुटों की गणिरूपी वेदी पर अधिष्ठात्री देवता के समान आचरण कर रहे हैं। इस कारण उन दोनों ( कल्याण मित्र नाग के वणिक स्वामी व यशोमति महाराज ) ने उस पूज्य श्री सुबत्ताचार्य की वेसी प्रदक्षिणा करके जैसे सूर्य व चन्द्रमा सुमेरु को प्रदक्षिणा करते हैं प्रणाम किया । पश्चात् वे दोनों प्रत्यक्ष उत्पन्न हुए-नम (राजनीति) व विनय सरीखे प्रस्तुत आचार्य श्री के समक्ष आसीन हुए। पूज्य सुदत्ताचार्य यशोमति महाराज को लक्ष्य करके ऐसा हाथ उठाकर कहा- जो कि ऐसा मालूम पड़ता था मानों भविष्य में उत्पन्न होने वाली लक्ष्मरूपी लता के उल्लास ( विकास ) के लिए उत्कृष्ट पल्लव की उत्पत्ति हो है ।
आपके लिए सदा यह वर्मवृद्धि हो, जो कि समस्त आनन्दों के सङ्गम करने में कामधेनु है । अर्थात् — जैसे कामधेनु ममस्त इच्छित सुखों का सम करानी है वैसे ही यह धर्मवृद्धि भी समस्त अभिलषित सुखों का सङ्गम कराती है। जो लक्ष्मी के भले प्रकार आगगन को सूचना देनेवाली दूती है, और जिससे देव व मनुष्यों के मनोरथ पूर्ण होते है ॥ १४० ॥ विशेषता यह है कि है वीर नरेश ! तुम शत्रुओं की स्त्रियों के नैत्ररूपी चन्द्रकान्तमणि की जलप्रवाह शोभा में चन्द्र माने गए हो । अर्थात् जैसे चन्द्र के उदय से चन्द्रकान्तमणि से जलप्रवाह लक्ष्मी उत्पन्न होती है वैसे ही चन्द्र- सरीखे आपके उदय से शत्रु-स्त्रियों के नेत्र रूपो चन्द्रकान्तमणि से अनुवाक्ष्मी ( अजलप्रवाह शोभा ) उत्पन्न होती है। आग शत्रु-स्त्रियों के शरीर संबंधी प्रचुर शोकपी सूर्यकान्तमणि के उद्दीपन में सूर्य ही है। अर्थात् जैसे सूर्योदय से सूर्यकान्तमणि से अग्नि उद्दीपित होती है वैसे ही शत्रु-स्त्रियों के प्रचुर शोकरूपी सूर्यकान्तमणि को उद्दीपित करने में आप सूर्य हैं ।। १४१ || फिर जोति महाराज ने निम्न प्रकार विचार किया- 'कहीं तो हमारे ऐसे मानसिक दुर्दिलसित ( खोटे अभिप्राय ) और कहां यह पूज्य श्री सुदत्ताचार्य की मानी हुई कल्याण श्रेणी के निरूपण की तत्परता ? इसलिए यहाँ पर अपने सिर कमल से प्रस्तुत भगवान के चरणों की पूजा करनी ही इस पाप का प्रायश्चित्त है, अन्य नहीं । यशांभनि महाराज ने विशेष पराक्रम व वेमर्यादि किये जानेवाले साहस से बक प्रकार का अभिप्राय किया उसे जानकर प्रस्तुत मुनीश्वर ने निम्नप्रकार आदेश दिया- 'हे राजन् ! ऐसा मत करो । अर्थात् - इस प्रकार के विचार मन में मत लाओ। क्योंकि निश्चय से प्राणियों के चित्त स्वभाव से चञ्चलता के कारण समुद्र को तरों के जल सरीचे ऊँचे-नीचे विषयों में प्रवृत्ति करनेवाले ( नाना प्रकार के ) होते हैं, इसलिए दुरभिप्राय करने से कोई लाभ नहीं 1' तदनन्तर यशोमति महाराज ने नमस्कार पूर्वक क्षणमात्र निम्नप्रकार आश्चर्य करके भगवान् सुदत्त से पूछा - 'अहो भगवान् सुदत्त की बुद्धि, इन्द्रियों के अगोचर ( अविषय )
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यशस्तिलकचम्पूकाध्ये पारकल्लोलजलानीपोग्णाषचविश्वयवृत्तीनि भवन्ति । तबलं दुरभिनिवेशोन । पशोमतिमहारानः सशिरःकम्पम्-'अहो, भगवतरमतीन्द्रियेष्वपि . पहार्यद्वयेषु सातिशया दोसुषी' ति अगमानं विस्मिस्य भगवन्तमापपृच्छ-'भगवन, कि नाम मे मनो नुरभिनिवेशमध्यति । भगवान्क्वेस्पायाभयं तवाशयमुपाविशात् ।।
कल्याणमित्रा-काश्यपीपसे, नंतपाश्चर्यम् । अयं हि भगवान्महद्धिसंपन्नतयाष्टाङ्गमहानिमित्तनिलयः सर्वावषिसमसाक्षात्कुतसकलवस्तविषयःकरतलामलमिव कालवयत्रिलोकोदर विवरवतिसमर्थमपि पवाधंसायं कलयति । तबन्यवेब किचिवेतसभासभाजनकर नष्टमुष्टिचिन्तालाभालाभसुखदुःखजीवितमरणजन्मान्तरगोचरमापृष्टयं । सितिपतिः (सानुनयम्)-'भगवन्, मम पितामहो यशोधमहाराजस्तावृश लोकोतरं चरित्रमापर्वेदानों किं नु ज लोकमध्यास्ते पितामही चन्द्रमतिः पिता यशोधरमहाराजोऽमृतमतिश्च माता। भगवान-'समाकणंप ।
रामन्यशीर्षनृपतिः पलितं विलोम निविध संसृतिमुखेषु मुनिबभूव । राज्ये मशोषरनपं तनयं निवेश्य तत्याज निस्पृहतया तृणवद्विभूतिम् ।।१४२॥ जैनागमोचितमुपास्य तपश्चिराय प्रायोपवेशनविधानधिमुक्तकायः ।
ब्रह्मोत्तरं विशवेक्षमाप्य मातस्तस्कल्पलेखपतिर तमासमेतः ।। १४३।। बाह्मपुत्रविषिना सह मात्रा तं यशोधरमपं विनिपारय । जातफुमरतिरङ्गविरामारपञ्चमं निरयमाप ताम्बा ।। १४४।। पदार्थों के रहस्यों के जानने में विलक्षणता रखनेवाली ( विशेष प्रवृत्त होनेवाली ) है।' 'हे भगवन् ! मेरी चित्तवृत्तिने कौन से दुरभिप्राय का आश्रय किया ?'
___ भगवान् ने उसका अभिप्राय, जिसमें 'कहाँ तो हमारे इस प्रकार के मानसिक दुविलासित ( खोटे अभिप्राय ) और कहाँ यह पूज्य श्री की अभिलपित कल्याण श्रेणी के निरूपण की तत्परता? उस कारण इस अवसर पर अपने शिरकमल द्वारा प्रस्तुत भगवच्चरणों की पूजा करना ही इस पाप का प्रायश्चित्त है, अनन्य नहीं' इन वाक्यों की अर्थ संगति वर्तमान है, निरूपण कर दिया। तदनन्तर 'कल्याणमित्र' नाम के वणिकस्वामी ने कहा-'हे राजन् ! इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि यह भगवान् निश्चय से गुरुदेशना से नहीं किन्तु महान् ऋद्धियों की संपन्नता ( युक्तता) के कारण अष्ट अङ्गों वाले महानिमित्तों के जानने का गृह (स्थान ) हैं और जो सर्वावधि प्रत्यक्ष ज्ञान द्वारा समस्त वस्तु समूह का प्रत्यक्ष ज्ञाता है। अतः ये तीन काल व तीन लोक के मध्यवती योग्य पदार्थसमूह को हस्ततल पर स्थित आंवले की भांति जानते हैं, अतः इन पूज्य सुदत्ताचार्य से दूसग ही विषय पूछना चाहिए, जो कि नष्ट, चोरी, चिन्ता, लाभ, अलाभ, सुख, दुःख, जीवन, मरण व पूर्वजन्म इन विषयों से संबंध रखता हो एवं सभाजनों को प्रोतिजनका हो ।
अथानन्तर यशोमति महाराज ने विनयपूर्वक पूछा-'भगवन् ! मेरे पितामह ( पिता के पिता) यशोमहाराज वेसा अलोकिक चरित्र ( मुनिधर्म ) धारण करके इस समय निश्चय से किस लोक में निवास कर रहे हैं ? एवं हमारी पितामही ( पिता की माता) चन्द्रमति और मेरे पिता यशोधर महाराज तथा अमृतमति माता ये सब किस लोक में निवास कर रहे हैं ?
__ भगवान् सुदनी में कहा-'सुनिए-हे राजन् ! यशोघं राजा शिर पर सफेद केश देखकर सांसारिक सुखों से विरक्त होकर मुनि हुए। उन्होंने अपने पुत्र यशोवर राजा को राज्य में स्थापित करके निःस्पृहता के कारण तृणसमान राज्यविभूति का त्याग किया ॥ १४२ ॥ पश्चात् उन्होंने चिरकाल तक जैनशास्त्र के योग्य तपश्चर्या करके सन्यास ( समाधिमरण ) संबंधी उपवास विधान द्वारा शारीर छोड़नेवाले होकर ब्रह्मोत्तर नाम के छठे स्वर्ग में प्राप्त होकर उस स्वर्ग के आश्चर्य जनक लक्ष्मी सहित इन्द्र हुए ॥ १४३ ।। कुबड़े के साथ रतिविलास करने वाली तुम्हारी माता ( अमृतमति ) विष
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पन्धम आश्वासः
१७३ पाप चन्द्रमतीस्तव पितामही यश्च यशोधरमहाराजरत पिता तो पि प्रिजातिमिरापावितसकलसरवोपहारफलत्य पिष्टताम्रचूलत्याला धनबल्भनाभ्याममतमतिप्रयुक्तसौलिक केयवशात्प्रेरय निरवधीनि पुलानि पहुषु भवासरेवनुभूय सांप्रतं तवय यमलसया पत्यभावमाजामतुः ।' राजा (स्वगतम्)-पिण्टकुमकुटापायोपयोगाभ्यामपि पिता पितामही घंतावतीमवस्थामवापत् । नाकलेयमधुना समाजन्म स्वयं निहतबलस्पलाकाशवरमाणिपिशितरसपुष्टवपु:सरस: पुरवंशस इव सदैव हिसाथ्यवसायसरूचेतसः के भविष्यन्ति लोकाः । तत्पर्याप्त मम सांसारिकसुखाभिलाषेण । (प्रकाशम्) भगवन, अयं जन्तुरमोघमघसंघातघनतया पातालतलमुपनिपतन्नुखियाता वीक्षाप्रधानहस्तावालम्बनेन' इत्यभिशय पपात भगवत्पादयोपरि । कृतपावपतनः पराममर्श चैवम् ।
महकपि पापं विवलति पुण्याप्तिमनोरपः मुतुच्छोऽपि । कि नारूपो रविरेष त्रिभुवनमात्र तमो हन्ति ॥१४५॥ अध ऊर्ध्व वा प्राणी स्थर्य कृतंरेष फर्मभिर्याति । कूपस्य यथा खनिता यथा च कर्ता निकेतस्य ।।१४६।। ऊषिोयसिहेतुर्लघगुरुकर्मप्रयोगतः स्वस्य । स्वयमेव भवति जन्तुस्तुलाम्तवत् कि विषादेन ॥१४७॥'
भहारक:-अहो धर्मधोरेम, प्रधानगुणगन्धननिधान, उत्तिष्ठ । श्रूयतां तावदिवमभयलोकव्यवहारसर्वस्वम् ।
प्रयोग से उस शोनां महाराज की उनकी मालाबन्द्रगति के साथ मारकर, अर्थात्-दोनों को मारकर, शरीर के अखीर होने पर गांचवें नरक में प्राप्त हुई ॥ १४४ ॥ तुम्हारी पितामही ( पिता की माता ) चन्द्रमति और तुम्हारे पिता यशोधर महाराज ये दोनों भी ब्राह्मणों द्वारा सुनाये गये समस्त जीवों को बलि के फलवाले ऐसे आटे के मुर्गे के मारण ( वलि ) व भक्षण से अमृतमति द्वारा प्रयोग किये हुए विष के कारण मरकर बहुत से दूसरे जन्मों में निस्सीम ( वेमर्याद ) दुःखों को भोग कर इस समय तुम्हारे ही जोड़े रूप से सन्तानभाव (पुत्र-पुत्री) को प्राप्त हुए हैं।' [ उक्त बात को सुनकर ] -यशोमति महाराज ने अपने मन में निम्नप्रकार विचार किया-'जब मेरे पिता ( यशोधर महाराज )ब मेरो दादी ( पिता की माता ) चन्द्रमति ने आटे के मुर्गे के मारण व भक्षण से भी ऐमी भयानक अवस्था प्राप्त की तब इस समय जन्मपर्यन्त स्वयं मारे हुए जलचर (मछली-आदि), थलचर ( मृगादि) व नभचर ( कबूतर-आदि ) जीवों के मांसरस से पुष्ट हुए शरीररूपी सडागवाले व बिलाब-सरी सदा हिंसा के अध्यवसाय (दृढ़ विचार ) में आसक्त चित्तवाले मेरे परलोक ( भविष्यजन्म ) क्या होंगे? अर्थात्-मेरे भविष्यजन्म महाभय दूर होंगे। अतः मेरी सांसारिक सुखों की अभिलाषा निरर्थक है।'
तदनन्तर प्रस्तुत यशोमति महाराज ने सुदत्ताचार्य से स्पष्ट कहा-'भगवन् | इस मुझ सरीने प्राणी का, जो कि सफल पाप-समूह की प्रचुरता से पातालतल में गिर रहा है, दोक्षा-प्रदान रूपी हस्तावलम्बन ( सहारा ) से उद्धार कोजिये । ऐसा कहकर भगवान् सुदत्ताचार्य के चरणों पर गिर पड़ा। आचार्यश्री के चरण
वाले यशोमति महाराज ने निम्नप्रकार विचार किया-थोडी सी भी पूण्य-प्राप्ति को अभि
पाप को भी नष्ट कर देती है। उदाहरणार्थ-या छोटा सा यह सूर्य तीन लोक में भरे हए [विशाल-विस्तृत ] अन्धकार को नष्ट नहीं करता? || १४५ ॥ यह जीव स्वयं किये हुए पुण्य-पाप कर्मों से क्रमशः वेसा ऊपर ( स्वर्ग-आदि ) व नीचे ( नरक ) जाता है, जैसे गृह की रचना करनेवाला मानव ऊपर जाता है और कुएं का खोदनेवाला पुरुष नीचे जाता है॥१४६ ।। यह प्राणी लघु ( पुण्य व पक्षान्तर में कम बजनबाली वस्तु ) व मुरु ( पाप व पक्षान्तर में वजनदार वस्तू ) कर्म के प्रयोग से स्वयं ही अपने को ऊर्ध्वगति ( स्वर्ग-आदि ब पक्षान्तर में कार उठना ) व अधोगति ( नरकति व पक्षान्तर में नीचे जाना ) का कारण वैसा होता है जैसे तराजूदण्ड लघु गुरुकर्म (हल्की व बजनदार वस्तु ) के प्रयोग से ऊर्ध्व व अधोगति (ऊपर व नीचे उठने) में हेतु होता है, अत' शोक करने से क्या लाभ है? ॥ १४७ ।'
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१७४
यशस्तिलकचम्पूकाब्ये
इथं हि महिः प्रदर्शितमतोरमाणमा रमाऽसृग्धारेव विमुख्यमाना भवति जीतिसंहार देहिनाम् । चिरपरिचितालोकः काय इष परित्यज्यमानः करोति दूरे शरीरिणां प्राणान् । समग्यस्तधर्मणि कर्मणि विनियुज्यमानः पुमान्वारीगतः करीवातीवान्तमनायते । सस्त्रियासु तामास्विकावापस्तनुभृत स्वराला इव सुलभः खल्बभिनिवेशो न निर्वाहेषु । दिव्यचक्षुःखलितामिव सहसा कृते कर्मणि शर्पान्ति लोकाः । पुरश्चारकं प्रतिश्रुत्य व्रताव्रण। विवापद्रवत्सु महत्सु भवति च लोकविधा कोलीनता । अपि च ।
चितं स्वभावमृड कोमल मे तवङ्गमा जन्भभोग सुभगानि तवेन्द्रियाणि । एतत् चित्तवपुरिन्द्रियवृत्तिरोषाद्भुत' तपस्तबलमत्र नृपाग्रहे ।। १४८ || कल्याणमित्रः - क्षितिपते, साध्वाह भगवाम् । राजा -- कल्याणमित्र, सत्यमेवैतत् । किं तु ।
मायाधिकतर कल्पतं तापतानसह व निसर्गात् । एवमेव वक्त्तमपुंसां संपदां च विपदां च सहिष्णु ।। १४ ।। तलस्तपश्चरणकरणपरिणतान्तःकरणः पुनरहो मारिवत्त समाहूय सपरिवाराबायां पूर्वभववृतान्तमकथयत् । तवाकर्णनाच्च संजातजातिस्मरण बन्यचाप्पाम्बुभिः सह मूयवशाद्भुवि निपतित कर णायन व रतजलजांशु कश्य मनशोकरासारखीतला निलोप
तदनन्तर भगवान् सुदत्त भट्टारक- 'बहो धर्मभार का वहन करनेवाले व प्रशस्त ज्ञानादि गुणों के प्रकाशन के भण्डार राजन् | उठिए। दोनों लोकों के व्यवहार संबंधी इसाको सुनिए वास में मनोज्ञ प्राप्ति को दिखाने वाली यह लक्ष्मी निश्चय से जब त्याग की जाती है तब बेसी प्राणियों के जीवन का विनाश करने में निमित्त होती है जैसे मस्तक से प्रवाहित होनेवाली रक्तधारा प्राणियों के जीवन का विन्दाश करनेवाली होती है । चिरकाल से परिचित आलोक ( चितवन या कान्ति) वाला प्रेमीजन (स्त्री - आदि) जय त्याग किया जाता है तब सा प्राणियों के प्राण नष्ट करता है जैसे छोड़ा जा रहा शरीर प्राणियों के प्राण नष्ट करता है । अभ्यास किये हुए धर्मवाले कर्तव्य में किसी के द्वारा प्रेरणा किया जानेवाला पुरुष वैसा चित्त में दुःखित होता है जेसे हाथी के बन्धन- गतं ( गड्ढा ) में पड़ा हुआ हाथी मन में क्लेशित होता है। प्राणियों की प्रशस्त कर्तव्यों के पालन संबंधी तत्कालीन प्राप्तिवाली प्रतिज्ञा निश्चय से स्वच्छन्द बार्तालाप सरीखी सुलभ होती है। परन्तु निर्वाहों (पूर्णता ) में सुलभ नहीं होती ! उतावली में आकर अविचार पूर्वक कार्य करनेवाले को लोग वैसा दोषी ठहराते हैं जैसे अन्धे के गिरने पर लोग उसके खींचनेवाले को धिक्कारते हैं। जब महापुरुष प्रधान नेता को अङ्गीकार करके धारण किये हुए व्रत से युद्ध की तरह भागते हैं तब उनकी दोनों लोकों को नष्ट करनेवाली निन्दा होती है ।
विशेषता यह है कि आपका मन स्वाभाविक कोमल है व यह शरीर भी मृदु ( कोमल ) है एवं आपको चक्षुरादि इन्द्रिया जन्म पर्यन्त [ किये हुए ] भोगों से मनोज्ञ हैं परन्तु यह तपश्चर्या तो इसलिए दुःखरूप है; क्योंकि यह मन, शरीर और इन्द्रिय संबंधी वृत्तियों के निरोध ( रोकने) से उत्पन्न होती है, अतः हे राजन् ! आपकी तपश्चर्या की हठ करना निरर्थक है ॥ १४८ ॥
फिर कल्याणमित्र नामके वणिकू-स्वामी ने उक्त बात का समर्थन करते हुए कहा- 'हे राजन् ! पूज्य श्री ने उचित कहा'
यशोमति महाराज हे कल्याणमित्र ! यह बात सत्य है किन्तु जैसे सुवर्णं स्वभाव से विशेष कोमल होनेपर भी अग्नि ताप व साड़न को सहन करने वाला होता है वैसे ही उत्तम पुरुषों का शरीर भी संपत्तियों ( सुख- सामग्री) व विपत्तियों को सहन करने वाला होता है ।। १४५ ।। तदनन्तर अहो मारिदत्त महाराज | यशोमति महाराज ने अपनी चित्तवृत्ति तपश्चर्या करने में परिणत ( झुकी हुई) को और सकुटुम्ब हम दोनों (यशस्तिलक या अभयत्र च मदनमति या अभयमति) को बुलाकर पूर्वभव का वृत्तान्त कहा। उसके सुनने से हम दोनों
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पञ्चम आश्वास
१७५
लालनोलिमिः, मन्वनन्दनस्पायोपवेहसषयहृदयः, आझिंकमलदलमृणालनियमसंधारणपरपाणिभिः, अविरलजम्बालमञ्चरीभालपरिचर्यायावरपेशलाशयः, सरसरम्भागरिरम्भसंभावनप्रणयिभिः, अपरिमितोमीरपरिषरपरिमलमकारमपरायणः, घनधनसारपारोस्फारमानीयसेचनचतुरतोभिः एवमन्यासु च तानु लामु प्रयुजोयनकरप्रक्रियासु क्रियासु महादरोबारः परिपारः कृतादापयासनावानन्दमङ्गलैः सामनतिचिरावेच कालावुस्थितावनवविवलं पुनश्चिरजीवनजनो. चिताशीनिविहितसंबोषनेः 'तात, तावत्र भवतामस्मत्कृतिकर्मणो जन्मान्तरातफर्मान समारणेनाविवं मुहलकमीपराअमुख मनोऽभूत् । आवां पुनरद्यापि सदातडूपावफचुम्बितचित्ताविव भवन्तो कयं मामास्यामासंजायः' इति विहिताग्रहावपि तकलकुलवृद्ध समक्षतया संताने विनिवेश्योचितमाचरत् ।
मायारामसमा रमा मुलमिळे पुःखावलेखोन्मुख स्वप्नालोकनयः सुहपरिचयः कान्ता फुतान्सेहिता ।
उत्साहोऽपि च देहगेविषयो पः सोऽनित्योबमस्तस्वालोकविलुप्तचित्ततमसा पुंसां भवेऽनुत्सवः ।।१५।। इति चिन्तयतोतेषु कतिपयेषु च दिवसेषु पुन वयोमुनिजनमान्यप्रवृत्तवृत्तेरन्यासनाभिनिवेश इति विहितसर्गाभिषिच्य राज्ये यशोषनाभिधानरत्नं सापस्नमनुसन्मानमङ्गस्य चाटयदेशीयतपाहबूपायोग्यत्वादिमा देवायतिमाघ
को जातिस्मरण उत्पन्न हुआ और हमारा दारीर मूळ से बन्धु जनों के अश्रुओं के साथ पृथिवी पर गिर गया। पश्चात् एसे कुटुम्बोजनों द्वारा किये गए आश्वासन से आनन्द मङ्गलों के साथ शीघ्र ही अल्प काल में पृथिवी पर से उठे । जो ( कुटुम्बीजन ) निरन्तर कमलों व वस्त्रों के पंखों की जलकणों से व्याप्त हुई शीतल वायु से उपलालन ( उपचार ) के स्वभाव वाले थे। जिनके हृदय प्रत्रुर चन्दन-द्रव के लंपन से दयालु है । जिनके हस्त विशेष आई (गीले) कमलपत्तं व कमलनाल-श्रेणो के संचारण (प्रेरण या स्थापन) में तत्पर है | जिनके हृदय घनी शंवालमजरी (वल्लरी) श्रेणी को परिचर्या (सेवा) उपस्थित करने से कोमल हैं । जो, सरम ( भोगे हए ) केलावृक्ष के मध्यभाग का.आलिङ्गन कगने के विचार से स्नेह करने वाले हैं। जो बेमर्याद वीरणमूल मा खस-कर्दम के मलने की प्रेरणा में तसार हैं एवं जिनके चित्तप्रसुर कार-फड़श के विशेष जल के सिञ्चन में प्रवीण हैं गीर जो पुनरूज्जी. वित करने के उपाय वाले उन उन उपचारों में विशेष आदर करने से महान हैं। फिर हम दोनों बहुत समय तक हमारे सम्बोधन वाले कुलवृद्धों के आशीर्वादों से व्याप्त हुए। फिर हमारे पिता यशोमति महाराज ने निम्न प्रकार आग्रह करने वाले हम दोनों को, 'हे पिता जी हमारे द्वारा किये हुए पाप कर्म के सुनने से एवं पूर्वजन्म में उत्पन्न हुए दुःखदायक कर्मों के प्रवण करने से आप पूज्यों का यह मन बार-वार लक्ष्मी से विमुख होगया पुन: [जव ] हम दोनों अब भी पूर्वोका दुःखरूपी अग्नि से छुए होने से दग्ध मनवाल सरीरने हो रहे हैं तव कोसे इस राज्य लक्ष्मी में आसक्ति करें ?" समस्त कुलवृद्धों के समक्ष राज्यवंश में स्थापित करके-राज्य लक्ष्मी प्रदान करके उचित (जेनेश्वरी दीक्षा) धारण की । तदनन्तर जन्म हम दोनों निम्न प्रकार चिन्तबन कर रहे थे-- 'लक्ष्मी इन्द्रजाल सरोटी है । सांसारिक सुख दुःख के अक्षर लेख में तत्पर ( दुःखरूप ) हैं। यह मित्र-परिचय स्वप्रदर्शन-सरीखी नीतिवाला है। स्त्री काल की अभिलाषा वाली ( विनश्वर) है। जो शरीर व गृह संबंधी उद्यम है, वह भी अनित्यता के आगमन बाला ( विनश्वर ) है। अतः तत्त्वज्ञान रूपी प्रकाश से चित्त के अज्ञान रूपी अन्धकार को नष्ट करने वाले पुरुषों को सांसारिक विषयों में इच्छा का विस्तार नहीं होता ।। १५० ॥ पश्चात कुछ दिनों के व्यतीत होने पर हम दोनों ने ऐसा निश्चय करके कि 'हम दोनों का मुनिजनों द्वारा मान्म प्रवृत्ति वाले चारित्र को छोड़कर दुसरे राजसिंहासन-गादि की प्राप्ति का अभिप्राय नहीं है। सोतेले 'यशोधन' इस श्रेष्ठ नाम वाले लघु भ्राता को राज्य में अभिषिक्त करके राज्य लक्ष्मी का त्याग किया परन्तु आठ वर्ष की आयु ( उम्र ) होने से हमारा शरीर मुनिदीक्षा धारण के अयोग्य था, इसलिए क्षुल्लक क्षुल्लिका को प्रशस्त अभिलाषा थाली दीक्षा धारण करके उस भगवान सुदनाचार्य के साथ विहार करते हुए हम दोनों
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये नीया बशामाधिस्य तेन भगवता सह विपरमाणावधागतो समापतो भबबूटानयनमरादेतत्समान्तरम् । धर्माध. पानयलरत्नबीपौप्तिबिरिसमतिमिथ्यात्वमहाम्पकारवृत्ती मारिततः प्रतिक्षणं शुभाशयामृतप्रवाहविग कमिशिसाञ्जनः सपारपुरवेशतापरिजनः पुरा स्वयं दुर्वासनया च कृतेषु निरवधिषु बुधरिप्रेष्यतोषयीभत्सवान्तःशाल्यित इव कृतशरोरविमानस्सन्मुनिकुमारमिथुमकमानाविमं समस्तमपि संसारसुखमंगमं स्वप्नेन्द्रजालसमं समाकर्णयकरकमलमुकुलावधूलमौलिः सबहुमानमम केलित मुनिकुमारमेषमभावत-'अहो विक्ष बनाय, निःसामात्मसुकृतसुलभदर्शनसनाप, बुरन्तपातालपतञ्जन्तुहस्तावलम्ब, मिखिलभुवनमानसोल्लासन, शर्मधर्मामृतवार्य प्रतिबिम्ब, हिताहितविवेकदिङमूहविषुरपाषव, लोकपीणनाचाराश्रयश्रीमाधव, खलीकृतसकलमगज्जयोशरमार, मुनिकुमार, निःशेषलोकायुद्ध रणजन्मना परमाप्तसमवमना वैवाषाप्तालोकनेन तत्रभवतानुग्रहणीयः खल्वयं जनः स्वकीयाचारणसमानभाजनतया । मुनिकुमार:निसर्गसुङ्गिमानवमन्दर, करणारसस्पन्दकन्दर, समाकर्णय। स्वभावमष्यस्य विविसवितव्यस्य हि भवतः सर्वमुपइस राजपुर के उद्यान में आए ! पश्चात् आपके कोट्टालों को लाने की विशेषता से इस सभा के मध्य (चण्डमारी देवी के मन्दिर में ) प्राप्त हुए । तत्पश्चात् मारिदत्त महाराज ने धर्मतत्व के मनोयोग पूर्वक श्रवण करने के प्रयत्न रूपी रत्न की दीप्ति से अपनी बुद्धि का मिथ्यात्व रूपो गाढ़ व गृहीत अन्धकार नष्ट कर डाला। प्रत्येक क्षण में शुभ परिणाम रूपो अमृतप्रवाह से गल रहे समस्त पापरूपी अजनवाले और नागरिक लोक, नगर देवता (चण्डमारी देवी )व सेवकों से सहित हए मारिदत महाराज ने पूर्व में स्वयं दर्वासना ( दृष्ट आभप्राय) से किये हुए वमयाद पापों से विशेष घृणा होने से भीतर चुभी हई शल्य ( कोला) से ध्याप्त हएसरीखे होकर अपना शरीर कम्पित किया। जो उस क्षुल्लक जोड़े की कथा-श्रवण से इस समस्त सांसारिक सुख-सङ्गम को स्वप्न व इन्द्रजाल सरीखा निश्चय कर रहा है एवं जिसने हस्तरूपी कमल कलियों का अपने मस्तक पर मुकुट धारण किया है और जिसकी मानसिक क्रीड़ा [ प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े का ] अतिशय सम्मान करनेवाली है, ऐसे होते हुए प्रस्तुत क्षुल्लक जोड़े से निम्न प्रकार कहा
अहो मुनिकुमार ! आप विद्वानों के स्वामी है. असाधारण पुण्य से प्राप्त होने योग्य दर्शन से सम्पन्न हैं, दुष्ट फलबाले पातालतल में पड़ते हुए प्राणियों को हस्तावलम्बन ( सहारा देने वाले हैं, समस्त लोकों के चित्तों को उल्लासित ( प्रमुदित ) करने वाले हैं, सुख व धर्मरूपो अमृत वृष्टि को प्रतिच्छाया हैं एवं हित व अहित के विवेक में दिड मूढ़ हुए सन्तप्त प्राणियों के बन्दु हैं, विष्णु-सरीखे लोक को सन्तुष्ट करनेवाले चारित्र के आधार हैं और समस्त जगत को जीतनेवाले पुष्प या कामवाण (कामदेव) को जीतने वाले हैं। ऐसे हे मुनिकुमार ! समस्त लोक के उद्धार-हेतु जन्मवाले, उत्कृष्ट माता-पिता सरोखे हितेषी मार्गबाले, भाग्य से प्राप्त हुए दर्शनवाले पूज्य आपके द्वारा यह प्राणी (में) अपने चारित्र सरीखी पात्रता से (मुनि या क्षुल्लक दीक्षा द्वारा) निश्चय से अनुग्रह करने योग्य है।'
मुनिकुमार-स्वाभाविक तुङ्गिमा ( महत्ता व पक्षान्तर में केंचाई) व आह्लाद के लिए सुमेरु सरीखे व करुणा रस के झरने के लिए कन्दरा ( गुफा ) सरीखे हे राजन् ! सुनिए
___ स्वाभाविक भव्य व जानने योग्य विषय के ज्ञाता आपको निश्चय से सब ज्ञात ही है किन्तु मैं ऐसे कार्य में ( आप के लिए दीक्षा देने में ) गुरु के द्वारा आज्ञा दिये हुए आचार्य पद वाला नहीं हूँ । अर्थात्-हम लोगों को तुम्हें दीक्षा देने में अभी तक गुरु का आदेश नहीं है। अत: आइए। हम दोनों शरणागत जनों के मनोरथों की अनुकूलता वाले उसके पादमूल में गमन करें। उक्त वात को सुनकर मारिदत्त राजा ने मन में निम्नप्रकार विचार किया-'अहो आश्चर्य है, क्योंकि
मैं ( मारिदत्त ) प्रजाजनों का गुरु हूँ और मेरी गुरु यह देवता ( चण्डमारी देवी ) है एवं इन तीनों (प्रजा, मेरा व देवी का ) गुरु यह क्षुल्लक है तथा इस क्षुल्लक के दूसरे ( सुबत्ताचार्य ) गुरु हैं। उस दूसरे
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पंचम आश्वास:
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पन्नमसत् । कित्यहमेषिधे कर्मण्यवापि गुरुणाम्यनुमानसमावतेनो न भवामि । सदहि । गम्यावः शरणागसजनमनोरयानुकूल सत्पाबमूलम् । राजा-(स्वगतम् । ) महो प्रानचर्यम् । यतः ।
महं प्रजानां मम बेपतेनमेसन नमस्र्थव तपास्य मान्यः ।
गुवस्तदर्थान्तरगा महत्ता वेश्येव दूरं समुपागतेपम् ।।१५१।। (प्रकाशम् । ) मुनिकुमार, असं विलम्बितेन । एतहि प्रतिष्ठावहे तं भगवन्तं भवन्समुपासितुम् ।
यः पाद्वायपि सर्वयोक्तिकनयक्षोदक्षमैतिशयोकिनन्यभराशयोऽपि जगतः सर्वायंसिद्ध घाश्रयः । वृष्टावण्टफलप्रसूतिपरितोऽप्याप्तश्च मध्यस्थतामात्मस्थोऽपि समस्तगः स भवतः श्रेयस्को लाजिमनः ।।१५२१॥ मालकालव्यालेन ये लोडाः सांप्रतं तु ते। शम्याः श्रीसोमवेवेन प्रोत्थाप्यन्ते किमद्भुतम् ॥१५३।।
पदार्थ ( पूज्य सुदत्तश्री ) में यह दूरवर्ती महत्ता ( महज्जू ) वैसी एक स्थान ( सुदत्तश्नी ) में स्थित हुई है जेसे वेश्या एक स्थान में स्थित होती है ।। १५१ ॥' तदनन्तर मारिदत्त राजा ने स्पष्ट रीति से कहा-हे मुनिकुमार! विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं है, अतः अब हम दोनों उस भगवान् लपस्वी सुन्दसाचार्य की उपासना करने के लिए प्रस्थान करें। ऐसा वह जिनेन्द्र आपके पाल्याण की प्राप्ति के लिए होवे । जो स्याद्वादी ( 'स्यात्' इस अक्षर मात्र को कहनेवाला) हो करके भी जिसका आगम शान ममस्त युक्ति-युक्त नयों को परीक्षा या अनुसन्धान करने में समर्थ है। यहाँ पर उक्त कथन विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि जो केवल 'स्यात्' इस अक्षर मात्र का कहने वाला होगा, उसका आगम ज्ञान समस्त युक्तियुक्त नयों के अनुसन्धान करने में समर्थ कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो स्याद्वादी ( अनेकान्त दर्शन का निरूपण करनेवाला ) है और निश्चय से जिसका आगमज्ञान समस्त युक्ति-युक्त नयों के अनुसन्धान करने में समर्थ है । नैषिकचन्यभराराय (विशेष दरिद्रता-युक्त चित्तवाला) हो करके भी संसार को सर्वार्थसिद्धि का आश्रय ( समस्त धन प्राप्ति का सहारा) है। यहां पर भी विरोध प्रतीत होता है। क्योंकि जो विशेष दरिद्र है वह लोगों की समस्त धनप्राप्ति का आश्रय कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो नैष्किनन्य भराशय (जिसका अभिप्राय परिग्रह-त्याग की विशेषताशाली ) है और जो निश्चय से संसार को सर्वार्थसिद्धि का आश्रय (समस्त इष्ट प्रयोजनों (स्वर्गादि) की सिद्धि का आनय ) है | जो दृष्टादष्टफलप्रसुतिचरित ( जिसका अभिप्राय या चित्त ऐहिक व पारलौकिक फलों ( सुखों) के उतान करने में समर्थ । है, ऐसा होकर के भी जो मध्यस्थता ( उदासीनता) को प्राप्त हुआ है। यह करन भी विरुद्ध प्रतीत होता है, क्योंकि जो लौकिक व पारलौकिक सुखों को उत्पन्न करने में समर्थ चेष्टावाला होगा, वह उदासीन कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो लौकिक व पारलौकिक सुखों के उत्पन्न करने के अभिप्राय वाला है और निश्चय से मध्यस्थता ( वीतरागता) को प्राप्त हुआ है। जो आत्मस्थ शरीर परिमाण आत्मप्रदेशों वाला) होकर के भी समस्त पदार्थों में व्यापक है। यहाँ पर भी विरोध मालूम पड़ता है, क्योंकि जिसकी आत्मा के प्रदेश शरीर वरावर होंगे, यह आकाश की तरह व्यापया ( सर्वत्र विद्यमान ) कैसे हो सकता है ? इसका समाधान यह है कि जो आत्मस्थ (आत्मस्वरूप में लीन ) है और निश्चय से सर्वग ( केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जानने के कारण व्यापक ) हे ॥ १५२ ।।
जो शब्द कुटिल कलिकाल रूपी कृष्णसम से से भए थे, वे मूच्छित ( अप्रयुक्त ) क्षाब्द श्री सोम देव सरि द्वारा अथवा पक्षान्तर में अमृत बुष्टि करने वाले चन्द्र द्वारा उठाए जाते हैं-प्रयोग में लाए जाते हैंपक्षान्तर में पुनरुज्जीवित किये जाते हैं इसमें आश्चर्य ही क्या है ? ।। १५३ ॥ चिरकाल से शास्त्ररूपी समुद्र के
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
चरम शास्त्र अनितले निमान: पर्यागतंरिव त्रिरावभिधानरः । या सोमदेवता विहिता विभूषा वाग्देवता बहतु संप्रति तामनर्थ्याम् ॥ १५४॥
इयता प्रत्येन मया प्रोक्तं चरितं यशोधरनृपस्य । इत उत्तरं तु बध्मे भूतपठितपासकाध्ययनम् ।। १५५ ।। इति सकलता किलो कचूडामणेः श्रीमन्नमिदेवनगवतः शिष्येण सद्योमवद्यगद्यपद्यवथाप र व च क्रय विशिखण्डी भवरणकमलेन श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोबर महाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्ति महाकाव्ये भवभ्रमणवर्णनो नाम धमाश्वासः ।
१७८
तल में डूबे हुए शब्द रूपी रत्नों से, जो कि शास्त्ररूपी समुद्र से श्रीसोमदेव सूरि से निकाले गए हैं, अर्थात् -- प्रकाश या प्रयोग में लाये गये हैं, इसलिए जो ऐसे मालूम पड़ते हैं- मानों प्रस्तुत आचार्य श्री द्वारा नए निर्माण किये गए हैं, सोमदेव सूरि ने जो आभूषण ( यशस्तिलक रूपो रत्नों की हारयष्टि-माला ) निर्मित किया है, उस अमूल्य आभूषण को वाग्देवता – सुकवि-वाणी की अधिष्ठात्री देवी -- धारण करे ।। १५४ ।।
मुझ सोमदेव सूरि ने इसने ग्रन्थ में (पचि आश्वासों में ) यशोधर महाराज का चरित्र कहा । इसके आगे ( ६ आश्वास से ८ आवास तक) द्वादशाङ्ग में उल्लिखित उपासकाव्ययन (श्रावकाचार ) कहूँगा || १५५ ।। इसप्रकार समस्त तार्किक पदर्शन - वेत्ता ) चक्रवर्तियों के चूड़ामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य नेमिदेव के शिष्य श्रीमत्सोमदेव सूरि द्वारा, जिसके चरण कमला निर्दोष गणन्या विद्याघरों के चक्रवर्तियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रखे हुए 'यशोधरचरित' में, जिसका दुसरा नाम 'यशस्तिलक महाकाव्य है', 'भवभ्रमण वर्णन' नाम का पञ्चम आश्वास पूर्ण हुआ ।
इसप्रकार दार्शनिक-बूडामणि श्रीमदम्बादास जी शास्त्रीय श्रीमत्पूज्यनाव आध्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद जी वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य, 'नीतिचावयाभूत' के भापाटीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, जैनन्यायतीर्थ, प्राचीन न्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ व आयुर्वेद- विशारद एवं महोपदेशकआदि अनेक उपाधि-विभूषित, सागर निवासी परवार जैनजातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची श्रीमत्सोमदेव सूरिविरचित 'यशस्तिलक चम्पू महाकान्य' को 'यशस्तिलकदीपिका' नाम की भाषाटीका में यशोधर महाराज का भवभ्रम-वर्णन' नाम
का पञ्चम आश्वास
पूर्ण हुआ ।
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षष्ठ आश्वासः
( उपासकाध्ययन )
वेलेब
श्रीमानत्रान्तरे पूरिः सुतोऽयमबोधतः । युयुध्वा तमाम संयमधीः स्वयम् ॥ १ ॥ तत्रागमान्मुनेर्मान्यात्सभा चुलोभ मूभुवः । एश्नाकरस्य पार्वणेन्दुसमागमात् ॥ २ ॥ विषाय विधिवरे सपर्या तत्र भूपती । आसीने सत्युवाचेदमसौ दारकः ॥ ३ ॥ भगवन्, afer as "कारान्तराल+खेलल्लेलिहाने शानकपर्वच न्छन मालवलाय मानभन्दा किनौ जलकेलिकलहंसेन सुरसुन्दलोचनचकोरकुलसंतर्व " णापितामृतासारसृष्टिना "सरस्वतील वणती पोपासनतापसेन "मनोजविनया जंनावजितजन्मना रजनिवल्लरी कुसुमस्तबकसुम्दरेष 'त्रिदिवदधिकार्जुनाम्बुजकुजविजयिपूर्तिना कौस्तुभैरे रावतपादि आलामृतेवि रासोवरेण
इस अवसर पर श्रुतज्ञान आदि अन्तरङ्ग व धर्म सभा आदि बहिरङ्ग लक्ष्मी से सुशोभित श्री 'सुदत्त' नाम के आचार्य ने अवधिज्ञान से उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में उनका ( अपने मुनि संघ शुल्लक जोड़ा आदि का ) आगमन जानकर वे प्राणिरक्षारूप चारित्र- पालन में तत्पर बुद्धिवाले अर्थात्'इन मारिदत्त राजा आदि के आने के कारण प्राणिधन होने इस प्रकार की बुद्धि-युक्त होते हुए स्वयं वहाँ प्राप्त हुए || १ | जैसे पूर्णमासी के चन्द्रमा के उदय से समुद्रतट ज्वारभाटा के आने से क्षुब्ध ( चंचल ) हो जाता है वैसे ही उस चण्डमारी देवी के मन्दिर में सुदत आचार्य के माननीय आगमन से मारिदत्त राजा की सभा क्षुश्च ( सन्तुष्ट ) हो गई ] ||२|| जब वह मारिदत्त राजा उक्त आचार्य की यथाविधि पूजा करके स्थित हो गया तब 'अभयरुचि' नामके क्षुल्लक ने उक्त आचार्य से निम्नप्रकार कहा ॥ ३ ॥
भगवन् ! शत्रुओं के कोतिरूपी स्तम्भ को विदीर्ण करने के लिए घृण के कीड़े सरीखे या टि० के अभिप्राय से यज्ञ - सरीखे यादवों का ऐसा वंश ( यदुवंश ) है, जो कि ऐसे चन्द्र से मुद्रित ( उपलक्षित) है, जो यदुवंश पूर्व में सोम (चन्द्र) वंश था | अथवा मानों - जो यदुवंश विशेष उच्च होने से चन्द्रपर्यन्त उपलक्षित (व्यास) है | मानों वह वंश चन्द्र में लगा हुआ-सा दृष्टिगोचर हो रहा है।' जो (चन्द्र) ऐसा शोभायमान होता है -- मानों -- जिसकी मुण्डमाला में सर्प क्रीड़ा कर रहा है, ऐसे ईशानरुद्र को जटाजूटरूपी चन्दनवृक्ष की क्यारी के समान आचरण करने वाले गङ्गाजल में क्रीड़ा करने वाला राजहंस हो है । "
जिसने देव सुन्दरियों के नेत्ररूपी चकोर पक्षियों के समूह को सन्तुष्ट करने के लिए अमृत की प्रचुर वृष्टि-रचना समर्पित की है। जो मानों – सरस्वती नदी के क्षरणरूप तीर्थ में प्रतिविम्बित होने से उसकी उपासना करने वाला तपस्वी ही है। मानों- जिसने कामदेव को दिग्विजय प्राप्ति के निमित्त अपना जन्म प्राप्त किया है। जो रात्रिरूपी लता के फूलों के गुच्छी- सरीखा मनोज्ञ है ।" जिसकी आकृति गङ्गानदी के श्वेत कमलों के वन को जीतने वाली है । जो कौस्तुभमणि, ऐरावत हाथी, कल्पवृक्ष, अमृत व लक्ष्मी का सहोदर १. गुनिकुमारयुगल गुरदेवना पुरेश्वर- पौरजनागमनं । २. तेषां मारिदत्तादीनामागमने प्राणिवघी मागे दिति बुद्धिः । ३. मुण्डमालामध्ये क्रीडत्सर्पः ईदृश ईशानरुद्रः । ★ 'कंदलान्तराल' इति ष० । टिप्पणी शिरःशकलानि पलानि वां ४. जटाजूट एवं चन्दनवृक्षस्तस्य आलवालायमानं यन्मन्दाकिनीजलं तत्र या क्रीड़ा वत्र राजहंसेन चन्द्रेण मुद्रित उपलक्षितः यदुदाः ।
५. संतर्पणार्थम् ६ तथाः सुमणं क्षरणमेव तीर्थं तत्र प्रतिविम्बितत्वाच्चन्द्र एव तापसस्तेन ।
७. विग्विजय निमित्तं सज्जितं जन्म येन स तेन । ८. गङ्गानदीश्वताब्जवन । ९. कौस्तुभादीनां भ्राता लक्ष्मीः । 1. उपमालंकारः । 2. रूपकोपमाम्यां परिपुष्ट उत्प्रेक्षालंकारः ।
3. रूपकः काव्यलिङ्गाकारः 1 4. काव्यलिङ्गोत्थापित उत्प्रेक्षालंकारः 5 हेतुत्थालंकारः । रूपक मूलक उपमाकार 7 उपमालंकारः ।
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१८०
पशस्तिलकचम्पूकाव्ये मृगमईकर मासित्तिललामलिपिविलोपिना विवस्वानुभछतापिपगुलश्याविच्छिन्नम्छायाशा लाग्नेनालंकृतिमसा फोहोरुम चार शुल: सिप फल परमरोऽम्युरितोषितवितिरहितकोतिस्तम्भनिभेवभिमां यचूना वंशः। तत्रावन्निखिललोकचिन्तामणीयमानचरणो रणोत्सवतारसिफसपनाङ्गनालोचनचन्द्रकान्तमणिप्रणालजलप्रवाहिनी
हारकिरणोवो वमोचिताचरणा नन्वितबिनीताबमीपालबारको चारकोपतरकरवालधिमिभिन्नारीभाम्भस्थलोछलन्मुक्ताफलनिकरतारफितरगमतलो नतलोक्षपालनडामणिमरीचिवलयालवालविलसत्कमाशोकपल्लवोः श्रीवि रामसीहै। जो तरल कस्तूरी से चारों ओर लिखो हुई मनोज्ञ लिपि (तिलकरूपो लिपि ) को तिरस्कृत करने वाले एवं विकसित पत्तोंवाले महान तमाल पत्रों के गुच्छों को निरन्तर कान्ति का घारक पौधा-सरीखे लाञ्छन (श्याम चिह्न) से अलंकृत है तथा जो क्षीरसागर का पुत्र है ।' अनोखे वंशवृक्ष-सरीखा जो ( यदुवंश) प्रतिपर्व-सम्पन्नफलपरम्परा बाला ( बांसवृक्ष के पक्ष में जो प्रत्येक पर्व ( गांठ) पर परिपूर्ण फल-समूह से व्याप्त हो करके भी उदितोदितविभूतिवाला ( अत्यधिक विभूति को उत्पन्न करने वाला ) है । यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है, क्योंकि जब बाँस वृक्ष फलता है तब लोगों की लक्ष्मो-आदि नष्ट होतो है। अर्थात्-वंश वृक्ष के फलशाली होने पर उत्पात होता है । अतः जो प्रत्येक पर्व-गांठ-पर फलश्रेणी से व्याप्त होगा, उससे जनता को अत्यधिक विभूति कैसे मिल सकती है ? उसका परिहार यह है कि यह यदुवंश फलशालो होकर के भी विभूतियुक्त है। अर्थात्-जो प्रतिपर्व-सम्पन्न फलपरम्परा वाला (जिसे प्रत्येक पर्व-महोत्सव में पुण्यकर्म की फलपरम्परा ( सुख-श्रेणो) प्राप्त होती है और जो निश्चय से उदितोदित विभूति-युक्त ( दिनोंदिन वृद्धिगत धनादि विभूति से व्यास ) है।
उस यदुवंश में ऐसा चण्डमहासेन नाम का राजा था। जिसके चरण समस्त याचक-लोक के लिए चिन्तामणि सरीखें आचरण करते हैं। जो युद्ध के आनन्द में रसिक ( रुचि रखनेवाले ) शत्रुओं की स्त्रियों के नेत्ररूपी चन्द्रकान्त-मणियों के प्रणालॉ से जल प्रवाहित करने वाले चन्द्र का उदय ही है। जिसने जीवदया के योग्य आचरण से नम्रोभूत (सेवक) राजाओं की दाराएं ( पञ्जिकाकार के अभिप्राय से स्त्रियाँ व टिप्पणीकार के अभिप्राय से दारक-पुत्र ) आनन्दित किये हैं। जिसने विदारणशील विशेष तीक्ष्ण खड्ग से विदीर्ण किये हुए शत्रु-राजाओं के हाधियों के गण्डस्थलों से उछलते हुए मोतियों के समूह से आकाश तल को नक्षत्र-समूह से व्याप्त किया है। जिसको चरणरूपी अशोक वृक्ष को पल्लव-श्री ( शोभा ) नम्रीभूत राजाओं के चूडामगियों (शिरोरत्नों-मुकुटमणियों ) की कान्ति समूहरूपी क्यारो में शोभायमान हो रही है और जो ऐसे भुजारूपी
१. तिलकमेव लिपिः कस्तूरिकायास्तिलकं सरस्वती ललाटे घटते । २. विकसत्पत्रबहुलतमालपत्र टि० (ख)। ३. 'हस्वपापालिका क्षुपः इत्यमरः टिक (च)। ४. ईबृोन लाञ्छनेन सहिनेन । ५. मुद्रितः उपलक्षितः, यदूना
वंशश्चन्द्रमसा मुद्रित आचन्द्रमुपलक्षित उच्चस्तरत्वात यशश्चन्द्रे लग्न इव दृश्यते पूर्व यदनां सोगवंश इत्यर्थः । ६. महोत्सवं प्रति परिपूर्णफलपरम्पर: लोकानां दातृगुणेन, पर्श यदा वंशः वेणुस्तस्य पर्वाणि यया फलानि फलन्ति तदा
उत्पात एव स्यात्, यदा बंशवृक्षः फलति तदा लोकानां ट्रन्यादिकं विनश्यति, वश फलिते उत्पातः स्यादयं तु यदूनां
वंशः फलितोऽपि विभूतिमानित्यर्थः । ७. निदने षनाणां दि० ख० । 'भिदुः घुणकीटाः' इति पम्जिकाकारः । ८. यदुवंशे । ९. चंद्रमहासेन रागाऽभवत् । १०. नीहारकिरणश्चन्द्रः। ११. जीवदया। १२. आनन्दिताः
सेवकन पपुत्राः येन सः। १३. विदारणशील । १४. बिनामा । 1. उपमालंकारः। 2. उपमालंकारः । ।, विरोधाभास-अलंकारः। 4. उपमालंकारः। 5. रूपकालंकारः। 6. काल्पलिङ्गालंकारः। 1. उत्प्रेक्षालंकारः। 8. रूपकालंकारः।
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षध आश्वासः
१८१ 'माभितशत्रुसंतानतमत्पाटनपट्टयोपडमण्डलायन्हमहासेनो नाम नरपतिः । तस्यायं नमस्तसाम्राज्यधुरोबारबारेय. भजोपावी तान्न '
काय बनतेयः साक्षातुसुमधमुः सनरामयोपन सविध्याः सकलजगतापवाहार प्रवृत्तियतकमा. संसारसंमन्यावनुजपर्यः सोदर्म: १२ । स एक१३ संप्रति स्वभावतो मृतुमानसरसप्रसरोऽपि दुरुपदेशावसरतामोपयःप्रवात् इव । 'संजालशक्तिसंपुटकोढरावगाहः कठिनतानीतमतिरस्मसमागतिशलाकासावितसूत्रप्रवेगामार्गो निकामं संपचमानधर्मसंसर्गों भवितमिष्यतीति ।
तदनु राजा सबहुमानं धर्ममतपमोस्पन्सपल्लवायमानेन “ सकलसंसारव्यसमवनावानलप्रभापटलकान्तिला नखमयूखास रोत्सापित धवणसमोपसरस्वतीप्रवाहेण सीमन्तप्रारत "सरः संजातजलेजर कुश्मलविम्मिमा ३ करयुगलेनो दण्डमण्डल से विशेष तेजस्वी-प्रतापी है, जो कि लक्ष्मी के विनाश को मर्यादा को आश्रित हुए ( अस्त होने वाली लक्ष्मी वाले ) शत्रु-समूह रूपी वृक्षों के उन्मूलन में समर्थ है।'
थे मारिदत्त महाराज उक्त राजा के समस्त साम्राज्य-भार के वहन करने में समर्थ पुत्र है और जो प्रजा पर उपद्रव करने में उत्सुक दुष्ट लोगरूपी सो के विनाश करने में गरुड़ ही हैं एवं मानों-साक्षाद कामदेव ही हैं। तथा सकल जगत की व्यवहार-प्रवृत्ति में स्कन्ध (सहायता देनेवाले संसार-संबंध से
सम्भाधम की मोक्ष' ) हमारी माता सुगमावली रानी) के लघुभ्राता ( हमारे छोटे मामा) है। ये मारिदत्त महाराज इस समय स्वभाव से कोमल मानसिक रस के विस्तार वाले भी हैं परन्तु इन्हें दुष्ट लोगों के उपदेश का अवसर प्राप्त हुआ है, इससे ये वैसे कठिन बुद्धिवाले हो गये थे जैसे सोप-संपुट के मध्य में प्रवेश
ताम्रपर्णी नाम की नदी का जल-प्रवाह कठिनता से ग्रहण करने के लिये मशक्य होता है। अर्थात-जैसे सीप-संपट का मध्यवर्ती जल मद होने पर भी संपूट के उद्धाटन विना ग्रहण नहीं किया जा सकता वैसे ये भी पूर्व में दुरूपदेश के प्राप्त होने से कठिन बुद्धि-बाले थे। परन्तु अब मणि-सरीखे इन्होंने हमारी समागम बेला रुपी शलाका (सई) से सत्र ( शास्त्र व पक्षान्तर में सन्त में प्रवेश-मार्ग प्राप्त कर लिया है इससे ये विशेषरूप से धर्म-संसर्ग प्राप्त करने के इच्छुक हैं।' निष्कर्ष-अतः अब आपको पात्रता-प्राप्त किये हुए इनके लिए उपदेश शास्त्र कहना चाहिये । तदनन्तर ऐसे हस्त-युगल से मुकुटोकृत मस्तकवाले मारिदत्त राजा ने प्रस्तुत आचार्य के लिए विशेष सन्मान पूर्वक नमस्कार किया, जो ( हस्त ) धर्मरूपो वृक्ष का प्रथम उत्पन्न हुआ नवीन पल्लव-सरीखा है" 1 जिसको कान्ति सांसारिक समस्त व्यसन ( मद्यपान-आदि दुःख) रूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल के प्रभापटल-सी है। मानों-जिसने विस्तृत नख-किरणों से कानों के समीप सरस्वती नदी का प्रवाह ही प्रसारित किया है और जो केश-प्रान्त रूपी तड़ाग में उत्पन्न हए कमलों की अष
१. मर्यादा। २. श्रिताः ये पत्रमः। ३. नृपस्य । ४. सूनुः पुत्रोऽयम् । ५ में ८. उत्सुका ये क्षुद्रास्त एन सस्तेिषां
विनामकरण गढ़ः। ९. कामदेवः । १०. मातुः । ११-१२. लधुचाता पश्चाउजन्मपर्यायः, अर्थात्-गृहस्था
पेक्षयाध्ययोर्माललघुभ्रातल्यर्थः । १३. अयं मारिदत्तः । १४. दुष्टलोकोपदेशानामयमरी यस्य सः। १५, कापिनदीनाम । १६. मथा शुषल्युदरमा पानीयं मुद्दपि संपुटोघाटनं विना गृहीतु न शभ्यते, लद्वदयं दुरुपदेदोन कठिनमुद्धिः पूर्व । १७. इयानी हु जम्मदारमतवेनेव दालाका तया आसादितमूत्रप्रवेशमार्गः । अर्थात्-अधुना श्रीमद्भिरूपदेगगास्न कथनीय
मिनिभावः । १८. ईदृशेन हस्तयुगलेन । १९. प्रसारितकर्णसमीप । ३२०. प्रान्त एव तडाग । २१. कमल । २२. हस्तयुग्मेन । 1. सपकालंकारः। 2, रूपकालंकारः। 3. सपकालंकारः। 1. उपमालंकारः। 5. रूपक व उपमालंकारः || ६. उपमालंकारः। 7. रूपक व उपमालंकारः। 8. उत्प्रेक्षालंकारः ।
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१८२
मस्तिलकचम्यूकाव्ये संतितशिक्षण प्रणम्यानाकुलममा प्रत्याक्षिप्तभ्याोपमाः परलोकोपापपरामर्शपवित्रप्रकृतिः शुभवाश्रवणप्रहणधारषिक्षा नोहापोहत स्वाभिनिषेशपेशलमतिः सुवसभगवन्तमभयघिमिरचितापसोवन्तमे किलामाषत'मगवन,
धर्मास्किलप जन्तुर्भवति सुखी भगति स - पुनर्थमः । किरूपः किभेदः किमुपायः फिफलश्च जाऐत ॥४॥ भगबानाह-'राजन्, समाकर्णय ।
यस्मादभ्युदयः पुंसां निःश्रेयस फलाश्रयः । वन्ति विविताम्नायास्तं धर्म धर्मसूरयः ॥५॥
स' प्रवृत्तिनिधृस्यात्मा गृहस्थे तरगोचरः । प्रवृत्तिर्मुक्तिहेतौ स्यानिवृत्तिभवफारणात् १" ॥६॥ राजाह-कि पुनभंगवामुक्तः कारणम्, कि घसंसारस्य, को वा गृहामिणां धर्मः, कश्न संयमिलोकस्य ।' खिलो कलियों भारीखा था। फिर निराकुल मनोवृत्तिवाले व चित्त-ब्याकुलता एवं पाप-प्रवृत्ति निगकृत ( त्यक्त ) करनेवाले तथा पारलौकिक उपाय की विचारधारा से पवित्र प्रकृति वाले मारिदत्त महाराज ने, जिसकी बुद्धि, शुश्रूषा ( शास्त्र व शिष्ट पुरुषों के हितकारक उपदेश को श्रवण करने की इच्छा ), श्रवण ( हितोपदेश का सुनना), ग्रहण (शास्त्र के विषय का उपायान, धारण । शास्त्रादि के विषय की भूलना), विज्ञान (अनिश्चय, सन्देह ( संशय ) व विपरोत ज्ञान इन मिथ्याशानों से रहित यथार्थज्ञान होना ), कह (निश्चित धूम-आदि पदार्थों के आधार ( ज्ञान ) से दूसरे अग्नि-आदि पदार्थों का उसी प्रकार निश्चय करना ), अपोह ( महापुरुषों के उपदेश और प्रवल युक्तियों द्वारा प्रकृति, ऋतु व शिष्टाचार से विरुद्ध पदार्थों ( अनिष्ट आहार, विहार एवं परस्त्री-सेवन-आदि विषयों) में अपनी हानि या नाश का निश्चय करके उनका त्याग करना) एवं तत्त्वाभिनिवेशः (उक्त विज्ञान, कह और अपोह-आदि के सम्बन्ध से विशुद्ध हुए 'यह ऐसा ही है अन्य प्रकार नहीं है' इस प्रकार का दृढ़ निश्चय ) इन बुद्धि-गुणों से मनोज्ञ है, पूज्य सुदत्ताचार्य से, जिनके लिए अभयरुचि क्षुल्लक द्वारा अवसरानुकुल वृत्तान्त निरूपण कर दिया गया है, निश्चय से निम्न प्रकार प्रश्न किये ( धर्मविषयक जिज्ञासा को)
'भगवन् ? निश्चय से यह प्राणी धर्म से संसार में सुखी होता है, उस चर्म का क्या स्वरूप है ? और उसके कितने भेद हैं ? एवं उसकी प्राप्ति का क्या उपाय है? और उसका क्या फल है ? 11 ४॥
आचार्य राजन् ! श्रवण कीजिए । जिन सत्कर्तव्यों के अनुवान से मनुष्यों को स्वर्ग ( इष्ट शरीर, इन्द्रिय व विषयों की प्राप्ति लक्षणवाला और मोक्ष की प्राप्ति होती है, उसे आगमवेता धर्माचार्य 'धर्म' कहते हैं ।। ५ ।। उसका स्वरूप प्रवृत्तिरूप और निवृत्तिरूप है। अर्थात्-मोन के कारणों ( सम्यग्दर्शन-आदि ) के पालन करने में प्रवृत्त होने को प्रवृत्ति और संसार के कारण ( मिथ्यादर्शनादि ) से बचने को निवृत्ति कहते हैं । वह धर्म गृहस्थधर्म और मुनिधर्म के भेद से दो प्रकार का है।६।।
राजा-'भगवन् ! मोक्ष का कारण ( मार्ग ) क्या है ? और संसार के कारण क्या है ? गृहस्य धर्म क्या है व मुनि धर्म क्या है ?
१. मुकुटीकुतमस्तकः । २. निराकृतचित्तव्याकुलत्वं पाप च। ३. विचारण। ४. अभिप्राय। ५. अभ्युदयः
इष्टशरीरेन्द्रियविषयप्राप्तिलक्षणः स्वर्गः। ६. निःश्रेयसं निखिलमलविलयलमणं । ७. आम्नायः आगमः । ८. सः धर्मः। ९ यति । १०. मिथ्यात्वानिवृत्तिः सम्यमत्वनतप्रवृत्तिरैव धर्मः ।।
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पञ्चमं आश्वासः
भगवान् -- सम्यक्त्वज्ञानचारित्रत्रयं मोक्षस्य कारणम् । संसारस्य व *मोमांस्यं मिध्यात्वादिचतुष्टयम् ॥७॥ सम्यक्त्वं भावनामाहुर्युक्तियुक्तेषु वस्तुषु । मोहे सन्देह विभान्ति वणितं ज्ञानमुच्यते ||८ कर्णादाननिमित्तायाः क्रियायाः परमं शमम् । चारित्रोचितचातुर्याश्वाचारित्रसूचि ॥९॥ सम्यक्त्वज्ञानचारित्रविषयं परं मनः । मिम्याएवं त्रिषु भाषते सूरयः सर्वदेविनः ॥ १० ॥
१८३
अत्र बुरागमवासनाविलासिनीवासितचेतसां प्रति कृत लोक मोहोन्मूलनसमयलोतसां सदाचाराचरणचारोचतिनां पश्यादिना मुक्तेादे कार्ययः कः तथाहि 'सकलन कलाप्तप्राप्त मन्त्र तत्रापेक्ष१२ दोन लक्षणा मात्रानुसरणान्मोक्ष:' इति सैद्धान्तवैशेषिकाः, 3 * द्रव्यगुणकर्मसामान्यसमवायान्त्यविशेष्टा
1
आचार्य - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यस्वारित्र इन तीनों की प्राप्ति मोक्ष का मार्ग है एवं मिथ्यादर्शन, अविरति कषाय व योग संसार के कारण समझने चाहिए || ७ | युक्ति-सिद्ध पदार्थों ( जीवअजीव आदि नव पदार्थी ) में दृढ श्रद्धा करने को सम्यग्दर्शन कहते हैं और अज्ञान, सन्देह व भ्रान्ति से रहित हुए ज्ञान की 'सम्यग्ज्ञान' कहा जाता है || ८ || महामुनियों ने ज्ञानावरणादि कर्मबंध को कारण मनोयोग, वचतयोग व काययोग तथा कषायरूप पाप कियाओं के त्याग करने को सम्यक्चारित्र कहा है ।। २ ।। सर्ववेत्ता आचार्य, ऐसी मानसिक प्रवृत्ति को, जो कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र को विपरीत करने में तत्पर हैं, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र इन तीन विषयक मिथ्यात्व ( मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान व मिथ्याचारित्र ) कहते हैं ॥ १० ॥
मुक्ति के विषय में अनेक मान्यताएं-- मिध्याशास्त्रों की वासनारूपी कामिनी से वासित चित्तवाले aaraare को, जिनके सिद्धान्तरूपी जल प्रवाह अज्ञानी मनुष्य-समूहरूपी वृक्षों के उखाड़ने में गतिशील हैं एवं जो सदाचार के पालन की चतुराई से दूरवर्ती हैं, मुक्ति के मार्ग में व स्वरूप में अनेक प्रकार की मान्यताएँ हैं ।
१. 'जैसे- 'द्धान्त वैशेषिक' ( वेद को मुख्यता से प्रमाण मानने वाले कणाद ऋषि के अनुयायी ) मानते हैं कि ऐसी दीक्षालक्षण वाली श्रद्धामात्र के अनुसरण से मुक्ति होती है, जिसमें सगुण शिव ( सशरीरपार्वतीकान्त ) व निर्गुण ( परमशिव ) परमगुरु या ईश्वर से प्राप्त हुए मन्त्रों (वैदिक ऋचाओं या वैदिक मन्त्रों, जो कि निरुक्त के अनुसार तीन प्रकार के हैं, परोक्षकृत, प्रत्यक्षकृत व आध्यात्मिक अथवा वेदों का मन्त्र भाग जो ब्राह्मण से भिन्न है ) व तन्त्रों ( उपायों - यज्ञादि कर्मकाण्ड पद्धतियों ) की अपेक्षा ( वाञ्छा ) वर्तमान है ।'
२. तार्किक वैशेषिक मानते हैं कि 'द्रव्य ( पृथिवी, आप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिकू, आत्मा और मन ये ९ ), गुण ( रूप, रस, गंध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व,
*.
विचायें । ९. मिथ्यात्वाविरतिरूपाययोगाः । २ मोहः अज्ञानं । ३. इदं तत्त्ववित्वमिति चलन्तो प्रतिपत्तिः संशयः सन्देहः । ४. अन तत्वापत्रमा भ्रान्तिः । ५. महामुनयः । ६. सम्यक्त्यज्ञानचारित्रेषु मिथ्यादर्शनं मिथ्याज्ञानं मिथ्याचारित्रं चेत्यर्थः ७ अज्ञानिजन । ८. लोका एव वृक्षाः । ९. स्वरूपे । १०. स्वभावाः । ११. पार्वतीपतिः परमशिवश्चैव गुरुस्तस्मात्प्राप्तः । १२. वाष्ट्रमन्त्रतन्त्रादिरुचिरेव । १३. मोक्षं मन्यन्तं ।
★ 'द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यययम्यां सत्यज्ञानान्निःश्रेयसम् ॥ वैशे० द०१-४ |
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यशस्सिलकपम्पूकाव्ये भावाभिषानानां पयार्थानां भाषHषविजोषतन्त्रानानमात्रा पति ताकिकवैशेषिकाः, त्रिकालभस्मोद्ध्लनेज्या'
कप्रमानाप्रदक्षिणीकरणामविपनामिक्रियाकाणमात्राधिष्ठानावनामात्' इति पाशुपताः, 'सर्वपु पेयापेयभक्ष्याभक्ष्यादिषु निःशदूचित्तावृवृत्तास्' इति फुलापार्यकाः । तथा च "हिमामसोक्ति:- 'मदिरामोदरेश्ववनस्तर रसप्रसन्नवय: १सम्परावधिनिषेशितशतिः शाक्तिमुद्रातनवरः स्वयमुमामहेश्वरायपाणः कृष्णाया ''पाणीश्वरमारराषयेदिति । "प्रकृतिपुस्खयोविवेकमतेः स्यातेः' इति साधाः, नैरास्यादिनिहितसंभावनातो भावनातः' इति
बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, शब्द, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म से २.८ गुण ), सर्म (उत्क्षेपण, अपक्षेपण, आकुञ्चन, प्रसारण च गमन ये ५ कर्म ), सामान्य (पर व अवर से दो सामान्य), विशेष ( निस्पवय-वृत्ति अनन्त विशेष पदार्थ ), समवाय ओर अभाव ( प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव व अन्योन्याभाव ये ४ अभाव ) इन सात पदार्थों के सदशधर्म व वेधर्म्य मलक शास्त्र संबंधी तत्त्वज्ञानमात्र से मोक्ष होता है।
३. पाशपतों-ौवा-को मान्यता है कि 'प्रातः मध्याहच सायंकाल भस्म लगाना. शिवलिङ्ग की पूजा करना, गडुक-प्रदान ( मुख के भीतर बधारो के शब्द का अनुकरण करना अयत्रा शिव लिङ्ग के सामने जल-पात्र को स्थागित करना , काश ओर से शिव-निजको प्रदक्षिणा करा ९५ आत्म-बिडम्बन ( पंचाग्नि तपश्चर्या-आदि ) आदि क्रियाकाण्ड मात्र के अनुष्ठान से मोक्ष होता है।'
४. कुलाचार्यवों ( कोल मार्गानुयायियों) ने कहा है कि 'समस्त पीने योग्य, न पीने गोग्य, खाने योग्य, न खाने योग्य पदार्थों के खाने पीने में निशक चित्तवृत्ति पूर्वक प्रवृत्ति करने से मुक्ति प्राप्त होती है। कोलमत (सांख्यमत ) का कथन यह है कि ऐसा मानव मुक्ति प्राप्त करता है, जिसका मुख मद्य की सुगन्धि से सुगन्धित है, जिसका हृदय मांस-रस से प्रसन्न है, जिसने अपने वाम पावभाग में शक्ति ( स्त्रो-शक्ति । स्थापित की है, जो स्त्रीशक्ति, मुद्रा ( योनि मुद्रा ) व आसन का धारक है और जो स्वयं उमा (पार्वतः परमेश्वरो) व महेश्वर-( श्री शिव ) सरीखा आचरण कर रहा है, एवं जिसे मद्य-पान से उमा व श्रीशिव की आराधना करनी चाहिए।
५. सांख्यदर्शनकार की मान्यता है कि प्रकृति ( महान् ( बुद्धि ) व अहंकार एवं इन्द्रिय-आदि तत्वों का उत्पादक अचेतन (प्रधान पदार्थ) और पुरुष ( चैतन्यरूम आत्मा ) के भेदकान से मुक्ति होती है। भावार्थप्रस्तुत भेदज्ञान की प्राप्ति के लिए महान, अहंकार व इन्द्रियादि तत्वों का, जो कि प्रकृति के परिणामभूत हैं, संकलन किया गया है। अन्यथा पुरुष (आत्मा) की उपाधिरूप बुद्धि, मन, प्राण व शरीर-आदि से आत्मा में भेद ज्ञान भली भांति नहीं जाना जा सकता। अतः प्रकृति व पुरुष का अभेद ज्ञान ही संसार है और इन दोनों के भेद ज्ञान से मुक्ति-लाभ होता है ।
६. वृद्ध के शिष्यों ( माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक व वैभाषिक भेद से चार प्रकार के बुद्धमतानुयायियों ) ने कहा है, आत्मशून्यता-आदि तत्त्वों को शास्त्रनिरूपित अभ्यास वाली भावना से मुक्ति होती है। भावार्थ-बौद्ध सबै क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणे स्वलक्षणं, शून्यं शन्यमित्ति इस प्रकार भावना
१. दम्प ९, गुण २४, कर्म ५, सामान्य २, समवाय १, असमः पदार्थः, पदार्याभानस्प। : नगालक्षण । ३. पूजा। ४. गाठींचान गाड़ टालनुवा ? ५. कतंत्र्यात् । ६. फौलाः । ७. सांख्यः। ८. मयन । ... सरस । १०. मांसं। ११. बाम । १२. स्त्रीशक्तिः । १३. योनिमुद्रा । १४. मदिरया । १५. ईश्वरं ।
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षष्ठ आपवासः
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बशबल 'शिष्याः, 'अङ्गाराञ्जनादिवरस्वभावादेव कालुष्पोत्कर्षप्रवृतस्य वित्तस्य न कुतविचद्विशुद्ध चित्तवृत्ति:' इति जैमिनीयाः, 'सति षमणि धर्माविश्वन्त्यन्ते ततः परलो किनोऽभावार परलोकाभावे कस्यासी मोक्षः' इति समवाप्तसमस्त नास्तिकाधिपत्याः बार्हस्पत्याः", "परम ब्रह्मवनावशेष भेदसंवेदना “विद्याविनाशात्' इति बेबान्तवादिनः,
'नैवान्सस्तत्व मस्तीह न वहिस्तस्वमखसा । विरगोचरातीतेः शूम्यता श्रेयसी ततः ।। ११ ।। ' चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं। अर्थात् समस्त जगत् क्षणिक, दुःखरूप, स्वलक्षणात्मक व शून्यरूप है, इस प्रकार चार प्रकार की भावना से मुक्ति होती है ।
७. जैमिनीय ( मीमांसकविशेष ) कहते हैं कि जैसे स्वभाव से विशेष मलिन कोयला व अञ्जन-आदि पदार्थ किन्हीं उपायों से विशुद्ध नहीं हो सकते वैसे ही स्वभाव से विशेष मलिन आत्मा को मनोवृत्ति भी किन्हीं उपायों ( तपश्चर्या आदि ) से विशुद्ध नहीं हो सकती ।
८. समस्त नास्तिकों का स्वामित्व प्राप्त किये हुए बृहस्पति के अनुयायियों ( चार्वाक मतानुयायियों ) ने कहा है कि 'जब धर्मी ( आत्मा आदि पदार्थ ) स्वतन्त्ररूप से सिद्ध होता है तब उसके धर्मों (ज्ञानादिगुणों ) का विचार किया जाता है परन्तु जब परलोक में गमन करने वाले आत्मद्रव्य का अभाव है तब परलोक का भी aara de मुक्ति किसे होगी ? भावार्थ - प्रस्तुत दर्शनकार 'देह एवात्मा नदतिरिक्तस्यात्मनोऽदर्शनात्' अर्थात् शरीर को ही आत्मा मानता है, क्योंकि उससे भिन्न आत्मद्रव्य की प्रत्यक्ष से प्रतीनि नहीं होती । उसकी 'मान्यता है कि यावज्जीवं सुखं जीवेन्नास्ति मृत्योरगोवरः । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥
अर्थात् तपश्चर्या आदि क्लेशपूर्वक जीने से भी मृत्यु अवश्यम्भावी है, अतः उसका कष्ट उठाना व्यर्थ है, इसलिए जीवनपर्यन्त सुख भोगों । शङ्का - जन्मान्तर में विशेष स्थायी सुख की प्राप्ति के लिए तपश्चर्या का कष्ट सहन उचित है। उत्तर -- जब शरीर हो आत्मा है और वह मरणकाल में भस्मीभूत हो चुका है, उसका पुनरागमन कैसे हो सकता है ? अर्थात् न परलोकगमन है और न जन्मान्तर-प्राप्ति सिद्ध है तब निरर्थक तपश्चर्या का क्लेश सहन क्यों किया जाय ? इत्यादि ।
९. वेदान्तवादियों ने कहा है कि परब्रह्म के दर्शन होने से समस्त मेदज्ञान करानेवाली अविद्या माया - अज्ञान ) के विनाश से मुक्ति होती है । अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से 'विप्रचाण्डालादिवर्णावणंसारनिःसारपदार्थपरिज्ञानं सा अविद्या' अर्थात् ब्राह्मण व चाण्डाल आदि उच्चवर्ण व नीचवर्ण के समस्त मानव-आदि पदार्थों में क्रमश: सार व निस्सार रूप भेदज्ञान प्रकट करना हो अविद्या है। उसके नाश से परब्रह्म का दर्शन होना हो मोक्ष है ।
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भावार्थ- 'मूलाज्ञाननिवृत्ती स्वस्वरूपाधिगमो मोक्षः', अर्थात् सत्यरंजतमोमय जगत को मूलकारण अविद्या ( अज्ञान ) की निवृत्ति होने पर ऐसे परब्रह्म के स्वरूप का बोध होने से मुक्ति होती है, जो कि सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म, अर्थात् जो सत्य, चिद्रूप व अनन्त है। शाङ्करभाष्य में भी कहा है।
१. दशवलो बुद्धः । ★ न कुत्तधिय द्विशुद्धिरितिजैमिनीया:' ( क ) । २. त्रात्मनि । ३. आत्मनः । ४. चार्वाकाः । ५. विचाण्डालादिषण त्रिर्णसार निःसारपदार्थपरिज्ञानं सा अविद्या तस्या विनाशात् । ६. विचाररहितत्वातु ।
७. तथा च शाङ्करभाष्यं -- अविद्यास्तमयो मोक्षः सा च वन्य उदाहृतः ।
अर्थात् अविद्या ( अज्ञान माया ) की निवृत्ति मोक्ष हैं और अत्रिया ही बन्ध है। सर्वदर्शन संग्रह ० ४०२ से संकलित — सम्पादक
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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये इति पश्यतोहराः प्रकाशितशून्यकान्ततिमि शाक्यविशेषाः, लया 'ज्ञानमुखःखेस्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणा नवसंख्याबसराणामात्मगुणानामत्पन्तोन्मुक्ति तिति काणावाः । सयुक्तम्
वहिः अरोरासन पमात्मनः संप्रतीपते । उक्तं तवेव मुक्तस्य मुनिमा कणभोजिना ।। १२ ।' 'निराश्रय चित्तोपासलक्षणो मोक्षमणः' इति तामागता;" । तयुक्तम्
दिशं न कोचिद्विरिश न कांचिलवानि गच्छति नान्तरिक्षम् । बोपो यथा निवृति मम्मुपेतः" स्नेहक्षयात्केवलमेति शान्तिम् ।। १३ ।। विशं न कांचिद्विविशं म कांचिन्नवावनि गच्छति नान्तरिक्षम् । जोबस्तथा निति मभ्युपेतः मलेशशक्षयास्केवलमेति शान्तिम् ।। १४ ।।
प्रत्यक्ष-प्रतील वस्तु का अपहरण करने वाले व सर्वथा शुन्यतारूपी एकान्त अन्धकार को प्रकाशित करने वाले माध्यमिक बौद्धों ने कहा है-'इस लोक में निश्चय से न तो कोई अन्तरङ्गतत्व (आत्मा-आदि पदार्थ) है और न बाह्मतत्व ( घट-पटादि ) है, क्योंकि प्रस्तुत दोनों तत्व विचार-रहित हैं। अतः शून्यता ही कल्याण करने वाली है । अर्थात् सून्यतत्व की भावना से ही मुक्ति होती है ॥ ११ ॥
भावार्थ-यद्यपि बुद्धदर्शन के प्रवर्तक भगवान् बुद्ध एक ही थे परन्तु उनके शिष्यों की बुद्धि के भेद से उनके चार भेद हो गये हैं 1 माध्यमिक, योगाचार, मौत्रान्तिक व वेभाषिक | और ये क्रमशः सर्वशून्यता, बाह्मार्थशून्यता, वाह्मार्थानुमेयत्व और वाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद मानते हैं | जैसे 'गतोऽस्तमः, ( सूर्य अस्त हो चुका है ) ऐसा कहने पर जैसे जार, चोर और अनूचान ( वेदवेत्ता ) क्रमश: अभिसरण, परमव्यापहरण एवं सदाचार-पालन का समय निर्णय करते हैं वैसे ही प्रस्तुत चारों ( माध्यमिक-आदि ) 'सर्व क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वलक्षणं, शून्यं शून्यं ,ऐसी भावना-चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं।
उनमें माध्यमिक बौद्धों का कहना है कि जब समस्त जगत् क्षणिक, दुःख, स्वलक्षण व शून्यरूप है तब उसमें स्थिरशीलता, मुख, अनुगतत्व (द्रव्यता) व सर्वसत्यता का अभाव सुतरां सिद्ध हो गया, ऐसा होने से आखिर में सर्व शून्यता ही सिद्ध होती है, अतः इसकी भावना से मुक्ति होती है। । कणाद ऋषि के अनुयायियों की मान्यता है कि ज्ञान, सुख, दुःख, इच्छा, वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्ग व संस्कार इन नौ आत्मिक गुणों का अत्यन्त उच्छद ( नाश ) होना ही मुक्ति है।
वैशेषिकदर्शन में कहा है--'आत्मा का शरीर से वाह्यप्रदेश ( आकाश ) में जो स्वरूप (निर्गुण-जड़रूप) प्रतीत होता है । अर्थात्-जैसे शरीर-स्थित आत्मा में उक्त सुख-आदि गुण पाये जाते हैं, परन्तु शरीर से वाह्यप्रदेश ( आकाश ) में वत्तंमान आत्मा में उक्त सुखादि गुण नहीं होते । अतः वाह्यप्रदेश में उसका स्वरूप उक गुणों से रहित ( निर्गुण-जड़रूप ) है वही स्वरूप कणाद मुनि ने मुक्त आत्मा का बतलाया है ।। १२॥'
वौद्धों की मान्यता है कि निरन्वय ( सन्तान-रहित ) चित्तक्षण को उत्पत्ति लक्षाणबाला मोक्षक्षण ( पदार्थ है। कहा भी है-जैसे बुझता हुआ दीपक न किसी दिशा ( पूर्व-आदि) को जाता है न किसो विदिशा (ऐशान-आदि), को जाता है और न पृथिवी व आकाश की ओर जाता है, किन्तु तेल के नष्ट हो
- - - -. -- १. वौद्धास्तेशेप त्रिप्रकाराः सन्ति । २. आगाणं जडतारू। ३. आत्मनः । ४. निराश्रयं निरन्वयं । ५. नाथागता: बौद्धाः। ६. विनाकां । ७. प्राप्तः।८. दीपवन स्थानरहित: मोक्षावसरः । १. अनित्यभावनया दुःखाय विनासो भवति । 1. देखिए सर्वदर्शन संग्रह पृ० १९, व पु. २९ । १. देखिए रावदान संग्रह --उपोद्घात प्रकरण पृ० ५३ ।
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षष्ठ आश्वासः
'बुद्धिमनोऽहंकारविरहावखिलेस्टियोपशमावहातमा ब्रण्टु स्पेऽवस्थान मुक्तिः' इति कापिला,' 'यथा घरिघटने घटाकाशमाकाशीभवति सपा वेहोसवात्सर्गःप्राणी परब्रह्माणि लीयते इति ब्रह्माहतवादिमः।
अज्ञातपरमार्थानामेवमन्येऽपि चूर्णयाः । मिष्यादृशो म गम्पन्ते आरपग्मानामिव द्विपे ॥१५॥ (स्वगतम् । }
प्रायः संप्रति कोपाप सन्मागमोपानम् । निलननाप्तिकस्पेक विशुद्धादर्शदर्शनम् ॥१६॥ युष्दान्ताः सन्त्यसंन्येयाः मतिस्तवशतिनो । किन कुर्युमही पूर्ता विबेकरहितामिमाम् ॥१७॥ बुरामहप्रहप्रस्ते विद्वान्यसि करोतु किम् । कृष्णपाषाणखण्डेषु मारवाय म तोयबः ॥१८॥
ईर्ते युक्तिः यवेषात्र तवेव परमार्पसत् । पड़ामुदीप्तियतायाः पक्षपातोऽस्ति न स्यचित् ॥१९॥ जाने से केवल शान्ति प्राप्त करता है वैसे ही निवृत्ति ( मुक्ति ) को प्राप्त हुआ आत्मा भी किसी दिशा, विदिशा, पथिवी भण्डल और आकाश को ओर नहीं जाता किन्तु [पूर्वोक्त सर्व क्षणिक क्षणिक-आदि चतुर्विध भावना से ] समस्त दुःखों का क्षय करके केवल शान्ति-लाभ करता है ।। १३-१४ ॥
कपिल ऋषि के अनुयायियों ने कहा है-'समस्त इन्द्रिय-वृत्तियों को शान्त करने वाला बुद्धि, मन व अहंकार का विरह ( संबंध-विच्छेद ) हो जाने से पुरुष ( आरमा) की अपने चेतन्य स्वरूप में स्थिति होना ही मुक्ति है।' भावार्थ-सांख्यदर्शनकार पुरुषतत्व ( आत्मा) को अकर्ता ( पुण्य पाप-कर्मों का बन्ध न करनेबाला । व असङ्ग (कमलपत्र सरीखा निर्लेप) व कूटस्थनित्य मानते हैं | जब यह प्रकृति-पुरुष के मेदविज्ञान से प्रकृति का संसर्ग-त्याग कर अपने ऐसे शान्त चैतन्य स्वरूप में अवस्थान करता है, जो कि शातृज्ञेयभाव से शून्य है । अर्थात्-उस समय किसी भी विषय का ज्ञान नहीं होता तव मुक्ति होती है ।
ब्रह्माद्वैतवादी मानते हैं कि-जैसे घट के फूट जाने पर घटाकाश ( घट से रोका हुआ आकाश ) आकाश में मिल जाता है वैसे ही शरीर के नष्ट हो जाने पर समस्त प्राणी परब्रह्म में लीन हो जाते हैं यही
[प्रस्तुत आचार्य ने मारिदत्त महाराज से कहा-हे राजन् ! ] जैसे जन्मान्ध मनुष्यों की हाथी के विषय में विचित्र कल्पनाएं होती है वैसे ही परमार्थ को न जाननेवाले मिथ्यामतवादियों की मुक्ति के विषय में अन्य भी अनेक मान्यताएं हैं, उनकी गणना करना भी कठिन है ॥१५॥ [ अब मोक्ष के विषय में अन्य मठों की मान्यताएं बतलाकर आचार्य मन में निम्न प्रकार विचार करते हैं-] आजकल मिथ्यादष्टियों के लिए सन्मार्ग का उपदेश प्रायः उनके वैसे कुपित करने के लिए होता है जैसे नक्टे को स्वच्छ दर्पण दिखाना उसके फुपित करने के लिए होता है ॥ १६ ॥ [ लोक में ] असंख्यात दृष्टान्त हैं, उन्हें सुनकर मानवों की बुद्धि उनके अनुकूल हो जाती है, अतः घूतं लोग उनकी सामर्थ्य से क्या इस पृथिवी तल के मनुष्यों को विवेक-शून्य नहीं करते? ।। १७॥ जैसे मेघ जल-वृष्टि से काले पत्थर के टुकड़ों में कोमलता नहीं ला सकता वैसे ही विधान :पुरुष भी खोटी हठरूपी ग्रह से ग्रस्त हुए पुरुषों को सन्मार्ग पर लाने के लिए क्या कर सकता है ? अपितु कुछ नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ फिर भी लोक में युक्ति जिस वस्तु को सिद्ध करने के लिए प्राप्त होती है वही सत्य है। क्योंकि सूर्य के प्रकाश को तरह पुक्ति को किसी में पक्षपात नहीं होता ॥ १९॥
१. प्रवाहात् । २. शात्मनः। ३. साम्याः । ४. गाति । ५. युक्तः । *, देखिए यश च आ. ५ का श्लोक नं. ६२, 1. सर्वदर्शन संग्रह उपोदात दृ० ५३ से संकलित ।
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(प्रकाशम् । )
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
या योषितः श्रेयः संधयाय न केवला । बुभुतिवशात्परको जायते किमुवम्बरे ॥२०॥ पात्रा वंशाविवन्मन्त्रादात्नदोषपरिक्षणः । वृधमेत यदि को नाम कृती चिलश्येत संयमः ॥२१॥ वामनान्तरात्पूर्व पे दोषा भवसंभवाः । से पश्चादपि वृश्यन्ते तन्न सा मुक्तिकारणम् ॥२२॥ जानावमोऽर्थानां न तत्कार्यसमागमः । तर्षापकर्षयोगि स्याद्दृष्टमेवान्यथा पयः ॥ २३ ॥ ज्ञानहीने किया भितष्टिभिः ॥ २४॥
अथानन्तर प्रस्तुत आचार्य मारिदत्त महाराज के समक्ष पूर्वोक्त सैद्धान्त वैशेषिक आदि दार्शनिकों की मुक्तिविषयक मान्यताओं की समीक्षा करते हुए निम्न तीन मल्लोकों द्वारा सेद्धान्त वैशेषिकमत की मीमांसा करते हैं-- मुमुक्षु प्राणियों को तत्वार्थो की श्रद्धा मोक्ष प्राप्ति में समर्थ नहीं है। क्या सूखे मनुष्य की इच्छा मात्र से ऊमर फल पक जाते हैं ? अपि तु नहीं पकते । अर्थात् जैसे भूखे मनुष्य को इच्छा मात्र से कमर नहीं पकते किन्तु प्रयत्न से पकते हैं वैसे ही तत्वार्थों की श्रद्धामात्र से मुक्ति नहीं होती किन्तु सम्यक्चारित्ररूप प्रयत्न से साध्य है | २० | जैसे लॉक में मारण व उच्चाटन आदि मन्त्र पात्रावेश ( मनुष्यादि पात्रों में प्रविष्ट होकर ) कार्य-सिद्धि ( मारण व उच्चाटन आदि ) करते हैं वैसे हो यदि केवल वैदिक मन्त्रों की आना मात्र से आत्मिक दोषों ( मिथ्यात्व अज्ञान व असंयम ) के ध्वंस से मुक्ति होती हुई दृष्टिगोचर होवे सब तो लोक में कौन कुशल पुरुष दीक्षा धारण करके चारित्रपालन द्वारा मुक्तियों की प्राप्ति के लिए कष्ट सहन करेगा ? ॥ २१ ॥ जत्र दीक्षित पुरुषों में दीक्षा धारण के अवसर से पूर्व में जो सांसारिक दीप ( मिथ्यात्व, - अज्ञान व असंयम आदि ) वर्तमान में वे उनमें दीक्षा धारण के पश्चात् भी देखे जाते हैं, अतः केवल दीक्षा-ही मुक्ति का कारण नहीं है ॥ २२ ॥
भावार्थ-पूर्व में सेद्धान्त वैशेषिकों को मुक्ति-विषयक मान्यता का निरूपण करते हुए कहा है कि वे वैदिक मन्त्रों यतन्त्र ( यज्ञादि कर्मकान्डपद्धतियों ) की अपेक्षावाली दीक्षा धारण करने से और उन पर श्रद्धामात्र रखने से मोक्ष मानते है उनकी मीमांसा करते हुए आचार्य ने कहा है कि न केवल श्रद्धा से ही मोक्ष हो सकता है और न मन्त्र तन्त्र पूर्वक दीक्षा धारण करने से मोक्ष प्राप्त हो सकता है । क्योंकि जैसे प्रयत्न से कमर पकते हैं, न कि भूखे मनुष्य की इच्छामात्र से। वैसे हो लत्वार्थों की श्रद्धामात्र से मुक्ति नहीं होतो किन्तु सम्यक्चारित्ररूप प्रयत्न से साध्य है। इसी तरह दीक्षाधारण कर लेने मात्र से मोक्ष प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि दीक्षा धारण कर लेने पर भी यदि चारित्र धारण द्वारा सांसारिक दोषों के विनाश का प्रयत्न न किया गया सौ वे दोष दीक्षा धारण के पूर्व की तरह बाद में भी बने रहेंगे तब मुक्ति कैसे होगी ? इसी कारण कुशलपुरुष दीक्षा धारण करके संयम के पालन का कष्ट उठाते हैं। अतः केवल दीक्षा या श्रद्धा मोक्ष की कारण नहीं हो सकती ।। २०-२२ ॥
२. अब आचार्य तार्किक वैशेषिकमत की समीक्षा करते हैं
ज्ञान मात्र से पदार्थों का निश्चय हो जाता है परन्तु उससे अभिलषित वस्तु ( मोक्ष ) की प्राप्ति नहीं हो सकती, अन्यथा - यदि ज्ञान से अर्थ प्राप्ति होती है, ऐसा कहेंगे- - तब तो 'यह जल है' ऐसा ज्ञान मात्र होने पर प्यास को शान्ति होनी चाहिए। अभिप्राय यह है कि यदि ज्ञानमात्र से गदार्थ-समागम होता है तो ज्ञातमात्र जल, पान किये विना मी तृषाच्छेदक ( प्यास बुझाने वाला ) होना चाहिए ।। २३ ।।
१. अर्थ २. चेत् ज्ञानमात्रेण पदार्थस्य समागमो भवति तहि दृष्टं ज्ञातमात्रं जलं पानं विनापि तृषाच्छेदकं भवति ।
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षध आश्वासः
मानं पङ्गो किया धान्ये निःश नायकपम् । तातो जानकियारद्धात्रयं तत्पदकारणम् ।।२५॥ उपतंज
हतं झामं क्रियाशन्यं हप्ता धाशानिम: क्रिया । पापलप्यायको नष्टः वयमपि च पङ्गुकः ॥२६॥ निःयाङ्कारमप्रवृत्त: स्पादि मोक्षसमीक्षणम् । उकसूनाकृतार पूर्व पश्चात्कोलेस्वसौ' भवेत् ।।२७।। अव्यक्त गरयो" नित्यं नित्य व्यापिस्वभावयोः । विवेकेन कथं ख्याति सास्यमुस्पाः प्रचक्षते ॥२८॥ सर्व रेतसि भारत वस्तु भाषमया स्फुटम् । तापमान्त्रेण मुक्तत्वे मुक्तिः स्थाविप्रलम्मिमाम् ॥२९॥
३. पाशुपत ( शैव) मत-मौंमासा १३ इलोकों द्वारा )-ज्ञान-दीन पम्प को किया फल देनेवाली नहीं होती । अर्थात्-ज्ञान के विना केवल चारित्र से मुक्ति नहीं होती, जैसे जन्म में अन्धा पुरुरू अनार-आदि वृक्षों के नीचे पहुंच भी जाये तो क्या उसे छाया को छोड़कर अनार-आदि फलों की शोभा प्राप्त हो सकती है अपि तु नहीं हो सकती उसो प्रकार जीवादि सात तत्वों के यथार्थ ज्ञान के विना केवल आचरण मात्र से मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। २४ ॥ लँगड़े पुरुष को ज्ञान होने पर भी चारित्र (गमन) के बिना वह अभिलपित स्थान पर नहीं पहन सकता एवं अन्धा परुष ज्ञान के बिना केवल गमनादि रूप क्रिया करके भी अभिलषित स्थान में प्राप्त नहीं हो सकता और श्रद्धा-हीन पुरूप की क्रिया और ज्ञान निष्फल होते हैं । अतः सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पचारित्र ये तीनों मुक्ति के कारण है ।। २५ ॥ शास्त्रकारों ने भी कहा है-क्रिया ( चारित्र-आचरण ) से शून्य ज्ञान व्यर्थ है और अज्ञानी को क्रिया भी व्यर्थ है । जैसे देखिए एक जंगल में आग लगने पर अन्धा पुरुष दौड़ धूप करता हुआ भी नहीं बच सका क्योंकि वह देख नहीं सकता था | और लैंगड़ा मनुष्य आग को देखते हुए भी न भाग सकने के कारण उसी में जल मरा ॥ २६ ॥
४. कोलमत समीक्षा–यदि भक्ष्य-अभक्ष्य-आदि में (सद्य-मांस आदि में ) निडर होकर प्रवृत्ति करने से मुक्ति प्राप्त होती है तब तो ठगों ( चोरों) व वधकों ( कसाई-आदि हत्यारों) को पहिले मुक्ति होनी चाहिए और बाद में कौलमार्ग के अनुयायियों को मुक्ति होनी चाहिए। क्योंकि ठग व वधिक लोग कुलाचार्यों की अपेक्षा पाप प्रवृत्ति में विशेष निडर होते हैं ॥ २७ ॥
५. सांख्य-मत-समीक्षा---जब सांख्यदर्शनकार प्रकृति व पुरुष ( आत्मा ) इन दोनों पदार्थों को सदा नित्य ( सकलकालकलान्यापि-शाश्वत रहने वाले } और व्यापक (समस्त मूर्तिमान पदार्थों के साथ संयोग रखनेवाले ) मानते हैं तब उन दोनों को भेदवृद्धि वाली स्थाति ( मुक्ति ) कैसे कहते हैं ? क्योंकि उक बात युक्ति संगत न होने से आश्चर्यजनक है।।
___अभिप्राय यह है जब आपके मत में प्रकृति व पुरुष दोनों नित्य हैं, अत: वे किसी काल में पृथक् नहीं हो सकते एवं दोनों व्यापक होने से किसी देश में भी पृयक नहीं हो सकते तब आपको भेद बुद्धिवाली मुक्ति केसे युक्ति संगत कही जा सकती है ? ।। २८ ।।
६. नेरात्म्य भावना से मुक्ति मानने वाले बौद्धों की समीक्षा-भावना से सभी शुभ-अशुभ वस्तु
१. भक्ष्माभक्ष्यपेयापेयादिए । २. बधक । ३. मोक्षः। ४. अन्य प्रश्नानं । '५, प्रकृतिजीनयोः। *. 'अन्य तरयोनिम'
इति ( क)। ६. अप्रच्युतानुत्पन्नस्थिरकस्वभावं कूटस्थानित्यमिति नित्यस्म लक्षण। ७. भैदेन । ८. मुक्ति । ९. बियोगीनां वधकानां । १०. तत्वार्थराजवातिक पु० १४ ।
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यशस्तिलक चम्पूका
१२९०
तदुक्तम्
पहिले कारागारे समति व सूचोमुत्राप्रनिर्भेद्ये । अपि च निमीलितनयने तथापि काताननं व्यक्तम् ||३० ॥ स्वभावान्तरसं मूर्तिमंत्र रात्र मलस्यः । कर्तुं हावयः स्वहेतुभ्यो मणिमुक्ताफले षिव ।। ३१ ।। तमस्नेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । भूतानन्वयनाज्जीवः प्रकृतितः सनातनः ॥३२॥
चित्त में स्पष्टरूप से झलकने लगती है । यदि भावनामात्र से या स्पष्ट अवलोकन मात्र से मुक्ति प्राप्त होती है। तब तो दञ्चकों अथवा वियोगियों को भी मुक्ति होनी चाहिये । [ क्योंकि वे भी भावना से कमनीय कामिनीआदि इष्ट पदार्थों का स्पष्ट चिन्तन कर लेते हैं ।। २२ ।। कहा भी है-- सब ओर से बन्द जेलखाने में सुई की नोंक द्वारा भेदने के लिए अशक्य - अत्यन्त गाड़ अन्धकार के होते हुए और मेरे नेत्र बन्द कर लेने पर भो मुझे ( चोर या जार को ) अपनी प्रिया का मुख स्पष्ट दिखाई दिया ।
भावार्थ - भावना से वस्तु का चिन्तनमात्र होता है, किन्तु प्राप्ति नहीं होती । अतः नैरात्म्य भावना से मुक्तिश्री को प्राप्ति नहीं हो सकती । अन्यथा वियोगियों या बंधकों को भी मुक्ति का प्रसङ्ग हो
जायगा || ३० ॥
७. अब जैमिनीय ( मीमांसक | मत की मीमांसा करते हैं - जिस वस्तु ( भव्यात्मा ) में स्वभावान्तर (भाविक परिणति मिथ्यात्व व अज्ञानादि ) का सद्भाव है उसके मल ( दोष – अज्ञानादि व आवरणज्ञानावरणादि ) का क्षय उसके विध्वंसक कारणों । सम्यग्दर्शन आदि उपरायों) से वैसा किया जाना शक्य है जैसे खानि से निकले हुए मणि व मोतो आदि पदार्थों की मलिनता का क्षय उसके विध्वंसक कारणों ( शाशोल्लेखन आदि उपायों ) द्वारा किया जाता है । अर्थात् योग्यतावाले अशुद्ध पदार्थ भी मणि आदि की तरह उसके शुद्धि-साधनों से शुद्ध किये जा सकते हैं। भावार्थ - जैमिनी दर्शनकार ने जो घृष्यमाण अङ्गार का दृष्टान्त दिया था, वह असम्बद्ध है, क्योंकि लोक में किसी का मन शुद्ध और किसी का अशुद्ध देखा जाता है । अतः युक्तिसंगत यही है, जो भव्यात्मा आदि पदार्थ मलिन हैं उनको शुद्धि मलिनता नष्ट करने वाले उपायों ( सम्यग्दर्शन आदि सावनों) से वेसी शक्य है जैसे खानि से निकले हुए सुवणं की किट्टकालिमा छेदन, भेदन अग्निपुट-पाक आदि उपायों से दूर की जाती है। अथवा जैसे मणि व मोती आदि वस्तुओं की मलिनता उसके विध्वंसक उपायों से दूर की जाती है। इसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं है ||३१||
आचार्य बृहस्पति ( चार्वाक ) मल की मीमांसा करते हैं - प्रकृति ( शरीर व इन्द्रियादि) को ज्ञाता यह जीव (आत्मद्रव्य ) सनातन ( शाश्वत - अनादि अनन्त है; क्योंकि 'तदहर्ज स्तने हातः ! उसी दिन उत्पन्न हुआ बच्चा | पूर्वजन्मसंबंधी संस्कार से ] माता के स्तनों के दूध को पीने में प्रवृत्ति करता है ।
भावार्थ - यह प्राणी पूर्व शरीर को छोड़ कर जब नवीन शरीर धारण करता है उस समय ( उत्पन्न हुए बच्चे को अवस्था में ) क्षुधा से पीड़ित हुआ पूर्वजन्म में अनेक बार किये हुए अभ्यस्त आहार को ग्रहण करके ही दुग्ध पानादि में प्रवृत्ति करता है। क्योंकि इसकी दुग्धपान में प्रवृत्ति और इच्छा, बिना पूर्वजन्मसंबंधी अभ्यस्त आहार के स्मरण के कदापि नहीं हो सकती। क्योंकि वर्तमान समय में जब यह प्राणी क्षुबा से पीड़ित होकर भोजन में प्रवृत्ति करता है, उसमें पूर्व दिन में किये हुए आहारसंबंधी संस्कार से उत्पन्न हुआ स्मरण ही कारण है ।" निष्कर्ष – इस युक्ति से आत्मा का पूर्वजन्म सिद्ध होता है ।
१. तथा च गौतमः प्रत्याहाराम्यासकृतात् स्तन्याभिलाषात् ||१|| गौतमसूत्र व ३ ० १ सूत्र २२वी ।
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पार आश्वासः
१९१
भेवोऽयं पविता स्माविश्य जगतः कुतः । जन्ममृत्युसुप्तप्रायलिवतर्मामतिभिः ॥३३॥ शून्य तस्यमहं वादी साधयामि प्रमाणतः । इस्मास्यायो विचक्षधेत सर्वशून्यस्ववाविता ||३४॥
इसी प्रकार 'रक्षादृष्टे:--कोई मरकर राक्षस होता हुशा देखा जाता है । अर्थात्--ऐसा सुना जाता है कि 'अमुफा का पिता-वगैरह मरकर श्मशान भूमि पर राक्षस हो गया'। फिर भला गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही जीवको माना जावे तो वह गरकर राक्षस-व्यन्तर कैसे हुआ? निष्कर्ष-इस युक्ति से आत्मा का भविष्य जन्म सिद्ध होता है।
इसी प्रकार-'भवस्मृतेः-किसी को अपने पूर्वजन्म का स्मरण होता है। अर्थात्-पदि गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त ही जीव माना जाये तब जन्म से स्मृति-वाला मानव क्यों ऐसा कहता है ? कि में पूर्वजन्म में अमुक नगर में अमृक कुटुम्ब में इस प्रकार था ? निष्कर्ष-प्रस्तुत युक्ति से भी जीव का पूर्वजन्म सिद्ध होता है।
शङ्का--जब यह जीव शरीराकार परिणत पृथिदी-आदि चार तत्वों से उत्पन्न हुआ है तब उसे गर्भ से लेकर मरण पर्यन्त सरीर रूप ही मानना उचित है ] इसका समाधान-'भूतानन्धयनात्'- यह जीव उक्त अचेतन पृथिवी-आदि तत्वों से उत्पन्न हुआ नहीं है, क्योंकि इसमें पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन अचेतन ( जड़ ) पदार्थों का अन्वय ( सत्ता मौजूदगी ) नहीं पाया जाता।
भावार्थ-ऐसा नियम है कि उपादान कारण का अन्वय कायं में पाया जाता है। जैसे मिट्टी से उत्पन्न हुए घट में मिट्टी का ओर तन्तुओं से उत्पन्न हुए वस्त्र में तन्तुओं का अन्वय ( सत्ता ) पाया जाता है । वैसे ही यदि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इन अचेतन पदार्थों से जीव को उत्पत्ति हुई है तब तो पृथिवीआदि की अचेतनता-जड़ता-का अन्वय जीवद्रव्य में भी पाया जाना चाहिए। परन्तु उसमें ऐसा नहीं है। अर्थात्-जीवद्रव्य में अचेतन पृथिवी-आदि भूतचतुष्टय का अन्वय नहीं पाया जाता । अतः जीवद्रव्य की पृथिवी आदि से उत्पनि मानना युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि पृथिवी, जल, अग्नि और वायु इनके स्वरूप ( अचेतनता ) से जीवद्रव्य का स्वरूप (विज्ञान व सुख-आदि युक्तत्व) बिलकुल पृथक् है । अतः स्वरूा भेद से जीवद्रव्य स्वतन्त्र चेतन पदार्थ है और इसी तरह जन्म पत्रिका में लिखा जाता है कि 'इस जोव ने पूर्वजन्म में जो शुभाशुभ कर्म किये हैं, ज्योतिष शास्त्र' उसके उदय को वैसा प्रकट करता है जैसे अन्धकार में वर्तमान घट-पटादि पदार्थों को दीपक प्रकाशित करता है।
निष्कर्ष-ज्योतिषशास्त्र द्वारा भी जीव का पूर्वजन्म सिद्ध होता है एवं प्रस्तुत लोक की वह युक्ति जीवद्रव्य को पृथिवी-आदि से भिन्न स्वतन्त्र सिद्ध करती है ।३।।
अब वेदान्तवादियों के मत की समीक्षा करते हैं यदि आप ब्राह्मण व चाण्डालादि वर्गावणं भेद को अथवा जगत-भेद को अविद्याजन्य (अज्ञान-जनित ) मानते हैं तब प्रमाणसिद्ध जन्म, मृत्यु व सुखप्राय पर्यायों से जगत् में विचित्रता ( भेद ) कहाँ से हुई ? अर्थात्-अमुक का जन्म हुआ, अमुक की मृत्यु हुई, अमुक सुखी है और अमुक दुःखी है। इन प्रमाण-प्रसिद्ध पर्यायों से जब सांसारिक प्राणियों में भेद प्रमाण प्रसिद्ध है तब उसे अविद्या मानना भ्रम है ।। ३३ ।।
१०. अब आचार्य शून्यबादी माध्यमिक वीद्ध के मत की समीक्षा करते हैं जब आपने ऐसी प्रतिज्ञा १. मदुपनितमन्यजन्मनि शुभाभं तस्य कर्मणः प्राप्तिम् । व्यञ्जयति शास्त्रमेतत्तमसि द्रव्याणि दीप इव ॥ १ ॥
था.. उत्तमा०४ १० १३ ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यं
बोधो वा यदि वानन्दो नास्ति मुक्ती भवोद्भवः । सिद्धसाध्यतयास्मार्क न काचित्क्षसियते॥ ३५॥ पक्षवीचाविनिम मोले कि मोक्षिलक्षणम् माग्नावग्यदुष्णत्वा लक्ष्मलक्ष्यं विचक्षणं ॥ ३६॥ किच, सदाशिवेश्वराचयः संसारिणो मुक्ता वा ? संसारित्वे कथमाप्तता, मुक्तश्खे "श्लेशकर्मविपाकादार्यंरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरस्तत्र निरतिशयं सर्वजवीजम्' इति पतञ्जलिजल्पितम् ।
१९२
ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागस्तृप्तिनिसगंजनिता वशितेन्द्रियेषु । आत्यन्तिकं सुखमनावरणा व शक्तिर्ज्ञानं च सर्वविषयं भगवंस्तव ॥ ३७ ॥ इत्यवधूताभिधानं च न घटेत ।
अनेकजन्मसंततेय ववद्यालय, ५
पुमान् । यथसी मुपवस्यायां कुतः क्षोपेत हेतुतः || ३८३॥
की कि 'मैं वादी ( माध्यमिक बौद्ध ) प्रमाण से शून्य तत्व को सिद्ध करता हूँ तब आपका सर्वशून्यत्ववाद fire हो जाता है, क्योंकि प्रमाण तत्व के सिद्ध हो जाने से शून्यतावाद कहाँ रहा ? ॥ २४ ॥
११. [ अब आचार्य मुक्ति में आत्मा के विशेष गुणों का विनाश मानने वाले वैशेषिक दर्शनकार कणाद ऋषि के मत की मीमांसा करते हैं ] यदि मुक्ति-अवस्था में सांसारिक चक्षुरादि इन्द्रिय-जनित क्षायोपशमिक ज्ञान व सुख नहीं है तो मुक्ति संबंधी आत्मिक बाकि के क्षापि सुख है ही ऐसी मुक्ति से तो हमें (आईनों-जैनों को ) सिद्धसाध्यता हुई । अर्थात् - ऐसी मुक्ति हमें भी इष्ट है । तब हमारी कोई हानि नहीं देखी जाती || ३५ || समस्त पदार्थों के अवलोकन (ज्ञान) के विनाशलक्षणवाला भोक्ष मानने पर तो मुक्त आत्मा का लक्षण ही क्या होगा ? क्योंकि विद्वान लोग वस्तु के विशेष गुणों को ही वस्तु का लक्षण मानते है जैस अग्नि का लक्षण उष्णता है। यदि अग्नि की उष्णता नष्ट हो जाय तो फिर उसका लक्षण क्या होगा ? अर्थात् - उष्णता को छोड़ कर अग्नि का दूसरा लक्षण नहीं है, वैसे हो ज्ञान को छोड़कर जीव का दूसरा लक्षण नहीं है। अतः मुक्त जीव में ज्ञानादि का सद्भाव मानना युक्तिसंगत है । अन्यथा विशेष गुणों के विना मुक्ति अवस्था में आत्मा का भी अभाव हो जायगा ।। ३६ ।।
*
तथा आपके 'सदाशिव व ईश्वर आदि संसारी है या मुक्त ? यदि संसारी हैं तो वे आप्त नहीं हो सकते ? यदि मुक्त हैं तो पतञ्जलि का यह कथन घटित नहीं होता 'ऐसा पुरुष विशेष ईश्वर है, जो कि समस्त दुःख (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष व अभिनिवेश), कर्मों (विहित व प्रतिषिद्ध या पुण्य-पाप ), व विपाकों । कर्मफलों -- जन्म, आयु- जीवनकाल व भोग ) व आशयों ( धर्म, अधर्म व संस्कार ) से संस्पृष्ट नहीं है, ऐसे परम विशुद्ध चीतराग होने में उसकी अनोखी सर्वज्ञता बीज ( कारण ) है । इसी प्रकार ran fears का निम्न कथन भी संघटित नहीं होता । 'नित्य ऐश्वर्य, स्वाभाविक वीतरागता, नैसर्गिक तृप्ति, जितेन्द्रियता, आत्यन्तिक ( अनंतमुख ) और आवरण-शून्य शक्ति और समस्त पदार्थों को प्रत्यक्ष जाननेवाला शान ( सर्वज्ञता ) ये प्रशस्त गुण हे भगवन् ! तेरे में ही हैं' ॥ ३७ ॥
१२. बौद्धमत - समीक्षा – जब कि इस जीव ने पूर्व में अनेक जन्म धारण किये तथापि अभी तक १. चेत् —संसारसंयंनी बोधः सुखं च नास्ति तहि मुक्तिसंबंधी बोधः सुखं च भवत्येव तया दृश्या मुक्त्वाऽस्माकं सिद्धसाध्य सजावं न काचिद्धानिः । २. न्यक्षाः समस्ताः । समस्तपदार्थावलोकनविनाशलक्षणे ।
३. मोक्षी मुक्त: 1 मोक्षण: आत्मनः। ४ जानं बिना जीवस्य लक्षणं न भवतीत्यर्थः ।
* तथा च पातञ्जल योगसूत्रम् लेशाः अविद्यास्मिता राग पाभिनिवेशाः क्लेशाः पान० यां० सू० २३३ ।
५. चेत् — पूर्व बहूनि जन्मानि जीवन गृहीतानि अद्यापि विमाशी न संजातः तहि मोक्षगमने सति सः दिशं न कचिद' इत्यादि, कस्मात् कारणात् भीयेत-क्षयं याति ? | दि० ( ख ) ( ) ( च )
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पष्ठ आश्वासः
या ग्राह्ये 'मलापात्सत्यस्वप्न द्वषात्मनः । सदा द्रष्टुः स्वरूपेऽस्मिन्मथस्थान ममानक भू ।। ३९ ।।
न चायं सत्यस्वप्नोऽप्रसिद्ध स्वप्नाध्यायेऽतीव सुप्रसिद्धत्वात् ।
तथाहि यस्तु पश्यति राज्यन्ते राजानं कुञ्जरं हयम् । सुवर्ण श्रूषभं गोच कुटुम्बं तस्य वर्षसे ॥४
यत्र नेत्रादिकं नास्ति न तत्र मतिरामति । तन्न युक्तमिदं यस्मात्स्वप्नमयोऽपि योजते ॥४॥ श्रमिन्यावेनं रथेऽपि प्रकृष्येत मतिर्यदि । पराकाष्ठा ध्वस्तस्याः" म्यजिरले परिमाणवत् ।।४२।।
भावो न कस्यापि हानि दीपस्तमोऽन्ययो । घराविषु धियो हानी विश्लेषे सिद्ध साध्यता ॥२४३॥
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इसका विनाश नहीं हुआ तब मुक्ति प्राप्त होने पर यह किस कारण से आपके 'दिदां न कांचित्' इत्यादि कहे अनुसार नष्ट हो जाता है ? ह्. लि. ( क ) प्रति के पाठान्तर का अर्थ यह है कि राजीव ने पूर्व में मनन्त जन्मों में संक्रमण किया तथापि इसका क्षय नहीं हुआ तब मुक्ति में किस कारण से इसका क्षय होता है ? ||३|| १३. अब आचार्य सांख्पदर्शन की आलोचना करते हैं- ज्ञानावरण आदि बातिया कर्मों के क्षय हो जाने से उत्पन्न हुए केवलज्ञान से आत्मा जब समस्त शह्य पदार्थों को वैसा जान लेता है जैसे वात व पिस-आदि के प्रकोप न होने पर सत्य स्वप्न को जानता है तब आत्मा को अपने स्वरूप में अनन्तज्ञानवाली स्थिति हो जाती है। यह भी अर्थ है होने पर आत्मा में ही स्थित हो जाता है और बाह्य पदार्थों को नहीं जानता सांख्य का यह कथन प्रमाण है ॥ ३२ ॥
हमारा सच्चा स्वप्न उदाहरण अप्रसिद्ध नहीं है, क्योंकि स्वप्नाध्याय में विशेषरूप से प्रसिद्ध है 'जो मानव पिछली रात्रि में राजा, हाथी, अश्व, सुवर्ण, वेल व गाव को देखता है उसका कुटुम्ब वृद्धिगत होता है || ४० || जिसमें नेत्रादि नहीं हैं उसमें स्वप्नवृद्धि नहीं होती, ( वह स्वप्न नहीं देखता । अतः आपका सस्थ स्वप्न-दर्शन उदाहरण असिद्ध है। ऐसी शङ्का करना उचित नहीं है। क्योंकि अन्धा पुरुष भी स्वप्न देखता है. अतः हमारा उदाहरण निर्दोष है || ४१ || अब आचार्य सर्वज्ञ न मानने वाले मोमांसकों की समालोचना करते हैं- यदि आप जैमिनि आदि आप्त पुरुषों में प्रकृष्ट बुद्धि मानते हैं तब किसी सर्वोत्तम महापुरुष ईश्वर में बुद्धि का परम प्रकर्ष ( विकास की चरम सीमा ) मानना भी वैसी मुक्ति-संगत है जैसे आकाश में परिमाण की पराकाष्ठा ( चरम सीमा महापरिमाण ) युक्ति-सिद्ध है। अर्थात् किसी मात्मा में कर्मक्षय होने पर बुद्धि के प्रकर्ष की चरम सीमा होती है ।
1
भावार्थ - जैसे अणुपरिमाण परमाणु में और मध्यम परिमाण घटादि में पाया जाता है एवं उस परि माण की चरमसीमा ( व्यापक परिमाण ) आकाश में पाई जाती है वैसे हो जब आप हम लोगों में साधारण बुद्धि और जैमिनि वगैरह विद्वानों में विशिष्ट वृद्धि मानते हैं तब उस बुद्धि के प्रकर्ष की परकाष्टा भी किसी महापुरुष में माननी पड़ेगी-बही सर्वज्ञ है, इसमें किसी भी प्रमाण से बाबा नहीं आती ॥ ४२ ॥ यदि आप कहेंगे कि ऐसे तो किसी में बुद्धि का गर्वथा अभाव भी हो सकता है वो इसका उत्तर यह है कि किसी भी वस्तु का तुच्छाभाव नहीं होता वह वस्तु इकदम नष्ट ( शून्यरूप ) हो जाय - ऐसा नहीं होता। जैसे दीपक बुझता है तो प्रकाश अन्धकार रूप में बदल जाता है। इसी तरह पृथिवी आदि में बुद्धि की अत्यन्त हानि देखो जाती * 'अनेकअरमराक्रान्तेयविद १. कर्मशाळेतज्ञानं वा अवलोकिते सति द्रष्टुः आत्मनः स्वरू अवस्थाम स्तनतिर गानरहितं अनंतज्ञानं उपादि २. अष्टा भवति । ४. परमप्रकर्षो भवति । ५. मतः । ★ पो न। ६. वस्तुतः ७ हानि: अपना हानिदोष तमोमयो' इति लि० ० ) प्रती पाठ: । ९. पृथिव्या जीवावृषु सत्सु युहनी गत्या - बुद्धिविनाशे सति यदा धरादीनां विश्लेपो भवति तदा मोक्षो भवति सत् कर्मसंश्लेषे सति केवलज्ञानं नोत्पद्यते कर्मविदले तु केवलज्ञानं भवत्येव ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तवा तिहतौ तस्य लपमस्येष बोधितिः । कर्य न कोमुषी सर्व प्रकाशमति बस्तु सत् ।।४।। वहाँ कवि सिई स्थानिस्तरङ्ग फुतवट न । घटनामाकाशे
.७५५।। अय मतम्
एक एव हि भूतात्मा देहे देहे व्यवस्थितः । एकपानेकष! वापि दृश्यते जलचन्द्रवत् ११४६।। तपयुक्तम् ।
एक: खेऽनेकधान्यत्र पपेन्युर्वेधते अनः । न तथा वेचते मा भेदेम्पोऽन्यस्वभा ॥४७॥ असमातिविस्तरेण ।
आनन्दो मानमैश्वर्य श्रीमं परमसष्मता । एतदारयन्तिकं यत्र स मोक्षः परिकीर्तितः ।।८।। ज्वालोगफजादेः स्वभावाबूवंगामिता । नियता च यथा दृष्टा मुक्तस्यापि तात्मनः ॥४९॥ तथाप्य तदापासे पुष्पपापात्मनामपि । स्वर्गभ्रागमो म स्यावलं लोकान्तरेण से ।।५।।
है, क्योंकि जब तक पृथिवी कापिक-आदि जोत्र पृथिवी-आदि रूप पुद्गलों को अपने शरीर रूप से ग्रहगा करता है तब तक उनमें बुद्धि रहती है, परन्तु मरण होने पर उन्हें छोड़ देता है, अतः जोब के वियुमत है। जाने पर उन पृथियो-आदि रूप पुदगलों में बुद्धि का सर्वथा अभाव हो जाता है, इसमें तो सिर साध्यता है || ४३ ।। बुद्धि के ऊपर से कर्मों का आवरण हट जाने पर आत्मा को उत्पन्न हुई केवलज्ञान-शक्ति क्या समस्त वस्तुओं को वैसी प्रकाशित्त नहीं कर सकती? जैसे सूर्य अपने ऊपर का आवरण ( मेघपटल ) हट जाने पर अपनी रोशनी से क्या समस्त पदार्थों को प्रकाशित नहीं कर देता ? ॥४४॥
१४. अव ब्रह्माद्वैतमत की मीमांसा करते हैं यदि आप केवल एमा प्रह्म ही मानते हैं तो वह निस्तरङ्ग-निर्विकल्प (मेद-रहित ) क्यों नहीं है ? अर्याद-यह लोक उससे भिन्न रूप क्यों प्रत्यक्ष प्रतीत होता है ? और उस प्र में यह जगत क्यों वैसा लीन नहीं होता जैसे घट के फट जाने पर घट के द्वारा ईका हा आकाश आकाण में लोन हो जाता है ॥ ४५ ॥ ब्रह्मादेतवादियों का पूर्वपक्ष-वास्तव में ब्रह्म एक हो है परन्तु भिन्न-भिन्न प्राणियों के शरीरों में पाया जाने से वैसा अनेक रूप मालूम पड़ता है जैसे चन्द्र एक होकर के भी जल में प्रतिविम्बित होने पर पात्र-भेद से अनेक प्रतीत होता है ॥ ४६ ॥ उक्त मान्यता ठीक नहीं है, क्योंकि आपका जलचन्द्र का दुष्टान्त विषम है, क्योंकि जैसे आकाश में वर्तमान चन्द्रमा मनुष्यों से एकरूप भीर जलादि में वर्तमान अनेक रूप भी प्रत्यक्ष देखा जाता है वैसे ही प्रत्यक्ष प्रसोत होने वाले अनेक पदार्थों से स्वतन्त्र एक रूप ब्रह्म प्रत्यक्षआदि प्रमाण द्वारा प्रतीत नहीं होता ।। ४७ || अस्तु अब इस प्रसङ्ग को यहीं समाप्त करते हैं।
मोदास्वरूप---जहाँ पर अबिनाशी सुख, ज्ञान, ऐश्वर्य, बीर्य और परम सूक्ष्मत्व-आदि गुण पाये जाते हैं, उसे मोक्ष कहा गया है । ४८ ॥ जेसे अग्नि की ज्वाला और एरण्ड-बोज-आदि पदार्थों का ऊर्ध्वगमन निश्चित देखा गया है वैसे हो समस्त कर्म-बन्धनों के क्षय हो जाने पर मुक्तात्मा का भी स्वभावत: ऊर्ध्वगमन निश्चित किया गया है ।। ४९ ।। यदि यही माना जावे कि मुक्त होने पर आत्मा यहीं रह जाता है, कहीं जासा
१, तवत् कर्ममंश्लेपै मति केवलज्ञानं नोत्पद्यते कर्मनिचलेपेतु केबलशान भवत्येव । २. यदि एक ब्रह्म वास्ति
तहि अयं लोक. पुथक् किं दृश्यते ? ३. निर्विकल्पं । ४. तत्रैव ब्रह्मणि कथं म लीयो ? ५. 'लीयते' इति. ह. लि. फ० प्रती पाटः । ६. 'ज्वालालावुफबीजादेः' इति ह. लि. च. प्रती पाठः । ७. ते तव मते यदि पुण्यवता स्वर्गो न पावतां च नरको न भवति तहि मोक्षः कथं भवति ।
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बष्ठ आश्वासः
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इत्युपासकाध्ययने समस्तसिद्धान्तावकोपनो नाम प्रथमः कल्पः ।
महो धर्मारापने कमते वसुमतीपते, सम्यक्रम हिमाम नराणा महतो बल पुरुषदेवता' पिसह नेकमेष' ययोक्तगुणगुणतया संजातमशेषकस्मयकाला विषणतमा नरकादि गतिषु, पुष्पवायुषामपि मनुष्याणां षटमु तलपातालेषु', गष्टविधेषु व्यस्तरेषु, दशक्षिधेषु भवनशसिः पञ्चविषेषु ज्योतिष्क, प्रिविधासु स्त्रीषु, विमलकरणेषु पृथ्वीपयःपावकपवनकायिकेपु वनस्पतिषु च न भवति संभूतिहे: "1) साय िविवधारमाजवं नयीभावं, निपमेन संपादपति
कयित्वालम् उपलम्यात्मनश्यामों३ चारित्रे, १४ साधुसंपादनसारः संस्कार इव बौजेषु जन्मान्सरेपि न जहात्यात्मनोगुतिम् सिद्ध विचन्तामणिरिव च फसायसीम शामितानि, प्रतानि 1° पुनरौषधर इन फलपाकासानानि पायेय. नहीं है तो पुण्यवानों को स्वर्ग व पापियों को भी नरक-गमन नहीं होगा फिर आपके यहां मोक्ष कैसे संघटित होगा? अतः मुक्तास्मा का कवंगमन मानना चाहिए ॥ ५० ॥ इसका विशेष विस्तार करने के पर्याप्त है । इसप्रकार उपाराकाध्यवन में समस्त मतों के सिद्धान्तों का ज्ञान कराने वाला प्रथम कल्प समाप्त हुवा।
सम्पाप का माहात्म्य [श्री सुदत्ताचार्य मारिदप्त महाराज से कहते हैं ] धर्म की आराधना में अद्वितीय बुद्धिशाली हे राजन् ! निश्चय से सम्यग्दर्शन मनुष्यों के संरक्षण के लिए गृहदेवता या कुलदेवता-सीखा अधिष्ठाता है। क्योंकि तीनों सम्यग्दर्शनों में से एक भी सम्यग्दर्शन एकबार भी अपने गुणों को वृद्धिंगत करता हुआ प्राप्त हो जाता है तो पूर्व में समस्त पाप-बुद्धि से नरक-आदि दुर्गतियों में नहीं जाता। यदि सम्यक्त्व उत्पन्न होने के पूर्व में जिन पुरुषों ने नरक-आदि आयु बाँध ली है, उनकी नीचे के शर्कराप्रभा-आदि छह नरकों में, आठ प्रकार के घ्यन्तरों ( किन्नर व किंपुरुष-आदि ) में, इस प्रकार के भवनवासियों ( असुर व नाग-आदि ) में, पाँच प्रकार के ज्योतिषी देवों ( सूर्य व चन्द्र-आदि ) में, तीन प्रकार की स्त्रियों में, विकलेन्द्रियों में, पृथ्वोकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक व वनस्पत्तिकायिक इन पांच प्रकार के स्थावर ( एकेन्द्रिय) जीवों में उत्पत्ति नहीं होती ।) अर्थात्-उत्लन्न हुआ सम्यक्त्व इन गतियों में उत्पत्ति का कारण नहीं होता। यह संसार को सान्त कर देता है । यह चरित्र-पालन में अपूर्व बुद्धि उत्पन्न करता है । अर्थात-कुछ समय के बाद उस आत्मा के सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्र अवश्य प्रकट हो जाते हैं। जैसे बीजों में अच्छी तरह से किया गया संस्कार बीजों को वृक्षरूप पर्यायान्तर होने पर भी वर्तमान रहता है वैसे हो सम्यक्त्व जन्मान्तर में भी आत्मा का अनुसरण करता है, उसे छोड़ता नहीं है। यह प्राप्त हुए चिन्तामणि-सरीखा असीम मनोरथ पूर्ण करता है। नत ( चारिश ) तो आत्मा को वैसा फल देकर समाप्त होने वाले ( स्वर्ग में भोग-आदि देकर पश्चात् वहां से पतन करानेवाले ) होते हैं जैसे औषधि वृक्ष फलों के पकने के बाद नष्ट होने वाले होते हैं और जैसे फलेवा
१. नरस्य रक्षणे अधिष्ठाता, गृहदेवता व कुलदेवतावच । २. एकवारं। ३. एकमेव मम्यक्त्वमुत्पन्न मत् गनासु गनिषु
उत्पत्तिकारणं न स्यायिस्यर्थः (प.)। उपयामादिश्याणां मध्ये बेदकमप्युत्पन्नं परन्तु तदाचगये राति माङ्गादीनां समी. चीनलया यः स्वितः स दुर्गति न जायते (ब) । ४. पूर्व पापबुद्धितया । ५. वद्धायुषामपि नराणां । ६. शर्कराप्रमादिपु उत्पत्ति भवति । ७. किंवरकिंपुरुषादिपु। ८. अमुरनागादिषु । १. चन्द्रार्कादिषु । १०. सम्यकत्यमुत्परं सत्
एतासु गतिपुत्पत्तिकारणं न स्यादित्यर्थः । ११. मर्गादासहितं करोति समारं। १२. सम्वत्यमेतत्काल प्राप्य । १३. अपूर्दा' मति सम्पादयति सम्यक्त्वं कर्तृ । १४ चीजम्प प्रक्षारानं दुग्यगुड़ादिमिनितजळेन संस्फरणं । १५. सह
गमनं। १६ प्रातः । १७. प्रतानि । १८. पाथेयवप्नियनबत्तीनि मंबलवत् समयदिवृत्तीनि-म्वगें भोगादिकं त्वापश्चात् सम्पूर्णे सति च्यानं कारयन्ति तेन सम्यक्त्वस्याधिको महिमा मोक्षं च दत्त ।
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१९६
यशस्तिकमा पूकाव्ये वतियसवतीनि । न च तिरसवेसंबंधाबाईसनिधारमाश्रवन्मनि जान्नव इवान पायायात्म्य समयामा मनोममनमात्रता मिशेषतश्रवणपरिश्रमः समाश्रयणोपः, न शरोरमायासपितष्यम्, न देशान्सरमनुसरणीयम् नापि काल-क्षेप क्षिर लिसम्मः । तस्माबधिष्ठानमिव प्रसादस्य, सौभाग्यमिव रूपत्तंपयः, प्राणितमिय: भोगा "यतनोपचाप, मूलनलामव विजय प्राप्ते, विनीतत्वमिवाभिजात्यस्य, नपानुष्वामिभ राध्यस्थितेरसिलस्यापि 'परलोकोवाहरणस्य सम्पपरवमेव ननु प्रथमं कारणं " गुणन्ति गरीयांसः १ ताप चे लक्षणम्
(आप्तागमपदार्थानां श्रद्धानं कारण यात । मुहापोवनष्टा सम्यक्त्वं प्रामाविमा ।।५१|| सर्वज्ञ सर्वलोकेशं । सर्वदोषयिनिनम् ।। सर्वसत्वहितं प्राहुराप्तमाप्तमतोधिता: ॥१२॥ जानधान्मृम्यते कश्चितदुक्ता प्रतिपतये । अशोपदेशशरणं पावित्रलाभनङ्किभिः ॥५३॥
सोमित होता है वैसे हो व्रत भी सीमित होते हैं। किन्तु सम्यक्त्व ऐसा नहीं है। इससे मुक्ति श्री की प्राप्ति होता है। निमगंज सम्यग्दर्शन के लिए, जो कि मोक्षोपयोगी तत्त्वों के यथार्थ ज्ञान से और उनमें विशुद्ध चित्त वृत्ति को लगाने मात्र से वैसा उत्पन्न होता है औसे गाद पारे व अग्नि के सन्निधान मात्र से सुवर्ण-उत्पन्न होता है, न सो सगस्त त्रुन के श्रवण संबन्धी परिश्रम का आश्रय लेना चाहिए एवं न निनादि पालन द्वारा ] शरीर क्लेक्षित करना चाहिये, न देशान्तर में भटकना चाहिए और न काल के मध्य गिरना चाहिए। अभिप्राय यह है कि इसी काल में सम्यकाव उत्पन्न होता है, इसका विचार नहीं करना चाहिए, क्योंकि समस्त काल में सम्यक्त्व उत्पन्न होता है। महामुनि सम्यग्दर्शन को हो निश्चय से मुक्ति का पैसा प्रधान कारण कहते हैं जैसे नींव को महल का, सौभाग्य को पसम्पदा का, जीवन को शरीर-सुख मा, राजा की सैनिक याक्ति का उसकी विजय प्राप्ति का, विनयशीलता को कुलीनता का और राजनीति का अनुष्ठान राज्य-स्थिति का प्रधान कारण कहते हैं। उसका लक्षण इस प्रकार है
सम्यग्दर्शन का लक्षण-माप्त (सर्वज्ञ वोलराग देव ), आगम (आचाराङ्ग-आदि शास्त्र ) और मोक्षोपयोगी माल तत्वों का तीन मूढ़ता-रहित और निःशाति-आदि अष्ट अङ्गों-सहित यथार्थ प्रदान करना सम्यग्दर्शन है, जो कि प्रशाम ( क्रोध-आदि करायों को मन्दता ), संवेग ( संसार से भयभीत होना ), अनुकम्पा ( समस्त प्राणियों में दया करना । बोर आस्तिक्य ( सत्यार्थ ईश्वर व पूर्वजन्म-अपरजन्म-आदि में श्रद्धा रखना। इन विशुद्ध परिणाम रूप चिन्हों कार्यों से अनुमान किया जाता है एवं जा निसर्ग (स्वभाव ) से और अधिगम ( परोपदेश ) इन दो कारणों से उत्पन्न होता है, इसलिए जिसके निसगंज और अधिगमज ये ये दो भेद हैं ॥ ५१ ॥
आप्त का स्वरूप-जो सर्वज्ञ { त्रिकालदर्शी ) है, सर्वलोक का स्वामी है और सुधा और तुषा-आदि १८ दोपों से रहित (वीतरागी) है एवं समस्त प्राणियों का हित करने वाला है, उसे आप्तस्वरूप के ज्ञाता महामुनि आप्त कहते हैं ।। ५२ ।। क्योंकि मुख के वचनों को प्रमाण मानने पर ठगाए जाने की आशङ्का करने वाले शिष्ट पुरुप सर्वज्ञ के वचनों को अङ्गीकार करने के लिए किसी ज्ञानी वक्ता की खोज करते हैं ||५३|| १. उपधः अग्निः । २. जाम्बूनदं मुत्रण । ३. नम्पका । -4. कालस्य मध्ये न पतिलगर्य, अस्मिन्नेव काले
मध्यपत्वमायने एवं न चिमनीय किन्नु सर्वस्मिन्नेव झाले सम्यक्त्रमुत्त्पद्यते । ६. जीवितं । ७. शरीरं । ८. राजः गगेरशक्ति, अत्र मूल्याडेन नुपी अप: । ... गोक्षस्य । १०. सम्यक्त्वमेव मोक्षकारण। ११. मायन्ति । १२. गरिष्ठाः महामुनयः। १३. तन्निसर्गादधिगगाढ़ा । १४. आप्तश्रुतोनिताः (क०) १५. सर्वज्ञववनाङ्गीकारनिमित्त । १६. अन्यथा मुसंवचाप्रमाणकरणे नियन्तम्भ पालम्भो भवति ।
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षष्ठ भावासः
न
प्रभूतमणस्त्रयः ॥१९४॥
जगत् । कथं सर्वलोकेशः मुलागमः । रापो जरा रजा मृत्युः श्रोधः वेदो मदो रतिः || ५५ ॥ विस्मयो जननं निद्रा विद्यादोऽष्टादश प्रवाः । त्रिजगत्सर्वभूता वोजा: साधारणा इमे ॥२६१२ एभिर्दो द निर्मुक्तः सोऽयमाप्ती निरज्जनः स एव हेतु: सूक्तीनां केवलज्ञानी || ५७॥ रागादा पाठा मोहद्रा वाक्यमुच्यते ह्यनुतम् । यस्य तु नंते दोषास्तस्यानुकारणं नास्ति ||५८ || उच्चावच प्रसूतीला सरवानां सवृक्षाकृतिः । य आव इवाभाति स एव जगत पतिः ॥ ५९ ॥ यस्यात्मनि भूते तस्यें चरित्रे मुक्तिकारणे । एकवाध्यतया वृत्तिराप्तः सोऽनुमसः सलाम् ॥ ६० ॥ अध्यक्ष प्यानमात्पुंसि विशिष्टत्वं प्रतीयते । चथानमध्यवृत्तीनां ध्वनेरिव नगोकसाम् ॥ ६१॥ स्वाध्यतां याति स्वदोषज्ञ रूपतः जनः । रोषतोष वृथा कलधौतापो दिय ॥ ६२॥ णि 'पोजेशनशापसूरपुरःसराः । यदि पगायधिष्ठानं कथं तथा प्तता भवेत् ।। ६३ ।। रागादिदोषसंभूतिज्ञ पामोषु दामात् । असतः परदोषस्य गृहोतो पातकं महत् ॥ ६४ ॥
तत्र
पस्तत्त्ववेशनाद्दुः खवायेंरुद्धरते
पासा
न्तनं
न
१९७
जो तीर्थकर प्रभु मोक्षोपयोगी तस्वदेशना से संसार के प्राणियों का दुःख समुद्र से उद्धार करते हैं, इसलिए जिनके चरणकमलों में तीन लोक के प्राणी नम्रीभूत हो गये हैं, वे सर्वलोक के स्वामी क्यों नहीं है ? ॥ ५४ ॥ भूख प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और खेद ये अठारह दोष तीन लोक के समस्त प्राणियों में समान रीति से पाये जाते हैं, अतः जो इन अठारह दोषों से रहित है, यही निरञ्जन पापकर्मों की कालिमा से रहित- विशुद्ध ) और केवलज्ञानरूप नेत्र से युक्त (सर्वज्ञ) तीयंकर ही आप्त हो सकता है, एवं बही द्वादशांग शास्त्र की सूक्तियों (प्रामाणिक वचनों ) का वक्ता हो सकता है ॥ ५५-५७ ।।
क्योंकि राग या द्वेष से अथवा मोह ( अज्ञान ) से मिथ्या भाषण किया जाता है । परन्तु जिस विशुद्ध आत्मा में उक्त तीनों दोष नहीं है, उसके झूठ वचन बोलने का कोई कारण नहीं है ||५८|| अनेक प्रकार की उत्पत्ति वाले प्राणियों की शकल सूरत सरीखा होकर भी जो उनमें दर्पण सरीखा मोक्षोपयोगी तत्वों को प्रकाशित करता है वही लोन लोक का स्वामी है ॥५९॥ जिसकी आत्मा में, आगम में, तत्वों में, सामायिकआदि चारित्र में और मुक्ति के कारण सम्यग्दर्शन, ज्ञान चारित्र में पूर्वापर के विरोध से रहित वचन-प्रवृत्ति है, उसे ही गणधरों ने आप्त माना है ||६०|| यहाँ पर प्रश्न यह है कि जब आप्त पुरुष मोक्ष चले गए तब उनकी विशिष्टता कैसे जाने ? उसका उत्तर देते हैं- परोक्ष मानव को भी विशेषता ( सर्वज्ञता आदि ) उसके द्वारा उपदिष्ट आगम से येसी जानी जाती है जैसे बगीचे में रहने वाले पक्षियों ( कोकिला आदि ) सुनने से उनकी विशिष्टता जानी जाती है ।
शब्द
भावार्य - जैसे पक्षियों के विना देखे भी उनकी आवाज से उनकी पहिचान हो जाती है वैसे ही पुरुषों को बिना देखे भो उनके शास्त्रों से उनकी भी आप्तता का पता चल जाता है ॥ ६१ ॥ मानव अपने ही गुणों से लोक में प्रशंसा प्राप्त करता है और अपने दोषों से निन्दा प्राप्त करता है, अत्तः सुवर्ण व लोहे सरीखे उन सज्जन व दुर्जन पुरुषों के विषय में तोष ( राग ) ब रोष ( द्वेष ) करना व्यर्थ है ||६२|| ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध व सूर्य आदि देवता, यदि रागादि दोषों से युक्त हैं तो वे आप्त कैसे हो सकते हैं ? ||६३|| इन ब्रह्मा १. चिल्ला २. मोहः । ३. सच्चावचं नैकभेदमित्यमरः । ४. प्रकाशयति । ५. परोऽपि नरे ।
६-७. यथा
पक्षिणां शब्दात् परोक्षेऽपि विशिष्टत्वं ज्ञायते । ८. सुवर्ण लोहोरिव । ९. हरि हर वृत्र, सूर्यादयः । १०. पू ब्रह्मादिषु । ११. लस्य शास्त्रात् । १२. गृहणे सति ।
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१२८
यशस्तिलकनभ्यूकाव्ये अमस्तिलोतमाचितः श्रीरतः श्रीपतिः स्मृतः । अर्धनारीश्वरः भुस्तथाप्येषां किलाप्तता ॥ ६५ ॥ वसुदेवः पिता यस्य सवित्री देवकी हरेः । स्वयं च राणधर्मस्थचित्रं देवस्तथापि सः ।। ६६ ॥
जो करे या परे । सितिपत्ती स्लः । 'वधिसस्पेति चिस्यताम् ॥ १७ ॥ कपर्दी दोषयानेष निःशरीरः सदाशिवः । भATमा प्यावशक्तेश्च कर्य तषागमागमः ।। ६८ ।। परस्पर विरुद्धायमोश्वरः पञ्चभिर्मुखः । शास्त्र मास्ति भवेसत्र कतमार्थविनिश्चयः ॥ ६९ ।। सदाशिवकला बन्ने यथायाति पुगे युगे । कयं स्वरूपभेवः" स्यात्काञ्चनस्य कला स्विष || ७० ॥ भैस सननामवं पुरस्त्रयविलोपनम् । ब्रह्महत्याकपालिस्व मेताः कीदाः किलेश्वरे ।। ७१॥
आगर
व विष्णु-त्रादि देवताओं में रागादि दोषों का सद्भाच ( मोजूदगो ) उन्हों के शास्त्रों से हो जान लेना चाहिए । क्योंकि दूसरों के गैरमौजूद दोष प्रकट करने में महान् पाप है ॥६४|| देखिये-ब्रह्मा अपनी तिलोनमा नाम की अप्सरा में आसक्त हैं और विष्णु ( श्रीकृष्ण ) अपनो लक्ष्मी प्रिया में लम्पट हैं एवं महेश अर्धी रांश्वर प्रसिद्ध हो हैं। आश्चर्य है फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है ।।६५|| विष्णु ( श्रीकृष्ण ) के पिता वसुदेव थे और माता देवकी थी एवं स्वयं राजधर्म का पालन करते थे, आश्वयं है फिर भी तो वे देव माने जाते है ||६| यहाँ पर विचार करने को बास है, कि जिस विष्णु के उदर में तीन लोक बसते हैं और जो सर्वव्यापी है उसका मथुरा में जन्म और बन में मत्यु कैसे हो सकती है? क्योंकि तीन लोक में व्यापक रहने वाले के जन्म-मरण घटित नहीं होते ॥६७| संसारो शिव रागादि दोष-युक्त होने से अप्रामाणिक है, अतः उसका द्वारा किया हआ
द भी प्रमाण नहीं हो सकता। इसीप्रकार सदाशिव आगम-रचना करने में समर्थ नहीं हो सकता: क्योंकि यह शरीर-रहित होने के कारण जिल्हा व कण्ठ-आदि उपकरणों से मान्य है। जैसे हस्तादि-शून्य कुम्भकार घट-रचना करने में समर्थ नहीं होता अत: उक्त दोनों से आगम की उत्पत्ति कैसे घटित हो सकती है ? ॥६८|| जब श्रीशिव पांच मुखों से परस्पर विरुद्ध अभिप्राय वाले आमम का उपदेश देता है, तब उनमें से किसी एक अर्थ का निश्चय करना कैसे सम्भव है ? अर्थात्-उनमें से कौन-सा अर्थ सही जानना चाहिए ।।६।। यदि प्रत्येक युग ( कृत-श्रेता व द्वापर-आदि ) में श्रीशिव ( मद्र ) में सदाशिव को कला ( अंश) अवतरित होती है तो सदाशिव व सद्र में स्वरूप-भेद क्यों है ? अर्थात्-सदाशिव वीतराग और शिव सरागी म्यों है ? क्योंकि समवाधिकारण-सरीखा कार्य होता है, जैसे सुवर्ण-खण्ड सुवर्ण ही होता है।
भावार्थ-जब कार्य उपादान कारण के सदृश होता है, जैसे सुवर्ण-खण्ड सुवर्ण ही होता है तब श्री शिव भी सदाशिव की पाला होने से सदाशिव का कार्य है, अतः सदाशिव-सरीषा बोतराग व अशरीरी क्यों नहीं है ? इसमें स्वला भेद क्यों है ? अर्थात् -यह सरागों व सशरारी क्या है ? ||३०|| भिक्षा मांगना, ताण्डव नृत्य करना, नग्न रहना, त्रिपुर को भस्म करना, ब्रह्मा का मुख काटना, तथा हाथ में खप्पर रग्यना पे शिव की क्रीड़ाएं हैं । तथापि उसे आप्त मानना आश्चर्यजनक है ।७१॥ शेवदर्शन विचित्र है, क्योंकि उसमें तत्व और आप्त का स्वरूप सिद्धान्त रूप में कुछ अन्य कहा गया है और दर्शनशास्त्र में कुछ अन्य है एवं काश्य शास्त्र में अन्य प्रकार है तथा व्यवहार में भिन्न प्रकार है। १. कदाचिदपि । २. अत्र विचार: कर्तव्यः, तेन दशावताराः गृहीता इत्यसंबद्धम् । ३. यो रागादिदोपवान्
संसारी शिवः स तावप्रमाणं तत्ततागमोऽपि प्रमाण न भवति । यस्तु सदाशिवः स ागर्म क तुमशक्तः जिह्वाफण्ठाग्रुपकरणाभावात्, हस्तादिरहितः कुंभकारों यथा घटं कर्तुमगवतः । ४. रुद्रस्य पंचमुखानि वर्तन्ने। '५. असी रागी, सपिरागः इति भेदः कथं स्यादिति पक्षः, कारणसदर्श कार्य भवतीति हेतोः । ६.काननस्य खंड कांचनम भवतीति दृष्टात्तः। ७. भिवा।८. कपालेन भिक्षार्थ गछति।
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पी आवासः
१९
सिद्धान्तेयत्प्रमाणेऽन्यायकाध्येऽन्यदीहिते । सत्यमाप्तस्वरूपं च पिवित्रं शेवरॉनम् ॥ ७२ 11 एकान्तः शपथरचंय त्या तस्वपरिग्रहे । सन्ततस्वं न होक्यन्ति परप्रत्ययमानतः ।। ७३ ।। वाहच्छेदकबाशुद्ध हेग्नि का दामक्रिया । वाहदकधाशुद्ध हेम्नि मा शपपक्रिया ।। ७४ ।। पदृष्टम मुमान छ प्रतीति लौकिको भजेत् । तपाहुः मुविवस्तव ज कुहकअजितम् ॥ ७५ ॥
विशेषार्थ:-जैसे 'शैवदर्शन में तीन पदार्थ माने हैं-ईश्वर ( श्री शिव ), जोव और संसारवन्धन । उनमें से परमेश्वर, जो कि अनादि, सर्वज्ञ व अशरीरी तथा प्राणियों द्वारा किये हुए शुभाशुभ कर्मों की अपेक्षा सृष्टिकर्ता है, परन्तु जब ईश्वर को अशरीरी मानने पर सृष्टिकर्तृत्व में निम्नप्रकार बाधा उपस्थित हुईशङ्काकार-'ईबर स्वतत्र साष्टकता हो, परन्तु मह अशरीरी होने से सृष्टिकर्ता नहीं हो सकता, क्योंकि लोक में दारोरी कुम्भकार घटादि कार्य करता है और ईश्वर को शरीरी मानने पर वह हम लोगों की तरह क्लेश-युक्त, असर्वज्ञ और परिमित शक्तिवाला हो जायगा।' उक्त वाघा दूर करने के लिए दर्शनकार ने उसमें शाक्त ( मन्त्र-गन्य ) शारीर स्वीकार किया। इस दर्शन की मान्यता है कि मलादि न होने के कारण श्रीशिव का शरीर हम लोगों के शरीर-सदा नहीं है किन्न गाक्त-मन्त्र-जन्य है। इसीप्रकार इसमें पाया पदार्थ ( संसारवन्यन ) के पूर्व में चार मेद माने हैं। पश्चात् पाँच भेद गान लिए । अर्थात्-पाशपदार्थ के चार भेद हैं। मल ( आत्माश्चित दृष्टिभाव-मिथ्याज्ञानादि), नर्म { धर्म व अधर्म ), माया ( समस्त का मूल कारण अविद्याप्रकृति है, और रोध पक्ति ( मलगत दविक्रया शक्ति की आवरण सामर्थ्य )। पश्चात् दर्शनकारी ने परचम पाश ( शिवतत्व-वाच्य माथात्मा-विन्दु) रूप स्वीकार किया | अभिप्राय यह है कि शैवदर्शन पूर्वापर विपक्ष होने में विचित्र है। क्योंकि उसमें मोक्षोपयोगी तत्वों व शिवतत्व का स्वरूप सिद्धान्त में भिन्न और दर्शन में भिन्न है। इसीप्रकार काव्य में भीशिव का पार्वती परमेश्वर के साथ विवाह का निरूपण है और प्रवृत्ति में भी भिन्न-भिन्न है 11७२सा तत्व को स्वीकार करने में एकान्त ( पक्ष) और कसम खाना दोनों ही व्यधं हैं। क्योंकि सज्जन पुरुष दूसरों पर विश्वास करने मात्र से नत्व स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते । तपाने, काटने और कसोटी पर घिगने में जो शोना खरा निकलता है, उसके लिए कसम खाने से पया लाभ ? तथा तपाने, काटने और कसोटी पर घिसने से जो सोना अशुद्ध ठहरता है उसके लिए कसम खाना बेकार है ।। ७३-७४ || विद्वान् पुरुष उसी की यथार्थ तत्व कहते हैं, जो कि प्रत्यक्ष, अनुमान च लौकिक अनुभव से ठीक प्रमाणित
१. पोण शपथेन च सन्तः तत्वं नेच्छन्ति । २. प्रत्यक्ष । ३. एकान्तकुत्सितवजितम् । ४. तदनं शवदर्शन---पतिपशुपाभेदात् भयः पदार्या इति । पतिरीपवरः । पशु वः । पाश: संसारबन्धनम् । तर पति
पदार्थः शिवाभिमतः । रावंदर्शनसंग्रह पृ० १७४ से संकलित-सम्पादक
प्राणिकृतकमर्पिक्षया गरमवरस्य कर्नत्योपपत्तेः। सर्च० पृ. १७६ तथा चीन-रावतः सर्षपाचात् साधनाङ्गफलः सह । यो यज्जानाति कुरुतं स तदेवेति सुस्थितम् ॥ १॥ सर्व. पू. १७८
से गंकनित-सम्पादक ५. तथा च विदर्शन-तथा चौका परमेश्वरस्य हि मनवमर्मादिपाशजालाम भवन प्राकृतं दारीरं न भवति किन्तु शास्तम् ।
मलाद्मसंभवाच्छापत नपुर्नतादृशं प्रभोः । प्रमोवपुः शाक्तं न खंतादृशं मलाद्यसं गवान् । एतादृशामस्मदादिदारीरसदृशं ।
सर्वदर्शन संग्रह प० १७८-१७९ । ६. पाशश्चतुर्विधः मलाममायारोधनशक्तिभेदात् ७. अर्थपञ्चकं पाशाः । सर्वदनसंग्रह प० १९७ से संचालित- सम्पादक
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२००
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निर्मोजतेय तन्त्रेण यदि स्थानमुक्ततामिनि । बीस प्रत्याधक स्पर्श प्रणेयो मोक्काइक्षिणि ॥ ७६ ॥ विषसामयन्मन्प्रारमयश्वविह कर्मणः । तहि तन्मन्त्रमान्पत्य न पुढेषा भवोद्धवाः ।। ७७ ॥ सपनप गयो न स : सरियाल अन्सोवृत्तिनिरकुवा ।। ७८ ।।
तान्नता श्रयः शाक्यः शंकरानुकृतागमः । कथं मनीषिभिमांन्यस्तरसासवशकधीः ॥ ७९ ॥
अर्धवं प्रत्यवतिष्ठा'"सवो, 'भवतां समये फिल मनुजः सत्राप्तो भवति तस्य प्राप्ततातीव दुर्घटा संप्रति संभातमानवद्भयतु बा. तथापि मनुष्यस्याभिलषिततत्वाबरोषः स्वतः परतो वा? न स्वतस्तथापना भायात् । परतश्चेत् । होता है तथा जो सर्वथा एकान्त (सर्वथा नित्य-आदि एक धर्म का पक्ष ) से रहित तथा कुत्सितपने से रहित है ।। ७५ ॥
शून्यावत व तन्त्र-मन्त्र से मुक्ति मानने वालों की आलोचना-जैसे अग्नि में जल जाने के कारण बीज निर्बीज हो जाता है. उसमें अंकुरों को उत्पादन करने की शक्ति नहीं रहती वैसे ही यदि तन्त्र के प्रयोग ( वैदिक कर्मकाण्ड-यज्ञादि ) से प्राणी की मुक्ति होती है तो मुक्ति चाहने वाले मनुष्य को भी आग या स्पर्श करा देना चाहिए, जिससे बीज की तरह वह भी जन्म-मरण के चक्र से छूट जादे। टिप्पणीकार के अभिप्राय से यदि निर्वाजता-जीष के सर्वथा अभाव से जीव को मुक्ति होती है तो हम यह कहग जन आ जा
जीब को मुक्ति होती है तो हम यह कहेंगे जब आग जीव को शून्य मानते हो तो जीव को बिना मोक्ष किसको होगा? ।। ७६ ।।
जग मन्त्र द्वारा विष की मारण शक्ति नष्ट कर दी जाती है वैसे ही मन्त्रों की आराधना मात्र से कर्मों का क्षय ( मुक्ति होता है। यदि ऐसा मानते हैं तो जिसको मन्त्र मान्य है, उसमें मांसारिक दोष नहीं पाये जाने चाहिए । अर्थात्-मन्त्र से विष-क्षय हो सकता है न कि कर्म-क्षय ॥ ७ ॥
सूयं पूजा की आलोचना- नहीं के कुल का होने पर भी यह सूर्य तो पूज्य है और चन्द्रमा पूज्य नहीं है। वास्तव में तत्त्वविचार न करने वाले प्राणी की यत्ति निरङ्कुश ( वैमर्याद ) होती है ॥ ७८ | बोद्ध मत की आलोचना-शङ्कराचार्य शे अनुसरण किये हुए आगम याला बौद्ध मत एक और तो वैतवादी (समन करने योग्य पदार्थों में प्रवृत्ति और सेवन करने के अयोग्य पदार्थों से निवृत्ति का विचार करता है, तप, संयम व भक्ष्यामध्य-आदि की बुद्धि वाला) है और दूसरी ओर अवैतवादी है, ( सब कुछ सेवन करने की छूट देता है। ऐसा मांस और गद्य में आसक्त बुद्धि वाला मत बुद्धिमानों द्वारा मान्य केसे हो सकता है ? || ७२ ।।
दुसरे मन्नानुयायियों का पूर्वपक्ष-पूर्वपक्ष करने के इच्छुक आप लोग यदि ऐसा पाहगे कि आप जेनों के आगम में मनुण्य को आप्त माना है तो उसका आसपना वेसा संघटित नहीं होता जैसे वर्तमान में उत्पन्न हुए मानवों में आप्तपना घटित नहीं होता । अस्तु यदि आपके कहने से मनुष्य को प्राप्त मान भी लिया जाय तो उसे इष्ट तत्व का ज्ञान स्वयं ना हो नहीं सकता, क्योंकि बसा देखा नहीं जाता । अर्थात्-गुरु के उपदेश विना शास्त्रज्ञना नही होतो। दूसरे से ऐसा ज्ञान होता है तो वह दूसरा कौन है ? तीथंकर हे ? या अन्य कोई गृहस्थ है ? यदि तीर्थकर है? तो उसमें भी यही प्रश्न पैदा होता है। यदि तीर्थङ्कर को इष्ट तत्त्व का ज्ञान १. जीया नानि ताई जी बिना मोक्षः कस्य भवति ? २. जीवे । ३. बोज इव वाजवत् । 6. अग्निवग्यबीजवत । ५. अमीष्टः । ६. 'गाभा-काश्मिणः' इति ह. लि. का प्रती पाठः। ३. मन्यागग्ययोः प्रवृतिगरिहारबृद्धितम् । ८. सर्वत्र प्राप्तिानरमास्वतिग्। ९. दौखः । १०. यूर्य पगि चिकीरंवः । ११. स्वयं न भवति । १२. गुरूपदेश
विना शास्त्रज्ञस्याभावात् । १३. तीर्थकरस्म परः कश्चिद्गुरस्ति नहि क्षीर्थकरः गृहस्या वा गुरुश्चेतीर्थकरस्ताहि तत्रापि भने तस्य को गुरुः ? एवं परम्परतयाऽनुबन्धे सति अनवस्यानिरोचो न, तेन तदभार गुदोरमा माससद्भाव घ ििारीश्वरः आगनीयः इति भावः ।
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पत्र आश्वासः
misat vee ? atiकरोऽन्यो वा ? तीर्थशरइवेत्तत्राप्येवं पर्यनुयोगे प्रकृतमनुबन्धे तस्मादनवस्था तवभावमप्तसद्भावं चवाः सदाशिवः शिवा पतिर्वा तस्य ततिभो एषामपि गुरुः
।
कालेनानवच्छेदात् ' तथाहि ।
अदृष्टविप्रायान्ताच्छ्विात्परमकारणात् 1 नावरूपं समुत्पन्नं शास्त्रं परमदुर्लभम् ॥ ८० ॥ ताप्केन भवितव्यम् । ह्याप्तानामितरप्राणिवद्गणः समस्ति संभवे वा चतुविशतिरिति नियमः कौतस्कुत इति वास्तव्यावर्णनमुदीर्णमोहार्णवविलसनं च परेषाम् 1 यतः 1
या नैव सवाशिषो विकरणस्तस्मात्परो रागवान् विध्यायपरं तृतीयमिति चेत्तत्कस्य हेतोरभूत् ।
शक्त्या चेत्परकीया कथमसौ तद्वान संबन्धतः संबन्धोऽपि न जाघटीति भवतां शास्त्रं निरालम्बनम् ॥ ८१ ॥ 'संबन्धो हि सदाशिवस्य शक्त्या सह न भिन्नस्य संयोगः शक्तेर' द्रव्यश्वाव्य 'योरेव संयोगः' इति योगसिद्धान्तः । 'समवायलक्षणोऽपि न संबन्धः शक्तेः पृथक्सद्धवावयुतसिद्धानां गुण गुण्यादीनां समवायसंबन्ध:' इति वैशेषिक तिम् ।
किसी तीसरे के द्वारा होता है तो उस तीसरे को इष्ट तत्व का ज्ञान चौथे के द्वारा होगा और चौथे को इष्ट तत्व का ज्ञान पांचव के द्वारा होगा । तो इस तरह अप्रामाणिक अनन्त पदार्थों की कल्पना रूप अनवस्था दोष का निरोध ( रुकना) नहीं होगा । अर्थात् उक्त दोष की आपत्ति होगी । अतः उक्त दोष से बचने के इच्छुक और आससद्भाव के इच्छुक जैनों द्वारा तत्व के उपदेष्टा सदाशिव या पार्वतीकान्त ( शिव ) हो अङ्गीकार करने योग्य हैं। जैसा कि पतञ्जलि ऋषि ने कहा है- 'बहु सदाशिव पूर्वो का गुरु है, क्योंकि उसका काल से नाश नहीं होता ।' जैसा कहा है----' अशरोरी, शान्त व वेदोत्पत्ति का उत्कृष्ट कारण रूप सदाशिव से नादरूप (शब्दात्मक) विशेष दुर्लभ शास्त्र (वेद) उत्पन्न हुआ || ८० ॥ तथा आप्त एक ही होना चाहिए। क्योंकि जैसे दूसरे प्राणियों का समूह होता है वैसा आप्तों का समूह नहीं होता। और यदि हो भो तो चोवीस संख्या का नियम कहाँ से आया ? इस प्रकार दूसरे मत वालों का उक्त कथन वन्ध्या-पुत्र के चैयं निरूपण सरीखा ( असत् ) है और वृद्धिगत मोह ( अज्ञान ) रूपी समुद्र का विलास है। क्योंकि सदाशिव वक्ता नहीं हो सकता; क्योंकि वह शरीर
इन्द्रियों से रहित है । एवं उससे दूसरा पार्वती - कान्त ( शिव ) वक्ता नहीं हो सकता, क्योंकि वह सरागी है । यदि आप कहोगे कि उन दोनों से भिन्न तीसरा कोई वक्ता है, उस विषय में प्रश्न यह है कि वह तीसरा किस कारण से उत्पन्न हुआ है ? यदि कहोगे कि शक्ति से हुआ तो शक्ति तो भिन्न है, भिन्न शक्ति से वह शक्तिमान कैसे हो सकता है ? क्योंकि उन दोनों का कोई संबंध नहीं है । यदि संबंध मानोगे तो विचार करने पर उनका कोई संबंध भी नहीं बनता। अतः आपका नादरूप शास्त्र (वेद) निराधार ठहरता है, क्योंकि उसका कोई वक्ता सिद्ध नहीं होता || ८१ ॥ शक्ति से सर्वथा भिन्न सदा शिव का शक्ति के साथ संयोग संबंध घटित नहीं होता, क्योंकि शक्ति द्रव्य नहीं है; 'संयोग संबंध दो द्रव्यों का ही होता है' ऐसा योगों ( वैशेषिकों ) का सिद्धान्त है। तथा समवाय संबंध भी नहीं हो सकता; क्योंकि 'जो पृथक सिद्ध नहीं हैं ऐसे गुण गुणी, आदि का समवाय संबंध होता है' यह वैशेषिक सिद्धान्त है, जब कि शक्ति तो शिव से पृथक् सिद्ध भावरूप वस्तु है | अब मनुष्य को आप्त मानने में जो आपत्ति की गई है उसका निराकरण करते हैं - तोथंङ्कर के पूर्वजन्म
१. गौरी । २. अङ्गीकर्तव्यः ३. सदाशिवः । ४ वः कथं न । ९. सदाशिवादन्ये मोहो वर्तत एव । ६. जैनः प्रा । ७. शक्तिमान् । ८ संबंधास्य पर्याय एवं संयोग एक एवेत्यर्थः । ९. द्रव्यत्वाभावात् शक्तिर्भावरूपा तेन हेतुना न संयोगः | १०. द्वारे द्रव्ययो । ११. अधक सिद्धानां पदार्थानां १२. गुगाः ज्ञानादय गुण आत्मा ।
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यशस्तिलकचम्गूकाव्ये तस्वभावनयाभूतं जन्मान्सरसमुत्यया । हिताहितविवेकाय यस्य मानत्रयं परम् ॥८२।।
वृष्टादृष्टमवेत्यर्ष रूपवन्तमपावः । श्रुते श्रुतिसमाश्रयं बवासी' परमपेक्षताम् ।।८३॥ न चैतवसार्वत्रिकम् ।२ कधमत्यमा स्वत एव संजातषयवार्थाव'सापप्रसरे कणवरे वाराणस्यां महेश्वरस्योलकसायु.५ स्पेश्वर स्येवं वचः संगन्धेत-ब्रह्म तुलानामि दिवौकसा दिव्यमद्भुतं ज्ञान प्रादुर्भूतमिह स्वयि 'तत्संविपत्स्व विप्रेम्पः।
उपाये सरयुपेय "स्य प्राप्ते: का प्रतिबन्धिता। पालालस्यं जलं पत्रारकरस्थं क्रियते यतः ।।८४॥ अश्मा'२ हेम जसं मुक्ता मी वन्त्रिः क्षितिर्मणिः । तसतुतया भावा भवन्त्य तसंपदः ।।८५॥ सविस्थितिसंहारमोमवर्षातुषारणस् । अनानन्तभावोऽयमान्त' श्रुतसमाश्रयः ।।८।।
नियतं न बहुत्वं चेत्कषमेते१६ १ तथाविधाः तिथितारापहाम्भोधिभूभृत्प्रभुतयो मताः 11८७।। में उत्पन्न हुई तत्वभावना ( दर्शनविशुद्धि-आदि ) से हिताहित के विवेक के लिए जन्म से ही स्वतः उत्कृष्ट तीन प्रकार के सम्यग्ज्ञान ( मति, श्रुत व अवधि ) उत्पन्न होते हैं, जिनके द्वारा वे दष्ट ( प्रत्यक्ष ) व अदृष्ट(परोक्ष) पदार्थ जानते हैं और अवधिज्ञान से रूपी पदार्थ प्रत्यक्ष जानते हैं एवं श्रुतज्ञान शास्त्र में उल्लिखित तत्व जानता है, तब ये इष्ट तत्व को जानने के लिये दुसरे तीर्थङ्कर को कहाँ पर अपेक्षा करंगे ॥ ८२-८३ ॥
यह बात कि तीर्थकर स्वयं ही इष्ट तत्व को जान लेते हैं, ऐसा नहीं है जिसे सब न मानते हों। यदि ऐसा नहीं है तो जिसमें छह पदार्थों के निश्चय का विस्तार स्वयं उत्पन्न हुआ है, ऐसे कणाद ऋषि के प्रति वाराणसी में कणाद ऋषि का साम्य प्राप्त करने वाले उनके पुत्र महेश्वर नाम कवीश्वर का यह स्तुति-वचन कैसें संघटित होगा?
[ ऋषिराज ! ] 'आप में यहां पर देवताओं का दिव्य, अनोखा व अदभुत तत्व-ज्ञान उत्पन्न हुभा है, जो कि जगत् के तोलने (परिज्ञान) में तराज-सरीखा है, उसे ब्राह्मणों के लिए वितरण कीजिए।'
____ अब मनुष्य को आप्त होने में कोई विरोध नहीं हैं इसे कहते हैं क्योंकि जब कार्यसिद्धि करनेवाली कारण सामग्रो विद्यमान है तब कार्योत्पत्ति में रुकावट कैसे हो सकती है? क्योंकि पाताल में स्थित जल यन्त्र (मशीन ) से इस्ततल पर स्थित कर दिया जाता है। अभिप्राय यह है कि संसारी मानव को भी जब ईश्वरत्व साधक कारणसामग्नी प्राप्त होती है तब उसे भो आत होने में रुकावट नहीं हो सकती ॥ ८६ || सुवर्ण पाषाण से सुवर्ण पैदा होता है। जल से मोतो बनता है। वृक्ष से अग्नि उत्पन्न होती है तथा पृथिवी से मणि प्रकट होता है। इस तरह पदार्थ अपने अपने कारणों से बद्भुत सम्पदा-शाली हो जाते हैं ।। ८५ ॥
जिस प्रकार उत्पत्ति, स्थिति और विनाशा की परम्परा अनादि अनन्त है, या गोष्मऋतु, वर्षा ऋतु और शीत ऋतु को परम्परा अनादि अनन्त है उसी प्रकार आप्त और श्रुत को परम्परा भी प्रवाह रूप से चली आती है न उसका आदि है न अन्त है। आप्त ( तीर्थङ्कर ) से श्रुत ( द्वादशाङ्ग-शास्त्र ) उत्पन्न होता है और
बनता है।1८६|| तोर-संख्या का समाधान-यदि वस्तओं की बहत्व संख्या नियत नहीं है तो तिथि, तारा, ग्रह, समुन्द्र और पहाड़ वगैरह नियत संख्या वाले क्यों माने गये हैं ? अर्थात् जैसे ये बहुत हैं तथापि १. तीर्थ धरः परं गुरु क्च अपेक्षताम् । २. किन्तु मतंय वर्तते स्वयं तवारजानं । ३. ज्ञान । ४ कणाद ऋषी अलपादे
महेश्वरकविः स्तुति चकार । ५. सायुज्यं साम्यं । ६. ऋपे. पुत्रस्य महेश्वरकवेः स्तुतिवचन कायं संगच्छेत । ७. जगतोलने परिज्ञाने तुलामागं तव कणचरस्य ज्ञानं । ८. देवानामपि दिव्यं । १. म त्वं । १०. कुहू । ११. कार्यस्य । १२. पायाणो हेम भवति जलं मुन्न स्वादित्यादि । १३. पदार्याः । १४ उत्पादव्ययभोव्य । १५. तथा भातात् श्रुतं, श्रुतादाप्तः। १६. तीर्थकराः चतुविशतिः भवन्ति । १७. बहवः कथं तिथ्यादयः तथाईन्तोपि ।
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षष्ठ आश्वास:
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अनयव विधा' चिन्त्यं साल्पवाक्यानिवासनम् । तत्त्वानमासापाणां नानात्वस्याविशेषतः ||८८|| अनमेक मतं मुक्त्वा द्वता ससमात्र यो । मागों समामिलाः सर्षे सर्वाम्पुरगमागमाः ।।८९||
वामक्षिणमार्गस्थो मन्त्रीतर समाषपः । कर्मशागतो नेपः शंभशापयतिनागमः ॥१०॥ बच्चतत्
अति मिह प्राहुर्धर्मशास्त्रं स्मतिर्मता । ते सर्वायम्वमीमांत्ये ताम्यां धर्मो हि निर्मभौ ॥११॥
ते तु यस्त्ववमन्येत हेतुशास्त्राथयाद्विजः । । साभिमाहा कामो नास्तिको बनिन्दक: ॥९॥ सपि न साथः । यतः । इनकी संख्या नियत है, अर्थात्-जैसे तिथियां पन्द्रह है ग्रह नव हैं, समुद्र चार हैं और कुलाचल छह हैं वैसे ही तीर्थकर चौबीस ही होते हैं ।। ८७ |1
इसी रोति से सांख्य व बौद्ध-आदि के दर्शन भी विचारणीय हैं, क्योंकि उनमें भी तत्व, मागम और आप्त के स्वरूपों में भेद (बहत्व ) प्रतिनियत रूप से पाया जाता है। जैसे सांख्यदर्शन में प्रकृति, महान् व अहङ्कार-आदि पच्चीस तत्व माने हैं एवं बौद्ध ( माध्यमित्रा, योगाचार, सौत्रान्तिक व वैभाषिक ) दर्शनकार क्रमशः सर्वशून्यता, वाह्यार्थशून्यता, वाह्यार्थानुनेयत्व व वाह्मार्थप्रत्यक्षवाद मानकर 'सर्व क्षणिक क्षणिक, दुःखं दुःखं, स्वलक्षणं स्वलक्षणं, शून्यं शुन्यं, ऐसो भावना-चतुष्टय से मुक्ति मानते हैं, इत्यादि । अर्थात्-जैसे उक्त दर्शनकार तत्व-आदि में बहुत्व-संख्या को प्रतिनियत मानते हैं, वैसे ही स्याद्वादी ( जैन दार्शनिक) भी तोर्थङ्करों की बहुत्व संख्या प्रतिनियत मानते हैं ॥ ८८ ॥
एक जैन-मत को छोड़कर शेष सभी { सांख्य-बौद्ध-आदि ) मतवालों ने, जिनके सिद्धान्तों का पक्ष सभी ने स्वीकार किया है, या तो तमत का आश्रय किया है, अर्थात् सेवन करने योग्य पदार्थों में प्रवृत्तिवृद्धि और मेवन करने के अयोग्य पदार्थों से निवृत्तिबुद्धि रूप संयम का विचार किया है, या अद्वैत मत का आश्रय किया है, अर्थात्-सभी भक्ष्य, अभक्ष्य, पेय, अपेय एवं भोगने के योग्य व भोगने के अयोग्य पदार्थों में निरङ्कुश प्रवृत्ति रूप वाममार्ग का आश्रय किया है ।। ८२॥
वाममार्ग बृहस्पति ने और दक्षिणमार्ग शुकाचार्य ने चलाया है। शेवमत, बौद्धमत और ब्राह्मणमत ये वाममार्गों और दक्षिणमार्गी है तथा ये मन्त्र-तन्त्र की प्रधानता से मानने वाले हैं और मन्त्र-तन्त्र को न मानने वाले भी हैं। शैवमत वैदिक कियाकाण्डो ( यज्ञादि का निरूपक) है तथा वौद्ध व ब्राह्मण मत झानकाण्डी है।
भावार्थ-शेवमत, ब्राह्मणमत और चौद्ध मत उत्तरकाल में वाममार्गी हो गए थे। उसमें मन्त्र, तन्त्र व वैदिक यज्ञादि क्रियाकाण्ड की प्रधानता थी। परन्तु दक्षिण मार्ग इसके विपरीत घा, अर्थात् न तो उसमें मन्त्र तन्त्र को प्रधानता थी और न क्रियाकाण्ड की 1 शैवमत का वाममार्ग प्रसिद्ध ही है। बौद्धमत की महायान शाखा सान्त्रिक वाममार्गी थी। इसी प्रकार वैदिक ब्राह्मणमत, जो कि पूर्ण मीमांसा व उत्तर मीमांसा के भेद से दो प्रकार है, उसमें पूर्वमीमांसा वैदिक यज्ञादि क्रियाकाण्डी और उत्तर मौमांसा ( वेदान्त ) ज्ञानकाण्डी है ।। ९०।।
[अब शास्त्रकार मनुस्मृति के दो पद्य देकर उसकी आलोचना करते हैं ]
( मनुस्मृति अ० २ श्लोक १०-११ में) जो कहा गया है.-'श्रुति को वेद कहते हैं और धर्मशास्त्र की स्मृति कहते हैं। इन दोनों से धर्मतत्व प्रकट हुआ है, इसलिए वे दोनों ( श्रुति व स्मृति, १. भवस्थया रीत्या। २. सर्वपक्षसिद्धान्ताः । ३. बृहस्पति शुक्रः गर्वान् मन्त्रेण वशीकरोति शेवः । ४. जीवहोमादि
प्रिया, ज्ञानप्राप्तः विप्रः, मांसमात्रयति बौद्धः । ५. ते वे 1 ६. न विचार्य। ७. देवस्मृती। ८. अवगणयंत् ।
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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये समस्तयुक्तिनिर्मुक्त: केवसागमालोचनः । तस्य मिश्छन्न कस्येह भवबारी जयावहः ॥१३|| सन्तो गुणेषु तुष्यन्ति नाविचारेषु वस्तु । पावेन शिप्पते प्राधा रत्नं मौलो निषीयते ॥१४॥ श्रेष्ठो गुणहस्थ: स्यात्ततः श्रेष्ठतरो पसिः । यतेः श्रेष्ठतरो देवो न वेवारषिकं परम् ॥१५॥ हिना समवृत्तम्प" तेर' प्यपरस्थितेः । यदि वेवस्य देवत्वं न यो बुलभो भवेत् ॥१६॥
पासकाप्ययने आप्तस्वरूपमीमांसनो नाम द्वितीयः फरुपः । देवमायो परीक्षेत पश्चात्तवचनत्र मम् । ततश्व तदनुष्ठानं कुर्यात्तत्र मति ततः ॥९७।। मेऽयिधार्य पुनर्देवं हचि सदाधि कुर्वते । सेऽग्यास्त स्कन्धविन्यस्तहाता वाञ्छन्ति सदगतिम् ॥९८|| पित्रोः शुद्धौ यषापरये विशुद्धिरिह वृश्यते । तथाप्तस्य विशुवत्वे भरेवागमशुखता ॥९९॥ वाग्विशुद्धा पि दुष्टा यादवष्टिवत्पात्रोषतः । वन्द्यं वपस्तदेवोच्चस्तोमवत्तीर्घसंधयम् ॥१०॥ दष्टेऽयं वचसो १ध्यक्षाव नुमेये तु मानतः । पूर्वापराविरोधेन परोक्षे व प्रमाणता ॥११॥
पूर्धापरविरोधेन यस्तु युक्तमा ५ पाते । सोमबाए: स प्रमा मिनः ||१०२।। समस्त विषयों ( कर्म व ज्ञानमार्ग में प्रतिकूल तर्कों द्वारा विचारणीय (खंडनीय) नहीं हैं ! जो ब्राह्मण तक व शास्त्र का आश्रय लेकर श्रुति व स्मृति का अनादर करता है, वह शिष्ट पुरुषों द्वारा बहिष्कार करने लायक है और बेदनिन्दक होने से नास्तिक है ॥ ९१-२२ ॥' उक्त मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि-जो मसावलम्बी समस्त युक्तियों को छोड़कर केवल आगम मात्र नेत्रवाला होकर तत्व सिद्धि का इच्छुक है, वह वादी लोक में किसी को नहीं जीत सकता ॥ ९३ ।। सज्जन पुरुष गुणों से सन्तुष्ट होते हैं न कि निर्विचारित वस्तुओं से । उदाहरणार्थ -पत्थर पैर से ठुकराया जाता है और रत्न को मुकुट में स्थापित किया जाता है ।। १४ ।। अतः जो गुणों से श्रेष्ठ है, वह गृहस्थ है और गृहस्थ से श्रेष्ठ यति है और यति से श्रेष्ट देव है किन्तु देव से श्रेष्ठ कोई नहीं है ॥ २५ ॥ यदि मुहस्थ-सरोखे आचरण वाला और साधु से भी होन आचरण वाले देवता को देव माना जाता है तब तो देवत्व दुर्लभ नहीं रहता ॥ २६ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में आम के स्वरूप की मीमांसा करनेवाला दूसरा कल्प समाप्त हुआ।
। [अब आचार्य आगम और तत्त्व को मोमांसा करते हैं-] सबसे प्रथम देव ( आप्त ) को परीक्षा करनी चाहिए। पीछे उसके आगम की परीक्षा करनी चाहिए। फिर आगम में कहे हुए चारित्र को परीक्षा करके आप्त में श्रद्धा-बुद्धि करनी चाहिए ।। २७ ।। जो मानव देव को परीक्षा किये बिना उसके वचनों में श्रद्धा करते हैं, वे अन्धे हैं, दूसरे अन्वे के कन्धों पर हाथ रखकर सद्गति प्राप्त करना चाहते हैं ।। १८॥ जैसे लोक में माता-पिता की शुद्धि ( पिंडशुद्धि होने पर उनके पुत्र-पुत्रो में शुद्धि देखी जातो है वैसे ही आस के विशुद्ध ( वीतराग व सर्वज्ञ ) होने पर हो उसके आगम में विशुद्धता (प्रामाणिकता ) हो सकती है ॥ ९९ ॥ क्योंकि विशद्ध वचन भी पात्र के दोष ( रागादि ) से वैसा दुष्ट हो जाता है जैसे वर्षा का पानी दुष्ट पात्र ( समुद्र व सर्पआदि) से दुष्ट (खारा या विष ) हो जाता है, परन्तु जब वह महान तीर्थ ( सर्वज्ञ तीर्थकर-आदि वक्ता) का आश्रय प्राप्त करता है ( उनके द्वारा कहा जाता है ) तब वैसा पूज्य होता है जैसे तीर्थ का आश्रय लेनेवाला जल पूज्य होता है ॥ १० ॥
१. वैदस्मृतिविवाररहितः । २-३. एक: आगमः एव लोचनं यस्य स गुमान् तत्त्वं वाञ्छलि स सर्वेषां जयकारी स्यादित्यर्थः । ४. पाषाणः । ५-६. गृहस्थसशस्य देवस्य यतेरपि हीनस्य चेदीदृशस्यापि देवत्वं घटते । ७. देवे । ८. तस्य
अन्धस्य । ९. 'वाग्दिशिष्टाऽपि' इति ह. लि. (20)। १०. जलं यथा । ११. वचनस्य । १२ प्रत्यक्षात् ।
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षष्ट आश्वास
पायरूपेण
स्मृतः ॥ १०३ ॥
चतुषं समाश्रपान् । नात्रयतामा समस्या गमः आत्मानात्मस्थिति को बन्धमोक्ष सहेतुको आगमस्य निगद्यन्ते पदार्थास्तत्त्ववेदिभिः ॥ १०४॥ उत्पत्ति स्थितिसंहारसाराः सर्वे : स्वभावतः । तथ* तुया ध्यावेते" तरङ्गा इव तोयधेः ।। १०५ ।। यन्त्र मोक्षक्षयागमः । तात्विक करवसद्भाव" स्वभावान्तरहानितः ॥ १०६ ॥
या 'क्षक पक्ष
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प्रत्यक्ष से देखें हुए पदार्थ में प्रवृत्त हुए वचन की प्रमाणता प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध हो जाती है। जो वचन ऐसे पदार्थ को कहता है, जिसे अनुमान प्रमाण से ही जाना जा सकता है, उस वचन की प्रमाणता अनुमान प्रमाण से निश्चित होती है और जो वचन बिलकुल परोक्ष वस्तु को कहता है, जिसे न प्रत्यक्ष से ही जाना जा सकता है और न अनुमान से, उस वचन की प्रमाणता पूर्वापर में कोई विरोध न होने से ही सिद्ध होती है । अभिप्राय यह है कि द्वादशाङ्ग में निरूपित पदार्थ प्रत्यक्ष व युक्ति द्वारा प्रमाणित होते हैं, परन्तु जहाँ प्रत्यक्ष व युक्ति नहीं टिकती वहाँ पर पूर्वापर विरोधी बातें न होने से प्रमाण मानना चाहिए ॥ १०१ ॥ जो आगम परस्पर विरोधी बातों का कथन करने वाला है व युक्ति ( तर्कप्रमाण ) से बाधित है, शराबी या पागल की वकवाद - सरीखा वह बागम कैसे प्रमाण माना जा सकता है ? " ॥ १०२ ॥
बागम का स्वरूप और विषय - जो धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चारों पुरुषार्थों के माश्रयदाले त्रिकालवर्ती पदार्थों का हेय ( छोड़ने योग्य ) व उपादेय ( ग्रहण करने योग्य) रूप से यथार्थ ज्ञान कराता है, वह मागम कहा गया है ॥ १०३ ॥ तत्ववेत्ता महामुनियों ने आगम में निरूपण किये जाने वाले निम्नप्रकार पदार्थ कहे हैं— जीव, अजीव (पुद्गल आदि ), लोक तथा अपने कारणों के साथ बन्ध और मोक्ष | भावार्थ - जिसमें उचचार्थीका है कि उपादेय क्या है, वही यथाचं आगम है, उसमें जोव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा व मोक्ष इन सात तत्वों का निरूपण है ।। १०४ || पदार्थस्वरूप – ये सभी पदार्थ ( उक्त जीवादि) द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक नय को अपेक्षा स्वभाव से वैसे उत्पाद, विनाश व स्थिरशील हैं जैसे समुद्र की तरङ्गे उक्त नयों की अपेक्षा स्वभावतः उत्पाद, विनाश व स्थिरशोल हैं। भावार्थ - जैनदर्शन में प्रत्येक पदार्थ अनेक धर्मात्मक माना गया है; अतः वह द्रव्यदृष्टि से सदा नित्य है; क्योंकि कभी वह अपनी द्रव्यता - नित्यता नहीं छोड़ता और इसीलिए उसको सभी अवस्थाओं में यह वही है इस प्रकार की एकत्वप्रतीति होती है । इसी प्रकार प्रत्येक पदार्थ पर्यायदृष्टि से अनित्य- उत्पाद - विनाश-युक्त है । जैसे- समुद्र में अनेक प्रकार की तरङ्गे उत्पन्न व विलीन होती हुई प्रत्यक्ष प्रतीत होती है ।। १०५ ॥ यदि [ बौद्धदर्शनकार ] समस्त वस्तु को प्रतिक्षण विनाशशील मानते हैं और यदि [ सांख्यदर्शन ] समस्त वस्तु को सर्वथा नित्य मानते हैं तो बंद व भोक्ष का अभाव प्राप्त होगा। अर्थात् ततो बन्ध घटित होगा और न मोक्ष घटित होगा। क्योंकि सर्वथा एक रूप मानने पर उसमें भिन्न स्वभाव घटित नहीं होगा अतः प्रत्येक वस्तु को द्रव्य की अपेक्षा नित्य व पर्याय की अपेक्षा अनित्य मानना युक्तिसंगत है ] ।
भावार्थ - द्रव्यदृष्टि से वस्तु ध्रुव है और पर्याय दृष्टि से उत्पाद विनाशशील है। यदि वस्तु को सर्वथा क्षणिक ही माना जायगा तो प्रत्येक वस्तु दूसरे क्षण में समूल नष्ट हो जायगी। ऐसी अवस्था में जो आत्मा वा है, वह तो नष्ट हो जायगा तब मुक्ति किसको होगी ? इसी प्रकार यदि वस्तु को सर्वथा नित्य माना
१. शापयन् । २. पुद्गलः । ३. समस्ताः पदार्थाः । ४. निश्चय व्यवहार । ५. पदार्थाः ६ से ९. यदि क्षय एष अनि क्षणिकं सर्वं मन्यते अथ अक्षयं अविनश्वरं मन्यते तस्याद्भवेत् कोऽसौ बन्धमोक्षक्षयागमः न बन्धो घटते न मोक्षो घटते कुतः स्वभावान्तर हानित: । क्व सति तात्विकत्वसद्भावे नित्यत्वे इत्यर्थः ।
१०. देखिए - वेद व स्मृति शास्त्रों में पूर्वापर विरोध, यश० ० ४ श्लोक नं० १२० से १२८ तक ।
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यशस्तिलकपम्पूकाध्ये माता वा महान्सूक्ष्मः कृति' पोः स्वयं प्रभुः । भोगापसनमात्रों' ऽयं स्वभावानुध्वंगः पुमान्' ||१७७।। ४ ज्ञानवर्शनशम्पस्य न भेवः स्यावचेतनात् । शानमात्रस्य जोवस्त्रे नेकषीश्चित्रमित्रवत् ॥१८॥ प्रेर्यते कर्म जीवन जीवः प्रेत कर्मणा । एतयोः प्रेरको नाभ्यो नौनाविकतमानयोः ।।१०९||
अग्नियती प्येषोऽचिन्स्यशक्तिः स्वभावतः । अतः शरीरतोऽन्यत्र न भा' योऽस्य प्रमाग्वितः ।।११०॥ प्रसस्थावरभेदेन चतांतिसमाप्रयाः । जीवाः केचित्तथान्ये च पञ्चमों पतिमानिसाः ॥११॥ धर्माधमौ' नभः फालो पुदगलइयेति पञ्चमः । अजीवशब्दधाम्याः स्युरेते विषिषपर्ययाः ।।११२॥ "गतिस्थित्यप्रतीपातपरिणामनिवन्धनम | घरवारः सर्ववस्तुना कपाशमा च पूर्वगलः ॥११॥ अन्योन्यानुप्रवेशन बन्यः परजाः । पति पानामाग हानिक नल सेरिव ॥११॥ प्रकृ तिस्थित्यन भाषप्रदेशविभागतः । चतुर्षा मिद्यते बन्धः सर्वेषामेव वेहिनाम् ॥११५।।
जायगा तो वस्तु में कभी भी कोई परिवर्तन नहीं हो सकेगा, और परिवर्तन न होने से जो जिस रूप में है, वह उसी रूप में बनी रहेगी, अतः बद्ध आत्मा सदा बन ही बना रहेगा, अथवा कोई आत्मा बंधेगा ही नहीं। अतः प्रत्येक वस्तु को द्रव्य दृष्टि से नित्य और पर्याय दृष्टि से अनित्य मानना चाहिए । १०६ ।।
___ यात्मा का स्वरूप-आत्मा शाता, दृष्टा, महान् व सुक्ष्म है, स्वयं ही कर्ता और स्वयं ही भोक्ता है। अपने शरीर के बराबर है तथा स्वभाव से ऊपर को गमन करने वाला है। यदि आत्मा को ज्ञानदर्शन से रहित माना जायगा तो अचेतन-जड़पदार्थ से उसमें कोई भेद नहीं रहेगा, अर्थात्-जड़ और चेतन दोनों एक हो जायगे। और यदि ज्ञानमात्र को जीव माना जायगा तो चित्रमित्र की तरह उसमें अनेक बुद्धि कैसे संघटित होगी ? अर्थात्-जैसे चित्रमित्र नामका कोई पुरुष, किसी का शत्रु है और किसी का मित्र है, अतः उसमें शत्रुता व मित्रता-आदि अनेक धर्म से अनेक बुद्धि संघटित होती है, परन्तु जब सिर्फ ज्ञान-मात्र को जीव माना जायगा तो उसमें केवल एक धर्म ( ज्ञान-मात्र) होने से एक बुद्धि ही संघटित होगी। अनेक बुद्धि नहीं बनेग ।। १०७-१०८॥
__जीव से कर्म प्रेरित ( वन्ध ) किये जाते हैं और कर्मों से जीव प्रेरित किया जाता है । अर्थात्-अपने इष्ट अनिष्ट फलोपभोग के लिए गर्भवास में ले जाया जाता है। इन दोनों का संबंध नौका और नाविक-खेव. टिया-सरीखा है। और कोई तीसरा इन दोनों का प्रेरक नहीं है। भावार्थ-जैसे खेवटिया से नौका खेई माती है और नौका से खेवटिया नदी पर पहुंचाया जाता है वैसे ही जीव कम परस्पर प्रेरक है और कोई तीसरा इनका प्रेरक नहीं है ।। १०९॥ जैसे मन्त्र नियत-अक्षरों वाला होने पर भी अचिन्त्य शक्ति वाला होता है वैसे हो जीव शरोर परिमाण होकर भा अचिन्ल्प शक्तिशाली है। अतः शरीर से पृथक् इसका सद्भाव प्रमाण-सिद्ध नहीं है ॥ ११ ॥
१. का भोका ।। २. आत्मा शरीरप्रमाणः । ३. आगा। ४. पूर्णार्थ.- जानदर्शनाम्यां यत् शुन्यं यस्तु तस्य
वस्तुनः अचेतनात् को भदो : न कोऽपि । अथवा च ज्ञानमा सत् कथमनेकधीः यथा कोऽपि 'चित्रमित्रों
नाम पुमान् स कस्यापि शत्रुः कस्यापि मित्रं । ५. मन्त्री यथा अक्षर : कुल्वा समर्यादः एषोऽप्यात्मा काममात्रः । ६, न मद्भावः अस्तित्व, शरीरात् पृथक् न भवतीत्यर्थः । ७. गतिस्थित्यादि-सर्वत्र वस्तूनां गतिनिवधन धर्म'।
स्थितिनिबंधनपत्रमः । अप्रतीपातनिवन्धन नभः । परिणामनिबंधन; काल.। ८. प्रकृत्यादिःप्रकृतिः स्यात् स्वगावोऽत्र स्वभाबादच्युतिः स्थितिः । तद्रसोऽप्यनुभागः स्यात्प्रदेशः स्यादियत्तत्वं ॥१॥
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अपवर
पेष्ठ आश्वासः
आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जोवस्यान्तर्म लक्षयात् । नाभावो नाप्यर्चतन्यं न चंतम्यमनर्थकम् ॥ ११६॥ अन्यस्य कारणं प्रोक्तं मिया' त्यासंयमादिकम् । रनत्रयं तु मोक्षस्य कारणं संप्रकीर्तितम् ।। ११७।। आप्तागमपदार्थानामश्रद्धा विपर्ययः । संदायश्च त्रिषा प्रोक्तं मिथ्यात्वं मलिना मनाम् ॥ ११८ ।।
एकान्तसंशयाज्ञानं अत्र तित्वं प्रमावित्वं
व्यत्यास विनम्याश्रयम् । भव पक्षाविपक्षत्वान्मिथ्यात्वं पञ्चषा स्मृतम् ॥ ११९ ॥ निर्दयत्व मतृप्तता । इयेानविं प्राहुर संयमम् ।। १२० ।।
सन्तः
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जीत के चैत्रों के
चारों गतियों (नरकगति आदि ) में वर्तमान संसारी जीव त्रस और स्थावर के भेद से दो प्रकार के हैं एवं जिन्होंने कर्मक्षय करके सिद्ध गति प्राप्त की है, उन्हें मुक्त जीव' कहते हैं ।। १११ ॥ अजीव द्रव्य - धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल ये पांच अजीब द्रव्य है । इनकी अनेक पर्यायें होती हैं ॥ ११२ ॥ धर्मद्रव्य जीन व पुद्गलों को गति में निमित्त कारण है । द्रव्य उनकी स्थिति में निमित्त कारण है। आकाश समस्त वस्तुओं को अवकाश देने में निमित्त कारण है एवं काल समस्त वस्तुओं के परिणमन में निमित्त है तथा जिसमें रूप, रस, गंध व स्पर्श के चारों गुण पाय जाते हैं उसे पुद्गल कहते हैं ।। ११३ ।।
बंध का लक्षण -- सुवर्णपाषाण की किट्टकालिमा और सुवर्ण सरीखे जीत्र कर्मों के अन्यान्यानुप्रवेशरूप - आत्मा व कर्म के प्रदेशों का परस्पर बन्ध माना है, जो कि अनादि ( जिसकी शुरुआत नहीं है ) और सान्त ( नष्ट होनेवाला ) है । भावार्थ - जैसे सुवर्ण-पाषाण की किट्टकालिमा अनादि होने पर मो अग्निपुटपाक आदि कारण सामग्री से नष्ट हो जाती है वैसे ही जीव और कर्मों का संबंध अनादि होने पर भी सान्त हैउसका अन्त हो जाता है ॥ ११४ ॥
बन्ध के भेद-वह बन्ध चार प्रकार का है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशबन्ध | यह चारों प्रकार का बंध सभी शरीरधारी जीवों के होता है । भावार्थ- कर्मों में ज्ञानादि के घातने के स्वभाव को प्रकृतिबन्ध कहते हैं। अपने उक्त स्वभाव से च्युत नहीं होना स्थितिबन्ध है। तीव्र व मन्द-आदि फल देने की शक्ति अनुभाग बन्ध है और न्यूनाधिक परमाणु वाले कर्मस्कन्धों का जोव के साथ संबंध होने को प्रदेश वेध कहते हैं । इनमें से प्रकृति व प्रदेशवन्ध योग से होते हैं और स्थिति व अनुभाग बन्ध कषाय से होते हैं ।। ११५ || मोक्ष का स्वरूप – राग-द्वेषादिरूप आभ्यन्तर मल के क्षय हो जाने से जीव के आत्म-स्वरूप की प्राप्ति को मोक्ष कहते हैं । अतः न तो आत्म-शून्यता मुक्ति है और न आत्मा की अचेतन अवस्था मुक्ति हो सकती है एवं त निरर्थक ( ज्ञानरूप अर्थ क्रिया से शून्य ) चैतन्य प्राप्ति रूप मुक्ति हो सकती है। भावार्थ - बोद्ध दीपक के बुझनेसरीखी मात्मशून्यता को मुक्ति मानते है ।
वैशेषिक आत्माज्ञानादि विशेष गुणों के अभाव को मोक्ष मानते हैं । इसी तरह सांख्य ज्ञानादि से रहित केवल चैतन्यस्वरूप की प्राप्ति को मुक्ति मानते हैं । इसलिए ग्रन्थकार ने मुक्ति का स्वरूप बतलाया है ।। ११६ ||
१. मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः बन्यदेतत्रो भवन्ति । ०लि० सटि० क० ) ( ब० ) ( ग० ) (१०) ( च० ) से संकलित -
२. व्यस्पासो विषयः । ३ संसारस्याप्रतिकूलत्वात् संसारम्य हितकर्तृत्वादित्यर्थः । ४. 'इन्द्रियेन्यानुवतित्वं' इति मु० ( क० ) प्रती पाठः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कषायाः कोषमानाचास्ते चस्वारश्चत विषाः । संसारसिग्यसंपातहेसवः प्राणिनां मला: ॥१२॥ मनोवाफ्काय कर्माणि शुभाशुभषिभेदतः । भवन्ति पुण्यपापानो बन्धकारणमा:सति ॥१२२ ।
निराधारो निरालम्बः परमान समाश्रयः । नभोमध्यस्थितो लोकः सृष्टिसंहारजित. ।।१२३।। अथ मतम् --
नैव लग्नं जगत्ववापि भूभूमा भोधिनिभरम् । पातारयच यन्ते परस्यकर्माणि पोत्रिणः ॥१२४॥ वन्ध व मोक्ष के कारण-मिथ्यात्व, असंयम ( अविरति ) प्रमाद, कषाय व योग ये बंध के कारण कहे गये हैं और सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय को मोक्ष का कारण कहा है ।।११७॥
मिथ्यात्व के भेद-मिथ्याष्टियों के मिथ्यात्व के तीन भेद हैं-आप्त ( तीर्थङ्कर अईन्त ), द्वादशाङ्ग शास्त्र, व मोक्षोपयोगी जीवादि तत्वों का यथार्थ श्रद्धान न करना, और विपर्यय तथा संशय । अथवा मिथ्यात्व के, जोकि संसार के प्रतिकूल नहीं है, अर्थात् --संमार का कारण है, पांच भेद हैं--एकान्त, संशय, अज्ञान, विपर्यय और विनय मिथ्यात्व ।।
भावार्थ-मिथ्यात्व सम्यग्दर्शन का घातक है, क्योंकि उसके रहते हा आत्मा में सम्यग्दर्शन प्रकट नहीं हो सकता । उसके पांच भेद हैं। अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक धर्म रूप से मानना एकान्त मिथ्यात्व है, जेसे आत्मा नित्य ही है या अनित्य ही है । सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का रत्नत्रय मोक्ष का मार्ग है या नहीं इस प्रकार के संदेह को संशय मिथ्यात्व कहते हैं। देव, शास्त्र-आदि के स्वरूप को न जानना अशान मिथ्यात्व है। सूठे देव, झूठे शास्त्र और झूठे पदार्थों को सच्चा मानकर उनपर विश्वास करना विपर्यय मिथ्यात्व है और सभी धर्मों और उनके प्रवर्तकों को समान मानना विनय मिथ्यात्व है |११८-११९।। असंयम का स्वरूप-अहिंसा-आदि प्रतों का पालन न करना, कुशल क्रियाओं में आलस्य करना, निर्दय होना, सदा असंतुष्ट रहना और इन्द्रियों को इच्छानुकूल प्रवृत्ति करने को सज्जन पुरुषों ने असंयम कहा है ॥१२०॥
___ कषाय के भेद-क्रोध, मान, माया और लोभ के भेद से कषाय चार प्रकार की कही है। उनमें से प्रत्येक के चार-चार भेद हैं | अनन्तानुवन्धि, अप्रत्याख्यानावरण-प्रत्याख्यानावरण व संज्वलन क्रोय मान, माया लोभ । ये सभी काय प्राणियों को संसार समुद्र में गिराने की कारण मानी गई हैं।
भावार्थ-प्राणियों को संसार समुद्र में पतन कराने वाली कपायों के उक्त प्रकार१६ भेद हैं। अनन्ता. नुवन्धि जो मिथ्यात्व के साथ रहती हुई आत्मा के स्वरूपाचरण चारित्र का ब सम्यक्त्व का घात करती है । अप्रत्याख्यानावरण—जिसके उदय से देशचारित्र न हो सके । प्रत्याख्यानावरण-जो मकलचारित्र का धात करती है और संज्वलन---जिसके उदय से यथाख्यात चारिन न हो सके ॥१२१॥ योग-मनोयोग, वचनयोग व काययोग शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार के होते हैं। इनमें से शुभ मनोयोग-आदि आत्मा के पुण्यवंध फा कारण हैं और अशुभ मनोयोग-आदि पापबंध के कारण हैं।
भावार्थ-हिंसा, चोरी व मैथुन करना-आदि अशुभ काययोग है। मिश्यामाषण, परनिन्दा व आत्मप्रशंसा-आदि अशुभ बचन योग है । किमी का अनिष्ट चिततवन करना व ईर्ष्या करना आदि अशुभ मनोयोग है। ये अशुभ क्रियाएं पापयन्ध को कारण हैं और इनसे बचकर अहिंसा सत्यभापण करना एवं परो. पकार-आदि शुभ क्रियाएँ पुण्यबंध की कारण हैं ।। १२२ ।।
१. अनन्तानुबंध्यप्रत्याख्यानप्रत्यास्म्यानसंज्वलनदेन । २. योगास्त्रयः। ३. वायुः । ४. किल चैनाः वदन्ति । ५. भूधाः पर्वताः । ६. अहिः सर्पः। ७. पौत्री शूकरः ।
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षष्ठे आश्वास
एवमालोच्य लोकस्य निरालम्बस्य धारणे यो हि वायुनं शक्तोत्र लोष्ठकाष्ठादिवारणे ।
शवसत् ।
ये प्लावयन्ति पानीयैविष्टपं आता गमपदार्थेयपरं दोषमपश्यतः I अमन मनायामो तत्रैव समाधिः
हप्ते पवनो जनैरिश्ता साहसं महत् ॥ १२५ ॥ स्वयं स स्याद्वारणानगरक्षसः ।।११६ ॥
सचराचरम् । वास्ते वातसामर्थ्याटिकन पनि समासते ॥ १२७ ॥
२०६
स्थितिभोजिता । मिय्यादृशो वदन्त्येतन्मुनेर्वाध चतुष्टयम् ॥ १२८६ पानामध्यात्माचारचेतसाम् । मोन स्नानम् प्राप्तं वो स्वस्य विधिर्मतः ।। १२९ ।।
लोक का स्वरूप -- आकाश के मध्य में स्थित हुआ यह लोकाकाश निराधार ( शेषनाग व कच्छपमादि आधार-रहित ) है, व आलम्बन रहित है अर्थात् - इसका कोई आश्रय नहीं है । केवल घनोदधिवातबल्य आदि तीन प्रकार की वायु के आश्रय वाला है एवं उत्पत्ति व विनाश से रहित है ।
भावार्थ- समस्त द्रव्यों को स्थान देनेवाला आकाश द्रव्य सर्वत्र व्याप्त है। उसके बीच में लोकाकाश है, जो कि चीदह राजू ऊंचा उत्तर दक्षिण सात राजू मोटा और पूर्व पश्चिम में सात राजू मध्य में एक राजू पुनः पाँच राजू और अन्त में एक राजू विस्तार वाला है। यह आकाश का ही एक भाग है । परन्तु जितने आकाश में सभी द्रव्य पाये जाते हैं उतने को लोकाकाश कहते हैं, यह अगूर्तिक द्रव्य है, वह स्वयं अपना आधार है, इसे किसी आधार की आवश्यकता नहीं | इसे घनोदधिवातत्रलय आदि घेरे हुए हैं, जो कि पृथिवी वगैरह को धारण करने में सहायक हैं ।। १२३ ।।
जैनों की इस मान्यता पर दूसरे आक्षेप करते हुए कहते हैं— पृथिवी, पर्वत व समुद्रों से भरे हुए इस लोक का कोई आधार नहीं है और इसके धारक मत्स्य, कच्छप, शेषनाग और वराह युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते । ऐसा विचार कर आलम्बन-शून्य जगत ( लोक ) की धारण करने के विषय में जैनों ने वायुविशेष। घनोदधिवातवलय आदि ) की कल्पना की है यह उनका महान साहस है, क्योंकि निस्सन्देह जो वायु पत्थर व लकड़ीआदि के बोझा को सम्हालने में समर्थ नहीं है, वह इस [ महान् ] तोन लोक के धारण कार्य में कैसे समर्थ हो सकती है ?' ।। १२४-१२६ ॥
उनका यह क्षेत्र ठीक नहीं है, क्योंकि अपनी प्रचण्ड जल-वृष्टि से चराचर जगत को में डुबोनेवाले महान् मेघ क्या वायु की शक्ति से आकाश में स्थित नहीं रहते ? भावार्थ--जैसे बाबु अपनी धारणशक्ति से चराचर विश्व को प्रचण्ड दृष्टि से जल को हुआ करने वाले वृहत् मेवों को याँ रहती है वैसे हो तोन लोक को भी वारण कर सकती है। विरोध नहीं है ।। १२७ ॥
जल को बाढ़
बाढ़ में डूबा इसमें कोई
जैन साधुओं पर दोषारोपण - जेनों के आप्त, आगम व मोक्षोपयोगी तत्वों में दूसरा कोई दोष न देखने से मिध्यादृष्टि लोग जैन साधुओं में चार दोषों का आरोपण करते हैं - मिध्यादृष्टि लोग कहते हैं कि जैन साधुओं में चार दोप हैं—स्नान न करना, आचमन ( कुरला) न करना, नग्न रहना और खड़े होकर भोजन करना आदि । उक्त बारोपों का समाधान इस प्रकार है - [ सदा] ब्रह्मचर्य व्रत को स्वीकार करने वाले और आत्मिक आचार में लीन चित्त वाले दिगम्बर साधुओं के लिए स्नान करने का निषेध है, परन्तु जब कोई दोष लग जाये तब उन्हें स्नान करने का विधान है ।। १२९ || जब मुनि हाथ में खोपड़ी लेकर मांगनेवाले वाममार्गी कापालिकों से, १. भुवनं 1 २. 'आगमपदार्थेषु पर दोपमपश्यतः' इति ०लि० (क० ) । ३. अदर्शनान् अथवा अदर्शनात् । ४. अस्तानं । ५. म आचमनं । ६. अयोग्यं ।
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यशस्तिसकंचम्पूकाव्य सो फापालिका योचाण्डालशवरादिभिः। आप्लरपर दण्डसम्याजम्मानमयोषितः ।।१३०।। एकान्तरं त्रिरा वा कृत्वा स्नास्था चके । रिने शुनधास्यसंवेहमती प्राप्तगताः स्त्रिपः ॥१३१॥ यवेवाङ्गमशुखं स्याङ्गिः शोध्यं सदेव हि । अगुली सर्पबदार्या म हि नाप्ता निकृत्यते ।।१३२।। निष्प वाबिविषौ वक्त्रे यत्रतत्वमिष्यते । तहिं अपनापवित्रत्वे शौचे नारम्यते कुतः ॥१३॥ विकारे विदुषां वषो नाविकारानुवर्तने । तन्नप्नत्वे निसर्गोत्थे को नाम उप कल्मषः ॥१३४॥
कचन्यमहिसा च कुतः संमिनां भवेत । ते सलगाय पदोहन्ते बल्फलाजिनवाससाम ॥१३५।। न स्वर्गाय स्थिते क्तिनं श्वभ्रायास्थितेः पुनः । कि तु संयमिलोकेऽस्मिन्सा प्रतिज्ञार्थमिष्यते ॥१३६॥ पाणिपात्रं मिलस्येतच्छक्तिश्च स्थितिभोजने । यावत्तावनहं भुञ्ज रहा" म्याहारमन्यथा || १३७।।
अन्यासवराग्यपरोषस्कृत कृतः । अत एव यतीशानां केवोत्पाटनसद्विषिः ।। १३८५ रजस्वलास्त्री से, वाण्डाल व म्लेच्छ वगैरह अस्पृश्य शूद्रों से छूजाय तो उसे दण्ड स्नान करके उपवासपूर्वक मन्त्र का जप करना चाहिए ॥ १३०॥
ऋतुमती स्त्रियों की शुद्धि-अहिंसा-आदि व्रतों को धारक स्त्रिया (आर्यिका-आदि ) ऋतुकाल में एक उपवास अथवा तीन दिन का उपवास करके चौथे दिन स्नान करके निस्सन्देह शुद्ध हो जाती हैं ।। १३१ ॥ आचमन न करने का समर्थन-[अब मुनियों के आचमन न करने का समर्थन करते हैं ] क्योंकि शरीर का जो भङ्ग अशुद्ध हो, निस्सन्देह जल की शुदिती नाति । ये डमो हुई अलि हो काटो जाती है न कि नासिका ।। १३२ ॥ अधोवायु के निस्सरण-आदि करने पर यदि मुख में अपवित्रता मानते हो तो मुख के अपवित्र होने पर अधोभाग में शौच क्यों नहीं करते हो ?
भावार्थ-जैस मुख अशुद्ध हो जाने पर आचमन से केवल उसे हो शुद्ध किया जाता है, वैस हो जैन साधु भी शोच ( मलोत्सर्ग ) से अशुद्ध हुए गुदा-भाग को ही जल से शुद्ध करते हैं, न कि आचमन से मुख को ।। १३३ ॥
[अब मुनियों की नग्नता का समर्थन करते हैं--] विद्वानों को विकार ( काम-क्रोधादि ) से द्वेष होता है न कि अविकारता ( बोतरागता ) के अनुसरण से । अतः स्वाभाविक नग्नता से किस बात की द्वेषरूपी मलिनता ? ।। १३४ || यदि चारित्रधारक दिगम्बर महामुनि [पहिरने के लिए ] वृक्षों को छाल मृगचर्म व वस्त्रों के ग्रहण को इच्छा करते हैं तो उनमें नेटिकञ्चन्य (निष्परिग्रहता) और अहिंसा कैसे संभव है ? ||१३५॥
[ अब मुनियों के खड़े होकर आहार ग्रहण करने का समर्थन करते हैं--] दिगम्बर साधुओं का खड़े होकर आहार-ग्रहण उनके स्वर्ग के लिए नहीं है और न बैठकर आहार-ग्रहप नरक-निमित है। किन्तु [आगम में ] खड़े होकर भोजन करना संयमी मुनिजनों में प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए चाहा गया है ।। १३६ ।। मुनि भोजन प्रारम्भ करने से पूर्व यह प्रतिज्ञा करते हैं कि-'जब तक मेरे दोनों हाथ मिले हैं और मेरे में खड़े होकर आहार-ग्रहण की सामर्थ्य है तब तक मैं यथाविधि आहार ग्रहण करूँगा, अन्यथा आहार-त्याग कर दूंगा' इसी प्रतिज्ञा के निर्वाह के लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं । १३७ ।। [ अब केश-लोच का समर्थन करते हैंअदीनता, निष्परिग्रहपना, वैराग्य और परोषह-जय के लिए मुनियों को केश लोच करने का विधान बतलाया है ॥ १३८॥
१. आत्रेयी रजस्वला ऋतुमती । २. स्नास्वा। ३. पर्व कुल्लिते शब्दे च-पदने सति चेदाचमनं क्रियते तहि
मखाच्छिष्ट अघीभागे शो किन क्रियते ? ४. द्वेष एवं कल्मपः मलिनत्वं। ५. त्यजामि । ६. विक्षितः।
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षष्ठ आश्वासः
परपुपासकाध्ययन आगमपदार्थपरोमणो नाम तृतीयः कल्पः ।
पूर्थोि ग्रहणस्नानं संकान्तो विणव्ययः । संध्यासेवाग्भितरकारी गेहदेहार्चनो विषिः ॥१३९॥ नदीनाइसमुनेषु मज्जनं धर्मचेससा । सक'स्तू पानभक्तानां वन्वनं भृगु संश्रयः ॥१४०॥ गोपृष्ठानमाारस्तन्मूत्रस्य निक्षेवणम । रलवाहन यशशस्त्रशलाविशेषगम् ॥१४९।। समयान्तरपासवेश्लोकसमाश्रयम् । एवमायिविमूढाना क्षेयं मूमनेकपा ॥१४२॥ बरा लोक वार्तामुप रोधार्थमेव वा । उपासनममीषा स्यात्सम्यग्दर्शनहानपे ॥१४॥ क्लेशायय कियामीषु म फसायाप्तिकारणम् । यद्भवेन्मुग्वघोषानामूषरे कृषिकर्मवत् ॥१४॥ वस्तुममेव भवेभक्तिः शुभारम्भाय भाक्तिके 1 न घस्नेषु रत्नाप भावो भवति भूतये ॥१४५।। अवे बेचताबुद्धिमत्ते तभावनाम् । अतस्ये तत्वविज्ञानमतो मिप्यास्त्वमुत्सृजेत् ॥१४६॥ समापि यदि मूहत्वं न स्पजेल्कोपि सर्वथा । मित्रत्वनाममान्योऽसौ सर्वनाशो में सुन्दरः ॥१४॥ १°न स्वतो जन्तवः प्रेर्या दुरीहाः स्युजिनागमे । स्वत एष प्रवृत्तानां तद्योग्यानुग्रहो मतः ॥१४॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में बागम व पदार्थों की परीक्षा करनेवाला तीसरा कल्प ममाप्त हुआ। अब लोक में प्रचलित मूढ़ताओं का निषेध करते हैं-सूर्य की पूजा-निमित्त जल चढ़ाना, ग्रहण के समय स्नान करना, संक्रान्ति होने पर दान देना, संध्या चन्दन करना, अग्नि को पूजना, मकान व शरीर को पूजा करना, नदी, तालाव व समुद्र में धर्म समझ कर स्नान करना, वृक्ष, पथवारी व भात को नमस्कार करना, पर्वत से गिरने में धर्म मानना, गाय की पीठ को अनेक देवताओं का निवास स्थान समझकर नमस्कार करना और उसका मूत्र पीना, रत्न, सवारी, पृथ्वी, यक्ष, शास्त्र ( खड्ग आदि ) और पर्वत-आदि को पूजा करना', दूसरों के शास्त्रों की पूजा करना व उनमें उल्लिखित पाखण्ड को धर्म समझना एवं वेद व लोक से संबंध रखने वाली इत्यादि मिथ्यादृष्टियों द्वारा मानी हुई अनेक प्रकार की मूढ़ताएँ समझ लेनी चाहिए ॥ १३९-१४२ ॥ जो लोग घर-प्रदान को आशा से या लोक-रिवाज के विचार से एवं किसी के आग्रह से इन मूढ़ताओं का सेवन करते हैं, उनका सम्यक्त्व नष्ट हो जाता है ।। १४३ ॥ जैसे ऊपर जमीन में खेती करने से कष्ट उठाने के सिवाय कोई लाभ नहीं होता वैसे ही मूखों द्वारा मानो हुई उक्त मढ़ताओं के मानने से भी कष्ट उठाने के सिवाय कोई फल प्राप्त नहीं होता ।। १४४॥ यथार्थ वस्तु में की गई भक्ति ही भक पुरुष को पुण्य बंध कराती है, क्योंकि जैसे पत्थर को रन मानने से कल्याण नहीं होता ॥ १४५ ।।
कुदेव को देव मानना', अत्रत-दुराचार को व्रत मानना और अतत्व को तत्व मानना मिथ्यात्व है, विवेकी को इसका त्याग करना चाहिए ॥१४६ ।। तथापि जो मानव इस मूढ़ता को सर्वधा नहीं छोड़ता और सम्यक्त्व के साथ-साथ किसी मूढ़ता का भी पालन करता है तो उसे सम्यरिमथ्यादष्टि मानना चाहिए, क्योंकि मिथ्यात्व सेवन के कारण उसके समस्त धर्माचरण का लोप कर देना, अर्थात् --उसे मिथ्यादृष्टि ही मानना ठीक नहीं है ।। १४७ ।। जिन मनुष्यों को चेष्टाएँ अच्छी नहीं हैं, उन्हें जिनागम में स्वयं प्रेरित नहीं करना चाहिए, अर्थात्-ऐसे मनुष्यों को जैनधर्म में लाने की चेष्टा नहीं करनी चाहिये किन्तु जो स्वयं जैनधर्म में रुचि रखते हुए प्रवृत्ति करना चाहते हैं, तो उनके योग्य अनुग्रह कर देना चाहिये ॥ १४८ ॥
१. वृक्षः । २. पाषाणः स्तुपामः पथवारी। ३. भोवन । ४. गिरिपातः। ५. 'देवलोक.लि.क.
नार्थ 1 ७. 'लोकयात्रार्थ' इति ह० लि० (क०) (१०) (च०) प्रतिषु । ८. आयह । १. सत्यपदार्थ सर्वज्ञ पीचरागे । १०. ये नरा दुरीहाः शुश्चोक्टास्ते न प्रेरणीयाः क्व जिनागमे । ये च स्वयं प्रवृत्तास्तेषां योग्यानुरहः कार्यः ।
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वास्तिकथम्पूकाव्ये
इत्युपासकाध्ययने मूढतोन्मथनो नाम चतुर्थः करूपः ।
शनकाङ्क्षावितित्वा त्र्यश्लाघा च मनसा गिरा। एसे दोषाः प्रजायन्ते सम्यक्स्यक्ष तिकारणम् ।। १४९ ।। अनु इति व्याधिष जोटका अन्तिभति पाने प्रचक्षते ।। १५० ।। एतत्वमिवं तस्वमेतबूब्रतमिदं धतम् । एष देववत्र वेयोऽयमिति शङ्कां विदुः पराम् ॥१५१ ।। इत्थं वाङ्कितचित्तस्य न स्वानशुद्धता । न चास्मिन्नपिता बाप्तिर्य येवोम' यवंदने" ।। १५२ ॥ एष एव भवेद्देवस्तस्वमप्येतवेध हि । एतदेव व्रतं मुक्त तदेवं स्यादङ्कषीः ॥१५३॥ तस्वे जाते रिपी दुष्टे पात्रे वा समुपस्थिते । यस्य बोलायते वित्त रिक्तः सोऽपुत्र ह ॥१५४॥
श्रूयतामत्रोपाख्यानम् — इवाकाश्चर्यसमीपे जम्बूद्वीपे जनपदाभिधानास्पदे जनपदे भूमितिलकपुरपरमेववरस्य गुणमाला महादेवीरतिकुसुमदारस्य नरपालनाम्नो नरेन्द्ररूप श्रेष्ठी सुनो नाम धर्मपत्नी वास्प जनित निखिलपरिजनवयानन्दा सुनन्दा नाम । अनयोः सूनुषंगद धनबन्धु धनप्रिय- धनपाल धनदत्त- घनेश्वराणामनुजः सफलकूटकपट
इस प्रकार उपासकाध्ययन में मूढता का निषेध करनेवाला चौथा कल्प समाप्त हुआ । निम्न प्रकार ये पाँच दोष ( अतीचार ) सम्यग्दर्शन को हानि करने में कारण हैं । शङ्का, काङ्क्षा, विचिकित्सा, मन तथा वचन से मिध्यादृष्टि की प्रशंसा करना ॥ १४९ ॥ शङ्का बतीचार-निरूपण - 'मैं अकेला हूँ, तीन लोक में कोई ( पिता व भाई आदि ) मेरा रक्षक नहीं है।' इस प्रकार बुखार व गलगण्डआदि रोग-ममूह के आक्रमण से होनेवाली मृत्यु से भयभीत होने को 'शङ्का' कहते हैं || १५० ।। ' अथवाआचार्य, यह जिनोक्त तत्व है ? अथवा वैशेषिका आदि से माना हुआ यह तत्त्र है 'यह व्रत है, या यह व्रत है ?' यह जिनेन्द्रदेव हैं ? कि यह हरिहर आदि देव हैं ? इस प्रकार के संशय को शङ्का जानते है ।। १५१ ॥ ऐसी शङ्कित चित्तवृत्तिवाले सम्यग्दृष्टि मानव का सम्यग्दर्शन विशुद्ध नहीं होता और न उसे बैसो अभिलषित वस्तु ( स्वर्ग व मोक्ष ) प्राप्त होती है जैसे नपुंसक मानव को अभिलषित वस्तु ( स्त्री-संभोग ) प्राप्त नहीं होती । मथवा पाठान्तर में ( 'उभयवेतने' ) जैसे भयभीत पुरुष को अभिलषित वस्तु ( विजय श्री आदि) प्राप्त नहीं होती ॥ १५२ ॥ अतः निश्चय से यह बीतराग सर्वज्ञ ही देव है, एवं उसके द्वारा कहे हुए जीवादि तत्व हो प्रामाणिक हैं, तथा अहिंसा आदि व्रत हो मुक्ति के कारण हैं, ऐसा जिसका दृढ़ विश्वास है, वहीं मानव निःशङ्क बुद्धिवाला है || १५३ ॥ तत्व के जान लेने पर व शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर एवं पात्र के उपस्थित होने पर भी जिसका चित्त झूला सरीखा डोलता है, ( जो कुछ भी निश्चय नहीं कर सकता ) वह इस लोक व परलोक में रिक (खाली हाथ - सुख-शून्य ) रहता है ।। १५४ ॥
१. निःशङ्कत अङ्ग में प्रसिद्ध गञ्जन चोर की कथा -- अब निःशङ्कित अङ्ग के संबंध में कथा सुनिए -- निकटवर्ती अनेक आश्चर्यजनक वस्तुओं वाले इसी जम्बूद्वीप के 'जनपद' नाम के देश में 'भूमितिलकपुर' नाम का नगर है । उसका स्वामी 'नरवाल' नाम का राजा था. जो कि 'गुणमाला' नाम की पट्टरानीरूपीरति के लिये कामदेव सरीखा था। उसके राजश्रेष्ठी का नाम 'सुनन्द' था। सुनन्द के समस्त परिवार के हृदय को आनन्दित करनेवाली 'सुनन्दा' नामकी सेठानी थी। इन दोनों के 'धनद', 'धनबन्धु', 'घनप्रिय' 'घनपाल'
१. त्रिचिकित्सा । २. भयं करोति मम सहाय पिता भ्रातादिको नाहित बाञ्छायां यथा वाञ्विार्थप्राप्तिर्न भवति । ५. 'उभयवेतने' पनि कान्दिके ममीते ।
३ उत्क्रान्तिः मरणं । ४ नपुंसकस्य वंदने ख़०, ग०,० प्रति पाठः । तत्र टिप्पणी
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षष्ठ आश्वासः
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वेष्टितहरिषन्वन्तरिनाम । तथा तन्नपतिपुरोहितस्याग्निलाययितायोदितोदिताभकर्मणः सोमशर्मणः सुतो विश्वरूपविश्वेश्वर-विश्वमूति-विश्वामित्र-विश्वावसु-विश्वावलोकानामबरजः समस्लमवत्तप्रतिलोमोर विश्वानलोमो नाम । तो दापि सहपांशुक्रोक्तिस्वात्समानशीलव्यसनत्वाच्च क्षीरनीरबसमाचरितसम्यो तमविरापरदारीधिनायकार्यपर्यायप्रवर्तनमुस्यो सन्तो सेनावनीपतिनास्मोपनगरासनिकारं निर्वासितो कुरुजाङ्गलदेशेषु वोरमतिमहादेवीवरेण पौरनरेश्वरेणाधिष्टितं यमवण्डतरपालेनाधितमशेषसंसारसारसीमन्तिनीमनोहरं हस्तिनागपुरमवाप्प संपा वितावस्पिती कवातिवस्तमस्तकोसंसलपनातपमिचये संध्यासमये मह"मयोमलिनापोल पालोनिलोनातिकुलालित्यभागमुखपटाभोगभजनेप्रमरानीलगिरिकुरुजरारूपच्छन्दतोऽभिमुनमागच्छतो निवृत्य धोधर्माचार्योच्चामाणमयोचित नित्यमण्डितं नाम चैत्यालयमासावयामासतुः ।
सत्र ध 'धन्वन्तरे, यदि सीधपिशितोपवंशप्रमुखानि संसार सुखानि स्वेच्छपानुभवितुमिच्छसि तवावश्यममीषामम्बरम्बारावृत्तयां धर्मो न योतय्यः' इत्यभिषाय पिघाय ध श्रवणयुगलमतिनिर्भर प्रमीला बलम्बिलीमनायामो विश्वानुलोमः सुप्वाप । धन्वन्तरि "स्तु 'प्राणिनां हि नियमेन किमप्पलितात्मतया समुपपातं भवत्युदर्फे ऽवश्यं स्वःश्रेयसः
धनदत्त'-'धनेश्वर' और 'धन्वन्तरि नाम के पुत्र थे, उनमें तोटा पत्र 'धन्वन्तरि' मा प्रकार की कार कपट-पूर्ण चेष्टाओं में विष्णु-सरीखा था। राजा का पुरोहित धर्म कर्म में विशेष निपुण 'सोमशर्मा' था। उसकी पत्नो का नाम अग्निला था। उनके 'विश्वास' "विश्वेश्वर' 'विश्वमति', "विश्वामित्र'-'विश्वावर विश्वावलोक' और 'विश्वानुलोम' नाम के पुत्र थे, उनमें ज्येष्ठ पुत्र विश्वानुलोम' समस्त सदाचार का विद्वेषो था ।
धन्वन्तरि व विश्वानुलोम साथ-साथ धूलि में खेले थे तथा दोनों का स्वभाव और बुरी आदतें भी समान थी, इसलिये दोनों में दूध पानी सरीखी घनिष्ठ मित्रता थीं। जब इन दोनों ने राज्य में उपद्रव करना शुरू किया-जुआ, बाराब, परस्त्री-गमन ब चोरो-आदि म्लेच्छों के अनाचार में अग्रेसर हुए तब उक्त नगर के राजा ने दोनों को तिरस्कार पूर्वक नगर से निकाल दिया। इससे वे 'कुमजाङ्गल' देश के ऐसे हस्तिनागपुर नगर में आकर ठहरे, जो कि 'वोरनरेश्वर' नाम के राजा और वीरमति महादेवी नाम की रानी तथा यमदण्ड नाम के कोट्टपाल से मधिष्ठित था और समस्त संसार में सर्वोत्तम युवतियों से मनोहर था। किसी समय जब ऐसा संध्या-समय हो रहा था, जिसमें अस्ताचल पर्वत के शिखर का कर्णभूषण सुर्यका उष्णता-समूह वर्तमान है, तव वे दोनों स्वच्छन्दता के साथ सन्मुख आते हुये 'नोलमिरि-सरीखे मदोन्मत्त हाथी को देखकर लोट कर भागे, जिसके मुखरूपी विस्तृत वस्त्र की रचना का विस्तार मदरूपी कज्जल से मलिन हुये प्रशस्त गण्डस्थलों पर लीन होने वाले भ्रमर-समह से आस्वाद्यमान हो रहा था। तत्पश्चात वे दोनों ऐसे नित्यमण्डित' नाम के चैत्यालय में प्राप्त हुये, जो कि 'श्रीधर्माचार्य' से निम्पण किये जानेवाले धर्म-श्रवण के योग्य था ।
वहाँ पर विश्वानुलोम' ने धन्वन्तरि से कहा-'धन्वन्तरि ! यदि मद्य, मांस व मधु की प्रधानता बाले सांसारिक सुख यथेच्छ भागने के इच्छुक हो तो तुम्हें अवश्य दिगम्बरों का धर्म नहीं सुनना चाहिये ।' ऐसा कहकर दोनों कानों को बन्द करके नींद लेनेवाले विस्तृत नेत्रोंवाला विश्वानुलोम आंग्वे मोंचकर सो गया। वहाँ आचार्य कह रहे थे 'निश्चय से यदि प्राणो दुइता के साथ निगमपूर्वक किसी भी प्रत का पालन करे तो उत्तरकाल ( भविष्य ) में बह व्रत अवश्य ही उसका स्वर्ग सुख पैदा करता है । १. अग्रजः वर्षीयान बरामी ज्यायान् । २. सदानारशत्रः। ३. सपरिमव । ४, कृत। ५. मद एव मन्त्री तया । ६. प्रशस्तकयोल । ७. ले स्वाधमान । ८. निद्रा। ९. विप्रः। १०. धन्वन्तरि इत्यवोचत् । ११. गृहीतं सत् । १२. उद: फसमप्तरं ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निमित्तम्' इति प्रस्ताबापातमाघार्पोक्सिमुपभुत्य, प्रणिपत्य व 'ययेवं पूरेः तहि भगवन्, अयमपि जनोऽनुगृह्यतां कस्यापि अतस्य प्रदानेन' इस्मयोवत् । तदनु 'ततः हरिः खलसिविलोकनास्वपात्तव्यम्' इसि व्रतेन कुलालाल्लयनिधानः, पयःपूराविपिष्टशकटपरित्यागाडिंगतोरगोद्गौगंगरलवनिलमृत्युसंगतिरमातनामानीकुहफलपरिहारेण यतिकान्तकिपाकफलापावितापतिः, पुनरविचार्य हिमपि कार्य मा चर्ममिति गृहीततजाति रेकदा निशि नगरनायकमिलये" नटनस्पनिरीक्षणात्कृतकालक्षेपक्षणः स्यावासमनुसृत्य शविघटितकपाटपुटसषिवन्यः स्वकीयया सविश्या विहित गाढावपइनमारमकल जातनिवातन्त्रमवलोक्योपपति शङ्कया मुहल्लातखनो भगवतोपपारितं प्रतमनुसस्मार। ''शुश्राव च देवात्तदेव 'मनागत मत्तः परतः सर, खरं मे शरीरसंबाध:११, इति गृहिणीपिरम् । तनाव पदोन वतनमय नायडौषम, तदेमा मातरमिदं च प्रियकलत्रमसंशयं विश"स्येह बुरपथावरजसारमत्र परन्तनसां भागी भवेयम्' इति जातनिर्वेकः सर्वमपि शातिलोकं यथायर्य मनोरथोत्सेक "मबापाप्य 'यत्रव देश दुरपवाबोपहतं चेतस्तत्रैव वैशे समाश्रीयमाणमावरमा निर, 1 शिलोपोशा:य स यतो निदेशावरणिमूषण
__ आचार्य से कहे हुए उपदेगा को सुनकर आचार्य श्री को नमस्कार कर धन्वन्तरि ने बाहा-'भगवन् ! यदि यह बात सत्य है तो किसी मृत-प्रदान से इस मानव का भी अनुग्रह कीजिए।
आचार्य ने कहा-तुम प्रतिदिन गब्जे ( घुटे सिर ) व्यक्ति का दर्शन करके भोजन किया करो।'
इस व्रत के ग्रहण से धन्वन्तरिको कुम्हार से निधि का लाभ हुआ (धन से भरा हुआ घट मिला) [ फिर उसने आचार्य से आटे के बने हुए पशुओं के न खाने का नियम लिया] अतः उसने दुग्ध पूर मे भरी हुई आटे के पशुओं वाली गाड़ी का त्याग किया; क्योंकि उस आटे के पशुओंमें जहरीला साँप जहर छोड़कर गया था, इससे वह मरण-संगम से बच गया । [फिर उसने आचार्य से अज्ञात नाम बाले वृक्ष के फल न खाने का नियम लिया] इससे 'अज्ञात नामवाले वृक्ष के फल नहीं खाना चाहिए' इस व्रत के ग्रहण से वह विर्षले फल-भक्षण से उत्पन्न हुए मृत्यु-संकट से बच गया। पुनः इसने 'बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिए' यह व्रत धारण किया।
एक समय रात्रि में राजमहल में नट-नृत्य-देखने में इसका काफी समय लग गया। जब यह अपने गृह जाकर बन्द किये वार किवाड़ धीरे से खोलने को तत्पर हुआ तब इसने अपनी माता द्वारा किये हुए गाढालिङ्गन वालो सोती हुई अपनी स्त्री देखी तो इसे अचानक जार को शङ्का हुई। अतः इसने उसके घात के लिए खङ्ग उठाया, उस समय इसे आचार्य द्वारा दिलाये हुए व्रत ( बिना विचारे कोई कार्य नहीं करना चाहिये' ) का स्मरण हुआ। पश्चात् भाग्योदय से इसने निम्न प्रकार अपनी प्रियाके वाक्य श्रवण किये-हे माता! यहाँ से जरा दूर हटो मुझे शारीरिक कष्ट हो रहा है, तब बाद में इसने विचार किया--कि यदि आज मैं यह बत्त ग्रहण नहीं करता तो अपनी माता और अपनी प्यारी स्त्रो को निस्सन्देह मार डालता, जिससे मैं इस लोकमें अपकीर्ति रूप धूलियों का पात्र और परलोक में दुःख देनेवाले पापोंका भागी हो जाता। इस प्रकार उसकी आत्मा में वैराग्य उत्पन्न हो गया। बाद में उसने समस्त कुटुम्बीजनों के यथोचित मनोरथ पूर्ण किए। { पश्चात् उसने जिन दोक्षा लेनेका विचार किया तब आचार्यश्री ने कहा-'जिस देश में मानव-चित्त
१. खल्याटदर्शनान् । २, भोक्तव्यं । ३. भाप्त लापभी। ४. मरणं । ५, न कर्तव्य । ६. सन् । ७. राजगहे। ८. मात्रा। ९. कुतगादावलिङ्गनं। १०. जार। ११. श्रुतवान् का गृहिणीगिरं वाणी । १२. हे अत्त हे मातः । १३-१४. परतः सर यनो में खरं कदिनं शरीरसंवाव इति । १५. मारयित्वा । १६. प्रकर्ष । १७. श्रीधर्माचार्यस्य ।
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पेष्ठ आश्वासः
२१५ सुधरोपकले तपस्यतः कान्तारदेवताविहितसपर्यातरधर्माचार्यासुरसुन्दरीकटाक्षविपक्षो बोक्षामावाय विदितवेदितव्यमंत्र:बापः सन्नम्बरे 'तपत्यम्बरमणौ स्तम्बासम्बरितोपातपलाशिमालायामेतवचलमेखलायामातापनयोगस्थितोऽनवरतप्रवर्षमानाध्यात्मध्यानावग्ध्ययोनिरतः 'किमयं "करोत्कीर्णः, कि वास्मादेव पर्वतान्तिरूः' इति विताभ्यो बभूव ।
संजातसुहृत्समालोकनकामो विश्वानुलोमोऽपि तत्परिजनात्परिजातंतत्प्रन मनण्यतिकरः 'मित्र यस्य धन्वन्तरेपो गतिः सा ममापि' इति प्रतिज्ञाप्रवरस्तोगस्य जनजनसमयस्थितिमलवबुध्यमानः 'हहो मनोरहस्य वपस्य चिराम्मिलिसोऽसि । किमिति न में गाढामङ्क पाली बबासि. किमिति न काममा लापर्यास, किमिति न सादरं चालामापृथधसे । १. इत्यादि बहुशः दादाभाष्य निज नियमानुसाई तामममि निरागसि पन्धन्तरियतीश्वरे प्ररुष्य सविाशिषतात्तिः प्रादुर्भवतीतिर्भूतरमणीयपरणिधरसमीपसमुत्पावितोटजस्य सहस्र जटिनो निकटे शतजटोजनिष्ट । धन्वन्तरिरप्यातापनयोगान्ते तस्य संबोषनाय समन्ते १५ समुपसद्य 'मस्प्रणयपावित्रामाराम विश्वानुलोम, जिनपस्थितिमनवबुध्यमानः किमित्यकाण्डे बण्डभावमादाय दुराचारप्रधानः समभूः । सहि । विहा१"र्म दुःपपकथासनाधं समयावसमनीति विरुद्ध आचरण करने से निन्द्य या अपक्रोति से नष्ट प्राय हो जाता है ( बदनाम हो जाता है ) फिर उसी देश में धारण किया हुआ आचरण निरपवाद नहीं रहता ( निन्दित ही बना रहता है )---
अतः उक्त उपदेश देनेवाले आचार्य श्री को आज्ञा से इसने 'धरणिभूषग' नामके पर्वत-समीप में तपश्चर्या करने वाले और वन देवता द्वारा को हुई पूजा वाले श्वेष्ट धर्माचार्य से देवियों के कटाक्षों की प्रतिकूल ( मुक्तिश्रीदेनेवालो ) जैनेश्वरी दोक्षा धारण कर लो। पश्चात् आम्नाय की जानने योग्य सब बातों को जानकर धन्वन्तरि मुनि जब आकाश में मध्याह्न सूर्य सन्तप्त हो रहा था तब आकाश तट व्यापि वृक्ष श्रेणी वाली इस पहाड़ को मेखला पर आतपन योग ( ध्यान ) में स्थित हुए एवं निरन्तर वृद्धिंगत अध्यात्म ध्यान ( धर्म व मुक्लन्यान ) के प्रभाव से माल जानने योग्य सूक्ष्म तत्वों में लवलीन हुए, ऐसे निश्चल मालूम पड़ते थेमानों-क्या ये पर्वत्-शिखर पर उकारे गये हैं ?
__ अथवा मानों-इसो पर्वत से निकले हुए हैं ? [इबर ] अपने मित्र के दर्शन की इच्छाचाले विश्वानुलोम ने भी, [ उसके गृह जाकर ] उसके कुटुम्बियों से अपने मित्र के दीक्षा लेने के समाचार जाने । पश्चात् उसने ऐसी दृढ़ प्रतिज्ञा को 'मेरे मित्र धन्वन्तरि को जो दशा हुई है, वह मेरो भी हो'। फिर वह धन्वन्तरि के पास आया और जैन साधुओं की आचार-मर्यादा को न जानता हुआ कहने लगा-हे मानसिक अभिप्राय के ज्ञाता मित्र ! बहुत दिनों के बाद मिले हो । अत: मेरे लिए गाढ़ालिंगन क्यों नहीं देते ? ओर मुझसे विशेष बातचीत को नहीं करते? एवं क्यों मुझसे आदरपूर्वक कुशल समाचार नहीं पूछते ?' इत्यादि अनेक बार विनयपूर्वक कहने पर भी जब धन्वन्तरि मुनि ने कुछ जवाब नहीं दिया तब वह अपने नियमानुष्ठान ( आत्मध्यान) में एकाग्रचित्त व निर्दोपो धन्वन्तरि मनीश्वर से विशेष रुष्ट होकर समीपवर्ती अकल्याण परम्परावाला और धन्वन्तरि यतोश्वरसे द्वेप करने वाला वह 'भूतरमणोन' पर्वत के समीप अपनो कुटी बनाने वाले 'सहस्रजट' नामके जटाधारी सन्यासी के निकट 'शतजट' नामका जटाधारी सन्यासी हो गया।
आत्तपन योग के समाप्त होने पर 'धन्वन्तरि' मुनि भी उसके समीप समझाने गये । और उन्होंने कहा १. पुजा। २. आम्नायः उपवंशपरम्परः । ३, 'सनम्बरस्तम्बाम्बरत' क० च०। ४. आकाशतटच्यापिवृक्षश्रेणि । ५. पर्वतदन्त चाटी। ६. निरुटः निर्गतः । ७. मित्रस्यैव । ८. धन्वन्तरि-समीपे । ९. आलिङ्गनं । १०. अतिमायेन । ११. कुचलं । १२, एकार्य । १३. समोप-अकल्याणं । १४. उटजं तुणगृह, तृणगृहस्य पर्णशालोटजोऽस्त्रियां । १५. समीपे । १६, आगच्छ । १५. मक्त्वा । १८. समयः आश्रमः ।
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२१६
यशस्तिलकधम्पूकाव्यै
कृतप्रमत्मप्रकाशोऽपि
मनोरथं सहैव सपस्यावः' इति षष्ठुदा शिक्षाशात मोतीतला 'भिय सुधामो को त चिलोट सेकं* तितज्ञपात्र इच तन्मनोऽप्राप्तसदुपदेापयोवस्थानः प्रतियोषयितुम शगुदपादमूलमनुशील्य कालेन प्रवचनोत्रि पर माचरणाधिकृतं विधि विषाय विदुषाङ्गनाजनो स्वार्यमाणमङ्गलपरम्परानल्पेऽयुतकल्पे समस्त सुरसमाजस्तूपमान महातपः परायणप्रतिभोऽमितप्रभो नाम शेषोऽभवत् ।
विश्वानुलोमोऽपि युरोपार्जितपुष्यवशाज्जीवितावसाने विषद्योत्पद्य व्यन्तरेषु गजानीकमध्ये विजयमाम-यस्य देवस्य विद्युतभाख्यया बानो बभूव । वुमरेकदा पुरंदरपुरःसरेण दिविजवृत्वेन सह नन्वीश्वरढीपात प्रत्यया याश्रयामष्टापक नियम सावमितप्रभो देवस्तं विद्युतप्रभमिममवेल्या ह्लाद मानमानसः प्रयुज्पावधिमयपूर्ववृत्तान्तः 'विद्युतप्रभ, किं स्मरति जन्मान्तरोवन्तम्' इयभाषत । विश्वतप्रभः 'अमितप्रभ, बाई स्मरामि । कि सफल चारित्राधिष्ठानावनुष्ठानान्ममेवंविधः कर्मविपाकानुरोधः । सव तु ब्रह्मचर्यवशात्कायक्लेश बीदृशः । ये च मको समये" जसवग्नि-मतङ्ग पिङ्गल कपिञ्जलादयो महर्षयस्ते तपोविशेषाविज्ञागत्य भवतोऽप्यभ्यधिका भविष्यन्ति । ततो न विस्मेतस्यम्' । अमिलप्रभः - विद्युत्प्रभ, संघस्यपि न मुञ्चसि दुराग्रहम् । तदेहि । तव मम च लोकस्य परीक्षा
+
'मेरे प्रेमरूपी पथिक के विश्राम के लिये उद्यान सरीखे हे विश्वानुलोम ! जैन धर्म की मर्यादा को न जानकर असमय में कुपित होकर क्यों कुमार्गगामी हो गये हो? इससे आइये और कुमागं की कथा वाले दस तापसाश्रम में निवास करने का मनोरथ छोड़कर साथ ही तपश्चर्या करेंगे।' इस प्रकार धन्वन्तरि ने बार-बार विलोम को समझाने का प्रयत्न किया, परन्तु वह ऐसे विश्वानुलोम का कुशिक्षा के कारण जिसके चित्त का प्रकर्ष झूठे मान से हुई मूकता से विशेष कल्लोलित हुआ है, जैसे बिलाव के बच्चे के शब्द से डरा हुआ पक्षि- शावक झूला मौन धारण करता है | सन्मार्ग पर लाने में असमर्थ हुए, क्योंकि ये चलनी जैसे उसके मनरूपी पात्र में अपना सदुपदेशरूपी दूध स्थापित न कर सके । तब धन्वन्तरि गुरु के पादमूल प्राप्त हुये और समय आने पर बागमानुसार विधिपूर्वक सन्यास मरण करके देत्रियों द्वारा उच्चारण की जाने वाली मंगल परम्परा से श्रेष्ठ 'अच्युत' नामके सोलहवें स्वर्ग में, ऐसे 'अमितप्रभ' नामके देव' हुये, जिनकी महान् तप में तत्र प्रतिभा समस्त देव समूह द्वारा स्तुति की जानेवाली है ।
'विश्वानुलोम' भी आयुष्य के अन्त में मरकर पूर्व में संचय किये हुए पूण्य से विजय नामक व्यन्तर को गजसेना' में 'विद्युतप्रभ' नामका वाहन जाति का देव हुआ । पुनः [ एक बार जब अष्टाह्निका पर्व में अमितप्रभ' देव, इन्द्रकी प्रधानता वाले देव -समूह के साथ 'नन्दीश्वर' द्वीप से वहां के चैत्यालयों को अष्टाह्निका पर्व संबंधी पूजा करके वापिस आ रहा था, तब अपने पूर्वजन्म के मित्र 'विद्युतप्रभ' नामके वाहन को देखकर प्रसन्नचित्त हुआ और अवधिज्ञान से पूर्व जन्म का वृत्तान्त जानकर कहा - 'विद्युतम ! क्या पूर्वभव का वृत्तान्त
याद है ?"
'विद्युतप्रभ ने कहा- 'अमितप्रभ ! हां, खूब याद है । किन्तु पूर्वजन्म में सपत्नीक चारित्र के पालन से मेरा कर्मदय का आक्षेप ऐसा हुआ और ब्रह्मचर्य के कारण कायक्लेश उठाने से तेरा कर्मोदय का आग्रह ऐसा हुआ । और जो मेरे शासन में 'जमदग्नि-मतङ्ग पिङ्गल व कपिञ्जल आदि महने हुए हैं, वे विशेष तपश्चर्या के प्रभाव से यहां आकर मापसे भी बड़े देव होंगे। अतः आपको आयचर्य नहीं करना चाहिए ।'
१. विश्वानुलोम 1 २. ओतुः पारः । ३. डिम्भं । ४. कल्लोलित | ५. प्रकर्षं । ६. तितङः बालनि चालनि: ७. अमत्रं पात्रं चित्तभाजने । ८. सन्मास । ९. तत्परः । १०. आग्रहः आक्षेपः । ११. मस
तितखः पुमान् । शासने 1
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पष्ट आश्वासः
पहे चित्तम्' इति विहितविवारी तो शायपि यो करहाटदेशस्य पश्चिमविभागमाश्रित्य काश्यपीतलमषतेरतुः।
तत्र १ बनेचरसन्यसोजन्याशून्ये भिकटवण्डकारण्यवने समित्कुश कुशाशयंप्रकामे बदरिकाश्रमे बालकालकृतकच्द्रतपस चन्द्रचण्ड मरीचिचिपानपरायणमनसपूर्वबाहुमेकपाबाषस्थानाग हराहममल्पोल्लसरपल्लवाविरलवल्लीगुल्मवस्मोकावरुद्धवपुषमतिप्रवद्धतासुषाधवलितशिरःश्मश्रुजटरजालस्विषमृषेः कश्यपस्य शियं जमदग्निम वलोक्य पत्ररथमिथुनकयोचिताश्लेयं बेषं विरचय तस्कूचकुला, कुटीरकोटरे निविष्टो 'कान्ते, फाञ्चनाइलमूल मेखलायामशेषशकुन्तधकचक्रवतिनो वैनतेयस्य वात राजमुतया मदनकन्वलोनामपया सह महान्विवाहोत्सवो वर्तते । तत्र भयावश्यं गन्तव्यम् । त्वं तु सखि, समासनप्रसवसमया सतो सह न शक्यसे नेतुम्" । अहं पुनस्सद्विवाहोसवामन्तरमकालशेपमामामयामि। पंपा का स यथास्ये तमा मातुः पितुश्चोपरि महान्तः शपयाः । कि बहनोक्तंन । यद्यहमन्यथा बमामि तदास्य पापफर्मणस्तपस्विनो बुरितभागी स्याम्" इत्यालापं चक्रतुः । तं च जमदग्निा
तब 'अमितप्रभ' ने कहा-'विद्युतप्रभ ! अब भी तुम अपना दुराग्रह नहीं छोड़ते हो तो आओ हम दोनों अपने-आपने धर्मारमा-लोक के चित्त को परीक्षा करें।' ऐसा पारस्परिक विवाद करने वाले वे दोनों देव 'करहाट' देश को पश्चिम दिशा में प्राप्त होकर इस पृथिवी तल पर अवतीर्ण हुए।
वहाँ पर उन्होंने भीलों को सेना के युद्ध से सहित और उस देश को पश्चिम दिशा के निकटवर्ती 'दण्डकारण्य' नामके वन में स्थित हुए एवं ईंधन, दर्भ व जलाशय को प्रचुरता वाले 'बदरिकाश्रम' में बहुत काल से कठोर तपश्चर्या करने वाले ऐसे 'जमदगि नाम के तपस्वो को देखा, जो कि 'कश्यप ऋपि के शिष्य थे। जिसका मन चन्द्र व सूर्य की किरणों के पान करने में सत्पर था। जिसकी दोनों भुजाएँ कपर उठी हुई थौं । जो एक पाद ( पैर व पक्षान्तर में किरण ) से खड़े होने के आग्रह में वैसे थे जैसे राहु चन्द्रसूर्य को एकपाद (किरण या चतुर्थाश )-युक्त करने के आग्रह वाला होता है। जिसका शरीर बहुत से शोभायमान पल्लवों, धनी लताओं, वहूतलम्बी बेलों एवं वामियों से आच्छादित ( ढका हुआ) था
और जिसके शिर व दाढ़ी के जटा-समूह की कान्ति विशेष बढ़ी हुई वृद्धावस्था रूपी सुधा ( चूने ) से शुम्र होगई थी।
इसके पश्चात् उन दोनों देवों ने [विक्रिया से ] पक्षियों के जोड़े के वृत्तान्त-योग्य संबंधवाला वेष {रूप ) धारण किया और उस तपस्वी को दाढीस्पो घोंसले की झोपड़ी की कोटर में घुस गए ।
एक दिन पक्षी ने अपनी प्रिया से कहा-'प्रिये ! सुमेरु पर्वत की मूलभेखला में समस्त पक्षि-समूह के चक्रवर्ती गरुड़राज का 'मदनकन्दली' नाम को दातराज ( पक्षी-विशेष ) की पुत्री के साथ महान् विवाहोत्सव हो रहा है, उसमें मुझे अवश्य जाना है। प्रिये ! तुम्हारा प्रसत्रकाल नजदीक है, अतः तुम्हें ऐसे समय में साए ले जाना शक्य नहीं है । उक्त बिबाहोत्सव के बाद मैं शीन लोट आऊँगा। वहाँ पर मैं बहुत समय तक नहीं ठहरूमा, यदि ठहरू तो मैं अपने मां-बाप की शपथ करता हूँ। अधिक क्या कहूँ, यदि मैं झूठ बोल तो इस पापी तपस्वी के पाप का भागी होऊंगा।' इस प्रकार उन दोनों पक्षियों ने परस्पर वार्तालाप किया।
१. पश्चिमभाम। २. इंधन। ३. दर्भ। ४. कुशाशयः जलाशयः। ५. 'समिस्कुजकुश (का) । ६. बोरक्ष
स्पाने । ७. सूर्य । ८. पत्ररथः पक्षी, पक्षिचटकः 1 ९. मालक । १०. वातराजः पक्षिविशेषः महाँलकः। ११. मया । १२. अहं भवामि ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
टिपिनि
कर्णकटुमालापमाकर्ण्य प्रबुद्धकोधः कराभ्यां तरवर्धनार्थं कथं मलितवान् । अमरवरौ विकिरावप्युटी संनिविश्य पुनरपि तं तापसमसोहलालापो निकाममुपजहसतुः । तापसः साध्वस विस्मयोपसृतमानमः 'लौ खलू पक्षिण मतः । किं तु रूपान्तरावुमा महेश्वराविव कौचिद्देवविशेषौ । तदुपगम्य प्रणम्य च पृच्छामि तावदात्मनः पापकत्यकारणम् । अहो मत्पूर्वपुण्य संपादितावलोकन दिव्यविजोर समान्ययसंभव सचनपराङ्गमिथुम, कययतां भवन्तौ कथमहं पावकम' इति । पतत्रिणी 'सपस्थिन्, आकर्णय ।
२१८
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति स्वर्गो नैव व नंव च । तस्मात्पुत्रमुखं वृष्ट्वा पश्वाद्भवति भिक्षुकः । १५५ ।। तथा - अधोत्य विधिवद्वेषान्पुत्रांश्चोत्पाद्य युक्तितः । इष्ट्वा ययंपाकालं ततः प्रवजितो भवेत् ॥ १५६ ॥
इति स्मृतिकारकीर्तितमप्रमाणीकृत्य तपस्यसि' इति । कथं तहि मे शुभाः परलोका:' । 'परिणयनकारणाबीरसपुत्रोत्पादनेन' | 'मित्र दुष्करम्' इत्यभिषाय मातुलस्य विजयामहादेवीपतेरिन्द्रपुरेश्वर्य भाजः काशिराजस्य भूभुजो भवतभाग्भूत्वा तदुहितरं रेणुकां परिणीयाविरलकलापो लुपालं कृतपुलिनास राजे मन्दाकिनीफूले महवाथमप संपाच परशुरामपिताभूत् ।
भवति धात्र श्लोकः
उनके इस कर्ण कटु वार्तालाप को सुनकर जमदग्नि तपस्वी का क्रोध भड़क उठा अतः उसने पक्षियों को पौडित करने के लिए दोनों हाथों से अपनी दाढ़ी मसली, तब दोनों भूतपूर्व देवता पक्षी भी उड़कर उसके आगे वर्तमान वृक्ष पर जा बैठे और पुनः स्पष्ट वचन बोलते हुए उस ऋषि की विशेष हसी मजाक उड़ाने लगे । [ यह देखकर ] तापसी का मन भयभीत व आश्चर्यान्वित हुआ, अतः उसने विचार किया - निस्सन्देह ये दोनों पक्षी नहीं हैं किन्तु दूसरा वेष धारण किये हुए पार्वती व शिव-सरीखे कोई देवता हैं, अतः इनके पास जाकर व प्रणाम करके अपने पापी होने का कारण पूँछु ।'
[ यह सोचकर उसने उनके पास जाकर कहा---] 'मेरे पुण्योदय से प्राप्त हुए दर्शन वाले और दिव्य व उत्तम पक्षियों के वंशरूपी उत्पत्तिगृह वाले हे पक्षियुगल ! कहिए कि मैं कैसे पापी हूँ ?"
पक्षि-युगल तपस्वी ! सुनो-स्मृतिकारों ने कहा है कि पुत्र रहित मनुष्य की सद्गति नहीं होती और न वह स्वर्ग प्राप्त करता है, इसलिए पुत्र का मुख देखकर पश्चात् भिक्षुक होना चाहिए। विधिपूर्वक वेदों का अध्ययन करके और युक्ति पूर्वक पुत्रों को उत्पन्न करके और यथाकाल यज्ञ संबंधी क्रिया काण्ड द्वारा पूजा करके पश्चात् तपस्वी होना चाहिए ।। १५५-१५६ ॥
किन्तु तुम स्मृतिकार के उक्त कथन को प्रमाण न मानकर सप करते हो ।' 'तो मेरे परलोक कैसे शुभ हो सकते हैं ?" 'विवाह करके औरस पुत्र के उत्पन्न करने से ?'
'यह क्या कठिन है' – ऐसा कहकर जमदग्नि तपस्वी ने सरीखे ऐश्वर्य का सेवन करनेवाले अपने मामा काशीराज नाम के नाम की दुहिला के साथ विवाह संबंध कर लिया और घने पत्र व प्रदेश से व्याप्त गङ्गा नदी के तट पर वर्तमान महान् आश्रम स्थान प्राप्त करके परशुराम के पिता हो गए । इस विषय में एक श्लोक है उसका अर्थ यह है
विजया नाम की महादेवी के पति स्वर्गराजा के महलों में जाकर उनकी रेणुका तृणविशेषों से अलंकृत और बालुकामय
१. पक्षिणी । २. मोहलः क्तः स्फुटवचतौ । ३. भय 1 ४ पनि । ५. कलापाः पत्राणि । ६ उपस्तुणविशेषः ।
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षष्ठ आश्वासः
अन्तस्तस्यविहीनस्य वृपा व्रतसमुद्यमः । पुंसः स्वभावभीरोः स्यान शौर्यायायुज वहः ।। १५७ ।। '
त्युपासकाध्ययने जमवतितमः प्रत्यवसादनो नाम पश्वमः कल्पः । पुनस्तौ शो मगधदेशेषु कुशान नगरो - पान्तापालिनि पितृवते कृष्णचतुवंशी निशि निशाप्रतिमाशयवदामेकाक्रिमं जिनवत्तनामानमुपासकमवलोक्य साक्षेपम् अरे दुराचाराचरणमते निराकृते प्रविदितपरमसव मनुष्यापसव, शीघ्रमिमामुध्वंशो वं शुष्क स्थाणुसमा प्रतिमां परिश्वम पायस्व । न श्रेयस्कर्ट व तवात्रावसरं पश्यावः । यस्मादावां ह्येतस्याः परेतपुर भूयस्य भूमेः पिशाचपरमेश्वरी । Raलपत्र कालव्यालावलोकनकरप्रस्थानेन । मा १० हि कार्योरन्तरायोत्कर्षो भावमलुच्छस्वच्ण्वकेलिकुतूहलबहुलान्तः करणप्रसवयोरावयोः' इत्युक्तमपि प्रकामप्रणिधानोद्युक्तमवेद यशत: कीनाशकास' 'रनिकायकायाकार घोरघन
*
२१९
जैसे स्वभाव से भयभीत मानव का शस्त्र धारण शूरता लिए नहीं होता ( व्यर्थ होता है } वैसे ही आत्मज्ञान से शून्य ( रहित ) मानव का व्रत ( अहिंसा आदि ) -पालन का परिश्रम भो व्यर्थ होता है ।। १५७ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में जमदग्नि तपस्वी को तपश्चयों से पतन करनेवाला पञ्चम कल्प
पूर्ण हुआ ।
इसके पश्चात् उन दोनों देवों ने मगध देश के राजगृह नगर को निकटवर्ती श्मशान भूमि पर कृष्णपक्ष की चतुर्दशी की रात्रि में रात्रि संबंधी प्रतिमायोग ( घमंध्यान ) धारण के अभिप्राय के अधीन हुए व अकेले 'नियत' नाम के श्रावक को देखा और उससे निम्न प्रकार तिरस्कारपूर्वक कहा – 'अरे दुराचार करने की बुद्धिवाले ! विरूप, मोक्षपद को न जाननेवाले, निन्द्यपुरुष ! ऊपर खड़े होकर शरीर सुखाकर सूखे ठूंठ सरीखे इस कायोत्सर्ग को छोड़कर भाग जा । हम लोग निश्चय से तेरा यहाँ ठहरना कल्याणकारक नहीं देखते। क्योंकि पिशाचों के स्वामी हम दोनों इस विशाल श्मशान भूमि के स्वामी हैं । इसलिए यहाँ ठहरने से तुम्हें कालरूपी सर्प से हंसे जाने के सिवाय कोई लाभ नहीं हो सकता। क्योंकि हम दोनों के अन्त:करण में श्रेष्ठ व स्वच्छन्द कोड़ा करने का विशेष कौतुहल उत्पन्न हो रहा है, इसमें विशेष विघ्न वाघा मत डालो ।
ऐसा कहने पर भी उसे आत्मध्यान में विशेष तल्लीन देखकर वे दोनों देव समस्त रात्रि तक ऐसे विघ्नों की सृष्टि रचना ) से उसे आत्मध्यान से विचलित ( डिगाने ) करने में ततार हुए, जो कि यम के वाहन महिप-समूह के पारीर को आकृतिवाले ( काले काले ) भयानक मेघों की गर्जना ध्वनि को शुरू मैं प्रारम्भ करनेवाले थे । जो प्रचण्ड बिजलीदण्ड के संघट्टन से बहुत ऊँची जाने वाली गड़गड़ाहट के शब्दसमूह से सहन करने के लिए अशक्य थे। जो सोमातीत ( मर्याद) प्रचण्ड वायु के सूत्कार-सार ( झकोरों के शब्द ) के विस्तार से महाशक्तिशाली थे । जो अत्यन्त भयानक वेताल समूह के उत्पाती कोलाहल के अनुकूल ये एवं जो अन्य साधारण मनुष्यों से करने के लिए अशक्य थे तथा जिनमें उसके मकानात जलाना और बन्धुजनों के और धन के नाश का संबंध वर्तमान था। इसी प्रकार विशेष आदर सहित मनचाही वस्तु देने से वे दोनों देव समस्त रात्रि पर्यन्त उसके आत्मध्यान को रोकने के अधीन हुए ।
१. राजगृह २ तिरस्कृतं । ३. निकृष्टा आकृतिर्यस्य वात्यः संस्कारहीनः स्यादस्वाध्यायो निराकृतिः । ४. निन्द्य मक्तिरहिवः । ५, ऊर्धशोषं 'ऊर्ध्व शुषिपुरो:' वें तुंवाचिन्युपपदे शुषः पूरेश्च णम् ऊर्ध्वशोषं । ६. शुष्कः सचासो स्थाणुः तत्समां ७ कायोत्सर्ग । ८. महत्वाः । ९. स्थिनिकरणेन । १०. आवयोर्मा कार्योः । ११. ऊर्ध्वः खन् । १२. ध्यानस्थं । १३. सुर्वतः । १४. यम । १५. महिषः ।
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२२०
यशस्तिलक चम्मकाव्ये घस्मराडम्बरप्रथममा मनिबह: प्रचण्डलहिण्डसंघट्टोपसमयावसंदोहःसहै। निःसोमसमीरासरालमत्कारसारप्रसर प्रवल: करालवतालकुलकाहलकोलाहलानुकलरनन्यसामान्यरन्पश्च परिगृहीतगृहवाहवान्यवधनविध्वंसानुषन्धः प्रत्यूह प्रायः सबहुमानस्तत्तद्वरप्रदानश्च निःशेषामप्युगामध्यात्मसमाधिनिरोपनि नौ विहितबहविघ्नावपि तमेशापभावाभ्यासात्मसाकृतान्तःकरणवाहिकरणेहितं शमहम्य निर्माणकार्मणपरमाणप्रबर्धनाबमध्यानाधालयितुं न शेफातुः । संजाते प स्वरकिरणविरो'कविनिमतान्धकारोनये प्रातमा सम्पहतोपपर्गवी प्रकामप्रसनसगो तस्तमहाभागोचितः प्रणयोगितराश्लाघ्य तस्मै जिनदत्ताय विहायोविहाराम पञ्चविंशनिवद्या विद्या वितरतुः । इयं हि विद्या सवालमवनुप्रहादम्बरविहारायासंसाधितापि भविष्यति परेषा स्वस्माविरिति । जिनदत्तोऽपि कुलशलशिसण्टमण्डजिनायसनालोकना हलिलावायः समाचरितामरानुवर्तनसमपस्तां विद्या प्रतिपच वयवर्शनोत्सवसमानीतनिखि १ "लनिलिम्पाचल" धेस्यालयस्तवबलोकनकृतकौतुकास बरसेनाय परमाप्तोपासनपटने पुष्पक्टचे प्रावात् ।
पुनरम्यमित विद्युतप्रभ, जिनदत्तोऽयमतीवादभिमतवस्तुपरिणतचित्तः स्वभावावेव च स्थिरमतिएशेषोपसर्गसहमप्रकृतिश्च । तब महदप्यपकृत कुलिश घुणकोटधेष्टितमिय न भवति समयम् । अतोऽन्यमेव कञ्चनाभि
उक्त प्रकार विशेष विघ्न करने वाले भी वे दोनों देव उस जिनदत्त को, जिसकी चित्तवृत्ति व बाह्य इन्द्रियवृत्ति की चेष्टा एकाग्नभाव के अभ्यास से आत्माधीन हो चुकी थी, ऐसे धर्मध्यान से, जो कि स्थायी सुखरूपी महल का निर्माण करने वाली पुण्य कर्म को परम्परा को वृद्धिगत करता है, विचलित करने के लिए समर्थ नहीं हुए।
इतने में जब सूर्य की किरण-समूह द्वारा अन्धकार-समूह को नष्ट करने वाला प्रातःकाल हो गया सब उन्होंने अपने उारसर्ग-समूह रोक दिये और वे विशेष प्रसन्न अभिप्राय वाले हुए और भाग्यशालियों के योग्य प्रेम-भरे वचनों से उसकी प्रशंसा करके उसके लिए आकाश में विहार करने के लिए पैलोस अक्षरों से निर्दोष आकारागामिनी विद्या प्रदान को और कहा-'यह विद्या हमारे अनुग्रह से विना सिद्ध की हुई भी तुम्हें आकाश में विहार कराने में समर्थ होगी, परन्तु दूसरों को अमुक विधि से सिद्ध को जाने पर।
जिनदत्त भी, जिसका मन सुमेरु पर्वत की शिखर को अलंकृत करने वाले अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन करने में कौतूहल-युक्त है, एवं जिसने प्रस्तुत विद्या के लिए देवों की तरह आकाश में ले जाने का संकेत किया है, उक्त विद्या प्राप्त करके पंचमेरु के समस्त चैत्यालयों को हार्दिक दर्शनोत्सव में लाया। इसके बाद उसने उक्त चैत्यालयों के दर्शनार्थ उत्कण्ठित द ईश्वर-भक्ति में निपुण पुरुष-श्रेष्ठ धरसेन श्रावक के लिए उत्त विद्या दे दी।
पुनः 'अमितप्रभ' ने विद्युतप्रम' से कहा-'विद्युतप्रभ ! यह जिनदत्त सम्यग्दृष्टियों से माने हुए जीवादि तत्वों के विषय में परिपक्व बुद्धिवाला ( दृढ़ श्रद्धालु) है और स्वभाव से निश्चल बुद्धिशाली है तथा समस्त उपसर्गों के सहन करने की प्रकृति वाला है, अत: इस पर किये जाने वाले महान् उपसर्ग भी वैसे व्यर्थ होते हैं जैसे वच पर घुग-कीट की चेष्टा व्यर्थ होतो है, अतः नवीन जिनेन्द्र भक्ति की स्थानीभूत बुद्धिवाले किसी दूसरे श्रावक की परीक्षा करें।।
ऐसा विचार करके दोनों देव वहाँ से प्रस्थान कर गए और उन्होंने मगषदेश को अलङ्कृत करने वाली मिथिलापुरी के स्वामी ऐसे 'पधारथ' राजा को देखा, जिसने ऐसे सुधर्माचार्य से, सम्पग्दर्शन पूर्वक १. प्रारम्भावई: मु. एवं 'ख' प्रती। * विनसमूहः । २. विधनरचनः । ३. रात्रि । ४. निघ्नः तत्परः । ५. न
समर्थों तो देवो । ६. दिरोकः किरणः रश्मिः । ५ सर्गः अभिप्रायः अभिप्रायो। ८ दत्तवन्तौ । ५. देववत् । १०. समस्त । ११. पंचमेकः । १२. ता विद्यां । 2. अईद्देवोयत्याहलः सम्यग्दृष्टिरित्यर्थः । १३. पर्छ ।
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पष्ठ आश्वासः
२२१ नजिनोपासनायतनचैतम्यं निकवायः' इति विमृश्योन्वलिताभ्यामेताम्यो मगधमण्डलमण्डनमिथिलापुरीनाम: पचरथो नाम नरपतिनिजनगरनिस्टलटीघरवृतदेहा' या कालगुहायां निवासरतमनमो' बोप्तप्तपसो नि:शेषानिमिवपरिक्षिवष्यमाणाधरणचातुर्यासुधर्माचार्यासवणावता' भानभावदर्शनोपशान्ताशयः सम्यग्धानमनतासममादाय तदिवस एव तदुपदेशानिश्विताहत्परमेश्वरशरीरनिरतिशय कायम हिमः कृतनियमः सकलभवनपतिस्तूपमामगुणगणोतं धोवासुपूज्यमगषन्तमुपासितु प्रतिष्ठमानः प्रभव नावसुन्दरदुन्दुभिरवाकारितनिरवशेषपरिजनः ५°समालमरसफलविष्टपनिविष्टविशिष्टादृष्टयेष्टः स च वृष्टः कहामिवपि ममोपावा'विप्रलन्थः प्रारपश्चपुरप्लोषातः पुरविध्वंसवरूपिनोमयनप्रसमप्रमापजनो जितपजम्पपरुषवर्षांपलासारादिवसति भिमशाडू लोतराकृतिमिविकृति. भिष्पद्रोतुं तथाप्यविलितचेतसमवसाय नरवरकुञ्जर मापामयप्रतिधेता ५ व्याप्ताखिलादिगारामसंगमे कर्दमे मिम अयो ताम्यां नमः सुरासुरोपसर्गसङ्ग सूचनाभिघानमात्रमाहात्म्यसाम्राज्याप श्रीवासुपूज्याप' इति तत्र निमज्जतो भूभृतो बचनमाकर्म तद्भर्योत्कर्षोरिमपत्तोषमनीषाप्रमराम्यां मधु परिमुषिताशेषविघ्नम्पतिकराम्मामाचरितसरकाराम्याम् श्रावकों के अणुव्रत धारण किये थे, जिनका मन अपने नगर के निकटवर्ती पहाड़ से वेष्टित शरीर वाली कालगुहा में निवास करने के लिए सरस ( प्रीति-युक्त ) था। जो महातपस्वी थे और जिनके चरित्र-पालन का चातुर्य समस्त देवों को सभा से पूजा जा रहा था। उनके शारीरिक अद्भुत तेज व प्रभाव के दर्शन से जिसका राग शान्त हो गया था। उसी दिन जिसने आचार्य के उपदेश से अहन्त तीर्थर के शरीर के अनोखे प्रकाश की पूजा का निश्चय किया था और जिसने नियम लिया था। जो समस्त भुवन के स्वामियों से जिमके गुण-समूह का वृत्तान्त स्तुति किया जा रहा है ऐसे वासुपूज्य भगवान् की उपासना के लिए प्रस्थान कर रहा था । आनन्दमेरी की मधुर ध्वनि में मनोज्ञ दुन्दुभियों ( आनकों-वाद्यविशेपों ) की ध्वनि से उसने समस्त कुटुम्बी जनों को बुला लिया। जिसकी विशेष पुपय-चोष्टा समस्त लोक में प्रविष्ट होने का संबंध प्राप्त करती थी। जो कभी भी शुद्र उपनवों ( विघ्नों) से पराभूत नहीं हुआ था |
पश्चात् उन दोनों देवों ने परीक्षा करने के लिए पनरथ राजा के ऊपर निम्न प्रकार को घटनाओं से विघ्न करना प्रारम्भ कर दिया, जिनमें उसके नगर का दाह, रनवास का विनाश, सेना का नाश और बलात् प्रचण्ड वायु के संचार से विशेष शक्तिशाली मेघों से उत्पन्न हुई कठोर ओलों की वृष्टि-आदि वाली भयानक जलवृष्टि पाई जाती है और जिनमें दुःख से भी दमन करने के लिए अशक्य तिहों को उत्तम आकृतियां पाई जाती हैं।
उक्त उपद्रवों के करने पर भी उन्होंने मनुष्यों में श्रेष्ठ पमरथ राजा को विचलित न होनेवाले मनवाला निश्चय किया। तब उन्होंने उसे मायामयी विघ्नवाली, अगाध और जिसने समस्त दिशाओं व बगीचों के संगम को व्याप्त किया है ऐमी कीचड़ में डुबो दिया ।
इसके पश्चात् उन्होंने कीचड़ में डूबते हुए राजा के निम्न प्रकार वचन श्रवण किये-'ऐसे वासुपूण्य तीर्थकर भगवान के लिए नमस्कार हो, जिसके नाममात्र के माहात्म्य का साम्राज्य सुरासुर देवों के
१. परीक्षावहे । २. पद्गरथी राजा यष्टः । ३. गिरिवेष्टित। ४. 'नटीप्रधृतदेहायां' इति (क)। ५. सुधर्माधार्मात
सम्यक्त्वं प्रतं चादाय। ६. भारीरतेजः । २. महिगा महि पूजापामस्पौणादिक इम' प्रत्ययः । ८. वृत्ताप्तं । ९. आनन्दभेरी । १०, समासजन्ती संबंधमायान्ती। ११. अपराभूतः । १२. उपद्रो पारधः । १३. नगरदाह । १४. सेना । १५. बायुः । १६. स्थानः । १७, ज्ञाना । १८. विघ्ने। १९. अगाधे । २०. सूदनं निराकरणं विनाशनं ।
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२२२
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'अहो नूतनस्य सम्यक्रपरस्तस्पाच्या समपथ पपरप, नंतचित्रमत्र यस्सं 'घासत्त्वाम्यामखिलपि लोकरसवृशेषु भवाघरेषु न प्रभवन्ति प्रसिभप्रभवाः द्रोपद्रवाः । यतः । एकापि समय जिनभातगति निवारयितुम् । पुण्यानि च पूरयितु दातु मुक्तिभिर्य कृसिनः ॥ १५८ ॥'
इसि निगोय, वितीयं च जिनसममाराधनवशे मवशे सर्वानापहारोऽयं हारः सकलसपन संतानो"च्छेएमिषमातो व प्रेषणं करिष्यतीति कृतसंकेतान्या तवय मभिमतावस्यानं स्थानं प्रास्था यि । विशेश्वरवरतजुम्भमाणगुणसंकथः पचरयोऽपि तसीपकृतो गणधरपदाधिकृतो भूत्या करवा चारमानमनूनरत्नत्रयता मोझामृतमात्रमजायत । भर्वात चाय लोकःउररीकृतनिहिसाहसोचितचेतसाम् । उभो लामो लोको कोश्चापं जगत्त्रयम् ॥ १५९ ॥
इत्युपासकाध्ययने जिमदत्तस्य पारथपृथ्वीनाथस्य स प्रतिहानिर्वाह्साहसी नाम पष्ठः कल्पः । उपसर्ग-संगम का विनाशक है।' फिर राजा की धैर्य-वृद्धि के कारण उन दोनों देवों को विस्तृत आनन्द व बुद्धि उत्पन्न हुई और उन्होंने समस्त विघ्न-संबंध दूर करके राजा को सन्मानित करते हुए कहा-'नये सम्यग्दर्शनरूपी रत्न के निष्कपट गृह-मार्ग पप्ररथ ! प्रतिज्ञा व धैर्य के कारण समस्त प्राणियों की अपेक्षा अनोखे आएसरीखे महापुरुषों पर हठ से उत्पन्न हुए क्षुद्रोपद्रव धर्मध्यान से डिगाने में समर्थ नहीं हो सकते । इसमें आश्चर्य नहीं।
क्योंकि अकेलो एक जिनभक्ति ही धार्मिक पुरुष को दुर्गति के निवारण करने में, पुण्य वृद्धि करने में एवं मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है ।।१५८।।
__ इसके पश्चात् दिव्य वस्तुओं के प्रति संकेत करने वाले उन्होंने उसे दो दिव्य वस्तुएँ प्रदान की। १. दिव्य हार २. दिव्य वाद्य ! 'यह दिव्य हार जैन धर्म को आराधना के अधीन हुए आपके कुटुम्बी जनों के समस्त रोग नष्ट करेगा और यह दिव्य वाद्य समस्त शत्रु-कुल का उच्छंद ( नाश ) करने योग्य है और प्रेषण ( भगा देना) करेगा।' ऐसा कहकर उन दोनों देवों ने अपने अभीष्ट स्थान में प्रस्थान किया।
इन्द्र के मुख द्वारा निरूपण किये हुए गुण-कथनवाला पद्मरथ राजा भी उस तीर्थङ्कर के समवसरण में गणधर के पद पर अधिष्ठित होकर अपनी आत्मा को रत्नत्रय (सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र) से अलङ्कृत करता हुआ मोक्षरूपी अमृत का पात्र हुआ ।
प्रस्तुत विषय के समर्थक पुष्प श्लोक का अर्थ यह है
जिन महापुरुषों की मनोवृत्ति स्वीकार किये हुए व्रतों के निर्वाह संबंधी साहस के योग्य है, उनके दोनों लोक अभीष्ट वस्तु का दोहन करने बाले होते हैं एवं उनकी इतनो विस्तृन कीर्ति होती है कि उसे व्याप्त होने के लिए तीन लोक भी अल्प हैं ।।१५९॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में जिनदत्त ब' पद्मरण राजा का प्रतिज्ञा-निर्वाह के साहस को बतलाने वाला यह छठा कल्प समाप्त हुआ।
१. संघा प्रतिज्ञा मर्यादा द्रश्या मुव्यवसायेषु सत्वं । २. हलादुत्पन्नाः। ३. वितीर्य दत्वा। ४.५, शत्रुकुलं । । ६. वाच । ७. हारः आताधं द्वयं । ८, गर्य ।
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षष्ठ आश्वास
२२३
इश्व संगमित सकलोपकरणसेनो परसेनोऽप्सु छच्छाया बन्ध्ये पविवसवासते यीमध्ये सर्वतो पाषान arrafonig suज्ञानमेदिनीषु प्रवर्तित तदाराधनानुकूखमण्डलो त्पक्षासु विक्षु निभिप्तरक्षाबलोऽवगण : कूतसकलोकरणी भाग यीविधानसमये बटविटपाये पतिब' फरकर्तितसूत्र सरसह संपादित मात्मासन्न समानरन्तरालोचितमन्तर्जस्वसंकल्पित मन्त्रवाक्य: सिक्यं निबध्य प्रबन्धेनास्तादृध्वं मुख विन्यस्त निशिताशेषशस्त्रो यथाशास्त्रं बहिनिवेशिताष्ट विषेष्टिसिद्धिस्तद्विद्या धनसमृद्ध बुद्धिर्वभूव ।
अत्रान्तरे निष्कारणकलिकार्या जनसुन्दयां निशीथ पथवतवीक्षणं नपाक्षणे मध्यदेशे प्रसिद्ध विजयपुर स्वामिनः सुन्दरीमहादेवीविलासिनः स्वकीयप्रतापहृतवानाहूतीकृतारातिसमितेररिमन्य महीपतेर्ललितो नाम भूतः समस्तव्यसनाभिनृतत्वाद्दश्यश्वव्यादसंपादित साम्राज्यपदापायः परमुपायमपश्यन्न दृश्याऽअनश्वर्जनो जितप्रज्ञः प्रतीताज्जनखोरापरसंज्ञः फिलंवमुक्तः – कुशाप्रपुर ४ परमेश्वरस्याप्रमहिष्याः ताविष्याः " सौभाग्य रत्नाकर नाम कण्ठालंकारमिवानीमेव चानीय प्रयच्छसि तदा एवं में कान्तः, अन्यथा प्रणयान्तः" इति । सोऽपि कियद्गनमेतत्' इत्युबाबा "हृत्य प्रियतमामनोरथमन्वर्थ १० कं चिकीषु निज छाय । वृश्यताशील कल बहलं लोचनयुगलं विधाय प्रमाय'
"1
१८
लिए दी थी, और अञ्जनचोर
अब धरसेन को, जिसे जिनदत्त ने आकाशगामिनी विद्या साधने की कथा श्रवण कीजिए ।
यहाँ पर समस्त साधनों की सामग्री- समूह एकत्रित करके धरसेन भी गावान्धकार से सफल पदिन ( चतुर्दशी या अमावस्या ) की रात्रि के मध्य में सर्वत्र राक्षसों की दौड़-धूप बढ़ानेवाली स्मशान भूमि पर aaraafnot faद्या आराधन में परिपूर्ण बुद्धिवाला हुआ। वहाँ उसने आकाशगामिनी विद्या के आराघना-योग्य मंडल की रचना की, समस्त दिशाओं में रक्षा मण्डल स्थापित किये । पुनः अकेले इसने सकलीकरण क्रिया सम्पन्न की, अर्थात् - भूमिशुद्धि च अङ्ग शुद्धि आदि क्रियाकाण्ड पूर्ण किया। इसके बाद उसने पूजा-विधान के समय में वटवृक्ष की शाखा के अग्रभाग पर मन में पढ़ने से निश्चित मन्त्रवाक्यवाला होते हुए, { मन में ही मन्त्रोच्चारण करते हुए) ऐसा छींका बांधा, जो कि कन्याओं के करकमलों द्वारा काते हुए सूत के हजार तन्तुओं से बनाया गया था और जिसमें अपने बैठने सरोखा योग्य मध्य स्थान था । इसके बाद उसने छीके के नीचे पृथ्वी पर समस्त तीक्ष्ण शस्त्रों को उनका अग्रभाग ऊपर की ओर करके स्थापित किया । बाद में मण्डल से वाह्य भूमि पर शास्त्रानुकूल आठ प्रकार की पूजा सिद्धि स्थापित करके उसने आकाशमा मिनी विद्या के आराधन में अपनी बुद्धि सन्नद्ध ( तैयार ) की ।
इसी बीच में एक घटना घटी, अर्थात् अब अजुनचोर की कथा श्रवण कीजिए
इसी बीच में विना कारण कलह करनेवाली 'अञ्जनसुन्दरी' नाम की वेश्या ने अर्धरात्रि के मार्ग - वर्ती वीक्षणवाले मध्य रात्रि के समय ऐसे अञ्जनचोर से कहा, जो कि मध्यदेश में प्रसिद्ध 'बिजयपुर नगर के स्वामी, सुन्दरी नाम की पट्टरानी से विलास करनेवाले और अपनी बहुल प्रतापरूपी अग्नि द्वारा शत्रु समूह को भस्म करनेवाले 'अरिमन्थ' नाम के प्रतापी राजा का 'ललित' नाम का पुत्र था, जो समस्त प्रकार के व्यसनों में कामकथा, अतः जिसकी राज्यपद की प्राप्ति में उसके बन्धुजनरूपी राक्षसों ने वाघाएँ डालीं तब उसने दूसरा उपाय न देखकर अदृश्य अञ्जन सिद्ध करके अपनी बुद्धि को शक्ति-युक्त किया, अर्थात् - उस अजन के लगाने से वह अदृश्य हो जाता था और तभी से उसका नाम अञ्जन चोर प्रसिद्ध हो गया ।
१. एकीकृल-मेलित । २. तिमिरं । ३. रात्रि ४. राक्षसाः 1 ५. सर्वां । ६. एकाकी ७ वलिः । ९. पूजा | १०. मध्यरात्रि ११. अग्निः । १२. गोत्रिण एवं राक्षसाः । १३. विनावाः । १४. राजगृह नामकायाः देव्याः । १६. शत्रुः । १७. उक्त्वा । १८. सार्थकं । १९. गत्वा ।
८. कन्या । १५. 'ताबिपी'
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२२४
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये च तन्महीश्वरगृहं गृहीततबलंकारस्तप्रभाप्रसरसमुल्लक्ष्यमाणचरणसंचारः शम्ब' शास्त्रीत्तालाननकरस्तल बरानुचररभिषक्तो निस्तरीतुमशक्तः परित्यय तगभरणमितस्ततो नगरबाहिरिकायां विहरमाणस्तं धरसेनं प्रदीप्त दीपदोप्तिक. शादषसावस्त्र निवेशभमाशान्मुसहरारोहावरोहायवेधीनमवलोक्य समुपछीषय वसं बेगमेव निविवेश-'अहो प्रलपकालान्धकाराविलायामस्थां वेलामा महासाहसिक चन् दुष्करकमकारिन्, को नाम भगवान् धरसेन:-'कल्याणबन्यो, महाभागवलस्य जिनदत्तस्य विसिपुष्पबदनियोगसंबन्धोऽहमेतबुपदेशावाकाविहारष्यवहारनिषा विद्या सिसायिपुरजापासिषम् । अञ्जनचोर:-कमियं साध्यते ? घरसेना-कथयामि, 'पूजोपचारनिक्ये शिक्येऽस्मिनिःशमुपविश्य विद्यामिमामकुण्ठकण्ठं पठन्कक शरप्रकं स्वच्छषीश्छिन्द्याववसाने गारगमनेन युज्यते ।' 'पद्येवमपसरापसर । 'रवं ह त सोन्मुख निलातनिशितशास्त्रसंपातभोतमतिर्न खलु भवसि एतत्साधने । एतधनोपयोतकर्शनेनार्थावर्जनकृतार्थः समर्थः । ताकघय मे यथार्थवादयो विद्याम् । एना साश्यामि । ततस्तेनात्महित कटुना पुष्पवटुना साधुसमर्पितवित्रः
'राजगृह नगर के राजा की 'ताविपरी' नाम की पट्टरानी का 'सौभाग्यरत्नाकर' नाम का कण्ठ-आभूषण यदि इसी समय लाकर मुझे दोगे तब तो तुम मेरे पति हो अन्यथा शत्रु हो ।'
वेश्या की बात सुनकर अञ्जनचोर ने कहा--'यह क्या कठिन है ?'
इतना उदारतापूर्वक कहकर वह अपनी प्रियतमा का मनोरथ साथंक ( पूर्ण ) धारने का इच्छुक हुआ। अपने दोनों नेत्रों में ऐसा अञ्जन, जिसके आंजने से उसके शरीर की छाया तक किसी से देखी न जासके, आंजकर राजमहल में घुसकर उसने उक्त राजमहिषी ( पट्टरानी ) का कण्ठाभरण चुरा लिया । यद्यपि अदृश्य अञ्जन के कारण उसे कोई नहीं देख सका परन्तु उस हार की रलकान्ति के बिस्तार से उसका पादसंचार [ कोट्टपाल-आदि नगर रक्षकों द्वारा ] मालूम पड़ा तब शब्द ( गाली-गिलोंज ) बोलने से उग्न मुखवाले और शस्त्र उठाने से ऊपर उठाये हुए हस्तबाले कोट्टपाल के सेवकों ने उसका पीछा किया। परन्तु उनको धोखा देकर निकल भागने में अपने को असमर्थ देखकर उसने उस आभूषण को वहीं पर छोड़ दिया।
इसके पश्चात् नगर की बाह्य भूमि पर इधर उधर भागते हुए उसने [ आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करनेवाले ] ऐसे 'धरसेन' को देखा, जिसका शरीर उजाले हुए दीपकों को कान्ति से नीचे गाढ़े हुए अस्त्रशस्त्रों पर गिर जाने के भय के प्रवेश से बार-बार छीके पर चढ़ने-उतरने से दीन था, और उस स्थान पर आकर कहा
__ 'अहो ! प्रलयकाल-सरोखे गाढान्धकार से मलिन इस रात्रि-वेला में महासाहसी पुरुषों में प्रमुख और दुःख से भी करने के लिए अशक्य कर्म करनेवाले पूज्य आप कौन हैं?
धरसेन-'मेरे हितेषी वन्धु ! भाग्यशाली चरित्रवाले जिनदत्त के साथ पूजा के अवसर पर पुष्प लानेवाले पुत्र के सरीखी प्रसिद्ध आज्ञा पालन का संबंध रखनेवाला में उसके उपदेश से आकाश-विहार के व्यवहार में प्रवृत्तिवाली ( आकाशगामिनी ) विद्यासिद्ध करने का इच्छुक होकर यहाँ आया हूँ।'
अञ्जनचोर-'यह कैसे साधी जाती है ?
घरसेन–'कहता हूं-'पूजोपचार के क्षेपण-योग्य इस छोंके में निःशङ्क (शङ्का-रहित । वैठकर' अदिराम काण्ठ से इस विद्या को पढ़ते हुए निर्मल बुद्धि वाले होकर छोंके को एक-एक डोर काटनी चाहिए, १, शब्देन उत्तालं मुखं, शस्त्रेण उत्ताल: कसे येषां । २. तलारः । ३. 'प्रदीप्रः खः । ४. प्रधान । ५.
ऊध्वमुलाग्नटित ।
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बाई आश्वासः
२२५
सम्पग्विदितवद्यः संप्रत्याशिवागारोऽऽजनचौरः स्वप्नेऽप्यपरवञ्चनाचारनिवृत्तचित्तो जिनवसः। स स्वस्ल महतामपि महान्प्रतिपन्नदेशातिवातमन्त्री जन्तुमात्रस्पाप्मन्पया म बिन्तयसि, कि पुनरिधराय समावरिसोपचारस्प तन नवनिविशेषपोषितस्यास्य धरसेनस्यान्यथा चिन्तयेत' इति निश्चित्य निविश्य च सौत्सुक्यं सिक्ये निःशशेमुपोक: स्वकीयसाहसव्यवसायसंतोषितसुरासुरानीकः सवेवर तच्छरप्रसर चिरछेव, *आससाद च खेमरपरम् । पुनपत्र जिनवत्तस्तत्र मे गमनं भूयाविति बिहिनाशासनः काञ्चनाचलमेखलानिलयिनि सोमनप्सक्नोयिनि जिनसनि जिनदत्तस्य धर्मश्रवणकृतो गुरुदेवभगवतः समोपे तपो गहोत्वावगाहितसमस्ततिशतश्यो हिमवच्छलचूलिकोमोलित केवलज्ञानः कैलास सरकान्तारगतो मुक्तिश्रीसमागमसलिभोगा'यतनो मभुव ।
भवति चात्र श्लोकः
भत्त्रपुत्रोऽक्षविक्षिप्तः शिक्षितादृश्यकम्मलः । अन्तरिक्षति प्राप निःशवोऽजनतस्करः ॥१६०|| ऐसा करने से अन्त में आकाश-गामिनी विद्या सिद्ध होगी।'
___ अजनचार-'यदि ऐसा है तो हटो हटो, क्योंकि तुम छोंके के नीचे पृथिवी तल पर कपर अग्रभाग करके गाडे हर तीक्ष्ण शस्त्रों पर गिर जाने को भयभीत बुद्धि वाले हो गये हो, इसलिए तुम इसे सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकते। क्योंकि तुम तो अपना जनेऊ दिजाने मात्र से धनार्जन करने में कृतार्थ हो । अतः मुझे यथार्थ उपाय से मनोज्ञ विद्या को कहो । मैं इसे साधता हूँ।'
यह सुनकर आत्मकल्याण को अप्रिय समझने वाले उसे धरसेन ने अञ्जनचोर के लिए अच्छी तरह विद्या समर्पित कर दो। - इसके बाद जानने योग्य बातों के ज्ञाता व मोक्ष-स्थान के निकटवर्ती ( उसो भव से मोक्ष जाने वाले ) अजनचोर ने निश्चय किया-"जिनदत्त सेठ, जिसकी चित्तवृत्ति स्वप्न में भी दूसरों को धोखा देने के व्यवहार से दूर है, निश्चय से महापुरुषों में श्रेष्ठ है और जो स्वीकार किये हुए श्रावक-व्रतों के अधीन है जब प्राणीमात्र का भी अहित चिन्तवन नहीं करता तब क्या उस घरसेन के विषय में, जिसने इसको चिरकाल तक विशेष सेवा की है और जो इसके द्वारा पुत्र-सरीखा लालन-पालन किया गया है, अहित चिन्तबन कर सकता है ?,
इसके पश्चात् बड़ी उत्कण्टा के साथ उस छोंके पर बैठ गया और निःशङ्क बुद्धि वाला होकर अपने साहस व उद्योग द्वारा सुर व असुरों के समूह को सन्तुष्ट करने वाले जस अजनचोर ने एकबार में हो समस्त छींके के धागे काट दिये और विद्या धर-पद प्राप्त कर लिया। पुनः इसने इच्छा को "कि जहाँ जिनदत्त है, वहाँ पर मेरा गमन हो' ऐसी इच्छा करने वाला वह मुमेरु पर्वत की मेखला पर स्थित च सौमनसवन में वर्तमान जिनालय में स्थित होकर आचार्य गुरुदेव से धर्म श्रवण करने वाले जिनदत्त के पास पहुंच गया और प्रस्तुत आचार्य के समीप जिन दीक्षा ग्रहण करके समस्त द्वादशाङ्ग शास्त्रों के तत्वों का ज्ञाता ( श्रुतकेवली) हो गया। पुनः उसे हिमवन पर्वत की चूलिका पर केवलज्ञान प्रकट हो गया। जब वह कैलाश पर्वत के वकुल वृक्ष के वन में प्राप्त हुआ तब वह मुक्तिश्री के साथ समागम करने में आसक आत्मावाला हुआ।
प्रस्तुत विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है
अजनचोर, जो कि क्षत्रिय राजकुमार था, और जो जुआ खेलना-आदि व्यसनों के कारण विक्षिप्त १. अजन: 1 २. शेभुपी मतिः । ३. एकवार। * प्राप्तवान् । ४. “विहिताशंसन'का । ५. प्रकटीकृत । ६. वकुलः ।
७, आत्मा । ८. धूतैन ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पासकाध्ययने निःशङ्कितत्त्वप्रकाशनो नाम सप्तमः कल्पः ।
स्यां' देवः स्यामहं यक्षः स्यां वा अनुमतीपतिः । यदि सम्यक्त्वमाहात्म्य मस्तीतीच्या परित्यजेत् ॥। १६१ ।। उषितेष माणिषयं सम्यक्त्वं भवनंः सुझेः । विक्रीणानः पुमान्स्वस्य पञ्चकः केवलं भवेत् || १६२ ॥ चिते चिन्तामणिस्य यस्य हस्ते सुरनुमः । कामधेनुर्धनं यस्य तस्य कः प्रार्थनाक्रमः || १६३ ।। चिते स्थानके यस्य चित्तवृत्तिरनाकुला । तं श्रियः स्वयमायान्ति स्रोतस्विन्य इवाम्बुधिम् ॥ १६४ ।। तत्कु "वृष्टयन्सरोद्भूतामिमामुत्र च संभवाम् । सम्यग्वनशुद्ध घमाकाङ्क्षा त्रिविधा स्वजेत् ।। १६५ ।।
श्रूयतामत्रोपाख्यानम् - अङ्ग मण्डलेषु समस्तसपरनसम रमारम्भनिष्प्रकम्पाय चम्पायां पुरि लक्ष्मीमतिमहादेवीदयितस्य विधानवाद बहुपादनित्य दोपहर कल प्रियदत्तश्रेष्ठी संपन्या गृहलक्ष्मीपन्या सफलत्रणगुणधाम्नाङ्गवतोनाम्ना सहाला व प्रात उष्टाी क्रियाकाण्डकरणाया अंकष कूटकोटिघटितपताकापडबुद्धिवाला हो गया था तब उसने अदृश्य होने का अञ्जन बनाना सीखा। जब वह विद्या-सिद्धि में निःशङ्क हुआ तब उसने आकाशगामिनी विद्या प्राप्त की ओर मुक्त हो गया । १६० ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययनमें निःशङ्कित तत्वको प्रकट करनेवाला सातवां कल्प समाप्त हुआ । अब निःकांक्षित अङ्ग का स्वरूप कहते हैं---
यदि सम्यग्दर्शन में प्रभाव है तो 'में देव हो जाऊँ' 'अथवा यक्ष हो जाऊँ' अथवा 'राजा जाऊँ' ऐसी इच्छा का त्याग करना चाहिए। जैसे छाँछ लेकर माणिक्य को बेचनेवाला मानव केवल अपनी आत्मा को उगनेवाला होता है वैसे हो क्षणिक सांसारिक सुखों के बदले में अपने सम्यक्त्व को बेचनेवाला मानव मी केवल अपनी आत्मा को ठगनेवाला है ।। १६१- १६२ ।। जिस धार्मिक सम्यग्दृष्टि के मन में चिन्तामणि है, हस्त में कल्पवृक्ष है और धन में कामधेनु है, उसे याचना से क्या प्रयोजन ? अर्थात् सम्यक्त्व चिन्तामणि, कल्पवृक्ष और कामधेनु सरीखा है, अतः सम्यग्दृष्टि को विना याचना किये सब मिलता है, ऐसा जानकर इच्छाएँ छोड़ देनी चाहिए || १३ || जिसको मनोवृत्ति धर्मलक्षणवाले योग्य स्थान को प्राप्त करके अनाकुल ( सांसारिक सुखों से निःस्पृह ) हो जाती है उसे सम्पत्तियाँ देसी स्वयं प्राप्त होती हैं जैसे नदियाँ समुद्र में स्वयं प्राप्त होती है ।। १६४ || अतः सम्यक्त्व को विशुद्धि के लिए मिथ्यात्व कर्म के उदय से होनेवाली इस लोक व परलोक संबंधी तीन प्रकार की इच्छाएँ ( देवता, यक्ष व राजा होने की अभिलाषाएं ) छोड़ देनी चाहिए ।। १६५ ।। २. नि:कांक्षित अ में प्रसिद्ध अनन्तमति की कथा
{ अब इस विषय में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए - 1
अङ्गदेश में, समस्त शत्रुओं के साथ होनेवाले युद्ध के प्रारम्भ में कम्पन -रहित ( निर्भीक ) 'चम्पा नाम की नगरी है । उसमें 'बसुवर्धन' नाम का राजा राज्य करता था । उसकी 'लक्ष्मीमति' नामकी पट्टरानी' थी । उसके यहाँ समस्त वणिकों में श्रेष्ठ 'प्रियदत्त' नामका श्रेष्टी या । उसकी गृहलक्ष्मी-सी व समस्त स्त्रियों के गुणों की स्थान 'अङ्गवती' नाम की पत्नी थी ।
एकवार प्रातः काल में प्रियदत्त सेट अपनी धर्मपत्नी के साथ अष्टाह्निका पर्व का क्रियाकाण्ड करने
१. अन्हें भवामि । २. तक्रेण । ३. धर्मलक्षणे । ४. मिथ्यादर्शनावरणङ्कर्ता । ५. देव-यक्ष राजीव ६. समग्रवणिज मध्ये श्रेष्ठः । ७. शीघ्र सपदि । ८. संयोजित ।
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षष्ठ आश्वासः
२२७ प्रशानाञ्चलनामस्मलितनिलिम्पविमानवलयं सहस्रकूट वैल्यालय पियासुः स्वकीयस्तावपस्या मनङ्गमतीमेवमन्छन्'बस्से, अभिनवविवाहभूषणसुभगहस्ते, फ्षास्ते ममुल्लिक्षितलाञ्छनेन्चुमुन्वरमुखो प्रियसली तबातीय कैलिशीसप्रकृतिरजतमतिः ।' अनङ्गामतिः-'सात.' वणिम्वन्धारकदार कोद्गीयमानमङ्गला कृति" मपुत्रकवरमानात्मपरिणयनावरणपरिणामपेशला परास्थितशुकसारिकावदनवाद्यसुन्दरे वा'सावासपरिसरे समास्ते'! 'समारपतामित्तः । 'यमादिशति तारः' । प्रियदत्तभेष्टो वृद्धभावाप्परिहासालापनपरमेष्ठी समागतां सुसामवलोक्य 'पुत्रि, निसर्गविलास. रसोत्तरङ्गा पाशापहसितामृतसर पिविषये सर्वव पत्र्यालि फाफे "लिकिलाहर' 'ये सं! प्रत्येच तव मन्मयपपाः परिणयनमनोरथाः । तद्गृह्यतो तावत्समस्तवतस्वयंपर्य ब्रह्मचर्यम् । अवेष ते साक्षी भगवानशेषश्रुतप्रकाशना शापरिधर्म कीतिमूरिः । अनन्त भतिः-'तात, नितान्तं गृहीतवती । अस्मिन्न केवलमत्र में भगवानेष सरक्षो कि तु भवानम्बा । अन्पदा तु
उडिन्ने सनकुड़मले स्फुटरसे हासे पिलासालसे किंचित्कम्पित तवापरभरप्राये ययःप्रक्रमे । कावाभिनयास्त्रवृत्तिचतुरे मेत्राधित विभ्रमे प्रावायेव च मध्य "गौरवगुणं बद्ध नितम्बे सति ॥१६६।।
के लिए शोध ऐसे 'सहस्रकूट' वैशाला के प्रति गपन कलेला नमक दृया, जिसने गगनतल को स्पर्श करनेवाले शिखरों के अग्रभाग पर संयोजित ध्वजाओं के विस्तृत वस्त्र के प्रान्तमागों के समूह से देवताओं को विमानश्रेणी स्खलित ( रोकी हुई) की है, अता उसने अपनी पुत्री को सखी अनङ्गमति से पूछा-'नवीन विवाह के आभूषणों से सुन्दर हापौवालो पुत्रो ! लाञ्छन-रहित चन्द्रसरो खे मुखवालो तुम्हारी विशेष प्यारी सखो और क्रीड़ाशील स्वभाववालो पुत्रो 'अनन्तमति' कहाँ है ?,
अनङ्गमती-'पिताजी ! जिसका मङ्गल श्रेष्ठ वैश्यों की कन्याजनों द्वारा गान किया गया है और जो गुडेरूष दर के विवाह के बहाने से अपने विवाह करने के अभिप्राय से मनोज्ञ है, ऐमी वह अनन्तमति पिजरे में बैठी हुई तोता-मेना के मुखरूपी बाजे से मनोश निवासगृह के प्राङ्गण में बैठी हुई है ।'
'उसे यहां लाओ।' 'पिताजी जैसी आज्ञा देते हैं।'
प्रियदत्त सेठ ने, जो कि वृद्ध हो जाने से परिहास-युक्त बार्तालाप करने में विशेष निपुण था, समीप में आई हुई कन्या को देखकर कहा-'पुत्री ! सदेव गुड्डी से खेलने के लिए पटुतावाले और स्वाभाविक विलासरस में उच्छलन करनेवाले नेत्रप्रान्तों से अमृत को छोटी नदी को तिरस्कृत करनेवाले तेरे हृदय में अभी से कामदेव के मार्गरूप विवाह के मनोरथ उत्पन्न हो चुके हैं, बतः समस्त व्रतों में श्रेष्ठ ब्रह्मचर्य व्रत स्वीकार करो। पुत्री! इस विषय में समस्त आगम के प्रकाशन के अभिप्रायरूपी सुवर्णवाले से भगवान् धर्म कोति सूरि तुम्हारे साक्षी है।'
अनन्तमति--पिताजी! मैंने सर्वथा ब्रह्मचर्य ब्रत ग्रहण कर लिया और इसमें केवल आचार्य ही साक्षी नहीं हैं किन्तु आप और माता जी भी साक्षी हैं।'
___ अनन्तमति की युवावस्था-उसकी कुचकलियाँ विकसित हो गई । उसका हास्य, विलास से सुन्दर १. मरहीं। २. निर्बाञ्छनचन्द्रवत् । ३. हे मुख्य । ४. कन्यागनः । ५. दोगला। ६. निवासगृहमाङ्गण । ७. नेत्रप्रान्ते ।
८. कुल्या । ९. पुत्तलिकाः । १८, क्रीडायां । ११. पटुहृदये, पुतलि काक्री ढायां पटुहन्ये । १२. इदानीमपि । १३. श्राशय एव सुवर्ण विद्यते यस्य सः। भूरि प्राज्ये सुवर्थ चलि विश्वः । १४. कम्पितभिषेण । १५ गौरवगुणं नितम्बन गृहीतं तन मध्यं सामं जातं ।
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२२८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये समायाते' मुहरुत्पयप्रयमानमामयो'माधमन्थरसपस्तसत्त्वस्थान्ते सद्यःप्रसूतसहकाराकुरकवलापायकाठकोकिलकामिनीकुहारावासरालितमनोजविजो मलयालमेशलानितीनकिन्नरमिनमोह मामोदमेषुरपरिसरम्समीरसमुक्ये विकसकोश"कुरयक प्रसवपरिमलपानसुम्भमधुकरोनिकरमडारसारपसरे बसम्ससमयावसरे सा प्रसरत्स्मरविकारा स्मरस्खलामतिगतिरनन्तमतिः सह सहरोसमूहेन मवनोत्सवविवसे योलान्दोलमसालसमानसा स्वकीयरूपातिशयसंपत्तिरकारखवावगाजविलास पीयित
कामचार प्रचारचेतसा पूर्वापसक पारपालि बोसम्बरीसनामोत्सप पक्षधरस्य विजयावनीवरस्य विद्याधरीविनोकपादपोत्पावक्षोण्या बक्षिणनेण्या किन्नरगीलनामनगरनरेनेण कुण्डलमण्डितनाम्ना घरचरेण निमाविता २
शृङ्गारसारममृतयुतिभिन्युकान्तिमिन्हीवरधुतिमनङ्गशरांचच सर्वान् ।
प्राचाय नूनमियमात्मभुवा प्रयत्मात्सृष्टा जास्त्रयवशीकरणाय बाला ॥१६७॥ और प्रीति-जनक था। जब वह वचन बोलने का आरम्भ करती थी तो उसको ओष्ठपल्लवों में कुछ कम्पन के बहाने से विशेष मनोज्ञता पाई जाती थी। उसके नेत्रों के कटाक्षों के संचार कामदेव के नवीन अस्त्रों के संचालन में चतुर थे। उसका नितम्बभाग, मध्यभाग (कमर ) को गुरुता को लेकर हो मानों-वृद्धिंगत हो गया था और इसीलिए मानों-उसका मध्यभाग ( कमर ) कृश हो गया था ॥ १६६ ॥
जब ऐसा वसन्त ऋतु का अवसर आया, जिसमें समस्त प्राणियों के मन बारम्बार उन्मार्ग में बढ़ी हुई कामदेव की पीड़ा से चंचल हो रहे थे। जिसमें नवोन उत्पन्न हई आम्र-मञ्जरियों के भक्षण से कपायल कष्ठवाली कोकिलाओं के मधुर कूजन से कामदेव की विजय प्रसारित की गई है। जिसमें ऐसी उन्नतिशील बायु का संचार होरहा है, जो कि मलयाचल के तट में प्रविष्ट हुए किन्नर देव-देवियों के जोड़ों को सुरत-क्रीडा से उत्पन्न हुई सुगन्धि से परिपूर्ण है और जिममें ऐसी भोरियों के समूह की झङ्कार ध्वनि का उत्तम प्रसरण हो रहा है, जो कि विकसित कलियोंवाले कुर वक-पुष्पों को सुगन्धि के रसपान में लुब्ध ( लम्पट ) हैं ।
तब ऐसी अनन्तमति एक बार मदनोत्सव के दिन सखियों के समूह के साथ झूला झूलने के लिए उत्कण्ठित मनवाली होकर उपबन ( बगीचा ) में गई, जिसमें कामदेव का विकार उत्पन्न हो रहा है और जिसको बुद्धि को गति कामदेव से स्खलित हुई है एवं जिसने अपनी विशेष लावण्य सम्पत्ति से समस्त लोक को स्त्रियों के शारीरिक अङ्ग-बिलास को तिरस्कृत किया है।
उसी अवसर पर उसे ऐसे कुण्डल मण्डित नाम के विद्याधर ने देखा और उसे चाहने लगा, जिसने यथेष्ट संचार में चित्त लगाया था और जो सुकेशी नाम की पत्नी के साथ आया था एवं जो।पूर्व-पश्चिम समुद्रकी वीची ( तरङ्ग) रूपी कमनीय कामिनीवाली तटी के धारक विजया पर्वत की विद्यारियों के विनोदरूपी वृक्ष की उत्पत्ति भूमिवाली दक्षिण श्रेणी में स्थित हए 'किन्नरगीत' नाम के नगर का स्वामी था।
इसके पश्चात् वह इसके रूप लावण्प से मोहित होकर निम्न प्रकार विचार करने लगा
'ऐसा मालूम पड़ता है-मानों-ब्रह्मा ने तीन लोक को वश में करने के लिए शृङ्गार का सार, अमृत को तरलता, चन्द्र को कान्ति, नोल कमल की शोभा और कामदेव के समस्त वाम ग्रहण करके ही इस वाला की सृष्टि ( रचना ) स्वयं विशेष प्रयत्न से की है' 1 १६७ ॥ १. बसन्ते । २. पीड़न । ३. ३त्पन्न 1 ४, सुरतं । ५. मध्य । ६. मोगरसदृश-रक्तसुगन्धपुष्पविशेषः । ७, सखो ।
८. कृतस्वच्छाचारगमनचित्तेन । ९. समुद्रः। १०-११. वीची। वेला एष स्त्री-सहिततटी। १२. दृष्टा । १३. ब्रह्मणा।
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षष्ठ आश्वासः
રર૬
इति विचिन्त्याभिलषिता । ततस्तामपजिही षिषणन' मुद्दनिवत्य नितितनिजनिलपसुकेशौनिवेशेन प्रयागस्यापहृत्य च पुनर्नभश्चरपुरं प्रत्यनुसरता गगनमार्गाव-प्रतिमिवृत्तपितमुकेशीवर्शनाशङ्किताशयेन ताकापसंक्रमिताबसोकनापणसघविद्याद्वपन मालपुराभ्यभागांन भावनानामनि कामने मुक्त्वा । तत्र च मृगयाप्रशंस'नमागतेन भीमनाम्ना किरातराजलक्ष्मीसीम्नावलोकिता, नीता चोपान्तप्रकोणेङ्गगुबी फलमल्लि पल्लिम् । एतद्रूपदर्शनवोप्समदनभदेन तेन स्वतः परतश्च तस्तैरुपायरात्मसंभोगसहायः प्रापिताम्यसंजातकामिता हठात्कृत कठोरकामोपक्रमेण तस्परिगृहोतव्रतस्पयश्चिायतकान्तारदेयताप्रातिहास्पियप्तिपश्वणप्लोषेण मृत्युहेतुकात पावकपष्यमानदारीरेण व 'मातः, समस्कमिममपराधम्' इत्यभिषाय धनेश्वरोपवारोपचीयमानसहचरीचित्तोत्कण्ठे शाहपुरपर्यन्तपर्वतोपकण्ठे परिहता तत्समीपसपावासितसानिौकेन पुष्पकनामकेन वणिधपतिपाकेना बलोफिता सती स्वीकृता । तेन, तेन पार्थन स्वस्थ कामानेतुमसमर्यन कोशलदेशमष्यायामयोध्या पुरि च्यालिकाभिधानकामपल्लवादस्पाः शंफल्मयाः समपिता। तयापि मदनमपसंपादनावसपाभिः कथाभिः सोयितुमशक्पा तद्वाजधानीविनिवेशस्य सिंहमहीशस्योपायनोकृता ।
इसके पश्चात् उसकी बुद्धि इसे अपहरण करने की इच्छुक हुई । पश्चात् वह अपने गृह को और लोटा और अपनी पत्नी सुकेशो को अपने गृह में ठहराकर वापिस उसो उद्यान में आकर अनन्तमति को अपहरण करके अपने विद्याधर नगर की ओर चल दिया परन्तु जब इसने आधे आकाशमार्ग से वापिस लौटी हुई और कुपित हुई अपनी पली मुकेशी को देखा तो इसका हृदय भयभीत हुआ। अतः इसने अनन्तमति के पारीर में 'अवलोकिनो' और 'पर्णलघु' नामको दो विद्याएँ संक्रमण कराई। पश्चात् उन दोनों विद्याओं ने अनन्तमति को शपुर के निकटवर्ती भोमवन' नामके वन में छोड़ दिया ।
वहाँ पर शिकार-क्रीड़ा के लिए आये हुए भीलों की राज्यलक्ष्मी के मर्यादाभूत भिल्लराज भीम ने उसे देखा और वह उसे इगदी फलों की लताओंवाली भीलों की स्थानीभूत पर्णकुटी ( झोपड़ी ) में ले गया । इसके रूप लावण्य को देखकर भिल्लराज का काममद प्रदीप्त हो गया, अतः उसने स्वयं व दूसरों की सहायता को अपेक्षावाले व अपने भोग में सहायता देने वाले अनेक उपायों से अनन्तमति से प्रार्थना की, किन्तु उसमें कामवासना उत्पन्न नहीं हुई। अतः उसने इससे बलात्कारपूर्वक कठोर कामरूपी रोग का इलाज किया, परन्तु इसके द्वारा धारण किये हुए ब्रह्मवयं व्रत को निश्चलता से आश्चर्यचकित हुई वनदेवता के माहात्म्य से भिल्लराज को पूरी झोपड़ी अग्नि से दग्ध कर दी गई, अतः जब भिल्लराज भीम का शरीर मृत्यु-जनक मयरूपी अग्नि से जलने लगा तो उसने कहा-'माता! मेरे इस एक अपराध को क्षमा करो।' बाद में उसने इसे शङ्खपुर के निकटवर्ती पर्वत के समीपवर्ती स्थान पर छोड़ दो, जो कि मीलों द्वारा की जानेवाली सेवाशुश्रूषा से उनको भिल्लनियों के चित्त की उत्कण्ठा वृद्धिंगत करनेवाला है।
बाद में अनन्तमति को वणिक् पति के पुत्र 'पुष्पक' ने देखा, जिसके द्वारा उक्त पर्वत के निकट व्यापारियों को समूहरूपी सेना बसाई गई है, परन्तु वह धनादि देकर उसे वश करने में असमर्थ रहा तब उसने उसे कौशल देश को मध्यवर्ती अयोध्या नाम को नगरी में रहनेवालो कामरूपी पल्लव को कन्दली-सरीखी 'ज्यालिका' नामकी देश्या के लिए समर्पण कर दी । जब वह वेश्या भी काम के दर्द की उत्पन्न करने की स्यानीभूत कथाओं से उसे ब्रह्मचर्य से डिगाने में असमर्थ हुई तब उसने इसे उस देश की राजधानी में निवास करने १. अपहर्तुमिच्छुमतिना। २. व्यात्रुटप। ३. कोड़ा प्रति । ४. हिंगोरक । ५. भिल्लालपपर्णकुटी । ६. परिपूर्णप
लिलदाहेन । ७. पुत्रेण। ८. वणिक्युषेण । ९. कुट्टिन्याः । १०-११, तदाजधान्यां विनिवेशी निवेशः स्थान यस्य सः सस्य । १२. प्राभुतीकृला।
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यवास्तिलकचम्पूकाव्ये माप्यलयतन्मनःप्रवेशन लिक्षिता जिप्तदुरभिसंधिना' तत्कम्पापुष्पप्रभावप्रेरितपुरवेषतापावितारतःपुरपुरीपरिजनापकारविधिमा साधु संबोध्य नियमसमाहितहवयचेष्टा विसृष्टा पितृस्वसः सुदेवीनामयायाः परपुः पितुरचाह इत्तस्य
होतनामयप्तस्य जिनेन्द्रदत्तस्योववसिप्तसमीपतिनं विरतिधल्यालयमवाप्य तत्र मिवसन्सी यमनियमोपवासपूर्वकविधिभिः अपितेन्द्रिपमनोवृत्तिमवन्ती। तस्मादनदेशनगराजिनेन्द्र वत्तं चिरविरहोत्तालं श्यालं विलोकितुमागतेन प्रियवत्तष्टिना वीक्ष्य विषयाभिलापमोषपश्षकचा सा विहितबहुशुचा पुनः प्रस्याप्य तस्मै जिनेन्द्रदत्तसुतायाहहत्ताय धातु पफान्ता-'तात. सं भवन्तं भगवन्तं भवन्तं पितरं मातरं च तां प्रमाणीकृत्य कृतनिरवषिचतुर्थ व्रतपरिग्रहा । ततः कथमहमियाना विवाहविषये परिकल्पनीया' इति निगौर्य कमलथीसका विरतिविशेषवंशरत्नत्रयकोशमभजत् ।
हासापितुदचतुर्थेऽस्मिन्यतेऽनन्तमतिः स्थिता । कृत्या तपश्य निकाक्षा कल्पं तावशमावियात् ॥१६८||
इत्युपासकाध्ययने निष्काशितस्थावेक्षणो नामाष्टमः कल्पः । थाले 'सिंह' नाम के राजा के लिए भेंट कर दी। परन्तु जब राजा सिंह भी अनन्तमति के हृदय में स्थान न पा सका तब उसने इसके साथ दुष्ट अभिप्राय का ग्रहण किया ( बलात्कार करना चाहा) तब उस कन्या के पुण्य के प्रभाव से प्रेरित हुए नगर देवता ने उस राजा के अन्तःपुर की रानियों व नगरवासियों तथा राजसेवकों को नाना प्रकार के कष्ट देकर भले प्रकार उसको रक्षा को तब राजा ने अनन्तमति को ब्रह्मचर्य-व्रत में स्थिर चित्तवाली समझकर छोड़ दिया।
इसके पश्चात् वहाँ से प्रस्थान करके वह अपने पिता की वहिन 'सुदेवी' नामवाली के पति और 'अहहत्त' के पिता सार्थक नामवाले जिनेन्द्रदत्त के गृह के समीप में स्थित आर्यिकाओं के निवासवाले चैत्यालय में प्राप्त हुई। वहां निवास करती हुई उसने यम, नियम व उपवासपूर्वक विधानों से अपनी इन्द्रियत्ति व मनोवृत्ति की चंचलता क्षोण की। एक दिन अङ्गदेश को 'चम्पा' नगरी से चिरकालोन विरह से व्याकुलित हुए अपने साले जिनेन्द्रदत्त सेठ को देखने के लिए आये हुए इमके पिता 'प्रियदत्त' सेठ ने विषयों की लालसा के त्याग से लक्ष केशोंवाली अपनी पुची अनन्तमति को देखकर विशेय शोक किया। इसके बाद आकर जब उन्होंने अपनी पुत्री अनन्तमति का विवाह जिनेन्द्रदत्त सेठ के पुत्र अहंदत्त कुमार के साथ करने का आरम्भ किया तब पुत्री अनन्तमति ने कहा-'पिताजी ! जब मैंने पूज्य आचार्य (धर्मकोति) और माता-पिताकी साक्षीपूर्वक ब्रह्मचर्य नत की दोक्षा आजन्म ग्रहण की है तब आप इस समय मेरा विवाह-संस्कार कैसे कर सकते हैं ?'
ऐसा कहकर उसने कमलश्री नाम की आर्यिका के समीप आकर विशेष आर्यिकाओं के वंश ( कुल व पक्षान्तर में बाप ) को, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन ज्ञानवारिध हातान रस ) रूस निधि प्राप्त को अर्थात्आयिका की दीक्षा धारण को।
इसके विषय में एक दलोक है, उसका अर्थ यह है--
अनस्तमति ने, अपने पिता के हास्यजनक वचनों से आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। पुनः विषयों की इच्छा का त्याग करती हुई उसने तप करके आयु के अन्त में बारहवं स्वर्ग में प्रविष्ट हुई 1 अर्थात्स्त्रीलिङ्ग-छेदकर बारहवें स्वर्ग में देव' हुई ।। १६८॥
इस प्रकार सोमदेव सूरि के उपासकाध्ययन में निःकांक्षित-तत्व को बतलानेबाला आठवाँ कल्प समाप्त हुआ। १. गृहीतदुष्टाभिप्रायेण । *. समर्पिता। २. यथार्थनाम्नः । ३. आर्यिका। ४, संजायमाना। ५. मैथुनक:
६. अमचर्य ।
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अश्वांसः
तपस्तीचं जिनेन्द्राणां नेदं 'संवाद मन्दिरम् । मजोपबाहिर सेत्येवं चेतः स्याद्विचिकित्सा १ ।। १६९ ।। स्वयं हि स घोषोऽयं मन्त्र शक्तः श्रुताश्रयम् । शीलमाश्रयितुं जन्तुस्तवचं वा नियोषितुम् ॥१७॥ स्वतः शुद्धमपि व्योम वक्ष्यम् । यः ॥ १७१ ॥ दर्शनाद्देोषस्य यस्तत्त्वाय जुगुप्सते । स लोहे कालिकालोकान्नूनं मुश्वति काचनम् ।।१७२ ।। स्वस्यान्यस्य 有 कामोऽयं बहिश्छायामनोहरः । अन्तविचार्यमाणः पादोकुम्बरफलोपमः १११७३॥ तोच देहेच याम्यं पश्यतां सत्ताम् । गाय कथं नाम वित्तवृत्तिः प्रवर्तताम् || १७४ | श्रूयतामत्रोपाख्यानम् - मतिभूतानियोषमार्ग त्रयप्रवृत मतिमन्वाकिनी सान्द्रः सौधर्मेन्द्र fिree सकलसुरसेवासम्यक्त्व रत्नगुणान्गीर्वाणगणा तुमहायोदाहरन्निदानी मिन्द्र कच्छवेशेषु मायापुरीत्यपरनाभाव सरस्प
सभावसरसमये
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[ अब निविचिकित्सा अङ्ग का निरूपण करते हैं-J
'जैन तीर्थंकरों द्वारा कहा हुआ यह उस तम सत्यता का मन्दिर न होने से प्रशंसनीय नहीं है एवं यह तपरूपी वस्तु सदोष है' इस प्रकार के मानसिक अभिप्राय को विचिकित्सा ग्लानि कहते हैं ॥ १६९ ॥ जो विवेकहीन मानव शास्त्र-निरूपित शील ( सदाचार या व्रतों का परिरक्षणरूप आचार ) के पालन में या उसका अभिप्राय समझने में असमर्थ है, इसमें निश्चय से उसी मानव का दोष समझना चाहिए न कि शास्त्र का ॥ १७० ॥ क्योंकि स्वतः शुद्ध आकाश भी जो मलिन देखा जाता है, इसमें आकाश का कोई दोष नहीं है किन्तु देखनेवाले के नेत्रों का ही दोष ( काच कामलादि ) है ॥ १७१ ॥
जी मानव धार्मिक महापुरुषों की शारीरिक मलिनता देखकर उनको रत्नत्रय - ( सम्यग्दर्शन- आदि) धारक आत्मा से घृणा करता है, वह निश्चय से लोहे का कालापन देखकर सुवर्ण को छोड़ देता है । भावार्थजैसे लोहे के कालापन का सुवणं से कोई संबंध नहीं वैसे ही शरीर की मलिनता का आत्मा ने कोई संबंध नहीं है, अतः धार्मिक मुनियों के शरीर की मलिनता देखकर उनकी मात्मा से घृणा नहीं करनी चाहिए ॥ १७२॥ निस्सन्देह अपना या दूसरों का शरीर बाहरी चमड़े की कान्ति से मनोज्ञ प्रतीत होता है परन्तु इसकी भीतरी हालत ( रक्त- आदि) का विचार करने पर तो यह उदम्बर फलों-सरीखा है || १७३ || अतः आप्तोपदेश रूप आगम को प्रमाण मानते हुए और उसके आधार से शरीर का यथार्थ स्वरूप निश्चय करनेवाले सज्जन पुरुषों की मनोवृत्ति धार्मिक पुरुषों की शारीरिक मलिनता देखकर उनसे ग्लानि करनेवाली कैसे हो सकती है ? भावार्थ - आचार्यों ने कहा है कि यह शरीर रस रक्त आदि सात धातुमय होने से मलिन है, परन्तु उसमें सम्यग्दर्शन आदि रत्नश्रय की धारक आत्मा रहती है, अतः मुनि आदि महापुरुषों के शरीर से ग्लानि न करते हुए उनके आत्मिक गुणों में अनुराग करना निर्विचिकित्सा अङ्ग है ।। १७४ ।।
निर्विचिकित्सा अङ्ग में प्रसिद्ध उद्दायन राजा की कथा — इस संबंध में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए
मति श्रुतव अवधिज्ञानरूपी तीन मार्गों से प्रवृत्त हुई बुद्धिरूपी मन्दाकिनी — गङ्गा से कोमल हुए सौधर्मेन्द्र ने समस्त देवों द्वारा सेवनीय सभा में प्रसद्ध के समय देव समूह का अनुग्रह करने के लिए सम्यग्दर्शन रूपी रत्न के गुणों का निरूपण करते हुए कहा - ' इस समय 'इन्द्रकच्छ' नाम के देश में 'शेरकपुर' नामका नगर है, जिसका दूसरा नाम मायापुरी भी है । उसमें प्रभावती पट्टरानी के विनोद का स्थान 'उद्दायन' नामका
१. इदं किंचित् श्लाघ्यं न २. सोपं अदः एतद् वस्तु । ३. 'विचिकित्सना' मु० व ६० लि० 'ख' । ४. अन्वयः - यत् श्रुताश्रयं शीलमात्र यितुं तवयं वा निवोधितुं जन्तुः न शक्तः स स्वस्यैव हि दोषः । ५. शीलार्थं आचरणप्रयोजनं ज्ञातुमसमर्थो वा ६ नभसः । ७ नेत्रस्य संबंधी ८. शास्त्रेऽनादिसिद्धान्ते ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रोरुकपुरस्य प्रभोः प्रभावतीमहादेबीविनोदायतनादौसायना मेदिनीपतेः सहर्षनशरीरगचिकित्सायामपरः कोऽपि शान्ति. मतिप्रसरो मोसलक्ष्मीफटाक्षावेक्षणालण्णपात्र मत्य क्षेत्रे नस्तीरयेत व वासवास नेशस्त्रियः पुरंपरोदितासहमानप्रशस्तत्र महामुनिसमूह प्रचारप्रचुरे नगरेऽवतीर्थ सर्वाङ्गामिनाप्रतिष्ठ'कुष्ठकोष्ठक निष्ठभूत बौद्रकोपतवेमसिलवेहिसंयोहोजनं भवणेक्षणघ्राण गरविनिर्गलबर्गल"पूयप्रवाहमूर्घस्फुरितस्फोट पुटचेष्टितानिष्टमक्षिकालिप्ताघोषशरीरमभ्यन्तरोच्छव पशुकोयो'" सरङ्गत्वगन्तरालप्रलोनालिनलमा' सीरमविच्छिन्नोग्र वतुच्छक 30न्न सृक्क सारिणीसरी सततलालासामममवरतस्रोतःसृतातीसारसंभूत वीभत्सभावमनेक शोषिशिवासिखोत्पात निपाताभिता शुचिराशिर्वर्शवपुषषिषमाषायावनामावनीपतिभवनमभात् । भूपतिरपि सप्ततलारराषसोपमध्यमध्यासीनतमसाध्यग्याधियिषुरषिषणापोनं विष्वाणाच्येषणाय निजनिलयमा लीयमाममवलोक्य सौत्सुक्यमागत्य
राजा है। उसके सरीखा सम्यग्दर्शन रूपो शरीर के रोग का इलाज करने में व ग्लानि न करने में क्षमा रूपी बद्धि का प्रसार करने वाला दूसरा कोई व्यक्ति मुक्ति रूपी लक्ष्मी के कटाक्षों के देखने के लिए परिपूर्ण पात्र स्वरूप इस मनुष्य लोक में नहीं है।
जब 'वासव' नाम के देव ने उक्त बात श्रवण की तब उसकी बुद्धि इन्द्र की बात सहन करने में अगस्य हई। इसलिए वह उसकी परीक्षा करने के लिए नामुनि-समूह के बिहार को बहुलतावाले रोहकपुर में आया और उसने अपनी बिक्रिया से ऐसा कोढ़ी मुनि का रूप धारण किया, जिसमें उसके समस्त अङ्ग सर्वाङ्गीण व्याधि ( रोग ) से अशोभन कोढ़ के संग्रहागार थे। जिसका शरीर थूके हुए कफ की बहुलसा से पीडित था जिसे देखकर समस्त प्राणी-समूह को ग्लानि उत्पन्न होती थी। जिसमें उसके श्रोत्र, नेत्र, नासिका व गले के छिद्रों से निरन्तर दुर्गन्धि पोप-प्रवाह प्रवाहित हो रहा था-बह रहा था। जिसके समस्त शरीर पर बड़े बड़े पके हुए फोड़े प्रकट रूप से दृष्टिगोचर हो रहे थे एवं उनके पकने-फूटने-आदि के कारण समस्त शरीर पर अनिष्ट मक्खियाँ भिनभिना रही थी। जिसके समस्त नख व नासिका [कुष्ठ रोग के कारण गल जाने से | से ] भीतरी सुजनवाले व विशेष पोड़ा-जनक त्वचा के मध्यभाग में विशेष रूप से प्रविष्ट हो गए थे-घुस गये थे। जिसके निरन्तर उठने वाली तीक्ष्ण खुजली से व्याप्त हुए ओष्ठों के पर्यन्त भाग रूपी नदी से निरन्तर राल टपकती थी । जिसमें निरन्तर मल-द्वार से निकली हुई नांव व मल से घृणा उत्पन्न होती थी और नगर की गलियों के अग्नभाग पर पर नीचे गिरने से निकली हुई मूष- (विष्ठा) श्रेणी के कारण जिसका शरीर दुःख से भी देखने के लिए अशक्य था।
पुनः वह भोजन करने के लिए राज-भवन में गया 1 अपने सतमंजिले राजभवन में बैठे हुए राजा ने जैसे ही असाध्य रोग से पीड़ित बुद्धि के अधीन हुए और आहार ग्रहण करने के लिए राजमवन की ओर आते हुए उस साधु को देखा तो वह बड़ी उत्कण्ठा के साथ आया और उसे पड़ गाहा | पश्चात्निर्भीक मन व चरित्रवाला राजा कृत्रिम ( बनावटी ) रोग रूपी अग्नि से पराधीन चित्तवाल और बार-बार पृथिवीतल पर गिरते हुए एवं अत्यन्त असाध्य खुजली की उत्पत्ति से जर्जरित शरीरवाले उस मुनि वेषधारी *. अश्वणं म. व या परिपूर्ण । उहायननवादन्यः । १. गमनब्यापारवत्ति । २. व्याधिना-रोगेण । ३.
अशोभित । ४. ईदृगुपिवेगं । ५. निष्ठीवन । ६ गरणो गल: 1 ७. अनवरतं । ८. फोड़ा । ९. सौजू शरेयः । १०. कोथस्तु नेवरूग्भेदे मयने भटितेऽपि च । ११. नामिका । १२. उत्पद्यमान । १३. पामा । १४. आच्छादित । १५-१६. ओष्टपर्यन्त एव मारिणी नदी । १७. सवत् । १८. मलद्वारावत् । १९. उत्पन्न । *. बहुवारं । २०. वीथी । २१. उत्पातनिपाता उत्पतननिपतक्रियाः । २२. गूथणि । २३. आहारार्थ । २४. विष्वाणं भोजनं । २५. अध्यषणमपिता, आहार-अथितार्य-ग्रहणाय । २६, आगच्छन्त ।
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घष्ठ आश्वासः
२३३ होकरपवधिमाल अपायकपरवशास्वनि सं मुहर्मुहमहीतले निपतन्स मनुनिग्नमन मरित्रः प्रकामदुर्जयखर्जना जनमर्ज रिसमा सामोरपडपिजरेग भुजपकनरेणो बानीयामीय चाधानवेश्मोवरं स्वयमेव समाचरितोधितोपकारस्तवभिसोन्मेषसारंराहायपशान्ताशना "योस्कण्ठमाकण्ठं भोगयामास ।
मायामनिः पुनरपि तन्मनोजिमा समानमानसः प्रसभमलिगम्भोरगलगृहाफुह रोज्जि' हानघोरघोषासिपासपन पणितापमन' मप्रतिध पदावमोत् । भूमिपतिरपि 'आः, करमननिष्ट, यन्मे मन्यभाग्यस्य गृहे गृहीताहारोपयोगस्पास्य मनेमनःखेदपादपवितदितिः समभूत्' इत्युप' कष्टानिष्टषष्टितषहमांसामान धिनिन्दन्मापामयामक्षिकरमण्डलितकपोलरेखादेतन्मुवावसराललालापिलानमन मिचिरावियोवरसौन्वयनिकटेनाअलिपुटेनावापाशाय मंदियामुवसृजत् । पुनश्चो चोदगी!वीणदुवर्ण रनिकरे ममिन' भनिभरारम्मपतितशरीर सप्रयलकर "स्पामसीम समुत्थाप्य जलजनितक्षालमप्रसङ्गमुत्तरोयाकूलाइवत्तदिसप्तसलिलसङ्गमङ्गसंवाहनेनासुकम्पषिभानोचितवचनरचनेन ए साधु समास्वासयत । तदनु२१ प्रमोवामृतामन्वहक्यालबालबलमोल्लसत्प्रीतिलतानिः सुरवरोनियंपवाय सद्दर्शनषवणीत्कण्ठित हरि त्रिमियो स्पावि परिषवि परगुणग्रहणामहनिघानेम विषप्रधानेन प्रापराज्यास मज्यामिजितजगत्त्रयोनिजनामधेयप्रसिद्धिको तरल केसर-सरीखे सुनहले भुजा रूप पञ्जर से उठाकर भोजनशाला के मध्य लाया और स्वयं उसका उचित उपचार करने लगा एवं उसकी इच्छा की उत्पत्ति से मनोज्ञ आहारों से कण्ठ तक ऐसा भोजन कराया, जिसमें उसकी भोजन की इच्छा शान्त हो गई।
पश्चात राजा का मानसिक अभिप्राय जानने के इच्छक मनवाले उस मायावी--बनावटी मति ने ऐसा विशेष वमन ( उल्टी ) किया, जिसमें अत्यन्त गंभीर गलेरूपो गुफा के छिद्र से वाहिर आ रहे भयानक शब्दों के परस्पर ताड़न की अधिकता से उसका शरीर कम्पित हो रहा था और जो निविधन (बाधा-रहित । था। उक्त घटना को देखकर राजा ने कहा-'आः 1 मुझे महान् कष्ट उत्पन्न हुआ, क्योंकि भाग्यहीन मेरे गृह में आहार ग्रहण करने वाले इस मुनि को मेरे मानसिक खेदरूपी वृक्ष को बढ़ाने के लिए वेदिका-सरीखी उल्टी हई।' इस प्रकार निन्दनीय व अनिष्ट चेष्टा के मार्गरूप अपनी आत्मा की निन्दा करता हुआ वह राजा मायामयो मक्खियों के झुंड से को हुई गालों की रेखा वाले इस मुनि के मुख से निकला हुआ व निरन्तर बहने वाली लार से सना हुआ अन्न अपने हाथों की दोनों अंजुलियों से, जो कि लक्ष्मी वाले कमल के मध्य में रहने वाले सौन्दर्य-सरीखों है, बार बार उठा उठाकर भूमि पर फैंकने लगा। पश्चात् वमन किये हुए व प्रकट हुए दुर्गन्धित
ओदन-समह पर मायामयी-बनावटी मूर्छा के विशेष आरम्भ के कारण गिरे हुए शरीर वाले साधु को प्रयल-सहित हाथों के बल की सीमापूर्वक उठाया। पुनः उसने उसे जल से धोने का प्रसङ्ग (संबंध) किया और दुपट्र के कोने से सुखा कर दिया ।पुनः पगचम्पी द्वारा और दयालुता के विधान वाले योग्य वचन बोलकर उसने उसे अच्छी तरह आश्वासन दिया।
पुनः राजा को वैयावृत्य देखकर मुनिवेषधारी उस देव के प्रमोटरूपी अमत से परिपूर्ण हृदयरूपी मयारी-समूह में प्रीतिरूपी लता स्थान पाकर लहलहाने लगी। फिर उसने विचार किया सम्यग्दर्शन के श्रवण में उत्कण्ठित हृदयबाली देवों की सभा में दूसरों के गुणों को ग्रहण करने के आग्रह की निधिरूप इन्द्र ने बहुत १. रोग। २. बास्वनितं मनः। ३. चित्तं । ४. उत्पत्तिः । ५. उद्धृत्य । ६. रसवतीगृह-मध्यं । ७. उपशान्ता
अशनाय उत्कण्या यस्य । ८. ज्ञातुमिच्छन् । ९. विवरात् । १०, उद्गच्छन्तः ये घोगः शब्दाः तेषां परस्परताडनं 1 ११. बहुल । १२. शरीर। १३. निर्विघ्नं पान्तः ( उन्टी)। १४, वेदिका । १५. निन्दनीय चेष्टा । उपकुष्टं सुप्तं 1 १६. श्रीः । १७. परित्यक्तवान् । १८. बोदनसमूह । १९. भमिः पूर्तत्वं, मायाश्रमता । २०. स्थाम वलं । २१. ततः पश्चात् । २२.देव २३. कीतिः ।
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वास्तिक एका
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योग्यत्वाथिमा श्रेय बुद्धिरूप वणितस्सर्थवायं मया महाभागो नियंणित प्रति विचिन्त्य प्रदितात्मकप्रसरस्समवनीश्वर गम रसवत्र सून वर्षानन्वन् भीनादोपघातशुचिभिः साधुकार पर 'य्याहारावरशुचिभिवारं रूपचार". निमिषविषय संभूष्णुभिर्मनोभिलषित संपादन जिष्णुभिस्तंस्तः पठित मात्र विधेयविद्योपदेश संदर्भ संभाव्य सुरसेध्यं देशमा विदेश ।
भवति मात्र इलोक:
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बागवानान्नीनोद्दामनः स्वयम् । भजन्निविचिकित्सात्मा स्तुति प्रापत्पुरंदरात् ॥ १७५॥ त्युपासकाध्ययने निविचिकित्सा समुत्साहनो नाम नवमः कल्पः ।
अन्तर" ""ससंचारं बहिराकारमुन्दरम् । न श्रद्दध्यात् कुतुष्टानां मतं फिराक १२ संनिभम् ॥ १७६ ॥ श्रुतिशाक्य "शिवा नायाः क्षौत्रमांसासत्राश्रयाः । यवन्ते "मख "मोक्षाय विधिरঈतव वयः || १७७ || गर्भाभमटावोयोगपट्टक २० टासमम् । मेलाप्रोक्षणं मुद्रा ४सीदण्डः करण्डकः || १७८
बड़े राज्य की कीर्ति की प्राप्ति से तीन लोक में अपने नाम की ख्याति प्राप्त करने वाले व यात सम्यग्दर्शन की प्राप्ति से धारणीय बुद्धिवाले इस राजा को जैसा इलाधित - प्रशंसा युक्त किया था वैसा ही मैंने इस महाभाग्यशाली को प्रत्यक्ष देखा। ऐसा सोचकर उसने अपना असली रूप का प्रसार प्रकट कर दिया । एवं उसमें ऐसी महान सेवाशुश्रूषाओं से राजा को विशेष सम्मानित किया, जो कि कल्पवृक्षों से होनेवाली पुष्पवृष्टि व आनन्दभेदी को ध्वनि के आघात से पवित्र हैं, एवं जो इलाधित शब्दों की बेला से पवित्र हैं, और उसने उसे मन्त्र के पाठमात्र से स्वाधीन होनेवालों विद्याओं के उपदेश सहित दिव्य वस्त्रों से सम्मानित किया । अर्थात्उस देव ने उद्दायन राजा के लिए रोहिणी प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ दीं और दिव्य वस्त्र समूह भी प्रदान किये । जो कि ( विद्यारों व वस्त्र ) देवों के स्वर्ग में उत्पन्न हुईं हैं और उसकी मनोकामना पूर्ण करने वाली हैं। बाद में वह स्वर्ग लोकको प्रस्थान कर गया ।
इस विषय में एक श्लोक है— उसका अभिप्राय यह है- 'बाल, वृद्ध और रोग पीड़ित साधु पुरुषों को स्वयं सेवा-शुश्रूषा करनेवाला और सम्यक्त्व के निर्विचिकित्सा अङ्ग को पालन करनेवाला राजा उद्दायन इन्द्र से प्रशंसित हुआ ॥ १७५ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में निर्विचिकित्सा अ में उत्साह वृद्धि करनेवाला नौवाँ कल्प समाप्त हुआ । [ अव अमूढदृष्टि अङ्ग का निरूपण करते हैं।
ऐसे मिध्यादृष्टियों (बौद्ध आदि ) के मत में श्रद्धा नहीं करनी चाहिए, जिसके मध्य में दुष्ट अभिप्राय व निन्द्य आचार भरा हुआ है, किन्तु जो बाह्य रूप में मनोज्ञ प्रतीत होता है और जो विपकल- सरीखा कष्टप्रद है || १७६ || दकमत मधु सेवन का विधान करनेवाला है और बौद्धमत मांस भक्षण का विधान करता है एवं शैवमत मद्यपान को स्वीकार करता है। वैदिकमत और शेवमन में यज्ञ ( अश्वमेध आदि ) द्वारा मोक्षनिमित्त विधि की जाती है, उसमें मधु व मांस आदि का प्रयोग है ।। १७७ || दूसरों को धोखा देनेवाला माया१. प्राप्तिः । २. धारणीयबुद्धिः । ३. लावितः । ४ दृष्टः । ५. पवित्रैः । ६. शब्द | ७. देव । ८. उत्पादकैः । ९-१०. मंत्रपाठमाÂण स्वाधीनविद्योपदेशसहित वस्त्र, अर्थात् वस्त्राणि दत्तानि, रोहिणी प्राप्तिपभूतिका: विद्याच दत्ताः । ११. अभिप्राय आचारं । १२. महाकालफल | १२. बेदेोस्वीकारः । १४. बौद्धमते मांसास्नाय: । १५ शेवते मयं । १६. शेषमतें । १७. मखेन यज्ञेन कृत्वा मोक्षानिमित्तं विधिः क्रियते । १८. भर्मि परवंचनकरः आडम्बरः । १९. गोमयलेपनं । २० तृणकटे उपवेशनं । २१. कटीविषयं वन्धनम् । २२. मोक्षर्ण । २३ हस्ते मुद्रिका डाभा वा वाह्री । २४. पाटी आपादे ब्रतिन दण्ड, पक: कुशासनम् ।
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पाठ आश्वासः
२३५ जोन रिझातालाप ! अन्तस्तस्वविहीमाना प्रक्रियेयं विराजते ॥१७१।।
को वेवः किमिदं ज्ञानं कि तत्वं कस्तपःकमः । फो बन्धः कश्य मोसो वा यत्तवं न विद्यते ॥१८॥ आप्लागमाविशुद्धत्वे त्रिया शुद्धागि देहिषु । नाभिजात'फलानाप्य विजातिष्विव जायते ॥१८॥ तत्संस्तवं प्रशंसा वा न कूर्चात कुष्टिषु । "मानविशा'नमोस्तेषां विपरिसन्न व विषमेल ॥१८२१३
भूयतामत्रोपाध्यानम्-मुक्ताफलमञ्ज विराजितविलासिनीकर्णकुण्डलेषु पाण्डशमण्डलेषु पोरपुण्याचारविरितदुरितविपरार्मा" रक्षिणमथुरायामशेषतपारा वारपारगमवषिषोधाम्युषिमन्यसाधितसकलभुवनभागम्,
"अष्टाङ्गमहानिमित्तसंपतिसमषिकषिषणाधिकरणम्, असिसभमणसंघसिहोपात्यमामबरणम्, अस्पाश्चयंतपश्चरणगोचराचार-पूर्ण आडम्बर, शरीर पर भस्म लपेटना, जटाजूट का धारण, वस्त्रविशेष का धारण, दर्भासन पर बैठना, दर्भ-सूत्र को कमर में धारण करता, प्रोक्षण ( भुमि-शुद्धि के लिए जल व दुग्ध-आदि का सिञ्चन करना ), हस्त में मुद्रिका-चारण या बाहू में डाभ-धारण, कुश-आसन, दण्ड ( पलाश-आदि-काष्टविशेष), करण्डक (पुष्प रखने का पात्र ), शारीरिक अङ्गों का जलादि से पवित्र करना, स्नान, आचमन, पितृ पूजा ( श्राद्ध द्वारा पितृतर्पण), अग्नि पूला, ये क्रियाएं आत्मतत्व से विमुख मानवों के लिए शोभायमान होती हैं, न कि तत्वज्ञानियों को ॥ १७८-१७२ ।। आम कौन हो सकता है ? आत्मा व परमात्मा का बोध करानेवाला ज्ञान कौन है ? मोक्षोपयोगी तत्व कौन हैं ? या वस्तु स्वरूप क्या है ? अर्थात्-सर्वथा एकधर्मात्मक बस्तु है ? या अनेक धर्मात्मक वस्तु है ? बन्ध किसे कहते हैं ? और मोक्ष का क्या स्वरूप है ? इत्यादि विचार नहीं नहीं है। अर्थान्-ये सब मोक्षोपयोगी सिद्धान्त' वहां नहीं हैं। अभिप्राय यह है कि मिथ्याष्टियों के मत सर्वथा नित्य व सर्वथा अनित्य-आदि एकान्त वस्तु के प्रतिपादक हैं, इसलिए उनके यहाँ बन्ध व मोक्ष का सही स्वरूप संघटित नहीं होता ॥ १८ ॥
जिस सम्प्रदाय में आस और आगम सदोष हैं, अर्थात्-यदि साप्त रागादि दोषों से दूषित है और आगम पूर्वापरविरोध-आदि दोषों से सहित है, तो उनमें विशुद्धि-प्रामाणिकता-संघटित नहीं हो सकती। उसके अनुयायियों का वाह्य क्रियाकाण्ड गुद्ध होने पर भी वैसा अभिलषित फल ( मोक्ष) नहीं दे सकता, जैसे नीच जातियों में जुलौन सन्तान उत्पन्न करने की योग्यता नहीं होती ॥ १८१ ।। इसलिए मिथ्यादृष्टियों ( बौद्धमादि) की न वचन से स्तुति करनी चाहिए और न उनकी मन से प्रशंसा करनी चाहिए एवं उनका मन्त्रबादआदि संबंधी शान ब विज्ञान जानकर विद्वान् को श्रम में नहीं पड़ना चाहिए ।। १८२ 11
[अमूढ़दष्टि अङ्ग में प्रसिद्ध रेवती रानी को कथा ] इस विषय में एक कथा है, उसे सुनिए
मोतियों की किरणों से सुशोभित हुए वेश्याओं के कर्णकुण्डलवाले पाण्ड्यदेश में नागरिक मनुष्यों के पवित्र आचरण से पापरूपी राक्षसों से रहित दक्षिणमथुरा' नामकी नगरी है। यहाँ ऐसे पूज्य 'मुनिगुप्त' नामवाले आचार्य विराजमान थे। समस्त द्वादशाङ्ग श्रुतरूपी समुद्र के पारगामी जिन्होंने अवधिज्ञानरूपी समुद्र के मध्य समस्त लोक का भाग प्रत्यक्ष करके दिखलाया था। जो अष्टाङ्ग महानिमित्तज्ञानरूपी लक्ष्मी से १. मृत्तिकादिविधिना। २. आचमनं। ३. अभिलषित ! ४. नीषजातिषु । ५, वचसा । *. मनसा । ६. मन्त्र
बादादित्रिपयं । ७. निर्बीजीकरणादिविषयं । * किरण । ८. विधुराः राक्षसाः । *, 'विधुगा' (स.)। १. समुद्रः । १०. अष्टाङ्गमहानिमित्तानि भोमस्वरशरीरव्यञ्जनलक्षणछिन्नभिन्नस्वप्नाः 1 अन्तरिम स्वरो भौममंगण्यञ्जनलक्षणं । छिन्नभिन्न इति प्राहुनिमित्तान्यष्ट नद्विदः ।। १ ।।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
'धारचातुरो चमत्कृत वित्ताचरेश्वरविरचितचरणाचंनोपचारं श्रीमुनिगुप्तमानस्याहारं भवन्तं गव गगनगमा- ' नापाङ्गामृतसारणी संबन्धवधस्य विजयार्धमेदिनीप्रस्य रतिकेलिविलासविगलितनिलिम्पललनामेखलामणौ दक्षिणश्रेणी कूटपतनाषिपत्योपान्तः सुमतिसोमम्ति नोभागतः संसारसुख परामुखप्रतिमश्चन्द्र प्रभश्चन्द्रशेखराय सुताय मिजेश्वर्य वितीयं पश्वसित देशपतिरूपः सफलाम्बर र विद्यापरिहृमौपः सप्रश्रयमभिवन्द्यानवद्यविद्यामहून् भगवन्, पौराङ्गनाशृङ्गारोत्तरङ्गापाङ्गपुनयकम्मरशरायामुतरमथुरायां जिनेन्द्र मन्दिर वन्दारुहृदयको ह्दवर्ती चतेऽहम् । मतस्तनगरीगमनाय तत्रभवता भगवतानुज्ञातव्योऽस्मि । कि च कस्प तस्यां पुरि कर्यातिथ्यम्' इत्यपृच्छत् मुनिसत्तम:'प्रियतम, यथा ते मनोरमस्तचाभि मलपयः समस्तु | संवेष्टव्यं पुनस्ततावत्रेव यबुत तत्पुरोपुरंदरस्य वरणचरणोश्वरस्य शवसदृशः सुदृशः पति"-जिन पतिचित्तचरणोपचारषवच्या महादेव्या रेवसतिगृहीतनामाया मदीयाशीर्वाच्या तथावश्य रुविशेवयविस्य सुव्रतभगवतो वन्दना च । देशयतिवरः किमपरस्तत्र भगवन्, जैनो जनो नाहित' । भगवान् - 'वेशश्रतिन्,
विशिष्ट बुद्धि के आधार थे । समस्त श्रेष्ठ मुनिसंघ जिनके चरण कमणों की उपासना करता था और जिनके चरणकमलों की पूजा का उपचार, ऐसे विद्यावर राजाओं द्वारा रचा गया था, जो कि इनकी विशेष त्राश्चर्यजनक तपश्चर्या संबंधी चरित्र - पालन की चतुरता से आश्चर्य युक्त चित्तवाले थे । उनसे ऐसे 'चन्द्रप्रभ' नाम के क्षुल्लक ने सविनय नमस्कार कर पूंछा, जो कि विद्यावरों की कमनीय कामिनियों के कटाक्षरूपी अमृत-नदी के संबंध से विशद - शुभ्र हुए 'विजयारों' पर्वत को रतिक्रीड़ा के विलास से देवियों को करवोनी के मणियों को शिथिलित करनेवाली दक्षिण श्रेणी में स्थित हुए 'मेघकूट' नामक नगर के स्वामित्व के समीप था, अर्थात् राजा था। सुमति नामकी उसकी रानी यो मोग की बुक से मिनु य वन्य जिसने अपने 'चन्द्रशेखर' नाम के राजपुत्र के लिए अपना राज्य देकर उक्त आचार्य के समीप क्षुल्लक की दीक्षा ग्रहण की थो और जिसके समीप विद्याषरों की आकाशगामिनी आदि समस्त विद्याओं की स्वीकृति श्री ।
'निर्दोष विद्या से श्रेष्ठ भगवन् ! मेरा मनोरथ नागरिक कमनीय कामिनियों के शृङ्गार से तरङ्गोंसरीखे बड़े हुए कटाक्षों द्वारा दुगुने हुए काम वागवाली उत्तरमथुरा के अनेक जिन-मन्दिरों की बन्दनाशोल हृदय वाला है, अतः उस नगरी की जाने के लिए पूज्य भगवान् की अनुमति प्राप्त करना चाहता हूँ एवं उस नगरी में किसके प्रति क्या सन्देश कहना है ? उसे भी वतला दें।'
आचार्य - 'प्रियवर | आपका मनोरथ ( अभिलाषा ) इष्ट मार्ग याला हो और वहां के लिए मेरा इतना हो संदेश है, कि उस नगर के इन्द्र सरीखे वरुण राजा की इन्द्राणी सरीखी मनोज्ञ व सम्यग्दृष्टि तथा पति (राजा) के चिन की व तीर्थंकर भगवान् के चरणकमलों की पूजा की मार्गभूत महादेवी रेवती नाम की रानी के लिए मेरा आशीर्वाद कहना तथा अपने आवश्यक ( सामायिक आदि ) विशेषों को अधीन बुद्धिवाले भगवान् (पूज्य ) 'सुव्रत' नाम के साधु के लिए मेरी वन्दना कहना' |
क्षुल्लक ने पूछा- 'भगवन् ! क्या वहाँ अन्य जैनसाधु नहीं है ?
आचार्य - 'देशव्रती ! आपको इतने विचार करने से ही पर्याप्त है, अर्थात् — विशेष पूछने को आव
१. विद्याधर- स्त्री । २. विशदः । ३. देवाः । * गृहीत ४ गनोरथः । ५. पतिश्च राजा, जिनपतिः वीतराग परमस्वामी, तयोतिचरणी, अर्थात् पत्युवित्त जिनपतेश्चरणौ उपचार (पूजा) मार्गायाः । पदवी स्थानं मार्गो वा । ६. मावश्यके तियमता । ७. बुद्धेरात्मनो वा ।
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षष्ट आश्वास:
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मलं पिकल्पेन । तत्र पतस्य भविष्यति समस्ताप्याहतेतरशारीरिसप'मा समीक्षा स्थितिः' । 'बचरविधाबीजप्ररोहमल्लक अल्लको यथाविशति विव्यज्ञानसनवान्भगवान्' इति निगीर्य गगनपर्ययावतोयं प्रोत्तरमथुरायां परीक्षेयं सावदेकाह. बाइगनिधानं भपसेमम् । तरनु परीक्षिण्ये सम्पपत्यरत्नवम्ती रेवतीमिति कृतकोतुक; कलमणिशकिशा प्रकाशकेशपेशलासरस्लनलमुत्तप्तकाशनाचिचिरशरीरगौरतानुकूलमरविन्दमफरन्दपरागपिङ्गलमयनमतिस्परवि पटवणवर्णनोगौणभानमेकाशवर्षवेशीयमतिविस्मपनीयं कपटबटवेषमाविलय सन्मुनिमतमुदसितप' यासीत् ।
वेषमु"निस्तमीक्षणकमनीयं विजात्मजसज्जातोयं विलोक्य किल स्नेहाधिक्यमालीलपत्-'हहो, निखिलानजवंशव्यतिरिक्तसुकसकृतफल्याणप्रकृतितया समस्तलोकलोचनानन्धोत्पादनपटो, पटो, कुत्तः खलु समागतोऽसि' । 'अभिनवजामनोल्लाइनवच नागदप्रयोगचरफभट्टारक, सकलकलाविलासापासविद्वजनपवित्रापाटलिपुत्रात १२ । 'किमर्मम्' । 'अध्ययनार्थम्' । 'क्याधि"जिगांसाधिकरणमन्तःकरणम्'। 'वाइमलक्षालनकरप्रकरणे व्याकरणे'। 'यचंच मदन्तिके श्यकता नहीं है, क्योंकि वहां पर पहुंचे इस जागो जान ६ नेतरलोक-सरीस्त्री स्थिति प्रत्यक्ष हो जायगी।
विद्याधरों की विद्यारूपी बीजाङ्करों के पात्ररूप ( धारक ) क्षुल्लक ने कहा-'अतीन्द्रिय ज्ञान के सङ्गम वाले भगवान् जैसी आज्ञा देते हैं, उसे प्रमाण मानता हूँ।' इतना कहकर वह आकाण-मार्ग की चर्या ( गमन ) से उत्तर मथुरा में जा पहुँचा । वहां उसने कोतहल किया कि 'मुझे सबसे पहिलं ग्यारह अङ्ग के निधि भव्यसेन मुनि की परीक्षा करनी चाहिए तत्पश्चात् सम्यग्दर्शनरूपी रन से विभूषित रेवती रानी को परीक्षा करूंगा'।
ऐसा विचार करके उसने विद्या की सामथ्यं से ऐसा बनावटी बालक-वेष धारण किया, जो (बालकवेष ) ग्यारह वर्ष के कुमार-सरीखा था। जिसका घना मस्तक घान्य-मञ्जरो के अग्रभाग-मारीखे पोले प्रकाशमान केशों से मनोहर था। जिसका गौर वर्णवाला शरीर तपे हुए सुवर्ण की कान्ति-सरीखा सुन्दर था। जिसके नेत्र, कमल के मकरन्द और पराग-जैसे पीले थे। जिसका मुख अत्यन्त स्पष्ट व महान् शब्दों के उच्चारण करने से खुला हुआ था और जो अत्यन्त आश्चर्यजनक था। पुनः वह भव्यसेन मुनि के आश्रम में गया।
मुनिवेपी ( द्रव्यलिङ्गी ) भव्यसेन ने नेत्र-प्रिय व ब्राह्मण-पुत्र-जैसे उसे देखकर निस्सन्देह विशेष स्नेहपूर्वक कहा---'समस्त ब्राह्मण-वंश के विशेष पुण्य से रची हुई कल्याणकारिणी प्रकृति के कारण समस्त लोक के नेत्रों को आनन्द उत्पन्न करने में चतुर हे कुमार! तुम कहाँ से आये हो ?
बालक-वेषी क्षुल्लक-'नवीन मानव के मन को सुख देने वाली वचनरूपी औषधि के प्रयोग करने में चरक वैद्य-सरीखे हे भगवन् ! मैं समस्त कलाओं के विलास को स्थानीभूत विद्वानों से पवित्र हुए पाटलिपुत्र (पटना ) नगर से आया हूँ।'
"किस प्रयोजन से आये हो?' 'पढ़ने के लिए'
१. समाना। २. प्रत्यक्षा । ३. मल्लकं भाजनं पारकः । ४. अहं परीक्षेमं । ५. किंयामः सालकं अपविभागमित्यर्थः ।
६. अवकीर्णाः । ७. महान्तः । ८. गृहीत्वा। २. स्थानं । १०. भव्यसेनः । ११. वचनमबोषवं तस्य प्रयोगे परकर्वद्यः । १२. आगतोऽस्म्यहं । १३, अध्ययन कर्तुमिच्छा । १४. अध्याये ।
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२३८
यवास्तिलक चम्पूकाव्ये स्वाध्यायध्यानसर्वस्व, समास्व' । 'परवा निमविवारण वाक्प्रकमाञ्से, भगवन्, साष समासें"। तबन्यसीसवतीषु कियतीचित्कालकालासु 'बचो, ललाटतपो वर्तते मार्तण्डः । सद्गृहाणेमं कमण्डलम् । पर्यदया गण्ट्राषः । गदः'यथानापयति भगवान्' । पुनर्नगरबाहिरिकायां नियंते च संपते स कपटवटमायामयशाकुरस्किरनिकोणी विहारावतोमवनिमफार्षीत् । तदर्शनादाकृतियतिरमि मनाग्थ्यलम्बिष्ट'। बटु:--'भगवन, किमित्यकाण्ड विलम्स्यते । 'घटी, प्रवचने' किलते शप्पा कुराः स्थावराः प्राणिनः पठचन्ते'। 'भगवन्, श्वासादिषु मध्मे कितियपुग:५० पल्वमीयां प्राणः । केवलं रलाइ फुरा इन घराविकारा होते शष्पा कुराः'। यषमुनि:--'साध्ययमभिदधाति' इति विधिनय विहत्य : निःशक निष्पाक्तिनी गहारो विरहित स्याहारः करेण किमायभिनयामेरमनेनोक्तः- 'भगवन, शिमिर्च मौनेनाभिानीपतेजिनरूपाजीव:
'आपका मन किस विषय के मध्ययन करने की इच्छा का स्थान है ?' 'मेरा मन वाचनिक दोषों को प्रक्षालन करने वाले अध्याय-युक्त व्याकरण के अध्ययन का
'यदि यह बात है तो हे स्वाध्याय व ध्यान के सर्वस्व बालक ! तुम मेरे पास ही ठहगे।'
'परवादियों का मद चूर-चूर करने वाली वचन पद्धतिरूपी खनयष्टि से सुशोमित है भगवन् ! आपके पास ही अच्छी तरह ठहरता है।'
इसके बाद जब कितनी काल-कलाएँ" ( समय-विभाग ) व्यतीत हो चुकीं तब एक दिन भव्यसेन मुनि ने उससे कहा
__'बालक ] सूर्य मस्तक को सन्तप्त करने वाला हो गया है, अर्थात्-मध्याह्न की बेला है, अतः इस कमण्डलु को ग्रहण कर चलो पर्यटन करके वापिस आ जाय ।'
'भगवान् जैसी आज्ञा देते हैं।'
मुनिवेषी भव्यसन के नगर के वाह्यप्रदेश में जाने पर उस कपटवेषी बालक ने बिहार भूमि को वालतुणों के अङ्करामह से व्याप्त (आच्छादित ) कर दिया। उसे देखकर मुनिवेषी भी कुछ समय तक विलम्ब करके ठहर गया।
बालक-'भगवन् ! असमय में बिलम्ब क्यों करते हो?'
भन्यसेन-'बालक ! आगम में ये घास के अङ्कर निश्चय से स्थावर जीव (एकेन्द्रिय ) कहे जाते हैं ।'
बालमा-'भगवन् ! श्वास-आदि दश प्राणों में से इनमें निश्चय से कितने प्राण होते हैं ? पास के ये अङ्कर तो केवल रत्नाकरों-सरीखे पार्थिब हैं।'
मनिवेषी—'यह बालक सत्य कहता है ऐसा विचार कर उस मुनिवेषी ने निःश होकर उस वालतणों से व्याप्त पृथिवी पर विहार करने शोच ( मलोत्सर्ग) से निवृत्त होकर मोन धारण करके हाथ से कुछ संकेत किया तो बालक ने कहा१ तिष्ठ। २ मिय्यावादि। ३. वापक्रम एव असिः स्वगो यस्यासो सस्य मंबोधनम् । ४ तिष्ठामि । ५. पर्यटनं कृत्वा। ६. वेषधारिणि । ७. वालतृण । ८. सिद्धान्ते । ९. दनाप्राणेषु मध्ये । १०. कतितमः । ११. पुरोष । १२. मोनी। १३. संशो कुर्वन् । १४. संझा क्रियते ।
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पष्ठ आश्वासः
२३९ 'अभिमानस्य रमा प्रतो 'शार्य श्रुतस्य च । वनन्ति मुनयो मौनमदनारिषु कर्मसु ॥१८॥
इति मौनफलमविकल्प्य मातजल्प: 'द्विजारमज, समन्धिप्य समानीयतामावा' यस्कायो गोमयो भसित. पटलमिष्टकाशकलं वा' । 'भगव, अखिललोकशीचीमितप्रवृत्तिकायां मत्तिकायों को दोषः। 'बटो, प्रवचनलोचमनिया यिकास्तकायिकाः किल तत्र सन्ति जीवाः' । 'भगवन, शानदर्शनोपयोगलक्षणो नोवगुणः' । न च सेषु तवय मुपलभ्यते' । 'यवमानीयला मृत्स्ना कृत्स्नाऽसुमाग्या' । अनुस्लमाषर्य कुणिकामयति । मुषामुनिजलविकलं कमण्डस फरेणाकलय्या 'बटो, रिक्तोऽयं कमण्डल'। भगवन, इदमुरकगिर ले तल्ले पारने'। 'दो, पातपानीगाटा महबार, म किमिति यतो जन्तवः सन्ति । 'भगवन, तदप्तस्यमिह स्वच्छतया बिहायसीय पसि तवनवलोकनादात' बहिस्तन्त्र संयमिनि सत्याभिनिवेशव "शिकाशयश्मनि तदेशमुहिमपाश्रितशीचे सवरेण चिन्तितम् । अतएव भगवानतीन्द्रियपदार्थप्रामानशेमुधों प्राप्तः । श्रीमुनिगुप्तोऽस्य किमपि न वाचिक प्राहिणोत् । पामावस्मिन्प्रवीपति
भगवन् ! आप मौन से संकेत क्यों करते हैं ?
यह सुनकर नग्नवेष से उदगोषण करने वाले मुनिषेषी ने कहा-'स्वाभिमान ( याचना न करना) की रक्षा के लिए वे शास्त्र की पूजा के लिए भोजनादि क्रियाओं ( भोजन, स्नान, सामायिक-आदि छह कर्म, शोच-आदि ) में मुनिगण मौन धारण करने को कहते हैं ।। १८३ ।।'
मौन के इस फल का विचार किये बिना ही मुनिवेषी भव्यसेन बोल उटा–'बाह्मण-पुन ! कहीं से खोजकर सूग्या गोबर, राख-समूह, या इंट का टुकड़ा लाओ ।'
वालक-'भगवन् ! समस्त लोक की शुद्धि के योग्य प्रवृत्तिवाली मिट्टी में क्या दोष है ?' 'बालक ! मिट्टी में निश्चय से शास्त्ररूपी नेत्रद्वारा देखे गए पुधिवोकायिक जीव रहते हैं।'
'भगवन् ! जीव का लक्षण तो ज्ञानोपयोग व दर्शनोपयोग है परन्तु मिट्टी में ये दोनों उपयोग नहीं पाये जाते।'
'यदि ऐसा है तो समस्त प्राणियों द्वारा सेवन-योग्य मिट्टी लाओ।' बालक ने मिट्टी लाकर [ जल-शून्म ] कमण्डलु समर्पण कर दिया । हाथ से कमण्डलु को खाली जानकार मुनिबेपी ने कहा-'बालक! यह कमण्डलु तो खाली है ।' 'भगवन् ! जल तो सामने कोचह-रहित तालाब में है।'
'बालक ! वस्त्र से विना छाने हुए जल को ग्रहण करने में महान् पाप है, क्योंकि उसमें जीव होते हैं।'
'यह बात बिलकुल झूठ है। क्योंकि स्वच्छ होने से आकाश-सरीखे इस जल में जीव दिखाई नहीं देते।
यह सुनकर उस बाह्य सम्प्रदाय के मुनि ने, जिसका अभिप्रायरूपी भवन तत्वज्ञान के अभिप्राय से शून्य है, उस तडाग पर जाकर शुद्धि निया कर ली तब विद्याधर ने विचार किया कि इसीलिए अतीन्द्रिय
१. पूजाघ । २. दृष्ट्वा । ३. मावायचायः शुष्यच्छरीरः ( शुटका: ) ये 4 गोषणे इत्यस्थरूपं । ४. भस्मपोटरा । ५. निवायो दर्शनं स विद्यने येषामिति । प्रने धन इति वः यस्येकः तस्मैकादशः । दृष्टाः इत्यर्थः । ६. ज्ञानदर्शनोपयोगवयं । ७. अकर्दमें। 4. तहागे। ९. मादीनवं दोषः कर्मानपदोपः। १०. संप्रदायं । ११. अभिप्राय । १२. चशिक शून्यं । १३. सन्देश 1
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२४०
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये पवनमिवान्तस्तस्वसर्ग' निसर्गमलोमस मानसं बहि:प्रकाशनसरसं च । ममति चात्र श्लोकः--
जले तलमित्र तिचं वृषा सत्र बहिचति । रसवत्स्यान्न पपान्तर्योधो वे घाय घासुन्तु ।।१४.४।।
इत्युपासकाध्ययने भवसेनधिलसमो नाम शमः कल्पः । परीक्षितस्ताबन सभाविभविष्यद्भबसेनो भवसेनस्तविवानी भगवमाशोविसावपोत्पादवसुमतों रेवती परीक्ष इत्याक्षिप्ताम्त:करणः परस्य"पुर परधिहिंसां शोतंसाबासर्वविकान्तरालकमलकणिकास्तीर्ण"मगाजिना'तीनपर्व पर्यायाम, समर सरः संजातसरोजसूप्रतितोपवीतयूतकायम् , अमृतकर कुरकुल "कृष्णसारकृति कृतोत्तरा''सङ्गासनिवेशम , अनबरतहोमारम्भसंभूतभसिलपाणुपुण्डकोरकटनिटस' वेशम् , मम्बरवरतरङ्गिणोज लक्षालितकल्प कुजवल्कलवलि.
पदार्थों को माणित करनेवाली अनिमाले श्री मुनिलावायं ने इसे कुछ मी सन्देवा नहीं भेजा; क्योंकि इसका मन दीपक की बत्ती के अग्रभाग-सरोखा आत्मतत्व के निश्चय में स्वभाव से हो कलुपित है परन्तु वाह्य पदार्थों को प्रकाशित करने में प्रीति-युक्त है।
इस विषय के समर्थक एक श्लोक का अथ यह है
मानव का जल में तैल-मरीखा पाह्याचार में ही प्रकाशमान शास्त्रज्ञान व्यर्थ है: क्योंकि उसमें {परी शास्त्रज्ञान में ) मेदज्ञान के लिए अन्तर्बोध ( आत्मज्ञान ) नहीं होता। जैसे लोह-आदि धातुओं के भेद के लिए पारद में अन्तर्वोध-भीतरी प्रवेश होता है, जिससे लोहादि धातुएं सुवर्ण हो जाती हैं ॥ १८ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में भव्यसेन मुनि की आगम-विरुद्ध प्रवृत्ति को बतलानेवाला यह दशा कल्प समाप्त हुआ।
तदनन्तर 'चन्द्रप्रभ' क्षुल्लक ने मन में विचार किया-कि 'मैंने ऐसे भव्यसन को परीक्षा कर लो, जो कि हठ से भविष्य में प्रकट होनेवाली संसाररूपी मैना से युक्त है, अब पूज्य मुनिगुप्ताचार्य के आशीर्वादरूपी वृक्ष की उत्पत्तिभूमि रेवती रानो की परीक्षा करता हूँ।' इस प्रकार आकृष्ट मनवाले उसने नगर { उत्तर मथुरा) की पूर्व दिशा में ऐसा कमलोत्पन्न ब्रह्मा का रूप ग्रहण करके समस्त नगर को खुब्ध ( क्षोभयुक्त) किया, जो कि [ वाहनरूप ] हंस की पीठ को मुकुटप्राय आवासदाली वेदिका के मध्य में कमल-कणिका पर बिछे हुए विस्तृत मृग-वर्म पर पर्यङ्कासन से बैठे हुए थे। जिनका शरीर मानसरोवर में उत्पन्न हुए कमलतन्तुओं से बने हुए यज्ञोपवीत से पवित्र था।
जिनके उत्तरासन ( दुपट्टा ) की रचना, चन्द्र के लाञ्छन में वर्तमान मग के वेश में उत्पन्न हए मृग के धर्म से की गई थी। जिनका ललाटदेश ( मस्तक ) निरन्तर होने वाले होम के प्रारम्भ से उत्पन्न हुई भस्म के शुभ्र वृत्ताकार (गोल ) तिलक से उत्कट था। जिनका जटाजूट देव-गंगा के जल से प्रक्षालित किये हुए । धोये हुए ) कल्पवृक्ष के वक्कलों से बने हुए उपरितन वस्त्र-समूह से वेष्टित था । जिनके चारों हस्त देवगंगा के तट पर उत्पन्न हुए दर्भाकर, रुद्राक्षमाला, कमण्डलु व योगमुद्रा से अङ्कित-चिह्नित थे। १. सर्गे निश्चय । +. शास्त्र । २. वाह्याचार । ३. पारदवत् । ४ भदाय । ५. हठात् प्रकटीभविष्यन्ती संसार
सेना यस्य सः । ६. व्याक्षिणचित्तः । ७. नगरस्य । ८. पूर्वदिगि । ९. अंशशब्देनाथ पृष्ठं तस्य पृष्ठस्य उत्तंस: मुकुटप्रायः योऽसौ आवासः । १०. विस्तृत । ११. मृगपर्म। १२. मानसरोबर । १३-२८. चन्द्रस्य लाम्छने यो भूगो वर्तते तस्य वंशोत्पन्नस्य मृगस्य चर्मणा कृष्णसार-मृग, कृति-चर्म उत्तरासनरचनम् । १९. वृत्ताकार-तिलकं । २०. ललाट । २१. देवगङ्गा । २२. कल्पवृक्ष ।
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षष्ट आश्वास तोतरी 'यप्रतानपरिवेष्टितजदावलयम्, अमृताधःसिन्धुरोपःसंजालकु सपाङ्कराक्षमालाकमण्डलयोग मुद्राङ्कितकरचतुष्टयम्, उपासनसमायात-मतङ्ग-भृगु-भर्गभरस-गौलम-गर्ग-पिङ्गल-पुलह-पुलोम-पुलस्ति-पराशर-मरोधि-विरोमन“पञ्चरोकानीकास्वाद्यमानश्वनारविन्दकन्दरविनिर्गलनिखिलवेदमकरन्दसंबोहम्, उभयपाश्वविस्थितमूलि मानसिलकलाविलासिनीसमाजसंचार्यमाणचामर प्रधाहम, उदारनाबदारदमुनिना मन्यमानप्रतीहारव्यवहारम्, अम्भोभवों"बाकारमासाद्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं शोभयामास । सापि बिनेश्वरचरणप्रणयमण्डपमानमा यो पक्षणपरणीश्वरमहादेबी नपतिपुरोहिताप्तमुइन्तमाकर्ण्य त्रिषष्टिालाकोन्मेषेषु पुरुषेषु मध्ये ब्रह्मा नाम न कोऽपि भूयते । सथा
मात्मनि मोमें गाने वृत्ते ताते च भरतराजस्य । ब्रह्मेति गो: प्रगीता म पापरो विद्यते ब्रह्मा ।।१८५॥' इति धानुस्मृत्याऽविस्मयतिरतिष्ठत् ।
पुन: कीनाश' विशि पवनाशनेश्वर शरीरशयनाश्रितापचन मितस्ततः प्रकामप्रसरत्तरलो तरङ्गकान्तिप्रकाशपरिकल्पितामृताम्बुधिनिषानम, उलेक्षोल्लसलूरुणामगिमरीचिनियसिचायाचरितनिरालम्बाम्बरखिप्तान
जिनको ऐमी मुखकमलरूपी गुफा में समस्त वेदरूपी पुष्प-रस-समूह शर रहा है, जो कि सेवा के लिए आये हुए मतङ्ग, भृगु. भर्ग, भरत, गौतम, गर्ग, पिङ्गल, पुलह, पुलोम, पुलस्ति, पराशर, मरीचि व विरोचन इन ऋषि रूपी भ्रमर-समूह मे आस्वादन किया जा रहा था और जिन्हें दोनों पाश्र्वभागों पर खड़ी हुई मूर्तिमान समस्त कला-सरोखी देवियों के समूह द्वारा चमर-वेणी ढोरी जा रही थी। जिनके द्वारपाल का कार्य महान् शब्द करनेवाले नारद मुनि द्वारा स्वीकार किया जा रहा है ।
परन्तु जब वरण राजा को पट्टरानी रेवती रानी ने, जो कि तीर्थंकर भगवान् के चरणकमलों को भक्तिरूपी मण्डप वो सुशोभित करने के लिए माधवीलता-सरीखी है, राजपुरोहित से उक्त वृत्तान्त सुना तो उसने विचार किया-कि 'तिरेसठ शलाका में उत्पन्न हुए पुरुषों में तो किसी का भी नाम ब्रह्मा नहीं है।'
शास्त्र में उल्लेख है-आत्मा, मोक्ष, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र एवं भरत चक्रवर्ती के पिता (श्री ऋषभ देव तीर्थकर ) ये पांच तत्त्व आगम में 'ब्रह्मा' इस शब्द से कहे गए हैं, इनके सिवा दूसरा कोई व्यक्ति ब्रह्मा नहीं है ।। १८५ ॥
ऐसा निश्चय करके वह आश्चर्य न करने वालो बुद्धि-युक्त होकर अपने स्थान पर ही स्थित रही अर्थात्-वह उक्त बनावटो ब्रह्मा के दर्शन के लिए नहीं गई।
इसके पश्चात् उस विद्याधर ने नमर की दक्षिण दिशा में ऐसा विष्णु का रूप धारण करके समस्त नगर को क्षुब्ध किया। जिसका शारीर शेषनाग शम्या पर आश्रित था । यहाँ-वहाँ विशेष रूप से फैली हुई शेषनाग के शरीर की लहर वालो कान्ति के प्रकाश से जिसके द्वारा तीरसागर की निकटता रची गई थी । जिसने घर्षण से शोभायमान शेषनाग के फपा के मणियों को किरण-श्रेणीरूपो वस्त्र द्वारा आलम्बन-शून्य आकाश में
१. उपरितनवस्त्र । २. अमृतभोजो देवास्तेषां गंगा। ३. दर्भाः । ४. हृदये न्यस्त हुस्न ध्यानमुदा । ५. एते ऋषय
एव मृङ्गाः । १. मूर्तिगत्यः कला इव देवस्त्रीसमूहः । ७. कमलोपन्नस्म ब्रह्मणो रूपं प्राप्य । ८. बसन्तलता । ९, ऋथिता । १०. स्थिता । ११. दक्षिणदिक् यमस्म । १२. शेषनागशय्या । १३. शसेरं । १४. दोषनागदारीर । १५, घर्षण । १६. वस्त्र ।
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૨૪૨
यशस्तिलकचम्पूकाव्यं
4
भारम् अमानमञ्जरीजालजटिल प्रसाभवन मालाम करण्यमण्डित कौस्तुभप्रभाप्रभावम्, असित सिहरन - कुण्ड को छोत संपादितोभयपक्ष पक्षपाक्षेपम् नेपिकिटितकिरीटको टिबिन्मस्तास्तोकस्तकपारिजात प्रसवपरिमलपान परिचय चटुल' बञ्चरोफयरभ्यमानापरेन्दीवरशेखरफलापम्, अतिगम्भीरनाभिन' दनिर्गतो निलयनिलीन हिरण्यगर्भसंभाष्य माणनामसहस्र कलमा खण्डलजलविता "संकामा नत्र म कमलममाचरण "शङ्खसारङ्ग "नन्द-१५ hintiकरम् असुरन्यव"'बोकुलसुन्दरीसंपाद्यमानचामरोप द्यारव्यतिकरम्, अरुणा 'नुजविनीयमानसेवागतसुरसमाऊम्, अषोस' 'जवेषं विशिष्ध विद्याधरः समस्तमपि नगरं कोभयामास । सापि जिनसमयरहस्यावसायसरस्वती रेवती कर्णपरम्परया जिदन्तीमेतामुपश्रुत्य 'सम्ति खल्वर्धचक्रवर्तिनो नघ कोमोव की मघः । ते तु संप्रति न विद्यते । अयं पुनरपर एव कश्चिदिद्रजालिको लोकविप्रलम्भनायावतीर्णः' इति निर्णीयाविचलितविला समासीत् ।
3.
पुनः पाश भूद्दिशि शिशिरगिरिशिखराकारका पशा बनराश्रितशरीराभोगमन्वय" ग्भूतनग तदनानिषि २ रोश
चंदेवा विस्तारित किया था। जिसके हृदय पर स्थित हुए कौस्तुभ मणि की कान्ति का प्रभाव, नन्दनवन के पुष्प व मञ्जरी समूह से व्याप्त व फैली हुई वन श्रेणरूपी [ देवियों को श्रेणी ] के मकरन्द ( पुष्परस ) से अलङ्कृत था। जिसके द्वारा नील व शुभ्र रत्न-कुण्डलों के प्रकाश से सुशोभित दोनों पार्श्व भागों पर कृष्ण व शुक्ल पक्ष का आक्षेप ( आकर्षण ) रचा गया था। अनेक प्रकार के माणिक्य-समूह से बने हुए मुकुट के अग्रभाग पर स्थापित किये हुए प्रचुर गुच्छोंवाले कल्पवृक्ष के पुष्पों को सुगन्ध को पीने के परिचय से चञ्चल अमर-समूह द्वारा ऐसा मालूम पड़ता था मानों - जिसका दूसरा नीलकमलों का शिरोभूषण समूह बनाया जा रहा है। जिसके बहुत गहरे नाभिरूपी तालाब से निकले हुए ऊँची नालवाले कमलखमी गृह पर बैठे हुए ब्रह्मा द्वारा जिसके सहस्रनाम का मधुर पाठ किया जा रहा था। जिसके चरणकमल क्षीरसागर को पुत्रो ( लक्ष्मी ) द्वारा दाबे जा रहे हैं। जिसका करकमल चक्र, शङ्ख, धनुष व खड्ग से संकीर्ण (मिश्रित या अलङ्कृत ) था । जिसके सिर पर दैत्य-समूह की पूर्व में कारागार ( जेलखाने ) में रक्खो हुई सुन्दरियों द्वारा चमर ढोरे जा रहे है और जिसकी सेवा के लिए आया हुआ दैत्य-समूह गड द्वारपाल से स्वागत किया जा रहा है,
परन्तु जब जैन सिद्धान्त के रहस्य को जानने के लिए सरस्वती सरीखी रेवती रानी ने कर्ण परम्परा से यह किंवदन्ती सुनी तब उसने विचार किया- 'आगम में गदास्वामी अचकी निश्चय से नो ही हैं, जो कि इस समय बिद्यमान नहीं हैं, अतः यह कोई दूसरा इन्द्रजालिया लोक को धोखा देने के लिए अवतीर्ण हुआ हैउत्पन्न हुआ है। ऐसा निश्चय करके उसका चित्त नहीं डिगा और अपने यहां बैठी रही, अर्थात्-वह उसके दर्शन के लिए नहीं गई ।
इसके पश्चात् उसने पश्चिम दिशा में ऐसा रुद्र का रूप धारण करके समस्त नगर को क्षुच्छ किया, जिसका विशाल शरीर हिमालय पर्वत की शिखर- सरीखे शरीवाले वृषभ पर स्थित था। जिसकी पीठ का
३. मणि । ४. पा
१. देवाः । २. नारिका, जालंधरदैत्यवलनं च । । ५. कृष्णदाकलप ताभ्यामाक्षेपी यस्य स्रः । ६. चपल । ७ भ्रमराः । ८. नीलोत्पल । ९ । १०. कमल । ११. मीरसमुद्रः । १२ तत्सुता t: 1 १३. चक्रं । १४. धनुः । १५. खड्गः | १६. देवानां स्त्रियः कारागारे घृताः देयमरणानन्तरं ताभिः चामराः क्षिष्यन्ते । १७-१८. गरुडः द्वारपाली जातोऽस्ति तत्र आगतः स्वापत्र क्रियमाण ।
प्राप्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं श्रोभयामास । पश्चिमायो । २४. वृषभः । २५. पश्चात ।
१९-२० विष्णोः रूपं २३. वरुणविशि
२१. परिजाने । २२, गवास्वामिनः । २६. गौरी | २७. निविष्ट ।
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षष्ठ आश्वासः
२४३ स्तनतुङ्गिमस्तिमितपृष्ठभागम्, अनिमिषषनषिसपिकर्पूरो िवगर्भसंभवपरागपारितपिपरिफरम्, अचिरगोरोचनामङ्गरागपिङ्गला*म्बकपरिकल्पित भालसरःस्वर्णसरोजाफरम्, अबालकपासवल कलापालवालयलयविलएन्मोलि मूलष्यतिकरम, गतिविफटजटाजूटकोटरपर्यटद्गगनाटनतटिनीतरङ्गकरकेलिफुतूहलितवालपालेय करम्, भाभरण' भिगिसंदभितान १"कभुजङ्गभोगसंगतानेकमाणिक्यविकनिकरातिशपसारशाला जिनविराजभानम्, उमरखमकाजकावकृपाणपरधुत्रिशूलखट्वाचगादिसङ्गसंकटकोटकोदिविस्तारम्, स्त-
बेरमासुरसमअवधिरदिनीकृतनविनीतानम्, अनलोय.निकुम्भ-कुम्भोदर-हेरम्ब-भिनिरिष्टि-प्रभृतिपारिव परिषपरिकल्प्यमानसिविधानम्, बहिनावतरनिधानमाकारमनुकृत्य स विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि स्यावादसरस्वतीसुर र भिसंभावनबलवी वरुणमहोशमहादेषी इमा मन"श्रुति कुतश्चित्पश्चिमप्रतोलिसृताढिपधिवतो निश्चिरय निशम्यन्ते तल प्रवचने तपःप्रत्यवाय वार्ताऽभवा दास्ते पुनः संप्रसि स्वकीयफमण विपाकात्कार" सिन्दीप्तोवरोदगतं वसिनः संजाताः ।
भाग पीछे धारण की गई गौरी के निविड़ व उन्नत कुचकलशों से निश्चल था। जिसका शरीर-परिकर ( अवयव-समूह ) नन्दन बन में फैले हुए कपूर के वृक्षों के मध्य से उत्पन्न होनेवाली पराग ( कपूर-धूलि ) से उज्वल था। तत्काल किये हा गोरोचना के मर्दन से उत्पन्न हुई कान्ति सरीखे पीलें नेत्र से, जो ऐसा मालूम पड़ता था—मानों-जिसने मस्तकरूपी सरोवर में सुवर्ण के कमल-समूह को रचना की है। जिसका गला विशाल (बड़े-बड़े) आथे ,खप्पणों की श्रेणीरूपी क्यारी-समूह में सुशोभित हो रहा था । जिसने अत्यन्त विस्तीर्ण जटाजूट की कोटर में विहार करतो हई देवनदी को तरङ्गख्यो हायों को क्रीड़ा में वालचन्द्र को कौतुहल-युक्तक्रोड़ा-युक्त किया है। जो ऐसे गजचा सुमोभित है, जो
की मना से मिश्रित बृहत्वाय सर्प की फणा के अनेक माणिक्यों की किरण-घेणी के अतिशय से कर्बुरित ( चितकबरा ) हो रहा था । जिसके हाथों का अग्नभाष थेष्ठ डमरू, धनुष, खङ्ग, परशु, त्रिशूल, खट्वाङ्ग ( अस्त्र विशेष ) आदि के सङ्गम से व्याप्त था । जिसने गजासुर के चर्म में प्रवाहित हुए रुधिर-प्रवाह से विस्तृत नृत्यभूमि को वृष्टि से व्याप्त की थी और जिसको पूजा कातिकेय, निकुम्भ, कुम्भोदर, विनायक व भिङ्गिरिटि-आदि गणों के सभासदों द्वारा को जा रही थी। - परन्तु जब स्यावाद वाणी रूपी कामधेनु को दुहने के लिए गोपी-सरीखो वरुपा राजा की महादेवी रेवती रानी ने यह बात पश्चिम दिशा के मुख्य मार्ग से आने वाले किसी विद्वान् से मुनी तब उसने निश्चय किया—कि निश्चय से शास्त्र में तपश्चर्या के भद्ध करने की वार्ता से अभद्र रुद्र मुने जाते हैं, परन्तु वे इस समय अपने कर्मोदय ( भुज्यमान आयु कर्म का क्षय ) से यमराज की जठररूपी गर्त में पड़े हर हैं; अत: यह कोई दूसरा हो इन्द्रजाल-विद्या के विनोद से अज्ञानियों का हृदय मर्दन करने वाला रुद्र है, ऐसा निश्चय करके वह निस्सन्देह बुद्धिवाली होकर स्थित रही । अर्थात्-उक्त रुद्र के दर्शन के लिए नहीं गई।
निश्चल स्थित । २. उविदास्तरवः । ३.शरीरं । ४. सद्यः। ५. नेत्र। ६. ललाट । ७. मई 1 ८. गलः । १. देवनदी। १०. चन्द्रः । ११. रमना । ।१२, मिश्रित । १३. वृहत् । १४. घरोरं फणा | १५. किरण | १६. कर्बुर । १७, गजचर्म। १८. धनः । १९. हस्त । २०. गजासुरः । २१. कार्तिकेय । २२. विनायकः । २३. गणाः 1 २४. पूजा। २५. रुद्रावतार । २६, कामधेनुः । २७. गोपो । २८. बार्ता । २९ पपिहतान् । ३०. भङ्ग । २१. यमुनानाता ( यमः ) यमजठर ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
तवयमपर एवं कश्चिनरेन्द्र विद्याविनोबाविषहृदयमव कप वीति व प्रपद्य निःसंदिग्धबोधा समासिष्ट । पुनः स्वापतेथे ' दिशि विश्वंभरातलातुम्, अयोमुखासनवशसा वकृष्टस् एकेभ्वनीलशिलाचलाधिष्ठानीस्कृष्टम्, अनिल गतिमर्तो सरणमार्गेरिव सोपान चतुविशमुपाहितावतारम्, अन "णमणिश्लाघ्यो नाकारा तालविरचित स्पष्टाष्टविधवसुंधरम् अनवधिनिर्माणमाणिक्यसूत्रित मेखला लंकारकण्ठीरव पीठमतिष्कारमेष्ठिप्रतिममशेषतः समासीनष्ठुावशसभान्तरालबिया लिलि म्यानकाशो कानोकप्रमुखप्रातिहार्यपिशोभितम् ईषदुत्मि" " पदनिमिवोद्यानप्रसूनोपहारहरिचन्दनःभोवत नायगरा फुटीसमेतम्, अनेकमानस्तम्भ डाग १ "तोरणस्तूपध्वज धूप निर्वातिषान निर्भरमुरगणानिभिनायकानीफानीत महामहोत्सवप्र सरम् अभितो भवसेन प्रत्याहंताभासप्रभावितयात्राधिकरणं समवशरणं विस्तार्य म विद्याधरः समस्तमपि नगरं क्षोभयामास । सापि जिन्नसममोपदेशर से रातो रेवतीमं वृत्तान्तोपक्रमं कुतोऽपि जैनाभासप्रतिमा तोयबुध्य 'सिद्धान्ते खलु लुषिशतिरेव तीराः ते चाधुना सिद्धि वधूसौषमध्यविहाराः तवेषोऽपर एवं कोऽपि मायाचारी तद्रूपबारी' इति श्रवधार्याविपर्यस्तमतिः १९ पर्यात्मामन्येव प्रवर्तितधर्म कर्म व फ्रे सुखेनासांचक्रे । पुनर्ख हुकूट कपटम तिर्वेश तिस्ताभिविविधप्रकृतिभिराकृतिभिस्तदा स्वनितइसके बाद उस विद्याधर क्षुल्लक उत्तर दिशा में ऐसा जिनेन्द्रदेव का समवशरण रचकर समस्त नगर को क्षुत्र किया। जो कि पृथिवी तल से पांच हजार धनुष प्रमाण ऊँचा था । जो अखण्ड इन्द्रनीलमणि की शिला में निर्मित हुए गोलाकार आधार से उत्तम था। जो चतुर्गति रूपी गड्ढे से निकालने वाले मार्गसरोखों बोस हजार सीढ़ियों की रचना से चारों दिशाओं में ग्रहण किये हुए अवतार वाला था। जिसमें बहूमूल्य वर्माणियों के प्रशस्त व उन्नत नो प्राकारों ( फोटों-धूली साल, सुवर्णसाल, रूप्यसाल, स्फटिकसाल,
ने
मध्य
कुमाल बस व कल्पवृक्षन्वन को चार-भूमियों के चार साल इस प्रकार तो साल- प्राकार) में बनी हुई स्पष्ट आठ भूमियाँ वर्तमान थीं। जिसमें बेमर्याद रचनावाले माणिक्यों से बनी हुई तीन कटिनियों से सुशोभित सिंहासन पर परमेष्ठी की प्रतिमा विराजमान थी । जो चारों ओर बैठी हुई बारह सभाओं के मध्य शोभायमान होनेवाले देव-दुन्दुभि व अशोक वृक्ष आदि बाठ प्रातिहार्यो से सुशोभित था । जो अधखिली नन्दनवन संबंधी पुष्प श्रेणियों के उपहार ( भेंट ) और हरिचन्दन नाम के कल्प वृक्ष की सुगन्धिवाली गन्धकुटी से अलकृत था । जो अनेक मानस्तम्भ, तालाव, तोरण, स्तुप, ध्वजाएं व धूप घट और निधियों से व्याप्त था। जिसमें घर्णेन्द्र, चक्रवर्ती व इन्द्र की सेनाओं द्वारा विस्तृत व महान महोत्सव किया गया था और जो चारों और मवसेन आदि जैनाभासों की प्रभावनावाली यात्रा का आधार था ।
२४४
परन्तु जब जैन सिद्धान्त के उपदेशरूपी जल की इरावती नदी-सरीखी रेवती रानी ने इस वृत्तान्तघटना को किसी जैनाभास की बुद्धि से घटित हुई जानो तब कहा - 'निश्चय से जैन सिद्धान्त में तीर्थंकर 'चौबीस हो माने गये हैं; जो कि इस समय मुक्तिरूपी वधू के महल के मध्य में बिहार करने वाले हैं, अतः यह कोई दूसरा ही मायाचारी, तीर्थंकर का रूप धारण करके प्रकट हुआ है।' उक प्रकार निश्चय करके भ्रान्ति
१. इन्द्रजालविद्या | २. रुद्रः । ३. मगद उत्तरदिशि । ४. धनुः 1 ५. ५०००। ६. प्रमाण । ७. चतुति । ८. २०००० । ९. कृतावतार। १०. वच । ११. धूलीसाल, मुसाल, रूयशाल, स्फटिकसाल, गंधकुटीत पंचसाला | वृक्षवनकल्पवृक्षवनोदचतत्र भूमयः सालाश्चत्वारः इति नवप्रकाराः । १२. सिंहासनम् । १३. देवदुन्दुभिः । १४. विकसत् । १५. गाथा – उम्रवणवाविजलेणं सिमा पिछति एकभवजादि । तस्स निरीक्षणमेत्ता, सप्तभवाती भावादि ॥ १|| इलोक अन्धाः पश्यन्ति रूपाणि श्रृण्वन्ति बधिराः श्रुति। मुकाः स्पष्टं विभाषन्ते चंक्रम्यन्ते च पंगचः ।
स्मृतिः चन्यासुतप्राप्तिः दुर्भिक्षादीनां विनाशः ।
१६. धूपघट 1 १७. इरावती नदी । १८. बुद्धेः । १९. परिभ्रामस्त्येन आत्मधामनि ।
२०. रेवतीमनः ।
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षष्ठमाश्वासः
माभितमवगत्योपात्तमासोपवासियेषः कियामात्रानु मिनिसिलकरगोन्मेषो गोधराप तदालमं प्रविष्टस्तया स्वपमेव पथाविधिप्रतिपन्नचेष्टस्तथापि विधावलावनलनाशवममादिविकारप्रयलात्कृतानेकमानसोद्वेजनयात्यो रेवत्याः मणिनि मनोमूलमाया, 'मन', विचरजिनालंकारसम्यमत्वरत्नाकरक्षोणि दक्षिणमथुरायां प्रसिधावसमः सकलगुणमणिनिर्माणविटू"रावनिः श्रीमुनिगुप्तमुनिर्मवपितरचनै धनः परिमषिताशेषकल्मषस वनरखिसकल्याणपरम्पराविरोचनर्भवतों रेवतीमभिनन्दयति 1 रेवती भक्तिरसवशोलसल्लपनरागाभिरामं ससंभ्रमं च सप्तप्रचारोपसर्वर पवस्ता विशमाधिरय श्रुत विधानेन विहितप्रणामा प्रमोदमानमनःपरिणामा तदपितान्यावीवंचमान्यापादिता। जति बार इलोक:-- ___कावर मनताश्यगोसिंहपीठाधिपत्तिषु स्वयम् । मागतेष्वष्यभूनिषा रेवती भूततापसी ॥१८६।।
रहित बुद्धिवाली वह धर्मकर्म-समूह की प्रवृत्तिवाले अपने स्थान में ही सुखपूर्वक बैठो रही । अर्थात्-समवसारण में नहीं गई।
इसके बाद अनेक कूटकपट करने की बुद्धिवाले उस क्षुल्लक ने जब अनेक स्वभाव वाले ब्रह्मा-आदि के अनेक वेषों से रेवती रानो के मन को निश्चल जान लिया तब वह एक मास का उपवास करने वाले ऐसे साधु का वेष बनाकर, जिसकी शिथिल इन्द्रियों का व्यापार क्रिया मात्र द्वारा अनुमान किया गया है, अर्थात्'यदि यह ऐशा क्रियावान् है ? तो इसका इन्द्रिय-व्यापार कैसे घटित होता है ?' इस प्रकार जो सबके द्वारा जाना गया है, आहार के लिए रेवती रानी के गृह पर आया। रेवती रानी ने स्वयं ही प्रतिग्रह-आदि नव विधि के अनुसार उसका सन्मान किया किन्तु उस खुल्लक ने अपने ऐसे विद्यावल से, जो कि जठराग्नि के नाश से उत्पन्न हुए वमन-आदि विकारों से प्रबल हैं, जब रेवलो रानी के मन को उद्विग्न करनेवाली अनेक धूर्तताएँ को फिर भी जब उसने प्रस्तुत सनी की मानसिक मूढ़ता नहीं देखा तब उसने कहा
'हे माता ! तुम समस्त विद्याबरों के चित्त का आभूषण सम्यग्दर्शनरूपी रत्न की खानि हो। दक्षिण मथुरा नाम को नगरी में प्रसिद्ध निवास करनेवाले और समस्त गुणरूपी मणियों की रचना के लिए निकटवर्ती पृथिवी-सरीखे श्री मुनिगुप्त नाम के मुनिराज समस्त पाप-संबंध नष्ट करनेवाले व समस्त कल्याण-परम्परा से सुशोभित एवं मेरे लिए समर्पण किये हुए संबंधवाले अपने आशीर्वादरूपी वचनों से आपका अभिनन्दन करते हैं।'
उक्त सन्देश सुनकर रेवती रानी ने भक्तिरस के वश से विकसित हई मुख को कान्ति से मनोज्ञतापूर्वक च सादर गमन करनेवाले पैरों से सात पैर भूमि चलकर दक्षिण दिशा में आश्रित होफर शास्त्र विधिपूर्वक श्री मुनिगुप्त मुनिराज के लिए नमस्कार किया और प्रमुदित हुए चित्तवाली उसने उक्त मुनिराज द्वारा भेजे हुए आशीर्वाद के वचन ग्रहण किए या स्वीकार किए।
इस विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ इस प्रकार है--
जब हंसबाहन (वहा), गरुड़वाहन (विष्णु), गोवाहन । शिव ) व सिंहासन के अधिपति ( तीर्थङ्कर) स्वयं प्राप्त हुए, अर्थात्-जव उक विद्याधर क्षुल्लक ने विद्या-चल से उक्त ब्रह्मा-आदि का रूप धारण किया तो भी रेवती रानी मूढ़ताबाली ( मिथ्यामागं की प्रशंसा करनेवाली ) नहीं हुई ।। १८६ ।। १. अनुगातः चेदीदृगोऽयं क्रियावान् वर्तते तर्हि अस्पेन्द्रियग्यापारः कथं घटते इति सर्वेरनुज्ञातः । २. आहाराम ।
३. घूतत्वं । ४. स देवविद्याधरः-हे मावः । ५. निकट । ६. संबंधः । ७. संबंधै । ८.शोभमानः । ९. गमनप्राप्तः पदैः सप्तभिः प्रचाररूपसद्य । १०. 'श्रुतविश्रुतेन विधानेन' इति प० । ११. हंसः । १२. गरड़ः । १३. नाभूतु ।
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२४६
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
इत्युपासकाध्ययनेऽमूढताढिपरिवृढो नामेकादशः कल्पः
उपस्थितीकारी यथाशक्तिप्रभावनम् । वात्सल्यं च भवन्त्येते गुणाः सम्यक्त्वसंपदे ॥ १८७॥ तत्र - शान्त्या सत्येन शौचेन मावेनार्जवेन च । तपोभिः संघर्मदर्भिः कुर्यात्समय हणम् ॥१८८॥ सवित्री तनुजानामपराधं सघमंसु । वंप्रमावसंपनं मिगृहे गुणसंपदा ॥ १८९ || अशक्तस्यापराधेन कि धर्मो मलिनो भवेत् । न हि भेके मृतं याति पयोषिः पूतिगन्धिताम् ॥ १९० ॥ दोषं गृहति नो जातं यस्तु धर्म न वृंहयेत् । दुष्करं तत्र सम्यक्त्वं जिनागम बहुः स्थिते ।।१९१ ।।
श्रूयतामत्रोपाख्यानम्-- सुराष्ट्रदेशेषु मृगेक्षणापक्ष्मल लावलोकितापहसितानङ्गास्त्रतन्त्रे पाटलिपुत्रे सुसीमा - कामिनीमकरध्वजस्य यशोध्वजस्य भूभुजः पराक्रमाक्रान्तसकलप्रबीरः सुवोरो नाम नुरनासादितविद्याबुद्धसंयोगसम याविषयक प्रषियत्वाच्च प्रायेण परद्रविणवारादानोदारक्रियः श्रोष्टार्थमेकवर क्रीडावने गतः कितव किरात पश्यतोहरबीरपरिमिवमवादीत् 'अहो, विक्रमैकरसिकेषु महासाहसिकेतु भवस्तु मध्ये कि कोऽपि मे प्रार्थनातिथिमनोरथसार'
इस प्रकार उपसकाध्ययन में अमूला बढ़ाने में समर्थ यह ग्यारहवाँ कल्प समाप्त हुआ । अब उपगूहन अङ्ग का निरूपण करते हैं
उपगूहन (सामियों के दोप आच्छादित करना ), स्थितिकरण | सम्यक्त्व व चारित्र से विचलित हुए प्राणियों को पुनः धर्म में स्थिर करना, शक्ति के अनुसार प्रभावना ( जिनशासन के माहात्म्य को प्रकाशित करना) और वात्सल्य ( धार्मिक पुरुषों से अनुराग प्रकट करना ) ये गुण सम्यक्त्वरूपी लक्ष्मी को वृद्धि के लिए हैं ||१८७|| क्षमा, सत्य, शोच ( लोभ का त्याग ), मार्दव ( विनय ), आर्जव (निष्कपटता ), तप, संयम और दान इन प्रशस्त गुणों से शासन को वृद्धि करनी चाहिए ||१८८ || जैसे माता अपने पुत्रों के दोष आच्छादित करती है वैसे ही साधर्मियों में से किसी से देव व प्रमाद से कोई दोप बन गया हो तो उसे गुणरूपी सम्पत्ति से आच्छादित करना चाहिए ।। १८९ || जैसे समुद्र में मेढ़क के मर जाने से समुद्र दुर्गन्धित नहीं होता वैसे ही क्या असमर्थ मनुष्य के द्वारा किये हुए अपराध से घर्म मलिन हो सकता है ? || १९०|| जो मानव साधर्मी जनों के दोष नहीं ढकता और न धर्म की वृद्धि करता है, वह जेनागम से बाह्य है, उसे सम्यक्त्व की प्राप्ति होना दुर्लभ है || १९६१ ॥
उपगूहन अङ्ग में प्रसिद्ध जिनेन्द्र भक्त की कथा
इस अङ्ग के विषय में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए-सुराष्ट्र देश को मृगनयनी कामिनियों के नेत्रों के पलकों के अग्रभागवाले कटाक्षों से कामदेव के बाणों के कार्य को तिरस्कृत करनेवाले पाटलीपुत्र नगर में सुसीमा नामको रानी के लिए कामदेव सरीखा 'ययोध्वज' नामका राजा था। उसके अपने पराक्रम से समस्त बोर पुरुषों पर आक्रमण करनेवाला 'सुवीर' नामका पुत्र था । कभी विद्या-वृद्ध सज्जनों के समागम से शास्त्राध्ययन प्राप्त न होने से जिसका हृदय धूर्ती व विदुषकों के कुसङ्ग से दूषित ( पापी ) हो गया था, जिससे वह प्रायः दूसरों के घन को ग्रहण करने में और दूसरों की स्त्रियों के उपभोग में लम्पट हो गया था ।
एक बार कीड़ा करने के लिए वह कीड़ा-वन में गया। वहां उसने जुआरी, म्लेच्छ व चौरों की
१. उपगृहः स्थिरोकारो यथाशक्ति प्रभावनम्' (क ) २. मातृवत् । वैदसिकः गड्सो प्रीतिदः इत्यनर्थान्तरं । वथानेकार्थे विदुषकोऽन्यनिदके कीडनीयकपाये च कामाशर्यो ३. 'पराक्रमक्रमाक्रान्त' (०) । ४. विद्रूपको | वैश्याचार्यः । ५. नरः । ६. सहायः ।
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षष्ठ आश्वासः
२४७ पिरस्ति, यः खलु पूर्ववेवानिवंशावाप्तकोतंने ताम्रलिपपत्तने पुण्य पुरुषकाराम्पामास्मसात्कृतरत्नाकरसारस्य जिनेन्द्रभक्त भामावतारस्य वाणिवपतेः सप्ततलापारानिमभूमिभागिनि जिमसम्म नि छत्रप्रशिक्षण्मण्वनीमूतमद्भुतघोतस नोरं वैडूर्यमणिमानपति, सदानेनुः पुनरभिमाविषयनिषेकमेव पारितोषिक'म् ।' सत्र च सवः सूर्पो नाम समस्तमलि म्यानेसरो धौरः किलवमलापीत्-'देव, कियपहन तय तरे मोऽहं देवप्रसादाद्वियव यसामविरचितामरावतीपुरस्य पुरंदरस्पापि पुडालंकारनूतनं रत्नं पातालमूल निलीनभोगवतीमगरस्योरगेश्वरस्यापि फणगुम्फनाधिष माणिक्यम्पहरामि, सस्प में मनुष्यमात्रपरित्राणधरणि मणि लोचनगोचरागारविहारमपहरतः कियामा महासाइसम्' इति शौर्य गभिरबा निर्गत्यात्य च गौद्धमण्डलमपरमुपायमपश्यन्मणिमो पायाक्षि प्तक्षस्लकवेषश्चान्द्रायणाचरणः पक्षपारणाकरणर्मासोपवासप्रारम्भरपरैरपि तपःसरम्भः सोभिजनमारग्रामग्रामणीयणः क्रमेण जिनेन्द्रभक्तभावाषिकरणताममजत । एकान्तभक्तिशक्त: स जिनेन्द्रभक्तस्तं मापात्मसात्कृतत्रिमतमाकारमा परमार्याचारमजाननार्यवषिश्यमनेकानयरलरचितजिनदेवसंबोजामदेवगृहे स्वया तायवासितस्पं यावयह बहिन यात्रा विद्याप समायामि' प्रत्ययावत । मनकटकूटकपटकमः प्रियतमः
परिषत् से कहा—'वीरो! पराक्रम करने में असाधारण रसिकता दिखानेवाले व महान् साहसो आप लोगों के मध्य में क्या कोई ऐसा वीर पुरुष है ? जो कि मेरे प्रार्थनारूपी अनिथि के मनोरथ का सहायक है, अर्थातमेरी अभिलापा की पूर्ति में सहायक है ? आपमें से जो कोई निश्चय से पूर्चदेश की सेना का स्थान होने से ख्याति प्राप्त करनेवाले ताम्रलिप्त नामके नगर में आने पुण्य व पौरुष से समुद्र को मारभूत लक्ष्मी प्राप्त करने वाले व वैश्य-स्वामी जिनेन्द्र भक सेट के सतमंजिल महल की अग्रभूमि पर वर्तमान जिनमन्दिर से तीन छत्र की शिखा के अग्रभाग का अलङ्काररूप व आश्चर्यजनक कान्ति के समीपवर्ती वैडूर्यमणि को नुराकर ले आये, उसे लानेवाले वीर पुरुष के लिए इच्छित वस्तु के दानवाला पारितोपिक दिया जायगा।'
यह सुनकर समस्त चीरों में अग्नेसर, अभिमानी व वीर 'सूर्प' नाम के चौर ने निस्सन्देह कहा'हे देव ! यह क्या कठिन है ? क्योंकि जो मैं आपके अनुग्रह से गमन-प्रान्त में बनी हुई अमरावतो नगरी के स्वामी इन्द्र के मुकुट के अलङ्काररूप नवीन गन को एवं पाताल-मूल में स्थित हुई भोगवती नगरी के स्वामी धरणेन्द्र को फणा में विशेपरूप से गुथे हुए माणिक्य को भी अपहरण कर सकता है, उसके लिए मनुष्यमात्र द्वारा रक्षा के योग्य पुथिचोवाले और नेत्रों के विषयोभत स्थान में वर्तमान मणि का चराना कोई विशेष साहस नहीं है। इस प्रकार अपनी शूरता की गर्जना करके सूपं नाम का चौर वहां से निकलकर गौड़ देश में आया और दूसरा उपाय न देखकर उसने मणि-नुराने के लिए क्षुल्लक का वेष धारण किया | पुनः उसने पन्द्रह दिनों के बाद पारणाबाले और एक महिना के उपवासों से शुरु होनेवालं चान्द्रायणनत के आचरणों से और दूसरे तपश्चर्या के अनुष्ठानों से पर्वत, मगर व ग्रामवासी श्रेष्ठ जन-समूह को क्षोभ में प्राप्त करा दिया और कम से जिनेन्द्रभक्त सेट के भाव का आधार स्थान हो गया । पश्चात् उसकी विशेष भक्ति में समर्थे जिनेन्द्र भक सेट ने माया से क्षुल्लक-बेष को अपने अधीन करने वाले व सत्याचार से रहित-झूठे आचार वाले उसे न जानकर उससे निम्न प्रकार प्रार्थना को-'आर्यश्रेष्ठ ! अनेक बहुमूल्य रत्नमयो जिनप्रतिमा-समुहवालं हमारे जिन मन्दिर में आप अवश्य तव तक ठहरिए जब तक कि में जहाज द्वारा यात्रा करके वापिस न लोटू ।'
१. पूर्वजन्मपुण्यं । २. इनमश्च, पुरुपकारसायनात्र उद्यमी व्यवसायः धनार्जनं च । ३. सभीग । ४. उचित दान
दास्यामि । ५. चौराः। ६. गगनप्रान्त । ७. मुले निलोनं भोगगतोनगरं यस्य सः उरगश्वरः तस्य । ८. चोरणार्थ । १. रचित । १०. श्रेष्ठः । ११. सत्या नाररहित । १२. जिनदेहसंदोहे (ल.)। १३. यानपात्रगमन । १४. प्राथितः ।
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यशस्तिलकerget
श्रेष्ठिन् मैवं भाषिष्ठा: यवङ्गनाजन संकीर्णेषु प्रविणोदीर्णेषु देशेषु विहितो किस प्रायेणासलिन मनसामपि मुलभोवाहाराः जलु खलजन तिरस्काराः ।' श्रेष्ठी – 'देशयतोश, म सत्यमेतत् । अपरिज्ञातपरलोकव्यवहारस्यावशेन्द्रियव्यापारस्य हि पुरुषस्य बहिःसङ्गे स्वान्तं विकुरुतां नाम न पुनर्यथानामन्य शांभवतोशाम्' इति बाहं देवगृहपरिग्रहाय तमयथार्थमुनिमभ्यर्च्य कलवपुत्रमित्रबान्धवे यकृत विश्वासो मनः परिजनदिन वाकुनपचनानुकूलतया नगरवाहिदिकार्या प्रस्थानमकार्षीत् । मापामुनिस्तस्मिवासरे तदगारमा कुलपरिया एमबबुध्यार्षावशेषाय निशि कृत रत्नापहारस्तन्मऐचिप्रचारावारभिक स्नुव्रतशरीरः पलायितुमशकस्तस्यैव धर्मनिर्माणपरमेष्ठिनः श्रेष्ठिनः प्रस्थानावासनिवेश माविवेश । श्रेष्ठयपि पुराना पहलातहको लाादा विग्राणमिद्रस्तदेनं सुवामुनिमुद्रमण "साय स्वभावतः शुद्धाप्तागमपदार्थसमाचारनवस्य निःशेषान्यवर्शनव्यतिरिक्तान्वयस्थ समयस्थाविचितपरमार्थजनापेक्षया रुपवादो मा भूदिति च विपि समस्तमप्यारक्षिक लोकमेयमभणीत् 'महो, पुर्वाणिकाः किमित्येनं संयमिनम भल्लेन भावेन संभावयन्ति भवन्तः, यदेष महातपस्विनामपि महातपस्वी परमनिःस्पृहाणामपि परमनिःस्पृहः प्रकृत्य महापुरुषो मायामोवरहित सरिस्मदर्भि
लु
अपने कूट पट क्रम को छिपाते हुए उसने कहा--' सेठ जी ! ऐसा मत कहिए, क्योंकि कमनीय कामिनियों से व्याप्त और धन से परिपूर्ण स्थानों में निवास करनेवाले निर्मलचित्तपालो महापुरुषों को भी प्रायः निश्चय से दुष्ट जनों के तिरस्कार सुलभता से कथन वाले होते हैं ।'
सेठ – 'क्षुल्लक महाराज ! यह बात सत्य नहीं है, क्योंकि परलोक ( स्वर्ग व नरकादि) के व्यव हार को न जानने वाले व इन्द्रिय व्यापार को काबू में न करने वाले पुरुष की चित्तवृत्ति निश्चय से वाह्य पदार्थों ( कनक व कामिनी - आदि) में विकृत हो जाय परन्तु यथार्थदर्शी व असाधारण संघम पालने वाले आप सरीखे योगीश्वरों को चित्तवृत्ति वाह्य पदार्थों में कैसे विकृत हो सकती है ? इस प्रकार जिनेन्द्र भक्त सेठ ने स्त्री, पुत्र, मित्र व बन्धुजनों में विश्वास न करके अपने जिन मन्दिर में निवास करने के लिए उस झूठे मुनि से विशेष आग्रह पूर्वक प्रार्थना की और मन, कुटुम्बोजन, दिन, शकुन व बायु को अनुकूल देखकर नगर के बाह्य देश में प्रस्थान किया ।
उसी अवसर पर वह कपटी मुनि उस सेठ के गृह को नींद में सोते हुए कुटुम्बीजनों वाला जानकर अर्ध रात्रि में रत्न अपहरण करके ज्यों हो चला वैसे ही उस रत्न को किरणों के फैलते से नगर-रक्षकों ने उसका पोछा किया। जब वह भागने में असमर्थ हुआ तो वह चोर उस धार्मिक जिन मन्दिर के बनाने में ब्रह्मा सरीखे जिनेन्द्र भक्त सेठ के प्रस्थान के निवास स्थान में प्रविष्ट हो गया- घुस गया । गाली देना बादि खोटे भाषण से प्रचुर जन नगर-रक्षकों के कोलाहल से सेठ की नोंद शीघ्र खुल गई और उसने इसे कपटी क्षुल्लक के रूप को धारण करने वाला जानकर निम्नप्रकार विचार किया- 'जैन शासन की, स्वभाव से जिसके आस, आगम, पदार्थ, आचार व नय निर्दोष हैं और जो समस्त अन्य दर्शनों को अपेक्षा अधिक आम्नाय वाला है, परमार्थ को न जानने वाले अज्ञानी पुरुषों की अपेक्षा से निन्दा या अपकीर्ति नहीं होनी चाहिए।' इस विचार से उसने समस्त नगर रक्षकों से कहा- 'अरे दुष्ट वचन बोलने वालो ! आप लोग क्यों इस संयमी चरित्रवान् सज्जन पुरुष का खोटे परिणाम से तिरस्कार करते हैं ? क्योंकि यह महान तपस्वियों में भो महातपस्वी हैं और अत्यन्त निःस्पृही महापुरुषों में विशेष निःस्पृही है। यह स्वभाव से हो महापुरुष है। इसको चित्तवृत्ति मायाचार व
१. औक: आवास: । २. 'अनन्यसंयमस्पृशाम् ० ) । काम्नायस्य ७ असमीचीनेन परिणामेन ।
३. ब्रह्मणः । ४. शीघ्र । ५. ज्ञात्वा ।
६. अधि
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पष्ठ आश्वासः
मतेन मणिमेनमानयत् कथं नाम स्तेन भावेन भर्वाङ्गः संभावनीयः । तत्प्रतमभ्यपीभूय प्रसभवपुषः सदाचारकरवार्जुम'ज्योतिषमेनं शमयत स्तुत नमस्यत वरिवस्थित छ । भवति चात्र श्लोक :---
मायासंयमिन्युत्स" सूर्प रत्नापहारिणि । बोषं निपूजयामास जिनेन्द्रो भक्तवापरः ॥१९२॥ इस्युपासकाप्ययने धर्मोपाहणाहगो माम द्वादशः कल्पः । परोपहनतोमिसागमनम् । सायेर भन्न नामी समास्थितम् ॥१९३|| सपता प्रत्ययस्यात' यो न रमति संयतम् । नूनं स दर्शनाबाह्यः समयस्थितिलाशनात् ॥११४॥ नवं संविग्धनिहिषिवष्यागणवर्धनम् । एकदोषकृते त्याज्य: प्राप्ततत्त्वः कथं नरः ॥१९५11 पतः समयकार्यार्थी नानापञ्चजनाश्रय: । अतः संबोध्य पो यत्र योरपस्तं तत्र योजयेत् ॥१९६॥
उपेक्षायां तु जायेत तत्वाद्दरतरो नरः । ततस्तस्म भयो "बोध: १२ समयोऽपि च होयते ॥१९७।। घोरी से रहित है। हमारे कहने से ही यह मणि लाया है। आपने किस प्रकार इसे चोर समझकर अनादरयुक्त-अपमानित किया ? अतः शीघ्र ही इसके पास आकर विशुद्ध चित्तवृत्ति व निर्मल वाह्येन्द्रिय वृत्ति वाले होते हए सदाचाररूपी कुमुद को विकसित करने के लिए चन्द्र-सरीखे इससे क्षमा मांगो, इसकी स्तुति करो, नमस्कार करो और इसकी पूजा करो ।'
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है-काटपूर्ण क्षुल्लक-वेषधारो और.वेड्र्य मणि को चुराकर वशीन भागने वाले सूर्य के दोष ( निन्दा) को जिनेन्द्र भक्त सेठ ने आच्छादित किया-छिपाया ।।१९।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में धर्म के उपवृंहण गुण के निरूपण करने में समर्थ बारहवां कल्प समाप्त हुआ।
अब स्पितिकरण अङ्ग का निरूपण करते हैं
सम्यग्दृष्टि धार्मिक सज्जन को क्षुधा व तृषा-आदि परीषहों के सहन से व अहिंसा-आदि व्रतों के पालन से भयभीत हुए एवं आगम' के अध्ययन से रहित होने स धर्म से डिगते हुए साधर्मी भाई को घमं में स्थापित करना चाहिए ।।१९३|| जो धार्मिक पुरुष तप से भ्रष्ट होते हुए साधु को रक्षा नहीं करता ( उसे पुन: तप में स्थित नहीं करता ) वह आगम की मर्यादा का उल्लङ्घन करने के कारण निश्चय से सम्यग्दर्शन से वहिर्भूत ( मिथ्यादृष्टि } है ॥१९४|| जिनको निर्वाह (जैनधर्म के पालन ) में संदेह है, ऐसे नये मनुष्यों से संघ को वृद्धिंगत करना चाहिए। केवल एक दोष के करने से तत्वज्ञानी पुरुष कैसे छोड़ा जा सकता है ? अर्थात्-यदि उससे दोष हो जाय तो उसे ढंकना चाहिए ॥१९५|| क्योंकि बार्मिक कार्यों की सिद्धि अनेक मानवों के आश्रय की अपेक्षा करती है, इसलिए समझा-बुझाकर जो व्यक्ति जिस कार्य (धर्म-प्रभावना आदि) में कुशल है, उसे उसमें नियुक्त करना चाहिए ॥१९६॥ साधर्मी मनुष्य की उपेक्षा करने से वह धर्म से दूर हो जाता है ( धर्म छोड़ देता है ) और इससे उसका संसार, विशेष दीर्घ होता है और धर्म को भी क्षति होती है ।।१९७॥
१. चोरभावेन । २. निर्मलान्तःकरणबहिकरणाः सन्तः । ३. कुमुदं तस्य विकासने चन्द्रः । ४. पूजयत यूयं 1 ५. शीघ्र
गामिनि । ६. स्फेटयति स्म । ७. जिनेन्द्रभक्त इत्यर्थः । ८. 'समयी समयस्थितः' (क०) । १. चलन्तं । १०. मनुष्यः । ११. संसारः। १२. दीर्घः स्यात् ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये भूयतामत्रोपाख्यानम्-मगवदेशेषु रायगृहापरनामावसरे पञ्चशेलपुरे चेलिनीमहादेवोप्रणयक्रेणिकस्य' श्रेणिकस्य गोरा कलत्रस्य पुत्रः सकलरिपुराभिषेणो' वारिषेगों नाम । स किल कुमारकाल एव संसारसुखसमागमविमुखमानसः परमवैराग्योपूर्णः पूर्णनिर्णयरसः श्रावकषारायमधाषिषणतपा गुरुपासमसंवीणतया च सम्पगवसितोपासकाध्ययनविधिराश्चर्यशार्थ निषिरेफवा प्रेत मिष मतवासरविमावयाँ रात्रिप्रप्तिमास्थितो बभूव । अत्रावसरे क्षपाया: परिणताभोगे सलु मध्यभागे' मगधसुन्दरीनामया पण्याङ्गन "यात्मत्यतीबासक्तचित्तवृत्तिप्रसरो मृगवेग नामा चोर शयनतालमापन्नः'समेवमुक्त:-'राजयतितो तात्तनामनिदकीनियसीमापायाः प्रियापार: स्तनमण्डल'२. मनोवारसलंकारसार प्रारमिवामीमेवानीय यदि विश्राणयति३, तवा त्वं मे रतिरामः, अन्यथा प्रणयविरामः' इति । सोऽप्यवशानङ्गवेगो मगवेगस्तवचनावेव तायतनानिःसृत्याभिमृत्य'५ निजकलावलात्तस्य घनवसत्यागारमाधरितहारापहारस्तरिकरणनिगरनिश्चित वरणबारतलारानुधरनुसृतो मृगायितुम समयस्तस्य व्युत्सर्गवेषमुपेयुषो
इस विषय में एक कथा है, उसे सुनिए ।
मगध देश में 'पंचशैलपुर' नाम का नगर है, जिसे 'राजगृह' इस दूसरे नाम का अवसर प्राप्त है, उसमें चेलिनी-महारानी के प्रेम का ग्राहक व पृथिवीरूपी स्त्रोवाले 'श्रेणिक' राजा के शत्रुओं के नगरों पर सेना से आक्रमण करनेवाला ( वीर ) 'वारिषेण' नाम का पुत्र था । उसको मनोवृत्ति निश्चय से कूमार-काल से ही सांसारिक सुखों के समागम से विमुख घो । परम वैराग्य में उद्यत हुआ वह तत्वों के पूर्ण निश्चय में रुचि रखने वाला था । श्रावकधर्म की आराधना से प्रशस्त बुद्धि के कारण और गुरुजनों को उपासना में प्रवोण होने से उसने ग्रावकाचार को विधि अच्छी तरह निश्चित को थो और वह आश्चर्यजनक व रता की निधि था । एक समय वह कृष्णपक्ष को चतुर्दशी को रात्रि में श्मशानभूमि में रात्रि प्रतिमा योग से स्थित हुआ । अर्थात्- नग्न मुद्राधारक होकर धर्मध्यान में मग्न हुआ।
इसी अवसर पर परिणत विस्तार वाली मध्यरात्रि में 'मगध-सुन्दरी' नाम की वेश्या ने अपने में अत्यन्त आसक विस्तृत चितवृत्ति वाले और उसको शय्यातल में प्राप्त हुए मृगवेग नाम के बोर चार से कहा[प्रियतम ! | राजोष्ठी वनदत्त को पत्नो कोनिमतो के कुच-मण्डल को अलङ्गकृत करने से उत्कृष्ट और आभूघणों में श्रेष्ठ हार इसो समय लाकर यदि मेरे लिए देते हो तो तुम मेरे रति-सुख में लोन होनेवाले प्रेमो हा अन्यथा प्रेम का अन्त करने वाले ( शत्रु) हो ।'
वेश्या के वचन सुनकर काम-वेग को वश में न करनेवाले मृगवेग ने वेश्या के गृह से निकलकर अपनी फला के वल से धनदत्त सेठ के गृह का आश्रय किया और हार को चुराकर जैसे ही वह भागा वैसे ही उस हार की किरण-समूह के प्रकाश से नगर रक्षकों ने उसका भामना जान लिया, इसलिए वे उसके पीछे दोहे । अपने को दौड़ने में असमर्थ जानकर मृगवेग उस हार को नग्न वेश में कायोत्सर्ग में स्थित हुए वारिषेण के आगे छोड़कर स्वयं छिप गया।
जब नगर रक्षकों ने उस हार को विशेष कान्ति से ऐसा विचार किया कि निस्सन्देह यह राजकुमार वारिषेण है, इसके माता-पिता श्रावक है. अतः अपने को भागने में असमर्थ जानकर राजकुमार ने अपने १. प्राहकस्म । २. भुरेव कलनं यस्म सः। ३. मेनपाऽभियानोति । ४. उद्यतः । ५. प्रवीणः। ६. निश्वित । ७.
कृष्ण चतुर्दशीरात्रौ । ८. रात्रः। ९. मध्यरात्रौ । १०. द्रव्यस्त्रिया । ११. आसन्नः प्राप्तः । १२. 'स्तनमंहनोदार' ख. । १३. ददासि । १४. कामवेगः । १५. आश्रित्य । १६. सेवकैः । १७. पृष्ठतः प्राप्त: । १८. पलापितुं ।
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षष्ठ आश्वासः
२५१ पारिषेणस्य पुरतो हारमपहाय' तिरोबष। तदनुचरास्ताकाशविक्षयवशात् 'वारिषेणोऽयं मनु राजकुमारः पलायितुमशक्तः पित्रोः श्रावकरवानिमामहत्प्रतिमासमानाकृति प्रस्पिट पुरो निहितहारः समास्त' वरयवमृषय प्रविश्य म विश्वभराधोशषभनिवेश मेतस्मितुः प्रतिपानित वृत्तान्ताः ।।
रण्डो हि केवलो लोकं परं रेमं च रशति । राजा शात्री च मित्र व स्थावोवं समं पः ॥१९८॥
इति वचनात् 'न हि महीभूओ गुणवोपाभ्यामन्यत्र मित्रामित्रव्यवस्पितिः, तबस्य रमापहारोमहत्तारित्रस्म पत्रात्रोनं प्राणप्रयागावपरमवण्डो वण्डः समस्ति' इति न्यायनिष्ठरताभिनिषशासज्जनकादेशावागत्य तं सदाचारमहासं प्रहसः शरविश राप्रसूनशेखरता भमिलमण्डलानि कर्णकुण्डलतां कृपाण निफरन्मुक्ताहारतामेत्रमपराम्प्यस्त्राणि सत्तभूषणतामनु सन्ति । निगुष्य सब घानधर्मप्रवृद्धप्रमोवतया स्वयमेव पुरदेवताकरविकोयंमाणामरतरप्रसवोपहारमारचरकुमारास्कास्यमानानकनिकरमनिमिषनिकायकोत्यमानानेकस्तुतिव्यतिकरमितस्सतो महामहोत्सवावतारं . आगे हार स्थापित करके जिनेन्द्र की प्रतिमा-सी अपनी आकृति बना ली है और यहाँ स्थित है। इसके बाद बे राजा श्रेणिक के आवास स्थान पर पहुँचे और उनसे सब समाचार कथा कर दिया।
नीतिकारों ने कहा है कि निस्सन्देह केवल दण्ड ही, जो कि राजा द्वारा शत्रु व मित्र को अपराष के अनुकूल समानरूप से दिया गया है, इस लोक व परलोक को रक्षा करता है ।। १९८ ।।'
"निश्चय से राजाओं के लिए गुण-दोष छोड़कर मित्र व शत्रु-व्यवस्था नहीं है । अर्थात्-राजाओं के लिए जो गुणी है, वह मित्र है और जो दोषी-अपराधी है, वह शत्रु है, इसलिए रत्नमयी हार को चुराने से नष्ट चरित्रवाले इस पुत्ररूप शत्रु के लिए प्राणदण्ड (फांसी की सजा ) को छोड़कर कोई दूसरा तीक्ष्ण दण्ड नहीं हैं।' [ ऐसा विचार कर राजा श्रेणिक ने अपने पुत्र के प्राणदंड की आज्ञा दे दी।]
इस प्रकार न्याय की निष्ठुरता के अभिप्राय वाली बारिषेण के पिता ( राजा ) की आज्ञा से वे नगररक्षक श्मशान भूमि में आए और उस महान् सदाचारी वारिषेण के ऊपर शस्त्र प्रहार करने लगे। परन्तु उन्होंने वागसमूहों को फूलों के मुकुटों का अनुसरण करते हुए, और चक्रसमूहों को कर्ण-कुण्डलों का अनुसरण करते हुए एवं खगसमूहों को मोतियों के हारों का अनुसरण करते हुए देखा। अर्थात्-वाण-समूह फूलों के मुकुट बन गए और चक्रसमूह कण-कुण्डल हो गए-इत्यादि। इसी प्रकार दूसरे अस्त्र भी उसके भाषणपने का अनुसरण करते हुए।
उक्त घटना जानकर उसको ध्यान की धीरता से विशेष प्रमुदित होने से नगर देवता-आदि ने चारों और ऐसे महामहोत्सव का अवतरण किया, जिसमें नगर-देवता के करकमलों द्वारा क्षेपण किये जा रहे कल्पवृक्षों के पुष्पों के उपहार ( 8 ) वर्तमान थे। जिसमें विद्याधर-कुमारों द्वारा अनेक दुन्दुभि बाजे-समूह बजाए जा रहे थे एवं जिसमें देव-समूह द्वारा प्रशंसा की जा रही अनेक स्तुतियों का मिश्रण था।
जब प्रहार करने वाले नगर रक्षकों ने यह सब घटना देखी तो उनका मन विशेष भयभीत व आश्चर्यान्वित हुआ और शीन जाकर उन्होंने घेणिक राजा से मान्य' समाचार निवेदन किया । राजा शीघ्र ही
१. त्यक्त्वा । २. आवासस्थानं । ३. वारिवणतातस्य । ४. भुयाः निकाय निवेषयामासुः । ५. प्रसंगन् । ६. अनुसर
तान् । ३. चक्र। ८, ज्ञात्वा ।
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૨૫૨
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये मिया'व्य सत्वरमतिभीतपिस्मितान्तःकरणाः अंणिकधरणीधवस्येवं निवेदयामासुः | नरवरः सपरिवारः सोतास' तगतः सन्कुमाराचारानुरागरसोत्सारितमृतिभौतिस मामगवेगाद भगतामूलवृत्ताम्सः साधु तं कुमारं समयामास । नपनन्दनोऽपि प्रतिज्ञात समयावसाने प्राणिनां सुलभसंपाताः खलु संसारे व्यसनविनिपाताः । तबसमत्र कालमचलनावलम्म विलम्वेम । एषोऽहमिवानीमवाप्तयथार्थमनीषोन्मेषस्ताववात्महितस्यो पकरिष्ये' इति निश्चयमुपश्लिष्याभाष्य पित. रमापिण्य' च पाह्माम्यनारपरिग्रहामहमाघार्यस्य सुरवेवस्यान्तिके सपो जग्राह । भवति चात्र श्लोकः
वियुबमनसा पुंसा परिणछे वपरात्मनाम् । किं कुर्वन्ति कृता विघ्नाः सवाधार हिलः खलः ॥१९॥
पुपाने यारिमारणामा नमो नाम प्रमोद कप: ।
पुनः 'पष्टं धर्म नियोजपेत्, तथा भातुरस्यागका रोपयोग इवानियतोऽपिजन्तोषर्मयोगः कुशलः क्रिपमाणो भवत्या त्यामवश्यं निःश्रेयसाय'ति जातमतिस्तपःपरिपहेऽपि सह पांसुश्रीदिनत्वाचिरपरिचयप्रकरप्रणयत्वाचास्मन: प्रियमुहवं पुष्पवतोभट्टिनीभर्तुरमात्यस्य शाण्डिल्यापनस्य नन्दनमभिनविवाहविहितकणबन्धनं पुष्पदन्ताभिधान
सपरिवार यहां आया और जब उसने ऐसे मगवेग नाम के चोर से, जिसने वारिषेण राजकुमार के सदाचार के पालन से उत्पन्न हुई स्नेह की उत्कटता के कारण अपनी मृत्यु के भय का सम्पर्क नष्ट कर दिया है, शुरु से अन्त तक हार की चोरी का सब समाचार जाना तब उसने राजकुमार से अच्छी तरह क्षमा मांगी।
राजकुमार वारिषेण ने ध्यान की प्रतिज्ञा के बाद यह निश्चय किया-'निश्चय से संसार में प्राणियों को दुःखों के आक्रमण सुलभ आगमन बाले होते हैं, अत: मृत्यु के आश्रय वाले विलम्ब से क्या लाभ है ? इसलिए अब यथार्थ बुद्धि के प्रकाश को प्राप्त हुआ में आत्मकल्याण के लिए प्रयत्नशील होऊंगा।' बाद में उसने अपने पिता से कहकर बाह्य व आभ्यन्तर परिग्रह के आग्रह को चर्ण करके सरदेव नाम के आचार्य के समीप में जिनदीक्षा ग्रहण कर लो।
इस विषय में एक श्लोक है, उसका भाव यह है-विशुद्ध चित्तवृत्तिवाले आत्मज्ञानी महापुरुषों के लिए सदाचार से ऊजह ( शून्य ) दुष्टों के द्वारा को हुई विघ्न-बाधाएं क्या कर सकती हैं ? अर्थात्-कुछ भी बिगाड़ नहीं कर सकतीं ॥ १९९ ॥
इस प्रकार उपासकाध्यमन में बारिषेण राजकुमार का दीक्षा के लिए
प्रस्थान वाला यह तेरहवां कल्प समास हुआ । इसके बाद वारिषेण मनिराज के हृदय में यह परोपकार वृद्धि उत्पन्न हुई। अपने प्रिय जन को धर्म में स्थापित करना चाहिए तथा जैसे औपधि का उपयोग रोगी को उत्तरकाल में कल्याणकारक होता है वैसे ही धर्म-पालन की इच्छा न रखते हुए प्राणी के लिए निपुण पुरुषों से किया जा रहा धर्म-संबंध भी उत्तरकाल में मोक्ष के लिए होता है। इसलिए जब उन्होंने मुनिदीक्षा ग्रहण की तब पुष्पवती नाम की मनोज्ञ पत्नीवाले 'शाण्डिल्यायन' राजमन्त्री के पुत्र ऐसे पुष्पदन्त के घर जाकर उसे अपने साथ लिया, जो कि वारिषेण राजकुमार
१. अवलोक्य । २. प्रहरन्तः पुरुषाः। ३. त्वरितं । ४. चौरात्। ५. प्रतिज्ञानन्तरं । ६-७. प्रतियत्ने षष्ठी।
पञ्जिकायां तु आत्महिलस्प प्रतियत्ने कृन् इति । ८. कथयित्वा । ९. चूचित्य । १०. जावात्मनाम् । ११. उद्वसः । १२, अगरकरमौषधम् । १३. वैद्यप्रयोगः । १४. आयतिः फलमुत्तर ।
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षष्ठ आश्वासः
२५३
मेतवायतनानुगमनेन स्वामिपुत्रस्वात्प्रतिपत्रमहामुनिरूपत्वा वाचरिताभ्युत्मानं हस्तेनावलम्म्य पुन: 'अतोनय प्रदेशान्। व्यावर्तयिष्यत्ययं भगवान्' इति सहानुसरन्तभवाप्तवन्तं च गुस्यान्तं, "भवन्त, एष खलु महानुभावतालसालम्बनतरुः स्वभावेनंव भयभीव गानुभचने विरक्तचित्तः सर्वसंयतवृत्तार्थी भगवत्पादमूलमापातः' इति सूचयित्वा भगवतोऽम्य कामरिकलिकाबहभामिय पूधंजनिकरमपनाम्य दीक्षा प्रामामास । सोऽपि तबुपरोषाक्षेपापीक्षामादाय हमस्याविस्तिवेवितव्यरत्रावनङ्ग अहमसितत्वार पम्जरपात्रः एतत्त्रीष' मन्त्रविकोलितप्रभावः पूषाफुरिव गाढबन्धनालानितो घ्यालशुषहाल इव चाहनिय वारिषेण ऋषिणा रयमाणोऽपि
अलफवलपरम्य चूसतानतंकान्तं नवनपनाविलासं चारुगण्डस्थल छ । मधुरवचनगर्भ स्मेर बिम्बाधरायाः पुरत इव समास्ते सन्मुख मे प्रियायाः ॥२..।। कर्णावतंसमुखमजनकण्ठमूषा वक्षोजपत् अजनाभरणानि यमात् ।
पावेष्वलक्तकरसेन च सर्वनानि कुर्वन्ति ये प्रणयिनीषु त एवं धन्याः ॥२०१॥ के मुनि हो जाने पर भी बाल्यकाल में उनके साथ धूलि में क्रीड़ा किया हआ होने से एवं चिरकालीन परिचय होने से उत्पन्न हुए प्रेम से वारिषेण का प्रिय मित्र था, जिसका नवीन विवाह होने से कङ्कण-बन्धन किया गया था। जो उन्हें देखकर इसलिए खड़ा हो गया था, कि ये स्वामी के पुत्र हैं तथा महामुनि का रूप धारण किये हुए हैं, एवं जो यह सोचता हुआ उनके साथ जा रहा था, कि 'यह पूज्य मुझे अमुक स्थान से लौटा देंगे।' और जो गुरू के पास पहुंच गया था ।
इसके बाद वारिषेण मुनिराज ने गुरु को निम्न प्रकार सूचना दो---'भगवन् ! सज्जनतारूपी लता के आक्ष्य के लिए वृक्ष-सरोग्खा यह पुष्पदन्त स्वभाव से ही संसार से भयभीत हुआ है और इसका चित्त भोगों के भोग से विरक्त हो गपा है, अतः महावत धारण करने की इच्छा से आपके पादमूल में आया है।'
इसके बाद बारिषेण मुनि ने दीक्षा गुरु के पास में कामदेवरूपी हाथी के लिए केला के पत्तों के समूहसरीखे केश-समूह का लुऊचन कराकर उसे दीक्षा ग्रहण करा दी।
पुष्पदन्त ने भी वाघिण मुनि के आसह के वश से दीक्षा ग्रहण कर ली परन्तु उसका मन तत्वज्ञानी न होने से और कामदेवरूपी पिशाच से ग्रसित होने के कारण पोंजरे में स्थित हुए पक्षी को तरह और मन्त्रशक्ति से कीलित प्रभाव वाले सर्प की तरह एवं मजबूत बन्धन की खूटी से बँधे हुए दुष्ट हाथो-सरीखा पराधीन हुआ दिन-रात वारिषेण ऋषि द्वारा रक्षा किया जा रहा था तथापि उसने निम्न प्रकार अपनी प्रियतमा का आग्रहपूर्वक ध्यान करते हुए बारह वर्ष व्यतीत कर दिए ।
मन्द मुस्कान व विम्बफल-सरीखे ओठों वाली मेरी प्रिया का वह मुख मेरे सामने मौजूद हुआ-सा मालूम पड़ रहा है, जो कि केवा-पाशों से सुन्दर है। जो अकुटियाँ रूपी लताओं के नृत्य से रमणीक है। जो नये नेत्रों के विलासवाला है। जो मुन्दर गालों की स्थली वाला है और जिसके मध्य मीठे वचन वर्तमान हैं ॥ २०० ॥ जो मानव प्रेम से अपनी प्रियाओं को निम्न प्रकार आभूषणों से अलङ्कृत करते हैं वे हो भाग्यशाली हैं-कानों के आभूषण ( एरन व कर्णफूल-आदि), मुख का आभूषण, कण्ठ का आमूपण, ( कण्ठमाल व हारआदि ), कुचकलमों पर पत्वरचना, जवाओं का आभूषण ( करधोनी-आदि ) और चरणों में लाक्षारस का लेप १. 'सर्वसंमतवृत्त्यर्थी' ० । २. पञरस्थः । ३. पक्षिवत् । ४. सर्पवत् । ५. दुष्टगजवत् । ६. 'बारिषेण ऋपिणा'
इत्यत्र 'ऋत्यकः इत्यनेन प्रकृतिभावान्न सन्धिः। ७. ईषशास।
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२५४
यास्तिलक चम्पूकाव्ये लीलाविलासविलसन्नयनोत्पलाया. स्फारसारोत्तरलितापरपल्लवायाः ।
उत्तुङ्गपीवरपयोषरमण्डलामास्तस्या मया सह कदा ननु संगमः स्यात् ॥२०२।। कि। चित्रालेखनकर्मभिर्मनसिज'व्यापारसारामृतताभ्यासपुर स्थित प्रियतमापावप्रणामत्रामः ।
स्वप्ने र संगमविप्रयोगविषयप्रीत्यप्रमोदागर्मरित्यं वेषमुनिविनानि गमयत्युस्कम्ठितः कानने ॥२०३।।
इति निर्बन्धन ध्यायगडावशसमा समानषीत् । शूरवेषभट्टारकोऽप्याभ्यां सह तेषु तेषु विषयेषु सोकृता पञ्च कल्याणमङ्गलामि स्मानानि बन्दिरमा पुनविहारवशातच जिनायतनोससितोपान्तलसूले पञ्चशैलपुरे समागत्यात्मनो वारिषण ऋषेश्च तहिवसे पर्युपासितो वासस्वातं पुष्पदन्समेकाकिनमेव प्रत्यवासानाया विदेश । तवर्थमाविष्टेन च तेन' चिन्तितं घिरात्मालास्सस्पेकस्मादपमृत्योर्जीवन्नुव धृतोऽस्मि । संप्रति हि मे नूनमननानि गुण्याल्पवेक्ष्य वीजा मुमुलगा मक्ष पाशपरिक्षेपक्षरितेनेव पक्षिणा पलायितुभारम्पम् ।
॥ २०१॥ ऐसो उस प्रिया का मेरे साथ निश्चय से कब समागम होगा? जिसके नेवरूपी नीलकमल लीला (हाव-भेद ) व बिलास ( सौन्दर्य ) से सुशोभित हैं। जिसके ओष्ठ पल्लव बढ़े हए काम के वेग से चञ्चल हे और जी उन्नत व कड़े कुचमण्डल वाली है ।। २०२ ।।
मुनिवोपी पुष्पदन्त अपनी प्रिया में उत्कण्ठित हुआ जंगल में इस प्रकार दिन व्यतीत करता था।
उदाहरणार्थ-वस्त्र में प्रिया के चित्र-लेखन कार्यों से, कामदेव के व्यापारों के उत्तम पदार्थों के स्मरणों से, दृढ़ भावना से सामने खड़ी हुई प्रियतमा के चरणों में नमस्कार के क्रमों स और स्वप्न में प्रिया का संगम होने से सुख की प्राप्ति व स्वप्न में प्रिया का त्रियोग होने से दुःख की प्राप्ति से ।। २०३ ।।
एक बार शुरदेव नाम के आचार्य भी अपने शिष्य बारिषेण व पुष्पदन्त के साथ विविध देशवर्ती तीर्थङ्करों के पंच कल्याणकों के माङ्गलिक तीर्थ स्थानों की बन्दना करके घूमते घूमते उसी राजगृह नगर में आए, जिसके निकटवर्ती पर्वत-शिखर जिन-मन्दिरों से सुशोभित हैं। उस दिन आचार्य ने व वारिषेण मुनिराज ने उपवास धारण किया था, अत: उन्होंने पुष्पदन्त को अकेले ही जाकर आहार करने की आज्ञा दे दो।
आहार के लिए आज्ञा प्राप्त करनेवाले पुष्पदन्त ने विचार किया-'निस्सन्देह चिरकाल के बाद में एक अपमृत्यु से जीवित रहकर उद्धार वाला हुआ हूँ| आज मेरे प्रचुर पुण्य का उदय है। फिर दीक्षा को छोड़ने के इच्छुक हुए उसने वैसा शोघ्र भागना आरंभ किया जैसे जाल के आवरण से निकला हुआ पक्षी शीघ्र भागना आरंभ करता है।
- इसके बाद वारिषेण ने उसे इस तरह प्रस्थान करते हुए देखकर उसका भविष्य कालीन अभिप्राय जानकर विचार किया। यह अवश्य हो जिन दोक्षा छोड़ने का इच्छुक-सा जान पड़ता है, इसीलिए यह उत्कण्ठा के साथ भाग रहा है।' इसकी बुद्धि स्नोलोभ से अपहरण की जा रही है, अतः जिन शासन की रक्षा का भार पहन करने वालों को इसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए।
१. काम। २. 'सारास्मृतः' मु. एवं 'स्व' प्रती पाठः। ३. यदा स्वाने संगमा भवनि, तद्विषये प्रोत्यागमा
भवति, यदा तु स्वप्ने विप्रयोगा भवति, तद्विषये अप्रमोदागमो भवति । ४, आग्रहण । ५. वर्षाणि । ६. राजगृहे । ७. सेवित । ८. प्रत्यवसानं भोजनमिति यश. पं. । ९. पुष्पदन्तेन । १०. दीक्षां मोमिच्छना ११. शौन।
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षष्ठ माश्वासः वारिषेणस्तस्प तथा प्रस्थानात्कृतोदकं वितरप अवश्यमय जिनकपं मिहासुरिव सोस्सुक्यं विषमते, तदेष कपापमुष्यमाणधिषणः समयप्रतिपासनाधिकरणनं भवत्युपेशणीपः' इत्यनुध्याया डा समनुष"प्यंत स्थापनाय जनकमिशेत न अगाम । चेलिनीमहादेवों पुत्रं मित्रेण सतत्र मुपोकमा नमवश्य तवभिप्रामपरीक्षार्थ सरा" विराग चासनमयच्छत् । वारिषेणस्तेन समं चरमोपना विष्टरमलंकृत्य 'अम्ब', समातूयन्तां समस्ता अप्यात्मीयाः *नुषाः' । तबतु वनवसा हर प्रसनोत्तंसोत्तरतिफन्तलारामाः, कल्पलता इब मणिभषणरमणीयावनिर्गमाः प्रायष इव "समाजपयोषराबिया मध्यभागाः, सकलजगहलावण्यललिपिलिखिता इय सुभगभोगायतनाभोगा: कलिल' काननक्षितयाइव १७पारपल्ला वोल्लासितविहारविषयाः, कमलिन्य इव मणिमयमजीरमाणितोमव मरा२लमण्डलस्खलितचलन जलेशया, स्वकोपरूपसंपत्तिरस्कृतविभवन रामारामणीयका: सलोलमहमहमिकोत्सुकाः समारय समन्तात्परिबवुः पुण्यदेवता इव ताः स्पवासिन्यः २३ । 'अम्ब, मभ्रातृमाया सुबत्यप्माकार्यताम्' । ततः संध्येव २ घातुरक्ताम्बरधराटोपा, तपाषीरिष
ऐसा विचार करके बारिषेण मुनि शीघ्र मार्ग रोककर इसे मुनिधर्म में स्थापित करने के लिए अपने पिता श्रेणिक राजा के निवास स्थान पर गए। चेलिनी रानी ने अपने पुत्र चारिषेण को मित्र के साथ आते हुए देखकर उसके मन के अभिप्राय की परीक्षा करने के लिये रागियों के योग्य आसन ( पलङ्ग-आदि ) और वैरागियों के योग्य आसन (मासन प्रदान किये। याविण नुनि अपने मित्र के साथ वैरागियों के योग्य बासन ( घटाई ) पर बैठ गए और कहा–'माता! आपनी समस्त पुत्र-वधुओं को बुलाओ।'
बाद में ऐसी सभी पूर्ण युवती बारिषेण की पलियों ने परस्पर के अहंकार से उल्कण्ठित होकर बिलास के साथ आकर उन्हें चारों ओर से वेष्टित कर लिया, जिनका केशपाश रूपी बगीचा वैसा पुष्परूपी शिरोभूषणों से वृद्धिंगत था जैसे बनदेवता पुष्परूपी शिरोभूषणा से वृद्धिगत बगीचे वालो होती है। जिनके अङ्गों के निकास मणिमय आभूषणों से वैसे मनोज्ञ हैं जैसे कल्पलताएँ मणि-सरीखे ( शुभ्र ) पुष्परूपी आभूषणों से मनोज्ञ होती हैं। जिनका मध्यभाग ( कमर ) पैसा उन्नत पयोधरों ( कुच कलशों) से आविद्ध ( झुका हुआ ) है जैसे वर्षा मत विशाल पयोधरों मेघों से आच्छादित आकाश के मध्यभाग वाली होती है। जिनका विस्तत शरीर ऐसा सुन्दर है-मानों-समस्त लोक के सौन्दर्य को अंशरूप लिपि से लिखी गई हैं। जिन्होंने बिहार विषयों (लोला. प्रदेशों ) को पादपल्लबों ( चरणरूपी किसलयों ) से वैसा सुशोभित किया है जैसे अशोक वृक्षों की वन भूमियो बिहार विषयों ( उद्यान-प्रान्तों) को पाद ( मुल से लेकर ) किसलयों से सुशोभित करती हैं। जैसे कमललताएँ रत्नमयो नूपुरों के शब्द-सरीखा शब्द करने वाले मतवाले हंस-समूह से चलित कमलों वाली होती हैं वैसे ही जिनके चरणकमल रत्नमयो नूपुरों की मधुर सङ्कार ध्वनिरूपी मतवाले हंस-समूह से चलित हो रहे हैं। जिन्होंने अपनी रूपसम्पदा से तीन लोक को नारी जनों को सुन्दरता तिरस्कृत की है और जो पुण्यदेवता-सरीखी हैं।
इसके बाद बारिषेण ने कहा-'माता ! मेरी भ्रातृ-वधू सुदती को भी बुलाइए।' मत- ऐसी सुदती भी वहाँ प्रविष्ट हुई। जो वेसी गेरुआ रक्त अम्बर ( वस्त्र ) से चञ्चल विस्तारवाली है जैसी संध्या लोहित १. अभिप्रायायति । २. त्यक्तुमिच्छुः । ३. स्त्रीलोभ । ४. शीघ्र। ५. मार्ग झवा। ६. एतस्य स्थापनं । ७.
अंगिकावास। ८. आगच्छन्त । ९. मञ्चकादिक 1१०. वीतरागासनं । ११. है मातः । *. बध्वः । १२, सन्नत । १३. आभुग्नो निर्भरं वा । १४. शरीरे । १५. अशोकवृक्ष । १६. भूमयः। १७. पादाः चरणाः पझे मूलं । १८. पान्दित । १९. हंसः । २०. चलना एव जलेदायानि यासां ताः1 २१. नारीजन । २२. किंचित् प्रौढाः । २३. भ्रातृपलो। २४. गेरूरजवस्त्रेण चरः चपल: आटोपो यस्याः सा ।
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यथास्तिलक पम्पूकाश्ये विलुप्तकुन्तलालापा, भयऊनमतिरिव विभ्रमभ्रशिदर्शना, हिमोन्मथिता कमलिनोव सामच्चायापध'ना, शबिर बोलपयोषरभरा, खट्वाकरडाकृतिरिव प्रकटकोकस निकरा सकलसंसारखव्यावृत्तिनीतिमू तिम्तो राम्यस्थितिरिक विवेश । पुष्पदन्तहत्यकन्वलो ल्लासमसुमती सुरती। वारिषेशोऽवषार्य मित्र, सेयं तव प्रणमिनो यन्निमितमयापि * संपद्यसे मनो मुनिरिति । एताविषकायास्तव भ्रातृजायाः, तते च वयं तय समक्षोवर्ष समाचरिताभिजातजनोबितवरिताः। पुष्पदन्तः
स्नानानुलेपवसनामरणप्रसूनताम्बूलवासविषिना क्षणमात्रमेतत् । आधे पभाषसुभगे बपुरङ्गनानां नैसगिसी तु किमित्र स्थितिरस्य वाध्या ॥२४॥
इस्पसंशयमाशय स्त्रैणेषु सुखकरगषु विचिकित्सासम्जा लगाभिनीय' 'हही “निझामनिरुद्धमकाव. वर्ण वाले अम्बर ( आकाश ) में संचार करनेवाले विस्तार वाली होती है। जो वैसी विलुप्त ( अस्त-व्यस्त ) केश-समूह वालो है जैसी तपोलक्ष्मी विलुप्त । उत्पादित-उखाड़े हुए ) का समूह वाली होती है। जो वेसी विभ्रम ( विलास-सौन्दर्य ) से शून्य दर्शन वाली है जैसे भष्यप्राणी की बुद्धि विभ्रम ( मिथ्याज्ञान ) को नष्ट करनेवाले सम्बग्दर्शन से अलङ्कृत होती है। जो सो क्षामच्छायापघना ( म्लानकान्ति-युक्त शरीरवाली) है जैसी पाले से पोड़ित हुई कमललता म्लान कान्तियुक्त पत्र-पुष्पादि अवयवों वाली होती है। जैसे शरद ऋतु दीन (दरिद्रनिर्जल ) पयोधर-समूह ( मेघ-समूह ) वाली होती है वैसे ही जो दीन ( शिथिल ) पयोधर समूह ( कुच-समूह ) वाली है। जैसे अनबुड़ी खाट की आकृति प्रकट दिखाई देनेवाले कीकसों ( कोड़ों के समूह वाली होती है वैसे ही जिसके कीकस-समूह ( हड्डियों की श्रेणी) प्रकट दिखाई देते थे। जो ऐसो मालम पड़तो थी-मानोंसमस्त सांसारिक मुखों से पराङ्मुखता ( उदासीनता ) की नीति वाली मूर्तिमती (स्त्री-रूपधारिणो ) वैराग्यस्थिति ही है और जो पुष्पदन्त के हृदयरूपो पल्लव के उल्लास ( प्रमोद ) के लिए पृथिवी-सरीखी है ।
सुदती को जानकर वारिषेण ने कहा-'मित्र ! यही तुम्हारी वह प्रियतमा है, जिसके निमित्त से अब तक भी बारह वर्ष बीत जाने पर भी-तुम भाव साधु नहीं हुए और ये सब सामने दिखाई देने वाली मनोज्ञ शरीर वालो तुम्हारी भोजाइयाँ हैं एवं ये हम हैं, जिन्होंने तुम्हारे समक्ष चारित्र की उन्नतिपूर्वक कुलीन पुरुषों के योग्य निर्दोष चारित्र पालन किया है, अर्थात्--मेरी स्त्रियाँ विशेष सुन्दर हैं तो भी उन्हें छोड़कर मैंने निर्दोष चारित्र पालन किया और तुम कुरूप स्त्री को देवी-सरोखो समझकर हील चारित्र वाले हुए हो। इस प्रकार वारिषेण ने पुष्पदन्त को तिरस्कृत किया।
तत्पश्चात् पुष्पदन्त ने निम्न प्रकार निस्सन्देह विचार किया
यह स्त्रियों का शरीर, स्नान, सुगन्धित वस्तु का लेप, मनोज्ञ वस्त्र, आभूषण, पुष्प, ताम्बल व वासन धूपनादि विधि से अन्य दूसरो सुगन्धि वस्तुओं के आरोपण से क्षणमात्र के लिए सुन्दर प्रतीत होता है परन्तु इस शरीर को स्वाभाविक स्थिति ( रस व रक्त-आदि सप्तधातुं-युक्तता ) कहने योग्य नहीं है, अर्थात्-यह अत्यन्त असमीचीन है ।। २०४ ।।
__इसके बाद उसने स्त्री सम्बन्धी क्षणिक सुख के कारणों में ग्लानि-युक्त लज्जा को प्राप्त करके कहा
१. देहा। २. खट्वाङ्गमेव कारतः वाणदोरहौरहिता वाटल । ३. अस्थि। ४. पल्लव । ५ वासनष्पनादि ।
६. सुगन्धवस्तुनारोपणेन क्षणमात्रसुमगमगं । ७. अस्य अङ्गस्य नैसर्गिकी स्वाभाविकी स्थितिर्नवाच्या निवर असमीचीनेत्यर्थः । ८. विचिन्तय । १. प्राप्य । १०. अतिशयेन ।
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षष्ठ आश्वासः
२५७
'मोदय, विधुरबालव संसारसुनसरोजोसा रनोहारायमाणचरण" वारिण, पर्याप्तमत्रावस्थानन । प्रकामशक". लितकुसुभास्त्ररसरहस्य वयस्य', इदानी बयार्षनिवावनिमनोमुनिरस्मीति चाषषाय विशुबहृदयौ द्वापि तो चेलिनीमहादेवीमभिनन्धोपसम्म च गुरुपादोपशल्य निःशल्यायो साधु तपश्वक्रतुः । भवति चात्र लोकः--
सुदतीसङ्गमासक्तं पुष्पदन्तं तपस्विनम् । वारिषणः कृतत्राणः स्थापयामरस संयमे ॥२०५|| इत्युपासफाष्पयने स्थितिकारकीतनो नाम चतुर्वशः फल्पः ।
त्यचित्यालमेनिस्तपोभिविविधात्मकः । पूजामहा जायच कुर्यान्मार्गप्रभावनम् ॥२०६।। शाने तपसि पूजायो यतीनां महत्वसूयते । ५ स्वर्गापवर्गभूलतमीन में सस्याप्यसूयते" ॥२०७॥ समयश्चित्तपित्तास्यामिहापासिनभासक:१२ समर्थपिनसविताम्मा स्वस्यामुत्र म भासफः ।।२०८॥
'कामदेव के दर्द को विशेष रूप से रोकने वाले और काष्ट अवस्था में बन्धु-सरीखे एवं सांसारिक सुखरूपी कमल को नष्ट करने में हिम-(बर्फ) सरीखे चरित्रशाली ऐसे हे बारिषेण ! यहाँ ठहरने से कोई लाभ नहीं । 'कामदेव के रस के गूढस्वरूप को विशेष रूप से खण्डित करने वाले मित्र ! इस समय मैं वास्तविक वैराग्य का स्थान होकर भावमुनि हुआ हूँ। ऐसा निश्चय करके दोनों विशद्ध हृदय वाले मित्रों ने चेलिनो महादेवी का अभिनन्दन करके गुरु के चरणकमलों के समोग प्राप्त होकर निःशल्य अभिप्राय वाले होकर अच्छी तरह उप तपश्चर्या की।
इस विषय में एक दलोक है, उसका अभिप्राय यह है
वारिषेण ऋषि ने पुष्पदन्त नामक तपस्वी को, जो कि सुदती नाम की प्रिया के साथ संगम के लिए लालायित हो रहा था, रक्षा की और उसे चारित्र में स्थापित किया ।। २०५५
इस प्रकार उपासकाध्ययन में स्थितिकरण का कथन करने वाला चौदहवो कल्प समास हुआ। [ अब सम्यक्त्व के प्रभावना अङ्ग का निरूपण करते हैं-]
अनेक प्रकार के जिनबिम्ब व जिनमन्दिरों की स्थापना के द्वारा, अनेक प्रकार के व्याकरण, काव्य, कोष, न्याय व धर्मशास्त्रों के ज्ञान के द्वारा, नाना प्रधार की तपश्चर्याओं (अनशन-आदि बारह प्रकार के तपों) द्वारा एवं नाना प्रकार की महाध्वज-आदि पूजाओं (नित्यपूजा, अध्यातिपूजा, इन्द्रमहापूजा व महामहपूजाआदि ) द्वारा जैनशासन को प्रभावना करनी चाहिए ।। २०६॥ जो विवेक-शून्य मानव साधु महापुरूपों के सम्यग्ज्ञान, तप व पूजा से ईया-द्वेष करता है, अर्थात्-जो मुर्ख, साघुओं के ज्ञान, तप व उपासना को देखकर उनके गुणों से द्रोह करता है, निस्सन्देह उससे स्वर्गलक्ष्मी व मोक्षलक्ष्मी भी ईर्ष्या करती है। अर्थात्-उसे स्वर्गश्री व मुक्तिश्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ॥ २०७ ।। जो दिवेको मानव विशुद्ध चित्तवृत्ति ( अभिमान, ईया व अनिष्ट चिन्तवन-आदि दोषों से रहित ममात्ति) या शास्त्रज्ञान और धन (घन-धान्य-आदि के दान) से समर्थ होने पर भी शासन-दीपक ( जैनधर्म को प्रभावना करने वाला ) नहीं है, वह विशुद्ध मनोवृत्ति या
१. दर्प। २. कन्नै सति । ३-४. विनाओं हिममिव चारित्रं यस्य । ५. खण्डित । ६. मित्र । ३. प्राप्य । ८. समीर्ष ।
९. अलिमाभिः। १०. स्वर्गापवर्गविषये भवतीति नः। ११. अक्षनां करोति । १२. न शासनदीपको यः भवति । १३. आत्मनः परलोके स उद्योतको न भवति ।
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२५८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तदानज्ञानविज्ञानमहामह महोत्सवः । वर्धानद्योतनं कुर्यावहिका पेक्षयोजिमतः ॥२०९।।
यतामनीपालमानम्-पचालदेशेषु भीमस्पायनापपरमेश्वरयशःप्रशाशनाम अहिच्छत्रे चन्द्राननाङ्ग भारतिकुसुमचा द्विपंतपस्य' भूपत्तेतरितोषितकुलशील: पगं वे बचे निमित्तं दण्डनीत्यां पाभिविनीप्तमतिरापना बीना मानुषीणां च प्रतिकता यज्ञदत्ताभट्टि नीभर्ता सोमबत्तो नाम पुरोहितोऽभूत् । एकवा नु सा कित यज्ञदस्तान्त चत्नी सती माफच मञ्जरी कर्णपूरेषु तपरिणतफलाहारेप व समासादितवोहना व्यतिक्रान्तर
सालयस्तरोफलकालतया कामितमनवाप्नुवती शिफासु१२ व्यवमानर प्रसानिनीय पतनुतानन्त्रमुपेयुषो से पुरोहितेन बुद्धि तथा धनादि वैभव से समर्थ होने पर भी परलोक में अपनी आत्मा का उद्योत करने वाला नहीं हो सकता। अर्थात्---उस स्वर्गश्री व मुफित्री की प्राप्ति नहीं हो सकती ।। २०८ ॥ इसलिए धर्म-बुद्धि वाले मानव को ऐहिक सुरल की अपेक्षा से रहित होते हुए आहारादि चार प्रकार के पात्रदान से, आगम के ज्ञान से, चौसठ फलाओं के विज्ञान में एवं प्रतिष्ठा-आदि महोत्सवों से, सम्यग्दर्शन का प्रकाश करना चाहिए ।। २७९ ।।
भावार्थ- स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी प्रभावना अङ्ग का निरूपण करते हुए कहा है-विा 'अज्ञानरूपी अन्धकार के विस्तार को हटाकर जैनशासन के माहात्म्य का प्रकाश करना प्रभावना है। इसमें बहुश्रुत, स्वार्थत्यागी, वक्ता व सुलेखक विद्वानों को एवं दानवीर धनाढयों की अपेक्षा होती है। इतिहास भी साक्षी है कि ई० से ३२५ वर्ष पूर्च भद्रबाह श्रुतकेवली ने सम्राट चन्द्रगुप्त के सहयोग से न केवल, ज्ञान का भण्डार भरकर शासन को उद्दीपित विया, किन्तु साथ में अनेक बहुश्रुत विद्वान् चरित्रनिष्ठ मुनिसंघ को पंदा करके जैनशासन की बृहत् प्रभावना की। अतः वर्तमान में जैन शासन को उद्दीपित करने के लिए अनेक बहुश्रुत स्वार्थत्यागी धुरन्धर विद्वानों को उत्पन्न करने का सतत प्रयत्न करना चाहिए और यह बात तभी संभव है जब प्रत्येक स्थान में विद्यालय व गुरुकुल हो । बहुश्रुत विद्वानों का कर्तव्य है, कि वे द्वादशाङ्ग श्रुत के उद्धार के लिए संस्कृत या प्राकृतिक शास्त्रों का खोजपूर्ण हिन्दी अनुवाद करें ताकि शास्त्र, स्वाध्याय सुलभ हो जाय । इसी प्रकार दानवीर धनाढयों का कर्तव्य है कि वे विद्वानों की सेवा शश्रपा करते हए उन्हें जेन शासन को प्रभावना के श्रेयस्कर मार्ग में पूर्ण (सन, मन व धन से सहयोग दें। ऐसा करने से वे स्वर्ग श्री व मुक्तिश्री के पाम होकर ऐहिक कीतिभाजन भी होंगे।
अब प्रभाबना अङ्ग में प्रसिद्ध वकुमार मुनि की कथा सुनिए
पञ्चाल देश में श्रीमत्पावनाथ तीर्यवर की कीति के प्रकाशान का पात्र 'अहिच्छत्र नाम का नगर है। उसमें 'चन्द्रानना' नाम की रानीरूपी रति के लिए कामदेव-सा मनोज 'द्विपंतप' नाम का राजा राज्य करता था | उसको ऐमा 'सोमदत्त' नाम का राजपुरोहित था, जो कि कुलीन, सदाचारी और छह वेदाङ्ग (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरक्त छन्द व ज्योतिष), चार वेद, ज्योतिष, निमित्तज्ञान और दण्डनीति विद्या में प्रवीण बुद्धिशाली था एवं देवी ( उल्कापात, अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि ) तथा मानुषी आपत्तियों को दूर करने में समर्थ था। उसकी 'यशदत्ता' नामकी स्त्री थी।
एक बार यज्ञदत्ता गर्भवती हुई और उसे आम्रमज्जरी के कर्णपूर के धारण का और पके हुए आनफलों के भक्षण का दोहला हुआ । परन्तु आम्र-मञ्जरी व पके हुए आन-फल का मौसम बीत जुका था, अतः १. प्रतिष्ठादि । २. इहलोकसुम्लापेमारहितः । ३. अमत्रे-पात्र भाजने । ४. नाम्नः । ५. शिक्षा, कापी व्याकरणं
छन्दो ज्योतिरिक्त चेति । ६. प्रतीकारकर्ता। ७. गभिणी। ८. माकन्दरसालपिकप्रियकालिवासाः चुतपर्यायाः । ९. वल्लीवल्ली मजामपि । १०. पक्वं । ११. आम्रवल्लरी। * 'कामितमनवाप्तवती' इति का। १२. मलेयु, शिफाः जटाः इति पं०। १३, प्रतानिनी लता वल्ली। १४. नायकत्वं प्रामा।
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१४ आश्वासः
२५९
शाजिनेन च न दृष्टा हृदयेष्टमभाषिष्ट । भट्टतनिशम्य 'कथमेतन्मनोपमयचा संपथमस्मन्मनोमय मव्यर्थप्रार्थनं करिष्यामि इत्याकुलमनः परिन्यदयात्रतन्त्रानुपदः सातपसूत्रपदत्राण" स्तद्गवेषण विषणापरायणः सत्रितस्ततोवजन जलवाहिनी नाम नदीतटनिकट निविष्टप्रसनने महति कालिदासकानने परम तपश्चरणाचरण शुचिशरीरेण निःशेषणवृतमनस्कारेण ' समस्तसस्वस्वरूपनिरूप स्वाध्यायश्वनि सिद्धौर घिसट "बसा पितधनदेवता निकरेण मूर्ति घर्मेण विनेपदेधिके पमित्रेण सुमित्र ेण मुनिनाल कृता लवालवलयमेतद्ब्रह्मस' माहात्म्याचा मूलमाचूर्ण क चूतं समुल्लसल्लवली फगुलु फीतमवलोक्य १४ कट्टा हस्ते कलत्रस्य पिकप्रियप्रसवकस तोली gee ततो भगवतोच थियोषपयोधिमध्यसंनिभायमा नसकलकला कलापरश्ना मंधवणावसरप्रयत्नात्समायातं सहखरकल्प सूर्यथिमा सूर्यचराभिधानानुगत मत्पत्परिभवपरितमा १६ मगोचरं भवान्तरमाकम्पोवीर्णजातिस्मरभाव: स्वप्न
उसका दोहला पूर्ण न होने से उसने वैसी शारीरिक कृशता ( क्षीणता ) प्राप्त की जैसी मूल (जड़) में व्यथित क्षोणता प्राप्त करती है। अतः राजपुरोहित और कुटुम्बी जनों द्वारा विस्तार से पूँछी जाने पर उसने अपना दोहला कह दिया । उक्त बात सुनकर पुरोहित का मन और कुटुम्बोजन व्याकुलित हुए। उसने मन में विचार किया कि मैं झूठे मार्ग का अनुसरण करने वाली व मेरा मन व्यथित ( विशेष दुःखित ) करने वाली इसकी मनोकामना कैसे सफल ( पूर्ण ) करूँ ?
पस्चात् उसने छात्र सम्प्रदाय के संघ-सहित होकर छत्ता धारण किया व जूते पहिने और आम्रफल देखने या खोजने की बुद्धि में यहाँ वहाँ पर्यटन करते हुए उसने 'जलवाहिनी' नाम की नदी के तट के निकटवर्ती, विस्तृत व महान आम्रवन में ऐसा नाम्र वृक्ष देखा, जिसकी क्यारी समूह ऐसे 'सुमित्र' नाम के ऋषि से अकुत थी, जो कि ( आम्रवृक्ष ) प्रस्तुत ऋषि के चारित्र व विद्या के प्रभाव से जड़ से शिखर तक शोभायमान हो रहीं मञ्जरियों व आम्र फलों के गुच्छों से वृद्धिंगत था । जो कि सुमित्र ऋषि ) उत्कृष्ट तपश्चर्या के अनुष्ठान से पवित्र शरीर वाले थे। समस्त द्वादशाङ्ग श्रुत के श्रवण से जिसका चित्त विस्तृत गया था जिसने समस्त प्राणियों के स्वरूप को निरूपण करने वाले स्वाध्याय को ध्वनिरूपी सिद्धीधिको समीपता से वनदेवता समूह को अपने वश में कर लिया था। जो ऐसे प्रतीत होते थे—मानों - मूर्तिमान् धर्म ही है-और जो शिष्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य सरीखे थे। इसके बाद उसने उस आम्रवृक्ष से उत्पन्न हुए फलों के गुच्छों को तोड़कर चतुर शिष्य के हाथ अपनी प्रिया के पास भेज दिए ।
इसके बाद उसने जब उक्त ऋषि से जिसको बात्मा में अवधिज्ञानरूप समुद्र के मध्य सन्निधि प्राप्त करने वाले गमस्त कला-समूह रूपी रत्न प्रकट हुए हैं, अपना इस प्रकार पूर्वत्र श्रवण किया, कि 'तू बारहव स्वर्ग में सूर्य नामक विमान में उत्पन्न हुआ, बहुत थोड़े ऐश्वर्य से महित भूतपूर्व सूर्य नामका देव था और मेरे निकट धर्मश्रवण के अवसर पर प्रयत्न पूर्वक आया हुआ था तब उसे पूर्वभव का स्मरण हुआ, गतः उसने
१. प्रपंचेन । २. अस्मन्मनो नातीति अस्मन्मनोमयं दुःखदं । ३. सफलकथं । ४. संप्रदाय मेकापासहितः । ५ छत्रपानसहित महातपत्रेण छत्रेण पदत्राणाम्यामुपानयां वर्तते इति । ६ आनावलोकन । ७. विस्तरणं । ८. आम्रवने । ९. चित्ताभोगंन । १०. समोप ११. कमलसूर्येण ( सुमित्रेण ), वैषिके कम मित्रेण रविणा । १२. स्यादुद्रघर्च व्रताध्ययनः विद्याप्रभावात् । ब्रह्मवर्चसं यतिव्रतविद्या प्रभावाः । १३. मजरी १४. चतुर । १५. आावरंडिका । १६ परिणतं सहितमित्यर्थः ।
(०) ।
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यदास्तिलकचम्पूकाव्ये
समासादितसाम्राज्यसभानसारात्संसाराद्विरम्य मनोज्ञविजय प्राम्यां प्रवस्यामासज्य प्रबुद्ध सिद्धान्तहृदयो मगधविषये सोपारपुरपर्यन्तानामिगिरिनाम्नि महोबरे सम्यग्योगात पनयोगबरो' बभूव ।
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तदनु सा वियोगातङ्कत चित्ता यज्ञवत्ता तवन्तेवासिम्यः सोमदत्त व सभ्य तिफर मात्मखेवकरमनुभूय प्रसूप समये स्तनंधमं पुनस्तमावाय प्रयाय च तं भूमिभूतम् 'अहो कूटकपटपटक सम्मनो वनवादा व पाचक निःस्नग्ध, विष, वीमं विगम्बर प्रतिच्छन्नमवन्धि स्वच्छागच्छसि तदागच्छ नो चेद् गृहाणनमात्मनो नन्दनम् इति व्यस्यास्यो 'शोभंगवतः पुरतः शिलातले बालकमुत्सृज्य विजहार तिज निवासम् । भगवानपि तेन सुसेन बुषक: प्लोपोर कस्वा द्विष्टरीकृत वरगवर्गः ११ सोपसर्गस्यंवावस्थे
B
अत्रान्तरे सचराचरसंचरत्वे च रोचरणाल तक रक्तरत्प्रस्प विजयातटीनस्य २५ दयिताविरविद्याधरौ विनोदविहारपरिमलितकान्तारघरण्यामुत्तरन्याममरावतीपुरीपरमेश्वरः सुमङ्गलालावर प्रकामं १३ निखातारा ि कान्ताशोकशङ्कुस्त्रिशङ्कुर्नाम नृपतिः समराबसराभिस ररसपत्नसंताना वसान "सारशिलीमुखविचराय राज्यसुखमनुभूय जिनागमा चबगत संसारशरोरभोग राम्पस्थितियं तिनुं भूषभू गो घरसंचाराय हेमपुरेश्वराव समस्तमहीदामात्यशासनाय स्वप्न- राज्य सरीखे सारवाले ( निस्सार ) संसार से विरक्त होकर ऐसी जिनदीक्षा ग्रहण की, जिसमें कामदेव के विजय को प्रचुरता वर्तमान है,
बाद में वह समस्त सिद्धान्तों के रहस्य का ज्ञाता होकर ममघ देशवर्ती 'सोपारपुर' नामक नगर के समीपवर्ती तेजवाले 'नाभिगिरि' नाम के पर्वत पर भले प्रकार धर्मध्यान संबंधी आतपन योग का घरक हुआ ।
इसके बाद अपने पति के वियोग को दारुण व्यथा से नष्ट चित्तवाली यज्ञदत्ता ब्राह्मणों ने शिष्यों से अपने लिए खेदजनक सोमदत्त के दीक्षा ग्रहण का समाचार खाना और नौ महीने के अन्त में बच्चे का प्रसव किया और उसे लेकर इसी पर्वत पर पहुँच कर अपने दीक्षित पति से बोली- 'अरे कूट-कपट के समूह और मेरे मनरूपी वन को भस्म करने के लिए दावानल अग्नि-सरीखे एवं निःस्नेही मूर्ख ! यदि इस दिगम्बर (नग्न) वेष को छोड़कर अपनी इच्छानुसार आते हो तो आओ, नहीं तो अपने इस पुत्र को ग्रहण कर ।' ऐसा कहकर बहु ऊँचे घुटनों वाले ( खड़े होकर ध्यान करनेवाले ) मुनि के सामने शिलातल पर बच्चे को छोड़कर अपने निवास स्थान पर चली गई। शिला के विशेष दाह से कलुषित होने से मुनि के दोनों पैर बच्चे के आधारभूत थे और मुनि भी उस बच्चे से उपसर्ग- सहित हुए पूर्व की तरह ध्यानारूढ़ होकर खड़े हुए थे |
इसी बीच में ऐसे विजयार्ध पर्वत की, जिसका मध्य भाग साथ-साथ गमन करने वाले सेवकों के साथ संचार करने वाली विद्याधरियों के चरणों में लगे हुए लाक्षारस से लाल है, उत्तर श्रेणी में, जिसकी वनभूमि समीपवर्ती पतिवाली विद्याधरियों के आनन्दजनक बिहार से सुगन्धित है, अमरावती नामकी नगरी का स्वामी, सुमङ्गला रानी का पति और शत्रु स्त्रियों के हृदय में विशेष रूप से शोकरूपी कीला गाड़ने वाला त्रिशंकु नामका राजा राज्य करता था, जिसके बाण युद्ध के अवसर पर सामने आ रहे शत्रु समूह का ध्वंस करने में अव्यर्थ थे, उसने चिरकाल पर्यन्त राज्य-सुख का उपभोग करके जैन सिद्धान्त से संसार, शरीर व पंचेन्द्रियों के भोगों से वैराग्य-स्थिति का अनुभव किया । अतः मुनि होने के इच्छुक हुए उसने ऐसे बल
१. गृहीत्वा । २. सेजसि । ३. ध्यान | ४. नत्र मासावसाने । ५. पर्वतम् । ६. मंडल 1 ७. रूपं । ८. मुक्त्वा । जानो । १०. दाह । ११. शिश्वोसधारी भूतपादः । १२. समापकान्त । १३. दाटिककीलकः । १४. मरण ।
९.
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षष्ठ आश्वासः
२६१
बलवानां सुदेषीं राज्यं च ज्येष्टाय पुत्राय भास्वारदेय नवाय सुप्रभसूरसमीपे संयमी समजनि । ततो गतेषु कतिपयेचिद्दिवसेषु समुत्साहितात्मीय सहायसमूहेन स्वयोर्वविद्यालयून बुविनीतवरिष्ठेन कनिष्ठेनानुजैन पुरंदरदेवेन विहित राज्यापहारः 1 परिजनेन समं स भास्करदेवस्तत्र बलवाहनपुरे शिविरमविनिवेश्य मणिमालया महिष्यानुगतस्तं सोमवसभगवन्तमुपासितुमागतस्तत्पादमूले स्थलकमलमिव तं बालकमवलोष 'अहो महदाश्चर्यम् । यतः कथfranरत्नाकरमपि रत्नम्, अजलाशयमपि कुशेश्श्यम् अनित्धनमपि तेजःपुञ्जम्, अचण्डकरमप्युप्रत्विषम् अनिला"मातुलमपि कमनीयम् अपि च कथमयं बालपक्षलव हव पाणिस्पर्शनापि म्लायस्लावण्यः, कठोरोमणि प्रावणि वाघटित इष रिरंसमानमानसः, मातुरसङ्गगत द्रव सुखेन समास्ते' इति कृतमतिः -- 'प्रियतमे कामं स्तनंधयभूतमनोरथाशस्तदायं
वाहन नाम के राजा के साथ, जो कि भूमिगोचरी व हेमपुर नगर का स्वामी एवं समस्त राजाओं द्वारा मानने योग्य आशा वाला था, अपनी सुदेवी नामकी पुत्री का विवाह संस्कार किया और समस्त राज्य भार 'भास्कर देव' नाम के ज्येष्ठ पुत्र को देकर सुप्रभ नाम के आचार्य के समीप दीक्षा धारण करके मुनि हो गया ।
कुछ दिनों के पश्चात वह भास्करदेव, जिसका राज्य ऐसे पुरन्दरदेव नाम के छोटे भाई द्वारा छीन लिया गया था, जिसने अपना सहायक -समूह उत्साहित किया था, और जो अपनी भुजाओं का दर्म ( गर्व ), राजनैतिक ज्ञान व सैन्य-समूह से युक्त था एवं जो उद्दण्डों में श्रेष्ठ था, अपने कुटुम्बीजनों के साथ उक्त बलवाननामके नगर में ( भगिनोपतिनगर- हेमपुर में ) अपना लवकर डाला और सोमदत्त मुनि की पूजा के लिए अपनी मणिमाला नाम की रानी के साथ आया । वहाँ पर उसने मुनि के पादमूल में स्थलकमल सरीखे उस नवजात शिशु को देखकर विचार किया- 'अहो महान आश्चर्य है, क्योंकि कैसे यह ( नवजात शिशु ) अरत्नाकरमपि ( रत्न-समूह न ) होकर के भी रत्न है, यहाँ पर विरोध मालूम पड़ता है। क्योंकि जो रत्न समूह नहीं है यह रत्न कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि जो ( शिशु ) अ रत्नाकर है ( समुद्र नहीं है ) और अपि ( निश्चय से ) रहन ( रत्न सरीखा श्रेष्ठ है । जो अन्जलाशयमपि ( ताग के बिना भी ) कुश ( कमल) है | यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि तड़ाग के बिना कमल होना संघटित नहीं होता । अतः इसका समाधान यह है कि जो अ-जडाशयं ( मूखं न होकर ) अपि । निश्चय से ) कुशेशाय ( कमल-सा मनोज्ञ ) है | जो अनिन्धनमपि ( ईवन के बिना भी ) तेजःपुञ्ज ( अग्नि ) है । यह भी विरुद्ध है; क्योंकि ईंधन के fear ofग्न होना नितान्त असङ्गत है । अतः इसका परिहार यह है कि जो अनिन्धनं ( ईंधनरूप नहीं है ) और अपि ( निश्चय से ) तेजःपुञ्जम् ( सौन्दर्य राशि ) है । इसी प्रकार जो अचण्डकरमपि ( सूर्य के विना भी) उग्रत्विषं (तक्ष्ण कान्ति युक्त ) है । यह भी विरुद्ध है क्योंकि सूर्य के बिना तीक्ष्णकान्तियुक्त कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो अ चण्ड-कर ( उष्ण हस्तशाली न होता हुआ ) अपि ( निश्चय से) उग्रस्त्रिषम् ( विशेष मनोज्ञ कान्ति बाला ) है और जो अनिलामातुलमपि ( चन्द्र न होकर के भी } कमनीय ( मनोज्ञ ) है । यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि चन्द्र के बिना कमनीयता ( मनोज्ञता ) संघटित नहीं होती । अतः इसका समाधान यह है कि जो अनिलामातुल ( चन्द्र रूप न होता हुआ ) अपि (निश्चय में) कमनीय (विशेष मनोश ) हैं | यह नवजात शिशु बेसा हस्त के स्पर्श से भी म्लान कान्तिवाला है जैसे नवीन पल्लव हस्त-स्पर्श से भी म्लानकान्तियुक्त होता है। यह तीक्ष्ण ऊम्मावाले पाषाण पर वज्र-घटित
१. भास्करदेवः । २. भगिनीपतिनगरे हेमपुरे । ३. समुद्रं विना । ४. इन्धनं विनाऽपि त्रति । ५. न इलामातुल मनिलामातु न चन्द्रं ।
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यास्तिलकचम्पूकाव्ये भगवत्प्रसादसंपन्नः सर्वलक्षणोपपलो वजकुमारो नामालगीरंग शासन निशिया पुन चित्य वयपावत्तस्य भगवतः पर्युपासनं 'पुनरत एव महतोऽधिगतंतवपत्यजतागतो 'भाषपुरमनुससार ।
भवति चात्र श्लोकः-- अन्तःसारशारीरेषु हितार्यवाहितेहितम् । किं न पादग्निसंयोगः स्वर्णस्वाय तवमनि ॥२१०॥ इत्पुपासकाध्यपने बजकुमारस्य विद्यारसमागमो नाम पञ्चधाः कल्पः ।
पुमलिभाषा चोपन्छायकायः कङ्कलिपल्लव इव पातकीप्रसवस्तवक हवारणमणिकबुक इव 'ध अन्धूनामानवनिरीक्षितामृतपी यमरितमुखः सखेल करपरम्परया संचार्यमाणः कमेणोत्तानशयवरहसितजानुचत्रमणमदगवालापस्पष्टत्रियापत्रिपाल्पामवस्थामनुभूय ममार्ग इच छामापादपेन, छायापाबप च जलाशयेन, जलाशय इव कमलाकरेण,
जैसा निश्वल हुआ प्रोति-युक्त . मन वाला है। यह ऐसा सुखपूर्वक स्थित है मानों-माता की गोदी में हो वर्तमान है।
इसके बाद उसने अपनी प्रिया से कहा-'प्रियतमे ! पुत्र का विशेष मनोरथ धारण करनेवाली आपका यह वचकुमार नामका पुत्र पूज्य आचार्य की कृपा से प्राप्त हुआ है, यह समस्त सामुद्रिक शुभ लक्षणों वाला और हमारे वंश को विस्तृत (प्रसिद्ध) करनेवाला पात्र है ।
पश्चात् उस आचार्य को पूर्व की तरह पूजा करके उसने इसी सोमदस गुरु से बच्चे का वृत्तान्त जानकर बलवाहनपुर को प्रस्थान किया।
इस विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है--
आत्मिक शक्ति ( उपसर्ग-सहन की सामथ्र्य ) से युक्त शरीरवाले महापुरुषों पर शत्रुओं द्वारा को हुई चेष्टा ( उपसर्ग-आदि दुष्कृत्य ) उनके हित के लिए होती है, अर्थात--महापुरषों के गुणों की उत्पत्ति का कारण होती है। क्या अग्नि में सपाना सुवर्ण पापाण में सुवर्ण की उत्पत्ति के लिए नहीं होता ? अपितु अवश्य होता है ।। २१० ॥
इस प्रकार उमासकाध्ययन में वञ्चकुमार का विद्याधर से समागम करने वाला यह पन्द्रहवां कल्प समाप्त हुआ।
शब के कारण वन कुमार के शरीर को कान्ति देसी लालिमा-युक्त थी जैसे अशोक वृक्ष का किसलय, धातकी वृक्ष के पुष्पों का गुच्छा एवं पधराग मणि की गेंद लालिमा-युक्त होती है। उसका मुख बन्धुजनों से आनन्द पूर्वक देखा जाता था और बच्चे के पोनेलायक अमृत ( जल), दूध व मक्खन-आदि का खजाना था। इसी तरह बन्धुजनों की हस्त परम्परा से क्रीडापूर्वक संचार किये जा रहे उसने क्रमशः ऊपर को मुख किये लेंटा रहना, मन्द-मन्द मुस्काना, घुटनों के बल चलना, गदगद नाणो बोलना और स्पष्ट वचन बोलना इस प्रकार कम में पांच अवस्थाएं अनुभव की।
इसके पश्चात् वह युवती रमणियों के मनरूपी मृग के लिए आनन्द-बाग-सरीखे यौवन से वैसा अलङ्कृत ( सुशोभित ) हुआ जैसे मभूमि छायाक्ष से अलङ्कत होती है, छायावृक्ष सरोवर से सुशोभित होता १. योगावसाने। २. एतस्मात् सोमदत्तगुरोः । ३. मातबालकवृत्तान्तः । ४. घलयानपुरं । ५. स्वर्णपाषाणे ।
६. रक्त । ७, अशोकपल्लवः। ८. बालस्य पेयं दुग्धादि, मन्यरितवदनः । २, मारवाड़ देशः, यथा मरूस्यसं कामाषुषेण शोमते तथाऽयं यौवनेनालंचक्रे इति सर्वत्र संबंधः । *. दृष्टयान्तालंकारः ।
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षष्ठ आश्वांसः
कम्प्लाकर इस कलहंसनिवहेन, कलहंसनिवह द्वय रामासमागमेन, रामासमागम इव व स्मरलीलायितेन तदणीजनममोमृगप्रभवमेन योवनेनाच ।
तदनु वार्ड प्रौढयोवमावतारसारो वज्ज्रकुमारः पितुर्मातुश्च "अंश निवेशा नवस्थाभि विद्याभिः प्रचलितप्रतापगुप्तः तस्यचरलोकाधिक्यः सुवाक्यमूर्तिनामधामस्य मामस्य मदनमदपण्यतास्थ्यलाय म्यारण्य वनदेवत्तावतारवसुमतीमिन्दुमती बुहितरं परिणीय मणिकुण्डल- रत्नशेखर- माणिक्य- शिखण्ड- किरोट-कीर्तन- कौस्तुभ कर्णपूरपुर:भवरकुमारतं पूर्वपरावारपारतरवन्तुरकन्दरावर श्रीहारसवर्धनो र विजयामहोपाध्याय विरहि विहायश्वरो परिमलमलानमृणालजलेजम 'शोकदल शय्यावयितासाथ विद्याघरीसुरसपरिमल बहल मिदमुपनललास्थानं कन्दुकषमोदपरिणताम्बरचरीचरणालककाङ्क्षि” तमदस्त मालमूलासवालालयमेवमिदं रमणीयमेसम्म नोहरमदश्छ सुन्दरमट
मिति विनिध्यायन् समाचरितवरविहारः पुनः प्राप्तहिमवतिरिया भारः खेचरीलोचनचन्द्रस्य चन्द्रपुरेन्द्रस्याङ्गती युबतिप्रीतिधाम्नो गरुडवेगनाम्नो विद्याधर पते रति शयरूपनिरूपण पात्री प्रियपुत्री पवनवेगानामसङ्गो प्रायाचलमेखलास '' तिकलतालयनिलोनानं बहुरूपिणों नाम निरवद्यां विद्यामाराष्यम्तोभनबंध विघ्ननिधनमा जाताहै, सरोवर कमल समूह से सुशोभित होता है, कमल-समूह कलहंस श्रेणी से सुशोभित होता है, कलहंस-श्रेणी स्त्री-समागम में सुशोभित होती है और स्त्री-समागम काम क्रीड़ा से सुशोभित होता है ।
इसके बाद अत्यन्त प्रोह युवावस्था को उत्कृष्ट उत्पत्ति को प्राप्त करनेवाला वच्चकुमार गाता-पिता कुलकम आई हुई निर्दोष विद्याधरों को विद्याओं की प्राप्ति से प्रकृष्ट सामर्थ्यशाली व प्रताप से सुरक्षित हुआ, इससे उसने समस्त विद्याधर- लोक में महता प्राप्त की और 'सुवाक्यमूर्ति' नाम के गृहभूत अपने मामा या दि० के अभिप्राय से बड़े बहनोई की ऐसी 'इन्दुमती' नाम की पुत्री के साथ विवाह किया, जो कि कामोद्रेक से बेचनेयोग्य जवानी के सौन्दर्यरूपी वन को वनदेवता के अवतरण के लिए भूमि सरोखी थी ।
इसके अन्तर वह मणिकुण्डल, रत्नशेखर, माणिक्य, शिखण्ड, किरीट, कोन, कोस्तुभ और कर्णपूर नाम के विद्याधर जिनमें अग्रेसर हैं, ऐसे विद्याधर कुमारों से युक्त होकर ऐसे विजयार्द्ध पर्वत पर अधिष्ठित हुआ बैठा ), जो कि पूर्व-पश्चिम समुद्र की तरङ्गों से कंची नोत्रो गुफा-भूमियों का धारक है और जो क्रीड़ा रस की वृद्धि से उत्कट है। फिर उक पर्वत तर के विषय में निम्न प्रकार विचार करते हुए उसने वहाँ पर स्वच्छन्द पर्यटन ( विहार - घूमना ) किया यह विजयार्द्ध पर्वत, जिसमें विरहिणी विद्याधरियों के मर्दन से कान्तिहीन मृणाल व कमल वर्तमान हैं, जो अशोक वृक्ष के पत्तों की शय्या में [ इति विलास के लिए ] पतियों द्वारा प्राप्त को हुईं विद्याधरियों के सुरत ( मैथुन) की गंध से प्रचुर है, जो उपवन व लताओं का स्थान है, जो गेंद कीड़ा में तत्पर हुई विद्याधरियों के चरणों में लगे हुए लाक्षारस से चिह्नित है, जो तमाल-मूलों की क्यारियों का आवास स्थान है एवं जो रमणीय, मनोज्ञ व सुन्दर है ।'
इसके बाद हिमवन पर्वत पर प्राप्त हुए उसने ऐसी 'पवनवेगा' नामवाली विद्याधर राजकुमारी देखी, जो कि ऐसे 'गरुड़वेग' नाम के विद्याधर राजा को प्रिय पुत्री थी, जो कि विद्याधरियों के नेत्री कुमुदों को विकसित करने के लिए चन्द्र- सरीखा था, जो चन्द्रपुर नामक नगर का स्वामी और 'अङ्गवती' नामकी युवती रानी की प्राप्ति का आश्रय स्थान था जो ( राजकुमारी पवनवेगा ) विशेष सोन्दर्य के निरूपण की पात्र थी, १. स्यान, कुलकमायात । २. नामाभिधानस्य (क० ) । ३. मामः ज्येष्ठभगिनोपलि: 1 ४. उत्कटं । ५. विरहिणी | ६. अोकदलाच्या दयितेन भर्वा आसाद्या प्राप्या या विद्याधरी । १७. चिह्नितं । ८. पर्वत । ९. विस्तारः । १०. वनम् । ★ 'निषद्यां' (ख), टिप्पण्यां तु स्थिलि । ११. बहुरूपिया ।
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पशास्तिलकचम्पूकाव्ये अगरपया' विद्यया निमार्णवपनामुपलक्ष्य परोपकारषिक्षणस्ता विद्यया तमेतल्लपनाविलसाल: मायाशयाई' वित्रालयामास । पवनवेगा सरस्यूहाभोगापगमानन्तरमेव विथायाः सिजि प्रपद अवश्यमिह जरमन्ययमेव मे कृत. प्राणनाणाधेशः प्राणेशाः' इति चेतस्पभिनिविष्य पुनस्वंय नीहारमहीधरस्य नितम्बतोरि गीपर्यन्ते सूर्यप्रतिमा समाश्रितपतो भगवतस्तपःप्रभावसंपावितसमत्ससस्वभ्यापरतस्य संमतस्य पासपोठोपकण्ठ परुतस्तवेयं सेत्स्यतीत्युपदेशाताभिनय. माराय वज्रकुमाराय गगनगमनाङ्गना जीवितभूतामभिमतार्थसाधनपर्याप्ति प्रति विद्या वितीर्य निजनगर्या पर्याट । धनकुमारस्तव तटसूरिसमक्षं फैन मालिनीकूले विधां प्रसाध्यासाध्यसाधनप्रवृद्ध पराक्रमस्तमकमविक्रमा. ल्पीभूतदय पुरंदरवेयं नृिश्यमच्याजमुनिप्रय सस्ता विजयोत्सवपरम्परावतीममरावती पुरमामपितरमझिलखचरापरितघरणसेवं भाइकरदेवं निवेश्य पश्येन्नियः स्वयंवरम्याजेन विहिताभिलषितकातसङ्गामनङ्गसङ्गसंगत-झारसुभगां पवनवेगासपराग्वाम्बरचरपतिवराः विवाह्य महाभागरह्यो रिहायश्वरचित्तचिन्तामात्रायासरसस्तविलास कालमसिवायामास । जिसका शरीर विद्या सिद्ध करने के लिए हिमवन पर्वत की शिखर पर वर्तमान बन की लताओं से वेष्टित हुए प्रदेश पर स्थित था । जो बहरूपिणी नाम की निषि विद्या सिद्ध कर रही थी और उस समय विश्न उपस्थित करने के अधीन होने से अजगर सपं का वेष धारण करनेवाली इसी बहुरूपिणी विद्या ने जिसे अपने मुख में लील लिया था।
इसके पश्चात् परोपकार करने में चतर तजमार ने गराड विद्या द्वारा पवनवेगा राजकुमारी को मुख में लीलने से गोली ताल वाले उस मायामयी अजगर सर्प को पीहित कर दिया । उम बिद्या-सिद्धि में होने वाले विस्तृत विघ्नों के नष्ट हो जाने के अनन्तर ही जब पवनवेगा राजकुमारी ने विद्या सिद्ध कर ली तब उसने मन में यह दृढ़ संकल्प किया-'अवश्य इस जन्म में मेरी प्राणरक्षा करनेवाला यही मेरा प्राणेश्वर ( प्राणनाथ ) होगा ।
वाद में जम विद्यावरी ने वज्रकुमार का निम्न प्रकार उपदेश दिया-'इसी हिमवन पर्वत के पाश्वंभाग पर बहने वाली नदी के तट पर सूर्य प्रतिमा ( धर्मध्यान विशेष ) का आश्रय किये हुए और तप के प्रभाव से समस्त प्राणियों को आपत्तियां नष्ट करने वाले संयमो आचार्यथो के चरणकमलों के आसन के समीप धताभ्यास करते हा आपको यह विद्या सिद्ध होगी। इसके वाद उस विद्याधरी ने वनकमार के लिए, जो ऐसा प्रतीत होता था-मानों-नवीन कामदेव ही है, प्राणियों को जीवन-दान देने वाली व मनचाही प्रयोजनसिद्धि की योग्यतावाली 'प्रजाति' नाम की विद्या देकर अपनी नगरी के प्रति प्रस्थान किया।
पुनः बनझुमार ने उक्त आचार्यश्री के समक्ष नदी के तट पर प्रस्तुत बहुरूपिणी विद्या सिद्ध की। ऐसा होने से वकुमार का पराक्रम दुसरों के द्वारा प्राप्त होने के अयोग्य दिव्यास्त्ररूपी साधनों से वृद्धिंगता हुआ। अत: उसने अपने चाचा 'पुरन्दरदेव' को, जिसका भाग्य कम ( राजनेतिक ज्ञान सम्पत्ति-झादि ) व पराक्रम ( सैन्य व कोपशक्ति) के अभाव से क्षीण हो गया था, निष्कपट रीति से नष्ट करके शीघ्र ही विजय श्री संबन्धी उत्सव-परम्परा वाली अमरावती नाम की नगरी में अपने पिता भास्कर देव को, जिसके चरणकमलों की सेवा समस्त विद्याघरों द्वारा की गई थी, राज्यासन पर बैठाया ।
फिर जितेन्द्रिय वजकुमार ने ऐसी पवनवेगा नाम की विद्याधर-राजकुमारी के साथ विवाह किया, जिसने स्वयंवर के मिप से इच्छित पति प्राप्त किया है एवं जो कामदेव के सङ्गम से व्याप्त हुए शृङ्गार से मनोश थी और दूसरी विद्याधर-कन्याओं के साथ विवाह किया। तदनन्तर भाग्यशाली विद्याधर राजा द्वारा १. गृहीताजगरसवेषया। २. अजगरं । ३. मायाजगरसपै । ४. विघ्नः । ५. नदो । ६. विद्यापरी । ७. दत्वा ।
८. नदी।
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षट आश्वासः
२६५ अन्यथा पुतरितुष्टशातिप्रशावताभ्यामात्मनः परषितत्वमवबुध्य' निमन्वपनिरुपये सति मादरेपचारपुर प्रवृत्तिरन्यथा नितिरित्याचरितसंगर स्तान्या महामुनिमाहालयमन्त्रविनासितपुरितमिवावरायां' मथुरापां सपश्यतः सोमवत्तस्य भगवतः सनी नीतस्त घनमुरायमासमवसाय संमातालनिकायस्तावुभावथुपमतारी मातापिलरौ सावरमुक्तियुक्तियां प्रतियोध्यावारितोभयग्रन्यो निमंन्याचारणविधिः समपानि ।
भवति पात्रासृणकल्पः भोकल्पः कासालोकश्चितो १२वितालोकः । पुग्यजनश्व स्वजन; कामविरे नरे भवति ॥२१॥
प्रत्युपासकाध्ययने अवकुमारस्य तपोग्रहणो नाम पोजशः कल्पः । पुनमहामहोत्सवोत्साहितातोग्रवाशनायमेदुर ४ प्रासावकन्दरायामेतस्यामेय मपुरायो किल १"गोचराय धारणद्धियुगलं मगरमार्ग संगतगतिसगं सत्ता द्विबिपरिवत्सर एवावस्यामसरे बालिकामेकां "घिल्लचिकिन लोचनसनापापालने योग्य वह बनकुमार ऐसे उन अनेक प्रकार के विलासों से, जो कि विद्याधरों के चित्त में संकल्पमात्र से प्राप्त होने वाले थे, समय यापन करने लगा।
एक वार जब इसने इष्ट गोत्रीजनों की बुद्धि से और दुष्ट गोत्रीजमों के अनादर से अपने को दूसरे के द्वारा पाला-पोषा हुआ समझा तब इसने प्रतिज्ञा की-'जब मुझे अपने वंश का निश्चय हो जायगा तभी मैं शारीरिक उपचार ( स्नान व भोजन-आदि) में प्रवृत्ति करूंगा, अन्यथा उसका त्याग करूँगा। तब उसके पालक माता-पिता उसे महामुनि के माहात्म्यरूपी मन्त्र से पापरूपी राक्षसों को भयभीत करने वाली मथुरा नगरी में तप करने वाले सोमदत्त नामके आचार्य श्री के समीप ले गए। तब वचकुमार ने अपनी शरीराकृति प्रस्तुत पूज्य आचार्य के शरीर-सरीखी निश्चय की, जिससे उसकी आत्मा में आनन्द-समूह की प्राप्ति हुई। पश्चात् इसने उन दोनों माता-पिता को सम्मानपूर्वक वचनों से और युक्ति से समझाकर वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग करके निग्रन्थ साधू होकर चारण ऋद्धि की वृद्धि प्राप्त की ।।
इस विषय में एक आर्याचछन्द है, उसका अर्थ यह है-जब मुमक्ष मानव कामवासना का त्याग कर देता है अथवा समस्त परिग्रहों को अभिलाषाओं को छोड़ देता है तब उसे मनोज लक्ष्मी तृण-सरीखी प्रतीत होती है । और लोक में एकत्रित हुआ स्त्री-समूह मुर्दे की चिता-सरीखा मालूम पड़ता है एवं कुटुम्बीजन राक्षस-सरीखा प्रतीत होता है ।। २११ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में वचकुमार के सपग्रहण करने का निरूपण करने वाला सोलहवा कल्प समाप्त हुआ।
अथानन्तर महामहोत्सवों के अवसर पर बजाए जाने वाले वादित्रों की ध्वनि से स्यूल हए भवनरूपी गुफाओं वाली इसी मथुरा नगरी में चारण ऋद्धिधारी दो मुनियों ने, जो कि आहार के लिए नगर-मार्ग में साथ-साथ गमन करने के निश्चय वाले थे, वहाँ पर दो तीन वर्ष की अवस्थाबाली एक अनाथ बालिका देखी, जो कि दूषित ( धुंधले ) व छोटे नेत्रोंवाली थी व दूकानों के अङ्गणों पर वर्तमान धान्य-वाण खानेवाली एवं १. परपोषितत्वम् । २. शात्वा । ३. स्नानभोजनादी । ४. वातप्रतिशः । ५. पितृभ्यां । ६. पापानमेव राक्षसाः यत्र सा
तस्यां । ७. समीपे 1 ८. भगवतशरीरसदृशं । ९. ज्ञात्वा । १०. 'ज्ञातिकरणे विक्रियाकर्ता' इति टि० (ख) प्रतो । 'जातिकरणावि क्रियाकर्तारी' इति टि० (च.) प्रती। ११. वचन 1 १२. मृतकवितासदृशः । १३. सदाससमानः । १४. स्यूल । १५. आहारार्थ । १६. वर्षद्वित्रिसमसे । १७. दूपित । १८. अल्फ् ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये मनायामापणाक्षणकणचारिणों स्खलनगमनविहारिणी निरीक्ष्य 'प्रतीक्ष्यः पश्चामाः सुनन्दनाभिधानगोचरो भगवानेबमवाचीत्-'गहो, पुरालोकः खलु प्राणिमा कर्मविपाकः, यदस्यामेव वशायां गलेशाय 'प्रभवप्ति प्रति ।
पुरश्चारी* भगवानभिनन्दननामघाशे-'तपःकरूपमोत्पादनन्दन सुनन्दनमुने, मयं वावोः पचपीयं गर्भसंता सतो राजष्ठिपवप्रयतं समुद्रवत्तं पितरं जातमात्रा तहियोगदुःखोपसया धनदा मातरं प्रवर्षमाना च बन्दुजनमकाण्य एव "दनामी दशामानोय इदमयस्त्रान्तरमनुभवन्तो तिष्ठति, तथाप्यनया प्रौढपौषनपास्य मथुरानाथस्यौर्षिलादेवीविनोवायसमस्य पूतिकवाहनस्य महोनस्याप्रमसिध्या भवितव्यम्' इत्यवोचत् । एतम्य तय प्रस्ताचे "पिपडपाताय हिजमानः शावभिनुरुपश्रुत्य 'नान्यथा मुनिभाषितम्' इति निर्विकल्पं संकल्प्य, स्वीकृत्य चमाभिकामाहितविहा. रवसतिकामभिलषितानु"हारराहाररवीवृषत् । "जुहाव च बुखदासीति परिजनपरिहासतन्त्रेण १२गोत्रण । ततो गतेप कधितर्षेषु अमरकभङ्गाभिनयनभरते भूविनमारम्भोपाध्यायस्थानिनि लोचविचा'"रचातुर्याचार्य चतुरोक्तिचातुरीप्रघारगुणि बिम्बाधरविकारसौन्वयकादम्बरोयोगे १७ मिम्नोतप्रदेशप्रकाशनशिल्पिनि५८ मनसिजगजमदोद्दीपनापण्डिभूमि पर स्खलित गतिपूर्वक संचार करने वाली की, पश्वा भोटे समाना के नामि ने कहाअहो-आश्चर्य है कि प्राणियों का कर्मोदय निश्चय से दुःख से भी जानने के लिए अशक्य है, क्योंकि वह ( कर्मोदय ) इतनी छोटी उम्र में भी कष्ट देने के लिए समर्थ होता है।'
___ इसे सुनकर 'अभिनन्दन' नामधारी, पूज्य ज्येष्ठ ऋषि ने कहा-'तपरूपी कल्पवृक्ष को उत्पत्ति के लिए नन्दनवन-सरीखे हे सुनन्दन मुनि ! ऐसा मत कहो । पयोंकि यद्यपि जब यह गर्भ में स्थित हुई तो राजसेठ के पद पर प्रतिष्ठित हुए इसके पिता समुद्रदत्त को असमय में मरणावस्था में लाई और जन्मी हुई इसने पति के वियोग के दुःख को प्राप्त हुई 'धनदा' नामकी माता को असमय में काल-कवलित अवस्था में प्राप्त किया एवं बढ़ी हुई इसने अपने बन्धुजनों को असमय में मरणावस्था में प्राप्त किया। अब यह कष्टप्रद दूसरी अवस्था ( दरिद्र व रुग्णावस्था ) भोग रही है। तथापि जब यह प्रौढ़ युवती हो जायगी तब इसे 'उविला' नाम को पट्टरानी के बिनोद के स्थान 'पूतिकवान' नाम के मथुरा नगरी के राजा को पट्टरानी होनी चाहिए।'
उसी मथुरा नगरी में इसी अवसर पर भिक्षा के लिए प्रस्थान कर रहे बौद्ध भिक्षु ने उक्त बात सुनकर निस्सन्देह विचार किया-'मान्यया 'मुनिभाषितम्' अर्थात्-'ऋपि-वाणी मिथ्या नहीं होती, अतः उसने इस बालिका को ग्रहण करके बुद्ध मट में स्थापित किया और यह इच्छानुकूल आहारों से इसका पालनपोषण करने लगा और सेवकों की हास्य-परम्परा के पात्रभूत 'बुद्धदासी' इस नाम से बुलाने लगा।
जब कुछ वर्ष व्यतीत हुए तब ऐसे यौवन में, लावण्य सम्पत्ति से महान् हुई जम बुद्धिदासी ने, जो कि बुद्धमठ-संबंधी अने महल की शिखर के मध्य में बैठी हुई थी, भ्रमाग से बुद्ध-मठ के समीप आने वाले 'पूतिक वाहन' नामके राजा को उत्कण्ठा के साथ देखा, जो ( यौवन ) केशों को कुटिल करने के अभिनय में नाटयशास्त्र-प्रणेता भरतऋषि-सरीखा है। जो कुटी संबंधी विलारा के बारम्भ करने में शिक्षक जैसा है। जो नेत्रों के विचलन (भ्रमण ) की निपुणता में आचार्य-सा है। जो चतुर वाणी के कथन की निपुणता में प्रवृत्ति करने से महान है। जो बिम्बफल सरीखे ओष्ठों के विकार के सौन्दर्य में सुरा के संबंध जैसा है। जो नीरे९. पूज्यः । २. समयों भवति कर्मविपाकः । *. ज्येष्ठः । ३. हैं, इन्द्रवन ।। ४. प्रासा । ५. मरणावस्यां । ६. भिक्षाय । ___७. श्रुत्वा । ८. वाला। १. बुद्धस्थान । १०. सवाः । ११. आकारितवान् । १२. नाम्ना। १३. केश । १४. वक्रित । १५. विचलनं । १६. प्रवर्तनं । १५. सुरा। १८. सूत्रधार ।
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धष्ठ आश्वासः
२६७ पण्डिते शृङ्गारगर्भगतिरह 'स्योपवेशिनि समस्तभवनमनोमोहमसिद्धौषधं प्रतिदिनं प्रादुर्भावसविषे सात योवन सा रूपसंपन्महीयसी बुद्धवासी सोसासमुत्तुगत मङ्गभङ्गोत्सङ्गसंगता तं श्रमणिका कृषिहारोपान्सागमनं पूतिकवाहनं राजानमदर्शत् । राजा घता -
'अलकदलयावतंभ्रान्ता' विलोधनवाधिका' प्रसरविधुरा मन्दोद्योगा स्तमयसकते । त्रिवलिवसनभान्सा नाभी पुनश्च निमजना दिह हि सरिसि' प्रायेणवं मतिम वर्तते ॥ २१२ ॥
इलि विचिन्त्य, चितोभूविज़म्भप्रासमें "निवार्यावषापं ध, "किमियं पदिहितविवाहोपचारा, किं वाचापि "पतिषरा' इति १२भिक्षनाचवध तत्र १३॥द्वितीयपक्षं सर्षपास्मत्पले कर्तव्या' इति समर्पिताभिलाषमापारायं प्रेष्य १"रणरणकजहान्तःकरणः १ शरणमगात् । आप्तपुरुयोऽप्यग्र महिषीपक्षणबन्धेन१७ साध्यसिडि विधाय स्वामिनं सरसमागमिनमफरोत् ।
भवति यात्रा
पुर्य घा पापं वा यत्काले जन्तुना पुराधरिताम् । ततसमये तस्य हि सुखं च बुलं च योजयति ।। २१३ ।। ऊँचे शारीरिक प्रदेशों ( अङ्गोपाङ्गों) के प्रकाशन करने में सूत्रधार-सा है । जो कामदेवरूपी हाथी के मद को उद्दीपित करने में विशेष निपुण है। जो शृङ्गार रस के भीतरो ज्ञान के गोप्यतत्व का उपदेष्टा है और जो समस्त लोक के मन को मोहित करने वाली सिद्ध-औषधि-सा है एवं जो प्रतिदिन वृद्धि के निकट है।
पश्चात् राजा ने उसे देखकर निम्न प्रकार विचार किया
'इस स्त्रीरूपी नदी में मेरी बुद्धि प्राय: इस प्रकार हो रही है वह उसके केशपाशरूपो भवर में पड़ने से भ्रान्त ( एक जगह न ठहरने वाली है। जो नेत्ररूपी तरङ्गों के प्रसार से पीड़ित है। जो दोनों स्तनरूपी बालकामय प्रदेश पर पहुंचने से मन्द उद्योग वाली है। फिर जो त्रिवलियों में भ्रमण करने से थकित है और पुनः जो नाभि में डुबकी लगाने से भी क्लान्त है ।1 २१२ ।।'
फिर उसने काम के विस्तार को रोककर और निश्चय करके मन्त्री को अपनी अभिलाषा प्रकट करले बुद्धभिक्षुओं से पूँछने को कहा--क्या, इसका विवाह हो चुका है ? अथवा अभी तक कन्या है ? यदि कन्या है ? तो इसे मेरे अधीन करनी चाहिए।'
फिर उसका मन अरतिजनक घटना से जड़ हो गया और उसने अपने महल को ओर प्रस्थान किया । यहाँ पर मन्त्री ने पट्टरानी पद देने की प्रतिज्ञा द्वारा प्रस्तुत कार्य सिद्ध करके राजा का उसके साथ विवाह कर दिया। ___ इस विषय से एक आर्माच्छन्द है उसका अर्थ यह है
इस प्राणी ने पूर्व काल में जिस समय पुण्य अथवा पाप कर्म किया है वह ( पुण्य व पाप) उसे समय आने पर निश्चय से क्रमशः सुखी व दुःखी बना देता है ।। २१३ ।।
१. गोप्यतत्त्व । २. समीपे । ३. उपरितनभूमि । ४. भगण। ५. कल्लोल । १. कल्लोल । ७. स्व योपिन्नद्यां मम
मतिरीदी घर्तत। ८. मनोभसरण। ९. एकत्रीकृत्य । १०. कृत । ११. कन्या वा। १२. बौद्धान् । १३. चेत् कन्या मनति सहि मगाधीना कर्तव्येति । १४. मन्भिणं । १५. कलमल ( अरतिजमक ।। १६, गृहं। १७. प्रतिज्ञया । *. रुपकारकारः ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
इत्युपासकाध्ययने बुद्धवास्याः पूतिकवानवरणो नाम सप्तवशः कल्पः ।
शय समाधाते भव्यजनानन्दसंपादिकर्मणि नन्वीश्वपर्वणि तथा पतिप्रणय यस्या बुद्धवास्या प्रतिचातुर्मास्यमौविलादेष्ाः स्यन्वनविनिर्गमेण भगवतः सकलभुवनोद्धरणकारणस्थितेजिनपतेर्महा महोत्सवकरणमुच्छेत्तुमिच्छन्नया' शुद्धोवनतनयस्पेष्टा मष्टाहा' सफलपरिवारानुगत मे तव खितमुपकरण जात सब निपतिर्याचितस्वयंव प्रत्यपद्यत । ऊविलाtouft सुभगभावात् सपत्नीप्रभवं यौजन्यमनन्यसामान्यमप्रतीकारमाकलब्य सोमवताचार्यमुपस भवन्त यद्येतस्मिन्नुत्रनिष्टाम पूर्वक्रमेण जिनपूजार्थं मथुरायां मदौयो रयो भ्रमिष्यति तवा मे बेहस्थितिहेतुषु वस्तुषु साभिलाषं मनः, अन्यथा निरभिलाषम्' इति 'प्रतिजिज्ञासमाना तेन सोमदत्तेन भगवता तन्मनोरथसमर्थनार्थ मवलोकितवक्त्रेण वयकुमारेण साधुना साधु संबोधिता मातः सम्यग्वृशमंणीवृशा मयाप्तत्रयमकथे, अलमलमावेगेन । यतो न ल मि सब समयसविण्याविन्सके पुत्रके सति भक्तिरहंतामहंणायाः प्रत्यवायः " । तत्स्वस्वं पूर्वस्थित्यात्मस्थाने स्थातव्यम्' इति मनवद्मममृषो निगद्य, नासाद्य १० च "गतिविद्याधरपुरं महामुनितया वात्मयविणतया च निखिलेन
२६८
इस प्रकार उपासकाध्ययन में बुद्धदासी का पुलिक वाहन राजा के साथ विवाह का निरूपण करने वाला यह सत्रहवां कल्प पूर्ण हुआ ।
इसके पश्चात् जिसमें भव्यजनों के आनन्द-जनक धार्मिक कार्य पाये जाते हैं ऐसा 'नन्दीश्वर पर्व' जब आया तब 'पूतिकवाहन' राजा की प्रेमपत्नी पट्टरानो 'बुद्धदासी', जो कि समस्त लोक का उद्धार करने बाले भगवज्जिनेन्द्र तीर्थंकर के महामहोत्सव विधान को, जो कि प्रतिवर्ष चातुर्मास संबंधी नन्दीश्वर पर्व में after रानी द्वारा जिनेन्द्रदेव का रथ निकाल कर किया जाता था, नष्ट भ्रष्ट करने की इच्छा कर रही थी, उसने आठ दिन तक बुद्धदेव की पूजा की आयोजना की । अतः उसने राजा पूतिकवाहन से भगवान् गौतम बुद्ध की पूजा के लिए आठ दिन तक समस्त अनुचर वर्ग सहित रथयात्रा के योग्य उपकरण समूह के देने की याचना की तो राजा ने समस्त उपकरण समूह आदि के देने को स्वीकृति दे दो ।
जब विला रानी ने पति को प्रेमपात्र होने से अपनी सोत से उत्पन्न हुई, असाधारण व प्रतीकार करने के लिए अशक्य दुर्जनता का निश्चय किया तब उसने सोमदत्त आचार्य के पास प्राप्ति होकर ऐसी प्रतिज्ञा करने की इच्छुक होकर कहा - 'भगवन्! यदि इस दो तीन दिन में होने वाले आह्निका पर्व के महोत्सव में पूर्व क्रम के अनुसार जिनेन्द्र भगवान् को पूजा के निमित्त से मेरा रथ मथुरा में निकलेगा तो मेरा मन शारीरिक स्थिति को कारणीभूत वस्तुओं ( अन्म व जलादि ) के ग्रहण करने का इच्छुक होगा, अन्यथा नहीं ।'
उक्त बात को सुनकर पूज्य सोमदत्त आचार्य ने उसकी अभिलाषा सफल ( पूर्ण ) करने ने लिए मुनि वज्रकुमार के मुख की ओर देखा ।
पश्चात् वज्रकुमार साधु ने उसे अच्छी तरह आश्वासन दिया और उससे निम्न प्रकार मनोहर, निर्दोष व यथार्थ वचन कहे
'सम्यग्दृष्टि मृगनयनी महिलाओं में आगे वर्णन योग्य माता ! इस विषय में खेद मत करो। क्योंकि १. उच्छेदनं कर्तुमिच्छन्त्या 'उत्सेत्तुमिच्छन्त्या' इति मु० ख० । २. बौद्धस्य । ३. अष्टाही टि० ख० । 'महानि दिनानि अलोऽस्त्री नपुंसकलिङ्गवात् । त्रीलिङ्गापि डी विधौ च सति अहा, अह्नी इति च भवति, अष्टाहा इत्यभूत् । अस्याह्नः स्त्रियां वैरूप्यं - अष्टशहा, अष्टाहो, अष्टाहृीति' । इति पब्जिकाकारः । ४. प्राप्य । ५. प्रतिशां कर्तुमिच्छन्ती । ६. सम्यक्त्वसहितानां स्त्रीणां मध्ये त्रुरि वर्णनीयें । ७. अनजननमातुः । ८ ९ न भविष्यति कोऽपि विघ्नः पूजायाः विघ्नो न भविष्यति । १०. प्राप्य । ११. युगत्या आकाशगमनेन ।
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षष्ठ आश्वास
भास्करवेव मुख्ये नाम्बरधरचक्रेण क्रमशः कृताभ्युत्थानकियः सश्रममागमनाय 'तनमापृष्टः स्पष्टमाचष्ट ।
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तदनन्तरमानन्ददुन्दुमिनादोसास हवे 'लितमुख र मुख मण्डल सामविकालंकारसारसज्जित गजवाजिविमानगमनप्रचलत्कर्ण कुण्ड, अनेकानणुमणिकिणीजालजटिल दुकूलकल्पि तथा लिव' जराजिविराजितभुजपञ्जरः * करिमकरसिंहशार्दूलशरभकुम्भी "रशफ" रशकु " मलेश्वरपुरःसराकार पतासा संताप स्तिमितकरः, मानस्तम्भस्तूपतोरणमणिवितानव पंणसित पत्र वा मरथिरों" चमचन्द्र भद्रकुम्भसंभृतशः १४ अनुच्छदेव "च्छत्यादि "छिन कर्णो रथस्पग्वनद्विपरनर निकीर्णसेन्यनिचयः समयघण्टा पटु पटकर "टामृश का हल त्रिविता लझल्ल रोमेरिभावितगीत संगताङ्गना भोगसुभगसंचार 'कुजवामनकिरात कितवनटन कम दिया जीवन विनोदानन्त्रितदिविजमनस्कारः, स २२ रखे चरसहच रोहस्त विन्यस्तस्वस्तिक प्रदीप पनि उपप्रभूतिविश्चित्राचं नोपकरणरमणीयप्रसरः पिष्टा तक पटवासप्रसूनोपहा
5
२६९
ני
जब तुझ धर्म-माता की चिन्ता करने वाला मेरे सरीखा पुत्र वर्तमान है तब निश्चय से अर्हन्त-पूजा में कोई विघ्न नहीं होगा । अतः बाप पूर्व की तरह निश्चिन्त होकर अपने महलों में जाकर बैठिए ।
इसके बाद वज्रकुमार मुनि आकाशगामिनी विद्या से विद्याधर भास्करदेव के नगर में पहुॅचे। महामुनि होने से समस्त बान्धवों में बृहस्पति- सरीखे महाविद्वान् होने से भास्करदेव की प्रधानता वाले समस्त विद्याधर समूह ने इनका अच्छा सत्कारादि किया और विनयपूर्वक उनके आने का कारण पूछा ।
वज्रकुमार ने 'सब समाचार स्पष्ट रूप से कहा, अर्थात् — उविला महादेवी का रथ निकालने के लिए सैनिक सहायता मांगी।
इसके बाद मथुरापुरी के नागरिकों में वस्त्रकुमार मुनि को महान इक्यासी लड़ों वाले हारों से सघन पालकी, रथ, हाथी, घोड़े व पैदल सैनिकों से भरे हुए सैन्य समूहों के साथ एवं पूजा के योग्य उपकरण-समूह को धारण करने वाले दूसरे विद्याधरों के साथ आकाश से उतरे हुए देखा। जिनके ( सैन्य-समूहों के ) मुखमण्डल आनन्ददायक दुन्दुभि बाजों को ध्वनि से उत्कट हुए सिंघनाद को ध्वनि से मुखरित थे। जिनके कानों के कुण्डल यात्रोचित श्रेष्ठ आभूषणों से सजाए हुए हाथी, घोड़ों व विमानों द्वारा गमन करने से कम्पित हो रहे थे । जिनके हाथ अनेक महामणियों की क्षुद्र घण्टियों के समूह से ग्रथित हुए रेशमी वस्त्रों से रचों हुई लघु ध्वजाओं की श्रेणी से सुशोभित थे। जिनके हाथ, हाथी, मकर, शेर, शार्दूल, अष्टापद, नाका, मछली व गरुड़ आदि को मुख्य चिह्नों वाली पताकाओं की श्रेणी से निश्चल हो रहे थे। जिनके हाथ मानस्तम्भ, स्तुप, तोरण, मणिसमूह, दर्पण, श्वेतच्छत्र, चमर, सूर्य, चन्द्रमा, और पूर्ण कुम्भ को धारण किए हुए थे। जिनका (विद्याधरों का ) गमन जयघण्टा से सहित महाभेरी, करटा (वाद्य विशेष ), मृदङ्ग, राख, काहल ( बड़ा ढोल ), त्रिविल ( वाद्य विशेष ), ताल, झल्लरी, हुडुक्का ( वाद्यविशेष ), भम्भा आदि वादिनों के अनुकूल गान करने वाली कमनीय विद्यारियों के शरीर से मनोश है। जिन्होंने देवताओं के मन, कुब्ज, वोना, किरात, जुआरी, नट, नर्तक, स्तुति पाठक- वन्दियों च भाटों के विनोदों से आनन्दित किये हैं। जिनके गमन, कोड़ा करने वाली विद्यारियों के हाथों पर रक्खे हुए स्वस्तिक ( सौंधिया), दोपक, धूप-घट आदि विचित्र पूजाओं के
१. कारणं । २, हस्तमुखसंयोगजी ध्वनिः । ३. यात्रोचि । ४. मिश्र । ५ रचित । ६. पुष्वज । ७ हस्ते । ८. जलचर । ९. मत्स्य । १०. गरूड़ । ११. 'कम्पितहस्ते' टि० ०? 'संपितहस्ते' टि० ० । १२. सूर्य । १३. पूर्णकुम्भ 1 १४. हस्ते । १५. एकाशीति यष्टिको हारः । १६. निरन्तर । १७. शिविका । १८. कर । १९. हुडुक्काः । २०. शरीर । २१. किरातः स्यादल्पतनी । २२. क्रीड । २३. घट । २४ नामचूर्ण |
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये राभिरामरमणीनिकरः, अपरंपच सस्तविपतमापर्यायपरिवारविहायोबिहार: सह ते बयकुमारभगवन्तमम्बराबवतरगतमुस्प्रेक्ष्य भिक्षुबीक्षापटीयसी पुष्पभूयसो बल बुद्धदासो, यस्याः युगलसपर्यासमये समायातं सकलमेतरसुरसैन्यम्' इति धतधिषणे पौरजनान्तःकरणे ससि स भगवानगगनगमनानोकः साकमोविलानिलये मिलोय सावष्टम्भमष्टा हो मथुरायां चक्रचरण परिश्रमय्याहतप्रतिबिम्बातिमेकं स्तूपं तत्रातिष्ठिपत् । अतएवाग्रापि ततीर्थ देवनिर्मितास्यया प्रयते । बुद्धवासी दासीवासीग्नमनोरमा ।
भवति चाय लोक:प्रोविलाया महादेव्याः पूतिकस्य महोभजः : स्यन्दनं भ्रमयामास मुनिवज्रकुमारकः ।। २१४ ।। इत्युपासकाध्ययने प्रभावनषिमावनो नामाष्टावक्षः कल्प. । अथित्यं भक्तिसंपत्तिः प्रयुक्तिः क्रियाविधिः । मधर्म सोधित्यकतिवत्सलता मता ॥ २१५ ।। स्वाध्याये संयमे सङ्घ गुरी सबहाचारिणि । यथोचित्यं कृतामानो' विनयं प्राहुरादरम् ।। २१६ ॥
आषिस्याधिनिरुतस्य निरवधेन कर्मणा । सौचित्यकरणं प्रोक्तं वयावत्यं विमुक्तये ॥ २१७ ।। उपकरणों से मनोहर थे। जिनका कमनीय कामिनी-समूह, पिष्टातक नाम का सुगन्धित चूर्ण, पटवास ( वस्त्र सुगन्धित करने वाली द्रव्य-विशेष-सेंट-आदि ) व पुष्पोपहार से मनोज्ञ है।
इसके बाद जब नागरिकों के हृदय में ऐसी बुद्धि उत्पन्न हुई—'यह बुद्धदामी निस्सन्देह बौद्ध दीक्षा में वियोप निपुण व पुण्यात्मा है, उसी की बुद्ध-पूजा के अवसर पर यह समस्त देव-सेना आई हुई है ।'
किन्तु उस वन कुमार मुनि ने विद्याधर-सैनिकों के साथ औविला महादेवी के महल में अवतरण करके अष्टाह्निका पर्वबाली मथुरा नगरी में गर्व सहित रथ निकलवाया एवं उस नगरी में तीर्थकर भगवान् की प्रतिमा-सहित एक स्तूप स्थापित किया। इसी से आज भी बह तीर्थ देव-निर्मित नाम से प्रसिद्ध हो रहा है। इसे देखकर दासी-सरीखो बुद्धदासी का मनोरथ भग्न हो गया।
इस विषय में एक श्लोक है, जिसका अर्थ यह हैवज्रकुमार मुनि ने राजा 'पूतिक बाहन' की रानी महादेवी उविला के रथ का विहार कराया ॥२१४||
इसप्रकार उपासकाध्ययन में प्रभावना अङ्ग का वर्णन करनेवाला अठारहन कल्प समाप्त हुआ।
अब वात्सल्य अङ्ग का निरूपण करत है
धार्मिक पुरुषों का प्रयोजन दान-मानादि द्वारा सिद्ध करना, उनके गुणों में प्रीतिरूपी सम्पत्ति, हित, मित व प्रिय वचन बोलना, उनका आदर-सत्कार करना और साधर्मी जनों को दान व प्रिय वचनों द्वारा सन्तोष उत्पन्न करना यह वात्सल्य अङ्ग माना गया है ।। २१५ ।। स्वाध्याय, संयम (प्राणिसंयम व इन्द्रियसंयम ), मुनि संघ, गुरु ( आरम्भ-परिग्रह से रहित, विषयों को आशा से रहित एवं ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहने वाले साधु ) और सहाध्यायी को दान-मानादि से सन्तुष्ट करना व उनके आदर-सत्कार करने को आत्मतत्व के देता आचार्य विनय कहते हैं ।। २१६ ॥ मानसिक व्यथा व शारीरिक रोगों से पीड़ित धर्मात्मा पुरुषों को निर्दोष ( निष्कपट , विधि से ओषधि-आदि देकर सेवा-शुश्रूषा करना वैयावृत्य कहा गया १. विद्याधरः। २, बौद्ध । ३. बुद्धपूजा । ४, अवतीर्य । ५. अध्दाह्री उपलक्षितायां । ६. रयं । ७. सहितं ।
८. प्रकाशतां । *, "प्रियोक्तिः' क० । ९. सौमनस्यं । १०. समानशीले । ११. कृतो निश्चितः आत्मा स्वरूपं यः ।
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पर आश्वासः
जिने जिनागमे सरो सपश्रुतपरायणे । सब्राषथुद्धि संपन्नोऽनुरागो भक्तिभ्यते ॥ २१८ ।। चातुर्वर्ण्यस्य सखस्य पायोग्य प्रमोदवान् । मास यस्तु नो कुरा भवेत्समयी कथम् ।। २१९ ।। 'तन्नतविद्यया वितः धारोः श्रीमाभयः' । त्रिविघात संप्राप्तानुपकुर्वन्तु संवतान् ॥ २२० ।।
श्रूयतामोपाण्यानम् - अवन्तिविषयेषु सुपावतोपपद्धिशालायां"विशालायां पुरि प्रभावतीमहादेषीभिप्तशामसीमा जपचमंगामा 'काश्यपीश्वरः शाक्यवावयवारिधिविक्रान्तिनश्रेण शुक्रेण चाकिलोकदिवस्पतिना' बृहस्पतिना मुनानुदितविकेन प्रहावकेन धानुजेनानुयतेन वेदविद्यावलिमा बलिना सचिन चिन्त्यमानराज्यस्थिति रेकवा समस्तशास्त्राभ्यासवर्षविस्फारितसरस्वतीतरङ्गपरम्पराप्लायमवित्रितविनेयजनमनोनलिननिकुसम्यस्य परमतपश्चरणगुणग्रहणानि ह्मणास्तम्बस्य" महामुनिमञ्चमातीवयंस्य भगवतोऽकम्पनाबार्यस्य महडिजुषः सर्वजनानन्दनं नाम नगरोपरनषितस्यूषाचरणार्चनोपचाराय राजमार्गषु महामहोत्सवोत्साहरे 'सेकिपरिमनं पौरजममलिहगेहाप्रभागा'४. है, जो कि मुक्ति श्री की प्राप्ति का कारण है ।। २१७ ॥ बोतराग सर्वज्ञ जिनेन्द्र तीर्थकर भगवान में, उनके द्वारा कहे हुए द्वादशाङ्ग रूप शास्त्र में, आचार्य में, तप में तत्पर हुए साधु में और श्रुत के पारदर्शी उपाध्याय परमेष्ठी में विशुद्ध भाव पूर्वक प्रकट हुए अनुराग को आचार्यों ने भक्ति कहा है ॥ २१८ ।। जो प्रमुदित होकर मुनि, ऋषि, यति व अनगार इन चार प्रकार के संघ के प्रति यथायोग्य वात्सल्य नहीं करता वह धर्मात्मा कैसे हो सकता है ? || २१९ ।। अतः ब्रतों के देने द्वारा, शास्त्रों के अध्यापन द्वारा, धन के दान द्वारा, उनके शरीर को सेवा द्वारा एवं उत्तम ( तप व स्वाध्याय के योग्य ) स्थान के दान द्वारा शारीरिक ( बुखार व मलगण्ड-आदि), मानसिक ( काम-क्रोधादि ) व आगन्तुक (अतिवृष्टि-आदि ) दुःखों से पीड़ित हुए संयमी जनों का उपकार करना चाहिए ।। २२० ।।
अब बात्सल्य अङ्ग में प्रसिद्ध विष्णुकुमार मुनि की कथा कहते हैं
अवन्तिदेश की उज्जयिनी नामकी नगरी में, जिसके भवन देवों के भवनों से स्पर्धा करने वाले हैं। प्रभावती महादेवी के अधीन हुई सुख-सीमावाला 'जयवर्मा' नाम का राजा राज्य करता था, जिसका राज्य संरक्षण चार मन्त्रियों द्वारा सम्पन्न होता था। १. बौद्ध-सिद्धान्तरूपों समुद्र में प्रविष्ट होने के लिए मकर सरीखा ( बुद्ध मतानुयायी) 'शुक' | २. नास्तिक-मत में इन्द्र-सा बृहस्पति । ३. रुद्र-मुद्रा से उत्कट बुद्धिवाला (शंव-सम्प्रदाय का अनुयायी) प्रल्हादक और ४. बलि नामका मंत्री, जो कि प्रल्हादक का छोटा भाई व उसका अनुयायी एवं वेदविद्या में पारंगत ( बैदिक मतानुयायी ) था।
एक बार राजा गगनचुम्बी महल के अग्रभाग पर आरोहण के अवसर पर "दिग्विलांकानन्द' नाम के राजमहल पर स्थित था। उन्होंने ऐसे अकम्पनाचार्य के चरण कमलों की पूजा के लिए राजमार्ग से जाते हुए नागरिक मनुष्य-समूह को देखा, जिसका कुटुम्बोजन महापूजा का उत्सव देखने के उत्साह से गवित था। जो कि (अकम्पनाचार्य) एक समय उक्त नगरी के 'सर्वजनानन्द' नाम के बगीचे में आकर ठहरे हुए थे, जो पांचसी महामुनियों को संध में प्रधान थे, जिन्होंने शिष्यजनों का मानरूपी कमल-समूह समस्त शास्त्रो की अभ्यासरूपी वृष्टि से बढ़ी हुई सरस्वती ( द्वादशाङ्ग वाणी) रूपो नदी की तरङ्ग परम्परा में स्नान कराने से पवित्र
१. अलदानेन उपकारं कुर्वन्तु । २. उसमस्थान : फुरवा । ३. मारोरमानसागन्तुक । ४. सुधान्ध सोमृतभोजनाः देवाः ।
५. उज्जयिन्या । ६. भूपत्तिः । ७. मकरेण 1 ८. इन्द्रेण । ९. उत्कट । १०. सरल, पटुः । ११. स्तम्बः आलानगुल्मयोः बह्मादीनां प्रसाई च, भुवनत्रयं, पटुभुवनत्रयस्य । १२. स्थितवतः। १३. गवित । १४. आरोहणावसरे ।
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२७२
यशस्तिलक घम्पूकाव्ये वसरे विग्विलोकानाबमन्दिर स्थिसः समवलोक्य कोऽयमका प्रचण्डः पौराणामुचा योद्योग नियोगः इति वितर्कमन्, सफलतम पसंभविप्रसनस्तिमि तहस्तपल्लवान्तरालपवनपालात 'च, भवदामोत्सुरुवनदेवतालीषने भगवसप:प्रभावप्रवृत्तसमस्तत॒म्मावितमेदिनीनन्दने निजलक्ष्मीविलक्ष्यीकृतगन्धमादने पुरोपबने सगुणश्रीसंपादितसमूहेन महता मुनिसमहेन सह सर्वसस्यानम्बप्रवानोबाराभिषासुभाप्रबन्धावषीरिसामृतमरीचिमण्डलो" निखिलविश्पालमौलिमणिनायकमकुरन्दोमवत्पादनक्षमण्डल: पुण्यतिपथ बन्धनवारिरकम्पनसुरिः समायातः । तपासनाप पास्पोम्बयिनौजनस्य महामहावाधिनत्तोत्साहः' इत्याकम प्रवर्णमेसस्पास्ववनोग्रतहल्यस्तत्र गमनाय तं मिथ्यात्वप्रबलताललाश्रयकाल लिमपृच्छत् ।
सहमधुरोधरण गलिचति:---'देव,
न वेदावरं तस्वं न श्राद्वादपरो विधिः । न यज्ञापपरो धर्मो न सिंजापपरो यतिः ॥ २२१ ।।' किया था। जिसने उत्कट तपश्चर्या रूपी गुण धारण करने से तीन लोफ को सरल किया था एवं जो महाऋद्धिधारी थे।
तब उसने विचार किया-'नागरिकों को यह तेज उत्सव देखने की प्रवृत्ति असमय में क्यों हो रही है ?
इतने में ही उसने वनपाल स, जिसके हस्त पल्लव का मध्य-भाग समस्ल छह ऋतुओं में होने वाले पुष्पों से निश्चल था, निम्नप्रकार वृत्तान्त सुना
'हे राजन् ! आपकी नगरी के ऐसे उपवन में, जहां पर वनदेवता के नेत्र आपके दर्शनार्थ उत्कण्ठित हैं। जिसमें पाये हुए पूज्य अकम्पनाचार्य की तपश्चर्या के प्रभाव से प्रवृत्त हुई छह ऋतुओं द्वारा वृक्ष विकसित किये गए हैं। जिसने अपनी सौगन्च्य लक्ष्मी द्वारा गन्धमादन ( पर्वत विशेष ) को तिरस्कृत या शोभा-रहित किया है। प्रशस्त गुणरूपी लक्ष्मी से यथार्थ विचार प्राप्त करने वाले महान् मुनिसंघ के साथ, ऐसे श्री अकम्पनाचार्य आये हुए हैं, जिसने समस्त प्राणियों को आनन्द देनेवाले महान् वचनरूप अमृत-समूह द्वारा चन्द्र-मण्डल तिरस्कृत किया है, जिसके चरणों का नख-मण्डल [ नम्रीभूत ] समस्त दिक्पालों के मुकुटों में जड़े हुए थेष्ठ मणियों से दर्पण-सरीखा हो रहा है और जो पुण्य रूपी हाथियों के झुण्ड के बन्धन के लिए खूटासरीखा है, उनकी उपासना करने के लिए इस उज्जयिनी नगरी के मनुष्यों के चित्त में महान् पूजाकारक उत्साह उमड़ रहा है।'
फिर उक्त आचार्यश्री के चरणों की वन्दना के लिए उद्यत हृदय वाले राजा ने वहां प्रस्थान करने के लिए बलि नाम के मंत्री से पूछा, जो मिथ्यात्व की विशेष प्रबलतारूपी लता के आश्रय के लिए बहेड़ा के वृक्षसरीखा है ।
तब सच्चे धर्म को घुरा को उखाड़कर फेंक देने में दुष्ट बैल-सरीखे वलि मन्त्री ने कहा-'राजन् ! वेद से दूसरा कोई तत्व नहीं है। श्राद्ध से उत्कृष्ट कोई विधि नहीं है। यज्ञ से महान् कोई दूसरा धर्म नहीं है
और ब्राह्मण से उत्कृष्ट कोई दूसरा साधु नहीं है ।। २२१ ।। १. उत्सव। २. कोऽधिकारः । ३. षड्ऋतुः। ४. निश्चल। ५. वृक्षे। *. 'विलक्षीकृत' क०। ६.
संपादितः सम्यगृही विद्यारी मेन । ७. चन्द्रः। ८. दर्पणीभवत् । ९. महापूजाकारकः । १०. विभीतकतई । ११. गलिवुटवृषः शक्तोऽप्पचूर्वहः कर्मायोम्यो वलिः ।
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षष्ठ आश्वास
सम्मानसर्गावकः प्रल्लावक:
मतान्न परं तत्वं न येवः शमशस्परः । शंववास्थास्परं मास्ति भक्तिमुक्तिप्रद पवः ॥ २२२ ।।'
तथा नास्तिश्याधिपधारयवाचस्पत्ती शुक्रगृहस्पती मपि रासे स्वप्रतिक्षा विज्ञापयामासतुः । मनागन्तभितमतिः क्षितिपतिः-'अहो दुर्जनताललालमनकुजाः द्विजाः, कि ममं पुरती भवतो भारती प्रगल्भते । किवा बुधप्रवेकस्प" लोकस्यापि । सनीतिवसुमतीसिदारणालि बलि: .... "इम्मापास, ममि तवाममोलोस्कर्षविषये संध्यं ममः, तरास्ता तावदम्यत्तशास्त्रप्रवीणपज्ञः परः प्राजः । किन्तु सर्वज्ञस्यापि "मादेवदि पुरस्तात्परिग्रहीतविद्यानवधा एव ।' स्थिरप्रकृतिः क्षोमीपतिः–'यहोवं शूराणां कातराणां च रणे व्यक्ति षष्यति' इत्यभिषामानन्ददुन्दुभिरवोपा जितपरिजनपूजोपकरणो विजयशेखरं नाम करिणमारहान्तःपुरानुगमग्रामोऽतिवाझ" वाह्यानगरमार्गमुपगतारामसीमसंसर्गः, ततः करिभोवतीय गीतार्यवेवरिकरः कतिपयाप्तपरियारपुरःसरस्तं वतषिद्यानपणं भगवन्तं यथावाभिवन्ध समाचरितनोचासनपरिग्रहः सविनयापहं १०वर्गापवर्गस्वरूपनिरूपापरायणः सद्धमंसनायां फयां प्रथयामास' । सत्कर्मवंशभिलि
सन्मार्ग की सृष्टि का उच्छेद करनेवाले प्रह्लादक मंत्री ने कहा-'अद्वैत से महान् दुसरा कोई तत्व नहीं है, शङ्कर से उत्कृष्ट दूसरा कोई देवता नहीं है और येव शास्त्र से बढ़कर दूसरा कोई मुक्ति ( सोसारिक भोग' ) व मुक्ति को देनेवाला शास्त्र नहीं है ।। २२२ ।।'
विशेष नास्तिक दर्शन के वचन बोलने के लिए बृहस्पति नाम के दो मन्त्रियों ने भी ग़जा के लिए अपने सिद्धान्त विज्ञापित किये गमझाए ।
फिर कुछ चित्त में कोप से कलुषित बुद्धिवाले राजा ने कहा--'अहो दुष्टतारूपी लता के आधारदान में वृक्ष-सरीखे माह्मणो ! क्या मेरे ही सामने आपकी वाणी बोलने में समर्थ होती है ? या महाविद्वान् लोक के सामने भी आपको वाणी बोलने में समर्थ होती है ?'
पुनः प्रशस्त नीतिस्पो पथिवी के विदारण के लिए महान् हल-सरीखा बलि बोला-'हे पृथिवी पालक ! यदि हमारी बुद्धि की महत्ता के विषय में आपका मन ईन्या-युक्त है तो शास्त्रों के अभ्यास से प्रवीण बुद्धिवाले विद्वान् की तो बात ही क्या है।
यदि हम लोगों के सामने सर्वज्ञ ही वादी होकर शास्त्रार्थ करले उपस्थिल हो जाय तो उसके सामने भी हमारी विद्या निर्दोष ठहरेगी।
'यदि ऐसा है तो शूरवीर और कायरों को परीक्षा रण में ही होगी।'
ऐसा कहकर स्थिर स्वभाव-बाला राजा आनन्द दुन्दुभि की ध्वनि के साथ अनुचर-वर्ग व पूजा के उपकरण प्राप्त करता हुआ व अन्तःपुर का सहगमन न रोककर विजय शेखर नाम के हाथी पर बड़कर चल दिया और नगरी के बाह्यमार्ग का उल्लङ्घन करले मुनि के उद्यान की सीमा का संग प्राप्त करते ही हाथी से उत्तर पड़ा और शिष्ट पुरुष का बेष ब कुटुम्बी जनों को ग्रहण करनेवाले एवं कुछ हितैषी अनुचर-वर्ग को अग्र
१. एकान्तात् किन्तु सर्वर्थकान्नमेष बस्नुतत्वं । २. वो मन्त्रिणी। ३. मन्त्रिणः प्रति प्राह । ४. मुख्यस्य ।
५. महाबलं । ६ भूः। ७. वादिनः । ८. गगने मति अनिषेध्या राजा। ९. बाहा, महिनगरमार्गमतिवाट अतिक्रम्य संप्रासमुनिवनसीमसंगः सन् गजादुत्तीर्य । १०. राजा । ११. मुनिना कृत्वा विस्तारयामास । १२. प्रभेवनअमरः टि० च । णुस्तत्र प्रभित् भेदन अलिभ्रमरः प्राह । टि: ( ख )।
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२७४
यशस्तिलकचम्पूकाव्य बलि:-'स्वामिन, कोऽयं स्वर्गापवर्गाप्सित्यसंग्रहे देवस्य दुराग्रहः, यतो द्वावशावर्षा स्त्री पोडशवर्षः पुरुषः । तमोरन्योन्यमानन्यसामान्यनहरसोरसेकप्रादुर्भूति: प्रीतिः प्रत्यक्षसमविसर्गस्वर्गीन पुनरवृष्टः कोऽपीष्ट: स्वर्गः समस्ति ।' गुणभूरिः सरि:--'सकल प्रमाणबसे ३ बले, कि प्रत्यक्षताधिकरणमेकमेव प्रमाणं समस्ति ।' नास्तिकेन्द्रमनोरथरषमातलि बलि:-'मजिलश्रुतधरोबाराचिपुरुषविदुन', एकमेव । भगवान्-'कथं तहि भवतः मित्रोविवाहायस्तित्यतनम्। कथं वा सवाश्यानां श्यानामस्थितिः। स्वयम प्रत्यक्षप्रमेयत्वावाप्तपुरषोपदेशाभिती स्वक्षपरिक्षतिः परमतोसवकृतिश्च । बलिभट्टो भट्ट इवेंतस्तमितो मबोत्कटः करटोति संकटं प्रघट्टकमापतितः परं *राभाजनसमा जनकरमुत्तरमपश्यन्नश्लील मसभ्यसर्ग निर्गलमार्ग किमपिसं भगवन्तं प्रत्युवाच क्षितिपतिरतोषमावा विक्षिप्तवीक्षणों
गामी करनेवाले उसने नत व विद्या में निर्दोष पूज्य अकम्पनाचार्य के लिए यथाविधि नमस्कार किया और एक नीचे आसन पर बैठ गया। आग्रहपूर्वक स्वर्ग व मोक्षस्वरूप के विचार में तत्पर हुए उसने उक्त आचार्य द्वारा प्रशस्त धर्म वाली धर्म कथा विस्तारित की।
उसे सुनकर पुण्य कर्मरूपी बाँस के विदारण करने के लिए भंवरा-सरी बलि मन्त्री ने कहा-'हे स्वामिन् ! स्वर्ग व मोक्ष का अस्तित्व मानने का आप दुराग्रह क्यों करते है ? क्योंकि बारह वर्ष की स्त्री और सोलह वर्ष के पुरुष को परस्पर में असाधारण प्रेमरस को वृद्धि को उत्पत्ति वाली प्रीति ही प्रत्यक्ष-प्रतीत स्वर्ग है, उससे भिन्न कोई दूसरा अदृश्य व अभिलपित स्वर्ग नहीं है।'
गुणों से बहुल आचार्य ने पाहा-'वाद-विवाद के कलह-सहित और प्रमाण-पूजक बलि ! क्या एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है?
नास्तिकों में इन्द्र-सरीखे चार्वाक के मनोरथरूपी रथ के संचालन के लिए सारथि सरीखे वलि ने कहा
समस्त मास्त्ररूपी पृथिवी का उद्धार करने में आदिपुरुष सरीखे हे विद्वन् ! 'हो केवल एक प्रत्यक्ष ही प्रमाण है।
आचार्य--'यदि आप केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही मानते हो तो आपके माता-पिता के विवाह-आदि की सत्ता कैसे सिद्ध होगी ? अथवा तुम्हारे वंश में उत्पन्न हुए अदृश्य पूर्वजों की सत्ता कैस सिद्ध होगी? उनकी सिद्धि के लिए यदि आप कहेंगे कि प्रमाण द्वारा जानने योग्य उक्त पदार्थ हैं अवश्य, परन्तु वे प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा जानने योग्य नहीं है, अतः वे आप्त पुरुष के उपदेश (आगम प्रमाण ) की अपेक्षा करते हैं, तब तो आपके पूर्वपक्ष को हानि होती है, अर्थात्-'वस्तु की स्थिति का साधक केवल प्रत्यक्ष प्रमाण ही है, अन्य नहीं' आपका यह सिद्धान्त खण्डित होता है और स्थाद्वाद-दान की सिद्धि होती है, क्योंकि आपने प्रत्यक्षा प्रमाण के सिवाय आगम प्रमाण भी मान लिया।
इसके बाद बलि नाम का विद्वान मंत्री मुख-सरीखा होकर 'यहाँ पहाड़ की भीट है और वहाँ मदोन्मत्त हाथी है किस मार्ग से जाऊँ ? उसकी तरह दु:ग्स-प्रकार को प्राप्त हुआ और जब सभा के सदस्यों को प्रीतिजनक उत्तर न दे सका तब वह आचार्य से अश्लील, व उच्छृखल मार्गवाला एवं दुष्टजनों के योग्य वचन बोल उठा । १. निश्चमः । २. गह, कलिना यतसे । ३, प्रमाणे वलिः पूजा यस्य सः । १. सारथिः । ५.विदुषो मुघस्तस्य संबोधन
हे मुने । ६. शानं प्रमाणं, ज्ञानेन यद्वस्तु ज्ञायते तत्प्रमयं, तनु सवाप्रत्यक्षं तेन ते वस्तूनामवस्थितिनं । ७. सत्यां । ८. पूर्वपक्षस्य हानिः । ९. अविद्वान् । *. 'पर सभाजनकरमुत्तर ० । १०. प्रीतिकरं । ११. अथव्यं । १२. मजा ।
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बाव बाश्वासः
२७५ मुमुक्षसमक्षमासन्नाशिवाय निसंघटुं बलिभट्ट प्रतिष्ठयमनभवारिकमायनमिलप्यारे 'भगवन्, सप्तमप्रतत्वसंबंषस्य निमस्नलितप्रवृत्तचित्तमहामोनान्यस्य सद्धर्मध्वंसहेलोजन्तोनिसर्गत्वपमेषु पुणगुन्यु न बस दुरपवादकरणापरभवसाने प्रहरणमस्ति' इति धमनपुरःमरं कमान्तरमनुवध्य साधु समाराध्य व प्रशान्तिहमवतो प्रभवपिरिमकम्पन सूरि यिनेयजनसंभावनौचित्यतया तकनुनपात्मसबनमासाधापरेवपरदोषभिषेण समिकारकरणमनुमैः सह कर्मस्काध बन्धवासुलिन बलि निजवेशानिसियामास ।
भवसाचात्र इलोको"सन्नसंच समावेव यदि चित्तं मलीमसम् । मास्यक्षान्तेः क्षयं पूर्वः परवाशुभचेष्टितात् ॥२३॥ स्वमेव हन्तुमीहेत दुर्जनः सज्जनं द्विषन् । पोऽथितिष्ठेत्तुलामेक: किमसी न अजेवघः । २२४॥ इत्युपासकाध्ययने बलिनिर्मातनो नामकोनविंशः कल्पः । यलिहिल: सानुजस्तमा सकलजनसमक्षमसूक्ष्म ११६मणपूर्वक निर्वासितः सन्मुनिविषयरोषोन्मेषकलुषितः
यह देखकर राजा के नेत्र विशेष लज्जा से विक्षिप्त होगए और उसने मुमुक्षु आचार्य के सामने समीप में अकल्याण रूपी वज्र का प्रहार करने वाले बलि भार से अपनी निष्ठा कल होने के यो मुछ भी नहीं कहा और आचार्य से कहा
'पूज्यवर ! निस्सन्देह कुवादी मानय के लिए, जो तत्त्व-संबंध का ज्ञाता नहीं है ( मूर्ख है ) और जो आत्मस्वरूप से पतित होने के कारण बड़े हुए चित्तवर्ती महामोह से अन्धा है एवं जो प्रशस्त घर का ध्वंसक है, स्वाभाविक स्थिरता में सुमेरु पर्वत-सरीखे व सम्यग्ज्ञान-आदि गुणों से महान् पूज्य पुरुषों की निन्दा करने के सिवाय अन्त में दूसरा कोई हथियार नहीं है। इसके बाद उसने चर्चा के प्रसङ्ग का उपसंहार करके प्रकृष्ट उत्तम मारूपो गंगानदी का उद्गम करने के लिए हिमवान् पर्वत-सरीखे अकम्पनाचार्य की उत्तम आराधना को । शिष्यजनों के समुचित विनय को जाननेवाली आचार्य को आज्ञा लेकर अपने महल में लौट आया। बाद में उसने दूसरे दिन कर्म-समूह के बंध के लिए हस्तिशास्त्र प्रणेता वालि आचार्य-सरीखे बलि को किसी दूसरे आराध के बहाने से धिक्कार के विधान सहित उसके साथी ( शुक्र प्रह्लादक व वृहस्पति ) मन्त्रियों के साथ आपने देश से निर्वामित कर दिया।
इस विषय में दो श्लोक हैं, जिनका अर्थ यह है
यदि चित्त मलिन ( अशुभ विचार से दूषित ) है तो सज्जन और दुर्जन एक सरीखे हैं। उनमें से सज्जन तो अशान्ति ( कोध ) के कारण नष्ट हो जाता है और दुर्जन बुरे कार्यों के करने से नष्ट हो जाता है। क्योंकि मज्जन मे द्वेष करनेवाला दुर्जन स्वयं अपने घात को चेष्टा करता है । ठीक ही है, जो अकेला हो तराजू में बैठ जाता है, वह नीचे क्यों नहीं जायगा? ।। २२३-२२४ ॥
___इस प्रकार उपासकाध्ययन में बलि के देश निर्वासन को वर्णन करनेवाला उन्नीसदी कल्प कल्प समाप्त हुआ।
जब समस्त लोगोंके समक्ष विशेष तिरस्कार पूर्वक निकाला हुआ बलि ब्राह्मण अकम्पनाचार्य को लक्ष्य करके उत्पन्न हुए क्रोध से सन्तप्त चित्त वाला हुआ तब उसने अपने छोटे भाई प्रह्लादक के साथ कुरुजाङ्गल
१. अकल्याणं। २. अनुक्त्वा । ३. उपसंहल्य । ४. गङ्गा। *. विगोपनं । ५. समूह। ६. गजागमाचार्य ।
७. सत्पुरुषदुर्जनौ । ८. क्रोधात् सत्पुरुषः क्षयं याति । २. दुर्जनः । १०. बृहत् । ११. पराभव ।
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२७६
यशस्तिलकधम्पूकाव्ये कुषजाङ्गलमण्डलेषु सविलासिनोमलकेसिविलितका लेयपाटसकस्लोलापरसुरसरिस्सीमन्तिनोम्बितपर्वमाप्रप्तरे हस्तिनागपुरे साम्राज्यलक्ष्मी मिव लक्ष्मीमती महादेवीमवहाय सरस्वतीरसावगाहसागरस्य श्रुतसागरस्य भगवतोऽभ्यर्ग पितृविनयविष्णुना विष्णुना लघुजम्मना नुना सार्ष प्रधितोलापप्राय महापयस्य महोपमहान्तं पद्मनामनिलयं तनयमशिश्रिमत् । पभोपि चारोबाराद्विचित शक्थिाप्रभावाय तस्मै बलिसचिवाग सर्वाधिकारिक स्थानमवात् । बलि:-'देव, गृहोतोऽयमनन्यसामान्यसंभावनाडावः प्रसादः। किंतु कर्णेजपत्तोनां लवलञ्चनोनितचेतःप्रवृत्तीनो - प्रायेण पृरुषाणां नियोगिपद इवयास्पदं न शोोजितचिलस्पोबारवृत्तस्य च, तवसाध्यसायनेन नन्वयं जना निदेशवामेनानुगृहीतव्यः' । पय:-'समिटम, मानापा सबंधुरीणेषु भवतिषु सचिवेषु सत्स कि नामासाध्य समस्ति ।' अन्यवा तु कुम्भपुराधिकृतभूति:५१ सिंहकोतिर्गमनपतिरकायोधनलम्धपा प्रतापनः संनद्धसारसाधनो हस्तिनागपुरावस्क प्रदानामागच्छन्, एतन्नगरम्यानाय सनिवितागमनः पद्मनिवाइभ्यमित्रोण'". प्रयाणपरायणेन फूटप्रकामकन्न कोविषिषणेन बलिनाध्वमध्ये प्रबन्धेन युद्धयमाना, नामनिर्गविधानः प्रधानदेश के हल्लिनागपुर नगर के, जिसकी विस्तृत पर्यन्तभूमि ऐसी गङ्गा नदो रूपो स्त्री द्वारा चुम्बन की गई है, जिसके तरङ्गरूपी ओष्ट नहीं की कामिनियों द्वारा की हुई जलक्रीड़ा से गिरे हुए कुंकुम से लालिमा-युक्त हैं, ऐसे महापद्म नामक राजा के ज्येष्ठ पुत्र पद्मनान के स्थान वाले राजा का आश्रय लिया, जिसने साम्राज्य लक्ष्मी-सरीखी लक्ष्मीमति पट्टरानी का त्याग किया था और जिसने ऐसे पूज्य श्रुतसागर नामक आचार्य के समीप पितृभक्ति को विस्तारित करने वाले अपने विष्णु नाम के छोटे पुत्र के साथ दीक्षा-सम्पत्ति ग्रहण को थी, जो कि सरस्वती रूपी नदी के आमन्दरूप जल में अवगाहन का समुद्र है।
पद्यराजा ने भी गुप्तचरों द्वारा जाने हुए वंश व विद्या से प्रभावशाली बलि के लिए समस्त अधिकारी वर्ग में श्रेष्ठ मन्त्री का पद प्रदान किया ।
तव वलि ने कहा-'हे देव ! मैंने आपका असाधारण सन्मान में सुखप्रद अनुग्रह ग्रहण कर लिया परन्तु अधिकार का पद चुगलखोरों और धुसखोरों के लिए प्रायः सुखदायक होता है न कि महान चरित्र वाले व शूरता से शक्तिशाली चित्त वालों के लिए। अतः मुझे ऐसी आजा-प्रदान द्वारा अनुगृहीत कीजिए, जिसमें असाध्य कार्य सिद्ध हो सके।'
तब पहाराजा ने कहा-'तुम्हारा कहना ठीक है, किन्तु स्वामी के अभोष्ट को पूरा करने में प्रवीण और समस्त कर्तव्यों में कुशल तुम्हारे जैसे मन्त्रियों के होते हुए कुछ भी असाध्य नहीं है।'
एक समय कुम्भपुर के स्वामी सिडकोनि नामके राजा ने, जिसने अनेक युद्धों में यशरूपी सिद्धि प्राप्त की थी और जो युद्ध विद्या में पागल सैनिको की शक्तिरूप साधनों से मन्नद्ध (सुसज्जित) था, हस्तिनागपुर पर हमला करने के लिए प्रस्थान किया। परन्तु शत्रु के नगर में प्रच्छन्न हुए--छिपे हर गुप्तचरों ने इसके आने का समाचार सूचित कर दिया, जिससे पद्य राजा की आमा लेकर शत्रु के सन्मुख आक्रमण करने के लिए प्रस्थान करने में तत्पर हुए एवं कूट कपट को अभिलाषा वाले युद्धों में प्रवीण बुद्धि वाले बलि नामके मन्यो ने मार्ग के मध्य में ही मार्ग रोककर उसके साथ तुमुल
१. देश । २. कुङ्गम। ३. गंगानवी एम सामन्तिनी । ४. परित्यज्य । ५. बिस्तारकेण । ६. संपदः । ७. ज्येष्ठं ।
८. बलिमन्त्री । ५. मल्लक्षणो जनः । १०. प्रवीणेषु । *. सर्वकर्मणि कुशलेषु। ११. स्वामी । १२. संग्राम । १३. घाटकः। १४. प्रसन्नचरः । १५. नानुसन्मुख । १६. संग्राम । १७, गार्गरोधनेन ।
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षष्ठ आश्वासः
२७७
सिद्धासोपान्तः सामन्तश्च सार्थ प्रवध्य तस्मै हवाल्योन्मुलनप्रभवमतये क्षितिपतपे प्राभतीकृतः ।
क्षितिपतिः-शस्त्रशास्त्रविद्यापिकरणध्याकरणपतजले बले, निखिलेऽपि चले चिरकालमनेकशः कृतंकृष्णववनच्छायस्यास्प द्विष्टस्य विजयान्नितान्तं तुष्टोऽस्मि । तद्याच्यतो मनोभिलाषपरो वरः'। बलि:-'अलक, यवाहं पाचे तबायं प्रसादोकर्स ष्यः' इत्युषारमुयोर्य पुनश्चतुरबालप्रबलः प्रतिकूलभूपालबिनपनाम पद्ममवनिपतिमावेशं पाघिस्या सरवरमशेषाशावानिवंशानी कत्रितक्षफलमही सलो दिग्विजययात्रार्थमुच्चचाल ।
अत्रान्तरे बिहारवशावगचानकम्पनाचार्यस्तेन महता मुनिनिकायन साक हस्तिनागपुरमनुसृत्योसरविग्विलासिम्पबतं सकुमुमलरी हेमगिरी महावगाहापां गुहायो चातुर्मासोनिमिस स्पिति बन्ध । बलिरपि निखिलजलविरोषः सविषवतविनोवितवीरवषययो विग्विजयं विधायागतलं भगवन्तमयबुध्य चिरकालव्यवधाने यतिविषनिक इव जातप्रकोपोद्रेकस्तदपराधविषानाय घराधीश्वर पुरावितोणधरव्याजेन 'समाशाखामात्मकशाप्सनप्राज्य राज्यमन्तःपुरप्रचारश्वर्यमात्रसपतः१० पयतोऽध्ययं मन्नमिण भुमिसन्याजन्योत्कर्ष चिकोषमदनगव्याधिकरण-१२ रूपकरणरग्निहोत्रमारेभे ।
युद्ध किया। जिससे बलि ने विख्यात नाम वाले प्रधानों और युद्ध-विद्या में समीपभूत मामन्तों के साथ उसे बांधकर हृदय के कीले के उन्मूलन होने से प्रसन्न बुद्धिवाले पद्मराजा के लिए भेंट कर दिया।
तब पद्म ने कहा-'शास्त्र-विद्या के आधार व्याकरण शास्त्र में पतञ्जलि-सरीखे शस्त्र विद्या में प्रवीण वलि ! समस्त सैन्य के होते हुए भी चिरकाल से अनेक बार मेरी मुख-कान्ति को काली करने वाले इस शत्रु को जीतने से मैं बहुत प्रसन्न है, इसलिए आप मुझ से अपनी मनोकामना पूर्ण करने वाला बर मागिए ।' बलि-स्वामिन् ! जब मैं आपसे याचना करूँ, तब महाराज मुझ पर कृपा करें।'
ऐसा उदारता पूर्वक कहकर और राजा पन से आज्ञा लेकर विरोधी राजाओं को वश में करने के उद्देश्य से चतुरङ्ग सेना से शक्तिशाली हुए बलि ने समस्त दिशाओं को अपने अधीन करने वाले सैन्य-शिविर द्वारा समस्त पृथिवी तल को आच्छादित करके दिग्विजय करने के लिए प्रस्थान किया।
इसी बीच में पूज्य अकम्पनाचार्य उस बड़े भारी मुनि संघ के साथ बिहार करते हुए, हस्तिनागपुर में पधारे और उत्तर दिशारूपो स्त्री के लिए कानों के आभूषणरूप फूले हुए वृक्षों वाले हेमगिरि नाम पर्वत की महागम्भीर गुफा में चतुर्मास करने के लिए ठहर गए।
समस्त समुद्र-तट के समीपवर्ती वनों में बोर वधू का हृदय प्रमुदित करने वाला वलि भी दिग्विजय करके लौट आया। जैसे बहुत समय बीत जाने पर भी वर्षा ऋतु में पागल कुत्ते के काटने का जहर चढ़ जाता है, वैसे ही मुनि संघ का समाचार जानकर उसे विशेष क्रोव-द्धि उत्पन्न हुई । इसलिए उसने मुनिसंघ की विराधना करने के उद्देश्य से पूर्व में दिये हुए बर का बहाना लेकर अपने स्वामी राजा पम से, जिसका मन्दिर ( स्थान ) अन्तःपुर में संचार के योग्य वैभव वाला है, एक पक्ष के लिए केवल अपने हो शासन की प्रचुरता वाला राज्य शासन मांग लिया और बलि ने मुनिसंघ के ऊपर विशेष उपसगं करने के इच्छुक होते हुए मद्य व मांसादि साधनों द्वारा महायज्ञ करना आरम्भ कर दिया। १. समीपभूतः । २. सैन्य । ३. गम्भीराया। ४. तटममीप। '५, आच्छावनापि। ६. 'दृकशन के जलमेचनमिव, विल उनाले शुना दृष्टः पुमान् तम्य विपं वर्षांकाने उदयमागच्छनि' टिन । 'अलर्क: पहिलाच' इति पञ्जिकाकारः । 'अहिलकुर्कुरः'। टि. २०। ७. तेषां मुनीनां विराधनानिमित्तं । ८. पूर्व दत्त। ९. पक्षकं । १०. मन्दिरान् । ११. उपरार्ग । १२. मामांस । १३. महायज्ञं ।
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ર૭૮
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अत्रान्तरे निजनिवालपवित्रितमिथिलापुरेः प्रजिषणुसरेरम्तेवासी भ्रामिष्णुनाम तमीमध्यसमपे माहिपिहिताविहारः समीरमार्गे नक्षत्र योपों लोचनालोकनसनार्या विधाना मूरसंचारचलितगात्रं कुरनकलत्रमिय, तरलतारकानयणं धवणमध्यान्तरिओ लक्ष्यं बध्वा किलयपुच्चयोचत-'अहो, न जाने क्वचिन्महामनोनों महानुपसों वर्तते' इति । एतच्च 'श्रमणशरणगधी समाफयं प्रयुक्तावभियोषस्त भयरगिरिगुहायामकम्पनाचार्यस्य बनिदिलसितमवधार्याकार्य व गगनगममप्रभावं पुष्पकदेवं देशवतसेवन 'हहो पुष्पकदेव, तव विक्रय र्यान्न तनुपसविसर्ग साममम्ति । ततस्तथाविवशिरोधिष्ण विष्णवे तामदृष्टविशिष्टतामियात्मस्थितामप्यविवर्षे १० निवेश" तदुपसर्गापदयात्मरस' नियोजयितश्या ।' पुष्पकदेव स्त्रिदशोचितचरणसेवस्य तस्य ५'महर्भावितातं देशमासाथ विष्णुमुनये तथाविदिति गुरुनिवेशप्रति च प्रतिपारयामास । विष्णुमुनिः प्रदीप इय स्फाटिकभित्तिमम्यलब्ध प्रसरेण किरणनिकरण बारिषिवनविकानिर्भवनेन मानुषोत गिरिपर्यन्तसंवेदनेन मनुष्यक्षेत्रसूत्रपातविडम्बनकरेण
हामी गोद में बाने निमा हामपितापूरी को पवित्र करने वाले जिष्णु सूरि नामके आचार्य के शिष्य भ्राजिष्णु नाम के क्षुल्लक ने, जिसने अर्धरात्रि में बाहर विहार किया था और जो आकाश में नक्षत्रमार्ग को नेयों से दर्शन-युक्त कर रहा था, श्रवण नक्षत्र देखा, जो कि वैसा कांपने वाले नक्षत्र का आश्रय कर रहा था, जैसे मृगी का भरोर व्याघ्र के आगमन से कांपने वाला हो जाता है। पुनः ज्योतिष शास्त्र का विचार करके जोर से चिल्लाया--'आह ? न जाने पाहाँ पर महागुनियों पर महान उपसर्ग हो रहा है ?
जब उक्त बात मुनि-संरक्षक जिष्णु सूरि नामके आचार्य श्री ने सुनी तब उन्होंने अवधि ज्ञान से जाना कि हस्तिनागपुर नगर के पर्वत की गुफा में स्थित हुए अकम्पनाचार्य के ऊपर बलि घोर उपसर्ग कर रहा है।' इसके बाद उन्होंने शीन आकाश में विहार करने की शक्ति वाले पुष्पक देव नाम के क्षुल्लक को बुलाकर कहा-'पुष्पक देव ! तुम्हारे पास विक्रिया द्धि नहीं है, इसलिए तुममें मुनि संघ को उपसर्ग से दूर करने की शक्ति नहीं है, अतः उपसर्ग निवारग करने वाली विक्रिया ऋद्धि की वृद्धि से दोप्ति युक्त हो रहे विष्णु कुमार मुनि से निवेदन करके, जो कि अपने में प्रकट हई भी विक्रिया ऋद्धि को, जिसकी विशिष्टता का अनुमव स्वयं उन्हें नहीं है, जिससे जो विशेषता युन्य-सरीखी है, नहीं जान रहा है, मुनि संघ का उपसर्ग नष्ट करने अथवा छुड़ाने के लिए उन्हें हमारी आज्ञा से प्रस्तुत कार्य में नियुक्त करने की प्रेरणा करनी चाहिए।'
इसके उपरान्त पुष्यदेव देवों के योग्य वरण-कमलों को सेवा वाले महर्षि जिष्ण सूरि के वाहन से उस देश में पहुंचा और उनसे विक्रिया ऋद्धि उत्पन्न होने की बात और गुरु की आज्ञा कह दी।
इसे सुनकर जेसे दीपक, स्फटिक मणि को भित्ति के मध्य प्रसार करनेवाले किरण-समूह से शोभायमान होता है, वैसे ही वे विष्णुकुमार मुनि भी लवण समुद्र की ववमयी वेदिका का भेदन करनेवाले व मानुषोत्तर पर्वत के पर्यन्त भाग का अनुभव करने वाले एवं मनुष्य क्षेत्र का आरम्म तिरस्कृत करनेवाले अपने हाथ से सुशोभित हुए। अर्थात् जब उन्होंने अपनी विक्रिया ऋद्धि की परीक्षा करने के लिए ज्यों हो अपना करकमल फैलाया तो वह लवण-समुद्र की वज्रमपी वेदिका का भेदन करता हुआ मानुषोत्तर पर्वत तक फैल गया।
१. निवासेन पवित्रिता मिथिलापुरी येन सः । *. गौरप्रधानहस्तस्वं तस्य सूरः । २. रात्रि । ३. गगने । ४. मागं ।
५. म्यान । ६. ज्योतिःमास्त्रे विचार कृत्या । ७. अमणानां पारणीभूतश्वासी गणी सूरिः । ८. हस्तिनागपुर । ९. रहितत्वात्-बिनाशनात् । १०. अजागते । ११. कथयित्वा । १२. प्रान्ताय-विमोचनाय । १३. १४. आदेशात्स विष्णर्योजनीयः । १५. जिष्णुमूरेः ।
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षष्ट आश्वास
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करेणीनाम इव सम्तुमिकाये काये स्वयशाधवमा व्याससमासक्रियया च तामवगम्योपगम्य च हास्तिनपुरं 'न सस्य निषेध निखिल निर्णामपालाय मध्यमलोकपालायामप्रवृत्ततन्त्रेण कारमात्रेणाध्याम्पितजगत्त्रयः “प्रसंख्यातनविध्वंसवावे तपः प्रभावे दुर्जनविनयतार्थममिनिविशन्ते' यतोशाः' इति च परामृश्य प्रविश्य च पुरं freeसूचितप्रचारोऽन्तःपुरं पद्ममहीपते राजधानीष्यश्वानां वा उपस्थत संज नरेश्वरात्परः प्रायेणास्ति गोपायिता । तत्कथं नाम तृणपात्रेयनपराध मतीनां यतीनामात्मन्युशुभलोक निवे कसमुपसर्ग सहसे इत्युक्तम् । 'भगवन् सत्यमेवैतत् । किं तु कतिचिद्दिनानि बलिरगराजा, नाहम्' इति प्रत्युक्तियुक्तस्थित पद्ममिलेन खलु परेषु प्रायेण फलोल्लासनशीलास्तपः प्रभवद्धिलीलाः' इति चावस्य शा लाजिरसंपुटकोट राषकाशः प्रदीपप्रकाश व संजातयामनाकृतिः सप्ततन्तुवसुमतीमनुसृत्य मधुरष्यमिः १४ तृतोयेन सवनेम १५ प्राध्ययनं व्यधात्। बलिलघरच्या नवन्धुरं वाक्प्रसरं सिन्धुर १ ४ निभूतकर्णो निर्वयं कोऽयं खलु
१३
"
५
वेदवाचि विरिञ्च"
י
इस प्रकार वह समस्त मनुष्य क्षेत्र में फैल गया । एवं जैसे मकड़ी अपने जाले को अपने अधीन करती हुई उन्हें विस्तृत व संकुचित करती है वैसे हो प्रस्तुत ऋषि भी अपना शरीर विस्तृत व संकुचित करते हुए अपनी विक्रिया ऋद्धि का निश्चय कर हस्तिनागपुर में पहुंचे 1 'क्रोध से उत्पन्न हुए कार्य वाले हुँकारमात्र से तीन लोक को कम्पित करनेवाले मुनोश्वर निस्सन्देह ऐसे तप के प्रभाव होने पर भी, जो कि दुर्प्रानरूपी वन को विध्वंस करनेवाली दावानल अग्नि-सरीखा है, किन्तु वे समस्त पृथिवोवर्ती वर्ण व आश्रम में रहने वाली प्रजा के रक्षक राजा से कहे विना दुष्टों को दंड देने का उद्यम नहीं करते ।'
ऐसा सोचकर बिष्णुकुमार मुनि अन्तःपुर में प्रविष्ट हुए । पुराने परिचित कञ्चुकि ने उनका प्रवेश सूचित किया ।
ara में विष्णु मुनि ने राजा से कहा---
'पृथिवीपति पच ! जब निस्सन्देह राजधानियों में भी बन सरीखा परिणाम रखनेवाले तपस्वी मुनिसमूह का राजा को छोड़कर प्राय: कोई दूसरा रक्षक नहीं है तब तृणमात्र के प्रति अपराध करने की बुद्धि न रखनेवाले ऋषियों के शरीर पर किया हुआ उपसर्ग, जिसको उत्पत्ति दुष्ट लोक रूपी मलिन जल से हुई है, आप कैसे सहन करते हैं ?
1
राजा पद्म – भगवन् ! आपका कहना ठीक है किन्तु यहाँ कुछ दिनों के लिए यहाँ का राजा बलि है मैं राजा नहीं हूँ ।'
तब विष्णुकुमार मुनि ने इस प्रकार के प्रत्युत्तर की युक्ति में राजा पद्म को अनादृत करके यह निश्चय किया - फि निस्सन्देह तपश्चर्या से उत्पन्न होनेवाली ऋद्धियों के चमत्कार प्रायः दूसरों पर किये गये छल द्वारा फलदायक होते हैं।' बाद में उन्होंने सराव संपुट के मध्यवर्ती अवकाश वाले दीपक के प्रकाश सरीखा वामन रूप धारण किया और यज्ञभूमि में जाकर मधुर ध्वनि पूर्वक ऊँचे स्वर से वेदाध्ययन शुरू किया । afa ने मेघ को नि-सी मनोज्ञ उस विस्तृत वेदवाणी को वैसी निश्चल श्रोत्रवाल होकर सुनी जैसे हाथो ध्वनि को निश्चल कर्ण युक्त होकर सुनता है । इससे उसका हृदय कौतूहल- युक्त हुआ । 'वेद्र के प्रवचन -विषय में ब्रह्मा-सरोवा उच्चारण करने में चतुर यह कौन है ?"
१. लूला। २. विक्रियद्धिं । ३. पृथ्वी ४ कोषत्वाकार्येण । ५. ध्यान । ६. उद्यमं कुर्वन्ति । ७. प्रवेश: ॥ ८ सरागस्थानेष्वपि वनेष्य परिणामः स्यात् । ९. रक्षकः । १०. त्वं सहये । ११ जनगणम्य । १२. शालाजिर शब्देन कपाल' इति टि० ( ० ) । 'शाकाजिरं शरावं' इति पञ्जिकाकारः । धारावो वर्धमानकः इत्यमरः । १३. यज्ञभूमि । १४. १५. उदात्तस्वरेण । १६. गजवत् । १७. निश्चल । १८ श्रुत्वा । १९. प्रवचनविषये । २०. ब्रह्म
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये होण्यारणचतुरः' इति कुसहतिमाहृयपः 'सनिलयान्निर्गस्य पसि बधि निधिलानर्यसौंदर्य जिधर्यमेनमवादी-- 'भट्ट, किमिष्टं वस्तु चेतसि निधाय प्रायो। 'बले. दायावविलुप्तालयस्वालवर्थ पाचनयतमायकल मनिसलम् । द्विजोत्तम. निफार्म बसम् ।' 'ययेवं बहुमानपजमान, विभीयतामुवकषारोत्तरप्रवृत्तिः पतिः ।' बलिः प्रयामा लूमावाय 'विजाचार्य, प्रसार्यतां हप्तः' इत्युक्तवतिः शुक्रः' संक्रम्यनमिव कुलिशनिकेतनम्, प्रासादमिष फलशाहादन, मला. अपमिव मत्स्याश्रयम्, सरिम्नामिव शश्वासनारम्, दिहिणोवासरगणनकुबध प्रदेशमियोय रेखावकाराम, नारायणमिव चक्रलक्षणम्, यज्ञोपकरणमिव यवाधिकरणम.. जलयानपाभिव। निविद्रतामयम्, २ स्तम्बरमकरमिव tॉलिप्रसारम्, वशीकशालयांमयानुपू-प्रवृत्तपर्वसंवरम, कमलकोशमिवारुणप्रकाशनिवंशम्, विमभगा भोग
बाद में वह यज्ञ-मण्डप से बाहर आया और इस श्रेष्ठ ब्राह्मण से, जिसको आश्वयं-जनक मनोज्ञता इसकी उम्र व शरीर के वामनाकार से निश्चित की गई थी. वोला
'हे विद्वन् ! किस इष्ट वस्तु की इच्छा चित्त में स्थापित करके यह वेद पाठ करते हो ?'
हे ब्राह्मण-श्रेष्ठ वलि ! 'मेरा गृह कुटुम्बो जनों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट कर दिये जाने से अभी कुटो बनाने के लिए केवल तीन पैर के प्रमाण से मनोज्ञ पृथिया के लिए वेदपाठ करता हूँ।
बलि-'द्विजोत्तम ! मैंने तुम्हें इच्छानुसार तीन पर जमीन दे दो।' द्विजोत्तम-'तो माननीय यजमान ! जल-धारा से मनोज्ञ प्रवृति वाला दान कीजए । एका बड़ी झारी [ हाथ में ] लंकर चलि-'द्विजाचार्य ! हाथ फैलाइए।'
ऐसा बलि के कहने पर शुक्राचार्य ने उसका ऐसा हाथ देखकर, बलि से कहा-गो वैसा कुलिशनिकेतन (बज़ के चिह्न वाला ) है, जैसे इन्द्र तुनिश-निकेतन ( वन का धारक ) होता है। जो उस भांति कलश-आलाद-कलश के चिह्न से आनन्द नद है, जिस भांति महल कलमा-आहाद-कलशों से आनन्द दायक होता है। जो वैसा मल्प-आश्रय ( मछली के चिह्न से अलइकृत ) है जैसे तालाब मत्स्थ-आश्रय ( मछलियों का आवास-स्थान ) होता है। जो साबल-अनाथ (बाल के चिह्न सहित है जैसे समुद्र पाङ्ख-सनाथ शङ्खों से ग्वाल) हाना है। जो वैसा ऊध्वं रेखा-युक्त है जैसे विरहिणी स्त्री के द्वारा पति के वियोग के दिनों की गिनती करने के लिए भित्ति देश खींचो गई रेखाओं का स्थान होता है। जो बैंसा चक्रलक्षण (चक्र-त्रित सुभाभित ) है जैसे विष्णु चक्रलक्षण ( सुदर्शन चक्रधारी ) होता है। जो बैसा पवाधिकरण ( अमूठे में जो के चिह्न का, जो कि कोतिका चिह्न है, आधार ) है जैसे यज्ञ के उपकरण यव. अधिकरण ( जो अन्न के आधार ) होते हैं। जो वेसा निश्छिद्रता-अमत्र ( संलग्न कर की अगुलियों वाला), है जैसा जहाज निद्रिना-अमत्र ( छिद्रों से रहित का स्थान ) होता है। जो वैमा दोघ-अगुलि-प्रसर ( लम्बी व विस्तृत अङ्गुलियों वाला ) है जैसे हाथो को मूंड दोघ-अलि प्रमर ( लम्बी नोक से विस्तृत) होती है। जो वैसा आनुपूर्वी प्रवृत्त-पर्व-संचय है, अर्थात् क्रमपूर्वक प्रवृत्त होने वाले पर्व-( गांठे ) समूह से सुशोभित है जिस प्रकार बांस के नये पते आनुपूर्वी प्रवृत्त पर्व संचयशाली-पर्व और गांठीवाले-होते हैं। जो वैसा अरण-प्रकाश-निवेश ( संध्याकालीन आकार की लालिमा वाला ) है जैसे कमल का कोश अरुण-प्रकाशनिवेश (सूर्य के प्रकाश का स्थान ) होता है। जिसके नाखूनों का अग्नभाग वेसा स्निग्ध-पाटल ( चमकीला १. दानघालायाः' इति टि० ० । 'म यज्ञमण्ड्यः ' इति पञ्जिकाकारः । 'यतमण्डपान्' इति दि० ० । २. प्राध्ययनं
कुरु। ३. मनोज । ४ मनोजप्रवृत्तिः । ५. भगारंपा। ६. सति बलो, अ वनमा बने । ७. मन्त्री । ८. इन्द्रं । ९. भित्तिदेशं । १०. गंगुष्ठे यबं बाश्चिह्न। ११ पोत । १२. संलग्नकराङ्गुलिम् । १३. अङ्करं । १४. रचनाविस्तार ।
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पेष्ठ आदवासः
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मिव पाटल मखरा लक्ष्मीलताविर्भावोवयं 'शयमुपलक्ष्य बले, न खल्वयमेवंविधपाणितलसंबंधी गीधः परेषां याविता किन्तु याच्य इति ववव शुक्रमवगणय्ध बलिः स्वकीयां दत्तिमुदरुधारोत्तरामकार्षीत् ।
सतु स विष्णुमुतिविरोधन विशेकनिकर इवाकमेणोष्यमषश्चान वषिवृद्धिपरः पर्वतस्योभयतः प्रवृत्तापणा प्रवाह इव तिरःप्रस रद्देहः, "कायष रमेकमपारवज्जवेदिकायां निधायापरं वक्रमं चक्रवाललिका पुनस्तृतस्य मेदिनीमलभमानस्तपत्र 'रथस्ललन सेतुना मुरसरितरी 'पोतो हेतुना संगतिविधि सुन्दरीचरणमाविभ्रमेण १३ समाप्तिखेचरीचेतः संभ्रमेण भूगोलगीरपरिच्छेने तुलादण्डविडम्बनेन चरणन शोभितान्तरिक्ष व पुरस्का किन्नरामरस वर चारणाविवृचैिवंन्यमानपावारविन्यः संयत जनोपकारसारः स्वकार्याद्धि वृद्धि परितोषितमनीयंव्यंन्तरानिमित्रकारणखनलालतावलि बलि सवान्धवमबन्धयत् । प्रायंशयच्च सदेहं रसातल गेहम् ।
3
भवति यात्र श्लोकः—
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महापद्मविष्णुर्मुनीनां हास्तिने पुरे । बलिद्विजकृतं विघ्नं शमयामास वत्सलः || २२५ ॥
और लाली लिए हुए है जैसे मूंगों की रचना का विस्तार सचिक्कण व लालिमायुक्त होता है एवं जिसमें लक्ष्मी (शोभा) रूपों लता की अभिव्यक्ति का उद्गम है। 'बन्त्रि ! निस्सन्देह ऐसा हस्ततल शाली मानव दूसरों से याचना करनेवाला नहीं हो सकता, किन्तु दूसरों के द्वारा याचना योग्य होता है ।'
इस प्रकार वक्रोक्तिपूर्वक बोलने वाले शुक्र मन्त्री की तिरस्कृत करके बलि ने अपना दान, जलधारा से मनोज्ञ किया ।
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इसके बाद विष्णु मुनि सूर्य की किरण-समूह सरीखे अपना शरीर एकदम से बेमर्याद ऊपर नीचे वृद्धिंगत करने में तत्पर हुए और वे वैसा अपना शरीर तिरछे रूप से फैलाने वाले हुए, जैसे पर्वत के दोनों पार्श्व भागों पर प्रवाहित होने वाली नदी का प्रवाह तिरछे रूप से फैलता है। उन्होंने एक पैर फैलाकर समुद्र
व वेदिका पर स्थापित किया और दूसरा पैर मानुपोत्तर पर्वत की चोटी पर स्थापित किया और तीसरे पैर को रखने के लिए जगह न मिलने से उसने उससे विद्याधरों के नगरों के गृह क्षुब्ध किये। जो ऐसा मालूम पड़ता था मानों सूर्य के रथ को रोकने के लिए पुल ही है। जो गंगा नदी की चौथी धारा के उत्पन्न करने में कारण है। जो देव सुन्दरियों के नगर-समूह की भ्रान्ति को उत्पन्न करनेवाला है और जो विद्याधरियां के चित्त में भय उत्पन्न करनेवाला है एवं जो भूमण्डल की गुरुता — भारीपन का निश्चय करने के लिए तराजू सरीखा है। इससे किन्नरदेव, विद्याधर व चारण आदि के समूह ने आकर उनके चरणकमलों की वन्दना की । वह संयमी जनों का उपकार करने से उत्तम था उसने अपनी विक्रिया ऋद्धि की वृद्धि से सन्तुष्ट बुद्धिवाले व्यन्तरदेवों ने स्वाभाविक दुष्टतारूपो लता के आश्रय के लिए भूमि सरीखे बलि को उसके बन्धुजनों सहित लिया और उसे शरीर सहित रसातल में पहुँचा दिया |
इस विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है-संग्रमी जनों से वात्सल्य (प्रेम) करनेवाले व महापद्म राजा के पुत्र विष्णुकुमार मुनि ने हस्तिनागपुर नामक नगर में बलि ब्राह्मण द्वारा मुनियों पर किया हुआ उपसर्ग निवारण किया ।। २२५ ।।
१. हस्तं । २. पुरुषः । ३. अन्यैर्याचनीयः । ४. सूर्यकिरण । ८. मानुषोत्तरगिरी | ९. सूर्यं । १०. गंगा किल त्रिपथगा १४. भूमिं ।
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६. तिरिछु । १२. नगरसमूह |
५. अमर्याद | ११. चतुर्थ ।
७. चरणं । १३. भ्रान्तिना ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये इत्युपासकाध्यपने पारसल्यप्रवचनो माम विशतितमः कल्पः । निसोऽधिगमो' वापि तशाप्तो कारणवयम् । सम्पमस्वभाषपुमाग्यमादल्पानल्पप्रयासतः ॥२२६।। वक्तं च-आसन्नभव्यताकमहामिसंनित्बशुद्धपरिणामाः । सभ्यत्वहेतुरन्तर्वाह्योऽप्युरवेक्षकाविश्च ॥२२७।।
एतयुक्तं भवति--कस्यचिदासानभव्यस्य "तन्निदा नव्यक्षेत्रकालभावभवसंपत्सेध्यस्य विपूर्तत प्रतिबन्धकाम्धकारमंबन्यस्याक्षि महशिक्षाफियालापनिपुणकरणानुबन्धस्य' नयस्य भाजनस्वातंभातदुर्गसनगन्यस्य सटिति यथास्थितवस्तुस्वरूपसंकान्तिहेतुतया स्फाटिकमणिवर्गणसगन्धस्य पूर्वभवसंभाजन वा वेवनानुभवनेन वा एमभवणाकर्णनेन वाहप्रतिनिििनध्यानेन वा महामहोत्सवनिहालनेन' वा मल्लद्धि प्राप्ताचार्यवाहनेन" वा नषु माफियु' या तन्माहात्म्पसभूतविभवसंभावनेन" वान्येन वा केनचित्कारणमात्रेण विचारकान्तारेषु मनोविहारास्प खेवमनापद्य पदा जीयाविषु पदार्थेषु "यात्म्यसमधानं भवानं भवति तदा प्रयोक्तुः१९ सुकरक्रियत्वाल्लयन्से शालयः
श्य प्रकार उपासकाध्ययन में वात्सल्य अङ्ग का प्रवचन करनेवाला बींसां कल्प पूर्ण हुआ।
अब सम्बग्दर्शन का वर्णन करते हैं सम्यग्दर्शन को प्राप्ति दो कारणों से होता है। १. निसर्ग (परोपदेश के विना स्वभाव) से होता है और दूसरा अधिगम ( परोपदेश ) से होती है। क्योंकि किसी पुरुष को अल्प प्रयत्न करने से हो सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाती है और किसी को प्रचुर प्रयत्न करने से सम्यक्त्व को प्राप्ति होती है ।। २२६ ॥
कहा भी है-सम्यग्दर्शन के अन्तरङ्ग कारण निकट भव्यता, दर्शनमोहनोय का उपशम, भय व अयोपसम, संजीपन और शुद्ध परिणाम है तथा बाह्य कारण उपदेश और जाति स्मरण व जिनबिम्ब-दर्शन-आदि हैं ।। २२७ ॥
अभिप्राय यह है—ऐसे किसो निकट भव्यजीव को, जो कि सम्यक्त्व के कारण योग्य द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावों की उत्पत्तिरूपो लक्ष्मी से सेवनीय है, जिसने सम्पत्य की उत्पत्ति में रुकावट डालनेवाले कर्मरूपी ( दर्शन मोहनीय) अन्धकार का संबंध नष्ट कर दिया है। जिसने ऐसा संज्ञी पंचेन्द्रियपन प्राप्त किया है, जो शिक्षा, क्रिया व वार्तालाप करने में निपुण है । जिसमें नये वर्तन की तरह दुर्वासना का संबंध उत्पन्न नहीं हुआ है और जो शीव यथार्थ वस्तु-स्वरूप के संक्रमण में कारण होने से स्फटिक मणि के दर्पण-सरीखा है, पूर्वभव के स्मरण से, कष्टों के अनुभव से, धर्म शास्त्र के मुनने से, जिनबिम्ब के दर्शन से, महामहोत्सवों के देखने से और महाऋद्धिधारी आचार्यों के दर्शन से एवं मनुष्यों में और देवों में सम्यक्त्व के माहात्म्य से उत्पन्न हुए ऐश्वयं के दर्शन से अथवा अन्य किसी कारण से विवाररूपी बगीचों में मन की क्रीड़ा का स्थान स्वेद प्राप्त न करके जब जीवाद मोक्षोपयोगी तत्वों में यथोक्त परिज्ञान वाला श्रद्धान उत्पन्न होता है तो उस सम्यक्त्व को 'निसर्गज' सम्यग्दर्शन कहते हैं। तब सम्यग्दर्शन का व्यवहार करनेवाले निकट भव्यात्मा द्वारा सुलभता पूर्वक प्राप्त होजाने से यह निसर्गज सम्यग्दर्शन वैसा कहा जाता है, जैसे धान्य काटने वाले कृषक द्वारा मुल
१. स्वभावः । २ आक्षेपः । ३. सम्मश्चत्राप्तौ। ४. अभ्य तरकार. । ५ सम्यक्त्व । ६, कारण। *. उत्पत्ति ।
७. सम्यक्व । ८. गृहीत । १. पंचेन्द्रियमनःसंबंधस्य। १०. संबंधस्य। ११. समानस्य । १२. श्रवणं श्रुत, धर्मशास्त्राकर्णनेन, मूलाचारश्रावकाचारप्रवणेनेत्यर्थः। १३. प्रलिमावलोकनेन । १४. दर्शनेन । १५. दर्शनेन । अत्र पञ्जिकाकारः प्राह--निव्यानं निहालन, वाहनं दर्शन च । हल विशोधनं वह परिफलपने अनयोः रूपमिति । १६. देवेषु । १७. अवलोकनन । १८. यथोकपरिशान । ६९. उपदेशकस्य ।
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षष्ठ आश्वासः
२८३
स्वयमेव विनीय रते कुशलाशयाः स्वयमेय, इत्यादिषन्निसर्गात् संजातमित्युच्यते । यदा श्वभ्युत्पत्तिसंशीतिविपर्यस्त - समधिकस्याधि 'मुक्ति युक्ति" युक्तिसंबन्ध सविषस्य प्रमाणन निक्षेपानुयोगोपयोगावगाह्येषु समस्तेष्वं ति "परीक्षोपक्षेपादतिक्लिन' निःशेषबुराशानिया विमाशनांशुमन्मरोचिचिरेण तत्वेषु दधिः संजायते तवा ११ वित्रसुरायासहेतुत्वात्मा निर्मापितोऽयं सूत्रानुसारो "हारो ममेवं संपादितं रत्नरचनाधिकरणमाभरणमित्यादिवत्तव भिमादाविर्भूतमयले उक्तं च
अपूर्वापेक्षायामिष्टानिष्टं स्वयंवतः । बुद्धिपूर्वव्यपेक्षा या मिष्टानिष्टं स्वपौयात् ॥ २२८ ॥
विषं विषं वमाहुः सम्यक्त्वमात्महितमतयः । तरदभद्धानविधिः सर्वत्र च तत्र सयवृत्तिः ॥ २२९ ॥ १२ सरागषीत १४ रागात्मविषयत्वाद्विषा स्मृतम् । प्रशमाविगुणं पूषं परं चात्मविशुद्धि भा' || २३०11
१ ५
भता पूर्वक काटी जा रहीं धान्यों के प्रति यह कहा जाता है, कि ये धान्य स्वयं ही काटी जा रहीं हैं और जैसे कुशल बुद्धिशाली शिष्य स्वयं शिक्षा प्राप्त करते हैं।
जब निकट भव्य को, जिसकी बुद्धि अनध्यवसाय, संशय व विपर्यय रूप मिथ्याज्ञान से आच्छादित है परन्तु जो श्रद्धा, नय, प्रमाण व सिद्धान्त शास्त्र के वेत्ता गुरु के निकटवर्ती है, जो ऐसे समस्त सिद्धान्त शास्त्रों की परीक्षा के आग्रह से, जो कि प्रमाण, नय, निक्षेप व चारों अनुयोगों के उपयोग द्वारा अवगाहन करने योग्य हैं, कष्ट उठाकर समझाया जाता है, उसे जो चिरकाल के पश्चान् रामस्त दुराशाही रात्रि को नष्ट करने के लिए, सूर्य की किरण सरीखी तत्वरुचि उत्पन्न होती है, उसे 'अधिगमज' सम्यग्दर्शन कहते हैं, क्योंकि उसमें तत्वोपदेशक का कष्ट कारण है। उसे वैसा अधिगम कहते हैं, जैसे हार बनाने वाला कहता है, कि यह तन्तुओं में पा हुआ हार मैंने बनाया है । अथवा मैंने यह रत्न खचित आभूषण बनाया है ।
श्री समन्तभद्राचार्य ने देवागम स्तोत्र में कहा है कि जब मानव को बुद्धिपूर्वक प्रयत्न किये बिना ही (बिना पुरुषार्थं किए ) अतर्कितोपस्थित न्याय से ( अचानक) सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, उन्हें उसके भाग्याधीन समझने चाहिए । अर्थात् — उनमें उसका पूर्वजन्म में किया हुआ पुण्य-पाप कर्म ही कारण है और जब उसे ऐसे सुख-दुःख प्राप्त होते हैं, जिनमें पुरुषार्थं को अपेक्षा होती है उनमें उसका पुरुषार्थं कारण है। प्राकरणिक अभिप्राय यह है जब मुमुक्षू मानव में, ऐसा सम्यक्त्व प्रकट होता है, जिसमें परोपदेश की अपेक्षा नहीं होती उसे तिसगंज सम्यग्दर्शन कहते हैं। और जिसमें परोपदेश ( वेशनालब्धि ) की अपेक्षा होती हैं, उसे अधिगमज कहते हैं ॥ २२८ ॥
सम्यग्दर्शन के भेद और उसके कार्य - आत्म-कल्याण में बुद्धि रखनेवाले आचार्यों ने सम्यक्त्व के दो, तीन ओर दश भेद कहे हैं। इन सभी भेदों में तत्वों की श्रद्धा करना समान रूप से पाई जाती है ।। २२९ ।। साग जीव में ( चौथे गुणस्थान से लेकर ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों में ) पाये जाने वाले तत्त्वश्रद्धान को सराग सम्यक्त्व कहते हैं और वीतराग आत्मा में ( बारहवं गुणस्थान से लेकर चौदहवें गुणस्थान वर्ती अयोगीजन में ) पाये जाने वाले तत्त्वश्रद्धान को वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं। इस प्रकार सम्यक्त्व के सराग - और वीतराग ये दो भेद समझने चाहिए। उनमें पहला सराग सम्यक्त्व प्रशम, संवेग व अनुकम्पा आदि बार
१. शिक्ष्यन्ते । २. उपदेशकस्य 1 ३, श्रद्धा । ४ नयप्रमाणं । ५ सिद्धान्त । ६. समीपस्य उपदेष्टुः । ७. सिद्धान्तेषु । ८. 'आग्रहात्' टि० ( ख० ), 'प्रश्नस्यावलोकनात्' टि० ( च० ) । ९. क्लेशं कृत्वा संबोध्यते । १०. रविः । ११. उपदेशकस्य । १२. सूत्रमनुसरति यो हारः सूत्रमर्यादः प्रलवणादिक्लेश सहितः । १३. एकादशगुणस्थानपर्यन्तं सय १४ द्वादशादि वीतरागं । १५. क्षपण वीतरागं
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यथा हि पुषस्य पुरुषशक्तिरियमतीन्द्रियाण्यङ्गनाजन से भोगेनापरमोत्पादनेन च विपदि पर्यावलम्बनेन वा प्रास्तुनिर्वहणेन वा निश्चेतुं शक्यते, तथात्मस्वभावतयातिसूक्ष्मपत्नमणि सम्यक्त्वरत्नं प्रशमसंधानुकम्पातिरेक'वाक्यं: राकलयितु शक्यम् । तत्र -
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यागाविषु दोषेषु चित्तवृत्तिनिवर्हणम् । तं प्राहुः प्रथमं प्राज्ञाः समस्तत्रतषणम् ॥ २३१|| शारीरमानसागन्तु वेदनाप्रभवा वात्" । स्वप्नेन्द्रजालसंकल्पाीतिः संवेगमुच्यते ।। २३२ ।। सत्ये सर्वत्र चिस्य बयावर दयालयः । पर्मस्य परमं भूलमनुरूपां प्रचक्षते ॥ २३३ ॥ आप्ते श्रुते धते तत्ये चित्तमस्तित्वसंयुतम् । मास्तिक्यमास्तिकंरुक्तं मुक्तियुक्तिषरे नरं ॥ २३४ ॥ रामशेषधरे नित्यं निते निर्दयात्मनि । संसारो दीर्घसार " स्थान्तरे नास्तिकनीतिके" ।। २३५ ।। कर्मणां क्षयतः शान्तेः क्षयोपशमता । श्रद्धानं त्रिविधं बोध्यं १० गतौ सर्व अतुषु ॥ २३६ ॥
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गुणों से युक्त होता है और केवल आत्मविशुद्धि-युक्त क्षपकश्रेणी में वर्तमान सम्यक्त्व को वीतराग सम्यक्त्व कहते हैं [ उक्त अभिप्राय टिप्पणीकार का है ] ॥२३०||
जैसे पुरुष की पुत्त्व शक्ति यद्यपि अतोन्द्रिय ( चक्षु आदि इन्द्रियों द्वारा जानने के लिए अशक्य ) है तथापि स्त्रीजनों के साथ रतिविलास करने से, सन्तान के उत्पादन से और विपत्ति में धैर्य के धारण करने से अथवा प्रारम्भ किये हुए कार्य को समाप्त करना आदि कार्यों से अनुमान प्रमाण द्वारा उसकी शक्ति का निश्चय किया जाता है वैसे ही सम्यरूपी रत्न भी यद्यपि आत्म-स्वभाव होने के कारण अत्यन्त सूक्ष्म है, तयापि अन्यभिवारी ( निर्दोष ) प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और मस्तिक्यरूप चिन्हों से उसका निश्चय किया जाता है। विद्वानों ने राग आदि दोषों से मनोवृत्ति के निवारण ( हटाने ) को प्रथम गुण कहा है, जो कि समस्त ब्रतों का आभूषण है । क्योंकि इसके विना व्रत निरर्थक हैं ।। २३१|| शारीरिक, मानसिक और आगन्तुक दुःखों को उत्पन्न करने वाले और स्वप्न व इन्द्रजाल- सरीखे संसार से भयभीत होने को 'संवेग' गुण कहा है ||२३|| समस्त प्राणियों में मनोवृत्ति को दयालुता से सरस रखने को दयालु विद्वान् अनुकम्पा कहते हैं, जो कि वरूपी वृक्ष की उत्कृष्ट जड़ है || २३३|| आस्तिक आचार्यों ने आप्त ( वीतराग सर्वज्ञ तीर्थङ्कर ), द्वादशाङ्ग शास्त्र, व्रत (अहिंसा आदि) और जीवादितत्त्व इन पदार्थों के विषय में 'ये मोजूद हैं इस प्रकार की इनकी मौजूदगी स्वीकार करने वाली चित्तवृत्ति को 'बास्तिक्य' कहा है। यह प्रशस्त गुण मुक्ति श्री के साथ संयोग रखने वाले ( मुक्तिगामी) मानव में ही पाया जाता है || २३४|| जो [ मिध्यादृष्टि ] मानव सदा रागी व क्रेमी है, न कभी व्रतधारण करता है और जिसकी आत्मा निर्दयी है एवं जो नास्तिक मत को मानता है, उसका संसार दीर्घ भ्रमण वाला हो जाता है | ॥ २३५|| अभिप्राय यह है कि ऊपर कहे हुए प्रशम, संवेग, अनुकम्पा और आस्तिक्य ये प्रशस्त गुण यथार्थ रूप से सम्यग्दृष्टि में ही पाये जाते हैं, मिध्यादृष्टियों में ये नकली होते हैं। राग, द्वेष, काम व क्रोधादि विकृत भावों का उदय न होने देना प्रशम गुण है। यह संसार बुखार व गलगण्डादि शारीरिक दुःखों एवं कामक्रोधादि से उत्पन्न होने वाले मानसिक दुःखों एवं अतिवृष्टि, अनावृष्टि आदि आगन्तुक कष्टों से व्याप्त है, इससे सदा डरते रहने को संवेग कहते हैं। इसी प्रकार दयालुता ओर आस्तिकता ये गुण अनन्तानुबंध काय चतुष्टय व मिथ्यात्व के अभाव हो जाने पर सम्बरदृष्टि में ही पाये जाते हैं । इन गुणों से साग सम्यक्त्व का
१. अव्यभिचार । २. परिज्ञातुं । ३. 'निवारणं' दि० ( ० ) । 'निरसनं' पञ्जिकाकार! | ४. उत्पावकात्। ५. संसाराद्भीतिः । ६. सरलता । ७. मोदासंयोगधरे, मुक्तिगामिनि । ८ भ्रमणः । ९. शास्त्रे । १०. ११. चतुषु गतिपु सर्वासु ।
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षष्ठ आश्वासः
२८५
शविघं तबाह
आशामार्गसमु.बचमुपदेशात्सूत्रबीजसंक्षेपात् । विस्तारार्याभ्यां भवमवपरमावादिगावं' ५॥२३७ ।।
अस्यायमर्थ:-भगवनहं सर्वज्ञप्रणीतागमानुजासंज्ञा आशा, रत्नत्रयविचारसों मार्गः, पुराणपुरणचरितश्रवणाभिनिवेश उपदेशः, यतिननाचरणनिरूपणपात्रं सूत्रम् , सकलसमयबल सूचनाम्यानं पीजम् , प्राप्तपतवत. पदार्थ समासालापाक्षेपः संक्षेपः, द्वादशाङ्गतुवंशपूर्वप्रकोणविस्तीर्णश्रुतायसमधनप्रस्तारो विस्तारः, प्रवचनविषये "स्वप्रत्ययसमर्थाऽपः, विविध स्यागमस्य निशेषतोऽन्यतमवेशा गाहालीबमवगावम् , अवधिमनःपयकेवालायिकपुरुषप्रत्यपप्रा परमावगाढम् । निश्चय होता है। परन्तु बीतराग सम्यग्दर्शन आत्मविशुद्धि रूप ही है, जो कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा जाना जाता है।
[अब सम्यग्दर्शन के तीन भेदों का कथन करते है-]
सम्यग्दान तीन प्रकार का है। औपरामिक, क्षायिक और बायोपशमिक । जो सम्यग्दर्शन, अनन्तानुवन्धि क्रोध, मान, माया, लोभ और मिथ्यात्व, सम्यक् मिथ्यात्व और सम्यक् प्रकृति इन सात प्रकृत्तियों के उपशम होने से होता है, उसे औपशमिक सम्यक्त्व काहते हैं और जो इन सात प्रकृतियों के शय से उत्पन्न होता है उसे क्षायिक कहते हैं और जो इनके भयोपशम से होता है उसे खायोपशामिफ कहते हैं । ये तीनों सम्यग्दर्शन चारों नरकादि गतियों में पाये जाते हैं ॥ २३६ ॥
[ अब सम्यग्दर्शन के दश भेदों का निरूपण करते हैं-]
आज्ञा,मार्ग, उपदेश, सूत्र, बीज, संक्षेप, विस्तार, अर्थ, अवगाढ और परमावगाद सम्यक्त्व ये सम्यादर्शन के दश भेद हैं ।। २३७ ।।
इसका स्वरूप यह है-जिस तत्वश्रद्धा में भगवान् अर्हन्त सर्वज्ञ द्वारा रचे हुए आगम की आज्ञा को स्वोकार करने से उत्पन्न हुआ तत्त्वज्ञान पाया जाता है, उसे 'आज्ञासम्यक्त्व' कहते हैं। गम्यग्दगंनज्ञानचारिवात्मक रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के विचार से प्रकट होने वाले तत्त्वश्रद्वान को 'मार्ग सम्यक्त्व' कहते हैं। तिरेसट शलाका में विभक्त नीथंकरादि पुराण पुरुषों के चरित को श्रवण करने से उत्पन्न होने वाले श्रद्धाविशेप को उपदेश सम्यक्त्व कहते हैं। साधुजनों के महावत-आदि आचार को निरूपण करने के भाजनप्राय आचाराङ्ग मूत्र के श्रवण से उत्पन्न हुए तत्वश्रद्धान को सूत्रसम्यक्त्व कहा है। समस्त शास्त्रों के समूह की सुचना का लक्ष्य वीज पद है और उसके आधार से प्रकट होने वाली तत्त्वरुचि को 'बीज सम्यक्त्व' वाहते हैं। आप्त, अत, प्रत व पदार्थो के स्वल्प वर्णन से उत्पन्न होने वाली तत्त्वश्रद्धा को संक्षेप सम्यक्त्व कहते हैं। बारह अङ्ग, चौदह पूर्व
और सामायिक-आदि प्रकीर्णक आगमों के अर्थ का समर्थन सुनकर प्रकट होने वाली विस्तृत तत्त्वरुचि को विस्तार सम्यक्त्व कहते हैं।
आगमके विषयों को श्रवण करके उत्पन्न हुए आत्मश्रद्धान में समर्थ तत्वश्रद्धान को अर्थसम्यमत्व कहते
१. अवगाई परमात्रमाई। २, आदेशस्तथलि । ३. अभिप्रायः । ४. भाजनप्रायं । ५. समह । ६. स्वल्प । ७. आत्मनि
आत्मनो वा विश्वासः । *. द्वादशाङ्गचतुदंशपूर्वप्रकीर्णकभेदेन । ८. 'पूर्ण विविघागममयगाह्योल्पद्यते यत् सम्यवस्व तदयगाद' इति टि: (ख)। त्रिवियायममध्येऽन्यतमावगाहेनोत्पद्यते एवं न, किन्तु परिपूर्ण विविधागम मन्दगाह्मोसाद्यते यत्सम्ययत्वं लवगाद इति टि० ( घ०)। १. विश्वासनोत्पर्म ।
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यशस्तिलचम्पूफाव्ये गृहस्थो वा यति वापि सम्यक्त्वस्य समाभयः । 'एकादविषः पूर्वपरमश्व चतुविषः ॥२३८॥ मायानिदानमिथ्यावशल्यत्रितपदरेत । 'आवाकाक्षणाभावतत्त्वभावनकोलक ॥२३९।। "वृष्टिहीनः पुमानेति न पथा पवमीप्सितम् । तुनिट्टी' पुमानेति ननस पल्पोरिकप ::१४०॥ .. सम्यक्त्वं नाजहीनं स्यात्राज्यवस्माज्यभूतये। 'ततस्तरङ्गरंगत्यामङ्गी निःसङ्गमोहताम् ।।२४१॥
हैं। अङ्ग, पूर्व और प्रकीर्णक इन तीनों आगमों के पूरी तरह से अवगाहन करने पर उत्पन्न होने वाली गाढ. श्रद्धा को अवगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं । टिप्पणीकार ने भी यही लिखा है और अवधिज्ञानी, मनःपय॑य शानो व केवलज्ञानी पूज्य महापुरुषों के विश्वास से उत्पन्न होने वाले प्रगाढ़ तत्वश्रद्धान को परमावगाढ़ सम्यक्त्व कहते हैं।
भावार्थ-इन सभी सम्यग्दर्शनों में अन्तरङ्ग कारण दर्शनमोहनीय का उपशम, क्षय ओर क्षयोपशम है, क्योंकि इसके बिना सम्यक्त्व होना अशक्य है। इनमें दर्शनमोह के उपशम से होनेवाले सम्यक्त्व को औपशामिक व क्षय से प्रकट होनेवाले सम्यग्दर्शन को क्षायिक और दर्शनमोह के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले सम्यक्त्व की क्षायोपशमिक कहते हैं। परन्तु उक्त भेद बाह्म निमित्तों को आधार बनाकर किये गए हैं।
गृहस्थ श्रावक हो अथवा मुनि, परन्तु उसका सम्यग्दष्टि होना नितान्त आवश्यक है, क्योंकि सम्यक्त्व के बिना न कोई प्रावक कहा जा सका है और न मुनि । गृहस्थ के ग्यारह भेद हैं, जिन्हें ग्यारह प्रतिमाएं कहते है और मुनि के ऋषि, यति, मुनि व अनगार ये चार भेद हैं ।। २३८॥ बती को सरलतारूपी कीलें के द्वारा मायारूपो काँटा निकालना चाहिए । भोग-तुष्णा के त्यागरूपी कोले के द्वारा निदानरूपी कोटे का उन्मूलन करना चाहिए और तत्वों की भावना ( सम्यक्त्व ) रूपी कोले के द्वारा मिथ्यात्वरूपी काँटे को निकालना चाहिए।
भावार्थ-सूत्रकार उमास्वामी ने भी निःशल्यो बती) इस सूत्र द्वारा बतलाया है, कि माया, मिथ्यात्व और निदान ये तीन शल्ये ( काटे हैं. इनका उत्मलन करके अहिंसादि व्रतों का धारक व्रती कहा जा सकता है । इससे यह बात जान लेनी चाहिए, कि केवल अहिंसादि व्रतों को धारण करनेवाला नती नहीं हो सकता । अन्यथा द्रव्यलिङ्गी मुनि को भी, जो कि मिथ्यात्व-आदि तीन शल्यों के होने से पहले गुणस्थान वाला मिथ्यादष्टि है. व्रत्तो कहा जायगा। इसलिए निःशल्य होकर प्रतों के पालन से व्रती कहा जायगा। इसी प्रकार केवल निःशल्य भी व्रत धारण न करने पर प्रती नहीं कहा जा सकता, अन्यथा चौथे गुणस्थानवर्ती अविरत सम्पग्दष्टि भो निःशल्य होने के कारण प्रती माना जापगा। उच्ची बात हमने श्रीमत्पूज्य विद्यानन्दि आचार्य के 'तत्त्वार्थश्लोकवातिक' के आधार से लिखी है ।। २३९ ।।
जैसे दष्टि-नेत्रों से हीन ( अन्धा पुरुष ) अपने इच्छित स्थान पर प्राप्त नहीं हो सकता वेसे ही दृष्टि ( सम्ववत्व) से होन ( मिथ्याष्टि) मानव भो अपना अभिलषित स्थान ( मुक्ति ) का लाम नहीं कर सकता ।। २४० ।। पहले कहे हुए नि.शङ्कित-आदि आठ सम्यक्त्व के अङ्गों के बिना सम्यग्दर्शन वेसा विशिष्ट विभूति ( स्वर्ग व मुक्ति श्री ) देने वाला नहीं होता जैसे मन्त्री व सेनापति आदि राज्य के अङ्गों के
१. मूलभतं वदान्यर्चा-इत्याविभेदेन । २. ऋषि-यति-मुन्यनगारभेदेन । ३. यथासंख्येन । ४. शङ्कभिः कृत्वा । ५. नेत्र । ६. अष्टाङ्गपूर्णतायां सत्यां प्राणीनिःसङ्ग पारित्रं वाञ्छतु ।
*. देखिए 'तत्वार्यश्लोकयातिक' ० ७, सूत्र १८ की अन्तिम २ लकीरें।
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२८७
पठ माश्वांसः
विद्याविभूतिरूपाद्याः सम्यक्त्वरहिते शुतः । न हि बोजव्यपायेऽस्ति सत्यसंपत्ति रङ्गमि ॥ २४२ ॥ afrat संयोरकष्ठा नाविंशंनोत्सुका । तस्य कूरे न मुक्तिश्रीतिर्वोषं यस्य वर्शनम् ।। २४ ।। 'मूयं माचाष्टौ तथानषद अतिदोषाः पविशतिः ।। २४४ || विश्वयोचित चारित्र: * सुष्टिस्तत्वकोविदः । अतस्थोऽपि मुक्तिस्थो न व्रतस्वोऽध्यदर्शनः ॥२४५॥ यहि क्रिया कर्म कारणं केवलं भवेत् । रत्नत्रय सभृशेः स्यावात्मा रत्नत्रयात्मकः ॥ २४६ ॥ "विशुद्धवस्तुषी ष्टिषः "साफरगोचरः । १० झप्रसङ्गस्तोव सं "भूतार्थनयवादिनाम् ॥ २४७॥ विना राज्य विशेष समृद्धिशाली नहीं हो सकता । इसलिए जब सम्यक्त्व के आठों अङ्गों की परिपूर्णता हो जाय तब मुमुक्षु श्रावक निःसङ्ग - निर्यत्य दिगम्बर मुनि हो जाने का इच्छुक होवे || २४१ ।।
जिस प्रकार किसान को धान्य के बीजों के बिना धान्य- सम्पत्ति नहीं हो सकती उसी प्रकार मिध्यादृष्टि पुरुष को भी सम्यक्त्व के विना सम्यग्ज्ञान, राज्य-विभूति ओर लावण्य-सम्पत्ति कैसे हो सकती है ? || २४२॥ जिसका सम्यग्दर्शन निर्दोष हैं, चक्रवर्ती की विभूति उसका आलिङ्गन करने के लिए उत्कण्ठित रहती है और देवों की विभूति उसके दर्शन करने के लिए लालायित रहती हैं, अधिक क्या मुक्ति लक्ष्मी भी उससे दूर नहीं है ॥ २४३ ॥
[ अब सम्यग्दर्शन के दोषों का निरूपण करते है -]
तीन ढलाएँ, आठ मद, छह अनायतन और आठ शङ्का - वगैरह, ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं ।
भावार्थ — देवमूढ़ता, गुरुमूढ़ता और लोकमूढ़ता ये तीन मूढ़ताएँ हैं। जाति, पूजा, कुल, ज्ञान, रूप, सम्पत्ति, तप व बल का मद करना ये आठ मद हैं। कुदेव और उसका मन्दिर, कुशास्त्र व कुशास्त्र के धारक, कुतप व कुतप के धारक ये छह बनायतन हैं। सम्यग्दर्शन के आठ मङ्गों के उल्टे शङ्का, कांक्षा, विचिकित्साआदि आठ दोष हैं। ये सम्यग्दर्शन के पच्चीस दोष हैं। जिसने इन दोषों का त्याग किया है, उसका सम्यग्दर्शन निर्दोष कहा जाता है ॥ २४४ ॥
मोक्षमार्गी कौन है ?
तत्वों का ज्ञाता सम्यग्दृष्टि मानव, जो कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए योग्य चारित्र का धारक है, अर्थात् स्वरूपाचरण चारित्र का धारक हैं, व्रत धारण न करता हुआ भी मुक्ति के मार्ग में स्थित है, किन्तु व्रतों का पालन करते हुए भी जो सम्यग्दर्शन से रहित ( मिथ्यादृष्टि ) है, वह मुक्ति के मार्ग में स्थित नहीं है || २४५॥ बाह्य क्रिया । बाह्य ज्ञान व चारित्रादि) और बाह्यकर्म । देवपूजा आदि में शारीरिक कष्ट सहन आदि । तो रत्नत्रय की उन्नति में केवल निमित्त मात्र हैं, किन्तु रत्नत्रय की समृद्धि का प्रधान कारण ( उपादान कारण ) तो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रमय आत्मा हो है ।। २४६ ।।
निश्चयनय के वेत्ता आचार्यों के मत में, अर्थात् निश्चय नय की दृष्टि से विशुद्ध आत्मस्वरूप में रुचि होना निश्चय सम्यक्त्व है । एवं विशुद्ध आत्मस्वरूप को विकल्प रूप से यथार्थ जानना निश्चय सम्यग्ज्ञान है और उन सभ्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञान के विषय में मेद बुद्धि न करके एक रूप होना, अर्थात् — आत्मस्वरूप में लवलीन होना ३. अनायतनानि पद्, कुदेवतदा६. वाह्मज्ञानचारित्रादि । ७. १०. तयोर्दुग्बोधयविषये
१. धान्यसम्पतिः । २. मूत्रयस्य मदानां च विकल्पं कविः स्वयमेवोत्तरत्र वदयति । लयतदागमत्यर्थः । ४. व्रतोऽपि योग्यचारित्रः । ५ मुक्तिस्थो न स्मात् । शरीरणलक्षणं । ८. आत्मस्वरूपे चिश्चि सम्यक्त्वं । ९. आत्मपरिज्ञानं । अप्रसङ्गः मभेदः एकलोलीभावः निश्चयचारित्रं । ११ मिश्चयनयज्ञानिनाम् ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये 'अक्षामान पचिोहाइहावृत्तं च नास्ति यत् । आत्मन्यस्मिन्निीभूते तस्माचारमैव तत्त्रयम् ।।२४८।। मात्मा कर्म न कर्मात्मा "तयोर्यन्महवन्तरम् । तबारमंद तवा सत्ता बारमा व्योमेष केवालम् ।।२४९|| कलेआय कारणं कर्म विशुद्ध स्वयमात्मनि । मोष्णम स्वतः किन्तु सर्वाग्य चह्निसंश्रयम् ॥१५॥ मात्मा फर्ता स्थपर्याय र कर्म कर्तृ स्वपय । मियो । म जानु कमपरायचा ॥२५१।। स्वतः सर्व स्वमादेषु सक्रिय सचराचरम् । निमितमात्रमत्यत्र वागतेरिव सारिणी ॥२५२।।
जोवस्तु वा नियन्तां वा प्राणिनोऽमो स्वकर्मतः । स्वं विशुद्ध "मनोऽहिंसन्हिसकः पापभाग भवेत् ॥२५३॥ निश्चय चारित्र है ।।२४। इस आत्मा के मुक्त हो जाने पर न तो उसे इन्द्रियों या मन में ज्ञान होता है,न मोह से जन्य रुचि होती है और न शारीरिक आचरण होता है, अतः ज्ञान, दर्शन व चारित्र तीनों आत्मस्वरूप हो है।
भावार्थ-उक्त निरूपण निश्चय नय की दृष्टि से किया गया है, साथ में अमृतचन्द्राचार्य ने अपने पुरुषार्थसिद्धयुपाय ग्रन्थ में कहा है कि व्यवहार और निश्चय के ज्ञाता ही जगत में धर्मतीर्ध का प्रवर्तन करते हैं । अतः दोनों दृष्टि से वस्तुविवेचन श्रेयस्कर है ।। २४८ ।।।
अब आत्मा और कर्म के संबंध को स्पष्ट करते हैं
आत्मा कर्म नहीं है, अर्यात-ज्ञानावरणादि रूप नहीं है और कर्म आत्मा नहीं है, अर्थात्-शुद्ध चैतन्यरूप नहीं है, आत्मा और कर्म में महान भेद हैं, क्योंकि उनका स्वरूप भिन्न-भिन्न है। अतः मुक्कावस्था में कर्म-रहित होने से केवल आत्मा की हो सत्ता है और वहाँ वह केवल शुद्ध आकाश की तरह अमूर्तिफरूप से स्थित है ।। २४२ ।। आत्मा स्वर्य विशुद्ध है और कर्म उसके क्लेश का कारण है। जैसे जल स्वयं उष्ण नहीं है, अर्थात् सोतल है किन्तु अग्नि के आश्रय से उसमें उष्णता आ जाती है ।। २५० ।। आत्मा अपनी पर्याय ( सिद्धपर्याय या ज्ञानादि गुणों को पर्याय ) का कर्ता है और कर्म अपनी पर्याय ( टि० नर-नरकादि पर्याय ) का कर्ता है। उपचार (काबहार ) के सिवाय दोनों परस्पर में एक दुसरे के कर्ता नहीं है, अर्थात्-उपचार से आत्मा को कर्म का कर्ता, और कर्म को आत्मा का कर्ता कहा जाता है, परन्तु वास्तव में दोनों अपनी-अपनी पर्यायों के ही कर्ता है ।। २५१ ।। छह द्रब्यों वाला समस्त चराचर लोक स्वयं अपने-अपने स्वभावों में क्रिया-सहित है, अर्थात्-अपने-अपने स्वभावों का कर्ता है, दूसरी वस्तु तो उसमें निमित्तमात्र है। उदाहरण में आत्मा अपनी सिद्धपर्याय का कता है और कर्म अपनी कम पर्याय का कर्ता है, दूसरी वस्तु निमित्त मात्र है । जैसे जल में स्वयं प्रवाहित होने को दाक्ति है परन्तु नदी उसके प्रवाहित होने में निमित्तमात्र है ।। २५२ ।।
यहां शङ्का यह हे जब जीव अपने अपने कर्मों के उदय से जीते व मरते हैं तो मारने में निमित्त हुए को हिंसा का पाप क्यों लगता है ? अत: इसका समाधान करते हैं--- १. आत्मनि मोटो मा सति आन परिन्द्रियात् ज्ञानं न भवति । २. मृतजीवे मोहनीयवर्गणः रुचिर्न किन्नु आत्मविश्व । ३. शरीराच्चारमन किन्न, आत्मवेकलोलीभावश्चारि। ४. दर्शनज्ञानमारिश्रयं । ५. आत्मकर्मणोः ।
भरः। ७.जागतत्वे । *. 'वाल्माज्योमेव केवलं' (स.)। अद्य इदानों केवलमात्मानमेव अङ्गीकृतः? एव निश्चयन । ८. तस्य जलस्योष्णलं अम्नेर्भवति । ९. सिद्धपर्यायलक्षणे । १०. नरनरकादी पर्याय कर्त । ११-१२. पराग्पात्मकर्मणोः कर्तृत्वं न, उपचाराद् व्यवहारादन्यत्र परस्परं कर्तुत्वं भवति न तु निश्चयात् । १३. निजस्वनावपु क्रियासहित. आत्मा आत्मानं सिद्धं करोति, कर्म कर्म करोति । १४. जगत् । १५, नीफजलगमनस्य ।। १६. 'मरदु व जियदु व जीवो मयदाचारस णिचिदा हिंसा । पयवस्स रिय वन्धी हिशामिनेण समिदस्म ॥' १७. अशुद्ध मनः कुर्वन पुमान् हिसको भवति पापी छ । 'स्वयमेवात्मना उत्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् पूर्व, प्राण्यन्तराणान्तु पश्चात् स्यारा न वा वधः । सर्वार्थ सिद्धि म०७ सूत्र १५ से संशलित
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पंछ आश्वासः
२८९ शुखमार्गमतोद्योगः शुद्धचेतोवचोवतः । शुखान्तरात्मसंपन्नो हिसकोऽपि न हिंसकः ॥ २५४ ।। पुष्पायापि भवेतुःख पापायापि भवेत्सुखम् । स्वस्मिन्न-पत्र या नीतचित्य चित्तचेष्टितम् ॥ २५५ ॥ 'सुखदुःसाविधातापि भवेत्पापसमाषयः । पढीमध्यविनिक्षिप्तं वासः स्यान्मदिनं न किम् ॥ २५६ ॥
ये प्राणी अपने-अपने कर्म के उदय से जीव या मरें, किन्तु जो मानव अपना मन विशुद्ध (कषाय-रहित ) करता है वह अहिंसक है और जो अपने मन को अशुद्ध ( कषाय-पुक्त ) करता है, वह हिंसक
और पापी है। जो शुद्ध मार्ग ( सदाचार-मार्ग ) में प्रयत्नशील है, जिसका मन, वचन व काय शुस है एवं जिसको अन्तरात्मा शुद्ध ( कापायभाव से कलुषित नहीं ) है, वह हिंसा करके भी हिंसक नहीं है ।
भावार्थ-अमृतचन्द्राचार्य अपने 'पुरुषार्थसिद्धयुपाय' ग्रन्थ में लिखते हैं कि 'राग, द्वेष व मोहादि, दुर्वासनाओं को त्याग कर अपने भावों को विशुद्ध रखते हुए दूसरे प्राणियों की रक्षा करना या यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति करना अहिंसा है और इसके विपरीत आल्मिक सुख-शान्ति को भङ्ग करनेवाले रागादि दुर्भावों से अपने या दूसरों के प्राणों को घात करना या दिल दुग्जना हिंसा है । जो कषाय-वश यत्नाचार पूर्वक प्रवृत्ति नहीं करता, उसके द्वारा चाहे जीव मरें अथवा न भी मरें तो भी वह हिंसा के पाप से बच नहीं सकता। ॥ २५३-२५४ ।।
स्वयं को या दूसरों को दुःख देने से पुण्य कर्म का भी बंध होता है और मुख देने से पाप कर्म का भी बंध होता है, क्योंकि मन की चेष्टाएँ चिन्तवन के लिए अशक्य हैं। अभिप्राय यह है कि यदि तपश्चर्या व कार-सहन शुभ परिणामों से यथाविधि किये जाते हैं तो उससे पुण्य कर्म का बन्ध होता है, परन्तु यदि अशुभपरिणामों से किये जाते हैं तो उनसे पाप-बन्ध ही होगा। इसी तरह शुभ परिणाम से दूसरों को दुःख देने से पुण्य बन्ध होता है और अशुभ परिणामों से दुःख देने से पापबन्ध होता है, क्योंकि मन की चेष्टाएँ अचिन्त्य होती हैं ॥ २५५ ॥
भावार्थ-जेनदर्शनकार समन्तभद्राचार्य ने आप्तमीमांसा में इस विषय को विशद व्याख्या की है, उसे हम संकलित करते हैं. कुछ लोगों को मान्यता है कि दूसरे प्राणी को दुःख देने से पाप-बन्ध ही होता है और सुख देने से पुण्य-बन्ध होता है। परन्तु उक्त मान्यता सही नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से तो विष व शस्त्रादि दूसरों को दुःख देने में निमित्त हैं उन्हें पापबन्ध होना चाहिए एवं कषाय-रहित वीतराग दूसरे को सुख देने में निमित्त है उसे पुण्य बन्ध का प्रसङ्ग हो जायमा तो मुक्ति संघटित नहीं होगी। लोक में आपरेशान करने वाला डाक्टर भी बीमार को कष्ट देने में निमित है, तो उसे भी पापबन्ध का प्रसङ्ग हो जायगा ।। १॥
कुछ लोगों को मान्यता है कि अपने को दुःख देने से पुण्यबन्ध होता है और सुख देने से पापबन्ध होता है। ऐसा मानना भी ठीक नहीं क्योंकि ऐसा मानने से तो वीतराग विद्वान् मुनि को भी पुण्य-पापकर्मों को १. धर्म परिणतः सावद्यलेशी बहु अघ्नन्नपि यचनात् । २. तपः कण्टादिकं तदपि विरुद्धमाचरितं कदाचित् पापाय भवति
तेन एकान्तं नास्ति । ३. पापाय तदपि एकान्तं न । ४. परन्तु मनःप्रसारसहिंतः । तथा च समन्समद्राचार्य:-- पापं घवं परे दुःखात् पुण्यं च सुखतो यदि । अचेतनाकषायो च वष्येयातां निमित्ततः ॥ १॥ पुष्यं ध्रुवं स्वतो दुःखास् पापं च सुखतो यदि । वीतरागो मुनिविद्वांस्ताभ्यां पुळ्यानिमित्ततः ॥ २ ॥ विशुद्धिसंकलेशाङ्ग चेत् स्वपरस्य सुखासुन्वं । पुण्यपापानघौ युक्तो ग चेयर्थस्तवाहतः ॥ ३ ॥
आप्तमीमांसा से संकरित-सम्पादक
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२००
यशस्तिलचम्पूकाव्ये बहिष्कार्यासमयेऽपि हषि हाप संस्थिते । परं पापं पर पुण्यं परमं च प भवेत् ॥ २५७ ।। प्रफुर्वाणः क्रियास्तास्ताः केवलं पलेशभाजनः । यो न चित्तप्रचारशस्तस्य मोक्षपर कुतः ।। २५८॥ यज्मामाति यथावस्पं बस्तु सर्वस्वमनसा । तृतीय लोचनं नृणां सम्परजानं तबुध्यसे ।। २५९ ॥ यष्टिवन्जनुपान्धस्य सत्स्यात्सुकृतचेतसः । प्रवृत्तिविनिवृत्यङ्ग हिताहितविचनात् ।। २६० ।। मतिर्जागति 'वृष्टेऽर्थे उष्टेण्टे सवागमः । अतो न दुर्लभं तत्त्वं यदि निमसर मनः ।। २६१ ॥ यवर्षे शितेऽपि स्याजस्तो संतमसा मतिः । शानमालोकवत्तस्य षमा रविरिपोरिव ।। २६२ ॥
बन्ध करने का प्रसङ्ग हो जायगा। क्योंकि वह तपश्चर्या द्वारा अपने को दुःस्त्री व ज्ञानाभ्यास द्वारा अपने को सुखी बनाता है तब मुक्ति किसे होगी? ॥सा इसलिए जनदर्शन बताता है कि पुण्य-पापबन्ध की व्यवस्था हमारे विशुद्ध व संक्लिष्ट परिणामों पर अवलम्बित है, इससे अपने लिए या दूसों के लिए दिये हुए सुख व दुःख यदि क्रमशः शुभपरिणाम व अशुभ परिणाम पूर्वक है तब पुण्यबन्ध और पापबन्ध होता है, अर्थात् यदि हम दूसरे प्राणी को कषाय-वश दुःख देते हैं तो हमें पापबन्ध ही होगा और यदि हम शुभ परिणामों से दूसरों को सुख देते हैं तो हमें पुण्यबन्ध ही होगा, यदि ऐसा नहीं है तो आपके मत में पुण्यात्रब या पापानव निष्फल हैं ।। ३।।
चंचल मन वाला प्राणी दुसरों को सुख-दुःख न देता हआ भी पापबंध करने वाला हो जाता है। क्या कपड़े की मञ्जूषा में रखा हुआ वस्त्र मलिन नहीं होता? अर्थात-वैसे ही भोगों की ओर दौड़ता हुआ मन भी क्या अशुभ ध्यान के कारण मलिन होकर पापबंध करने वाला नहीं होता? ॥ २५६ ।। शरीरादि से हिसा व परोपकार-आदि अशुद्ध व शुद्ध कार्य करने में असमर्थ होने पर भी, यदि चित्त चित्त में लीन रहता है तो वह ( चित्त ) अशुभ ध्यान द्वारा तीव्रतम पापबंध करता है और शुभ ध्यान द्वारा उत्कृष्ट पुण्य बंध करता है तथा शुक्लध्यान द्वारा उत्कृष्ट मोक्ष पद प्राप्त करता है ।। २५७ ।। जो मानव चित्त की चंचलता को नहीं जानता, अर्थात्-जो भोगों को ओर दौड़ते हुए मन को नियन्त्रित करके धर्मध्यान में और जीवादि तत्त्वों के स्वरूप के चिन्तवन में प्रेरित नहीं करता, वह मानव वाह्य क्रिया काण्ड ( अनशन-आदि तप ) को करता हुआ भी केवल कष्ट का पात्र होता है, उसे मोक्षपद कैसे प्राप्त हो सकता है ? अस: चित्त को नियन्त्रित करने में प्रयत्नशील होना चाहिए, तभी वाह्य क्रियाएँ फलप्रद हो सकती हैं, अन्यथा निरर्थक हैं ।। २५८ ।।
[अब सम्यग्ज्ञान का स्वरूप बताते है-]
जो वस्तु का समस्त स्वरूप ( गुण व पर्याय ) जैस का तैसा (होनाधिकता से रहित तथा संशयआदि मिथ्याज्ञान से रहित ) निश्चय करता है, उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। यह मनुष्यों का तीसरा नेत्र है ॥२५।। वह सम्यग्ज्ञान पुण्य करने में मनोवृत्ति रखने वाले धार्मिक मानव को हित ( सुख व सुख के कारण) व अहित ( दुःख व दुःख के कारण) का विवेचन करके वैसा उसको हित-प्राप्ति व अहित-परिहार में कारण होता है, जैसे जन्मान्य पुरुष को लाठी ऊँची-नीची जगह बतलाकर. उसको हित-प्राप्ति और अहित-परिहार (ऊबड़-खाबड़ जगह से बचाने ) में कारण होती है ॥२६०।। मतिज्ञान चक्षुरादि इन्द्रियों के विषयीभूत पदार्थों को ही जानता है, किन्तु श्रुतज्ञान (आगम) इन्द्रियों के विषयभूत और अतीन्द्रिय ( सूक्ष्म, अन्तरित व दूरवर्ती ) दोनों प्रकार के पदार्थों का ज्ञान कराता है, इसलिए यदि ज्ञाता का मन ईलु नहीं है तो उसे तत्वज्ञान होना दुर्लभ नहीं है ।।२६१|| यदि तत्वोपदेशक द्वारा जीवादि पदार्थों का स्वरूप प्रतिपादन कर देने पर भी शिज्य १. पित। २. से ४. अभध्यानन पापं स्यात, शुभेन पुण्यं, परमशुक्लेन पर पदं । ५, सर्वाग्र-सर्ववस्तु
स्वरूपमित्यर्थः । ६. गुरुपदिष्टे पवार्थे । ७. मात्सर्य-रहितं । ८. मलिना। ९. उलूकस्यैव ।
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षष्ठ आश्वासः
मातुरेव स बोषोऽयं यक्वाऽपि वस्तुनि । मतिविपर्यय पत्ते' ययेन्योर मन्चचक्षषः ।। २६३ ॥ 'शानमेकं पुनघा पत्रधा चामि तद्भवेत् । अन्यत्र केवलज्ञानात्ताप्रत्येकमनेकपा ।। २६४ ।।
अधर्म मंनिर्मुकिधर्मकर्मविनिर्मितिः 1 पारित्रं तरच सागारानमारयतिसंश्यम् ॥ २६५ ।। की बुद्धि मलिन या अज्ञान-बहल रहती है, तो उसका ज्ञान वैसा व्यर्थ है जैसे उल्लू के लिए सूर्य का प्रकाश व्यर्थ होता है ।।२६शा जैसे हो दष्टि (काच कामयादित से अस्त नेयमा । मनुष्य की बुद्धि चन्द्र के विषय में विपरीत होती है, अर्थात-उसे एक के दो चन्द्र दिखाई देते हैं या शुभ्र चन्द्र नोला दिखाई देता है, उसमें उसकी चक्षु का दोष समझा जाता है, न कि चन्द्र का, वैसे ही प्रत्यक्ष-आदि प्रमाणों से वाधा-रहित वस्तु ( कचिन्नित्यानित्यात्मक जीवादि वस्तु ) में भी बुद्धि के विपरीत हो जाने में ( वस्तु को सर्वथा निस्य या सर्वथा अनित्य समझने में ) ज्ञाता का ही दोष । मिथ्यात्व कर्म का उदय ) है, न कि वस्तु का 1२६३।।
[अब सम्पज्ञान के भेदों का निरूपण करते हैं-]
जिसके द्वारा वाह्य व आध्यात्मिक पदार्थों में संशय, विपर्यय व अन्नध्यवसाय-रहित यथार्थता का निश्चय किया जाय उसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं, वह सामान्य से एक भेद वाला है। प्रत्यक्ष व परोक्ष के भेद से वह दो प्रकार का है। मतिज्ञान, श्रुसज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यय और केवल ज्ञान के भेद से वह पांच प्रकार का है। केवल ज्ञान के सिवाय अन्य चार ज्ञानों में से प्रत्येक के अनेक भेद हैं। जैसे–मतिज्ञान के तीन सौ छत्तीस भेद हैं। श्रुतज्ञान अङ्ग व अङ्ग वाह्य के मेद से दो प्रकार का है। अवधिज्ञान-देशावधि, परमावधि व सर्वावधि के भेद से तीन प्रकार का है और देवावधि व परमावधि भी प्रत्येक जघन्य, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार का है। और देशावधि, परमावधि व सर्वावधि इन तीनों में से प्रत्येक के अनुगामी, मननुगामा, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित, प्रतिपाति एवं अप्रतिपाति के भेद से आठ प्रकार का है । मनःपर्यय शान भी ऋजु व बिपुलमति के भेद से दो प्रकार का है और ये दोनों जघन्य, मध्यम व उत्तम के भेद से तीन प्रकार के हैं ।।२६४॥
[ अब सम्यग्चारित्र का स्वरूप व भेद कहते हैं--]
: सम्यग्ज्ञानी के हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील ब परिग्रह रूप पापक्रियाओं के त्याग को और धार्मिक क्रियाओं (अहिंसा, सत्य', अचौर्य, ब्रह्मचर्य व परिग्रह-त्याग ) के करने को सम्यग्चारित्र कहते हैं, वह चारित्र गृहस्थों से धारण करने योग्य अणुव्रत और मुनियों से धारण करने योग्य महायत १. पन्ने । २. हीनघः चन्द्रं नीलं कृष्णादिकं पश्यति, द्वौ पोन्वा चन्द्रान् पश्यति ।
३. ज्ञानकमित्यादि-ज्ञायते निश्चीयते अश्यत्पत्तिसंशयविपर्यासव्यदासिन बाह्याध्यामिक्रपदाप याथात्म्य मेन तज्ज्ञानं. एकज्ञानार्थस्य समानुगमात् । द्वेधा-प्रत्यक्षपरोक्षभेदेन । पंचधा-मतिश्रुतावधिमनःपर्ययकेवलभेन । प्रत्येक मति स्तावइनेकधा-पत्रिंशत्रिशतीभेदेन । तपादि-पडिन्द्रियाणि अर्थव्यञ्जनपर्यावलक्षणपर्यायविपयरवग्रहावायधारणाभिणितानि चतुर्विशति भवन्ति । चक्षुरनिन्द्रियजितानामपरेषां चतुर्णामिन्द्रियाणां व्यञ्जनलवायपर्यायविषयाश्चत्वारोपग्रह एवमैनेपामष्टाविंशति बह्वादिभिर्द्वादशभिर्गुणिता पट्त्रिंशत्रिशती च भवति । श्रुत्तमनेकषा-अनाङ्गवाह्मभेदेन । तत्राङ्गामि आचारादीनि अङ्गवाहानि सामायिकादीनि पुनरपि पर्याय-पर्यायसमासाक्षाराक्षरसमामभेदेन विंशतिभेदं । अधिरनेकधा-देवावधि परमावधि--सर्वावधिभेदन । देशावधिपरमावी अपि प्रत्येा जपन्नमध्यमोत्तमभेदेनत्रिविषौ। देशावधित्रयं प्रत्येक यथासंभवमनुगाम्यननुगामिवर्धमानहीयमानावस्थितानवस्थितप्रतिपाति-अप्रतिपातिभेदेनाष्टवित्रं । मनःपर्ययोऽनेकधा ऋजुविपुलमतिभदेल पुन: प्रत्येकमतो जघन्यादिभेदेन विविधौ । ४. त्यामः । ५. करणं ।
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२९२
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
"वेशतः प्रथमं तत्स्यात्सर्वतस्तु द्वितीयकम् । चारित्रं धारवारित्र विचारोचितचेतसाम् ।। २६६ ।। बेतः सर्वतो वापि नरो न लभते व्रतम् । स्वपिषगंयो यस्य नास्त्यन्यतरयोग्यता ॥ २६७ ।। "तुण्डकण्डहरं शास्त्रं सम्यक्त्व विधुरे" नरे । ज्ञानहीने तु धारित्रं दुभंगाभरणोपमम् ॥ २६८ ।। सम्पवात्सुगतिः प्रोक्ता ज्ञानात्कीतिवाहुता । वृत्तात्पूजामवाप्नोति त्रयान्च लभते शिवम् ।। २६९ ॥ तिवेषु सम्यक्त्वं ज्ञानं तत्त्वनिरूपणम् । औदासीन्यं परं प्राहुषुतं सर्वक्रियोज्झितम् ॥ २७० ॥ वृतममिदपायो : सम्यक्वं च रसौषधिः साधुसिद्धो भवेवेष 'तल्लाभावारमपारदः ।। २७१ ॥ सम्यक्त्वस्थाय दिवत्तमम्यासो मतिसंपदः " | चारित्रस्य शरीरं " स्वाद्वित्तं वानादिकर्मणः ।। २७२ ।।
के भेद से दो प्रकार का है ।। २६५ ॥ विशुद्ध चारित्र के विचार से योग्य चित्तवृत्ति वाले आचार्यों ने गृहस्थों का देशचारित्र कहा है, क्योंकि उसमें हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पाँच पापों का एक देश त्याग किया जाता है और मुनियों का सकलचारित्र कहा है, क्योंकि उसमें हिंसा आदि पांच पापों का सर्वदेश त्याग किया जाता है ।। २६६ || जिस मनुष्य में स्वागं व मोक्ष में से किसी को भी प्राप्त करने को योग्यता (शक्ति) नहीं है, वह न तो देश चारित्र ही पाल सकता है और न सकल चारित्र हो पाल सकता है ।। २६७ ।। सम्यक्त्व-हीन मानव का शास्त्रज्ञान केवल उसके मुख की खुजली दूर करता है— अर्थात्-वादविवाद करने में हो समर्थ होता है; क्योंकि उसमें आत्मदृष्टि नहीं होती । एवं ज्ञान शून्य का चारित्र-धारण विधवा स्त्री के आभूषण धारण करने के समान निरर्थक है।
भावार्थ - विना सम्यक्त्व के शास्त्राभ्यास- ज्ञानार्जन निरर्थक है ओर विनाज्ञान के चारित्र का पालन करना व्यर्थ है ।। २६८ ॥ सम्यग्दर्शन से मनुष्य को प्रशस्त गति-स्वर्ग -श्री प्राप्त होती है और सम्यग्ज्ञान से उसकी कीर्ति कौमुदी का प्रसार होता है और सम्यक् चारित्र से सम्मान प्राप्त होता है और तीनों से मुक्ति श्री प्राप्त होती है ।। २६९ ।। माचार्यों ने कहा है तत्त्वों में रुचि का होना सम्यग्दर्शन है । तत्त्वों का कथन कर सकता सम्यग्ज्ञान है एवं समस्त पाप क्रियाओं की त्यागवाली उदासीनता होना सम्यक् चारित्र है || २७० ॥ जो आत्मारूपी पारद (पारा) अनादिकाल से मिथ्यात्व अज्ञान व असंममरूपी कुधातुओं के संसगं से अशुद्ध हो रहा है, उसे विशुद्ध करने के लिए, सम्यग्दर्शन- ज्ञान चारित्र अनूठा साधन है । अर्थात् उसे विशुद्ध करने के लिए सम्यक् चारित्र अग्नि है और सम्यग्ज्ञान उपाय है तथा सम्यग्दर्शन ( चित्त को विशुद्धि ) रसौषधि ( नीबू के रस में घुटा हुआ सिघ्र ) है । अर्थात् उक्त रत्नत्रय की प्राप्ति से यह आत्मारूपो पारा विशुद्ध होकर सांसारिक समस्त व्याधियों को ध्वंस करके व सूक्ति श्री प्राप्त करता है ।
भावार्थ - अतः मुमुक्षु विवेकी मानव को रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए सतत् प्रयत्नशील होना चाहिए ।। २७१ ।। सम्यग्दर्शन का आश्रय चित्त है । अर्थात् इसकी प्राप्ति के लिए मानव को अपने चित्त की विशुद्धि करनी चाहिए। और ज्ञानलक्ष्मी का आश्रय शास्त्राभ्यास है । अर्थात् - ज्ञानलक्ष्मी की प्राप्ति के लिए मनुष्य को शास्त्रों का अभ्यास करना चाहिए। चारित्र का आश्रय शरीर है, अर्थात् — इसकी प्राप्ति के लिए शारीरिक कष्ट
१. विरतिः । २. विरतिः । ३. स्वर्गमोक्षयोमध्ये अस्य जीवस्य एकस्यापि योग्यता न भवति तस्याणुव्रत महाव्रतं च न भवति । ४५ रहिते । ६. श्रमण-कण 1 ७. वीसहितम् । ८. दर्शनज्ञान नारित्रप्राप्तेः । ९. आत्मा एव भारद्रः १०. ज्ञानलक्षायाः अभ्यास एव आश्रयः स्थानं । ११. आश्रयः । १२. आश्रमः ।
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षष्ठ आश्वासः
२९३
इस्युपासकाध्ययने रत्नत्रयस्वरूपनिरूपणो नामकविंशतितमः कल्पः ।
इति सकलताकिकलोकचूडामणे श्रीमनेमिदेवभगवतः शिष्येण सधोग्नवद्यगणपषिद्यापरचायत्रातिशिखण्डमडमोभववरणकमलेन श्रीसोमदेवमूरिणा विरचिते यशोषरमहाराजबारिसे यशस्सिलफापरनाम्न्यपवर्गमार्गमहोदयो नाम षष्ठ आश्वास:
सहन करते हुए पाप क्रियाओं का त्याग करना चाहिए और दान-पूजा-आदि धार्मिक कर्तव्यों का आश्रय धन है। अर्थात्--न्याय से संचित किये हुए घन को पात्रदान-आदि धार्मिक कार्यों में लगाना चाहिए ॥ २७ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में रत्नत्रय का स्वरूप बतलानेवाला इक्कीसवां कलप समाप्त हुआ ।
इस प्रकार समस्त तार्किक-समूह में चूड़ामणि (मर्वश्रेष्ठ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य श्रीमन्मोमदेव सूरि द्वारा, जिसके चरणकमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्य विद्याधरों के चक्रवतियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोधरमहाराजचरित' में, जिसका दूसरा नाम 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाब्य है, मोक्षमार्ग का उदयशाली यह षष्ठ आश्वास समाप्त हुआ। इसप्रकार दार्शनिक-चूड़ामणि श्रीमदम्बादास शास्त्री व श्रीमत्पूज्य आध्यात्मिक सन्त
श्री १०५ क्षुल्लक गणेश प्रसाद जो वर्णी न्यायाचार्य के प्रधान शिष्य, नीतिबाक्यामृत के अनुसन्धान पूर्वक भाषा-टीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, जैनन्यायतीर्थ, प्राचीनन्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, आयुर्वेद-विशारद, एवं महोपदेशक-आदि अनेक उपाधि-विभूषित, सागर निवासी परवार जैन जातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' की 'यशस्तिलक-दीपिका' नाम की भाषाटीफा में मोक्षमार्ग का उदयशाली यह षष्ठ
आश्वास पूर्ण हुआ।
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सप्तम आश्वासः
पुनर्गुणमणिकटक, कटकमेव माणिक्ष्यस्य सुधाविधानमिव प्रासादस्य पुरुषकारानुष्ठानमिव देवसंपदः पराश्रमावलम्बन मित्र नीतिमानस्य विशेष विश्वमिय' पावस्य" व्रतं हि शलु सम्यक्त्वरत्नस्थोपवु हरुमाः । सभव" वेशयतीनां द्विविषं मूलोत्तरगुणाश्रयणात् ।
तत्र
ममत्यागः सहोदुम्बरपचकः । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते ॥ १ ॥ सर्वदोषोदयो मद्यान्महामोहकृते मंतेः । सर्वधरं पातकानां पुरःसरतमा स्थितम् ।। २ ।। हिताहितविमोहन देहिनः " कि न पातकम् कुर्युः संसारकान्तारपरिभ्रमणकारणम् || ३ || मन यादवा नष्टा नष्टा बूतेन पाण्डवाः । इति सर्वत्र लोकेऽस्मिन् सुप्रसिद्धं कथानकम् ॥ ४ ॥ समुत्पद्यपि देहिनोऽनेकशः ११ किल । मद्यीभवन्ति कालेन मनोमोहाय वेहिनाम् ॥ ५ ॥ मकबिन्दुसंपन्नाः प्राणिनः प्रचरन्ति चेत् । पूरयेयुनं संदेहं समस्तमपि विष्टम् ॥ ६ ॥ मनोमोहस्य हेतुत्वासिदानश्वाच्च दुर्गतेः । म
६
यहा छ दोषकृत् ।। ७ ।।
ज्ञानादि गुणरूपी मणियों के कङ्कणीभूत हे मारिदत्त महाराज ! आचार्यों ने कहा है कि निश्चय से व्रत (अहिंसा आदि ) सम्यक्त्वरूपी रत्न के वैसे गुणवर्धक हैं जैसे शोधनादि किया ( शापोल्लेखन आदि ) माणिक्य की गुणवर्धक होती है । जैसे चूने का लेप महल की शोभावर्धक होता है। जैसे पुरुषार्थ का अनुष्ठान भाग्य सम्पत्ति ( पूर्वोपार्जित पुण्य लक्ष्मी ) का गुणवर्धक होता है। जैसे पराक्रम का आश्रय नीतिमार्गसदाचार की समृद्धि करने वाला होता है और जैसे विद्वत्ता सेवनीय ( गुरु व राजा आदि ) की उन्नति करने वाली होती है ।
श्रावकों के व्रत मूलगुण व उत्तरगुण के भेद से दो प्रकार के होते हैं ।
अरु मूलगुण
मद्य, मांस और मधु का त्याग और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग ये गृहस्थों के आठ मूलगुण आगम में कहे गये हैं ॥ १ ॥
मद्य -- शराब के दोष - बुद्धि को अज्ञान से आच्छादित करने वाले मद्यपान से समस्त दोष ( काम व कोपादि ) उत्पन्न होते हैं और यह समस्त पापों में अग्रेसर है ॥ २ ॥ मद्य पीने से हित और अहित का विवेक नष्ट हो जाता है, जिससे शराबी लोग संसाररूपी वन में घुमाने वाले कोन कोन से पाप नहीं करते ? अर्थात्- (- मद्य पीने से समस्त पाप उत्पन्न होते हैं ॥ ३ ॥ सर्वत्र लोक में यह कथा प्रसिद्ध है, कि शराब पोने से यदुवंशी राजा लोग नष्ट हो गए और जुआ खेलने के कारण पाण्डव नष्ट हो गए || ४ || निश्चय से शराब में असंख्यात जीव अनेक बार जन्म-मरण करके स्वल्प समय में शराबियों का मन मृच्छित करने के लिए शराब रूप हो जाते हैं ।। ५ ।। मद्य की एक बिन्दु में उत्पन्न हुए बहुत से जोव यदि वहाँ से निकलकर भ्रमण करें तो निस्सन्देह समस्त लोक को व्याप्त कर सकते हैं ॥ ६ ॥ मद्यपान शरात्री का मन मूर्च्छित करने १. यथा । २. कङ्कण है मारिदत्त ! ३. शोभन रचना किया' टि० (ख० ) । 'शोधनादिक्रिया' टि० (घ० ) ( च० ) पञ्जि कायां च' । ४. पौरुपशक्तिः, कर्तव्यं । ५. पूर्वोपजत गुण्यस्य । ६. विद्वत्त्वं । ७. गुरोः नृपादिकस्य । ८. * 'सहोदुम्बरपञ्चकः' इति क०, ख०, घ० च० । ९. जीवाः । १०. मृत्वा । ११. बहुवारान् । १२. स्वरूपेन । १३. कारणत्वात् ।
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समम आश्वांसः २९५ भूयतामत्र मद्यप्रवृत्तिदोषस्योपाख्यानम् - सर्वोश्वराखर्व गर्योमला 'तीभूताहितान्वयनकायेक चक्रापुरावेशपात्रा परिवाजको नाह्नवीजलेषु मणनाय व्रजन्निजच्छायापनिपाताङ्कातिक्रुद्ध मदान्ध गन्धसिन्धु 'रोद्ध र विधान". विवोर्यमाणमे विनोदमे विन्ध्याठयविषये प्रप्रोपोवनासवास्थाचपुनश्वक्तकादम्बरीपानप्रसूता सरास विलासप्र हिलाभिमहिलाभिः सह पलोप वंशवश्यं १ कइयमासेवमामस्य महतो मातङ्गसमूहस्य मध्ये निपतितः सन् सोघुसंबन्ध विधीस मत परुष्य असो किवमुक्तः स्वया मद्यमांसमहिलासु मध्येऽन्यतमसमागमः कर्तव्यः अन्यथा जीवन पश्यसि मन्दाकिनीम्' इति । सोऽप्येवमुक्तस्तिसर्थ पमितस्वापि हि पिशितस्य प्राशने स्मृतिषु महावृत्तयो विपतयः श्रूयते । मातङ्गीस च मृतिनिकेतनं १४ प्रायश्चेतनम्। य एवंविषां सुरां पिवति न तेन सुरा पोता भवतीति निखिल शिखामणो सोत्रामणी मंदिरास्वावाभिसंधि रतुमतविधिरस्ति । येश्च पिष्टवकगुडघातकीप्रायस्तुकार्थः सुरा संघीयते सान्यपि वस्तुनि विशुद्धान्येवेति चिरं चेतसि विचार्यानार्थविद्यानिधानः * कृतमद्यपानस्तन्माहात्म्यात्समाविर्भूत
19
में कारण है और दुर्गति का कारण है, इसलिए इस लोक व परलोक में दुःख देनेवाले मद्यपान का सज्जन पुरुषों को सदा के लिए त्याग कर देना चाहिए ॥ ७ ॥
९. अब मद्य पीनेवाले एक संन्यासी की कथा कहते हैं
मद्यपान के दोषों के विषय में एक कथा है, उसे श्रवण कीजिए
'एकपाद' नाम का संन्यासी, जहां के राजा की महान् गर्वरूपी बड़वानल अग्नि में शत्रुओं के वंशरूप मकर हो गए थे, ऐसे पोदनपुर नाम के नगर से गङ्गानदी में स्नान करने के लिए जा रहा था । मार्ग में वह विन्ध्यादat - देश मे गुजरा, जहाँपर अपनी छाया में दूसरे हाथी की सड़ा होने से अत्यन्त क्रुद्ध हुए मदोन्मत्त मतवाले हाथी के मजबूत दाँतों से पृथिवी का मध्यभाग विदीर्ण किया जा रहा था, वहाँ यह शराब पीने वाले और ऐसे चाण्डालों के समूह के मध्य में जा पहुँचा, जो कि उत्पन्न हुए प्रौढ़ यौवन ( जवानी ) रूपी मद्य के आस्वादन से दुगुने हुए मद्यपान से पैदा होनेवाले उत्कट विलास को करनेवाली उन्मत्त विलासिनी तरुणियों के साथ मांग शाकसहित शराब पी रहा था, सुरा पीने से विकृत बुद्धि वाले चाण्डालों ने उसे पकड़ कर कहा'तुझं मद्य, मांस और स्त्री में से किसी एक का सेवन करना होगा, नहीं तो तू जीते जी गङ्गा का दर्शन नहीं कर सकता ।'
चाण्डालों से उक्त प्रकार कहा हुआ तापसी मन में सोचने लगा- 'स्मृतियों में एक तिल या सरसों बराबर भी मांस खाने पर भयानक विपत्तियों का आना सुना जाता है और चाण्डालिनी के साथ रतिविलास करने से मरण लक्षण वाला प्रायश्चित लेना पड़ता है । किन्तु समस्त यज्ञों में चूड़ामणि- सरीखा श्रेष्ठ सौत्रामणि नाम के यज्ञ में मदिरा स्वाद के अभिप्राय वाला वैदिक अनुमति विधान है, और लिखा है, कि जो इस विधि से, अर्थात् - यज्ञ के मन्त्रों द्वारा पवित्र की हुई सुरा पान करता है, उसका मदिरापान मदिरापान नहीं है, क्योंकि जिन पीढ़ी, जल, गुड़ व महुआ आदि वस्तुओं से सुरा बनाई जाती है, वे सब वस्तुएँ विशुद्ध हो होती हैं।'
१. कथानक आख्यानकं तस्य चेदं लक्षणम् --
इतिहास पुरावृत्तं प्रबन्यरचना कथा । दृष्टोपलब्धकथनं वदन्त्यास्यानकं बुधाः ।। १ ।।
२. एकचक्रनगर | ३. महत् । ४. बडवानल। ५. पोदनपुरात् । ६. गज । ७. दन्त । ८ मधे ] ९ प्रचुर १०. मांसशाकसहितं । ११. मद्यं । १२. होन विकलम तियुक्तः । १३. मातङ्ग रुक्तः सन् चिन्तयति । १४. मरणलक्षणं । १५. प्रायश्चित्तं । १६. मनःपूर्वको व्यापारः । १७. निष्पाद्यते । * विधानः क० ० 1
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये मनोमहामोहः कोपोनमपहाय हारहरव्यवहारातिलखितमातशिकागीतानुगतरतालिकाविष्टम्बमावसरो ग्रहगृहीतशरीर इवानीतानेकविकारः पुमबुभुक्षाशुशुक्षिणि कोणकुशिकुहरस्तरसमपि' भनितवान् । प्राभंवाःसहोसमदमो मातहीं कामितवान्। भवति चात्र इलोकः--
: हेतुशुद्धः श्रुतेर्वाक्यात्पीतमयः किलंकपात् । मांसमातक्षिकासङ्गमकरोन्मूहमामसः ॥ ८ ॥ इरपुपासकाप्ययने मद्यप्रत्तिदोषदर्शनी नाम द्वाविंशः कस्पः ।
श्रूयतां ममिवृत्तिगुणत्योपाख्यानम्-अशेषविद्याशार मवमत्तमनीषि मत्तासिकुप्लकेलि कमलनाभ्यां वलम्यां पुरि बामरित्रशीलः१० करवाला, कपाटोद्घाटनपटुगंट:, महा निवासंपावनकुशलो तिला, परगोपायलद्रविणविशारदः शारवः, १२खरपटारामविलाम: कविन पाणी न पहिला प्रतिपकपरस्परप्रोतिप्रपशाः स्वध्यावसायसाहसाभ्यामोदवरशरोरार्धवासिनी भवानीमपि मुकुन्वाहवयाश्रय धियं निपपि कात्यायनोलोचना "संजगमञ्जनमपि हतुं समर्थाः, पश्यतोहराणामपि पश्यतोताः, कृतान्तदूतानामपि कृतान्तबूताः ।
ऐसा चिर काल तक मन में विचारकर म्लेच्छविद्या के निधि वाले उसने शराब पी ली। उसस प्रभाव से उसे तीव्र नशा चढ़ा। उसने अपनी लंगोटी खोल डालो और मद्यपान से विह्वल दुई चाण्डालनियों के गीत को अनुकरण करती हुई तालियाँ पीटने लगा। उस समय उसकी दशा ऐसी हो गई थी-मानों उसके शरीर में कोई भूत धुस गया है, इमलिए उसने अनेक विकृत चेष्टाएं की और जब उसके उदर का मध्यभाग भूखरूपी अग्नि से क्षीण होने लगा तब उसने मांस भी खा लिया। उससे उसे असह्य कामोद्रेक हुआ और उसने चाण्डालिनी के साथ रतिविलास भी कर लिया।
इस विषय में एक श्लोक है, जिसका अभिप्राय यह है
मद्य को उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के शुद्ध होने से तथा वेद में लिया होने से मढ़ मनोवृत्ति वाले एकपाद संन्यासी ने मद्य पी लिया और फिर उसने मांस भी खाया और चाण्डालिनी के साथ रति विलास भी किया ॥ ८ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में मद्यपान के दोष बतलाने वाला बाईसबा फल्प पूर्ण हुआ। १०. मद्यप्रती धूर्तिल नाम के चोर की कथा[ अब मद्यत्याग से उत्पन्न हुए गुण वाले की कथा सुनिए।]
सभी विद्याजों को चतुराई के मद से मत्त हुए विद्वान् रूपी भवरों के समूह की क्रीड़ा के लिये कमल के कोश-सरीखो 'बलभो' नाम की नगरी में पांच चोर रहते थे। उनमें से 'करवाल' नाम का चोर मकानों में छिद्र ( सेंध ) लगाने के स्वभाव वाला था । 'बटु' किवाड़ खोलने में चतुर था । 'धूर्तिल' महानिद्रा उत्पन्न करा कर चोरी करने में कुशल था। 'शारद' दूसरों के द्वारा छिपाये हुये धन का स्थान देखने में प्रवीण था और पांचवा कृकिलास ठग विद्या का विलासो था। वे पांचों पारस्परिक प्रीति विस्तार को स्वीकार करने वाले थे
और अपने उद्योग व साहस द्वारा वे शिव के अर्धाङ्ग में निवास करने वाली पार्वती को भी, विष्णु के हृदय में निवास करने की बुद्धि रखने वाली लक्ष्मी को भी और दुर्गा के नेत्रों में लगे हुए अञ्जन को भी चुराने में समर्थ थे। वे चोरों के भी चोर थे और यमदूतों के भी यम-दूत थे । १. मद्यापन विह्वलोभूतमातङ्गी । २. अग्निः । ३. मांसं । ४. सेवितवान् । ५. मद्यस्य कारण गुट, पातको प्रमुखशुद्धत्वात् । • ६. चातुर्य । ७. मनीषिण एव मत्तभ्रमराः । ८. कीड़ा। ९. मध्ये कोषासदृशायाम् । *, खात्र छिद्रं । १०. चौरकर्म ।
११. गोपित 1 १२. ठकशास्नं। १३, चौराः। । १४. उद्यम् । १५ आसनतं ।
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समम अश्वांसः
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५
विवेक निशि+लालोपं वर्षति देवे कज्जलपटलकाल' कायप्रतिष्ठासु सकला काष्ठासुरे विहित "समानावितपुरसा पहारा: पुरबाहिरकोपवने धर्म विभजन्तवेवं ममेदमिति विषयमानाः कलमपहाय मेरेया: 'पानगोष्ठोपतिष्ठन्तः पूर्णाहितफलकोपोन्मेष कलुषधियणाः यष्टायष्टि मुष्टामुष्टि च युद्धं विधाय सर्वपि मनुरन्यत्र धूर्तिलात् 1 स किल 'यथावर्शनसंभवं महामुनिविलोकनासस्मिन्नहत्येमं तं गृह्णाति । तत्र च दिने 'तदर्शनाबा समग्रहीत् ।
११ १२ विरज्यानजवावसुखबीजातवतु भूतिलः समानशीलेषु कश्यचश्या "विनाशले श्यामात्मसमक्षमुपयुज्य बुत्पाटय ३४ मनोजकुज १४ जटा मालनिवेश मित्र केशपाशं विरत्राय पराहितनेत्राय चरित्राय समीचि ।
भवति चात्र लोक:--
१९
एकस्मिन्वासरे मद्यनिवृसंभूतिलः किल एसट्रांबासहायेषु मृतेष्णा पवमापयम् ॥ ९ ॥
इत्युपासकाध्ययने मद्यनिवृसिगुण निवानो नाम त्रयोविशतितमः कल्पः ।
किसी समय एक रात्रि में जब मेघ वस्त्र को आर्द्र ( भींगा ) करने पूर्वक जोर की जलवृष्टि कर रहे थे और समस्त दिशाएँ कज्जल-पटल सरीखीं कृष्ण शरीर वालों हो रहीं थीं तब उन्होंने नगर के सार द्रव्य ( सुवर्ण व रत्नादि ) की चोरी की। फिर के नगर के बाहर के बगीचे में धन का विभाग ( बंटवारा) कर रहे ये और 'यह मेरा है और यह तेरा है' यह कहकर झगड़ रहे थे । पश्चात् युद्ध (झगड़ना) छोड़कर उन्होंने पहले किसी एक चोर द्वारा शराब मंगवाई और शराव की पान गोष्टी की, अर्थात् एक स्थान पर बेठकर प्रायः सभी ने शराब पी, जिससे पहले किये हुए कलह का कोप वह जाने से मलिन-बुद्धि वाले उन्होंने लठा रूठी और मुक्का मुक्की बाला तुमुल युद्ध किया, जिससे घूर्तिल के सिवा सब मर गये ।
निस्सन्देह धूलि के सदा एक व्रत ग्रहण करता था, था, इसी से वह बच गया ।
एक नियम था, कि उसे जिस अतः उसने उस दिन मुनि के
दिन मुनि का दर्शन होने से
दर्शन होता था, उस दिन वह शराब के त्याग का व्रत के लिया
एक सरीने स्वभाव वाले अपने साथी चोरों की शराबखोरी के आश्रय से उत्पन्न हुई मरणावस्था को प्रत्यक्ष देखकर वह विशेष दुःखों के कारण संसार से विरक्त हो गया और कामदेव रूपी वृक्ष के जटा समूह के प्रवेश-सरीखे केश-समूह उखाड़ कर पारलौकिक दुःखों को जीतने वाले चरित्र के पालन करने का चिरकाल तक इच्छुक हुआ ।
उक्त कथा के संबंध के एक श्लोक का भाव यह है
'जब कि मद्यपान के दोष से दूसरे साथी चोर मर गये तब एक दिन के लिये शराब का त्याग कर देने से घूर्तिल चोर बच गया और उसने दीक्षित होकर आपत्तियों से रहित स्थान (मुक्तिपद) प्राप्त किया ॥ ९ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में मद्य-त्याग के गुणों का निदान करने वाला तेईसवां कल्प समाप्त हुआ ।
★ 'लक्रोपं ग०' । १. कृष्णशरीर । २. दिशासु । ३. खारद्वव्च । ४. युद्ध ५. अनेन केनचित् कृत्वा आनायितमद्याः । ६. एकत्र पानं । ७. मद्यपानात् पूर्वं कृत ८ यस्मिन् दिने मुनयों मिलन्ति तद्दिने नित्यं व्रतं गृह्णाति । ९. मुनिदर्श नातु । १०. मरणावस्थां । ११. दृष्ट्वा । १२. संसारात् । १३. उत्पाटनं कृत्वा । १४. कामः । १५. वृक्षः । १६. चिरं दोर्घकालं पालितवानित्यर्थः । १७. परलोकपाषदुःखजयनशीलाय १८. प्राप्तवान् । १९. आपत् - रहितं स्थानं ।
३८.
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यशस्तिलक चम्पूकामे
स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापापरास्पदम् ' । सन्तोऽन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम् ॥ १० ॥ कमयमपि प्राणी करोतु यदि चाश्ममः । हन्यमानविधिर्न स्यायम्यथा वा न जीवनम् ॥ ११ ॥ धर्मा धर्म किन्तु विशेषकारणम्॥ ६२ ॥ अपात्लेशष्टु सुधीरचेत्यस्य वाञ्छति । झात्मनः प्रतिकूलानि परेषां न समाचरेत् ।। १३ ।। समानोऽपि जन्मान्तराश्रयः । यः परानुपघातेन मुख सेवापरायणः ।। १४ ।। समान्ननु लोकेऽस्मिन्नुवर्क" दुःखवजितः । "यस्तवात्य सुखालान्न मुह्येयमंकर्मणि ॥ १५ ॥ स भूभारः परं प्राणी जीवन्त्रपि मृतश्च सः । यो न धर्मार्थकामेषु भवेयन्यतमाश्रयः १० ।। १६ ।। स मूर्खः स जयः सोऽज्ञः स पशु पशोरपि । योऽदनन्नपि फलं धर्माद्ध में भवति मन्दधीः ।। १७ ।। स विद्वाम्स महाप्राज्ञः स धीमान् स च पण्डितः । यः स्वतोदान्तो वापि भाषमय समीहते ॥ १८ ॥
मांस-त्याग
सज्जन पुरुष ऐसे मांस को, कैसे भक्षण करते हैं ? जो कि स्वभाव से अपवित्र व दुर्गन्धित है, जो दूसरे पशु-पक्षियों के घात से उत्पन्न होता है, जो कसाईयों व खटीकों आदि के खोटे स्थान से प्राप्त होता है एवं जो भविष्य में दुर्गति का देने वाला है ।। १० ।। यदि मोस के निमित्त हमारे द्वारा घात किया जा रहा पशु दूसरे जन्म हमारा घात न करे या मौम के बिना दूसरा कोई भी उन्हर-पोषण का उपाय नहीं है तो प्राणी नहीं करने योग्य कर्म ( जीव-घात ) भले ही करे, किन्तु ऐसी बात नहीं है, मांस के बिना भी अन्न व भक्ष्य फलादि से उदर-पोषण होता ही है, अतः मांस भक्षण नहीं करना चाहिए ।। ११ । अहिंसा धर्म के माहात्म्य से सुख भोगने वालों को धमं से द्वेष करने का क्या कारण है ? अर्थात्-धर्म से द्वेष करना उनकी निरी मूर्खता है । क्योंकि कौन बुद्धिमान पुरुष अभिलषित - इच्छित वस्तु देनेवाले कल्प वृक्ष से द्वेष करता है ? अगितु कोई नहीं करता || १२ || यदि बुद्धिमान पुरुष पोड़ा-सा क्लेश उठाकर अपने लिये विशेष सुखी देखना चाहती है, तो उसका कर्तव्य है, कि जैसा व्यवहार ( मारना च विश्वास घात आदि) अपने लिए दुःखदायक है, बेसा व्यवहार दूसरों के प्रति न करे ॥ १३ ॥ पुरुष दूसरों का धात न करके अपनी सुख सामग्री के भोगने में सत्पर है, वह इस लोक में सुख भोगता हुआ भी दूसरे जन्म में सुख का स्थान होता है ||१४|| जो मनुष्य इस जन्म में तात्कालिक सांसारिक सुखों में आसक्त होकर धार्मिक कर्तव्यों में मूढ़ नहीं होता अर्थात् -- धर्म कर्म में प्रवृत्त होता रहता है, वह इस लोक व परलोक में दुःखी नहीं होता -सुख लाभ करता है || १५ || जो मानव धर्म, अर्थ व काम में से एक का भी आश्रम नहीं करता वह पृथ्वी का भार रूप है और जीता हुआ भी मन्मा है ।। १६ ।। जो मानव धर्म से उत्पन्न होने वाले मांसारिक सुख रूप फल का उपभोग करता हुआ भी धर्मानुष्ठान में मन्दबुद्धि ( आलसी ) है, यह मूर्ख है, जड़ है, अज्ञानी है और पशु से भी निरापशु है || १७ || जो स्वयं या दूसरों के द्वारा प्रेरित किये जाने पर भी अघमं करने की चेष्टा नहीं करता, वही विद्वान महाविद्वान और बुद्धिमान तथा पण्डित है ॥ १८ ॥
१. दुःस्थाने नाकारला | २. भक्षयन्ति । ३-४ यथा पाहूतः तथा पश्चात् स पशुः हिनस्ति अथवा चेन्मांसं विनान्त्यः कोऽपि जीवनोपायो नाति । चन्नमद फादिकं वर्तते तहि मां ५. को द्वेधं करोति । ६. भुञ्जानोऽपि । ७ नवति । ८ आगामिकाले । ९. इहलोके तत्काले एकस्यापि मः मध्ययो न भवति ।
तस्य हिंसकस्य न कथं भक्ष्यते । १०. त्रिषु मध्ये
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सप्तम आश्वास:
तरस्त्रस्य हितमिच्छन्तो मुञ्चन्तश्चरहितं मुलः । मन्यमानः स्वमांसस्य कथं वृद्धि विधापिनः ।। १९ ।। पर" करोलोह सुखं वा दुःखमेव वा । वृद्धयेरे घनषद्दत्तं स्वस्य तज्जायतेऽधिकम् ।। २० ।। मधुप्रायं कर्मधर्माय चेन्मतम् । अधर्मः कोऽपरः किं वा भवेद्दुर्गशिवायम् ।। २१ ।। स धर्मो यत्र नार्मस्तत्सुखं यत्र नासुखम् । सञ्ज्ञानं यत्र नाज्ञानं सा गतिमंत्र नागतिः ।। २२ ।। स्वकीयं जीवितं यद्वत्सर्वस्य प्राणिनः प्रियम् । ततदेतत् परस्यापि ततो हिंसां परित्यजेत् ।। २३ ।। मांसाचिषु दया नास्ति न सत्यं मद्यपायिषु । अतृशंस्यं ममत्येषु मधुवुरुबरसे विषु ॥ २४ ॥ मक्षिकागर्भसंभूतबालाण्डविनिपीडनात् । घातं मधु कथं सन्तः सेवन्ते फललाकृति' ।। ६५ ।। "उद्भ्रान्ता भंगगर्भेऽस्मिन्नण्डजाण्डकखण्डवत् । कुतो मधु" मधुछत्रे १० ब्याबलु अश्घरबोदुम्बरलक्ष त्योः ॥ २७ ॥
जीवितम् ।। २६ ।।
कल्याण के इच्छुक हैं और बार-बार दुःख देने वाले पाप कर्म का त्याग करते हैं, वे दूसरे पशु-पक्षियों के मांस से अपने मांस की वृद्धि करने वाले कैसे हो सकते है ? || १९ ॥ जिस प्रकार दूसरों को वृद्धि के लिए दिया गया धन, कालान्तर में ब्याज के बढ़ जाने से देने वाले को afar प्राप्त होता है ( व्याजसहित मिल जाता है । उसी प्रकार मनुष्य दूसरे प्राणियों के लिए जो सूख या दुःख देना है, वह सुख या दुःख कालान्तर में उसे अधिक प्राप्त होता है । अर्थात् सुख देने से विशेष सुख प्राप्त होता है और दु:ख देने से विशेष दुःख प्राप्त होता है | २० || यदि मद्य-मान, मांस भक्षण और गधु आस्वादन की अधिकता वाला क्रिया काण्ड ( यज्ञ व श्राद्धादि ) धर्म है तो फिर दूसरा अधर्म क्या है ? और दुर्गति देने वाला क्या है ? ॥ २१ ॥ सच्चा धर्म वही है, जिसमें अथ ( हिंसा आदि व मिध्यात्व आदि ) नहीं है। सच्चा सुख वही है, जिसमें नरक आदि का दुःख नहीं है । सम्यग्ज्ञान वही है, जिसमें अज्ञान नहीं है तथा सच्ची गति वही है, जिसके मिलने पर संसार में पुनरागमन नहीं होता || २२ || जिस तरह सभी प्राणियों के लिए अपना जीवन प्यारा हैं उसी तरह दूसरों को भी अपना जीवन प्यारा है, इसलिए जीव हिंसा का त्याग करना चाहिए || २३ || मांस भक्षकों में दमा नहीं होती और शराब पीने बालों में सत्य भाषण नहीं होत्ता एवं मधु और उदुम्बर फलों का भक्षण करने वालों में दयालुता नहीं होती, अर्थात् – निर्दयी होते हैं ॥ २४ ॥
मधु के दोष
सज्जन पुरुष गर्भाशय में स्थित हुए शुक्र-गोणित के सम्मिश्रण सरीखे आकार वाले मधु को, जो कि शहद की मक्खियों तथा उनके छोटे-छोटे बच्चों के घात से उत्पन्न होता है, किस प्रकार सेवन करते हैं ? ॥२५॥ जिसके बीच में छोटे-छोटे शहद की मत्रियों के बच्चे भिनभिना रहे हैं, ऐसे शहद के उत्ते में स्थित हुआ मधु, जो कि अण्डों से उत्पन्न हुए पश्चियों के बालकों के झुण्ड सरीखा है, बहेलियों तथा भील लोगों के लिए खानेयोग्य किस प्रकार हो गया ? यह आश्चर्यजनक है ।। २६ ।।
पाँच उम्बर फलों के दोष
पीपल, गुलर, पाकर बड़ और कयूमर ( अंजीर ) इन पाँच उदुम्बर फलों में भी स्थूल सजीव उड़ते हुए दृष्टिगोचर होते हैं और अनेक सूक्ष्मजीव भी उनमें पाये जाते हैं, जो शास्त्रों द्वारा जाने जा सकते हैं ।। २७ ।।
१. परजने । २. वृद्धिनिमित्तं भवति माजफलं तद्वत् । ३. मांसं गदन्ति इत्येवं शीलाः । ४. कारुण्यं । ५. मनुष्येषु । ६. गर्भवेष्टनं । ७. अलित । ८. पक्षिवालकसमुहदत् । ९. माधुये । १०. मधुफले । ११. भिल्ललोकानां भक्ष्यं । १२. कठुम्बर अंगीरापरनाम
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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये 'मघादिस्वाचिगेहेषु पानमन्नं स नाचरेत् । तबमत्राविसंपर्क न कुर्वीत कदाचन ।। २८ ।। कुर्वन्नप्रतिभिः साषं संसर्ग भोजनादिषु । प्राप्नोति वाच्यतामत्र पर धन सरफलम् ।। २९ ।। दतिप्रायेषु' पानीयं स्नेहं च कुतुपाविषु" । व्रतस्यो वर्जलिय योषितश्चान तोचिताः ॥ ३० ॥
"जीवपोगाविशेषेण 'मयमेषाविकायक्त । मुन्ग माषादिकायोऽपि मांसमित्यपरे अगुः ।। ३१ ।। ... सक्युक्त । तदाहमांसं जीवशरीरं जीवशरीरं भवेन्न या भासम् । यदन्निम्यो पक्षो वृक्षास्तु भवन्न वा निम्बः ।। ३२ ॥! .....
मद्यायिक का सेवन करने वालों से बचने का उपवेशमद्य, मांस ब मधु को भक्षण करने वालों के गृहों में कभी खान-पान नहीं करना चाहिए तथा उनके बर्तनों आदि का स्पर्श नहीं करना चाहिए ।। २८ । नत न पालने वाले पुरुषों के साथ भोजनादि
रखने वाले मानव की इस लोक में निन्दा होती है और परलोक में भी उसे प्रशस्त फल महा मिलता अथात्-कटु फल भोगना
२९।। तो पुरुषको चाई की मरम का पानी, चमड़े के कुप्पों में रक्खा हुआ घी व तेल का उपयोग सदा छोड़ते हुए रजःस्वला स्त्रियों का संसर्ग (छुना ) नहीं करना चाहिए ।। ३०॥
कुछ लोगों ने कहा है कि मुंग व उड़द-आदि एकेन्द्रिय जीवों का शरीर भी मांस है, क्योंकि यह जीव का शरीर है, जैसे कैट व मेढा-आदि का शरीर । अर्थात्-जैसे ऊंट व मेड़ा आदि स जीवों का शरीर जीव-शरीर होने से मांस है वैसे ही मूग व उड़द-आदि धान्यों का शरीर भी जीव-शरीर होने से मांस है, क्योंकि जहाँजहाँ जोव-शरीर है वहीं वहां मांस है, जैसे ऊँट वगैरह, ऐसी व्याप्ति है। क्योंकि जोब का शरीरपन सर्वत्र समानरूप से पाया जाता है।३१।। उक्त मान्यता योग्य नहीं है, क्योंकि मांस, जीव का शरीर है यह कहना उचित है, किन्तु जो जीव का शरीर है, वह मांस होता भी है और नहीं भी होता। जैसे नीम, वृक्ष होता है, किन्तु वृक्ष नीम होता भी है और नहीं भी होता। अर्थात्-यदि किसी जीव का शरोर मांस होता है, तो क्या समस्त जीवों के शरीर मांस ही होते हैं? यह नियम नहीं है, क्योंकि एकेन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रियपर्यन्त जीवों में विशेषता है । यदि नीम वृक्षा होता है, तो क्या दूसरे वृक्ष भी नोम हो सकते हैं।
भावार्थ- जहाँ-जहाँ मांस होता है, वहाँ-वहाँ जीव-शरीर अवश्य होता है, परन्तु जहाँ जोव-शरोर होता है, वहां मांस होने का नियम नहीं है। क्योंकि मांसपन व्याप्य है और जोव शरीरपन व्यापक है, इसलिये जहाँ जहाँ व्याप्य होता है, वहां-वहाँ व्यापक अवश्य होता है। परन्तु जहाँ व्यापक है वहां व्याप्य के होने का नियम नहीं है। जिस प्रकार जहाँ-जहाँ नीमपन होता है, वहाँ वृक्षपन अवश्य होता है, परन्तु जहाँ वृक्षपन है वहाँ नीमपन के होने का नियम नहीं है। अतः मूंग, उड़द-आदि को एकेन्द्रिय जीव के शरोर होने से मांस मानना युक्तिसंगत नहीं है ॥ ३२ ॥ १. मश्रमांम्रमधुमक्षकाणा। २. भाजनादिस्पर्श । ३. निन्दा। ४. चर्मभाण्डेषु । ५. धृततलाघारचर्ममाजनेषु ।
६. रजःस्यलाः, काये संसग । ७. प्राण्यङ्गत्वाविषेऽपि भोज्यं मांसं न धार्मिकः । भोग्या स्त्रीत्वाविशेऽपि जनायव नादिका ॥११॥ सागारधर्माः । ८. उष्ट्रः । *. एकेन्द्रियशरीरमपि मार्स। २. मिध्यामादयः । १०. यदि कस्यचित पारीर मांसं संजातं तहि सर्वेषां जोवानां शरीरं कि मांसमव भवति । तन्न, एकेन्द्रियावि पंचेन्द्रिय-पर्यन्स विशेषोऽस्ति, चैत् कविचलिम्बवृक्षाः संजालस्तहिं अन्यऽपि वृक्षाः किं निम्बा एव । अपि तु म ।
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सप्तम माश्वासः
हिप- 'द्विजानिहन्त्रणा यमा पापं विशिष्यते । जोपयोगावियोषेऽपि तमा *फलपलाशिनाम् ।। ३३ ॥
स्त्रीस्वपेयत्वसामान्याहा रवारिवनोहताम् । एष वाची बदन्नेवं मद्यमातृसमागमे ॥ ३४ ॥
शुलं कुग्धं न गोमांस वस्तुविश्यमोवृशम् । विषघ्नं रत्नमाहेयं विषं ध विपने यतः ॥ ३५ ॥ अथवा । हेयं पलं पयः पेयं समे सत्यपि कारणे । 'विषदोरायुधे पत्त्रं मूलं तु मृतये मतम् ॥३६॥ अपि च शरीरावयवस्येऽपि मांसे शोषो न सपिषि। जिह्वावन्न हि बोषाप पाडे मद्यं द्विजासियु ।। ३७ ।।
विषिश्चेत्केवल शुद्ध हि सर्व निधेय्यताम् । शुद्धय चेस्केवलं वस्तु भुज्यतां श्वपचालये ॥ ३८ ॥
जैसे ब्राह्मण और पक्षी दोनों में जीव-शरीर होने से संग्रहनय की अपेक्षा अभेद है तथापि पक्षी के घात की अपेक्षा ब्राह्मण के घात करने में अधिक पाप है वैसे ही फल और मांस दोनों जीव के शरीर है किन्तु फल खानेवाले को स्तोक ( थोड़ा ) पाप लगता है, क्योंकि भश्य फलों में एकेन्द्रिय जीव ही होते हैं, और मांसभक्षण में महापाप-बन्ध है, क्योंकि मांस में दो इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय पर्यन्त जीव-राशि सदैव रहती है ।।३।। जो बादी यन्त्र कहता है कि मंग-वगैरव धान्य और मांस दोनों ही जीव के शरीर होने में एक सरीखे भक्षणोय हैं, उसके यही पत्नी और माता दोनों में स्त्रीपन समान होने से एक मरीखीं हैं और सरा व जल दोनों में पीने लायकपन होने से एक सरोखे हैं, अतः उसे माता को स्त्री की तरह और सुरा को जल की तरह समझने की चेष्टा करनी चाहिए।
भावार्य-जब यादो मद्य व जल में पीनेलायकपन समान होने पर भी जल पीता है और मद्य का त्याग करता है और पत्नी व माता में स्त्रीपन समान होने पर भी पत्नी का उपभोग करता है और माता को नमस्कार करता है, उसी तरह उसे जीव का शरीरपन समान होने पर भी मूंग-आदि धान्य भक्षण करनी चाहिए और सदाके लिए मांस का त्याग सुरा की तरह करना चाहिए ।। ३४ ॥
गाय का दूध शुद्ध है परन्तु गो-मांस शुद्ध नहीं है । वस्तु के स्वभाव को विचित्रता ही ऐसी है। उदाहरण के रूप में सांप की फणा का मागदमनमणि तो विष को नष्ट करनेवाला है और उसका जहर तलाल मार देता है ।। ३५ ।। अथवा-यद्यपि मांस और दूध के उत्पादक कारण { घास-आदि ) एक-सरोखे हैं, तथापि मांस छोड़ने योग्य है और दूध पीने योग्य है। उदाहरण के रूप में जैसे विषवृक्ष का पत्ता और उसकी जड़ इन दोनों के उत्पादक कारण एक-से हैं तथापि विषवृक्ष का पत्ता आयु-रक्षक है और उसकी जड़ ( विष ) मृत्यु को कारण होती है ।। ३६ ॥ यद्यपि मांस और धो इन दोनों का निमित्त कारण शरीर ही है, अर्थात्-गाय के शरीर से ही मांस ब धी उत्पन्न होते हैं, तथापि मांस-भक्षण में पाप है न कि धी खाने में। जिस प्रकार ब्राह्मणादि को जिह्वा से शराब के स्पर्श करने में पाप है, परन्तु पैर में शराब के लगाने में पाप नहीं होता ॥ ३७ 11 यदि विधि ( संप्रोक्षण-कुश व मन्त्रों के जल द्वारा वस्तु को शुद्ध करना ) से ही वस्तु शुद्ध हो जाती है तो ब्राह्मणों के लिए सभी योग्य-अयोग्य वस्तु का सेवन कर लेना चाहिए, अर्थात्-फिर तो उन्हें 'अन्न भक्षणीय है और मांस त्याज्य है' ऐसा आग्रह नहीं करना चाहिए । अथवा उक्त दोष के निवारण के लिए आप कहेंगे कि समस्त वस्तु शुद्ध ही होती है, तो चापलाल के गृह पर भी भोजन कर लेना चाहिए, क्योंकि आपके कहने से चाण्डाल का गृह भी शुद्ध है ।। ३८ ॥ १. विप्रपति । २, संग्रहनयागक्षयाभेदेपि । *. 'पापं पलाशिनाम्' क० च०प० । ३. पापं विशिष्यते । ४. मातरं
दारानिव मद्यं बारीब ईहता। ५. अहे सर्पस्यद रस्तं नागदमनमणि । ६. विधवृक्षस्य पतत्र । ७. मायः निमित्तं । ८. योमासर पिपानिमित्त शरीरमेव । ९. पाद लग्न । १०. संप्रोक्षणयज्ञादिश्चेत्' सुद्धच भवति । ११. योग्यमयोग्य प। १२. अथवा विधिस्तिष्ठतु वस्तु स्वयमेव युद्ध वर्तते ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये तथ्यमातृपात्राणां विशुद्धो विषिशुद्धता । यसंस्कारशतेनापि नाजातिढिजता प्रजेत् ॥ ३९ ॥ तस्वाक्यसांस्यचार्याकबंदपद्य कविताम् । मतं विहाय हालय मांसं श्रेयोपभिः सदा ॥ ४० ॥
यस्तु लोल्पेन मांसाशी धर्मपीस तिपातकः । परवारविमाकारी मात्रा स यथा मरः ।। ४१ ।। भूयतामत्र मांसामानाभिष्यानमाप्रस्थापि पातकस्य फलम-श्रीमत्पुष्पदन्तभवन्ताजस्तारावतोणनिविपत्तिसपावितो. “शान्विरासयां फाकन्यां पुरि श्राधकान्वधर्मभूतिः सौरसेनो नाम नृपतिः कुलषर्मानुरोषः बुद्धघा गृहीतपिशितात: "पुनर्वेक्वंद्यावतमतमोहितमतिः संजात जाङ्गलनिमित्तानुमतिरङ्गीकृत्तवानु नियहणाज्जनापवादाजुगुप्समानो मनोविधान्तिहेतुना कर्मप्रियनामकेतुना वल्लवन रहसि बिलस्थलजलान्तरालचरतरप्तमा 'नाययनप्यनेकरामफार्थपर्याकुलमानसतया माप्तभकणक्षण १२ नाप।
कर्मप्रियोऽपि तथा पृथिवीश्वर निदेशमनुदिनमनुतिष्ठन्नेकदा वाकुपाशोपतः प्रेत्य स्वयंभूरमणाभिवान
जैसे सैकड़ों संस्कारों से सुसंस्कृत हुआ शुद्र ग्राह्मण नहीं हो सकता [ वो हो सैकड़ों विधियों (प्रोक्षण व यज्ञमन्त्रादि विधियों ) से शुद्ध किया हुआ मांस भी माद्ध नहीं हो सकता क्योंकि द्रव्य, दाता और पाव इन तीनों के शुद्ध हो जाने पर शुद्ध विधि घटित होती है।। ३९ । आत्मकल्याण के इच्छुक मानवी को चौद्ध, सांख्य, चावकि, वैदिक, वेद्य और शैवों को युक्ति-शून्य मान्यता पर ध्यान न देकर सदा के लिए मांस का त्याग कर देना चाहिए ।। ४० ।। जैसे गो परस्त्री-लम्पट मनुष्य माता के साथ रतिविलास करता है, वह दो पाप ( कुशील ब अन्याय ) करता है वैसे ही जो मनुष्य धर्म-बुद्धि से लालसा पूर्वक मांस-भक्षण करता है वह भी दो पाप करता है ( मांरा-भक्षण का पाप और मांस-भक्षण को धर्म समझना रूप मिध्यात्व ) ।। ४१ ॥
मांस-भक्षण का संकल्प' { चिन्तन ) करनेवाले राजा सौरसेन को कथा| अब मांस-मक्षण के चिन्तनमात्र से होनेवाले पाप के विषय में एक कथा है, उसे सुनिए-]
ऐसो काकन्दो नामकी नगरी में, जो कि श्रीपूष्पदन्त भगवान के जन्मोत्सव के लिए आये हुए इन्द्र द्वारा की जानेवालो उत्सव लक्ष्मी की स्थान थी, श्रावक कुलोत्पन्न 'सौरमेन' नाम का राजा राज्य करता था। उसने अपने कुलधर्म के अनुसरण की बुद्धि से मांस-भक्षण का त्याग स्वीकार किया था। परन्तु बाद में जब वैद-वचन, वेद्य-वचन व व दर्शन रो उमकी बुद्धि विपरीत हो गई तब उसे माँस-भक्षण की इच्छा को अनुसरण करने वाली बुद्धि उत्पन्न हुई। इसलिए वह स्वीकार की हई प्रतिज्ञा के निर्वाह करने में असमर्थ हो गया । परन्तु वह लोकापवाद से डरता था। यद्यपि वह अपने मन को आराम देने वाले 'कप्रिय नामरूपी ध्वजा वाले रसोईए से एकान्त में अनेक विलों में रहने वाले जन्तुओं, जलचर, थलचर एवं भूमिचर जीवों का मांस मंगवाता था, परन्तु उसका मन अनेक राजकार्यों में व्याकुलित रहता था, इसलिए उसे माँस-भक्षण का अवसर नहीं मिलता था।
कर्मप्रिय' रसोईया भो राजा की आज्ञा के अनुसार प्रतिदिन मांस पकाता था । एक दिन उसने सांप के बच्चे का मांस पकाया और उसो के जहर से पीड़ित हुआ और मरकर वह स्वयं भूरमण' नाम के चिह्न याले समुद्र में अनेक मछलियों को निगलने वाला, विशालकाय व शक्तिशाली महामच्छ हुआ। १. भिषज । २. त्याज्यं । ३. भक्षकः धर्मनिमितं तस्य पातमद्वयं भवति । ४, चिन्तनमात्र । ५. उत्सवालस्मीस्थान ।
६ वंदवचनवद्यदघनशववचनः । ७. मांसं । ८. निवडणमत्तीति निवर्हणात् । ९. वल्लव: स्यात् सूपकार गोदोग्वरि वृकोदरे । १०. एकान्ते । ११. सूपकारण कावा आनयनं कारयन् । १२. अवसरं । १३. सर्पशिशुना । १४. मृत्वा ।
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सप्तम आपवास:
मुझे समुने मतादेवलस्तिमिलिगिरलो बभूव । भूपालोऽपि चिरकालेन कथाशेयतामाधिस्य पिशिताशमाशमानुबन्धात्सव' सिग्यौ तस्यैव महामोनस्य कर्णबिले तन्मलाशनशील: शालिसिक्थककलेवरः शफरोऽभत । तधन्वेष 'पर्याप्तोभयकरणस्तस्य वदनं ध्यावाय निमायतो गलमूहावगाहे 'घलानदीप्रवाह इवाने मालचरामीक प्रविश्य नव निजामगिरीश पापकर्मा निग्याणां वाणीरचर्मा खल्वेष पो प्रवक्तसंपातरतचेतस्थिपिन शमनोति अपितु याहांनि । मम पुनधि हवयेप्सितप्रभावाचादेतावन्मानं गात्रं स्यात्तवा समस्तमपि समुद्र तिसकलसस्थसंचार विधाम' इत्यभिध्यानाइल्पकायफल:११ वाकुलो निस्खिलनप्राधारामहाबहाषीनो मीन: कालेन विषयोत्परा चोत्तमतस्त्रास्त्रशसागरोपमायुनिलये निरये भवप्रत्ययापताविर्भूतजानविशेषो तापनिमिषनरी नारकपर्यायवो किलेवमालापं चतुः--'अहो अटपलब, जया निगिमकर्मणो लागो ममात्रागतिकवितष । तब तु मत्काविले मलोपजीवनस्य कथमप्रागमनममत । 'महामरस्य, चेष्टितावपि दुरन्तदुःखसंबन्धनिबन्धनावशुभध्यानात ।' भवति चात्र लोकः
कुछ काल के बाद सौरसेन राजा भी भरकर मांस-भक्षण के अभिप्राय के निरन्तर संस्कार से उसी समुद्र में उसी महामफाछ के कर्णरूप विल में कानों के मेल का भक्षण करने वाला और शालि चावल के प्रमाण शरीर वाला मच्छ हआ। पयचात तन्दुलमच्छ स्पर्शन-आदि इन्द्रिय ब मन को पर्याप्ति को पूर्ण करने वाला हुआ। महामत्स्य मुंह खोलकर सोता रहता था और उसकी समुद्र-नदी के संगम के प्रवाह-सरीखी विस्तृत गहरी गलेरूपी गुफा में अनेक जलचर जोवों की सेना घुसकर जीवित निकल आती थी। उसे देखकर तन्दुल मत्स्य सोचता था 'यह मत्स्य बड़ा पापी और भाग्य-हीनों में अग्नेसर है, जो अपने मुंह में स्वयं ही आने वाले मत्स्य-आदि जल जन्तुओं को भी नहीं खा सकता।
यदि हादिक इच्छा के प्रभाव वाले शुभ देव से मेरा इतना विशालकाय शरीर होता तो मैं इस समस्त समुद्र को भी समस्त जल-जन्तुओं के संचार-चिन्ह से शून्य कर डालता।'
उक्त निन्ध दुनि के कारण अल्पकाय के लेशवाला तन्दुलमत्स्य और समस्त मकर-समूह के भक्षण से महाकाय महामत्स्य एक गब्यूति ( दो कोमा) प्रा शरीर और एक पल्म को आयु पुर्ण करके मरकर सातवें नरक में तैंतीस मागर की उत्कृष्ट आयु लेकर उत्पन्न हुए। वहां उन दोनों के उत्पन्न हुए विशिष्ट ज्ञान, भवप्रत्यय नामक अवधिज्ञान के अधीन थे, अर्थात्-उन्हें भवप्रत्यय अवधिज्ञान था।
ये दोनों भूतपूर्व मत्स्य नारकी पर्यायधारी परस्पर में वार्तालाप करते थे—'क्षुद्रमत्स्य ! अनेक जलजन्तुओं के संहार संबंधी पाप कर्म करने वाले मुझ पापी का यहां जाना उचित ही था, परन्तु मेरे. कर्गों के बिलों में मल भक्षण करनेवाले तुम्हारा यहां आना कैसे हुआ?'
तन्दुल मत्स्य-'महामत्स्य ! मेरा यहाँ आना ऐसे अशुभ घ्यान (आत-रौद्रध्यान) से हुआ है, जो कि विकृत मनोवृनि म उत्पन्न हुआ है और जो भयानक दुःख-संबंध का कारण है।
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है१. निन्। २. सूपकारोऽभूत् । ३. संतत्या प्रवर्तनात ! ४, भदाण । ५. शालिसियषमात्र । ६. 'अन्तःमारण ( मन )
यहिःकरण ( इन्द्रिम ) आहितशरीरः द्रव्येन्द्रिय-भादेन्द्रियपरिपूर्ण पर्याप्तिमाहितः संजातः । जीवास्त्रिप्रकाराःपर्याप्ताः अपर्यामा: लथ्यपर्याप्साः । ७. प्रसार्य । ८. समुद्रनदीसंगमवत् विस्तारे। *. 'निष्कामन्तं निरीक्ष्य' इसि ग०। ९. रहित । १०. मिन्टनात् । ११. भागः लेनः। १२. मत्स्यः । १३. भक्षणात् । १४. एकगम्यूतिकायः एकपम्पायुः । १३. मृत्वा । १६. भूतपूर्वमत्स्यो ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
सूत्रमत्स्यः फिलमस्तु स्वयंभूरमणोदधौ । महामत्स्यस्य कर्णस्थः 'स्मृतिदोषावधी गतः । ४२ ।। इयुपासकाध्ययने मांसाभिलाषमात्र फलप्रलपनो नाम चतुविशतितमः कल्पः ।
२०४
श्रूयतामत्र मांनिवृतिफलस्योपाहपानम् – अवन्त्रिमण्याल नलिनाभिनिवास सरस्यामेकानस्यां' पुरि पुरबाहिरिकापां वेव्रिलामहिलाविलासविशिख 'वृत्तिकोषणस्य चण्डताम्नो मातरूपकस्यां दिशि निवेशितविशितोपदेशस्था * परस्यां दिविधिस्तसुसंभूतस्य तो एसीपी तदुभयन्तराले चर्मनिर्माणतन्त्र र वर्तयतो विपद्विशारोडी माण्डलडिम् तुण्डाय विनिष्यविविधधरविदोषाणासरा सुरासीत् । मन्त्रेणावसरे तत्समीपवत्सं गोवरे " धर्मश्रवणजन्मान्तराविप्रकाशनपथाभिः कथाभियिने यजनोपकाराय कृतकामचारप्रचारमग्न रान्मूति मत्स्वर्गापचगं मायमलमिवावतरच्चारणषयुगत्तमवलोक्य संजात कुतूहलम् देशमनुगस्य नगरे " तद्दर्शनेन भाषकलोकं व्रतानि समाजज्ञानमनुस्मृत्य समाचरितप्रणामः सुनन्दना सरगमनमभिनन्दनं भगवन्तमात्मोचितं व्रतममाचत । भगवानपि -
निस्सन्देह 'स्वयंभू रमण' समुद्र में महामत्स्य के कर्ण में स्थित हुआ तन्दुलमत्स्य अशुभ चिन्तन के दोष से ( बुरे संकल्प से ) नरक में गया ।। ४२ ।
इस प्रकार उपसिकाध्ययन में मांस की इच्छा मात्र करने का फल बतलानेवाला चौबीसवां कल्प समाप्त हुआ ।
अथ माँस-त्याग के फल के विषय में एक कथा कहते हैं, उसे सुनिए— १२. मांसत्यागी चाण्डाल की कथा
अवन्तिदेश में उत्पन्न हुए मानवरूपी कमलों के निवास के लिए तड़ाग सरीखी उज्जयिनी नगरी में नगर के बाहर निवास करने वाला और देविला नाम की पत्नी के साथ रतिविलासरूप वाणवृत्ति के लिए धनुष- जेसा 'चण्ड' नाम का चाण्डाल रहता था। जिसने बीच-बीच में खाने के लिए अपने गृह की एक दिशा में मांस रूप शाक स्थापित की थी और मध्य में पीने के लिए दूसरी दिशा में सुग से भरा हुआ घट स्थापित किया था । एवं जो उन दोनों दिशाओं के मध्य में बैठकर मांस रूप शाक से प्रचुर सुरापान करता जाता था और बीच-बीच में चमड़े की रचना के संप्रदायवाली वर्मयष्टि बटता जाता था। उस समय उसकी शराब ऐस जहरीले सर्प के विष से विषैली हो गई, जो कि आकाश में विहार करने से उड़ते हुए पक्षि-शावक की चोंच से खण्ड-खण्ड किये जाने से स्त्राव सहित था ।
उसने इसी अवसर पर ऐसा चारण ऋद्धि-धारक ऋषि युगल देखा, जो कि उसके गृह के निकटवर्ती मार्ग में आकाश से उतरता हुआ दृष्टिगोचर हो रहा था। जिसने धर्मोपदेश और पूर्वभवों को प्रकाश करने वाली विस्तृत धर्मकथाओं द्वारा शिष्य जनों के उपकार के लिए इच्छानुसार विहार किया था एवं जो आकाश से अवतरण करता हुआ ऐसा मालूम पड़ता था - मानों मूर्तिमान स्वर्ग व मोक्षमार्ग का जोड़ा हो है - इसे देखकर चाण्डाल को कौतुहल हुआ। यह भी उनके समीप गया और नगर के बीच मुनि-दर्शन से व्रत ग्रहण कर रहे श्रावक समूह को देखकर इसने उन्हें प्रणाम किया और सुनन्दन मुनि के आगे गमन करने वाले ज्येष्ठ भगवान् अभिनन्दन मुनि से इसने अपने योग्य व्रत ग्रहण करने की याचना की ।
१. चिन्तनात् । २. देशोना जना एव नलिनानि कमलानि तेषां वसने यरः । ३ उज्जयिन्यां । ४. बाण | ५. मध्ये मध्ये भक्षणं शाकं । ६. दियो । ७. संप्रदायां । ८. चष्टि । ९ यावसति । १०. विषये । ११. नगरमध्ये मुनिदर्शनात् ।
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सप्तम आश्वास:
उपकाराय सर्वस्य पर्जन्य' इव धार्मिकः । तत्स्थानास्थानचिन्तेमं अष्टिबन्न हितोक्तिधु' ।। ४३ ॥ इत्यवगम्य सम्यगवत्रियोषोपयोगाइ धगतंतवासन परासुतायोगस्तन्मातङ्गमेवमबोचत्-'महो मातङ्ग, लघुभयान्तरातसज्जा रज्जू "सृजतस्तरमध्ये सत्र 'सभिवृत्तिनतम्' इति । मातङ्गस्तथा प्रतिपयोपसन" च तमचका पिशित प्राश्य' 'माधवमिदं स्थानकं नायामि तावन्मेऽस्य निवृत्तिः' इथभिवाय समासावितमदिरास्थानः प्रतिपन्न मानस्त वुप्रतरगरभराल्लघू'लचितमतिप्रसरस्त निवृत्तिमलभमानचित्तोऽपि प्रेत्य'' तावामात्रयतमाहात्म्येन या कुले यक्षमुम्यत्वं प्रतिपदे । भवति चात्र लोक:
घण्डोऽवन्तिषु मातङ्गः पिशितस्प निवृत्तितः । अस्पल्पकालभाविन्या: १३ प्रपेदे यसमुत्पताम् ।। ४४ ॥ इटमुपासकाध्यपने मांसनिवृत्तिकलाख्यानो माम पञ्चविशतितमः कल्पः ।
धार्मिक महापुरुष समस्त लोक का उपकार करने के लिए मेष-सरीखे होते हैं। अर्थात्--जैसे मेघ सब का उपकार करने के लिए हैं वैसे ही धार्मिक महापुरुष सब का उपकार करने के लिये है और जैसे स्थान
और अस्थान का विचार किये बिना मेघ सर्वत्र घरसता है, वेसे हो धार्मिक पुरुप कल्याणकारक धर्मोपदेश में स्थान और अस्थान का विचार नहीं करते । अर्थात्--उन्हें यह उत्तम है और यह नीच है, इस प्रकार की चिन्ता । विचार ) नहीं होती। अभिप्राय यह है, कि वे समस्त सर्व साधारण प्राणियों के प्रति धर्म का निरूपण करते हैं॥ ४३ ॥
ऐसा निश्चय करके भगवान 'अभिनन्दन' मुनि ने अवधिज्ञान के उपयोग से इस चाण्डाल की निकट मृत्यु जान ली । उन्होंने उससे मामा--'अही पाल ! नास बस से भरे हुए पड़ों के मध्यदेश में बंधी हुई चर्म-रज्जु को बांटनेवाले तुम्हारे लिए जिस वस्तु ( मांस-आदि ) के पास जाकर उसे एक बार भक्षण करली, उसको समीपता छोड़कर दूसरी बार जब तक नहीं पहुंचते हो, अर्थात्-जब तक रस्सी बट रहे हो, उसने समय तक तुम्हें उसका त्याग है।
चाण्डाल उक्त नियम लेकर उस स्थान पर पहुंचा। उसने मांस भक्षण करने नियम किया कि जब तक मैं इस स्थान पर न आऊँ तब तक के लिए मुझे इसका त्याग है।' इसके बाद वह मुरा से भरे हुए घड़े के पास पहुंचा और उसने सुरा पो ली। पीते ही जहरीले सांप के तीनतर जहर के प्रभाव से उसको बुद्धि का प्रसार शीन नष्ट हो गया । यद्यपि वह मुरा का त्याग न कर सका तथापि मरसार केवल उतने मात्र नत के माहात्म्य से बह यक्ष जाति के देव-समूह में प्रधान यक्ष हुआ।
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है--
अवन्ति देश में 'चण्ड' नाम का चाण्डाल बहुत थोड़े समय में होनेवाली मांस की निवृत्ति (त्याग ) से मरकर पक्ष देवों में प्रधान हुआ। ४४ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में मांस-रयाग का फल निरूपण करनेवाला पच्चीसवां कल्प समाप्त हुआ। १. मेघः। २. एष उत्तमः एष नोचः धर्मकथने इति चिन्ता न, सर्वेषां धर्मो बाच्यः । ३. जात। *. मरणं ।
४. मांसमद्यमध्यबा। ५. कुर्वतः । ६. मस्मिन् पावें पलूक्तं तत्समीपं सक्त्वा वित्तीयवारं याचमायाति तायत्कालपर्यन्तं तद्वतं । ७. गत्वा । ८. स्थानं । ९. मुक्त्वा । *. 'तनतरगराल्लघू इति १० । १०. शीघ्र । ११. मद्यनियम। १२. मृत्वा । १३ सेवन-शीलायाः ।
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३०६
यास्तिलकचम्पूकाव्ये अथ के ते उत्सरगुणाःअणुनतानि पञ्चव त्रिप्रकारं गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि परवारि गुणाः स्युदिशोत्तरे ॥ ४५ ॥ : तत्रहिसास्तेयान्ताबह्मपरिग्रहविनिप्रहाः । एतानि देशतः एश्वाणवतानि प्रचक्षते ।। ४६ ।।। संकल्पपूर्वक: सेध्ये नियमो बसमुच्यते । 'प्रवृत्तिविनिवृत्ती वा सवसत्कर्मसंभवे ।। ४७ ।। हिसायामनते घौर्यामब्रह्मणि परिग्रहे । वृष्टा विपतिरत्रव परत्रैव च धुर्गतिः ॥ ४८॥ परस्यात्प्रमावयोगेन प्राणिषु प्राणहापनम् । सा हिंसा रक्षणं तेषामहिसा तु सता मला || ४९ ।। विकयाक्षकषायाणां निसायाः प्रणयल्प प । अन्यासाभिरतो सन्तुः प्रमत्तः परिकोसितः ।। ५० ।। देवतातिथिपिनर्थ मन्त्रोधमयाय' वा । न स्यात्याणिनः साहिता नाम तव्वतम् ।। ५१ ।। गृहकार्याणि सर्वाणि दृष्टिपूतानि कारयेत् । नवव्रध्याणि सर्वाणि पटपूतानि योजयेत् ॥ ५२ ।। प्रासन शायनं मार्गमनमन्यच्च वस्तु यत् । अवष्टं तन सेवेत अपाकालं भजनपि ।। ५३ ॥
__. श्रावकों के उत्तर गुण[अब श्रावकों के उत्तरगुण बतलाते हैं
पाँच अणुव्रत, तीन गुणप्रत और चार शिक्षानत ये बारह उत्तरगुण हैं ।। ४५ ।। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पांच पापों के एकदेश त्याग करने को पांच अणुव्रत कहते हैं ॥ ४६॥"
बत का लक्षणसेवनीय वस्तु का संकल्पपूर्वक त्याग करना व्रत है अथवा प्रशस्त कार्यों ( दान, पूजा व व्रतादि ) में प्रवृत्ति करना और अप्रशस्त ( निन्द्य ) कार्यो ( मिथ्यात्व-आदि ) के त्याग करने को ब्रत कहते हैं ।। ४७ ।।
पांच पापों का कटुक फलहिंसा, झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पाप क्रियाओं में प्रवृत्ति करने से इस लोक में भयानक दुःख और परलोक में दुर्गति के दुःख भोगने पड़ते हैं ।। ४८ ।।
. अहिंसा का लक्षण-प्रमाद के योग से प्राणियों के प्राणों का घात करने को सज्जनों ने हिंसा मानी है और उनकी रक्षा करना अहिंसा मानी है ।। ४९ ॥
प्रमस का लक्षण-जो जीव, चार विकथा, चार कषाय, पाँच इन्द्रिय एक निद्रा और एफ मोह, इन पन्द्रह प्रकार के प्रमादों के अभ्यास में अनुराग करने वाले प्राणियों को प्रमत्त कहा गया है ।। ५७ ॥
जो मानक देवताओं की पूजा के लिए, अतिथिसत्कार के लिए, पितरों के लिए, मन्त्रों को सिद्धि के लिए, औपवि के लिए अथवा भय-निमित्त सब प्राणियों की हिंसा नहीं करता, उसका वह अहिंसा मत . है ।। ५१ ॥
पानी वगैरह को छानकर उपयोग करना-- समी गृहमायं देखभाल कर कराने चाहिए और समस्त तरल पदार्थ (घी, दूध, तेल व जलादि ) वस्त्र से छानकार उपयोग में लाने चाहिए ॥५२॥ आसन, शय्या, मार्ग, अन्न, और जो कुछ भी दूसरे पदार्थ है उन्हें पथासमय सेवन करता हुआ भी बिना देखे शोधे सेवन न करे ॥ ५३॥
१. दानपूजावतादौ । २. मिध्यात्वाविरत्पादौ । ३. त्याग । ४. भयनिमित्तं च ।
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ससम आश्वासः
३०७
दर्शनस्परसंकल्प'संसर्प त्यसभोजिता: । हिंसनाकाबनप्रायाः 'प्राशप्रत्यूहकारकाः ॥ ५४ ॥ अतिप्रसङ्गहानाय” तपसः परिदये । अन्तरायाः स्मृता सर्बितबीजविनिक्रियाः ॥ ५५ ॥ महिलातरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये । निकायां यजपे तिमिहामुत्र व युःखवाम् ॥ ५६ ॥ आधिलेषु सर्वेषु पभावविहिलस्थितिः । गृहासमी समीहेत शारीरेऽवसरे स्वयम् ॥ ५७ ।। संधान पानकं धान्य पुष्पं मूल फलं बलम् । जीवयोनि म संग्राहां यच्च जोवपातम् ।। ५८॥ अमिध! "मिश्रमुस्सगि १२ "कालदेशवशाधयम् । वस्तु किचित्सरित्याज्यमपोहास्ति जिनागमे४॥ ५९ ।।
यवन्तः विरप्राय हेयं नालोनलादि तत् । अनन्तकायिकप्राय" "बल्लोकदाविक त्यजेत ॥१०॥ विषलं १ हिवाल प्राश्यं प्रापेणानवता गतम् । शिम्बयः२१ २सकलास्यास्याः साधिताः 'सफलाइच याः ।।६१॥
चम, हड्डो, कुत्ता, बिल्ल
भोजन के अन्तराय-गीला चमड़ा, हड्डी, मांस, रक्त, पोप-आदि का देखना, रमः स्वला स्त्री, शुष्क
लो व चाण्डाल-आदि का छु जाना, भोज्य पदार्थ में 'यह मांस की तरह है' इस प्रकार का बुरा संकल्प हो जाना, भोज्य पदार्थ में मक्खी वगैरह का गिरकर मर जाना, त्याग को हुई वस्तु को भक्षण कर लेना, मारने, काटने, रोने, चिल्लाने-यावि की आवाज सुनना, ये सब भोजन के अन्तराय ( विघ्न पैदा करनेवाले ) हैं । अर्थात्-उक्त अवस्थाओं में धार्मिक पुरुष को भोजन छोड़ देना चाहिए ।। ५४ ।। ये अन्तराय अतरूपी बीज की रक्षा करने के लिए वाड-सरीखे हैं, इनके पालने से अतिप्रसङ्ग दोष की निवृत्ति होती है,
और तपकी वृद्धि होती है, ऐसा आचार्यों ने माना है ।। ५५ ।। अहिंसानत को रक्षा के लिए, व मूलगुणों को विशुद्धि करने के लिए इस लोक व परलोक में दुःख देनेवाले रात्रि भोजन का त्याग कर देना चाहिए ।। ५६ ॥ गृहस्थ को चाहिए, कि जो अपने अधीन { गो, दासो व दास-आदि) हों, पहले उनको भोजन कराये पीछे स्वयं भोजन करे और शारीरिक अवसर ( भोजनादि ) में स्वयं यत्न करना चाहिए ।। ५७ ।। प्रसजोबों को राशिरूप अचार, पानक, धान्य, पुष्प, मूल, फल, पत्ता, जो कि जीवों की योनि । उत्पत्तिस्थान ) हैं, ग्रहण नहीं करना चाहिए ( भक्षण नहीं करना चाहिए ) तथा कोड़ों से खाई हुई घुनी वस्तु को भी उपयोग में नहीं लानी चाहिए ॥ ५८ ॥ आचार शास्त्र में कोई वस्तु ( जीव-योनि होने से ) अकेली त्याज्य कही है, कोई वस्तु किसी के साथ संयुक्त ( मिल जाने ) से त्याज्य हो जाती है । कोई पदार्थ निरपवाद होने से त्याज्य होता है, अर्थात्कोई वस्तु सर्वदा त्याज्य होती है। कोई वस्तु अमुक देश ( स्थान ) के आश्रय हो जाने से त्याज्य हो जाती है। कोई अमुक काल ( चन्द्रग्रहण व वर्षाकाल-आदि) का आश्रय पाने से त्याज्य होती है एवं कोई पदार्थ अमुक दशा ( अवस्था) का आश्रय हो जाने से त्याज्य होता है। परन्तु ये बातें पिण्ड बुद्धि-आदि शास्त्रों से विस्तार पूर्वक जानने के लिए शक्य हैं ।। ५९ ॥
.. अहिंसा की रक्षार्थ दूसरे आवश्यक कर्तव्य-जिसके माध्य बहुत से छिद्र हों, ऐसी कमल-इंडी-आदि शाकें नहीं खानी चाहिए, क्योंकि उनमें आगन्तुक त्रसजीव होते हैं और जो अनंतकारा हैं, जैसे-लताएं, १. मांसरुधिरादीनां । २. श्व-रजःस्वलादीनाम् । ३. इदं मांसमिदं रुधिरं इत्याशयः। ४. मृतजीवजन्त्वादिभिरशुद्धता ।
५, प्रत्यास्मातान्नसेवनात् या परिहृताभ्यन्त्रहरणं । ६. भोजनविघ्नाः या भोजनान्तरामाः । ७. त्यागाय । ८. प्रतधीजवृत्तयः । ९, गोदासोदामादिषु । १०. फेवलं । ११. संमुफ्तं । १२. निरपवाद। १३. देशाश्रयं कालाययं गवस्थाश्रर्य च, एतच्च देशान्तरं पिण्डशुद्धधादिशास्त्रम्यो विस्तारण प्रतिपत्तव्यं । १४. किंचित् स्याज्यमपि वस्तु वर्तते । १५. अखण्डाः । १६. गुडूच्यादि । १७. सूरणादि । १८. दिखण्डं । १९. 'माचमुगादि' टिएस०, 'माषमुद्गत्रणकादिमान्य 401 २०.जीर्णतां प्राप्त द्विदलं, नवीन फवाचिचणकादि अनबहमपि प्राश्य । २१. फलयः । २२. अखण्डिता । २३. 'रदाः' ५०, 'राक्षा अपि' टिन, 'रद्धाः' दि० च। *. 'सकलाययाः' इति फ० |
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३०८
यशस्तिलचम्पूकाव्ये
ताहिंसा कुतो यत्र बल्लारम्भपरिग्रहः । ववके व कुशीले च नरे नास्ति बाता ।। ६२ ।। शोकसंतापसन्द 'परिदेवनदुः लघोः । भवन्स्वपरयोर्जन्तुरसदेद्याय जायते ॥ ६३ ॥ haratमा माषो पस्योपजायते । जीवो जायेत चारित्रमोहस्यासी समाश्रयः ॥ ६४ ॥ मंत्री प्रमोदका वच्यमाण्यस्य्यानि यथाक्रमम् । सत्वं गुणाधिके श्लिष्टे निर्गुणेऽपि च भावयेत् ।। ६५ ।। कापेन मनसा वाचापरे सर्वत्र वेहिनि । अदुःखनननी वृत्तिमंत्री मंत्रीविवो भता ।। ६६ ।। तोगुणाधिके पुंसि प्रयाभयनिर्भरः । जायमानो मनोरागः प्रमोवो विदुषां मतः ।। ६७ ।। वीनाभ्युद्धरणे बुद्धिः कारुष्यं करुणात्मनाम् । हर्षामर्षोक्शिता वृत्ति मध्यस्थ्यं निर्गुणारमनि ।। ६८ ।। इत्थं प्रयतमानस्य गृहस्थस्यापि देहिनः । करस्यो जायते स्वर्गे नास्य बूरे त ।। ६९ ।। पुण्यं तेजोमयं प्रातुः प्राहुः पाएं तमोमयम् । तत्पापं पुंसि कि तिष्ठेद्दयावधितिमालिनि ॥ ७० ॥ सा क्रिया कागि नास्तीह पत्या हिंसा न विद्यते। विशिष्येते परं भाषावत्र मुल्यानुषङ्गको ॥ ७१ ॥
गुची ( गुरवेल) और सुरण आदि कन्द भी भक्षण नहीं करना चाहिए ॥ ६० ॥ पुगने ( प्रायः जीर्ण हुए ) मूंग, उड़द और चना आदि को दलने के बाद ही खाना चाहिए। बिना दले हुए मूंग व सारा उड़द आदि नहीं खाना चाहिए और अखण्डित ( पूरी ) समस्त फलियां रोधी हुई या बिना रांधी हुई ( कच्ची ) नहीं खानी चाहिए, क्योंकि उनमें सजीवों का वास होता है। उन्हें खोलकर शोधने के बाद ही संघकर ही या दिना
खानी चाहिए ॥ ६१ ॥ जहाँ बहुत आरम्भ और बहुत परिनह है, वहाँ अहिंसा कैसे रह सकती है ? तथा और दुराचारी मानव में दयालुता नहीं होती ।। ६२ ।। जो मानव स्वयं शोक करता है तथा दूसरों को शोक उत्पन्न करने में कारण होता है। स्वयं सन्ताप करता है तथा दूसरों को सन्तापित करता है, स्वयं रोता है और दूसरों को रुलाता है और जो स्वयं दुःखी होता है और दूसरों को दुःखी करता है, उसे असातावेदनीय कर्म का बन्ध होता है ।। ६२ ।। जिसके कषाय के उदय से अत्यन्त संक्लिष्ट परिणाम होते हैं, वह प्राणी चारियमोहनीय कर्म का बंध करता है || ६४ ॥
मंत्री प्रमोद व कारुण्यादि भावनाओं का स्वरूप समस्त जीवों में मैत्री भाव का चितवन करना चाहिए । जो ज्ञानादि गुणों में विशिष्ट हों, उनके प्रति प्रमोद भाव का चिन्तवन करना चाहिए। दुःख जीवों के प्रति करुणा भाव रखना चाहिए और गुणों से हीन ( असभ्य व उद्धत ) पुरुषों के प्रति माध्यस्य भाव का चितवन करना चाहिए ॥ ६५ ॥ मैत्रीभावना के ज्ञाताओं ने दूसरे समस्त प्राणियों के प्रति मन, वचन व काय से दुःख उत्पन्न न करने की इच्छा- युक्त वृत्ति को मैत्री भावना स्वीकार की है ॥ ६६ ॥ तप व ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट पुरुष को देखकर जो विनय के आधार से पूर्ण हार्दिक प्रेम उमड़ता है, उसे विद्वानों ने 'प्रमोद' कहा है ।। ६७ ।।
( दुःख) पुरुषों को दरिद्रता व रोगादि पीड़ा के दूर करने को बुद्धि को 'काय' कहते हैं और गुणों से शून्य मिथ्यादृष्टि असभ्यों के प्रति रागद्वेष न करने की वृत्ति को 'माध्यस्थ्य' कहते हैं ॥ ६८ ॥ इस प्रकार वनशील पुरुष को गृहस्थ हो करके भी स्वर्ग सुख हाथ में स्थित रहता है और उसे मोक्ष भी दूर नहीं है ।। ६९ ।। शास्त्रकारों ने पुष्य को प्रकाशरूप और पाप को अन्धकार रूप कहा है, अतः जिसके हृदय में दयारूपी सूर्य का प्रकाश हो रहा है, उसमें क्या अन्धकार रूप पाप ठहर सकता है ? ॥ ७० ॥ लोक में ऐसी कोई किया नहीं है, जिसमें हिंसा नहीं होती, किन्तु हिंसा और अहिंसा में केवल मुख्य व गोगभावों की विशे as: किमले सदा महत् पापं यदाsकस्मात् प्रसङ्गेन
१. रोदन 1
२. व्यक्ता । ३. गोधः । ४. मुख्यत्वेन कदाचिद् वषो भवति तदा स्वयं पापं स्यादित्यर्थः ।
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सान माश्वासः अनन्नपि भवत्पापी निमपि न पापभाक् । अभियान विशोषेण यथा धीवरकर्षको ॥ ७२ ॥
कस्यमित्संनिविष्टस्य 'बारात्मातरमम्सरा' । वपुःस्पर्शाविशेऽपि शेमुषी तु विशिष्यते ।। ७३ ।। सवुक्तम्परिणाममेव कारणमाहुः पुष्पपापयोः कुबालाः । तस्मात्पुण्योपच्या पापापचयश्च सुविधपः ॥ ७४ ।।
-आत्मानुशासन, श्लोक २३ । वपुषो वचसो पापि शुभाशुभसमाधया। क्रिया वित्ताविन्स्येयं तवत्र प्रयतो भवेत् ।। ७५ ॥
क्रियान्यत्र क्रमेण स्यास्कियत्स्वैव च बस्तुषु । जगत्त्रयादपि स्फारा वितं तु मणतः त्रिया ॥ ७६ ।। तथा लोकोक्ति:
एकस्मिन्मनसः कोणे पुंसामुत्साहशालिनाम् । अनायासेन समान्ति भुवनानि चतुवंश ॥ ७ ॥
षता है। अर्थात्-जच निर्दयी मानव द्वारा मुख्यता से संकल्पपूर्वक वध किया जाता है तब उसे महान पापबन्ध होता है और जब उसके द्वारा प्रसङ्ग से ( कृषि-आदि जीवनोपाय के उद्देश्य से ) बध किया जाता है, तब उसे स्वल्प पाप होता है ।
भावार्थ-पं० आशाघर ने भी कहा है, कि गृहस्थाश्रम कृषि-आदि आरंभ के बिना नहीं होता और आरंभ हिंसा विना नहीं होता, अतः मानव को संकल्पी हिंसा के त्याग करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। ७ ।। संकल्प में भेद होने से अथवा मानसिक अभिप्राय की विशेषता से घीवर मछलियों का घात न करता हुआ भी पापी है और किसान मारते हुए भी पापी नहीं है । अर्थात्-यह 'मैं कुटुम्ब के पालन के लिए धान्य पेदा करूँगा' इस विशुद्ध चित्तवृत्ति पूर्वक कृषि में प्रवृत्त होता है, जब कि धीवर बहुत मछलियां मारूंगा, इस दुरभिप्राय से नदी में जाल डालता है ।। ७२ ।। कोई एक मनुष्य, जिसके एक पार्श्वभाग में उसकी पत्नी वैठी है और दूसरे पावभाग में उसकी माता बैठी हुई है और वह उन दोनों के बीच में बैठा है, यद्यपि वह दोनों के शरीर का स्पर्श कर रहा है, उस अङ्ग-स्पर्श में कोई भेद · ही है, परन्तु उसकी मानसिक भावना में बड़ा अन्तर है। अर्थात्-वह माता के स्पर्श-काल में विशुद्ध चित्तवृत्ति के कारण पुण्यवान है और परलो के स्पर्शकाल में सक्लिष्ट चित्तवृत्ति के कारण पापो-कामी है ।। ७३ ।।
___निस्सन्देह प्रवीण पुरुषों ने परिणामों को ही पुण्य-पाप का कारण कहा है, अनः शुभ परिणामों से पुण्य का संचय करते हुए पाप की हामि करनी चाहिए ।। ७४ ।। मन के निमित्त से हो काय व वचन की क्रिया भी शुभ और अशुभ का आश्रय करती है। मन को शक्ति अचिन्तनीय है, इसलिए मन को नियन्त्रित ( काबू ) व शुद्ध करने में प्रयत्नशील होना चाहिए ।। ७५ ।। शरीर व वचन की क्रिया तो क्रमिक (कम से) होती हैं और कुछ प्रतिनियत ( सीमित ) स्थूल पदार्थों में ही होती है, अर्थात्-कुछ ही पदार्थों को अपना विषय बनाती है परन्तु मन को क्रिया तो क्षणमर में तीन लोक से भी महान होती है। अर्थात्-मन एक क्षण में तीन लोक के विषम में सोच सकता है। अत: विवेकी मन को नियन्त्रित करने में सावधान होवे अन्यथा महान् पाप बन्ध होगा ।। ७६ ॥
इस विषय में एक लोकोक्ति भी है
उद्यमशील पुरुषों के मन के एक कोने में विना परिश्रम के चौदह लोक समा जाते हैं, अर्थात्-मन की १. एकस्मिन् पार्श्वे दारान एकत्र मातरं एसयोमध्ये उपविष्टस्य स्पर्श विशेषो न परन्तु मनसि वियोषोऽस्ति । २. मन्ये ।
*. ह. लि. क., ख०, ग०, १०, प्रतियों है संकलित-सम्पादक । ३. काये वयसि च ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पयः पवनानीनां गुणादीनां च हिंसनम् । यावत्प्रयोजनं स्वस्य तावत्कुर्यादजंतु' यत् ॥ ७८ ॥ ग्रामस्वामिस्वकार्येषु यथालोकं प्रवर्तताम् । गुणदोष विभागेऽत्र लोक एव यतो गुदः ॥ ७९ ॥ दर्पण का प्रभावाना द्वीन्द्रियादिविराटने । प्रायश्चित विधि कुर्याद्य थादोवं यथागमम् ॥ ८० ॥ प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चितं मनो भवेत् । एतच्छुद्धिकरं कर्म प्रायश्चितं प्रचक्षते ॥ ८१ ॥ Betwasant न कृच्छ्रं धातुमर्हति । तस्माद्धताः प्राज्ञाः प्रायश्चितप्रदाः स्मृताः ॥ ८२ ॥ मनसः कर्मणा वाचा यष्कृतमुपाजितम् । मनसा कर्मणा वाचा तसबंध विहापयेत् ॥ ८३ ॥
1
अचिन्त्य शक्ति है उससे चौदह लोक जाने जाते हैं ।। ७७ ।। पृथिवीकायिक, जलकायिक, वायुकायिक, अग्निकायिक एवं घास आदि वनस्पत्तिकायिक इन पांच स्थावर - एकेन्द्रिय जीवों की विराधना उतनी ही करनी चाहिए, जितने से अपना प्रयोजन सिद्ध हो एवं जिस स्थान में दो इन्द्रिय-आदि सजीव नहीं हैं, उस स्थान से
पृथिवी द जल आदि अपने प्रयोजन के अनुसार ग्रहण करना चाहिए ॥ ७८ ॥ ग्राम-कार्य ( ग्राम सेवा आदि), स्वामि कार्य व निजी कार्यों ( कुटुम्ब संरक्षण व परोपकार आदि ) में लोकरीति के अनुसार प्रवृत्ति करनी चाहिए। क्योंकि इन कार्यों के गुण-दोषों का पृथक-पृथक बोध कराने में लोक ही गुरु है। अर्थात् लोकिक कार्यों को लोकरीति के अनुसार ही करना चाहिए ।। ७२ ।।
प्रायश्चित्त का विधान
मद से अथवा कषाय से दो इन्द्रिय-आदि बस जीवों का घात हो जाने पर अपने दोष के अनुकूल प्रायश्चित शास्त्र का अनुसरण करके प्रायश्चित्त विधि करनी चाहिए ॥ ८० ॥ 'प्रायः' शब्द का अर्थ साधुलोक है और उसके मन को चित्त कहते हैं, अतः साधुलोक की मानसिक शुद्धि करनेवाले प्रशस्त कार्यो ( उपवासयदि तपों) को आचार्य प्रायश्चित्त कहते हैं ।
भावार्थ - प्रायश्चित्त करने से अपराधी जन की मानसिक शुद्धि होती है और दूसरे साधर्मी जनों का मन भी सन्तुष्ट हो जाता है । इसके ग्रहण करने से पुनः अकार्य ( असंयम ) में प्रवृत्ति नहीं होती और जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का पालन भी होता है, इत्यादि अनेक लाभ होते है ॥ ८१ ॥
प्रायदिवस प्रदान का अधिकार
आचाराङ्ग आदि द्वादशाङ्ग श्रुत का धारक भी एक गुरु प्रायश्चित्त देने में समर्थ नहीं है; क्योंकि अकेला एक विद्वान्, देश व काल- आदि समस्त अवस्थाओं के विचार करने में समर्थ नहीं हो सकता | टिप्पणीकार ने भी लिखा है- 'आचार्य को गृहस्थ श्रावकों को प्रायश्चित्त देने के अवसर पर बहुत से विद्वानों को साक्षी करना चाहिए।' अतः आगम में बहुश्रुत अनेक विद्वान् प्रायश्चित्त देने के अधिकारी माने गए हैं। अर्थात् - आचार्य, साधुजनों आदि के लिए प्रायश्चित्त देने के अवसर पर देश व कालादि का विचार करने के लिए बहुश्रुत विद्वान् साधुओं को भी नियुक्त करे ॥ ८२ ॥
पाप के स्याग की अमोघ रामबाण औषधि
[ इस मानव ने ] अशुभ मन, वचन व काययोग द्वारा जो पाप-संचय किये हैं, उन्हें उसके विपरीत शुभ मन, वचन व काययोग द्वारा त्याग करना चाहिए |
१.
यत्र स्थाने श्रसाः न सन्ति तस्मात् स्थानाद् गृहीतव्यं । * 'स्नं' क०, 'कृच्छ्रं च० । ३. समयं प्रायश्चित्तं
२. किन्तु गृहिणां दंडदाने बहवः साक्षिण: कर्तव्याः ४. त्यजेत् ।
।
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सप्तम आश्वास:
आत्मदेशपरिस्पन्यो मोगो योगविदा मतः । मनोवास्कामतस्त्रेषा पुण्यपापानवाश्रयः ॥८४ ॥ हिसनामापौर्याधि कामे कर्मा विदुः । असत्यासम्पपासायना बधारगोधरम् ॥ ८५ ॥
मवेनियमावि स्याश्मनोव्यापारसंश्रयम् । एतविपर्यया शुभमेनेषु तत्पुनः ।। ८६ ।। हिरण्यपभूमीनां कन्याशयान्नवाससाम् । वानेहुविधश्शयनं पापमुपशाम्यन्ति ।। ८७ ।।
अनौषषसाथ्याना याबीनां बाहाको विधि: । यत्राकिषिकरो लोके तथा पापेऽपि मन्यताम् ॥ ८॥ निहत्य निखिलं पापं मनोवादेहदण्डनः । करोतु सफल कम वानयूनादिकं ततः ।। ८९ ।।
भावार्थ-प्रायः विवेक-हीन मानव मानसिक असंयम ( मद, ईर्षा व अनिष्ट-चिन्तवन-आदि ) और वाचनिक असंयम ( असत्य, असभ्य व मर्म-वेधक वचन बोलना ) और कायिक असंयम ( हिंसा, कुशील व चोरी-दि) द्वारा जो प-संवकर का, तो इसका कर्तव्य है कि इसके विपरीत मानसिक संयम ( अहिंसा, मार्दव-आदि) व वाचनिक संयम । हित, मित व प्रिय भाषण-आदि) और कायिक संयम ( अहिंसा, अचोय च ब्रह्मचर्य-आदि) Eाग पापों का त्याग करे ।
विमर्श यहाँ पर इलोक में 'विहापयेत्' का अर्थ टिप्पणीकार ने 'त्यजेत्' किया है उसी अर्थ का अनुकरण हमने भी किया है । आगे के श्लोकों से यही अर्थ ठीक मालूम पड़ता है ॥ ८३ ।।
योग का स्वरूप और भेदयोग-वेत्ता आचार्यों ने मन, बचन व काथ के निमित्त से आत्म-प्रदेवों के सकम्प होने को योग माना है। उसके तीन भेद है-मनोयोग, बचनयोग व काययोग । मन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना मनोयोग है। वचन के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना वचन योग है और काय के निमित्त से आत्म-प्रदेशों का सकम्प होना काययोग है। उक्त तीनों प्रकार का योग पुण्य व पाप कर्मों के आस्रव (आग• मन ) का कारण है । अर्थात्-शुभ मन, वचन व काययोग पुण्य कर्म के आरव का कारण है और अशुभ मन, वचन व काययोग पाप कर्म के आस्त्रब का कारण है ।। ८४ ॥ आचार्य जानते हैं कि प्राणियों की हिंसा करना, कुशील-सेवन करना व चोरी करना अशुभ काययोग है और असत्य, असभ्य और दूसरों के मर्म-भेदक अप्रिय एवं कठोरप्राय वचन बोलना अशुभ वचनयोग है ।। ८५ ।। विद्वत्ता व पूजादि का धमाड़ करना, ( अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से काम वासना से उत्पन्न हबा कोप, ) ईर्ष्या ( धर्म द्वेष ) करना, असूया ( दूसरों के गुणों में भी दोपारोपण करना । आदि विकृत मनोवृत्ति के व्यापार के आश्रयवाला अशुभ मनोयोग जानना चाहिए और इनसे विपरीत अहिंसा व मार्दव-आदि शुभ मनोयोग समझना चाहिए ।। ८६ ॥
पापों से बचने का उपाय सुवर्ण, पशु, पृथिवी, कन्या, शय्या, अन्न, वस्त्र तथा अन्य अनेक वस्तुओं के दान देने से पाप शान्त नहीं होता ।। ८७ ।। जिस प्रकार लोक में लङ्कन और औषधि द्वारा न होने वाले रोगों को नष्ट करने के लिए केवल वाझ उपचार व्यर्य होता है उसी प्रकार पाप के विषय में भी मानना चाहिए । अर्थात् मन, वचन व काय को वश में किये विना केवल बाह्य वस्तुओं के त्याग कर देने मात्र से पापरूपी रोग शान्त नहीं होता ।। ८८ ॥ इसलिए मन, वचन व काय के निग्रह द्वारा समस्त पाप नष्ट करके पश्चात् दान और पूजा-आदि सर्व शुभ कार्य करो ॥ ८ ॥ १. कामजः कोप: धर्मद्वेषः । २. दोषारोपो गुणेष्वमि । ३. एता विपर्ययात् अहिंसाब्रह्मास्तेयादिशुभपरिणामः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आप्रवृत्तनिवृत्ति सर्वस्येति लियः । संस्मृत्म गुमनामानि पुर्यानि वाविक विधिम् ॥ ९० ।। वावायुविरामे स्यात्प्रत्याल्पानफलं महत् । 'भोगशून्यमतः कालं नावहेदनतं प्रती ।। ९१ ।। एका जोपवयंमत्र परत सालाः क्रियाः । पर फलं तु पूर्वत्र “कृश्चिन्तामणेरिव ॥ ९२ ।। आयुष्मान्सुभगः श्रीमान्सुरूपः कोतिमानरः । अहिंसावतमाहात्म्यावेकरमावेव बायते ।। १३ ॥
धूयतामनाहिसाफलस्योपाख्यानम्-अन्तिदेशेषु समलोकममोरागमारामे' शिरीषनामे मृगसेनाभिमामो मत्स्यबन्धः स्कन्धावलम्बितगलनालायामरणः जमाना "पनीसहितः सानोलजलप्लाचितकूलशालेयमालय सिमा सरितममुसरन शेषमविपरिषदर्यमशिलमहाभागभूतिकल्पितसपर्य मिप्यास्वविरहितपम. वर्य श्रीयशोधराचार्य निधास्य १० समासन सुकृतासानहक्मत्वावरादव परित्यक्तपापसंपावनोपकरणग्रामः"
शयन के पहिले के काव्य "जब तक मेरी पंचेन्द्रियों के विषयों में प्रति नहीं हुई तब तक के लिए मेरे सब का त्याग हैं इस प्रकार प्रतिज्ञा करते हुए फिर पंचनमस्कार मंत्र का स्मरण करके निद्रा-आदि लेनी चाहिए ॥ ९ ॥ क्योंकि देव-वश यदि आयु क्षीण हो जाय तो माग से विशेष लाभ होता है, अतः वत्ती का कर्तव्य है, जिस काल में यह भोग न करता हो, उस काल को विना व्रत के न जाने दे । अर्थात्-उतने समय के लिए उसे भोग का प्रत्त ले लेना चाहिए। टिप्पणीकार ने भी लिखा है कि 'निद्रादि लेते समय भोग-शून्यता रहती ही है, अतः नियम लिये बिना काल व्यतीत न करे ।। ९ ।। अकेली जीवदया एक जोर है और बाकी की समस्त धार्मिक क्रियाएं दूसरी और हैं । अर्थात् अन्य समस्त क्रियाओं से जीवदया श्रेष्ठ है । अन्य समस्त बार्मिक क्रियाओं का फल खेती करले सरोखा ( भविष्य कालोन) है और जीवदया का फल चिन्तार्माण रस्न की तरह है, अर्थात्-चाही हुई चिन्तित वस्तु तत्काल देता है ।। ९२ ॥ केवल अहिंसा व्रत के प्रभाव से हो दयालु मानव दीर्घायु, भाग्यशाली, लक्ष्मीवान, सुन्दर व यशस्वी होता है ।। ९३ ।।
अहिंसा व्रत के पालक मृगसेन बीयर की कथा अब अहिंसा व्रत के फल के संबंध में एक कथा सुनिए
अवन्ति देश के शिरीष नामक ग्राम में, जहाँ के उद्यानों में सभी जन समूह आनन्द पूर्वक विचरते हैं, मृगसेन नाम का धीवर रहता था। एक दिन वह कंधे पर लटकाए हुए मछलियों के फंसाने के काटे व जालआदि साधनों को लेकर मछली लाने के लिए विचरता हुआ ऐसी सिमा नदी की ओर चला, जो कि अपनी तरङ्गों के जल प्रवाह द्वारा तटवर्ती वृक्षश्रेणी को और खेतों को डुबो रही थी।
___ मार्ग में उसने श्रीयशोधर आचार्य के दर्शन किये, जो कि समस्त मुनियों को सभा में श्रेष्ठ थे और समस्त भाग्यशाली राजाओं द्वारा पूजित थे और मिथ्यात्व से रहित ( सम्यग्दर्शन-पूर्वक ) धर्म का आचरण करनेवाले थे।
१ निद्रादिकं फुर्वा भीगस्य शून्यता स्यात्तेन नियम विना कालं न गमयत् । २. न निर्गमनं कुर्यात् । ३. दयायां ।
४. अन्यासा क्रियाणां फलं ऋषिवत्, दयायास्तु चिन्तामणिवत् । ५. मनोहरः आगमः – बागमनं यत्र पारामेषु । ६. पृयुरोमा, शकुली, बसारिणः, अपडलोणः, पाठीनश्च मत्स्पः । ७. कृत। ८. वृक्षणिसटां । *. 'इच्छाविहारविहितवर्मपये अथवा 'धर्मचर्य' इति कः । ९. मिश्यात्वेन विरहिता धर्मचर्या-चारित्रं यस्य स ल । १०. अवलोक्य-वृष्ट्वा । ११. समूह ।
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सप्तम आश्वासः
ससंभ्रम' संपावितदीर्घप्रगामः प्रकामं प्रगलदेनाः समाहितमनाः 'साघुसमाजसप्तम,र समस्तमहामुनिजनोत्तम, वेगा। छुपपन्नपुण्यगृह्मभावोऽनुगृह्यता कस्यचिव्रतस्य प्रदानेनार्य मनः' इत्यभाषत । भगवान-ननु कथमस्य पयःपसङ्गस्येषः सर्वच शकुलिविनाशनिःशफाशययशस्य" बलपहणोपदेशे प्रवीणमन्सःकरणमभूत् । अस्ति हि लोके प्रवाः, न खल प्रायेण प्राणिनां प्रकृति शुमार ५ दिशा तिरपुस्मुनिः सम्यगवयुद्ध सवितरजीवितावधिस्तमेवमवाबोत्-'अहो शुभाशयायतन, मद्यतचाहनि यस्तवावावे वानाय मीनः समापतति स त्वया न प्रभापयितस्या। पायधात्मवत्तिधिययमामि न प्राप्नोषि तावसव तप्रियत्तिः१२ । अयं पुनः पञ्चतिवावमारपवित्री मन्त्र सर्वदा सुस्थि. तेन तुस्यितेन च त्वया स्यातम्यः' इति । मृगसेनः-'ययाविशति महमानस्तथास्तु' इत्यभिनिविष्य तां शवलि-४ नीमनुसृत्य जनिसमालोपोs कालक्षेपमतनुकरण बैसारिण मासाथ स्मृतततस्तस्य ८ अवसि"चिलाय २० चोरघोरों१ निवघ्याल्याशीत । पुनरपरावकाशे 3 सौरिणोप्रवेश तभवाबूरसरशर्मा समाचरितकर्मा समेवाषडक्षीण-४ मक्षीणायुषमवाप्यामुञ्चत । तदेयमेतस्मिन्ननगिळे पाटोनवरिष्ठे पञ्चकृस्यो लने विपनमग्ने मुच्यमाने सति, अरत
उस घोवर का हृदय निकट में पुण्य प्राप्त करने योग्य था, इसलिये उसने पापार्जन में सहायक जालआदि उपकरण-समूह दूर स्थान पर छोड़ दिये और आचार्य श्री के पास पहुंचा और उन्हें सादर साष्टाङ्ग नमस्कार किया, उस समय उसके पाप विशेषरूप से गल रहे थे और उसकी चित्तवृत्ति भो एकान थी।
फिर उसने कहा-'हे साधु-समाज में श्रेष्ठ और समस्त महामुनियों में उत्तम मुनिराज ! आज भाग्य से ही पुण्य-संचय का यह अवसर प्राप्त हुआ है, अतः मेरे लिए कोई नत देकर अनुगृहीत कीजिए।'
यह सुनकर मुनिराज ने सोचा-'निस्सन्देह बगुला-सरीखे निरन्तर मछलियों का घात करने में निर्दयो चित्त वाले इस धीवर का मन वृत्त-ग्रहण के कहने में कैसे निपुण हुआ? निस्सन्देह लोक में ऐसी जनश्रुति है, कि प्रायः प्राणियों को प्रकृति ( स्वभाव' ) उत्तरकाल में होनेवाले हित-अहित के बिना नहीं पलटतो' यह सोचकर उन्होंने अवधिज्ञान का उपयोग कर उसे अल्पायु निश्चय करते हुए कहा-'हे शुभ मनोवृत्ति के आश्रय ! आज जो पहली मछली तुम्हारे जाल में फंस जाय, उसे तुम नहीं मारना और जब तक तुम्हें अपनी जीविका रूप मांस प्राप्त न हो, तब तक के लिए तुम्हारे मांस का त्याग है और यह पैतीस अक्षरों का पवित्र पंच नमस्कार मन्त्र है, इसका निरन्तर सुखी व दु:खी अवस्था में ध्यान करो।'
मृगसेन ने 'पूज्य की जो आज्ञा' ऐसा अभिप्राय करके व्रत ग्रहण कर लिए और निप्रा नदी पर पहुँच कर जाल डाल कर शीघ्र वृहत्काय ( बड़ी ) मछली पकड़ लो । उसने अपने मत को स्मरण करके पहचान के लिए उस मछली के कान में कपड़े की धज्जी वांधकर जल में जीवित छोड़ दिया । फिर निकट में सुख को प्राप्त होने वाले उसने दूसरे स्थान से नदी में जाल-विक्षेप-आदि कार्य किया। किन्तु वही मछली जाल में फिर आकर फंस गई, अतः उसने उसे फिर जीवित छोड़ दिया और जब वही मछलियों में श्रेष्ठ बृहत्कायवाली महामछलो उसके जाल में पांच बार फैसकर आपत्ति में फंसी तो भी उसने उसे जीवित जल में छोड़ दिया।
१. सादरं। २. हे मन!। ३. वकस्म। ४. मत्स्यविनागे। ५. निर्दयस्य । ६, उत्तरकाले । ७. समीप ।
८. प्रथमतः। ९. जाले । १०. न मारणीयः । ११. स्वकरमानीतं । १२. मांसस्य नियमः। १३. अभिप्राय कुस्वा । १४. सिना नदीं। १५. पी । १६. बहच्छरीरं । १७. मत्स्यं । १८, मत्स्यस्य । १२. कणें । २०. अभिज्ञामाय। २१. बस्नं। २२. त्यजति स्म । २३. स्थाने । २४. मरस्य ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'भस्तकमध्यास्त धनधुसृणरसाणितवणपुरपुररुप्रोकीलकान्तिशाली गीतमाला। तनु तं गृहीतवतापरि. स्थागभोवमानचेतनं मृगसेनमधामिकलोकव्यतिरिक्त रिक्तमान्तं परिधि," अतुम्सकोपारितार्या सार्या घण्टाश्या यमघण्टेव मिमपि कर्णफट क्षणम्सी कुटोरान्तःश्रितशरोरा "निविचरमर' प्रदायास्यात् ।
मृगसेनोऽपि तया निवेभप्रशानस्तन्मन्त्र स्मरणसचित्तः पुराणतरतरभित" मुन्ट्रोर्षे निषाय सान्वं निवायत्रतत्तभित्ताभ्यन्तरविनिःसृतेन सरीसृपसुतेन १ चष्टः कष्टमवस्यान्तरमाविष्टीच्युष्टसमये: घण्टया पृष्टः। पुनरनेन सामुष धमध्यानुगमोचितनिश्चययात्मनि विहितबनिन्दया शोधितश्च । ततः सा 'यदेवास्य व्रतं तदेव ममापि । अन्मान्तरे चायमेव मे पतिः' इत्याक्तिनिवाना समित्समिनमहसि "द्रविणोदप्ति हत्यसमस्नेहं हं वहाव ।
अय पिलासिनोविलोचनोत्पलपुनकक्तयन्दनमालायां विशालायां पुरि विश्यगुणामहादेवीधरो विश्वभरो विश्वभरो नाम नपतिः । धनश्रीपतिः पिसा च दुहितुः१५ सुनन्धोर्गुणरालो नाम श्रेष्ठो । तस्य किल गुगपालस्य मनोरथपान्यप्रीतिरपालिकायामेतस्यां २"कुलपालिकायामनेन मृगसेनेन समापनसल्याया" सत्याम, असो वसुधापतिविटकथासंसृष्टतपा २५प्रतिपन्नपाञ्चजनोनभावो नर्मभर्मनाम्नो मर्मसचिरस्य मुताय नर्मधर्मणे गुणपालभंष्ठिनखिल.
___ इतने में ऐसा सूर्य अस्ताचल पर्वत पर आश्रित हुआ—अस्त हो गया। जिमने धने कुङ्कुम रम से वरुणपुर की स्त्रियों की गालों को कान्ति लालिमा-युक्त-को है।
इसके पश्चात् स्वीकार किए हुए ब्रत का पालन करने से प्रसन्न चित्त होकर ग्यालो हाथ लौटे हुए धार्मिक मृगसेन को आते हुए जानकर उसकी पत्नी घण्टा उसपर विशेष कुपित हुई और यमराज की घण्टासरीखी कण-कट गाली-गलौज बकती हुई आपनी झोपड़ी में चली गई और अन्दर से किवाड़ निश्छिद्र ( बन्द ) करके बैठ गई।
पत्नी द्वारा गृह में प्रवेश रोका हुआ मृगसेन भी पंच नमस्कार मन्त्र के स्मरण करने में संलग्न चित्त हुआ और एक जीणं वृक्ष के खण्ड को तकिया बनाकर मस्तक के नीचे रखकर गाड़ निद्रा ले रहा था, कि इतने में उस वृक्ष की जड़ के भीतरी भाग से निकले हुए सांप के बच्चे ने उसे डस लिया, जिसके कारण विशेष फैट अवस्था में प्रविष्ट हुआ-मर गया। प्रभात होने पर जब उनकी घष्टा नाम की स्त्री ने उसे मा देखा तब उसने अपनी विशेष निन्दा करके विशेष शोकाकुल होकर इसी के साथ अग्नि में जल जाने का निश्चय किया तथा उसने निदान किया, कि 'जो इसका व्रत था वही मेरा भी है और दूसरे जन्म में भी यही मेरा पति हो' 1 उसके बाद उसने ईधन से प्रज्वलित कान्तिवाली चिता की अग्नि में घी-सरीखी चिकनी अपनी देह की आहुति दे दी-अपनी देह होम दी।
वैश्याओं के नेत्ररूपी कमलों के द्वारा दुगुनी हुई तोरण-पंक्तिबाली उज्जयिनी नगरी में विश्वगुणा' नाम की पट्टरानी का स्वामी और विश्व का पालक 'विश्वम्भर' नाम का राजा था। वहीं पर गुणपाल नाम का सेठ था । उसको धनधी नाम को प्रिया थी और सुबन्धु नाम की पुत्री थी । जव गुणपाल के मनोरथरूपी पधिक के लिए प्रतिरूपो प्याऊसो उसकी पत्नी इस मगसेन धीवर के आये हुए जीव से गर्भवती हुई तब वहाँ के १. अस्तपर्वतं । २. आश्रितः। ३. पृथग्भूतं । ४, ज्ञात्वा । ५. निश्छि। ६. कपारं । ५. पंचनमस्कार |
८. ९. पुराणतर--जीर्णवृक्षन्वण्र्ड काष्ठं। १०. निद्रां कुर्वन् । ११. अर्पण। १२. प्रविष्टः । १३. प्रभाते । १४. अग्निः । १५. अग्नी । १६, घृतच्चिकणं । १७. आहुतीचकार । १८. तोरण । १९ सुबन्धुपुत्री-तातः । २०. कुलभार्यायो। २१. गभियां। २२. भाण्डादिरतो नषः ।
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सलम आश्वासः
३१५ फालाकलापालंकृतरूपसमन्वितां सुताममाश्वत । श्रेष्ठी दुष्प्रभेन राजा तमा थाचितः 'यवि नर्मसचिवमुताय मुर्ता वितरामि' सावश्यं कुलकमव्यतिक्रमो धुरपवादोपकमश्च । अब स्वाभिवासनमसिक म्यागासे' तवा सर्वस्यापहारः प्राणसंहारश्च' इति निश्चित्य प्रियसुहवः श्रीदत्तस्य वणिरुपले निक्षतने समणिमेखलकलत्रं कसत्र मवस्थाप्य 'स्वापतेयसारं बुहितरं घारमसाकस्य सुलभकेलिवनवना शनिवेश कौशाम्बीदेशमयासोस् ।
अत्रान्सरे श्रीमहरिनमन्दिरनिविशेषमाधरितपर्यापर्यटनी शिवगुप्तमुनिगुप्तनामानी मुनी श्रीवत्तप्रतिवेश'निवासिनोपासकेन प्रथाविधिविस्तिप्रतिग्रही कृतोपचारविहो । सामङ्गणापयां बनश्रियमपश्यताम् । तत्र पुनिगुप्तभगवास्किल फेवरनलिस्नानपरुषवपुथमुगमनीयसंगताङ्गाभोगविषमवधध्यचिह्नरवर कमात्रालंकारजुषमाप्तकान्तापत्परिजविरहवेहसादा गर्भगोरवसेवा च शिशिराजलया वतिनी स्थलकमलिनीमिव मलिनच्छविमुदवसि परिसरे परगृहनासविशीयमाणमुखभियं धनश्रियं निव्याय'५ असो, महीयसा शास्लुएनसामावासः कोऽप्यस्याः कुक्षी महापुरुषोऽवतीर्णः, येनावतीर्णमात्रेणापि 'दुष्णुत्रेणेमं बराको यथावेशा बशामशिश्रयत्' इस्यभाषत । राजा विश्वम्भर को विटों के साथ वार्तालाप करने में शामिल होने के कारण भाण्डजन बहुत प्रिय थे। अतः उसने नर्मभर्म नाम के विदूषक के पुत्र नर्मधर्म के लिए गुणपाल सेठ से समस्त कलाओं की श्रेणी से अलकृत व सर्वाङ्ग सुन्दरी पुषी की याचना की। दुर्बुद्धि राजा की इस मांग से गुणपाल ने निश्चय किया-'यदि मिडाक के पुत्र को कन्या देता है नो मन्वनय कुल-परम्परा का उल्लङ्घन होता है एवं अपकीति भी फैलतो है और यदि स्वामी की आज्ञा को उल्लङ्घन करके भी यहाँ स्थित रहता हूँ तो सर्वस्व अपहरण के साथ-साथ प्राण भी जाते हैं।' ऐसा निश्चय करके रत्नमटित करधोनी से अलकृत जङ्घाओं वाली अपनी पत्नी को तो अपने प्रिय मित्र श्रीदत्त सेठ के यहां रक्खी और सार सम्पत्ति-सी अपनी पुत्री को अपने अधीन करके ( साष लेकर ) क्रीड़ावनों ब जलाशयों की स्थानीभूत 'कौशाम्बी' देश की ओर प्रस्थान किया ।'
इसी बीच में धनाड्य और निर्धनों के गृहों में समान चित्तवृत्तिपूर्वक ( भेद न रखते हुए ) आहारचर्या के लिए विहार करनेवाले शिवगुप्त व मुनिगुप्त नामके दो मुनिराजों ने श्रीदत्त के आंगन में बैठी हुई धनश्री को देखा, जिनका पड़गाहना श्रीदत्त के निकट रहनेवाले ( पड़ोसी) श्रावक द्वारा यथाविधि किया गया था, एवं जिनकी शारीरिक सेवा-शुश्रूषा की गई थी।
उनमें से मुनिगुप्त मुनि ने ऐसी धनश्री को देखकर कहा, जिसका शरीर तैल के बिना स्माम करने से रूम था 1 जिसके शारीरिक अङ्गों की विस्तृत कान्ति शुक्ल वस्त्र से सुशोभित थी। जो सौभाग्य-सूचक मङ्गलसूत्रमात्र आभूषण को प्रांतिपूर्वक धारण कर रही थी। जिसका शरीर हितेषी जन, पति, पुत्री एवं परिजनों के वियोग से कृश हो गया था। जो गर्भ के भार से खेद-खिन्न थी और जिसकी कान्ति उस प्रकार म्लान थी जिस प्रकार शीत ऋतु संबंधी दिवसों के निरन्तर आने से स्थल कमलिनी की कान्ति म्लान होती है। एवं जो गृहाङ्गण में स्थित थी और जिसकी मुखश्री दूसरे के गृह में रहने से म्लान हो रही थी।
'अहो आश्चर्य है कि निस्सन्देह इसकी कुक्षि में ऐसा कोई महान् पापों का स्थान ( बड़ा पापी) १. चेद्ददामि । २. राजादेशं। ३. तिष्टामि । ४. जघनं यस्याः । ५. भााँ, कलवं अघनं भार्या चेति पञ्जिकाकारः ।
६. धनं । ७. जलाशयः । ८. सघननिर्धनगृहसमवित्तम्। ९. निकटयासिना। १०. स्वीकारी। ११. शुषलवस्त्रयुक्ता जङ्गलिक मस्याः । १२. दवरकः दोरः । १३. वास्नो पासरः । १४. उदवसितं गृहं । १५. परिसरः अङ्गणं | १६. म्लायन्ती। १७. दृष्ट्वा । १८. पापानां। १९. दुष्टसुतेन ।
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यशस्तिलकपम्पूकाव्ये मुनिषः शिवगुप्तः–'मुनिगुप्त, भवं भाषिष्ठाः। यतो पद्यपीयं अष्ठिनो कानिषिदिनान्येवभूता एती पराधिष्ठाने तिष्ठति, तथाप्येतामग्वनेन सकसवणिक्पतिना मिरवषिशेवघोश्वरेण' विश्वभरेश्वरसुतावरण , भवितव्यम्' इत्यवोचत् ।
एतमच स्वकीयग्विालिन्दकगतः श्रीपत्तो निशम्य 'न खल प्रायेणासत्यमिवमुक्तं भविष्पति महः' हरबधार्य मोमवसर्प तरीहिसदत्तचेतावनिरासोत । घनश्रीश्च परिभातप्रसवदिवसा सती सुतमसूत । श्रीदत्तः"चित्रभानुरियायमाषयाश खलु वालिशः । “तसंभाप्तस्नेहायामेवास्य जनन्यामुपांशवण्ड: श्रेयान्' इति परामृष्य प्रसूतिदुःखेनातुच्छमूर्यापाधयां यनषियमाकलम्प निमपरिजन "रतीमुखेन 'प्रमोत'२ एवायं तनयः संजात:' इति प्रसिद्धि विधायाकार्य चंकमाचरितोपचारप्रपश्यं १'वरचं 'जिह्माब्राह्मो "रहस्पनिकेतः कृतापायसंकेतस्तं स्तम्यपमेतल्या समर्पयामास |
सोऽपि जनंगमः स्वर्भानुप्रण करेण रामरहिममिव १९ तं स्तनश्यम्परुष्य निःशताकावकाश देशमाश्रित्य महापुरुष आया हुआ प्रतीत होता है, जिस दुष्ट पुत्र के गर्भ में आने मात्र से इस बिचारी ने ऐसी शोचनीय दशा का आश्रय किया है।'
उक्त वात सुनकर मुनियों में मुख्य या ज्येष्ठ 'शिवगुप्त' मुनिराज ने कहा-'मुनिगुप्त ! ऐसा मत कहो, क्योंकि यद्यपि यह सेठानी कुछ दिनों तक ऐसी शोचनीय दशा का अनुभव कारती हुई दूसरे के गृह में रह रही है, तथापि इसका पुत्र समस्त वणिकों का स्वामी, राज-श्रौष्टी व निस्सीम निधि का स्वामी एवं विश्वम्भर राजा की राजकुमारी का वर होना चाहिए।'
अपने गृह के बाह्य द्वार पर बैठे हुए थीदत्त ने उक्त ऋषि की बात सुनकर निस्सन्देह महर्षि द्वारा कही हुई वाणी प्रायः झूठी नहीं होती।' ऐसा निश्चय करके उसने अपनी चित्तवृत्ति को उस प्रकार दुष्ट संकल्प को ओर लगाई जिस प्रकार दृष्टि-विषवाला सांप दर्शन मात्र से दुध संकल्प ( डंसने ) की ओर लगाता है। प्रसव के दिन समाप्त करके धनश्री ने पुत्र को जन्म दिया।
श्रीदत्त ने विचार किया-'निस्सन्देह यह बच्चा अग्नि की तरह अपने आश्रय का भक्षक है, माता का इस पर स्नेह उत्पन्न होने के पूर्व ही इसका गुप्तवय कर देना प्रेयस्कर है ।' अतः उसने धनयो को प्रसूति के कष्ट से विशेष मूर्छा का आश्य करनेवाली (मूच्छित-बेहोश) निश्चय कर अपने कुटुम्ब को एक वृद्ध स्त्री के मुख से 'बच्चा मरा ही पैदा हुआ है। ऐसी प्रसिद्धि करके कुटिल भाषा के रहस्य के स्थानी भूत हुए इसने सेवा का प्रपञ्च करनेवाले-घूसखोर एक चाण्डाल को बुलाकर वध का संकेत करते हुए उसके लिा बच्चा समर्पण कर दिया।
वह चाण्डाल भी राहु-सरीखे कृष्ण कान्ति वाले हाथ से चन्द्र-सरीखे बच्चे को आच्छादित करके १. मुख्यः। २. परगृहे । ३. 'स्थायिधन' टि. स्व०, 'शेवधिः निधिः' इति पञ्जिकाकारः । ४. राजकन्या-भा
भविता। ५, प्रयाणप्रवणालिन्दबहिरिप्रकोष्ठके। ६. मग्निवत् । ७. आश्रयं अदनातीति । ८. तस्मात् कारणात् । ९. गूदवधः । १०. संश्रयां । ११. वृद्धा स्त्री। १२. मृत एव जनितः । १३. श्वपचः, जनंगमः, अन्त्यायसायी, दिवाकीतिश्च पाण्डालः । १४. कुटिला । १५. वाणी। १६. शिशुं । १७. जनंगमस्य । १८. राहसदृशकृष्णेन । १९, 'चन्द्रमसमिय' टि० ख०, 'रामरश्मिः हरिणकिरणश्च श्वेतभानुश्चन्द्र इति यावत् । रामःसितेऽपि निर्दिष्टो हरिणश्न तथा मतः इति वचनात्' इति पञ्जिकाकारः । २०. एकान्तं ।
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सप्तम आपवासः
पुष्यपरमाणुपुञ्जभिव शुभशरीरभाजमेनमवेक्ष्य संजात करणारसप्रसर सप्रमुखः सुखेन विनिधाय धाम "वकीयमटीकल
लाषीनं
पुनरस्थं वापरभव भगिनोपतिरदोषायणिक पणपरमेष्ठी इन्द्रवतश्रेष्ठी विषयाडम्बरिशशण्ड मध्यपीठोपकण्ठ गोष्ठी 'ममनुसृतो "विषय समीड कीडागतगोपाल बाल कलपन परम्परालापात्सतर १०. "तानकसंतान परिवृतमनेकचन्द्रकान्तोपलान्तरालनि लीनमरणमणिनिधानमिव तं जातमुपलभ्य स्वयमदृष्टमन्वभववनरखा "सबुद्धधा साध्वनुरुध्य 'स्तनंधयावधान धूतवोधे राधे १४ सवायं गूढगर्भसंभवस्तद्भवः इति प्रबंधित प्रसिद्धिमंहान्तम परयोत्पसि महोत्स धमकात् ।
भीतः १"श्रवणपरम्परया समेतं वृत्तान्तमुपश्रुत्याश्रित्य च शिशुविनाशनाशयेन कीनाश इव तत्रिवंशम् " 'इन्द्रबत्त, अयं महाभागधेयो भागिनेयो ममेव तावद्वानि वर्षसाम्' इत्यभिषाय सभागिनोक "तोकमात्मावासमानीय पुरावत्क्र रमः १९ संज्ञपनार्थमन्तावसायिने प्रायच्छत । सोऽपि विवाफीतियपात पुत्रभाण्डः सत्वरमुपर गह्वरानुसारो २२ समोरवशविगलितधनाम्बराबरणं हरिणकिरणमिव ईक्षणरमणीयं गुणपालसनयमालोक्य सवधहृदयः प्रवल
३१७
एकान्त स्थान में ले गया। वहां पुण्य-परमाणुओं के पुञ्ज जैसे सुन्दर शरीर-धारक इस बच्चे की देखकर इसे विशेष करुणारस उत्पन्न होने से इसका मुख प्रसन्न हो गया, अतः वह जीवित बच्चे को सुख से लिटाकर अपने
स्थान पर चला गया ।
इसके पश्चात् श्रीदत्त का छोटा बहनोई 'इन्द्रदत्त' नामका सेठ, जो कि सभी वणिक् व्यवहार में श्रेष्ठ था, बेचने के लिए इकट्टे किये हुए बैलों के झुण्ड की अधीनता वाले स्थान के निकटवर्ती गोकुल में पहुंचा और उसे ऐसा बालक प्राप्त हुआ, जो कि बछड़ों के लिए हितकारक प्रदेश के निकट क्रीड़ा करने के लिए माये हुए ग्वालों के बच्चों की मुखपरम्परा के वार्तालाप से और छोटे बछड़ों के झुण्ड से घिरा हुआ था । एवं जो अनेक चन्द्रकान्त मणिमयी शिलाओं के बीच में मौजूद था। जो ऐसा मालूम पड़ता था - मानोंलाल मणियों की निधि ही है। उसने कभी स्वयं पुत्र का मुख नहीं देखा था, अर्थात् — उसके पुत्र नहीं था, इसलिए उसने इसे अपने पुत्र की बुद्धि से उठा लिया। उसने विशेष आग्रह पूर्वक अपनी पत्नी राधा से कहा-'सदा बच्चे को लालसा के ध्यान में अपनी बुद्धि प्रेरित करने वाली प्रिये राधे ! यह तुम्हारे गूढ़ गर्भ से उत्पन्न हुआ पुत्र है ! उसने उक्त प्रकार प्रसिद्धि को वृद्धिगत करते हुए पुत्रोत्पत्ति का महान महोत्सव किया ।
श्रीदत्त कर्णपरम्परा से यह समाचार सुनकर बच्चे का घात करने के दुरभिप्राय से यमराज सरीखा होकर इन्द्रदत्त के गृह पर पहुँच कर उससे बोला- ' इन्द्रदत्त ! यह महाभाग्यशाली भानजा मेरे ही स्थान पर बड़ा होना चाहिए ।' और बहिन महित बच्चे को अपने गृह पर ले आया एवं पूर्व की तरह निर्दय बुद्धि वाले उसने वध करने के लिए बच्चे को चाण्डाल के लिए दे दिया। वह चाण्डाल भी पुत्ररूपी बर्तन को लेकर शीघ्र ही एकान्त गुफा की ओर चल दिया। जब उसने ऐसे गुणपाल के शिशु को देखकर, जो कि वायु के संचार से जिसके ऊपर से मेघ-पटल का आवरण हट गया है, ऐसे चन्द्रमा सरीखा नेत्रों को प्यारा है। उसका
४. वणिग्व्यवहारः । ९. मुखपरम्परा । १६. यमः ।
१. स्वगृहं गतः । २. श्री दत्तस्य । ३. लघुभगिनी । गोकुलस्थानं । ७. वत्सेभ्यो हितप्रदेश | ८. समीपं । १२. वाळं । १३. पुत्र । १४. हे भायें ।। १५. कर्णपरम्परा । पुत्रं वा । १९, मारणार्थं । २० मातङ्गाय ।
२१. एकान्तं रहः
।
५. वृषभाः । ६. गोष्ठीनं १०. लघुया । ११. वृषभाः । १७. इन्द्रदत्तगृहं । १८. अपत्यं
२२. वायुपरवशेन । २३. चन्द्रमिव ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
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विvिine सरितनिकटे परित्यज्य यथायथमश्वल्लीत् ।
तत्राप्यसौ पुरोपानितपुण्य भाषापमातृभिरि
एतद्वीक्षणाक्षरक्षीरस्तनीभिरान बोदीरितनिर्भर - भाध्वनिभिः " प्रचारायागताभिः कुण्डोनीभिजलो "तुभिरुपविषभाग." "उपदान्तरमागतेन तवकण ar गोपालजन अस्तावतंत्र सभा सिन्य शोकस्तबकसुन्दरे सरोजसुहृद्धि 10 सति विलोकितः । कथितश्च सकलगोष्ठ प्रयेष्ठाय ""बल्लव फुलवरिष्ठाय निज्ञाननापसितारविन्दाय गोविन्दाय । सोऽपि पुत्रप्रेम्णा प्रमोदगरिम्णा चानीय जनितहृदयानन्दायाः सुनवायाः समर्पितवान् । अकरोच्या स्थैविरामन्दिरस्य ११ धमकीतिरिति नाम । ततोऽसौ क्रमेण परिस्वशः कमलेश व युखमनमनः " पण्यता यो कुरवल्ल 'बीलो बना लिलाव लावण्यमकरन्द समन्धानव*कामन्द "मतिकान्तरूपायतनं यौवनमासादितः पुनरपि राज्याश्वगज्योपार्जन सज्जागमनेन तेन श्रीवत्तेन दृष्टः । पृष्टरच गोविन्दस्तदवाप्तिपश्वम् । श्रीदत्तः 'गोविन्द मदीये सबने किमपि महत्कार्यमात्मनस्य २० निषेधमस्ति । सद हृदय दया से द्रवीभूत हो गया । अतः उसने उसे स्थूल वृक्षों से व्याप्त नदी के तट के समीप छोड़कर पूर्व की तरह वहाँ से शीघ्र चल दिया ।
इसके पूर्वोपाजित पुण्य के प्रभाव से वहां पर भी ऐसी गोकुल की गायों से इसका निकटवर्ती स्थान रोका गया, जो ऐसी मालूम पड़ती थीं— मानों इसकी घाएँ ही हैं - इस बच्चे को देखने से जिनके मनों से दूध झर रहा था । जिन्होंने आनन्द से विशेष माने की ध्वनि प्रकट की थी। जो घास चरने के लिए वहाँ आई हुई थीं और जिनके थन प्रचुर मात्रा में दूध से भरे होने के कारण कुण्ड सरीखे थे ।
ܝܟ
जब सन्ध्या के समय अशोक वृक्ष के गुच्छा सरीखा मनोज्ञ सूर्य अस्ताचल पर मुकुट- सरीखा शोभायमान हो रहा था, तब इसके पास आए हुए गोरक्षा में चतुर वालों ने इसे देखा और समस्त गोकुल - गोशाला के स्वामी व वालों के वंश में श्रेष्ठ एवं अपनी मुख- कान्ति द्वारा कमलां की कान्ति को तिरस्कृत करने वाले 'गोविन्द' नामके स्वामी से कहा । पुत्र स्नेह से व आनन्द से महान् गोविन्द भी उस बच्चे को घर ले आया और उसने हृदय में उत्पन्न हुए आनन्द वालो सुनन्दा नाम की प्रिया के लिए समर्पण कर दिया। लक्ष्मी के स्थान इस बालक का नाम 'धनकोति' खखा ।
इसके पश्चात् क्रम से बाल्यावस्था को छोड़कर श्रीपति सरीखे इसने ऐसी युवावस्था प्राप्त की, जिसमें युवक-जन के मन के ग्रहण करने में बेचने योग्य ( अर्धप्राय ) योवन से प्रमुदित हुई गोपियों की नेत्ररूपी भ्रमरश्रेणी द्वारा आस्वादन करने योग्य लावण्यरूपी पुष्परम पाया जाता है । जो प्रचुर सुख का काम ( मन्दिर ) है, अथवा पाठान्तर में पञ्जिकाकार के अभिप्राय से जिसमें प्रचुर सुख व कामदेव वर्तमान है और जो बेमर्याद खुबसूरती का स्थान है ।
एक दिन प्रचुर घी के व्यापार द्वारा धनोपार्जन की इच्छा से यहाँ आये हुए श्रीदत्त ने इसे देखकर गोविन्द से इसकी प्राप्ति के विषय में विस्तार से पूँछा और उससे कहा - 'गोविन्द ! मुझे अपने गृह पर अपने
१. आशु गतवान् दवल्ल आशुगम ने लुङि । २. धात्रीभिः । शिशु । ४. गोमतं । ५. तुणादनार्थ । ६. गोकुल । ७. समोष । ८. चपदान्तरं समीपं । 'भाग' ग० । ९. संध्यासमयं । १० र ११ वल्लवाः गोकुलिकाः । १२. त्रस्य । १३. लक्ष्मी गृहस्य । १४. हरिरिव । १५. मनोमये यदयं विक्रयमाणं अर्थमा तायव्यं । १६. गोपी । १७. आस्वाद्य । *. 'कामदं ( मन्दिर )' ख० । १८. कामन्दः कामः इति पञ्जिकायां । २०. मम पुत्रस्य महाबलस्य ।
१९. श्रीदत्तः प्राह ।
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सासम आश्वासः
प्रशरिमं लेख पाहयित्वा सत्वरं प्रहेतव्यः ।' गोविन्दः-'श्रेष्ठित्, एवमस्तु ।' लेखें बंधभलिखत्-'अहो विवितसमस्तपात वाल महाम:, एष वाचस्मशविनाशवान रोऽवश्व विख्यो माल्यो वा विधातव्यः' इति । धनकीतिस्तथा तातर्वाणपलिम्यामाविष्टः सायष्टम्म" गलालंकारसवं लेखं कृत्वा गत्वा च अन्मान्तरोपकाराचीन'मौनावतारसरसीमेकामसौं सत्प्रवंशपविरपर्यन्ततिनि बने वर्मधमापनयनाप पिप्रियालवालपरिसरे १२मि.संज्ञमस्वासीत् ।
अनावसरे विहितपुप्पाचविनोबा सपरिच्छवा निखिलविद्याविग्धा पूर्वभवोपकारस्निग्धा संजीवनौषधिसमामानङ्गसेनानामिका गणिका तस्यैव सहकारतरोस्तलमुपढौमय विलोक्य च निःस्पन्दलोचना चिराय तमनङ्गमिव
"मुस्तफुसुमास्वतन्त्रं १'लोहात्तरमित्रमशेषलक्षणोपलक्षितमूति घनौति पुमरायुधोसरस्वतीसमागमादेशरेतात्रणव प्रकटविकितकर्कोट येण' बन्धुरमध्यप्रवेशकण्टदेवाबावायापायप्रतिपावनाक्षरालेखं लेक्षमवाघयत् ।
लिलेल्या च तं वाणिजकापस हत्येन शिवकुर्वतो लोचनामनकरण्डानुपातेन बमल्लिएल्लवनिर्यापुत्र से कुछ जरूरी बात निवेदनीय है । अतः प्रकृष्ट घुटनों वाले इस युवक को यह पत्र देकर शीघ्र भेज दो।'
गोविन्द ने कहा-'श्रेष्ठिन् ऐसा हो ।'
उसने पत्र में यह लिखा था-'माप-तोल को कला के ज्ञाता महावल ! यह युवक हमारे वंश को ध्वंस करने के लिए अग्नि-सरीखा है, अत: पा तो या विष र समारने लायक गासलों द्वारा वध करने योग्य है।'
पिता ( गोविन्द ) और वैश्यपति ( श्रीदत्त) द्वारा माशापित हुआ धनकोति उस मुद्राङ्कित पत्र को अपने गले का आभषणरूप मित्र बना कर उस उज्जयिनी नगरी की ओर चल दिया, जो कि पूर्वजन्म में किये हुए उगकार के अधीन हुई मछली के जन्म के लिए बड़े तडाग-सरीखी है और नगरी के निकट पहुंचकर वह नगरी के प्रवेश-मार्ग के निकटवर्ती बन में मार्ग को थकावट दूर करने के लिए आम्रवृक्ष की क्यारी के समीप देश में निश्चेतनता पूर्वक सो गया।
इसी अवसर पर पुषण-वयन की क्रीड़ा करनेवाली, अपने सेवक जनों से सहित, समस्त विद्याओं में निपुण, पूर्वभब ( मछली को पर्याय ) में किये हुए उपकार से उससे स्नेह करनेवाली एवं संजीवन बूटी-सरीखी जीवनदात्री अननसेना नाम की वेश्या, उसी आम्रवृक्ष के नीचे गई और ऐसे धनश्री को देखकर निश्चल नेत्रों वाली हुई, अर्थात्-टकटकी लगाकर देखने लगी। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-पुष्परूपी बाणों की पराधीनता से रहित हुआ (वाणों के विना ) कामदेव ही है--जो पूर्वजन्म का मित्र है, एवं जिसका शरीर समस्त शुभ लक्षणों से सुभोभित है। इसके बाद उसने स्पष्ट जाना हुई कण्ट को तीन रेखाओं से मुनोज्ञ मध्यभाग वाले उसके कंठदेश से, जो ऐसी मालूम पड़ती थी-मानों-उसकी चिरायु, लक्ष्मी ब सरस्वती के समागम को सूचित करनेवाली तीन रेखाएं थीं, पत्र ग्रहण करके पढ़ा, जिसमें धनकीति के वध करने की सूचक अक्षरपक्ति चारों ओर लिखी हुई थी।
इसके बाद उस निकृष्ट वणिक् को हृदय में धिक्कार देती हुई उसने अपने नेत्ररूपी अञ्जन को १. प्रकष्टजानुः । २. प्रेधणीयः । ३. पौलवं तुला मान । ४. विषण वध्यः । ५. मुशलेन वध्यः । ६. गोविन्द ।
७. मुधासहितं । ८. पूर्वजन्मनि यो मत्स्यः स तत्र वेश्या जाता वर्तते । ९. उज्जयिनीम् । १०. पदिरः मार्गः । ११. विकप्रियश्चूतः । १२. निश्चेतनं । १३. चतुरा। १४. वागान् बिना कन्दप । १५. पूर्वजन्मापकारिणं । १६. कण्टरखा। १७, ज्ञात्वा। १८. निन्द्र पइक्तिरहितं । १९. निन्दती।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सरसहतेन कज्जलेनार्जुनशलाकया तत्रव परिम्लिष्टपुरातनसूत्रे पत्ने लेखान्तरम् । तथाहि-'ययि धेष्ठिन्नी मामवयवचनं श्रेष्ठिनं मन्यते, महायलाच यदि मामनुलनीयवामप्रसर पिसरं गणयति. तास्म निकामं सप्तपुरुषपर्यन्तपरीक्षितान्वयसंपत्तये धनकोर्सये "फपदप्रक्रमेण हिजवेवमुखसमसमविचारापेक्ष श्रीमती बातव्या' इति ।
ततो यथाम्मातविशिणमिम' लेखमामुच्य समाचरितगमनायामनङ्गसेनायां धनकोतिश्विरेण 'विवागसावनिक: १"सोल्सेकमुत्थाय प्रथाय च श्रीवतनिकेतनं जननीसमन्धितगा प्रहाचलाय प्रशितमेवः श्रीमती. १२सखोऽभवत् ।
श्रीपत्तो वार्तामिमामाकर्ण्य प्रतणं प्रत्यावयं निधाय च तद्वषाय रामपानीबाहिरिकायां चण्डिकायतने कृतसंकेत संनद्धवपुषं पुरुषं पच्चराचरणपिशाची देवडोचीच परिप्राप्तोदवसिलो रसि धनकोतिं मुहराय बटुकटकपटमतिरेबमायभाये-'वत्स, मोये कुले किलैखमाचारो यदुत यामिनीमुने कारयामिनीप्रमुख प्रवेश प्रतिपन्नाभिमवफडणबन्धेन स्तनंधयागोषेन १५महारमानरसरक्ताशुकर तमाश्रयः स्वयमेव 'माषमयमो ५२रमौकुलि बलिरुपडिविया से ग्रहण किये हए और उपवन को लताओं को नई कोपलों के रस में घोले हए कज्जल से चाँदी की अथवा तृणों की सलाई ( लेखनी ) द्वारा उसी पत्र पर पहले के असर मिटाकर दूसरा लेख लिखा । लेख इस प्रकार था-'यदि सेठानी मुझे आदरणोय वचनों वाला मानती है और यदि महावल मुझे ऐसा पिता मानता है, जिसके बचन-समुह उल्लङ्गनीय नहीं है, तो सात पोढ़ी तक विशेप परीक्षित वंश लक्ष्मी वाले इस धनकोत्ति के लिये विना विचार की अपेक्षा किये ब्राह्मण व अग्नि की साक्षीपूर्वक दहेज के साथ मेरी पुत्री श्रीमती देनी चाहिए।'
यथोक्त मार्ग वाले इस लेख को उसके गले में बांधकर अनङ्ग सेना चली गई।
जब चिरकाल के बाद धनकोति की गाढ़ निद्रा का वेग दूर हुआ तो वह उत्कण्ठापूर्वक उठा और श्रीदत्त के घर पहुंचा और उसने माता-राहित महाबल के लिये पत्र दिखाया, जिससे वह श्रीमति का पति हो गया।
श्रीदत्त इस समाचार को सुनकर शोन ही लौट आया और उसने धनकीति का वध करने के लिए राजधानी के बाह्य प्रदेशवी चण्डिका देवी के मन्दिर में सशस्त्र व वध-करने का संकेत किए हुए पुरुष को एवं निन्द्य कर्म का आचरण करनेवाली पिशाची सरीखी देवपूजिका स्त्रो को नियुक्त करके अपने गृह को चला गया और अत्यन्त कूटकपट की बुद्धिवाले उसने एकान्त में धनकीर्ति को बुलाकर फिर से कहा--'पुत्र ! निश्चय से मेरे गृह को ऐसो रोति है कि नवीन कण-बधन को स्वीकार करने वाले नवीन विवाहित कन्या के पति को रात्रि के अगले भाग में कात्यायनी देवी के प्राङ्गण प्रदेश में जाकर कुसुंभी रंग से रंगे हुए वस्त्र के १. पोलितेन । २. 'हेमत्तृणं वा' टि० ख०, 'अर्जुनं तृणं' इति पत्रिकायां । ३. पूर्वाक्षराणि परिमृज्य नूतनाक्षराणि
लिखितानि । ४. आदरणीय । ५. 'जामातृदेयं वस्तु हिरण्यकन्यादायं कूपदः कथ्यते' टि. स्व०, पञ्जिकाकारीऽप्याहू-'सहिरण्यकन्यादाएं जामातृदेयं वस्तु कूपदः'। ६. वेदमुसो बह्निः। ७, मार्ग विशिखा। ८. कण्ट बद्ध्वा । ९. उद्गतः उपशान्तः । १०. सगर्व । ११. गत्वा । १२. भर्ता । १३. गोविन्दगृहात स्वगृहमागत्य । १४. पुरषं स्थापयित्वा । १५. 'मक्तिनाचरित' टि० ख०, 'कच्चरं कुत्सितं' पञ्जिकायो। १६, चण्डिकां । १७. गृह । १८. प्राङ्गणे । १९. कुसुंभ । २०. रक्तवस्त्रेण पितः । २१. माप-'धान्येन घटित' टि.स., 'भान्यपिष्टेन' दि.१०।२२. मयूरः । २३, काकः ।
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संतम आश्वासः
३२१ हर्तव्यः' ।' धनकोतिः- 'तात, यया तातादेशः' इति निगोयं गृहीतकुलदेवतादेय हनसकारोपकरणस्लेन श्यालेन महाबलेन पुरप्रतीलिप्रदेशानिःसरलवलोकितः। समालापिताच-हलो पनकीर्ते, प्रवर्धमानान्धकारावयापामस्या वेलायामबाण' क्योचलितोऽसि ।' 'महाबल, मासुलनिदेशान्नमसिस निवेदनाय दुर्गालये।' 'यो नगरजनासंस्तुत*स्वात्त्वं निवासं प्रति निवतस्य । अहमतदुपयावित मशाला स्पोधि प्रगामि । यत्र तातो षिष्यति सदा ततोषमहमपनेष्यामि ।' ततो बनकीतिमन्दिरमगात महाबलश्व कुलान्तोवरफादरम्। श्रीवत्तः सुप्तमरणशोकातोपान्त: प्रकाशिताशेषवृत्तान्तः 'सकननिकाम्य कार्यानुष्ठानपरमेष्ठिनि अंष्ठिान मन्मनोल्हाद चन्दलेखे विशाखे, कसमयं देषेपो. ममान्वया पायहेतुः प्रयुक्तोपायविलोपनकेतुः५४ प्रवासयितव्य: ५।' विशाखा-'छिन्,
भेलभावात्सर्वमनुपपन्नं वया चेष्टितम् । अत: कुराण्डतो११ भोत: कुक्कुटपोत इव तूष्णोमारस्व । भविष्यति भवतोऽत्राषं मनोषितम्' इत्याभाष्य अपरेखुर्दयितजीविसलातोबफे मोदकेषु विषं संचार्य 'सुते श्रीमते, य एते कुन्दपुरआश्रयवाली [ अर्थात्-कुसुभी वस्त्र पहिन कर ] एवं पोसे हुए उड़द से बने हुए मोर व कौए को वलि देनी चाहिए।
इसे सुनकर धनीति बोला---'पिताजी ! जैसी आपकी आज्ञा ।'
घनीति कुलदेवता के लिए अर्पित करने योग्य सामग्री लेकर नगर को दोच को गली से निकला तो इसको उसके साले महादल ने देखकर कहा-'घनकोति ! इस निविड़ अंधेरी रात्रि की वेला में अकेले कहाँ जा रहे हो?'
'महावल ! मामा को आज्ञा से बलि देने के लिए दुर्गादेवी के मन्दिर को जा रहा हूँ।
'यदि ऐसा है तो तुम नागरिकों से अपरिचित हो, अतः गृह को लौट जाओ। दुर्गादेवी को यह मेंट देने के लिए में जाता हूँ। यदि पिताजी कुपित होंगे तो मैं उनका कोप दूर कर दूंगा।'
धनकीति अपने गृह पर गया और महावल यमराज को उदररूपी गुफा में समा गया ।
पुत्र-मरण के शोक से समीप दुःखित हुए श्रीदत्त ने अपनी प्रिया 'विशाखा से समस्त वृत्तान्त निवेदित करके कहा-'समस्त गृहकर्मों के नियमपूर्वक करने में विष्णु-सरीखो समर्थ और मेरे मन में सुख उत्पन्न करने के लिए चन्द्रपछिक-सरीखी 'विशाखा' सेठानी ! इस अभागे बालक को, जो कि मेरा वंश नष्ट करने में कारण है और मेरे द्वारा किये हुए अनेक कपट-पूर्ण घातक उपायों के विनाश करने में केतु-जैसा समधं है, कैसे मारना चाहिए?
'सेठजी! [पस्जिकाकार के अभिप्राय से अविचारक होने के कारण अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से ] वृद्ध होने के कारण तुमने सब कार्य अयोग्य किया । अतः बिलाब से डरे हुए मुर्गे के बच्चे की तरह तुम चुप चेठो । मापके सब मनोरथ पूर्ण होंगे।'
दूसरे दिन सेठानी ने अपने पति का जीवन व्यथित करनेवाले लड्डुओं में जहर मिलाकर श्रीमति' १. दातभ्यः । २. दान । ३. एकाकी । ४. 'देयवस्तु' टिम्ब०, गैवेद्य टि० च० ! *. असंस्तुतः अपरिचितः । ५.
हन्तकारं-दानं । ६. दातुं । ७. अगात्मृ तः इत्यर्थः । ८. समीपदुःखः । ९. निकाय गुहं । १०. सौम्य, हे भायें ! । ११. निर्भाग्यो वालिणः । १२. वंश । १३. मम कृतानेकपटविनाशसमर्थः । १४. नवमो ग्रहः | १५, मारणीयः । १६. 'वृद्ध' टि २०, 'भेल; अविचारकः' इति पनिकायां । १७. अबटमानं अयुक्तं त्वया कृतं । १८. 'मार्जारात्' टि० ख०, 'कुपण्डो मार्जारः' पं०। १५. पीठ केपु-ज्यपकेयु ।
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after म्पूका
श्यावश्यामा कश्या मलरचयश्च जनकाय' इति समर्पितसमया समास
३२२
कारतयो मोबकास्ते स्वकीयाय कान्ताय देयाः मरणसमया परिति सवनापानुससार ।
स्पधमीयान्ययविलोपाय
श्रीमतिः-- " यच्चोत्तमभक्ष्यं तत्प्रतोदपाय ताताप वितरीतष्यम्" इत्यवगत्याविशात सवित्रीचित्त कौटिल्या निःशस्यहुवया तानेत्यविपर्ययेनावभूषत् । विशाखा पतिशून्यमरण्यसामान्यमगारमाप्य परिवेष्य सुचिरं पुनः 'पुत्रि, किमन्यथा भवति महामुनिभाषितम् । केवलं तव वापेन १० मया मोत्यापनमा चरितम् । तचलमत्र बहुप्रलापेन कल्पनुमेण कल्पलतेय स्वमनेन देववयबेहरक्षा विधानेन षषेन १३ साधम्मकल्पमिन्द्रियैश्वर्थसुमनुभव' इति संभाविताशीर्वादा तमेकं मोदकमास्वाय पत्युः पथि ३ प्रतस्थे । एवं स्वयं विहितकुरोहितबशाहुपात्तामिलोकमा शशीकावस्ये १४ दशमी" तस्मिवशुरे श्वधूजने च सति स पुरातनवुभ्यम्माहात्म्यल्लङ्गितघोरघतिघ १४ पापप्रति विडीयमानसंपदेकवा तेन विश्वंभरेण क्षितीश्वरेण निरीक्षितः । तद्रूपसंपत्ती जात बहुविस्मयेन तनूजया
14
पुत्री से कहा - 'पुत्री श्रीमति ! इन लड्डुओं में से कुन्द व कुमुद- पुष्प-सरीखी कान्ति वाले श्वेत लड्डू तो अपने पति को देना और धूसरित श्याम धान्य सरीखे श्याम लड्डू अपने पिता की देना' इतना संकेत करके निकटवर्ती भरणवालो सेठानी नदी में स्नान करने के लिए चली गई । इसके पश्चात् श्रीमती पुत्री ने ऐसा निश्चय fear for air खाने योग्य उत्तम लड्डू तो पूज्य पिताजी के लिए देना चाहिए ।'
श्रीमतिको माता के चित्त की कुटिलता का पता नहीं था और वह निष्कपट मन वाली थी, इसलिए उसने उन दोनों के लिए प्रस्तुत लड्डू उलट कर दे दिये । अर्थात् विषैले लड्डू अपने पिता के लिए और निर्विष लड्डू अपने पति के लिए खिला दिये । जिससे उसका पिता श्रीदत्त काल-कवलित हो गया ।
जब विशाखा स्नान करके आई तो उसका पति मर चुका था, इसलिए वह जंगल-सरोखे पति शून्य गृह में आकर बढ़ी देर तक रोई और बोली- 'पुत्रि | क्या महामुनि की वाणी मिथ्या होती है ?" केवल तुम्हारे पिता और मुझ वृद्धा ने अपने स्थिर बंदा को नष्ट करने के लिए इस कृत्या का उत्यापन किया है। इस लिए अब शोक करना व्यर्थ है । अतः अब कल्पवृक्ष के साथ कल्पलता सरीखी तु देव के द्वारा रक्षा किये हुए इस प्रति के साथ, कल्पकाल तक इन्द्रिय-सुख एवयं सुखों को भोगो ऐसा आशीर्वाद देकर उसने भो एक जहरीला लड्डू खा लिया और पति को अनुगामिनी गई - मर गई ।
जब धनकोति के सास ससुर स्वयं किये हुए दुरभिप्राय से पुत्र मरण से विशेष शोकाकुल होकर कालsafer हुए तब धनकीति पूर्वजन्म संबंधी पुण्य के माहात्म्य से भयानक विघ्नों वाली पांच विपत्तियों को उल्ल न करके दिनोंदिन उदित होनेवाली संपत्ति से सुशोभित हुआ । एक दिन 'विश्वंभर' राजा ने उसे देखा,
"
१. 'श्याचः स्यात् कपिशः धूसरारुणाः' टि० ० 'श्यावः कर्दमः' इति पञ्जिकायां । २. मता - अभिप्राया । ३. स्नानाय । ४. यच्वो भव' इति क० ० च० प्रति टिप्पर्धा तु 'चोक्ष: सुन्दरगीतयोः शुसी । ५. पूज्याय 1 ६. देयं । ७. परिवेषयामास पते स्म । ८. आगत्य । ९. रोदनं कृत्वा । १०. पित्रा । ११. अथर्वणशे कृते सति मधात्मना कृत्या उत्पद्यते । १२. कान्तेन । १३. मृता इत्यर्थः । १४. उपात्ता बहुला पुत्रसरणशोकस्य अवस्था येन । १५. मृते सति । १६. विघ्नतः ।
*. कुरमा - अपने नाश के लिए की हुई मन्त्र-सिद्धि ।
सारांश यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य शत्रु का वध करने के उद्देश्य से मन्त्र विशेष सिद्ध करता है, जिससे मात्रु का वध करने के लिए एक पिशाब प्रकट होता है, परन्तु यदि शत्रु जप, होम या दानादि करने से विशेष बलिष्ठ होता है, तब वह पिशाच शत्रु को न मारकर उल्टा सन्ध-सिद्धि करने वाले को मार डालता है ।
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समम आश्वासः
३२३ सह उभयेन' विशामाषिपरपपवेन योनितश्च । गुणपाल: किंवदन्तीपरम्परया अस्य कल्याणपरम्परामुपभुत्यकौशाम्बीदेशात्पद्यावती'पुरमागस्य अनेनाश्चर्येश्वर्य भाजा तुजा सह संजम्मे" ,
___ अचान्या सशलत्रपुत्रमित्रतन्त्रेण धनकोतिना दर्शनायागतयानङ्गसेनया बानुगतिनिष्ठो गुणपालभेष्ठी मतिश्रुतापषिमनःपर्ययविषयसम्राजमखिलमुनिमण्डलीराजे श्री यशोध्वजनामभाणं भगवन्तभिवन्ध साहुप्रमपमेषमपृष्टस्-'भगवन , कि नाम जन्मान्तरे धर्ममूतिना घनकोतिना सुतमुपाशितम्, येन बालकालेऽपि तानि तानि देवेकशारणप्रतीकाराणि व्यसनामि ग्पतिकान्तः, पेनास्मि लोकष्यतिरिक्तरमा रूपसंपन्नोऽभूत् । येनार भ्राधिय'. विभावसुप्रभासंभार इव देवानामप्यप्रतिहतमहाः १२ समबनि, येन वापरेषामपि तेषां तेषां मातापुरुषकक्षावपहाणां१४ गुणानां समवायोऽभवत् । तयारि.. निशाना , महायो मागमावस्या निकेतनमयदानकर्मणः५, क्षेत्र मैयिकायाः,१८ स्वप्नेऽपि न स्वजनस्यापनि मनो मातुः १९ कम्युरिव २० कामिनीलोकस्य । तदस्य भवन्त, उसकी लावण्य सम्पत्ति देखकर राजा को विशेष आश्चर्य हुआ। उसने उसके साथ अपनी राजकुमारी का विवाह कर दिया और उसे राजसेठ पद पर भी अधिष्ठित कर दिया। अर्थात्-इस प्रकार बनकीति विवाहोत्सव व श्रेष्ठिपदोत्सब इन दोनों उत्सदों से सुशोभित हुआ।
जब धनकोनि के पिता गुणपाल ने किंवदन्ती परम्परा (जन-साधारण की खबर) से अपने पुत्र धनकोति को कल्याण परम्परा सुनी तो वह कौशाम्बी से उज्जयिनी नगरी में आकर आश्चर्यजनक ऐश्वर्यशाली अपने पुत्र के साथ सम्मिलित हुआ।
एक बार स्त्री, पुत्र व मित्रादि से युक्त धनकोति पुत्र के साथ और दर्शन के लिए आई हुई अनङ्गसेना के साथ अनुगमन करने वाले गुणपाल सेठ ने मति, श्रुत, अवधि व मनःपर्यपज्ञान के चारो एवं समस्त मुनियों की मंडली में श्रेष्ठ श्री पशोध्वज आचार्य के लिए नमस्कार करके विशेष विनय पूर्वक पूछा'भगवन् ! इस धर्ममूर्ति धनकीर्ति ने पूर्वजन्म में ऐसा कौन-सा पुण्य संचय किया था ? जिसके कारण इसने बचपन में भी ऐसे भीषण दुःख नष्ट किये, जो कि इसके केवल भाग्य को शरण द्वारा दूर किये जा सकते थे। एवं जिससे यह इस जन्म में भी लोक से प्रचुर लक्ष्मी व लावण्य सम्पत्ति से सम्पन्न हुआ। जिसके प्रभाव से यह वैसा देवों द्वारा भी नए न किये जाने वाला तेजस्वी हुआ जैसे बहुल मेघपटल सम्बन्धी वच्चाग्नि का तेज
सी के द्वारा न न किये जानेवाले तेजवाला होता है। जिसके प्रभाव से यह पुराण-पुरुषोंतीर्थङ्करादि-के पक्ष के उन-उन गुणों के साथ निल्य संबंध करने वाला हुआ।
जैसे यह विद्वत्ता का आश्रय है, उदारता गुण का स्थान है । यह अवदान ( शत्रुओं का खंडन, सर्वपालन, सर्वप्रदान अथवा शुद्ध कर्म ) का स्थान है। यह समस्त प्राणियों के प्रति मैत्रीभाव की उर्वरा भूमि है। इससे स्वप्न में भी कुटुम्बोजनों के मन में खेद या अपराध उत्पन्न नहीं हुआ एवं यह स्त्री-समूह के लिए १. एको विवाहोत्सवः द्वितीयः श्रेष्ठिपद 1 २. धनकीतः। ३. उज्जयिनी । ४. पुण। ५. सम्मिलितः ।
६. जन्मनि । ७. अधिक ! ८. 'साररूप' इति ग० । ९. श्रीः । १०. बहुल । ११. 'अनपटलसंघपी अग्नितेजः समूहृवत्' टि० स्था, "अभ्रियो वनाग्निः' इति पञ्जिकायां । १२, तेजः। १३. पुराणपुरुषः । १४. पदवथाना । १५-१६. 'विदान्यो विदग्धः' 'वदान्यस्स्यागी' इति पनिकायां, “विदग्धतायाः' टि च०, 'स्थानं वदान्यतायाः' इति ख. प्रती। 'वक्तृत्वस्य, बक्षान्यो बल्गुवागपि प्रियवादी । स्युर्वदान्यस्थ ललक्ष्यदानशीण्डा बहुपदे। वदति दीयतामिति पदान्यः वदेरान्यः । वदान्यो वष्णुशागपि' इति टि० ख०। १७. अवदानं शत्रुखंडन, सर्वपालनं सर्वप्रदान वा शुक्रर्म, टिन। 'अवदान साहस' इति । १८. 'मित्रत्वस्य' टि ख'मित्रयः व्यवहारवंदो तस्य भावो मैयिका' इति पं० ब दि० च । १९, 'विप्रिय अपराधः दि. खः । खेदः' इति दिलच एवं पक्षिकायामपि । २०, कामः ।
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३.२४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पणिक परिषत्प्रवणरूप निःशेषशास्त्रप्रवीणान्तःकरणस्य निसर्गादेव निखिलपरिजनालापन सहम' सवाचारशुक्लस्य विनेयजनमनः कुवलयानविकथावतारामृतमूर्तः सुकीलेंर्धन की पुरोपार्जितं सुकृतं कथयितुमर्हसि । अगणाम् — श्रेष्ठिन्, श्रूयताम् । तत्संबन्धसतं पूर्वोक्तं वृत्तान्तमत्रकयत् — या चार पूर्वभवनिकटा घण्टा वधूटी सा कृतनिवाना वनसि* प्रवेशादियं संप्रति श्रीमतिः संजाता। यश्च स मोनः स कालक्रमेण व्यतिक्रम्य पूर्व पर्यायपर्वेय मनसेनाभूत् । अतोऽय महाभागस्येक दिवसाऽहं साफलमेतद्विजृम्भते । धन की तिरेतद्वचत्र 'पवित्रोत्रर्मा । तथा श्रमतिरहसेना व पुराभवं भयं संभाल्यो मूल्य तमःसंतानतरनिवेशमिय केशपाशं तस्यंत्र "दोषज्ञस्यान्ति के यथायोग्यता विकल्पं तपःकल्पमादाय जिनमा गजितेनाचरितेन विरायाराध्य रत्नत्रयं विधाय व विधिवन्निरजन्य मनोवनं प्रायोपवेशनम् । तव मनीतिः सर्वार्थसिद्धिसाधनकीतिर्मनव । श्रीमतिरनङ्गसेनर च १° कल्पन्त र संयोज्यं देवसाय' 'मभजत् ।
भवति चात्र इलोकः सर्वार्थः
पकृत्व: 13 किकस्य मत्स्यस्याहिसनापुरा । अभूत्पश्वापवतोय नकीतिः पतिः श्रियः ।। ९४ ।।
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कामदेव सरीला विशेष प्यारा है। इसलिए पूज्यवर ! आप ऐसे धनकीर्ति की पूर्वजन्म में संनय किये हुए पुण्य की कथा कहिए, जो कि वणिक परिषत् में नम्र या अनुरक्त है । जिसका मन समस्त शास्त्रों में निपुण है । जो समस्त आश्रित जनों के साथ वार्तालाप करने में मधुर है । जो सदाचार से शुभ है । एवं जिसका haranrrent चन्द्रमा शिष्यजनों के मनरूपी कुवलय ( चन्द्रविकासी कमल) को प्रमुदित – विकसित करने वाला है और जो प्रशस्त कीर्तिमान है ।
मुनिराज ने इसके पूर्वजन्म की कथा कह सुनाई ।
जो पूर्वजन्म में समीप रहने वाली इसको घण्टा नामकी स्त्री यो, वह निदान बंध करके अग्नि में जल मरी थी, वह इस जन्म में इसकी प्रिया श्रीमती हुई है और जो मछलो थो, जिसे मृगसेन ने जल में जीवित छोड़ दिया था, वह कालक्रम से पूर्वपर्या छोड़कर दूसरो पर्याय धारण कर अनङ्गसेना हुई है | अतः एक दिन हिंसा न करने का फल इस भाग्यशाली को प्राप्त हुआ है ।
धनकीर्ति ने उक्त आचार्य के वचनों से अपना श्रोत्रमार्ग पवित्र किया। इसकी प्रिया श्रोमतो ने और अनङ्ग सेना नामको वेश्या ने अपना पूर्वभव सुनकर अन्धकार समूहरूा वृक्ष के प्रवेश परीखे कंश - पाशों का लुञ्चन करके उसी विद्वान आचार्य के समीप अपनी योग्यतानुसार दीक्षा ग्रहण की ओर जैन मार्ग के अनुसार चिरकाल तक रत्नत्रय का आराधन किया । और मनोवृत्ति को निर्विघ्नतापूर्वक समाधिमरण किया। धनकीर्ति सर्वार्थ सिद्धिविमान को प्राप्त करने में कोर्तिमान हुआ और श्रीमती ओर अनङ्गसेना भी स्वर्गलोक में देव हुए
इस कथा के विषय में समस्त विषय को बतलाने वाला एक श्लोक है, जिसका भाव यह हैनिस्सन्देह वनकीति, जिसने पूर्वजन्म में एक मछली की पाँच धार रक्षा की थी, जिससे वह पांच भयानक आपत्तियाँ पार करके लक्ष्मी का स्वामी हुआ ।। ९४ ।।
१. वणिक् । २. मधुरस्य । * इदं पदं मु० प्रती नास्ति, किन्तु ३० लि० क० प्रतिद्धः संकलित - सम्पादक । ३. चन्द्रस्य । ४. अग्नी, 'दमनाश्चित्रभानुतनुनपात् । ५ पर्वप्रस्तावे । ६ वत्रयं वचनं । ७. 'विदुषः' इति टि० ०, 'दोपनः अतीन्द्रियज्ञ:' इति पञ्जिकाया तथा टि० च० । ८. निर्विघ्नं । ९. पादोपमानमरणं संन्यासविधि । १०. स्वर्गलोक ११. 'देवत्वं' टि० ज०, 'वायुज्यं साम्यं' इति पं० । १२. पंचत्रारात् ।
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सप्तम भाश्वासः
इयुपासकाध्ययने अहिंसाफलावलोकनो नाम पशः कल्पः ।
तस्य परस्वस्य ग्रहणं स्तेयमुच्यते । सर्वभोग्यासदन्यत्र भावः सोयणाः ॥ ९५ ॥ ज्ञातीनामत्यये वसमतमपि संगतम् । जीवतां तु निवेशेन्द्र तक्षर्ति रसोऽन्यथा ॥ ९६ ॥
३२५
शाभिनिवेशन" प्रवृत्तियं जायते । तत्सर्वं रायि विशेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रये ।। ९७ ।। " रिक्थं "निधिनिधानोयं न दराजोऽन्यस्य युज्यते । यत्स्वस्या" "स्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ।। ९८२१ आत्माजितमपि यं द्वपरायाम्यथा भवेत् । निजान्वयावसोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ॥ ९९ ॥ मन्दिरे पक्षिरे तीरे कान्तारे धरणीधरे । तान्यदीयमावेयं स्वापतेयं व साश्रयेः ॥ १०० ॥
११
न्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म "ततो ग्रहः । विप्रहे संप्रहोऽयंस्या "सोयस्यैते निवर्तकाः ९ ॥१०१॥३ इस प्रकार उपासकाध्ययन में अहिंसा का फल बतलानेवाला यह छब्बीसवां कल्प समाप्त हुआ । अब चोरी न करने का उपदेश करते हैं
अचौर्याव्रत
सर्वसाधारण के भोगने योग्य जल व तृण आदि पदार्थों को छोड़कर क्रोधादि कषाय से, विना दिया हुआ दूसरे का घन ग्रहण करना चोरी कही जाती है ॥ ९५ ॥ कुटुम्बियों की मृत्यु हो जाने पर उनका धन बिना दिया हुआ भी ग्रहण किया जा सकता है । परन्तु जीवित कुटुम्बियों का घन उनकी आज्ञा लेकर हो ग्रहण किया जा सकता है । अन्यथा ( उनकी जीवित अवस्था में उनकी आज्ञा के बिना उनका धन ग्रहण कर लेने पर ) अचीर्यात्त की क्षति होती है || १६ || अपने या दूसरों के धन में जब आर्त व रौद्र अभिप्राय से ( चोरी के अभिप्राय से ) प्रवृत्ति की जाती हैं, तो वह सब चोरो हो समझनी चाहिए ॥ ९७ ॥ निधि ( भूमि आदि में गड़ा हुआ जो खजाना व्यय करने पर भी नष्ट नहीं होता) और विधान ( जो व्यय करने पर नष्ट हो जाता है - अल्प खजाना ) से उत्पन्न हुआ बिना स्वामी का चन राजा को छोड़कर दूसरे का नहीं है; क्योंकि लोक में जिस धन का कोई स्वामी नहीं है, उसका स्वामी राजा होता है। अभिप्राय यह है कि नदी, गुफा व खामिनादि में पड़ा हुआ धन राजा के बिना दूसरे का नहीं है, क्योंकि स्वामों से हीन हुए धन का राजा स्वामी होता है || ९८ || अपने द्वारा उद्यम आदि से उपार्जन किया हुआ घन भी यदि संदिग्ध है अर्थात् (यह मेरा है ? या दूसरे का ? ) तो उसका ग्रहण करना भी चोरी है, अतः व्रती पुरुष को अपने कुटुम्ब के सिवाय दूसरों का धन ग्रहण नहीं करना चाहिए ॥ ९९ ॥ अचौर्याव्रतो पुरुष को मन्दिर, मार्ग, जल, बन व पर्वत आदि में पड़ा हुआ दूसरों का धन नहीं ग्रहण करना चाहिए ।। १०० ।।
नाप-तोलने के बाँट तराजू आदि को कमतो बढ़ती रखना, चोरी करने का उपाय बतलाना, चोर से लाई हुई वस्तु को खरीदना, राज्य विरुद्ध कार्य करना व पदार्थों को संग्रह करना ये अचर्याणुव्रत के
१. घनस्य । २. विनाशे मरणे सति । ३ आदेशेन ग्राह्यं ४ विनाशः । ५. आतंरोद्राभिप्रायेण प्रवर्तनं । ६. धने । निधिः । ९. यद् व्ययकृतं सत् क्षयं याति तन्निधानभल्पमित्यर्थः । १२. स्ववंशादन्यस्य वनं वर्जयेत् । १३. मार्ग । १४. काहीनाधिकये । १६. 'चौरार्थादानं' टि० ० 'चोरादानीतद्रव्यग्रहणं टि० च० । 'स्लेन प्रयोग तदहुतादान-विरुद्ध राज्यातिक्रमहीनाधिक
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७. घनं ८. यो यकृतः क्षयं न याति स १०. द्रव्यस्य । ११. संपादाय सत्येहाय १५. चनुमोदनं । ★ ततः स्वेनात् । १७. राज्यविरुद्धे । १८. वस्तुनः पदार्थस्य । १९. अतौचाराः मानोन्मानप्रतिरूपकध्ययहारा:' मोक्षशास्त्र ० ७ सूत्र २७ ।
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३२६
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये रस्नरमा गरन स्त्रीरलाम्ब'रविभूतयः । भवस्यचिन्तितास्मेवामस्तेयं येषु निर्मलम् ॥ १०२ ॥ *परप्रमोणतोष्ण तृष्णाकृष्णषियों नणाम । अत्र घोषारसूप्तिः परमेव च दुर्गतिः ॥ १०३ ॥
भूयतामर स्तेयफलस्योपाख्यानम्-प्रयागवेशेषु निवासविलासवारलाप्रलापवाचालितविलासिनीनपुरे सिंहपुरे समस्त समुनमुद्रितमेदिनीप्रसाधनसेन: पराक्रमेण सिंह इव सिहसेनो नाम मपत्तिः । तस्म निखिलभूवमजनस्तवनीचितक्ता रामवत्ता मामासहिषो। सुतो खानपोराश्चर्य सोन्थयोवार्यपरितोषिलानिमि बेन्द्रो सिंहलन्द्रपूर्णचन्द्रो नाम । निःशेषशास्त्रविशारवमतिः श्रीमतिरस्य पुरोहितः सून्ता धिकधिषणतया सत्यघोषापरनामर्षयः । धर्मपल्लो चास्य पतिहिसंकषित्ता श्रीवत्ता नामाभूत् ।।
स किला श्रीतिषिश्वासरसनिविनतया परोपकारनिहनतया विभक्तानेकापवरक रचनाशालिनीभिमहाभाण्डवाहिनीभिर्गोशालोपयस्याभिः कुल्याभिः५१ समन्वित मतिसुलभजलयबसे घनप्रचारं "भण्डनारम्भोद्भर भटी रपेटकपक्षरक्षासारं पगोचतप्रमाणं वप्रप्राकार' प्रलोलिपरिमासूत्रितत्राणं प्रपासत् जप्तमासनाप२ कोपि. अतोचार हैं ।। १०१ ।। जिन महापुरुषों में विशुद्ध-निरतिचार-अचौर्याणुनत प्रतिष्ठित होता है, उन्हें माणिक्यआदि रत्न, मुवर्ण-आदि, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्त्र-आदि विभूतिया बिना चिन्तवन को हुई स्वयं प्राप्त हो जाती हैं॥ १०२ ॥ जो मनुष्य दूसरों की धनादि वस्तु चुराकर हर्षित होते हैं, तृष्णा से मलिन बुद्धि वाले उन्हें ऐहिक दुःख ( जेलखाने-मादि का कष्ट और पारलौकिक दुर्गति के कष्ट भोगने पड़ते हैं ।। १०३ ॥
१४. चोरो में आसक्त श्रीभूति पुरोहित को कथा । चोरो के फल के संबंध में एक कथा है, उसे सुनिए---प्रयाग देश के सिंहपुर नामक नगर में, जहाँ पर वेश्याओं के नूपुर, गृहों में कोड़ा करती हुई हंसिनियों के मधुर स्वरों के साथ मुखरित हो रहे थे-झुनझुन ध्वनि कर रहे थे, 'सिंहसेन' नामक राजा था, जिसकी सेना समस्त समुद्रों से चिह्नित पृथ्वी को वश करने वाली थी ओर जो सिंह सरीखा पराक्रमी था । उसको समस्त लोक के मनुष्यों द्वारा प्रशंसनीय चरित्रशालिनी 'रामदत्ता' नामकी पटरानी थी। उनके आश्चर्यजनक लावण्य सम्पत्ति एवं उदारता द्वारा देवों के इन्द्रों को प्रमुदित करने वाले सिंहचन्द्र' व 'पूर्णचन्द्र' नामके दो पुत्र थे। समस्त शास्त्रों में निपुण बुद्धिशालो 'श्रीभूति' राज-पुरोहित था । अपनी बुद्धि को सत्य वचन को ओर विशेष प्रेरित करने से उसका दूसरा नाम 'सत्यपोष' भी था। पति का हित करने में लोन चित्तवाली उसको 'श्रीदत्ता' नामको धर्मपत्नी थी।
श्रीभूति पुरोहित विना विघ्न वाधाओं के अपना विश्वास व प्रेम उत्पन्न करने में समर्थ था और परोप. कार करने के अधीन था । अतः उसने एक ऐसा कयाण नगर बनवाया, जो कि ऐसो पटशालाओं ( वस्त्रगृहोंतम्बुओं से युक्त था, जो कि जुर्द-जुदे अनेक अन्तर्गृहों की रचना से सुशोभित थीं। जहां पर बड़े-बड़े वर्तन स्थापित थे और जो गोशाला के नजदीक थीं। जहाँ पर जल, घास व इंघन का मिलना मुलभ था। जो युद्ध के आरम्भ करने में उत्कर योद्धाओं के समूह के निवास से विशेष सुरक्षित होने के कारण उत्तम था । जो एक कोस के विस्तार में बना था। जो खेत, कोट, मुख्य मार्ग और खाई होने से सुरक्षित था और
१. सुवर्णादि । २. उत्तमस्त्री । ३, उत्तमवस्त्र। ४. परत्रस्तुचीर्यहर्षेण । ५. देवाः । ६. सत्यवचन |
७. परत्रगनया । ८. परंडा वोवरा ?। ९. 'कुपइकूपदीपमुख' टि० च०, वाखरभाजन ? टि० ख० ! १७. गोमहिषीवन्धनस्थानसमीपाभिः । ११-१२. वस्त्रशाल, पटमालाभिः क्रयाणपत्ननं पाठस्थानं विनिर्माप्य । १३. तण । १४. संग्राम । १५. उत्फट । १६, सुगट । १७. मोश।१८. अधोलोभित्थाधारः । १९. सत्रमाच्छादने या सदादाने बनेऽपि व इत्यमरः, । संकलित-सम्पादक २०, सहित । २१. मार्ग ।
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सप्तम आश्वासः
निवेशनं पप्रपुटभेदनं' विद्वरिसकितविविदूषक पीठ मर्वावस्थानं 'पेष्ठास्थानं विमिर्वाप्य नानादिग्देशोपसर्पणवणि प्रशान्तशुल्क 'भाटक " भाग हारव्यवहारमवीकरम् ।
३२७
लागि
अत्रान्तरे पचिनोखे पट्टविनिविष्टा 'घाससन्त्रस्य युगान्तको " निजसनाभिजनाम्भोजभानुः सूनुर्भद्रमित्रो नाम समानघन सारिवेषिपुत्रः सत्यं "वहित्रयात्रायां थियासुः ।
'माया कुर्यात्या वित्ताय कल्पयेत् । धर्मोपभोगयोः पादं पाएं भतंश्यपोषणे ॥२०४॥ इति । *पुण्यश्लोकार्थमवधार्य विचार्य वातिविरमुप १ " निषिन्यासयोग्यतावासम् सविता चारोऽवधारितेतिकर्तव्यतस्याखिलोकलाय विश्वासप्रभूतेः श्रीभूतेहस्ते तत्पत्नीस मन कक्षमनुगता तक 12 रत्नसप्तकं निषाय विषाय जमावासमर्थमर्थमेकवणं प्रजाप्रलाप सुवर्णद्वीपमनुससार ।
जहाँ पर प्याक, सदावर्त और व्यवहार निर्णय करने वाली सभा से युक्त हुई गृह पंक्तियों की रचना पाई जाती थी ।
और उसमें ऐसा पोस्थान ( बाजार ) बनवाया, जो कि जुआड़ियों, विटों, विद्रूपकों व मशारों को स्थिति से रहित था । वहाँ वह नाना दिशा संबंधी देशों से आने वाले वणिकों के साथ स्वल्पव्याज व स्वल्पभाड़ा और थोड़े दान ग्रहण वाला व्यापार करने लगा ।
इसी बीच में पचिनोखेट नगर में स्थित हुए गृह में निवास करने वाले और सुदत्ता नामको स्त्री के सदाचार से पवित्र वंशवाल, वणिक् स्वामी 'सुमित्र' नामके सेठ का अपने कुटुम्बी जनरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य सरीखा 'भद्रमित्र' नाम का पुत्र था।
एक समय वह धन व चरित्र में अपने सरीखे अन्य वणिक् पुत्रों के साथ बानपात्र ( जहाज ) द्वारा समुद्र यात्रा करने का इच्छुक हुआ ।
नीति में कहा है- ' अपनी आमदनी का एक चौथाई तो पूंजी निमित्त निर्धारित करके रखना चाहिए । एक चौथाई व्यापार के लिए निर्धारित करना चाहिए। एक चौथाई धार्मिक कार्यों व उपभोग में खर्च करना चाहिए और एक चौथाई से अपने आश्रितों का पालन करना चाहिए ॥ १०४ ॥
इस सत्यबाणी को निश्चय कर भद्रमित्र ने अपनी स्थापनीय रत्नादि निवि को किसी सुरक्षित योग्य स्थान में रखने का चिरकाल तक विचार करके शास्त्रोक्त सदाचार पालनेवाले व निश्चित कर्तव्यशील उसने अन्त में समस्त लोक में प्रशंसनीय विश्वास के जनक उसी श्रीभूति के हाथ में उसकी स्त्री के समक्ष अत्यन्त मूल्यवान पक्षवाले व पूर्व पुरुषों द्वारा संचय किये हुए अपने सात रत्न धरोहररूप में स्थापित करके जलयात्रा में समयं धन को अपने पास रखकर एक जहाज द्वारा ऐसे सुवर्ण द्वीप को प्रस्थान किया, जहाँ पर एक वर्ण वाली प्रजा के रहने की किंवदन्ती है ।
१. क्रमाणपत्तनं । २. हासिक । ३. 'कामाचार्य वैश्याचार्य' दि० ख० पञ्जिकाकारस्तु पीठमर्दः नाटकाचार्यः' इत्याह । ४. पोलस्थानं । ५. स्वल्प । ६. व्याज । १७. भाड़ा । ८. क्षण । ९. स्थितम् । १०. 'गोत्रजन' टि० ख० 'सनाभिर्वन्धुः' इति पञ्जिकायां । ११. यानपात्र । १२. उपार्जन -लाभमध्यात् । १३. जीनिमित्तं । १४. निर्धारितं कार्यं । *. पुष्पएलोकः सत्यवाकु । १५. स्थापनीयं द्रयं । १६ बहुमूल्यपनं । १७. पूर्वपुरुषसंचितं ।
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३२८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पुनरगण्यपण्यविनिमयेन तस्यविस्यमात्माभिमतं वस्तुसन्धमावस्य प्रत्यावर्तमानस्यादरसागरावसानस्याकामप्रवजनलादनिकाल्परिवतित पोतपात्रस्य यद्धविष्यत्तया आयुषः शेषत्वासस्पेकस्म प्रमावफलका". पलम्बनोगतस्य कण्डप्रवेशप्राप्तजीवितस्य कथंकपमपि क्षणवाया: क्षमिति चरमयालक्षणेऽधिरों घोपतन्धिरभवत् ।
___ ततोऽसौ "सुधिलदारीरस्वादपारामारक्षारबारिवशवांश"काशयश्चिरायाचित "मूषियः फरप्रचारपिलचक्रवाकचिन्तामणी ५१ प्रागवललिकानबालघामणी कमलिनीलविकासाहितहंसवासिताशमणि विश्यकमणि' 3 पवलललितान्तरालविरे लोपनगोबरे संजाते सति यान्यवनमरणाचविणसंद्रवणा"मचातीवान्तमनस्तया १ छातचनायकायः पटवरचलचोरी निश्चिताङ्गकटि: कर्पटिः परपस्त्यो पास्तिनिरस्ताभिमानावमिरवतंनि:सन् क्रमेण सिंहपुरं नगरमागत्म गौमात्रावसेयर पूर्वपर्यायस्तं महामोहरसो पसारितीति श्रीभूतिमभिशानाधिकवाक्यो माणिकसप्तकमयाचत । परप्रतारणाम्यस्तश्रुतिौति:२४ श्रीभूतिः ।
वहाँ अनगिनती विक्रय वस्तुएँ पेंचकर तथा उनके बदले में चिन्तवन के लिए अशक्य व मनचाही वस्तु-समूह खरीदकर वापिस लौट रहे उसको जव समुद्र का किनारा समीप आया तब असमय में आये हुए प्रचण्ड शक्तिशाली वायु के झकारों से ( बड़े जोर का तूफान माने से ) इसका जहाज उच्छलित हो गयाउलट गया । देव ( भाग्य' ) की अवलम्बन-परता से व बायु बाको रहने से बह टूटी हुई जहाज के टूटे हुए काष्ठ खण्ड को ग्रहण करने उधत इमा। कण्ठदेश में प्राप्त हुए प्राणवाले उसे रात्रि के अन्तिम पहर बीसने पर किसी प्रकार से समुद्र-तट की प्राति हुई।
यह सुख से वृद्धिंगत पारीर वाला था, परन्तु उक्त घटना से और अपार समुद्र के खारे जल से इसका चित्त शून्य हो गया और चिरकाल में इसकी उत्पन्न हुई मच्छी दूर हुई । जब ऐमा सूर्य दृष्टिगोचर हुआउदित हुआ, जिसने अपनी किरणों के प्रसार से चकवी-चकबो का चिन्तारूपी मणि चूर-चूर किया है। जो उदयाचल को शिखर-मण्डल का चूडामणि ( मुकुटमणि ) है। जिसने कमलिनी के समूह को विकसित करने से हंसिनी में सुख स्थापित किया है और जो विकसित कमलों के मध्य प्रविष्ट होने से मनोज है । तब बन्धुजनों के मरण से और धन के बिनाश हो जाने से उसे विशेष मानसिक दुःख हुआ। उसकी शारीरिक कान्ति म्लान हो गई यो । उसकी शरीररूपी छोटो गाड़ी जीर्ण वस्त्र के चीथड़ों से आच्छादित थी। वह निर्घन था। परगृहों को सेवा से उसकी अभिमानरूपी पृथिवी नष्ट हो चुकी थी। अन्त में आजीविका-शून्य हुआ वह घूमता-घूमता क्रम से सिंहपुर में आया । उसको पूर्वदशा केवल वचन द्वारा ही निश्चय करने योग्य थी। वह थीभूति का स्मरण करके जोर-जोर से चिल्लाता था। उसने तोड़ लोभ के कारण प्रीति का त्याग करनेवाले श्रीभूति से अपने सात रत्न मांगे।
दूसरों को ठगने के लिए वेद व स्मृति शास्त्र का अभ्यास किये हुए श्रीभूति ने सोचा
१. घम्सुसमूह। २. त्र्याधुटितस्य । ३. उच्छलित । ४. देवावलम्बनपरतया। ५. गुटितभानप्रवणिकाष्ट। ६.
रात्रः । ७. समुद्रतट। ८. द्धित। २. शुन्यचित्त । १०. स्फैटिन । ११. चिन्ता एव मणिः । १२. स्त्री। १३. आदित्य-सूर्य । १४. विकसत्वगल । १५. धनविनाशात् । १६. मानसदुःखेन । १७. कृषः । १४. जीवस्त्र । १९. अङ्गमेव याकदिः । *. 'कटिमात्रयस्थः कापड़ीसदृशो वा' इति दि. ७०। पक्षिवायां नु काटिः निस्वः ।' 'दरिद्री' इति टि० च । २०, परगृहसेवा । २१. 'वनिः आजोविफा' टि० ख०। ६० तु 'अघर्ता-निर्जीविका । २२. जातानुक्रमः । २३, त्यत्तस्नेह । २४. शास्त्र, वेदः स्मृतिभ्न ।
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सप्तिम आश्वासः
३२९ 'सुप्रयुक्तेन खम्भेन 'स्वयंभूरपि वञ्ज्यते । का नामालोचना न्यत्र' संवृत्तिः परमा ययि ।। १०५ ।'
पनि परामपय "महापाप्रातचेतास्तमायातशु'चमेवमवोवत् – 'अहो, बुर्दुस्ट' फिराट, किमिह खल स्वं केनचिपिशाचेन पनि पिामु पोग शेतीयोगातिलहितः, किंवा कितवण्यवहारेषु हारितसमस्तचित्तवृत्तिः, उत अहो पचित्तवम्वपिशाधिकथा कयाचिल्लटिजफया जानसबुष्प्रयत्तिः, आहोस्वित्फलवतः पावपस्यैव श्रीमतः क्रियमाणोऽभियोगो न खलु फिपि फलमसंपाद्य विधाम्पतीति धेससा केनचितुर्भेषसा विश्लाषयुनियनवमतिविपद्धमिधरसे। क्वाहम, जय भवान, पब मणयः, कहचावयोः संबन्धः । तरफटकपटचेष्टिताकर, पनपाटश्चर'२, अणकपणिक'३ सालमपटल प्रतीसप्रस्व ४यिकनीलमति विलमेवं मामकाण्ई घणकर्मन्पर्यनुमुनाना" कर्म न सजसे ।'
पुनाचनमर्थप्रार्थनपथमनोरयविशालं शबालं" बसामालिन्द"मन्दिरमनुचरंरानाम्यानार्यमति:१९. 'वैव, अयं वणिग्निष्कारणमस्माकं दुरपयाय मृदङ्गवन्मुलरमुखः सुखेनानस्तितस्तानक:० इयासित न ददाति' इत्याविभक्तिरयाप्तप्रसरसयोसजित राजहृदयस्तव पृथियोनायेनापि निराकारयत् ।
'अच्छी तरह से प्रयोग किये हुए छल से ब्रह्मा भी ठगाया जाता है और यदि [ ठगने योग्य ] दूसरे मनुष्य में पूर्व अवस्था का लोप हो गया है, अर्थात्-विशेष परिवर्तन हो गया है, तब तो विचार करने की बात ही क्या है ? अर्थात्---उसे ठगना सुलभ है' ॥ १०५ ।।
_ विशेष तरुणा से व्याप्त चित्त बाले श्रीभूति ने शोकाकुल वणिक-पुत्र से कहा-'अरे दुराग्रही भील ! क्या तू यहां पर किसी पिशाच द्वारा निस्सन्देह छला गया है ? या मानसिक तृष्णा को उत्पन्न करने वाले आग्रह वाली किसी मोहन भापधि द्वारा तु आक्रान्त झा है ? अथवा जुआ खेलने में तेरी समस्त चित्तवृत्ति हराई गई है? अथवा आश्चर्य है कि या दूसरों के चित्त को धोखा देने में पिनाचिनी-सरीखी किसी दासी द्वारा तेरे में खोटो प्रवृत्ति उत्पन्न की गई है ? अथवा-जिस प्रकार फलशाली वृक्ष पर किया हुआ लकड़ी का प्रहार, विना फल गिराये विश्राम नहीं लेता उसी प्रकार धनाढ्य के कार किसी दृष्ट पुरुष के द्वारा किया हुआ प्रहार भी विना धन-आदि प्राप्त किए विश्राम नहीं लेता, ऐसा सोचकर किसी दुर्बुद्धि मे तेरी बुद्धि ठगी है ? जिससे तू उल्टे वचन बकता है; क्योंकि कहां मैं, कहाँ तू, कहाँ रत्न और कहाँ मेरा व आपका संबंध ? अतः कूट कपट-र्णपू चेष्टाओं की खानि, नगरचोर, निन्ध व उग्र कर्म बाले वणिक ! समस्त देश में विश्वसनीय प्रकृति वाले मुझसे असमय में विशेषरूप से पूछता हुआ तू लज्जित क्यों नहीं होता?
इसके उपरान्त दुर्बुद्धि श्रीभूति धन की प्रार्थना के मार्ग-युक्त महान मनोरथ वाले और वाचाल इस भद्रमित्र' वणिक-पुत्र को जबर्दस्ती तेवकों द्वारा राजमहल में ले गया और राजा से बोला-'देव ! यह वणिक, जिसका मुख अकारण मेरी अपकीति करने के लिए मदन जैसा वाचाल हो रहा है और जो विना नाथ के बैल जैसा मुझे सुख से बेठने नहीं देता।' इत्यादि बातों द्वारा नम्रता प्राप्त करने से श्रीभूति ने राजा का हृदय
१. ब्रह्मा । २. विचारः । ३. परनर । ४. संगनं लोपः । ५. तृष्णा। ६. प्राप्तशोचं । ७. 'दुरावाहिन्' टि.
ख. पं० तु 'दुष्ट दुराग्रही'। ८. दास्या। ९. वृक्षस्य चालन खस्ने रणं । १०. उद्यमः प्रकट कलक्षणः । ११. वदसि । १२. रे पत्तनचौर ! । १३. निन्धणिक ।। *. देश । १४. 'विश्वासस्वभाव' टि० ख०, पछिकायां सु 'प्रत्यमिको विश्वास्यः'। १५. गाढं अतीव । १३. पृच्छन् । १७. वाचाल । १८. राजमन्दिरं । १९. असभ्यः । २०. नायरहितवृषभवात् । २१, कोपित । २२. निर्द्धाटने कारयामास टि० , निर्षाटयामास टि च ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
भासिनः
पारसनाथ
कुलक्रमायाताखिलकमलानिलयमनन्यसामान्यसाहु
सालयमेव मोविषणानिधिरपर इमापायजलकि नंगर मध्येऽपि मोषितुमभिलषति' इति जाता 'सर्वोत्कर्ष स्तं "म्यासापणेऽतिचिक्कपचितं निश्चिस्य स्वाध्यायिपरिषवि महापरिषद ज तदस्याथोपन्यासविन्यासेन साध्यसिद्धिमनवखानयनमोः" १० अाशुकमतिर्महादेवोध मनेम "निवेशम ग्लि "कामो कशिखा देशमा रुह्याद्गुह्यः विरहावसरः कुरर इव समस्थिमी प्रथम पश्चिमयामसमये "सुहृच्च राहूतिः श्रीभूतिरेवंविधक रण्डविन्यस्तम्: इयत्संस्थानसमम् एतवर्णम् अधः संस्याम्यणं च मदीयं मणिगणमुपनिधि निषेयं न प्रतिवदातीत्यत्रास्यंष धर्मरमणी साक्षिणी वयवि यवतयैतन्यथा मनागपि भवति तवा में चित्रवषो विधातव्यः ।
,
३३०
इति दीर्घघोषपूणित मूर्ध्वमध्य मूर्ध्वबाहुः सर्वसुं परिवर्ताद्धं पूतकुर्वन्नेकदा नगराङ्गमाननस्य " चखाभृतपा त्रयन्त्रधारागृहाषगागोरितजगत्त्रयं कौमुदीमहोत्सव समयमा लोकमानया तमङ्गोत्सङ्गमा सोनया" निपुणिकाभिधानोकुपित कर दिया, जिससे राजा ने भी उसे निकलवा दिया ।
तब भद्रमित्र ने विचार किया- 'निस्सन्देह यह आश्चर्य की बात है कि चोरी करने को बुद्धि का निधि यह श्रीभूति, जो ऐसा मालूम पड़ता है मानों - मेरा धन नष्ट करनेवाला दूसरा समुद्र ही है - दूसरों को अगने के निमित्त से वंशपरम्परा से प्राप्त हुई समस्त लक्ष्मी के स्थानीभूत और असाधारण साहस के गृह मुझे भी नगर के मध्य में ठगने की इच्छा करता है । अतः उसे उत्कट क्रोध उत्पन्न हुआ । पदचात् उसने श्रीभूति को स्थापित धन के वापिस देने में विशेष लुब्धचित्तवाला अथवा पञ्जिकाकार के अभिप्राय से विचारशून्य निश्चय किया और जब उसने मठाधीश विद्वानों को सभा में और न्याय के चिन्तन में नियुक्त हुए धर्माधिकारियों की सभा ( न्यायालय में श्रीभूति के अन्याय ( धरोहर सम्पत्ति का अपहरण ) के स्थापन करने से अपनी प्रयोजन-सिद्धि ( सात रत्नों की प्राप्ति) नहीं समझो तब परवश बुद्धित्राला और स्थिर अस्थिर बुद्धि-युक्त हुआ वह महारानी के महल के समीप स्थित हुए इमली के वृक्ष की शिखर पर आरूढ़ होकर वैसा संकटग्रस्त हुआ जैसे पक्षिणों के वियोग के अवसर वाला पक्षी संकटग्रस्त होता है ।
इसके उपरान्त वह रात्रि के प्रथम व अन्तिम प्रहर की वेला में अपनी भुजाओं को ऊपर उठाकर अपना मध्यभाग ऊपर करने पूर्वक केचे स्वर से कम्पन पूर्वक जोर से चिल्लाता रहा- 'मेरा पूर्व का मित्र किन्तु अब शत्रु नाम वाला श्रीभूति, अमुक प्रकार के पिटारे में रक्खे हुए, अमुक आकारवाले, अमुक वर्णवाले, अमुक संख्यावाले मेरे रत्न समूह ( सात रन) नहीं देता, जिन्हें मैंने उसके पास स्थापनीय ( धरोहर के रूप में ) रूप से स्थापित किये थे । इस विषय में इसकी धर्मपत्नी ही साक्षी है । यदि मेरा यह कथन असम्बद्ध प्रलाप से जरा भी झूठ हो तो मेरा गूढ़ वध कर देना चाहिए।' इस प्रकार वह छह माह तक चिल्लाता रहा ।
इसके पश्चात् एक समय ऐसी रामदत्ता रानी ने इसका चिल्लाना सुनकर करुण अभिप्राय से इसे
।
ते
१. परवचननिमित्तं मामपि मोचितुमभिलषति । २. चौर्य । ३. द्वितीयः । ४. क्रोव । ५. स्थापितधनदाने । ६. लोभिष्टं । 'चिक्कणः अपरिच्छेदकः इति पं० ७. स्वाप्यायिम ठिका प्रतिबद्ध समूहै । ८. न्यायचिन्तनाधिकारसमूहेधर्माधिकारे । ९. परवशबुद्धिः । १०. अशा स्थिरास्थिरा । ११. समीपं । १२. विचिणीवृक्ष । १३. पक्षिणी । १४. रात्रिः । १५. पूर्व सुहृदिदानीं शत्रुरिति नाम । १६. स्वापनीयं धनं स्थाप्यं । १७. असम्वबुधप्रलापतया । १८. षण्मासान् यावत् । १९. चन्द्र एव अमृतपात्रं तदेव मन्त्रधारागृहं । किरणामृतासारावग्राह्गोरितजगत्त्रयम्" इति क० २० उपरितनभूमिस्थितया रामदत्तया ।
शिशिरकर
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ससम आश्वास
३३१ "पसवित्रीसमेतया अनाथलोकलोचनचकोर'कोमहवल्पमसया रामदत्तमा करुणारसप्रचारपदव्या महादेव्याणितानु"कोशाभिनिवेशानिणितश्च ।
सबनु 'अस्मन्मनःसंपात्रि पात्रि," म खल्वंष मनुष्यः पिशायपरिष्लतो' नाप्युन्मत्ताधरितो यतस्तं दिवसमाधं कृत्वा सकलमपि परिवत्सरबलमेकवाक्यव्याहा राकुष्ठ पाठकठोरकष्ठनालः । तद्विधारयेयं तवाचिरकालं * शारविशारवहृदयाम्बुजस्य एतरकोजाग्याजेन 'मन्नरन्त:करणम् । अम्बिके '२, स्वयापि तदेवनावसरे पचहमेनमनेककृत राबारनिचितषिसमतिबहुकुमकुप"टचेष्टितं बकोट्यप्तमुहम्समातं पृमचामि, पद्याचास्य "कटकोमिकाकादिकं जयामि, तत्तवाभिशानोकृत्य मगौमुल्यव्यान्नोसमाचारकट्नी श्रीवत्ता भदिनी "तिन्तिगीकातल्भागोऽस्प वणियो विषमरुचिमरीचिसंख्यासंपन्नानि रत्नानि याचयितव्या।'
इति निपुणिनामा गीतिः५० मस्ताहति न पोहानन्दु, बुनु २२, स्वयापि भगवत्या साथ विजृम्भितम्यम्, यद्यस्य विश्वापुषस्यास्ति सत्यता' इत्यस्येश्य तवाचरिताचरणा शतशस्तत्तबभिज्ञानशापनानु. देखा, जो कि राजमहल की उपरितन भूमि पर बैठकर नागरिक कामिनी जनों की कौमुदी महोत्सब-वेला को, जिसने चन्द्ररूपी अमृतपात्र के फुव्वारा-गृह में प्रवेश करने से तीन लोक शुभ्र किये हैं, देख रही थी, जो निपुणिका नाम की धाय सहित थी । जिसका परित्र अनाथलोक के नेत्ररूपी चकोर पक्षियों को सन्तुष्ट करने के लिए चांदनी की सृष्टि करनेवाला है और जो करुणा रस के प्रचार की मार्गरूप है।
पश्चात् उसने अपनी निपुणिका धाय से कहा-'मेरे मन में मैत्री स्थापित करनेवाली धाय | निस्सन्देह यह मनुष्य पिशाच के द्वारा गृहीत नहीं है, और न इसका आचरण पागलों-सरीखा है। क्योंकि इसकी कण्टनाल उसो दिन से लेकर लगातार छह माह तक उक्त प्रकार एक वाक्य संबंधी उच्चारण के अमन्द पाठ से कठोर हो गई है । अतः मुझे द्यूतकोड़ा के बहाने से द्यूत-कोड़ा में प्रवीण हृदय कमलवाले श्रीभूति मन्त्री के हृदय की परीक्षा शीघ्र करनी चाहिए।
माता! जुआ खेलते समय में अनेक कुत्सित ( निन्द्य ) आचरण से व्याप्त चित्तवाले, अत्यधिक मायाचार की चेष्टा-युक्त व बगुला भगत से जो जो वृत्तान्त-समूह पू और जो उसके कक्षण, अंगूठी व वस्त्रादि जीतूं उनकी स्मृति या पहिचान कराकर उन सब को प्रमाण रूप से उपस्थित करके-तुम्हें उस मृगी के समान मुखवाली किन्तु सिंहनी के समान आचरणवालो कुट्टनी श्रीदत्ता से इमली के वृक्ष पर आरूढ़ हुए इस वणिक् के सप्ताचि ( अग्नि ) की संख्यावाले ( सात ) रत्त मांग लाने चाहिए।'
___ रानी ने इसप्रकार 'निपुणिका' धाय को संकेत कर दिया और आगामी दिन में प्रार्थना को'हे मेरे हृदय को सदा आनन्द देनेवाले दुन्दुभि-सरीखे पाशदेवता! यदि इस इमली के वृक्षवाला पुरुष सच्चा है तो भगवती तुझे भी इसमें अच्छी तरह सहायता करनी चाहिए।' पश्चात् उसने वैसा ही किया, अतिश्रीभूति के साथ शतरज खेलकर उसके कड़े, अंगूठो और वस्त्रादि जीत लिये और श्रीभूति की पत्नो से, १. धात्री । २. 'चन्ट्रिकाचावृत्तयः' इति क० । ३. मार्गरूपया। ४. 'करुणाभिप्रायात्' रिल ल । ५० तु अनुकोशः
अनुग्रहः । 'अनुग्रह दिखच०। ५. हे मातः !। ६. गृहीतः। ७. संवत्सराई। ८. आलापः । १. अमन्दः । १०. धूतक्रीडा । ११. मनिवस्य । १२. हे पापि !। १३. क्रोडन । १४. कुत्सित । १५. माया । १६. कंकण, मुद्रिका, वस्त्र । १७. 'कुट्टिनी' इति का। १८. चिचा। १९. पप्ताचिसंस्पानि । १०. संकेतः । २१. आगामिदिने। २२. हे धात्रि!। २३. प्रार्थ्य।
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३३२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
बन्ध 'तन्त्रात कलत्रान्मणीनुरप्रणीय
राजः समर्पयामास स राजाऽहूतांशी स्वकीयरत्नराशी तानि संकीर्य कार्य लक्ष्मी कल्पलता विकासनन्दनं वंदेहिकनन्यनम्', 'अहो वणिक्लनय यान्यत्र रत्ननिचये तव रत्नानि सति तानि त्वं विचिप गृहाण' इत्यभाणीत् । भद्रमित्रः 'चिरत्राय' नतु विष्टयां वर्षेऽम्' इति ममस्यभिनिविश्म " 'याधिपति विशां पतिः' इत्युपविश्य विसृश्य च तस्यां माणिक्पु निजान्येव मनाविलम्बितपरिचयचिरत्नानि । २ रत्नानि समग्रहीत् ।
י
ततः स नरवरः सपरिवारः प्रकामं विस्मितमतिः 'वणिक्पते, त्वमेवात्रान्वर्थतः सत्यघोषः, स्थमेव च परमनिःस्पृहमनीष:, यत्तव चेतसि वचसि न मनागप्यन्ययाभावः समस्ति' इति प्रतीतिभिः पारितोषिक प्रदानपुरःसरप्रकृतिभिस्तत्तपछिको पश्चितिवसतिभिश्व भणितिभिस्तम खिलबह्य ४ स्तम्बस्ति 'भीविजृम्भमाणगुणगणस्तोत्रं भवमित्रं कथंकारं भइलाघपामास । पुनरदूराशिवताति" श्रीभूति निखिललोक" "लपमालवा लमूलकौलीनता ललाध्ययशाखिनं म्युकआन्दनं निसर्गेण हरिगीसमागमपि महासा सानुष्ठानात्लू ' 'मसमानकाय मनप स्फुटन / स्वनित २३. जो कि सैकड़ों उन उन चिह्नों कङ्कण आदि के ज्ञापन की निरन्तर प्रवृत्ति से परवश हुई है, उक्त वणिक् के सात रत्न मंगवाकर राजा के लिए समर्पण कर दिये ।
राजा ने अदभुत किरणों वाली अपनी रत्न - राधि में उन्हें मिलाकर समीपवर्ती लक्ष्मीरूपी कल्पलता की क्रीड़ा के लिये नन्दनवन सरीखे उस वैश्यपुत्र को बुलाकर कहा - 'वणिक्पुत्र ! इस रत्नसमूह के मध्य में जो रत्न तुम्हारे हों, उन्हें जानकर ले लो।'
'चिरकाल के पश्चात् उत्पन्न हुए पुण्य से में बढ़ रहा हूँ' ऐसा मन में अभिप्राय करके 'भद्रमित्र' ने कहा - 'राजा सा० जैसी आज्ञा देते है ।'
पश्चात् उसने उस रत्न-समूह के मध्य में से अपने ऐसे सात रत्न विचार कर ग्रहण कर लिए, जिनमें अल्प विलम्ब वाली जानकारी के कारण काल-क्षेप ( कुछ समय का यापन ) वर्तमान था ।
यह देखकर राजा सकुटम्ब विशेष आश्चर्यान्वित बुद्धि वाला होकर बोला- ' है वणिक पति ! तुम हो लोक में यथार्थ सत्यघोष हो, तुम ही विशेष वाञ्छा-रहित बुद्धिमान हो, क्योंकि तुम्हारे मन वचन में जरा-सो भी लम्पटता या छलखित्ता नहीं है।' राजा ने इस प्रकार के पारितोषिक पूर्वक धन-प्रदान स्वभाव वाले विश्वासों द्वारा और तत्काल में उचित सम्मान के स्थानीभूत वचनों द्वारा भद्रमित्र की अत्यधिक प्रशंसा की, जिसके गुण-समूह को स्तुति समस्त ब्रह्माण्ड के हृदय में विस्तृत हो रही है,
जब राजा ने श्रीभूति को ऐसा देखा, जो कि समीपवर्ती अमङ्गल वाला है, जो कि समस्त लोक की मुखरूपी क्यारी में स्थित हुई जड़वाली लोक-निन्दारूप लता के आश्रय के लिए वृक्ष सरीखा है, जो नोचा मुख
१. संतत्या प्रवर्तमानपरवशात् । २. आलोय । ३. किरणे । ४. मिश्रकृते । ५. 'कोड' टि स० 'देवोद्यानं' ६ वैश्वपुत्रं । ७. रत्न-समूहमध्ये ८. विराय ॥ ९. ममुरजातेन समूहः । १२. मनाग्विलम्बिनपरिषदेत चिरलः कालयेषु उचितजालाभिः टि० स० पं० तु उपथिकमुचितम् । १४. त्रह्माण्ड ।
टि० प्र० । पञ्जिकायां तु नन्दनं देवोद्यानं । पुन १०. अभिप्रायं कृत्वा । ११. पुञ्जः रस्नेषु तानि चिरत्नानि । १३. ततस्मात्तदाकाले
१५. हृदयं । १६. समीपा मंगलं । १७. मुख । १८ जनापवादः टि० स० पं० तु रपवादः । १९ । २०. स्वर्णप्रतिमा । २९. लोहप्रतिमा । २२. उन्मार्ग । २३. हृदयं ।
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सप्तम आश्वासः
३३३
मतीव मया विभूतोत्पथ 'वेपथुस्तिमितमवेक्ष्य ब्रह्माक्षेपम् 'आ: 3 सोपायिनामपाङ्क्तेय" वंश्रेय, विश्वासधातक, पातकप्रय, धोत्रियकितव, दुराचार, प्रवतितमुत्नरत्नापहार, कुशिककुलपांसन" कानुष्ठानसदन, साघु जनमनः शकुनिबन्धनायातमुतन्त्री' जालमिव खलु तवेयं यज्ञोपवीतम् । असदाचारावधिक १० देववधिक समं रामदुर्गतिक "
मसाविवानाथ "विश्व भोज समिन्धन १४, अकृत्य संस्थायामात्य, जरायमवृतिकोपपत्तिक किमात्मनो न पश्यसि "वमंतरस्वमिवातिप्रवृद्ध विधोचात्यन्मायशिथिलता प्रभातप्रदीपिकामिवातास जीवितरविमङ्गचछवि २५ येणाद्यापि वयोधसि वयसि वर्तमान इव चेष्टसे । तविवानों यदि घनाभिबारघोरतेनसि विश्वदसि निक्षिप्यते, तदा विरोपचितदुराचारहस्य तवाधिरदुःखामिपरिग्रहोऽनुग्रह इव ।
ततो द्विजापस, कथाविस्वयेवमतिदुर्गन्धगोवं रोद्गवितमध्याशयं "वलोत्फुल्लल्लामा मल्लानां सहित
लाजिर त्रयमशितव्यम् नो चेवशराव मर्यस्वापहारः ।' प्रणाशाघ
किये हुए हैं, जो पूर्व में स्वभावतः सुवर्ण की मूर्ति- सरीखा कान्ति-युक्त था, परन्तु महान् दुस्साहस-युक्त कर्म करने से वह लोहे की मूर्ति-सरीखे शरीर-युक्त मालूम पड़ता है, जिसका मन प्रचुर उन्मार्ग (कुपथ ) में गमन करने से भग्न हो रहा था - - चूर-चूर हो रहा था और जो विशेष भय से उत्पन्न हुए बेमर्याद कम्पन से प्रस् दिन ( अत्यधिक पसीना -युक्त ) था, तब उसने विशेष तिरस्कार पूर्वक कहा - 'बड़ा खेद है, है जाह्मणों के मध्य पक्ति-रहित ! अर्थात् - हे ग्राह्मण श्रेणी में रखने के अयोग्य ( जाति से बहिष्कृत ) ! निर्भाग्य ! हे विश्वासघातक व पातकों की उत्पत्ति स्थान ! हे ब्राह्मण धूर्त ! दुराचारी ! नवीन रत्नों का अपहरण करनेवाले ! हे ब्राह्मण वंश दूषण ! हे बगुला सरीखी कुटिलता के स्थान ! निस्सन्देह तेरा यह यज्ञोपवीत शिष्ट पुरुषों के मनरूपी पक्षियों के बन्धन के लिए बृहत् तालों का जाल सरीखा है। हे पापाचार को चरम सीमावाले ! वेदरूपी कावड़ी के धारक ( वेदों के भारवाहक ) ! प्रशस्त धर्मस्थान में मलिनता उत्पन्न करने के लिये अग्नि के ईंधन ! हे कुकर्म के गृह ! हे निकृष्ट ( अधम ) मंत्री ! हे वृद्धावस्था रूपो यमदूती के आदर करने में तत्पर ! और हे जार !
क्या तुम विशेष बढ़ी हुई वृद्धावस्थारूपी प्रचण्ड वायु द्वारा उत्पन्न हुईं घातक शिथिलतावाली, भोजपत्र - सी शारीरिक शिथिलतावाली और तेज हवा के चलने से वुझने के उन्मुख हुए प्रभातकालीन दीपकसरीखी व जिसमें जीवनरूपी सूर्य का अस्त होना निकटवर्ती है, ऐसी शरीर की खाल को नहीं देखते हो ? जिससे अम भी ऐसी चेष्टाएँ करते हो - मानों तुम युवा हो । अतः इस समय यदि तु प्रचुर घृत डालने से भयानक . तेजवाली — धधकती हुई अग्नि में फेंक दिया जाय तो चिरकाल से संचित किये हुए पाप को स्वीकार करनेवाले तेरा अनुग्रह जैसा होगा. क्योंकि तुझे अग्नि में फेंकना तत्काल दुःख देने वाला है । इसलिए हे निकृष्ट ब्राह्मण ! या तो तुझे विशेष दुर्गन्धित गोबर से भरे हुए मध्यदेश वाले तीन सकोरों परिमाण गोबर खाना चाहिए । यदि ऐसा नहीं कर सकता तो प्रचुर बल से फूले हुए गालों वाले पहलवानों के नेतोस कोहनियों के प्रहार १२. कम्पेना प्रवेदितं । ३. खेदे । ४. सोमपायिनो ब्राह्मणाः । ५. पक्तिरहित । ६. निर्भाग्य । ७. ब्राह्मण कुलरूपण । ८. विनायें । ९. दवरकस्य तांतं मनुजाल । १०. मर्याइ । ११. वेदानुष्ठानरत १२. कृष्णत्व । १३. अग्नेः । १४. इन्धन । १५. गृह । १६. निकृष्ट मन्त्रिन् ! १७. जब यमदूती, उपपत्तिकः बदरपरः । १८. जार। १९. भूर्जतपत्रवत् शिथिलशरीरखां । २०. जरा एवं वाश्या २१. कायखल्ला । २२. यौवने हव । २३. घृत । २४. अग्नी । २५ अथवा २६ भृतमध्यप्रदेां । २७. भाजन - भाणा दि० ख०, पं० तु. 'शालाबिरं शरादे' शरावं दि० ब० । २८. बहुलवल । २९. अवहृत्य — कोणी ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
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काशविभूतिः श्रीभूति रायतयं वण्यं क्रमेणातितिक्षमाणः ' 'पर्याप्त समस्तत्र विणः किमितिमा रपरिषत्परिकल्पित ४. प्रमाष्टिः - कृतकलशकपाल" मालावासिक "सृष्टिस्सृष्ट" सरावमपरिष्कृतिः पुराववालवालेय कमारोहल सनिकाएं निष्कासितः पापविपाकोपपन्ना प्रतिष्ठ कुष्ठो दुष्परिणाम कनिष्ठ: 13 शुभाशयारण्य विनाशमहति हिरण्यरेतसि तनुविसर्गात रौद्रसपायेऽन्ववाये प्रादुर्भूय चिरायापराध्य १७ च प्राणिषु मातजीवितावधि १८ :प्रधाननिधिर्वभूव ।
भवति चात्र श्लोक:
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श्रीभूतः यदोषेण पत्युः प्राप्य पराभवम् । रोहित' 'वप्रवेशेन वंशेर: २० सनयोगतः ॥ १०६ ॥ इत्युपासकरध्ययने स्तेयफलप्रलपनो नाम सप्तविंशतितमः कल्पः ।
I
अत्युक्तिमन्यवोपोमिसम्योक्ति १५ वयेत् । भाषेत वचनं नित्यमभिजातं हितं मितम् ||१०७ ।। तत्सत्यमपि गोवाच्यं परस्परपर विपक्षये । अश्मन्ते येन वा स्वस्य व्यापदश्च दुरास्पवाः ।। १०८ ।।
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( मुक्के ) सहन करना चाहिए। नहीं तो निस्सन्देह तेरा रामस्त घन अपहरण किया जायगा ।'
मृत्यु से अपनी रक्षा की विभूति माननेवाला श्रीभूति जब शुरू के दो राजदण्ड क्रमशः सहन न कर सका तब राजा द्वारा उसका समस्त धन ग्रहण कर लिया गया और उसके शरीर पर कीड़ों से कर्बुरित कीचड़ से विलेपन करके घड़ों की खप्पर श्रेणी की माला पहिना कर उसे जूठे सकोरों की माला से अलङ्कृत किया गया। चाद में बड़े गधे पर चढ़ा कर उसे तिरस्कार पूर्वक नगर से निकाल दिया | पापकर्म के उदय से उसे चारों मोर शोभमान कोढ़ हो गया | खोटे परिणामों से वह जघन्य कोटि का था । इसलिए उसने उसके शुभ परिणामरूप वन को भस्म करनेवाली अग्नि में जलकर शरीर त्याग किया— मर गया और उत्पन्न हुए रोद्र ध्यान के कारण साँपों के वंश में उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने अनेक प्राणियों को हंसा और आयु पूरी करके नरकवासों हुआप्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है--श्रीभूति नाम का पुरोहित घोरो करने के अपराध से राजा द्वारा तिरस्कृत हुआ और अग्नि में जलकर मर गया। पश्चात् सर्पयोनि में उत्पन्न होकर नरकगामी हुआ ।। १०६ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में चोरों का फल बतलानेवाला सत्ताईसव कल्प समाप्त हुआ । atra सत्यव्रत का निरूपण करते हैं
सत्याणुव्रत
सत्यवादी को किसी बात को बढ़ाकर नहीं कहते हुए दूसरों के दोष नहीं कहना चाहिए और असम्य वचन बोलने का त्याग करना चाहिए। उसे सदा कुलीनता प्रकट करनेवाले, हितकारक व परिमित वचन बोलना चाहिए ।। १०७ सत्यवक्ता को ऐसा सत्य भी नहीं बोलना चाहिए, जिससे दूसरे प्राणियों पर विपत्ति ( पोड़ा या मरण )
१. असहमान: । २. गृहीत उद्दालित । ३. कृमिभिः विचित्रकम: टिं० ख० पं० तु किमीरः करः परिवत् कर्दमः । ४ परिविरचितविलेपन टि० ० ० तु प्रमाष्टि विलेपनं । ५. कुम्मस्य वरश्रेणी । ६. बद्धरचना । ७. उच्छिष्ट । ८. माला । ९. परिष्कृतः अलङ्कृतः । १०. नगरात् । ११. १३. जघन्यः । १४. अग्लो । १५. सर्पवंशे । १६. उत्पद्य । १७. प्राणिषु अपराधं कृत्वा । १९. अग्नि । २०. सर्पः । २१. 'असत्योति च' इति क० २२. 'अभिजातस्तु कुलजे बुत्रे चोपचारात्' टि० ख०, 'अभिजातं शुभकुलोवुभवं वचनं' टि००
बृहत्रासभं । १२ अशोममान ।
१८. सर्पोऽपि । सुकुमारे न्याय्ये
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सप्तम आश्वासः
I
रिप्रियाचार: प्रियं समयं नित्यं परहिते रतः ॥ १०९ ॥ केवतिषु देवषसंतपस्सु च । अवबाधवाञ्जन्तुर्भवेद्दर्शनमोहवान् ॥ ११० ॥ मोक्षमार्ग स्वयं जानन्नपि यो न भाषते । मवापह्नव मात्सयें: स स्यादावरणढयो । १११ ।। मन्त्रभेदः परीवाद: * पेशून्यं फूटलेखनम् । घासाक्षिपवोक्तिश्च सत्यस्यते विघातकाः ||११२ ॥ परस्त्रीराज" विद्विष्टलोक 'विद्विष्टसंधयाम् । "अनायकसमारम्भा न कथं कथयेयुः ॥ ११३ ॥ असत्यं सत्यगं विवित्सत्यमपत्यगम् । सत्य सत्यं पुनः किमिवसत्यासत्यमेव च ॥ ११४ ॥
३३५
अस्येदमैप सरयमपि किंचित्सत्यमेव यथान्धांसि" रन्धयति पयति वाससीति ॥ सत्यमप्यस किविद्ययामासत मे दिवसे तथेदं वेपमित्यास्थाय १२ मासतमे संवत्सरतमे वा दिवसे दवातोति । सत्यसत्यं किंचिद्यद्वस्तु प्रदेश कालाकारप्रमाणं प्रतिपन्नं तत्र तथैवा विसंवाया । असत्यासत्यं किंचित्स्वस्यासत्संगिरते १० फल्मे बास्यामोति ।
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आती हो या अपने ऊपर भयानक दुनियार आपत्तियाँ आती हों ॥ १०८ ॥ सत्यवादी मानव को सदा प्यारी प्रकृति वाला, प्रिय आचरण वाला, प्रिय करने वाला, प्रिय भाषण करने वाला एवं सदा परोपकार करने में तत्पर होकर सदा दूसरों से द्रोह न करने वाली बुद्धिवाला ( दयालु) होना चाहिए || १०९ ॥ जो प्राणी केवली, द्रादशाङ्ग शास्त्र, मुनिसंघ, देव, धर्म (अहिंसा लक्षण ) व तग में गैरमौजूद दोषों का आरोपण करता है, या इनकी निन्दा करता है, वह मिध्यादृष्टि है, अर्थात् उसे दर्शनमोहनीय कर्म का मानव होता है ।। ११० ।। जो विद्वान् पुरुष मोक्ष के मार्ग को स्वयं जानता हुआ भी अपने ज्ञान का घमण्ड करने से, ज्ञान को छिपाने से, मात्सर्यभाव से – ईर्ष्या से ( मेरे सिवाय दूसरा कोई न जानने पावे ऐसी ईर्ष्या के कारण ) मोक्ष मार्ग के इच्छुक दूसरे मानव को नहीं बताता, वह ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्म का बन्ध करता है ।। १११ ॥ दूसरे के मन को बात जानकर उसे दूसरों पर प्रकट कर देना, असम्बद्ध भाषण करना अथवा झूठा उपदेश देना, चुगली करना, झूठे दस्तावेज आदि लिखाना और झूठी गवाही देना ये पांच दुर्गुण सत्यव्रत के धातक हैं, अर्थात् सत्यव्रत के पाँच अतिचार है ।। ११२ ।। विद्वान् पुरुष को परस्त्री कथा, राज-विरुद्ध कथा व लोक विरुद्ध कथा का श्याग करते हुए निरर्थक, नायक-रहित व कपोलकल्पित कथा नहीं कहनी चाहिए ॥ ११३ ॥ वचन चार प्रकार का होता है - १. असत्य-सत्य, २. सत्यासत्य, ३. सत्यसत्य व ४. असत्यासत्य ॥ ११४ ॥
इस लोक का यह अभिप्राय है कि कोई वचन असत्य होते हुए भी सत्य होता है। जैसे 'यह भात पकाता है' या 'वस्त्र बुनता है।' यहाँ पर पकाने योग्य चावलों में भात शब्द का प्रयोग किया गया है एवं वस्त्र-निर्माण योग्य तन्तुओं में वस्त्र शब्द का प्रयोग किया गया है। इसलिए उक्त वाक्यों में असत्यता होते हुए भी सत्यता है । अत: असत्य सत्य वचन [ लोक व्यवहार के अनुकूल ] है ।
इसी तरह कुछ सत्यवचन ऐसे होते हैं, जिनमें काल का व्यवधान हो जाने से असत्यता का मिश्रण होता है । जैसे कोई व्यक्ति किसी से कहता है, कि 'मैं आपको अमुक वस्तु पन्द्रह दिन में दूँगा ।' ऐसी प्रतिज्ञा करके वह एक महीना व एक वर्ष में उसे प्रतिज्ञात वस्तु देता है, इसे सत्यासत्य वचन जानना चाहिए। क्योंकि
* 'स्मादानृशंस्यधीनित्यं इति क० च० । १. पराद्रोहबुद्धिः दयासहितः । २. निन्दापरः । ३. मिध्यादृष्टिः । ४. बसछालापः । ५. राजविरुद्धां । ६. लोकविरुद्धां । ७. फल्गुकयां नायकरहितां कपोलकल्पिताम् । ८. श्लोकस्य । ९. रहस्यं - अयमर्थः । १०. 'ओदन' दि० ख०, पं० तु अन्धांसि मन्नानि । ११. वस्त्राणि । १२. प्रतिज्ञाय । १३. अभिय्यादादः । १४. कथयति सम् प्रतिज्ञाया' टि० ख०, 'प्रतिज्ञापति' इति टि० च० ।
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३३६
यशस्तिवक चम्पूकाव्यै
१
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भ
तुरीयं वर्जयेन्नित्यं लोकयात्रात्रये स्थिता । सा मिथ्यापि न गीमिया था गुर्वादिप्रसाविनी ।। ११५ ॥ नस्यादात्मनात्मानं न परं परिवारयेत् । न सतोगुणा हिस्यान्नासतः स्वस्थ वर्णयेत् ॥ ११६॥ तया "कुर्वन्प्रजायेत नीचगोत्रोचितः पुमान् । उच्चैर्गोत्र मघाप्नोति विपरोतकृतेः कृलो ॥११७॥३ यत्परस्य प्रियं कुर्यादात्मनस्तप्रियं हि तत् । अतः किमिति लोकोऽयं पराप्रिय परायणः ॥ ११८ ॥ यथा यथा परेतच्चेती वितनुते तमः । तथा तथारमनाडीषु तमोधारा निषिञ्चति ।। ११९ ॥ बोषतोर्यं गुणद्मोमैः संगतॄणि शरीरिणाम् । भवन्ति वित्तवासांसि गुरूणि च लघूनि च ॥ १२०॥ सत्यवाय सतरसम्म४यद्विजः सिद्धि समश्नुते । याणी चास्य भवेन्मान्या यत्र यत्रोपजायते ।। १२१ ।। तह" " याभाषामनीषितः । जिह्वाच्छेयमवाप्नोति परत्र च गतिक्षतिम् ॥१२२॥
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यहाँ पर वस्तु के देने में विरोध न होने के कारण सत्यता है और प्रतिज्ञा किये हुए काल के उल्लङ्घन हो जाने से असत्यता है । जो वस्तु जिस देश में, जिस काल में, जिस आकार में और जिस प्रमाण में जानी है, उसको उसी रूप से सत्य कहना सत्य सत्य है जो वस्तु अपने पास नहीं है, उसके लिए ऐसी प्रतिज्ञा करता है कि में तुम्हें सबेरे दूँगा परन्तु देता नहीं है। इसे असत्य-असत्य समझना चाहिए ।
इनमें से नौ असत्य-असत्य वचन को कभी नहीं बोलना चाहिए। क्योंकि लोक व्यवहार शेष तीन प्रकार के वचनों पर ही स्थित है। इसी प्रकार जो वाणी गुरु आदि हितैषियों को प्रमुदित करनेवाली है, वह मिथ्या होने पर भी मिध्या नहीं समझी जाती ।। ११५ ।। सत्यवादी को अपनी प्रशंसा न करते हुए दूसरों को निन्दा नहीं करनी चाहिए। उसे दूसरों में विद्यमान गुणों का घात ( लोप) नहीं करना चाहिए। और अपने अविद्यमान गुणों की नहीं कहना चाहिए कि मेरे में ये गुण हैं ।। ११६ || परनिन्दा, आत्मप्रशंसा व दूसरों के प्रशस्त गुणों का लोप करनेवाला मानव नीच गोत्र का बंध करता है और जब धार्मिक पुरुष उससे विपरीत करता है। अर्थात् अपनी निन्दा और दूसरों की प्रशंसा करता है तथा दूसरों में गुण न होने पर भी उनका वर्णन करता है तथा अपने में गुण होते हुए भी उनका कथन नहीं करता तब उच्चगोष का बघ करता है ।। ११७ ॥ जो व्यक्ति दूसरों का हित करने में तत्पर रहता है, वह अपना हो हित करता है, फिर भी न जाने क्यों यह लोक-संसार दूसरों का अहित करने में तत्पर रहता है ? ।। ११८ ।। जिस जिस प्रकार से यह विकृत मनोवृत्ति दूसरे प्राणियों में अज्ञानरूप अन्धकार का प्रसार करती है, उस उस प्रकार से वह अपनी धमनियों-- नाड़ियों में अज्ञानरूप अन्यकार की बारा को प्रवाहित करता है । अभिप्राय यह है कि दूसरों का अहित करने से अपना हो अहित होता है || १२५९॥ [ लोक में ] प्राणियों के चित्तरूपी वस्त्र जब दोषरूपी जल में डाले जाते हैं तो आई होने से गुरु ( वजनदार व पक्षान्तर में पापी ) हो जाते हैं और जब वे गुणरूपी गर्मी में फैलाये जाते हैं तो सूख जाने के कारण लघु ( हल्के व पक्षान्तर में पुष्यशाली ) हो हो जाते हैं ।
निष्कर्ष - अतः नैतिक पुरुष को अपना मनरूपों वस्त्र सदा सम्यग्ज्ञानादि प्रशस्त गुणरूप गर्मी द्वारा लघु ( हल्का पुण्यशाली ) करते रहना चाहिए ।। १२० ।।
सत्यवादी पुरुष सत्य के प्रभाव से वचन-सिद्धि प्राप्त करता है । उसको वाणी जिस-जिस विषय में
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१. असत्यासत्यं । २. व्यवहार ३. निन्दयेत् । ४. विद्यमानान् । ५. परात्मनित्वाप्रशंसां कुर्वाणः । तद्विपर्ययो नीचेर्वृत्तिः । ७. अतितत्परः । ८. मनः । ९. जर्मनो वस्त्राणि आर्द्राोभवन्ति । १०. संबंधीनि । ११. तुष्णमोह । १२. सुगतिविनायां ।
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सप्तम आश्वासः
३३७ श्रूयतामषासत्यफलस्योपाल्पानम्-जाङ्गलदेशेषु हस्तिनागनामावनीश्वरकुञ्जरजनितायतारे हस्तिनागपुरे मचनोवंण्डमण्डनीमण्डनमण्डलाम खनितभण्डनकपडू लारातिकोतिसतानिबन्धनोऽभूदयोधनो नाम नुपतिः ।
अनवरतवमुविधाणनप्रोणितातिपिरतिधिर्नामा चास्य महादेवी। सुता चानयोः सकलकलावलोकानलसा सुलसा नाम । सा किस तया महाव्या गभंगतापि शालेयेनकोनरशायिनो' रम्यकदेशनिय शोपेतपोदनपुरनिविश्नों "निर्विपक्षलक्ष्मौलक्षिताणमङ्गलस्य' मिङ्गलस्य ५"गुणगीर्वाणाचलरत्नसानवे सूनवं सुरिवरियक्षःस्थलोद्दलना", बचानोद्योगलागलाय मधुपिङ्गलाय परिणिता पंचभूव ।
भूभुजा घ महोवयेन तेन विवितमहादेपोहत्येनापि 'पस्य कस्यचिन्महाभागस्य भाग्य ग्यतया योग्यमिदं स्वणं अविणं तस्यंत यात् । अत्र सर्वेषामपि षष्मतामचिन्तितसुखदुःपागमानुभयप्रभा देवमेव शरणम्' इस विगणस्य' स्वयंवरार्थ भीम-भीष्म-भरत-भाग-सह-समर-सुबन्धु-मधुपिङ्गलादीनामनिपतीनामुपदानुकूलं मूल प्रस्थापर्यावभूवे।
प्रवृत्त होती है, उस उस विषय में मान्य होती है ॥ १२१ ।। इसके विपरोत जो मानव तृष्णा, ईर्षा, क्रोध व हर्ष-आदि के कारण झूठ बोलने को बुद्धि वाला होता है, उसे इस लोक में जिह्वाच्छेदन-आदि कष्ट होते हैं और परलोक में न हो युगति नालोनी है. सति-दुर्गति होती है ।। १२२ ।।
१५. असत्यभाषी वसु और पर्वत-नारव को कथा प्रय झूठ बोलने का कटु कफल बतलाने वाली कथा सुनिए
गाङ्गलदेश के 'हस्तिनाग' नामक श्रेष्ठ नराशा का जन्म होने के कारण सार्थक नाम वाले 'इस्तिनागपुर' नाम के नगर में, अपना प्रचण्ड वाहुदण्डमण्डली के अलवाररूप खड्ग द्वारा युद्ध करने को खुजली वाले शत्रुओं को कीतिरूपी लता को बुडित करने में कारणीभूत 'अयोधन' नामका राजा था । इसकी निरन्तर धन के दान द्वारा अतिथियों को सन्तुष्ट करनेवाली 'अतिथि' नामको 'पट्टरानी थी। इनके समस्त कलाओं के अभ्यास में प्रयत्नशील 'मुलसा' नामको पुत्री थी। जब राजकुमारी सुलसा महारानी के गर्भ में यो, तभी से महारानी ने निस्सन्देह रम्यक देशव पोदनपुर नगर के निवासी, जिसका परिपूर्ण मङ्गल (राज्यमुख) शत्रु-रहित राज्य लक्ष्मी द्वारा जाना गया था बजा महारानी का सहोदर था, ऐसे अपने भाई पिङ्गल के पुत्र ऐसे मवुपिङ्गल के लिये बाग्दान ( देनों) कर रखा था, जो गुण ( वीरता-आदि ) रूपी सुमेरु पर्वल का रत्नमयो शिखर था और जिसका उद्योगरूपी लाजल ( हल ! दुःख से भी निवारण करने के लिए अशक्य (दुर्जेय ) शत्रुओं के वक्षःस्थलों ( उरोभूमि ) के विदारणरूपी प्रशस्त कर्म वाला था ।
[जब सुलसा विवाह योग्य हुई तब विशेष उन्नतिशील राजा-अयोधन को यपि अपनो महारानी के हृदय की बात ज्ञात थी तो भी उसने सोचा कि-'यह स्त्री धन जिस किसी महाभाग्यशाली के भाग्य में भोगने के याग्य है, उसी का यह होना चाहिए । इस विषय में सब शरीरधारियों का देव ही शरण है और देव का
१. 'हस्तिनाग' नामा कश्चिद्राजा तत्र पूर्वमभूत् तेन तुम्नगरं हस्तिनागपूरमित्यभवत् । * सः। २-३.
खजितकर । ४. द्रव्य । ५. ज्ञातेवः ज्ञातेयं तेन वन्युत्वेनेत्यर्थः। ६. अतियिपिङ्गलायकोदरीत्पनौ। ११. स्थान । ८. पारहितः । ९. परिपूर्णमङ्गलरूप। १०. गुणा एवं गीर्वाणाचल: 'कस्तत्र रत्नशिखराय दि० ख०, गुणा एव गीर्वाणाः देवाः तेम्मः अचलः मेभः तन्त्र रत्नसानुः टि० च०। ११. उद्दलनायावदानं अद्भुतकर्म शुद्धकर्म वा तत्र उद्योग एव लागलं यस्य सः । १२. दत्ता । १३. शाला। १४. प्राभूतपूर्व । १५. लेसं। १६. तेन भूभुजा ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अत्रान्तरे मगधमध्यप्रसिचारायायामयोध्यायां नरवरः सगरो नाम । स फिल लास्याविविला 'सोशलसरसापाः सुलसायाः कर्णपरम्परया अतसोकप्यातिशयो रमनागुपरमसाइण्यासावयोवमः प्रयोगेण तामात्मसारिकोर्ष. स्तौफिसत्र प्रसिफर्मभिकल्पेषु संभोगसिद्धान्ते "विप्रधनविधायर्या स्त्रीपुरुषलक्षणे फवापयायिकाख्यानप्रवाहीकास्थपरा तासु सासु कलासु “परमसंवीणतालसारित्री मन्दोदरों माम पात्रों ज्योतिषाधिशास्त्रनिशितमतिप्रसूति विश्वभूति ध बनुमानसंभावितमनसं पुरोभस तत्र पुरि प्राहिणोत् ।
विशिकावायशालपरी' मन्दोदरी तां पुरमुपगम्य परप्रतारणप्रगरुमममीषा कृतकात्यायिनोवेवा ससरकलावलोकनकुनहलमयोधनवरापालं निजनायालिडिमरवतो१५ रजिसघती सती शुद्धान्तोपाध्यायी भूत्या सुलसा सगरे संगर' प्राहयामास । तया अकोटयतिबंधाः स पुरोषाश्च संसरादेशस्तस्य नृपल्य महादेवयाश्या वशीकृतषिसवृतिः। प्रभाव अचानक सुख-दुःस्त्र के आगमन से अनुमेय है। ऐमा जानकर उसमें स्वयंवर के लिये भीम, भीष्म, भरत, भाग, सङ्ग, सगर, सुबन्धु, ओर मधुपिङ्गल-आदि राजाओं के पास भेंट पूर्वक पर भिजवा दिये ।।
[ इसी बीच एक दूसरी घटना घटी]
मगध देश के मध्य में ख्याति प्राप्त करने में माराधना के योग्य अयोध्यानगरो में 'सगर' नामका राजा था। निस्सन्देह उसने कर्णपरम्परा से नत्यादि कलाओं को निपुणता से व विलास । हावभाव ) को चतुरता से रसीली सुलसा राजकुमारी को सर्वोत्कृष्ट अनोखो सुन्दरता की चर्चा सुनी । इस राजा को जवानी को सौन्दर्य-वृद्धि कुछ अल्प हो रही थी । अतःवह किसी भी उपाय से उसे अपने अधीन करने का इच्छुक हुआ। अतः उसने 'मन्दोदरी' नामको चाय को, जो कि भरत मुनि के गीत, नत्य व वादिवरूप समोताकला में, मण्डनआभरण-आदि में, कामशास्त्र में, होराक्षरादि द्वारा दूसरे को मनोवृत्ति के ज्ञान में, स्त्री-पुरुषों के लक्षण-ज्ञान में, कथा ( चित्र अर्थ बतानेबाली ), आख्यायिका { प्रसिद्ध अर्थवाली कथा ), आख्यान ( दृष्टान्त-कधन ) व पहेली और दूसरी ललित कलाओं में विशेष पटुतारूपी लता को पल्लवित करने के लिए पथिवी-सरीखी थी। तथा ऐसे विश्वभूति नामक पुरोहित की, जिसकी बुद्धि का प्रसार ज्योतिष-आदि शास्त्रों में तीक्ष्ण था एवं जिसका मन विशेष सन्मान से आह्लादित था, हस्तिनागपुर भेजा ।
मन्दोदरी धाय ने, जो कि दूसरों को धोखा देने के उपाय संबंधी अभिप्राय के लिए व्याघ्र को गुफाजैसी थी और जिसकी बद्धि दूसरों को ठगने में प्रवीण थी, उस नगर में पहुंच कर कात्यायनी ( समस्त लोक द्वारा नमस्कार करने के योग्य वेषवाली, समस्त मालाओं में प्रवीण, प्रौढ़ अद्धवृद्धा नारो) 'फा वेप बनाया और अपने स्वामी को प्रयोजन-सिद्धि करने में तत्पर हुई । इसने उन उन कलाओं के देखने का कौतूहल वाले अयोधन राजा को अपने ऊपर विशेष प्रसन्न कर लिया और अन्तःपुर को अध्यापिका होकर सुलसा से सगर राजा को
१. नृत्यविशेप । २. विरमत् । ३. 'प्रयोगस्तु निदर्शने कामणे च प्रयुक्तौ च केनाप्पुपायनत्यर्थः' टिस, 'प्रसाधनेग' टि० च० । ४. 'मण्यनाभरणादिपु' टि० ख०, 'नेपथ्य' टि० च० । 'प्रतिकर्म नपुण्यं' इति पञ्जिकायो । ५. होराक्षरादिभिः पचित्तज्ञाने अथवा अहोरात्र्यादिभिः परचित्ताने । ६. कथा वित्रार्थगा जेया श्यातार्थावस्यायिका मता। दृष्टान्तस्योतिराख्यानं प्रबाहीका प्रहेलिका ॥ १ ॥ ७. पटुता। ८. विशिका परचनोपायः। १. क्यानगुहापि प्राणात्यये अतसे । १०. 'अर्द्धवृद्धा' टि. स., पञ्जिकाकारस्तु कात्यायनी लक्षणं प्राह'सबलोकनमस्कार्यवेषाऽशेपकलाश्रया । कात्यायनो भवेत्रारी प्रगल्भातीतयौवना' ॥१॥ ११. तत्परा । १२. अन्तःपुर । १३. संगरं प्रतिज्ञा।
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सप्तम आश्वासः
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कुण्ठे ( जे ) पष्टिरशीतिः स्यादेकाले धिरे शतम् । धामने च शतं विंशं दोषाः पिङ्गे व्यख्यकाः ॥१२३. मुखस्या' शरीरं स्याद्प्राणार्थं मुखमुच्यते । नेत्राधं प्राणमित्या हस्तलेषु नपने परे ॥ १२४॥
इत्याविभिः स्वयं विहितविरचनं धुपिङ्गले विप्रोति कारयामास ।
"ततशय मनसोरभपषः पानलुब्धबोधस्तनंषयेषु पुष्पंषमेष्विव मिलितेषु स्वयंवराङ्गारिताहूंकारेषु महीश्वरेषु सा मन्दोदरीचशमानसा सुलसा युतिमनोहरं समरमणीत निम्नधरोपगापगेष" सागरम् ।
कराई |
भवति यात्र श्लोकः -
श्रपि समर्थः स्यात्सहार्य विजयी नृपः । कार्यायान्तो हि कुत्तस्य दण्डस्तस्य परिच्छदः ।। १२५॥ इत्युपा सकाध्ययने सुलतायाः सगरसंगमो नामाष्टाविंशः कल्पः ।
ही वरण करने की प्रतिज्ञा करा ली। बगुला-जैसी कुटिल वृत्ति में वृहस्पति मरीखे राजपुरोहित ने भी अनेक उपदेशों से उस राजा का और महारानी का मन अपने वश में कर लिया ।
इसके उपरान्त उसने उन्हें स्वयं रचे हुए श्लोकों द्वारा मधुपिङ्गल के विषय में विरकता उत्पन्न
उन श्लोकों का भाव यह था -
टुण्टे में ६० दोष होते हैं, काने में ८० और बहरे में सौ दोष होते हैं। बोने में एक सौ बीस दोष होते हैं, किन्तु पीत नेत्रचाले में तो अगणित दोष होते हैं ।। १२३ ।।
समस्त शरीर, मुख के मूल्य को प्राप्त करता है, अर्थात् शरीर में मुख कीमती होता है। मुख नासिका का मूल्य प्राप्त करता है ( मुख में नासिका श्रेष्ठ होती है ) । एवं नासिका नेत्रों का मूल्य प्राप्त करती है ( नासिका को अपेक्षा नेत्र श्रेष्ठ हैं ) । तथा नेत्र शरीर, सुख व नासिका आदि के मध्य सर्वोत्कृष्ट माने गये
।। १२४ ।।
इसके बाद स्वयंवर हुआ
स्वयंवर में बुलाने से वस्त्राभूषणों से मण्डित होने के कारण अहङ्कारी राजा लोग, जिनके ज्ञानरूपो शिशु, चम्पक-वल्लरियों की सुगन्धिरूपी दुग्धपान में विशेष लुक्न है, भोरों की तरह जब स्वयंवर मंडप में एकत्रित हुए. तब उनमें से मन्दोदरी प्राय के अधीन हुई मनोवृत्ति वाली मुलसा ने कर्मों के लिए मनोज्ञ सगर राजकुमार को वैसा वरण किया जैसे नीचो पृथिवो पर गमन करनेवाली नदी समुद्र का वरण करती है - उसमें प्रविष्ट होती है ।
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है—
राजा शक्तिशाली थोड़े से भी सैनिक सहायकों से विजयश्री प्राप्त करता है। जैसे भाले को नौंक ही अपना कार्य (प्रहार ) करती है, उसमें लगा हुआ दण्ड तो केवल सहायक मात्र है ।। १२५ ।।
३. एकनेत्रस्य मूल्यं सुगन्धना एवं दुग्धपानं तत्र
९. सर्व शरीरं मुखस्याउँ तुम मूल्यं । २. सर्व मुखं नासिकायाः अर्ज तुल्यं मूल्यं वा लभते । नासिका कभते । ४. पूर्वोकेषु मध्ये नेत्रे उष्टे । ५. चम्पकवल्लरी लोभानवालके । ६. निम्नभूगामिनी । ७ नदीं । ८. अग्रभाग ९. कुत्तस्य ।
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काव्ये
ear मधुपिङ्गलः 'धिगिदम भोगायतनं' भोगायतनं यदेकदेशदोषादिमामुचितसमागमामपि "मामतनुमुहामहं नासि इति मत्वा विमुक्तसंसारपक्षः परिगृहीतवोक्षः क्रमेण तांस्तान्पासाराम निवेशाभिरनुको " जङ्घाकरिक इव लोचनोत्सवतां नयन्न शनाय ।" बुद्ध योध्यामा गत्याने कोपवासपरवश हृदयो साहस्तीव तपोऽतिथ हो वाष्प इव पोहाय सगरामारद्वार*मविदे" मनाग्ययस्व । तत्र च पुराप्रयुक्तपरिणयापश्यनीतिविश्वभूतिः प्रगल्भमतये शिवभूतये हविष्याय १ शिष्याथ रहित रहस्य मुद्रकं सामुदकमशेषवि पविचक्षणो व्यावक्षाणों वभूव । परामर्शयशाशीतिः १४ शिवभूतिस्तं न्यक्षलक्षणपेशलं मधुपिङ्गलमवलोक्य 'उपाध्याय, घनघूताहुति वृद्धिमद्धा मशालिनि "अवालामालिनि 'ह्यतामेव तिह्य स्वाध्यायो यदेवंविधमूर्तिरप्ययमीदृगवस्था कोतिः सदाचारनिगृहीतिविश्वभूतिः -- र्याप्त पूर्वापरसंगी शिवभूते, मा गाः वेदम्, थवेष नृपवरस्य सगरस्य निर्देशादस्मदुपदेशा व नन्यसामान्यलावण्यविनिवासां सुलसा मलभमानस्तपस्वी तपस्वी समभूत् । एतच्चासनारिष्ट तातेविश्वभूतेषंचनमेकायनमनाः
१२
:--अप
स प्रतिनिशम्य
इस प्रकार उपासकाध्ययन में सुलगा का सगर के साथ संगम नाम का अढाईसव कल्प समाप्त
३४०
59
हुआ
इस घटना से मधुपिङ्गल के हृदय में वैराग्य रूप कन्द ॐग गया और ऐसा सोचकर उसने संसार से मोह छोड़कर जिनदीक्षा ग्रहण कर लो। 'भोग-शून्य स्थान वाले इस शरीर को चित्रकार है, जिसके एकदेश (नेत्र) में दोष होने के कारण में समागम के योग्य ( अनोखी सुन्दरी ) मामा की पुत्री को नहीं प्राप्त कर सका ।' इसके उपरान्त एकाकी पादचारी की तरह घुमते हुए उसने क्रम से अनेक ग्रामों व बगीचों के स्थान नेत्रों की उत्सवता में प्राप्त किये। एक दिन वह भोजन की इच्छा की बुद्धि से आहार के लिए अयोध्या नगरी में आया । अनेक उपवास करने के कारण उसके हृदय का उत्साह पराधीन ( बेकाबू ) हो गया और तीन धूप से उसका शरीर विशेष थक गया था, अतः चातक पक्षी की तरह थकावट दूर करने के लिए सगर राजा के महल द्वार-मण्डप पर थोड़ी देर के लिए ठहर गया ।
वहाँ पर समस्त विद्वानों में प्रवीण विश्वभूति, जिसने पूर्व में इसका मुलसा राजकुमारी के साथ होनेवाले विवाह संबंध को छुड़ाने की कूटनीति का प्रयोग किया था, प्रतिभाशाली, बुद्धिमान एवं शास्त्रोपदेश के योग्य ( अथवा टि० के अभिप्राय से प्रेमपात्र ) शिवभूति नामक विष्य के लिए गोप्य-रहित मुद्रापूर्वक ( खुले तौर पर ) सामुद्रिक विद्या का व्याख्यान दे रहा था, उस समय विचार के अधीन चित्तवाले शिवभूति शिष्य ने समस्त लक्षणों से मनोज्ञ मधुपिङ्गल को देखकर अपने गुरु से कहा- उपाध्याय ! प्रचुर घी की आहूति से वृद्धिगत तेजवाला - वैधकती हुए अग्नि में इस सामुद्रिक विद्या को जला देनी चाहिए क्योंकि इस प्रकार के लक्षणों से युक्त होने पर भी इस मानव की ऐसी शोचनीय अवस्था है ।'
इसे सुनकर सदाचार के शत्रु विश्वभूति ने कहा - ' पूर्वापर संबंध को न जाननेवाले शिवभूति ! खेद मत करो, क्योंकि सगर राजा की आज्ञा से और हमारे कहने से अनोखे सौन्दर्य को आश्रय मुलसा को प्राप्त न
* कन्द । १. मोगरहितं गृहं । २. शरीरं । ३. मालपुत्रीं । ४. न प्रातवान् । ५. असहायः एकाकी । ६. चरणचरः पादचारी । ७. आहारार्थ" टि० ख० 'बुभुक्षाया:' टि० च०, पं० तु अद्यना क्षुधा । ८. चातकः । ९. श्रमस्फेटमाय । * 'ढापरे' इति ० | १०. पदिरे - प्राङ्गण्ड टि०० पञ्जिकाकारस्तु 'मन्दिरं मण्डप : इत्याह । ११. 'वल्लभाय' टि० स० पं० तु रचिष्यः शास्त्रोपदेशयोग्यः । १२. गोप्य रहित । १३. विदुषं पण्डितः । १४. 'चित्त' टि० स०, गं० तु 'आशीतिः बाधायः । १५. यक्षः सर्वः | १६. हे उपाध्याय ! हे प्रगल्भ । दि० ख० । १७. अग्नी । १८. संबंध १९. दीन, पं० तु तपस्वी वर्पुटः । २० अमङ्गल । २१. एकाग्रचितः ।
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सप्तम आश्वासः
प्रकोपानलः कालेन 'विपथोत्पथ चासुरेषु कालासुरमामा भवप्रत्ययमाहात्म्यादुपजातश्वधिसनिधिस्तपस्याप्रम मसुरान्वं चात्मनो विनिश्चित्य यवीदानीमेव महापराधनगरं सगरम कारणप्रकाशितवोषजाति विश्वभूति च पिन, सदानयोः सुकृतभूयिष्ठत्वात् प्रेत्यापि सुरश्रेष्ठत्वावाप्तिरिति न साध्वपराधः स्यात् । ततो यथेहानयो विडम्वनायरोशे वषः परत्र च दुःखपरम्परानुरोधो भवति, तथा विषेयम् । न चैकस्य बृहस्पतेर्सम कार्यसिद्धिरस्ति' इत्यभिप्रायेणात्मवैकारिक 'द्विप्रदर्शनातिथि" वर निर्यातन मनोरथ रथसारथिमश्वेषमाणमतिरासीत् ।
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अय कामकोदण्डकारण कान्ता रेरिवेक्षुवणावतारैविराजितमण्डलाय ० डहालायामस्ति स्वस्तिमती नाम पुरी । तस्यामभिचन्द्रापरनामसु ' 'विश्वावसुर्नाम नृपतिः । तस्य निखिलगुणमणिप्रसूति वसुमती वसुमती नामाश्रमहिषी । नुनयो: समस्त सपत्म भूरुह विभाषसु '४ वंसुः । पुरोहितश्व निश्चिताशेषशास्त्रहरुपनिकुरम्यः क्षीरकदम्बः । कुटुम्बिनी पुनरस्य सतीव्रतोपास्तिमती स्वस्तिमतो नाम । १५ अभ्युनयोरनेकन मसित 'पर्वतप्राप्तः पर्वतो नाम । स
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करने के कारण यह बेचारा तपस्वी हो गया है !'
उस तपस्वी ने एकाग्रचित्त होते हुए निकटवर्ती अमङ्गल समूहवाले विश्वभूति के वचन सुनकर उसको क्रोधाग्नि भड़क उठी । वह आयु के अन्त में मर कर असुरकुमार जाति के देवों में कलासुर नामका देव हो गया। वही पर देव पर्याय के माहात्म्य से उसे भवप्रत्यय अवविज्ञान की समोपता उत्पन्न हुई। उसके द्वारा उसने अपनी तपश्चर्या का विस्तार व उससे असुर कुमार जाति के देवों में अपनी उत्पत्ति का निश्चय किया ।
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इसके उपरान्त उसने सोचा कि 'यदि मैं इसी समय महान् अपराध के स्थान सगर को व निष्कारण मेरे गैरमौजूद दोष-समूह को प्रकाशित करने वाले है तब पुण्य अधिक होने से इन दोनों को देवों की श्रेष्ठ पर्याय हो मिलेंगी, जिससे इनका विशेष अपकार नहीं होगा ।' इसलिए ऐसा प्रयत्न करना चाहिए कि इनका वध महान् कष्टों के संबंध वाला हो और परलोक में भी इन्हें दुःख-परम्परा का संबंध हो । परन्तु अकेला वृहस्पति भी सहायकों के बिना कार्य सिद्धि में सफलता प्राप्त नहीं कर सकता। ऐसा सोचकर उसकी बुद्धि ऐसे कुशल पुरुष की खोज करने में तत्पर हुई, जो इसको कि ऋद्धि के चमत्कार दिखलाने का अतिथि हो एवं जो वैरशुद्धि के मनोरय रूप रथ का सारथि हो । अर्थात् रोधने में सहायक हो ।
इक्षु बनों की उत्पत्ति द्वारा, जो मानों— कामदेव के धनुष उत्पन्न करनेवाले वन ही हैं. सुशोभित विस्तार वाले उहाला देश में स्वस्तिमती नामको नगरी है। उसमें विश्वावसु नामका राजा राज्य करता था, उसका दूसरा नाम अभिचन्द्र भी था। उसकी समस्त गुणरूप मणियों को उत्पत्ति के लिए वसुमति ( पृथ्वी ) सरीखी 'सुमति' नामकी पट्टरानी थी। इनके समस्त घत्रुरूपी वृक्षों को भस्म करने के लिए अग्नि जैसा वसु नामक पुत्र था। समस्त शास्त्र के रहस्य समूह को निश्चय करने वाला 'क्षीरकदम्ब' राजपुरोहित था । इसको पातिव्रत्य धर्म की उपासना करनेवाली स्वस्तिमती नामकी प्रिया थो। इनके पर्वत नामक पुत्र था, जो कि बहुल नैवेद्य चढ़ाकर की हुई देवताओं को आराधनाओं से प्राप्त हुआ था ।
१. मूत्वा । २. विस्तारं । ३. उद्भवं उपनि। ४. नृपमन्त्रिणः । ५. मृत्वापि । ६. विकारे शत्रा विक्रिपद्धि । ७. प्राणिक, मम विक्रियां नस्य दर्शयामीति मावः । ८. राद्धिकरणसामं । ५. अकवालायां विस्तारायां । १०. नाम देशे । ११. अभिनन्दः विश्वावसुः इति तस्य नृपस्य नामयं । १२. उत्पत्ती भूमिः । १३ १४. पत्रुवृक्षवहनाग्निः । १५. पुत्रः । १६. इन्तकारी एवं पर्वताः तेः प्राप्तः बहुलनैवेद्येन देवाराधनः प्राप्त इत्यर्थः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
किल सदाचरणमूरिः क्षोरकदम्बकसूरिः शिष्टोध्यामिव स्वाध्याय संपादन विशालायां सुवर्णगिरिगुहाङ्गः शिलाया. मेकवा तस्मै युवा गतस्मयाय यथाविधि समाजांस वसवे प्रगलितपितृपाण्डित्यगवं पर्वताय सम् पर्वताय गिरिकूटपतनवतेविश्वनाम्नो विश्वंभरापतेः पुरोहितस्प "विहितान वा विद्याखावंचरणसेवस्य विश्वदेवस्य नन्दनाय नारवा निवाना च "निखिलभुवनव्यवहारतन्त्र मागमसुत्र मतिमधुरस्वरापदेश' सुपविशन म्बरादवतर समाम्याममितयत्यनन्तगति न्यामृषिभ्यामोशांच ।
सूर्याचन्द्र
तत्र समाससुगतिरनन्त गतिभं गया किलंत्रमभाषत भगवम् एत एवं लघु विदुष्याः शिष्याः, पदे धमनवयं ब्रह्मयविद्यमेत "स्मावृप्रन्पार्थप्रयोगमङ्गोषु' 'यथार्थप्रदर्शनतया १३ विधूतोपाध्यायादुपाध्यापाक सधियोऽधीयते ।'
१
प्रयुक्तावधिशोथ स्थितिरमितगतिर्भगवान् -- ' मुनिषन् १४ सत्यमेतत् । किरवेषु चतुर्षु मध्ये द्वाभ्यामंसिगौरवपदार्थववषः प्रबोधोषितमतिभ्यामिदमतिपवित्रमपि सूत्रं विपर्यासयितम् ।'
एतच्च प्रवचनलोचनालोकितव ह्यस्तम्बः " क्षीरकवम्बः संश्रुत्य नूनमस्मिन्महामुनिवाक्येऽर्थात्सप्तचि ८
एक समय निस्सन्देह विशेष सदाचारी क्षीरकदम्ब नामक विद्वान् सुवर्ण गिरि की गुफा के आंगन की शिला पर जो कि उस प्रकार स्वाध्याय के सम्पादन के लिए विशाल ( विस्तृत ) थी जिस प्रकार शिष्य की बुद्धि स्वाध्याय के सम्पादन में विशाल ( प्रखर ) होती है, गर्व-रहित ( विनोत ) व यथाविधि अध्ययन के इच्छुक वधु राजकुमार के लिए और अपने पुत्र पर्वत के लिए, जिसका पिता को विद्वत्ता का गर्वरूपी पर्वत नष्ट हो चुका था एवं नारद नामक शिष्य के लिए, जो कि गिरिकूट नगर के स्वामी राजा विश्व के पुरोहित व निर्दोष विद्या के बाचार्यों का वरण सेवक विश्वदेव का पुत्र था, त्रैलोक्य के वर्णन के सुम्प्रदाय वाले सिद्धान्त-सूत्र का अमन्त मधुर स्वर सहित उपदेश देता था। इसी अवसर पर आकाश से उतरते हुए व सूर्यचन्द्रमा सरीखे अमितगति व अनन्तमति नामके चारणऋद्विघारी ऋषियों ने उसे देखा ।
उनमें से समीपवर्ती प्रशस्त गतिवाले अनन्तगति सुनि निस्सन्देह बोले- 'भगवन् ! निस्सन्देह ये ही शिष्य विद्वान हैं; क्योंकि ये लोग एक अभिप्रायवाली बुद्धि से युक्त हुए ग्रन्थ के अर्थ की प्रयोग रचनाओं को यथार्थ दिलाने के कारण दुराचार को उत्पत्ति को नष्ट करने वाले ( सदाचारी ) इस उपाध्याय ( शिक्षक ) से, तीर्थंकरों द्वारा कहा हुआ निर्दोष शास्त्र पढ़ रहे हैं 1
उपयोग की शक्ति से अवधिज्ञान की स्थिति लानेवाले भगवान् अमितगति ने उत्तर दिया- 'मुनिश्रेष्ठ ! आपका कहना सत्य है, परन्तु इन चारों के मध्य दो शिष्य उस प्रकार अधः ( नरक ) के अनुभवन के योग्य बुद्धिवाले होंगे जिस प्रकार जल में फेंकी हुई वजनदार वस्तु ( पाषाण आदि ) अघ: अनुभवन के योग्य ( नोचे जानेवाली ) होती है। क्योंकि उनके द्वारा अत्यन्त पवित्र भी शास्त्र का अर्थ विपरीत उल्टा किया जायगा ।'
१. पट्टशालायां । २. रहिताय । ३. अध्येतुमिच्छ । ४. कृत । ९. वर्णन संप्रदायं सिद्धान्तं । ६. स्वर सहितं । ७ चत्वारः । ८. विचक्षणाः । १. शास्त्रं । १०. उपाध्यायात् । ११. रचनासु । १२. विषूतः स्केद्रितः उपाविकारस्य आय आगमनं येन सः तथाकस्तस्मात् टि० ० पञ्जिकाकारोश्याह - विधूतः स्फेटितः उपाधेरसदाचारस्य जाय: उत्पादों येन सः तस्मात् । १३. एकाभिप्रायाः सर्गः स्वभावनिर्मासनिश्चयाध्यायसूष्टिसु 1 १४. श्रेष्ठ । १५. जले यथा गुरु वस्तु निमज्जति । १९. अनुभवन । १७ ब्रह्माण्ड | १८ सप्तरुधिरग्निः ।
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सप्तम आश्वासः
मरीचिवद्वाम्यामुगाम्या भवितव्यमिति प्रतीयते। तत्राहं तापवेकवेशयतिपूतात्माममात्मानम परधामसंनिधानं न संभावपेयम् । नरकान्तं राज्यम, वंषनारतो नियोगः, मरणान्तः स्त्रीषु विश्वासः, विपबन्ता खलेषु मंत्री, हप्ति बचनाविन्दिरामबिरामदलिनमनःप्रधारे राज्यभारे 'प्रसरसं यस च नाय पियासुम् । तन्नारदपर्वती परीक्षाधिकृतो' इति निश्चित्य "समिथमयमायुद्ध" मिर्माय प्रदाय च तान्याम् 'अहो, द्वाभ्यामपि भवपामिद युयुगल पत्र न कोऽप्यालोकते तत्र विनाश्य प्राशितय्यम्' इत्याविषेश । सावपि तवादेशन *हम्पवाहवाहनद्वितयं प्रत्येकमादाय यथाययमयासिष्टाम् । तत्र सत्स्यातिखर्षः पर्वतः "पस्त्य पाश्चात्यकुम्बामुपस चापाव च भटिमुरपुत्रमुबरानलपात्रमकार्षीत् । शुभाश्यविशारको नारवस्तु 'यत्र न कोऽप्यालोकते' इत्युपाध्यायोक्तं ध्यायन 'फो नामान पुरे कान्सारे वा
साधणो योऽधिकरणं५३ मामेक्षणस्य यन्तरगणस्य महामुनिजनान्तःकरणस्य च' इति विचिन्त्य तव त पणिमुपाध्यायाय समर्पयामास ।
उपाध्यायो नारदमप्यूध्वंगमयबुद्धघ संसारतरस्तम्नमिय५ कचनिकुरुम्बमुल्पाटय स्वगलक्ष्मीसपक्षा वोक्षा• मादाय निखिलागमसमीक्षा शिक्षामनुधित्य चातुर्वण्यश्रमगसङ्घसंतोषगं गणपोषणमात्मसात्कृत्य "एकरवादिभावना
शास्त्ररूपी नेत्र द्वारा ब्रह्माण्ड को प्रकाशित करनेवाले क्षीरकदम्बक ने जब मुनियों की बात सुनी तब उसने निश्चय किया-कि 'वास्तव में इस महामुनि के वाक्य के अभिप्राय सं यह प्रतीत होता है कि हममें से दो निश्चय से अग्नि की शिखा की तरह ऊर्ध्वगामी हैं। उनमें से मैंने तो अपनी आत्मा को श्रावकों के चरित्र पालन से पवित्र किया है, अत: मैं अपने को नरक स्थान के समीप होने की सम्भावना नहीं कर सकता और वसु को, जिसके प्राण लक्ष्मीरूपो मदिरा के मद से मनोवृत्ति को कलुषित करनेवाले राज्य-भार में विस्तृत हो रहे हैं, कध्वंगामी होने की संभावना नहीं करता, क्योंकि नीतिकारों ने कहा है.--'राज्य का फल अन्स' में नरना है। शासन का फल बन्धन है। स्त्रियों में विश्वास करने से अन्त में मृत्यु होती है। दुष्टों की संगति अन्त में दुःख देनेवाली है।' अतः अब नारद और पर्वत परीक्षणीय हैं। ऐसा निश्चय कर उसने गेहूँ के आटे के दो मेढ़े बनाकर उन दोनों के लिए एक एक मेढ़ा देकर आज्ञा दो-शिष्ययुगल ! तुम दोनों इस मेले के जोड़े को जहां कोई न देख सके, ऐसे एकान्त स्थान पर मारकर खा जाओ ।'
गुरु की आज्ञा से वे दोनों एक-एक मेढ़ा लेकर यथायोग्य स्थान पर चले गए। उन दोनों छात्रों में से सज्जनों के साथ मित्रता करने में लघु पर्वत नामके छात्र ने अपने गृह को पिछवाड़े भाग की बाड़ी के समीप जाकर कुल्हाड़ी वगैरह हथियार लेकर मड़े को अपनी जठराग्नि का स्थान बना लिया 1 किन्तु, शुभ-अभिप्राय में प्रवीण नारद ने तो 'जिस स्थान पर कोई नहीं देख सके' इस गुरु को कही हुई बात पर चितवन करके विचारा--'इस मगर व वन में ऐसा कौन सा प्रदेश है, जो अतींद्रिय दर्शी व्यन्तर देव-समूह के ज्ञान का स्थान नहीं है ? या महामुनि जनों के ज्ञान का विषय नहीं है ? ऐसा विचार कर वह मेढ़ा जैसे का तैसा उपाध्याय के लिए समर्पण कर दिया।
शिक्षक ने जान लिया कि नारद भी स्वर्गगामी है । अतः उसने संसाररूप वृक्ष को जड़ सरोखे केश
१. नीचस्थान-नरक । २. बिस्तरत्याग । ३, नाहं संभावयेयम् । ४. गांधूमचूर्ण । ५. मेपमगर । *. मेधयुगलं टि.
ख०, पं० लू हव्यवाहवाहनः उरमः वृष्णिदच मेषः । ६. लगोयामध्ये । ७. लघुः । ८-११. गृहपश्चाभागमहावृत्तिकान्तरे नीत्वा कुम्बा तु महनावृत्तिरित्यमरः । १२, प्रदेशः । १३. स्थानं । १४. गेप । १५. अथ कांडे स्तम्घ. गुल्मी जवक: विटपश्च सः । १६. भावनाःपञ्च-एकात्वभावना, पोभाषना, श्रुप्तभावना, शीलभावना, धृतिभावना-- चेति भावनाः पञ्च ।
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यशस्तिलकधम्पूकाव्ये पुरस्कारमारमसंस्कारं विषाय कायकवायफर्शनां सल्लेखनामनुष्ठाय निःशेषदोषालोचनपूर्वकाङ्गविसर्गसमर्षमुतराम', प्रतिपय सुरसुम्सनुहमा वसूत्र पूर्वमेव । तदादेशावात्मदेशेषदेशवः' सफलसिद्धान्तकोविवो नारबः सदगुणभूरेः क्षीरकदम्बसूरेः प्रवज्याधरणं स्वर्गावरोहणं वावगत्य 'गुरुवगुरुपुत्रं गुरुकलत्रं पश्येत्' इति कृतसतस्मरणः पर्याप्तसदाराषनोपकरणस्तद्विरहदुःप्तदुर्मनसमुपाध्यायानों जननों सह पांसुकीरितं पर्वतं च ब्रष्टभागत: 1
___ अपरेशस्त पर्वतम् 'अजयंष्टवयम्' इति धामयम् 'अर्जरजात्म यष्टम्यं हण्यकश्यार्थो विधिविधातम्यः' इति घद्धामात्रावभासिम्योऽन्तेवासिन्यो 'स्याहरन्तमुपभुल्म 'बृहस्पतिज पर्वत, मैवं व्याख्यः । कि तु 'न जायन्त इत्यमा घर्षत्रयप्रवृत्तयो खोयस्तयंन्टव्य शान्तिकोष्टिकार्या क्रिया कार्या' इति "परार्यषाचार्यादिदं वाक्यमेवमोच पारसज५ सवाचिन्तयाव । तत्कपमपम" एवं सव मतिर्वापरवसति: १२ समजनीति अविस्मयं मे मनः ।। आचार्यनिकेत पर्वत, यवनद्यश्वाने 'प्याभिषाने 16 भवानपरवामपि विपर्यस्पति ६, नवा पराधीने 'माग्वित्रीने को नाम संप्रत्ययः ।
समह का लुचन करके स्वर्ग लक्ष्मी की सखी जिनदीक्षा धारण करके समस्त जिन-सिद्धान्तों की समीक्षावाली शिक्षा प्राप्त कर चारों प्रकार के मुनि संघ को सन्तुष्ट करने वाला आचार्य-पद प्राक्ष किया, जो कि मुनि संघका संरक्षण रूपाचं एकत्वादि पाँच भावनाओं के साथ रहने वाला आत्म-संस्कार करके और आय के अन्त में काय व कपाय को बाश करने वाला समाधिमरण धारण किया और ऐसा सन्यासमरण प्राप्त क्रिया, जो कि समस्त दोपों को आलोचना-पूर्वक शरीर-त्याग में समर्थ है, जिससे वह पूर्व में ही देव लोक का सुख प्राप्त करके कूतार्थ हो गया।
समस्त शास्त्रों का वेत्ता व मोक्षमार्गी नारद पूर्व में ही गुरु को आज्ञा लेकर अपने देश की ओर चला गया था। उसने जब प्रशस्त गुणों से महान् आचार्य क्षोर कदम्बक को दीक्षा-ग्रहण व स्वर्गारोहण के समाचार सुने तो उसे 'गुरु के समान ही गुरु-पुत्र व मुरुपत्नी को मानना चाहिए।' इस नोति वाक्य का स्मरण हो गया। इसलिए वह उसकी सेवा की सामग्री ( वस्वादि । भेट लेकर पति-वियोग के दुःख से दुःखित चित्त बाली माता-सरोग्यो गुरुपत्नी और एक साथ चुलि में कोड़ा किये हुए मित्र पर्वत को देखने के लिये आया।
दुसरे दिन नारद ने पबंत को, जो कि गुरु-वचनों की प्रतीति से चमत्कारी छात्रों के लिये 'अजेयष्टव्यम्' इस वाक्य का 'बकरों के बच्चों की बलि द्वारा देवकार्य व पितृकार्य (श्राद्ध) करना चाहिए।' इस प्रकार का विपरोत अर्थ कहते हए सुना तो उसे रोककर कहा-'वृहस्पति-सरीखे विद्वान् पर्वत ! ऐसी विपरीत व्याख्या मत करो । विन्तु 'मज' अर्थात्-'जो न ॐग सके ऐसे तीन वर्ष के पुराने धान्य से शान्ति व पुष्टिक्रिया करनी चाहिए ।' ऐसा अर्थ करी। क्योंकि हे मित्र ! गत तृतीय वर्ष में ( तीन वर्ष पूर्व ही आचार्य से हम दोनों ने उक वाक्य का ऐसा ही अर्थ सुना था । एवं गतवर्ष हम दोनों ने साथ-साथ उसी प्रकार चिन्तवन भी किया था। तब इसी वर्ष में ही तुम्हारी बुद्धि संक्षिय कैसे हो गई ? यह जानकर मेरा मन विशेष आश्चर्यान्वित हुआ है। पर्वत ! तुम आचार्य को गद्दी पर हो । जब आप पुराने अर्थ-कथन में स्वतन्त्र होकर भी इस प्रकार उल्टा अर्थ करते हो । तब पराधीन हम-सरीखों के अर्थ कथन के स्वामित्व में किस प्रकार विश्वास हो सकता है? १. सन्मामं । २. नारदो गतः अर्थात्-मोक्षमार्ग वर्तमान इत्ययः, टि. सन्, 'आत्मदेशोपदे शदः' इति प.
'आत्मदेशोपशमः' इति कार, पञ्जिकाकारस्तु 'अपसदः गतः, उपसदो वा गतः' इति प्राह, अयांत--तन्मते 'आत्मदेशपसदः' इति पाठः साधुः। ३. गृहीत । ४. डागपुः। ५. गुरुवचनप्रतीतिचमत्कारिभ्यः । ६. कथयन्तं । ७. गततृतीयवर्षे एव हे मित्र !। ८, आवां श्रुतबन्ती । २. गतवर्षे । १०. सह । ११. इदानीमस्मिन् वर्षे । १२. संचयः । १३. पुराणे । १४. अर्धकयने । १५ . स्वतंत्रः । १६. विपरीतं करोति । १७. मावशां विधिस्तस्प इने ईश्वरे ।
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सप्तम आश्वास
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पर्वतः - 'नारव, नेमस्तुङ्कारं यस्य पक्षस्य महित एवातिमूलोऽयं । यदि चायमन्यथा स्यात्तवा वाहिनीनमेव मे दण्ड: । नारदः - ' पर्यंत, को नु खल्वत्र विवदमानयोरावयोनिकषभूमिः । पवंतः - 'नारद, वसुः । कहि तहि तं समयानुसतंष्पम् । इजानीमेव "मात्रोद्वार:' इत्यभिधाय द्वावपि सौ वसुं निकवा प्रास्थिषाताम् ', ऐभिषातां च सपोपस्थितौ तेन वसुना गुरुनिविशेषमाचरितसंमानो यथावत्कृत कशिपुविधानी " विहितोधितोचितकाञ्चनवानो समागमनकारणमापृष्टी स्वाभिप्रापमभाषिषाताम् ।
वसुः - 'थाहदुस्तत्रभवन्ती तथा प्रातरेवानुतिष्ठेयम् ।
अत्रान्तरे वसुलीयलपेव क्षपायां सा किलोपाध्यायी नारवपक्षानुमतं क्षीरकवम्बाचार्यकृतं तद्वाक्यव्यायानं स्मरली स्वस्तिमती पर्वतपरिभाषामधा वसुमनुसृत्य 'वत्स वसो, यः पूर्वमुपाध्यायावन्स मापराधलक्षणावसरे वरस्यावायि, स मे संप्रति समर्पयितव्यः' दरबुवाच । सत्यप्रतिपालना सुर्वसुः - किमम्ब, संदेहस्त
या सहाध्यायी पर्वतो वदति तथा त्वया साक्षिणा भवितव्यम् ।' वसुस्तथा स्वयमाचार्याण्याभिहतः ११
पर्वत - मेरा यह अर्थ कथन असङ्गत नहीं है; क्योंकि इस पद का मेरा कहा हुआ अर्थ ही ठोक है । यदि यह ठीक नहीं है तो जिल्ला-खंडन ही मेरे लिये दण्ड है ।'
नारद - 'पवंत 1 इस विषय में निश्चितरूप से विवाद करनेवाले हम दोनों का परीक्षा-स्थान ( परीक्षक — फैसला करनेवाला ) कोन है ?'
पर्वत - 'नारद ! राजा वसु ।'
नारद - 'तो उसके पास कब चलना चाहिए ?
पर्वत - ' इसी समय हो, इसमें विलम्ब नहीं करना चाहिए ।'
इस प्रकार बातचीत करके उन दोनों ने वसु के समीप प्रस्थान किया और वहां उपस्थित होकर बसु के दर्शन किये। बसु ने उनका गुरु-जैसा आदर-सत्कार किया और यथायोग्य अन्न व वस्त्र प्रदान किये एवं यायोग्य सुवर्ण का दान दिया और उनसे आने का कारण पूछा। तब दोनों ने अपना-अपना अभिप्राय कह दिया ।
वसु - पूज्य आप दोनों ने जिस प्रकार कहा है, उसका फैसला कल प्रातःकाल कराऊँगा ।'
इसी प्रसङ्ग में निस्सन्देह वसु राजा की लक्ष्मी के विनाश के लिए प्रलय रात्रि-जैसी स्वस्तिमतो नामको क्षीर-कदम्बक नामके उपाध्याय की पत्नी ने अपने पति क्षौर-कदम्बक के द्वारा किया हुआ उस वाक्य का व्याख्यान स्मरण किया, जो कि नारद के पक्ष का समर्थक था, अतः अपने पुत्र पर्वत के पराजय को नष्ट करने को बुद्धि से वह रात्रि में हो वसु के समीप गई और बोली - 'पुत्र बसु ! पहिले गुरु से छिपने का अपराध करने के समय वाला जो वर तुमने मुझे दिया था, वह मुझे अब दो ।'
सस्य-रक्षण को प्राण समझनेवाले बसु ने कहा- ' माता ! उसमें सन्देह मत करो।'
स्वस्तिमती - 'यदि ऐसा है तो तुम्हारा सहपाठी पर्वत जैसा कहता है उसी प्रकार तुम्हें साक्षी होना
चाहिए ।'
१. असङ्गतं । २. जिला-खंडनं । ३. परीक्षस्थानं । ४. समीपे । ५. न विलम्बः । ६. प्रस्थितौ । च्छादन ८ पूज्यों ९. अहं कारयेयं । १०. तिरोधानं । ११. प्रार्थितः ।
४४.
७. भोजना
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यवास्तिलकचम्पुकाव्ये 'यदि साक्षी भवामि सदावश्यं निरये पताप्ति । मथ न भवामि सदा सस्पात्प्रसामि' इत्युभवाशयशालविद्युतमनोमृगश्चिरं विचिन्त्य।
न तमस्थिग्रहणं' शाकपयोमूलमक्ष चर्या वा । नतमेतदुमा तषियामङ्गोकृतवस्तुनियहणाम् ॥१२६।।' इति च त्रिभृश्य निस्पनियानयज्ञ चरमपक्षमेव पक्षमाक्षप्सीत् ।
सवनु मुमुविषमाणारविन्वहदयविमिदग्विन्विरचरणप्रचारोदश्चमकरप्तिन्दुरितनीरदेवतासामन्तातराले प्रभात. काले, सेवासमागतसमस्तसामन्तीपास्तिपर्यस्तोतंसफुसुमसंपावितोपहारमहोयसि च सति ससि मृगयाष्यसनव्याजशरमीकुते कुरङ्गपोते, *अपरादपुर प्रत्यासाविसम्पर्शमात्रावयाफाशास्फटिकटितविलसनं सिंहासनमुरगत्य 'सत्यशोचाहिमाहारम्पायहं विहायसि गती जगभवहारं निहालयामि' इत्यात्मनात्मानमुत्कुर्वाणो विवादसमये तेन विनसबरंवेग नारदेन 'अहो, मृपोद्योझिविभावसो वसो, अद्यापि न किनिन्नयति । तस्सरमं धूहि सरयं बहि' इत्यनेका
गुरु-पत्नी द्वारा स्वयं उस प्रकार प्रार्थना किये हुए वसु ने विचार किया-'यदि पर्वत का साक्षी होता है तब तो मेरा नरक में पतन अवश्य होगा और यदि सानी नहीं होता है तो सत्य से ( वर देने की प्रतिज्ञा से विचलित होता है। इस प्रकार उसका मनरूपी मग दोनों अभिप्रायरूपी व्याघ्र द्वारा विचलित हुआ तब उसने इस प्रकार चिरकाल तक निश्चय किया
'हड्डी (कपाल) का धारण करना, शाक, जल, व कन्दमूल का लेना अथवा भिक्षा-योजन करना ये सब व्रत नहीं है, किन्तु स्वीकार की हुई प्रतिज्ञा का पूर्ण करना ही विशिष्ट बुद्धिशाली मानवों का व्रत है ॥१२६|
उसने ऐसा विचार करके नरक ले जाने में समर्थ कारण पर्वत का पक्ष ही स्वीकार किया। दूसरे दिन जब ऐसा प्रातःकाल हो रहा था, जिसमें जल देवता के केशपाश का मध्यभाग, विकसित हो रहे कमलों के मध्य में जानत हए-वत्साही भवरों के घरण-संचार से उछलते हुए पृष्ण-रस रूपा सिन्दूर से युक्त किया गया था। जब राज-सभा ऐसी हो रही थी, जो कि सेवा के लिए आये हुए सभी सामन्तों द्वारा की जानेवाली उपासना के समय गिरे हुए मुकुटों के पुष्प-समूह रूपी दी हुई भेंट से महान् प्रतीत हो रही थी। जब मृग-शावक ऐसे हो रहे थे, जो कि शिकारियों द्वारा शिकार खेलने के व्यसन के बहाने से वाणों के लक्ष्य (बौंधने योग्य ) किये गए हैं। [इसी अवसर पर ] राजा बसु, लक्ष्य से च्युतबाणवान्ना { निशाना-बुकने वाला ) होकर उसका वाण किसी वस्तु से टकराकर वापिस लौट आया तब बह ऐसे रज-सिंहासन पर आकर बैठ गया, जो कि स्पर्श मात्र से निश्चय करने योग्य व प्राप्त हुए शाकाम-स्फटिक से घटित होने के कारण सुशोभित हो रहा था । उस समय वह स्वयं अपनी आत्मा को इस प्रकार उत्कर्पता में प्राप्त करा रहा था ( अपने मुख से अपनी प्रशंसा कर रहा था कि 'मैं सत्य व शौच (लोभ-निग्रह ) आदि धर्म के प्रताप से आकाश में बैठ कर जगत का न्याय देखता हूँ।'
विवाद के अवसर पर नम्र शिष्यों के लिए इच्छित वस्तु देनेवाले नारद ने कहा-'मिथ्या भाषण१. 'कीकस' 12० स०, कापालिकवतं' दि० ०। २. 'साक्षिवचन' दिख०, पर्वतवननं दिन । ३. अडीच
फार । ४. विकसमान दमभयमच्छीयमानभ्रमरचरण । ५. 'बंधो' टि० स०, लक्ष्योकुत' दि. ० एवं यश पजिनायामपि । *. 'अपरामपरिघुप्रत्यावृत्यासादितस्पर्श' च. ० । 'आराद्ध परिपूप्रत्यासादितस्पर्श' १० । ६. लक्ष्यच्युतबाणः । ७. न्यायं पश्यामि । ८. उत्कर्पता प्रापयन् टि. १०, पं० तु प्रकाशयन् । ९. विनतानां । विनयानां । १०. 'भवनाग्नेः' टि० स०, तद्भिदस्तमगुल्मायाः इत्यमरः' टि० च०, पं० तु 'उभिदः तह:' । ११. विनाशं यास्यति ।
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सप्तम आश्वासः
फुतोपदेशः काश्यपीतलं मियासुर्वसुः-'नारव, यथैवाह पवंतलयंव सत्यम्' इत्यसमीक्ष्य' लाक्ष्यं वचन 'वेष, अशापि ययापयं वद यथायथं बव' इत्यालापबहले समन्युमानसपिलासिनीखलितोक्तिलोहले विधारामाविषयप्रजाप्रजल्पकाहले स्फुटब्रह्माण्ड पाण्डष्यनिकुतूहले समुच्छन्नति परिचवकोलाहले सत्यधर्मकर्मप्रवर्तनकुपितपुरदेवसाधशविलसनः ससिहासनः क्षणमात्रमध्यनासावित" सुखकालं पातालमुलं जगाहे । अत एवाद्यापि प्रयममाहुतिवेलापां प्रजा' जल्पन्ति-उत्तिष्ठ वसो, स्वर्ग गच्छ' इति ।
गति धात्र इलोकःअस्थाने यदक्षाणां नराणां सुलभं वयम् । पर दुर्गतिवर्धाि दुष्कोतिश्चात्र शाश्वती ११२७।। इत्युपासकाध्ययने वसो रसातलासावनो नामकोनविंशः कल्पः ।
नारदस्तमेव निवपुररीपाल्य नतव्र विनमनमरफुलनिलयनीलोत्पलस्तूपमिय कुन्तलफलापमन्मूख्य परमनिकिचनतानिरूम जातरूपमास्थाय सकलसस्वाभयप्रवानामृतवर्षाधिकरण संयमोपकरणमाकलय्य मुक्तिलक्ष्मीसमागमसंचारिका' मियोवफपरिचारिकामावृत्य शिवनोवशीकरणाम्यामिव" म्याध्यायमनुबद्धए मनोमर्कटरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि-सरीखे वम ! अब भी कुछ नष्ट नहीं होगा, अतः सच बोल सच बोल ।'
परन्तु बार-बार उपदेश दिए हुए नरक जाने के इच्छुवा वसु ने यही कहा-'नारद ! जो पर्वत कहता है वही सत्य है।' इस प्रकार जब बपरीक्षणीय झूठी गवाही बोल रहा था तब ऐसा कुटुम्बीजनों का कोलाहल उत्यित हुआ, जो कि महाराज ! 'अब भी सच बोलिये, अब भी सच बोलिए' इस प्रकार के शब्दों से प्रचुर था। जो कोपसहित मनवाली राज-स्त्रियों के अध्यक्त वचनों से अस्फुट था । जो खेद से व्यथित हृदयवाली नजाओं के जोर-शोर से चिल्लाने रूपी काहल ( वाद्य विशेष) वाला था एवं जिसमें ब्रह्माण्ड ( मध्य लोक ) के फटने का कुतुहल वर्तमान या। तब अधर्म कर्म ( मिथ्याभाषण ) में प्रवृत्ति करने से कुपित हुए नगर देवता द्वारा विशेष काट दिया गया वसु सिंहासन-समेत ऐसे सप्तम नरक में प्रविष्ट हुआ, जिसमें क्षणमात्र भी सुख प्राप्ति का अवसर नहीं है, इसीलिए आज भी यश में पहली आहुति देते समय ब्राह्मणजन कहते हैं'बसु उठ, स्वर्ग जा।'
प्रस्तुत विपय-समर्थक नैतिक श्लोक का अर्थ यह है
नीति से विरुद्ध खोटे मार्ग में दुराग्रह से प्रवृत्त होनेवाले मानवों के लिए दो वस्तुएं सुलभ होतो हैंपरलोक में दीर्घकाल तक दुर्गति और इस लोक में अमिट' अपोति ।। १२७ ॥
इस प्रकार उपासकाश्ययन में बसु की रसातल में प्राप्ति करानेवाला उनतीसा कल्प ममाल हुआ ।
इस घटना से नारद ने उसी वैराग्य को स्वीकार करके ऐसा केरा-समूह उत्पाटित ( लुञ्चित ) करके जो ऐसे मालूम पड़त' थे-मानों-कमनीय कामिनियों के बिलासरूपी भ्रमर-समूह के आवास स्थान वाली नीलकमलों को राशि हो है, और उत्कृष्ट परिग्रह के त्याग को बतलानेवाली दिगम्बर मुद्रा धारण करके ऐसा प्राणियों को रक्षा का उपकरण मयूरपिच्छ ग्रहण किया, जो कि समस्त प्राणियों के लिये अभय
१. अपरीक्षणीय । २. 'कोपसहितचित्त' टि० ख०, पं तु' 'मनपुः दुःख' 1 ३. अध्यक्तवचन । ४. अस्फुट
अव्यस्ते । ५. चन्द्रे। ६. मत्र्यलोक! ७, अप्राप्त । ८. सप्तमनरकं । ९. विप्राः । १५. स्त्री । ११. कयक। १२. ममूपिच्छं। १३, गृहीत्वा । १४. दूतो। १५. कुण्ठिका कमण्डलुं । १६. परिच्छेद ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये श्रीमप्रकाम 'मिन्द्रियाराममुपरम्य' अन्तरात्महेमाइम समस्तमलवहन ध्यामवहनमुद्दोप्य संजातकेवलस्तत्पदाप्तिपेशस्तो बभूष।
पर्वतस्तु तथा सर्वसभासमाजरेगोरितोद्दीर्थपुरसवावरजसि मिप्यासाक्षिपविचक्षणवचसि बुराधारेण क्षुभितसहस्राक्षानुवरी जितजीवितमहसि कथाशेषतेजसि वसौ सप्ति अहवल्लीणतया पौराधिकौर्षया च निरन्तरोदनरोमायनिकायः "पाललशालाकानिकोर्णफाय इस निमागणें पदुरीहितामातीवरचर्मपुटः स्फुटन्निव व जन पलिविनाशवशामषिभिः संभूयोपदिष्टप्लोष्टषषिभिरतु छपिञ्छो लबलास्फालमप्रकर्षिभिः प्रतिघातोछलच्छकल' कशा प्रहाराषभिनंपरनिवाप्तहर्षिभियन रगणिसापकारं सरासभारोहणावतारं कण्ठप्रदेश प्राप्तप्राणः "पुरुपूतकृसोल्वणवाण: सकलपुरवौथियु "विश्वाधुष्टानुमातो* निष्काशितः "यममस्मशानांशुकपिहितमेहनी विपरीतारधाराचरितमार्गमुण्डन: १५ दानरूपी अमृत की वृष्टि का आश्रय है। बाद में उसने मुनि लक्ष्मी के समागम के लिए दूती-सरीम्बी कुण्डिका (कमण्डल ) धारण करके और मुक्तिनी के वशीकरण का परिच्छेद-जेसा शास्त्र स्वाध्याय करके एवं मनरूपी बन्दर की बहुल कीड़ावाले इन्द्रियरूपी बगीचे से दूर होकर ऐसी धर्मध्यानरूपी अग्नि उद्दीपित करके, जो कि अन्तरात्मारूपो सुवर्ण-पाषाण की समस्त पापरूपी किटकालिमा को दग्ध करनेवाली है । अर्थात्उसने धर्मध्यान व शुक्लध्यानरूपी अग्नि द्वारा ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय व अन्तराय इन चार घातिया कर्मरूपी ईधन को भस्म करके केवलज्ञान प्राप्त किया, जिससे वह मोक्षपद प्राप्त करने से मनोज्ञ हो गया।
जब ऐसा वसु, जिसका तेज केवल कथामात्र में हो शेष था, अर्थात् -जो मर चुका था। जिसके प्रति समस्त सभासदों व सामाजिक जनों द्वारा महान धिक्काररूपी धूलि उच्चारण की गई थी, ( पक्षान्तर में फैकी गई थी) जिसके वचन झूठी गवाही देने के पक्ष के समर्थन में प्रवीण थे। जिसका जीवनरूपो तेज दुराचार ( मिथ्यापक्ष का समर्थन ) के कारण कुपित हुई इन्द्र की किङ्करियों द्वारा विशेष रूप से नष्ट किया गया था । तब कालासुर ( जो कि पूर्वजन्म में मधुपिङ्गल था) ने ऐसे पर्वत को देखा, दीर्घलज्जा से व नागरिकों को द्रोह करनेवाली इच्छा के कारण जिसे अविच्छिन्न व उच्चतर रोमाञ्च श्रेणी उत्पन्न हुई थी। जिसकी कुक्षि का चर्मपुट अपने असंख्य पापों से फट गया था—मानों-उसका शरीर सेही के काटों से बोंधा गया-जैसा मालूम पड़ता था। जो ऐसा मालूम पड़ता था-मानों-फट हो रहा है। जो ऐसे नगर में निवास करने से हर्षित हुए नागरिक जनों द्वारा अगणित अपकार पूर्वक गधे पर चढ़ाकर समस्त नगर की गलियों में दुरपवाद की
। को प्राप्त हआ नगर से बाहर निकाल दिया गया था। जो कि नागरिक जन ) वम राजा के मर जाने के वश से इससे कपित थे। जो एकत्रित होकर इसके ऊपर पत्थरों की वर्षा करने का उप देश देते थे। जो कि बहुल बाँस के स्वण्डों द्वारा इसे विशेष रूप से ताड़ित करते थे और जो ताड़न करने से ऊपर उछलते हुए खण्डों वाले कोहों से प्रहार करने की अधिक तृष्णा करते थे। कष्ट से उसके प्राण कण्ठ देश में आ गये थे। जो विशेष चिल्लाने का उत्कट शब्द करता था। १. यथेष्टं-बधिर्क। २. परितो भूत्वा। ३. सुवर्णपापाण। ४. मोम । ५. किरीभिः क्षितं विष्वस्तं जीवितमेव
महस्तेजो यस्य । ६. दीर्घलज्जया। ७. द्रोहकरपाञ्छ्या टि० ख०, आपकर्तुमिच्छया टि० च०। ८. सहीवालविशरीरः । ५. बहल, असंख्य | १०. आटितकुक्षिः । ११. बहुल । १२. वंश । १३. खण्ड । १४. 'तर्जनक" टिक खा, 'यहननोपकरण टि.ब०, यश. पसिकायामपि । १५. महान् । १६. शब्दः। १७, विष्वग्धुष्टं दुरपवादघोषणा पशः पं०। *. 'विश्वरपुष्टानुजातो' इति Ro, टिप्पण्यो तु 'वारमेयाः पृष्टवो भवन्ति । १८. चाण्डालचितास्थानवस्त्रेण कृतकोपीनः । १९. विपरीत पीम्णौ मध्ये मध्ये पाटापाड़ित ।
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सप्तम आश्वास:
२४९ प्रकाशितशिखा श्रीफलजालो' गलनालावलम्वितशराजमालः प्रयोपति वनगहन रहसि प्रविष्टः तुच्छीको २पिनोतटिनीनिकटोपविष्टस्तेन कालासुरेण दृष्टः प्रत्यवमृष्टश्चेष्टेन चाहं 'तावका रिकद्धि प्रतिकाशधिषुशक्तिः एषोऽपि सामतप्रतिष्ठापयिषुमतिप्रवाक्तिरतो निष्प्रतिषः खल मे कार्योंल्लाथः इति निभतं वितमयं पर्याप्तपरित्राजरुषेण मायामयम नोषेण भाषितश्च ।
तथाहि पर्यंत, केन खलु समासन्नकीना 'शकेलिनर्माणा तुष्कर्मणा विनिर्मार्पितनि शपकार' पर्वतः -- 'तात, को भवान्' 'पर्वत, भवत्पितुः खलु प्रियसुबहं सहाध्यायी शाण्डित्य इति नामाभिधायो । यदा हि यरस, सवान्
११ चोइन् समभवत्तदाहं तीर्थयात्रायामगाम । इवानों चागाम् । अतो न भवान्मां सम्यगवचारयति । तत्यन्त" कारणमध्य व्यतिकरस्य' ।
י
पर्वतः - 'माप्राणितपरित्राणकारिन् भगवन्, समाकर्णय | समस्तागम रत्न संनिपातरि कृतमणिसश्राहरि जिनकानुजारि पितरि नाफलोकमिते सति स्वातन्यादेकवा प्रदीप्तनिकामकामोद्गम संपन्नपण्याङ्गनाजनसमागम: १७ कृत पिशितकापिशा १८ मिन्नस्वादः पापकर्मप्रासादः चेतन्नध्याय "पदिष्टं विशिष्टं व्याख्यानमहं " दुरात्मास्यामः चाण्डाल की चिताभूमि के वस्त्र ( मुर्दे का कफ्फन ) से जिसने लँगोटी की थी । मार्ग में उल्टे उस्तरे से उसका सिर भुँडा गया था। जिसकी चोटी में बिल्व फल-समूह प्रकट रूप से बाँधे गए थे। जिसकी कण्ठनाल में कोरों की श्रेणी आश्रित थी। वह विशाल बन के गहन एकान्त प्रदेश में प्रविष्ट हुआ और थोड़े जलवाली द्वीपिनी नाम की नदी के तट के निकट बैठ गया ।
उसे कालान्तर ने देखा, उसकी मन की दशा जानते हुए कालासुर ने निश्चल विचार किया- 'में अपनी बिक्रिया ऋद्धि को प्रकट करने की शक्तिवाला हूँ और इस पर्वत को बुद्धि की प्रकृष्ट शक्ति अपने मत को स्थापन करने की इच्छुक है, अतः निश्चय से मेरी कार्य घटना निर्विघ्न है ।
ऐसा विचार कर उसने सन्यासी का वैष प्राप्त ( धारण ) किया और अपनी बुद्धि को छल-कपट- पूर्ण करते हुए कहा - 'पर्वत ! निश्चय से यमराज की क्रीड़ा के निकटवर्ती परिहास ( मजाक ) करनेवाले किस दुष्ट के द्वारा तुम्हारे साथ यह निष्ठुर अपकार कराया गया ? अर्थात् - तुम्हारे अपकार करनेवाले की मृत्यु निश्चित है ।
पर्वत- 'पिता ! आप कौन हैं ?"
कालासुर - 'पर्वत | निस्सन्देह में आपके पिता का सहपाठी प्रिय मित्र हूँ। मेरा नाम शाण्डिल्य है । जब तुम छह दांतों वाले शिशु थे तब में तीर्थयात्रा के लिए चला गया था और अब वापिस आया हूँ, इसी लिये आप मुझे अच्छी तरह नहीं जानते । अतः अहो पुत्र ! तुम अपनी इस दशा का कारण कहो ।'
पर्वत - 'मेरे प्राणों की जीवन-रक्षा करनेवाले भगवन् ! सुनिए- समस्त शास्त्र रूपी रत्नों को भलीभाँति धारण करनेवाले और पुण्य रूप मणि को एकत्रित करने वाले मेरे पिता जिन दीक्षा धारण करके जब स्वर्गारोहण कर चुके तव में स्वच्छन्द होने से एक समय मेरे में कामोत्पत्ति अतिशय रूप से प्रज्वलित हुई, १. श्रीफलं विस्वं । २. नाम्मी । ३. परामृष्टहृदयचेष्टेन । ४ बिक्रियो कद्धि प्रकटयितुं शक्तिः ५. निर्विघ्न । ६. घटना । ७. निश्चलं विचार्य । ८. तपस्वी । ९. यम । १०. 'निष्ठुर' टि० ख० पञ्जिकाकारस्तु निर्व निर्वर:' इत्याह । १९. यदा तब पद्मन्ताः षोन् साधनिका पचन्तयत् टि० ख०
' षोढन् पद्मशन: ' | १२. आगतः । १७. मांस 1 ९८. मद्य
'पड्दन्तः' टि० च० ० तु १२. बहो ! । १४. जीवितरक्षणं । १५. सन्धारके । १६. कृत । । १९. जानपि । २० पितृ । २१. दुरात्म- दुष्टस्वभावं आल्यानं चरितं यस्य मम सोऽहं 1
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. ३५०
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
स्वयमद्धिचा साधुमध्ये नापातिवचनस्लन: सन् एतावद्विपतिस्थामवस्थामापम्' ।
अष्टव्यमितोदं वाक्यमशेष कल्मषनिषेषपो 'उज्यथोपन्यस्य मानो नारवे
कालासुर:- 'पर्वत, मा शोच । मुञ्च त्वमशेगं विवणाकलुवम् । अङ्ग, साधु संतोषयात्मानम् । न निरीहस्य नरस्यास्ति काचिन्मनीषितावाप्तिः । तवलं हुत्त हृदयदाहानुगेनायेगेन * । हो पुत्र पर्वत, यया स्वकीयसंकेतर बाह्यगोसवाइयमेषसीणामणिवाजपेय राजसूयपुण्डरोकप्रभूतीनां सप्ततन्तुना " प्रतिपादकानि वाक्यानि विरचय्य अन्तरान्तरा वचनेषु निवेशय । वत्स, मयि सूर्भुवः स्वस्त्रयीषिपर्यासनसमर्थं मन्त्रमाहात्म्ये त्वयि सरसासवसवित्रीप्रवृत्तिहेतुभुतिगीति समभ्यस्तसात्म्ये किं तु नामेहासाध्यम्' इत्युत्साह्य स्वयं विद्यावष्टम्भसृष्टाभिरष्टाभिर पीतिभिरुपद्वयमाणजनपबहुत्रयमयोध्या वियमागत्य नगरबाहिरका स देवाननोऽभूत् । १३ अध्वर्युः पर्यंतः क्षमासीत् । मायामपसृष्टयः पिङ्गल-मनु- मतङ्ग मरीचि - गौतमानपत्र "ऋत्विजो नियत । तत्र "श्रुतितिश्वभिवंदने पविशति ।
जिससे मैंने वेश्याजनों के साथ रति विलास किया और मांस भक्षण किया और मदिरा पी, इस प्रकार में पातकों का गृह बन गया | 'अष्टव्य' इस वाक्य का पिताजी ने जो विशिष्ट अर्थ किया था, उसे जानते हुए भी दुष्ट स्वभाववाले चरितयुक्त मैंने पापबुद्धि से अपने व्यसनों की वृद्धि के लिए उसे बदलकर समस्त पापों से आश्रयणीय मैंने बस रूपों के दाग को उपस्थापक से निरूपण कर रहा था तब नारद ने मेरे अन्यथा निरूपण को सज्जनों के समक्ष प्रदर्शित कर दिया । अर्थात् — मेरी गल्ती पकड़ लो। इससे में इस प्रकार की विपत्ति के बाश्रय वाली इस दयनीय दशा को प्राप्त हुआ है ।'
फालासुर - पर्वत ! शोक मत कर और समस्त बुद्धि को मलिनता को छोड़ । हे पुत्र ! अपनी आत्मा को सम्बोध । जो मानव शत्रु-लोक के ऊपर निःस्पृह होता है या निरुद्यमी होता है उसे कोई अभिलषित वस्तु प्राप्त नहीं होती । अतः हृदय के वाह को अनुसरण करनेवाले शोक को छोड़ । अहो पुत्र पर्वत ! ब्राह्यमेव, गोमेध, अवमेध, सौत्रामणि, वाजपेय, राजसूय व पुण्डरीक आदि यज्ञों के निरूपण करनेवाले वाक्यों को अपने संकेत के अनुसार ( अपने अभिप्राय के सूचक ) रचना करके उन्हें वैदिक वाक्यों के बोल बीच में प्रविष्ट कर दो पुत्र ! जब मेरे में पृथिवीलोक, अधोलोक व ऊर्ध्वलोक इन तीनों लोकों को विपरीत करने में समर्थ हुए मन्त्रों की सामर्थ्य होते हुए और मांस-मदिरा और माता में प्रवृत्ति करने में कारण वैदिक मन्त्रों के पाठ में अभ्यस्त हितवाले तुम्हारे होते हुए में पूछता हूँ कि तब लोक में ऐसी कौन वस्तु है, जिसे हम प्राप्त नहीं
कर सकते ?
इस प्रकार पर्वत को उत्साहित करके वह कालासुर ऐसे अयोध्या नाम के देश में आया, जिस देश
कोपरि निःम्हस्य' टि० ब०
१. काश्रयणीयः । २. उपसर्गादात्मनेपदं 'उपसर्गादिस्हो' इत्य नैन । ३. 'नियमस्य' दि० ० ४ हन्त हर्येऽनुकम्पामा वावयारंभविपादयः । ५. किन । ६ यशानां । ७ मध्ये मध्ये 1 ८. पाठ । ९. हि । १०. नु पृच्छायां विकल् च दितकें च । *. नाम-प्राकाश्यसम्भाव्यत्रोधापगम कुत्सने । ११-१२ अतिवृष्टिराष्टिर्मुकाः शलभाः शुकाः । स्ववक्रं परचक्रं च सप्ताः इतयः स्मृताः ॥ १ ॥
अष्टमी नाम साहिम-आतपदिका ।
१३. 'भजुर्वेदज्ञाता' यध्वमुः अध्वर्युः होतहोतारो यजुः समा दि० ख० 'या' दि० प० च । १४. संजाताः भाया तु कालासुरस्यैव । १५. ब्रह्मा ।
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सप्तम आश्वासः
पर्वतस्तु यशार्थं पावः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुषा । यज्ञो हि भूयं सर्वेषां तस्माद ★ ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभेत इन्द्राय क्षत्रियं कामाय पुंश्चलं, अतिकृष्टाय मागणं, गोतायतं तेन सुरा पोता भवति । सुराश्च तिथ एव तो संमताः नेष्ट्वा संवत्सरान् मातरमप्यभिलषति । उपेहि मातरम् उपेहि स्वक्षारम् ।
1
3
૧૨
घोवष्टः ॥ १२८ ॥
मवलयः वैश्यं तमसे शूवम्, उससे तस्कर, आत्मनेपली या स्त्रियं पक्षिणों, सोत्रामणी य एवंविधां सुरां पिवति ष्टी, गोडी, मागधी चेति । परोसने ब्राह्मणो 'गोसवं
"बलानि नियुज्यन्ते पशूनां मध्यमेऽहनि । अश्वमेधस्य वचनान नि पशुभिस्त्रिभिः ॥ १२९ ॥ "होको वा महाजो वा श्रोत्रियाय विज्ञस्यते " निषेधते तु विध्याय लवसुगन्धिनिधिविधिः ।। १३० ॥
का मध्यभाग अपनी विद्या के बल से रची हुई आठ ईतियों (सर्प व कण्टकादि अथवा टिप्पणीकार* के अभि प्राय से अतिवृष्टि व अनावृष्टि आदि ) द्वारा पीड़ित किया जा रहा था और ब्रह्मा का रूप धारण करके नगर बाह्य प्रदेश पर बैठ गया एवं उसी के निकट मजुर्वेद का ज्ञाता पर्यंत पुरोहित होकर बैठा था । मायामयी सृष्टिवाले पिङ्गल, मनु, भत मरोचि और गोतम वगरहता हो गए, यह सब कालासुर को माया थी । ब्रह्माजी चारों मुखों से उपदेश देते थे और पर्वत आदेश देता था ।
ब्रह्मा ने स्वयं यज्ञ के लिए ही पशुओं की सृष्टि की है। यज्ञ सबको समृद्धि के लिये है । इसलिए यश मे किया आनेवाला पशुवध वध नहीं है ।। १२८ ।।
ब्रह्मा के लिये ब्राह्मण का होम करना चाहिए। इन्द्र को सन्तुष्ट करने के लिये क्षत्रिय का होम करना चाहिये। वायु के लिए वेश्य को होम देना चाहिए। तम के लिए शुद्ध को होम देना चाहिए। उत्तमस-राहु की शान्ति के लिए चोर को होम देना चाहिए । आत्मा के लिए नपुंसक का होम करना चाहिए । फामदेव के लिए व्यभिचारी का होम करना चाहिए। अतिक्रुष्ट के लिए मागध का होम करना चाहिए। गीत के लिए पुत्र का होम करना चाहिए। और सूर्य देवता के लिए गगिणी स्त्री का होम करना चाहिए। जो मानव सांत्रामणि यश में वैदिक मन्त्रों द्वारा सुसंस्कृत सुरा पोता है, उसे शराबखोर नहीं समझा जाता । वेद में लोन प्रकार की सुरा मानी गई है । १. पेष्टो - जो वगैरह के आटे से बनी हुई, गोडी--गुड़ से बनाई हुई और माधवी - जो महुए से बनती है । गोसव यज्ञ में ब्राह्मण तत्काल जन्मे हुए गाय के बछड़े से यज्ञ करके वर्ष के अन्त में माता की भी इच्छा करता है। माता के पास जाओ । बहिन के पास जाओ ।
मेघ यज्ञ में मध्याह्न-वेला में तीन कम छह सो अर्थात् पचिस सत्तानवे - ५९७ पशु मारे जाते
* ब्रह्मणे ब्राह्मणमालभते । क्षवाय राजन्यं । मदद । तपसे पूजने नकरं 1 तारकाय वीरहणम् । पाप्मने पली । आक्रयाया योग कामाय श्चलम् अतिष्टाय मागधम् । गीताय सूतं । नुसाय लुषम् ।--वैत्तिरीय ब्राह्मण ३, ४ । वागरानंयो संहिता ३०, ५ में तथा शय त्राह्मण २३, ६, २ में भी पाठ भेद के साथ उक्त उद्धरण मिलता है। ९. होमयेत् । २. गंगकम् । ३. भाट स्युर्गावधास्तु मगधाः वन्दिनः स्तुतिपाठकाः 1 ४. थोडी पेटी माध्वी च विज्ञेया त्रिविधा सुरा । - मनुस्मृति सद्यः प्रसूलगवा । ७ वाजसनेयी संहिता २४ ४० को उव्वद मीर है, उसमें उत्तरार्ध इस प्रकार है— 'अश्वमेघस्य यशस्य नवभिचाधिकानि न । ★ अधिक्रियन्ते । ८. महोक्षं वा महाजं वा थोत्रियायोगात्पयेत् । सत्क्रियान्वासनं स्वाट्ट भोजनं सूनुतं च ॥ १०९ ॥ याज्ञवल्क्य स्मृति पू० ३४ । उक्षो वृषभ । ९. छागः । १०. हिंस्यते ।
११-९४ । महीन की
५. गुदविकार । ६. धेन्वा - टीका में यह श्लोक पाया जाता
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यशस्तिलकचम्पूकाध्ये गोसवे सुरभि हत्याराजसूये तु भुजम् । अश्वमेघ हयं हन्याल्पोजराक हुदन्तिनम् ।। १३१॥ *औषण्यः पशवो वक्षास्तियनः एक्षिणो नराः । पज्ञाय निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्स्युभिता गतिम् ॥१३२॥ मानव क्यासबासिष्ठं वचनं वैवसंयुतम् । अप्रमाणं तु यो यात्स भवेद्ब्रह्मघातकः ॥ १३३॥ 'पुराणं मानवो धर्मः साङ्गो वेदश्चिकिस्सिसम् । आमासिवानि चत्वारि न हन्तव्यानि हेतुभिः ।। १३४ ।।
इत्यायादिति । मनु-मरोचि-मतमान मृतयश्व सवषट्कारमजद्विजगजवाजिनभूतीन्वेहिनो जुह्वति । तदेवं अतिशस्त्रवाणिज्यजित्यो पजीविनामीती: पर्वतो ध्यपोहति । कालासुरः पुनरालम्पमानान्प्राणिनः साक्षादिमाना. स्वान्स्वर्ग "सांबर्या पर्यटतो वयति । मनुप्रमुखाइच मुनयः प्रभावयन्ति । ततो मायाप्रचशितत्रिवशप्रेमप्रवेशाविलोभे संजरते सकलजनक्षोभेस प्रत्यासन्ननरकनगरः सगरः सच वनविभ्रमोचितस्थितिविश्वतिस्त"पवेशातीस्तान सत्वान् हस्वा सास्वा च दुरन्तरितोचितधेतसो ममिषाकालासुरेण स्मारितपूर्वभवागसौ13 बीतिहोत्राहुति
हैं, ऐसी आज्ञा है ।। १२९ ॥ श्रोत्रिय ( यज्ञ करनेवाल वेदपाठी विद्वान् ) के लिए बड़ा वेल अथवा बड़ा बकरा मारा जाता है । पुष्य-माला व सुगन्धि-युक्त उक्त विधि स्वर्ग-सुख के लिए निरूपण की गई है ।। १३० ।। गोसव यज्ञ में तत्काल प्रसव करनेवाली गाय का वध करना चाहिए । रायसूय यज्ञ में राजा का वध करना चाहिए। अश्वमेघ में घोड़े का वध करना चाहिए और पीण्डरीक यज्ञ में हाथी का वध करना चाहिए ॥ १३१ ।।
औपधियां, पशु, वृक्ष, तिर्यञ्च, पक्षी और मनुष्य यज्ञ में मारे जाने से उच्चगति प्राप्त करते हैं ॥ १३२ ।। मनु का धर्म शास्त्र ( मनुस्मृति-आदि ) और व्यास व वशिष्ट का शास्त्र ( महाभारत-आदि) एवं वैदिक वचनों को जो अप्रमाण बतलाता है, वह ब्रह्मघाती है ।। १३३ ।। पुराण, मानवधर्म, छह अङ्गों { शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द व ज्योतिष ) समेत चारों वेद और आयुर्वेद ये चारों स्वयं प्रमाण हैं, इन्हें युक्तियों से खण्डित नहीं करना चाहिए ॥ १३४ ।।
पर्वत इस तरह की आज्ञा देता था और मन, मरीचि और मतल-आदि ऋषि स्वाहा शब्द के साथ बकरा, द्विज, हाथी और घोड़ा वगैरह प्राणियों का होम करते थे। इस प्रकार बंद से जीविका करनेवाले ब्राह्मणों में, वास्त्रजीवी क्षत्रियों में, व्यापार से जीविका करनेवाले चैश्यों में, कृषि से जोविका करनेवाले कृषकों में कालासुर ने जो ईतियाँ ( सर्प-कण्टक-आदि के दुःख ) फेलाई थीं, उन्हें पर्वत दूर करता था और कालासुर मारे गए प्राणियों को अपनी माया के द्वारा विमान में सवार कराकर स्वर्ग को जाते हुए प्रत्यक्ष दिखाता था। मनु-वगैरह ऋषि इसमें दूसरों को प्रभावित करते थे। इस प्रकार जब' समस्त नागरिक जनों में ऐसा क्षोभ हो गया, जिसमें माया द्वारा दिखलाये गये स्वर्ग-प्रदेश के गमन-आदि का लोभ था। तब समोपवर्ती नरक आवास बालं समर राजा ने और उस नरक के विलास के योग्य स्थितिबंध करने वाले विश्वभूति ने कालासुर के उपदेश से बहुत से प्राणियों का घात करके भक्षण किया, जिससे उन दोनों के चित्त महाभयानक पाप का संचय करने वाले हुए फिर कालासुर ने उन दोनों को पूर्वजन्म संबंधी सुलसा राजकुमारी के अपहरण का दोष
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*. 'मओपथ्यः ''पक्षिणस्तया । "प्राप्नुयन्त्युत्मृतीः पुनः ॥४०॥'- मनुस्मृति अ०५।।
१. मनुस्मृत्ति १२, ११० । २. स्वाहासहितं । ३-५. श्रुतिजीविना श्राहाणानां, शस्त्रजीविना क्षत्रियाणां या ईतयः कालासुरेण मायया नाः ताः पर्वतः कालामुरमायया स्फेटयति । कृषिः। ६. हिस्पमानान् । ७, मायया । ८. प्रभावनां कुर्वन्ति । ९. समीपनरकावासः । १०, कालासुरोपदेशात्। ११. प्राणिनः । १२. प्लावित्वा । १३. सुलसापहारदोषो । १४, अग्निः ।
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सप्तम आश्वासः विहितविचित्रवघरहसी' विचित्रा' परिठ्या 'नाधीयो दुःस्वयमत्यरं तसमगाताम् । पर्वतोऽप्यनायोपतिविजये "जठरधनंजये । “हत्य कट्यकर्मभिः समाचरितममस्तसत्त्वसंहारः कालासरतिरोपान "विधुरविधिमारस्तविरहासङ्कशो 'कशोषिकेश्पच्छरीर: १२ कालेन जीनोवितप्रधारः । सप्तमरमावसरः समपादि । भवति चात्र इलोकः
मृषोद्वादोन बोद्योगापर्वतेन समं वसुः । जगाम जगतीमूलं चलदासछुपावकम् ।। १३५ ॥ इत्युपासकाप्ययने असत्यफलसूचनो नाम त्रिंशसमः कल्पः । ५ ववित्तस्त्रियी हित्वा “ सर्ववाल्यत्र ताजने'" । भासा स्वसा तन नेति मतिब्रह्म गृहाश्रमे ।। १३६ ।।
२"धर्मभूमौ स्वभावेन भनुष्यी नियतस्मरः । । यम्जात्यंत २ पराजातिबन्धलिङ्गिस्त्रियस्स्यजेत् ।। १३७ ॥ स्मरण कराकर यज्ञ के बहाने से उन दोनों को यज्ञ को अग्नि में हाम दिया, जिससे वे विचित्रवध-लक्षणवाले हुए । इसके उपरान्त वे दोनों वालुकाप्रभा नामकी तीसरो नरक-भूमि के विस्तुत तल में चले गये, जो कि दुःखदायक परिताप से मन्दगमन वाला था।
पर्वत ने भी अग्नि को तिरस्कार करने वाली अपनी जठराग्नि में देवताओं और पितरों को तृप्ति के बहाने से समस्त प्राणियों का संहार कर डाला। कालासुर के तिरोधान हो जाने से उसकी यज्ञ विधि असमर्थ ( फीकी ) हो गई। उसका शरीर कालासुर के वियोग-दुःख रूपी योकाग्नि से कृश हो गया ! आयु के अन्त में उसका जीवन-प्रचार क्षीण हुआ और मरकर सप्तम नरक-भूमि में गया !
इस विषय में एक श्लोक है, उसका भाव यह है....
झूठ बोलने के दोप में प्रवृत्ति करने के कारण पर्वत के साथ बसु भो सप्तम नरक में गया, जहापर संतापरूपी अग्नि प्रज्वलित रहती है ।। १३५ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में असत्य का कटक फल सूचित करनेवाला तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। अब ब्रह्मचर्याणुव्रत का निरूपण करते हैं
अपनी विवाहिता स्त्री और रखेली स्त्रो के सिवाय दूसरी समस्त स्त्रीजनों में अपनी माता, बहिन व पुत्री की बुद्धि रखना ब्रह्मचर्याणुव्रत है ।। १३६ ॥ धर्म भूमि आर्यखण्ड में मनुष्य स्वभाव से ही अल्पकामा होता है, अतः उसे अपनी जाति को विवाहिता स्त्री से हो संभोग करना चाहिए और दूसरो कुगालियों की तथा १. तत्यो बधलक्षणादायौं। २. वालुकाप्रभायाः। ३. दीर्धतर। ४. परितापन मन्दगमनसहित । ५. गती।
६. अग्नितिरस्कारके। ७. निजोदराग्नी। ८. देवदर्य । ९. पितृदयं । १०. असमर्थ । ११. गांफाग्निः । १२. तनप्रभवत । १३. जीर्ण अयवा क्षीणः । १४. सप्तमभूमि । १५. संजातः । १६. 'आमीनवं दोपः' टि० च०, यश० पं०, 'त्रासक्दोषः' टि. १० । १७, परिणोना अत्रचता च । १८. मुस्त्वा । १९. स्त्रीजने । *. 'न तु परदारान गच्छति न परान् गमयति च पापभीतयत् । मा परदारनित्तिः स्वदारसन्तापनामाऽपि ॥५९||--
रत्नकरण्ड था० । 'उपात्ताया अनुपात्तावाश्च परामनायाः राङ्गानितरतिहीति चतुर्षमणुनतम् ।'—सायसिद्धि ७, २० । २०. आर्यखण्डे । २१. अल्पकन्दपः तस्य वेगाः दग, तथाहिचिन्तादिदृक्षानिश्वासज्वरसापारुचिरपि । मूर्योन्मत्तत्वसंक्षिपप्राणमृत्यून् भविटः ॥ १॥ २२. स्वजाया परिणीतया सह संभोगः कार्यः अथवा सन्तोषः कार्यः । २३. परा चासौ अजातिश्च पराजातिः परकीयजातिस्त्री. बास्त्रीलिङ्गिनीस्त्री त्यजेत् यस्मात् ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्य रक्ष्यमाणे हि वृहन्ति यत्राहिसायो गुप्ताः । उदाहरन्ति तद्बा' ब्रह्मविद्याविशारदाः ॥ १३८ ॥ मबनोद्दीपनयतमवनोहोपर्म रसः। मवमोद्दीपनः शास्त्रमपमात्मनि मानरेत् ॥ १३९ ॥
हयरिब हुतप्रीतिः पाथोभिरिय" नीरषिः । तोषति पुमानेव न भोगर्भवसंभवः ॥ १४ ॥ प्रविधिविषयाः पुंसामाधाते मधुरागमाः । अन्ते विपतिफलवास्तत्सतामिह को पहः ॥ १४१ ।। बाहिस्तास्ताः बियाः कुर्वकारः संकल्पजन्मवाम् | भावाप्ताव निर्वाति १०वलेवास्तघ्राधियः परम् ।। १४२।।
"निकान । कामकामास्मा तृतीया प्रफुतिर्भवेत् । नन्सवीर्यपर्यायस्तस्मानारप्तसेवने ।।१४३।। सर्वा क्रियानुलोमा स्यात्फसाय'५ हितकामिनाम् १६ | अपरत्रार्यकामान्यां यतो मलां तदपिषु ॥१४४॥ वनबुजनों को स्त्रियों से एवं तपस्विनी स्त्रियों से संबंध नहीं करना चाहिए ।। १३७ ॥ निस्सन्देह जिसको रक्षा की जाने पर अहिंसा-आदि गुण बृद्धिगत होते हैं उसे अध्यात्म-विद्या में प्रवीण आचार्य ब्रह्म कहते हैं ॥ १३८ । अतः काम की वृद्धि करनेवाले सरागी कार्यों से और कामोद्दापन करनेवाले रसों के सेवन से एवं काम-वर्धक शास्त्रों ( कामसूत्र-आदि ग्रन्थों) के श्रवण-पठन से अपनी बात्मा में काम का मद नहीं लाना चाहिए ॥ १३९ ॥ जैसे देवताओं के लिए समर्पण करने योग्य द्रव्यों ( घृत-आदि हवन सामग्री ) में अग्नि सन्तुष्ट नहीं होती एवं जेसे प्रचरजल से समद्र तप्त नहीं होता धैसे ही यह मानब भी सांसारिक भोगों से कभी तप्त नहीं होता ॥१४॥ स्त्री-आदि गंचेन्द्रियों के विषय वैसे आरम्भ ( तत्काल ) में पुरुषों को मधुर ( प्रिय ) मालाम पड़ते हैं और अन्त में विपत्ति ( दुःख । रूप फल देनेवाले होते हैं जैसे वत्सनाग विप आस्वादन-काल में मधुर ( स्वादिष्ट-मोठा ) होता है और अन्त में विपत्ति (मरण) रूप कुफल देनेवाला होता है, इसलिए सज्जनों का विषयों में आग्रह केले हो सकता है ?॥ १४१ ।। अनेक प्रकार की बाह्य क्रियाओं को करता हुआ कामी पुरुप रति-रस की प्राप्ति में ही सुखी होता है, परन्तु उसमें उसे केवल क्लेश ही अधिक मिलता है और मुख तो बहुत थोड़ा नाम मात्र होता है ॥ १४२ ।। जो मानव विशेष रूप से काम सेवन की इच्छा के स्वभाव वाला है वह निरन्तर काम का सेवन करने से असमय में नपुंसक हो जाता है, इसके विपरीत ब्रह्मचर्य के प्रभाव से वह अनन्न वीर्य के धारण करने के अवसर वाला होता है।
___ भावार्य प्रस्तुत आचार्य श्री ने नीतिवाक्यामृत के व्यसन-समुद्देश में लिखा है कि स्त्रियमतिशयेन भजमानो भवत्यवश्य तृतीया प्रकृतिः ।। १ । सोम्यबासुक्षवेण सर्वधातुक्षयः ॥ २॥ अर्थात्-अपनी स्त्री को अधिक मात्रा में सेवन करनेवाला मानव अधिक वीर्य धातु के क्षय हो जाने से असमय में युद्ध या नपुंसक हो जाता है ॥ १ ॥ क्योंकि स्त्री सेवन से पुरुष को शुक्र ( बीर्य | धातु क्षय होती है, इससे शरीर में वर्तमान वाको को समस्त रह धातुएँ ( रस, रुधिर, मांस, मेद व अस्थि-आदि । मष्ट हो जाती हैं। निष्कर्ष यह है कि नैतिक पुरुष को योर्य रक्षार्थ ब्रह्मचर्य पालन करना चाहिए अथवा अपनी स्त्री को अधिक मात्रा में संवन का ' स्याग करना चाहिए ।। १४३ ॥ १. 'अहिंसादयो धर्मा यस्मिन् परिपाल्यमाने बृहन्ति वृद्धिमुपयान्ति तद् ब्रह्म।' –नवासिडि ५-१६ । २. मरागानुशनः ।
३. बैबदेयद्रयः । ४. अग्निने तोपर्मति । ५. जनः । *. किंगाकफलसम्भोगनिम लद्धि भैथुनम् । आपातमात्ररम्य स्याद्विपाकऽत्यन्सभोतिदम् ॥ १० ॥ --ज्ञानार्णय पृ० १३४ । ६. सनागोपि आस्वादन सनि मुष्टः (स्वादिष्टः ) स्पात् । ७. आरम्भे । ८. स्वादु प्रियौ तु मयुरी। ९-१०. रतिरसप्ताप्तरबेत्र सुम्मो भवति किन्तु तत्र मुख स्सोकम् । ११. मतीव । १२. कामवाझ्यास्वभावः । १३, नमकः । १४. हिला । १५. हिताय । १६. हिनाभिलाधिगां। १७. परन्तु अर्थकामलक्षणा क्रिया फलाय न स्यादित्यर्थः । १८. पस्मान् कारणात् । १९-२०. लावर्थकामी न स्तां न भवेलां, तेषु तदर्थिषु अर्थकामवाञ्छकेषु, कार्यस्तेषु तृप्ति भवतीति भावार्थः ।
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सप्तम आश्वासः
क्षयामयसमः कामः सर्वदोषोधयतिः । २उत्सूत्रे तत्र माना कुतः श्रेय:समागमः ॥१४५|| देहविणसंस्कारसमुपार्जनवृत्तयः । जितकामे या सर्वास्तरकामः सर्वदोषमा ॥१४६॥ स्वाध्यायध्यानधर्मायाः प्रियास्सावन्तरे कुतः । "इन् विन्धने पायथेष कामाक्षणिः ॥१४॥ “ऐवश्यंमतो मुकरवा भोगानाहारवजेत् । देहदाहोपशास्यर्थमभियान बिहानये ॥१४८ ॥ । 'परस्नोसंगमानलक्रीडान्योपयमप्रिया:10 1 'तोग्रता रतिकतव्ये' हम्पुरेतानि तवसम् ॥१४९।। मधं शूतमुपद्रव्यं ४ तौर्यत्रिक । मदो गित गारनि "माधानती गण: ॥१५॥ हिंसनं साहस द्रोहः १ पौरोभाग्याषणे ।। ईर्षावापदण्डपामध्ये कोपज:२१ स्याद्गणोऽषा ।।१५१।।
सुखाभिलाषी मानवों की सुख-प्राप्ति के लिए की जाने वाली समस्त अनुलोम ( हित ) क्रियाएं फलदायक होती हैं, किन्तु अर्थ व काम को छोड़कर । अर्थात्-धन व काम की प्राप्ति के लिए किये जानेवाले कर्तव्य फलप्रद नहीं होते। क्योंकि घन चाहने वालों को धन प्राप्त नहीं होता और काम चाहनेवालों को कामसुख प्राप्त नहीं होता। अभिप्राय यह है कि धन चाहने वालों को प्रचुर धन मिल जाने पर भी तृप्ति नहीं होती और कामियों का काम-सुख प्राप्त हो जाने पर भी नप्ति नहीं होती ।। १४४ ॥
___ काम, क्षयरोग-सरीखा है। यह वैसा समस्त दोषों ( पापों) का जनक है जैसे क्षयरोग समस्त दोषों ( बात, पिस व कफ को विकृतियों ) का जनक होता है, इसलिए उसकी अधिकता में प्रवृत्त हुए मानवों के लिए कल्याण की प्राप्ति कैसे हो गकती है ? ॥१४५।। काम पर विजयश्री प्राप्त करनेवाले जितेन्द्रिय मानव के, शरीर का संस्कार करना और बन कमाना-आदि सभी व्यापार व्यर्थ हैं; क्योंकि काम ही समस्त दोषों का जनक है ।। १४६ 1। जब तक कामी पुरुप के चित्त रूपी ईधन में यह कामरूपी अग्नि प्रज्वलित रहती है तब तक उसमें स्वाध्याय, धर्मध्यान व धर्माचरण-आदि क्रियाएँ किस प्रकार उत्पन्न हो सकती हैं ? ।। १४७ ।। अतः काम ( रतिविलास ) को अधिकता छोड़कर शारीरिक मन्ताप को शान्ति के लिए व आतंध्यान को नष्ट करने के लिए आहार को तरह भोगों का सेवन करना चाहिए ।। १४८ । व्यभिचारिणी स्त्री के यहाँ आना जाना काम-सेवन १. क्षयरोग । २. आधिक्ये । ३. देहस्य संस्कारवृत्तिः द्रविणस्योपार्जनवृत्तिः । ४. कन्दपों दोपवान् । ५. ज्वलति ।
६. कामाग्निः । ७. आधिक्यं । ८. मातघ्पान । १. इल्परिका। १०, पवित्राहकरणं । ११. विपुलतृपा ! १२, बिटत्वं । १३, ब्रह्मचर्य । *. 'परबिवाहकरणेबरिकापरिगृहीतापरिगृहीलागमनानाङ्गब्रीडाकामतीमाभिनिवेशाः ।। २८11 --मोमागास अ०७। 'अन्यविवाहाकरणानङ्गकोडजिटत्यविपुलतषाः । इत्थरिकागमनं चास्मरस्य पञ्च व्यतीवाराः ।।६०|| -लकरण था । १४, यन्त्रलिङ्गलेपाविप्रयोगः । १५. एवमेव विहरणं । *. 'मृगयाओ दिवास्यप्नः परिबादः स्निगो मद. । तीयंत्रिकं वृथाटया च कामजो दशको गणः ।। ४७ ॥'-गनुस्मृति अ०७ । १६. परपरिग्रहाभिगमः कन्यादूध वा साहसा। १७. 'पोरे भाग्यार्थ वूपर्ण' इति गला । तत्र टिप्पणी-'नगरसंबंधिनी द्वे, परनिन्दा भाग्यदूषणं ।' पक्षिकाकारस्तु पौरोभाग्यममयकत्वमित्याह । टि० ग, दि. च इत्यत्रापि असूयफश्वमित्युल्लेखः। १८. अलिब्ययोऽपात्रव्ययश्चार्यदूपणम् ।१९. जातिवयोवृत्तविद्यादोषागागनुचितं वचो बापामध्यग् । २०. वधः परिक्लेशोऽर्थहरणमन्त्रमण दण्डपारुष्वम् । हमारे द्वारा अनूदित 'नीतिवाक्यामृत' व्यसनसगुहेश पु. २४३-२४४ से संकलित-सम्पादक। २१. 'पशुन्यं साहस द्रोहः ईयासूयाऽभदूषणम् । वाग्दण्ड प पारुष्य पायजापि गगी टकः ॥ ४८11---मनुस्मृति ०७
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पशस्तिलकचम्पूकाव्ये ऐश्वर्या रायशोग्डी यधैर्यसौन्वर्यवीयंताः । सभेताळू तसंबाराश्चतुर्थवतपूतधीः ।।१५२।। अनजामलसंली परस्त्रीरतिचेतति । समस्का विपको हात परत्र च दुरापवाः ॥१५३||
अयतामत्राब्रह्मफलस्योपाख्यानम्-काशिवेशेषु सुरसुन्दरीसपमपौराङ्गमाजन विनोवारविवसरस्पा वाराणस्पा संपावितसमस्तारातिसंतानप्रकर्षकर्षगो धर्मर्षणो नाम नृपतिः । अस्यातिचिरप्रहप्रौढप्रणयसहकारमजरो सुमञ्जरी नामापमहादेवो । पञ्चतन्त्राविषास्त्रविस्तृतवचन उग्रसेनो नाम सचिवः । पतिहितकमनोमुता सुभता नामात्य परनी। दुविलासरसरङ्गः कडारपिङ्गो नामानयोः सूनुः । अनवविद्योपवेशप्रकाशिताशेषशिष्यः पुष्यो नाम पुरोहितः। सोमप्यातिशयापहसितपया' पना नामास्य धर्मपत्नी । समस्ताभिमात जनवाह्यत्यवहारानुरागः स के अनों से भिन्न अङ्गों में कामक्रीड़ा करना, दूसरों का विवाह करना, काम-भोग को तीन लालसा रखना और विटत्व ये कार्य ब्रह्मचर्यदत्त के घातक हैं । अर्थात्-ब्रह्मचर्याणुव्रत के उक्त पांच अतिचार हैं ।। १४९ ॥
मद्य-पान, जुआ खेलना, उपद्रव्य (टि के अभिप्राय से मांस-भक्षण व मघु-सेवन और पञ्जिकाकार के अभिप्राय से जननेन्द्रिय पर लेप-आदि का प्रयोग ), गीत-सुनने में आसक्ति, नृत्य देखने में आमक्ति, वाजों के सनने में आसक्ति, भड़कीलो वेष-भूषा, मद, विटत्व ( लुच्चापन ) एवं व्यर्थ भ्रमग ये दश काम के गण ( अनुचर हैं। १५० ॥ दूसरों की हिंसा करना, माहस (परस्त्री-सेवन व कन्याओं को दुषित करना), मियादि के साथ द्रोह करना, पौरोभाग्य ( दूसरों की चुगली करना), अर्थ-दूषण ( आमदनी से अधिक धन खर्च करना और अपात्रों के लिए धन देना), ईर्षा, वाक् पारुष्य ( कठोर वचन बोलना, अर्थात्-कुलीन को नोच कुल का कहना, वयोवृद्ध को वालक, सदाचारी को दुराचारी, विद्वान् को मूर्ख कहना और निर्दोषी को सदोषो कहनाआदि कठोर वचन ) और दण्डपारुष्य ( अन्याय से किसी का बध करना, जेल खाने को सजा देना और उसका समस्त धन अपहरण कर लेना या उसको जोविका नष्ट करना ) ये आठ क्रोध के अनुचर हैं ॥१५॥ ब्रह्मचर्य से पवित्र बुद्धिवाला मानव आश्चर्यजनक वैभव, उदारता, दानवीरता व विशेष पराक्रम, घोरता, मनोज्ञता, विशिष्ट शक्ति और आश्चर्यजनक संचार ( आकाश में गमन करता-आदि ) इन प्रशस्त गुणों को प्राप्त करता है ।। १५२ ।। जो मानव कामरूपी अग्नि से संस्पृष्ट है और जिसका चित्त परस्त्री के साथ रतिविलास करने में संलग्न है, उसे इस लोक में तत्काल विपत्तियां (लिङ्ग-च्छेद-आदि ) उठानी पड़ती हैं और परलोक में भी नरक-आदि दुष्ट स्थान वाली भयानक विपत्तियाँ भोगनी पड़ती है ।। १५३ ।। अब दुराचार के कटु फल की समर्थक कथा सुनिए
१६. दुराचारी कडारपिङ्ग को कथा कापी देश की वाराणसो नगरी में, जो कि देव-सुन्दरियों से स्पर्धा करने वाली नागरिक कामिनीजनों को कोड़ा रूपी कमलों के लिए सरसी ( तहाग ) है, समस्त शत्रु-समूह को उन्नति को क्षीण करने वाला दुर्मर्पण नाभका राजा था। इसको चिरकाल से उत्पन्न हुए गाढ़ प्रेम रूपी आम्रवृक्ष को मञ्जरो-जैसी सुमजरो नामकी पट्टरानी थी और दर्शनशास्त्र व व्याकरण-आदि शास्त्रों के अध्ययन से विस्तृत वचन वाला उपमेन नामका मन्त्री था। उसकी पति के कल्याण में अनोखे मनो व्यापार वालो सुभद्रा नामकी प्रिया थी । इनके निन्द्य काम कीडारूपी रस के अभिनय करने के लिए रङ्गमञ्च-सरोखा फडारपिङ्ग नामका पुत्र था। उक्त १. त्यागविक्रमाम्यां वाण्डिीरः। २. बिनोद एवं कमल । ३. तर्कश्याकरणादि । ४. तिरस्कृतलक्ष्मी।
५. अभिजातस्तु कुलजे वृधै सुकुमार न्याव्ये च । *.
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सप्तम बाश्वास:
षिङ्गवंश"
कडार पिङ्गः स्वापतेयतारुण्य मदमन्दमान' बलाच्यापला हुरालापन भन्दैन सह नतः भ्रूविभ्रमाम्यमानभुजङ्गा तिथिषु पुरवीथिषु संचरमाण स्तामेकवा प्रासादत लोपसामरा 'मेणाक्षिप्तपद्म पद्मामवलोक्य एषेदिमसमुहलानाम्बुवृष्टिरेषा मनोमृग विनोदविहारभूमिः ।
एषा स्मरद्विरदवस्वनवारिवृत्तिः किं खेचरी किममरो किमियं रतिर्वा || १५४।। '
३५७
इति च विचिन्त्य मकरकेतुधाव्यापारनिधिः प्रवृत्ततुरभिसंधिः "पुरुषप्रयोगेणाभिमतकार्यघटना सिद्धिमनव बुध्यमानः पराशपलविवारणत डिल्लतामिव तडिल्लतां नाम पात्र अवडीनं १० शरणं ॥ सुनपातनपतनादिभिः " पादपतनादिभिः श्रयं रसदाशयाश्रमं वयसाध्यमुपरुध्य स्वकीया " कूल कान्तारघनघरित्रोमकरोत् ।
प्रतिभास:
१६ तदुपधा तथाविधविधिविधात्री १" धात्री --- स्वगतम् । ) परपरिग्रहो "अन्यतरानुरागप्रश्चेति दुर्घटखलु कार्योपन्यास: २० | अथवा सुघट एवायं कार्य घटः । यतस्तप्तातप्त वयसोरयतोरिव चेतसोः सांगत्याय शल राजा का निर्दोष विद्याओं के उपदेश से समस्त शिष्यों को प्रकाशित करने वाला पुण्य नामका पुरोहित था । इसको अपने रूप लावण्य की विशेषता से लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाली पद्मा नाम को प्रिया थी ।
एक समय समस्त कुलीन जनों से विपरीत आचार में अनुरक्त हुआ कडारपिङ्ग धन व जवानी के मद से प्रचुर शक्तिशाली चपलता के कारण अश्लील वचन बोलने वाले विट्-समूह के साथ ऐसी नगर को गलियों में घूम रहा था, जहांपरी काम के लिये आप लोकर कामोजन आतिथ्य ग्रहण करते थे, एक समय वह महल के तल पर बैठी हुई एवं अपने मुन्दर पलकों वाले नेत्रों से लक्ष्मी को तिरस्कृत करने वाली पद्मा को देखकर सोचने लगा-
इन्द्रियरूप वृक्ष को विकसित करने के लिए विहार भूमि-सी एवं कामरूपी हाथी की अधिने के लिए देवी है ? अथवा क्या रति है ? ।। १५४ ॥ *
जलवृष्टि सरीखी, मनरूपी मृग की नौड़ा के लिए बंधनरज्जु-सी यह कौन है ? क्या विद्याधरी है ? क्या
इसके पश्चात् काम के अधीन कर्तव्य निधिवाले उसने दुष्ट अभिप्राय उत्पन्न किया। बलात्कार से अपनो मनोरथ सिद्धि न जानकर उसने दूसरों के अभिप्रायरूपी पर्वत के विदारण के लिए बिजली-सरीखी तडिल्लता नाम की धाय को उसके पास भेजने का विचार किया। उसने उस काय को तीसरे मनुष्य आदि के लिये अगोचर ( एकान्त ) गृह में ऐसे विनयों द्वारा सफलता पूर्वक रोककर जो कि नैतिक स्थान की प्राप्ति को नष्ट करनेवाले थे, और जिनमें पैरों पर गिरता बादि वर्तमान थे एवं जो दुर्जनों द्वारा आश्रय किए जानेवाले थे, उसे अपने अभिप्राय की वृद्धिगत वन भूमिप्राय कर दी 1
उसके आग्रह से उसी प्रकार के कर्तव्य को करनेवाली चाय ने अपने मन में विचार किया - निस्सन्देह परस्त्री व उसके प्रति प्रेमी का प्रेम-कथन इस कार्य को वार्ता का प्रारम्भ दुःख से भी करने के लिए
१. प्रचुरीभवत् । २. विटसमूहेन ।। ६. कामिजन । ४. उदः सकर्मकश्वर इत्यधिकारे 'समस्तृतीयायुनेः' इत्यात्मनेपदं । ५. 'बर्फ अराळं कुटिलं मिस इति ट० ख० । गञ्जिकाकारस्तु 'अरालं नाग' इत्यची कमत् । ६. श्रियं । ७. पद्मा ★ रूपकपरिपुष्टः सन्देहालंकारः । ८ बलात्कारेण । * चित्त । ९. विद्युतं । १० अपलो मस्तृतीयाद्यगोचरः दि० ख० 'चतुलनने' टि० ० ० या यश पं० । १२. सुनमायतनस्य पलनं गमनं वदन्ति विनाशयन्ति इत्येवं नीलानि तैः २ १३. विनयैः । १४. 'सफल' ० तु क्रियाविशेषणमिदं । १५, अभिप्रायवनभूमिप्रायां । १६. तस्याग्रहात् । १७. कीं । १९. प्रत्ययः विश्वासः । २० उपन्यासस्तु वाङ्मुखं ।
१८
११. गृहे । ० ०
।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पण्डितधात्म' 'त्यमन्यथा सरससरसो'रम्मसोरिय इमोरपि द्रवत्वभाषयोरेकीकरणे किं नु नाम "प्रतिमाविजृम्भितम् । किछ ।
सा यूसिकाभिमतकार्यषिषौ बुधानो घासुर्यवयंवचनोधिचित्तवृत्तिः । या नुम्सकोपलकलेव हि शल्पमन्तश्चेतोनिकामपरस्य बहिष्करोति ॥१५५॥
सबकं विलम्बैन । परिपश्यफलमिव न खलु व्यतिक्रान्तकालमवः सरसताधिष्ठानमनुष्ठानम् । फित्वस्य साहसावलम्बनधर्मणः कर्मणः सिद्धावसिद्धौ पा वापरेगिताकारसबंः प्राजः कथमपि जनाधकाशे प्रकाशे कृते' सति "पुरभारी हि शरीरो भवति चुरपवावपरागावसरों पसनगोचरश्च1 सदभूत 'येयमिवमवसेपम तितीपापत्यप्रसवाय सचिवाय, तदुवाहरन्ति न वानिवेश भर्तुः किंत्रिवारम्भं कुर्यावन्यत्रा परप्रतीकारेभ्यः ।' इति । (प्रकाशम्।)
___ 'प्राणप्रियंकापस्य अमात्य ५ दश इथ ननु भवादशोऽपि जनो "जातजाषितामृप्तनिकाय "अचिररनं यत्न कर्तुमर्हसि । अशक्य विश्वास वाला है । अर्थात्-बड़ा कठिन है । अथवा यह कार्य-रचना सुलभता पूर्वक प्रयत्न करने के लिए शक्ष्य है। अर्थात्-सरल है। क्योंकि तपे हुए बीर बिना तपे हुए लोहों के समान परस्पर विरुद्ध दो चित्तों के अनुकूलीकरण के लिए निस्सन्देह विद्वानों के द्वारा जो प्रकाश के योग्य प्रयत्न किया जाता है वही तो वास्तव में दूतत्व है। अन्यथा द्रवीभूत वेगवाले दो जलों की तरह दो तरल हृदयों को मिलाने में दूनी का बुद्धिविस्तार क्या कहा जायगा?
विद्वानों ने ऐसी दुती इष्ट कार्य करने में समर्थ मानी है, जिसकी मनोवृत्ति बुद्धि की चतुराई से श्रेष्ठ वचनों के योग्य है । जो चुम्बक पत्थर को तरह दूसरे के मन के भीतर की शल्य को ( पक्षान्तर में लोहादि को ) खींचकर बाहर फैंक देती है ॥ १५५ ।।।
___ अतः इस कार्य में विलम्ब करने से कोई लाभ नहीं । जैसे समय के बीत जाने पर पका फल मो सरस नहीं रहता वैसे हो समय बीत जाने पर कार्य भी सरस ( सिद्ध) नहीं होता, किन्तु यह कार्य साहस के आश्रय से साध्य है। यदि भाग्योदय से सिद्ध हो गया तो दूसरों का मानसिक अभिप्राय और शारीरिक आकृति के जानने में सर्वज्ञ विद्वान् लोग बड़े कट से बहुत लोगों के मन में प्रत्यक्ष रूप से स्थान (सन्मान) प्राप्त कर लेते हैं, जिससे माहरा कर्म करने वाला मनुष्य अग्रेसर श्रेष्ठ हो जाता है। परन्त भाग्यम्बक के पलट जाने से ज सिद्ध नहीं होता तो दूत हो अपकीति रूपी धूलि पड़ने का अवसर प्राप्त करता है और विपत्ति में फंस जाता है । अतः में यह कार्य, इकलौते पुत्र को उत्पन्न करने वाले मन्त्री से कहती हैं। क्योंकि नीतिकार आचार्यों ने कहा है कि 'असह्य संकट दूर करने के सिवा दुसरा कोई भी कार्य सेवक को स्वामी से निवेदन किये विना नहीं करना चाहिए । अर्थात् केवल आपत्ति का प्रतीकार स्वामी को बिना निवेदन किये भी करना चाहिए।
ऐसा मन में सोचकर घाय मन्त्री से स्पष्ट बोलो-'प्राणों से प्यारे इकलौते पुत्र वाले हे मन्त्री ! निश्चय
१-२. प्रकाश्यं यत्कियते तदेय दूतत्वम् । ३. द्रवीभूतवेगयोः । ४. जलयोरिव । ५. मति । *. पाले लोहादिकं ।
* चित्तमध्ये । ६. कार्य । . यथा पक्व फलं अतीतका सरसं न भवति। ८. कार्य। ९. दूतः । १०. दूतो भवति । ११. कथयामि । १२. कार्य । १३. आचार्याः कथयन्ति । १४. किन्तु आपत्प्रतीकारः स्वामिनः अनिवेद्यापि करणीयः, अन्यत्कार्य कथनोयमित्यर्थः । १५. हे मन्त्रिन ! । १६. पूर्व स्वमपि ईदृशो वमूवंति भावः । १७. पुनजीवितर्मवामृतं तत्सेचनाय । १८. शीन' ।
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सप्तम आश्वासः
अमात्यः--'समस्तमनोरथसमर्थनफयामार्ये बायें, तमीबितामृतनिकाय मजोरितोषितविकाय प तत्रमवत्येव प्रमसि ।।
धात्री-अप किम् । तथाप्यपलाजममनोतिरिक्तप्रतिमानता तत्रभवतापि प्रतियतितष्यम् ।' इत्यभिधाय पतकात्यायिनीप्रतिकर्मा करतलामसमिशकलितसकलस्त्रंणधर्मा संस्तः परचिताकर्षणमात्र नक्षुश्चेतोडाववास्तुमि वस्तुभिश्च अप्तिचिरायाचरितोपचारा परिणाप्तप्रणयप्रसरावतारा च एकबा मुद्दा रहसीम प्रस्तुतकार्यघटना. समसीमं सा पुष्यकारतामुद्दिश्य इलोकमुबाहार्षीत् ।
स्त्रीषु पन्यान गङ्गध परमोगोपगापि पा । मणिमालेब सोल्लासं नियते मूनि शंभुना ॥१५६।।'
भट्टिनो-(स्वगतम् । ) "इत्वरोजनाचरणहम्बनिर्माणाय प्रथमसूत्रपात इवाय घाश्योपोबरतः। सपा शाह नेयं तावदेतवातपरिपाकम् । (प्रकाशम् । ) आर्य, किमस्य सुभाषितस्य 'ऐदंपर्यम् ।।
धात्री-परमसौभाग्यभागिनि भट्टिनि, जानासि एवास्य सुभाषितस्य फंपर्यम् २, यदि न बघटितहृदयासि । से आप भी पहिले ऐसे ही थे, इसलिए आपको पुत्र के जोबनरूपी अमृत के सिञ्चन के लिए शीघ्र प्रयत्न करना चाहिए।'
मन्त्री-'देवो ! आप समस्त मनोरथों को सफल करने को कथा में स्मरण के योग्य हैं, अतः उसके जीवनरूपी अमृत के सिंचन के लिए और मेरी जीवन रक्षा के योग्य ज्ञान के लिए आग ही समर्थ हैं।'
घाय-'यह तो ठीक है, परन्तु आप स्त्रीजनों के मानसिक ज्ञान को अपेक्षा अधिक बुद्धिशाली हैं अतः आपको भी प्रस्तुत कार्य में प्रयत्न करना चाहिए।'
इतना कहकर धाय ने अधं वृद्धा स्त्री का वेष धारण किया और उसने समस्त स्त्रीजनों के उचित कर्तव्य हस्त पर खखे हुए आंवले को तरह स्पष्ट निश्चय किए | उसने दूसरों के चित्तको आकर्षण करने के लिए मन्त्र-सरीखे वचनों द्वारा और नेत्र-मुख ब' मानसिक सुख को स्थानीभूत वस्तुओं की भेटी द्वारा पद्मा को चिरकाल तक सेवा को । जिससे उसने अपने कार पद्मा को विस्तृत प्रेम की उत्पत्ति प्राप्त की।
एक समय उसने एकान्त में पद्मा को लक्ष्य कारके हर्षपूर्वक ऐसा श्लोक पढ़ा, जो कि प्रसङ्ग में प्राप्त हुई कार्य-रचना को अनुकुल मर्यादा से युक्त था।
___ इस लोक को स्त्रियों में गङ्गा हो धन्य है, जो दूसरों के समीप भाग-दान के लिए जाती है. फिर भी वह शहरजी द्वारा मणियों की माला की तरह उल्लास-सहित मस्तक पर धारण का जाती है ।। १५६॥
इसे सुनकर पना ने अपने मन में विचार किया, यह वाक्य के अवतारणों का क्रम कलटा स्त्रीजन. के आचरणरूपी महल के निर्माण करने के लिए प्रथम सूत्रपात-सरीखा है । फिर भी इसने जो कुछ माहा है, उसके अभिप्राय का सार जान लेना चाहिए ।'
पश्चात् पद्मा ने स्पष्ट कहा-'माता! आपके इन सुभापित का क्या रहस्य है ?'
१. स्वमेव । २. समर्था। ३. एवमेतन् । ४. अधिकायुद्ध्या । ५. अपंजारती । ६. पचनः । ७. पास्तु गृहम् ।
८. कुन्टा। ९. 'संग्रहवायचे अवतारणक्रमः, उपन्यानस्तु वाङ्मखं, उपोट्रातः उबाहारः' टि० ख०, 'अवतारणक्रमः' इति टि० च० तथा यश. पं० अपि । १०. अभिप्रायोदयं मूत्रपातसदृशम् । ११. रहस्य । १२. रहस्म ।
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यशस्तिलफचम्पूकाव्ये भट्टिनी-( स्वगतम् । ) सत्यं वटित हयमाहम्, पति भवरन युक्तोपपातमणमरितकाया न भविष्यामि । {प्रकाशम् । ) आर्य, हृदयेऽभिनिषिष्टमर्ष प्रोतुमिच्छामि ।
पात्री-वत्से, कथयामि । कि तु । चित्तं वयोः पुरत एक निवनीयं, जानाभिमानधनधन्यप्रिया नरेण । यः प्रायितं न' रहस्यभिपुग्यमानो , यो वा भवेन्लनु जनो मनसोऽनुकूल: २ ॥१५॥
भट्रिना- बातम् । ) अहो भ.glhanायं पङ्क रुपलतुमिच्छति । ( प्रकाशम् I ) आयें, "उभयत्रापि समाहं न चतन्मनुपर्ने भवदुपक्रम वा ।
पात्री-स्वगतम् ।) "अनुगुणेयं खलु कार्यपरिणतिः, यदि निकटतटतन्त्रस्य 'वहित्रपामस्पेन दुर्वाताली" समिपातो न भवेत् । (प्रकाशम् । अत एव मन, वन्ति पुराणचित्रः--
'विप्रोः कलत्रेण गोतमस्पामरेश्यरः । ११सतनोवापि । दुधर्मा ममर्गस्त'३ पुरा कित ||१५८॥'
घाय-'परम सौभाग्य शालिनी देवी ! यदि तुम्हारा हृदय वअघटित नहीं है तो इस सुभाषित का रहस्य ( अभिप्राय ) तुम जानती ही हो।'
पया--(मन में ) 'यदि आपके द्वारा फेंके जाने वाले प्रहार रूपो घनों द्वारा जर्जरित शरीर बालो नहीं होऊंगी तो वास्तव में मैं बज्नघटित हृदय वाली है।' । प्रकाश में) 'माता! मैं आपके मन में स्थित हुमा अभिप्राय सुनने की इच्छा करती है।'
वाय-'पुत्री ! कहती हैं, किन्तु
ज्ञान और स्वाभिमान रूपी धन से धन्य बुद्धिवाले मनुष्य को दो व्यक्तियों के सामने ही अपने मन की बात कहनी चाहिए । १. प्रार्थना किया हुआ जो व्यक्ति प्रार्थना को हुई वस्तु छुढ़ाता नहीं है, अर्थात्प्रार्थना की हुई वस्तु दे देता है । २. निस्सन्देह जो मानव प्रार्थना करने वाले के मन के अनुकूल है ॥ १५७ ॥
पद्मा-(मन में ) 'अहो ! आश्चर्य है, कि यह आकाश के स्वभाव-सरीखी निलित वस्तु को भो कीचड़ से लोपने की इच्छा करती है। अर्थात्-आकाश-सी निर्मल प्रकृतिवाली पतिव्रता मुझको यह घाय कुलटा स्त्रोजनों के दोषम्सपो कोचड़ में लोरना चाहती है ।' (प्रकाश में ) 'पूज्य दचो ! में आपको दोनों बातों में (प्रार्थना की हुई वस्तु के देने में और आपके मन की अनुकूलता में ) समर्थ हूँ। यह मेरो उपाधि नहीं है और न इसमें आपका उद्यम ही है, क्योंकि मेरी पहले से ही ऐसी प्रवृत्ति है।'
धाय- मन में ) यह कार्य का परिणमन मेरे अभिप्राय के अनुकूल है, परन्तु यदि तट के समीप प्राप्त हुई नौका के लिए प्रतिकुल चलनेवाली प्रचण्ड वायु के झकीरों का वेग से आगमन न हो । अर्थात् मेरा कार्य इस समय सिद्ध प्राय है, यदि इसमें विघ्न न हो।
(प्रकाश में ) 'पुत्रो ! इसीलिए पुराणकारों ने कहा है कि-निस्सन्देह प्राचीनकाल में चन्द्रमा ने वहस्पति की पत्नी के साथ ति विलास क्रिया व इन्द्र ने गौतम को प्रिया ( अहिल्या के साथ
साथ एवं रुद्र ( श्रीशिव ) ने शान्तनु राजा की रानी के साथ रतिविलास किया ॥ १५८ ।। १. न त्याजयति । २. प्राथितः प्राप्यमानः । ३. हितः। ४. आकाशस्वभाव । ५. प्रायितदाने मनोनुकूललायाश्च ।
६-७. न हि मदीय उपाधिनं च भवदीय उद्यमः किन्तु पुरंत्र ईदगी गतिरस्ति । ८. अनुकला इयं । ९. पोतस्य । १०. पात्या । ११. शान्तनुराजः । १२. हरः । १३. एकत्र बभूव ।
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सप्तम आश्वास:
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भट्टिनी-'आयें, एवमेव । यतः । स्त्रीणां पपुवंग्मुभिरग्निसाक्षिक परत्र विक्रीतमिव न मानसम् । स एव तस्याधिपतिर्मतः कृती विम्भगी' ननु यत्र निसिः२ ॥१५९॥
धात्री-पुत्रि, तहि भूयताम् । त्वं किरलकदा कस्यच्चि कुसुमकिसाहनिविशेषवपुषः पुराङ्गनाजनलोचनोस्पलोत्सवामृतरोचिषः प्रामावरि 'सरविहारिणी वीक्षणपथानुसारिणी सती कौमुदीव हृदयचन्द्रकान्तानन्धस्यन्वसंपादिनी अभूः । तदनभति ननु तस्य मवमसुन्दरस्य यूनः प्रत्ययसितवसन्तीसमागमप्तमयस्य "पुष्पंधयस्येच "सालमनामिव भवत्या महान्ति खलु मन्दमक रन्दास्वादने बोहवानि निसान्तं चिन्ताधकारिकान्तं स्वान्तम्, प्रसभं गुणस्मरणपरिणामाधिकरणान्तःकरणम्, अनवरतं रामगीयकानुकीर्तन संकेतं चेतः, प्रविकसकुसुमविलासोचितसनिहितेऽप्यन्यस्मि
"ताकाम्साजने महानुगः, पिशाचलितस्येव वाऽथानानुवंघः। प्रलपित्तप्रबंधः, संजातोन्मावस्येव विचित्रोपतम्भः क्रियाप्रारम्भः, स्कन्दगवगृहीतस्पेव प्रतिवासरं कार्यावतारः, स्मराराधनप्रणीतप्रणिधानस्येन्द्रियेषु सन्नता जाता, प्रागंषु चायवोनपया कया। अपि च ।
पद्मा-'पूज्य देवो! आपका कहना ठीक है, क्योंकि
बन्धुजनों द्वारा कामिनियों का केवल शरीर मात्र ही अग्नि को साक्षीपुर्वक दुसरी के लिए बैंचा गया है, न कि मन । इमलिए वही भाग्यशालो या कुशल पुरुष उनके मन का स्यामो माना गया है, जिसके द्वारा उन्हें विश्वास-सहित रति-विलास-आदि का सुख प्राप्त हो ॥ १५९ ॥
घा .मी! तो सु:- ब. समार नग्न महता के सावितन प्राङ्गण पर घूम रही थीं, तम निस्सन्देह किसी ऐसे प्रेमी नवयुवक के नेत्रों की दृष्टि के मार्ग को अनुसरण करनेवाली हुई । जिसका शरीर कामदेवजैसा विशेष मनोज्ञ है और जो नागरिक कामिनी जनों के नेत्ररूपी कुमुदों को विकसित करने के लिए चन्द्रसरीखा है। उस समय तुम कौमुदी-( चन्द्र-किरण ) सरीखी उसके हृदयरूपी चन्द्रकान्तमणि में आनन्द रूपी जल-निर्गम को उत्पन्न करनेवालो हुई। तभी से लेकर निस्सन्देह कामदेव-सरीखे अत्यन्त सुन्दर उस नत्रयुवक को उस प्रकार आपके मुख को सुगन्धि रूपो मकरन्द (पुरुपरस) के आस्वादन करने के महान मनोरथ हुए जिस प्रकार वसन्तलक्ष्मी के समागम के समय को प्राप्त करनेवाले भोरे के लिए आम्रमन्त्री के रसास्वाद करने का तीन दोहला ( मनोरथ ) होता है। उसी दिन से उसका मन सदा आपको चिन्ता के चक्र से व्याकुलित रहता है। एवं उसका अन्तः करण अत्यन्त आपके गुणों के स्मरण को परिणति का आधार है। उसका चित्त निरन्तर आपके देह-सौन्दर्य के पुनः पुनः स्मरण करने में संकेत-युक्त है। आपको छोड़कर विकसित पुष्पोंसरीखी विलास के योग्य दूसरी लना-सी कामिनी जनों के समीप आनेपर भो उसके हृदय में महान घबड़ाहट उत्पन्न हो जाती है । भूताविष्ट की तरह उसका एक स्थान में सन्ततिरूप से प्रवर्तन नहीं है और उसमें प्रलाप-( बकवाद ) समूह वर्तमान है। पागलों की तरह उसके कार्य का प्रारम्भ विचित्र विभ्रम वाला है, क्षयरोग से पीड़ित रोगी को तरह उसका शरीर प्रतिदिन झीणता प्राप्त कर रहा है। कामदेव की आराधना १. विश्वाससहित।। २. सुखं । ३. किसारुः सस्यसूत्र स्यात्, सूकोस्त्रीश्लदगतीपणाने पुण्यकेसरनमः कनकवर्णः'
इति टि० ख०, 'पुष्पोरा रसदृशः मानकवर्ग इवेत्यर्थः' टि० च०, यश० पञ्जिकाकारस्तु 'कुसुमकिमाक;' कामः' इत्याह । ४. उपरितनप्राङ्गण। ५. संजात। ६. भ्रमरस्येव । ७. रसालरचूतः । ८. 'अन मुलपरिमल मकरन्दः' दिखा , 'अत्र मुखकमलमेव मकरन्दः' टि. १०। ९. वत् । १०. संतत्या प्रवर्तनम् । ११. क्षयरोग । १२. 'पेष्टाभावीणता टिच. 'अश्ता' टि.ब.। १३. अद्य कल्ये वा प्राणा: यास्यन्ति ।
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३६२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
अनवरत 'जलार्द्राच्चोलनस्पन्दमन्छे रतिसरस मृगाली कन्वलंश्चन्दना: । अमृतमरीचिप्रीहितायां निशायां प्रियसखि सुहृबस्ते किचिदात्मप्रदोषः * ॥ १६० ॥
भट्टिनी - आये, किमित्यचापि गोपारयते ।
धात्री - ( कर्णनामनुसृत्य ) एवमेवम् । भट्टिनी - को दोष: 1
धात्री - कदा |
भट्टिनी- यदा तुभ्यं रोचते ।
इतश्चानन्तरायतया "तनयानुमताहितमतिपादयः सचिवोऽपि नृपतिनिवासोवितप्रचारेषु वासुरेषु गुणच्यावर्णनायसरायासमेतस्य महोपतेः पुरस्ताच्छ लोकमिममुपन्यास्यत्"
'राज्य प्रवर्धते तर किल्पों यस्य वेदमनि । शत्रववच अयं यान्ति सिद्धान्तामणेरिव ॥११६१ ॥ ' 'राजा--'अमात्य, यव तस्य प्रादुर्भूतिः कीदृशी च तस्याकृतिः ।
में
एकरयता प्राप्त करने वाले पुरुष की तरह उसकी इन्द्रियों में चेष्टाभाव क्षीणता है और जड़ता है | आज व कल मैं उसके प्राण निकल जायेंगे ।
'प्यारी सखी! निरन्तर जल से भोंगे हुए वस्त्र के पंखों के हिलाने के कारण वेग में मन्द हुए पंखों के द्वारा और अतिस्निग्ध कमल-नाल के चन्दन सहित कन्दों द्वारा शीतोपचार किये हुए तेरे मित्र को -किरणों से वृद्धिगत ( चाँदनी ) रात में कुछ चेतना होती है ।। १६० ।।
पद्मा - 'देवी ! क्या अब भी मुझ से छिपाती हो ?'
बाय- पद्मा के कानों के समीप धोरे से बोलो - 'ऐसा हो है, अर्थात् - कडारपिङ्ग आपको
चाहता है ।'
पद्मा - ' इसमें क्या बुराई है ?" घाय--' तो कब ?'
पद्मा - 'जब तुम चाहो ।'
[ यहां घाय प्रयत्नशील थी, वहाँ मन्त्री भी प्रयत्नशाल था । ]
उधर पुत्र के प्रिय कार्य में बुद्धि की पता स्थापित करने वाले उग्रसेन मन्त्रो ने भी राजा के समक्ष ऐसा श्लोक बे रोक टोक पढ़ा, जो कि राजमहल के योग्य प्रचारवाले पक्षियों के गुणों के कथन के अवसर पर प्राप्त हुआ था ।
'जिस राजा के महल में किञ्जल्प नामक पक्षी रहता है, उसकी राज्य-वृद्धि होती है और सिद्ध किये हुए चिन्तामणि को तरह उससे शत्रु नष्ट होते हैं ।। १६१ ॥
राजा - 'मन्त्री ! यह पक्षी किस स्थान पर उत्पन्न होता है ? और उसकी आकृति कैसी होती है ?'
२. व्यजन ।
१. 'जलाई वस्त्रव्यजनं' इति पञ्जिकाकारः । ५. भषति, ईशो वर्तते । ६. कर्णसमीपं दानैः कथितवती । ९. पक्षिषु । १०. पठतिस्म ।
३. कन्चन्द्रसहितः । १७. कडारपिङ्ग एवं त्वां वाञ्छति ।
४. मनाव
८. पुत्र
'
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सप्तम आश्वासः
३६३ अमात्यः-शेव, भगवास: पार्वतीपतेः १श्वशुरस्य मन्याफिनीस्पतनिधामकबरनोहारस्य परमगसहबरसेवरीसुरतपरिमलमत्तम तालिमण्डलोविलिरुपमान"मरफतमणिमेखलस्य प्रालयाचलस्थ वृक्षोत्पलखण्डमण्डितशिक्षण्डस्य रत्नधास्दण्डनाम्नः शिखरस्याम्यासे निःशेषशकुन्तसंभवावहा गुहा समस्ति । यस्यां “जटायु-वैनतेय-वैशम्पायनप्रभृतयः शकुम्तयः प्रादुरासन् । 'तस्यामेव "तस्पोत्पतिः । तां च गुहामहं पुष्पश्चरमेकशी नम्वरभगवतीपात्रानुसारियात्साय जानीयः । प्रतिकृतिश्चास्या' कयर्णा मनुष्यसवर्णाच।।
भूपाल:-( संजातकुतूहलः । ) अमात्य, कथं सद्दर्शनोस्कण्ठा ममाकुण्ठा' स्यात् । अमात्यः-देव, मयि, पुणे या गते सति ॥ राजा--अमात्य, भवानतीय प्रत्याः । तत्पुष्यः प्रपातु । अमास्यः-वेय, तहि होयतामस्म सरनालंकारप्रयंक" पारितोषिकम्, "अगणेयं पाथेयं । राजा-कासम् ।
स्वामिचिन्ताचारचक्षुष्यः पुष्यस्तकाविष्टो मेहमागत्य 'आवेर्ण न विकल्पयेत्' इति मतानुसारी प्रयागसामग्री कुक्षुणस्तया सतीत्रतपविधितसमया पाया पृष्टः-'भट्ट, किमकाण्डे प्रयाणासम्बरः ।
मन्त्री-'देव ! भगवान् शङ्कर के इनस्तुर हिमालय पर्वत की, जिसकी गुफाओं का हिम गङ्गा के प्रवाह का कारण है, और जिमकी मरकत मणियों की मेखला ( मध्यभाम या करधनी ) भर्ताओं के साथ गमन करने वाली विद्याधरी कामिनियों के रतिविलास की सुगन्धि में मत्त ( लम्पट हुई भ्रमर-श्रेणो द्वारा विलक्ष्मी (शोभा-हीन ) की जा रही है, कणिकार वृक्षों के समूह से अलङ्कृत चोटीवाले रत्नशिखण्ड नामको शिखर के समीप समस्त पक्षियों को उत्पन्न करनेवाली गुफा है, जिसमें जटायु, गरुड़ व वैशम्पायन-आदि पक्षी उत्पन्न हुए थे । उसी में ही किंजल्क नाम के पक्षी की उत्पत्ति है। उस गुफा को हम दोनों { मैं और पुष्य ) भलीभांति जानत हैं, क्योंकि हम दोनों ने अनेक वार पार्वती परमेश्वरी के दर्शन के लिए वहाँ की यात्रा का अनुसरण किया था। इसकी आकृति अनेक वर्ण ( श्वेत व पोतादि ) दाली व मनुष्य-सी है।'
। उत्पन्न हुए कौतुक वाला राजा-'मन्त्री ! उसके दर्शन की मेरो तीन अभिलाषा किस प्रकार पूर्ण होगी?
मन्त्री-'देव ! मेरे और पुष्य के वहाँ जाने पर ही आपको तीन अभिलाषा पूर्ण हो सकती है।' राजा-'मंत्री ! आप विशेष वृद्ध हो, अतः पुष्य जाय ।'
मन्त्री-'देव ! तो पुष्य के लिए रत्न-जड़ित कङ्कण बाला पारितोषिक दीजिए और मार्ग में हित कारक प्रचुर सामग्री भो ।'
राजा-'बहुत अच्छा।' स्वामी की चिन्ता के अनुकूल प्रवृत्ति करने से मनोज्ञ और राजा द्वारा आज्ञा दिया हुमा पुष्य घर
१. हिमाचलस्य । २ हिमं गलित्वा, जालं मूत्वा गङ्गा बहति । ३. भर्तृसहगमन । ४. चमरौणी । ५. पिलचमी
क्रियमाण । ६. कर्णिकारः। ७. समीपे । ८. पक्षिविशेष। ९. गृहायां। .१०. किंजल्पपक्षिणः । ११. पक्षिणः । १२. ममाना। १३. अमन्दा। १४. वृद्धः । १५. कणं । १५. प्रचुरं। १५. प्रवृत्तिसुभगः । १८. राज्ञा आविष्टः पुष्यः।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये पुष्यः-प्रस्तुतमाचष्टे 1 भट्टिनी-भट्ट, सर्वमेतत्सचिवस्य कूटकपटचेष्टितम् । भट्टः-'भट्टिमी, किनु सल्वेतवेष्टितस्यायतनम् । भट्टिनी-प्रक्रान्तमाषिष्ट । भट्टः-किमत्र कार्यम् ।
भट्रिनी-कार्यमेतदेव । विद्या प्रकाशमेतस्मात्पुराप्रस्थाय निशि निभतं च प्रत्पावत्य अत्रैव महावकाशे मिजनिवासनिवेशे सुखेन वस्तष्यम् । "उत्तरत्राहं जानामि ।
भट्ट:-तथास्तु
ततोऽग्पदा तया *परनिकृतिपाया पाश्या स बुराधाराभिषङ्गः फडारपिङ्गः 'मुप्तजनसममे समानीत: 'समम्यसतु सावविहयमयं 4'' महीमूलं पियासुः पातालापासवुःखम्' इत्यमुष्याय सया पाया महावर्तव्य गर्तस्पोमिलता.REr7* * नाले गरे विलिनगुने तो हावपि' नुरातगईध्ये श्वभ्रमध्ये विनिपेततुः । अनुक आया । वह 'आज्ञा में संकल्प-विकल्प नहीं करना चाहिए' इस नैतिक सिद्धान्त को मानने वाला था । अतः वह प्रस्थान की सामग्री का संत्रय करने लगा।
उसी समय पातिव्रत्य धर्म से गृह को पवित्र करने वालो उसकी पत्नी पद्मा ने उससे पूछा-- 'स्वामी ! आप असमय में यह देशान्तर में गमन करने का प्रपञ्च क्यों कर रहे हैं ?
पुष्य ने उससे प्रस्तुत बात कह दी। पद्मा-स्वामी ! यह सब मन्त्री के कूटकपट को चेया ( व्यवहार ) है।' पुष्य-'प्रिये ! निस्सन्देह इस कूटकपट-पूर्ण व्यवहार का क्या कारण है ? पना ने प्रस्तुत पूर्व वृत्तान्त कह दिया। पुष्य-'इस अवसर पर मुझे क्या करना चाहिए?
पा-'कर्तव्य इतना ही है, कि आप दिन में समस्त जनों के सामने इस नगर से प्रस्थान कर दो और रात्रि में चुपत्राप लौटकर बड़ो जगह वाले अपने निवास स्थान ( गृह ) में सुखपूर्वक निवास करो। पूर्वोक्त वृत्तान्त के विषय का कर्तव्य में जानती है।'
पुष्य ने वैसा ही किया !
इसके उपरान्त एक दिन रात्रि की मध्यवेला में दूसरों को धोखा देने को पात्र-भूत यह पाय, दराचार से संबंध रखने वाले ( परस्त्री-लम्पट ) कडारपिङ्ग को लाई । उधर पद्मा ने यह सोचकर कि 'ये दोनों इसी जन्म में नरक में गमन करने के इच्छुक होकर नरक निवास का दुःख भोगें' ऐसा सोचकर उसने खुब गहरे गड्ढे के ऊपर विना बुनी खाट बिछा दो, जा कि कपड़े को चादर मात्र से सजी हुई थी, उसपर उन दोनों को बैठाया, जिससे वे दोनों (धाय और कडारपिन) महाव्यथा वाले उस नरक-कुण्ड-सरीखे गड्ढे में
१. कारणं 1 २. प्रस्तुते पूर्व वृत्तान्तं । ३. दिवसे । ४. स्थाने। ५. पूर्वोतवृत्तान्त । ६. तथैव कृतवान् । ७. माया।
८. दुराचारेण सह संबंधो यस्य । ९. सुप्तजनः रात्रिमयः । १०. धात्रीकद्धारपिछौ। ११. विस्तारेण गम्भीरस्य । १२. अणचुणीखदायां । *. 'अवानायां प्रच्छदमाषप्रमाणनाया खट्वायां' इति क० ख०, घ० च० । विमर्श:- 'अयं पाठः साधुरिति ममाभिप्रायः'-सम्पादकः । १३. धात्रीकडारपिङ्गी ।
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सप्तम आश्वासः
भूवसुरच निक्षिलपरिजनोसियटसिक्यजीवनो कुम्भीपाकोपकम' षट् समासाखान्दुःखक्रमम् ।
पुनरेकवा 'स्वाम्मावेशविदोविनुष्यः पुष्यः तयाविषपक्षिप्रसवसमर्थपक्षिणीसहित कृतपञ्जरपरिकल्प किंवल्पमादाय आगच्छस्त्रिधारेषु वासरेवस्यां पुरि प्रविशति' इति प्रसिद्धम् । तत्प्रतिनी भट्टिमी यिविभवर्णविडम्बितकायेन घटकपकोरबाषचातकाविधवच्छावित प्रतीकनिकायेन पञ्जरालयेन तद्वयेन सह चिरप्रयासोचितवेषजोमे' पुष्यं पुरोपवने विनिवेश्य भट्टो तारम्भसमाषणसनापसलोमनसंकल्पा इतप्रोधिसभ फाकल्पा भिमुखमासीत् ।
अपरेशुः स निखिलगुणविशेष्यः पुष्यः पृथियोपतिभवनमनुगम्य 'वेव, अयं स किंजल्पः पक्षी, इयं च तसवित्री० पतत्रिणी छ' इत्याचरत् ।
राजा-(चिर निर्वयं निणीय च स्वरेण । ) पुरोहित, नंप खलु किजल्पः पक्षी, किंतु कडारपिङ्गोऽयम् । एषापि विहङ्गी न भवति, किं तु तडिल्लतेयं कुहिनी।
पुष्यः-देव, एतत्परिज्ञाने प्रगल्भमतिप्रसपः सचिवः ।
राजा सचिवस्तया पृष्टः इमातलं प्रविविक्षुरिव कोणीतलमवालोफत । जा गिरे और समस्त कुटम्बी जनों के जूठे भात को खाकर जीवित रहने वाले उन दोनों ने छह माह तक नरक के आरम्भ-सरीखा भयानक दुःख भोगा ।
_इसके पश्चात् पया ने एक समय राज्य में ऐसी प्रसिद्धि की, कि 'स्वामी की आज्ञा-पालन में विशेष निपुण पुष्य एक पिंजरे में बन्द किंजल्प पक्षो को और इस प्रकार के पक्षी को जन्म देने में समर्थ पक्षिणी को लेकरवा रहा है और वह तीन बार दम में नगरी में प्रविष्ट हो रहा है।' इसके उपरान्त उसने चिरकालीन प्रमाण के योग्य बेप धारण करने वाले अपने पति पुष्य को ऐसे उन दोनों (वाडारपिङ्गव धाप ) के साथ पहले ही नगर के बगीचे में ठहराया, जिनका शरीर नाना प्रकार के वर्षों ( पीत र रकादि ) द्वारा विचित्र किया गया था और जिनके शारीरिक अवयव ( हस्त व पाद-आदि) समूह चिड़िया, चकोर, नीलकण्ठ व चातक-आदि पक्षियों के पंखों द्वारा आच्छादित किये गए थे और जो पिंजरारूपी गृहवाले थे । और वह ( पद्मा), जो ऐसे सखोजनों से भूषित थी, जो कि पुष्य के कारण से उत्पन्न हुए आरम्मवाले संभाषण से युक्त था, जिसने प्रवास में गये हुए पतिवाली स्त्री का वेष धारण किया था, पति के सन्मुख गई।
दूसरे दिन ममस्त गुणों में उत्कृष्ट पुष्य राज-भवन में जाकर बोला-'देव ! यह वही किंजल्प पक्षी है और यह उसको माता पक्षिणी है ।'
राजा- बहुत देर तक देखकर व शब्द सुनने से पहचान कर ) 'पुरोहित ! यह किंजल्प पक्षी नहीं है, यह तो कडारपिङ्ग है। यह भी पक्षिणी नहीं है, किन्तु तडिल्लता नामकी बुट्टिनी है'।
पुण्य-'किंजल्प पक्षी के ज्ञान में प्रौढ़ बुद्धि उत्पन्न करने वाले उग्रसेन मन्त्री हैं।'
राजा ने मन्त्री से उन्हें पहचानने के लिए पूंछा, तो मन्त्री पृथिवी-तल की ओर देखता रह गया, मानों-पृथिवी-सल में प्रवेश करने का इच्छुक ही है।
१. उपज्ञा ज्ञानमा स्यात् ज्ञात्यारंभ उपक्रमः । २. षण्मासान् । ३. अनुयभूवतुः । ४. धानोसहितं । *. 'इति
प्रसिद्धिवर्तिनी भट्टिनी' क०। ५. प्रतीकाः अवयवाः । ६. सह पृष्यं निवेश्य । ७. नेवनीय। ८. वेषा। ९. सन्मुख गना । १०. माता।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये राजा-पुष्य, समास्ताम् । अयं भवानेतद्यतिकरं कथयितुमर्हति । पुष्यः-स्वामिन्, 'कुलपालिकात्र प्रगल्भते ।
सुपतिः मट्टिनीमाहूय 'अम्य, कोऽयं म्पतिफरः' इत्यपृष्त । भट्टिनी गतमुदन्तमास्यत्-काश्यपीश्वरः शंकूष' एवं पान्धाराम भिसामा गुस्सुमोमानानपावरपा पो तस्तः सतीमनप्रसादनवधनः संमानसंनिधामरलंकारवानश्चोपचयं, प्रवेश्य च वविद्धिजोशमान कर्णोरथारूवां वेम", पुन: 'अरे निहीन. किमि नगरे म सन्ति सकललोकसाधारणभोगाः सुभाः सीमन्तिम्यः, येनवमाधरः। कथं न दुराचार. एवमाचरात्र विलायं विलोनोऽसि । तश्विानोमेष यषि भवन्तं तृषाङ्करमिव तृणेमि तदा न बहुकूलमपकृतं स्यात्' इति निर्भर निभस्म पुर्नयगरलभुजङ्ग कडारपिङ्ग कुट्टिनोमनोरमा तिथिसत्रिण'मुग्रसेनमत्रिणं च निखिलजनसमक्षमा धारणापूर्वक ११प्रायासयत् । दु१२प्रवृत्तामङ्गमातङ्गः कटारपिन-स्तया प्रजाप्रत्यक्ष माकारितः सुधिरमेतदेनःफलमनुभूय दशमीस्प3 सन् श्वभ्रप्रभवमाजम जनमभजत ।
भवति चात्र बलोकः--
राजा--'पुष्य 1 मन्त्री को रहने दो, तुम सब समाचार कहने के योग्य हो ।' पुण्य-स्वामी ! मेरी पत्नी ही प्रस्तुत घटना के कथन करने में समर्थ है।' गजा ने पना को बुलाकर कहा-'माता ! यह क्या घटना है ? पद्मा ने सब वीसा हुआ वृत्तान्त कह दिया।
वृत्तान्त सुनकर राजा नट-सरीखा उनकट हर्ष को और विशेष कोष को दशा का अनुभव कर रहा था । उसने समस्त अन्तःपुर की सौभाग्यवती स्त्रीजनों द्वारा नमस्कार किये गए चरण-कमल वाली पद्मा की पतिव्रता स्त्री जनों के हृदयों में आनन्द उत्पन्न करने वाले वचनों द्वारा और सन्मान के समीपवर्ती वस्त्र व आभूषणों के प्रदान द्वारा सम्मानित करके उसे वेदार्थ जानने वाले ब्राह्मणों द्वारा स्कन्ध से वहन किये जाने वाले रथ में बैठाकर उसके गृह में प्रविष्ट कराया । पश्चात् कुट्टिनी धाय का और कडारपिङ्ग का अत्यन्त तिरस्कार करते हुए बोला-'अरे नीव ! क्या इस नगर में समस्त जनों द्वारा सार्वजनिक रूप से सम्भोगवाली सुन्दर वेश्याएं नहीं हैं ? जिसके कारण तूने ऐसा अनैतिक आचरण किया । अरे दुराचारी ! ऐसा आचरण करता हुआ तु यहाँ मरण प्राप्त कर क्यों नहीं मरता? असः यदि इस समय मैं तुझे तुणाकुरसरीखा नष्ट करता हूँ, तो यह तेरा विशेष अपकार नहीं होगा।'
इस प्रकार अत्यन्त तीक्ष्ण तिरस्कार करके अनीति रूपी जहरीले सांप-सरोस्खे कडारपिङ्ग को और कुदिनी धाय के मनोरथरूपी अतिथि के यजमान उनसेन मन्त्री को समस्त लोक के समक्ष विशेप आक्रोशपूर्वक देश से निर्वासित कर दिया-निकाल दिया। इस प्रकार कहारपिङ्ग, जिसका कामदेवरूप चाण्डाल निन्द्य कार्य में संलग्न है, व्यभिचार के कारण प्रजाजनों के समक्ष तिरस्कृत होकर चिरकाल तक इस पाप का फल भोगता रहा फिर मरकर नरक लोक में गया।
इस विषय में एक श्लोक है, उसका अर्थ यह है
१. भट्टिनी । २. समर्था भवति । ३. नटाचार्यवत् । ४. स्कन्धेनोस्यमानो रथः विमानाख्यः । उक्त --कीरथः
प्रवहणं ड्यनं व समं अयम् । ५. गृहं प्रवेश्य । ६. विनाशं गत्वा किन विनष्टोऽसि ?। ७, हितस्मि । ८. अतिसरं । ९. मत्री यजमानः, यजमानं। १०. 'आक्रोशः' टि००, यशपंत आक्षारणा परिभवः। ११. निवारितः। १२. दुष्टप्रवृत्तेः अनङ्ग व मातङ्गो यस्य । १३. मृतः सन् । १४. स्थानं नरकलोक श्रितः इस्पर्थः ।
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अथवा
सप्तम आश्वासः
मन्मयो माथितस्वान्तः परस्त्रीरतिजातषीः । कष्डारपिङ्गः संकल्पानिपपात रसातले ।। १६२ || इत्युपसका कलस्फारणो नामंकत्रिशत्तमः कल्पः ।
ममेदमिति संकल्प बाह्याभ्यन्तरवस्तुषु । +परिप्रहो मतस्तत्र कुर्याच्चेतोनिकुञ्चनम् ।।१६३॥ ★ क्षेत्रं वान्यं धनं वास्तु 'कुप्यं शयनमासनम् । द्विपदाः पशवो भाण्डं बाह्या व परिग्रहाः ॥ १६४ ॥ समिध्यात्यास्त्रयो वेदा हास्यप्रभृतयो ऽपि षट् । स्मारक कवायाः स्युरन्तन्याश्चतुवंश ॥ १६५ ॥ चेतनाचेतनासङ्गाद्विधा वाह्य परियहः । अन्तः स एक एव स्याद्भवहेत्याशयाश्रयः ॥ १६६ ॥
बनाया विबुद्धीनामधनाः स्युमंनोरथाः । न ह्यमर्थक्रियारम्भा घोस्तवर्थिषु कामषुक् ॥१६७॥ सहसंभूतिरप्येष बेहो यत्र न शाश्वतः । द्रव्यदारकदारेषु तत्र कास्या ११ महात्मनाम् ।। १६८ ।। स श्रीमानपि निःश्रीकः स नरदन नरामः । यो न धर्माय भोगाय विनयेत १२ वन्नागमम् ॥ १६९ ॥
काम से पीड़ित चित्तवाला और परस्त्री के साथ रति-विलास करने के लिए उत्पन्न हुई बुद्धिवाला कडारपिङ्ग परस्त्री गमन के संकल्पमात्र से नरक भूमि में गिरा ।। १६२ ||
कुशील के कटुक फल की प्रचुरतावाला यह इकतीसवां कल्प
इस प्रकार उपासकाध्ययन
३६७
समाप्त हुआ ।
[ अब परिग्रहपरिमाणाव्रत का निरूपण करते हैं ]
वाह्य ( वन व धान्य आदि ) और आभ्यन्तर ( मिथ्यात्व आदि) पदार्थों में 'यह मेरा है" इस प्रकार के संकल्प को परिग्रह कहते हैं, उसके विषय में मनोवृत्ति को संकुचित करनी चाहिए ।। १६३ || खेत, धान्य, घन, गृह, कुप्य (वस्त्र व कम्बल - आदि ), शय्या, आसन, द्विपद ( दासी दास ), पशु, और भाजन ये दश बाह्य परिग्रह हैं || १६४|| मिध्यात्व, पुंवेद, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, कोष, मान, माया व लोभ ये चौदह अन्तरङ्ग परिग्रह हैं ।। १६५ ।। अथवा – चेतन व अचेतन के भेद से बाह्य परिग्रह दो प्रकार का है और संसार के कारणों के आश्रयवाला परिणाम अन्तरङ्ग परिग्रह है, जो कि एक ही प्रकार का है । अर्थात् संसार के कारण मिथ्यात्वादि चैतन्यरूप परिणाम ही है आचार जिसके वह अन्तरङ्ग परिग्रह एक ही प्रकार का है ।। १६६ || धन की तृष्णा से व्याकुलित बुद्धिवालों के मनारथ निष्फल ( धन-होन ) होते हैं; क्योंकि धन चाहनेवालों की निरर्थक वाञ्छावाली बुद्धि वाञ्छित ( अभिलषित - मनचाही वस्तु देनेवाली नहीं होती । अर्थात् - इच्छामात्र से धन प्राप्त नहीं होता, क्योंकि आचार्य ने धन प्राप्ति का कारण लाभान्तराय का क्षयोपशम बतलाया है। अतः धन प्राप्ति के विषय में मातंध्यान नहीं करना चाहिए ॥१६७॥ जिस संसार में साथ उत्पन्न हुआ यह शरीर भी स्थायो ( नित्य रहनेवाला ) नहीं है वहाँपर शरीर से भिन्न धन, पुत्र व स्त्रियों में महात्माओं की आस्था ( श्रद्धा ) कैसे हो सकती है ? ॥। १६८ ।।
जो मानव दान व पुण्य आदि धर्म की प्राप्ति के लिए और न्याय प्राप्त भोगों के भोगने के लिए संचित
★ 'मूर्च्छा परिग्रहः' - मोक्षशास्त्र ज० ७-१७ | १. भाण्डम् । परिमेयं कर्तव्यं सर्व सन्तोपकुशलेनं ॥ ७३ ॥ दि० च० एवं यश० पं० । ३. लोहकर्पूरतैलादि ६. संसाराश्रयपरिणामः । ७. 'घनगढवाच्छा' दि०
९. वाञ्छामात्रा । १०. वाञ्छितप्रदा भविर्न स्यात् । ११. वान्छ । १२. न उपयोगी कुर्यात् ।
संकोचः । *. 'वास्तु क्षेत्रं धनं धान्यं दाशी दासं चतुष्पदं - मि० ० ६ । २. 'वस्त्रादि' टि० ख० 'यस्त्र कम्बलादि ' ४. स्त्रीपुंनपुंसकभावाः । ५. हास्यरस्य रतिशोकभयजुगुप्साः । ख० मश० पं० तु 'घनायाविद्धः गर्छ । ८. निष्फलाः ।
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यथास्तिलकचम्पूकाव्ये प्राप्तेऽर्थे येम माधन्ति नावाप्ते स्पृहयालवः । लोकदपाधितां श्रोणात एव परमेश्वराः ॥१७०।। *चित्तस्य वित्तचिन्तायो म फर्क परमेमसः । अस्थाने क्लिश्यमानस्य न हि क्लेशात्परं फलम् ॥१७॥ अन्तर्बहिणते सङ्ग निःसङ्ग यस्य मानसम् । सोऽगण्यपुण्यसंपन्नः सर्वत्र सुसमानुते ॥१७२॥ माहासङ्गरते सि कुतविधत्तविशुद्ध सा । सतुषे हि बहिषान्ये बुलंभान्तपिशुद्धता ॥१७३।। सरपाणिनियोगेन योऽर्थसंग्रहासत्परः । लब्धेषु स परं कन्धः सहामुत्र धनं नयन् ॥१७४।। कृतप्रमाणाल्लोभेन धनाषिकसंग्रहः । पञ्चमाणुनतज्यान करोति गृहमे पिनाम् ॥१७५।। यस्य द्वन्द्वयेऽप्यस्मिनिस्गृहं देहिनो मनः । स्वर्गापवर्गलमीणो मणात्पक्षे स दक्षते ॥१७६|| प्रत्यर्थमर्यकाक्षायामवश्यं नायते नृणाम् । अघसंचितं चेतः संसारावतंगतंगम् ॥१७७।। भानामत्र परिणाग हमोपासना
घन का उपयोग नहीं करता, वह धनाढ्य होकर के भो दरिद्र है और मनुष्य होकर के भी मनुष्यों में नीच है ॥ १६९ ।। प्राप्त हुए धन में अभिमान न करने वाले व अप्राप्त बन की वाञ्छा न करने वाले मानव हो दोनों लोकों में प्राप्त होने वाली लक्ष्मियों के उस्कृष्ट स्वामी होते हैं ।। १७० ॥ जब मानव का चित्त धन-प्राप्ति के लिए चिन्तित होता है तब उसे पापवन्ध के सिवाय दूसरा फल प्राप्त नहीं होता, क्योंकि निस्सन्देह अयोग्य स्थान में क्लेशित होने वाले व्यक्ति को कष्ट के सिवा दूसरा फल प्राप्त नहीं होता ।। १७१ ।। जिसका विशुद्ध मन वाह्य व आभ्यन्तर परिमहू में अनासक्त या मूरिहित है, वह अगण्य ( अनगिनती ) पुण्य-राशि से युक्त हुआ सर्वत्र ( इस लोक व परलोक में ) सुख प्राप्त करता है ।। १७२ ॥ जिस प्रकार निस्सन्देह छिलका-सहित वाहिरो धान्य में भीतरी निर्मलता दुर्लभ होती है उसो प्रकार वाह्य परिग्रह में आसक्त हुए मानब में चित्त को विशुद्धि किस प्रकार हो सकती है ? ॥ १७३ ।। जो सत्पात्रों के लिए दान देकर धन के संचय करने में तत्पर है, वह उस धन को अपने साथ परलोक में ले जाता है अतः वह लोभियों में महा लोभी है।
भावार्थ-प्रस्तुत आचार्यश्री ने अपने 'नीतिवाक्यामृत' के धर्म समुद्देश में भी लिखा है-'स खलु लुब्धों यः सत्सु विनियोमादात्मना सह जन्मान्तरेषु नयत्यर्थम्' || १८ ।। अर्थात् --जो मनुष्य सज्जनों के लिए दान देकर अपने साथ परलोक में धन ले जाता है, वही निश्चय से सच्चा लोभी है, अभिप्राय यह है, कि घन का लोभी लोभी नहीं है, किन्तु जो उदार है, उसे सच्चा लोभी कहा गया है, क्योंकि पात्रदान के प्रभाव से उसकी सम्पत्ति अक्षय होकर उसे जन्मान्तर में मिल जाती है ॥१७४॥
लोभ में जाकर परिमाण किये हुए धन से अधिक धन का संचय करने वाला मानव श्रावकों के परिग्रह परिमाण नाम के अणुवत की हानि करता है ।। १७५ ।। जिम मानव का चित्त अन्तरङ्ग और वहिरङ्ग परिग्रहों में निस्पृह ( लालसा-शून्य ) है, वह क्षणभर में स्वर्गश्री व मुक्तियों के पक्ष ( स्वीकार करने ) में दक्ष ( चतुर) होता है ।। १७६ ।। धन की अत्यधिक तृष्णा होने पर मनुष्यों का मन अवश्य ही पाप-समूह का संचय करता हुआ उन्हें संसाररूपी भवर के गड्ढे में गिरा देता है ।। १७७ ।।
अब परिग्रह की तृष्णा वाली कथा श्रवण कीजिए
*. वित्तार्थचित्तचिन्तार्या न फलं परमेनसः । अतीवोद्योगिनोस्याने न हि क्लेशात परं फलम् ।। ६३ ॥ -धर्मरला.
पृ० ९६ । १. धन । २. पापात्र भिन्नं फलं न, किन्तु पापमेव भवति । ३. दानयोगेन । ४. 'स बल लन्यो यः सत्सु विनियोगादात्मना मह जन्मान्तरेषु नियत्ययम् ॥ १८ ॥-नीतिवाक्यामृत, धर्म, नूत्र १८ पृ० २६. । ५. हानि । ६. परिग्रहवये । ७. दक्षः स्यात् ।
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सप्तम आश्वासः पञ्चालपेशेषु त्रिदशनिवेशामुकूलोपशल्गे' काम्पिल्ये निममनिमाहात्म्योपहसिसामराचार्यप्रतिभो रत्नप्रभो नाम नमतिः । आत्मीयकपोलकान्तिविजितामृतमरीचिमण्डला मणिकुण्डला नामास्य महादेवी । कुलकमागतात्मोपावितामितविता सागरबत्तो नाम श्रेष्ठी । गृहस्य मोरिव धनधोमिास्य भार्या । सूनुरमपोयाम्पार्थोपार्जकाविता सुबतो नाम । म महालोमविभावसुग्वलच्चित्तभित्तः सागरबत्तः पुषपरम्परायातायाः कानकोटेरेकस्याः है, स्वयमुपाजितार्थकोटः पतिवन्नपि शालीयाविभक्तभोजने' वितयतपासनीलिवना"सावपतिाच, शाफपाकविषाने संभारावितिः "प्रसभाम्पवहातिश्च धासंपूरपूरिमाष्टिमाविभक्ष्योपझपे महती स्नेहापहतिरिधनविरतिश्च, दुग्धषिघोलरसाधुपयोगे, न विक्रयाय धृतं न च तक "कडङ्गरायेति च मन्यमानः स्वपमेव प्रतिविवसद्धि महणाय २८वजलोकपाटके विहरमाण:
प्रतिपितृप्रिय यन्त्रमुपसृत्य 'आ:1", भुरभि सल्वेष खलः संबातः' इति सस्मेरं ध्याहन, गृहीतपिण्डिालडा" १०स्यबसानसमये तवान्पमानिनन्सन, सर्वलोकपरिहत मनभिकालोषित"मतिसमर्पतां गतमण्डितमेव२० । एमालोविलीयं भवतिर सस्केवलारे अन्तिसोमसहायमाहरति । अत एवास्थर महामोहानुबन्धस्य २४ पिण्याकगन्ध इति
१७. लोभी पिण्याकगन्ध को कया पञ्चालदेश के स्वर्ग की अनुकूलता के निकटवर्ती काम्पिल्य नगर में अपनी बुद्धि के माहात्म्य से वृहस्पति की प्रतिभा को तिरस्कृत करने वाला 'रत्नप्रभ' नामका ग़जा था | अगने गालों की मनोज्ञ कान्ति द्वारा चन्द्रमण्डल को जीतने वाली 'मणिकूण्डला' नाम को उसको पटरानी थी। वहां पर वंशपरम्परा से प्राप्त हुई व स्वयं कमाई हुई अपरिमित लक्ष्मी का स्वामी 'सागरदत' नामका नगरसेठ था। उसकी गृहलक्ष्मी-सी 'धनश्री' नामको पत्नी थी। इनके न्यायपूर्वक रन कमाने में एकाग्रचित्त वाला 'सुदत्त' नामक पुत्र था।
महालोभरूपी अग्नि में अपनी चित्तरूपी भित्ति को प्रज्वलित करनेवाला सागरदत्त सेठ यद्यपि वंश परम्परा से प्राप्त हुई एक करोड़ सुवर्णमुद्राओं का और स्वयं कमाई हुई अर्घकरोड़ सुवर्ण मुद्राओं का स्वामी था, तथापि वह सोचता था, कि धान्य-आदि का भात खाने में उसके छिलके दूर करने होंगे और प्रक्षालन और पसावण करना पड़ता है। यदि शाक पकाया जाय तो तेल व मिर्च-मसाला-आदि में खर्च होता है और उसके साथ अधिक अन्न भी खाया जायगा और घेवर, पडी व जलेबो-आदि भक्षण-योग्य वस्तुओं के आक्षेप घी नष्ट होता है और ईंधन का व्यय होता है। इसी प्रकार दूध, दही, तक्र ( मट्ठा) के उपयोग ( भक्षण) करने से न तो चने के लिए धी रहेगा और न धान्य की भूसी के लिए छांछ ही रहेगी।
___अतः जब वह स्वयं प्रतिदिन व्याज बसल करने के लिए तेलियों के समूह के मुहल्ले में पर्यटन करता था तो उनके कोल्हू के समीप जाकर जरा हंसकर कहता 'वाह निस्सन्देह यह खली तो सुगन्धित निकलो है' ऐसा कहकर वह तिल की खली का एक टुकड़ा उठा लेता था और भोजन-वेला में उसकी गंध घता हुआ और ऐसी धान काजो के साथ खाता था, जो कि समस्त लोगों द्वारा छोड़ो हुई, अतिजीणं, स्वल्प मूल्य वाली
१. समीपे । २. बृहस्पतिबुद्धिः। *. 'स्वयमुपाजितस्य च तदर्घस्य च पतिसंवत्रपि' क०। ३. सति बढी हानि
भक्तीति मन्यमानः । ४. प्रक्षालन । ५. सावण । ६. तैलगरीचादीनां व्यय: स्यात् । ७. 'प्रचुरानस्य मुक्तिः' टि० ख०, यश० पं० तु 'गृद्धिभोजनं। ८. धैयर 1 ९. पड़ो। १०. धान्यत्वगुनिमितं । ११. व्याज । १२. तिलंतुद, तैलिकाः। १३. पितृप्रियाः तिलाः । १४. यन्त्र तिमीलनयन्धं भाण्डे ( घाणी)। १५. अन आ: प्रति कोपेणे व्याजमहणार्थ । १३. बलः । १७. भोजनवेलायां । १८. अनिजीणं । १९. स्वल्पमूल्यं । २०. खंडनरहितं । २१. स्थालोदिलीय अर्हति । २२. काक्षिकेन सहित । २३. सागरदत्तस्य । २४. आसक्तः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मगति नाम पप्रये । 'मुखामोरमाग छ प्रयोजनम् | तबलं ताम्बूलार्थमर्थव्ययेन' इति विचिन्त्य 'विष्णुतावचः
कालपल्लीदसोत्तरास्वावचः कासयति । २'अर्षनागोवरः परिधारः कदाचिदपि हे हवपे वा न मनागपि विकुरुते' इति मत्वा न कमप्यूर्षपूरं पूरपति । "प्रसिचारकांश्चवं विक्षयति-'म तेलाचं लवणार्य वित्त व्ययितव्यम्', कि तु कापणं मा चावाय आपममुपडोश्य तवुभवं गृहीत्या पुनरिवं "ary न भवतीति प्रप्तिसमर्पयंस्तत्र मापे हिनिल्ला म्नमायाति तेन शारीरो विधिविधातयः ।' परिजमाभंसान स्वकीयांचवमपजपति -'न भवहिरनम्यायं भवममुपद्रोसम्यम्, किंतु सस्नेहवेहै: प्रातिशिशिशुसंदोहः सहातिसंवाघ योद्धव्यम् । अतो भवतामनुपायसं निषिः स्नानपिषिः । सपायप्रतिवंशवेश्मप्रवीपप्रभाप्रज्वलितेन वलीकान्सावलम्बितेन काचमुकरेण गहाणे प्रवीपकार्य विकाव्यमध्ये व सणसरण्ट "प्रोत मानिधीप्ती मोतिपासमारणारच "नयोनसङ्गा एव ५२ युगाः सपरिच्छवः परिदधाति । मनाग्मलीमसरागाव विक्रीणीते। ततोऽस्य सनयावनार्थमपि न कपकोपक्षयः
और विना कुटी काटी व थालो में स्थापित करते ही विखरने वाली थी, अतएव तीन लोभ में आसक्त हए इसका 'पिण्याकगन्व' (म्बल सूंघने वाला) यह नाम लोक में प्रसिद्ध हुआ।
'मन को सुगन्धित्त करने मात्र से ही तो प्रयोजन है; अतः ताम्बूल के लिए धन खर्च करना निरर्थक है' ऐसा सोचकर वह पीपल की छालों को भक्षण करता था, जिनको रुचि वौर के या बावची के पत्तों के पश्चात् खाने से होती हैं।
'आधे पेट खाने वाला कुटुम्ब कभी भी [गृह-स्वामी से ] शरीर व मन द्वारा जरा भी विकृत ( वैर विरोध करने वाला) नहीं होता' ऐसा मानकर वह किसी कुटुम्बी को भरपेट भोजन नहीं देता था। वह अपने सेवकों के लिए इस प्रकार की शिक्षा देता था कि 'तेल व नमक-आदि मावारण वस्तुओं के लिए धन नष्ट नहीं करना चाहिए, पैसा व वर्तन लेकर बाजार में जाना चाहिए और तेल व नमक लेकर वाद में यह अच्छा नहीं है, यह कहकर वापिस लौटा देना चाहिए जिससे वर्तन में कुछ तेल व नमक लगा रह जाता है, उससं मालिश वगैरह शारारिक कार्य करना चाहिए।' वह अपने और कुटुम्ब के बच्चों से यह कहता था कि 'आप लोगों के लिए शरीर में मालिश करने के लिए मेरे गृह पर नहीं आना चाहिए किन्तु तेल की मालिश किये हुए पड़ोसियों के बालक-समूह के साथ आपस को विशेष रगड़पूर्वक कुश्तो लड़नी चाहिए, जिससे आपको तेल-स्नान-विधि विना यत्न किए हो जायगी।
वह रात्रि में पड़ोसो के गृह के दीपकों को कान्ति से प्रकाशित हुए व गृह के उपरितन भाग पर लटके हुए कांच के दर्पण द्वारा अपने घर के आंगन में दीपक का कार्य करता था और पोचोलकड़ीसन-शलाका-म पिरोये हुए व अग्नि द्वारा प्रदीप्त किये हुए एरण्ड के चीजों से घर के अन्दर प्रकाश करता था। वह सर्वसाधारण के उपयोग में आनेवाला नया (कोरा ) बस्त्र-जोड़ा (टि० के अभिप्राय ले सेला-जोड़ा)
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१. पिप्पलछली। २. 'बावचोपत्र, पत्राणां पश्चाभोजनेन एक रुचिर्यासां ताः विष्णुतरात्वषः' टि० ख०,
पक्षिकाकारस्तु 'कालयल्ली बदरी' इत्याह । ३. अद्धांझारण। ४. उत्तरसाधकान। ५. लिलवणादि
सामान्यवस्तु-निमित्त समोधीनं धनं कायं विनाश्यते ?। ६. मानं। ७. हुटुं गत्वा। ८. समीचीनं । ९. शिक्षयति । १०, पड़ोसी । ११. पड़ोसी-गृह । १२. गहस्योपरितनभागे। १३. काच-दपणेन । *, प्रदीपनार्यमामरदतः
श्रेष्ठी करोति । १४, गुहमध्ये । १५, भीडओदंड-पोचोलावाड़ो। १६. अग्नि । १७. एरण्डबीजः 1 १८-१९. कारावस्त्रसलाद्वय 1 २०. वस्त्र प्रक्षालनार्थ। २१. कौड़ो ।
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सप्तम आश्वासः
३७१
"पर्वाणि ख २ पुराणपल्लव कचच रापनयनकणोत्करेणातपतथ्स संघाट स्नेहा पॅण गुडगो गौशालनन पायेण च निवर्त यति । प्रत्यामन्त्रणेन विध्यात्व 'रागार भोजनावलोकनेनाश्रित जनमनोविनाश भयावामन्त्रितो निकेतने प्लाति ।
न कस्यापि
एवमतीयसर्वोत्कर्षरसहायें सकलकदर्यायें तस्मि अवश्यपि मृतकल्पमनति वसति राति एकता स लक्ष्मीकम लितोपरिमलनकलभो रत्नप्रभो राजसिन्धुरप्रघावसंदर्शनप्रासादसंभावनाप श्रवणाश्रववृतस्य ब्रह्मवत्तस्य महीपतेः कालेन स्थण्डिलतालुप्तावकाशे भवनप्रवेशे भूशोधनं विधापपनेतवाहथानमण्डपभोगबन्धलुतः " प्रकामोधरदोषकलुषवपुषः संपूर्ण विस्तारपुषः प्रथिमगुणविशिष्टकाः २ सुवर्णेष्टकाः समालोक्य बहिनिकामं कलम निस्वादितरेष्टकाविशिष्टस्वमाकल्यन् 'एताः खलु चैत्यालय निर्माणाय योग्याः' इति 3 चेतसंकत्र स्तूपतामानाषयामास ।
अत्रान्तरे समस्त १४ मिसंपच पुरोगम सगन्धः ४ पिण्याकगन्धः सरभसमापततामिष्टकाषतां वैधिकनिव हानां सायंसमये १७ मार्गविये पतितामेका मिष्टामवाप्य चलनक्षालन देशे "ग्यात् । तत्र च प्रतिपत्रमसिंघर्षाद
परिवार सहित पहनता था और जैसे हो वे थोड़े मलिन होते थे, उन्हें बेंच देता था, जिससे कपड़े धोने मैं उसको कोड़ी भी खर्च नहीं होती थी। वह दीपोत्सव आदि पर्व, पुराने पत्तों को कूट कर और उनके रेशे निकालने से उत्पन्न हुई चूर्ण-राशि से ओर सूर्य को गर्मी से तप्त हुए संघाट-गुड़ांश के तरल तेल द्वारा एवं गुड़ की पट्टी घोने से उत्पन्न हुए मधुर रस द्वारा व्यतीत करता था । बदले में दूसरों का निमन्त्रण करने से धन खर्च होगा एवं दूसरों के गृह का भोजन देखने से मेरे सेवकजनों के मन मुझ से टूट जाँगे, इस भय से निमन्त्रण आने पर भी वह किसी के नहीं जोना था । स प्रकार नही हुई तृष्णा से प्रेम करने वाला और सब कंजूसों का आचार्य बहू पिण्याकगन्घ जीवित रहने पर भी मरे हुएसरीखे मनवाला होकर निवास कर रहा था |
एक समय लक्ष्मीरूपी कमलिनी के मर्दन करने के लिए हाथो के बच्चा सरीखे रत्नप्रभ राजा ने श्रेष्ठ हाथियों को दौड़ देखने के लिए एक राज-महल के निर्माण के लिए विचार किया ओर उसके लिए स्वर्गीय ब्रह्मदत्त राजा के महल- प्रदेश में, जिसकी जगह समय पाकर ढेर हो जाने से लुप्तप्राय हो गई थी, भूमि शोधन
राई तब उसने ऐसी सुवर्ण की ईंटें देखीं, जो कि इसके विस्तृत सभागृह में लगी हुई थीं। जो अत्यन्त जमीन के ऊपर दोप से काली हो गई थी । जो समस्त विस्तार को पुष्ट करने वाली थीं और जो पृयु गुण से विशिष्ट
(चोड़ी थीं), परन्तु वे बाहर से अत्यन्त मेल से मलिन थीं, इसलिए उसने दूसरी ईंटों को विशेषता निश्चय करते हुए 'निस्सन्देह ये ईंट मन्दिर के निर्माण के लिए योग्य हैं। इस प्रकार मन में विचार कर एक स्थान पर उनका ढेर लगवा दिया ।
इसी बीच में समस्त लोभियों में अग्रेसर सरीखा पिण्याकगन्ध वेगपूर्वक आने वाले ईंटों का भारवहन करने वाले ही उठाने वालों (कावड़िक ) के समूहों की संख्या की वेला में मार्ग- प्रदेश पर गिरी हुई एक ईंट उठा लोपा और उसे पैर धोने के स्थान पर रख दी। वहां पर प्रत्येक दिन पैरों की रगड़ से जब उस
५.पण करोति ।
१. दीपोत्सवादीनि करोति । २. कड़वकलकणगणि ? | ३. सीबड़ा । ४. फोपली । ६. अन्यलोक हे मोजनं सप्रेम तथा मद्गृहे एवं न स्थास्यन्ति इति भयात् । ७. न
भुझे १८. लु ।
1
१२.
१३. मनसि कृस्वा ।
पृथु । विविधः भारः पर्याहारी वा तं
९. मृतस्य । १०. ईशाः । इष्टकाः । ११. विस्तारं पुष्यन्ति या १४. छु । १५. सदृशः । १६. 'भारवाहाना' दि० च० 'वार्ताविह वैवधिकः बहगोति वैवधिकः' टि० ख०, पञ्जिकायां तु 'वैधिकाः परिन्या: कावाच एकार्याः । इति प्रोक्तं । १७. संध्यायां । १८. पादप्रक्षालनदेशे । १९. प्रतिदिनं ।
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३७२
यशस्तिलकपम्पूकाव्ये पोषक्षालुष्यमोधे भमनिमितत्वमवस्य तस्तैः प्रलोभनवस्तुभि. काचवहानां विहितोपचारमा संग्रह 'अतस्वनीयापायोवन्तः "स्फायमानमनोमन्युक्तान्तः पिण्याकगन्धः 'पुत्र, मिखिलकलावदासपित्त सुबत्त, भवत्पिसस्त्रमुः सुतशोकशक्तशमनाय मयावश्यं तन गन्तव्यमपस्नातम्यं च। ततस्त्वयाप्यताः "परिस्कन्दलोकप्रलोभनेम साघु संग्रहोसध्याः' इस्युपहरे' पाहुत्य सकलजगद्यवहाराबसारविद्या काकग्द्यां तोकोकभूषिष्टापास्तर्ण कनिष्ठाया दर्शनार्थमगण्यत । ५०असवयवहारण्यायत्तः सुबत्तः तातोपदेशमनिय समवस्यन् । २ यतो राजपरिगृहीतं तृणमपि गृहीत काश्मनीभवति संपचते च पूर्वोपाजितस्याप्यर्पस्यापहाराय प्राणसंहाराय चेति जातमतिनकामपोष्टको समयाहीत् ।
__ महालोमलोसताम्धः पिण्याकगन्धस्तस्याः पुरोऽपस्नायागतः मुतमप्रावीतस, किपतीः खलु स्वमिष्टकातती. पर्यग्रहोः ।
स्तेययोगविनिवृत्तः सुदत्त:-'तात, नकामपि ।'
प्रादुर्भबद्दीघदुर्गतिदुरितबन्धः पिण्याकगन्धः समर्षे सवाचारकूतार्य पुण्यभाजि जि परमुत्तरमपश्यन्, 'पक्षीमो कमी परिक्रमणक्षमौ मम नामविष्यतो तवा कथंकारमहं मन्मनोरमवन्यो १४ काकन्यामागमिष्यम् । अतः "एताबेन ईंट की समस्त मलिनता नष्ट हुई तब उसने उसे सुवर्ण की ईंट निश्चय की । फिर तो यह उन उन प्रलोमन वस्तुओं ने प्रधान द्वारा उनहगी उसकी के उनसे ईंटों का संग्रह करने लगा।
एक दिन पिण्याकगन्ध ने अपने भानेज की मुत्यु का समाचार सुना और इससे उसका मानसिक शोकरूपी यमराज बढ़ा, अतः उसने अपने पुत्र को एकान्त में बुलाकर कहा
___ 'समस्त कलाओं के अभ्यास से विशुज चित्तवाले पुत्र सुदत्त ! आपकी बुआ का पुत्र-वियोग संबंधी शोकरूपी कीला उम्बाड़ने के लिए मुझे वहां अवश्य जाना चाहिए और मृत-स्नान भी करना चाहिए । अतः तुम्हें इस कावड़िक-(बगी उठानेवाले) समूह के लिए प्रलोभन वस्तु के प्रदान द्वारा सोने को ईंटें; अच्छी तरह संग्रह करनी चाहिए।' इस तरह एकान्त में बहकर पिण्याक्रगन्य पुत्र के वियोग का प्रचुर शोक करनेवाली सबसे छोटी बहिन के दर्शनार्थ शीघ्र काकन्दी नगरी में गया, जो कि समस्त लोक-व्यवहार को उत्पत्ति में त्रिवेदो (प्रवीण) है।
यहाँ पर सुदत्त अन्याय से पराङ्मुख-दूरवर्ती-रहता था, अतः उसने अपने पिता का उपदेश संमार का कारण निश्चय करते हुए एक भी ईंट ग्रहण नहीं को; क्योंकि उसे ऐसी नैतिक बुद्धि उत्पन्न हो गई थी'जो मानव राजा का तृण भी चुग लेता है, उसे उसके बदले में सुवर्ण देना पड़ता है। क्योंकि राजकीय साधारण वस्तु की चोरी तीक्ष्ण राज-दण्डवालो होने से पूर्व-संचित समस्त धन नष्ट कराने में व प्राणघात कराने में कारण होती है।
महालोभ को तृष्णा से अन्धे पिण्याकगन्ध ने मृत-स्नान करके उस नगरी से आकर पुत्र से पूछा-- 'पुत्र ! निस्सन्देह तुमने कितनो ईंटों का समूह संग्रह किया ?'
चारो के संबंध से पराङ्मुख हुए सुदत्त ने उत्तर दिया-'पिताजी ! एक भी नहीं।'
घोर दुर्गति के कारण पाप का बंध करनेवाले पिण्याकगन्ध ने, कुटुम्ब-पालन में समर्थ, सदाचार से १. विनाशे सति । २. भारवाहाना। ३. इष्टकाः। ४. भागिनेयमरण । ५. द्धि जायमान । ६. शोकपमः ।
७. मृतस्नान कर्तब्यं। ८ कावड़िक । ९, एकान्स । १०. अन्यायपराङ्मुखः। ११. संसारबारण । १२, जानन् । *. देखिए-नीतिवाक्यामृत' व्यरान समुद्देश मूत्र २८ पृ० २४४ । ( हमारी भाषाटोका)-सम्पादक । १३.केन कारणेन । १४. फारायां। १५. पादौ ।
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साम आश्वासः
३७३
वान श्रीविरामावती बोहो' इति विचिस्योवतन वर्तयन्स्पाः स्ववासिन्याः कराबालिप्तशरीरेण शिलापुत्रकेण तो अरितावजीजनत् ।
एतच्च वैवेहिकम्पजनपरिजनात्प्रा चीनबहिनिमः शितिरमणीकरिणीभः रत्नप्रभः पुत्वा 'वासीपपत्रेण शिल्पिभिषि पापितेष्टकातक्षयः सुवर्णवं निर्णाय विहित सर्वस्वापहार सनिका मगरजनोन्चार्यमरणपुरपवावप्रवन्ध पिण्याकगन्धं निरवासपट् : 'मानल्या योगाए 'इति निवाज्यमनुस्मृत्य मूलधनप्रवानेताषयागत निवासनिषेरनेम परतण्यावानमि साधु समाश्वासयत्। स तथा निर्वासितः प्रजातनरकनिषेक' निबन्धः कृतप्रकामलोभसंबन्धविचरायोपाजितदुरन्सनुष्कर्मस्कषः पिण्याकगन्धः प्रेम पातालमगात् ।
भवति चात्र श्लोक:षष्ठपाः क्षितेस्तृतीयेsस्मिल्लल्सके दुःखमल्लके । पैते पिण्याकगन्धेन एनापावितचेतसा ॥१७८
इस्युपासकाध्ययने परिपहाग्रहफलफुल्लमो नाम द्वात्रिंशः कल्पः । सफल जन्मवाले एवं पुण्यवान पुत्र के कहने पर जब कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं जाना तब यदि ये मेरे दोनों पैर चलने में समर्थ न होते, तो मैं मेरे मनोरथ को बन्दीगृह ( जेलखाना) काकन्दी नगरी में किस प्रकार से जाता ? इसलिए ये दोनों पैर ही लक्ष्मी रोकनेवाले व पापी हैं। ऐसा मोनकर उसने उबटन पोसनेवाली अपनी पत्नी के हाथ से ग्रहण की हुई पीसने की सिल द्वारा अपने दोनों पैर तोड़ डाले।
इन्द्र-सरीखे व पृथिवीरूपी स्त्री को प्रमुदिल करने के लिए हथिनी को हाथी-जैसे रत्नप्रभ राजा ने वणिक् वैषी गुप्तचर के मुख से उक्त घटना सुनकर टॉकी के अग्रभाग से शिल्पियों द्वारा उन ईंटों को कटवाया तो उसने उन्हें सोने की निश्चय की। तब उसने पिण्याकगन्ध का समस्त धन जब्त कर लिया और उसे नागरिकजनों द्वारा कथन किये गए, निन्द्य अपकोति के प्रबन्ध वाला करके बेइज्जतपूर्वक देश से निकाल दिया ।
राजालोग गणवान के लिए इन्द्र हैं और दूष्ट के लिए यमराज हैं।' इस नाति-वाक्य का स्मरण करके राजा रत्नप्रभ ने चोरी से पराङ्मुख हुए उसके सुदत्त पुष के लिए मूलधन के प्रदान द्वारा और वंश परम्परा से चले आनेवाले आवास की अनुमति द्वारा अच्छी तरह आश्वासन दिया।
देश से निकाला जाकर पिण्याकगन्ध अत्यन्त लोभ का संबंध करने के कारण नरक-पतन का बंध करके और चिरकाल तक दारुण दुःखदायक पाप-समूह का संचय करके मरकर नरक गया।
प्रस्तुत विषय के समर्थक श्लोक का अर्थ यह है४ घन के लिए भ्रान्त चित्तवाय पिण्याकगन्ध षष्ठम नरक के तीसरे लल्लक 'नामके पाथड़े में, जो कि भयानक और दुःख का पात्र है, गिरा ॥ १७८ ।। इस प्रकार उपासकाध्ययन में परिग्रह में आसक्ति का फल विस्तृत करनेवाला
__ यह बत्तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
१. गृहीत । २. 'नौसाण' टि. स्व पेरणपापाणेन' इति पं। ३. 'दगिमा पाढमुखान्' टि. स्वक, 'वैदेहिक्रयानः
वणिक्वैप: राजप्रणिधिः' इति यश. ०। ४. इन्द्रसमानः। ५. टोकी। ६.शारित । ७. तनकरणं । ८. धन। ९. निकारो चित्रकार: स्थान विरूपविधिनेत्ययः १०. निटितवान् । ११. आवासानुमतेन । १२. पतन। १३. भूत्वा । १४, पष्ठमनरकस्य तुलीये प्रस्तारे।
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३७४
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
* दिग्देशानर्थदण्णानां विरतिस्त्रितयाश्चयम् । गुणप्रतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ॥ १७९ ॥ 'वि सर्वास्षषः प्रदेशेषु निखिलेषु च । एतस्यां विशि वेशेऽस्मिन्नियत्येवं गतिर्मम ॥ १८० ॥ विवेशनयनादेवं ततो बाह्येषु वस्तुषु । हिंसालो भोपभोगादिनिश्वितयन्त्रणा || १८१ ॥ प्रियं प्रयत्नेन गुणवतत्रयं गृही आजेदत्रयं लभेतं यत्र यत्रोपजायते ॥ १८२ ॥ " आशावेशप्रमाणस्य गृहीतस्य व्यतिक्रमात् । देशधती प्रजायेत प्रायश्चित्तसमाधयः || १८३ ॥ शिटियेन विद्यालयालयः । विवकण्टकशस्त्र [ग्निकशापाशकरज्जनः ॥ १८४॥ "पापाख्यानाशुभाध्यान हिंसा कोडाव्याक्रिया: । परोषतः पशून्यकाल ११ वनकारितः ॥ १८५ ॥ यन्नसंशेषतवोऽन्येऽपि चेवृशाः । भवन्स्थनदण्डाख्याः सांग शमत्रवर्धनात् ॥ १८६॥
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[ अच गुणवतों का वर्णन करते हैं ]
सज्जन आचार्यों ने दिग्वत, देशव्रत व अनर्थदण्डवत के भेद से गृहस्थ व्रतियों के तीन गुणव्रत नि पण किये हैं || १७९ ॥
दिग्बत व देश का लक्षण
पूर्व व पश्चिम आदि समस्त दशों दिशाओं में से अमुक दिशा में नियमित गमन करना, अर्थात् — अमुक दिशा में जन्मपर्यन्त इतने योजन या इसने कोश तक ही जाऊँगा, उससे बाहर न जाना दिग्व्रत है और ( दिग्विति के भीतर कुछ समय के लिए ) अधः व ऊर्ध्व आदि समस्त देशों में से अमुक देश में ही मेरा नियमित गमन होगा, इससे बाहर नहीं जाऊँगा, यह देशद्रत है ॥ १८० ॥
इन व्रतों से लाभ
इस प्रकार दिशा और देश का नियम करने के कारण अवधि से बाहर को भोगोपभोग वस्तुओं में हिंसा, लोभ व उपभोग आदि का त्याग हो जाने से चित्त काबू में होता है या मनोनिग्रह होता है ॥ १८१ ॥ तीनों गुणव्रतों की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करता हुआ यह तो श्रावक जहाँ जहाँ जन्म लेता है यहाँ वहाँ आज्ञा व ऐश्वर्य प्राप्त करता है ।। १८२ ।। दिशा और देश के किये हुए प्रमाण का उल्लंघन करने से ( उससे बाहर चले जाने से ) दिग्बती व देवती को प्रायश्चित्त लेना पड़ता है || १८३ ।।
अब अर्थदण्ड व्रत का निरूपण करते हैं- मयूर, मुर्गा, वाज, बिलाव, सर्प और नेवला - आदि हिंसक जन्तुओं का पालना, विष, काँटा, शस्त्र, अग्नि, चाबुक, जाल व रस्सी आदि हिंसा के साधनों को दूसरों को देना, पाप का उपदेश देना, आर्त व रोद्रध्यान करना, हिंसा प्रधान क्रीड़ा करना, निष्प्रयोजन पृथिवी खोदना आदि, दूसरों को कष्ट देना, चुगली करना, शोक करना व दूसरों को रुलाना एवं इसी प्रकार के दूसरे कार्य करना, जो कि प्राणियों का वध, वंधन करनेवाले हैं और दूसरे के रोक रखने में कारण हैं, उन्हें अनर्थ दण्ड कहते हैं, क्योंकि
★ दिन्देशानविरति । मोक्षशास्त्र ७–२१ ।
१. 'दिवलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिनं यास्यामि । इति संकल्पो दिगामुत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ ६८ ।।' - रत्नकरण्ड श्रा० । २. इमली - नियमिता । वहिष्णुनापप्रविविरदिग्वतानि धारयताम् । पञ्चमहात्रत परिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ ७० ॥
३. 'अवधे
० । ४. दिशा । अमितगति० ६-८१ । 'विपकण्टकशस्त्राग्नि७-२२ । ७, नकुल । ८. पापोपदेश । जलस्फालनं, अनलसमेन्धनं, पवनकरणमेकेन्द्रिमसनं च ।
५. लंघनात् । ६. 'मण्डलविडालकुक्कुट -- इत्यादि ॥ ८१ ॥ रज्जुकादण्ठादि हिंसोपकरणप्रदानं हिमप्रदानम् । सर्वार्थसिद्धि ९. आम्लेटकादि । १०. वृथाक्रियाः निष्प्रयोजनं भूखननं ११. क्रन्दितं रुदितं कुष्टं । १२. संसार ।
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सप्तम आश्वासः
I
पोषणं करसवानां हिंसोपकरणकियाम् । वेशवतो न कुर्योत स्वकीयाधारचादीः ॥ १८७ ।। अन वण्डनिर्मोक्षादवश्यं देशलरे यतिः । 'सुहृत्तां सर्वभूतेषु स्वामित्वं २ प्रपद्यते ॥ १८८ ॥ वञ्चनारम्भहिसानामुपदेशात्प्रवर्तनम् । भाराधिक्याविकक्लेशों तृतीयगुणहानये ।। १८९ ।।
ૐ૦૧
इत्युपालकाध्ययने गुणव्रतत्रमसूत्रणो नाम त्रयस्त्रिशत्तमः कल्पः ।
इति सफलताक*लोकचूडामणेः श्रीमधे मिदेव भगवतः शिष्येण सद्योनवद्यगद्यपद्य विद्यापरचक्रचतिशिखण्डमण्डनभचरणकमलेन्द्र श्रीसोमदेवसूरिणा विरचिते यशोवरमहाराजचरिते यशस्तिलका परनान्ति महाकाव्ये स रिचिन्तामणिर्नाम सप्तम आश्वासः ।
उनसे संसार की वृद्धि होती है ।। १८४-२८६ ॥ अपना आचार उत्तम बनाने की बुद्धियुक्त हुए देशव्रती श्रावक को हिंसक जीवों का पोषण नहीं करना चाहिए एवं हिंसा के उपकरणों को किसी के लिए नहीं देना चाहिए || १८७ ॥
अती श्रावक बन दण्डों का त्याग करने से अवश्य ही समस्त प्राणियों की मित्रता व उनका स्वामित्व प्राप्त करता है || १८८ || खोटा उपदेश देकर दूसरों को धोखा देना, आरम्भ और हिंसा का प्रवर्तन करना, शक्ति से अधिक बोझा लादना और अधिक कष्ट देना ये पांच कर्म अनर्थदंड व्रत को हानि पहुँचाते हैं, अर्थात् – इनसे अनर्थं दण्डव्रत सदोष हो जाता है, अतः अणुव्रती श्रावक को इन कामों से दूर रहना
चाहिए ।। १८९ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में तीन गुणव्रतों का निरूपण करनेवाला यह तेतीसवां कल्प पूर्ण हुआ ।
इस प्रकार समस्त तार्किक चक्रवर्तियों में चूडामणि ( शिरोरत्न या सर्वश्रेष्ठ ) श्रीमदाचार्य 'नेमिदेव' के शिष्य 'श्रीमत्सामदेवसूरि' द्वारा, जिसके चरणकमल तत्काल निर्दोष गद्य-पद्यविद्याधर-समूह के चक्रवतियों के मस्तकों के आभूषण हुए हैं, रचे हुए 'यशोवर महाराज चरित' में, जिसका दूसरा नाम 'प्रशस्तिलकचम्पू महाकाव्य' है, 'सच्चरित्र चिन्तामणि' नामका सप्तम आश्वास पूर्ण हुआ ।
१. सुहुत्ता मैत्री
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अष्टम आश्वासः आदी सामायिक फर्म प्रोषधोपासनलिया। सेम्पार्थनियमो दानं शिक्षाबतचतुष्टयम् ॥ १॥ आप्तसेदोपदेशः स्यात्समयः समयापिनाम् । नियुक्तं तत्र यत्कम त सामापिकबिरे ॥२॥ 'आप्तस्थासनिधानेऽपि पुण्यायाकृतिपूजनम् । साय मुद्रा न कि कुर्याद्विषसामर्थ्यवदनम् ॥ ३ ॥ अन्तःशुद्धि बहिदि विध्याहेवतार्चनम् । आधा "बौश्चित्पनिर्माशादण्या स्नानाधयाविधि ।।४॥ संभोगाय विशुद्धधय स्माम धर्माप व स्मृतम् । धाय तस्बेस्नानं पत्रामुमोचितो विधिः ॥ ५॥ नित्यस्नानं गृहस्थस्य देवाचनपरिग्रहे । योस्तु दुर्जनस्परिनाममन्यद्विहितम् ॥ ६ ॥
इस प्रकार दार्शनिक-चूडामणि श्रीमदम्बादास शास्त्री, श्रीमत्पूज्य याव्यात्मिक सन्त श्री १०५ क्षुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य एवं वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी के भूतपूर्व साहित्य विभाग के अध्यक्ष न्यायाचार्य' 'साहित्याचार्य व कवि चक्रवर्ती श्रीमत्मुकुन्दशास्त्री खिस्ते के प्रधान शिष्य,नीतिवाक्यामृत के भाषाटीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, 'जैन न्यायतीर्थ, प्राचीन न्यायतीर्थ, कात्यलोथं, आयुर्वेद विशारद एवं महोपदेशक-आदि अनेक जनाधि-विभुषित,सागर-निबासोव परवार जनजातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेवसूरि के 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की 'यशस्तिलक दीपिका' नाम की भाषाटीका में 'सच्चरित्र चिन्तामणि' नामका सप्तम आश्वास पुर्ण हुआ।
[ अब शिक्षाद्रतों को कहते हैं-]
सामायिक, प्रोपधोपवास, भौगोपभोग परिमाण और पात्रदान ये चार शिक्षाबत है॥१॥ सामायिक का स्वरूप-अर्हत्परमेष्ठी का पूजा करने का जो उपदेश है, उसे 'समय' कहते हैं एवं उसमें निर्धारित क्रियाकाण्डों (जिन-स्नपन, पूजा, स्तुति व जप-आदि ) को शास्त्रकारों ने उसके इच्छुक श्रावकों का सामायिक नत कहा
मूर्तिपूजा का विधान-जिनेन्द्र भगवान के न होने पर भी उनकी मूर्ति की पूजा पुण्यबंध के लिए होती है । गरुड़ के न होने पर भी क्या उसको मुद्रा विष की शक्ति को नष्ट नहीं करतो ? ॥३॥ विवेको पुरुष को अन्तरङ्ग शुद्धि व यहिरङ्ग शुद्धि करके देवपूजा करनी चाहिए। चित्त से दुष्परिणामों के त्याग करने से अन्तरङ्ग शुद्धि होती है और विधिपूर्वक स्नान करने से बहिरङ्ग शुद्धि होती है ॥ ४॥ स्मान-विधि का निरू. पण भोजन के लिए, विशुद्धि के लिए और धर्म के लिए आचार्यों ने स्नान करना पाहा है। जिसमें परलोक ( स्वर्गादि ) के योग्य कर्तव्य ( दान, प्रत, पूजा व अभिषेक आदि ) किये जाते हैं, वह स्नान धर्म के लिए कहा गया है ।। ५ ।। देव-गजा को स्वीकार करने के लिए गृहस्थ को सदा स्नान करना चाहिए और मुनि को
१. भोगोपभोगसंख्या। २. 'आगमयमुनिमुक्त'-इत्यादि ॥ ९ ॥ रत्नकरण्ड था। 'रागपत्यागाभिपिलानन्येषु
साम्यमवलम्ब्य । 'तत्त्वोपलब्धिमूल नाहयाः सामाविक कार्यम् ।।१४.॥'-पुरुषार्थ 1 ३. तीर्थशासनियानेऽपि प्रतिमा धर्महेतवे । वैनतेयस्य मुद्राऽपि विपं हन्ति न संशयः ॥२२२॥-प्रबोधसार । ४. गरड़ः । ५. अपनोदनम् । ६. अन्तः शुद्धिः । 'मध्यशुद्धि वहिः शुद्धि विदध्यात्तदुपासनें । पूर्वा स्यात् स्वान्तर्गत्यात् परा स्नानाधयाविधिः ॥२२३॥' -प्रबोध०७. 'दुरिणामपरिहारात' दि० स०,१०, १०। पझिकाकारस्तु दौश्चिटयमातरोद्यान' इत्याह । ८. बहिः शुद्धिः । ९. दुर्जनश्याण्डालरजःस्वलादिः ।
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अष्टम आश्वासः
३७७ शातातपावि-संसृष्टे भूरितोये जलाधाये' | अवगाह्याचरेत्स्नानमतोऽन्यद्गालितं भप्रेत ।। ७ ।। पावनानुकटिग्रीवाशिरःपर्यन्तसंत्रयम् । स्नानं पञ्चविध क्षेयं यथादोष शरीरिणाम् ॥ ८॥ ब्रह्मचर्योपपन्नस्य निवृत्तारम्भकर्मणः । यता सता भवेत्स्नानमन्त्यमन्यस्य तद्वयम् ॥ ९॥ *सरिम्भवितम्भस्य ब्रह्ममिलस्य देहिनः । अविधाय बहिः शुद्धि नाप्तोपास्त्यधिकारिता ॥ १० ॥ अद्भिः शुद्धि निराकुर्वमन्त्रमात्रपरायणः । स मन्त्रः शुद्धिभाग्नूनं भुक्त्वा हत्या विवल्य च ॥ ११ ॥ मरस्नयेष्टकया पापि भस्मना गोमयेन च । शौचं तावत्प्रकुर्वीत यावन्निर्मलता" भषत ॥ १२॥ बहिविहत्य संप्राप्तो नानाचाथ गहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं स १"प्रोशित्तमाचरेत् ।। १३ 11
आप्लुतः संप्लुतस्वान्तः शुचिवासीविभूषितः । १४मौनसंयमसंपन्नः कुर्याहवाचनाविषिम् ।। १४ 11 दुर्जन ( कापालिक, रजस्वला व चापडालादि ) से छु जाने पर ही स्नान करना चाहिए। यदि मुनि को दुर्जन का स्पर्श नहीं हुआ है, तो उसका स्नान निन्ध है ॥ ६ ।। प्रचुर जलराशिवाले व कहती हुई वायु से स्पर्श कियेए और सूर्य की किरणों से सर्वरूप से स्पर्श किया तालाब-आदि जलाशय में अवगाहन करके स्नान करना उचित है, किन्तु जिस जलाशय व कुआ-आदि का पानी धूप व वायु से स्पर्श किया हुमा नहीं है, उसे छानकर हो स्नान में प्रयोग करना चाहिए ॥ ७॥ स्नान पाँच प्रकार का जानना चाहिए। पैरों तक, घुटनों तक, कमर पर्यन्त, गर्दन तक और सिर तक। इनमें से मनुष्यों को उनके दोष के अनुसार स्नान करना चाहिए ॥ ८॥ जो ब्रह्मचारी है और सब प्रकार के आरम्भों ( कृषि व व्यापारादि ) का त्यागो है, उसे इनमें से कोई भी स्नान कर लेना चाहिए, किन्तु दूसरे गृहस्थों को तो फण्ठ पर्यन्त या मस्तक पर्यन्त स्नान करना चाहिए। अर्थात्-आरम्भ करने पर कब-स्नान और ब्रह्मचर्य के भङ्ग होने पर मस्तक-पर्यन्त स्नान करना चाहिए ॥५॥ जो समस्त प्रकार के आरम्भों (कृषि व व्यापार-आदि ) में प्रवृत्त है और ब्रह्मचर्य के पालन में कुटिल है, उसे कण्ठ पर्यन्त व मस्तक पर्यन्त स्नान द्वारा बाह्यद्धि किये बिना देवोपासना का अधिकार नहीं है ।। १० ।।
__ स्नान-हीन साधु की शुद्धिजल-स्नान से शुद्धि को निराकरण करता हुआ (जल-स्नान न करनेवाला) साधु केवल मन्त्र-मात्र के जप में तत्पर होता है। क्योंकि वह आहार, विहार व मल-मूत्रादि क्षेपण व दहन करके उनसे उत्पन्न हुए दोषों के निवारण करने के लिए निस्सन्देह मन्त्रों द्वारा शुद्ध हो जाता है, उसे जल-स्नान द्वारा वाह्य शुद्धि की आवश्यक्ता नहीं रहती ॥ ११ ॥ अत: प्रासुक व प्रशस्त मिट्टी से अथवा ईट के चूर्ण से अथवा राख या गोवर से तब तक हस्तादि को शुद्धि करनी चाहिए, जब तक उनमें निर्मलता ( शुद्धि ) न आजाय ॥ १२॥ वाहर से घूम करके
मुह पर आए हुए मानव को आचमन (कुल्ला) किये बिना गृह में प्रवेश नहीं करना चाहिए । एवं अन्य स्थान से • आई हुई समस्त वस्तुओं को जल-सिञ्चन से पवित्र करके व्यवहार में लानी चाहिए ।। १३ ।। गृही धावक को *. 'संस्पृष्टे' इति मु० व के० 1 १. तड़ागादो। २-३. क्रमेण श्रीवा मिरः, कष्ट शिरो वा स्नानं गृहस्थस्य, आरंभे
सति कण्ठस्नानं, ब्रह्मभड़े सति मस्तगास्नानं । *. 'मरम्भप्रवृत्तस्य' इति । ४. आरंभे प्रवृत्तस्य । ५. 'वक्रस्य' हि० स०, पञ्जिकायां तु 'ब्रह्मचर्य-मन्दस्य' इति प्रोक्तं । ६. दहनं कृत्वा । * "विशुद्धप च' इति । ७. 'मृत्स्ना अजन्तुका भूमिः' पं०, 'प्रशस्तमृत्तिकन्या' टिक प. च० । ८. गन्धलेपहानिः । ९. आचमेदोतहस्ताधिः पौते वारिणि सर्वदा । चतुराहारभुती च कृतायामुदकं पिवेत् ॥१॥ १०. सर्व वस्तु । ११. अम्युक्षित्वा । १२. स्नातः । १३. संस्कृतचित्तः अथवा अश्यग्रचित्तः । १४. मौमसंयमसम्पन्नैर्देवोपास्तिविधीयताम् । बन्सपावनशद्धास्यौतवस्त्रावित्रित: 11९२६॥-प्रबोधसार ।
४८.
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३७८
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
वन्तपवनशुद्धस्यो मुखवा सोचिताननः । असंजालाम्यसंसर्गः सुधीवँधानुपाधरेत् ॥ १५ ॥ "होमभूत" बली पूर्वेश्क्तौ *भक्तविशुद्धये । भुक्त्पादों सलिल 'सविशेषस्यं' व "रसायनम् ||१६|| एतद्विषि धर्मा नाय तकिया । दर्भपुष्पाक्ष तोत्रवन्दना विविधानयत् ।। १७ ।।
हि धर्मो गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदान " परः स्यादागमाश्रयः ॥ १८ ॥ जातयोनादयः सर्वास्लस्त्रियापि तथाविधा । श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं मात्र नः क्षतिः ॥ १९ ॥ स्वजात्यं विशुद्धानां वर्णानामिह रस्नवत् । तत्क्रियाविनियोगाय "जैनागमविधिः परम् || २० || 'यद्भवान्तिनिर्मुक्तहेतुस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे स्वतः सिद्धे वृयागमः ।। २१ ।।
शुद्ध जल से स्नान किया हुआ अव्यग्रचित्त युक्त होकर पवित्र वस्त्रों से सुशोभित एवं मौन व संयम से युक्त होकर देवपूजा की विधि करनी चाहिए ।। १४ ।। विवेकी पुरुष को दातोन से मुख शुद्ध करके अपना मुख, मुखपर वस्त्र लगाकार आच्छादित करके तथा विना स्नान किये हुए दूसरे मनुष्यों का स्पर्श न करके जिन-पूजा करनी चाहिए ।। १५ ।।
पूर्वाचार्यों ने भोजन की शुद्धि के लिए भोजन करने से पहले होम ( अग्नि में भोज्यांग का हबन करना) और भूतबलि ( पक्षी आदि जीवों के लिए प्राङ्गण में कुछ अन्न का प्रक्षेपण करना) का विधान कहा है । अर्थात् — शिष्ट पुरुषों को भोजन के अवसर पर कुछ अन्न अग्नि में होग करना चाहिए और कुछ अन्न आंगन में प्रक्षेपण करना चाहिए, जिससे उनका भोज्य पदार्थ विशुद्ध हो जाता है। एवं भांजन में जल, घो, दूध व तक का सेवन रसायन सरीखा वल व वीर्यवर्धक कहा है ।। १६ ।। उक्त विधि ( भोजन के शुरु में होमआदि) करना पुण्य-निमित्त नहीं है और उसका न करना अधर्म-निमित्त भी नहीं है। उक्त विधि-विधान तो केवल उस प्रकार माङ्गलिक (पाकुन-निमित्त ) है जिस प्रकार विवाह आदि लोकिक शुभ कार्यों के प्रारम्भ में डाभ का स्थापन, पुष्प अक्षों का प्रक्षेपण एवं शास्त्र-स्थापन और वन्दनवार बाँधना आदि विधि-विधान भाऊलिक ( शकुन - निमित्त ) होता है ॥ १७ ॥
निश्चय में गृहस्थों का धर्म दो प्रकार का है। एक लोकिक और दूसरा पारलोकिक । इनमें से लौकिक धर्म लोक के आधार वाला है। अर्थात्-ठाक को रोति के अनुसार होता है और दूसरा पारलोकिक धर्म आगमाश्रय है । अर्थात्-यूर्वापर के विरोध से रहित प्रामाणिक द्वादशाङ्ग शास्त्रों का आधार लेकर होता है - उनके अनुसार होता है ॥ १८ ॥ ब्राह्मण आदि वर्णों की समस्त जातियों अनादि ( बाज-वृक्ष की तरह प्रवाह रूप से चली जानेवाली ) हैं और उनकी क्रियाएं भी अनादि है, उसमें वेद व स्मृति ग्रन्थ प्रमाण हों इसमें हमारी आतों - जेनों की ) कोई हानि नहीं है ॥ १९ ॥
1
जिस प्रकार रत्नों की, खानि से निकले हुए रत्नों के लिए संस्कार विधि ( शागोल्लेखन आदि ) विशुद्ध ब्राह्मण आदि वर्णत्राले मानवों की क्रियाओं
महत्त्वपूर्ण होती है उसीप्रकार जाति ( मातृ पक्ष ) से १२. भोजनावसरं किfeat किंचित्लाङ्ग क्षिप्यते ।
अध्यापनं ब्रह्ममशः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमी देयो *. 'क्तिविशुद्ध' इति क० । ३. 'सपिरूअस्य' इति नोतिवाक्यामृत हमारी भाषा टोका १० ३२८. अर्थात्
बलिभाँती नृयज्ञोऽतिथिपूजनम् ॥७०॥ मनुस्मृति ३ अ० । क० । 'वृताधरोत्तरमुज्ञानोऽग्नि दृष्टि च लभते ||३४|| भू-पानपूर्वक भोजन करनेवाले मनुष्य की जठराग्नि प्रशेष होती है और नेत्रों की रोशनी भी बढ़ जाती हूँ ||३४| ४. दुग्बं । ५. मतिं । ६ शकुनाएँ बंद्यते । ७. पारलौकिकः । ८. निश्चयाय । ९. संसारभ्रमणमोचनमतिदुर्लभा । १० लौकिकव्यवहारे ।
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अष्टम आश्वासः
३७९
तषा सर्व एव हि नानां प्रमाणं 'लौकिको विधिः। पत्रमण्यवत्वहानिन बनवतषणम ॥२२॥
इत्युपासकाध्यपने स्नानविधिर्नाम धतुस्त्रिज्ञत्तमः कामः ।
द्वये देवसेवाधिहताः संकल्पिताप्तपूज्यपरिप्रहाः कृतप्रतिमापरिप हाश्च, संकल्पोऽपि 'इस्लफसोपलारिविष न समयान्तरप्रतिमासु विधेय: । यतः--
"शुद्ध वस्तुनि संकल्पः फन्माजन इवोचितः । 'नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा "परपरिपहे ।।२३।।
सत्र प्रपमानप्रति समयसमाचारविधिममिधास्यामः । तया हि ! (गर्भान्वय, दीक्षान्वय ब कन्वय क्रियाओं ) के निश्चय करने के लिए जैनशास्त्रों का विधि-विधान हो उत्कृष्ट है ॥ २०॥ क्योंकि शास्त्रान्तरों में संसार के भ्रमण से छुड़ानेवाला सम्यग्ज्ञान दुर्लभ है और लौकिक व्यवहार
त: सिद्ध है, उसमें आगम की अपेक्षा करना निरर्थक है।। २१ । निस्सन्देह जैनधर्मानुयायिओं को वे समस्त लौकिक विधि-विधान ( विवाह-आदि ) प्रमाण है, जिनमें उनका सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता और चारित्र ( अहिंसा-आदि ) दुषित नहीं होता। अर्थान्--ऊपर फहे हुए होम, मृतवलि व अतिथि सत्कार-आदि लौकिक विधि विधान में सम्यक्त्व नष्ट नहीं होता और अहिसादि वत्त की श्लति नहीं होती. अतः प्रमाण है, परन्तु वेद और स्मृति ग्रन्थों में यज्ञ में किये हुए प्राणिवध को अहिंसा माना है, उसका आचरण अहिसाव्रत का घातक है और सम्यक्त्व को नष्ट करता है अतः जैनों को प्रमाण नहीं है ।। २२ ॥ इस प्रकार उपासकाध्ययन में 'स्नान-विधि' नाम का चौतीसा कल्प समाप्त हुआ।
देवपूजा की विधि देवपूजा के अधिकारी मानव दो प्रकार के हैं....
१. जिन्होंने पत्र व पुष्प-वगैरह शुद्ध पदार्थों में जिनेन्द्र भगवान की स्थापना करके, उन्हें पूज्य स्वीकार किया है और २. जिन्होंने जिन-बिम्बों में जिनेन्द्र भगवान् की स्थापना करके उन्हें पूज्य स्वीकार किया है, परन्तु विवेकी पुरुष जिसप्रकार पत्र, फल व पाषाण-आदि शुद्ध वस्तुओं में जिनेन्द्र भगवान्-आदि की स्थापना करता है उस प्रकार उसे दूसरे मतों की ब्रह्मा व विष्णु-आदि की मूर्तियों में ऋषभदेव-आदि तीर्थकुरों का संकल्प कदापि नहीं करना चाहिए।
क्योंकि अविरुद्ध या शुद्ध पदार्थ में जिनेन्द्र भगवान् की स्थापना उसप्रकार उचित है जिस प्रकार शुद्ध कन्या में पत्नी का संकल्प करना उचित होता है। जिस प्रकार दूसरे से विवाहित कन्या में पत्नी का संकल्प उचित नहीं है। उसी प्रकार अन्य देवाकार को प्राप्त हुए विष्णु-आदि की प्रतिमाओं में जिनेन्द्र भगवान् की स्थापना अयोग्य ( आगम से बिरुद्ध) है ।। २३ ॥
अब हम पत्र व पुष्प-आदि में जिनेन्द्र भगवान् की स्थापना करके देव-पूजा करनेवाले श्रावकों के प्रति पूजा-विधि के विषय में धर्मोपदेश देंगे
१. लौकिको विधिः विवाहः । २. द्विप्रकाराः पुरुषाः। ३. 'मंकल्पिताप्लपूजिताः' इति का। *, 'संकल्पितोऽपि
इति कः । ४. 'यथा दलकलाविघु संकल्पी जिनस्य क्रियते तथा अन्यदेवप्रतिमायां जिनसंकल्पो न क्रियते इत्यर्थः' टि००, 'न कर्तव्यः क्व समयान्तरप्रतिमासु केष्विव दलादिषु इव । अन्यदेवहरहिरण्यगर्भप्रतिमाविषये जिनसंकल्पो न क्रियते' दति दि० ख०। ५. अविरुद्ध। ६. न अन्यदेवाकारसंक्रान्ते उपलायो। ७. यपा परपरिग्रहे परिणीतकन्यायो संकल्पोऽनुचितः अयोग्यः । ८-९. संकल्पितासपूण्यपरिग्रहान् प्रति धर्मोपदेशों दास्यामः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये अहंन्न 'तनुमध्ये वक्षिणतो "गणधरस्सया पश्चात् । 'धृतगीः सास्तवतु च पुरोऽपि गवगमवृत्तानि ॥२४॥ मर्ने फलके सिचये शिलातले सकते क्षिती ज्योम्नि । हवये चैते स्थाप्याः समयसमाचारवं विभिनित्यम् ।।२५।। रस्तत्रयपुरस्काराः पञ्चापि परमेष्ठिनः । भव्यरलाकरानन्दं कुर्वन्तु भूवमेधवः १६]]
ॐ निखिलभुवनपत्ति विहितनिरतिशयसपर्यापरम्परस्य परानपेक्षापयर्यायप्रवृत्तसमस्ताविलोकलोचमकेवल ज्ञानसाम्राज्यलायनपञ्चमहाकल्याणाष्टमहाप्रालिहायंचस्त्रिशतिशयविशेषविराजितस्य पौडयालक्षणसहस्राश्रितविग्यचेहमाहात्म्यस्य द्वादशगणप्रमुखमहामुनिमनःप्रणिधान निघीयमानपरमेश्वरपरमसघशाविनामसहलस्य विरहितारिरजोरताकहकभावस्य' ममवसरणसरोवतीणजगत्त्रयपुण्डरीकक्षहमार्तण्डमण्डलस्य दुष्पाराजवजवीभावमलनिधिनिमज्जज्जन्तुजातहस्तावलम्बपरमागमस्य भक्तिभरविनतविष्टपत्रयोपालमौलिमणिप्रभा११मोपनमोविजम्भमाणवरणनखनक्षत्र निकुसम्बस्य सरस्वतीवरप्रसाचिन्तामणेश्मीलतानिकेत प्रकल्पामोकुलस्य कति पोतिकाप्रवर्धनकामधेनोः, Yोधिपरिचयखलौकारकारणाभियानपानमन्त्रप्रभावस्य सौभाग्यसौरभसंपादनपारिजालप्रसस्तबफस्य तौरूप्योरपतिमणि मकरि
पूजा-विधि के वेत्ताओं को सदा अर्हन्त और सिद्ध को पत्र व पुष्पादि के मध्य में, आचार्य को दक्षिण में, उपाध्याय को पश्चिम में, साधु को उत्तर में और पूर्व में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को क्रम से भोजपत्र पर, लकड़ी के पटिये पर, वस्त्र पर, शिलातल पर, वालुकामय प्रदेश पर, पृथ्वी पर, आकाश में और हृदय में स्थापित करना चाहिए ॥२४-२५।। सम्यग्दर्शन आदि रत्नत्रय से पूजनीय और तोन लोक के लिए चन्द्रमा सरीखे पांचों परमेष्ठी भव्य जीवरूपी समुद्र को प्रमुदित करें ॥ २६ ।।
अइन्त पूजा में ऐसे भगवान अहंन्त परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जिनकी विशेष माहात्म्यवाली पूजा परम्परा समस्त लोक के स्वामियों ( इन्द्र-आदि ) द्वारा की गई है। जो दूसरे ( चक्षुरादि इन्द्रिय ) की अपेक्षा से रहित परमात्म-पर्याय से उत्पन्न हुए समस्त पदार्थों के अवलोकनरूप केवलदर्शन व केवलज्ञानरूप साम्राज्य के चिह्नरूप पंचकल्याणकों, आठ प्रातिहार्यों एवं चौंतोस अतिशयों से विशेषरूप से सुशोभित हैं। जिनके दिव्य परमौदारिक पारीर का प्रभाव एक हजार आठ शुभ लक्षणों से युक्त है। जिनके परमेश्वर व परमसर्वश-आदि एकहजार नाम बारह गण ( शिक्षक, बादो व विक्रिद्धि-आदि ) के मुनियों में प्रमुख महामुनियों (गणधरों) के मन में चित्त को एकाग्रता द्वारा आरोपण किये जा रहे हैं। जो मोहनीय, जानावरण, दर्शनावरण एवं अन्तराय इन पातिया कर्मरूप इन्द्रजाल से रहित है । जो समवसरणरूपी सरोवर में आये हुए तीनलोक के प्राणीरूप कमल-समूह को विकसित करने के लिए सूर्य-मण्डल-सरीखे हैं। जिनका उत्कृष्ट द्वादशाङ्ग शास्त्र दुःख से भी पार करने के लिए अशक्य संसाररूप समुद्र में डूबे हुए प्राणी-समूह के लिए हस्तावलम्बन-सरीखा है। जिनके चरणों के नखरूपी नक्षत्र-ममह, भक्ति के भार से नम्रीभूत हाए तोनलोक के स्वामियों ( इन्द्र आदि) के मुकुटों में जड़े हुए मणियों को कास्ति के विस्तार-रूप आकाश में विस्तृत हो रहा है। जो सरस्वती को वर का प्रसाद देने के लिए चिन्तामणि हैं। जो लक्ष्मीरूपी लता के आश्रय के लिए कल्पवृक्ष-से हैं | जो कीतिरूपी १. सिद्धः । २. गाचार्यः। ३. उपाध्यायः । ५. सम्यग्दर्शनज्ञानवारित्राणि । ५. वस्त्रे। ६. पुलिने । ७. परस्य
अनपेक्षा या पर्यायसंगतिः, अनुक्रमो वा। ८. आरोप्यमाण। ९. अरिर्मोहः, रजो ज्ञानदर्शनावरणवयं, रहः अन्तरायः, कहकमिन्द्रजालं। १०. आजवंजवीभावः संसारः । ११. विस्तार एव नभः। १२. स्थान । १३. बालिका। १४. अवीचिनरकविदोषस्तस्य परिचयः संगतिः। १५. 'मकरो' टि० ख०, पक्षिकाकारस्तु 'मणिमकरिका पुत्तलिका' इत्याह ।
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अष्टम आश्वासः
३८१
कावटविकटाकारस्य रस्नत्रयपुरःसरस्य भगवतोऽहत्परमेष्ठिनोऽष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा । अपि च ।।
नरोरगापुराम्भोजविरोचनश्चिथियम् । आरोग्याय जिनाषोशं करोभ्यर्चनगरोघरम् ॥ २७ ॥
'सहचरसमीचीनचा वात्रयविचारगोधरोचितहिताहितप्रविभागस्य अत एप परनिरपेक्षतया स्वयंभुवः सलि. लान्मुक्ताफलमिव उपसादिव काञ्चनम स्मादेवात्मनः कारणविशेषोप सर्पणवशावाविर्भूतमपिलमबिलयलयात्मस्वभाषमसममसहायमक्रममवीरितान्य समिधिस्यवधानमनवधिमयत्नसाध्यमवसितातिशयसम्मानमात्मस्वरूपकनिनन्यनमन्तःप्र . काशम'ध्यासितवतमनन्सवर्णनवेशयविशेषसाक्षात्कृतसकलवस्तुसर्थस्यमम वसानमुखलोप्ससमपर्यन्तबोमचाध - सूक्ष्माषभासमसदशाभिनिवेशावगाहमलघुगुरख्यपदेशमपातबाधापराकारसंक्रममप्तिविशुवस्वभावसया निवृत्ताशेषशारीरबछिया की वृद्धि के लिए कामधन हैं। जिन नामरूपी मान्य का प्रभावमल विशेष को संगति को नष्ट करने में कारण है। जो सौभाग्यरूपी सुगन्धि को प्राप्ति में कल्पवृक्ष के पुष्पों का गुच्छा-सरीखे हैं। जो अनोखे सोन्दर्य की उत्पत्तिरूपी मणि-जड़ित पुतली की रचना के लिए स्वर्णकार-जैसे हैं एवं जो सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान व सम्यक चारित्र रूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं।
मैं जन्म जरा-मरणरूपी रोग को निवृत्ति के लिए मनुष्य, नागासुर व देवरूपी कमलों के विकसित करने के लिए सूर्य को कान्ति को धारण करनेवाले जिनेन्द्रदेव की पूजा करता हूँ ।। २७॥
सिद्ध-पूजा मैं ऐसे सिद्ध परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ। जिनका हिताहित का प्रकृष्ट शान पूर्वजन्म से आये हुए मलि, श्रुत व अवविज्ञान के विचार के विषय के योग्य है, इसीलिए गुरु-आदि दूसरे की अपेक्षा न करने के कारण जो स्वयंभू हैं। जिसने ऐसे केवलज्ञान से अधिष्ठित ऐसे परमात्मा का प्राप्त किया है, जो कि { केवलज्ञान) इसी पूर्व संसारी आत्मा से ही घातिया कर्मों को क्षय करनेवाली कारण सामग्री ( द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव-आदि एवं सम्यग्दर्शन-आदि) के सन्निधान से उस प्रकार उत्पन्न हुआ है, जिसप्रकार कारणसामग्री ( स्वाति नक्षत्र का उदय-आदि) के सन्निधान से जल से [ सीप में] मोती उत्पन्न होता है और जिसप्रकार कारणसामनी ( अग्निपुट-पाक व छेदन, भेदन-आदि ) के सन्निधान से सुवर्णपापाण से सुवर्ण उत्पन्न होता है। जिसको उत्पत्ति समस्त मलों ( धातिया कम व उनके उदय से होनेवाले अज्ञानादि दोषों ) के क्षय से हुई है, जो अनोखा और चक्षुरादि इन्द्रियों की सहायता से शून्य है। जो क्रम-रहित है, अर्थात्-समस्त पदार्थों को युगपत् जानने वाला है । जिसने दूसरे पदार्थों को निकटता व दूरी तिरस्कृत को है। जो सोमा को उल्लंघन करने वाला व इन्द्रियों के व्यापार-आदि प्रयत्नों के बिना उत्पन्न होनेवाला एनं जो अतिशय की सीमा का अन्त करने वाला है और जिसकी उत्पत्ति में केवल विशुद्ध आत्मस्वरूप ही कारण है। जिसमें (परमात्मा में ) अनन्त दर्शन की विशेष निर्मलता के कारण समस्त पदार्थों का सार प्रत्यक्ष किया गया है। जो अनन्त सुख का झरना है। जो अनन्तवीर्य-शाली है। जिसमें चक्षुरिन्द्रिय से अगोचर सूक्ष्मत्व प्रति जोबी गुण की प्रतीति है। जिसमें अनोखे परमावगाढ़ सम्यक्त्व के साथ अवगाह गुण वर्तमान है । जो अगुरु लघु गुण
१. 'जड़िया-स्वर्पकार' टि. स०, परिखकायां तु "विकटाकार: दंकः' इति प्रोक्तम् । २. विरोचनो रविः ।
३. पूर्वजन्मागत । ४ नात्रियं मतिः श्रुतमवधिश्च । ५. पूर्वसंसारिणः एव । ६. प्रत्र्यक्षेत्रकालभाषादि, पर उबसमो विसोहो वेसण पाजगकरणलद्धीए चत्तारि विमामण्णा करणे पुण होई सम्मत्तं ॥१॥ ७. आगमनं । ८. सामीप्य । ९. केवलज्ञानं। १०. प्राप्तवन्त । ११. निर्मलता । १२-१३. ईदृशं परमात्मानं । १४. अभिनिवेशः सम्यक्त्वं ।
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३८२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
द्वारतया च मनाङमुक्त पूर्वावश्यान्तरमरूपरसगन्ध शन्दस्पर्श मशेष भुषन शिरः शेष रायमाणा 'विश्वंभरमुपशान्तसकलसंसारबस परमात्मानमुपेयुषो गुरुणापि प्रतिपद्मगुरुभावस्य रत्मत्रयपुरःसरस्य भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनोऽष्टतमिष्ट करोमीति स्वाहा। अपि च ।
प्रत्नकर्ममा नकर्मविजितान् । यत्नतः संस्तुवे सिद्धान्त्र पमहीयसः ॥ २८ ॥
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उ पुण्यस्य "विवोधिसीआर रोपात समस्तं तिह्य रहस्यसारस्य "अध्ययनाध्यापन विनिपोतियनियमोपनयनादिक्रियाकाण्डनिःस्नास वित्तस्य चातुर्वर्ण्यसंघप्रवर्धनधुरंधरस्य द्विविधात्मक विबोधनवि हिण्यपेक्षासंयन्त्रस्य सकलवर्णाश्रमसमय समाचार विधा रोचितवचनप्रपचमरौचविदलितनिखिल जनतारविन्दिनी मिध्यात्वमहामोहान्धकारपटलस्य ज्ञानतयः प्रभावप्रकाशित जिनशासनस्य शिध्वप्रशिष्यसंपदाशेषमि भुवनमुद्धर्तुं सुरातस्य भगवतो समयपुरःसरस्याचार्य परमेष्ठिनोऽष्टतयमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
अपि च । विचार्य सर्वमतिमाचार्यकमुपेयुषः । आचार्यवर्यात चमि संचार्य हृदाम्बुजे ॥ २९ ॥
से युक्त है। जो बाधा और पर के आकाररूप संक्रमण से रहित है। विशेष विशुद्ध स्वभाव के कारण और समस्त शारीरिक द्वारों के हट जाने से जो पूर्व अवस्था से कुछ छुटकारा पा चुका है, अर्थात् जो पूर्व अवस्था से कुछ ऊँन है। जिसमें रूप, रस, गन्ध, शब्द व स्पर्श नहीं हैं ब जो समस्त लोक के शिर पर मुकुट के समान आचरण करनेवाले स्थान से जगत् का पालन करनेवाला है एवं जिसमें समस्त सांसारिक अज्ञानादि दोषों का विस्तार नष्ट हो चुका है। जो (मिद्ध परमेष्ठो } तीर्थंकर परमदेव द्वारा भी गुरु माने गये हैं और जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकुचारित्र रूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं ।
पुराने कर्मो के बन्धन से छुटे हुए और नवीन कर्मों से रहित तथा रत्नत्रय से महान उन सिद्धों का में यत्नपूर्वक स्तवन करता हूँ ॥ २८ ॥
आचार्य-पूजा
में विशेष पूज्य ऐसे भगवान् आचार्य परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जिन्होंने जाति व आचरण से शुद्ध कुल व सदाचार से विभूषित हुई गुरु-परम्परा द्वारा समस्त आगम के गोष्यतस्व का सार ग्रहण किया है। जिनका चित्त स्वयं शास्त्रों का पठन-पाठन, अधिकार, विनय, नियम ( व्रत व तप का पालन ) व दीक्षा व तारोपण विधि आदि क्रिया काण्डों से पवित्र है । जो चार वर्ण ऋषि, यति, मुनि व अनगार ) के साधु-संघ की वृद्धि का भार वहन करनेवाले हैं। जिन्होंने मुनि व श्रावक धर्म के ज्ञापन में इस लोक संबंधी सुख की अपेक्षा का संबंध त्याग दिया है। जिन्होंने समस्त वर्णों व आश्रम को आगमानुकूल क्रियापद्धति के विचार के योग्य वचन-समूहरूपी किरणों द्वारा समस्त जनतापो कमलिनी का मिथ्याल व विशिष्ट अज्ञानरूप अन्धकार-पटल नष्ट कर दिया है। जिन्होंने ज्ञान व तप के प्रभाव से जिन शासन को उद्दीपित किया है और जो अपनी शिष्य-प्रशिष्य सम्पत्ति द्वारा समस्त लोक के उद्धार करने में प्रयत्नशील-से रहते हैं एवं जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सग्यकूचारित्ररूप रत्नत्रय से अलंकृत है ।
मैं समस्त आगम को विचार करके आचार्यपद प्राप्त करनेवाले पूज्य आचार्यों को अपने हृदयकमल में स्थापित करके उनकी पूजा करता हूँ || २५ ||
१. स्थान । २. तीर्थंकरपरमदेवेन 'नमः सिचेभ्यः' इति वचनात् । ३. पुराणं १४, न । ५. जात्याचरणशुद्धं । ६. स्वयं पठन । ७. पाटन । ८. अधिकार । ९. दोक्षावतारीपणादिविधि । १०. पवित्र ।
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अष्टम आश्वास:
३८३
ॐ श्रीमद्भगवनाविन्यविनिर्गतद्वादाङ्ग चतुवंशपूर्ण प्र कोणं विस्तीर्ण भूतपारावारपारंगमस्थ अपार संपरायारण्य विनिर्गमानुपसर्गमार्गेण निरत विनेयजमशरण्यस्य कान्तवादमवम लिनपरबाधिक रिकण्डोर कोत्कण्ठ कण्ठार'बापमाण प्रमाणनय गिक्षेपा'नुयोग वाग्व्यतिकरस्य श्रवणप्रणावताना वधारण प्रयोगवामित्वकवित्वगमक शक्तिविस्मापित विनतननिलिम्पाम्बरधर चक्रवतिसोमन्तप्रान्तपर्यस्तो संसका क्सोरभाषिवालितपादपौठोपकण्ठरूप arranger भगवतो रत्नत्रयपुरःसरस्य उपाध्यायपरमेष्ठिोऽष्टतयमिष्टि करोमीति स्वाहा 1
अपि छ । अपास्तेकान्सवादीखानपारागमपारगान् । उपाध्यायानुपासेऽहमुपापाय ताप्तये ॥ ३० ॥
विदित वितथ्यस्य बाह्याभ्यन्तराचरण करणत्रयविशुद्धि त्रिपयागाप्राह्निमूं सितमनोजकुल
مة
व्रतवि
उपाध्याय- पूजा
में ऐसे भगवान् उपाध्याय परमेष्ठी को आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जो श्रीमान् भगवान् अर्हन्त देव के मुखकमल से निकले हुए बारह अङ्गों ( आचार-आदि), चौदह पूर्वो (उत्पादपूर्व आदि ) तथा चौदह प्रकोणकों (सामायिक आदि) के रूप में विस्तीर्ण श्रुतरूपी समुद्र के पारगामी हैं। जो अपार संसाररूपी अटवी से निकलने के लिए वाधा रहित मार्ग के अन्वेषण करने में तत्पर हुए शिष्यजनों के लिए दारणभूत है । दुरन्त एकान्तवाद के मदरूपी कालिमा से मलिन हुए अन्यमतावलम्बीरूपी हाथियों के लिए प्रमाण, नय, निक्षेप व अनुयोग से युक्त जिनका वचन समूह सिंह के बहाने के समान आचरण करता है । श्रवण, ग्रहण, अवगाह्न । विचार करना ), अवधारण, प्रयोग ( शास्त्र के अर्थ को ज्ञापन करनेवाला बचन ), वक्तृत्वकला ( शास्त्र के अर्थ को मुख द्वारा सूचित करना ), कवित्व व तार्किक शक्ति द्वारा आश्चर्य-युक्त किये गए
भूत हुए मनुष्यों, देवां व विद्यावरों के स्वामियों के केशप्रान्त से नीचे गिरी हुई मुकुट माला के पुष्पों की सुगन्धि से, जिनके चरणों के आसन का निकट भाग सुगन्धित किया गया है और जिनका हृदय चारित्र व श्रुतज्ञान से पवित्र है एवं जो पूज्य हैं तथा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यकुचारित्ररूप रत्नत्रय से अलंकृत हैं ।
मैं पुण्य व ज्ञान की प्राप्ति के लिए श्रेष्ठ एकान्तवादियों को परास्त करनेवाले और अपार द्वादशाङ्ग आगम के पारगामी उपाध्याय परमेष्ठियों की पूजा करता हूँ ।। ३० ।।
साधु-पूजा
मैं विशेष पूजा और ऐसे सर्वसाधु परमेष्ठी की आठ द्रव्यों से पूजा करता है, जो मोक्षापयोगी जीवादि तत्त्वों के ज्ञाता है। जिन्होंने बाह्य और आभ्यन्तर चारित्र- पालनरूपों एवं मन, वचन व काम की विशुद्धिरूपी गङ्गानदी के प्रबाह द्वारा कामदेवरूपी वृक्ष के कुटुम्ब का विस्तार जड़मूल से उखाड़कर फेंक दिया है । जिन्होंने
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१. संसाराची । २. अवलोकन । ३. शब्दायमान । ४. बस्तुमाथात्म्यप्रतिपत्तिहेतु प्रमाणं । ५. प्रमाणपरिगृहीता थैंकदेशनिरूपणप्रवणां नयः ॥ ६. प्रञ्दशंकल्पयोग्यतास्वरूप स्तुव्यवस्थापन हेतु निक्षेपः । ७. सामान्यविपाभ्यामवशेषपदार्थावगमःमः अनुगोगः ८ गानं विमर्शनम् प्रयोगः शास्त्रार्थज्ञापनं यवनं । १०. 'वाचोति इति दि० ख० श० पञ्जिकाकारस्तु शास्त्रपरिज्ञानस्य मुखसूचितत्वं वाग्मित्वं । तदुक्तं पुरतः प्रशमितमिवालिखितमिश्र भनोनिपितमित्र हृदयें गृष्टं ? ( प्रविष्टं ) यस्य शास्त्रं स मत् ज्ञाता तपस्य पातु वो निकधावो' इत्यचीकथत् । ११. तार्किकः सिद्धान्तज्ञाता । १२. अब पतित । १३. उप समीपे नमः शुभावहो विधिर्यस्य सः उपायः पुष्यमित्यर्थः पुण्यात १४. नावतच्यस्य । १५. मनोवाक्काम । १६. गंगा |
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૨૮૪
यशस्तिलकचम्पुकाव्ये कुम्बाम्बरस्य अमराम्बरचरनरनिम्धिनी'कडम्बनवप्रादुर्भूतमदन मदमकरन्ददुर्दिन विनोदारबिन्दचन्द्रायमागोरितो - दितन्तनासा पहसिता चीनचरित्रच्युतविरञ्च विरों घनाधिविधानसरसस्प अनेकशस्त्रिभुवनक्षोभविधायिभियानपर्यावयूलविश्वप्रायू हव्यूहरनन्यजनसामान्धवृत्तिभिमनोगोचराति"राश्चर्यप्रभावभूमिभिरनवधारिसविधानस्तस्तलोसरगुणग्रामणीभिस्तपःप्रारम्भः सफलैहिकमुषसाम्राज्यवरप्रधानावहिताश्यातावषीरित विहिपतोपनतवमदेवतालकासि कुलविलुप्यमानवरणसरसिरहपरागस्य निर्वाणपनिष्ठितात्मनो रत्नत्रयपुरःसरस्य भगवतःसर्वसाघुपरमेष्ठिनोऽप्टतयोमिष्टि फरोमोति स्वाहा ।
अपि च । बोधापगाप्रवाहेण विष्यासान नवलयः । *विध्याराध्यानयः सन्तु साध्यवोध्याय साधवः ।।३१।।
ॐ जिनजिनापमजिमघमंजिनोक्तजीवादितत्त्वावधारणदयविम्भित निरतिशयाभिनिवेशाधिष्ठानासुप्रकाशितशङ्का प्राकाम्या' बजावन कुमतातिहाल्योबाराखु२५ प्रयामसंवेगानुकम्पास्तिव्यस्तम्भसंभृतासु ऐसे विशुद्ध चारित्र-समूह द्वारा नवीन चारित्र से च्युत हुए ब्रह्मा व विरोचन ( तपस्वी विशेष ) आदि तपस्वियों का ध्यान तिरस्कृत किया है, जो कि ( चारित्र-समूह ) देवाङ्गना, विद्याधरी व मानवों को कमनीय कामिनी. समूहरूपी तड़ाग में उत्पन्न हुए काममदरूपी मकरन्दवालं दुदिन ( मेघाच्छन्न दिन ) की कोड़ारूपी कमलों को चन्द्र-सा आचरण करनेवाला है, अर्थात् संकुचित करनेवाला है। अनेक बार तीनों लोकों को क्षोभित कर देनेवाले, धर्मध्यान को निश्चलता से समस्त विघ्नों के समूह को नष्ट करनेवाले, सर्व साधारण मानवों द्वारा अशक्य प्रवृत्तिवाले, मन से चिन्तबन के लिए अशक्य, आश्चर्य व प्रभाव उत्पन्न करने के लिए पृथिवी-सरीखे, मुलगुण व उत्तरगणों की प्रमुखतावाले नानाप्रकार के तपों के अभ्यासों से ( क्षुभित--सन्तुष्ट होकर ) समस्त इस ल
घिी सुख-साम्राज्यावर कलि सावधानकर आये हार, परन्त तिरस्कृत होनेपर आश्चर्यान्वित व नम्रीभूत हुए बत्न-देवताओं के केश-समूह-रूपी भ्रमर-समूह द्वारा, जिनके चरणकमलों का पराग विलुप्त कर दिया गया है और जिनकी आत्मा मोक्ष-मार्ग में श्रद्धालु है और जो सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय से विभूषित हैं।
जिन्होंने सम्यग्ज्ञानरूपी नदो के प्रवाह द्वारा कामरूपी अग्नि बुझा दी है, और जिनके चरण पूजा विधि से पूजनीय हैं, वे साधु केवलज्ञान की प्राप्ति के लिए होवें ।। ३१॥
सम्यग्दर्शन-पूजा मैं संसाररूपी वृक्ष को काटने में प्रयम कारण, समस्त कल्याणों के कर्ता व पंचपरमेष्ठों को अग्नेसर करनेवाले भगवान् सम्यग्दर्शनरूपीरत्न को अष्ट द्रव्यों से पूजा करता हूँ। जिसने ( सम्बग्दर्शन ने ) पुण्यशाली १. स्त्रीसमुहहद तमोत्पन्न । २. याम। * आच्छादित, क्रोडा एव कमा । ३. कमलसंकोचकारकः कामविध्वंसका
इति भावः । ४. व्रातः समूहः । ५. तिरस्कृतब्रह्मादयः । *. अग्मिवं1 ६. ब्रह्मा । ७. ऋषिनाम 1 ८. तापस । ९. ध्यानान्यस्य । १०. प्रत्यूही विघ्नः । ११. अगम्यैः। १२. सावधान ! *, 'अवधारित' ग० । विर्या-मु. प्रति का अवधीरित' पाठ सही प्रतीत होता है-सम्पादक । *. पुजाविधिना श्राराध्याः अधयश्चरणा: येपां। १३. साध्यो बोधः आत्मा यस्य तत् साध्यबाध्यं केवलजानं तस्म। १४. अवधारणहयमयोगव्यवच्छेदान्ययोगव्यवच्छेदः, जिनो देव एव, जिन एव देवः इत्यादि । १५, गर्वेषां सम्यग्दृष्टानामभिप्रायाः परिणामाः समानाः सदृशा एव भवन्ति न तु न्यूनाधिकाः। १६-१७, प्रकरित-निष्कासितशल्यासु, प्रासादभूमिशोधनेऽपि अस्थ्यादि निष्काश्यते, निःशतिगुण । १८. प्राकाम्पमाकाहा। १९. अवसादनं विचिकित्सा। २०. मूढदृष्टिः एतानि शल्यानि । २१. प्रायः भूमिशोधने अस्यादिर्क निष्काश्यते ।
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अम आश्वासः
३८५ स्थितिकरणोपगूलनवात्सल्यप्रभावनोपरवितोरसवसपर्यासु१ अनेकत्रिदशविशेषनिर्मापितभूमिकासु सुकृतिशेतःप्रासादपरम्परामु कृतकोगविहारमपि पानसर्गानहालिम पनि प्रभाविदेहवर्ष घरचक्रवर्तिपूजामणि"कुलदैवतं अमरेश्वरमतिदेवताक्तं सकल्पयल्लीपल्लवं अम्बरघरलोकहक्कमण्डनं अपवर्गपुरप्रवेशागण्यपुष्पपप्यात्समाकरणसरयंकारं अनुल्लङ्थ्यकुरघधनघटावुदिनेष्यपि जन्तुषु भ्योतिलोकादितिगर्तपातनतमस्कापदभेदनमामनन्ति मनीषिणः, सस्य संसारपावपोकछवप्रथमकारणस्य सकलमलविवामिनः पश्चपरमेष्ठिप्रसरस्य भगषतः सम्पादनरल स्थाष्टतयोििष्ट करोमीति स्वाहा । अपि च । मुक्ति मीलतामूलं युक्तिश्रीवल्लरोवनम् । भक्तितोऽहामि सम्यक्त्वं 'भक्तिचिन्तामणिप्रवम् ॥३२॥ मानवों को ऐसी चित्तरूपी महलों की पङ्क्तियों में क्रोड़ा के लिए विहार किया है, जो कि जिन, जिनागम, जिनधर्म और जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे हुए जीवादि सात तत्वों के अयोग व्यवच्छेद व अन्ययोग व्यवच्छेद ( जिनेन्द्र देव ही हैं व जिनेन्द्र हो देव है, इत्यादि क्रमशः अन्य विशेषणों की व्यावृत्ति व अन्य विशेषयों की व्यावृत्ति ) की आस्था से वृद्धिगत हुई सदश परिणाम-स्थानरूपी आधार (भूमि या नीव वाली हैं। जिनमें से शङ्का, आकांक्षा, विचिकित्सा ( ग्लानि ) व मून दृष्टिरूपी शल्ये (कोले) निकाल कर फेंक दी गई हैं। अर्थात-जिसप्रकार महल की भूमि-शोधन में हड्डी-आदि निकालकर फेंक दी जाती हैं उसीप्रकार सम्यग्दष्टियों द्वारा भी चित्त के शोधन में उक्त शल्ये निकाल कर फेंक दो जाती हैं। जो प्रशम, रविंग, अनुकम्पा, व मास्तिस्य रूपी स्तम्भों द्वारा धारण की गई है। स्थितिकरण, उपगूहुन, वात्सल्य व प्रमाबना द्वारा जिनमें उत्सवों की पूजा की गई है । अर्थात्-जिस प्रकार महल-रचना में मध्य मध्यमें पूजा की जाती है उसोप्रकार सम्यक्त्व की भी उक्त अङ्गों द्वारा पूजा की जाती है और जिनकी भूमिकाएँ ( अवस्थाएँ व पक्षान्तर में तल) दो प्रकार (निसर्गज व अधिगमज ), तीन प्रकार (भोपशमिक, क्षायोपमिक व क्षायिक ) व दशप्रकार (आज्ञा व मार्ग-आदि) से निर्माण कराई गई हैं, ऐसा होकर के भी जो स्वभावतः महामुनियों के मनरूपी समुद्र में प्रसिद्ध हैं। जो समस्त भरत, ऐरावत व विदेहक्षेत्रों व कुलाचलों के चक्रवतियों का चूड़ामणि ( गिरोरल ) और कुल देवता है। जो देवेन्द्रों को बुद्धिरूपी देवी के कण-आभूषण के लिए कल्पलता का पल्लद है। जो विद्याधर-समूह के हृदय का अद्वितीय आभूषण है। मोक्षनगर में प्रवेश करने के लिए असंख्यात पुण्यरूपी पण्प ( खरोदने लायक वस्तु ) को अधीन करने के लिए जो सत्यंकार (व्यवस्था का अनुल्ल छन-त्रयाने का धन) है । अर्थात्-जिस प्रकार पेशगी दिये हुए धन में खरीदने लायक वस्तु स्वरीदी जाती है उसी प्रकार सम्यक्त्व रूपो बयाने के धन से भी मोक्षनगर में प्रवेश करानेवाला असंख्यात पुण्य खरीदा जा सकता है। जिसे शास्त्र. वेत्ता विद्वान् अटल ( अबश्य भोगने योग्य ) महापाप रूपो मेघों की घटा से दुर्दिन-सरोखे ( ग्रस्त हुए) जोबों के भी ज्योतिर्लोक-आदि गतिरूपो गड्ढों में गिरानेवाले मिथ्यात्वरूपो अन्धकार के पटल का मेदन करनेवाला मानते हैं, अर्थात् पारी से पापी जीव को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो जाने पर प्रथम नरक के सिवाय शेष नरकों में और भवनत्रिक व व्यन्तर-आदि में जन्म लेना नहीं पड़ता।
मैं ऐसे सम्पग्दर्शन की भक्तिपूर्वक पूजा करता हूँ, जो मुक्तिलक्ष्मी रूपो लता को जड़ है और जो
१. प्रासादे क्रियमाणे मध्ये मन्यै पूजा कियते । २. अनेको विशेषों द्विविधतया, योविशेषाः विविधतया, दश विशेषाः दशविषतया भूमिका अवस्था तलं च। ३. प्रसिद्ध । ४. कुलपर्वत । ५. शिरोरत्नानामुपरि स्थितं । ६. कर्णावतंस ( कर्णपुर)। ७. सत्यंकार व्यवस्थानुल्लङ्घनम्, धनसार्थ इति लोकभापा। ८, जर्स । ९. भक्तिरेव चिन्तामणिः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
*यनिखिलभवन तायलोचनम्, आत्महिताहितविवेकयापारम्यावबोधसमासावितसमीचीनभावम, अधिगमजसम्यक्त्यारस्नोत्पत्तिस्यानम्, अखिलास्वपि वासु क्षेयशस्वभावसाम्राज्यपरमलाञ्छनम, अपि प 'यस्मिन्निदानीमपि "नबीस्तानचेतोभिः सम्यगुपाहितोपयोगसंमार्जने धमणिमणिवपंण व साक्षावभक्ति से से "भावं. कसंप्रत्ययाः १०स्वभावक्षेत्रसमविप्रकषिणोऽपि भावास्तस्यात्मलाभनिसाधनो भयहेतुविहितविधित्रपरिणतिभिमंसिता. वधिमनःपर्ययकेवलः पञ्चत्योमवस्थामवगाहमानस्य सकलमलविवामिनः पपरमेष्ठिपुरःसरस्य भगवतः सम्यग्ज्ञानरत्नस्याष्टत्तयीमिष्टि करोमोति स्वाहा । अपि च । नेत्रं हिताहितालोके सूत्रं पोसौषसाधने । पानं पूजाविषेः कुर्व क्षेत्रं लक्ष्म्याः समागमे ।।३३।।
युक्ति ( दर्शनशास्त्र ) लक्ष्मीरूपी लता को वृद्धिंगत करने के लिए जल है एवं जो सांसारिक भोगरूपी चिन्तामणि को देनेवाला है ।। ३२ ।।
सम्यग्ज्ञान-पूजा जो समस्त लोक को जानने के लिए तीसरा नेत्र है। आत्मा के हिताहित के विवेक के यथार्थ जानने से ही जिसे समीचीनता प्राप्त हुई है, जो अधिगमज भम्यग्दर्शनरूप रत्न को उत्पत्ति का स्थान है, क्योंकि अधिगमज सम्यक्त्व में परोपदेश की अपेक्षा होती है। जो आत्मा को समस्त पर्यायों ( नरस व एकेन्द्रियादि ) में भी आत्मा के स्वभाव रूप साम्राज्य का प्रदर्शन चिह्न है, अर्थात्-अनेक नर व नरक-आदि पर्यायों को धारण करसा हुआ यह आत्मा जिस प्रधान चिह्न के कारण अपने ज्ञान स्वभावरूप साम्राज्य चाला कहा जाता है। इसकी महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि केवल केलियों के तीर्थ में ही नहीं, अपित इस समय में भो सरस्वतीरूपी नदी में स्नान करने में जिनके चित्त निर्मल हो गए हैं ऐसे विद्वानों द्वारा आरोपित अभ्यास से अपने उपयोग को विशुद्ध कर लेने पर उनके केवलज्ञान में सूर्यकान्तर्माण के दर्पण की तरह स्वभाव से सुक्ष्म परमाणुआदि व क्षेत्र से दूरवर्ती-सुमेह-आदि और काल से दूरवर्ती राम-रावण-आदि स्वात्मा द्वारा अनुभव करने योग्य पदार्थ प्रत्यक्षगोचर प्रतीत होते हैं 1 वह ज्ञान यद्यपि एक है, किन्तु अपनी उत्पत्ति के अन्तरङ्ग और बहिरङ्गकारणों से होनेवाली विचित्र परिणति के द्वारा मति, श्रुत, अबधि, मनः पर्यय व केवलज्ञान के भेद से उसकी पाँच अवस्थाएँ ( भेद ) हो गई हैं, उस समस्त कल्याणों का कर्ता और पंच परमेष्ठी को अग्रेसर करनेवाले । क्योंकि पंचपरमेष्ठी का स्वरूप जाने बिना सम्यग्ज्ञान उदित नहीं होता ) भगवान ( पूज्य ) सम्यग्ज्ञान की आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ।
में ऐसे सम्यग्ज्ञान वो पूजाविधिका पाय करताहे. अर्थात-उसकी पजा करता है. जो कि स्मिक हित ओर अहित को प्रकावित करने के लिए तीसरा नेत्र है और जो बुद्धिरूपी महल के निर्माण करने के लिए बढ़ई है एवं जो लक्ष्मी के समागम कराने का स्थान है ।। ३३ ।।
१. तृतीय। २. नरक, एफेन्द्रियादिषु । ३. जाने। १. न केवलं केवलिना सीर्थे । ५. सरस्वत्या स्नातचित
विद्वदभिः। ६. आरोपिज़ाभ्यासेन कृताज्यले बैनदीस्तातचित्तनः। ७. सूर्यकान्तमकरे । ८.जोवादिपदार्थाः । २. स्वात्मानुभवनीयाः। १०.केचन भावा:स्वभावेन दुराः, केचन क्षेत्रापेक्षया दुराः, केचन कालापेक्षया दूरसरा: तस्य सम्यम्ज्ञानस्य । ११. मतेरन्तरङ्गो हेनुः क्षयोपशमः, वाह तदिन्द्रियानिन्द्रिमं । श्रतस्यान्तरङ्ग क्षयोपशम: वाद्यममिन्द्रियं । अवधेर्वाह्यं भवप्रत्ययः, मनःपर्यमस्य बाह्य क्षेत्रादिक, अन्तरङ्गं शयोपशमः, अवधेश्चापि क्षयोपशममन्तरण । केवलज्ञानस्य बाह्य मानुष्यं, अन्सरनं कर्मणां भयः । इति रि० ख० म ।
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अष्टम आदवासः
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* यत्सकललोकालोकावलोकन प्रतिवन्ध कारवकारविध्वंसनम् अनवद्यविद्या मत्वा कि नोनियान मे बिनी घरम्, अशेषसत्त्वोत्सवानन्दचध्वोदयम् अखिलन्नत तुप्ति समितिलता रामपुष्पाक रसमयम्”, अनस्पफलम दायितपः कल्पम मिममयोपशमसौमनस्यवृत्तियं प्रधानं रनुष्ठीयमानमुशन्ति सद्धीषमाः परमपदप्राप्तेः प्रथमभिव सोपानम्, तस्य तमात्मनः " सर्वक्रियोपशमातिशयावसामस्य सकलमङ्गलविधायिनः पञ्चपरमेष्ठिपुरः सरस्य भगवतः सम्यक्चारित्ररमस्याष्टयोमिष्टि करोमीति स्वाहा ।
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*मं योगिनरेन्द्रस्य कर्मरियाजन शर्मा सर्वसस्थानां धर्मधी तमाभये 11 ३४ || जिन सिद्ध सुरिवेशका द्धानवशेषवृत्तानाम् | कृत्वाष्टतयोपिष्ट विधामि ततः स्तवं युक्तया ।। ३५ ।। सत्येषु प्रणयः परोऽस्य मनसः षज्ञानमुक्तं जिनै" रेतद्वित्रिदशप्रमेवविषयं वयक्तं चतुभिर्गुणः । भुतमिवं मृरपोकं त्रिमित्तं देव वयामि संसृतिलतोल्ला सावसानोरसवम् ॥ ३६ ॥
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सम्यक चारित्र पूजा
जो समस्त लोक और अलोक के देखने व जानने में रुकावट डालनेवाले अज्ञानरूपी अन्धकार को विध्वंस करनेवाला है, जो केवलज्ञानरूपी गङ्गा का उत्पादक कारण हिमाचल है । अर्थात् — जैसे हिमाचल से गङ्गा निकलती है वैसे ही चारित्र की आराधना से केवलज्ञान प्रकट होता है। जो समस्त प्राणियों के उत्सवों ( आनन्दों) को वृद्धि के लिए चन्द्र के उदय-सा है। अर्थात् - जिस प्रकार चन्द्र के उदय से समुद्र वृद्धिगत होता है उसी प्रकार चारित्र की आराधना से समस्त प्राणियों के आनन्द की वृद्धि होती है । जो समस्त व्रत, गुप्त व समितिरूपी लताओं के बगीचे के लिए वसन्त ऋतु के समान है । जो प्रचुर फलदायक तपरूपी कल्पवृक्ष की उत्पत्ति भूमि है। जो गर्व का अभाव, कषायों का क्षण, विशुद्ध चित्तवृत्ति व धीरता की प्रमुखतावाले महात्माओं द्वारा धारण किया जाता है । प्रशस्त वृद्धिरूपी धनवाले महात्मा ऐसे चारित्र को मोक्षपद की प्राप्ति का प्रथम सोपान - ( सीढ़ी) सरीखा कहते हैं । जो सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय व यथाख्यात चारित्र के भेद से अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप व वीर्याचार के भेद से पांच प्रकार का है । और जिसके अन्त में मन, वचन व काय के व्यापार का क्षय वर्तमान है, उस समस्त कल्याणों के कर्ता और पंचपरमेष्ठी की प्रमुखतावाले भगवान् सम्यक् चारित्र को आठ द्रव्यों से पूजा करता हूँ ।
धर्म में वृद्धि रखनेवाला में ऐसे सम्यक् चारित्र का आश्रय ग्रहण करता है, जो कि कर्मही त्रुओं पर विजय प्राप्त करने में महामुनिरूपी राजा का धनुष है एवं जो समस्त प्राणियों के लिए सुखदायक है ।। ३४ ।।
इस प्रकार अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, साधु, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यञ्चारित्रको अष्ट द्रव्य से पूजन करके में इनका युक्तिपूर्वक स्तवन करता हूँ ।। ३५ ।।
सम्यग्दर्शन की भक्ति
हे जिनेन्द्र ! में संसाररूपी लता की वृद्धि को समाप्त करने का उत्सचवाले व तीन लोक द्वारा पूजित
१. केवलज्ञानं । २. कारणं । ३. हिमाचलं पोधनाः उशन्ति कथयन्त । ४. वसन्तं । ५. गवं । ६. चतयाऽत्मनः सामायिकछेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिमुच्य साम्पराय यथाख्पातचारित्रभेदेन । ज्ञानदर्शनवारितपोवीर्याचारभेदेन |
७. मनोवचः काय व्यापारक्षयपर्यन्तस्य । *. 'धर्म' इति घ० । ८. महामुनि । ९. निसर्गाभिगम, उपशम-क्षार्थिकमिश्र, आज्ञामार्गात्रि १० उपशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्तिषय ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ते कुबन्तु तपासि दुर्घरधियो ज्ञानानि संचिन्वता । वित्तं था वितरन्तु वेव तदपि प्रायो न जन्मच्चियः । एषा येषु न विद्यते तव वचःश्रवावधानोद्धरा वुष्कर्माङ्करकुजवष्यवहनयोतावाता अधिः ॥ ३७ ।। संसाराम्बुधिसेतुबन्धमसमप्रारम्भलक्ष्मोक्न प्रोल्लासामृतवारिवाखिलवलोक्यचिन्तामणिम् । कल्याणाम्बुजवण्डसंभवसरः सम्यक्रवरत्नं कृती यो पत्ते हवि तस्य नाथ मुलभाः स्वर्गापवधियः ।। ३८ ॥
(इति दर्शनभक्तिः) अत्यल्पापतिरमजा मतिरिय दोषोऽवधिः सावधिः साश्चर्यः स्यचिदेव योगिनि स च स्वल्पो मनः पर्यमः । दुष्प्रापं पुनरद्य फेवलमिदं ज्योतिः कमागोचरं माहात्म्यं निलिलागे तु मुलभै फि वर्णयामः श्रुते ।। ३९ ।। यहवः शिरसा तं गणधरः कर्षावतंसीकृतं न्यस्तं चेतसि योगिभिनुपवररामातसारं पुनः ।
हस्ते वृष्टिपणे मुखे च मिहित विद्यापराधीश्वरस्तरस्यावावसरोयह मम मनोहंसस्य भूयान्मुदे ।। ४० ॥ सम्यग्दर्शन को चित्त में धारण करता हूँ। जिनेन्द्रों ने जीवादि सात तत्वों में इस विशुद्ध मन की उत्कृष्ट मचि को सम्यग्दर्शन कहा है, जिसके निसर्गज व अधिगमज दो भेद हैं एवं औपशमिक शायिक व क्षायोपमिक ये तोन भेद है तथा आज्ञा व मार्ग-आदि दशमेद हैं। जो प्रथम, संवेग, अनुकम्पा व आस्तिक्य इन चारों गुणों से पहचाना जाता है। जो निःशक्षित-जादि आठ अङ्गोंवाला है और जो तीन प्रकार की मूहता से रहित है ॥३६।। हे जिनेन्द्र ! जिनकी आपके वचनों में माढ़ मनोयोग से उत्कट श्रद्धापूर्ण निर्मल रुचि नहीं है, जो कि ( रुचि) पाप कर्मरूपी अङ्कुरों के लतागृहों को भस्म करने के लिए वजाग्नि की कान्तिसरीखो शुभ्र है, वे चञ्चल बुद्धिवाले चाहे किसाही तप कारबाहे कितना ही मधुर ३. संचय करें अथवा धन वितरण करें, फिर भी प्रायः जन्म-परम्परा का छेदन करनेवाले नहीं हो सकते ।। ३७ ।।
हे प्रभो! जो पुण्यवान् पुरुष ऐसे सम्यग्दर्शनरूपी रत्न को अपने हृदय में धारण कर ता है, उसे स्वर्ग और मुक्तिरूपी लक्ष्मी की प्राप्ति सुलभ है, जो कि संसाररूपी समुद्र को पार करने के लिए पुल के बन्धन-सरीखा है। जो क्रम से उत्पन्न होनेवाले लक्ष्मी के उपवन को विकसित करने के लिए अमृत भरे मेघोंसरीखा है और जो समस्त तीन लोक के प्राणियों को चिन्तामणि-सा हैं एवं जो कल्याणरूपी कमल-समूह की उत्पत्ति के लिए तड़ाग-सरीखा है ॥ ३८॥
सम्यग्ज्ञान की भक्ति इन्द्रियों से उत्पन्न होनेवाला मतिज्ञान स्वल्प व्यापारवाला है, अर्थात् बहुत थोड़े पदार्थों को विषय करता है। अवधिज्ञान भी मर्यादा-साहित है, अर्थान्-द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की मर्यादा को लेवार केवल रूपी पदार्थों को हो विषय करने के कारण सीमित है। मनः पर्यय का भी विषय थोड़ा है और वह भी किसी विशिष्ट योगी में ही उत्पन्न होता है, अतः आश्चर्यजनक है। केवलज्ञान महान् है, किन्तु उसकी प्राप्ति इस पंचमकाल में दुर्लभ है। यह तो पूज्य महापुरुषों के कथानकों का विषय रह गया है। एक श्रुतज्ञान हो ऐसा है, जो समस्त पदार्थों को विषय करता है और मुलभ भी है, उसको हम क्या प्रशंसा करें ।। ३९ ॥ ऐसा स्याद्वाद ( अनेकान्त ) श्रुतरूपी कमल मेरे मनरूपी हंस को प्रसन्नता के लिए हो, जिसे जिनेन्द्रदेव ने शिर पर धारण किया था, गणघरों द्वारा जो कर्णाभूषण किया गया, जो महामुनियों द्वारा अपने चित्त में स्थापित किया गमा और राजाओं में श्रेष्टों के द्वारा जिसका सार सूंघा गया है एवं विद्याधरों के स्वामियों ने जिसे अपने हाथों पर स्थापित किया एवं नेत्र गोचर किया तथा मुख में स्थापित किया । ४० ।। १. वनाग्निः । २. 'अल्पदध्या' टि० ख०, गझिकाकारस्तु 'अत्यल्पायति स्वल्पव्यापारा' इत्याई । ३. समर्यादः ।
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अधुम आग्वामः
३८९ मिम्पातमःपटलभवनकारणाय स्वर्गापवर्गपुरमार्गमियोधनाय । तत्तत्त्वभावममना: प्रणमामि नित्यं त्रैलोक्यमङ्गलकराय जिनागमाय ।। ४१॥ (इति ज्ञानभक्तिः) ज्ञानं दुर्भगवेहमण्डनमिव स्यारजस्य खेदावह पत्त साधु म तफलभियगयं सम्पश्वरमाङ्करः । कामं देव यन्तरेण शिफलास्तास्तास्तपोभमयस्तस्मै वच्चरिताय संयमवमध्यानादिधाम्ने नमः ॥ ४२ 11 चिन्तामणिरीप्सितेष वसतिः सोकप्यसौभाग्ययोः श्रीपाणिपती बलारोग्यागमे संगमः। यत्पूर्वश्चरितं समाधिमिषिभिर्मोक्षाय पञ्चात्मक तच्चारित्रमहं नमामि विविध स्वर्गापयप्तिये ।। ४३ ।। हस्ते स्वर्गसुखान्यक्तिभवास्ताइनसिश्चियो देवाः पावतले लठन्ति फलति द्यौः कामितं सर्वतः । कल्याणोत्सवसंपदः पुनरिमास्तस्यावतारालपे प्रागेवावतरन्ति यस्य चरितर्जरः पवित्रं मनः॥४४ ।।
(इति चारित्रभक्तिः) पोषोऽवधिः श्रुतमशेषनिरूपितार्यमन्तरीहिःकरणमा समना मतिस्ते । इत्यं स्वतः सकलवस्तुविवेकबुदे का क्याग्जिनेन्द्र भवसः परतो व्यपेक्षा || ४५ ॥
आगम में कहे हुए तत्वों की भावना से युक्त चित्तवाला मैं ऐसे जिनागम के लिए सदा नमस्कार करता हूँ, जो मिथ्यात्वरूपी अन्धकार समूह को नष्ट करने में कारण है, जो स्वर्ग व मोक्षरूपी नगर के मामं का ज्ञान करानेवाला है एवं जो तीन लोक का कल्याण करनेवाला है ।। ४१ ।।
चारित्र-भक्ति जिस चारित्र के बिना विद्वान का ज्ञान उस प्रकार उसके लिए खेदजनक होता है जिस प्रकार भाग्यहीन मानव का शरीर पर आभूषण धारण करना खेदजनक होता है और जिसके विना यह सम्यग्दर्शनरूपी रत्नाकुर सम्यग्ज्ञानरूपी फल सम्पत्ति को भलो प्रकार धारण नहीं करता एवं जिसके विना समस्त तपोभूमियां अत्यन्त निष्फल हुई, हे भगवन् ! आपके उस सम्यक्चारित्र के लिए नमस्कार हो, जो कि संयम, इन्द्रिय-दमन व धर्मध्यान और शुक्लध्यान-आदि का स्थान है ॥ ४२ 11 ऐसे उस अनेक प्रकार के सम्यक्चारित्र के लिए में स्वर्ग व मोक्ष की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता है, जो अभिलषित वस्तुओं के प्रदान करने के लिए चिन्तामणि है। जो सौन्दर्य च उत्तम भाग्य का निवास है, जो मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ पाणि-ग्रहण करने में कालाणबन्धन है। जो उत्तमकुल, शक्ति व निरोगता का संगमस्थान है। जिसे धर्मध्यान की निधिबाले पूर्वचार्यो' ने मोक्ष को प्राप्ति के लिए धारण किया था और जो सामायिक व छेदोपस्थापना-आदि के भेद से पांच प्रकार का है ।। ४३॥
जिनेन्द्र के चारित्र-धारण से पवित्र मनवाले मानव के लिए स्वर्ग-सुख हस्त-गत हो जाते हैं । चक्रवर्ती को विभूतियाँ विना विचारे प्राप्त होनेवाली होती हैं, । देवतालोग उसके चरणतल पर लोटते हैं, समस्त दिशाएं उसके मनोरथ को पूर्ण करतो हैं और उस चरित्रवान् की जन्मभूमि में जन्म से पूर्व ही ये गर्भकल्याणक-आदि उत्सव सम्पत्तियां प्राप्त हो जाती है ।। ४४ ॥
अर्हन्त-भक्ति हे जिनेन्द्र ! आपको जन्म से ही अन्तरङ्ग (मन ) व बहिरङ्ग ( स्पर्शनादि ) इन्द्रियों से होनेवाला मतिज्ञान, समस्त जीवादि तत्त्वों को जाननेवाला श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान होता है। इस प्रकार स्वतः ही १. छरिनेत्रम्जो क्लीवे समूहे पटलं न मा। २. ज्ञान । ३. चारित्रेण विना । ४. ककणं । ५. हे जिन तय वर्तते ।
६. अन्यतः । ७.बाञ्छा ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये ध्यानावलोकधिगलतिमिरप्रताने तो देव केवलमयों श्रियमावधाने । आसीत्वयि त्रिभुवनं मुहयत्सवाय व्यापारमायर मिकपुरं महाय 11 ४६ ।। छत्रं दधामि किम चामरमपिामि हेमाम्बमान्यच जिनस्य पढेपमामि । इत्यं मुवामरपतिः स्वयमेव यत्र सेवापरः परमहं किमु धिम तत्र ।। ४७ ।। rवं सर्ववीपरहितः सुनयं वचस्ते सत्वानुकम्पनपरः सकलो विधिश्च । लोकारतथापि यविष्यतिन त्वयोश कर्मास्य तन्नम रवाविव कौशिकस्य 11 ४८ ।। पुष्पं त्वतीयचरणाचन पीठसङ्गामधामणी भवति देव जगत्रयस्य । अस्पृश्यमायशिरसि स्थितमप्यतस्ते को नाम साम्यमनुपास्तु रवीश्वरायः ॥ ४९ ।। मिथ्यामहारघतमसावृतमप्रयोषमेतत्पुरा जगबद्भवगर्तपाति । तदेव दृष्टिहवयामविकासकान्तः स्यावावरश्मिभिरयोद्धातवांस्त्वमेव ॥ ५० ॥ पादाम्पुजदयमिव तव देव यस्य स्वच्छे मनःसरसि संनिहितं समास्ते ।
तं धीः स्वयं भजति त नियतं वर्णीते स्वर्गापवर्गजननी च सरस्वतीपम् ॥ ५१॥ ( इत्यहशक्तिः ) समस्त पदार्थों की विवेक बुद्धिवाले आपको पर की ( मुरु-आदि की ) सहायता की वाञ्छा ही क्या है ? अर्थात्
आपको ज्ञानाल्पत्ति में गुरु-आदि सहायकों को अपेक्षा नहीं होती ।। ४५ ।। हे प्रभो! जब आप शुक्लध्यानरूपी प्रकाश द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को नष्ट करनेवाले होने से उत्पन्न हुई उस केवलज्ञानरूपो लक्ष्मी को धारण करनेवाले हुए तब तीन लोक ने आपको बार-बार पूजा के लिए अपने व्यापार में मन्द होकर ( अपना कार्य रोककर ) एकनगर-सरोखे होकर महान् उत्सव किया। अर्थात्--भगवान् को केवलज्ञान होनेपर उनके समवसरण में नर, सुर व पशु-आदि धर्म-श्रवण के लिए आते हैं ।। ४६ ॥
__"मैं प्रभु के मस्तक पर छत्र धारण करू या चमर ठोस अथवा जिनेन्द्र के चरणों में स्वर्ण-कमल अर्पित करूं' इस प्रकार जहाँ सौधर्मन्द्र स्वयं ही प्रमुदित होकर प्रभु की आराधना में तत्पर है, वहाँ में क्या कहूँ ॥ ४७ ।। हे स्वामिन् ! तुम समस्त दोषों ( भुघा-तुषा-आदि अठारह दोषों) से रहित हो। तुम्हारे वचन स्याद्वाद ( अपेक्षावाद ) रूप हैं ( विविध दृष्टिकोणों से वस्तु का निश्चय करनेवाले हैं )। तथा तुम्हारे द्वारा कही हई समस्त विधि सभी प्राणियों को रक्षा में तत्पर है, तथापि लोक आपसे सन्तुष्ट नहीं होते, इसका कारण उनका मिथ्यात्त्व कर्मही है न कि आप। जिस प्रकार सयं के उदित होनेपर उसे उल्ल नहीं देखता. इसमें उल्ल का दष्टि-दोपही कारण है. न कि सूर्य ॥४८॥ हे प्रभो! तुम्हारे चरणों की पूजा का पुष्प-प्रक्षेप के आधारभूत आसन ( 'पोड़ा ) के संगमात्र से पुष्प, तीनों लोकों के मस्तक का आभूषण हो जाता है, अर्थात्उस पुष्प को सब अपने शिर पर धारण करते हैं। परन्तु दूसरों के शिर पर स्थित हुआ भी पुष्प अस्पृश्य माना जाता है। अत: दूसरे सूर्य व मुद्र-आदि देवताओं से तुम्हारी तुलना को कौन कहे ? ॥ ४५ ॥ हे देव ! पहले मिथ्यात्वरूपी निविड़ अन्धकार से आच्छादित होने के कारण प्रकृष्ट कर्तव्य-ज्ञान से विमुख हुआ यह जगत् संसाररूपी गड्ढे में पड़ा हुआ था, उसका तुमने ही नेत्र-कमल व हृदय-कमल को विकसित करने के कारण मनोज्ञ स्याद्वाद ( अनेकान्त ) रूपी रश्मियों ( किरणों अथवा आकर्षण की अपेक्षा से रज्जुओं ) से उद्धार किया ॥५॥ हे देव ! जिसके विशुद्ध मनरूपी स्वच्छ तहाग में तुम्हारे दोनों चरणकमल समीप में विराजमान हैं, उसकी
१. मन्दं। २. पूजाय। ३. चरणाग्रतः यदर्चनपीठं पुष्पप्रक्षेपस्याधारभूतमन्यत् पीठं च वर्तते तस्य संसर्गात् ।
४. कथयतु । ५. सूर्य रुद्रायः । ६. नेत्रकमलं हकमलं प। ५. किरणः आकर्षणापेक्षया रज्जुभिः ।
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अष्टम आश्वासः
सम्यग्ज्ञानत्रयेण प्रषिवितनिखिलशेयतस्वनपञ्चा: प्रोषय ध्यानवास: सकलमघरजः प्राप्सकयल्यरूपाः । करवा सत्योपकारं त्रिभुवनपतिभिदंतयात्रोत्सवा ये है सिद्धाः सन्तु लोकत्रयशिखरपुरीवासिम: सिर में यः ॥५२॥ बानज्ञानचरित्रसंयमनयप्रारम्भगर्भ मनः कृत्वान्तहिरिन्द्रियाणि मयतः संपम्प पञ्चापि च । पश्चाद्वीतविकल्पजालमखिलं भ्रस्थत्तमःसंतति पानं तप्रविधाय च मुमुखस्तेभ्योऽपि बद्धोजलिः ॥ ५३॥ इत्थं येऽत्र समुद्रकन्दरसर सोसस्विनीभूनमाहापानिमकाननाविषु प्रलम्यानावधान यः ।। फालेषु त्रिपु मुक्तिसंगममुषस्तुत्पास्विभिविष्टपैस्ते रत्नत्रयमनमानि स्वतां भव्येषु रहनाकररः ॥५४॥
(इलि सिक्तिः ) भोमध्यन्तरमयमास्करसरणोविमानाधिताः स्वज्योतिः कुलपर्वतान्तरबारमनप्रबन्धस्थितीः । वन्वे तत्पुरपालनोलिविलसद्रत्नप्रचीपारिताः साम्राज्याय जिनेन्दसिगणभुस्या यायिसाध्याकृती: ।। ५५ ॥
(ति चयक्तिः ) लक्ष्मी स्वयं सेवा करता है और स्वर्ग मोक्ष उत्पन्न करनेवाली यह सरस्वती निश्चित रूप से उसे वरण करती है ।। ५१॥
सिद्ध-भक्ति ऐसे वे सिच परमेष्ठी तुम्हारी सिद्धि ( मुक्ति) के लिए हों, जिन्होंने छद्मस्थ अवस्था में मति, श्रुत व अवधिज्ञान द्वारा समस्त जानने योग्य तत्वों को विस्तारपूर्वक जाना। पुनः शुक्लध्यान रूपी वायु के द्वारा समस्त पापरूपी धूलि को उड़ाकर केवलशान प्राप्त किया। पश्चात् जिन्होंने प्राणियो का उपकार किया । पुनः तीन लोक के स्वामियों ( इन्द्र-आदि) द्वारा जिनका निर्वाण-कल्याणक उत्सव किया गया और जो तोन लोक के अग्रभागरूपी सिद्धपुरी में निवास करनेवाले हैं। अभिप्राय यह है कि इस पत्र में जो तीर्थङ्कर होकर सिद्ध हुए हैं, उन्हें नमस्कार किया गया है ।। ५२ ॥ ऐसे जन सिद्ध परमेष्ठियों के लिए भो में अजलि ( हस्तसंपुट ) जोड़ता हूँ, जिन्होंने अपना मन, दान, ज्ञान, चारित्र, संयम व नयों के प्रारम्भ में स्थापित करके मन व स्पर्शनादि बाह्य इन्द्रियों का तथा पांच वायुओं (प्राण, अपान, समान, उदान' और व्यान ) का निरोध किया । फिर ऐसा शुक्लध्यान प्राप्त करके मुक्त हुए, जिसमें राग, द्वेष व मोहादि समस्त विकल्प समूह नष्ट हो चुके हैं और जो अज्ञानरूपी अन्धकार-परम्परा का विध्वंस करनेवाला है। भावार्थ-प्रस्तुत पद्य में जो सामान्य जन सिद्ध हुए हैं, उन्हें नमस्कार किया गया है ।। ५३ ।।
इसप्रकार समुद्र, गुफा, तडाग, नदी, पृथिवी, आकाश, द्वीप, पर्वत वृक्ष व वन-बादि में लगाये हुए ध्यान की संलग्नतारूपी ऋद्विवाले होकर जिन्होंने तीनों कालों ( भूत भविष्यत व वर्तमान ) में मुक्तिश्री के साथ प्रीतिपूर्वक संगम सेवन किया है, जो तीनों लोकों द्वारा स्तुति करने योग्य हैं और जो नाम्यग्दर्शन-आदि रत्नों को खानि हैं, वे सिख परमेष्टी भव्य प्राणियों के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्पयः चारित्ररूपी मङ्गल समर्पण करें ।। ५४ ।।
चैत्यभक्ति मैं ऐसी अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय च सर्वसाधुओं को प्रतिमाओं को स्वर्ग-आदि के साम्राज्य की प्राप्ति के लिए नमस्कार करता है, जो कि भवनवासी व व्यन्तरों के भवनों में, मानों के भवनों में, सूर्य१. छद्म स्थावस्थायां । २. धातात-प्राणापानव्यानोदानसमानान् । ३. ध्यानावधानमेव ऋद्धिर्मपां ।
४. मौमाः भवनवामिनः । ५. गिरणारादिषु पर्वततलेषू नयनेषु ?। ६. उपाध्याय ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'समवसरणवासान्मुक्तिलम्मीविलरमा सलसमयनाथा वाक्यविद्यासनाथान् । भनिगल विनाशोस्रोगयोगप्रकाशा निरुपमगुणभाषान्संस्तुवेऽहं क्रियावान् ॥५६॥ भवदुःखानलशान्ति धर्मामृतवर्षजनितजनशारितः१० । शिवशास्त्रिवशान्तिः शान्तिकारः१२ स्ताग्जिनःशान्तिः ॥५७ ॥ (इति शान्तितिः) मनोमात्रोधितायापि यः पुण्याय न बेटते । हताशप्प कथं तस्य कृतार्थाः स्युमनोरथाः ।। ५८ ॥ येषां तृष्णातिभिरभिरस्त स्वलोकावलोकात्पारेऽचारे प्रशमजलधेः सङ्गवाः परस्मिन । शव्याप्तिप्रसरविधु चिरावृत्तिप्रचारस्तेषाम विषिषु भवताद्वारिपूरः श्रिये षः ।। ५९ ।।
राषद प्रणिषितरणावन्तरारमाम्बरेऽस्मिन्नास्ते येव हरयतमलं भोवनिस्पन्सवत्ति।
तत्त्वालोकायगमगलित°ध्यान्तपन्धस्थितीमा मिष्टि सेवामहमुपनमे ३ पाइयोश्चन्दनेन ॥ ६ ॥ और देवों के श्रेणो विमानों में स्थित हैं, जिनका निवास स्वर्ग, ज्योतिषी देव, कुलाचल, पाताललोक, गुफाएं व गिरनार-आदि पवंत-तलों में है और जो उन नगर-स्वामियों के मुकुटों पर जड़े हुए रत्नरूपी दीपकों से पूजों गई है ।। ५५ ।।
पञ्चगुरु-भक्ति निया में उद्यत हुआ में, समवसरण में स्थित हुए अर्हन्तों की, मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ क्रीडा करनेवाले सिद्धा की, समस्त आगम के स्वामी आचार्यों को व व्याकरण-आदि विद्याओं से सहित उपाध्यायों की तथा ऐसे सर्वसाधुओं की स्तुति करता हूँ, जिनका ध्यानरूप प्रकाश संसाररूपी शृङ्खला को छिन्न-भिन्न करने के उद्योगवाला है एवं जिनमें अनोखे सम्बग्दर्शन-आदि गुण वर्तमान हैं ।। ५६ ।।
शान्ति-भक्ति ऐसे श्रीशान्तिनाथ भगवान् शान्ति । विघ्न-हरण ) करनेवाले हों, जो सांसारिक दुःखरूपी अग्नि को शान्त करनेवाले ( बुझाने वाले ) हैं, जिन्होंने धर्मरूपी अमृत की वृष्टि द्वारा जनता में शान्ति ( शैत्य ) उत्पन्न को है ब जो माक्ष-सुख में बाधक कर्मों ( ज्ञानावरण-आदि) के आस्रव को शान्ति (क्षय ) करनेवाले हैं ।। ५७॥ जो ऐसे पुण्य-संचय के लिए प्रयत्न नहीं करता, जिसकी प्राप्ति में केवल मन की विशुद्धि मात्र ही योग्य है, उम हताश ( दोन ) मानव के मनोरथ कैसे सफल हो सकते हैं ? ।। ५८ ॥
आचार्य-भक्ति उन आचार्यों को पूजाविधि में अपित किया गया जल-समूह तुम लोगों को लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए होवे, जिनका चित्तवृत्ति-प्रचार (आत्मा, इन्द्रिय और मन को केन्द्रित करने में कारणीभूत व्यापार...ध्यानादि) तस्व-समह के यथार्थ प्रकाश से तुष्णारूपी अन्धकार का नष्ट करनेवाला है और प्रशमलापी समद्र के उस पार (तट) च इस पार में वर्तमान है, अर्थात्-प्रशमरूपी समुद्र के मध्य में ही वर्तमान है एवं जो परिग्रह रूपी समद्र से उत्तीर्ण ( पार ) हो चुका है तथा जो वाद्य पदार्थों में प्रवृत्ति के प्रसार से रहित है ।। ५१ ।। १. अर्हतः । २. सिद्धान्। ३. परिपूर्ण । ४. सुरीन् । ५. उपाध्यायान् । ६. गृङ्खला। साधुनु ।
८. क्रियाराहातः। ९. विष्यापनं विध्याति-विधातीत्यर्थः । १०. शैत्यं। ११. अम। १२. विघ्नहरः । १३.५४. येषां चित्तवृत्तिपचार: प्रजमजलधेः पार गरकूल, अवारे अवाफूले च वर्तते, प्रशमसमुद्रमध्ये एव वर्तते इत्यर्थः । रानवार्धेः परिग्रहसमुनस्य पर पारं वर्तते तस्मादुत्तीर्ण इत्यर्थः । १५. प्रविश्लप च विकले विधुरं मुधियो विदुः । १६. आत्मन्द्रिवमानसां बरास नहेतुन्यापारः । १७. समूहः । १८. प्रकर्षे प्राप्त सति । १९, ध्यानसूर्य, प्रणिधिः प्रार्थने पर अवषानेऽपि । २०. ज्वान्तस्याज्ञानस्य प्रबंधः समूहः तस्य स्पितिः । २१. पूर्जा । २२. परिकल्पयामि ।
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अष्टम आश्वासः
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येषामन्सस्तवमृतरसास्वानमन्वप्रचार क्षेत्रामोशे विगतनिखिलारम्भसंभोगमावः । प्रामोऽक्षाणामुनुषित' इवाभाति योगीश्वराणां कुर्मस्तेषां कलमास: पूजन निर्ममाणाम् ॥ ६१ ।। वहारा मेऽप्युपरतषियः महिला प्रशान्तयेगा पमित पविता सहावामा तारः ! आस्मात्मीयानुगमविगमावृत्तयः गुरुयोधास्तेषां पुष्पंश्चरणकमलान्ययेयं शिवाय ।। ६२ ॥ येषामङ्ग मलयजरसः संगमः कभर्वा स्त्रीनिम्बोकः पितृवनधिताभस्मभिर्वा समानः । मित्रे शत्राकपि च विषये निस्तारङ्गी १०ऽनुपास्तेषां पूनाव्यतिकरविषाबस्तु भूय हविर्यः १५ ॥६॥ योगाभोगाचरणचतुरे होणकरवध स्वान्से वान्तोद्धरणसबिघे ज्योतियन्मेष भानि ।
संमोदेतामृतभुत इव क्षेत्रनायोऽन्तचर्यषां तेषु क्रमपरिचयात्स्याछिये यः प्रचोपः ॥६४॥
विशुद्ध आत्मारूपी आकाश में धर्मध्यानरूपो सूर्य प्रकर्ष का प्राप्त हो जाने पर जिनका हृदय कमल हर्ष से निश्चलता प्राप्त करता है, अर्थात्-आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता है और तत्वदर्शन व तत्वज्ञान से जिनके अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को स्थिति नष्ट हो चुकी है, उनके चरणों की चन्दन से पूजा करता हूँ ।। ६० ।।
हम ममत्व-रहित ऐसे आचार्यों की अक्षतों ( धान्य तगडलों) से पूजा करते हैं, जिनकी आत्माज, अध्यात्मरूपी अमृतरस के पान करने से बाह्य अनारमीय पदार्थों में मन्द गतिवाली हो जाने पर जिनका इन्द्रियसमूह, जिससे समस्त आरम्भ व काम-क्रोड़ा नष्ट हो चुकी है, ऊजड़ हुमा-सरीखा शोभायमान हो रहा है ।। ६१ ॥ मैं ऐसे आचार्यों के चरणकमलों को मोक्ष प्राप्ति के लिए पुष्पों से पूजा करता है, समस्त संकल्पों ( कामनाओं) के शान्त हो जाने से जो शरीररूपी परिग्रह में भी विरक्त बुद्धिवाले हैं, मोक्षस्थानरूपी अमृत को प्राप्ति हो जाने से जिनकी क्षुधा व तृषा-आदि को पौड़ा का सहन गर्व-रहित है और आत्मा में भी अपनेपन की भावना की उत्पत्ति के नष्ट हो जाने से जिनकी वृत्तियां शुद्ध बुद्धि वाली हो मई हैं६२ ।। ऐसे उन आचार्यों की पूजा की उत्सव विधि में अर्पण किया हुआ नैवेद्य तुम्हारी विभूति के लिए हो, जिन्हें अपने शरीर पर लगाया गया मलयागिर चन्दन का लेप अथवा कीचड़ों का लेप एक सरीखा है, अर्थात्-क्रम से हर्ष व विपाद के लिए नहीं है व जिन्हें स्त्रियों के बिलास या श्मशान भूमि को चिंता की राख समान है एवं मित्र व शत्रु के दृष्टिगोचर होने पर जिनका आशय कल्लोल-रहित ( राग-द्वेष-शून्य ) है, अर्थात् --जो मित्र से अनुराग व शत्रु से द्वेष नहीं करते ॥ ६३ ॥
जिनका मन जब ऐसा विशुद्ध हो जाता है, जो कि विस्तृत पोगों ( ध्यानां ) के पालन करने में प्रयोग है और कामदेव का गर्व विदोर्ण करनेवाला है एवं अज्ञानरूपी अन्धकार को न करने में तत्पर है। क्योंकि उसमें ज्ञानरूपी ज्योति उत्पन्न हो चुकी है, तब जिनकी अन्तरात्मा अमृतरस से भरी हुई-सी या चन्द्र-सी विशेष आनन्दित होती है, उनके चरणों की पूजा के लिए अर्पित किया गया दोप तुम्हारी थी-बुद्धि के लिए हो ॥६॥
१. क्षेत्राधीशे । २. उस इव । ३. 'असतः' टि० ख० 'सदकास्तण्डुलाः' इति पं०। ४. गमावरहितानां । ५. आरामः
परिग्रहः । *. 'दहारम्भे' इति ग०। ६. 'मिः पोडाजवोत्कण्टा भङ्गप्रकाशयोचिषु सुत्पिपासादिपीड़ा' टि० ख०, पञ्जिकाकारस्तु 'ऊर्मयः क्षुत्पिपासादयः' इत्याह । ७. गर्व । ८. विलासः । ९. इन्द्रियगोचरं । १०. निष्कल्लोला । ११. 'संगतिः' इति दि० ख०, पञ्जिकायां तु 'अनपरा आशयः' इति प्रौन। १२. नछ। १३. विदारित। १४. समीपे । १५. प्रादुर्भाव । १६.हत ।
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तथाहि-
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
येषां ध्येयाशयकुवलयानन्दचन्द्रोदयानां ओोषाम्भोधिः प्रमदसलिलमति नात्मावकाशे । लाप्येतामखिलभुवनेश्वर्यलक्ष्मी निरीहं चेतस्तेषामयमपचितो धेयसे वोऽस्तु धूपः ।।६५ ।। *से चिले वित करणेष्वन्तरात्मस्थितेषु " स्रोतः स्यूते बहिरनिलतो व्याप्तिशून्ये व पुंसि । पेषां क्योतिः किमपि परमानन्दसंदर्भ गर्भ जन्मच्छेदि प्रभवति' फस्तेषु कुर्मः सपर्याम् ||६६|| वाग्देवतावर बायपासकानामागामि सफल विद्याषिव पुण्यपुञ्जः । लक्ष्मी कटाक्ष मधुपागमन कहेतुः पुष्पाञ्जलिर्भवतु तच्चरणार्चनेन ॥६७॥ इपासकाध्ययने समयसमाचारविधिनांम पश्वत्रिंशत्तमः कल्पः ।
( इत्यर्यशक्तिः )
इदानीं ये १२ कृतप्रतिमापरिग्रहास्तान्प्रति स्नापमार्चन स्तव जपध्यान थुतदेवताराधनविधीन् षट् प्रवाहरिष्यामः ।
श्री वाग्वनितनिवासं पुण्यार्जन क्षेत्रमुपासकानाम् । स्वर्गापवर्गाग मलैकहेतुं जिनाभिषकाध्यमाषयामि ॥६८॥ भावामृतेन मनसि प्रतिलभ्धशुद्धिः ""पुण्यामृतेन च तनो नितरां पवित्रः ।
श्री विधिवस्तुविभूषितायां वेद्य जिनस्य सवनं विधिवत्तनोमि ||६९ ॥
ऐसे उन आचार्यों की पूजा में अर्पण किया हुआ धूप आप लोगों के कल्याण के लिए हो, जो मध्यजनरूपी कुवलय ( नीलकमल बार में पृतिदीपा ) को आदत वा निशित करने के लिए चन्द्रमा के उदय सरीखे हैं, जिनका ज्ञानरूपों समुद्र हर्षरूपी जल राशि से आत्मापरी स्थान में नहीं समाता एवं समस्त लोक को ऐश्वर्यं लक्ष्मी प्राप्त करके भी जिनका चित्त निस्पृह ( लालसा शून्य ) है || ६५|| हम ऐसे उन आचार्यो की फलों से पूजा करते हैं, जिनकी चित्तवृत्ति, जब चैतन्यस्वरूप आत्मा में लीन हो जाता है और जिनकी समस्त इन्द्रियाँ जब अन्तरात्मा में लीन हो जाती हैं एवं इन्द्रियों के प्रवाह वाली आत्मा जब अविच्छिनता से समस्त बाह्य प्रपंचों से रहिन हो जाती है तब जिन्हें ऐसी कोई अनिर्वचनीय ज्ञानज्योति उत्पन्न होती है, जिसके मध्य में उत्कृष्ट आनन्द की सृष्टि है, और जो जन्म-परम्परा के छेदन करने में समर्थ होती है ।। ६६ ।। ऐसी यह पुष्पाञ्जलि उस आचार्य के चरणों की पूजा करने से ऐसी मालूम पड़ती है मानों - यह सरस्वती देवी का वरदान हो है और मानों - यह भविष्य में प्राप्त होनेवाले पूजा के फल के लिए पुण्य-समूह ही है, यात्रकों की लक्ष्मी के कटाक्षरूपी भ्रमरों के आगमन का कारण हो || ६७ ||
इस प्रकार उपासकाध्ययन में पूजा विधि का बतलानेवाला पैतीसर्वा कल्प पूर्ण हुआ । अब हम जिनकी पूजा की प्रतिज्ञा करनेवाले श्रावकों को उद्देश्य करके अभिषेक, पूजन, स्तुति, जप, ध्यान व श्रुतदेवता की आराधना इन छह विधियों को कहेंगे
अभिषेक विधि
में ऐसे जिनेन्द्रदेव के अभिषेक के गृह ( जिनमन्दिर ) में प्रविष्ट होता हूँ, लक्ष्मी देवी का गृह है, श्रुतदेवता का निवास स्थान है च देवपूजादि करनेवाले श्रावकों के पुण्यार्जन का खेल है तथा स्वर्ग व मोक्षप्राप्ति का मुख्य कारण है ॥ ६८ ॥ में विशुद्ध परिणामरूपी जल से अपनी मानसिक शुद्धि प्राप्त करके और पवित्र जल
१. ध्येयायः भव्य मनः। २. हर्ष । ३. पूजायां । ४. आत्मनि चैतन्यरूपे । ५-७, स्रोतः प्रवाहेन्द्रियोः अविच्छिनतमा बाह्यरहिते पुंसि । ८. रचना । ९. उत्पद्यते ज्योतिः । १०. पूजा । ११. कटाक्षाः एव भ्रमराः । १२. जिनबिम्ब । १३. पवित्रजलेन । १४. 'सव: अभिषेक:' इति पञ्जिकाकारः ।
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अष्टमबाआश्वासः
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"उघड्मुतः स्वयं तिष्ठत्वामुख स्थापयेग्जिनम् । पूजाक्षप भवन्नित्यं यमी वाचंयक्रियः ॥७॥
प्रस्तावना पुराफर्म स्थापमा संगिधापनम् । पूजा पूजाफलं घेति षडविघं देवसेवमम् ॥७१॥ यः श्रीजम्मपयोनिधिमनसि च ध्यायन्ति यं योगिनो येनेवं भुवनं सनापममरा यस्मै नमस्फुर्वते । यस्मात्प्रादुरभच्च तिः प्रकृतिनो यस्य प्रसादारजना यस्मिन्नष भवाथयो यतिकरस्तस्यारमे स्नापनम् ॥७२॥
योतोपलेपवपुषो न मलानुषङ्गास्त्रलोक्यज्यचरणस्म कुतः 'परोऽय: । मोक्षामृते धृतषियस्तव वर्ष कामः स्नानं ततः "कमुषकारमिदं तनोतु ॥७३॥ तथापि स्वस्य पुण्यापं प्रस्तुऽभिषषं तय । को माम सूफ्फारार्थ फलार्षी विहसोद्यमः ॥७४॥
इति प्रस्तावना) "रत्नाभिः समानुभिगता शुद्धौ भूमो भगलमयदीनगृतकपास्य ।
कुर्मः १२ प्रजापतिमिकेतनविमुखानि क्षितप्रसवदर्भविवभितानि ।।७५॥ द्वारा शरीर में अत्यन्त पवित्र होकर अर्थात्-सकलीकरण व अनन्यास करके श्रीमण्डप में अष्ट मङ्गल द्रव्यों (छा व चमर-आदि ) से अलंकृत हुई वेदी पर थी जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक यथाविधि विस्तारित करता हूँ॥ ६९ ।। ऐसी प्रतिज्ञा करके पूजा करनेवाला श्रावक स्वयं उत्तर दिशा की ओर मुंह करके खड़ा हो और जिनबिम्ब का मुख पूर्व दिशा की ओर करके स्थापित करे एवं पूजा के समय सदा संयमो ( प्राणि-रक्षा करने वाला और इन्द्रियों को काबू में करनेवाला ) और मौन रखने वाला, अर्थात्-पूजा-मन्त्रों के उच्चारण के सिवा दूसरों से भाषण न करनेवाला होवे ।। ७० ।। देवपूजा के छह विधि-विधान है-प्रस्तावना, पुराकर्म, स्थापना, सन्निधापन, पूजा और पूजाफल ।।७।।
प्रस्तावना मैं उस जिनेन्द्रदेव का अभिषेक प्रारम्भ करता है, जो लक्ष्मी के जन्म के लिए समुद्र-सरीखे हैं, जिसे योगीजन अपने मन में चिन्तवन करते हैं, जिसके द्वारा यह समस्त लोक स्वामी-युक्त है. जिसके लिए समस्त देव-समूह नमस्कार करते हैं, जिससे द्वादशाङ्ग श्रुत का प्रादुर्भाव हुआ, जिसको प्रसन्नता से मानव पुण्यशाली होते हैं और जिसमें संसार का कारण कर्म-संबंध ( राग, द्वेष व मोहादि ) नहीं है १७२।। हे प्रभो ! आपके शरीर से आगन्तुफ मल के नष्ट हो जाने से आपका मैल से कोई संबंध नहीं है, तीन लोक द्वारा पूजनीय चरण-कमलवाले आपके दधि व दुग्ध-आदि प्रमुख पदार्थ पूज्यता के पात्र पवित्र किस प्रकार हो सकते हैं। इसी प्रकार मोक्षरूपो अमृत में स्थापित को हुई बुद्धिवाले आपमें जब किसी प्रकार की वाञ्छा नहीं है तब यह अभिषेक आपका क्या उपकार कर सकता है ? ॥ ७३ ।। तथापि मैं अपने पुण्य-संचय के लिए आपका अभिषेक आरम्भ करता हूँ; क्योंकि कोन धान्य-आदि फल का इच्छुक मानव धान्य-आदि पजनों के लिए अपना प्रयत्न नष्ट करनेवाला होगा? ।। ७४ ||
[ इस प्रकार प्रस्तावना कर्म समाप्त हुआ ! आगे पुराकर्म कहते हैं ] २. उत्तरदिन । २. 'स्नापनकरणे योग्यतास्मापन प्रस्तावना प्रस्तावः' टिन, 'स्नाधनकरणे योग्यतास्यापनं प्रस्तावना टि० च०, ५०। ३. धिगतागन्तुकमलस्य तव । ४. दुग्धदधिप्रमुखपदार्थः। ५. पूज्यतापात्रं पवित्रः फर्म ? ।' ६. याञ्छा न । ७. अपितुन कमपि । ८. रस्नमाहितजल, कुम्ममध्ये महार वा पञ्चरनं मिप्यते, मुद्रापण । २. दर्भाग्निप्रज्यालनं। १०. गृहीत । ११. सिक्त्वा 1१२. 'ब्रह्मस्थान-पीठस्थाननमुखानि' टि ख०, 'बास्थान प्रमुखानि' टि० घा, 'प्रजापतिनिकेतनं ब्रह्मस्थानं' इति पश्निकार्या । १३, गुम्फितानि ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये 'पायापूर्णान्कुम्भाकोणेषु सुपरलवप्रसूनाचान् । बुग्याम्वीमिव निर्भ प्रवालमुत्तोबणांवचतुरः ॥७॥
[ति,पुराकर्म] यस्य स्थान त्रिभुवनशिरशैक्षराने निसर्गात्तस्यामपंक्षितिभूति' भवेन्नादभुतं मानपोर्ट । लोकानन्दामृलजलनिर्वारि तरसुधात्वं पत्ते सबनसमये तत्र चित्रीमते कः ॥७७॥ तोर्पोदकर्मणिसुवर्णधटोपनीतः पीठे पवित्रवधि प्रतिकल्पिसाघे । "लक्ष्मों भुतागमन बोजविवर्भगर्भ संस्थापयामि भुवमाधिपति जिनेन्द्रम् ॥७८॥ (इति स्थापना) सोऽयं जिनः सुरगिरिननु १०पोठमेतबेतानि दुग्धजलधैः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव १ 'सवप्रतिकर्मयोगापूर्णा सतः कथमियं न महोत्सवभोः ॥७९॥ (दति सन्निधापनम् )
पुराकर्म
रत्न-सहित जलों ( जल से भरे हुए कलश-आदि में पंचरत्न क्षेपण किये जाते हैं-मुद्रार्पण ) से व दर्भाग्नि के प्रज्वालन से गृहीत शुद्धिवाली जिनेन्द्र को अभिषेक-भूमि में दुग्ध से धरणेन्द्रों को सन्तृप्त करके ब्रह्मस्थान ( सिंहासन ) की पूर्व-आदि दश दिशाओं को दूर्वा, अक्षत, पुष्प व डाभों से गुम्फित करते हैं ।। ७५ ॥ मैं वेदी के चारों कोनों में आम्रादि के पल्लवों से और पुष्पों से पूजित व जल से भरे हुए चार घटों को स्थापित करता हूँ, जो कि मूंगों और मातियों की मालाओं से युक्त होने के कारण क्षीर समुद्र-सरीखे हैं ।। ७६ ।।
[इस प्रकार पुराकर्म विधि समाप्त हुई ]
स्थापना जिस जिनेन्द्र का निवासस्थान स्वभाव से ही तीन लोक के मस्तक ( सर्वार्थ सिद्धि विमान ) के ऊपर मकूट-सरीखी सिद्ध शिला के ऊपर है, उसके अभिषेक का सिंहासन सुमेरुपर्वत पर है, इसमें आश्चर्य नहीं है। इसीतरह हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे अभिषेक के समय लोक के आनन्दरूपी क्षीरसमुद्र का यह जल यदि अमृत-पना प्राप्त करता है तो इसमें कौन आश्चर्य करता है ?॥७७॥
में ऐसे सिंहासन पर तीन लोक के स्वामी जिनेन्द्रदेव को स्थापित करता हूँ, जो कि मणि-जड़ित सुवर्ण कलशों से लाये हुए पवित्र जलों में प्रक्षालित किया गया है व जिसके लिए पूर्व में अर्घ-प्रदान किया गया है एवं जिसका मध्यभाग लक्ष्मी व सरस्वतो के बीजों द्वारा श्रीं ह्रीं का गुम्फन किया गया है, अर्थात्-जिसके मध्य में अक्षतों से घों ही लिखे गये हैं ।। ७८ ॥
[ इस प्रकार स्थापना-विधि समाप्त हुई ]
संनिधापन
यह जिनविम्ब ही निस्सन्देह वही समवसरण में विराजमान साक्षात् जिनेन्द्रदेव है व यह सिंहासन हो सुमेह है एवं कलशों में भरा हुआ यह पवित्र जलपूर ही साक्षात् क्षीर सागर का जलपूर है तथा तुम्हारे अभिषेकरूपी अलङ्कार की शोभा के संबंध से इन्द्र का रूप धारक में हो साक्षात् इन्द्र हूँ सब इस अभिषेक १. जल। २. 'मेरी' स०, 'सुरीले' पं०। ३. सिंहासन । ४. जल प्रशालित 1 ५, पोटस्थापि पूर्व अर्थः प्रदीयते ।
६. 'श्रीं। ७. ह्रीं। ८. अक्षतः धीकारी लिख्यते न तु गन्धेन । ९. 'गुम्फित, मिधित।' इति दि० ख०, 'लक्ष्मीश्रुतागमनबीजः श्रीसरस्वतीजीज: 'थीं, ह्री' इति पं० । १०. पीठमेव मेकः। ११. 'सवः अभिपेकः' इति पं०1
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महासाश्वासः
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मागेऽस्मिनाकनाय ज्वलन 'पितृपते अगमेय “प्रचेतो बायो "रवेशशेषोड़ पसपरिजना यूयमेत्य पहाणाः ।। मन्त्रः स्वः स्वघारिधिगतवलयः" स्वासु दिसूपविष्टाः । "पोपः क्षेमवक्षाः कुरत जिनसबोत्साहिना विघ्नशान्तिम् ।।८०॥ 'देहेऽस्मिन्निहितार्चने नियति'"प्रारम्षगीतध्वनाशसोचः स्तुतिपाठमङ्गसरवैश्चानन्धिनि प्राङ्गणे । मृत्स्नागोमय 'भूतिपिणहरिताधर्मप्रसूनामतरम्मोभिश्च समन्द जिनपते राजनां प्रस्तुवे ।।८१।। १ पुण्यनुमश्विरमयं नवपल्लवश्रीवघेतःसरः१४ १"प्रमदमवसरोजगभंम् । वागापगा । मम वृस्तरतीरमार्गा स्नानाभृतंजिनपतेस्त्रिजगप्रमोदः ॥८॥
ब्राक्षावर चोचन "प्राचीनामलकोद्भवः । राजावनाम्रपूगोत्य:१६ स्नापयामि जिनं रसः ॥८३|| महोत्सव की शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी ? ।। ७९ ॥
[ इस प्रकार सन्निधापन विधि पूर्ण हुई ]
पूजा इस अभिषेक महोत्सव में, हे रक्षण-चतुर इन्द्र, अग्नि, यम, नेऋति, वरुण, वायु, कुवेर, ईश, धरणेन्द्र तथा चन्द्र ! तुम लोग, जो कि ग्रहों ( सोम, मंगल, बुध, गुरु, शुक्र, धनेश्चर, रवि, राहु व केतु ) को प्रमुखता वाले हो, अपने परिवार के साथ आकर और 'भूः स्वः स्वधा-आदि मन्त्रों के द्वारा बलि { नैवेद्य ) प्राप्त किये हुए होकर अपनी-अपनी दिशाओं (पर्व, अग्निकोण, दक्षिण-आदि) में स्थित होकर शोघ्र ही जिनेन्द्र की अभिषेकविधि में उत्साहित हुए पुरुषों को विघ्न-शान्ति करो।
भावार्थ--जिनेन्द्र की अभिषेक-विधि को निर्विघ्न समाप्ति के लिए आचार्यश्री ने उक्त दिक्पालों व प्रहों का स्मरण मात्र किया है न कि उनकी पूजा की है ।। ८०॥
__ जिनेन्द्र-शरीर के पूजित हो जाने पर, भव्यों को प्रमुदित करनेवाले जिनमन्दिर के आंगन में, जो कि बाजों व स्तुतिपाठकों के मांगलिक शब्दों से गूंज रहा है एवं जिसमें गीतों की ध्वनि आरम्भ हो चुकी है, मैं प्रशस्त मिठो, जमीन पर न पड़ा हुआ गोबर-पिण्ड, भस्म-समूह, दूर्वा, दर्भ ( कुश), पुष्प, अक्षत, जल तथा चन्दन से जिनेन्द्र भगवान् की नीराजना { आरती ) करता हूँ। ८१ ॥
जिनेन्द्रप्रभु के तीन लोक को प्रमुदित करनेवाले अभिषेक जलों में मेरा यह पुण्यरूपी वृक्ष चिरकाल तक नवीन पल्लवों को शोभा युक्त हो और मेरे चित्तरूपी तडाग के मध्य में हर्षरूपी यथेच्छ कमल विकसित हों एवं मेरी वाणीरूपी नदी के तट का मार्ग दुस्तर हो, अर्थात्-उसे कोई पार न कर सके ।। ८२॥
___ में मुनस्कादाख, खजूर, नारियल, ईख, पका आँवला, राजादन (चिरोंजी या खिरनी ) आम्र व सुपारी के रसों से जिनेन्द्र का अभिषेक करता हूँ ।। ८३ ।।।
१. स्नापनविषौ । २. हे यम !। ३. हे नैऋते !। ४. हे वरुण ! । ५. हे धनद ! । ६. हे सोम ! ( चन्द्र ! )।
७. अधिगता प्राप्ता वलियस्ते । ८. दीघ्र । ९. जिन देह नीराजनां पारे । १०. सति । ११. भस्म । १२. दुर्वा । १३. भवतु इत्यध्याहार्य । १४. चिप्तमेव तड़ागं । १५. हर्ष। ११. नालिकरं। १७. 'पक्व' दि.स. 'माघीनामलवं पक्वफलविशेषः' इति पं० । १८. पूर्ण क्रमुकं ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
आयुः प्रजासु परमं भवतात्सदेव धर्मावबोध' सुरभिधिचरमस्तु नृपः । पुष्टि विनेय जनता वितनोतु फार्म हैयंगवीन सवनेन जिनेश्वरस्य ||८४ ॥ ये कर्मभुजङ्गनि विषविषो बुद्धिप्रबन्धो नृणां येषां जातिजरामृतिधयुपरमध्यानप्रपश्चाग्रहः । येषामविशुद्ध योषविभवालोके सतृष्णं मन्दस्ते धारोष्णपयःप्रवाहावरं ध्यायन्तु चैनं वपुः || ८५ ॥ जन्मस्नेहविपि जगतः स्नेहहेतुनि पुण्योपाये "मृकुगुणमपि 'स्वबलात्मबुतिः । चेतोजायं हरवपि दधि प्राप्त जायस्वभावं जंन्दरमानानुभवनवि मङ्गलं वस्तनोतु || ८६|| एलालवङ्गकङ्कोल मलयागमिश्रितैः । पिष्टः 'कस्के: १० कषायंश्च जिनदेहमुपास्महे ||८७॥ १ "नन्द्यावर्त स्वस्तिकफलप्रसूनाक्षताम्बुकुशपूलं । अबतारयामि देवं जिनेश्वरं
माश्च ॥८८॥
जिनेन्द्र के घृताभिषेक से प्रजाजनों की आयु सदैव चिरकालीन हो, राजा चिरकाल तक धार्मिक ज्ञान की सुगन्धि युक्त (गुणवान ) हो एवं शिष्यजन-समूह ( भव्य-समूह ) यथेष्ट समृद्धि विस्तारित करे || ८४ ॥ जिन मानवों को वृद्धि की अविच्छिन्नता ( सातत्य ), कर्मरूपी सर्पों को निर्विष करने में प्रवृत्त है। और जिसका जन्म हा धर्मध्यान के विस्तार में प्रगाढ़ अनुराग है एवं जिनका मन आत्मिक विशुद्ध केवलज्ञानरूपी ऐश्वयं के दर्शन के लिए उत्कण्ठित है, वे धारोष्ण दूध के प्रवाह से शुभ्र हुए जिनेन्द्र प्रभु के शरीर का ध्यान करें ।। ८५ ।।
दही संसार के जन्म संबंधी स्नेह ( प्रेम - अनुराग ) को नष्ट करनेवाला होकर के भी स्वभाव से स्नेह (प्रेम) का कारण है। यहाँ पर विरोध प्रतीत होता है; क्योकि | स्नेह को नष्ट करनेवाला है, वह स्नेह का कारण कैसे हो सकता है ? इसका परिहार यह है कि दही जिनेन्द्रप्रभु के अभिषेक के माहात्म्य से जगत की जन्मपरम्परा के स्नेह (अनुराग) को नष्ट करनेवाला है और अपि (निश्चय से ) वह स्वभाव से स्नेह (घी) का कारण है । इस प्रकार दही दान के अवसर पर मृदुगुणमपि ( कोमल होकर के भी ) स्तब्धलब्धात्मवृत्ति ( गर्व-युक्त - सदर्प नहीं है ) किन्तु कठिन है । यहाँ पर भी विरोध मालूम पड़ता है; क्योंकि जो कोमल प्रकृति है वह कठिन कैसे हो सकता है ? अतः इसका परिहार यह है कि जो मृदुगुणमणि ( कोमल स्वभाववाला है ) और अपि (free से) स्तब्धधात्मवृत्ति है ( कठिन स्थिर होकर हो जन्म प्राप्त करता है— जमता है) इसी प्रकार जो वेतोजाड्यं ह्ररदपि (चित्त की जड़ता - मूर्खता नष्ट करनेवाला ) होकर के भी प्राप्त जायस्वभावं (मूर्खताप्राप्त करनेवाला) है । यहाँ पर भी विरोध प्रतीत होता है; क्योंकि मूर्खता शून्य में मूर्खता किस प्रकार हो सकती है ? अतः इसका समाधान यह है कि जो चेतोजाड्यं हरत् ( चित्त को जढ़ता - आलस्य ) नष्ट करनेवाला है और आपे ( निश्चय से ) प्राप्तजाड्यस्वभावं ( सघनता प्राप्त करनेवाला या जलस्वभाव ) है, ऐसा दही जिनेन्द्रप्रभु के अभिषेक के माहात्म्य से तुम्हारा कल्याण विस्तारित करे ।। ८६ ।।
हम इलायची, लौंग, कोल (मुगन्धि जड़ी बूटी ), चन्दन व अगुरु इनके चूर्णो के कल्कों ( सुगन्धि जलों ) से और पकाकर तैयार किये हुए इनके काढ़ों से जिनेन्द्रदेव के शरीर की उपासना करते हैं ।। ८७ ।। १. सुगन्धः गुणवानित्यर्थः । २ घृतं । ३ पक्षं घृतं । ४. दाने । ५. कोमल मूहालू ? ६. सन किन्तु कठिनं वर्तते । ७. मूर्खस्वं न किन्तु सघनं । ८. मलयं चन्दनं । ९. त्वचूर्णः । १०. पंचप्रकारत्वक्वार्थः । ११. आश्रुत्य स्नपनं त्रिशोप्य तदिलां पीठयां चतुष्कुम्भयुक् कोणामों कुवात्रियां जिनपति न्यस्यान्तमाप्येष्टदिक् । नीराज्याम्बु रसाज्यदुग्धदधिभिः सिक्त्वा कृर्तनम् 1 सिर्फ कुम्भजबच गन्धसलिले सम्पूज्य नृत्त्रा स्मरेत् ॥२२॥ - सागारधर्मा० अ० ६ ।
*. एलादिचूर्णकल्ककपायैरुव त्यं कृतमन्द्याबधिवतारणं । संस्कृत टो० सागार० वर्मा० ० ६ । १२. शरावपुः ।
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अष्टम आश्वासः
भक्तिभरविनतोरगनरसुरासुरेश्वरविरकिरीटकोटिकल्पतरूपल्लवायमानचरणयुगलम्. अमृताधानाङ्गनाफरविकीर्यमाणमन्चारममेरुपारिजातसंतानकयनप्रसूनस्पन्दमानमकरन्दस्वाबोन्ममिलनमसालिकुलप्रसापोत्सालित' निलिम्पाकप्ति'च्यापारिगलम, अम्बरधरकुमारहेलास्फालितवणवल्लकोपणमानकमृबङ्गशलकाहलत्रिमिलतालझल्लरोभेरो भम्भाप्रभृत्य नवधि धन शुधिर सलाय नवाघनादनियक्तिनिखिलविष्टपाधिपोपासनावसरम, अनेकामर विकिरकुलकोणकिशालयायोकानोफुहोल्लसत्प्रसवपरागपुनहतप्तफल दिवपाल हृदयरागप्रसरम्, अखिल भुवनेश्वर्यलाञ्छनासपत्रत्रय शिखण्डमण्डनमणिमयूख रेखालिस्यमान 'मखमुखरखेचरीशालललतिलपत्रम, अनवरतयक्षविक्षिप्यमाणोभयपक्षचामरपरम्पराशुजालपसितविनेयजनमनःप्रासावचरित्रम्, अशेषप्रकाशितपदार्याप्तिशायिशारीरप्रभापरिवेषमुषित परिवत्समास्तारx. मतितिमिरनिकरम्, अमवधिवस्तुविस्तारात्मसाक्षात्कारासारबिस्फारितसरस्वतीतरङ्गसङ्गत पितसमस्तसस्वसरोजाकरम्,
नश्याम
नन्द्यावर्तक, स्वस्तिक, फल, पुष्प, अक्षत, जल और कुश-समूह से तथा सराव पुटों ( सकोरों ) से जिनेन्द्रप्रभु को अवतारित करता हूँ ।। ८८ ||
जिनके चरणयुगल भक्ति के भार से नम्रीभूत हुए घरणेन्द्र, चक्रवर्ती, इन्द्र व असुरेन्द्रों के मस्तकों पर धारण किये हुए मुकुटों के अग्रभाग पर कल्पवृक्ष के पल्लव-सरीखे आचरण करते हैं। जिन्होंने ऐसे मतवाले भ्रमर-समूह की गुञ्जायमान ध्वनि से उत्कण्ठित किये गए देवों के गले संगीत करने के व्यापार-युक्त किये हैं, जो कि देवियों के हस्तों द्वारा क्षेपण किये जा रहे मन्दार, नमेस, पारिजात व सन्सानक कल्पवृक्षों के वनों के पुण्यों से प्रवाहित हो रहे एयरस का पान करते से मतवाले टोकर एकत्रित हो रहे थे। जि बद्याधरकुमारों द्वारा क्रीड़ापूर्वक बजाये जानेवाले बाँसुरी, वीणा, पणव ( ढोल या तबला), भेरी, नगाड़ा, मृदङ्ग, शङ्ख, बड़ा कोल, विविल (वाचविशेष), ताल ( मंजीरा), झांझ, मेरी व भम्भा ( हुडुक्का ), आदि एवं बेमर्याद घन ( तालादि ), शुषिर ( वंश-आदि ), तत ( वीणादि ), अवनद्ध ( मुरजादि ) को ध्वनि द्वारा समस्त विश्व के स्वामियों ( इन्द्र-आदि ) के लिए उपासना करने का अवसर सूचित किया है। जिन्होंने अनेक देवों व पक्षिसमूह द्वारा क्षेपण की हुई कोपलोंवालं अशोकवृक्षों की शोभायमान पुष्पधूलि से समस्त दिक्पालों के हृदयों का प्रेम-विस्तार द्वि-गुणित किया है। जिनके द्वारा स्तुति करने में बाचाल हई विद्यारियों के ललाट-तल की तिलकरचना, समस्त लोकों के ऐश्वर्य के चिह्नरूप सोन छत्रों के मस्तक पर अलंकृत हुई मणियों की किरणपक्ति द्वारा चित्रित की जा रही है। जिन्होंने शिष्यजनों के मनरूपी महल का चरित्र ( आचरण व पक्षान्तर में मार्ग ) निरन्तर यक्षजाति के देवों द्वारा दोनों वाजू दोरी जानेवाली चामरों की श्रेणी के किरण-समूह से शुभ्र किया है। जिन्होंने समस्त प्रकाशशील पदार्थों को अतिक्रमण करनेवालं अपने शारीरिक कान्ति के परिवेश { घेरा) द्वारा समवसरणसभा के सभासदों को बुद्धि का अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह नष्ट किया है।
अनन्त पदार्थों के विस्तार को प्रत्यक्ष करनेवाले केवलज्ञानरूपी आसार ( जलवृष्टि ) से बढ़ी हुई सरस्वत्तोरूपी नदी को तरङ्गों के संसर्ग से जिन्होंने समस्त प्राणीरूपी कमल-समूह को अत्यन्त सन्तुष्ट किया है ।
१. उत्सुकीकृत । २. गीत । ३. 'हड्डुक्का' पं०, 'नफेरी' टि० छ। ४. तालादिकं । ५. वंशादि ।
६. वीणादि । ७. मुरजादि । ८. पक्षी। ९. नप। *. 'हृदयपरागपसरं क०। १०. मस्तक । ११. स्तुति । १२. ललार्ट। १३. 'समज्यापरिपगोष्ठी सभा समितिसंसद: । आस्थानी क्लीवमास्थानं स्त्रीनपंसवयोः सदः ।। टि०ख०, परिषत समवसरणसमा' इति पं०। १४. 'सभासदः सभास्वारः सम्याः सामानिकाश्च ते। टिस 'वृषाः' इति पं०।
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यशस्तिलकचम्पूका
इभारातिपरिवृढोपवाह्यमानासनावसानलग्न रहन कर सरपल्लवित वियत्यावपाभोगम्, मनुजविभिजभुजङ्गेन्द्र न्ववन्द्यमानपावारविवयुग लम्
मद्भाविलक्ष्मीलतिकावनस्य प्रवर्धनाषमित 'वारिपुरं । जिनं चतुभिः स्वपयामि कुम्भं नभःसवो धेनुपघोषराः ॥ ८९ ॥
लक्ष्मीपते समुल्लस जनानन्यः परं पल्लव धर्माराम फलैः प्रकामसुभगस्त्वं भव्ययो भव । "धाषीश विमुच संप्रति मुह कर्मधर्मक्लमं त्रैलोक्यप्रभवावहै जिनपते गंत्योदर्कः स्नापनात् ॥९०॥ शुद्धं विशुद्धयोषस्य जिनेशस्योल सेवक" करोम्य भूयस्नानमुत्तरोत्तरसंपवे ॥९१॥
"अमृतकृत कणिकेऽस्मिन्निजाडूबीजे "कलाब से क्रमले संस्थाप्य पूजयेयं त्रिभुवनवरदं जिनं विधिना ।। ९२ ।।
४००
१०
अनन्यसामान्यसमवसरणसभासौन
जिन्होंने सिंह- स्वामी द्वारा धार्यमाण आसन (सिहासन) के अन्त में जड़े हुए रत्नों को किरणों के प्रसार से आकाश रूपी विस्तृत वृक्ष को पल्लवित किया है एवं अनोखी समवसरणसभा में स्थित हुए चक्रवर्ती, इन्द्र व घरणेन्द्रों के समूह द्वारा जिनके दोनो चरणकमल वंदनीय किये जा रहे हैं ।
जिनमें मेरी भविष्य में होनेवाली लक्ष्मीरूपी लता के वन को वृद्धिंगत करनेवाला जलपूर ग्रहण किया गया है ( भरा गया है ) व जिनकी कान्ति देवों की कामधेनु के स्तनों सरीखी शुभ्र है, ऐसे चार कलशों से पूर्वोक्त जिनेन्द्रप्रभु का अभिषेक करता हूँ* ॥ ८९ ॥
जिनेन्द्रप्रभु के तीन लोक को आनन्ददायक गन्धोदकों के अभिषेचन से हे लक्ष्मीरूपी कलालता ! तुम मनुष्यों के आनन्दरूपी पल्लवों से उल्लास को प्राप्त हो जाओ । हे धर्मरूपी उद्यान ! तुम फलों से अत्यन्त मनोज्ञ होकर भव्य प्राणियों द्वारा सेवनीय हो जाओ और हे ज्ञानवान् आत्मा ! तुम अब दुष्कर्मरूपी सन्ताप को ग्लानि को चार बार छोड़ो ।। २० ।।
में केवलज्ञानी जिनेन्द्रप्रभु का शुद्ध व श्रेष्ठ जलों से अभिषेक करके सर्वोत्कृष्ट लक्ष्मी को प्राप्ति के लिए यज्ञान्तस्नान ( अभिषेक करने के पश्चात् स्नान करके अष्टप्रकारी पूजा की जाती है, यह कम है) करता हूँ ।। २१ ।।
में, सोलह पांखुड़ीवाले, जिन ( पांखुड़ियों) में अकार आदि सोलह स्वर ( अ, आ, इ, ई, उ, क, ऋ, ऋ, लृ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं, अः ) लिखकर चिन्तवन किये गए हैं, कमल पर, जिसकी कणिका पकार ( प व्यञ्जन ) से निर्मित हुई हैं, अर्थात् — जिसकी कणिका में पकार लिखकर चिन्तवन किया गया है, जिसके ( कणिका के ) मध्य अपना नाम स्थापित किया गया है, अर्थात् जिसमें विशुद्ध आत्मद्रव्य या
प्रभु या हूँ को स्थापित करके चिन्तवन किया गया है, तीन लोक को अभिलषित वस्तु देनेवाले जिनेन्द्रप्रभु को विधिपूर्वक स्थापित करके उनकी पूजा करता हूँ ।
भावार्थ - शास्त्रकारों ने धर्मध्यान के चार भेद निर्दिष्ट किये हैं। पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातील ।
१. सिंहः । २ गम । ३. उपात्तः । ४. कामधेनुः । ५. हे त्वगुल्लासं प्राप । ६. सह । ७. हे आत्मन् ! । ८. मेघजालैः सड़ागादानीतैः' टि० ख०, 'उत्तरोदक: मेघोदकः हंसोदक' इति पं० । ९. यज्ञान्तस्नानं अभिषेके कृते सति पुनः स्नात्वा पश्चादष्टप्रकारी पूजा क्रियते इति क्रमः । १०-११-१२. 'पकारेण (पवर्ण) कणिका क्रियतं तन्मध्ये स्वकीयं नाम निक्षिप्यते षोडशदलेषु अकारादयः स्वराः लिक्ष्यन्ते' टि० ० ० ० । 'अमूलं पवर्णः कला अकारादयः पोखया' इति पं० । * रूपक व उपमालंकारः ।
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अष्टम आश्वास
૪૦o
पिsस्थ ध्यान में विवेकी व संयमो धार्मिक पुरुष को पार्थिवी, आग्नेयी, श्वसना, वारुणी और तत्त्वरूपवती इन पाँच धारणाओं — ध्येयतस्त्रों का ध्यान, दुःखों को निवृत्ति के लिए करना चाहिए।
पार्थिवी धारणा में मध्यलोकगत स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त तिर्यग्लोक के बराबर, निःशब्द, तरङ्गों से रहित और बर्फ सरीखा शुभ्र ऐसे क्षोर समुद्र का ध्यान करे। उसके मध्य में सुन्दर रचना-युक्त, अमित दीप्ति से सुशोभित, पिघले हुए सुवर्ण के समान प्रभा-युक्त, हजार पत्तोंवाला, जम्बूद्वीप के बराबर और मनरूपी भ्रमर को प्रमुदित करनेवाला ऐसे कमल का चितवन करे । तत्पश्चात् उस कमल के मध्य में सुमेरुपर्वत के समान पीतरंग की कान्ति से व्याप्त ऐसो कणिका का ध्यान करें । पुनः उसम शरत्कालीन चन्द्र-सरीखा शुभ्र और ऊंचे सिंहासन का चिन्तवन करके उसमें आत्मद्रव्य को सुखपूर्वक विराजमान, शान्त और क्षोभरहित, राग, द्वेष व मोह आदि समस्त पाप कलङ्क को क्षय करने में समर्थ और संसार-जनित ज्ञानावरण आदि कर्म-समूह को नष्ट करने में प्रयत्नशील चिन्तन करे । इति पार्थिवी धारणा !
आग्नेयो धारणा में निश्चल अभ्यास से नाभिमंडल में सोलह उन्नत पत्तोंवाले एक मनोहर कमल का और उसकी कणिका में महामन्त्र ( हैं ) का, तथा उक्त सोलह पत्तों पर अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, लृ, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अ: इन सोलह अक्षरों का ध्यान करे ।
पश्चात् हृदय में आठ पांखुड़ीवाले एक ऐसे कमल का ध्यान करें, जो अधोमुख ( गधा ) हो ओर जिसपर ज्ञानावरण- आदि आठ कर्म स्थित हों ।
पश्चात् पूर्वचिन्तित नाभिस्थ कमल को कणिका के महामन्त्र की रेफ से मन्द मन्द निकलती हुई घूम को शिखा का, और उससे निकलती हुई प्रवाहरूप स्फुलिङ्गों की पंक्ति का, पश्चात् उससे निकलती हुई ज्वाला की लपटों का चिन्तवन करे। इसके बाद उस ज्वाला (अग्नि) के समूह से अपने हृदयस्थ कमल और उसमें स्थित कर्म-समूह को जलाता हुआ चिन्तवन करे। इस प्रकार आठ कर्म जल जाते हैं, यह ध्यान को ही सामथ्र्य है ।
पश्चात् शरीर के वाह्य ऐसी त्रिकोण वह्नि (अग्नि) का विस्तवन करे, जो कि ज्वालाओं के समूह से प्रज्वलित बड़वाल के समान, अग्नि बीजाक्षर 'र' से व्याप्त व अन्त में साथिया के चिन्ह से चिन्हित क मण्डल से उत्पन्न, घूम-रहित और सुवर्ण- सरीखी कान्तियुक्त हो । इस प्रकार धगधगायमान फैलती हुई लपटों के समूह से देदीप्यमान बाहर का अग्निपुर, अन्तरङ्ग को मन्त्राग्नि को दग्ध करता है ।
तत्पश्चात् यह अग्निमंडल उस नाभिस्थ कमल आदि को भस्मीभूत करके दाह्य जलाने योग्य पदार्थ का अभाव होने के कारण स्वयं शान्त हो जाता है । इति आग्नेयो धारणा
मारुती धारणा में ध्यानी संयमी मनुष्य को आकाश में पूर्ण होकर संचार करनेवाले, महावेगशाली, महाशक्तिशाली, देवों की सेना को चलायमान करनेवाला और सुमेरुपर्वत को कम्पिल करनेवाला, मेघों के समूह को बखेरनेवाला, समुद्र को क्षुत्र करनेवाला, दशों दिशाओं में संचार करनेवाला, लोक के मध्य में संचार करता हुआ और संसार में व्याप्त ऐसे वायु मंडल का चिन्तवन करे । तत्पश्चात् उस वायुमंडल द्वारा कर्मों दग्ध होने से उत्पन्न हुई भस्म को उड़ाता हुआ ध्यान करे। पुनः उस वायु मंडल को स्थिर चित्तवन कर उसे शान्त करे । इति मारुती धारणा ।
वारुणी धारणा में ध्यानी मानव, ऐसे आकाशतत्व का चिन्तवन करे, जो कि इन्द्रधनुष और बिजली
५१.
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४०२
यशस्तिलकचम्पूकाव्य पुण्योपार्जनशरणं पुराणपुवर्ष लबोधितावर पाम् । पुरुहतधिहिलसेवं पुरदेवं पूजयामि तोयेन ॥१३॥ मन्दमवमधनवमनं मन्दरगिरिशिखरमज्जनावसरं । कब मुमालतिकायापचन्दनर्वाचितं जिनं कुर्षे ॥१४॥ अवमतव्यहनबहनं निकामसुल संभवामृतस्मानम् । आगमबीपालोक कलमभवस्तन्दुलर्भजामि जिनम् ॥१५॥ स्मरसविमुस्तक्ति विज्ञानसमुद्र मुखिताशेषम् । श्रीमानसकलहंस कुसुमधारैरर्चयामि जिननायम् ।।१६।।
को पर्जना-आदि चमत्कारवाले मेघों के समूह से व्याप्त हो । इसके बाद अर्धचन्द्राकार, मनोज्ञ और अमृसमय जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुणमंडल ( जलतत्त्व) का ध्यान करके उसके द्वारा उक्त कर्मों के क्षय से उत्पन्न होनेवाली भस्म का प्रक्षालन करता हुआ चिन्तवन करे। इति बारुणो धारणा ।
तस्वरूपवती धारणा में संयमी व ध्यानी पुरुष सप्तधातु-रहित, पूर्णचन्द्र के सदश कान्ति-युक्त और सर्वज्ञ के समान अपनो विशुद्ध आत्मा का ध्यान करें।
इति सत्त्वरूपवती धारणा। इस प्रकार अभी तक पिंडस्थ ध्यान का संक्षिप्त विवेचन किया गया है, अन्य पदस्थ-आदि का स्वरूप ज्ञानार्णव शास्त्र से जान लेना चाहिए।
विस्तार के भय से हम यहाँ उसका संकलन नहीं करते। प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि प्रस्तुत पद्य में आचार्यश्री ने आग्नेयो व तत्त्वरणपती बारणा का वाचन मामा पुनर का निरूपण किया है * ॥१२॥
मैं ऐसे प्रथम तीर्थङ्कर आदिनाथ भगवान् को जल से पूजा करता है, जो कि पुण्योपार्जन के मूह हैं, जो पुराण पुरुष हैं, जिनका चारित्र स्तुति के योग्य हैं और जिनकी पूजा इन्द्रों द्वारा की गई है ।। ९३ ॥ जो प्रचुर दपंवालं काम का दमन करनेवाले हैं, जिनको सुमेरुपर्वत को शिखर पर अभिषेक का अवसर प्राप्त हुआ है और जो कीर्तिरूपी लता की जड़ हैं, उन जिनेन्द्रदेव को हम चन्दन के लेप से पूजित करते हैं ।। ९४ ॥ मैं ऐसे जिनेन्द्र को धान्य-तण्डुलों ( अक्षतों) से पूजा करता हूँ, जो दोष ( राग-आदि ) रूपों वृक्षों के वन को भस्म करने के लिए अग्नि-सरीम्से हैं, जो अनंतसुख को उत्पत्ति के लिए मोक्ष-सदृश हैं और जिनमें आगम ( द्वादशाङ्ग श्रुत ) रूपी दीपक का प्रकाश वर्तमान है ।। १५ ।।
जिनकी सुत्तियाँ ( वचन ) राग से रहित हैं, जिन्होंने ( केवलज्ञान ) रूपी समुद्र द्वारा समस्त लोक को वेष्टित किया है और जो लक्ष्मीरूपी मानसरोवर के राजहंस हैं, उन जिनेन्द्र प्रभु को पुष्पों से पूजा करता हूँ ।। ९६ ।। मैं ऐमे अहंन्त भगवान् को नवेद्य से पूजा करता है, जिनको नीतियाँ-नय-अनन्त हैं, अर्थात् जो
१. गृहम् । २. पृष्हूतः दाक्रः । ३. आदिदेवं ।
४. प्रचुरवपसहितकाम । ५ कीर्ति । ६. दोपः । ७, संभवाय मोक्षसदा । ८. रागाद्विमुक्ता सूक्तिर्वचनं यस्य सः तं। १. वेष्टित । *. प्रस्तुत लेखमाला 'नीतिबाक्यामृत' ( हमारी भाषा-टीका ) आन्वीक्षिकीसमुद्देश पृ० १.१, १०२ से संकलन की गई है-सम्पादक
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अधम आश्वासः
४०३ महन्तममिसनीति निरञ्जनं मिहिरमाधियावानेः । आराधयामि हषिमा मुक्तिबोरमितमामसमजनम् ।।९७।। भक्त्या नतामराशपकमलवनारालतिमिरमातवटम् । जिनमुपधरामि चोपः सकलसुनाराम कामवमकामम् ।।१८।। अनुपमकेवलवपुष "सकलकलाविलयतिरूपस्पम् । योगावगम्पमिलयं यजामहे "निखिलगं जिनं धूपः ॥१९।। स्वर्गापवर्गसंगतिविधायिनं व्यस्तजाप्तिमृतिदोषम् । योमचरामरपतिभिः स्मृतं फलजिनपतिमुपासे ॥१००। अम्भश्चन्चनतन्दुलोद्ग महविपः सधूपः फलरचिस्या विजगद्गुरु शिनपति सानोत्सवानन्तरम् । तं तौमि प्रजपामि देतसि वषे फुर्व अतारापन लोक्यप्रभवं च तन्महमहं कालत्रये श्रद्दधे ॥१०१॥ 'यजर्मुवाव' यभाग्निरूपास्य देवं पुष्पाञ्जलिप्रफरपूरितपावोठम् । श्वेतारापत्रथमरीचवर्पणार्थ राराधयामि पुनरेनमिनं जिमानाम् ॥१०२॥
( इति पूजा) अनन्त नयों के स्वरूप के प्रतिपादक हैं, जो निरञ्जन ( राग, द्वेष व मोहरूपी अञ्जन से रहित-वीतरागविशुद्ध ) हैं, जो मानसिक व्याधिरूपी दाबानल अग्नि को बुझाने के लिए मेघ-सरीखे हैं, जिनका मन मुक्तिरूपी लक्ष्मी के साथ अनुरक्त है और जो कामदेव-सरीखे मनोज्ञ हैं ।। ९७ ॥
में ऐमे जिनेन्द्रदेव की दीपों से पूजा करता है, जो कि भक्ति से नमीभूत हुए देवों के चित्तरूपी कमल-वन का विषमान्धकार ( निविड़ अज्ञानान्धकार व पक्षान्तर में विकसित न होना) नष्ट करने के लिए सूर्य-सरीखे हैं, जो समस्त सुखों के लिए उद्यान रूप हए अभिलषित वस्तू देनेवाले हैं एवं जो काम-वासना से रहित हैं ॥ ९८ ।। हम ऐसे जिनेन्द्रदेव को धूप से पूजा करते हैं, जिनका अनोखा केवलज्ञान और अनोखा परमीदारिक पारोर है, समस्त भावकर्मों (रागादि) के नष्ट हो जाने पर जो रूप रहता है, उसी काप ( केवलशान स्वरूप ) में जो स्थित हैं और जिनका स्थान ( मोक्ष ) ध्यान के द्वारा जानने योग्य है एवं जो केवलज्ञान की अपेक्षा समस्त पदार्थों में व्यापक है ।। ९९ ।।
मैं ऐसे जिनेन्द्र को फलों से उपासना ( पूजा ) करता है, जो कि स्वर्गश्री व मुक्तिश्री के साथ संगम करानेवाले हैं, जिन्होंने जन्म व मरणरूपी दोष नष्ट कर दिये हैं और जो विद्याधरों के स्वामियों व देवेन्द्रों द्वारा स्मरण किये गये हैं ॥१००।1 अभिषेक-समारोह के पश्चात् तीन लोक के गुरु श्रीजिनेन्द्र को जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दोप, घूप व फलों से पूजा करके मैं उनकी स्तुति करता हूँ, उनका नाम जपता है, उन्हें अपने चित में स्थापित करता हूँ एवं द्वादशाङ्ग श्रुत को आराधना करता हूँ तथा तीन लोक में उत्पन्न होने वाले उस यज्ञोत्सव की तीनों कालों में अनुमोदना करता हूं, अर्थात्-जहाँ कहीं यज्ञ ( पूजा होता है, उसको में अनुमोदना करता हूँ।। १०१ ॥ यज्ञान्त स्नान किया हुआ मैं जिनका पादपीठ ( चरणों के पास का स्थान ), पुष्पाञ्जलि-समूह से भरा हुआ है, उन जिनेन्द्रदेव की पूजा द्वारा हर्षपूर्वक उपासना करके पुनः मैं उनकी श्वेत छत्र, कमर व दर्पण-आदि माङ्गलिक द्रव्यों से आराधना करता हूँ ।। १०२॥
[ इस प्रकार पूजा समाप्त हुई, आगे पुजा का फल बतलाते हैं
१. मेधं। २. विपगावकार। ३. वातिप्रदं। ४. कलाः भावकागि तामां विलये विनाशे सति, सकलकलाविलये
वर्तते यदा जसलामाविकपकांत तिष्ठतोति तत्स्थं केवलज्ञानसम्पमित्यर्थः। ५. सर्व केवलज्ञानापेक्षया सर्वव्यापकं । ६. गुप्प । ७. त्रैलोक्ये प्रभवः उत्तनिर्यस्य महस्य स नं। ८. पत्र कुत्रापि यशो वर्तते लमनुमानयामि । ९. पूजाभिः। १०. यशान्तस्नानं ।
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૪૪
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
aftafai जिनचरणयोः सर्वसत्वेषु मंत्री सर्वातिथ्ये मम विभवपीव्रं द्धिरमात्मतत्त्वं । द्विषु प्रणयपरता चित्त परायें भूपादेतद् भवति भगवन्धाय यावत्त्वदीयम् ॥ १०३ ॥ प्राप्तविधिस्तव पवरम्बुजपूजनेन मध्याह्नसंनिधिरियं मुनिमाननेन । सायंतनोऽपि समय सारिका धर्मेषु 'धर्मनिरतात्मसु धर्महेती धर्मादाप्तमहिमास्तु नृपोऽनुकूलः 1
११४
नित्यं जिनेन्द्रचरणानपुण्यधन्याः कामं प्रजाश्च परमां श्रियमाप्नुवन्तु ॥ १०५ ॥ आलस्याद्वपुषो हृषीकहर व्यक्षिपतो बात्मनश्चापल्यात्ममसो मते अंडतया मान्धेन वाक्सौष्ठवं ।
( इति पूजाफलम् )
म करिव संस्तवेषु समभूवेध प्रमादः स मे मिथ्या स्तान्नतु देवताः प्रणयिनां तुष्यन्ति भक्त्या यतः ॥ १०६ ॥ देवपूजा निर्माण मुनीननुपचयं च । यो भुञ्जीत गृहस्थः सन्स भूजीत परं तमः 1180911
पासकाने मपमानविधिर्नामि पत्रिशः कल्पः ।
नमरमर मोलमालिनांशुनिक रगगनेऽस्मिन् । 'अरुणायतेऽङ्घ्रियुगलं यस्य स जीयाज्जिनो वेवः ॥ १०८ ॥
पूजा - फल
हे भगवन् ! जब तक आपका केवलज्ञानरूप प्रकाश मेरी आत्मा में प्रकट हो तब तक जिन भगवान् के चरणों में मेरो भक्ति हो, समस्त प्राणियों में मेरा मैत्रीभाव ( दुःख उत्पन्न न होने की अभिलाषा ) हो । मेरी धन-वितरण को बुद्धि समस्त अतिथियों के सत्कार में संलग्न होवे, मेरी बुद्धि अध्यात्मतत्व में लीन रहे, मेरो विद्वानों के प्रति प्रेम-तत्परता हो तथा मेरी चित्तवृत्ति परोपकार करने में प्रवृत्त हो ॥ १०३ ॥ हे देव ! मेरी प्रातःकालीन विधि आपके चरणकमलों की पूजा से सम्पन्न हो, मध्याह्न वेला का समागम साधुओं के सन्मान में व्यतीत हो एवं मेरी सायंकालीन वेला भी सदा आपके चारित्र कथन की कामना में व्यतीत हो ॥१०४॥ | धर्म के आचरण से प्रभावशाली हुआ राजा धर्मं ( उत्तम क्षमा- आदि), धार्मिक जन (भुति आदि ) धर्म साधनों (चैत्यालय, मुनि, शास्त्र व संघ ) के विषय में सदा अनुकूल रहे और सदा जिनेन्द्र के चरणकमलों की पूजा से प्राप्त हुए पुण्य द्वारा पुष्यशालिनी हुई जनता यथेष्ट उत्कृष्ट लक्ष्मी प्राप्त करे ॥ १०५ ॥ हे देव ! शरीर के आलस्य से या इन्द्रियों का दूसरी जगह उपयोग के चले जाने से आत्मा की दूसरे कार्य में व्याकुलता के कारण, मानसिक चञ्चलता से, बुद्धि की जड़ता से और वचनों के स्पष्ट उच्चारण की मन्दता के कारण तुम्हारी स्तुतियों में मुझ से जो कुछ प्रमाद हुआ है, वह मिथ्या हो । क्योंकि निस्सन्देह देवता तो अनुरक्तों की भक्ति से सन्तुष्ट होते हैं ।। १०६ ।।
जो मानव गृहस्थ होकर के भी देवपूजा किये विना और साधुओं की सेवा किये बिना भोजन करता है, वह महापाप खाता है ।। १०७ ।।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में अभिषेक व पूजन विधि नामका छत्तीसवां कल्प समाप्त हुआ । ऐसे वे जिनेन्द्र देव जयवन्त हों, जिनके चरण-युगल नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटों के समूह में खचित रत्न-किरणों के समूहरूपी आकाश में सूर्य- सरीखे आचरण करते हैं ।। १०८ ।। जिनके चरणों के नखों का किरण समूह, इन्द्राणी के श्रोत्रों पर स्थित हुई कल्पवृक्ष को ईषद्विकसित मञ्जरी - जैसा मनोज्ञ है, वे जिनेन्द्र
१. धार्मिके । २. चैत्यालय मुनिशास्त्र संघेषु । ३ प ४ सूर्यवदाचरति ।
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सुरपतिमुवतिय'वसाममरतहस्मेश्मरीचिरम् | चरणमाक्षिरणजालं पस्यस अयताजिनो जगति ॥१०९।। वर्ग:-विविजकुञ्जरमोलिमन्दारमकरन्धस्व नि, करविसरसारधूसरपदाम्बुज,
वग्धोपरमय प्राप्तवावजयविजितमनसिज ।।११०॥ मामा-यहरवामिसगुणं जिन कविधस्साधितोषः स्तोसि विपश्चित् ।
मूगमप्तौ ननु काञ्चनर्शलं तुलयत्ति हस्तेनाचिरकालम् ।।१११॥ स्तोत्रे यत्र महामुनिपक्षाः सकलैतिहामुधिषिषिवताः । मुमुचुश्चिन्तामनवधियोषास्तत्र कयं ननु माग्योपाः ।।११२॥ तबपि ववेयं किमपि जिन स्वयि यद्यपि शक्तिर्मास्ति तथा मयि ।
यवियं भक्ति मौमस्थ व न काम कुरुले स्वस्पम् ।।११३।। चतुष्पदी-सुरपतिविरचितसंस्तव दलिताखिलभव परमधामलायोवय ।
कस्तव जन्तुर्गुणगगमघहरचरण प्रषितनुतां हतनतभय ॥११४।। जय नलिलानलिम्पाप जमतीस्ततकीतिशलतप17 अय परमधर्महम्यांवतार सोकत्रितयोखरणकरार ११५॥
प्रभु जगत में जयवन्त हों ।। १०९ ॥ जिनके चरणकमल देवेन्द्रों के मुकुटों पर स्थित हुए मन्दारजाति के कल्पवृक्षों के पुष्पों के मकरन्द ( पुष्प-रस ) के स्यन्दकारो ( बहनेवाले ) प्रसार ( फैलाव ) के सार से ईषत्पाण्डु (कुछ शुभ्र ) किये गए हैं, विद्वत्ता में सर्वोत्कृष्ट होने से जिन्होंने वाद ( शास्त्रार्थ ) में विजय श्री ( अथवा टिप्पणीकार के अभिप्राय से क्रोति लक्ष्मो ) प्राप्त की है और जो कामदेव को जीतनेवाले हैं, ऐसे हे जिनेन्द्रदेव ! ॥ ११० ।। सीमितज्ञानी जो कोई विद्वान् अपरिमित गुणवान् आपकी स्तुति करता है, वह शौघ्र हाथ से सुमेरुपर्वत को तोलता है ।। १११ ।। समस्त आगमरूपो समुद्र के अवगाहन करने में निपुण, असीम ज्ञानधारी महामुनि-समूह भी जब जिस प्रभु की स्तुति करने का विचार छोड़ चुके तब निश्चय से मुझ-सरोम्ना अल्पज्ञानी आपकी स्तुति करने का विचार किस प्रकार कर सकता है ? ।। ११२ ।। हे जिनेन्द्र ! यद्यपि मेरे में आपकी स्तुति करने की शक्ति नहीं है तथापि कुछ कहता हूँ, क्योंकि आपकी यह भक्ति मौन धारण करनेवाले मुझे यथेष्ट सुखी नहीं करती ॥ ११३ ।।
जिनको इन्द्रों ने स्तुति को, जो समस्त संसार-परिभ्रमण को नष्ट करनेवाले हैं, जिन्होंने सर्वोत्तम मोक्षस्थान के कारण प्रातिहार्य-आदि वेभव प्राप्त किया, जिनके चरण पाप-नाशक हैं एवं जो भक प्राणियों का भय नष्ट करनेवाले हैं, ऐसे हे प्रभो। कौन मानब आपके गुण-समूह का विस्तार से कथन कर सकता है॥ ११४ ।। जो समस्त
समस्त देवों को स्तसि के ग्रन्थरूप हैं और जो समस्त पथिवी के द्वारा स्तति की गई कीतिरूपी कामिनी के लिए पाय्यारूप है, ऐसे हे प्रभो ! आपकी जय हो । जो उत्कृष्ट धर्म के अवतार में प्रासादप्राय हैं और जिनको अद्वितीय शक्ति तीन लोक के उद्धार करने में समर्थ है, ऐसे हे जिन ! आपकी जय हो 11 ११५ ॥
१. कर्णानां । २. ईषद्विकसित। ३. देवप्रधान | *. 'स्यन्दकर' स०। ४. स्यन्दकारी विसरः प्रसारः, मन्दारपुष्याणां
मकरन्दसमूहासारसारण घुसर: ईपत्पाण्डकृतः । ५. पदे प्रामोदादे मशः येन । ६. शीन। ७. 'समहाः महामुनयः एव' ख.. 'पक्षाः समूहः' टि० च०। ८. कर्ता । *. 'देव निकामं कुरुते स्वस्थ' का० । ९. अपि तु न कश्चित् तब गुणसमूह प्रवितनुतां । १०. स्तुति । ११. मन्थ । १२. शध्या । १३, धर्मस्य प्रासादप्रायं। १४. 'साये मज्जास्थिराशयोः बले रेष्टे च' दि० स्व.। 'सार: स्यात्म जनि बले स्पिरांशेऽपि पृभानयम्। सारं न्याय्ये जले विस्ते सारं स्याहाच्यबरेंइति विश्वः' इति संकलनं सम्पादकस्य ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये जय लक्ष्मीकरकमलपिताङ्ग सारस्वतरसमटमाटघरना। जय बोषमध्यसिहाखिलाय मुक्तिश्रीरमोरतिकृताचं ॥११६॥ ममवमरमौलि मन्दिरतटान्तराजपवनखनक्षत्रकान्त । वियुधस्त्रीनेत्रामविबोध भकरमजपनु स्ववनिरोध ॥११७।। बोपत्रयवितितविभपतन्त्र नागपेक्षा वापर पषतः प्रबोषमभन्जनत्य गुरुरस्ति कोऽपि किमिहारुणस्य ।।११८॥ निजबीजालान्मलिनापि महति घीः यदि परमामभव भजति ।
युक्तः घनकाश्मा भवति हेम१२ कि कोऽपि तत्र विश्वेत नाम ।।११९॥ हे लक्ष्मी के करकमलों द्वारा पूजित शरीरवाले, हे सारस्वत रसरूपी नट के अभिनय के लिए रङ्गमञ्च-सरीखे प्रभो ! आपको जय हो। हे केवलज्ञान द्वारा समस्त पदार्थों के ज्ञाता और है मुक्तिलक्ष्मोरूमी कामिनी के साथ रतिविलास करने से कृतार्थ हुए प्रभो! आपको जय हो ।। ११६ ॥ नमस्कार करते हुए देवों के मुकुटरूपी सुमेरु-तट के प्रान्तभाग में जिनके चरण-नखरूपी चन्द्र सुशोभित हो रहे हैं, जो देवियों के नेत्ररूपी कमलों को विकसित करते हैं, जो कामदेव के धनुष का गर्व रोकने वाले हैं, ऐसे हे प्रभो! आप जयवन्त हो ॥ ११७ ।। जैसे इस लोक में प्राणि-जनों का जागरण करनेवाले मूर्य का क्या कोई गुरु है ? वैसे हो मति, श्रुत व अवधिज्ञान के द्वारा जानने योग्य बस्तु-समूह को जाननेवाले हे प्रभो ! तुम्हें भी किसी गुम को अपेक्षा नहीं हुई ।। ११८ ।
जैमिनीय मत-समीक्षा हे संसार- रहित प्रभो ! अज्ञान-आदि दोषों से मलिन बुद्धि भी आपमें ज्ञान-ध्यानादि उपादान कारणों को सामर्थ्य से उस प्रकार अत्यन्त शुद्धि ( केवलज्ञान ) प्राप्त करती है जिस प्रकार मलिन सुवर्णपाषाण उपाय ( अग्निपुट-पाकादि ) से शुद्ध सुवर्ण हो जाता है, इसमें क्या कोई भी ( जैमिनीय आदि दार्शनिक) विवाद कर सकता है ? ॥ ११९॥
भावार्थ-जैनदर्शनकार स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है, कि किसी पुरुष-विशेष ( तीर्थङ्करआदि ) में अज्ञान-आदि दोषों व उनके कारणभूत ज्ञानावरण-आदि कर्मों की समूलतल ( जड़ से ) हानि उसको नष्ट करनेवाले आत्मिक कारणों (ज्ञान-ध्यानादि उपायों) द्वारा उस प्रकार होती है जिस प्रकार सुवर्ण-पाषाण का वाह्य व माभ्यन्तर मल उमको नष्ट करनेवाली कारणसामग्री ( अग्नि-पुटपाकादि उपाय ) द्वारा नष्ट हो जाता है।
हे प्रभो! जैसे परिमाण (आकार ) आकाश में अपनो वृद्धि की चरमसीमा ( महापरिमाणपन ) प्राप्त करता है वैसे ही वुद्धि भो किसी महापुरुष ( तीर्थङ्कर-आदि ) में अपने विकास की चरमसीमा ( केवल
१. केवलजान I *. 'मन्दरतटान्त' ०। २. चन्द्रः शोभमान एव चन्द्रः । ३. विकासकर्ता। ४. गर्व । ५. 'परिच्छे.
यवस्तु-तन्त्र शास्त्र कुलं तन्वं तन्वं सिवौषधिकिया। तन्त्र मखं वलं तवं तन्ध पवनसाधनं टिक ख. 'सन्त्र संप्रदायः' इति दि०व०। ६. गुरौ। ७. जागरणं । ८. सूर्यस्य । ९. जानध्यानादिसामात । १०.धीः। ११.त्याय विषये। १२. जैमिनीयो निरस्तः । *. तथा च स्वामी समन्तभद्राचार्य:दोषावरणयाहानिः निःशेषास्टपतिशायनात् । क्वचिद्यथा स्वहेतुभ्योहिरन्तर्मलक्षयः ॥ १ ॥
देवाममस्तोत्र से संकलित-सम्पादक
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परिमाणमिवातिशयन वियति मतिरुच्चनरि गवतामुपैति । तद्विश्ववेदिनिन्वा द्विजस्य विश्राम्यत्ति चित्ते देव कस्य ॥१२०॥ कपिलो यदि वाञ्छति' वित्तिमचिति' 'सुरगुरुगी म्फेबवेश पतति । चितन्यं बाह्यग्राह्यरहितमुपयोगि कस्य पद तत्र विवित ॥१२॥ भूपवन बनानलतत्वकेषु १२षिषणो निगणाति विभागमेषु ।
न पुनविधि ५ तद्विपरीतधर्मधाम्न "ब्रोति तत्तस्य ? कर्म ॥१२२।। ज्ञान ) प्राप्त करती है, इसलिए मोमांसक ने जो सर्वज्ञ की आलोचना की है, वह किसी के भो चित्त में नहीं उत्तरती।। १२०॥
सांख्यदर्शन-मीमांसा हे विख्यात प्रभो! जब सांख्य बुद्धि को जड़रूप प्रकृति का धर्म ( गुण ) मानता है तब यह चतुर्भूत ( पृथिवी, जल, अग्नि व वायु) के स्थापक चार्वाक के वचनों ( सिद्धान्तों ) में आ गिरता है। अर्थात्-जिस प्रकार चार्वाक ( नास्तिक ) बुद्धि को पृथिवी, जल, अग्नि व वायु इन चार मूतों से उत्पन्न हुई ( देहात्मिका, देह-कार्य व देह-गुण } मानता है उसी प्रकार सांस्य भी बुद्धि को जहरूप प्रकृति से उत्पन्न हुई मानता है, इसलिए ॐ चाक-मस की मानत होता है। उस
दीवारण के लिए यदि सांख्य यह कहता है कि हम तो स्वतन्त्र पुरुषतत्त्व ( आत्मपदार्थ ) मानते हैं, जो कि चैतन्यस्वरूप को लिए हुए है, तब उक्त दोप केसे आ सकता है। उसका उक्त कथन भी विरुद्ध है, क्योंकि जब सांख्य का चैतन्य वाह्य घट-पटादि पदार्थों के ज्ञान से शून्य है, तब हे प्रभो ! आप उसे उस चैतन्य के विषय में कहिए कि उसका वह अर्थक्रिया-हीन चेतन्य किसके उपयोगी होगा? अर्थात-जब वह वाह्य पदार्थों के जाननेरूप अर्थ-क्रिया नहीं करता तव अर्थक्रिया-शून्य होने से वह खर-विषाण ( गधे के सोंग ) की तरह असत् सिद्ध होता है ॥ १२१ ।।
भावार्थ-सांख्यदर्शनकार ने निम्नप्रकार पच्चीस तत्त्व माने हैं। १. प्रकृति, २. महान् ( बुद्धि ), ३. अहंकार (अभिमानवृत्ति-युक्त अन्तःकरण ), अहंकारसे उत्पन्न होनेवाले १६ गण ( पाँच तन्मात्रा-शब्द, स्पर्श, रूप, रस व गन्ध व ग्यारह इन्द्रियाँ ( पाँच ज्ञानेन्द्रिय-चक्षुरादि-पांच कर्मेन्द्रिय-वाक्, पाणि, पाद, पायु, उपस्थ ) व मन एवं पांच तन्मात्राओं से उत्पन्न होनेवाले पाँचभूत (पृथिवी आदि ) अर्थात्-शब्द से आकाश, रूप से तेज, गन्ध से पृथिवी, रस से जल व स्पर्ग से वायु सलान्न होती है। इस प्रकार चौबीस पदार्थ हए
और पच्चीसो पुरुषतत्त्व ( जीवात्मा), जो कि अनादि, सूक्ष्म, चेतन, सवंगत ( व्यापक ), निर्गुण, कूटस्थनित्य, दृष्टा, भोका ब क्षेत्रवित है। विशेष यह कि सांख्यदर्शन को मीमांसा पूर्व में ( आ० ५ पू०१५२-१५३ श्लोक ६२ व उसके बाद का मद्य तथा पृ० १५७-१५८ श्लोक नं० ८५-८९) कर चुके हैं, वहाँ से जान लेनी चाहिये।
१. जिन-निन्दा । २. सांख्यः । ३. ज्ञान, बुद्धि । ४, अचेतने प्रधान इति यावत् । ५ बावकिय वनषु चतुर्भूतस्थापकेषु
पतति । ६. बीत चतम तदपि विरुद्धं तदपि प्रोग्यमतपंटनं । ७. कार्यकारक । ८. कथय । ९. चैतन्यविषये । १०. हे विख्यात । ११. जल । १२. बृहस्पतिः । १३. कथयति । १४. विभेदनं ज्ञानं। १५. आत्मनि ज्ञानं न कथयति । १६. तस्मादचेतने जीवस्थापनाद्विपरीनधर्म। १७ इदं घिपणास्य पागं वर्तते । *, तथा प्रोक्तम-'प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्मादृगणश्च पोशकः । तस्मादपि पोजशफाल्पघ्चम्यः पञ्चभूतानि ।।
{मा० का २२ ) सर्वदर्शन संग्रह पृ. ३१९ से गंकलित-सम्पादक
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यशस्तिलकचम्पूकाव्यै
विज्ञानप्रमुखाः सन्ति "विमुचि न गुणाः किल यस्य यो याचि । तस्यैपुमानपि मं तत्र दाहाद्दहनः क इहापरोऽत्र ॥ १२३ ॥ “धरणीघरघरणिप्रभूति सृजति ननु निपगृहावि "गिरिशः करोति । चित्रं तथापि यत्तचांसि लोकेषु भवन्ति महायशांसि ॥ १२४॥
चार्वाक दर्शन-मीमांसा
चार्वाक - गुरु वृहस्पति ज्ञान को पृथिवी, वायु, जल व अग्नि इन चार अचेतन ( जड़ ) भूतों का धर्म ( गुण ) कहता है, किन्तु उनसे विरुद्ध धर्मवाले, अर्थात् — अचेतन (जड़) पृथिवी आदि भूतों से विपरीत धर्म ( चैतन्यगुण) के स्थानवाले आत्मा का धर्म ( गुण ) नहीं मानता यह उसी बृहस्पति का ही पाप है ।
भावार्थ - चार्वाकदर्शन* को मान्यता है कि 'अब तक जियो तब तक सुखपूर्वक जीवन यापन करो क्योंकि संसार में कोई भी मृत्यु का अविषय नहीं है। अभिप्राय यह है जब मृत्यु अवश्यम्भावी है तब तपश्चर्याआदि का क्लेश सहन व्यर्थ है। शरीर ही आत्मा हो क्योंकि उससे भिन्न आत्मद्रव्य को प्रत्यक्ष प्रमाण द्वारा प्रतोति नहीं होती। इसलिये जब मरणकाल में शरीर ही भस्मीभूत हो गया। अतः इसका परलोक-गमन ( मरण) व जन्मान्तर प्राप्ति ( अन्य जन्म ) नहीं है । यह पृथिवी, जल, तेज व वायु इन चार भूतों की चार पदार्थ मानता है और जिस प्रकार महुआ, गुड़, व जल आदि पदार्थों से उत्पन्न हुई सुरा में मदशक्ति उत्पन्न होती है उसी प्रकार शरीराकार परिणत हुए पृथिवी आदि चार भूतों से चैतन्य ( ज्ञान ) शक्ति उत्पन्न होती है एवं शरीर के नष्ट हो जाने पर चैतन्य भी नष्ट हो जाता है। विशेष यह कि हम नास्तिक दर्शन को विस्तृत मीमांसा पूर्व में ( आवास ४० ५१-५२ श्लोक ४५-४७ एवं आश्वास ५ पृ० १६३-१६५, श्लोक ११३१२६ तक ) कर चुके हैं ॥ १२२ ॥
वैशेषिक दर्शन की मुक्ति-मीमांसा
जिस कणाद ऋषि (वैशेषिक दर्शनकार ) के सिद्धान्त में यह न्याय है कि "निश्चय से मुक्तजीव में विज्ञान (बुद्धि) व सुख-आदि गुण नहीं हैं, उसके यहाँ मुक्ति अवस्था में जीवतत्त्व सिद्ध नहीं होता क्योंकि जिस प्रकार लोक में उष्णता के विना अग्नि सिद्ध नहीं होती उसी प्रकार विज्ञान आदि गुणों के विना मुक्त अवस्था में जीव भी सिद्ध नहीं होता । क्योंकि गुणों के विना गुणवान् द्रव्य कैसे सिद्ध हो सकता है ?
भावार्थ — वैशेषिक दर्शनका मुक्ति अवस्था में मुक्त जीव में बुद्धि व सुख-आदि विशेष गुणों का अत्यन्त अभाव मानते हैं । यह युक्ति संगत नहीं, क्योंकि ऐसा मानने से मुक्ति में जोब द्रव्य शून्य सिद्ध हो जाता है ॥ १२३ ॥
सृष्टिकर्तृत्व-मीमांसा
जब महेश्वर पर्वत व पृथिवी आदि पदार्थों की सृष्टि करता है तब निश्चय से उसी शिव को घट व १. मुरुषो वे विज्ञानादयो गुणाः न वर्तते । २. यस्य दीवस्य कणादस्य याचि सिद्धान्तं --- नयो न्यायोऽस्ति । ३. जीवोऽपि नास्ति तस्मिन् मते, दाहादुष्णत्वं विना यथाऽग्निर्नास्ति तथा ज्ञानादिगुणान् विना आत्मापि नास्ति 1 ४. गिरिप्रभूति यदि वस्तु सुजति सहि घटादीनपि सूजति । ५ रुष्टः । ६. शैववचांसि वचनानि ।
*.
तथा चोक्तम् - यावज्जीवं मुखं जीवेनास्ति मृत्योरगोचरः । भस्मीभूतस्य वहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ १ ॥
सर्वदर्शनसंग्रह ० २ से संकलित - सम्पादक
1. तथा कोकम् – अशेषविशेषगुणोच्छेदो मोक्ष इति वैशेषिकाः सर्वदर्शनसंग्रह ( उपोद्घात) १० ७८ से संकलित---
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अष्टम आश्वासः
पुषत्रयमवलासक्तमूति तस्मात्परस्तु' गतकायफीतिः । एवं सति नाय कयं हि सत्रमामाति हिताहितविषयमत्र ॥१२५॥ 'सोनं योऽभूवं मालवयसि निश्चिन्तक्षणिकमतं जहासि । "संतानोऽप्यत्र न *वासनापि यन्वयभावस्तेन नापि ॥१२६॥ 'चित्तं न विचार फमक्षजनितमखिलं *सविकल्प स्वाशपतित
'मुदितानि "वस्तु नैव स्पृशन्ति शाश्याः कथमारमहितान्युशन्ति ॥१२७॥ व गृह-आदि को सृष्टि करनी चाहिए, आश्चर्य है फिर भी उसके वचन ( वेदादि ) मनुष्य-समूह द्वारा विशेष कीर्तिशाली ( प्रामाणिक ) माने जात है।
भावार्थ-जब सदाशिव पृथिवी-आदि को सृष्टि करता है तब बही घट व गृहादि को सृष्टि क्यों नहीं करता? और ऐसा होने से कुंभार व बढ़ई-आदि से क्या प्रयोजन रहेगा? इसको मीमांसा पूर्व में (आ० ५ पु० १६१ ) को जा चुकी है ॥ १२४ ।।
वेद की ईश्वर कर्तृत्व-मान्यता की समीक्षा हे स्वामिन् ! श्री ब्रह्मा, विष्णु व महेश तो तिलोत्तमा, लक्ष्मी व गौरी में आसक्त हैं, जिसस रागादि दोषों से दूषित होने के कारण अप्रमाण है ) और उनसे भिन्न परमशिव शरीर-रहित है। ऐसी स्थिति में उस परमशिव से हिताहित के प्रदर्शक वैद की सृष्टि किस प्रकार हो सकती है ? ॥ १२५ ॥
बौद्धदर्शन-समीक्षा 'जो मैं बाल्यावस्था में था, वही मैं युवावस्था में हूँ मदि इस प्रकार एकत्व मानते हो तो हे बौद्ध ! तुम अपने क्षणिक सिद्धान्त का त्याग करते हो। उक्त दोषके निवारण के लिए वादो ( बौद्ध ) यह कहता है, कि यद्यपि क्षणिक आत्मादि वस्तु नष्ट हो जाती है, परन्तु उसको सन्तान या वासना बनी रहती है, जिससे उक्त बात संघटित हो जायगी। उक्त विषय पर विचार करते हैं, कि आपके यहाँ सन्तान या वासना भी घटित नहीं होती। अर्थात्---जो जीवक्षण प्रथम समयमें ही समूल नष्ट हो चुका, उससे अन्य जीवक्षण उत्पन्न नहीं हो सकता। जिस प्रकार आपके क्षणिकवाद में सन्तान नहीं है उसी प्रकार वासना ( संस्कार ) भी नहीं है। क्योंकि विद्यमान पदार्थ में सन्तान या वासना संघटित होती है, न कि सर्वथा समूलतल नष्ट हुए पदार्थों में । अत: आपका कथन विरुद्ध पड़ता है। क्योंकि अनुक्रम से उत्पन्न होनेवाली पूर्वापर पर्यायोंमें व्यापक रूप से रहनेवाले आत्म द्रव्य संबंधी अन्वय के विना सन्तान या बासना नहीं बन सकती ।। १२६ ॥
बौद्ध के प्रमाणतत्व की मीमांसा :. आपका समस्त पांच प्रकार का इन्द्रिय-जनित निर्विकल्पफ ज्ञान विचारक नहीं है और इससे दूसरा १. परः परम एव शिवः । २. वायरहितः । ३. सोऽहं इति मन्यसे चेत्तहि क्षणिकमतं जहासिरे बौद्ध ।।
४. यो जीवः प्रथमसमये विध्वंसं प्राप्तः तस्माजीमादन्यो जीवो नोत्पद्यते । एवंविषः सन्ताननिषधोऽस्ति भवन्मने । * मवन्मते यथा सन्तानो नास्ति तथा वासनापि नास्ति तहि कथमुच्यते बासनया ज्ञानमुत्पद्यते स भवतः सर्वमसम्बद्धं । ५. अनुक्रमेणोत्पन्नेयु । पंजीवाजीव उत्पयते तहि तेन कारणेनास्मन्मतेऽपि आदमा विवर्तते । ६, अविकल्पं जाने। 'तन्त्र निर्विकल्पकमिव पविकल्पमपि न विचारफम्, पूर्वापरपरामर्दाशून्यत्वादमिलापसंसर्गरहितत्वात्। अष्टसहस्त्री पृ० १४ से संकलित-सम्पादक । *, निर्विकल्पं । ७. ससन्देहं पंचप्रकारं । ८. आत्मस्वरूपादि बर्तते । ९. योद्धोक्तानि । १०. जोवादि । ११. वदन्ति ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये १ अद्वैत तत्त्वं वदति कोपि मुखिया षियमातनुते न सोऽपि । यत्पनहेतुवष्टान्तवचनसंस्थाः कुतोऽत्र शिवशर्मसदन १२८।। "हेताबमेकधर्मप्रविशत्याति जिनेश्वरतरसिद्धि- ।
'मन्यापुन रखिलमतिय्यतोतमुद्राति सर्व मुलनयनिकेत ॥१२९॥ पांच प्रकार का सविकल्पक ज्ञान अपने प्रमाण स्वरूप से भिन्न (संदिग्ध ) है। इसलिए हे भगवन् ! जब बौद्धों द्वारा कहे हुए प्रमाणतत्त्व या वचन जीवादि वस्तु का स्पर्श नहीं करते तव बौद्धानुयायो आत्महित किस प्रकार कहते हैं ?
भावार्थ-बौद्धों ने कहा है, कि इन्द्रिय-जनित निर्विकल्पक प्रत्यक्ष सत्य ( प्रमाण । है। क्योंकि वह बाह्मण-आदि को कल्पना से शून्य है और सविकल्पक ज्ञान भ्रम रूप है, क्योंकि उसमें कल्पितरूप से वस्तु प्रतीत होती है, जिससे सभी को ऐकमत्य नहीं होता | इस प्रकार बौद्ध दर्शन में जब प्रमाणतत्व वस्तु निश्चायक नहीं है तब वहाँ आत्म-हित कैसे संभव हो सकता है? || १२७ ।।
ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ( बौद्ध विशेष ) मत-समीक्षा हे मोक्ष-सुख के गृह प्रभो ! जो कोई (ज्ञानाद्वैतवादी योगाचार ) भी अद्वैत तत्व (क्षणिक ज्ञानमात्र ) को कहता है । अर्थात्-जो समस्त चराचर जगत को भ्रमरूप मानकर केवल क्षणिक ज्ञान परमाणु-पुञ्जरूप तत्व मानता है, वह भी विद्वानों को बुद्धि को प्रभावित नहीं कर सकता; क्योंकि इस अद्वैत तत्व में प्रतिज्ञा, हेतु व उदाहरण को स्थिति किस प्रकार संघटित हो सकती है ?
भावार्थ-'रागादि से भिन्न शुद्ध जीवतत्व नहीं है, जिस प्रकार अङ्गार से कृष्णता पृथक् नहीं है । प्रस्तुत वादी की यह मान्यता अयुक्त है, क्योंकि प्रतिवादी ( जैन ) द्वारा स्वीकार किये हुए निम्नप्रकार पक्ष, हेतु व उदाहरण वर्तमान हैं। 'रागादि से भिन्न शुद्ध जीवतत्व है' यह पक्ष या प्रतिज्ञा हुई, क्योंकि परमसमाधिस्य महापुरुषों द्वारा शरीर-परिमाण, रागादि से भिन्न, चिदानन्दैक स्वभाव वाले शुद्ध जीवतत्व की उपलब्धि देखी जाती है। यह हेतु ( युक्ति ) हुआ। 'कालिकास्वरूपस्वर्णवत्' अर्थात्-जिस प्रकार किट्ट कालिका से पृथक् शुद्ध सुवर्ण उपलब्ध है, यह दृष्टान्त-वचन ( उदाहरण ) हुआ । इस प्रकार प्रतिपक्ष-हेतु-उदाहरण समझना चाहिए ।। १२८॥
अति की सिद्धि के लिए हेतु को मान लेने से उसके साथ में हेतु के पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्व-आदि १. ज्ञानमात्रमेकमेव । २. बौद्धविशेषः । ३. चमत्कारं । हे. 'हेतोरवंतसिद्धिश्चंद ऐनं स्पाखेनुसाध्ययीः । हेतुना चेट् विना सिद्विवेत दाङ्मावतो न किम् ॥ २६ ॥-आप्तमीमांसा ।
४. 'अङ्गारात् काण्यवत् रागादिभ्यो भिन्नो जीवो नास्ति' इति यद् भणितं तदयुक्त कथमिति चेत्-'रागादिभ्यो भिन्नः शुद्धजीवोऽस्ति इति पक्ष: आस्था सन्धा-प्रविज्ञा इत्यनान्तरं, परमसमाधिस्यपुरुषः पारीरप्रमाणरागादिम्यो मित्रस्य विद्यानन्दकस्वभावदोद्धजीवस्योपलब्धेरिति हेतुतः, कालिकास्वरूपात्सुवर्णवदिति दृष्टान्तः, इति प्रतिपटहेतुदृष्टान्तवचनानि ज्ञातव्यानि । ५. कारणे कथिते सति । ६, पक्षाधर्मत्वं सपक्षे सत्वादिका । ७. अनेकपदार्थस्वभावसिद्धि कषयति । ८. दृष्टान्त ववः । ५. सर्वमतरहितं कस्यापि मतल्याधीनं न दृष्टान्त दष्टान्ताः सन्त्यसंख्येयाः इत्यादि पूर्वोक्त। १०. है अनेकान्तननिकेत । +. तदुक्तं कल्पनापोठमभ्रान्त प्रत्यक्ष निर्विकल्पकम् । विकल्पो बस्तुनिर्भासाघसंवादादुपप्लकः ॥ १ ॥
सर्वदर्शन संग्रह पृ. ४४ से संकलित-सम्पादक
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अष्टम आश्वासः
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ममुजत्वपूर्वनयनायकस्य भवतो भवतोऽपि गुणोत्तमस्य । पेषफलुधिषणा भवन्ति ते जर मौक्तिकमपि *हरन्ति ॥१३॥ माप्तेषु बहुवं यः सहेत 'पर्यायवितिष्यपि 'महेत। नूनं वृहिणाविषु वैवतेषु पं तस्य स्फुति तथाविधेषुः ॥१३१॥ 'दोक्षासु तपसि वचसि "स्वपि तु पर्यायहक्म" सकलगुणरहीन । सस्मादमि जगतां स्वमेव नाथोऽसि बुषोचितपादसेव ॥१३गा वेष त्वयिकोऽपि तथापि विमुखचित्तो यदि "विदलितमदनविशिल ।
निन्यः स एव पूर्फ विवापि "विदशीममुपालभते न कोऽपि ।।१३३।। अनेक धर्म मानने पड़ते हैं और उनके मानने से जिनेन्द्र के द्वारा कहे हुए द्वैततत्व की ही सिद्धि होती हैअद्वैत की नहीं। अतः हे स्याद्वाद के आधार प्रभो। सर्वमत से रहित हाए केवल एकमत के समर्थक दृष्टान्त नहीं होते ॥ १२९ ॥
हे प्रभो ! द्वेष से कलुपित बुद्धिबाले लोग, जो पूर्व में मनुष्य होकर स्याद्वाददर्शन के नेता हुए हैं और जो श्रीशिव ( रुख ) से भी गुणोत्तम ( वीतरागता व सर्वज्ञता-आदि गुणों से सर्वश्रेष्ठ और पक्षान्तर में प्रशस्त तन्तुओं द्वारा गूंथी जाने से थेष्ठ ) हैं आपके ऐसे मौक्तिक ( मुक्तिश्री की प्राप्ति के सिद्धान्त व पक्षान्तर में मोती-समूह) को छोड़ देते हैं, जो कि जड़ज ( जड़ाय-जातं, अर्थात्-अशानियों के उद्धार के लिए उत्पन्न हुआ और पक्षान्तर में उलयोरभेदः, अर्थात्-इलेषालद्धार में और ल एक समझे जाते हैं। अतः जलज-जल से उत्पन्न हुआ ) है।
भावार्थ-जिस प्रकार मलिन बुद्धिवाले अज्ञानी पुरुष जल से उत्पन्न हुए बहुमूल्य मोती-समूहको, जो कि गुणोत्तम ( प्रशस्त तन्तुओं द्वारा गुम्फित होने से उत्तम ) है व श्रेष्ठनायक मणिवाला है, छोड़ देते हैं उसी प्रकार द्वेष से कलुषित बुद्धिवाले पुरुष भी आपके मौक्तिक ( मुक्ति-संबंधी सिद्धान्त ), जो कि जड़ज हैं, अर्थात्-सांसारिक ताप नष्ट करने से शीतल हैं, अथवा अज्ञानियों के उद्धार के लिए उत्पन्न हुए हैं, छोड़ देते
हे पूज्य ! जिसे अनुक्रम से होनेवाले बहुत आतों को मान्यता सह्य नहीं है, निश्चय ही अवताररूप ब्रह्मा-आदि देवताओं के सामने वह अपना सिर फोड़ता है। अर्थात्-उसे अनुक्रम से उत्पन्न हुए बहु संख्यावाले ब्रह्मा-आदि देवताओं के लिए भी अपना मस्तक नहीं झुकाना चाहिए ॥ १३१ ।। हे समस्त गुणों में परिपूर्ण व विद्वानों की योग्य चरण सेवावाले प्रभो! निश्चय से आपके चारित्र, तपश्चर्या व वचनों में जो एकवाक्यता (पूर्वापर विरोध-शून्यता) पाई जाती है, मतः मैं जानता हूँ कि तुम्हीं तीनलोक के स्वामी हो॥ १३२ । हे काम के वाणों को चूर-चूर करनेवाले प्रभो! तथापि यदि कोई तुमसे विमुख चित्तवाला है तो
१. अयं जिनः पूर्व नरः । २. सव। ३. रुद्रादपि । *. 'रहन्ति' इति मु. व ख० । टिप्पण्यां रह त्यागे त्यजन्ति ।
४, २४ चौबीस तीर्यङ्कर । ५. अनुक्रमेणोत्पनेषु। ६. हे पूजागत । ७. मस्तकं । ८. बहुषु हरिहरादिपु । ९. चारित्रेषु। १०-११. त्वयि विषये निश्चयेन चारित्रादीनामैक्यं वर्तते । १२. परिपूर्ण । १३. जानामि । १४. हे चूर्णीकृतमदनवाण ! १५, धुके अन्धे सति इनं सूर्य न फोऽपि निन्दसि । है, व्यङ्गयार्थ-मोतीमाला नायकर्माण (मध्यमणि) से युक्त होती है व सूत्रों-सन्तुओं-मे गुम्फित होती है, यह बात भी यहां झलकती है-सम्पादक
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घत्ता
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये निदिकञ्चनोऽपि गते म कानि जिन विशसि निकाम कामितानि ।
नंपात्र चित्रमयवा समस्ति वृष्टिः किमु लामिह नो पकास्ति ॥१३४॥ पद्धतिका
हति सदमृतनाथ स्मरशरमायः त्रिभुवनपतिमतिकेतन"।
मम विंश जगदीश 'प्रामनिवेशा त्वत्पानुतिहदयं जिन ॥१३५।। अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत्सवाचनमाः । "स्मरमदमपध्वान्ताम्बले मतः परमोज्यमा अबयाहृदयः कर्मारातो नते कृपात्मवानिति र विसदृशष्यापार तथापि भवान् महान ।।१३६।।
अनन्तगुगन्निधो नियत बोषसंपन्निधो पताग्घिषसंस्तुते परिमितोक्तवृत्तस्थिते । जिनेश्वर सतीदशे स्वयि मयि स्फुटं तादृशे कथं सशनिश्चयं तस्विमस्तु "वस्तुद्वयम् ॥१३७।।
"दलमतुलस्या'ग्वाणोपथस्तवनोचित स्वयि गुणगणापात्रः स्तोमवस्य हि मावशः ।
प्रणतिविषये व्यापारेऽस्मिन्पुनः सुलभे जन: ५५ कयमयपवागास्ता स्वामिन्नतोऽस्तु नमोऽस्तु ते ।।१३८|| वही निन्दा के योग्य है। क्योंकि उल्लू के दिन में भी अन्धे हो जाने पर कोई भी सूर्य को निन्दा नहीं करता
हे जिन! आपके पास कुछ भी नहीं है. अर्थात-आप धन-धान्यादि परिग्रह से रहित हैं तो भी तुम जगत के लिए कौन कौन सी यथेष्ट इच्छित वस्तुएं प्रदान नहीं करते? किन्तु इसमें आश्चर्य नहीं है, क्योंकि आकाश के पास कुछ भी नहीं है फिर भी क्या उससे जलवृष्टि होती हुई नहीं देखी जाती ? ॥ १३४ । इसलिए हे मोक्षके स्वामी! हे काम-बाणों के विध्वंस करनेवाले हे तीनलोक के स्वामियों की सेवा के मन्दिर ! हे कर्मों के क्षय के स्थान ! और हे जगत् के स्वामी जिनेन्द्र ! मुझे आपके चरणोमें नमस्कार करनेवाली बुद्धि प्रदान कोजिए ।। १३५ ।।
हे जिनेन्द्र ! देवाङ्गनाओं के नेवरूपी कुवलयों ( चन्द्र-बिकासी कमलों) के विकसित करने के लिए बाप आनन्दप्रद चन्द्रमा हैं और
न्द्रमा हैं और काम के मदरूपी अन्धकार को नष्ट करने के लिए आप सर्य कहे गये हैं एवं कर्मरूप शत्रुओं को नष्ट करने के लिए आप कठोर हृदय हैं, किन्तु नत्रीभूत मानव के विषय में आप दयालु हैं । इस प्रकार विपरीत व्यापार वाले ( चन्द्र, सूर्य, निष्ठुरता व दयालुता-आदि दिजातीय व्यापार-युक्त ) हो करके भी आप महान हैं ॥ १३६ ॥ आप अनन्त गुणों की निधि ( खजाना ) हैं और मैं, परिमित बुद्धिरूपी ( मतिज्ञान व श्रुतज्ञान । सम्पत्ति का खजाना हूँ | आप द्वादशाङ्ग धुतरूपी समुद्र के पारदर्शी विद्वानों ( गणधरादि) द्वारा स्तुति किये गए हैं और मैं परिमित शब्दों वाला और सोमित छन्दों या सीमित आचरण से पुक्त हूँ। हे जिनेश ! आप में और मुझमें इतना स्पष्ट अन्तर होते हुए हम दोनों एक सरीखे कैसे हो सकते हैं ? इसलिए में और आप दोनों दो वस्तु हैं ।। १३७ ।।
हे अनुपम ! जब तुम आप सरीखी वाणी के मार्ग ( गणघरादि ) द्वारा स्तवन करने के योग्य हो तो मुझ अज्ञानी के आपके गुण-समूह के स्थान न होनेवाले स्तवनों से आपकी स्तुति करना व्यर्थ है, परन्तु जब
अपितु सर्वाणि वाञ्छिलवस्तुनि त्वं ददासि । २. किं न भवति?। ३. मोक्ष। ४. विध्यंसक । ५. सेवाहृदयमन्दिर ।। ६. कर्मक्षरस्थान ।। ७. बुद्धि दिश। ८. काममदमयो योऽसौ अन्धकारः । ९. कपितः। १०. रविः । ११. नने नरे । १२. विपरीत । १३. स्वपि । १४, मयि । १५. आवरण मयि । १६. वं, अहं च । १७. स्तोर्मादृशो बड़स्य । १८. भवत्सदृशवाणीमार्गयोग्ये । * त्वयि मयि गुणापाः'क०। १९, मौनवान कथं तिष्ठतु अयं मल्लपाणः तेन किचिजल्पितं, परन्तु मया स्तोत्रं कत्तुं न पार्यते ।
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अष्टम आश्वास:
गगनं निशितविनयनीतिस्मृतगुणम्" । महोदारं सारं विनयानन्यविषये सतो पाचे मी चेडूर्यास भगवन्तयिविमुखः ॥ १३९ ॥ मनुजविविजलक्ष्मीलोचनालोकलीला चिरमिह चरितार्थास्त्वित्प्रसादात्प्रज्ञाताः ।
विषेहि ॥ १४० ॥
भिमिवानों स्वामिसेोत्सुकस्था सहबस लिखनायं प्राथमिश्रे इत्युपा साध्ययने स्तवनविधिर्नाम सप्तत्रिंशत्तमः कल्पः । सर्वाक्षर भामाक्षर मुख्याक्षराधेक वर्णविन्यासात् । निगिरन्ति जपं केचिदहं तु "सिद्धक्रमैरेव ।। १४१ ।। पातालसुरेषु सिशुक्रमस्य मन्त्रस्य । १२ अधिगाना सिद्धेः समवाये देवयात्रायाम् || १४२ ।। पुष्पे: पर्वभिरतुयी अस्वर्णा' 'कंकान्तरनिर्वा । निष्कम्पिसाक्षयलयः १७ पस्यो जपं कुर्यात् ॥ १४२॥ नमस्कार संबंधी व्यापार सुलभ है तब मुझ सरीखा विद्वान् मूक कैसे रहे? इसलिए मैंने कुछ कहा है । परन्तु मेरे द्वारा स्तवन करना शक्य नहीं है, अतः हे स्वामिन्! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।। १३८ ॥
हे भगवन् ! आप जगत् के नेत्र हैं, समस्त पदार्थों के ज्ञानरूपी तेज के स्थान हैं, महान हैं, समस्त सिद्धान्तों में आपके गुण स्मरण किये गए हैं, विनयशील मानवों के हृदय प्रमुदित करने के लिए महान् उदार हैं, अतः मैं आपसे याचना करता हूं, यदि आप याचकों से विमुख नहीं हैं ।। १३२ ।। भगवन् ! आपके प्रसाद से हम इस लोक में चिरकाल तक मानवीय लक्ष्मी व स्वलक्ष्मी के नेत्रों के दर्शन की शोभा प्राप्त करनेवाले होकर कृतार्थ हो चुके । अब तो 'छात्रमित्र' इस दूसरे नामवाले सोमदेवसूरि का यह हृदय प्रभु की सेवा के लिए उत्सुक है, इसलिए मन्त्र मेरे हृदय को अपने साथ निवास से सहित कीजिए— मेरे हृदय में निवास कीजिए ॥ १४० ॥1
इस प्रकार उपासकाध्ययन में स्तवन विधि नामक सैंतीस कल्प समाप्त हुआ । [ अब जप करने की विधि निरूपण कहते हैं - ]
जप-विधि
४१३
कोई आचार्य ' णमो अरिहंताणं' आदि पूरे नमस्कार मन्त्र से जप करना कहते हैं । कोई अरहंत व सिद्धआदि पंच परमेष्ठी के वाचक नामाक्षरों से जप करना कहते हैं । कोई पंचपरमेष्ठी के वाचक 'असि मा उ सा इन मुख्य अक्षरों से जप करना कहते हैं। कोई 'ओ' अथवा 'अ' आदि एक अक्षर से जप करना कहते हैं, किन्तु मैं ( ग्रन्थकार ) तो अनादि सिद्ध पैंतीस अक्षरों वाले पञ्च नमस्कार मन्त्र से जप करना कहता हूँ ।। १४१ ॥ अधोलोक में ( भवनवासी व व्यन्तर देवों में ), मनुष्यों में, विद्याधरों में, वैमानिक देवों में जन-समाज में और तीर्थंकर - पूजा में सिद्धि दायक होने के कारण पंचनमस्कार मन्त्र का सर्वत्र विशेष आदर है, इसमें किसी प्रकार १. तेजसां पानं स्थानं । २. समयसिद्धान्ततिगुणं । ३. वभा । ४. सत्यार्थाः ।
५. सहनिवाससहितं मदीयं हृदयं कुरु' टि० ख० ।
'बसनं वसति सह वसत्या सनायं सहितं सहनसतिसनाथ' दि० च० । *. 'छात्रा एवं मित्राणि यस्य' दि० ख०, 'मयि सोमदेवे' टि० च० ।
'छात्र मित्रेति कवेरवेदक नाम ' इति पञ्जिकायां ।
६. णमो अरिहंताणमित्यादि पंचत्रिंशत् । ७. अरहंत १०. कथयन्ति । ११. अनादिसंसिद्ध पंचत्रिव दक्षः ।
सिद्ध इत्यादि । ८. असि या उसा । ९. कॅ अथवा अ । १२. अविप्रतिपत्ते आदरात्। * 'अविगानात् संसिद्धिः च० । १३. समाजे संभ्रमेलापकॆ । १४. वीर्यकरपूजायां । १५. कमल, काकड़ी । १६. सूर्यकान्त । १७. इन्द्रियसमूहः ।
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४१४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये मङ्गुष्ठे मोक्षार्थी 'तन्या साधु बहिरिवं नयतु । इतरास्वगुलिषु पुनहिरग्लाहिकापेक्षरे ॥१४४।। बचमा वा मनसा वा कार्यों मापा समाहितस्वान्सः । दातगुणमा पुण्यं सहस्रसंख्यं द्वितीये तु॥१४५|| नियमितकरण प्रामः स्यामासनमानसप्रचारशः। पवनप्रयोपनिपूणः सम्यपिसद्धो भवेवया ॥१४॥ इममेव मन्त्रमन्ते पञ्चत्रिशत्प्रकारवर्णस्यम् । मुनयो जपन्ति विधिवत्परमपदावाप्तये निस्पम् ।।१४७!! मन्त्राणामखिलानामय मेकः कार्यकद भत्सिद्धः । अस्यैकदेशकार्य परे तु फुर्यन ते सर्वे ॥१४॥
कुर्यास्करयोया कनिष्ठिकान्सः प्रकारपुगलेन । तस्नु हृवाननमस्तककवचास्त्रविधिविधातव्यः ।।१४९।। का विवाद नहीं है ।। १४२ ॥ पद्मासन से बैठकर इन्द्रिय-समूह को चञ्चल न करके (निश्चल करते हुए) जपकर्ता को पुष्पों से या अङ्गुलियों के पर्वो से अथवा कमलगट्टों से या सुवर्ण के दानों से अथवा सूर्यकान्तमणि के दानों से पञ्च नमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए. ॥ १४३ ।।
मुक्तिथी के इच्छुक जपकर्ता को माला के लिए अंगूठा और उसके पास की तर्जनी अंगुली पर रखकर तर्जनी अंगुली से भलीभांति बाहर की ओर जप करना चाहिए और ऐहिक सुख की अपेक्षा करनेवाले जपकर्मा को रोष अंगुलियों ( मध्यमा व अनामिका) द्वारा बाहर व अन्दर की ओर जप करना चाहिए ।। १४४ ॥ ध्येय वस्तु में निश्चलीकृत मनवाले जपकर्ता द्वारा वचन से या केवल मन से पन्चनमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए
चानक जप में सौगुना और मानसिक जप में तो हजार गुना पुण्य होता है॥१४५ ।। ऐसा विवेकी जपकर्ता सर्वज्ञ होकर सिद्धपद प्राप्त करता है, जिसने समस्त इन्द्रिय-समूह को वश में किया है, जो एकान्तस्थान, आसन ( पद्मासन ब खड्डासन ), ओर मानस प्रचार ( मन को नाभि, नेत्र व ललाट-आदि में संचारित करना ) का शाता है, अर्थात्-जो अपनी मनोवृत्ति समस्त बाह्य विषयों से खींचकर आत्मस्वरूप में हो प्रवृत्त करता है, जो प्राणायाम विधि द्वारा वायु-तत्व के प्रयोग करने में निपुण है ।।
भावार्य जपकर्ता को सबसे पहले जितेन्द्रिय होना अत्यन्त आवश्यक व अनिवार्य है, अन्यथा उसका जप हस्ति-स्नान की तरह निष्फल है । इसी प्रकार उसे एकान्त स्थान में पद्मासन व खङ्गासन लगा कर एकाग्र चिसपूर्वक जप करते हुए प्राणायाम विधि द्वारा कुम्भक व पूरक-आदि वायुतत्व का यथाविधि उपयोग करने में चतुर होना चाहिए, क्योंकि विधि पूर्वक पंचनमस्कार मन्त्र का जपकर्ता सर्वज्ञ होकर सिद्धपद प्राप्त करता है। १४६ ।।
___ क्योंकि मुनिराज मोथा पद को प्राप्ति के लिए अन्त में इसी पेंतीम अक्षरोंवाले पञ्चनमस्कार मन्त्र को सदा विधि पूर्वक जपते हैं ॥ १४७ ।। यह अकेला ही सिद्ध किया हुआ होनेपर सब मन्त्रों का कार्य करता है. किन्तु दूसरे सब मन्त्र मिलकर भी इसका एक भाग भो कार्य नहीं करते ॥ १४८ ।।
[जप-प्रारम्भ करने से पूर्व सकलीकरण-विधान-]
दोनों हस्तों की अंगुलियों पर अंगूठे से लेकर कनिष्ठिका अंगुलि तक दो प्रकारसे मन्त्र का न्यास करना चाहिए। तदनन्तर हृदय, मुख व मस्तक-आदि का अङ्गन्यास करके जपकर्ता को निर्विघ्न इष्ट-सिद्धि के लिए सकलीकरण विधिरूपी कवच (बस्तर) व अस्त्र-धारण की विधि करनी चाहिए।
भावार्थ-जप करने से पूर्व अङ्ग-शुद्धि, न्यास व सकलीकरण विधि करनी चाहिए । अर्थात्-प्रतिष्ठा१. जाप्ये कसे प्रति इदं बहिवस्तु उच्चाटनीयं जपः प्रापयतु। २. समसामपव॑सि जप्यं त्रिवमर्षणे ।
३. मन्त्रस्य । ४. मो अरहताणमेतावन्माषेणापि । ५. मन्त्राः । ६. विधिपूर्वक अंगुलिरेखा । ७. एष विस्तारः सकलीकरणविधी मातस्यः।
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अष्टम आश्वास:
संपूर्णमतिस्पष्टं 'सनापमानन्वसुन्दरं मपतः । सर्वसमोहित सिद्धिनिःसंशयमस्य जायेत ॥१५०।। मन्त्रोऽयमेव सेण्यः परत्र मन्त्र फलोपसम्मेऽपि । माय विटपो फलति सथाप्यस्य सियते मूलम् ॥१५॥ मत्रामुत्र व नियतं फामितफलसिद्धये परो मन्त्रः । नाभूबस्ति भविष्यति गुरुपञ्चकवाचकान्मन्त्रात् ॥१५२।। अभिलादिशानी चुमिसको हिमEि: कास सप्ति परत्र मन्त्र कायं सजन ॥१५३।। इस्पं मनो मत बाह्यमबाह्यपत्ति कृत्वा षोकनगर ममतो' नियम्प । सम्यग्जपं विवषतः मूषियः प्रयस्ताल्लोकत्रयस्य कृतिनः क्रिमसाध्यमस्ति ॥१५४॥ इत्युपासकाध्ययमे अपविधिर्नामाष्टत्रिशत्तमः कल्पः ।
आविध्यासुः परं ज्योतिरीप्सुस्तमाम शाश्वतम् । इमं प्यानविधि यस्नाचम्यस्यस्तु समाहितः ॥१५५॥ सार संग्रह पृ० १८ में लिखे हुए मन्त्र ( ॐ ह्रां णमो अरहताणं ह्रां अंगुष्ठाभ्यां नमः आदि ) पढ़कर सकलीकरण विधि करनी चाहिए । पश्चात् जप-विधि आरम्भ करनी चाहिए। विद्वद्वय ५० . आशाधरजी ने प्रतिष्ठासारोद्धार में लिखा है, कि 'इस सफलोकरणरूपी बस्तर को धारण किये हुए जो मन्त्रवाला इष्ट कर्म ( पूजा व जप-आदि ) करता है, उसके कोई विघ्न नहीं आता। ॥ १४९ ।।
[ पश्च नमस्कार मन्त्र के जप का फल व माहात्म्य---] ऐसे जपकर्ता के निस्सन्देह समस्त मनोरथ सिद्ध होते हैं, जो कि आनन्द-पद होने से मनोज चिन्नुसहित णमोकार मन्त्र को शुद्ध व स्पष्ट उच्चारणपूर्वक जपता है ।। १५० ॥ दूसरे मन्त्रों से फल-सिद्धि होने पर भी इसी पञ्चनमस्कार मन्त्र का जप करना चाहिए। क्योंकि वृक्ष यद्यपि अग्रभाग पर फलता है तथा इसकी जड़ सींची जाती है, अर्थात्-यह मन्त्र सब मन्त्रों का मूल है, अतः इसी का जप करना चाहिए ।। १५१ ।। पञ्च परमेष्ठी के वाचक इस णमोकार मन्त्र के सिवा दूसरा मन्त्र इसलोक व परलोक में निश्चित रूप से अभिलषित फलसिसि करनेवाला न हुआ है, न है और न होगा ॥ १५२ ॥
__जब यह णमोकार मन्त्र निस्सन्देह अभिलषित वस्तु के देने में कामधेनु सरीखा है और पापरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए अग्नि-जैसा है एवं ऐहिक व पारलौकिक सुख देने में समर्थ है, तब कौन जपकर्ता मानव दूसरे मन्म को जपविधि में तत्पर होगा?॥ १५३ ।। इस प्रकार मन को नियन्त्रित करके और इन्द्रियरूपी नगर को वाह्य विषयों से हटाकर आभ्यन्तर की ओर करके तथा श्वासोच्छ्वास को प्राणायाम विधि द्वारा निर्यान्वत करके जो बुद्धिमान् प्रयत्नपूर्वक सम्यग् जप करता है, उस पुण्यशाली जपकर्ता के लिए तीनों लोकों में कुछ भी असाध्य नहीं है ।। १५४ ॥
इस प्रकार उपासकाध्ययन में जपविधि नाम का यह अड़तीसा कल्प समाप्त हुआ। [ अब ध्यान-विधि का निरूपण करते हैं-]
१. बिन्दुसाहितं गकारस्यानुस्वारो दो पचते । २. नियन्त्र्य । ३. आध्यातुमिच्छुः । * तथा च विद्वान् आशाघर:'बमितोऽनेन सफलोफरणेन महामनाः । फुभिष्टानि कर्माणि केनापि न बिहन्यते ॥ ७० ॥
–प्रतिष्ठासारोदार अ०२१० ३६ से संकलित-सम्पादक
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
तचिन्तामृताम्भोधी बुडमग्नतमा मन्दः । बहिर्व्याप्लो अहं कृत्वा 'द्वपमासनमाचरेत् || १५६ ।। सूक्ष्मप्राणय मायामः सग्तसर्वाङ्गसंचरः । प्रावोत्कीर्ण इवासीत ध्यानानन्वसुधां लिहम् ॥१५७॥ याणि पञ्चापि स्वात्मस्थानि समासते । तदा ज्योतिः स्फुरत्यन्तदिधले वित्तं निमज्जति ।। १५८।। चितकात ध्यानं ध्यातात्मा तत्फलप्रभुः । ध्येयमात्मागमज्योतिस्तद्विधि यातना ॥१५९॥ संरचनाममा नामसं भीममङ्गजम्। सहेत समयोः सर्वमन्तरायं 'इयातिः ।। १६० ।। १० नावामित्वमविघ्नाय न "क्लीबत्वममृत्यवे । तस्मादक्लिश्यमानात्म] परं चिन्तयेत् ॥ १६२ ॥
१
ध्यान - विधि
जो अहंत भगवान् का ध्यान करने का अभिलाषी है और जो उस स्थायी मोक्षपद की प्राप्ति का छुक है, उसे सावधान होकर आगे कही जानेवाली इस ध्यानविधि का प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिए ॥ १५५ ॥ तत्वों ( अर्हन्तभगवान या जीवादि ) के चिन्तनरूपी अमृत के समुद्र में अपना मन दृढ़तापूर्वक मरन करके और उसे बाह्य विषयों की व्याप्ति से इकदम जड़ करके पश्चासन या खङ्गासन से ध्यान करना चाहिए ।। १५६ ।। धर्मध्यानो को ध्यानरूपी सुखामृत का आस्वादन करते हुए उच्छ्वास- निःश्वासरूप प्राणवायु के प्रवेश व निर्गम को सूक्ष्म करनेवाला निश्चल और समस्त अङ्गों का हलन चलन न करनेवाला होकर पाषाणघटित-सा होते हुए ध्यानस्थ होना चाहिए ।। १५७ || जब धर्मध्यानी की पांचों हो इन्द्रियाँ ( स्पर्शनादि ) बाह्य विषयों से पराङ्मुख होकर आत्मस्वरूप में लोन हो जाती है और जब उसका मन आत्मस्वरूप के चिन्तन में डूब जाता है तब उसको अन्तरात्मा में सम्यग्ज्ञान रूप प्रकाश प्रकट होता है ॥ १५८ ॥
ध्यान - आदि का स्वरूप
चित्त की एकाग्रता ( चित्त को ध्येय वस्तु मे दूसरी जगह व्यापारित न करना ) ध्यान है। ध्यान का फल (स्वर्ग-आदि) भोगने में समर्थ आत्मा ध्याता (ध्यान करनेवाला) है । आत्मा और श्रुतज्ञान ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) हैं तथा यातना ( करणग्राम नियन्त्रणा - समस्त इन्द्रिय-समूह को नियन्त्रित करना ) ध्यान की विधि जाननी चाहिए ।। १५९ ।।
धर्मध्यानी का परीषह-सहन
धर्मध्यानी को शत्रु मित्र में समान बुद्धि-युक्त और तोष- रोष ( राग-द्वेष ) से रहित होना चाहिए । अन्यथा - राग द्वेप होनेपर उसका आर्त व रौद्र ध्यान हो जायगा और धर्म ध्यान करते समय उन समस्त अन्तरायों (विघ्नबाधाओं-उपसर्ग व परीषहों ) को सहन करना चाहिए, जो पशु-कृत हैं [ उदाहरण में जैसे सुकुमाल मुनि पर गाली ने उपसर्ग किया या ], जो देव कृत हैं, [ उदाहरण में जैसे पार्श्वनाथ भगवान् पर कमठ के जीव व्यन्तर ने उपसर्ग किया था ], जो मनुष्यों से उत्पन्न हुए हों, [ जैसे पांडवों पर कौरवों ने उपसर्ग किये थे ], जो आकाश से उत्पन्न ( वज्रपात आदि) हुए हैं व जो भूमि से उत्पन्न (भूकम्प - आदि) हुए हैं और जो शरीर कृत ( रोगादि । है ।। १६० ।। क्योंकि उपसर्ग आदि के समय असमर्थता दिखाने से धर्मध्यान संबंधी
१. ऊर्ध्वमुपविष्टं च । २. सूक्ष्म उच्छ्यासनिः वायः तस्य यमः प्रवेशः आयामी निर्गमः शान्तः सर्वाङ्गसुन्दरः क० । 'शान्तः निश्चलः ' पं० । ३. निश्चल: । ४. पाषाणघटितः । ५. मध्ये अन्तरात्मनि । ५. मनसि सति । ७. ध्येयादन्यत्र व्यापाराभावः । *. 'मात्मगमं ज्योतिः क० । ८. करणग्रामनियन्त्रणा । ९. तोषरोषाम्यां विनिर्मुक्त: । १०. असमर्थत्वं । १९. कातरत्वं दीनता ।
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अष्टम आश्वासः
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*यनामिनियामो 'च्याप्तमस्तेनविप्लवम् । नाइनुपीत तमुद्देश भणेताव्यात्मसिद्धये ॥१२॥ फाल्गजन्माप्पयं बेहो एवलायुफलायते । संसारसापरोतारे रश्यास्तस्मात्प्रयत्नतः ।।१६३।। नरेऽधीरे धाम क्षेत्रेसस्में वृत्तिमा । यथा तथा वृधा मई ध्यानशून्यस्य तनिधिः ॥१६४।। बहिरतिस्लमोवारिस्पन्द दीपवन्मनः । यतत्वालोकनोल्लासि तस्याद्धधान सघीजकम् ॥१६५।।
निविचारावतारामु चेतः स्रोतःप्रभूतिः । यास्मन्येव "स्फुरन्नात्मा भवेवधानमनीमकम् ॥१६६।। विघ्न दूर नहीं हो सकते और न दोनता दिखाने से जीवन को रक्षा ही हो सकती है; अतः उपसर्ग-सहन में संक्लेश परिणाम से रहित होकर परमात्मा का ही ध्यान करना चाहिए ॥ १६१ ।।
धर्मध्यानी के स्थान का निर्देश धर्मध्यानी को आत्मतत्व की सिद्धि के लिए ऐसा एकान्त स्थान सेवन करना चाहिए, जहां पर उसका यह इन्द्रिय-समूह व्याकुलतारूपी चोर की विघ्न-वाघा प्राप्त न कर सके ।। १६२॥ शरीररक्षा-पद्यपि इस मानव-शरीर का जन्म निरर्थक है तथापि यह तपश्चर्था-आदि के द्वारा संसार-समुद्र से पार उतरने के लिए तुम्बी-सरीखा सहायक है अतः प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए ।। १६३ ।।
ध्यानविधि की निरर्थकता जिसप्रकार शत्रु से भयभीत हुए कायर पुरुष के लिए कवच का धारण व्यथं है एवं जिस प्रकार घान्य से शून्य खेस पर काँटों को वाड़ी लगाना निरर्थक है उसीप्रकार ध्यान न करने वाले पुरुष के लिए ध्यान की सब विधि (आसन-आदि ) व्यर्थ है ।। १६४ ।।
[ शुद्धध्यान-दो प्रकार का है, एक सबीजध्यान और दूसरा अबीज ध्यान दोनों का स्वरूप निरूपण करते हैं
सबीजध्यान ( पृथक्त्ववितक सवीचार शुक्लध्यान ) जैसे वायु-हित स्थान में दोपक की ली निश्चल होकर वाह्य प्रकाश से सुशोभित होती है वैसे हो जिस ध्यान में जब योगो का मन आत्मा में स्थित हुई अज्ञानरूपो वायुओं से होनेवाली चञ्चलता छोड़कर (निश्चल होकर ) जीवादि सप्त तत्वों के दर्शन से सुशोभित होता है उसे सबीजक ( पृथक्त्ववितर्क सबोचार नामक शुक्लध्यान ) कहते हैं ।। १६५ ।।
अब अबीजध्यान ( एकत्ववितर्क अवीचारनामक शुक्लध्यान ) को बतलाते हैं
जब योगी के चित्तरूपो झरने की प्रवृत्तियों ( प्रवाह या व्यापार ) निविचार ( संक्रमण-रहितअर्थात्-द्रव्य से पर्याय और पर्याय से द्रव्य-आदि के ध्यानरूप संक्रमण से रहित ) के अवतार वाली होती है, जिससे उसकी आत्मा विशुद्ध आत्मस्वरूप में ही चमत्कार करनेवाली (लीन होनेवालो ) होती है तब उसका वह ध्यान { अयोजक एकत्ववितर्कावीचार नामक शुक्लध्यान) है।
भावार्थ-यहाँपर दूसरे शुक्लध्यान ( एकत्वनितक ) का निरूपण किया गया है, इसमें चित्तरूपी झरने का प्रवाह अर्थ (द्रव्य ) व पजन-आदि के संक्रमण से हीन होता है, जिससे आत्मा आत्मा में ही लीन
*, स्थाने । १. व्यासङ्गः (व्याकुलता) एव स्तेनश्चोरस्तस्य विघ्नं न प्राप्नोति । २. स्थान । ३. कवय । ४. धान्यरहिते।
५. निश्चलं । ६. प्रवाह । ७. चमत्कुर्वन् । ८. एकत्ववितर्कावीचाराख्यं शुक्लव्यानमित्यर्थः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये बिसेनन्सप्रभावेऽस्मिन्प्रकृत्या पिसवच्चले। सत्तेजसि स्थिरे सिद्धेन कि सिद्ध जगत त्रये ॥१७॥ अनिमनस्के मनोहसे पहंसे सर्वत: स्पिरे । बोमहंसोऽसिलालोक्य सरोहंसः प्रजायते ।।१९८॥ याप्पस्मिन्मनःक्षेत्रे क्रियां तांत समारपत् 1 कंचिक्यते भान तथाप्यत्र न विभ्रमेत् ॥१६९|| "विपक्षे क्लेशराशीनां यस्मालंघ विधिर्मतः। तस्मान्न विस्मयेतास्मिन्परं ब्रह्मसमाथितः ॥१७॥ प्रभावश्चर्यविनानवतासंगमादयः । योगोन्मेषाद्धवम्तोऽपि नामी तत्त्वविदों मुझे ॥१७॥ भूमौ जन्मेति रत्नानां यथा सर्वत्र मोबः । तपात्ममिति ध्यानं सर्वप्राणिनि नोजवंत् ।। १७२।। तस्य कालं वदन्त्यन्तमु स मुनयः परम् । अपरिपन्धमानं हि तत्पर बुर्धरं मनः ।।१७३।।
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होती है। यह तेरहवें गुणस्थान में केवलोभगवान् के प्रकट होता है। इस एकत्ववितर्क शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अग्नि द्वारा धातियाकर्मरूपी ईंधन भस्मसात् होकर केवलज्ञान प्रकट होता है ।। १६६ ।। अनन्तसामथ्यशाली यह मन, जो कि पारदसरीखा स्वभाव से चञ्चल है, जब उस तेज ( अध्यात्मज्ञान व पक्षान्तर में अग्नि ) में स्थिर निश्चल व सिद्ध (ध्यान-मग्न व पक्षान्तर में शुद्ध, मारित, मूच्छित व वद-आदि) हो जाता है तब तीन लोक में उस योगो को क्या सिद्ध ( प्राप्त) नहीं होता? अपितु समस्त स्वर्गश्री व मुक्तिश्री प्राप्त हो जाती है ।। १६७ ।। यदि यह मनरूपो हंस अपने मनोव्यापार से रहित हो जाय, अर्थात्-अपनी चञ्चलता छोड़ देवे और आत्माख्यो हंस परमात्मा में लीन होकर सर्वथा स्थिर (आत्मस्थ ) हो जाय तो ज्ञानरूपो हं। समर शेप मरका का हंस हो जाता है। अर्थात्-मन निश्चल होने के साथ यदि आत्मा आत्मामें स्थिर हो जाय तो समस्त विश्व को प्रत्यक्ष जाननेवाला केवलज्ञान प्रकट होता है ।। १६८ । इस मनरूपी स्थान में जोवादि ध्येय बस्तु में चित्त की एकाग्रतारूप प्रवृत्ति को करता हुआ मुनि हेय ( त्याज्य ) व उपादेय ( ग्राह्य) वस्तु को यथावत् जान लेता है तथापि उसे इसमें विभ्रम ( तत्व ओर अतत्व में समान बुद्धि या अज्ञान) नहीं करना चाहिए । अर्थात्-हेय वस्तु को उपादेय व उपादेय को हेय नहीं समझना चाहिए। अभिप्राय यह है कि विभ्रम ( अज्ञान ) होने से धर्मध्यान नष्ट होकर आतं-रौद्रध्यान हो जाता है ।। १६९ ॥
क्योंकि हमने दुःख-समूह को देनेवाले शत्रुभूत ध्यान ( आतं व रोद्र ध्यान ) में ऊपर कही हुई विभ्रम लक्षणवाली विधि नहीं कही है । अतः परब्रह्म परमात्माका आश्रय लेनेवाले धर्मध्यानी को इस विषय में ( ध्यान से उत्पन्न होनेवाली ऋद्धि-आदि में ) आश्चर्य नहीं करना चाहिए ।। १७० ।। ध्यान के प्रकाट होने से प्रभाव, ऐश्वर्य, विशिष्टज्ञान और देवों का समागम-आदि प्राप्त हो जाने पर भी तत्वज्ञानी इनसे प्रमुदित ( हर्षित ) नहीं होते; क्योंकि उनका लक्ष्य ध्यानरूपी अग्नि द्वारा कर्मरूपी ईंधन को भस्म करके केवलज्ञान प्राप्ति का होता है ।। १७१ ॥
ध्यान की दुर्लभता व माहात्म्य-आदि जिसप्रकार पृथिवी से रत्नों की उत्पत्ति होती है तथापि सर्वत्र गम उत्पन्न नहीं होते उसीप्रकार ध्यान भो आत्मा से उत्पन्न होता है तथापि वह समस्त प्राणियों की आत्माओं से उत्पन्न नहीं होता ॥ १७२ ।। ऋषि धर्मध्यान व शुक्लध्यान का उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त तक कहते है; क्योंकि निश्चय से इससे अधिक १. पारदपच्चले। २, अग्नी ज्ञाने च । ३. मनोव्यापाररहित । 'निर्लागार मनोहसे हंसे सर्वथा स्थिरे । बोधहंसः
प्रवर्तन विश्वायसरोवरे ।।१॥-प्रबोधसार । *. 'लोक'च. ४. गनिः। ". जामाति-हेपममादेयं वस्तु यथावत् पश्येदित्वयः। .हेयमुपादेयतया उपादेयं हेयतमा न पश्येत । ७. शत्रभुत ध्याने एप विभ्रमलक्षणों विपिन कषितः । ८. अन्तर्मुहुर्तकासात्परं ।
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अष्टम आश्वासः
तत्कालपि तवयानं स्फुरवेकानमात्मनि । उच्च फर्मोच्चयं भिन्ना समिव क्षणात् ।। १७४।। *फल्परम्यम्बुधिः शम्यश्चलकै नोवलम्पितुम् । 'कल्पासमः पुनवतिस्तं' मुष्टः पौषमामयेत् ।।१७५।।
रुपे मरुति चित्तेऽपि तथान्यत्र या विशन । लभेत कामितं तदवात्माना परमात्मनि ॥१७६।। "धराग्यं ज्ञानसंपत्तिरसङ्गस्थिरचितसा | "मिस्मयसहत्वं च पञ्च योगस्य हेतवः ॥१७७॥ १३आधिच्याधिविपर्यास "प्रमावालस्य "विभ्रमाः । १अलाभः सङ्गितास्थय मेते तस्यान्तरायकाः ॥१७८॥
काल तक मन का स्थिर होना अत्यन्त कठिन है ।। १७३ ॥ जिसप्रकार वन मणभर में महान पर्वत को चूरजूर कर डालता है उसीप्रकार आत्मा में प्रकट हुआ अन्तर्मुहुर्त कालवाला निश्चल शुक्लध्यान भी महान पातिया कर्मममह को विदीर्ण ( मष्ट ) कर देता है ।। १७४ ।। जिस प्रकार सैकड़ों कल्पकालों ( युगान्तरों) तक हस्त को चुल्लुओं से समुद्र के जल को उलीचने पर भी समुद्र खाली नहीं होता, परन्तु प्रलयकालीन प्रचण्ड बायु उसे बार-बार शोषण में ला देतो है-सुखा देती है उसी प्रकार आत्मा में प्रकट हुआ शुक्लध्यान भी अन्तर्मुहूर्त में पातिया कर्म-समह को नष्ट कर देता है।। १७५ | जैसे कामतत्व कमनीय कामिनो। आदि में व दूसरे के भारीर में प्रवेश करना आदि में एवं बाह्य वस्तुओं में मन को स्थिर करने से अभिलषित यस्तु (कामतत्व-आदि) प्राप्त होती है वैसे ही आत्मा के द्वारा परमात्मा में मन स्थिर करने से परमात्मपद की प्राप्ति होती है ।। १७६ ।।
निम्नप्रकार पाँच प्रशस्त गुण धर्मध्यान की उत्पत्ति में कारण हैं । वैराग्य ( देखे हुए व आगामी काल में आनेवाले इन्द्रियों के विषयों में तृष्णा का अभाव ), ज्ञानसम्पत्ति ( बंध व मोक्ष की प्राप्ति के उपाय का ज्ञान ), असङ्ग । वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्याग ), स्थिरचित्तता (सप, स्वाध्याय व ध्यान कर्म में चित्त को स्थिर करने का प्रयत्न) व उमिस्मयसहत्व ( शारीरिक क्षुधा-तृषा-आदि, मानसिक-शोक-आदि व आगन्तुक परोपहों-दुःखों ) के उद्रेक ( वृद्धि ) पर विजय प्राप्त करना ।। १७७ ॥
निम्नप्रकार ९ दुर्गुण धर्मध्यान के अन्तराय (विघ्नवाघा उपस्थित करने वाले ) हैं। आचि ( दौर्मनस्य-मानसिक पीड़ा या कुत्सित मनोवृत्ति ), व्याधि ( दोष-वेपम्य-शारीरिक रोग), विपर्यास ( अतत्व में तस्व का आग्रह ), प्रमाद ( तत्वज्ञान की प्राप्ति में अनादर ), आलस्य (प्राप्त हुए तत्व का अनुष्ठान न १. युगान्तरः। २.प्रलयकालोत्पन्न। ३. अम्बुधि। ४. कामसत्वादो। ५. परकायप्रवेशादौ। ६. अन्यत्र दाये
वस्तुनि यथा वाञ्छितं भवनि । ७. दृष्टागामिबिधयेषु तृष्ण्यं । ८. बन्धमोक्षोपायविवेकः । ९. बाह्याभ्यन्तरारिग्रह त्यागः। १०. तपास्वाध्यायल्यानकर्मणि मनसोविचलितपयलः। ११. शारीरमानसागातुनपरोषहोकविजयित्वं ।
'पाणस्य क्षुत्पिपासे , मनसः शोकमोहने, जन्ममृत्यू शरीरस्य पशूमिरहितः शिवः' । तथा च श्रीभागवतटीकाया'शोकमोही जरामृत्यू, क्षुत्पिपासे षड्मयः'। १२. योगतत्वमात्ममनःसावधानचित्तवृत्तिनिरोधः, म चिसवृत्तिनिरोघमात्रमन्यथा सुप्तमूच्छितादीनामपि योगतारतः । *.तथा चोकं प्रबोधसारे-'निवेदोक्ष्यसम्पत्तिः स्वान्सस्पैयं रहास्थितिः । विधियोमिसहत्वं तु साधूनां व्यानहेतवः ॥१॥ तथा चोक्तं तत्वानुशासने-'सत्यागः कषायाणा निपहो व्रतधारणं । मनोक्षाणां जयश्चेति सामग्री ध्यानजन्मने ॥१॥ १३. बाधिदौमनस्यं । १४. दोषवैषम्य व्याधिः । १५. 'परमतभ्रान्तिः' टिस, 'अतत्वे तत्वाभिनिवेशो विपर्याप्त:' टि० ० ० पञ्जिकायां ।। १६. तत्वाधिगमानादरः प्रभादः। १७. लब्धस्यापि तत्वस्याननुष्ठानमालस्यं। १८. तत्वातत्वयोः समा बुद्धिर्विनमः । ११. स्यपरपोरशानादम्मस्ततत्वासामिरलाभः । २०. सत्यपि तत्वज्ञाने सुखदुः साधनोत्कीमाभिनिवेशः संगिता । २१. योगत्प मनसाऽक्षान्तिरस्थय । २२. ध्यानस्य । न तथा दोक्तं प्रचोपसार--स्वान्तास्थैर्य विपर्यासं प्रमादालस्यविभ्रमाः। रौद्रााषिर्यवास्थानमेत प्रत्यूहदायिनः ।।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
|| १७९॥
यः कण्टकं तुदत्यङ्गं श्वस्कार प्रयोग लो ज्योतिबिन्दुः कला नावः कुण्डली वायुसंचरः । मुद्रा मण्डलचीखानि 'निर्बीजीकरणा विकम् ।।१८० ।।
करना), विभ्रम (तत्व व अतत्व में सदृश बुद्धि ), अलाभ आत्मा व अनात्मा का ज्ञान न होने से अभ्यास किये हुए तत्व की प्राप्ति न होना), सङ्गिता (तत्वज्ञान होने पर भी मुख-साधनों में हर्ष व दुःख -साधनों में द्वेष का आग्रह करना) व अस्थेयं ( ध्यान के कारणों में मन की अशान्ति अर्थात् मन को न लगाना ) ॥ १७८ ॥
धर्मयानी का कर्त्तव्य
जो फॉटों से ध्यानी का शरीर व्यथित करता है और जो उसके शरीर पर चन्दनों का लेप करता है ऐसे शत्रु-मित्रों पर जिसका अभिप्राय क्रम से द्वेष व राग से असम्पृक्त ( नहीं हुआ हुआ ) है, ऐसे घमंत्र्यानी को पाषाण-घटित सरीखा होकर ध्यान में स्थित होना चाहिए ।। १७९ ।।
[ अब अन्य मत संबंधी ध्यान कहकर उसको समीक्षा करते हैं 1
तान्त्रिकों को मान्यता है कि योगी पुरुष ज्योति ( ओंकार की आकृति का ध्यान, अर्थात् यथाfafa प्रणवमन्य ( ओंकार ) का जप करना ), बिन्दु पीस व शुभ्र आदि विन्दुका दर्शन ( प्राणायाम विधि के अवसर पर मुख के दक्षिण भाग पर व वाम भागपर क्रम से दाहिनी व बाई हस्ताङ्गुलियों का तत्तत्स्थानों पर स्थापन करने के बाद जैसे कानों में अ को, नेत्र प्रान्त में तर्जनी को, नासापुट में मध्यमा अङ्गुलो को, कर्धं ओष्ठ के प्रान्त भाग में अनामिका और अधरोष्ठ के प्रान्त भाग में कनिष्ठिका मङ्गुली को स्थापित करना चाहिए इसके बाद अन्तर्दृष्टि द्वारा अवलोकन करने पर विन्दु का दर्शन होता है जैसे पीतविन्दु के दर्शन से पृथिवी तत्व का, श्वेत बिन्दु के दर्शन से जलतत्व का, अरुणबिन्दु के दर्शन से तेजतत्व का श्याम बिन्दु के दर्शन से वायुतत्व का और पीतादिवर्ण-रहित परिवेषमात्र के दर्शन से आकाश तत्व का ज्ञान होता है ), कला ( अर्धचन्द्र), नाद (अनुस्वार के ऊपर रेखा ), कुण्डली ( प्राणियों की पिङ्गला नाम की दक्षिण नाही व इड़ा नाम की
मनी एवं मध्यवर्ती सुषुम्ना नाड़ी, अर्थात् प्राणायाम - विधि में वायु का संचार ढाई घड़ी पर्यन्त पिङ्गला व इडा नाड़ी द्वारा होता है- इत्यादि ) व वायु-संचार ( कुम्भक नासापुट द्वारा शरीर के मध्य प्रविष्ट की जानेवाली घटाकर वायु, पूरक - वाह्य वायु को पूर्ण शरीर में प्रविष्ट करना व रेचक कोष्ठ वायु का वाहिर निकालना इत्यादि, श्वास ( बाह्य वायु को नासापुट द्वारा शरीर के मध्य स्थापित करना व प्रश्वास ( कोष्ठ्य
१. अविषितात्मा असंक्ताशयः । २ॐकारस्याकारेण बिन्दुकलादीनामाकारेण व निर्बीजीकरणं कर्म करोति, तदवसाने मरणस्य जयो भवतीति मिथ्यादृष्टयः कथयन्ति तदसत्यं । बिन्दुः ( तथा चोकं 'पीतश्वेताणश्यामबिन्दु मि निरुपाधि खम्' सं० टीका पीतवर्ण बिन्दो दृष्टे पृथिवीतत्त्वं वहतीतिशेयं श्वेतबिन्दुदर्शने जलतत्वं अरुणविन्दुदने तेजस्तत्वम्, श्यामबिन्दुदर्शने वायुतत्वं, पीतादिवर्णरहित परिश्रमाने आकाशतत्वमिति । उपाधि शब्देन पीतादयो वर्णा गृह्यन्ते । खमाकादाम् यथावद्वायुतत्वमवगम्य तत्त्रियमने विधीयमाने विवेकज्ञानावरणकर्मयो भवति, तपो न परं प्राणायामात् । सं०] टीका — उत्तरीत्या श्वासोच्छ्वासतवं विज्ञाय प्राणायामेन वायोनिरोषे ते विवेकज्ञानाच्छादकं कर्म श्रीयते' । सर्वदर्शनसंग्रह पातलदर्शनप्रकरण पृ० ३८० से संकलित — सम्पादक) अर्धचन्द्र कला, अनुस्वारस्योपरि रेखा स नावः कथ्यते । कुण्डको तदाकारेण बीजीकरणम् । ३. त्रिकोण चतुष्कोणादि बहुप्रकाएं देन बहुवचनं । ४. प्रेर्याणि । ५ यदा मरणवेला वर्तते तदा निजीकरणं क्रियते ।
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" नाभी ने ललाटे "अग्निमध्ये रौब मृत्युंजयं यवन्तेषु स सत्वं
*.
वायु को शरीर से बाहर निकालना ) को गतिविच्छेद लक्षणवाला प्राणायाम ) मुद्रा ( आसन, अर्थात् -- हस्त व पादादि का अवस्थान विशेषरूप पद्मासन, भद्रासन, वोरासन व स्वस्तिकासन आदि दश प्रकार का आसन ) व मण्डल ( त्रिकोण व चतुष्कोण व वृत्ताकार आदि आकार ) इन सबकी प्रेरणा की लीलाएँ ( कर्म ) बीजीकरणकर्म ( संप्रज्ञात समाधि - वाह्य पदार्थों की विषय करनेवाली अविद्या आदि वृत्तियों का निरोध) में और निजीकरण (असंप्रज्ञातसमाधि ) में कारण हैं । अभिप्राय यह है, कि आसन को स्थिरताआदि में प्रतिष्ठित हुमा प्राणायाम उत्कृष्ट तपरूप होकर संप्रज्ञात समाधि आदि में कारण होता है । इसी प्रकार वह प्राणायाम - विधि से निम्न प्रकार वोजीकरण कर्म ( संप्रज्ञातसमाधि ) को नाभि, नेत्र, ललाट ( मस्तक ), ब्रह्मग्रन्थि ( समस्त आतड़ियों का समूह ) व तालु, अग्नितत्ववाली नासिका, रवि ( दक्षिणनाड़ी ), चन्द्र ( बामनाड़ी), जननेन्द्रिय व हृदकर ( हृदयछिद्र के बिना भी उस काल में मेद सरीखी गाँठ हो जाती है ) इनके प्रमुख मार्ग द्वारा करता है और जब मरणवेला होती है तब मुक्ति की प्राप्ति के लिए निर्बीजीकरण कर्म (असंप्रज्ञात समाधि ) करता है जिससे वह मृत्यु से वञ्चित होता है, अर्थात् — उसका पश्चात् मरण नहीं होता क्योंकि प्रस्तुत तत्व ( निर्बीजीकरण ) निश्चय से मुक्ति का कारण है। अहो आश्चर्य की बात है क्योंकि यह अपने व दूसरों को ठगनेवाली नोति मूढ़ बुद्धिवालों की समझनी चाहिए ।
"
अष्टम आश्वासः
भावार्थ- पातञ्जल दर्शन में योग ( ध्यान ) के आठ अङ्ग कहे हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये पांच यम है "" शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं । १२ पद्मासन, भद्रासन, वोरासन व स्वस्तिकासनआदि दश प्रकार के आसन हैं। क्योंकि आसन की स्थिरता होनेपर प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है। श्वास ( नासापुट द्वारा बाह्य वायु का भीतर प्रवेश, जिसे पूरक कहते हैं) और प्रश्वास - ( नासापुट द्वारा कोय वायु का बाहर निकालना, जिसे रेचक कहा है ) काल में वायु की स्वाभाविक गति का विरोध ( रोकना ) प्राणायाम है। उसके तीन भेद हैं- पूरक, कुम्भक व रेचक ।
"}
व तालुनि ।
लूतासन्तों" बकुरें ।।१८१ ॥
किल मुक्तये । अहो मूढधियामेव नयः स्वपरवधनः ।। १८२ ।।
१- २. नेत्रनाभिप्रमुख मार्गेण शुक्रनिष्कासनं कर्म मृत्युञ्जयं भवति साधनाम्यासेन' । विमद - अयं विषयः टिप्पणीकारण कुतः प्रास्त्रासू संकलितः ? इति न जानीयो वयं यतः पातञ्जलयोगदर्शने नास्ति ।
सम्पादक
३. निखिलान्त्रजाले ब्रह्मपन्थिदच्यते तत्रापि निर्दोजी करणं भवति । ४. नासिकायां अग्नितत्वं वर्तते । ५. दक्षिणनायां । ६. चन्द्रे वामनाइयां । ७. लूतावन्तो लिङ्गविषये । ८. हृदयछिद्रं विनापि तदाकाले मंदसदृशप्रन्यिः स्यात् । ९-१० यया मरणवेला वर्तते तदा निर्बीजीकरणं क्रियते तेन कर्मणा मृत्यो वंचिते सति पश्चात् कदापि मरणं न स्यादित्यर्थः ।
तथा चोक्तं पतञ्जलिता - यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोवनानि योगस्येति ( पात० यो० सू० २।२९ )
११. तथा चाह पतञ्जलिः अहिंसासत्यास्तेय ब्रह्मचर्यापरिश्रहा यमाः ।
१२.
सन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ।
१३.
1
४२१
तस्मिन् सति श्वासप्रश्वासयोर्गतिविच्छेबः प्राणायामः
"1
33
दास नाम वाह्यस्य वायोरन्त रानयनम् । प्रश्वासः पुनः कोमस्य बहिर्निःसारणम् ॥
( पात० यो० सू० २।३० ) (पात०० सू० २१३२ ) ( पात० यो० सू० २०४९ )
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यशस्तिलकचम्पूकाच्ये
नासापुट से बाह्य वायु को शरीर के मध्य प्रविष्ट करके शरीर में पुरने को पूरक कहा है। उस पूरक वायु को स्थिर करके नाभिकमल में घट की तरह भरकर रोके रखने को कुम्भक कहा है । पश्चात् उस वायु को धीरे-धीरे बाहर निकालने को रेचक कहते हैं । प्राणायाम से स्थिर हुआ नित्त इन्द्रियों के विषयों से संयुक्त नहीं होता और ऐसा होने से इन्द्रियां भी विषयों से संयुक्त नहीं होतों चित्त के स्वरूप को अनुकरण करनेवाली हो जाती हैं। इसी को प्रत्याहार कहते हैं ।
४२२
जिस देश में ( नाभिचक्र, हृदयकमल, नायाग्र, भ्रुकुटि का मध्यभाग व मस्तक आदि देश में ) ध्येम ( प्रणव - ओंकार मन्त्र आदि । चिन्तनीय है, उस देश में चित्त के स्थिरीकरण को वारणा कहते हैं |
पौराणिकों ने कहा है कि 'प्राणायाम से वायु को वश में करके और प्रत्याहार द्वारा इन्द्रियों को वश करके पश्चात् नाभिचक्र आदि देशरूप शुभाश्रय में चित्त को अवस्थिति ( एकाग्रता ) करे 1 प्रसन्नवदन ( विष्णु आदि ) ध्येयरूप के ज्ञान के ऐसे प्रवाह को ध्यान कहते हैं, जो कि एकाग्ररूप और दूसरे विषयों के व्यवधान शून्य है ।" * पोराणिकों ने भी यही कहा है । 'वही ध्यान ध्येय के आवेश के वश जब ध्यान व ध्याता की दृष्टि से शून्य होकर ध्येयरूप अर्थमात्र को ग्रहण करनेवाला होता है उस काल में ध्यान विद्यमान होकर के भी ध्याता, ध्यान व ध्येय आदि विभागको ग्रहण न करने के कारण स्वरूप शून्य की तरह हो जाता है, उसे समाधि कहते हैं ।" समाधि के दो भेद हैं--संप्रज्ञात व असंप्रज्ञात समाधि । उक्त आठ योग ( ध्यान ) के साधनों में से यम, नियम, आसन, प्राणायाम व प्रत्याहार ये पाँच योग के बहिरङ्ग सावन है, क्योंकि ये चित्त की स्थिरता द्वारा परम्परा से ध्यान के उपकारक हैं। धारणा, ध्यान व समाधि ये तीन योग के अन्तरङ्ग कारण हैं; क्योंकि समाधि के स्वरूप को निष्पादन करते हैं । इसप्रकार यह ध्यानरूपी वृक्ष चित्तरूपी क्षेत्र में यम व नियम से बीज प्राप्त करता हुआ आसन व प्राणायाम से अङ्कुरित होकर प्रत्याहार से कुसुमित होता है एवं धारणा, ध्यान व समाधिरूप अन्तरङ्ग साधनों से फलशाली होता है |
प्राकरणिक अभिप्राय यह है कि योगी (ध्यानी ) को पूर्वोक यम (अहिंसा आदि ) व नियम ( शौच व सन्तोष आदि ) की धारण करते हुए आसन (पद्मासन आदि ) की स्थिरता से प्राणायाम को प्रतिष्ठित करना चाहिए और प्राणायाम को बेला में सबसे प्रथम प्रणवमन्त्र ( ओंकार ) रूप ध्येय तत्व का चिन्तन करना चाहिए | पश्चात् पीत व शुभ्र आदि बिन्दु का दर्शन करना चाहिए, जो कि पृथिवीतत्त्व, जलतत्त्व व तेजतत्व आदि के ज्ञान में साधन है। अर्थात् प्राणायाम के समय योगों को मुख के दक्षिण भाग पर व वामभाग पर क्रम से दाहिनी व बाई हस्ताङ्गुलियों को तत्तत्स्थानों पर स्थापन करने के बाद जैसे कानों में अष्ठ को, नेत्रप्रान्त में तर्जनी को, नासापुट में मध्यमा बङ्गुलि को, कर्व ओष्ठ के प्रान्तभाग में अनामिका को और
१. तथा चाह पतञ्जलिः स्वविषयासंगे चित्तस्त्ररूपानुकार इवेन्द्रियाणां प्रत्याहारः
२.
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३. तथा चोक्तं विष्णुपुराणे —
प्राणायामेन पवनं प्रत्याहारेण चेन्द्रियम् । वशीकृत्य ततः कुर्यात्तिस्थानं शुभाश्रये || १ || ( बि० पु० ६४७२४५ ) ४. तथा चाह पतञ्जलिः -- तत्र प्रत्ययैकतानता ध्यानम्
( पा० यो० सू० ३२ )
* तथा चोक्तं विष्णुपुराणे
"
( पात० यो० सू० २०५४ )
( पात० यो० सू० ३११ )
देशबन्यश्चिसस्य धारणा
तद्रूपत्यकामा संततिश्वान्यनिःस्पृहा । नद्वयानं प्रथमेरः षद्भिनिष्पाद्यते नृप ॥ १ ॥ ( वि० पु० ६।७।८९ ) ५. तथा चाइ पतञ्जलिः - तदेवार्थमात्र निर्भासं स्वरूपशून्यमिव समाधिः ।
( पात० यो० सू० ३।३ )
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अष्टम आश्वासः
कर्माण्यपि यदी मानि साध्यान्येवं विषंनयेः । अलं तपोजपाप्तेष्टि 'माध्ययन कर्मभिः ||१८३|| योऽविचारितरम्येषु क्षणं बेहातिहारिष्ठु । इन्द्रियायेंषु वश्यात्मा सोऽपि भांगी किलोच्यते ॥ १६४॥ यस्येन्द्रियार्थतृष्णापि जनंरीकुरुते मनः । तद्विरोषभुवो वास्मः सप्सिति कथं नरः ।। १८५ ।। आत्मज्ञः संखितं शेषं पालना योग फर्मभिः । कालेन पयति योगी रोगीव 'करूपताम् ॥ १८६ ।।
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अधरोष्ठ के प्रान्तभाग में कनिष्ठिका अङ्गुली को स्थापित करना चाहिए। इसके पश्चात् अन्तर्दृष्टि द्वारा अव लोकन करने पर बिन्दु का दर्शन होता है। जैसे पीतविन्दु के दर्शन से पृथिवीतत्त्व का श्वेतविन्दु के दर्शन से जलतत्त्व का, अरुणविन्दु के दर्शन से तेजतत्व का, श्यामबिन्दु के दर्शन से वायुतत्व का और पीतादिवर्ण-रहित परिवेष कहो है।
से
प्राणायाम की बेला में अर्द्धचन्द्ररूप कला का चिन्तवन करते हुए नाद ( ध्वनिविशेष - अजा शब्दातुकरण ) करना चाहिए ।
इसके बाद वायु के बहून व स्थान का ज्ञान करने के लिए कहा गया है--प्राणियों को पिङ्गला नामकी दक्षिणनाड़ी, इड़ा नामको बामनाड़ी एवं सुषुम्ना नामकी मध्यवर्ती नाड़ी है। वायु का संचार ढाई घड़ी पर्यन्त पिङ्गला से होता है, बाद में ढाई घड़ी तक इडा से होता है । पुनः उतने काल तक पिङ्गला से पश्चात् उतने काल तक इड़ा से होता है। इस प्रकार दिन रात रिहिट की घरियों के घूमने की तरह दोनों नाड़ियों से बापू वहतो है । एक एक घड़ी में ६० साठ पल होते हैं और एक एक पल में श्वास-प्रश्वास छह होते हैं, इस प्रकार एक घड़ी में ६०x६ = ३६० श्वास-प्रश्वास होते हैं और ढाई घड़ी में ९०० श्वास-प्रश्वास होते हैं। अर्थात् एक घंटे में ९०० श्वास-प्रश्वास होते हैं । इस प्रकार सूर्योदय से लेकर पुनः सूर्योदय पर्यन्त ( २४ घंटे में ) २१६०० श्वास-प्रश्वास होते हैं । इस प्रकार नाड़ी संचरण की दशा में वायु का संचार होने पर पृथिवीयादि सत्वों का ज्ञान होता है ।
इसी प्रकार योगी प्राणायाम विधि से निम्नप्रकार संप्रज्ञातसमाधि को नाभि, नेत्र, ललाट, समस्त तड़ियों का समूह, तालु, अग्नितत्ववाली नायिका, दक्षिणनाड़ी, बामनाड़ी, जननेन्द्रिय व हृदङ्कुर इनके प्रमुख मार्ग द्वारा करता है ( जिसे हम धारणा के विवेचन में स्पष्ट कर चुके हैं ) और जब मरणवेला होती है। तब मुक्ति की प्राप्ति के लिए असंप्रज्ञात समाधि करता है, जिससे वह मृत्यु से वञ्चित होता है ।। १८०-१८२ ।। यदि इस प्रकार के प्राणायाम आदि उपायों से इस कर्मों का क्षय हो सकता है तो उनके क्षय के लिए तप, जप, जिनपूजा, दान व स्वाध्याय आदि क्रियाकाण्ड व्यर्थ हो जायेंगे || १८३ || आश्चर्य है कि वह मानव भी, जिसकी आत्मा विना विचारे मनोश प्रतीत होनेवाले व क्षणभर के लिए शारीरिक पीड़ा दूर करनेवाले इन्द्रियों के विषयों में वशीभूत है, निस्सन्देह योगी ( ध्यानी ) कहा जाता है ? ।। १८४ ।। इन्द्रियों के विषयों hat तृष्णा जिसके मन को पीड़ित करती है, वह मानव इन्द्रियों के रोकने से उत्पन्न होनेवाले मोक्षरूपी तेज की प्राप्ति की इच्छा कैसे कर सकता है ? ।। १८५ ।। आपके यहाँ आत्मज्ञानी मुनि उस प्रकार संचित ( पूर्व में बधि हुए) दोष ( राग, द्वेष व मोहादि ) को यातना ( शारीरिक तीव्रवेदना ) व योगकर्मी ( प्राणायाम - आदि
१. जिनपूजा २ इस्ट्रिय । ३. तेजसः । ४. कथं प्रातुमिच्छति ? ५ लङ्घनादि तीव्र वेदना । ६. योगः औपनादि • प्रयोगः ध्यानं च ७ क्षयं कुर्वन् । ८. नोरोगतां ।
*. प्रस्तुत लेखमाला 'पासजलयोगदर्शन' के आधार से गुम्फित की गई है— सम्पादक
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लाभेला बने वासे मिमित्र प्रियेऽप्रिये । सुखे से समानामा भलवधानीः सदा ॥१८७॥ परे ब्रह्मण्यतचानो 'तिमंत्री चया वितः । अन्यत्र सूनसावाश्यानित्यं "वाघमी भवेस् ॥१८८॥
संयोगे 'विप्रलम्भे व निवाने १५ परिवने । १२हिसायामनसे स्तेये भोगरक्षासु तत्परे ॥१८९॥ ध्यान के अङ्गों) से घिरकार का करताना पदाति प्राप करता है, जिस प्रकार रोगी शरीर में संचित किये हुए दोषों (वात, पित्त व कफ की विषमता से उत्पन्न हुए रोगों ) को यातना ( लङ्घन-आदि) व योगकर्म ( औषधि के प्रयोग) द्वारा चिरकाल से क्षय करता हुआ कल्पता (निरोगता) प्राप्त करता है।
भावार्थ- यदि आपके यहां आत्मज्ञानी योगी पुरुष प्राणायाम को विधि से उत्पन्न हुई शारीरिक तोत्रवेदना व योगकर्मों ( ध्यानादि क्रियाकाण्डों ) से पूर्व में बाँधे हुए अज्ञानादि पाप कर्मों को क्षय करता हुआ चिरकाल में मुक्ति-लाभ करता है तो वह रोगो-सरीखा ही है, क्योंकि रोगी भी प्रकृति-विरुद्ध आहार-विहार द्वारा संचित हुए वात, पित्त व कफ की विषमता से उत्पन्न होनेवाले रोगों को लङ्घन व औषधि के प्रयोग से समय पाकर क्षीण करता हुआ निरोगता प्राप्त करता है ।।.१८६ ॥
धर्मध्यान में बुद्धि रखनेवाले को सदा लाभ व हानि में, धन और गह में, मित्र व यात्रु में, मनोज व अमनोज्ञ में एवं सुख व दुःख में समभाव रखनेवाला होना चाहिए ॥ १८७ ।। धर्मध्यानी को परमात्मा में लवलीन होते हुए द्वादशाङ्ग श्रुत का अभ्यासी एवं धति ( प्रिय-अप्रिय वस्तु को प्राप्ति होने पर चित्त को विकृत न करना ), मंत्री ( समस्त प्राणियों से द्रोह न करने की बुद्धि) और दया ( अपने समान दूसरे प्राणियों के हित करने को बुद्धि) से युक्त होते हुए सदा सत्य वचन ही बोलना चाहिए अथवा मौन पूर्वक रहना चाहिए ।। १८८॥
आते व रौद्रयान का स्वरूप और उनके त्यागने का उपदेश विवेकी को आतं व रौद्रध्यान त्याग देना चाहिए, जो कि संयोग, वियोग, निदान, वेदना, हिंसा, झूठ, चोरी व भोगों की रक्षा में तत्परता से उत्पन्न होते हैं और जीव को अनन्त संसार में भ्रमण लक्षणवाले पापरूपी रथ के मार्ग हैं और परिणाम में विशेष दुःख देनेवाले हैं।
भावार्थ-इनमें पहला आर्तध्यान चार प्रकार का है। अनिष्ट संयोगज, इष्टवियोगज, निदान व परिदेवनरूप । अनिष्ट वस्तुका संयोग हो जाने पर उससे छुटकारा पाने के लिए जो सदा अनेक प्रकार के उपायों १. बारमनि । २. प्रवचन सा अधीती। ३. प्रियाप्रियवस्तूपनिपाने चिसस्याविकृतितिः । ४. सर्वसत्वानभिदोह
बद्धिमत्रो। ५. आत्मवत परस्यापि हितोपादानवृत्तिर्दया । ६. विना। ७. सत्यं वदेत अथवा मौनो स्यात् । ८. संयोग इत्यादिना चविषमातव्यानमुपदिशति-तम गंचानामिन्द्रियाणां मनसाऽपिडितानामपभोक्तत्वेन स्वेषु विषयेयु प्रवृत्तिः संयोगः । २. 'वियोगे' टिक स., 'प्रीतिविषयस्य वस्तुनो देगकालाभ्यां विप्रकपात्मनो दौमनस्य विप्रलम्भः । १०. निजानधानमूल्येनानिमिपं मनुष्येष्वभिलषितवस्तुपरिपणनं निवान । ११. आगतयारिष्टानिष्टयोरवि. योगवियोगप्रार्थनमनागतयोरुत्पत्पनत्पत्तिप्रायनं वा परिदेवनं । तथा बाया-प्राजाने चहिते वियोगसंयोगबुदितिः स्यात् । विगमानामागमचिन्तनमहिने च तद्वं वार्स ।। १३ १२. हिसायामित्यादिना घविध रोद्रं समुपदियाति--हिंसादयः कविना स्वयमेव व्याख्याता:1 तथा चोक्त-स्वपरापायगी मावो रुम इत्युच्यसे बुधैः । तत्र यात तुर्य कर्म रौद्रं सन्तस्तदृचिरें ॥१॥ १३. पूर्वोक्त पदार्थ तत्परे तन्मयेने आलरोद्रध्याने ।
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अष्टम आश्वासः
अन्तोरनन्तसंसारभ्रमंनो रथवर्मनी । आर्तरोने स्यजेद्धपाने तुरन्तरूलवामिनी ।।१९।। धोध्यागमकपाटे ते मुक्तिमार्गिले परे । सोपाने श्वश्रलोकस्य तत्वेक्षावृत्तिपमणी ।।१९१३॥ लेशतोऽपि मनी पावते समधितिष्ठतः । एष जन्मततामधुचः समधिरोहति ॥१९२।। ज्वलन्नजनमाधते प्रदोषो न रविः पुनः । तथाशविशेषेण ध्यानमारमते फलम् ॥१९३॥ प्रमाणमयनिक्षेपः सामुयोगैषिशुरषोः । मति तनोति तत्वेषु धर्मध्यामपरायणः ।।१९४|| "अरहस्ये पया लोके सती कामधनकर्मणो" । "मरहस्यं तमेच्छन्ति मुधियः परमागमम् ॥१९५।।
का चिन्तवन करना है, वह अनिष्ट संयोगज नामका पहला आर्तध्यान है। इस वस्तु का वियोग हो जाने पर उसको प्राप्ति के लिए हमेशा चिन्तवन करते रहना वह इष्टवियोगज नाम का दूसरा आर्तध्यान है । आगामी भोगों की प्राप्ति के लिए सतत चिन्तवन करना तीसरा निदान नामका आर्तध्यान है । शारीरिक पीड़ा हो जाने पर उसे दूर करने के लिए निरन्तर चिन्तयन करना वह वेदना नामका चौथा आर्तध्यान है। इसीप्रकार रौद्रध्यान भी हिसानंदी, मृषानंदी, चोर्यानंदी, व परिसहानदी के भेद से चार प्रकार का है। दूसरों को सताने में आनन्द मानना हिंसामन्दी नामका रौद्र है। झूठ गोलो में आनन्द मानना समानी, चोरी करने में आनन्द मानना चौर्यानन्दी और विषय-भोग की सामग्री के संचय करने में आनन्द मानना विषयानन्दी नामका चौधारौद्रध्यान है ! उक्त दोनों आर्त व रोद्रध्यान त्याग देने चाहिए ।।१८९-१९०।। ये दोनों अशुभ ध्यान जाननेयोग्य आमम के ज्ञान को रोकने के लिए किवाड़-सरीखे हैं और मोक्षमार्ग के रोकने के लिए बड़े अर्गल-( वेड़ा) जैसे हैं एवं नरकलोक में उतरने के लिए सीढ़ी-जैसे हैं और तत्त्वष्टि को ढांकने के लिए पलकों के समान है ।। १९१ ॥ जब तक मन में ये दोनों ध्यान लेशमात्र भी अधिष्ठित रहते हैं तबतक यह संसाररूपी वृक्ष विशेष केंचा होकर बढ़ता चला जाता है | १९२ ।। जिसप्रकार जलता हुआ दीपक कज्जल धारण करता हैं कि जलता हुआ सूर्य, उसीप्रकार ध्यान भी ध्यान करनेवाले के अच्छे या बुरे भावों के अनुसार हो अच्छा या बुरा फल देता है ।। १९३ ।।
धर्मध्यान
[दोष व दोष-फल प्रदर्शित करने पर मनुष्य-लोक का गुण व गुण-फल के श्रवण में आग्रह होता है, ऐसा निश्चय करके शास्त्रकार वार्त व रौद्र घ्यान के बाद धर्मध्यान का निरूपण करते हैं ]
जो निर्मल बुद्धिशाली मानव धर्मध्यान में तत्पर होता है, वह प्रमाण ( सम्यग्ज्ञान), नय, निक्षेप और अनुयांगद्वारों के साथ तत्त्वों के ज्ञान में अपनी बुद्धि प्रेरित करता है, वह उसका आज्ञा विचय धर्मध्यान है ।। १९४ ।। जिसप्रकार लोक में सुवर्ण की दो क्रियाएँ ( कसौटी पर कसना और छेदन करना) प्रकटरूप से होती है उसीप्रकार विद्वान् पुरुप परमागम को भी गृढ़ता-रहित (प्रकट अर्थवाला ) चाहते हैं। अभिप्राय यह है कि सुवर्ण की तरह परमागम भी ऐसा होना चाहिए, जिसे सत्य की कसौटी पर कसा जा सके, ऐसा आगम ही श्रेष्ठ है, उसमें कहीं हुई वार्ते यथार्थ होती हैं, परन्तु जो आगम हमारे-सरीखे अल्प बुद्धि वाले
१. एनोरथ--पापरथमार्गभूते हैं घ्याने । २. तमा चोक्तं तत्वार्थसूत्र-म०९) 'आर्तममनोज्ञस्य सम्प्रयोगे
तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार । ३०॥ विपरीतं मनोज्ञस्य ।। ३१॥ वेदनायारच ॥ ३२॥ निदाने च ।। ३३ ॥
हिमानलस्तेयबिषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरलयोः ॥३५।। ३. नेवनिमीलन नेत्रापनोपकरणविस्फारणि? ४. करोति । ५. प्रकट। ६. विद्यमाने भवतः । ७. सुवर्णस्य द्वे कर्मणी कषच्छेदलपाणे । ८. प्रकटाथ ।
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यशस्तिलकचम्पूकायै
"यस्पोषन विचारेष्वपि मावृशां । स संसाराचे ज्ञजन्मवालम्बः कथं भवेत् ॥ १९६ ॥ ( इत्याशा ) मही मियातमः पुंसा युक्तिश्रोतः स्फुरत्यपि । यवन्धयति चेतांसि रत्नत्रयपरिग्रहे ॥ १९७॥
शामहे तवेषां दिनं' यत्रास्तकरमवाः । इवमेते प्रपश्यन्ति तस्वं दु:खनिवर्हणम् ॥ ११८ ॥ ( इत्यपाथः ) अकृत्रिम विचित्रामामध्ये सरः जिमान् । भवत्यतो लोकः प्राने 'तज्ञामनिष्ठितः || १९९ ।। ( इति लोक: * ) रेवन्तस्तत्र लियंगुष्वं मधोऽपि च । अनारतं भ्रमस्येते निजकर्मा निलेरिताः ॥ २००॥ ( इति विपाकः ) मानवों की परीक्षा में स्खलित ( असफल ) होता है, वह संसार समुद्र में डूब रहे प्राणियों को अवलम्बन ( सहारा ) देनेवाला किसप्रकार हो सकता है ?
भावार्थ - क्षायोपशमिक ज्ञान से सर्वज्ञ भगवान् द्वारा प्रतिपादित परमागम से परमात्मा के स्वरूप का निश्चय करके परमात्मा का ध्यान करना चाहिए, इसी से परमात्म पद की प्राप्ति होती है। जिस ध्यान में जैन सिद्धान्त में कहे हुए वस्तुस्वरूप का चिन्तन सर्वज्ञ भगवान् को प्रमाण मानकर उनको आज्ञा को ही प्रधान करके किया जाता है उसे आज्ञाविचय धर्मध्यान कहते हैं ।। १९५-१९६ ।।
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अपायविचय का स्वरूप
आश्चर्य है कि युक्तिरूपी प्रकाश के विस्तृत होने पर भी मिध्यात्वरूपी अन्धकार, प्रम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय को ग्रहण करने में ( मोक्षमार्ग को स्वीकार करने में ) मनुष्यों के fart को अन्धा बनाता है । अर्थात् हिताहित के विवेक से शून्य करता है, इसलिए हम इन भव्यजनों के उस दिन की आशा करते हैं, जिस दिन ये मिध्यादृष्टि मिध्यात्वरूपी पाप को नष्ट करने वाले होकर समस्त दुःखों से छुड़ानेवालो तत्वों की श्रद्धा करेंगे, अर्थात् सन्मार्ग से भ्रष्ट हुए मानवों के उद्धार करने के विषय में जो चिन्तन किया जाता है, उसे अपायविचय धर्मध्यान कहते हैं ।। १९७-१९८ ।।
संस्थानविचय का स्वरूप
यह लोक किसी ईश्वर आदि द्वारा रचा हुआ नहीं है, और इसका स्वरूप भी विचित्र है, इसके बीच में एक राजू चौड़ी व चौदह राजू लम्बो असनाली है एवं जो तीन वातवलयों ( धनदधिवात वलय, धनवातवलय व तनुवातबलय ) से वेष्टित ( घिरा हुआ ) है तथा लोक के ऊपर उसके प्रान्तभाग में सिद्धस्थान है, अभिप्राय यह है उक्त प्रकार लोक के स्वरूप के चिन्तवन करने को संस्थानविचय धर्मध्यान कहते हैं ||१९||
१. परकीय: आगमः । २. घयं वाच्छामः ३. यत्र यस्मिन् दिने एते मिथ्यादृष्टयः मस्तकल्मषाः सन्तः तत्थं पश्यन्ति तद्दिनं वाच्छामः ।
तथा वाह पूज्यपाद:--
'जात्यन्वग्मिथ्यादृष्टयः सर्वज्ञप्रणीतमार्गाद् विमुखा मोक्षार्थिनः सम्य मार्गापरिज्ञानात् सुगुरमेवापयन्तीति सन्मार्गापायचिन्तनमपायविचयः । अथवा --- निष्यादर्शनज्ञानवारित्रेभ्यः कथं नाम इमें प्राणिनोऽपेयुरिति स्मृति मन्वाहारोऽपायविचय:' । — सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सू० ३६ । ४. मोक्ष । * संस्थान विचयघध्यान ।
तथा चाह टिप्पणीकारः श्रुतिमतिबलवीर्य प्रेमरूपायुरंग, स्वजनतन कान्ताभ्रातृपित्रादिसर्वं ।
गितलं वा न स्थिरं वीक्षतेंगी तदपि वत विमूढो नात्मकार्य करोति ॥ १ ॥ इति संस्थान विचयः' टि० ख० । तथा चाह पूज्यपादः --- लोकसंस्थानस्वभावविचयाय स्मृतिसमन्वाहारः संस्थानविचयः । सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र ३६ । ५. तथा चात् पूज्यपाद:-- 'कर्मणां ज्ञानावरणादीनां द्रव्यक्षेत्रकाल भवभावप्रत्ययफलानुभवनं प्रति प्रणिधानं विपाकविषमः । - सर्वार्थसिद्धि अ० ९ सूत्र ३६,
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४२७
अष्टम आपवासः
वमायान्ति
द्वादशास्मोषयादिव ।।२०१।१
हति चिन्तयतो वम्यं यतात्मेन्द्रियचेतसः । तमांसि "भैवं विवजिता मंत्रमभेद" भेववजितम् । ध्यायन्तुम क्रियाशुद्धी निष्क्रियं योगमाचरेत् ॥ २०२ ॥
विपाकविचय का स्वरूप
ये प्राणी धूलि सरीखे अपनी कर्मरूपी वायु द्वारा प्रेरित हुए निरन्तर इस लोक के मध्य, . ऊर्ध्वं व अधोलोक में भ्रमण करते हैं, उक्त प्रकार ज्ञानावरण आदि कमौके फल के चित्तवन करने को विपाकविचय कहते हैं ।
भावार्थ --पञ्जिकाकार* ने कहा है कि 'भाः कष्ट है कि निश्चय से विचित्र फल ( सुख-दुःख ) देनेवाले ज्ञानावरण- आदि कर्मों द्वारा संसार के प्राणो चारों गतियों में दुःखित किये जाते हैं, इसलिए कब मैं इस कम - फल की निर्जरा करके आगामी कर्म-फल को तिरस्कृत करता हुआ मोक्ष प्राप्त करनेवाला होकँ, इस प्रकार चिन्तवन करना विपाकविचय है ।। २०० ।।
धर्म ध्यान का फल
जैसे सूर्य के उदय से तम ( अन्धकार ) नष्ट हो जाते हैं वैसे ही अपनी इन्द्रिय व मन को वश करके धर्मध्यान का चिन्तन करनेवाले मानव के तम ( अज्ञान या पाप नष्ट हो जाते हैं ।। २०१ ॥
शुक्लध्यान का स्वरूप
[ उक्त चारों प्रकार
'धर्मध्यान विधि में प्रवीण हुआ योगी मोक्षोपयोगी शुक्लध्यान प्राप्त कर १. विनाशं । २. सूर्य । ३. भेदं पृथक् । ४. विवजिताभेदकत्वरहितमर्थव्यज्जनयोगान्तरेषु संक्रमात् । अनेन पृथक्त्वथितर्कवीचाराख्यं शुक्लध्यानमुक्तं । ५-६ अभेदमेकत्वं भेदवजितं पृथक्त्वरहितमर्थव्यञ्जनयोगान्तरेष्वसंक्रमात् । अनेन एकवितर्कावचाल्यं शुषलध्याममुक्तं । ७. सूक्ष्मक्रियाशुद्धः सूक्ष्मैकक्रियावलम्बनः, अनेन सुक्ष्मक्रियाप्रतिपत्ति शुक्लध्यानमुक्तं । ८-९ निष्क्रियं सकलयोग रहितं योगं ध्यानं, अनेन समुच्छ्न्निक्रियानिवत शुक्लध्यानमुक्तम् ।
भवन्ति चात्र सुभाषितानि --
वितर्कः श्रुतमित्याहुविचारः संक्रमो मतः । अर्धव्यः खनयोगेषु स च संक्रम इष्यते ।। १ ।।
पर्यायरूपः स्यादयस्तत्वार्थवेदिना । यद्वाचकवचस्तस्य सहजन मृदाहृतम् ॥ २ ॥ श्रेणिभाष्यं हेतुः स्वर्गापवर्गयोः । शुक्लमाद्यं भवेद्वघानं श्रुतकेबलिनो मुनेः ॥ ३ ॥
योगं यं वाचं वा, संक्रम्योषत्वाणुपये वितयतः 1 श्रुतिविषयं भवति यतेः केवलज्ञानं क्षपकश्रेणिमारूढः ॥४॥ *. तथा चाह् सूत्रकारः--'शुक्ले जाये पूर्वविदः ।। ३७ ।। परे केवलिः ।। ३८ ।। पृथक्त्वैकत्वदितसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरत क्रियानिवर्तीनि ।। ३९ ।। - चत्वार्थसूत्र अ० ९ ।
*.
सप्या च पञ्जिकाकारः - आः कष्टं खलु चित्रं फलमनुभावयद्भिरमीभिः कर्मभिश्चतसृषु गतिषु प्राणिनः विकश्यन्ते तत्तदाऽहमेतत्फलं निर्दोषपरिक्षागामिकर्मफलसंबंध: शिवी स्यामिति भावनं विपाकः ।
ह० लि. पलिका से संकलित – सम्पादक
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
बिलोनाशय संबन्धः शान्त मारलस उचयः । देहातीतः परं षाम केवल्यं प्रतिपद्यते ॥ २०३ ॥ प्रमीणोपकर्माणं' जन्मबोधविवजितम् । सन्यात्मगुणमात्मानं मोक्षमाहुर्मनीषिणः ॥ २०४ ॥ | २ मार्ग सुत्रमनुप्रेक्षाः सप्तसत्त्वं जिनेश्वरम् । ध्यायेदागमचक्षुष्मान्प्र संस्थानपरायणः ॥ २०५ ॥ "जाने तत्वं यथेति " सवनयः । मुखेऽहं सर्वमारम्भमात्मन्यात्मानमावबे ॥ २०६॥ मनोभिसंपतेरात्मन्यात्मानमात्मना । यदा "सूते तदात्मानं लभते परमात्मना ।।२०७ || सकता है ऐसा चित्त में निश्चय करके ग्रन्थकार धर्मध्यान के बाद शुक्लध्यान का निरूपण करते हैं * ] शुक्लध्यान के चार भेद हैं- पृथक्त्व वितर्कवीचार, एकत्ववित्तकवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और समुच्छिन्नक्रियानिति । उनमें से पहला पृथक्त्ववित्तकवीचार विवजिताभेद है, अर्थात् एकत्व-रहित है - अर्थ ( द्रव्य व पर्याय ) व्यञ्जन ( द्रव्य-पर्याय को कथन करनेवाला वचन ) व योगान्तरों ( मनोयोग आदि ) में संक्रमण करता है । दूसरा एकत्ववितकवीचार भेद-विवर्जित है, अर्थात्-पृथक्त्व से रहित है; क्योंकि यह अर्थ व व्यञ्जन-आदि में संक्रमण नहीं करता । तीसरा सुक्ष्मक्रियाप्रतिपाति, जो कि सूक्ष्म क्रिया का अवलम्बन करनेवाला है और चौथा समुच्छिन्न क्रियानिवर्ति, जिसका लक्षण निष्क्रिय है, अर्थात् - समस्त योग रहित है । अर्थात् - योगी उक्त तीन प्रकार के शुक्लध्यान को ध्याता हुआ निष्क्रिय ध्यान को ध्याता है। ऐसे अयोग केवली भगवान् इस चौथे शुक्लध्यान से समस्त कर्मों का संबंध नष्ट करनेवाले होकर जिनका प्राणापान ( श्वासोच्छ्वास ) वायु का प्रचार रुक गया है और जो वर्तमान शरीर छोड़कर सर्वोत्कृष्ट मुक्तिपद प्राप्त करते हैं || २०२ - २०३ ॥
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मोक्ष का स्वरूप
विद्वानों ने ऐसी विशुद्ध आत्मा को मोक्ष कहा है, जिसने दोनों प्रकार के कर्म (घातिया व अघातिया ) नष्ट किये हैं व जो जन्म, जरा व मृत्यु आदि दोषों से रहित है एवं जिसने आत्मिक गुण ( अनन्तज्ञान आदि ) प्राप्त किये हैं ।। २०४ ॥
ध्यान करने योग्य वस्तु
धर्म- ध्यान में तत्पर हुए मानव को शास्त्ररूप चक्षु से युक्त होकर मोक्षमार्ग के सूत्र ( सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्गः ) का ओर बारह भावनाओं का तथा मोक्षोपयोगी सात तत्वों का एवं वीतराग सर्वज्ञजिनेन्द्र भगवान् का ध्यान करना चाहिए ॥ २०५ ॥
धर्म यानी को क्या विचार करना चाहिए ?
में आगमानुसार तत्वों को जानता हूँ और एकाग्रचित्त होकर उनका श्रद्धान करता हूँ एवं समस्त आरम्भों को छोड़ता हूँ तथा आत्मा में आत्मा को स्थिर करता हूँ ।। २०६ ॥ संसारी यह आत्मा जब सम्यग्ज्ञान
१. वाति अघाति । २. रत्नत्रयलक्षणं । ३. ध्यानतत्परः । ४. अहं । ५. रोचे । ६. एकाग्रचितः ।
* तथा च पञ्जिकाकारः—
धर्मध्यानविधी सिद्धः शुक्लध्यानविधानभाक् । अतएवास्य भाषन्ले निर्देशं तदनन्तरम् ॥ १ ॥
इति चेतेसि निधाय धर्मध्यानानन्तरं चतुर्भदं शुक्लध्यानं भेदमित्यादिनोदाहरति । यगः पचिका से संकलित - सम्पादक ७. संसारी सन्नपि । ८ जनयति व्याग्रति वा ।
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अष्टमआश्वासः
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ध्यातात्मा ध्येयमात्मैव ध्यानमात्मा फलं तथा । आस्मा रत्नत्रयाएमोक्तो यथा पुस्तिपरिग्रहः ।।२०८॥ सुखामृतसुषासुतिस्ता 'देवयाचलः परं ब्रह्माहम वासे तमपाशवशीहसः ॥२०९|| पसा पकालि मे तनहालोरयगोचरम । तवा जाता चक्षः स्यामादित्य इवातमाः ॥२१॥ आदौ मध्यमप्रास्ते समिन्धिपन सुखम् । प्रातःस्नायिषु हेमन्ते तोयमुष्णमिवालि ।।२११॥ यो दुरामयदुवंश बद्ध पासो यमोऽङ्गिनि । स्वभावसुभगे तस्य स्पृहा केन निवार्यते ।।२१२।। अग्मयोगनसंयोगमुखामि यदि देहिनाम् । मिविपाणि को नाग सुपीः संसारमुस्मृजेत् ।।२१३॥ अनुयाचेत नापूषि नापि मृत्युमुपाहरेत् । भूतो भत्य हशतीत कालावषिविस्मरन् ॥२१४।। महाभागोऽहमद्यास्मि पत्तस्त्रचितेजसा । मुविशुवासरात्मासे लमःपारे प्रतिष्ठितः ॥२१॥
रूपीलक्ष्मी से आत्मा के द्वारा आत्मा में आत्मा का ध्यान करता है तब आत्मा को परमात्मरूप से प्राप्त करता है.-परमात्मा बन जाता है ।। २०७१। आत्मा ही ध्याता (ध्यान करनेवाला) है, आत्मा ही ध्येय ( ध्यान करने योग्य ) है एवं आत्मा ही ध्यान है तथा रत्नत्रयस्वरूप आत्मा हो ध्यान का फल है । अर्थात्ध्याता, ध्यान, ध्येय और उसका फल ये सब आत्मस्वरूप ही पड़ते हैं, युक्ति के अनुसार उसको ग्रहण करना चाहिए ॥२०८ ॥ में सुखरूपी अमृत की उत्पत्ति के लिए चन्द्रमा हूँ तथा सुखरूपी सूर्य को उदित करने के लिए उदयाचल हूँ। एवं में परब्रह्म स्वरूप है, परन्तु अज्ञानान्धकाररूपो जाल से पराधीन होकर इस शरीर में ठहरा हुआ हूँ ॥ २०९ ।। जव मेरा मन उस शुक्लध्यान के उदय को विषय करनेवाला होकर प्रकाशित होगा तब में उस प्रकार अतम् ( अज्ञान नष्ट करनेवाला ) होकर तीन लोक के पदार्थों का दृष्टा ( केवली ) हो जाऊँगा जिस प्रकार अतम ( अन्धकार नष्ट करनेवाला) सूर्य जगत को चक्षु ( लोक के पदार्थो को प्रकाशित करनेवाला) होता है ॥ २१ ॥ समस्त इन्द्रिय-जन्य सुम्न शुरु में मधु-जैसा मोठा प्रतीत होता है परन्तु अखोर में कटुक मालूम पड़ता है जैसे शीत ऋतु में सवेरे स्नान करनेवाले प्राणियों को उष्ण जल प्रिय मालूम पड़ता है न कि ग्रीष्म ऋतु में प्रातः स्नान करने वालों को ।। २११ ॥ जो यमराज दुष्ट व्याधियों से पीड़ित होने के कारण दुःख से भी देखने के लिए अशक्य ( कुरूप) प्राणी को अपने मुख का ग्रास बनाता है, तो स्वभाव से सुन्दर प्राणी को अपने मुख के ग्रास बनाने की उसकी इच्छा को कोन रोक सकता है? अर्थात्-वह सुन्दर मनुष्य को भी खा लेता है ।। २१२ ।। यदि प्राणियों के जन्म, यौवन व इष्ट-संयोग से होनेवाले सुख विपक्षों (जन्म का विपक्षी मरण और जवानी का विपक्षी बुढ़ापा एवं इष्ट संयोग-सुख का विपक्षी इष्टवियोग ) से रहित होते तो ऐसी संभावना है कि कौन बुद्धिमान मनुष्य संसार को छोड़ता ? ॥ २१३ ॥
योगी पुरुष को काल की अवधि को न भूलते हए । इस प्रकार निश्चय करते हुए कि स्वादिष्ट अन्नआदि से पुष्ट किया हुआ भी यह शरीर यमराज की वञ्चना का उल्लंघन नहीं करता ) न तो जीवन की याचना करनी चाहिए कि में अधिक काल तक जीवित रहूं और न मृत्यु को अनिच्छा करनी चाहिए कि मैं कभान मह| उस उसप्रकार अपने कर्तव्य (ध्यानाद') में स्थित होना चाहिए जिस प्रकार स्वामी द्वारा भरण-पोषण किया हुआ ( वेतन पानेवाला ) नौकर उसके कर्तव्य में सावधान रहता है ।। २१४ ।। मैं आज विशेष भाग्यशाली हूँ, क्योंकि तस्ववद्धानरूपी प्रकाश से मेरी अन्तरात्मा विशुद्ध हो गई है और मैं मिथ्यात्वरूपी गाढ़ अन्धकार को पार करके प्रतिष्ठित हूँ ।। २१५ ।। संसार में ऐसा कोई भी सुख-दुःख नहीं है, जिसे
१. सुत्रसूर्यस्य । २. देहे तिष्ठामि । ३. यमस्य । ४. शाश्वसानि । ५. पृष्टो मृष्टान्नादिभिः कायः। ६. भूत्वः कायः
यमवंचना न लङ्घयतीत्यर्थः, तेन कारणेन योगिना जीवितमरणयोवाञ्छा अवाम्छा न कर्तव्या।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
तन्नास्ति यदहं लोके सुखं दुःखं च माप्तवाम् । स्वप्नेऽपि न भया प्राप्तो नागमसुधारसः || २१६ । सम्यगेतत्सुधाम्भोषेयन्तुमप्पालिहन्मुहुः । जन्तुनं धातु जायेत जन्मबलनभावनः ॥ २१७ || 'वेवं वेवसभासीनं पश्वकल्याणनायकम् । चतुस्त्रियावगुणोपेतं प्रातिहार्योपशोभितम् ॥२१८॥ निरञ्जनं जनाधीशं परमं रमयाधितम् । बध्युतं च्युतदोषोधमभवं भवभूद्गुवम् ॥ २१९ ॥ सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्य सर्वेश्वरमतीश्वरम् * । सर्वाराध्यमनाराध्यं सर्वाश्रयमनाश्रयम् ॥ २२० ॥ प्रभयं सर्व विद्यामः सर्वलोकपितामहम् । सर्वमत्त्व हितारम्भ "गसवंग ॥ २२१ ॥ नामरकिटांशुपरिवेषनभस्तले । भवत्पादद्वय द्योतिनखनक्षत्रमण्डलम् ।। २२२ ।। स्तूप मानमनूचानं ब्रह्मोद्यं ब्रह्मकामिभिः । "अध्यात्मागम वेषोभिर्योगि मुख्य महद्धिभिः ॥२२३॥ नीरूपं रूपितादोषमशक्यं शम्यनिष्ठितम् । अस्पर्श ''योगसंस्पर्शमरर्स १२ सरसागमम् || २२४॥
मैंने प्राप्त न किया हो किन्तु जैनागमरूपी अमृत का पान मैंने स्वप्न में भी नहीं किया ।। २१६ ॥ जो प्राणी इस आगमरूपी क्षीरसागर की एक विन्दु का भी आस्वादन कर लेता है, वह फिर कभी भी जन्मरूपी अग्नि का पात्र नहीं होता । अर्थात् --- --उस शाश्वत सुख को प्राप्त कर लेता है, जिससे उसे संसार में भ्रमण नहीं करना पड़ता ।। २१७ ।।
[ अब अर्हन्त भगवान् के ध्यान करने की प्रेरणा करते हैं- ]
धर्मी को ऐसे अर्हन्त भगवान् का ध्यान करना चाहिए, जो कि समवसरण में विराजमान पंच कल्याणकों के स्वामी, चौतीस अतिशयों से युक्त और आठ प्रतिहायों से विभूषित हैं, जो निरञ्जन ( घातियाकर्मरूपी मल से रहित ), मनुष्यों के स्वामी, व सर्वोत्कृष्ट हैं, जो अन्तरङ्ग व बहिरङ्ग लक्ष्मी से आश्रय किये हुए, आत्मस्वरूप से च्युत न होनेवाले, दोष-समूह से रहित और संसार रहित होकर संसारी प्राणियों के गुरु हैं, जो समस्त प्राणियों द्वारा स्तुति-योग्य हैं किन्तु जिनके लिए कोई भी स्तुति-योग्य नहीं है, जो समस्त प्राणियों के स्वामी हैं किन्तु जिनका कोई स्वामी नहीं है, जो सबके आराध्य हैं परन्तु जिनका कोई माराध्य नहीं है, जो सबके आश्रय हैं परन्तु जिनका कोई आश्रय नहीं है, जो समस्त विद्याओं के उत्पत्तिस्थान और समस्त लोक के पितामह हैं, जिनके कार्य का प्रारम्भ समस्त प्राणियों के हित के लिए है जो समस्त विश्व के ज्ञाता और स्वशरीर के परिमाण हैं ।। २१८-२२१ ।। जिनके चरण-युगल का प्रकाशमान नखरूपी नक्षत्र समूह, नमस्कार करने वाले देवों के मुकुटों के किरण- मण्डलरूपी आकाश में शोभायमान हो रहा है ।। २२२ ।। द्वादशाङ्ग श्रन के पारगामो ब्रह्मवेत्ता, ब्रह्म की कामना करनेवाले अध्यात्मशास्त्र के कर्ता तथा महान् ऋद्धिवारी गणधर जिनकी स्तुति करते हैं ।। २२३ ।। जो रूप-रहित हैं और समस्त वस्तु समूह के ज्ञाता है, जो स्वयं शब्दरूप नहीं हैं किन्तु आगम से निर्णीत हैं, जो स्पर्श-रहित हैं किन्तु ध्यान से स्पृष्ठ हैं, जो रस गुण से रहित हैं, किन्तु जिनका आगम सरस ( सुखरस का उत्पादक ) है, जो गन्धगुण से रहित हैं किन्तु अनन्त ज्ञानादि गुणों से अपनी आत्माको सुगन्धित करनेवाले हैं, जो चक्षुरादि इन्द्रियों के संबंध से रहित है अर्थात् — जब भगवान् केवलज्ञानी हुए तभी से इनका भावेन्द्रियों से संबंध छूट गया, किन्तु इन्द्रियों के विषयों के प्रकाशक
★ श्रीरसमुद्रस्य । १. अर्हन्तं ध्यायेत् । २. चतुस्त्रिशद्गुणोपेतं निःस्वेदत्यादयो दश सहनाः, गज्यूतिशतचतुष्ट्य सुमिश्रितादमी घातिक्षयजा: दया, सर्वार्धिमागवी भाषादयो देवोननीलाश्चतुर्दश । ३. न विद्यते स्तुत्यो यस्य । ४, म विद्यते ईश्वरः स्वामी यस्य सः अर्हन् ।
५. ज्ञातं सर्व येन । ६. न सवं गच्छतीति शरीरप्रमाणमित्यर्थः । ७. ब्रह्मविद्भिः । ८ बागमकर्तृभिः । ९. ज्ञात । १०. आगमेन निष्ठा यस्य । ११. ध्यान । १२. सुखरसागमं ।
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अष्टम आश्वासः गुणः मुरभितात्मानमगन्धगुणसंगमम् । व्यतीतेन्द्रियसंबन्धमिनियावासकम् ।।२२५।। भवमानन्वतस्यानामम्मतृष्णानलाधिषाम् । पवनं दोषरेणनामग्निमेनोवनीवहाम् ॥२२६।। यजमान सनां व्योमालेपाविसंपदाम'। भान भव्यारविधामा मन्त्र मोक्षामृतधियाम ॥२७॥ 'असावकगुणं सर्वस्वं सर्वगुणभाजनः । स्वं सृष्टिः सर्वकामाना कामदृष्टिनिमीलनः ॥२२८।। खमुप्तवीपनिर्वाण प्राकृते वा त्वयि स्फठम | खप्तदीपनिर्वाणं "प्राकृतं स्याज्जगत्ब्रयम् ॥२२९॥ 'प्रयीमा 'नमोहक त्रयोमुक्त ० .१त्रयोपतिम् ।
१२त्रयीच्याप्त प्रयोतरत्र प्रयोचूडामणिस्थितम् १५ ॥२३०॥ हैं। जो शाश्वत सुखरूपी धान्य को उत्पत्ति के लिए पथियो, तृष्णारूपी अग्नि-ज्वालाओं के बुझाने के लिए जल, दोष ( क्षुवा-तृषा-आदि ) रूपी धूलि को उड़ाने के लिए वायु और पापरूपी वृक्षों को भस्म करने के लिए अग्नि हैं, जो प्रशस्त पदार्थों के दाता और समवसरण-आदि विभूतियों की प्राप्ति होने पर भी उनमें अनुरक्त न होने के कारण जो निलिप्त रहना-आदिरूपी सम्पत्तियों के लिए आकाश-सरीखे हैं, जो भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य एवं मोक्षरूपी अमृत-लक्ष्मी के लिए चन्द्र हैं, समस्त वस्तु-समूह में तुम्हारे गुण ( अनन्त जानादि ) नहीं हैं, और तुम समस्त गुणों के पात्रभूत हो, एवं तुम समस्त मनोरथों को पूर्ण करता तथा कामको महिना संकोनान करने वाले हो अर्थात्--काम-विकारों को दूर करनेवाले हो ।। २२४-२२८ ।। वैशेषिक दर्शन में निर्वाण ( मुक्ति का स्वरूप आकाश-सरीखा शून्य माना है; क्योंकि उनके मत में मुक्त अवस्था में आत्मा के बुद्धि व सुख-आदि नो विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद (नाश) हो जाता है । सांख्यदर्शन में निर्वाण का स्वरूप सोये हुए मनुष्य की तरह अर्थ-क्रिया-शून्य माना गया है। क्योंकि उन्होंने पुरुष के ऐसे चैतन्यस्वरूप की उपलब्धि ( प्राप्ति) को मुक्ति मानी है, जो कि पदार्थों के ज्ञानरूपी प्रक्रिया से शून्य है और वौद्धमत में दीपक के बुझने सरीखी आत्मा को निरन्वय हानि ( नाश ) को मुक्ति माना है, किन्तु अलोकिक अर्हन्त भगवान में उक्त तीन दर्शनकारों के निर्वाण अनेकान्त शैली के अनुसार प्रकटरूप से विद्यमान हैं। अर्थात-जैनदर्शन में मोक्ष में राग, द्वेष व मोह से रहित होने के कारण आत्मा की दिशुद्ध अवस्था को आकाश-सरीखी मानी है और ध्यान में लीन होने के कारण सुप्त मानी है और दीपक की तरह केवलज्ञान के द्वारा समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाली दीप सरीखी मानी है; अतः हे जिन ! उक्त तीनों दर्शनकारों की मुक्ति का स्वरूप हीन ( युक्तिविरुद्ध ) है ।। २२९ ।। जिनका मोक्षमार्ग रलत्रय (सम्यग्दर्शन१. दातारं उत्तमार्थानां । २. आदिशब्दान्महत्वादि। ३. यस्तु तत्सर्व बतायफगुणं त्वत्वरूप न भवति ।
४. वाञ्छितवस्तूनां । ५, संकोचनः । ६. खनिर्वाण नैयायिकानाम्, सुप्तनिर्वाणं सख्यिाना, दीपनिर्माणं बोद्धानाम, पसे रामपमोहरहितत्वादाकाशबत् शन्यं, योगनिद्रायां सुप्त, दीपवत केवलशानेन द्योतकम। टिल। 'खनिर्याण नैयायिकानमित्यादि टि. ख. वत्, 'स्खादिवनिर्वाणं वैशेषिकसांस्यवाद्वानां शानाधभावचतन्यमात्रान्वयविशेषविनाशाम्पुपगमात् । *, अलौकिक निश्चितं त्वयि विपये भवति' इति टि० घ० च० । 'खयत् निर्वाणं वैशेषिकाया ज्ञानाचमाबाम्युपगमात्, सुप्तवनिर्वाणं सांग्ल्यानां नेतन्यमात्राभ्युपगमात्, प्रदीपग्निर्वाण बौद्धानां निरन्वयविनाशाम्युपगमात् । इति पञ्जिकाकार: प्राह । ५. हीनं। ८. रश्न अयमार्ग ( रत्नत्रयं मागों यस्य )।
९. 'रत्नत्रय, सत्तासूखचैतन्यरूप वा। टिस० । 'रत्नत्रयरूप' टि. घ. न.पं.च10. 'जातिजरामरणमक्त' टिप. पं० न । 'रागद्वेषमोह' टि० त० । ११. 'जगत्त्रयपति' इति पं०, 'मतिथुसावधित्रयं गृहस्थापदाया' टि० ख०। १२. कालत्रयठ्याप्तं ( अतीसानागतवर्तमानत्रयी )। १३. राग, द्वेष, मोह, म्बर्गमर्यपाताल, गहस्थापेक्षया मतियतावविश्यं । १४. त्रैलोक्यशिखायां मणिवत स्थितम् ।
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यशस्तिलकत्रम्पूकाव्ये जगतां कौमुबोचन' कामकल्पावमोहम् । पुणचिन्तामणिक्षेत्र कल्याणागममाकरम् ॥२३शा प्रणिवीमप्रकोपेषु साक्षाविव बातम् । प्यायेमगस्त्रयामिहन्तं सर्वतोमुखम् ॥२३२॥ 'आतुस्तस्मात्परं ब्रह्म तस्मान्न पर करें । मास्तस्माइयत्नाप्पा'खकालाः शितिधियः ।।२३।। यं यारध्यात्ममार्गषु भावमस्मयमत्सराः । तत्पाप बघरयन्तः स स तव सीयते ॥२३४।। अनुपायामिलोद्भात पुस्तकपा ममोडलम् । तद्भूमाव" भज्येस लीयमानं चिसदपि ॥२३५॥
'भ्योतिरेक परं यः "करीवाश्मसमित्समः । तस्मात्युपायविमूढा भ्रमन्ति भवकानने ।।२.३६।। मादि ) है, जो रत्नत्रयरूप है अथवा सत्ता, सुख और चैतन्य से विशिष्ट होने के कारण जो वयीरूप है, जो राग, द्वेष और मोह से मुक्त हैं अथवा अन्म, जरा व मरण से मुक्त है, जो तीन जगत के स्वामी हैं अथवा गृहस्थ की अपेक्षा से मति, श्रुत व अवधिज्ञान से युक्त हैं, जो कालत्रय में ध्याप्त हैं, जिनका तत्व उत्पाद, व्यय व ध्रौव्यात्मक है और जो तीनों लोकों के शिखर पर मणि-मरोखे विराजमान हैं ॥ २३०॥ जो जगत के लिए पूर्णिमासी के चन्द्र हैं, जो अभिलषित वस्तु देने के लिए कल्पवृक्ष हैं, जो गुणरूपी चिन्तामणि के स्थान है एवं जो कल्याण-प्राप्ति के लिए खानि है ।।२३१॥ जो ध्यानरूपी दीपकों के प्रकाश में साक्षात् चमकनेवाले और तीन लोकों से पूजनीय हैं एवं जिनका मुख समस्त दिशाओं में है ॥२३२॥ आचार्यों ने कहा है, कि उन अर्हन्त का ध्यान करने से परब्रह्म की प्राप्ति होती है और उनके ध्यान से इन्द्रपद हस्त-गत होता है एवं चक्रवर्ती की विभूतियाँ विना यत्न के प्राप्त हो जाती हैं ।।२३३॥ मान व ईर्षा से रहित पुरुष अध्यात्ममार्ग में अपने अन्तःकरण में मोक्षपद को प्राप्ति के लिए जो-जो भाव स्थापित करते हैं वह वह भाव उसो पद • में ही लोन होता जाता है अर्थात् --प्रकर्ष को प्राप्त हुआ वह भाव अर्हन्त पद की प्राप्ति का कारण होता है ॥२३४॥ पुरुषरूपी वृक्षों का मनरूपी पत्ता मोक्ष प्राप्ति में जो कारण नहीं है, ऐसे मिथ्यादर्शन-आदि रूपी बाय से सदा उद्घान्त (चन्चल व पक्षान्सर में भ्रान्ति-यक्त) बना रहता है किन्तु अहंन्तरूपीभमि में पहुंचकर वह मनरूपी पत्ता टूटकर उसी में चिरकाल के लिए लोन हो जाता है ।
भावार्थ-नाना प्रकार के सांसारिक प्रपञ्चों में फंसे रहने के कारण मानव का मन सदा चञ्चल व भ्रान्तियुक्त बना रहता है, किन्तु जब मनुष्य मोक्षमार्ग में प्रवृत्त होकर अपने मन को स्थिर करने में प्रयत्नशील होता है और अर्हन्तदेव का ध्यान करता है तो उसका मन उसी में लीन होकर उसे अर्हन्त बना देता है और तब मनरूपी पत्ता टूटकर गिर पड़ता है। क्योंकि अर्हन्त अवस्था में भावमन नहीं रहता ।।२३५।। ध्यान करने योग्य आत्मतत्त्वरूपी ज्योति ( अग्नि ) एक हो है परन्तु उसका आकार उस प्रकार पृथक है जिस प्रकार अग्नि एक होकर भी आकार से पृथक्-पृथक होती है । अर्थात्-जिस प्रकार अग्नि एक होकर शुष्क गोबर ( कण्डा ), पाषाण व लकड़ो के कारण कण्डे को अग्नि, पापाण-अग्नि व लकड़ी की अग्नि-आदि भिन्न-भिन्न आकार धारण करती है उसी प्रकार ध्यान करने योग्य आत्मा भी एक ही है, परन्तु स्त्री, पुरुष व नपुंसक के वेष में वह तीनरूप प्रतीत होती है, परन्तु ये अज्ञानी मानब उस आत्मा व अग्नि की प्राप्ति के उपाय की दिशा में मुढ़ हुए ( दिग्भ्रान्त गुण ) संसाररूपी वन में भ्रमण करते हैं। अभिप्राय यह है कि जैसे कण्डे से अग्नि का प्रकट होना चाठिन है वैसे ही स्त्री-शरीर में आत्मा का विकास होना कठिन है और जैसे पापाण से अग्नि शीघ्न प्रकट होती है वैसे ही पुरुष शरीर में आत्मा का विकास शीघ्र होता है एवं जैसे लकड़ी से अग्नि का प्रकट
१. ध्यान । २. अर्हतः । ३. प्राप्य । ४. पर्ण । ५. मोक्षे एव । ६. आत्मा अग्निश्च । आत्मा एक एवं आकारस्तु पृषक
स्त्री-मुन्नपुंसकभवात् । ७. मोमयेऽग्निः शीघ्र प्रकटो न स्यात्तथा स्त्रीषु मात्मा पारम्पर्यण प्रकटो भवति । पाषाणऽग्निः शोघ्र प्रकटः स्यात्तद्वत पुंस्यात्मा। समिधिविषये शोध प्रकटो न स्यातमन्न सके, प्रारमनोजनेश्च । ८. मोक्षोपाय ।
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अष्टम आश्वासः
४३३
'परापरपर देवमेवं चिन्तयतो यते: । भवन्त्यतीन्द्रिमास्ते से भावा लोकोतरश्रियः ॥२३॥ व्योम, छायामसङ्गि यथासूतमपि स्वयम् । मोगयोगातमात्मायं भवत्प्रत्यारोमः ॥२८॥ न ते गुणा न तज्ज्ञानं न सा वृष्टिर्म नसुखम् । पयोगघोसने न स्यावामन्यस्ततमाधये ॥२३९।। वेवं जगत्रयीमत्र म्यम्तराद्याइव देवताः । समं प्रभाविघानेषु पश्यन्दरं बजेदधः ॥२४॥ ताः शासनाविरक्षा कल्पिताः परमागमे । अतो यशरानेन माननीयाः सुदृष्टिभिः ॥२४॥ सच्चासनकमक्तीनां सुशा सुवतात्मनाम् । स्वयमेव प्रप्तीदन्ति ता:पुंसां सपुरंपराः ।।२४२॥ तबामबद्ध कराणा रत्नत्रयमहोयसाम् । उमें कामधुर्घ स्यातां बावाभूमी ममोरयः ।। २४३॥
होना विशेष कठिन है वैसे ही नपुंसक-शरीर में आत्मा का विकास विशेष कठिन है ।। २३६ ॥ इसप्रकार पर . ( मुनि ) और अपर ( गणधर ) से भी श्रेष्ठ अर्हन्त देव का ध्यान करनेवाले योगी पुरुप में इन्द्रियों के अगोचर भाव ( अवधिज्ञान-आदि ) अलौकिक लक्ष्मी ( मुक्तिश्री) को देनेवाले प्रकट होते हैं॥ २३७ ॥ जिसप्रकार आकाश स्वयं अमूर्तिक होकर के भी छाया-पुरुष को मध्य में धारण करने से छाया पुरुष हो जाता है। अभिप्राय यह है कि निस्सन्देह कोई निमित्तज्ञानी छाया-दर्शन के अभ्यास से अपने शरोर को छाया का दर्शन करता है और जब छाया विघटित हो जाती है तब आकाश शन्य होने पर भी जमके द्वारा उसमें छायाहोन पुरुष देखा जाता है उसीप्रकार ध्यान के अभ्यास से ध्यानी को अमूर्तिक आत्मा का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है ।। २३८ ॥ ऐसे वे गुण नहीं, वह सम्यग्ज्ञान नहीं और वह सम्यक्त्व नहीं एवं वह यथार्थ सुखं भी नहीं, जो ध्यान के प्रकामवाली व अज्ञानरूपी अन्धकार-समूह को नष्ट करनेवाली विशुद्ध आत्मा में प्रकट नहीं होते। अर्थात्-धर्म व शुक्लध्याम के प्रभाव से आत्मा में समस्त प्रशस्त गुण, केवलज्ञान, परमावगाढ़ सम्यक्त्व व मुक्तिश्री का यथार्थ सुख प्रकट होता है ।। २३९ ।।
शासन-देवता की कन्पना जो श्रान्त्रक तीनों लोकों के दृष्टा जिनेन्द्र भगवान् को और व्यन्तर-आदि देवताओं की पूजाविधि में समान रूप से मानता है । अर्थात्-दोनों की एक सरोसी पूजा करता है, वह विशेष रूप से नरकगामी होता है। अभिप्राय यह है कि विवेको पुरुष को पूजाविधि में दूसरे देव जिनेन्द्र-सरीखे पूज्य व सर्वोत्कृष्ट नहीं मानने चाहिए किन्तु उन्हें होन समझना चाहिए। जिनागम में जिन शासन की रक्षा के लिए उन शासन देवताओं की कल्पना की गई है, अतः पूजा का एक अंश देकर सम्यग्दृष्टियों को उनका सन्मान करना चाहिए ॥ २४०-२४१ ।। व्यन्तरादिक देवता और उनके इन्द्र, जिनशासन के अनन्य भक्त, सम्यग्दृष्टि व नती पुरुषों पर स्वयं प्रसन्न होते हैं ।। २४२ ।। स्वर्ग व पृथिबी दोनों ही उनके मनोरथों की पूर्ति द्वारा इच्छित वस्तु देनेवाले होते हैं, जिन्होंने मोक्ष को अपनी कांख में बाँधा है और जो रत्नत्रय से महान हैं ॥ २४३ ।।
१. परः अनगारः फेवलः, तस्मात् परः उत्कृष्टः गणघरस्तस्मात् पर जिनः । २. आकाशं । ३. छायानरोत्साहित
छायापुरुषो भवतीति शेषः । किल करिवग्निमितीपुरुषः स्वारी रछायावलोकनं करोति, छायावलोकनाभ्यासवशात् काया विपदप्ति, आकाशे शून्येपि नरो दृश्यते, सवत ध्यानाभ्यासात् आत्मा दृश्यते इत्यर्थः । ४. अतिशयेन अधोगामी स्थात, तेन कारणेच अन्यवेवाः जिनसणाः न माननीयाः, किन्तु जिनात हीनाः ज्ञातव्याः इत्यर्थः । ५. न तु जिनयत् स्नपनादिना। ६. मोक्ष ।
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४३४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये कुर्यात्तपो जपेन्मन्त्राग्नमस्येवापि वेयताः । सस्पृह यघि तच्चेतो रिक्तः सोऽमुत्र ह क ॥२४४॥ ध्यायेद्वा वाङमय ज्योतिर्मुलपचकवाचकम् । एतद्धि सर्वविद्यानामधिष्ठानमनश्वरम् ॥२४५।। ध्यायविन्यस्य "मेहेऽस्मिन्निदं मन्दरमुव्रपा । सर्वनामादिवर्णाहं वर्णानन्तं सनोजकम् ॥२४६।। तपःश्रुतविहीनोऽपि तजधाना विद्यमानस: । न आतु तमक्षा सृष्टा तत्तत्वाचिोप्रधीः ॥२४७॥ मषोत्य सारस्पाणि विधाय च तपः परम् । इमं मन्नं स्मरन्स्यन्ते मुनयोऽनन्यचेतसः ॥२४८॥ मन्त्रोऽयं स्मृसिषाराभिविपत्तं पस्याभिवति । तस्य सर्वे प्रशाम्यन्ति सोपवपासकः ॥२४९।। अपवित्रः पवित्रो वा सुस्थितो नुल्यतोऽपि पा । भवत्येतस्मृतिर्णन्तुरा पदं सर्वसंपदाम् ॥२५०।। उक्त लोकोसरं ध्यान किंघिल्लौकिकमुमपते । 'प्रकीगंकप्रपञ्चेन वृष्टावृष्टफलाभयम् ।। २५१॥
निष्काम होकर धर्माचरण की प्रेरणा धार्मिक पुरुप तप करे, मन्त्रों का जाप करे अथवा देवों को नमस्कार करे किन्तु यदि उसका चित्त लौकिक वस्तओं की लालसा-यक्त है सो वह इस लोक व परलोक में रिक्त फल-शन्य) रडत ध्यानो को अर्हन्त व सिद्ध-आदि पञ्चपरमेष्ठी को वाचक पञ्चनमस्कार मन्त्ररूपी ज्योति का एकाग्रचित्त होकर ध्यान करना चाहिए, क्योंकि यह पञ्चनमस्कार मन्त्ररूपी ज्योति निस्सन्देह समस्त विद्याओं को अविनाशी आधार है ॥ २४५ ।। जिसमें पञ्चनमस्कार मन्त्र के पाँचौ पदों के प्रथमाक्षर सन्निविष्ट है, और जो 'अहे रूप है तथा बोजासरवाला है, ऐसे 'अहं' इस मन्त्र को अपने मस्तक के ऊपर स्थापित करके मन्दर मुद्रा ( मस्तक के ऊपर दोनों हाथों से शिखराकार कुड्मल करना अथवा पंचमेरुमुद्रा) द्वारा ध्यान करना चाहिए, क्योंकि उस तत्व के ध्यान से व्याप्त चिलनाला मनुष्य मा मोर गुट से रहित होने पर भी कमी अज्ञानों का सृष्टा-उत्पादक-नहीं होता; क्योंकि उसकी बुद्धि उस तत्व की श्रद्धा से सदा प्रकाशित रहती है ॥ २४६-२४७ ।। योगी पुरुष समस्त शास्त्रों का अध्ययन करके व उत्कृष्ट तप करके समाधिमरण की वेला में एकाग्रचित्त होकर इसी मन्त्र का ध्यान करते हैं ॥ २४८ ॥ यह पञ्चनमस्कार मन्त्र जिस ध्यानी के चित्त को पंचपरमेष्ठो के गुण-स्मरणरूपी जलधाराओं से अभिषिक्त करता है, उसकी समस्त क्षुद्र उपद्रवरूपी धूलियां शान्त हो जाती हैं ॥ २४९ ॥ अपवित्र या पवित्र, निरोगी या रोगी जो प्राणी इस मन्त्र का स्मरण करता है, वह समस्त विभूतियों का स्थान हो जाता है ॥ २५० ॥ अलोकिक ध्यान के निरूपण के पश्चात् अबउसकी चूलिका-व्याख्याके कारण प्रत्यक्ष व परोक्षफल का आधारभूत लौकिक ध्यान संक्षेप रूप से कहा जाता
१. पंचनमल्कारमन्त्र । २ ललाटे। ३. अहं। ४. 'मस्तकोपरि हस्तद्वयम शिखराकारः कुड़मल: क्रियते स एवं
मन्दरः' इति टि० ख०, 'मन्दरमता पंचमेरुमद्रा' इति पं०। ५. 'पंचपदप्रथमाक्षरेण योग्य इति टिक ख०, 'सर्वनामा दियणहि-सर्ववर्णाः, नामवर्णाः, नामादिवर्णाः-अहंन्त । म सि आ। आदि अफार तदन्ते बीज इत्यादिकं'
सि पञ्जिकाकारः । ६. अह । तथा च व्युत्पत्तिः 'अर्ह' इति पदस्य 'अर्हन्' शब्दस्य 'अहं' इति गृह्यते । अशरीर अर, अर्य अर, अध्यापक , मुनि म् । पश्चादूपं रूपं प्रविष्टमिति वचनात् अकाररकाराश्च लुप्यन्ते । तदनन्तरं अहं इत्यत्र उच्चारणार्थ अकारः क्षिप्यते। मोज्नुस्वारः व्यञ्जने 'मही इति तत्त्वं निष्पन्नम् । तथा चाह शुभवन्द्राचार्य :-- अकारादि इकारान्तं रेफमध्यं सबिन्दुवाम् । तदेय परमं तत्वं यो जानाति स तत्ववित् ॥'
ज्ञानार्णव पृ० २९१ मे संकलित-सम्पादक ७. साक्षरं ध्यानमिदं । ८. सहित । ९. चूलियाव्याख्यया ।
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अष्टम आश्वासः पञ्चमूतिमसंबो' नासिकाने विचिन्तयन् । निधाय संगमे चेतो शिष्यशालमवाप्नुयात् ॥२५२।। यत्र यत्र "हषीकेऽस्मिन्नि वषीताचलं मनः । तत्र तत्र लभेतायं बाहामाह्माश्रयं सुखम् ॥२५॥ स्यूल सूक्ष्म द्विषा ध्यान सत्ययोजसमाधयम् । यान लभते काम द्वितीपेन परं पदम् ॥२५४|| "पद्यमुस्थापयेत्पूर्व नाडौं संगलयेत्ततः । मच्चतुष्टयं परचारप्रचारपतु पेससि ॥२५५।।
नासिका के अग्रभाग में दष्टि स्थिर करके और मन को भ्रकूटियों के मध्य में स्थापित करके पंचपरमेष्ठी-वाचक और बीजाक्षर वाले 'ओं' मन्त्र का ध्यान करने वाला मानव दिव्य ज्ञान प्राप्त करता है ।। २५२॥ जिस जिस इन्द्रिय ( स्पांन-आदि } में यह अपना मन निश्चल करके आरोपित करता है, इसे उस उस इन्द्रिय में वाह्य पदार्थों के आश्रय से होनेवाला सुख प्राप्त होता है ।। २५३ ।।
ध्यान के दो भेद है । स्थलध्यान व सूक्ष्मध्यान । स्थूलध्यान तत्व के आश्रय से प्रकट होता है और सूक्ष्मध्यान बीजाक्षर मन्त्र के आश्रय से होता है । स्थूलध्यान से अभिलषित वस्तु को प्राप्ति होती है और सूक्ष्म ध्यान से उत्तमपद ( मोक्ष ) प्राप्त होता है ॥ २५४ ।।
लोकिक ध्यान की विधि--ध्यानी लौकिक ध्यान की सिद्धि के लिए नाभि में स्थित कमल को संचालित करे। पश्चात् नाड़ी ( कमल-नाल ) को संचालित करे । पुनः कमल-नाल के संचालन द्वारा कुम्भक, पूरक व रेचक वायुमों को हृदय के प्रति प्राप्त करावे । पश्चात् नासिका के मध्य में सूक्ष्म रूप से स्थित हुए पृथिवी, जल, तेज व वायुमण्डल को आत्मा में प्रचारित-योजित करें।
भावार्थ-पातमजल दर्शन में योग ( ध्यान ) के आठ अङ्ग कहे हैं-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि ।
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य व अपरिग्रह ये पांच यम हैं। शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान ये पाँच नियम हैं। पचासन, भद्रासन, वीरारान व स्वस्तिकासन-आदि दश प्रकार के आसन हैं । क्योंकि आसन को स्थिरता होने पर प्राणायाम प्रतिष्ठित होता है।
श्वास ( नासापुट द्वारा बाह्य वायु का भीतर प्रवेश, जिसे पूरक कहते हैं और प्रश्वास-( नासापुट द्वारा कोष्ठय वायु का बाहर निकालना, जिसे रेचक कहा है ) काल में वायु की स्वाभाविक गति का निरोध ( रोकना ) प्राणायाम है, उसके तोन भेद हैं-पूरक, कुम्भक व रेचक ।
नासापुट द्वारा वाह्य वायु को शरीर के मध्य प्रविष्ट करके शरीर में पूरने को पूरक कहा है। उस पूरक वायु को स्थिर करके नाभिकमल में घट की तरह भरकर रोके रखने को कुम्भक कहा है। पश्चात् उस वायु को धीरे-धीरे वाहिर निकालने को रेचक कहते हैं। प्राणायाम से स्थिर हुआ चित्त, इन्द्रियों के विषयों से संयुक्त नहीं होता और ऐसा होने से । इन्द्रियाँ भी विषयों से संयुक्त नहीं होती। वे इन्द्रियाँ चित्त के स्वरूप को अनुकरण करनेवाली हो जाती हैं, इसी को प्रत्याहार कहते हैं । उक्त आठ योग ( ध्यान ) के साधनों में से यम,
१. कारं। २. भूमध्ये । ३. स्पर्शनादौ । ४. आरोपयेत् । ५. नाभी स्वभावेन स्थितं कमलं चालयेत्,
पश्चान्नालाकारेण नाडी--मालिका (कमलनालं) संचारमोत, नाइघा कृत्वा मरुतः हृदयं प्रति प्रापयेत्, पश्चान्मएच्चतुष्टप'-पृथ्वी अप्तेजोवायुमंडलानि नासिकामध्ये सूक्ष्माणि स्थितानि सन्ति तानि घेतसि आत्मविषये प्रचारपतु योजयतु ।
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यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
aurat aur aftefioविदालोक्य तं त्यजेत् । ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य पश्चात्तद् ज्ञानमुत्सृजेत् ॥१२५६|| सर्वपापाल वे क्षीण ध्याने भवति भावना पापोपहतबुद्धीनां ध्यानबार्ताऽपि दुर्लभा ॥ २५७ ॥
भाव क्षीरं न पुनः क्षीरतां व्रजेत् । तत्त्वज्ञान विशुद्धात्मा पुनः पापेन लिप्यते ॥ २५८ ॥ मन्दं मन्दं क्षिपेद्वायु' मन्वं मन्वं विनिक्षिपेत् । न क्वचिद्वायते वायुर्न च शीघ्रं प्रमुच्यते ॥ २५९ ॥ रूपं स्पर्श रसं गन्धंशयं चैव विदूरतः । आसन्नमिव गृलुम्ति विचित्रा योगिनां गतिः ॥ २६० ॥ बग्धे बोजे यचात्यन्तं प्रातुर्भवति नाङ्कुरः । कर्मबीजे तथा बन्धेन रोहति भवाङ्कुरः ॥ २६१||
नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार ये पाँच योग (ध्यान) के बहिरङ्ग साधन है, क्योंकि ये चित्त को स्थिरता द्वारा परम्परा से ध्यान के उपकारक हैं। धारणा, ध्यान व समाधि ये तीन योग के अन्तरङ्ग कारण हैं, क्योंकि ये समाधि के स्वरूप को निष्पादन करते हैं । 'तत्त्रयमेकत्र संयमः (पात योगसूत्र ३३४) अर्थात् -- धारणा, ध्यान व समाधि इन दोनों को संयम यह पारिभाषिकी संज्ञा है ।
Q
इसप्रकार यह ध्यानरूपी वृक्ष चित्तरूपी क्षेत्र में यम व नियम से बीज प्राप्त करता हुआ आसन व प्राणायाम से अङ्कुरित होकर प्रत्याहार से कुसुमित होता है एवं धारणा, ध्यान व समाधिरूप अन्तरङ्ग साधनों से फलशाली होता है। प्रकरण में लौकिक ध्यान का निरूपण करते हुए आचार्य श्री ने प्राणायाम द्वारा नाभिस्य कमल आदि को संचालित करने एवं पार्थिवी, आग्नेयी आदि धारणाओं का भी निर्देश किया है, जिनका हम पूर्व में (श्लोक नं० ९२ के भावार्थ में ) विस्तृत विवेचन कर चुके हैं ।। २५५ ।।
जैसे दीपक को हस्तगत करनेवाला कोई मानव उसके द्वारा कोई बाह्य वस्तु को देखकर उस दोपक को त्याग देता है वैसे ही ज्ञानी पुरुष को भी ज्ञान के द्वारा जानने योग्य पदार्थ जानकर पश्चात् उस ज्ञान को त्याग देना चाहिए || २५६|| समस्त पाप कर्मों का आस्रव क्षीण हो जानेपर हो मानव में ध्यान करने की भावना प्रकट होतो है; क्योंकि पाप-संचय से नष्ट बुद्धिवाले मानवों के लिए तो ध्यान की चर्चा भी दुर्लभ है । अर्थात् - कपायों के उदय होनेपर ध्यान प्रकट नहीं होता ||२५७|| जो दूध दही हो चुका है, वह पुनः दूध नहीं होता वैसे ही जैसे तत्वज्ञान द्वारा विशुद्ध हुई आत्मावाला योगी भी पुनः पापों से लिप्त नहीं होता || २५८॥ प्राणायाम की विधि में ध्यानी को रेचकवायु ( प्राणायाम द्वारा शरीर से बाहर को जानेवाली वायु को धीरे-धीरे छोड़नी चाहिए एवं कुम्भकवायु ( प्राणायाम से शरीर के मध्य में प्रविष्ट की जानेवाली घटाकर वायु ) और पूरकवायु (प्राणायाम से पूर्ण शरीर में प्रविष्ट की जानेवालो वायु) को धीरे-धीरे यारीर में स्थापित करनी चाहिएअर्थात् खींचनी चाहिए | क्योंकि घ्यानी द्वारा प्राणायाम में न तो हठपूर्वक कुम्भक व पूरक वायु इकट्ठी धारण को जाती है और न हठपूर्वक रेचक वायु शीघ्र छोड़ी जाती है ।। २५९ ॥ योगियों का ज्ञान विचित्र होता है, क्योंकि वे लोग दूरवर्ती रूप, स्पर्श, रस, गन्ध व शब्दों को अपनी इन्द्रियों के समीपवर्ती सरीखे प्रत्यक्ष जान लेते हैं ।। २६० ॥ जिसप्रकार बोज के अत्यन्त जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता उसीप्रकार कर्मरूपी बीज के भी अत्यन्त जल जाने पर उससे संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता || २६१ ॥
१. मुञ्चेत् । * तथा —
संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादनप्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानबलाद् वहन्तः स्वस्तिः क्रियासुः परमर्षयो नः ॥३१॥ संस्कृत देवशास्त्रगुरुपूजा |
*. प्रस्तुत लेखमाला पातञ्जल योगदर्शन के आधार से गुम्फिल की गई है-सम्पादक
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अष्टम आश्वासः
"नामी चेतसि नासाधे दृष्टी भाले च सूर्धनि । विहारयेोहं सदा कासरोवरे ।।२६२ ।।
पाइपोनि जले तिष्ठेग्निथवेदनलाचिषि । मनोनयप्रयोगेण शस्त्रैरपि न वाध्यते ॥ २६३ ॥ जीवः शिवः शिवो जोवः *कि मेोऽस्त्यत्र कश्वन । पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः शिवः पुनः ॥ २६४॥ साकारं वरं सर्वमनाकारं न दृश्यते । 'पक्षद्वयविनिर्मुक्तं कथं ध्यायन्ति योगिनः ॥ २६५ ॥ अस्यन्तं मलिनो देहः पुमानस्यन्तनिर्मलः । वेहावेनं पृथक्कृत्वा तस्मान्नित्यं विचिन्तयेत् ॥ २६६ ॥ तोपमध्ये यथा तं पृथग्भावेन तिष्ठति । तथा शरीरमध्येऽस्मिन्पुमानास्ते पृयक्तथा ॥ २६७॥ वप्नः सविश्वात्मायमुपायेन शरीरतः । पृथक्रियेत तत्थश्विरं संसर्गवानपि ॥ २६८||
४३७
ध्यानी को नाभि में, हृदय में, नासिका के अग्र भाग में, नेत्रों में ललाट में, व शिर में और शरीररूपी सरोवर में अपने मनरूपो हंस का सदा विहार कराना चाहिए। अर्थात् – ये सब ध्यान लगाने के स्थान हैं इनमें से किसी भी एक स्थान पर मन को स्थिर करके ध्यान करना चाहिए || २६२ ॥ मन को स्थिरता से और प्राणायाम के अभ्यास से ध्यानी आकाश में विहार कर सकता है, जल में स्थिर रहता है और अग्नि की ज्वालाओं के मध्य स्थित हो सकता है, अधिक क्या शस्त्रों द्वारा भी वह पोड़ित नहीं किया जा सकता ॥ २६३ ॥ शङ्काकार — संसारी जीव शिव ( मुक्त ) है और शिव संसारी जीव है, इन दोनों में क्या कुछ भेद हैं ? क्योंकि जीवत्व की अपेक्षा एक हैं ।
उत्तर- — जो कर्म कर्म समूहरूपी बन्धन से बंधा हुआ है, वह संसारी जीव है और जो उससे छूट चुका है, वह शिव ( मुक्त ) है । अर्थात् - जीवात्मा और परमात्मा में शुद्धता और मशुद्धता का ही भेद है, अन्य कुछ मी भेद नहीं है, शुद्ध आत्मा को ही परमात्मा कहते हैं ॥ २६४ ॥
आत्मध्यान के विषय में प्रश्न व उत्तर
यदि समस्त वस्तु समूह साकार है ? तो वह सब विनाश-शील है और यदि निराकार है ? तो वह दिखाई नहीं देती किन्तु आत्मा तो न साकार है और न निराकार है तो योगी पुरुष उसका ध्यान कैसे करते हैं ? अभिप्राय यह है कि ध्यान करने योग्य दोनों वस्तुएं (अरहंत व सिद्ध ) पहले साकार शरीर - प्रमाण या ( पर्याय सहित ) होती हैं बाद में निराकार (पर्याय-रहित ) होती हैं; क्योंकि जिनागम में 'सायारमणायारा' ऐसा कथन है । अर्थात् — अर्हन्त अवस्था में साकार ( पर्याय सहित ) है और पश्चात् — सिद्ध अवस्था में निराकार - पर्याय रहित है || २६५ ॥ शरीर अत्यन्त मलिन है, क्योंकि सप्त धातुओं से निर्मित हुआ है और आत्मा अत्यन्त विशुद्ध है; क्योंकि सप्तधातु-रहित है, अतः ध्यानी की इसे शरीर से पृथक करके नित्यरूप से चिन्तवन
करना चाहिए || २६६ ॥
शरीर और आत्मा को भिन्नता में उदाहरणमाला - जैसे तेल, जल के मध्य रहकर भी जल से पृथक रहता है वैसे ही यह आत्मा भी शरीर में रहकर उससे पृथक रहता है ।। २६७ ।। यह आत्मा, जो कि चिरकाल से शरीर के साथ मंसगं ( संयोग सम्बन्ध ) रखने वाली भी है, तत्वज्ञानियों द्वारा ध्यान आदि १. तथा चाह शुभचन्द्राचार्य:--
'नेत्र श्रवणयुगले नासिकाग्रे ललाटे, वक्त्रे नाभौ शिरसि हृदये तालुनि भूयुगान्ते । ध्यानस्यानान्यमपतिभिः कीर्तितान्यत्र देई, तेष्वेकस्मिन् विगतविषयं चित्तमालम्बनीथम् ॥१३॥१
ज्ञानानंद पृ० ३०६ ।
२. गच्छेन्मुनिः । ३. प्राणायाम । ४. प्रश्ने । ५. विनाशि । ६. तेन कारणेन उभयमपि ध्येयं, पूर्व साकारं पर्यायसहितं पश्चात्रिराकार, 'सायारमणायारा' इनिनात् ।
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४३८
समापूजा 'पुष्पामोदी तरुच्छाये यतत्सकलनिष्कले । ततो वेहवेहस्थौ यद्वा सपनविम्यात् ।।२६९॥ एकरसम्मं नवद्वारं पञ्च "पन्श्वसनाधितम् । 'अनेककसमेव शरीरं योगिता गृहम् ।२७०।।
उपायों से वेसी शरीर से पृथक् की जाती है जैसे घृत, जो कि दही के साथ चिरकालीन संसर्ग रखनेवाला है, मन्थन-आदि उपाय द्वारा दही से पृथक् कर दिया जाता है ।। २६८॥ अथवा जैसे पुष्प साकार है, किन्तु उमको गन्ध निराकार है या वृक्ष साकार है और उसकी छाया निराकार है अथवा मुख साकार है और दर्पणगत सम्पूर्ण व असम्पूर्ण मुख का प्रतिबिम्ब निराकार है वैसे ही शरीर साकार है और उसमें स्थित हुई आत्मा निराकार है ।। २६२ ।।
भावार्थ-यहाँपर किसी ने शङ्का ( प्रश्न ) उपस्थित को–'जो वस्तु साकार । अवयव-विशिष्ट) है, वह विनाशशील होती है, जैसे घट व पट-आदि, और जो वस्तु निराकार ( निरवयद-अवयव-रहित ) है, वह दृष्टिगोचर नहीं होती, जैसे आकाश । परन्तु ध्यान करने योग्य आत्मद्रव्य जय साकार ( सावयव ) नहीं है, क्योंकि वह नित्य (सकलकाल-कलाब्यापी-शाश्वत रहनेवाला) व अनाद्यनन्त है। इसी तर निराकार है, क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष द्वारा प्रतीत होती है, तब योगी पुरुष उमका ध्यान कैसे कर सकते हैं ?' इस शङ्का का समाधान करते हुए टिप्पणीकार ने कहा है-'ध्यान करने योग्य दोनों पदार्थ ( अर्हन्त व सिद्ध) पूर्व में ( जीवन्मुक्त अवस्था-अर्हन्त-अवस्था में ) साकार ( पर्याय-सहित---शरीरपरिमाण ) होते हैं और पश्चात् सिद्ध अवस्था में निराकार ( पर्याय-रहित ) होते हैं ।
ग्रन्थकार आचार्यश्री ने उक्त शक्षा के समाधान करने के लिए दृष्टान्तमाला उपस्थित की है। इसके पूर्व उन्होंने सप्तधातुमय शरीर को मलिनता और आत्मा को अत्यन्त विशुद्धता निर्देश करके आत्मद्रव्य को शरीर से पृथक और नित्य ( शाश्वत रहनेवाला अनाद्यनन्त ) चिन्तवन करने के लिए कहा, इसके बाद कहा है, कि संसार अवस्था में आत्मा, शरीर में रहकर भी उससे वैसा पृथक् ( भिन्न ) है जैसे जल में स्थित हुआ तैल, जल से पृथक् होता है। पुनः घृत का दृष्टान्त देकर समझाया कि जिसप्रकार दही के साथ चिरकालीन संसर्ग रखनेवाला घी, मन्थन क्रिया द्वारा दही से पृथक् ( जुदा ) कर लिया जाता है उसीप्रकार चिरकाल से शरीर के साथ संयोगसंबंध रखनेवाली आत्मा भी तत्ववेत्ताओं द्वारा ध्यान-आदि उपायों से शरीर से पृथक् की जाती है । इसके बाद शङ्काकार को शङ्का के समाधान करने के लिए आचार्यश्री ने शरीर को साकार और आत्मा को निराकार सिद्ध करने के लिए तीन मनोज्ञ दृष्टान्त दिये हैं-१. पुष्ण और उसकी सुगन्धि, २. वृक्ष और उसकी छाया एवं ३. मुख और दर्पण-गत सम्पूर्ण व असम्पूर्ण मुख का प्रतिबिम्ब । अर्थात्-जैसे पुष्प, वृक्ष ब मुख, साकार हैं वैसे ही शरीर भी साकार ( अवयव-विशिष्ट ) है और जैसे पुष्प की सुगन्धि, वृक्ष की छाया और दर्पण-गत मुख का प्रतिविम्व निराकार हैं वैसे ही आत्मा भी निराकार-निरचयव-है।
निष्कर्ष-आत्मा में शरीर को तरह अवयव नहीं हैं और न वह कारणसामग्री से घट-पटादि की तरह उत्पन्न होता है, अतः निराकार है और इसीलिए वह नष्ट भी नहीं होता, और शरीर-परिमाण होने से सर्वथा निराकार न होने के कारण स्वसंवेदन प्रत्यक्ष से दृष्टिगोचर भी होता है।
यह शरीर ही योगियों का गृह है, जो कि एक आयुरूपी खम्भे पर ठहरा हुआ है, और जिसमें नो १. पुष्पं साकारं, परिमल: निराकारः। २. आदर्श सकलनिष्कलमुखवात् । ३, 'आयुषा घृतम्' टि० ख० । 'एकस्तम्भ
भायु त्' इति पक्षिकायां । ४. पंचेन्द्रियाणि । ५. 'मनुष्य' टि. स., "पंचजनाः मनुष्यास्तराधितं' पं० । ६. 'नाभिकमलादि' टि० ख०, बनेकाक्षं हन्नाभिब्रह्मरन्ध्राविभेदेन ।
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अष्टम आश्वास
ध्यानामृतान्नतृप्तस्य शान्तियोषितरतस्य च । अव रमते चिसंबोगिमो योगवान्धवे ॥२७१।। रज्जभिः कुष्यमाणः स्थाचा 'पारिप्लयो हयः । कुष्टस्तयेन्द्रियरास्मा ध्याने लोपेत न क्षणम् 11२७२।।
रक्षा संहरणं "सृष्टि 'गोपुवामसवर्षणम् । विशाय पिन्सयेवाप्समाप्तरूपधरः स्वयम् ।।२७३।।। *घुमवन्निव मेल्पापं 'गुगबीजेन तादृशा । गृलीयादमृत "सेन "तम मुहर्मुखः ।।२७४॥ "संन्यस्ताभ्यामघोघ्रिभ्यामूहिपरि युक्तितः । श्वेश्च समगुल्काम्यां पपीरमुखासनम् ।।२७५।।
द्वार ( दोनों नेत्रों के दो छिद्र-आदि ) हैं एवं जिसमें पाँच इन्द्रियरूपी मनुष्य निवास करते हैं तथा जो हृदय, नाभि व ब्रह्म रन्ध्र-आदि रूपी अनेक कोठरियों वाला है ।। २७० ॥ धर्मध्यानरूपी अमृतान्न से सन्तुष्ट हुए और क्षमारूपी स्त्री में अनुराग करनेवाले योगो का चित्त इसी ध्यानरूपी बन्धुजनों में ही कीड़ा करता है ॥ २७१ ॥ जैसलमाम से खोया जानेवाका बांक्षा बञ्चलो भाता है वैसे ही इन्द्रियों से प्रेरित आत्मा भी क्षण भर ध्यान में स्थिर नहीं होता; अतः ध्यानी को इन्द्रियों को वश में रखना चाहिए ॥ २७२ ॥ स्वयं आत ( अर्हन्त ) के स्वरूप का धारक 'मैं अर्हन्त भगवान् की तरह परमौदारिक वारोर में स्थित हूँ' ऐसी भावना करके धर्मध्यानी को रक्षा, संहार, सृष्टि, गोमुद्रा ( आसन विशेप) और अमृत वृष्टि को करके आप्त के स्वरूप का ध्यान करना चाहिए । अर्थात्-जिसप्रकार सकलीकरणविधान में पहले शरीर-रक्षा को जातो है और बाद में अग्नि तत्व द्वारा दहन-लक्षणवाला संहरण किया जाता है एवं पश्चात् चन्द्र ( वरुणमण्डल )
त-वष्टि की सष्टि की जाती है उसोप्रकार घोंगी को पिण्डस्थ नामक धर्मध्यान में पूर्व में शरीर-रक्षा करके और बाद में अग्नितत्व के चिन्तन द्वारा कर्म-दहन लक्षण वाला संहरण करके पश्चात् चन्द्र (वरुणमण्डल) से अमृतवृष्टि को सृष्टि करके सुरभिमुद्रा नामका आसन लगाकर आप्तस्वरूप का चिन्तवन करना चाहिए ।
भावार्थ-यहाँपर मन्थकार ने पिण्डस्थ नामक धर्मध्यान में पाथियों व आग्नेयी-आदि धारणाओं के चिन्तवन के विषय में लिखा है, उन धारणाओं का विस्तृत स्वरूप हम इसो '३९ वें कल्प के श्लोक नं०९२ के भावार्थ में उल्लेख कर चुके हैं ॥ २७३ ।। ध्यानी को उस प्रकार के पंचपरमेष्ठी-वाचक बीजाक्षर 'ह्रीं' से घूम की तरह पाप को नष्ट करना चाहिए । अर्थात्-आग्नेयी धारणा में 'ह्रीं' की रेफ से निकलती हुई धमशिखा के चिन्तन करने से घूम को तरह पाप का क्षय होता है तथा उस अमृतवर्ण पकार के ध्यान से बारम्बार अमृत ( मोक्षपद ) को ग्रहण करना चाहिए; क्योंकि श्रुत के अक्षर का ध्यान मोक्ष में कारण है ।। २७४ ।।
ध्यान के आसनों का स्वरूप जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों से नीचे दोनों पिण्डलियों पर रखकर यथाविधि बैठा जाता है, उसे १. यो दुष्टाश्वः स्यात्सः प्रेरितस्तिष्ठति, खंचितश्चलति, तथेन्द्रियः खंचितो म तिलि किन्तु आत्मना ग्राह्मः पति भावः, पारिप्लवः चंचलः । २-४, सकलीकरणं यथा पूर्व कारीररक्षा क्रियते. पश्चादग्नितत्वेन दहनलक्षणं संहरण, चन्द्रादमृतमंडलादमृतवर्षेण सृष्टि । ५. सुरभिमुद्रा । *. 'धूमवनिवर्तत्' ग०। ६. 'ॐकारेण कारणेन' । टिका , 'गुम्बीजेन हकारण' इति पं० । ७-८. अमृतवर्णन पकारेण । ९-१०. सारथः पादौ तदा पभासन, सक्थ्योगपरि तदा वीरासन, पूंटी उपरि चूंटी तबा सुखासनं । तथा घोक्तममितगल्याचार्येण
गधाया जङ्घया श्लेषो समभागे प्रकोतितम् । पद्मासनं सुखाधायि सुगाम्यं सकलंजनः ॥ १ ॥ बुधरुपर्यधोभागे जङ्घयोरभयोरपि । समस्तयोः कृर्व ज्ञेयं मर्यङ्कासनमासनम् ॥२॥ अर्कोपरि निक्षेपे पायोचिहिते सति । वीरासनं चिरं कर्तुं शक्यं वीरन कातरः ॥ ३ ॥
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
तत्र सुखासनस्येदं लक्षणम्गुल्फीत्तानकराजगुष्ठरेखारोमालिनामिकाः । समवृष्टिः समाः कुन्निातिस्तन्यो न वामनः ॥२७॥
तालत्रिभागमध्यावनिः स्थिरशीशिरोऽबर'। समनिष्पन्वपाण्यं प्रजानुहस्तलोचनः ॥२७७॥ न खात्कृतिनं कण्डतिनोंष्ठभक्तिन" कम्पित्तिः । न पर्वगणिति: कार्या नोक्तिरन्दोलितिः स्मितिः ।।२७८॥ में कुर्याद्गुरवृक्षपातं नैव "केकरवीक्षणम् । न स्पन्वं पश्ममालानां तिष्ठेन्नासाशनः ।।२७९|| ‘विक्षेपाक्षेपसंमोहरीतहिते इति । सम्पतत्त्वे करस्योऽयमशेषो ध्यानजो विधिः ॥२८॥ इस्युपासकाध्ययने ध्यानविधिर्नामकोनचत्वारिंशः कल्पः । यस्या: "पवयमलंकृतियुग्मयो सोकत्रयाम्बुजसरः विहारहारि । तां वाग्विलासवसति सलिलेन वा सेवे १०कवितामण्डनकल्पवल्लीम् ॥२८१।। ( इति तोयं ) यामन्तरेण सकलार्थसमर्थतोऽपि बोषोऽयकेशितरुवन्न १२फलापिसेव्यः ।। सोऽश्यरूपवेपि३ १ सयानुगतस्त्रिलोक्या सेव्यः १० सुररिव तां प्रयजेय गन्धः ।।२८२॥ ( इति गन्धम् ।)
पनासन कहते हैं । जिसमें दोनों पैर दोनों घुटनों के कार के हिस्से पर रखकर बैठा जाता है, उसे वीरासन कहते हैं और जिसमें पैरों की गाँठ बराबर में रहती हैं, उसे सुखासन कहते हैं ॥ २७५ ॥
गृहस्थों के घ्यानोपयोगी सुखासन का स्वरूप बताते हैं-पैरों की गाठों पर बायों हथेली के ऊपर दाहनी हथेली को सीधा रखें। अगठों की रेखा, नाभि से निकल कर ऊपर को जानेवालो रोमावली और नासिका एक सीध में हों। दृष्टि सम हो। शरीर न एकदम तना हुआ हो और न एकदम झुका हुआ हो । खङ्गासन अवस्था में दोनों चरणों के बीच में चार अंगुल का अन्तर होना चाहिए। मस्तक और ग्रीथा स्थिर हो । एड़ो, घुटने, ध्रुकुटि, हाथ और नेत्र समानरूप से निश्चल हों। न खाँसे, न खुजाए । न ओष्ठ संचालित करे, न काँपे, न हस्त के पदों पर गिने, न बोले, न हिले-डुले, नमुस्कराए, न दुष्टि को दूर तक ले जाये और न कटाक्षों से देखे । नेत्रों को पलक-श्रेणी चंचल न करे । एवं नासिका के अग्रभाग में अपनी दृष्टि स्थिर रखे।
जब योगी का मन ऐसा होता है, जो अस्थिरचित्तपना, आक्षेप ( लप, स्वाध्याय व ध्यान में चित्त को कुछ विचलित करना), संमोह ( अज्ञान-अतत्व में तत्व का आग्रह या परमत-भ्रान्ति ) व दुरोहित दुरभिलाषा ) से रहित होता है तब उसके विशुद्ध मन में यह समस्त ध्यान-विधि हस्त-गत-सुलभ होती है ।। २७६-२८०॥
इसप्रकार उपासकाध्ययन में ध्यानविधि नामक उनतालीसवां कल्प समाप्त हुआ।
जिसके स्यादस्ति व स्यान्नास्ति-आदि अनेकान्त-वाचक शब्द व धातुरूप दोनों पद ( चरण ) शब्दालंकार व अर्थालङ्कार के योग्य हैं और जो तोनों लोकरूपी कमल-सरोवर में कीड़ा करने से मनोश है एवं जो कविरूपी कल्पवृक्षों को विभूषित करने के लिए कल्पलता-गरीखी है ऐसी स्याद्वादवाणी की लीलावाली सरस्वती देवी को मैं जल से पूजता है 11 २८१ ॥ मैं ऐसी स्याद्वाद वाणी को गत्य से पूजता हूँ जिसके विना समस्त पदार्थो को प्रतिपादन करनेवाला भी ज्ञान उसप्रकार फलार्थी ( स्वर्ग व मोक्षफल के इच्छुक ) पुरुषों द्वारा
१. चतुःकर पार्श्वनाथवत् । २. दिसस्तेस्तुतीयभागश्चतुरङ्गालः। ३. ग्रीषा । ४. स्वर्जनम् । ५. पृथक्करणं ।
६. कम्पनम् । ७. कटाक्ष । ८. श्रा-ईषत् । ९. शब्दालंकारः अर्थालङ्कारश्च । १०. कधिरेव कल्पतरुस्तस्यासंकरणे। ११. परिज्ञानं । १२. 'चंध्यवृक्षवत्' टि. ल., 'अबकेदो बन्ध्यः ' इति पं०। १३. नरः। १४. पाण्या। १५. 'सुरतुः मुरद्रम.' यश पं0 I *. रूपकालंकारः ।
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अष्टम आश्वासः
या स्वल्पवस्तुरचनापि मितप्रतिः 'संस्कारतो भवति तविपरीतलामी: । स्ववल्लरोवनलतेष सुषानुबन्धात्तामद्भुत स्थितिमहं सबकंः धूयामि ॥२८३॥ (इत्यक्षतम् ) "यवबीजमल्पमपि सजनयोधरायां लापप्रवद्धिविविधानषिप्रबन्धः। 'सस्परपूर्वरसत्तिभिरेव रोहत्याश्वर्यगोचरविषि" प्रसवंजे ताम् ।।२८४।। (इति पुष्पम् ) या स्पष्टसाधिकविधिः 'परसन्प्रनीति: प्रायः १"फलापरिगतापि मनः प्रसूते ।। स्पष्टं स्वतन्त्रमुपशान्सकलं नृणां - चित्रा हि वस्तुगतिरलवियजेत ॥२८५॥ (इति चरम् ) १"एक पर्व बहुपवापि बाप्ति तुष्टा १३वर्णास्मिकापि न करोषि न वर्णभाजम् ।। सेवे तयापि भवतोमयषा जनोऽर्थी दोषं न पश्मति सबस्तु सर्षय छोपः ।।२८६॥ इति वापम् ।
सेवनीय नहीं होता जिसमकार न फलनेवाला वृक्ष फलार्थी पुरुषों द्वारा संवनीय नहीं होता और जिसका अनुसरण करनेवाला अत्यन्त अल्पज्ञानी भी मनुष्य कल्पवृक्ष की तरह तीनों लोकों से पूजनीय होता है। ॥२८॥ में उस आश्चर्यजनक स्थितिवाली ऐसी सरस्वती देवी को अक्षतों से पूजता है, जिसके अभ्यास से अल्प अर्थ वाली व अल्प शब्दवाली रचना भी उस प्रकार अपरिमित अर्थवाली व अपरिमित शब्दवाली होकर मुशोभित होती है जिसप्रकार अमृत के सिञ्चन से वमलता भी कल्पलता होकर सुशाभित होती है।५।२८२।। जिसकी विधि आश्चर्य का विषय है, उस जिनवाणी को मैं पुष्पों से पूजता है, जिसका छोटा-सा भी बीज सज्जनों को बुद्धिरूपी भूमि में वृद्धिंगत, नानाप्रकार के व असीम प्रबन्धों ( गद्य च पद्यरूप काव्य-रचनाओं ) द्वारा अपूर्वरस ( शृङ्गार-आदि व पक्षान्तर में मिष्टरस ) वाले फलों के साथ ऊँगता है ॥२८४॥ ऐसी वाणी को नानाप्रकार के नैवेद्यों से पूजना चाहिए, जो शब्दरूप होने के कारण नेत्रों से अगम्य है, अतएव अति अस्पष्ट है तथापि वह मानवों की आत्मा को स्पष्ट प्रकट करती है, जो कण्ट व तालु-आदि आठ स्थानों से उत्पन्न होने के कारण परतन्त्र है तो भी वह आत्मा को स्वाधीन करती है, जो मूर्ति-सहित है तो भी वह मानवों की आत्मा को शरीर-रहित कर देती है, सच है कि तत्वज्ञान बड़ा विचित्र है। आशय यह है, कि जिनवाणो श्रुतशानरूप' होने पर भी केवलज्ञान को प्रकट करती है, जिससे वह केवलझान मानवों की आत्मा को स्पष्ट जानता है और स्वाधीन बनाता है व शरीर-रहित कर देता है। अतः तत्वज्ञान विचित्र है ।।२८५।।
हे देवी! तुम बहुत पदोंवाली होकर के भी सन्तुष्ट होने पर आराधक जन के लिए एक पद प्रदान करती हो, यहाँ विरोध प्रतीत होता है, उसका परिहार यह है कि हादशाङ्ग के पदों की संख्या एक सौ बारह करोड़ तेरासी लाख अट्ठावन हजार पाँच है, अतः जिनवाणी बहुपदा ( बहुत पदोंवालो व पनान्तर में अमृत स्वरूप ) है और उसके द्वारा एक पद ( मोक्ष) प्राप्त होता है । और वर्णात्मक होकर के भी आराधक जन को ब्राह्मणादि वर्गों का धारक नहीं करती; यहाँ पर भी विरोध मालम पडता है, उसका परिहार यह है कि जिनवाणी वर्णात्मक (अक्षरात्मक) है, परन्तु सन्तुष्ट हुई आराधक जन को ब्राह्मणादि वर्गों से मुक्त करती है, तथापि
१. 'अल्पशब्दहिताऽपि' टि० ख०, 'स्तीकाजपि' टि. च. घ०। २. 'अल्पार्याऽपि' दि० ख०, 'स्वल्पशाम्दापि' टि० ०। ३. भगवत्याः अभ्यासवशात् । ४. अमितामहा। ५. यस्याः बीज। *. अल्पार्थाऽपि । ६. फलः कृत्या। ७. आश्चर्यण गोवरो गम्यश्चासौ विधिर्यस्याः सा ताम। ८. शब्दरूपत्वान्नेवाणाममम्या तथापि मनः आत्मानं स्पर्म स्वाधीनं प्रसूते प्रकटीकरोति । ९. अस्थानापेक्षया तथापि मनः स्वाधीनं सूते । १०. भूतिसहिताऽपि मनः आत्मानं उपशान्तकर्क शरीररहितं सूते। ११. अद्वितीयं मोक्षं। १२. कौटिशतभित्यादि पक्षे अमृतस्वरूपा । १३. अदारस्वरूपा पक्षे विवादि। * यचप्पेकपदत्वात् कृपणापि । १४. उपमालंकारः। १५. उपमालंकारः । १६. दिलष्टोपमालंकारः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
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"वक्षुः परं करणकन्दररितेऽयं मोहान्धकारविद्युतौ परमः प्रकाशः । तखाम गामिवीक्षणाश्नदीपस्त्वं सेव्य से विह देवि जनेन धूपैः ॥ २८७ ॥ चिन्तामणित्रिविधेनुसुरद्रुमाद्याः पुंसां मनोरथपवप्रथितप्रभावाः । भावा भवन्ति नियतं तव देवि सम्यक्सेदाविधंस्तदिदमस्तु मुद्दे फलं से || २८८ ||
( इति फलम् }
कमल मौक्तिककूलमणिजालना मरणार्थः । श्रराष्यामि देवों सरस्वती सकलमङ्गलंभविः ।। २८९ ।। स्याद्वावभूषरभवा मुनिमाननीया बेबंरनन्यशरणः समुपासनीया । स्वान्ताश्रिताखिलकलङ्कहरप्रवाहा वागापगास्तु मम बोधगजावगाहा ॥ २९० ॥ "मूर्धाभिषिक्तोऽभिषवाजिनानामच्यऽचं नात्संस्तव नास्तबार्हः ।
पीपानविधेवाध्यः श्रुताश्रितषीः श्रुतसेवनाच्च ॥ २९१ ॥
दृष्टवं जिन सेवितोऽसि नितरां "भावैरमन्याथमं । स्निग्धस्त्वं न सथापि यत्समविधि भक्तं विरपि च ।। मतः पुनरेतदीवा भवति प्रेमप्रकृष्टं ततः । कि भाषे परमत्र यामि मषतो भूयात्पुनदर्शनम् ।।२९२ ॥
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( इति धूपम् )
करने
०
मैं आपकी पूजा करता है, क्योंकि प्रयोजनार्थी प्रयोग दीप अर्पित करता हूँ ॥ २८६ ॥ हे देवि! तुम इन्द्रियरूपी गुफाओं से नेत्र हो, अर्थात् - आपके प्रसाद से इन्द्रियों के अगोचर पदार्थ जाने जा अन्धकार के स्फेटन - विध्वंस करने के लिए तुम उत्कृष्ट प्रकाश हो तथा मोक्षस्थान में जानेवाले मार्ग के दर्शन में रत्नमयी दीपक हो इसलिए लोग धूप से तुम्हारी पूजा करते हैं " " ॥२८७॥ हे देवि ! आपकी विधिपूर्वक सेवा करने से चिन्तामणि, कामधेनु व कल्पवृक्ष आदि पदार्थ, जिनका प्रभाव प्राणियों की इच्छा पूर्ति के विपय में प्रसिद्ध है, नियम से प्राप्त होते हैं। इसलिए यह फल तेरी प्रसन्नता के लिए हो || २८८ || में सुवर्ण कमल, मोती समूह, रेशमी वस्त्र, मणि-समूह और चमरों की बहुलतावाली समस्त माङ्गलिक वस्तुओं से सरस्वती देवी की आराधना (पूजा) करता हूँ ||२८९||
का प्रोरेषा जय में तुम्हें वर्ती पदार्थों को देखने के लिए उत्कृष्ट सकते हैं; और प्राणियों के अज्ञानरूपी
ऐसी वाणीरूपी नदी मेरे ज्ञानरूपी हाथी का प्रवेश करानेवाली हो, जो कि स्याद्वादरूपी पर्वत से उत्पन्न हुई है, जो मुनियों द्वारा सन्माननीय है, जो अन्य की शरण में न जानेवाले देवों द्वारा सम्यक्रूप से उपासनीय है, एवं जिसका प्रवाह प्राणियों के मन में स्थित हुए समस्त कर्मरूपी कलङ्क को नष्ट करनेवाला है ||२९० || जिनेन्द्र भगवान् का अभिषेक करने से भक्त पुरुष मस्तक पर अभिषेक किया हुआ ( राजा ) होता है, पूजा करने से पूजनीय होता है, स्तुति करने से स्तुति के योग्य होता है एवं जप करने से जप-योग्य होता है एवं ध्यान - fafe से बाधाओं से रहित होता है तथा श्रुत की आराधना से बहुत विद्वत्तारूपी लक्ष्मीवाला होता है।। २९१ ।। हे जिनेन्द्र ! मैंने तुम्हारा दर्शन किया और जिनका अन्य आश्रय नहीं है, ऐसे भावों ( आठ द्रव्यों) से तुम्हारी विशेष पूजा को तो भी राग, द्वेष से रहित होने के कारण तुम मुझ से स्नेह-रहित हो क्योंकि तुम भक्त व विरक्त पुरुष में समता-युक्त ( मध्यस्थ - राग-द्वेष-रहित ) हो, अर्थात्-तुम भक्त से राग और विरक्त से द्वेष नहीं करते। फिर भी मेरा यह चित्त आपके प्रति प्रेम से भरा है। अधिक क्या कहूँ अब में जाता हूँ । मुझे आपका पुनः दर्शन प्राप्त हो ।। २९२०
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१- २, करणान्येव कन्दराणि गुफास्तेषां कन्दराणां हरे पदार्थ त्वं सरस्वती चक्षुः । ३. स्फेटने । ४. सुवर्ण । ५. राजा भवति । ६. जप्यः । ७. वाधारहितो भवति । ८. पदार्थ अष्टप्रकार पूजन: 1 ९. समतायुक्तः मध्यस्थः । १०. विरोधाभासालंकारः । ११. रूपकालंकारः । १२. रूपकालंकारः ।
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अष्टम माश्वास:
इत्युपासका ताराधनविधिर्नाम चश्वारिंशसमः कल्पः ।
पर्वाणि प्रशासे अवारितानि च । पूजा क्रियावताधिवाद्ध कर्मा श्येत् ॥ २९३॥ रसपागंक भक्तकस्थानोपवसन क्रियाः । यथाशक्तिविषेयाः स्युः 'पसन्धी पण ।। २९४ ।। तन्नरन्तयं सन्ततिथिती पूर्वकः । उपवासविधिचित्र चिन्त्यः श्रुतसमाश्रयः ॥ २९५॥ " स्नानगाङ्गसंस्कार वायोधाऽविवक्षोः । निरस्तसर्वभावयः संयमतत्परः ॥ २९६ ॥ देवागारे गिरौ चापि गृहे वा पहनेऽपि वा । उपोषितो भवेन्नित्यं धर्मध्यानपरायणः ।।२९७ ॥ पुंसः कृतोपवासस्य प्रारम्भरतादमनः । कायक्लेशः प्रजायेत गजनानस मक्रियः ।। २९८ ।।
૪૪૩
इस प्रकार उपासकाध्ययन में श्रुताराधनविधि नामक चालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ । प्रोषधोपत्रास का स्वरूप
प्रत्येक मास में वर्तमान दो अष्टमी व दो चतुर्दशी इन चारों को 'प्रोषच' कहते हैं। इन पर्वों में व्रती श्रावक को विशेष पूजा, विशेष क्रिया और विशेष व्रतों का पालन करके धर्म-कर्म की बुद्धि करनी चाहिए ॥ २९३ ॥ पर्वसन्धि ( अष्टमी ) व पर्व के दिनों में रसों का त्याग, एकाशन, एकान्त स्थान में निवास उपवास आदि क्रियाएँ यथाशक्ति करनी चाहिए || २९४ || लगातार या बीच में अन्तराल देकर के तिथि, तीरों के कल्याणक तथा नक्षत्र को आधार बनाकर आगमानुसार अनेक प्रकार की उपवास-विधि विचार लेनी चाहिए। अर्थात् कोई तो रसत्याग आदि सदा करते हैं, कोई अमुक तिथि में करते हैं, कोई तीर्थंकरों के कल्याणकों के दिन करते हैं, इस प्रकार अनेक प्रकार की उपवासविधि आगम में निर्दिष्ट है, उसे विचार लेनी चाहिए ।। २९५||
उपवास करनेवाले गृहस्थ को स्नान, इत्र-फुलेल, शरीरसंस्कार, आभूषण और स्त्री में बनासक रखकर अर्थात् इन्हें त्यागकर और समस्त पाप क्रियाओं का त्याग करने वाला होकर चरित्र -पालन में तत्पर होना चाहिए और जिनमन्दिर में या पवंत पर गृह में या वन में जाकर सदा धर्मध्यान में तत्पर होना चाहिए ।।२९.६-२९७॥
जो मानव उपवास करके भी अनेक प्रकार के आरम्भों में अनुरक्त चिनवाला है, उसका उपवास ham काय - क्लेश हो है और उसकी क्रिया हाथी के स्नान की तरह व्यर्थ है । अर्थात् - जिस प्रकार हाथो स्नान करके पुनः अपने शरीर पर धूलि डाल लेता है, अतः उसका स्नान व्यर्थ हे उसी प्रकार उपवास करके गृहस्थ संबंधी प्रपञ्चों में फँसे हुए का उपवास निरयंक है, क्योंकि उससे आत्मा का हित नहीं होता ॥१२९६८ ।।
★ तथा चोकं समन्सभद्राचार्यैः चतुराहारविसर्जनमुपवास: प्रोषयः सकृद् मुक्तिः ।
प्रघोपवासो यदुषोण्यारम्भ
माचरति ॥ १०९॥ रत्न धा० । तथा च पूज्यपादः - प्रोषधशब्दः पर्षपर्यायवाची प्रोषधे उपवासः प्राषधीपदासः' ।— सर्वार्थसिद्धि । १ अएभ्यां । २. नक्षत्र ३ नानाप्रकारा ४ तथा चाह समन्तभद्राचार्य:--- 'पश्चानां पापानामलक्रियारम्भगन्धपुष्याणो स्नानाननस्यानामुपवासे रिति कुर्यात् ॥ १०७॥ धर्मामृतं सतृष्णः श्रवणाभ्यां मिषनु पायवेद्वाऽन्यान् । ज्ञानध्यानपरो वा भवतुपवसन्मतन्द्रालुः ॥११०८॥ - रत्नकरण्ड श्रा० 1
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यशस्तिलकचन्पूकाव्ये
*अनबेक्षाप्रतिलेखनष्कर्भारम्भवमनस्काराः । आवश्यकविरतियुताश्चतुर्थभेते विनिघ्नम्ति ।।२९९।। विशुध्येतान्तरात्मायं कायक्लेशविधि विना । किमग्ने व्यवस्तीह काञ्चनामविशुद्धये ॥३०॥ हस्ते चिन्तामणिस्तस्य दु:समरवानलापवित्रं यस्य चारिदिचसं सकतिजन्मनः॥३०॥ इत्पुपासकाथ्यपने प्रोषधोपवासविधिनमिकचरवारिपात्तमः कल्पः । य: 'सकृत्सेव्यते भावः स भोगो भोजनाविकः । भूषाविपरिभोगः स्यात्पौनः पुन्येन सेवनात् ॥३०२।। परिमाणं तयोः कुर्यानि नामानिने : प्रासापांना मिचम भजेत् ॥३०३॥ यमन नियमाचेति हौस्याये वस्तुनि स्मृतो । पायजीवं यमो नमः सावधिनियमः स्मृतः ॥३०४।।
विना देखी व विना शोधी भूमि पर नल-मूत्रादि का क्षेपण करना, मृदु उपकरण (मयूर-पिच्छ) से विना शुद्ध किये हुए पूजा के उपकरण व शास्त्र-आदि का ग्रहण करना, पाप कार्य का आरम्भ करना, अशुभ मन से विचार करना और सामायिक, वन्दना, प्रतिक्रमण-आदि छह आवश्यक क्रियाओं को न करना ये कार्य प्रोषधोपवासवत के घातक हैं; अत: प्रोषधोपवास के दिन इन अतीचारों का त्याग करना चाहिए ॥२९९।। उपवासआदि द्वारा कायक्लेश किये विना आत्म-शुद्धि नहीं होती। क्या इस लोक में सुवर्ण-पापाण को शुद्धि के लिए अग्नि को छोड़कर दूसरा कोई साधन है ? अर्यात्-जैसे अग्नि में तपाने से ही सुवर्ण शुतु होता है वैसे हो वारीर को कष्ट देने से आत्मा विशद्ध होती है ॥३००|| पुण्य से जन्मवाल जिसका वित्त चरिश से पवित्र है, उसे ऐसा चिन्तामणि रत्न हस्तगत ( प्राप्त ) होता है, जो कि दुःखरूपी वृक्ष को भस्म करने के लिए दाबानल अग्नि-सरीखा है।॥३०॥ इसप्रकार उपासकाध्ययन में प्रोषधोपवासविधि नामक इकतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
भोगपरिमोग परिमाणवत जो पदार्थ एकवार हो भोमा जाता है उसे 'भोग' कहते हैं जैसे भोजन-वगैरह और जो बार-बार भोगा जाता है, उसे 'परिभोग या उपभोग' कहते हैं । जैसे आभूषण वगैरह ।। ३०२ ।। धामिक पुरुष को अपने चित्त की अधिकाधिक संग्रह करने को तृष्णा की निवृत्ति के लिए भोगापभोग वस्तुओं का परिमाण कर लेना चाहिए और जो कुछ प्राप्त है और जो सेवन-योग्य है, उन समस्त वस्तुओं का भी अपनी इच्छानुसार नियम कर लेना चाहिए, कि आज मैं इतनी भोगोपयोग वस्तुएँ भोगूंगा ।। ३०३ ॥ त्याज्य पदार्थों के त्याग के विषय
*. तथा चाह उमास्वागी-आनार्य:--'अप्रत्यवेक्षितात्र माजितोत्सर्गादागसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि ॥ ३४ ॥'
मोलयास्त्र ७-३४१ तथा चाह समन्तभद्राचार्यः--हणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमृष्टान्यनादरास्मरणे । यत्रोषयोपवासव्यतिलङधनपञ्चकं तदिदम् ॥११०॥ रत्न श्रा० । १. पडावश्यकहिताः । २. उपवास । ३. सुकत्या पुष्पेन जन्म यस्य । ४. एकदारं । *. सथा चाह समन्तभनापार्य:--'भुवस्त्रा परिहातच्यो भोगो भुक्त्वा पुनश्न भोक्तव्यः। उपमांगोऽशनबसनप्रमृतिपञ्चेन्दियो विषयः ।। ८३ ॥' रल श्रा०। तथा चाह पूज्यपादः-'उपभोगोयानपानगन्धमाल्यादिः, परिभोगः आच्छादनप्रावरणालङ्कारशयनासनगृहयानगहनादिः तयोः परिमाणमुपभोगपरिभोगपरिमाणम् ।'-सर्वार्थसि०७-२१॥ ५. तथा चाह समन्तभद्राचार्य-'नियमो यमपच विहिती वेषा भोगोपभोगसंहारे। नियमः परिमितकालो यावज्जीवं यमो धियते ।।८७॥'रलकर श्रा०।
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अष्टम आश्वासः
४४५
'पलाण्डतक्षीनिम्बसुमनःपूरणाविकम् । त्यजेवाजन्म तपबहुप्राणिसमाश्रयम् ॥३०५।। दुष्पवस्य निषिसस्य जन्तुसंबन्धमिभयोः । अपीक्षितस्य च प्राशस्तसंख्यासिकारणम् ।।३०६॥ इत्यं नियतवृतिः स्यावनिच्छोऽध्यायः श्रियाः । नरो नरेषु वेवेषु मुक्तिधीसविधागमः ॥३०॥ इत्युपासकाध्यपने भोगपरिमोगपरिमाणविधिनाम द्विवस्वारिंशसमः कल्पः । क्याविषयमादेश यातव्य पथागमम् । ययापात्रं यमाकासं वाम देयं महाश्रमः ॥३०८।। आत्मनः भेयसेऽन्येषां' रत्नत्रयसमृद्धये । "स्वपरानुपहायेत्वं यस्यात्तद्दानमिप्यते ॥३०९।।
में यम और नियम दो विधि कही गई हैं। अर्थात्--मोमोपभोग वस्तुओं का परिमाण दो प्रकार से किया जाता है । एक यमरूप से और दूसरे नियमरूप से । जीवनपर्यन्त त्याग करने को यम समझना चाहिए और कुछ समय के लिए त्याग करने को नियम समझना चाहिए। अर्थात्-परिमितकाल पर्यन्त त्याग को नियम जानना चाहिए ॥ ३०४ ॥
नती को प्याज-आदि जमीकन्द, केतकी के पुष्प व नीम के पुष्प तथा मूरण-वगैरह जमीकन्द जन्म पर्यन्त के लिए छोड़ देने चाहिए, क्योंकि ये पदार्थ उसी प्रकार के बहुत से जीवों के निवासवाले हैं ।। ३०५ ।। ऐसे भोजन का भक्षण भोगपरिभोगपरिमाणन्नत की क्षति का कारण है, जो कच्चा या जला हुआ है, जो व्रतीद्वारा त्याग किया हुआ है, जो जन्तुओं से छू गया है, या जिसमें जन्तु गिरकर मर गए हों और जो दृष्टिगोचर नहीं हुआ ।। ३०६ ॥ उक्त प्रकार से भोगोपभोग वस्तुओं का परिमाण करनेवाला धावक मनुष्य इच्छक न होता हुआ भी मनुष्यों की लक्ष्मी ( चक्रवर्ती-बिभूति ) व देवों को लक्ष्मी ( इन्द्र-विभूति ) का आश्रय होकर मुक्तिश्री को निकट' में प्राप्त करनेवाला हो जाता है ॥ ३०७॥ इसप्रकार उपासकाध्ययन में भोगोपभोगपरिमाण नामक बयालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ।
दान का स्वरूप गृहस्थाश्रमी को विधि ( पड़गाहना-जादि), देश, द्रव्य, आगम, पात्र एवं काल के अनुसार दान देना चाहिए ।। ३०८ ।। जो अपने कल्याण के लिए है और मुनि-आदि सत्पात्रों की रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र ) की वृद्धि के लिए होता है, इसप्रकार जो दाता और पात्र के उपकार के लिये
१. Hथा चाह पूज्यपाद:-"मधु मास मधञ्च सदा परिहर्तव्यं सघातानिवृत्तचेतसा। केलक्यर्जुनपृष्पादौनि गृङ्ग
बेरमूलकादौनि बहुजन्सुयोनिस्थानान्यनन्तकायव्यपदेशाहाणि परिहर्तव्यानि बहुधाताल्पफलत्वात् । पानवाहनाभरणादिष्वैताचदेवेष्टमतोयदनिष्टमित्यनिष्ठाभिवर्तनं कर्तव्य कालनियमन यावज्जीव वा यथाशक्ति ।'-सधि०७-२१ ।
२. तपा चाह रात्रकार:--'सनित्तसम्बन्धसम्मिश्राभिषत्रदुःपश्वाहाराः' -मोक्षशास्त्र ७-३५।। *. तथा चोतं-'यथाद्रव्यं यथादेशं पथापा यथापथमा यथाविधानसम्पत्या वाने देयं तदपिनाम् ||१३|| प्रवोक्सार पु.१८७ ।
३. महामुनीनां । ४. तथा चाह सूबकार:--'अनुग्रहार्य स्वस्यासिभर्गो दानं ।' –मांशशास्त्र ७-३८ । 'स्वपरोपकारोऽनुग्रहः । 'स्वोपकारः पुण्यसंचयः, परोपकारः सम्यग्ज्ञानादिद्धिः । सर्वार्थसिद्धि भाष्यकारः पूज्यणदः प० २१९ । तथा चोक्तं श्रीमद विद्यानन्दिस्वामिना'अनुग्रहार्थमित्येतद्विशेषणमुदीरितं । तेन स्वांसदानादि निषिद्ध परमापकृत् ।।२॥' 'तेन च विशेषणत स्वमांसाविदार्न स्वापायकारणं परम्यावधनिबंधनं च प्रतिक्षिप्लमालश्मते, तस्य स्वपरयोः परमापकारहेतुत्वात् ।'-वत्वार्थश्लोकबातिक पु० ४७२ ।
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पशस्तिलफचम्पूकाव्ये दातृपात्रविधिवष्यविशेषाद्विशिष्यते । यथा रचनाघनोदगोणं तोयं भूमिप्तमाघपम् ॥३१०॥ वातानुरागसंपन्त: पात्रं रत्नत्रयोचितम् । सरकार: स्याद्रिषिष्ट्रव्यं तप:स्वाध्यायसाधकम् ।।३११।। परलोकधिया कश्चित्कविहिकचेतसा । योषियमनसा कश्चित्सता वित्तव्ययस्त्रिया ।।३१२।। परलोकहिकोषित्येष्यस्ति येषां न पीः समा। धर्मः कार्य यशश्चेति लेपामेतत्त्रयं कुतः ॥३१३।।
अभयाहारभषयअतभेदामचयिषम् । वानं मनीषिभिः प्रोक्तं भक्तिशक्तिसमाश्रयम् ।।३१४।। दिया जाता है, उसे हो दान कहा जाता है ॥ ३०९ ॥ जैसे मेघों से बरमा हुगा जल भूमि का आश्रय प्राप्त करके विशिष्ट फलदायक होता है वैसे ही दाता, पात्र, विधि और द्रव्य को विशेषता से दान में भी विशेषता होती है, अर्थात्--ऐसा दान विशेष फलदायक होता है ।। ३१० ।।
दाता-आदि का स्वरूप जो पात्र के गुणों ( सम्यग्दर्शन-आदि) में अनुरक्त होकर देवे, वह दाता है। जो सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र रूप रत्नत्रय से विभूषित है यह पात्र है। नवधा भक्ति को विधि कहते हैं और मुनियों के तप व स्वाध्याय में सहायक अन्न व शास्त्र-आदि को द्रव्य कहते हैं ॥ ३११ ॥ सज्जन दाताओं का धन-वितरण तीन प्रकार से होता है। कोई सज्जन परलोक की बुद्धि के उद्देश्य से कि परलोक में हमें स्वगंधी की प्राप्ति होगी, धन-वितरण करते हैं। कोई सज्जन ऐहिक मुख की वाञ्छा से कि इस लोक में मेरी कीति हो और जनता में सन्मान प्राम होगा, धन वितरण करते हैं एवं कोई सज्जन औचित्य ( दान व प्रिय वचनों द्वारा दूसरों के लिए सन्तोष उत्पादन करना) से युक्त अभिप्राय से दान करते हैं ।। ३१२ ।। जिनको वुद्धि न परलोक सुधारने की है और न ऐहिक कार्य की ओर है और न औचित्य की ओर है अर्थात्--जो उक्त उद्देश्यों से दान द्वारा पात्रों को सन्मानित नहीं करते, उनके लिए धर्म, लौकिक कार्य व कीति ये तीनों कैसे प्राप्त हो सकते हैं ?
भावार्थ--परलोक की बुद्धि के उद्देश्य से और औचित्य मनोवृत्ति से दान करने से क्रमशः धर्म व कोति प्राप्त होती है। जैसे मुनियों को दान देना-आदि, बाल-पीड़ितों या दुर्भिक्ष-पीड़ितों की सहायता करना, शिक्षालयों व औषधालयों के संचालनार्थ दान देना-आदि। इस लोक की बुद्धि से किया हुआ धन-वितरण लौकिक कार्यों में उपयोगी है। जो लोग उच्च तीनों आधारों में धन खर्च नहीं करते, वे लोकिक कार्यों में भी खाली हाथ रहते हैं और पारलौकिक सुख से भो बवित रहते हैं और न उन्हें यश भो मिलता है ।। ३१३ ।।
दान के भेद विद्वानों ने चार प्रकार का दान कहा है- अभयदान, आहारदान, औषधदान और शास्त्रदान । ये चारों दान दाता को शक्ति व श्रद्धा का आश्रय करते हैं। अर्थात्त-यदि दाता के पास धन नहीं है, तो वह देने का इच्छुक होकर के भी नहीं दे सकता और उसके पास धन होने पर भी श्रद्धा के विना उसमें दान करने
१. सथा चाह श्रीमदुमास्वामी आचार्य:-"विधिद्रव्यदातुपात्रविशेषास्तविशेषः'---मोक्ष. ७-३९। २. धनाधना मेघः ।
३. ओदनादि । ४. तपा चाह श्रोसमन्तभद्राचार्य:--'आहारोपयोरप्युपकरणावासयोश्च दानेन ।
वैयावृत्यं ब्रुवते चतुरात्मत्वेन चतुरस्राः ।।११७॥'-रन० श्रा० । तथा चाह पूज्यपादः–'त्यागो दानं । तत्त्रिविधं आहारदानमभयदान ज्ञानदानं चेति' ।- सर्वार्थ०६-२४ ।
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अष्टम आश्वासः
"सौरूप्यमभयावहुराहाराद्भगवान्भवेत् । आरोग्यमौषधान्यं सारस्याच्छू सकेवल ।। ३१५।। *अभयं सर्वसत्वानामाद दद्यात्सुधीः सका। तीन हि घ्या सर्वः परलोकोचितो विधिः ।।३१६|| दानमन्यवेन्या वा नरइवेदनपत्रः । सर्वेषामेव यानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥३१७॥ तेनाधीतं भूतं सर्व तेन तप्तं तपः परम् । तेन कृत्स्न कृतं दानं यः स्थावभयदानवान् ||३१८॥ नवोपचारसंपलः समेतः सप्तभिर्गुणः । मन्यसुविधा शुद्धः साधूनां कल्पयेरिस्थतिम् ॥३१९॥
की इच्छा नहीं होती; अतः जो धनाढ्य व श्रद्धालु होते हैं, वे ही उक्त चारों प्रकार का दान पात्रों के लिए दे सकते है || ३१४ |
दानों का गल
आचार्यों ने कहा है कि अभयदान (प्राणि रक्षा) से दाता को सुन्दर रूप मिलता है, आहार-दान से भोगसामग्री प्राप्त करनेवाला होता है एवं औषधिदान से निरोगता प्राप्त होती है तथा शास्त्रदान से श्रुत केवली होता है ।। ३१५ ।।
अभयदान की श्रेष्ठता
विवेक मानव को सबसे प्रथम समस्त प्राणियों के लिए सदा अभयदान देना चाहिए। क्योंकि अभयदान न देनेवाले ( निर्दयो ) मानव को निस्सन्देह सभी पारलौकिक क्रियाएं व्यर्थ है ।। ३१६ ।। क्योंकि अभयदान (प्राणि-रक्षा ) समस्त दानों में श्रेष्ठ है, अतः यदि अभयदान देनेवाला मानव दूसरे दान करनेवाला हो अथवा न भी हो तो भी उसका कल्याण होता है ॥ ३१७ || जो मानव अभयदान देता है, उसने समस्त शास्त्र पढ़ लिए और उत्कृष्ट तप कर लिया एवं समस्त दान कर लिए। अर्थात् — वह शास्त्रवेत्ता, परमतपस्वी व' समस्त दानों का कर्ता है ॥ ३१८ ॥
[ अब आहारदान को कहते हैं ]
सात गुणों (श्रद्धा व तुष्टि- आदि) से युक्त दाना को नवधा भक्ति ( प्रतिग्रह व उच्चासन आदि ) पूर्व अन्न, पान, स्वाद्य व ला भेद से चार प्रकार के शुद्ध आहार द्वारा मुनियों की भोजन विधि करना चाहिए, अर्थात् — उनके लिए चार प्रकार का शुद्ध आहार देना चाहिए ।। ३१९. ॥
१ तथा चीतं - श्रीरूप्यभयात् प्राहुरारात् सर्वस्थता | श्रुतात् श्रुततामीशां निर्व्यापित्वं तथा ॥ १८ ॥ — प्रबोधसार पृ० १९० ।
* तथा चोतं - 'धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितव्यं यतः स्थितिः । तद्दानतस्ततो दत्तास्ते सर्वे सन्ति देहिनाम् ॥ ८४ ॥ - नमि० श्र० ९ परि० ।
२. तथा चाह स्वामिसमन्तभद्राचार्य:---
नवपुष्यैः प्रतिपत्तिः सतगुणसमाहितेन शुद्धेन । अपसूनारम्भाणामार्याणामिष्यते दानम् ॥ ११३ ॥ - रत्न० । ३. अनपान खाद्यले ह्यभेदात् । ४. अवित्रः चमंजललादिरहितैः ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
"प्रतिग्रहो छ। सनपादपूजा प्रणाम वाक्कायमनः प्रसावाः ।
२ विद्याविशुद्धियच नवोपचाराः कार्या मुनीनां गृहसंश्रितेन ॥ ३२० ॥
मद्धा तुष्टिर्भक्तिविशानधता क्षमा शक्तिः । यते सप्तगुणालं यातारं प्रशंसन्ति ॥ ३२१॥
ar विज्ञानस्पेवं लक्षणम्
विवणं विरसं विद्धमात्मनो न तद्देयं यच भवावहम् ॥३२२|| fog नौलो कामयोद्दिष्ट" विगतम् । न देयं तुनस्पृष्टं देवयक्षादिकल्पितम् ॥ ३२३॥ ग्रामान्तरात्समानीतं मन्त्रानोतमुपायनम् । न वैयमापणक्रीतं विरुद्धं वाध्ययकम् ॥ ३२४ ॥
गृहस्थ को मुनियों की नवधा भक्ति करनी चाहिए । १. प्रतिग्रह ( पड़गाहना अर्थात -- अपने गृहके द्वार पर मुनि को आते देखकर उन्हें आदरपूर्वक स्वीकार करते हुए 'स्वामिन् ! नमोस्तु ठहरिए व्हरिए, वहरिए इस प्रकार तीन बार कहना ) २. उच्चासन ( गृह के मध्य ले जाकर ऊँचे आसन पर बैठाना ) ३. पादप्रक्षालन (उनके चरणकमलों को प्रक्षालित करना) ४. पादपूजा (पश्चात् उनके चरणकमलों की पूजा करना), ५. प्रणाम (पञ्चाङ्ग नमस्कार करना ), ६.७.८. मनशुद्धि वचनशुद्धि व कायशुद्धि कहना और ९. आहारशुद्धि ( अन्न-जलशुद्धि ) | ये नवधा भक्ति हैं ।। ३२० ।।
जिस दाता में निम्न प्रकार ये सात गुण होते हैं, उसको आचार्य प्रशंसा करते हैं - १. श्रद्धा ( पात्रदान के फल में विश्वास करना ), २. तुष्टि ( सन्तोष- दिये हुए आहार दान से हर्षित होना ), ३. भक्ति ( पात्र के गुणों में अनुराग होना ), ४. विज्ञान ( आचार शास्त्र का ज्ञान ), ५. अलुब्धता ( दान देकर सांसारिक सुख की अपेक्षा न करना ), ६. क्षमा ( क्रोध के कारणों की उत्पत्ति होनेपर भी क्रोध न करना) और ७. शक्ति (स्वल्प घन होनेपर भो दान देने में रुचि होना ) ।। ३२१ ।।
[ अब इन गुणों में से विज्ञान गुण का स्वरूप शास्त्रकार स्वयं बताते हैं ]
विवेकी श्रावक को मुनियोंके लिए ऐसा सदोष भोजन नहीं देना चाहिए, जो विरूप है, जो चलितरस है, जो चुना हुआ ( क्रोड़ों के व्याप्त ) है, जो साधुकी प्रकृति के विरुद्ध है, और जो विशेष जीर्ण या जला हुआ है तथा जिसके खाने से रोग उत्पन्न होते हैं। जो झूठा है, ओ नोच पुरुषों के खाने योग्य है, जो दूसरे ( किसानों-आदि) के उद्देश्य से बनाया गया है, जिससे अशोधित है, जो निन्द्य है, जो दुर्जनों से छू गया है, और जो देव व यक्ष आदि के सत्कार के लिए बनाया गया है ।। ३२२-३२२ ।। इसी तरह जो दूसरे गाँव से लाया हुआ है, जो सिद्ध मन्त्रों से लाया हुआ है, जो भेंट में आया है, और जो बाजार से खरीदा गया है एवं
१. तथा चाह भगवज्जिनसेनाचार्य:
'प्रतिग्रहणमत्युत्रः स्थानेऽस्य विनिवेशनम् । पादप्रभावनञ्चार्या नतिः शुद्धिश्च सा त्रयी ॥ ८६ ॥ -- महापुराण' । तथा चोक्तं- 'प्रतिग्रहोच्चस्थानेच प्रक्षालनमर्चनम् । प्रणामो योगशृद्धिश्च भिक्षाशुद्धिश्च तं नव' ॥ १ ॥ - वारिप्रसार पू० १४ ।
अभ्युत्थानं । पूर्वं पादप्रक्षालनं पश्चात् पूजा । २. विधा आहारः । ३. 'अतिजीर्ण' टि० ख० 'प्रभूतं यदुमं धान्यं न प्ररोहति प्रथा न फलति' इति यदा० पञ्जिकाकारः । ४. रोगकारि । ५. ककरादिनिमित्तनिष्पक्षमशोषितत्वात् । ६. प्रामृत - लाइनकं ।
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अष्टम आश्वासः
: पयोभप्रायं "पर्युषितं मतम् । गन्धवर्णरस भ्रष्टमन्यत्सर्वं विनिश्वितम् ॥ ३२५ ॥ बालग्लान' तपःक्षीणवृद्ध व्याधिसमन्वितान् । मुनीनुपचरेनित्यं यथा ते स्युस्तपः क्षमाः ।। ३२६ । "ज्ञानं" पारिप्लवमसंयमम् । वाक्पादम्य विशेषेण वनपेड्रोजन ॥२२७।।
अभक्तानां कामतानां ससु न भुञ्जीत सथा साग्यकारुण्यकारिणाम् ।। ३२८ ॥ नाहरन्ति महासत्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किं नु ते वैन्यकारण्य संकल्पोचितवृत्तयः ॥ ३२९॥
जो आचार शास्त्र से व प्रकृति से विरुद्ध है तथा जो ऋतु के प्रतिकूल है ।। ३२४ ॥ दही, घी व दूध से सिद्ध हुआ आहार बासा होनेपर भी पात्रों के देने के लिए अभीष्ट है किन्तु जिनका गन्ध, रूप व स्वाद बदल गया है, वह सब आहार निन्दित है, अर्थात् मुनि की देने योग्य नहीं है ।। ३२५ ॥
साधु-सेवा - विवेकी श्रावक को ऐसे मुनियों को सदा सेवा करनी चाहिए, जिससे वे समर्थ हो सकेँ, जो अल्प उम्र वाले हैं, जो रोगों से पीड़ित हैं, जो तप से दुर्बल हैं, जो वयोवृद्ध ( जां व्याधियों से पीड़ित हैं ।। ३२६ ।।
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तप करने में ) है और
भोजन की वेला में स्थाज्य दुर्गुण - भोजन की वेला में कद, अभिमान, निरादर, चित्त को चञ्चलता, असंयम और कर्कश बचनों को विशेषरूप से छोड़ना चाहिए। क्योंकि इनसे मन पर बुरा प्रभाव पड़ता है || ३२७ ॥
किनके गृहों में साधु-वर्ग आहार ग्रहण न करे ?
जो साधुओं के म पढ़ी है,
जो ना भक्तिपूर्वक दान नहीं देते ! जो अत्यन्त कृपण हैं, जो व्रत-रहित (अहिंसा आदि वर्षो को न पालनेवाले ) हैं, जो अपनी दीनता प्रकट करते हैं और करुणा उत्पन्न करनेवाले हैं । अर्थात्--—ज्ञो करुणा-बुद्धिसे दान देते हैं, अर्थात् जो यह कहते हैं कि 'यह मुनि दया का पात्र है इसे आहार देना चाहिए। उनके गृहों पर साधु को आहार नहीं लेना चाहिए ।। ३२८ ।।
[ अब साधु दीन व दयापात्र नहीं होते, इसका समर्थन करते हूँ - ]
वे साधु महासत्वशाली-धीर वीर होते हैं और चित्त से भी बड़े दयालु होते हैं, अर्थात् बे दुःखी ब अनुपात करनेवाले को देखकर आहार में अन्तराय करते हैं, इसलिए वे अपनी दीनता प्रकट करनेवालों के गृहों पर और मुनियों को दयापात्र कहनेवालों के गृहों पर आहार नहीं करते, क्योंकि जब वे दोनता व करुणा के संकल्प मात्र से उचित वृत्तिवाल, अर्थात् - दीन व दयापात्र को देखकर आहार ग्रहण में अन्तराय करनेवाले होते हैं तब निस्सन्देह क्या वे दीन व दयापात्र कहनेवालों के गृहों पर आहार करते हैं ? अपितु नहीं करते || ३२९ ।।
धर्मरत्नाकर। ० १२४ । आहरति ? अपि तु न ।
५७.
१. वासी । २. अभीष्टं दातु । ३. रुजादिविलारीरः । ४. कपटत्वं । ५. निराधरः । ६. 'चंचल' टि० ख०, 'पारिप्लवं चपलता' या पं० । ७. कदर्य होन कोना सकिपचानगिपचाः कृपणक्षुल्लव-ल्लीवक्षुद्रा एकार्थबाचकाः ' टिं० ख०, 'यां भृत्यात्मपीडाभ्यामर्थं संचिनोति सः ।। ९ ।। ' नीतिवाक्यामृत अर्थसमु० पृ० ४७ 'कादर्याः कुधाः पश० पं
*. 'असम्मताभक्तकदर्थमत्यंकारुण्यवैन्यातिशयान्त्रितानाम् । एषां निवासेषु हि साधुवर्गः परानुकम्पादितधीनं भुङ्क्ते ।। ३९ ।। ८. दुःखितं जपावा दृष्ट्वा ये मुनयोऽन्तरायं कुर्वन्ति । ९. वृत्तयः सन्तः कि
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यशस्तिलकचापूकाव्ये धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च कः सुधीः । अन्यत्र कार्यवेवाम्या प्रतिहस्तं समाविशेत् ॥३३०।।
आत्मवित परित्यागात्परधर्मविषापने । निःसंवेहमवाप्नोति परभोगाय सत्फलम् ।।३३१॥ भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिवरस्त्रियः । विभवो दामशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ।।३३२॥ शिल्पि'कारक वापथ्य संभलीपतितावि। वहस्थिति म कुर्वीत लिजिलिङ्गोपजीविषु। ३३३|| वीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विवोचिताः" । ममोवाकारधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ।।३३४।।
[ अब ग्रन्थकार दूसरों से दान-पुण्यादि कराने वालों के विषय में कहते हैं | जो कार्य दूसरों से करानेयोग्य है या जो भाग्य-वश हो जाता है (जो कुछ भी इष्ट-मनिष्ट-सुख-दुःख होता है, वह भाग्याधीन है उसे स्वयं करने का नियम नहीं है ) उनको छोड़कर दान पुण्यादि धार्मिक कार्य व स्वामी को सेवा एवं पुत्रोत्पत्ति को कौन बुद्धिमान मानव दूसरों के हाथ से कराने के लिए आदेश देगा ? अर्थात्-विवेकी पुरुषों को उक्त कार्य स्वये करने चाहिए ।।३३०|| जो अपना धन देकर दूसरों के हाथ से धर्म कराता है, वह उसका फल दूसरों के भोगने के लिए प्राप्त करता है, इसमें सन्देह नहीं है, अर्थात्--उसका फल दूसरे हो भोगते हैं ॥३३१।। भोज्यपदार्थ, भोजन करने की शक्ति, रतिविलास करने की सामथ्यं, कमनीय कामिनियाँ, धनादिबैभव और दान करने को शक्ति ये वस्तुएँ स्वयं वर्म करने से प्राप्त होती हैं, न कि दूसरों से धर्म कराने से ।।३३२।।
मुनियों के आहार-ग्रहण के अयोग्य गृह मुनियों को बढ़ई, माली, कारुक ( नाई, धोबो -आदि ), भाट, कुट्टिनी स्थी, नोच व जाति से बहिष्कृत और साधुओं के उपकरण ( पोछो-आदि ) बनाकर जोविका करनेवालों के गृहों में आहार नहीं करना चाहिए ॥३३३||
जिनदीक्षा व आहारदान के योग्य वर्ण ब्राह्मण, यात्रिय व वैश्य ये तीन वर्ण ही जिन-दीक्षा के योग्य हैं किन्तु आहारदान देने योग्य चारों ही वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व सत् पून) हैं, क्योंकि सभी प्राणी मानसिक, वाचनिक व कायिक-धर्म के पालन के लिए आगम से अनुमति हैं ॥३३४।।
१-२. यत् किमपि इष्टमनिष्टं च वैवः करोति, तत्र स्वहस्तः न किमपि फतुं शक्नोति,
अतस्तत्र स्वहस्तनियमो नास्ति । ३. निजधनेन परहस्तेन धर्म कारपत्ति स्वहस्तेन न दतै। ४. तथा चाह-भगजिनसेनाचार्य:ग्यावृत्तिनियतान् शूयान् पस्याबासृजत् सुधीः । वर्णोत्तमं शूभूषा तवृत्तिनकया स्मृता ॥१९०।। 'शूद्रा न्यावृत्तिथियात्' ।।१९२-४।। 'तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्त द्विधा कार्यकारवः । कारनी रजकाद्याः स्युस्ततोऽन्य स्थरकारबः ॥१८५।। कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्यास्पृश्यविकल्पतः । वास्पृश्याः प्रजावाहाः स्पृश्याः स्युः कीर्तकादयः ॥१८६।।
__-महापुराण १६ यो पर्व । ५. वाश्पण्याः बन्दिनः । ६, संभली कुट्टिनी । ७. जातियाहाः। ८. याहार। ९. यतीनामुपकरणपारखीपिन्छयोगपट्टादिकरणजीषिना गृहे आहारो न कर्तव्यः । १०.पाः। ११. शुगर्जनानामपि विधा-आहार-उचितो योग्यः दीयते इत्यर्थः।
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अष्टम आश्वासः
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'पुष्पादिरनादिर्वा न स्वयं में एष हि । क्षित्या चिरिव धान्यस्य कि तु भावस्य कारणम् ॥ ३३५॥ युक्तं हि श्रद्धया साधु सकृदेव ममो नृणाम् । परां शुद्धिमवाप्नोति लोहं वियं रसैरिव ।। ३३६ ।। पदनाहीनं मनः सपि देहिनाम् । तत्फलप्राप्तये न स्मारकु "शूलस्थितबीजयत् ॥ ३३७ ॥ "बावेशिकाभितज्ञातिवनात्मसु यथाक्रमम् । यथौचित्यं यथाकालं 'यज्ञपञ्चकमाचरेत् ।।३३८ ।।
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है ? और धर्म का कारण क्या है ?
यह पुष्प आदि व अन्न आदि वस्तुएँ निस्सन्देह स्वयं धर्म नहीं है, किन्तु ये वस्तुएं वैसी परिणामों की निर्मलता में कारण हैं जैसे उपजाऊ भूमि आदि धान्य की उत्पत्ति में कारण होती है ।
भावार्थ - यद्यपि पूजा में चढ़ाई जानेवाली पुष्प वगैरह वस्तुएँ और मुनि आदि पात्रों के लिए दिया जानेवाला आहार स्वयं धर्म नहीं है, तथापि इनके निमित्त से होनेवाले शुभभाव से धर्म के कारण हैं, क्योंकि उनसे शुभ कर्म का वध होता है, जैसे खेत व जल वगेरह यद्यपि स्वयं धान्य नहीं हैं तो भी धान्य की उत्पत्ति में कारण होते हैं ||३३५।।
यथार्थं श्रद्धा का माहालय
निस्सन्देह मान का मन यदि एक बार भी यथार्थ (निष्कपट ) श्रद्धा से युक्त हो जाय तो वह उत्कृष्ट विशुद्धि को प्राप्त होता है, जैसे पारदरस के योग से लोहा अत्यन्त शुद्ध हो जाता है (सुवर्ण हो जाता है । अर्थात् — जैसे लोहा, जिसके भीतर पारदरस के प्रविष्ट हो जाने से सुवर्ण हो जाता है वैसे ही यथार्थ श्रद्धा से युक्त हुआ मन अत्यन्त शुद्ध हो जाता है ।। ३३६ ।।
मन को विशुद्ध करने का उपाय
प्राणियों का मन प्रशस्त होने पर भी यदि तप, दान व देव पूजा से रहित है तो वह निम्स्सन्देह उस प्रकार तप आदि से होनेवाले फल को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होता जिस प्रकार कोठी में भरे हुए धान्यवीज प्रशस्त होने पर भी धान्य के अङ्कुरों को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं होते ।
भावार्थ - जिस प्रकार धान्य आदि के वीज प्रदास्त ( अङ्कुर उत्पन्न करने को शक्ति वाले ) होने पर भी यदि केवल कोठी में भरे हुए रहे तो कदापि धान्य के अको उत्पन्न नहीं कर सकते, परन्तु जब उन्हें खेत में बोया जायगा और खाद व जल-संयोग आदि कारण सामग्री मिलेगी तभी वे धान्यारों को उत्पन करने में समर्थ होते हैं उसी प्रकार मानवों का प्रशस्त मन भी जब तप, दान व जिनेन्द्र भक्ति से युक्त होगा तभी वह स्वर्गश्री आदि का उत्तम सुख प्राप्त कर सकता है, अन्यथा नहीं, अतः मन को सदा शुभ कार्यों में लगाना चाहिए || ३३७ ।।
पाँच दानों का विधान - आगन्तुक अतिथि को अपने आश्रितों को, अपने वंशवालों को एवं दुःखी
१३. पुष्पानादिकां वस्तु भावस्य परिणामनिर्मलतायाः कारणं स्यात् । ४. एकवारमपि । ५ गुहको भाण्डागारं । ६ अतिथिः । ७. दानवकम् । तथा चास्त्रान्तरे—
'ऋषिदेव भूतयज्ञं च सर्वदा । नृमशं पितृय च यथाशक्ति न हापयेत् ॥ २१ ॥ - मनुस्मृति, अ० ४ । तथा वोक्तं— 'आवेशिकज्ञातिषु संस्थितेषु दीनानुकम्पू यथायथं तु । देशांचितं कालवलानुरूपं दद्याच्च किंचित् स्वयमेव चुद्धवा ||' धर्मरला० ५० १२६ ।
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प्रशस्तिलकचम्पूकाव्ये काले कला घले चित्त देहे चान्नाविकोटके । एतचित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः १३३९।। पमापूण्य जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिमितम् । तथा पूर्षमुनिसष्ठायाः पूज्याः संप्रति संपताः ।।३४० || सवुत्तमं भवेत्यानं पत्र रत्नत्रयं नरे । देशवती भवेन्मध्यमन्यच्यासंपलः सुदक ॥३४१।। पत्र रत्नत्रयं नास्ति समपात्रं पिदुर्घषाः 1 उगतं तत्र वृषा सर्वभूपराया तिनाविव ॥३४२॥ पात्र वत्तं भवेबन्न पुण्याय गृहमेधिनाम् । शुक्तावेच हि मेघानां जलं मुक्ताफलं भवेत् ।।३४३॥ मिथ्यावास्तचित्तषु चारित्राभासभागिषु । बोपायव भवेद्दानं पयःपानमिवाहिषु ॥३४४॥ कारुण्यावयदोषियातलो किचिदिशग्नपि । विशेबपतमेवान्नं गृहे भक्ति न फारयेत् ।।३४५॥ सत्कारादिविषावेषां दर्शनं दृषितं भवेत् । पया विशुदमपाम्बु विषभाजनसंगमात् ।।३४६।। 'शाश्यनास्तिकयागजटिला जीवकाविभिः । सहावासं सहालाप तत्सेवां विवर्जयेत् ॥३४७।। अताततत्वचेतोभिर्दुराग्रहमलोमसः । युद्धमेव भवद्गोष्ठयां दण्यावण्डि कचाकचि ॥३४८॥
व दरिद्र मनुष्यों को क्रमानुसार औचित्य । दान व प्रिय वचन बोलकर सन्तुष्ट करना ) व काल का उल्लङ्घन न करके पाँच दान ( ऋषियझ-आदि ) देने चाहिए ॥ ३३८ ॥
[अब पंचम काल में साधुओं का विहार बतलाते हैं- इस दुःषमा नामक पंचमकाल में जब मानवों का मन चञ्चल रहता है और शरीर अन्न का भक्षक कोड़ा बना रहता है, यह आश्चर्य है कि आज भी जिनेन्द्र की मुद्रा के धारक माघु महापुरुष पाये जाते हैं ॥ ३३९ ।। जैसे पाषाण वगेरह से निर्मित जिन निम्ब पूज्य है वैसे ही वर्तमान के मुनि भो, जिनमें पूर्व मुनियों को सदृशता पाई जाती है, पूज्य हैं ॥ ३४० ।
पात्र के तीन भेद-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्र से विभूषित मुनि उत्तम पात्र हैं। अणुदती श्रावक मध्यम पात्र है और अविरत सम्बग्दष्टि जघन्य पात्र है || ३४१ ।। मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक्चारित्ररूप रत्नत्रय से शून्य ( मिथ्यादष्टि ) मानव को विद्वानों ने अपार समझा है, उसके लिए दिया हुला समस्त दान उस प्रकार निरर्थक है जिस प्रकार ऊपर भूमि में बोया हुआ बीज निरर्थक होता है ।।३४२।। मुनि-आदि पात्रों के लिए दिया हुआ आहारदान गृहस्थ श्रावकों को पुण्यवृद्धि के लिए होता है क्योंकि निस्सन्देह मेघों का जल सोप में हो पड़ने से मोती होता है, अन्यत्र नहीं ॥ ३४३ ।। जिनका चित्त मिथ्यात्व से माविष्ट है और जो मिथ्याचारित्र को पालते हैं, उनके लिए दान देना वैसा दोपजनक हाना है जैसे साँप का दूध पिलाना दोष-जनक होता है, अर्थात्-जहर उगलकर काटनेवाला होता है ॥ ३४८ ।। मिथ्याष्टियों के लिए दयाभाव के कारण अथवा औचित्य के कारण यदि कुछ स्वल्प दिया भी जाय तो भोजन के पश्चात् पकाये हुए अधिक आहार में से स्वल्प आहार दे देना चाहिए, किन्तु उन्हें गृह पर नहीं जिमाना चाहिए ॥ ३४५ ।। मिय्यादष्टियों का सन्मान-आदि करने से सम्यग्दर्शन वैसा दूषित हो जाता है जैसे स्वच्छ पानी भी विषेले वर्तन के संसर्ग से दूषित हो जाता है ।। ३४६ ॥ अतः बौद्ध, नास्तिक, याज्ञिक, जटाधारी तपस्वी ब कछिद्रा संन्यासी-आदि सम्प्रदाय के साधुओं के साथ निवास व वार्तालाप व उनको सेवा छोड़ देनी चाहिए ॥ ३४७॥ ऐसे मिथ्याष्टियों के साथ वार्तालाप करने से, जिनके मन यथार्थ तत्त्र के ज्ञाता नहीं हैं और जो
१. मिथ्यादृशां। २. स्वल्पं ददद् ।
न तु पूर्व समीचीनं। ५. कुदृशां । इति मापाया।
३. दद्यात् । ४. स्वभोजनानगरमधनं अधिक स्त्रितं तदेव, ६. बौद्ध । ७. तपस्वी। ८. आजीवका: बावियकर्णा: 'कनधिदा'
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अष्टम आश्वास:
भयलोभोपरोपायैः कुलिङ्गिषु मिषेषणे । अवश्य दर्शनं म्लापेन्नीचरावरणे सति ।।३४९११ चुद्धिपौरुनयुक्तेषु देवायसविभूतिषु । नषु फुत्सितसेवायो बन्यमेवातिरिच्यते ।।३५० ।।
समयी साधकः साधुः सूरि: समयदीपकः । तत्पुन: पञ्चधा पात्रमामनन्ति मीषिणः ॥३५१॥ गृहस्यो वा पतिर्वापि मनं समयमास्थितः । पयाकासमनुप्राप्त; पूजनीयः सुवृष्टिभिः ।।३५२॥ ज्योतिर्मन्त्रनिमित्तानः सुमनः कायकर्मसु । माग्यः समथिभिः सम्पपरोक्षार्य समयंधीः ॥३५३ ।। दीक्षायात्राप्रतिष्ठामा क्रियास्तविरहे' कुतः । तदर्थ परपृष्ठायां कथं च समयोन्नतिः ॥३५४|| मूलोत्तरगुणगलाध्यस्तपोभिनिन्ठित्तस्थितिः । माधुः साप भरपूज्या पुण्योपार्जनपत्रिततः ॥३५५॥ मानकाण्डे क्रियाका चातुर्वर्ण्यपुरःसरः । धरिदेव इचाराध्यः संसाराषितरण्डकः 11३५६।।
दुराग्रही होने से मलिन है, ऐसे लड़ाई झगड़े को नौबत आ जाती है, जिसमें दण्डादण्डी और एक दूसरे के बाल पकड़ कर खींचने का अवसर होता है ।। ३४८।।
___ जब विवेक-होन मानव किसी मनिष्ट के भय से या धनादि के लोभ से या दूसरों के आग्रह से कुलिनी साधुओं की सेवा रूप नीच आचरण करता है तो उसका सम्यग्दर्शन अवश्य ही मलिन होता है ।। ३४९ । जब बुद्धिमान् व पुरुषार्थी धार्मिक पुझा यह समझ लेता है कि 'धनादि विभूतियाँ भाग्याधीन होती हैं, तो भी धन की चाह से नीचों की सेवा करता है, इसमें उसकी दौनता ही कारण है ।। ३५० ॥
[ अब अन्य तरह से पात्रों के पांच भेद और उनका स्वरूप कहते हैं ] विद्वान् पुरुष निम्न प्रकार पांच प्रकार के पात्र मानते हैं-समयी, साधक, साधु, सूरि (आचार्य) और समय-दीपक ( जैनशासन की प्रभावना करनेवाला ) || ३५५ ।। जो जैन धर्म का अनुयायो है, चाहे वह गृहस्थ है या साधु, जव योग्य समय में प्राप्त हो जाय तो सम्यग्दृष्टि सज्जनों को उसका आदर-सरकार करना चाहिए ॥ ३५२ ।। जिनकी बुद्धि परोक्ष वस्तु को भली प्रकार जानने में समर्थ है, ऐसे ज्योतिष, मन्त्र व निमित्तशास्त्र के ज्ञाताओं का और शारीरिक चिकित्सा में निपुण व परोक्ष व्याधि का ज्ञाता वैन का अथवा पाठान्तर में प्रतिष्ठा आदि के ज्ञाता का साधर्मी जनों को सन्मान करना चाहिए। ३५३ ।। क्योंकि यदि ज्योतिषो-आदि नहीं हैं तो जिनदोक्षा, तीर्थयात्रा और जिनबिम्ब-प्रतिष्ठा आदि क्रियाएं कैसे हो सकती हैं ? क्योंकि इनमें मुहूर्त-आदि देखने के लिए ज्यातिषी व चैमित्तिक को अपेक्षा होनी है। यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि जेनेतर सम्प्रदाय में भी ज्योतिषी व निमित्तज्ञानी आदि हैं उनसे काम चल जायगा किन्तु इस तरह मुहूर्त आदि के
१. आग्रह । २. सेवायां सत्यां । *, तपा चाह थी समन्तभद्राचार्यः
'भयापास्नेहलोभाच्च कुषागमलिङ्गिनाम् । प्रणाम विनयं चैव न फुयुः शुद्धदृष्टयः ॥ ३०॥-रएन. श्रा० । ३. सथा चोतं विदुषा आशावरेण.... 'समयिकसारफसमयद्योतकनैष्ठिकगणाधिपान् धिनुयात् । दानादिना प्रयासरगुण रागात् सद्गृही नित्यम् ।। ५५ ।।सागार०, अ० २। ४. सामयिक, साधक, नैष्ठिका, गणाधिप व प्रभावक । ५. 'वैद्यः' टि० ख०, पञ्जिकाकारस्तु 'कायकर्म चिकित्सादिक्रियास' इत्याह। ६.देहान्त:स्थितो व्याधिः परोक्षार्थः । ७. मितवं दिना। 2. काण्डो. उनलेनमे वर्ग दुष्कन्धे मरे भने सहरलाघापु स्तंबे ।।' टि० खा, 'काण्डोऽस्त्री वर्मबाणार्थनालानसरवारिषु । दण्ठे प्रकाण्डे रहसि स्तंचे फुत्सितकुत्सयोः ।। इति विश्वः ।' अर्थत-कागड-वर्ग ( विषयसमाति), बाण, अर्थ, मार, मंडी, अवसर, जल ।। २ । दण्ड ( रंडा ), वृक्षका स्थलमाग, एकान्त, गुच्छ, निन्दित, निदा। ( पुं० न० ) विश्वलो. को०१०९० से संकलित-सम्पादक
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये लोकवित्वकविश्वाविवाग्मित्वकोशलः । मार्गप्रभावनीयुक्ताः सन्तः पूग्या विशेषतः ॥३५७॥ मान्य ज्ञान तपोहो जानहोनं तपोऽहितम् । पूयं पत्र स देवः स्याद्वितीनो गणपुरण:* ॥३५८॥ अहंजवेप्रमोस्त स्याद्विरतौ विनयक्रिया। अन्योन्यक्षल्ल थाहमिच्दाकारबधः सदा ॥३५९॥
अनौचिवची भावं सदा ज्यारिसन्निधौ। यथेष्ट हसनालापावयेक प्रसंनिधौ ॥३६॥ भक्तिमात्रप्रवाने हि का परीक्षा तपस्विनाम । ते सन्तः सात्वसन्तो या गहौ बानेन शचति ॥३६॥ सर्वारम्भप्रसाना गृहस्थानां धनव्यपः । बहुधास्ति ततोऽस्यर्थ ग कसंख्या विचारणा ||३६२॥ यथा या मशियन ने पान यानि . सातचापि पूस्ता मुनयो गृहमेषिभिः ।। ३६३॥
लिए जनेतर ज्योतिषी-आदि से पूछने पर अपने धर्म की उन्नति केगे हो सकती है ? ॥ ३५४ । पुण्य के संचय करने में निपुण श्रावकों को, मूल गुणों व उत्तरगुणों के कारण श्लाघनीय--प्रसासनीय-तपों के द्वारा जिसको स्थिति मुनि-धर्म में दृढ़ है, ऐसे साधु की मन, वचन व काय से पूजा करनी चाहिए ।। ३५५ ।।
जो ज्ञानकाण्ड ( न्याय व व्याकरण-आदि ) और क्रियाकाण्ड में निपुण होने से चतुर्विध संघ ( मुनि, ऋपि, यति व अनगार में अग्नेसर होने हैं और जो संसाररूपी समुद्र से पार उतारने में नौका सरीखे हैं, उन आचार्यों की अर्हन्त भगवान् की तरह पूजा करनी चाहिए ।। ३५६ ।। लोकव्यवहार को निपुणता व कवित्व ( काव्य रचना को चतुरता) द्वारा और शास्त्रार्य एवं वक्तृत्व कला के कौशल द्वारा जैनधर्म को प्रभावना करने में तत्पर रहनेवाले सज्जन पुरुष ( चाहे गृहस्थ हों या मुनि हो ) दान व सन्मानादि द्वारा विशेषरूप से
भावार्थ-जैनधर्म को उद्दीपित्त करने के लिए लोक-व्यवहार में निपुण, काव्यरचना में कुशल, शास्त्रार्थ करने में प्रवीण विद्वान् और तात्विक, मधुर व प्रभावशाली भाषण देने में कुदाल विद्वानों की अपेक्षा रहती है, अतः उनका भी सन्मान करना चाहिए ।। ३५७ ॥
तप से रहित ज्ञान भी पूज्य है और ज्ञान से होन तप भी पूज्य है, किन्तु जिसमें ज्ञान ( केवलज्ञान) और तब दोनों हैं वह देव है, जिसमें दोनों नहीं हैं, वह तो केवल संघ का स्थान भरनेवाला हो है ॥ ३५८ ।।
विनय-विधि-जिनमुद्रा के धारक साधुओं को नमोऽस्तु कहकर उनकी विनय करनी चाहिए। आयिका के प्रति वन्दे कहकर उसकी विनय करनी चाहिए और शुल्लक त्यागी परस्पर में एक दूसरे को मदा इच्छामि कहकर बिनय करते हैं ॥ ३५९ ।। आनार्य-आदि पूज्य पुरुषों के समक्ष सदा बास्त्रानुकूल निर्दोष वचन बोलना चाहिए और गुरुजनों के समोग स्वच्छन्दतापूर्वक हंसी-मजाक नहीं करनी चाहिए ।। ३६० ।। केवल आहारदान के लिए साधुओं की परीक्षा, कि ( ये आममानुसार मुनियों के आचार को पालते हैं अथवा नहीं इस प्रकार का विचार ) नहीं करनी चाहिए, चाहे वे सच्चे मुनि हो या झूठे, क्योंकि गृहस्थ तो दान देने से शुद्ध होता है ।। ३६१ ॥
क्योंकि समस्त प्रकार के कृषि व व्यापार-आदि उद्योगों में प्रवृत होनेवाले गृहस्थों का धन अनेक प्रकार से (लज्जा व भय-आदि) खर्च होता है अत: तपस्वियों के लिए आहार दान देने में विशेष परीक्षा नहीं करनी चाहिए ॥३६२॥ तपस्वी साधु जैसे-जैसे तप व ज्ञानादि गुणों से विशिष्ट हों, बेहो-वैसे
१. पूजितं 1 *, तया चोक-'मान्मो बोधस्तपोहोनो घोषहीनं तपो हितम् । द्वयं यत्र स देवः स्यात् द्रिहीनो प्रतवेष मृत्
॥ ४६ ।' -प्रबोधसार पृ० २०२१ २. 'मागमानुसारि दि० ख०, घ. २०, 'अनुवीचि अनुल्वर्ण' इति पसिकाकारः।
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अपम आश्वासः
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देवाल्ल पनं पपर्वत' समपाधिते । एको मुनिर्मधल्लम्मो न लभ्यो वा मयागमम् ॥३६४॥ अस्थावरजनप्रायः समयोऽयं जिनेशिनाम् । नकस्मिन्युष तिष्ठेडेकस्तम्भ हवालयः ॥३६५।। २ मामस्थापनावष्णभावन्यासंश्चतुविषाः । भवन्ति मुनयः सः रानभानाविकर्मम् ॥३६॥ उत्तरोत्तरभावन विधिस्तेषु विशिष्यते । पुण्याअंने गृहस्थाना मिना तिकृतिविव' ।।३६७॥ *अतनगुणेषु भावेषु व्यवहारप्रसिद्धये । परसंशाकर्म सन्नाम नरेच्यावशावर्तनात् ।।३६८॥ साकारे वा निराकारे कालावी पग्निवेशनम । सोऽयमित्यवधान* त्यापमा सा- निगद्यसे+॥३६॥
गहस्यों को उनकी विशेष पूजा करनी चाहिए ।। ३६३ ॥ भाग्यशाली पुरुषों को भाग्य से प्राप्त हुए धन को जैन धर्मानुयायिओं में अवश्य खर्च करना चाहिए भले ही उन्हें सागमानुकूल कोई मुनि मिले अथवा न भी मिले ।। ३६४ ।। जिनेन्द्र भगवान् का यह धर्म उत्तम और जघन्य अनेक प्रकार के मनुष्यों से भरा हुआ है। जैसे गृह एक खम्भे पर नहीं ठहर सकता वैसे यह धर्म भी एक पुरुष के आश्रय से नहीं ठहर सकता ।। ३६५ ।।
मुनियों के चार भेद नाम, स्थापना, द्रव्य व भावनिक्षेप की अपेक्षा से मुनि चार प्रकार के होते हैं और वे सभी दान व सन्मान के योग्य हैं ।। ३६६ 11 गृहस्थों के पुण्य-उपार्जन की दृष्टि से जिनबिम्बों की तरह उन चार प्रकार के मुनियों में उत्तरोत्तररूप से विशिष्ट विधि ( विशेष दान व मानादि ) होती जाती है। अर्थात्-जिसप्रकार नामजिन से स्थापना जिन विशेष पूज्य हैं और स्थापना जिन स नावा जिन विशेष पूज्य है और मोमिन नपजिन विशेष पूज्य हैं उसीप्रकार नाम मुनिसे स्थापना मुनि-आदि विशेष पूज्य हैं ।। ३६७ ।। [अब क्रमश: चारों निक्षेपों का स्वरूप निर्देश करते हैं
नामनिक्षेप नाम के अनुसार गुण व क्रिया-आदि से रहित पदार्थों में लोक व्यवहार चलाने के लिए पुरुष के __ अभिप्राय को अवलम्बन करके जो नाम रक्खा जाता है उसे नाम निक्षेप कहते हैं ॥ ३६८ ।।
स्थापनानिक्षेप तदाकार व अतदाकार काष्ठ बगैरह में 'यह अमुक है' इमप्रकार के अवधारण से जो स्थापना की जाती है, वह स्थापना निक्षेप कहा जाता है ॥ ३६२ ।।
१. टुप वीजतन्नुरांताने । २. मुनयः । ३. प्रतिमावत ।
४. तथा चाह पूज्यपाद:-'अतद्गुणे वस्तुनि मंत्र्यवहारार्थ पुरुषाकारान्नियुज्यमानं संशाकर्म नाम' 1-सवार्थ०१-५ । तया चाह श्रीमद्विद्यानन्दिस्वामो--'मंजाकर्मानदयव निमित्तान्तरमिस्तिः । नामानकायच लोकव्यवहागय मुनितम् | १ ||---तत्वार्थश्लोकवात्तिक १-५ प० २८। *. अवधारणेन । +, तथा चाह पूज्यपाद:- 'काष्ठापुस्तचित्रकर्माक्षनिक्षेपाविषु सोऽयमिति स्पाप्यमाना स्थापना' । सवार्थ १-५ । सथा चीनं श्रीमझ्यिागन्दिस्वामिना'वस्तुनः कृतसंज्ञस्य प्रतिष्ठा स्थापना मता । सद्भावतरभेदेन द्विधा तत्त्वाघिरोपतः ॥ ५४॥
-तस्वापरलोकवात्तिक १० १११
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অক্ষিকা 'आगामिगुणयोग्योऽर्थो व्यन्यासस्य गोचरः । तत्कालपर्ययाफ्रान्तं वस्तु भावो विधीयते ॥३७०।। यबास्मवर्णमप्राय क्षणिकाहार्य विभ्रमम् । परप्रत्ययसंभूतं दानं साजसं मतम् ।।३७१॥ 'पात्रापात्रसमावेश्यामसाकारमसंस्तुतम् । वासभत्यकृतोद्योग वानं तामसमुचिरे ॥३७२।।
आप्तिधेयं स्वयं मत्र यत्र पात्रपरीक्षणम् । गुणा: श्रद्धादयो यत्र वानं तस्सास्थि विदुः ॥३७६।। उत्तम सात्विकं वानं मध्यम राजसं भवेत् । वानानामेक सर्वेषां जघन्यं तामर्स पुनः ॥३७४।।
द्रव्य व भाव निक्षेप जो वस्तु भविष्य में होनेवाले गुणों की प्राप्ति के योग्य है, उसे वर्तमान में उस गुणरूप से संकल्प करना द्रव्यनिक्षेप है और वर्तमान पर्याय में स्थित हुई वस्तु का भाव निक्षेप कहत हैं । अर्थात्-वर्तमान कालान गुण व पर्याय विशिष्ट पदार्थ को भावनिक्षेप कहते हैं ।। ३७० ॥ [ अब दूसरी तरह से दान के तीन भेद बतलाते हैं
राजसदान जिस दान में अपनी प्रशंसा की बहुलता पाई जाती है और जो सत्काल मनोज्ञ प्रतीत हो, अर्थात्जिसे दाता प्रतिदिन नहीं देता, कभी कभी देता है; अतः जो क्षणभर के लिए मनोज है, एवं जो दूसरे दाता के विश्वास से उत्पन्न हुआ मान--जिय माता को समय तो मान पर विश्वास नहीं होता, अतः किसी को दान से मिलनेवाले फल को देखकर जो दान दिया जाता है, वह रजोगुण की प्रधानता के कारण राजसदान माना गया है ।। ३७१ ॥
नामसदान आचार्यों ने उस दान को तामसदान कहा है, जिसमें पात्र व अपात्र दोनों एकसरोखे माने जाते हैं और जो बिना किसी आदर-सत्कार व स्तुति के दिया जाता है और जिसमें दास व नौकरों के उद्योग की अपेक्षा होती है ।। ३७२ ॥
माविक दान जिसमें स्वयं पात्र को देखकर स्वयं उसका अतिथि-सत्कार किया जाता है, और जिसमें दाता के श्रद्धा-आदि गुण पाये जाते हैं, बिद्वानों ने उम दान को मात्विक दान माना है ।। ३७३ ।। इन तीनों दानों के १. तथा चाह-श्रा भट्टाकलदेवः-'अनागतपरिणामविशेष प्रनि गृहाताभिमुख्यं द्रव्यं तत्वार्थवातिक १-५ ।
तथा चोक्तं श्रीमद्विद्या.न्द्रिस्वामिना'यत्स्वतोऽभिमुना वस्तु भविष्यत्यययं प्रति । तद् द्रव्यं द्विचित्रंशय मागमेतरभंदन. ।।१०।। -तुन्वार्थश्लोकवानिया पृ.१११ । २. 'तथा चाह श्रीमत्सूज्यपाद:-'वर्तमानतापर्यायोप लक्षित प्रव्यं भावः' । सबार्श० १-५ । तथा चाह श्रीमद्वियानन्दस्वामो-'सांप्रती वस्तुपर्यायो भावो वेंधा स पूर्ववत् । -तत्वार्थश्लाकावात्तिक पृ. ११३ । ३. कदाचित् ददाति । ४. स्वचित्ते दानस्य विश्वासो नास्ति, परन्तु सस्पविद् दानस्य फलं दृष्ट्वा अनेन ईदृशं पार पश्चाद् ददाति । ५. सदृशावलोकनेन यद्दानं। ६. अतिथौ भवं । ७. तया चाक्नं-'यत्रातिधेयं स्वयमेव साक्षात् ज्ञानादयों या गुणाः प्रकाशाः । पात्राद्यवेक्षापरता च यत्र तत्सात्विकं दानमुपाहरन्ति ।।७८।। -धर्मरत्ता. . १२७ ॥
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अष्टम आश्वासः
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महतं तमुत्र स्माबित्यसरपपरं पनः । गामः पयः प्रयच्छन्ति किन सोयतणाशमाः ॥३७५॥ मुनिम्पः शाकपिण्योऽपि मस्या काले प्रकल्पितः । मवेवगण्यपुण्यार्य भक्तिश्चिन्तामणियंतः ॥३७६।। अभिमानस्य रक्षापं बिनयाबागमस्यप। भोजनादिविषाने मोनमूचर्मनीश्वराः ॥३७७॥ लोयत्यागात्तपोवृदिरमिमानस्थ रक्षानं । ततपच समवाप्नोति मनःसिदि जगत्त्रमे १३७८॥ प्रतस्य प्रभपाच्छयः समः त्यस्तमाभयः । ततो मनुजलोकाय प्रसौबति सरस्वतो ॥३७९॥ शारीरमानसागन्तुष्याषिसंवापसंभवं । साघु संमिनां कार्यः प्रतीकारो महाभितः ।। ३८०॥
तत्र दोषभातुमसविकृतिजनिताः शारीराः, बौमनस्यःस्वप्नसावसाघिसंपाविता मानसाः शीतवाताभिबातारिकता आगन्तवः ।
मध्य साविक दान उत्तम है, राजसदान मध्यम है और तामसदान निकृष्ट है ॥ ३७४ ।। जो दान दिया गया, वह दाता को परलोक में फलदायक होता है, यह वचन मिथ्या है, क्योंकि दान का फल इसी लोक में मिल जाता है, जैसे पानी पीनेवाली व घास-भक्षण करनेवाली गाएं क्या दूध नहीं देतो? अर्थात--जिस दिन गायों के लिए पानी पिलाया जाता है और घास खिलाई जाती है उसी दिन वे दूध दे देती हैं, इससे दाता को दान का फल (कीति-लाभ व मानसिक शुद्धि) इसी लोक में मिल जाता है । अथवा दूसरी तरह से यह अर्थ समझना चाहिए किदाता पात्र के लिए यदि रूखा-सूखा अन्न देता है तो वही रूखा-सखा अन्न उसे परलोक में मिलेगा, यह कथन झूठ है। क्योंकि गायों के लिए प्रेमपूर्वक पानी व घास ही दिया जाता है, परन्तु वे उसके बदले मधुर दूध दे देती हैं । अतः मुनियों के लिए आहार की वेला में भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात का पुज भी, अपरिमित पुण्य का कारण होता है। क्योंकि भक्ति ही चिन्तामणि है।
निष्कर्ष-दाता की श्रद्धा व भक्ति से ही दान की कीमत औको जाती है, न कि पात्र के लिए दिये जानेवाले द्रध्य की कीमत से । अतः पात्र के लिए भक्तिपूर्वक दिया गया शाक-पात भी दाता को प्रचुर फलदायक होता है, न कि विना भक्ति के दिया हुआ मिष्ठान्न भोजन ॥ ३७५-३७६ ॥
[अब आहार की वेला में मौन का विधान करते हैं
जिनेन्द्र भगवान् ने स्वाभिमान की रक्षा के लिए और श्रुत को विनय के लिए आहार को वेला. आदि के अवसर पर मौन रखना कहा है। जिह्वा की लम्पटता का त्याग करने से तप की वृद्धि होती है और स्वाभिमान ( याचना न करना ) की रक्षा होती है और उनके होने से तीन लोक में मनसिद्धि होती है । मौन द्वारा श्रुत की विनय करने से कल्याण होता है और वह मुक्तिरूपी सम्पत्ति का आश्रय होता है और उससे ( मान से ) मनुष्यलोक के कपर सरस्वती प्रसन्न होती हैं, अथात्-तोन लोक के अनुग्रह करने में समर्थ दिव्यध्यान का प्रसाद प्राप्त होता है ।। ३७७-३७९ ।।
संयमी मुनियों की व्याधियों के प्रतीकार का विधान संयमी मुनिजनों को शारीरिक ( वात, पित्त व कफ को विकृति-आदि से उत्पन्न होनेवाले बुखारआदि रोग ), मानसिक व आगन्तुक व्याधियों की पीड़ा होने पर गृहस्थ श्रावकों को भलीप्रकार उन कष्टों के दूर करने का उपाय करना चाहिए ।। ३८० ॥
___ उनमें वात, पित्त व कफ को विकृति से, रस-रक्त आदि धातुओं के विकार से और मल के विकार १. वातपित्तश्लेष्म । २, तथा चोक्तं-'शरीराः ज्वरकुष्टाद्याः कोषाधा मानसाः स्मृताः । मागन्तवोभिपातोस्थाः सहजाः जुत्तषादयः ।। ८८ ॥'-धर्मरना, प० १२८ ।
५८.
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
athi व्यायुक्तानामुपेक्षा मामुपासः । असमाधिर्भवेत्तेषां स्वस्य चाधर्मता ॥ ३८१|| सौमनस्यं सवार्य पास्यातृषु परसू व याचासपुस्तकाहार सौकर्यादिविधानः ।। ३८२ ।। * अपूर्वप्रकीर्णोक्तं मुक्तं केवलिभाषितम् । इयेझिमूं लतः सर्व श्रुतस्कन्धरात्यये ॥ ३८३ ।। प्रभयोत्साहनानन्वस्वाध्यायोचितस्तुभिः । श्रुतयुद्धान्मुनीनजायते श्रुतपार ॥ ३८४॥ " श्रासत्वपरिज्ञानं श्रुतात्समयवर्धनम् । गोविना बुताभावे सर्वमेत समस्यते ॥ ३८५||
से उत्पन्न हुई व्याधियों रोगों को शारीर व्याधि कहते हैं। मानसिक पीड़ा, खोटे स्वप्नोंका देखना व भयआदि से उत्पन्न होनेवाले कष्टों को मानस कष्ट कहते हैं एवं शीत व वात के आक्रमण आदि से उत्पन्न हुई ' व्याधियों को आगन्तुक कहते हैं। इन बाधाओं के दूर करने का प्रयत्न गृहस्थों को करना चाहिए।
क्योंकि रोग ग्रस्त मुनियों को उपेक्षा करने से मुनियों के रत्नत्रय को विरावना होती है और भावकों का अधर्म - कार्य प्रकट होता है, अतः गृहस्थों को रुग्ण साधुजनों को उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ।। ३८१ ।। श्रुत की रक्षा के लिए घरों की रक्षा का वित
अतः जैनागम का व्याख्यान करनेवाले विद्वानों के लिए और जैनागम को पढ़नेवाले छात्रमुनिआदि के लिए रहनेको निवास स्थान, शास्त्र और आहार आदि की सुविधा देकर गृहस्थों को अपनी सज्जनता का परिचय देना चाहिए ।। ३८२ ।। क्योंकि श्रुत-समूह के धारकों (श्रुत के व्याख्याताओं व पाठकों ) के नष्ट हो जाने से तीर्थंकर केवली भगवान् के द्वारा उदिष्ट समस्त श्रुत, जो कि ग्यारह अङ्गों ( श्राचारङ्ग-आदि ) व चौदह पूर्वी तथा प्रकोणकों में कहा हुआ है। जड़ से नष्ट हो जायगा || ३८३ || जो विनय करके, उत्साहवृद्धि करके व आनन्दित करके एवं स्वाध्याय के योग्य शास्त्र आदि वस्तुएँ देकर मुनियों को शास्त्र में निपुण ( विद्वान् ) बनाने का प्रयत्न करता है, वह स्वयं श्रुत का पारगामी ( श्रुतकेवली ) हो जाता है ।
भावार्थ - प्रस्तुत आचार्यश्री ने धुत समूह के धारकों (श्रुत के व्याख्याताओं व पाठकों ) के लिए सभी प्रकार की सुविधाएँ देकर श्रुत की रक्षा करने के लिए कहा है। वास्तव में अनुशासन को सुरक्षित व उद्दीपित करने में जैनशास्त्रों के ज्ञाता विद्वानों की महती आवश्यकता होती है। और यह तभी संभव है जब जैनों के विद्यालयों व गुरुकुलों में जैनशास्त्रों का पठन-पाठन चालू रहे । यदि जैन समाज में से शास्त्रज्ञान लुप्त हो गया तो धर्म-कर्म भूल जाने से नाममात्र के जैन रह जायेंगे |
अतः समाज के आध्यात्मिक विकास के लिए जैनशास्त्रों का पठन-पाठन चालू रखने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए । अर्थात् वर्तमान में जैन समाज में जो विद्यालय व गुरुकुल आदि खुले हुए हैं, जिनमें जैनशास्त्रों का पठन-पाठन आदि चालू है, उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान द्वारा श्रुत लक्ष्मी से अलंकृत होना चाहिए || ३८४ ॥
श्रुत का महत्व
शास्त्र से हो मोक्षोपयोगी तत्वों का ज्ञान होता है और शास्त्र से ही जंनव की वृद्धि होती है,
* तथा चोक्तं- 'मपूर्वरचितप्रकोपंक बोतराग मुखपद्म निर्गतम् । नव्यतीह सकलं सुदुर्लभं सन्ति न श्रुतपरा यमर्षयः ।। ९९ ।। सरप्रश्नयोत्सानयोग्यदानानन्वप्रमोदादिमहाक्रियाभिः ।
कुर्वन् मुनीनागमषिद्धचित्तान् स्वयं नरः स्यात्तपारगामी ॥ ९२ ॥ १ तथा चोतेन तवं पुरुषः प्रबुध्यते श्रुलेन बृद्धिः समयस्य सर्वमिदं विनश्यति ।। ९३ ।। ' - घर्मरत्ना० १० १२९ ।
-- घमंरस्ता० १० १२८ ।
जायते। श्रुतप्रभावं परिवर्णयेज्जनः श्रुतं विना
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अष्टम आश्वासी
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अस्त्रधारणवदया। क्लेश हि सुलमा नराः । यथार्थतामसंपन्नाः गाण्डीरा इव घुलमाः ॥१८॥ ज्ञानभाश्मया होने कायालेशिनि केवलम् । फर्म बाहीकार्तिकचियेति' किंचितुवेति च ॥३८॥
सृणिवजाममेयास्य वशापाशपतिनः । "तहते च पहिः क्लेशः पलेषा एव परं भवेत् ॥३८८|| बाहिस्तपः स्वतोऽस्येति ज्ञानं भावयतः सतः । 'क्षेत्रको पनिमग्नेऽत्र कुतः स्युरपराः किया: १३८९॥ "यज्ञानी युगः कर्म गाभिः क्षपका का । तपशानी योगसंपन्नः क्षपवेक्षणतो प्रवम् ।।३९०॥ हानी पटुस्तव स्थाहिः मलेष्टु" तेऽखिले । मातुनिलवे यस्मा पटरवं युपरपि ॥३५१॥
१ शम्बतिहीन गीः शुद्धा यस्य शुद्धा न धोनयः । स परमस्ययास्पिलक्ष्यन्भवेबन्धसमः पुमान् ।।३९२।। अतः शास्त्रज्ञानके अभाव हो जानेपर अपने कल्याण के इच्छुकों को यह समस्त लोक अज्ञानरूपी अन्धकार से च्याप्त हुआ आचरण करता है ॥ ३८५ ।। जैसे तलवार-वगैरह अस्त्रों का धारण करना सुलभ है वैसे ही बाह्य कष्ट उठानेवाले मनुष्य मुलभ हैं परन्तु जैसे दीर पराक्रमी पुरुष दुर्लभ होते हैं वैसे ही सच्चे ज्ञानी दुर्लभ हैं। ३८६ ।। जो मनुष्य ज्ञान की भावना से शून्य है और केवल शरीर को कष्ट देता है, उसका उस प्रकार कुछ कम नष्ट होता है और कुछ नया कर्म उदय में आता है जिस प्रकार बोझा ढोनेवाले का कुछ भार हल्का होता है और कुछ नया भार आता रहता है। इस तरह वह केवल कायक्लेश ही उठाता रहता है ।। ३८७ ।।
सच्चे ज्ञान की विशेषता मानव के इस मनरूपो हाथी को वश में करने के लिए सम्यग्ज्ञान ही अङ्कश-सरीखा है, अर्थात्जेसे अधेश हाथी को वश में रखता है वैसे ही ज्ञान मानव के मन को वश में रखता है। सम्यग्ज्ञान के विना मिथ्याधि मानव का वाम काय-क्लेश केवल कष्टप्रद ही है ।। ३८८ ।। सम्यग्ज्ञान की भावना करनेवाले सज्जन साधु के निकट बाह्य तप स्वयं प्राप्त हो जाता है। क्योंकि जब आत्मा ज्ञान में लीन हो जाता है तो अन्य वाह्य क्रियाएं केसे हो सकती है ? ।। ३८२ ।। अज्ञानी ( आत्मज्ञान से शप-मिथ्यादृष्टि) जिन कर्मों को बहुत से युगों में भी नष्ट नहीं कर सकता, ध्यान से युक्त ज्ञानी पुरुष उन कर्मों को निश्चय से क्षणभर में नष्ट कर डालता है ।। ३९० ।। सम्यग्ज्ञानी साधु जब परिपूर्ण यथाख्यात चारित्र प्राप्त करता है तभी उससे वह परिपूर्णज्ञानी ( केवलो ) हो जाता है, उक्त चारित्र के बिना सम्यग्ज्ञानी साधु ज्ञान के लवलेशमात्र से केवली नहीं हो सकता।
इसी प्रकार वाह्य कायक्लंश करनेवाला अज्ञानी ( मिथ्यादष्टि ) साधारण शास्त्रज्ञान के लवलेश माय से बहत्त से यगोंमें परिपूर्णज्ञानी ( केवली ) नहीं हो सकता । ( उक्त अर्थ टिप्पणीकार के अभिप्राय से किया गया है। इसका दूसरा अर्थ यह है कि समस्त बाह्य प्रतों में क्लेग सहन करनेवाले अज्ञानी मुनि से ज्ञानी सार तत्काल कुषल ( कर्मों के क्षय करने में समर्थ ) हो जाता है, किन्तु बाह्म व्रतों को करनेवाला
१. विनश्यति । २. उदयभागछति । ३, अकुशवत् । ४. ज्ञाने बिना। ५. आगच्छति । ६. आत्मनि । ७. वाह्या. । *. तणा चौक-बाह्य तपः प्राथिसमेति पुंसो ज्ञानं स्वयं भावयतः सदैव । क्षेत्ररत्नाकरमश्रिमग्ने बाह्याः नियाः सन्तु कुतः समन्ताः ॥ १६ ॥'
-धर्मरना०५० १२१ । ८. तथा चीन-'यदलानी क्षपेत् कर्म बहीभिर्मवकोटिनिः । सज्शानघांस्त्रिभिगुप्तः क्षपवेदनहर्ततः ।। १७ ।।
-धर्मरत्ना०प० १२९ । १. कलेां कुर्वतः । ३. सम्पूर्ण चारिौ सलि पदः परिपूर्णशानो भवेत् । न तु ज्ञानलबलेशमात्रेण क्षेत्री स्यादिति भावः । १०. व्याकरणः ।
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यशस्तिलकचम्पूकामे स्वरूपं रचना शुधिभूषार्पण समासतः । प्रत्येकमागमस्यैतबुद्धविऽयं प्रतिपचते १५३९३॥
सत्र स्वरूप च विविषम्-अवरम्, 'अनक्षरं । रचना विविषा-गद्यम्, पछ । शुदिदिविषा-प्रेमाबप्रयोगविरहः, अर्मश्यमनविफलतापरिहारश्च । मूषा विविधा-मागलंकारः, मर्यालंकारपच । अर्को द्विविमः- 'चेतनोचेतनश्च', 'जातिव्यक्तिपतिवा।
'साषं सचिसनिक्षिप्तपत्ताम्यां पानहानये । अन्योपदेशमात्सर्षकालातिकमणकियाः ॥३९४॥
अज्ञानी युग बीत जानेपर ज्ञान के लवलेषामात्र में भी कुशल नहीं होता ॥ ३९१ ॥ जिसको बाणी व्याकरणशास्त्र के अभ्यास से शुद्ध नहीं हुई, अर्थात् जो व्याकरणशास्त्र का वेत्ता नहीं है, और जिसकी बुद्धि नीति. शास्त्रों के अभ्यास से अथवा नयों (द्रव्याकिन पर्यायाणिक ! के अभ्यास से शुद्ध नहीं हुई, अर्थात्-जो नीतिशास्त्र का अथवा नयों का बेसा नहीं है, वह मानव दूसरों के विश्वास के अनुसार चलने से कष्ट उठाता हुआ अन्धा-सरीखा है ।। ३९२ ।।
प्रत्येक शास्त्र में संक्षेप से निम्नकार वस्तुएँ होती हैं | स्वरूप, रचना, शुद्धि, अलकार और वर्णन किया हुआ विषय और ये प्रत्येक दो दो प्रकार के हैं ।। ३९३ ।।
स्वरूप दो प्रकार का होता है-अक्षरात्मक, जो कि द्वादशाङ्गों के अक्षरोंवाला है और दूसरा अनक्षरात्मक ( अस्फुट अर्थ को सूचन करनेवाला जैसे तड़त्-तहत् इत्यादि । रचना दो प्रकार की है-गद्यरूप और पद्यरूप, अर्थात्-विना श्लोकवाले और इलोकवाले शास्त्र । शुद्धि दो प्रकार की होती है । एक तो शास्त्रकार की असावधानी से शब्दों के प्रयोग में होनेवाली अशुद्धियों का अभाव और दूसरे न उसमें कोई अर्थ छूटा हो और न कोई शब्द छूटा हो। अलङ्कार दो प्रकार के होते हैं-एक शब्दालंकार ( शान्दों में सौन्दर्य के उत्पादक अनुप्राम-आदि ) व अर्थालङ्कार ( अर्थ में सौन्दर्य लानेवाले उपमा-आदि) और वणित विषय दो प्रकार का है-चेतन ( जिसमें जीव द्रव्य का निरूपण हो जैसे समयसार-आदि) व अचेतन ( जिसमें पर्वत-आदि जड़ पदाथों का कथन हो) या जाति पुल्लिङ्ग, स्त्रोलिङ्गव नपुंसकलिङ्ग वाले शब्द जिसमें पाए जाते हैं) और व्यक्ति ( जिसमें एकवचन व बहुवचनवाले शब्द समूह हो ।
अतिथिसंविभाग व्रत के अतीचार सचित्त कमल के पत्तों आदि में आहार स्थापित करना, सचित्त पत्ते वगैरह से आहार को ढांकना, दूसरे दातार को वस्तु दान देना, अन्य दाताओं से ईर्ष्या करना और असमय में आहार देना, ये पौध
१. अस्फुटार्थसूचनार्थ, यया तदत्तहिति पटपटायति। २. यत्र जीवादीनां व्याख्या क्रियते सोऽयश्चेतनः। ३. बत्र
पर्वतादोनां न्यासया स अपेतनः। ४. जातिलिङ्ग । ५. व्यक्तिरेकवचन द्विवचनं, बहुवचनं । ६. तया चाह श्रीमदमास्वामी आचार्यः
'सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेवामात्सर्यकालातिकमा:-मोक्षशास्त्र -३६ । तपा चाह प्रोसमन्तभट्टाचार्य:'हरितपिधाननिषाने छनादरास्मरणमत्सरत्वानि । वैयावस्पस्मते व्यतिक्रमाः पञ्च कथ्यन्ते ॥ १२१ । -रना।
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अष्टम आश्वासः
४६१ 'नतेगोत्रं श्रियो दानादुपास्तेः सर्वसेव्यताम् । भक्तः कीतिमवाप्नोति स्वयं गता मसीन्भजन् ॥३९५॥
इत्युपासकाध्ययने दानविषिमि त्रिचत्वारिकतमः कल्पः । भूलनतं बसान्यापर्वकर्माधिकियाः । शिवा नविषं महा सचित्तस्य विवर्जनम् ।।३९६॥ परिपहपरित्यागो भुक्तिमात्रानुमान्यता । तबानो घ वदारपेतान्येतावश यथाक्रमम ॥३९७१ 'अध्यषिमातमारोहेत्पूर्वपूर्ववतस्थितः । सर्वत्रापि समा प्रोता मानवर्शनभावनाः ॥३९८॥ पात्र गहिणी शेपास्त्रयः स्युबाचारिणः । भिक्षको दौ तु निर्दिष्टौ ततः स्यात्सर्वतो पत्तिः ॥३९९।।
सप्तद्गुणप्रधानत्वाचतयोऽनेकदा स्मृताः । निक्ति युक्तितस्तेषां ववसो मनिपोषस ।।४००॥ अतिथि संविभाग यत के अतीचार है, अतः श्रावक इन्हें छोड़ देवे ॥ ३९४ ।। मुनियों की स्वयं सेवा करनेवाले दाता को मुनियों को नमस्कार करने से उच्चगोत्र का बंध होता है, दान देने से लक्ष्मी प्राप्त होती है, उपासना करने से समस्त लोक द्वारा सेवनोय होता है एवं उनकी भक्ति करते से कीर्ति-लाभ होता है ।। ३९५ ।। इसप्रकार उपासकाध्ययन में 'दानविधि' नाम का तेतालोसबा कल्प समाप्त हुआ।
___ग्यारह प्रतिमा आचार्य श्रावकों को निम्नप्रकार ग्यारह प्रतिमाएं ( चारित्र के पालन करने की श्रेणिर्या ) कहते हैं। दर्शन, बत, सामायिक, प्रोषधोपवास, आरंभत्याग, दिवामैथुनत्याग, ब्रह्मचर्य, सचित्तत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्ट त्याग प्रतिमा। इनमें पूर्व-पूर्व की प्रतिमाओं के चारित्र को पालन करने में स्थित होकर ही आगे-आगे की प्रतिमाओं का चारित्र पालन करना चाहिए । जैसे दर्शन-प्रतिमा के चारित्र-पालन पूर्वक व्रत प्रतिमा की आराधना करनी चाहिए। उक समस्त प्रतिमाओं में रलत्रय ( सम्यग्दर्शन-आदि) को भावनाएं एक सरीखी कही गई हैं। श्रावकों को इस ग्यारह प्रतिमाओं में से पहले की छह प्रतिमा के धारक गृहस्थ कहे जाते हैं | सातबी, आठवीं और नौवीं प्रतिमा के धारकों को ब्रह्मचारी समझने चाहिए और अन्तिम दो प्रतिमा के धारक भिक्षु समझने चाहिए और इन सबसे ऊपर मुनि होते हैं ।। ३९६-३९९ ॥
भावार्थ-निरतिचार सम्यग्दर्शन के साथ अष्ट मू लगुणों का निरतिचार पालन करना पहली प्रतिमा १. तथा चाह थीसमन्तभद्राचार्य:
'उच्चर्गोत्रं प्रणते गो बानादुपासनात् पूजा । भक्के मुन्दरणं स्तवनात्कीर्तिस्तपोनिषिषु ।। ११५ ।। -रल । २. तथा चोक्त-'दसण वय सामाइय पोसह सपिचत्त राइ भत्ती य । वंभारम्भपरिग्गह अणुमण उद्दिट्ठ देसविरदेदे ।।
-चारित्तपाइड २१ । तथा चाह श्रीभगवज्जिनसेनाचार्य:'सद्दर्शन व्रतोद्योत समता प्रोषषव्रतम् । सचित्तसेवाविरतिमहः स्त्रीस गवर्जनम् ।। १५९ ।। प्राह्मचर्यमथारम्भपरिग्रहपरिच्युतिम् । तत्रानुमननत्याग स्वोद्दिष्टपरिवर्जनम् ॥ १६० ।। स्यानानि गृहिणां प्राहुः एकादश गणाधिपाः ।' --महापुराण पर्व १० । तथा चाह विद्वान् आशापरः-- दर्शनिकोऽथ व्रतिक माथिको प्रोपोपवासो च । सचितदिवागथुनविरतो गृहिणोऽणुयमिप होनाः षट् ॥ २ ॥ अग्रहारम्मपरिग्रहधिरता गिनस्त्रयो भष्पाः । अनुमलिविरतोद्दिष्टविरतावुभौ भिक्षुको प्रकृष्टौ च ॥ ३॥'
-सागर धर्मा० अ०३। ३. दर्शनप्रतिमापूर्वकं व्रतप्रतिमामाराधयेदित्यर्थः । ४, प्रथमप्रतिमादिषु क्रमेण रलायभावनाः सदृशाः ।
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४६२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
जिवेन्द्रियाणि सर्वाणि यो वेत्याश्मानमात्मना। गृहस्थो वानप्रस्थो वा स जितेनिय उच्यते ॥ ४०२ ॥ मानमायामवामर्षश्च पण त्क्षपणः स्मृतः । यो न धान्तो भवेद्भ्रान्तेस्तं विदुः श्रमणं बुधाः ॥ ४०२ ॥ यो 'हताशः प्रशान्ताशतमाशाम्बरमूधिरे । यः सर्वसत्यः स नग्नः परिकीर्तितः ॥ ४०३ ॥
है । जो निःशल्य होकर पांच अणुव्रतोंको निरतिचार पालन करता हुआ सात शोल धारण करता है । वह व्रत प्रतिमाधारी है । पूर्वोक्त दो प्रतिमाओं को धारण करके तीनों सन्धाओं में यथाविधि सामायिक करना तीसरी सामायिक प्रतिमा है। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को नियम से उपवास करना चोथी प्रोपोपवास प्रतिमा है। कृषि व व्यापार आदि का त्याग करना पाँचवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा है । जो अपनी स्त्री से दिन में रतिविलास न करके उसके साथ हँसी मजाक भी नहीं करता वह दिवा मैथुन त्यागी है। कोई आचार्य इसके स्थान में रात्रिभूक्तित्याग को कहते हैं, उसका अर्थ यह है रात्रि में सभी प्रकार के आहार का निरतिचार कृत कारित व अनुमोदनापूर्वक त्याग किया जाता है। मन, वचन, काम और कृत कारित व अनुमोदना से स्त्रीसेवन का त्याग, सातवीं ब्रह्मचयं प्रतिमा है। सचित वस्तु के खाने का त्याग करना अर्थात् कच्चे मूल, पत्तं -आदि प्रत्येक वनस्पतिकायिक शाक या फल मक्षण न करके उन्हें अग्नि में पकाकर या आचार शास्त्र के अनुसार प्रासुक करके भक्षण करता है, यह संचित त्याग प्रतिमाधारी है। समस्त परिग्रह को त्याग देना प्ररिग्रह त्याग प्रतिमा है । समस्त आरम्भ, परिग्रह व लौकिक कार्यों में अनुमति न देकर केवल भोजनमात्र में अनुमति देना दसवीं अनुमति त्याग प्रतिमा है । जो उक्त दश प्रतिमाओं का चारित्र पालन करता हुआ गृहत्याग करके मुनियों के आश्रम ( वन ) में जाकर गुरु के समीप व्रत ( ग्यारहवीं प्रतिमा का चारित्र ) धारण करके तप करता है और खण्डवस्त्र या लंगोटी मात्र धारण करता हुआ भिक्षा भोजन करता उद्दिष्ट त्याग प्रतिमाघारी है। इसके दो भेद हैं, क्षुल्ल व ऐलक | शुल्लक कौपोन (लगोटी ) व खण्डवस्त्रधारी वह ग्यारहवीं होता है और ऐलक केबल कोपीन मात्र धारण करता है। क्षुल्लक केशों का मुण्डन करता है और ऐलक केश लुञ्चन करता है, यह उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है। इनमें आगे की प्रतिमाओं में पूर्व पूर्व की प्रतिमाओं का चारित्र अवश्य होना चाहिए एवं रत्नत्रय की भावना 'उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होनी चाहिए ।
विमर्श
यहाँ पर ध्यान देने योग्य यह है कि शास्त्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि ने पांचवीं सचित्तत्याग प्रतिमा की जगह आठवीं आरम्भ त्याग प्रतिमा का उल्लेख किया है एवं आठों प्रतिमा की जगह पाँचवी प्रतिमा का । जबकि अन्य वाचकाचारों में ऐसा व्यतिक्रम दृष्टिगोचर नहीं हुआ। अतः क्रमिक त्याग की दृष्टि से पूर्वाचार्यों का निरूपण सही मालूम पड़ता है । परन्तु हमने उक्त दोनों लोकों का अर्थ प्रत्यकार के अनुसार ही किया है। मुनियों के विविध नामों का अर्थ
उन-उन गुणों की मुख्यता के कारण मुनि अनेक प्रकार के कहे गये हैं । अव उनके उन नामों को युक्तिपूर्वक निरुक्ति (व्युत्पत्ति-पूर्ण व्याख्या) कहते हैं, उसे मुझसे सुनिए । ४०० ॥ जो समस्त इन्द्रियों को जीतकर अपनी आत्मा द्वारा आत्मा को जानता है, वह गृहस्थ हो या वानप्रस्थ, वह जितेन्द्रिय कहा जाता है ॥ ४०१ ॥ गर्व, कपट, मद व क्रोध का क्षय कर देने के कारण साधु को 'क्षपण' कहा गया है और अनेक स्थानों में ईर्यासमिति पूर्वक विहार करने से थका हुआ नहीं होता, इसलिए विद्वान् उसे 'श्रमण' जानते हैं ||४०२|| जो पूर्व आदि दश दिशाओं के परिमाण से रहित है और जिसकी समस्त प्रकार की लालसाएँ (जीवन, बारोग्य, १. दिग्परिमाणरहितः
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अष्टम आवोस:
"रेणात्क्लेश राशीमाथिमा हर्मनीषिणः । भाग्यत्वादात्मविद्यानां महद्भिः कथं मुतिः ॥ ४०४ ।। यः पापनाशाय यतते स यतिर्भवेत् । योऽनोहो होहेऽपि सोनगारः सतां मतः ॥४०५॥ आत्माज्युद्धिकरं न सङ्गः कर्मदुर्जनेः । स पुमायुविख्यातो नाम्युप्लुतमस्तकः ॥ ४०६ ॥ धर्मकर्मफलेनी निवृत्तोऽधर्मकर्मणः । तं निर्मममुशन्सीह केवलात्मपरिष्द्धवम् ॥४०७ ॥ पकतयातीतस्तं मुमुचते पाहस्य हेम्मो वा यो बद्धो बद्ध एव सः ॥ ४०८ ॥ निर्ममो निरहंकारो निर्माणमवमत्सरः । तियायां संस्तवे व समधोः शंसितव्रतः ।।४०९ ।। atsara यथाम्नायं तत्वं तस्वकभावनः । वाचंयमः स विज्ञेयो न मौसी पशुषः ॥ ४१० ॥ भूते व्रते प्रसंख्याने संयमे नियमे बने । बोच्चः सर्वदा चेताः सोऽनुयामः प्रकीर्तितः ॥४११।।
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मांग व उपभोग संबंधी तृष्णाएँ ) शान्त (नष्ट ) हो चुकी हैं, इसलिए विद्वान आचार्यों ने उसे 'आशाम्बर' कहा है और जो समस्त प्रकार के वाह्य व आभ्यन्तर परिग्रहों का त्यागी है अतः उसे 'नग्न' कहा गया है। ।। ४०३ || समस्त दुःख समूह का संवरण ( आच्छादन) करने के कारण विद्वानों ने उसे 'ऋपि कहा है और अध्यात्मविद्याओं (केवलज्ञान - आदि) की प्राप्ति से पूज्य होने के कारण महापुरुष उसे 'मुनि' कहते है ॥४०॥ जां पापी जाल को नष्ट करने के लिए प्रयत्न करता है, इसलिए वह 'यति' है और शरीररूपी गृह में भी लालमारहित होने के कारण सज्जनों ने उसे 'अनगार' माना है ।। ४०५ ।। आत्मा को मलिन करने वाले कर्मरूप दुर्जनां के साथ जिस संसर्ग नहीं है, वही पुरुष 'शुचि' कहा गया है, न कि जल से धोये हुए मस्तकबाला । अर्थात् जो जल से मस्तक पर्यन्त स्नान करता है, यह पवित्र नहीं है किन्तु जिसकी आत्मा निर्मल है, वही पवित्र है । अर्थात्यद्यपि मुनि स्नान नहीं करते, किन्तु उनकी आत्मा विशुद्ध है, इसलिए उन्हें पवित्र कहते हैं ।। ४०६ ।। जो धर्माचरण ( सम्यग्दर्शन आदि ) के फल (स्वर्ग-सुख-आदि) का इच्छुक नहीं है और अधर्माचरण ( पापाचरण) से निवृत्त है और केवल आत्मा हो जिसका परिवार है लोक में उसे आचार्य 'निर्मम कहते हैं । अर्थात- मुनि पापाचरण न करके केवल वर्माचरण हो करते हैं, और उसे भी लौकिक इच्छा न रखकर केवल अपना कर्तव्य समझकर करते हैं एवं उनके पास अपनी आत्मा के सिवा कोई भी परिग्रह नहीं रहता, अतः उन्हें 'निर्मम' कहा गया है ।। ४०७ || आचार्य, साघु को पुण्य-पाप लक्षणवाले दोनों प्रकार के कर्म-बन्धनों से मुक्त ( छूटा हुआ ) होने के कारण मुमुक्षु कहते हैं। क्योंकि जो मानव लोहे की या सुवर्ण को जंजीरों स या हुआ है, उसे बँधा हुआ ही कहा जाता है । अर्थात् पुण्मकर्म सुवर्ण के बन्धन है और पापकर्म लोहे के न है, क्योंकि दोनों हो जीव को संसार में बांधकर रखते हैं । अतः जी पापों से निवृत्त होकर पुण्यकर्म करता , यह भी फर्मबन्ध करता है, किन्तु जो पुण्य और पाप दोनों को छोड़कर शुद्धोपयोग लीन है वही 'मुमुक्ष' है ॥ ४०८ ॥ जो मूर्च्छा ( ममता ) से रहित है, अहंकार-शून्य है, जो मान, मदव ईर्षा से रहित है, जिसके अहिंसा आदि महाव्रत प्रशंसनीय हैं और जो अपनी निन्दा व स्तुति में समान बुद्धि-युक्त ( राग-द्वेष-शून्य ) है, अर्थात् --जो अपनी निन्दा करनेवाले शत्रु से द्वेष नहीं करता और स्तुति करनेवाले मित्र से राग नहीं करता, अतः उसे 'समश्री' कहते है || ४०५ ॥
जो आगम के अनुसार मोक्षोपयोगी तत्वों (जोबादि ) को जानकर केवल उसी की एकमात्र भावना ( चिन्तवन ) करता है, उसे वाचंयम ( मोनो ) जानना चाहिए। जो पशु- सरीखा केवल भाषण नहीं करता,
१. संवरणात् । २. पुण्यपापलक्षण । ३. ध्याने । ४. अनूचानः प्रवचने साथीती गणश्च स इति हेम: । 'अनूचानी विनीतं स्यात् साविचक्षणं' – इति मेदिनी ।
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४६४
यशस्तिकतामाको 'योमस्तेनेष्वविश्वस्तः शाश्वते पपि निष्ठितः । समस्तसश्वविबास्यः सोऽनावानिह गीयते ॥४१२॥ तत्त्वं पुमाग्मनः पृति मनस्यसकरम्बकम् । यस्य युक्तं स योगी स्थान परेच्छादुरीहितः ॥४१३॥ कामः कोषो भवो माया तोमश्वेस्पग्निपञ्चकम् । येने साधितं स स्पाकृती पञ्चाग्निसायक: ॥४१॥ शानं ब्रह्म वयाब्राह्म ब्रह्म कामविनिपतः । सम्पपन वसन्नारमा ब्रह्मचारी भवेन्नरः ॥४१५।। मान्तियोपिति यः सक्तः सम्यग्नानातिपिप्रियः । स गृहस्पो भवेशन मनोर्ववतसाधकः ॥४१६।। पाम्यम बनिश्चातर्यः परित्यज्य संयमी बानप्रापासबिनयोज वनस्पः कटम्बवान ॥४१७|| संसाराग्निविरमाच्छेदो मेन मानसिना कृतः । तं शिक्षारिनं प्राहुन तु मुखितमस्तकम् ॥४१॥ कास्ममोवियता यः सीरनीरसमायोः । भवत्परमहंसोसो नाग्निवत्सर्वमशाकः ॥४१९
वह मौनी नहीं है ।। ४१० ॥ जिसका मन द्वादशाङ्ग त के अभ्यास में, अहिंसा-आदि ब्रतों के पालन में, धर्मध्यान के चिन्तन में, प्राणि-संरक्षणरूप व इन्द्रिय-वशीकरणरूप संगम में और नियम (परिमित कालवाले भोगोपयोग वस्तु के त्याग ) में और यम ( आजन्म भोगोपभोग के त्याग ) में अत्यधिक संलग्न रहता है, उसे 'अनूचान' (द्वादशाङ्ग श्रुत का वेत्ता) कहा गया है ॥ ४११ ॥ जो इन्द्रियरूपी चोरों पर विश्वास नहीं करता और शाश्वत कल्याणकारक रनत्रयरूप-मोक्षमार्ग में स्थित है एवं जो समस्त प्राणियों द्वारा विश्वास-योग्य है, उसे आगम में 'अनाश्वान्' कहा जाता है ।। ४१२ ।। जिसकी आत्मा मोक्षोपयोगी तत्व में लीन है, मन मात्मा में लोन है और जिसका इन्द्रिय-समूह मन में लीन है, वह योगी है, अर्थात्-जिसका इन्द्रियसमूह मन में, मन मात्मा में और आत्मा तत्व में लीन है, वह योगी है। किन्तु जो दूसरी वस्तुओं की चाहरूपी दुष्ट संकल्प से मुक्त है, वह योगी नहीं ॥ ४१३ ।। काम, क्रोध, मद, माया व लोभ ये पांच प्रकार की अग्नियां हैं। अतः जिसके द्वारा ये पांचों अग्नियां वश में की गई हैं, वहीं कृतकृत्य मुनि ही पंचाग्नि-साधक है, न कि वाट्या अग्नियों का उपासक || ४१४ । सम्यम्झान ब्रह्म है, प्राणिरक्षा ब्रह्म है, कामवासना के विशेष निग्रह को ब्रह्म पाहते हैं । जो मनुष्य सम्यक् रूप से सम्यग्ज्ञान को आराधना करता है और प्राणिरक्षा में तत्पर रहता है एवं काम को जीत लेता है, वही 'ब्रह्मचारी' है ।। ४१५ ॥ जो क्षमारूपो स्त्री में आसक्त है, अर्थात्-जो अहिंसक है, जिसे सम्यग्ज्ञानरूपी अतिथि प्रिय है । अर्थात् जो सदा शास्त्र-स्वाध्यायरूपी पात्र की आराधना करता है, तथा जो मनरूपी देवता की साधना करता है, वही सच्चा गृहस्थ है ।। ४१६ ॥ जो साधु इन्द्रिय-समूह के बाह्य विषयों (स्पर्श-आदि ) को अथवा दि० के अभिप्राय से मकान वगैरह बाह्य परिग्रह को तथा अन्तरङ्ग परिग्रह (रागद्वेषआदि) को छोड़कर संयम धारण करता है उसे 'वानप्रस्थ' जानना चाहिए, किन्तु जो कुटुम्ब को लेकर वन में निवास करता है, वह वानप्रस्थ नहीं है ।। ४६७ ॥
जिसने सम्यग्ज्ञानरूपी तलवार से संसाररूपी अग्नि की शिखा विदीर्ण (नष्ट ) की है, उसे बाचार्यों ने 'शिखाच्छेदी' कहा है, केवल शिर घुटानेवाले को नहीं ।। ४१८ ॥ संसार अवस्था में कम मोर आत्मा दूध
और पानी की तरह मिले हुए हैं, अतः जो साधु भेदज्ञान द्वारा दूध व जल-सरोखे संयोगसंजय को प्राप्त हुए कर्म ( ज्ञानावरण-आदि ) व आत्मा को जुदा-जुदा करनेवाला है, वहीं 'परमहंस' साघु है। जो अग्नि-सरीखा
१. इन्द्रियचौरेषु । २. आत्मनि मनः । *. तथा चोक्तं शास्त्रान्तरे--'उदरे गाहपत्याग्निमध्यदेशे तु दक्षिणः । आस्य
आहबनोऽग्निश्च सत्यपर्वा च पूर्वनि । यः पञ्चाग्नीनिमान वेद आहिताग्निः स उच्यते । -गरुडपुराण । ३. वास्त्वादि । १. पृथक् कर्वा ।
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अष्टम आश्वासः
ज्ञानमनो वपुर्वसनियमरिनियाणि च । नित्यं यस्य प्रदीप्तानि स तपस्थी न बषवान् ।।४२०॥ पञ्चेन्द्रियप्रवृत्त्याच्यास्तिथयः पञ्च कीर्तिताः । संसाराषयहेतुत्वासाभिमुक्तोऽतिथिभवत् ।।४२१।। अब्रोहः सर्वसत्त्वेषु मनो यस्य विने विने । त पुमान्दीक्षिप्तारमा स्यानत्वजादियमाशयः ॥४२२।। दुष्कर्मधुर्जनास्पर्शी सर्वसत्वहिताशयः । स घोत्रियो भवेत्सत्यं न तु यो वाहाशीबवान् ॥४२३।। अध्यात्मातनो क्यामन्त्रः सम्परकमसमिश्चयम् । यो जुहोति स होता स्याल बाझाग्निसमेषकः ॥४२४॥ भावपुटला नाकप ह मारगोश मः !!: स मत: ।।४२५।। षोडशानामुबारात्मा यः प्रमविनस्विजाम् । सोऽध्ययुरिह योवव्या शिवशर्माध्वरोदरः ।।४२६।।
सर्वभक्षी है, अर्थात् - समस्त भक्ष्य व अभक्ष्य वस्तुओं को भक्षण करने वाला है, वह परमहंस नहीं है ॥ ४१९ ॥ जिसका मन सदा तत्वज्ञान से प्रदीप्त है, शरीर अहिंसादि यतों के धारण से प्रदीप है और जिसको इन्द्रियाँ सदा से बनीय पदार्थों के त्याग से प्रदीप्त है वही सपस्त्री' है, किन्तु केवल वाह्य वेष का धारक तपस्वी नहीं है, अर्थात-जो नग्न होकर पीछी व कमण्डल-आदि वास बेष को धारण करता है, वह तपस्वी नहीं है ।।४२०॥ पाँचों इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों में प्रवृत्तियां ही पांच तिथियाँ कहीं गई हैं, जो कि ससार के आश्रय की कारण हैं। अतः जो इन तिथियों से मुक्त हो गया है, उसे 'अतिथि' कहते हैं । अर्थात्-पाची इन्द्रियाँ हो द्वितीया, एंचमी, अष्टमो, एकादशी और चतुर्दशोरूप पांच तिथियाँ हैं, जो इनसे मुक्त हो गया अर्थात्-जिसने पांचों इन्द्रियों को क्षपने वश में कर लिया, वहीं वास्तव में अतिथि है।
भावा-आहार-निमित्त आनेवाले साधु को अतिथि कहते है, क्योंकि जिसके आने को कोई तिथि निश्चित नहीं उसे लोक में अतिथि पाहा है । ग्रन्थकार ने कहा है कि मतिथि शब्द का यह अर्थ लौकिक है । वास्तव में गाँचों इन्द्रियाँ ही पांच तिथियां द्वितीया, पंचमी, अष्टमी, एकादशो और चतुर्दशी ) हैं और जो इनसे मुक्त हो गया (जिसने गानों इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया) बही साघु वास्तव में अतिथि है ।।४२१॥
समस्त प्राणियों को रक्षा करना ही जिसका दैनिक बज ( पूजा ) है, वह साधु पुरुष 'दीक्षितारमा' है | जो बकरे-वगैरह प्राणियों का घातक है, वह दीक्षितात्मा नहीं है ।। ४२२ ।। जो पापकर्मरूपो दुर्जनों को स्पर्श करनेवाला नहीं है और समस्त प्राणियों का हित चाहता है. वह वास्तव में 'श्रोत्रिय है, जो केवल बाह्म शुद्धि वाला है वह श्रोत्रिय नहीं है ।। ४२३ ।। जो आत्मारूपी अग्नि में दयारूपी मन्त्रों के द्वारा कर्म (झानाबरण-आदि ) रूपी ईंधन-समूह को अच्छी तरह हवन करता है, वहीं सच्चा होता ( होम करनेवाला ) है जो केवल वाह्य अग्नि में फाव-समूह रखकर उसे प्रदीप्त करता है, वह होता नहीं है ॥ ४२४ ।। ओ विशुद्ध भावरूपी पुष्पों से देवपूजा करता है, अहिंसादि व्रतरूपी सुमनों से शरीररूपी गृह की पूजा करता है एवं क्षमारूपो पुष्यों से मनरूपी अग्नि की पूजा करता है, उसे सज्जनों ने यष्टा ( पूजा करनेवाला) माना है ॥ ४२५ ।। जो महात्मा, तीर्थङ्कर प्रकृति को कारण सोलह कारण भावना ( दर्शन-विशुद्धि-आदि) रूपी पश करानेवाले ऋत्विजों का स्वामी है और जो मोक्ष-सुखरूपी यज्ञ का उच्चारक है, उसे 'अध्वर्य' समझना चाहिए ॥ ४२६ । जो शरीर और आत्मा के मेद को विशेष रूप से ज्ञापन करता है, वह विद्वानों के लिए प्रीतिजनक सच्चा वेद है, परन्तु जो समस्त प्राणियों के क्षय का कारण है, वह वेद नहीं है। १. छागादीनां घातकः । २. पोडश मानना एक ऋत्विजस्तेषां मध्येम्वः यजुर्वेदज्ञाता मुख्यः आत्मा एव । *. 'य: अनुभविचिंघाम्' ० ।
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यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
विवेक बंदयेवुनच शारीरशरीरिणोः । स प्रोत्वं विषां दो माखिलक्षयकारणम् ॥४२७।। जासिर्जरा मतिः पुसा प्रयो संसृतिकारणम् । एषा प्रयो यतस्त्रय्याः' शीयते सा प्रयो मता ॥४९८।। अहिंसः सातो ज्ञानो निरीहो निष्परिग्रहः । यः स्यात्स ब्राह्मणः सत्यं न तु झातिमवान्धसः ।।४२९।। सा जातिः परलोकाप यस्याः सक्षमसंभवः । न हि सस्याय जायेत शुद्धा भूयोजजिता ॥४३०॥ सोयो य: शिवज्ञाता स बौद्धो योऽन्तरात्मभूत् । ससांख्यो यः प्रसंख्यावास द्विजो यो न जन्मवान् ॥४३१॥ मानहीनो दुराचारो निर्वयो लोलपाशयः । बानयोग्यः कथं स स्पा चाक्षामुमतकियः ॥४३२॥ *अनुमान्या "समुद्देन्या त्रिशुखा भ्रामरो तया । भिक्षा सुविधा जेया' यतिक्षयसमाश्रया ||४३३॥
भावार्य-श्री भगबज्जिनसेनाचार्य ने भी कहा है कि निर्दोष (अहिंसा धर्म का निरूपण करने वाला ) द्वादशाङ्ग भुत हो वेद है, परन्तु प्राणि-हिंसा का समर्थक वाक्य ( शास्त्र ) वेद नहीं है, उसे तो कृतान्त की वाणी समझनी चाहिए' ।। ४२७ ।।
पुरुषों के जन्म, जरा व मरण ये तीनों संसार के कारण हैं, इस यी ( इन तीनों ) का जिस रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यषचारित्र ) रूपत्रयो से नाश हो वही त्रयी मानी गई है | अभिप्राय यह है कि ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद को श्रयो कहते हैं किन्तु शास्त्रकार कहते हैं, कि जो संसार के कारण अन्म, जरा व मरण को नष्ट करने में समर्थ है, वही रतमाही मच्ची नगी है।1:ो याद है समीचीन रूप से अहिंसा-आदि यतों का माचरण करता है, ज्ञानवान है, निःस्पही है एवं वाह्य (धन-धान्यादि ) व अन्तरङ्ग ( मिथ्यात्व-प्रादि ) परिग्रहों से रहित है, वहीं साधु यथार्थ ब्राह्मण है, जो मनुष्य केवल जाति ( ब्राह्मणत्व ) के मद से अन्धा है, वह ब्राह्मण नहीं है ।। ४२९ ।। बहो जाति परलोक के लिए उपयोगी है, अर्थात स्वर्ग आदि सख को उत्पन्न करनेवाली है. जिससे प्रशस्त धर्म सम्यग्दर्शन-आदि) की उत्पत्ति होती है; क्योंकि जिस प्रकार भूमि के शुद्ध होने पर भी पदि वह घान्यादि के बीजों से रहित है तो वह धान्योत्पत्ति के लिए समर्थ नहीं होती उसी प्रकार प्रशस्त वाह्मणत्व-आदि जाति भी सम्यग्दर्शनादिरूप धर्म-प्राप्ति के विना स्वर्ग-आदि सुख को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकती ।। ४३० ॥ जो शिब { कल्याणकारक मोक्ष या भोक्षमार्ग ) का ज्ञाता है, वही शैव ( शिव का अनुयायी) है। जो आत्मतत्व का ज्ञाता है, वही बौद्ध है। जो आत्मध्यानी है वहीं सांख्य है एवं जो संसार में पुनः जन्मधारण करनेवाला नहीं है, वही द्विज ( ब्राह्मण ) है । अभिप्राय यह है कि जो कुलोन माता-पिता से उत्पन्न होकर उपनयन संस्कार-युक्त होकर गुरु के पादमूल में लत्वज्ञान प्राप्त करता है, जिसका द्वितीय संस्कार-जन्म हुआ है और पुन: जिनदीक्षा धारपा करके कर्मों का झय करता है । अत: जिसे तीसरा जन्म धारण नहीं करना पड़ता बही सच्चा ब्राह्मण है ।। ४३१ ॥ जो अज्ञानी है, दुराचारी है, निर्दयी है, विषय-लम्पट है और पांचों इन्द्रियों के वश में हैं, वह आहार-आदि दान का पात्र कैसे हो सकता है ? अर्थात् ऐसे निःकृष्ट मानध के लिए कभी दान नहीं देना चाहिए ।। ४३२ ।। देशविरत और सर्वविरत की अपेक्षा से भिन्ना के चार भेद है-अनुमान्या, समुद्देश्या, त्रिशुद्धा और भ्रामरीमिक्षा। टिप्पणीकार ने कहा है कि अनुमान्या भिक्षा दशप्रतिमा तक होती है। आमन्त्रणपूर्वक आहार को समुद्देश्य कहते हैं, अतः १. सम्यक्त्वादेः। २. अन्तरात्मान बुध्यतीति । ३, पंचेन्द्रियवशः। ४. दशप्रतिमापर्यन्तं । ५. आमन्त्रणपविका षट्प्र
तिमापर्यन्तं । ६. ब्रह्मचारि-मुनि । * तथा भगवज्जिनसेनाचार्य :
श्रुतं सुविहितं वेदो द्वादशाङ्गमकल्मष । हिंसोपवैशि मवाक्यं न वेदोऽसौ कृतान्तबार ॥२२॥ -यादिपुराण पर्व. ३९
تصدر
عنه
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अष्टम आश्वास:
पाकाष्ययने यतिनामनिवं जनश्वसुश्चत्वारिंशः कल्पः ।
सलमित्र परिपक्वं स्नेहविहीनं प्रपमिव बेहम् । स्वयमेव विनाशोन्मुख मनुष्य करोतु विधिमन्त्यम् ॥४३४ ॥ "गहनं शरीरस्य हि विसनं किं तु गहनमिह वृत्तम् ।
तन्न
तु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिवमाहुः || ४३५ ।।
४६७
* प्रतिदिवस विजवलमुदमुक्ति त्यजस्प्रतीकारम् । पुरेव नृणां निगिरति चरमचरित्रोचितं समयम् ।।४३६।। "साि पापकृतेरिव जनितालिकाकम्पनातङ्का । यमबूलीव मरा यवि समागता जीवितेषु कस्लवः ।।४३७॥
दूसरी समुद्देशमा भिक्षा छठी प्रतिमा तक होती है और ग्यारहवीं प्रतिमा के धारक क्षुल्लक व ऐलक विशुद्धा नाम की भिक्षा करते हैं तथा साधु भ्रामरी मिक्षा करते हैं; क्योंकि मुनिजन दाताओं को बाघा न पहुँचाकर भँवरे की तरह आहार करते हैं; अतः उनको भिक्षा का नाम भ्रामरी है ।। ४३३ ||
इसप्रकार श्रीमत्सोमदेवरि के उपासकाध्ययन में मुनि के नामों की व्युत्पत्तिपूर्वक व्याख्या को बतलानेवाला चोवालीसवां कल्प समाप्त हुआ ।
[ अब समाधिमरण को विधि का निरूपण करते हैं- 1
वृक्ष के पके हुए पते सरीखा या तैल-रहित दीपक सरीखा शरीर को स्वयं ही विनाशोन्मुख जानकर समाधिमरण करना चाहिए || ४३४ || आचार्यों ने कहा है कि शरीर का त्याग करना आश्चर्य जनक नहीं है किन्तु लोक में संयम धारण करना आश्चर्य जनक है; अतः यदि शरीर स्थिर-शील है तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए और यदि हो तो हो सोक नहीं करना चाहिए ।। ४३५ ।। [ अब समाधिमरण का समय बताते हैं--]
जब शरीर प्रतिदिन क्षीण शक्तिवाला हो जाय और जिसने आहार ग्रहण छोड़ दिया हो एवं जब उसकी रक्षा के उपाय ( औषधादि ) व्यर्थ हो जाय तब स्वयं शरीर ही मनुष्यों को कह देता है, कि अब समाधिमरण का समय आ गया है || ४३६ || जब मानवों को यमराज को दूती- सरीखी वृद्धावस्था आ जाय, जो कि समस्त शरीर में कम्पन व व्याधि को उत्पन्न करनेवाली है और जो ऐसी मालूम पड़ती है मानों – पापकार्य की निकटतम ही है- तब उन्हें जोवन की लालसा क्यों करनी चाहिए ? अर्थात् — उस समय गृहस्य या मुनि को जीवन को अभिलापा छोड़ देनी चाहिए || ४३७ ॥ वृद्धावस्था द्वारा कानों के समीपवर्ती श्वेत बालों की
१. तथा च विद्वान् श्रगाधरः
'गहनं न तनोनिं पुंसः किन्त्वत्र संयमः । योगानुतेर्व्यावृत्य तदात्मात्मनि युज्यताम् ॥२४॥ सागर० अ० ८ । ★ आश्चर्य न शरीरमोचनं ।
२. तथा न गं० आशाधरः
'न धर्मसाधनमिति स्थास्तु नाश्यं वपुषुवैः । न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरं ॥५॥ - सागार० अ० ८ । ३. तथा च श्रीमद्विधानन्दि बाचार्य:
मरणसं वेतनाभावे कथं सल्लेखनायां प्रपन्न इति चेन्न जरारीगेन्द्रयहानिभिरा वषय परिक्षयसंप्राप्ते यत्तस्य स्वगुणरक्षणे प्रयत्नात् ततो न सल्लेखनात्मवधः प्रयत्नस्य विशुशुभं गत्वातपश्चरणावियत् । तत्वार्थवलोकवार्तिक २०७ सूत्र २२ ० ४६७ की अन्तिम ल० १ तथा पृ० ४६८ की शुरु को १३ लकीर ★ मरणावतरं । ४. समपतिनीव । * सविधापायकृतैरिव क० १ ५. का सुष्णा ? ।
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४६८
यशस्तिलकबम्पुकाव्ये कर्णान्तकेशपाशाहविर्बोिधितोऽपि यदि जरा । स्वस्थ हितवी न भवति तं किं मृत्युनं संप्रसते ।।४३८।। उपवासादिभिरने कषायो बोधिमाश्नया । तसरलेलमकर्मा प्राथाय 'यतेत गणमध्ये ॥४३९॥ धमनियमस्वाध्यायास्तपासि देवानाविधिवनिम् । एतसय मिष्फलमवसाने चन्मनो मलिनम ||४४०॥ वादशवर्षाणि नृपः शिशितास्त्रो रणेषु यदि मुह्येत् । कि स्यात्तस्पास्वविधैर्यषा तथान्ते यतेः पुराचरितम् ॥४४॥ "स्नेहं विहाय बन्धु मोहं विमवेषु कलाप्रसामहिते । गणिनि च निबंध निखिलं दुरोहितं तदनु भजतु विषिमुचितम् ।।४४२।।
पकड़कर समझाये जाने पर भी वृद्ध पुरुप यदि प्रात्मकल्याण का इच्छुक नहीं होता तो क्या उसे मृत्यु अपने मुख का कोर नहीं बनाती ?
भावार्थ-वृद्धावस्था के बाद मृत्यु के मुख में प्रविष्ट होना निश्चित है; अतः वृद्ध को आत्मकल्याण में ही प्रवृत्त होना श्रेयस्कर है, न कि जीवन की लालसा रखना ॥ ४३८॥
ममाधिमरण की विधि एसे साघु या श्रावक को, जिसने उपवास-आदि द्वारा अपना शरीर कृश (क्षीण ) किया है और रत्नत्रय की भावना द्वारा कषाय रूप दोष कृश किये हैं, मुनिसंघ के समक्षा आहार के त्याग के लिए प्रयत्न करना चाहिए । अर्थात-पावज्जीवन या काल की अवधि पर्यन्त आहार का त्याग करना चाहिए ॥ ४३९ ।। यदि अन्तसमय ( मरणवेला) में मन मलिन रहा तो जोवनपर्यन्त किये हुए यम ( बाह्य व आभ्यन्तर शौच, तप, स्वाध्याय और धर्मध्यान ), नियम' ( अहिंसादि), शास्त्र-स्वाध्याय, इच्छानिरोध लक्षणवाला तप, देव पूजा व पात्रदान-आदि समस्त धार्मिक अनुष्ठान निष्फल हैं ।। ४४० ।। जैसे कोई रामा, जिसने बारह वर्ष पर्यन्त शस्त्रविद्या ( शस्त्रों का संचालन-आदि ) का अभ्यास किया है, यदि युद्धभूमि पर शत्रु के प्रति कायरता दिखाता है तो उसकी शस्त्रविद्या निष्फल है वैसे ही साधु भी, जिसने पहले जीवनभर ग्रहाचार व तत्वज्ञानआदि का अभ्यास किया, यदि मृत्यु के अवसर पर समाधिमरण से विमुख हो गया तो उसका पूर्वकालीन समस्त धार्मिक अनुष्ठान व्यर्थ है ।। ४४१।। उन्धुजनों से स्नेह, धनादि वैभव से मोह और शत्रु के प्रति कलुपता को छोड़कर समस्त दोषों को आचार्य से निवेदन करे और उसके बाद समाधिमरण की योग्य विधि का पालन
१. पसितकेयाः किल पूर्व कर्णसोपे दृश्यन्ते । २. तथा चाह पं० माशापरः___'उपवासादिभिः कायं कषायं च श्रुतामृतः । संलिलख्य गणिमध्ये स्यात् समाधिमरणीयमो' ।।१५।। सागार० अ०८॥ ३. मरणाम । ४, तथा चाह पं० आशावर:___'नृपस्येव यतेधर्मो चिरमम्पस्तिनोस्त्रवत् । सुधीव स्खलितो मृत्यौ स्वार्थभ्रंनोऽयशः कटु ॥१७॥ --सागार० अ०८ । ५. सथा पाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:
'स्नेहं वैरं सङ्गं परिग्रह वाणहाय पानमनाः । स्वजन परिजनपि ष शारदा क्षमयेत् प्रिययनैः ।।१२४।। आन्दोच्य सर्वमनः कृतकारितमनुमत्तं च निर्व्याजम् । आरोपयेन्महानतमामरणस्थायि निश्शेषम् ॥१२५।।'
--रत्नकरण्ड श्रा० ।
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अष्टम आश्वास!
*प्रशन कमेण हेमं सिम पानं ततः परं चैव । सदनु च सर्वनिसि कुर्यावारुपश्वकस्मृती निरतः ॥४४॥ *कवलीघातप्रयायुधि कृतिना सकदेव विरतिमुपयाति । तत्र पुनर्ने विषियं ईवे कमविधिर्नास्ति ।।४४४॥ सरो प्रवचनकुशले साधुजने पत्नफर्मणि प्रवणे । वित्तं च समाधिरते किमिहासाम्य पतेरस्ति ॥४४५।।
जोचितमरणाणसे सुहवनुरागः सुखानुबन्धविधिः । एते सनिवाताः स्युः सल्लेखमहानो पन्च ।।४४६|| करे ।। ४४२ ॥ धीरे-धीरे अम्न का त्यागकर दूध व मट्टा रग्ड लेबे फिर उन्हें भी छोड़कर गर्म जल रख लेवे, उसके बाद पंचनमस्कारमन्त्र के स्मरण में लीन होकर सब कुछ छोड़ देना चाहिए ।।४४३ ।। जब किन्हीं पुण्यवान् पुरुष की आयु कटे हुए केले की तरह एक साथ ही समाप्त होती हो, अर्थात्-शत्रु, विष व अग्निआदि द्वारा एकबार में ही नष्ट हो जाय तो वहाँ समाधिमरण की यह क्रमिक विधि नहीं है। बाकि देव (भाग्य) की प्रतिकूलता में ऋमिक विधान नहीं बन सकता ! अर्थात-भाग्य को प्रतिकूलता में होनेवाले कादलोधासमरण में यह विस्तृत सन्यास-विधि नहीं होती, किन्तु उस अवसर पर सर्वसन्यास ( समस्त चारों प्रकार के माहार का त्याग ) विधि होती है ।। ४४१ ।।
जब समाधिमानेवाले मास र देश में कुल हों और साधु-समूह सन्यास विधि में प्रयत्नशील हो एवं समाधिमरण करनेवाले का मन ध्यान में अनुरक हो तो समाधिमरण करनेत्राले साधु को लोक में कुछ भी असाध्य नहीं है ।। ४४५ ।। सल्लेखनानत की अति करनेवाले निम्नप्रकार पाँच अतिचार हैजीने की इच्छा करना, मरण की इच्छा करना, मित्रों के साथ अनुराग प्रकट करना, पहले भोगे हुए भोगों का
तथा पाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:'आहारं परिहाप्य क्रमशः स्निग्धं विवर्षयेत् पानम् । स्निग्यं च हापयित्वा खरपानं पूरयेत् कमणः 11१२७१। खरपानहापनामपि कृत्वा कृत्वोपवासमपि शक्त्या । पञ्चनमस्कारमनास्तनुं त्यजेत् सर्वयत्नेन ॥१२८।।'
---रलकरण्ड श्रा। १. ससानं । *. 'कदलीघानषदाय:' ग । 'कदलीघातबदायुषि' मु., क०, स्व०, प० । विमर्श-अयं पाठः समीचीनः ।
-सम्पादकः। २. उपयाति सति को विरति अग्नपानादिविरति कथं ? सफदेव एकहेलया, मुकृतिनां पुण्यवतां फदलौघातबदायुषियन्ना वरिविपान्याविन मरणमायाति तदा एवं वदति मम सर्वसन्यासः तत्र पुनः कदलीघालमरण पारः विस्तरसन्यासविधिन भवति । ३. यतो देवे प्रामविधिर्नास्ति । तथा चाह पं० आशावर:---गशापवर्तकवशाल कदलीधातवत् सकृत् । विरमरमानुषि प्रायमविचार समाचरेत् ॥११॥
-सागार० अ०८। ४. सावायें । *. ग किमपि । ५. यदि स्तोक का जोध्येत तरा भव्यमिति जीविताशंसा । यदि शीघ्न म्रियते सदा भव्यं किमयामि दुःखमनुभूयते, इति मरणाशंसा-याछा, मदि स आमाति तदाऽयं सन्यासः सफलः कथयति । यदि सुनेन नियत तदा भन्यमिति चिन्तयति। तथा पाह श्रीमदुमास्वामी आघाय:-'जीयितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबन्धनिदानानि' ।। ३७ ॥
-मोक्षशास्त्र अध्याय ७ । तथा चाह श्रीपत्समन्तभद्राचार्य:'जीवितमरणाशंसे भय मित्रस्मृतिनिवामनामानः । सल्लेखनाविचाराः पञ्च जिनेन्द्रः समादिः ॥१२९ रत्नकरषद ।
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४५०
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
आराध्य रत्नत्रयमित्यमर्थी समर्पितारमा गणिने यथावत् । समाधिभावेन कृतात्मकार्यः कृती जगन्मान्यपवप्रभुः स्यात् ॥४४७॥ इत्युपातकाध्ययने सल्लेखनाविधिर्नाम पञ्चचत्वारिंशः कल्पः । अन्य प्रकीर्णकम् ।
विप्रकोणवाक्यानामुदकं प्रकीर्णकम् । उक्तानुक्तामृतस्यन्दविन्दु बन कोषिः ॥ ४४८ ||
अदुर्जनत्वं नियो विवेकः परीक्षणं तस्यविनिषधयश्च ।
एते गुणाः पा भवन्ति यस्य स आत्मवान्य कथापरः स्यात् ||४४९ ॥
असूयकर विचारो कुराः सूक्तविमानना छ । पुंसाममी पन्च भवन्ति दोषास्तस्थावबोधप्रतिषमाय ॥१४५० ।। पुंसो यथा संशयिताशयस्य दृष्टा न काचित्सफला प्रबृत्तिः । स्वरूपेऽपिवस्तथा भ काचिसफला प्रवृतिः ॥ ४५१ ॥
स्मरण करना और आगामी भोगों की इच्छा करना || ४४६ ।। इसप्रकार रत्नत्रय को आराधना करके आचार्य के अधीन होकर उनकी आज्ञा के अनुसार चलनेवाला समाधिमरण का इच्छुक, जिसने यथाविधि धर्मध्यान परिणति से समाधिमरण किया है, पुण्यात्मा पुरुष जगत्पूज्य तोर्थङ्करपद का स्वामी हो जाता है ॥ ४४७ ॥ इसप्रकार श्रीमत्सोमदेवसूरि के उपासकाध्ययन में सल्लेखनाविधि नामक पैंतालीसवाँ कल्प समाप्त हुआ ।
[ अब कुछ सुभाषितों का कथन करते हैं-]
उपदिष्ट व अनुपदिष्ट सुभाषितरूपी अमृत से क्षरण करनेवालों बिन्दुओं के आस्वादन करने में चतुर विद्वानों ने शास्त्रों में विस्तृत हुए सार्थक सुभाषित वचनों के कथन करने को प्रकीर्णक कहा है।
भावार्थ- नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्री ने कहा है कि 'जो समुद्र सरीखे विस्तृत सुभाषितरूपी रत्नों की रचना का स्थान है, उसे प्रकीर्णक कहते है ।' अर्थात् जिसप्रकार समुद्र में फैली हुई प्रचुर रत्नराशि वर्तमान होती है उसीप्रकार प्रकीर्णक काव्यरूपी समुद्र में भी फैली हुई सुभाषित काव्यरूपी रत्न राशि पाई जाती है ॥ ४४८ ॥
धर्म कथा करने का पात्र
वही विशिष्ट आत्मा धर्मोपदेश देने में तत्पर होता है, जिसमें ये पांच गुण वर्तमान हूं - सज्जनता, विनय, सद्बुद्धि परीक्षा और मोक्षोपयोगी तत्वों का निश्चय ।। ४४६ ।। तत्वज्ञान में बाधक दोष
मानवों के निम्नप्रकार पाँच दोष तत्वज्ञान में बाधक हैं-दूसरे के गुणों में मात्सर्य करना, दुष्टता, हिताहित का विचार न होना, दुराग्रह ( ह्ठ ग्रहण ) और हितकारक उपदेश का अनादर करना ।। ४५० ।। संशयालु की असफलता
जैसे लौकिक कार्यो' ( व्यापार आदि ) में संदिग्ध अभिप्रायवाले मानव को कोई भी लौकिक प्रवृत्ति सफल नहीं देखी गई उसी प्रकार धर्म के स्वरूप में संदिग्ध बुद्धिवाले मानव को कोई भी धार्मिक प्रवृत्ति सफल नहीं होती ।
१. विक्षिप्ताना पूर्वोक्तानां २ तथा च सोमदेवसूदिः - 'समुद्र इव प्रकीर्णकयुक्तरस्नविन्यासनिबन्धनं प्रकीर्णकम् नीतिवाक्यामृत ( मा० टी० समेत ) ५० ४११
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अष्टम आश्वांसः
*जातिपूजा कुल ज्ञानरूपसं पत्तपोषले । उशन्त्यहं पुतो के मवमस्मयमानसाः ११४५२॥ यो महात्मानमवलादेन' मोवते । स नूनं धर्महा यस्मान्न धर्मो धार्मिकविता ||४५३ ।। बलेवा गुरूपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः । वानं घेति गृहस्थानां षट् कर्माणि दिने विने ||४५४॥ पनं पूजनं स्तोत्रं जपो ध्यानं श्रुतस्तयः । षोठा क्रियोबिता सद्भिर्देवसेवा गेहिनाम् ।।४५५॥ आापासनं श्रद्धा शास्त्रार्थस्य विवेचनम् । सस्क्रियाणामनुष्ठानं श्रेयःप्राप्तिकरो गणः ॥ ४५६||
४७१
भावार्थ – नीतिकार प्रस्तुत आचार्यश्री ने कहा- 'सर्वत्र संशयानेषु नास्ति कार्यसिद्धि:' अर्थात्'सभी स्थानों में संदेह करनेवालों के कार्य सिद्ध नहीं होते' - ( नीतिवाक्यामृत सदाचारसमुद्देश सूत्र ५३ पृ० ३४३ हमारी भाषा टीका )' अतः विवेकी पुरुष की कार्य-सिद्धि के लिए सभी स्थानों में सन्देह नहीं करना चाहिए ।। ४५१ ।।
मदों का निषेध
गर्व-रहित मनोवृत्तिवाले ( विनयशील ) आचार्य, जाति ( माता के वंश की शुद्धि ), प्रतिष्ठा, कुल ( पिता को वंश-शुद्धि), विद्या, लावण्य, सम्पत्ति, तप व वल इनके गर्वोद्रेक ( विशेष अहंकार ) को मद या घमण्ड कहते हैं ।। ४५२ ।। जो मानव घमण्ड में आकर अपने साधर्मी जनों की निन्दा करके हर्षित होता है वह reas से धर्मं- घातक है, क्योंकि धर्मात्माओं के बिना धर्म नहीं है ।। ४५३ ॥
गृहस्थ के छह कर्तव्य
देवपूजा, गुरु की उपासना, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये गृहस्थों के छह धार्मिक कर्तव्य है, जो कि प्रत्येक गृहस्य को प्रतिदिन अवश्य करने चाहिए ।। ४५४ ।।
देवपूजा की विधि
सज्जनों ने गृहस्थों के लिए देवपूजा के विषय में छह धार्मिक क्रियाएँ कहीं हैं - पूर्व में अभिषेक, पुनः पूजन, पश्चात् भगवान् के गुणों का स्तवन पुनः पञ्चनमस्कार मन्त्र आदि का जाप पश्चात् ध्यान और अन्त में श्रुतदेवता की आराधना ( स्तुति ) । अर्थात् -- इस क्रम से जिनेन्द्रदेव को आराधना करनी चाहिए ।। ४५५ ।।
कल्याण- प्राप्ति के उपाय
आचार्यों की पूजा करना, देव, शास्त्र व गुरु की श्रद्धा, शास्त्रों में कहे हुए मोक्षोपयोगी तत्वों का शान और शास्त्र-विहित क्रियाओं का आचरण ये सब कर्तव्य समूह कल्याण की प्राप्ति करनेवाले हैं ॥ ४५६ ॥
* तथा च श्रीमत्समन्तभद्राचार्य :
'ज्ञानं पूजां फुलं जाति बलमृद्धिं तपो वपुः । अष्टावाश्रित्य मानित्वं स्मयमाहुतस्मयाः ।। २५ ।।
स्मयेन योऽन्यानत्येति धर्मस्थान् गविताशयः । सोऽस्येति धर्ममात्मीयं न धर्मो धार्मिकविता || २६ ।।' - रत्नकरण्ड० । १. गर्यो । २. निन्दया । ३. श्रुवाराधनमित्यर्थः ।
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४७२
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
विनयपद्मस्तचापलय जितः । अष्टदोषविनिर्मुकमषीतां गुरुसं नियो । ४५७॥ अनुयोगगुणस्थान मानणास्थानकर्मसु । अध्यात्मतत्त्व विद्यायाः पाठः स्वाध्याय उच्यते ॥ ४५८ ॥
शिष्य-कर्तव्य
अपने कल्याण के इच्छुक शिष्य को बाह्य व आभ्यन्तर शुद्धि से युक्त होकर शारीरिक चञ्चलता छोड़ते हुए विनयपूर्वक गुरु के समीप अष्ट दोषों ( अकाल, अविनय, अनवग्रह, अबहुमान, निह्नव, अव्यञ्जन, अर्थविकल और अर्थव्यञ्जनविकल ) को टालकर आगम का अध्ययन करना चाहिए ।
भावार्थ -- ज्ञान की आराधना के आठ दोष होते हैं। अकाल व अविनय आादि । अकाल (सूर्यग्रहण- आदि में पढ़ना ), अविनय ( विनयपूर्वक अध्ययन न करता ), अनवग्रह ( पढ़े हुए आगम के विषय को अवधारण न करना ), अबहुमान ( गुरु का आदर न करना ), निह्नव ( जिनसे पढ़ा है, उनका नाम छिपाना ), अव्यञ्जन ( शुद्ध उच्चारण न करना, अक्षरादिक को छोड़ जाना ), अर्थविकल ( शास्त्र का अर्थ ठीक न करना ), और अर्थव्यञ्जन विकल ( न उच्चारण ठीक करना और न अर्थ ठीक करना } 1 साधु शिष्य को आचार्य उपाध्याय परमेड़ी के पास इन आठ दोषों की टाला आगम का अध्ययन व मनन आदि करना चाहिए 1
इसी प्रकार गुरु के पादमूल में श्रुताभ्यास करनेवाले मञ्जन शिष्य को विनयशील होना चाहिए । नीतिकार आचार्यश्री ने विनय के विषय में कहा है- प्रतविद्यावयोधिकेषु नोचैराचरणं विनयः || ६ || पुण्यावासिः शास्त्ररहस्यपरिज्ञानं सत्पुरुपाधिगम्यत्वं च विनयफलम् || ७ || - नीतिवाक्यामृत पुरोहितसमुद्देश पृ० २११-२१२ ।' अर्थात् बत पालन - अहिंसा, सत्य व अचौर्य आदि सदाचार में प्रवृत्ति, शास्त्राध्ययन व आयु में बड़े पुरुषों के साथ नमस्कारादि नम्रता का वर्ताव करना विनय गुण है । सारांश यह है कि बती, विद्वान व वयोवृद्ध माता-पिता आदि पुरुष, जो कि क्रमशः सदाचार प्रवृत्ति, शास्त्राध्ययन व हित चिन्तवनआदि सद्गुणों से विभूषित होने से श्रेष्ठ हैं, उनकी विनय करना विनयगुण है। क्योंकि व्रती महापुरुषों की विनय से पुण्यप्राप्ति, विद्वानों को विनय से शास्त्रों का वास्तविक स्वरूपज्ञान एवं माता-पिता आदि हितैषियों की विनय से शिष्ट पुरुषों के द्वारा सन्मान प्राप्त होता है। इसी प्रकार fविष्य वर्तव्य का निर्देश करते हुए आचार्यश्री ने कहा है- 'अध्ययनका व्यासङ्गं परिवमन्यमनस्कतां च न भजेत् ।। १८ ।। -- नीतिवाक्यामृत पुरी० पू० २१३ । अर्थात् — शिष्य को विद्याध्ययन करने के सिवाय दूसरा कार्य, शारीरिक व मानसिक चपळता तथा चित्तप्रवृत्ति को अन्यत्र ले जाना ये कार्य नहीं करना चाहिए, क्योंकि ऐसा करनेवाला शिष्य मूर्ख रह जाता है ।। ४५७ ।।
स्वाध्याय का स्त्ररूप
चार अनुयोगों (प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग व द्रव्यानुयोग ) के यास्त्र तथा गुणस्थान ( मिथ्यात्व आदि) और मागंगास्थान ( गति व इन्द्रिय-आदि चौदह मार्गणास्थान ) के निरूपक शास्त्रों का एवं अध्यात्मतत्वविद्या का यथाविधि पढ़ना स्वध्याय है | || ४५८ ॥
९. शरीर । *. १. अकाल, २. अविनय, ३ अनवग्रह, ४ अवमान, ५. निह्नब, ६ अव्यञ्जन ७. अविकल, ८. अविकल इमष्टो दोषाः' टि० न० । 'अकाळाध्ययनावि' दि० घ० ।
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अष्टम आश्वासः
गृही यतः स्वसिद्धान्तं साष युध्येत घमंधीः । 'प्रथमः सोऽनुयोगः स्यात्पुराणचरिताश्रयः ॥४५॥ मधोमध्योचलोकेषु घसुगंतिविचारणम् । शास्त्र करणमित्याहुरनुयोगपरीक्षणम् ।।४६०।। म्मेवं स्याउनुष्ठानं तस्यायं रक्षणक्रमः । इस्थमात्मचरित्रार्थोऽनु योगश्चरणाश्रितः ।।४६१॥ जीवाजीगपरिज्ञानं धर्माधर्मायबोधनम् । अन्धमोक्षमतावेति फल प्रध्यानुयोगसः ॥४६२।। "जोरस्थान गुणस्थान मार्गणास्थानगी विपिः । चतुर्दशविषो वोध्यः स प्रत्येक प्रधागमम् ।।४६३॥
प्रथमानुयोग का स्वरूप धर्म-बुद्धि गृहस्थ जिससे अपना सिद्धान्त भलीभांति जानता है, वह प्रथमानुयोग है, जो कि पुराण के आधारवाला और चरित के आधारवाला है, अर्थात्-जिसमें चौवीस तीर्थर-आदि तिरेसठ शलाका के पूज्य महापुरुषों का चरित्र अथवा किसी एक पूज्य पुरुष का चरित्र उल्लिखित होता है ॥ ४५९ ॥
करणानुयोग का स्वरूप ___अधोलोक, मध्यलोक व ऊर्ध्वलोक में पाई जानेवाली चारों पत्तियों का विचार जिसमें किया गया हो उसको विद्वानों ने करणानुयोग कहा है । यह दूसरे अनुयोगों को परीक्षा करनेवाला है ।। ४६० ॥
चरणानुयोग का स्वरूप यह मेरा अणुनत व महायतात्मकः कर्म (आचरण) है और उसके संरक्षण व संवर्धन का यह क्रम है, अर्थात-अतीचारों के त्याग से व्रतों का संरक्षण होता है और भावनाओं से प्रत वृद्धिंगत होते हैं, इसप्रकार मात्मा के चरित्र का निरूपण जिसमें किया गया हो, वह चरणानुयोग है ।। ४६१ ।।
द्रध्यानुयोग का स्वरूप द्रव्यानुयोग से विवेकी पुरुष को जोर और अजीव द्रव्य का ज्ञान होता है, धर्म, अधर्म, बन्ध एवं मोक्षतत्य का ज्ञान होता है ।। ४६२॥
जीवसमास-आदि जानने योग्य तत्व जीवसमास ( एकेन्द्रिय-आदि ), गुणस्थान ( मिथ्यात्व-आदि ) व मार्गणास्यान । गति व इन्द्रिय१-४. सथा चाह स्वामी समन्तभद्राचार्य:--
प्रथमानुयोगमर्थात्यानं चरितं पुराणामपि पुष्पम् । बोयिसमाधिनिधानं बोधति वोधः समीचीनः ।।४३।। लोकालोकथिभक्तेयुगपरिवृतेश्चतुर्गतीनां च । आदर्शमिन तथामतिरबति करणानुयोगं च ।।४४।। गृहमेघ्यनगाराणां चारित्रोयत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्परशानं विजानानि ॥४५॥ जोबाजीवसुतत्व पुण्यापुण्ये च बन्धमोनी च । द्रव्यानुमागदीपः श्रुतविशलोकभातनुते ।।४६।। रत्नकरण्ड । ५. वादरसुहमहन्दिन बितिचरिन्द्रिय असण्णिसण्णीय । पत्ताऽपज्जत्ता भूदा इदि चदसा होति । अर्थात्-- एकेन्द्रियाः सूक्ष्मवादरभेदेन द्विविधाः, विकलेन्द्रिशास्त्रयः, पंचेन्द्रियाः संजिनोमिनपच । एते सप्त पर्याप्ततरभदेन चतुर्दशजीवस्थानानि भवन्ति । ६. मिथ्यादृष्टि, सासादन, मिथ, असंयतसम्यग्दृष्टिः, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपुर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, मुश्मसाम्पराय, उपशान्तकपाय, क्षीणकषाय, सयोगकेवलो व अयोगकेवली, इति चतुदर्श गुणस्थानानि भवन्ति । ७. गति, इन्द्रिय, काय, योग, वेद, कपाय, ज्ञान, संयम, दर्शन, लेपया, भग्मत्व, सम्यक्त्व, संझि, आहारक भेदेन चतुर्दश मागंणास्थानानि भवन्ति ।
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यथास्तिलकचम्पूकाव्ये 'सावितः पञ्च तिर्यक्ष चत्वारि श्वध्रिनाकिनोः । गुणस्थानानि मन्यन्ते नषु म चतुर्दश ॥४६४॥
अनिहितशयस्य कायमसेशस्तपः स्मृतम् । तरच मार्गाविरोधेन गुणाय गदितं जिनः ॥४६५।। अन्तहिर्मलप्लोषा'वास्मनः शुद्धिकारणम् । शारोरं मामसं कर्म तपः प्रातस्तपोधनाः ।।४६६॥
कवानियवाना विजयो व्रतपालनम् । संयमः संयतः प्रोक्त श्रेयः धमिसुमिता ॥४६७।। आदि ) प्रत्येक के चौदह-चौदह भेद हैं, इनका स्वरूप आगमों से जानना चाहिए।
भावार्थ-जीवसमास के चौदह भेद हैं-एकेन्द्रिय सूक्ष्म व वादर, दो इन्द्रिय, तेन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सैनी पंचेन्द्रिय व असेनी पंचेन्द्रिय । ये साती पर्यातक और अपर्याप्तक के भेद से चौदह होते हैं, इसप्रकार जीवसमास के चौदह भेद हैं।
इसीतरह गुणस्थान भी चौदह हैं--मिथ्यात्व, सासादन, मिश्र, अविरतसम्यक्त्व, देशविरत, प्रमत्तविरत, अप्रमत्तविरत, अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्मसाम्पराय, उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय, मयोगक्रेवली व अयोगकेवली । जिनमें संसारी जीव अन्वेषण किये जाते हैं, उन्हें, मार्गणास्थान कहते हैं। उनके भी चौदह
न है--गि, इनार, कप, मोग. रेद, काप य, नग्न, संयम, दर्शन, लेश्या, भव्य, सम्यक्त्व, संशो और आहार मार्गणा ।। ४६३ ॥
पारो गतियों में होनेवाले गुणस्थान तियंचगति में तियंञ्चों के शुरु से पांच गुणस्थान होते हैं । नरकगति के नारकियों में और देवगति के देवों में पहले के चार गुणस्थान होते हैं और मनुष्यों में सभी चौदह गुणस्थान होते हैं ।। ४६४ ॥
तप का स्वरूप अपनी शक्ति न छिपानेवाले विवेकी मानव द्वारा जो काय-बलश ( शारीरिक कष्ट किया जाता है, उसे तप कहा गया है, किन्तु वह जैनमार्ग के अनुकूल होने से हो मुणकारक होता है, यह जिनेन्द्र भगवान ने कहा है ।। ४६५ ॥ अथवा तपोनिधियों ने ऐसी सारीरिक क्रिया (उपवास-आदि) व मानसिक क्रिया (प्रायश्चित्त-आदि ) को तप कहा है, जो कि अन्तरङ्ग ( रागादि ) व बहिरङ्ग मल के सन्ताप से सन्तप्त हुई आत्मा को शुद्धि में कारण है ॥ ४६६ ।।
संयम का स्वरूप कपायों का निग्रह, इन्द्रियों का जय, मन, वचन व काय का कुटिल प्रवृत्ति का त्याग तया अहिंसादि
१. तमा चाह पूज्यपाद:-'गल्यनुवादेन नरकगती सर्वासु पृथियोषु आद्यानि चत्वारि गुणस्यानानि सन्ति । तिर्यमात तान्येच संग्रतायतस्थानाधिकानि सन्ति। मनुष्यगतो चतुर्दशापि सन्ति । देवगती नारकवत् ।'
-सर्वार्थसिद्धि मूत्र ८ ( सत्संख्या.) १०१२ । २. तथा चाह पूज्यपादः-अनिमूहितवीर्यस्य मार्गाविरोधिकायक्लेशस्तपः' ।
-सर्वार्थ सिद्धि अ० ६ सूत्र २४ १० १९७ । तथा च श्रीमडियामन्दिाचार्य:-'अनिगहिवषीर्यस्य सम्यग्मार्गाविरोषतः । कायक्लेवाः समाख्यातं विश्वं शक्तितस्तपः ॥ ९ ॥ तत्दार्थश्लोक वार्तिक १० ४५६ । ३. दाहात् ।
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अष्टम माश्वासः
मस्यायमर्यः-सान्ति संतापयन्ति दुर्गतिसनसंपादनेनारमानमिति कषायाः' शोधावयः। अथवा यथा विशुद्धस्य पराममोहाय माया काम , ता शिरगामनो मलिनस्वहेतुत्वात्मकाया इव कषायाः । तत्र स्वपरापराधाम्यामात्मेतरयोरपायोपायानुष्ठाममाशुभपरिणामअननं या गोषः। विद्याविज्ञानश्चर्याधिभिः पूज्यपूजाव्यत्तिकमहेतुरहंकारो पुक्तिवर्शनेऽपि बुरामहापरित्यागो वा मानः । ममोबाणकाक्रियाणामयाथातथ्यारपरवसनाभिप्रायेण प्रभुतिः यातिपूनालाभाभिवेशान वा माया ! चेतनाचेततेषु वस्तुषु विसस्य महान्मभेद भाषस्तभिवृद्धिविमाशयोमहासंलोषोऽसंतोपो वा लोभः ।
प्रतों का पालन करना इसे संयमी आचार्यों ने संयम कहा है, यह संयम धर्म शाश्वत' कल्याण-प्राप्ति के इच्छुक ( मोक्षाभिलाषी ) साधुजनों के होता है ।। ४६७ ।।
[ अब इसका स्पष्ट विवेचन करते हैं-]
जो आस्मा को दुर्गति में लेजाकर दुःखित करती हैं, उन्हें ( क्रोधादि को ) कषाय कहते हैं । अथया जैसे वटवृक्ष-आदि के कसैले रस विशुद्ध वस्तु को कलुषित ( मलिन) करनेवाले हैं वैसे ही क्रोधादि कषाय भी विशुद्ध आत्मा को कलुषित ( मलिन ) करने में कारण हैं। अतः कसैले रस-सरीखी होने के कारण इन्हें कषाय कहते हैं । वे कषाय चार प्रकार की है-क्रोध, मान, माया व लोभ ।
. क्रोध-अपने या दूसरों के अपराध से अपना या दूसरों का नाश ( घात ) होना या नाश करना क्रोष है, अथवा अशुभभावों का उत्पन्न होना क्रोध है | मान-विद्या, विज्ञान व ऐश्वर्य-आदि के घमण्ड में आकर पूज्य पुरुषों की पूजा का उल्लङ्घन करना, अर्थात्-उनका आदर-सत्कार न करना मान है । अथवा युक्ति दिखा देनेपर भी अपना दुराग्रह नहीं छोड़ना मान है।
माया-दूसरों को धोखा देने के अभिप्राय से अथवा अपत्नी कोति, आदर-सत्कार और धनादि की प्राप्ति के अभिप्राय से मन, वचन व काम की कुटिल प्रवृत्ति करना माया है ।
लोभ-चेतन स्त्री पुत्रादिक में और अचेतन घन व धान्यादि पदार्थों में 'ये मेरे है इसप्रकार को चित्त में उत्पन्न हुई विशेष तृष्णा को लोभ कहते हैं । अथवा इन पदार्थों की वृद्धि होने पर जो विशेष सन्तोष होता है और इनके विनाश होने पर जो महान असन्तोष होता है उसे लोभ कहते हैं ।
कपायों के मेद इसप्रकार ये चार कषाय हैं। इनमें से प्रत्येक को चार-चार अवस्थाएं हैं-अनन्तानुबन्धिक्रोध, मान, माया, लोभ, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण कोष, मान, माया, लोम और संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ ।
१. तथा चाह श्रीपूज्यपादः-'कषाया: कोधमानमायालोमाः । तेषां चतसोश्वस्थाः अनन्नानबन्धिनोऽप्रत्या
ख्यानावरणा: प्रत्याख्यानावरणाः संज्वलनाश्चेति । अनन्तसंसारकारणस्थानिमध्यादर्शनमनन्तं तदनुबन्धिनोग्नन्तानबन्धिनः क्रोधमानमायालोभाः। यदमादेवाविरति मयमासंयमाख्यामल्पामपि मतुं न शक्नोति, ते देशप्रत्याख्यानमापवन्तोऽप्रत्याख्यानावरणाः 'क्रोधमानमायालाभाः । यदुदयाद्विरति कुरस्नां मयमाश्यां न शक्नोति का ते कृत्स्नं प्रत्याख्यानमावृण्वन्तः प्रत्याख्यानावरणाः क्रोवमानमापालोमाः । समेकी भावे वर्तते । मंयमेन सहावस्थानादको भूयज्यलन्ति संयमो वा ज्वलत्येषु सत्स्वपीति संज्वलना क्रोचमानमायालोमाः । सर्वार्थसिद्धि ०८-१५० २२७-२२८ । २. निग्रोधस्येमे नयनोराः परजाः ।
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४७६
प्रशस्तिलक चम्पूकाव्ये
सम्यक्त्वं मन्यन्तानुबन्धिनस्ते कषायकाः । अप्रत्याख्यानरूपाश्च देशद्रत विघातिनः ॥४६८ ।। प्रत्याख्यानस्वभाषाः स्युः संयमस्य विनाशकाः । वारिषे तु यथास्याते कुर्युः संचलनाः क्षतिम् ||४६९ ॥ पाषाणभूरजीवारि लेखा प्रमत्वाभवन् । कोषो यथाक्रमं गत्येश्वद्यतियंनुनाकिनाम् ||४७० ॥ शिलास्तम्भास्थि साइडम वेत्रवृत्तिद्वितीयकः । अधः पशुतरस्वनं गति संग सिकारणम् ॥४७१ ॥ वेणुमूलं राशृङ्गारः समाः । माया तथैव जायेत चतुर्गतिवितोये ॥ ४७२ ॥ विमिनीला पुलपरिखारागसन्निभः । लोभः कस्य न संजातस्तत्संसारकारणम् ॥१४७३ ॥
कपायों का स्वरूप
इनमें से जो सम्यक्त्व गुण का घात करती हैं, अर्थात् सम्यग्दर्शन को नहीं होने देती, उन्हें अनन्तानुबन्धि कषाय कहते हैं। जो सम्यक्त्व का घात न कर श्रावकों के देश ( एकदेश चारित्र ) को नष्ट करती हैं, वे अप्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। जो कषाय सम्यग्दर्शन व देशव्रत को न घातकर मुनियों के सर्वदेश चारित्र को घातती है, उन्हें प्रत्याख्यानावरण कषाय कहते हैं एवं जो कषाय केवल यथाख्यात चारित्र को नहीं होने देतीं वे संज्वलन कषाय है ।। ४६८-४६९ ।।
शक्ति की अपेक्षा कपायों के मेद
चारों कोप आदि बागानों में
के शक्ति की अपेक्षा से भो चार-चार भेद है। पत्थर की लकीर सरीखा क्रोध, पृथिवी को लकीर-सा क्रोध, धूलिकी लकीर-सा क्रोध और जलकी लकीर-सा क्रोध । इनमें से पत्थर की लकीर सरीखा उत्कृष्ट शक्तिवाला कोष जीव को नरकगति में ले जाता है । पृथिवी की रेखासा क्रोष जीव को तिर्यञ्च गति में ले जाता है। धूलि की रेखा जैसा क्रोध जीव को मनुष्यगति में ले जाता है और जलरेना-सा जघन्य शक्तिवाला क्रोध जीव को देवगति में ले जाता है ।। ४७० ।।
मान कषाय के भी शक्ति की अपेक्षा चार भेद हैं--पत्थर के खम्भे के समान, हड्डी के समान, गोली लकड़ी के समान और वेत के समान जैसे पत्थर का खम्भा कभी नहीं नमता वैसे हो जो मान जीव को कभी विनीत नहीं होने देता, वह उत्कृष्ट शक्तिवाला मान जीव को नरक -गति में जाने का कारण है। हड्डी-जेसा भान जीव को तिर्यच गति में ले जाने का कारण है। थोड़े समय में नमने योग्य गोली लकड़ी - जैसा अनुत्कृष्ट शक्ति वाला मान जीव को मनुष्य गति में उत्पन्न होने का कारण है और जल्दी नमने लायक बेंत सरीखा मान जीव को देवगति में ले जाने का कारण है ।।४१ ॥
इसी तरह वाँस की जड़, बकरी के सींग, गोमूत्र और चामरों जैसी माया क्रमशः चारों गतियों में उत्पन्न कराने में निमित्त होती है । अर्थात्-जैसे बॉस को जड़ में बहुत-सी शाखा प्रशाखाएँ होती हैं वैसे हो प्रचुर छल छिद्रों वाली व उत्कृष्ट शक्ति बाली माया जीव को नरकगति की कारण है। वकरी के सींगों-सरीखी कुटिल मायातिर्यञ्चगति को कारण है और गोमूत्र जैसी कम कुटिल माया मनुष्यगति की कारण है और और चामरों - सरीखी माया देवर्गात की कारण है ।। ४७२ ।।
किरमिच के रंग, नील के रंग, शरोर के मल और हल्दी के रंग सरीखा लोभ शेष कपायों की तरह किस जीव के संसार का कारण नहीं होता ? अर्थात् - किरमिच के रंग-जैसा पक्का तीव्र लोभ नरकगतिरूप
१. दीक्षायाः । २. विनाशं । ३. सदृश । ४. साई काष्ठ ।
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अष्टम आश्वास:
कि च । वया रिक्ता रोगिणोऽपष्यसेविनः । क्रोधनस्य तथा रिताः समाधितसंयमाः ॥४४॥ "मानवावाग्निदग्धेषु मदोषरकषायिषु । नतुमेषु प्ररोहन्ति न सच्यायोचिताङ्कुराः ॥४७५५॥ मावन्मायानिलेशोऽध्यात्माम् कृतास्पदः । न प्रयोषधियं तावद्धले चिताम्बुजाकरः १ ॥ ४७६॥ orateffeतः श्रोतसि दूरतः । गुणा बन्यास्त्यजन्तीह चण्डालसरसीमि ||४७७॥ तस्मान्मनोनितेऽस्मिन्निवं शल्यचतुष्टयम् । प्रतेोद्धर्तुमात्मज्ञः क्षेमाय शमीकेः || ४७८ || स्वर्थेषु विसन्ति स्वभावाविप्रियाणि षट् । सस्वरूपपरिज्ञानात्प्रत्यास सर्वदा ||४७९ ॥
४७७
संसार का कारण है। नील के रंग जैसा लोभ तिर्यञ्चगति का कारण है और शरीर के मल-जैसा लोभ मनुष्यगति का कारण है एवं हल्दी के रंग सरीखा लोभ देवगति का कारण है || ४७३ ||
क्रोध का दुष्परिणाम
जिसप्रकार अपथ्यसेवी रोगी का औषधि सेवन व्यर्थ है उसीप्रकार कोधी मानव के धर्मध्यान, श्रुताभ्यास व संयम निष्फल ( व्यर्थ ) है | ४७४ ॥
मान से हानि
मानरूपी दावानल अग्नि से भस्म हुए और मदरूपी खारी मिट्टी से कपायले रस वाले मनुष्यरूपी वृक्षों से प्रशस्त कान्तिवाले नये अंकुर नहीं ॐगते । अर्थात् जैसे दावानल अग्नि से जले हुए व खारी मिट्टी से' कषायले रसवाले वृक्षों से प्रशस्त कान्तिवाले अंकुर नहीं कँगते वैसे ही घमण्डी व अहङ्कारी मानव से सद्गुण प्रकट नहीं होते ॥ ४७५ ||
माया से हानि
जबतक जीवरूपी जलराशि में माया ( छलकपट ) रूपी रात्रि का लेशमात्र भी निवास रहता है तबतक उसका मनरूपी कमल समूह विकास लक्ष्मी को धारण नहीं करता | ४७६ ॥
लोभ से हानि
जैसे पथिक लोक में गड़ी हुई हड्डियों के चिन्होंवाली चाण्डालों की सरसी ( तलैया ) दूर से छोड़ देते हैं वैसे ही प्रशस्त ज्ञानादि गुण, लोक में लोभरूपी हड्डियों के चिन्होंवाले मानवों के चित्तरूपी झरनों को दूर से छोड़ देते हैं । अर्थात् — लोभी के समस्त गुण नष्ट हो जाते हैं ।। ४७७ ।।
मनुष्य-कर्तव्य
अतः आत्मज्ञानी पुरुष को अपने कल्याण की प्राप्ति के लिए संयमरूपी कीलों द्वारा अपने मनरूपी गृह से इन क्रोध, मान, माया व लोभरूपी चारों शल्यों को निकालने का यत्न करना चाहिए ||४७८॥ छह इन्द्रिया (स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु, श्रोत्र व मन ) स्वभाव से ही अपने-अपने विषयों में प्रवृत्त होती हैं, अतः उन विषयों के स्वरूप को जानकर सदा इन्द्रियों को उनके विषयों से पराङ्मुख करनी चाहिए । अर्थात्
१२. तया चाह सोमदेवसूरिः - दुरभिनिवेशामोधो यथोक्ताग्रहणं वा मानः ।। ५ ।। कुलवलेश्वर्यरूपविद्यादिभिरात्माहंकारकरणं परप्रकर्षनिबन्धनं वा मदः ॥ ६ ॥ नीतिवाक्यामृत हमारी भाषाटोका अरिषड्वर्गसमुद्दा पु० ६१ ॥
२. कमलसमूहः । ४. अस्थि । ५ पथिकाः ।
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४७८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये आपाते सुन्धरारम्भविपाके विरसक्रियः । 'विर्ष विषयIस्ते २ सातः कुशलमात्मनि ॥४८०॥ बुश्चिन्तनं दुरालापं तुर्ष्यापारं च नाचरेत् । व्रती व्रतविशुद्धययं मनोवाकायसंश्रयम् ॥४८॥ अभङ्गानतिचाराम्मा गृहीतेषु तेषु यत् । रम कियते शश्वतद्भवव्रतपालनम् ॥४८२॥ बरामभावना नित्यं नित्यं तत्त्वविचिन्तनम् । नित्यं यत्नच कर्तव्या यमेषु नियमेषु च ॥४८३।।
वृष्टानुवाविस विषय विष्णस्य मनोमशीकारसंशा बराग्यम् । प्रत्यक्षानुमानागमानुभूतपराविषया 'संप्रमोषस्वभावा स्मृतिः तत्त्वविचिन्तनं । वायाम्यन्तरशौचतपस्वाध्यायप्रणिधानानि यमाः। अहिंसासत्यास्तेयषापर्यापरिघहा नियमाः ।
इत्युपासमाध्ययने प्रकीर्णकविषि म पट्चत्वारिंशतमः कल्पः ।
इन्द्रियों को उनके विषयों में फंसने से बचाना चाहिए ॥ ४७९ ।। जब आत्मा ऐसे इन्द्रियों के विषयों से ग्रस्त ( म्याकुल या फंसी हुई ) होती है, तो उस आत्मा को कल्याण की प्राप्ति किस प्रकार हो सकती है ? जो कि विष-सरोखे तत्काल में मनोज प्रतीत होते हैं, अर्थात्-जैसे विष भक्षणकाल में मिष्ट प्रतीत होता है वैसे ही इन्द्रियों के विषय भी तत्काल में मनोज्ञ प्रतीत होते हैं और जो फलकाल में वैसे नीरस क्रियावाले ( दुर्गति के दुःख देनेवाले ) हैं जैसे भधाण किया हुआ विष उत्तरकाल में नोररा ( घातक ) होता है ।। ४८० ॥
व्रती कर्तव्य वतो पुरुष को अपने व्रतों को विशुद्ध रखने के लिये दुष्ट मन के आधार से दूसरे का बुरा चिन्तवन नहीं करना चाहिये । वचन के आधार से असत्य, निन्दा व कलहकारक वचन नहीं बोलना चाहिये और शरीर के आश्रय से बुरी चेष्टा (हिंसा व चोरी-आदि ) नहीं करनी चाहिए ॥ ४८१ ॥
नती द्वारा जो ब्रत ग्रहण किये गये हैं, उनमें न तो अतिचार लगाना चाहिए और न व्रतों को खण्डित करना चाहिए । इसप्रकार से जो बतों की रक्षा को जाता है उसे ही बतों का पालन कहा जाता है ॥४८२|| व्रतो को सदा वैराग्य को भावना करनी चाहिए। सदा तत्वों का चिन्तवन करना चाहिए और यम ( वाह्य व आभ्यन्तर शौच-आदि ) व नियमों ( अहिंसा-आदि ) के पालन में सदा प्रयत्न करना चाहिए ।।४८३।।
वैराग्य-आदि का स्वरूप प्रत्यक्ष से देखे हुए ( राज्यादि वैभव ) व आगम में निरूपण किये हुए ( स्वर्गादि भोगों) को लालसा से रहित हुए साधु या श्रावक का मन को वश करना वैराग्य है। प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम प्रमाण से जाने हुए पदार्थों का ऐसा स्मरण करना तत्वचिन्तन है, जो कि उल्लंघन करने के लिए अशक्य स्वभाववाला है। वाह्य व आभ्यन्तर शौच, तप, स्वाध्याय और ध्यान को यम कहते हैं और अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रहत्याग ये नियम है।
इस प्रकार उपासकाध्ययन में प्रकीर्णकविधि नामका छियालीसवां कल्प समाप्त हुआ। १. विषा विषैरिख । २. प्रास्वादितः भनिनः। ३. दृष्टाः स्त्रममुपसन्धाः। ४. 'अनुश्रये भवमनृपाविक
श्रुतमित्यर्थः' दि. न. प'अनुभविकः आगमः' ५। ५. विधवाः स्वगांधिभिवाः । १. अनुल्लंघनीय स्वमाना।
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भार
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इत्येव गुहिणां धर्मः प्रोक्तः क्षितिपतीश्वर' । यतीनां तु श्रुताज्जेयां सुलोत्तरगुणाः ॥४८४ ॥ इत्थं द्वियधर्मकभावतारं श्रुत्वा सवर्भयुगाचरणप्रचारम् ।
ग्राह धर्म
भवभावसुः । सा देवता स नृपतिः स च परलोकः॥४८५॥
मुनिकुमारयुगलमपि क्रमेण व्यतिक्रान्तबालकालं "सुधाशनमा धिरोहणं 'यतिविरतिवेषभावतानरूपविकल्पतपः प्रासादकलकाधिरोहणमतिचिरं चरित्रमाचयं
अभय रुचिरणापत्सानु स्तत्र मेथी वनरहसि ११ विषाय प्रायमेज्ञानकल्पम् ।
तिपतितो मारवतोऽपि भूपः समभजत तथैव स्वलक्ष्मीविलासम् ॥४८६ ॥ १ द्वयेन समलंकृत चित्तवृत्तिः सा देवतापि गणिनो १४ महमाचरस्य । होपान्तर "नात जिनेन्द्रसद्म "बभ्याचतानुमत कामपरायणाभूत् ||४८७॥
1
इसप्रकार हे मारिदत्त महाराज ! हमने यह गृहस्थ धर्म कहा और सुलगुण व उत्तरगुणोंवाला मुनिध आगम से जानना चाहिए ॥ ४८४ ॥
प्रकरण - इस प्रकार उस चण्डमारी देवी, मारिदत्त महाराज और नगरवासी जनों ने मुदत्ताचार्य से श्रावक व मुनिध विषयक व कथाओं के अवतरण वाले और दोनों शिशुओं ( अभयनि क्षुल्लक व उनकी बहिन अभयमति क्षुल्लिका) के आचरण के प्रचारवाले धर्म को सुनकर अपनी पर्याय व परिणामों के अनुसार योग्य धर्म ग्रहण किया । अर्थात् चण्डमारी देवी ने अपनी देवपर्याय के योग्य सम्यग्दर्शन ग्रहण किया और मारिदत्त राजा व नगरवासी मानवों ने अपनी मनुष्यपर्याय के योग्य सम्यग्दर्शन व श्रावकधर्म ग्रहण किया ॥१४८५ ॥
उस क्षुल्लक जोड़े ने भी क्रम से कुमारकाल व्यतीत करते हुए चिरकालतक ऐसा चारित्र ( मुनिधर्म आयिका धर्मं ) पालन किया, जो कि स्वर्गलोक में स्थापित करनेवाला है और जो मुनिवेष ( दिगम्बरमुद्रा ) आकाष में कहे हुए अनेक भेदोंवाले तपरूपी महल पर कलश स्थापित करनेवाला है ।
अपनी छोटी बहिन ( अभयमति क्षुल्लिका ) सहित अभयरुति क्षुल्लक ने उस चण्डमारी देवी के वन के एकान्त स्थानपर यथाविधि समाधिमरण करके ऐशानकल्प नामका दूसरा स्वर्ग प्राप्त किया और श्री सुदत्ताचार्य से धर्म श्रवण करके श्रावक धर्म धारण करनेवाले मारिदत्त राजा ने भी उसी तरह स्वर्ग-लक्ष्मी का विलास प्राप्त किया ।। ४८६ ॥
सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानरूपी दोनों रत्नों से विभूषित मनोवृत्तिबाली चण्डमारी देवी ने भी श्री सुदत्ताचार्य को पूजा की ओर वह ऐसे जिन चेस्यालयों की वन्दना करने की अनुमति-युक्त इच्छा में तत्पर हुईं, जो कि दूसरे घातकी खण्ड आदि द्वीपों पर व सुनेरुपर्वत पर अथवा ज्योतिषो आदि देव विमानों में स्थित हैं, ॥ ४८७ ॥
१. हे मारदत्तमहाराज ! | २. मुदतनूरैः । ३. श्रावक्ायतिगोचर । ४. जन्मस्वभावदेवता उचितं । ५. भवे सम्यक्त्वं योग्यं मनुजभवं सम्यक्त्वं व्रतं च । ६. धर्म जब्राह । ७. 'स्वर्गलोक' टि० ख० । 'सुधानाः देवाः' पं० । ८. मुनि । ९. आर्या | १०. मगिनीसहितः । ११. एकान्ते । १२. दर्शनज्ञान १३. श्री सुदत्तस्य । १४. महं पूजां कृत्वा । १५. 'ज्योतिरादिविमानस्थितचैत्यालय' | 'पर्वतस्थिति' टि० ख० च० 'धुनगो मेदः' पं० । १६. वन्दारोभविः ।
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यशस्तिलकचम्यूकाव्य ध्यान सिद्धिगिरी विधाय ह मुनिः सम्यकसत्तालयः कल्पे लान्तवनान्यजायत सुरः सर्वामरामणीः । अन्ये ये च यशोमतिप्रभूतमस्तेऽपि प्रपलप्तवला: संजातास्त्रिवशेश्वराः सुतिभिः संकोत्य॑मानबियः ॥४८८॥ जयतु जगदानन्दस्यन्दी जिनोक्तिमुधारसस्तवनु जयताकामारामः४ सतो फलसंगमः। जयतु "कवितावेवी शाश्वततश्च यदाश्रया"वृत्तिमतिरियं सुते सूक्तं जगत्त्रयभूपणम् ॥४८९।। “अभिधानमिषानेऽस्मिन्यस्तिसकनानि । यशोधरमहाराजचरिते स्तान्मतिः सताम् ।।४९०।। एतामष्टसहस्रीमजस्त्रमनुपूर्वशः कृती यिमशन् । 'कविता'"रहस्यमुद्रामवाप्नुपावासमुद्रगं च यशः ॥४९१।। धीमानस्ति स देषसङ्कतिलको वेषो यशःपूर्वक:7 शिष्यस्तस्य बभूव सगुणनिषिः श्रीनेमिदेवाशयः । तस्याश्चतपःस्थितेस्निनवतेजेंसुमहावाविना शिष्योऽभूविह सोमदेव पतिपस्तस्पेष काम्यक्रमः १४९२। विद्याविनोमवनयासिसहYE LL सिससिपिरकेन' 1 श्रीसोमवेवरचितस्य यशोधरस्य सल्लोकमान्यगुणरलमहोवरस्य ॥४९३।।
श्री सुदनाचार्य ने सिद्धिगिरि (सिद्धवर कूट) पर भलीभांति धर्मध्यान किया, जिससे वे लान्तव नाम के सातवे स्वर्ग में समस्त देवों के नेता देव हुए। सुदत्ताचार्य से बतधारण करनेवाले दूसरे यशोमति कुमार-आदि, पुण्यवानों द्वारा कीर्तन की जाने वाली लक्ष्मीशाली देवेन्द्र हुए ।। ४८८ ।।
ग्रन्थकार की कामना तोन लोक के लिए यथार्थ सुख का क्षरण करनेवाला जिनागमरूपी अमृतरस जयवन्त हो। इसके बाद सज्जनों का मनोरयरूपी बन अपनी फल-प्राप्ति के साथ जयवन्त हो । पश्चात् सरस्वतो देवो अथवा कवित्व शक्ति सदा जयवन्त हो, जिसके बाश्रय में यह कवि की बुद्धि ( श्रीमत्सोमदेवसूरि को प्रतिभा ) ऐसे सुभाषित रस ( यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य रूपी अमृत ) का प्रसव ( उत्पत्ति ) करती है, जो कि तीन लोक का आभूषण है ॥ ४८५ ॥
सुभापितों को निधिवाले इस 'यशस्तिलयाचम्पू' नामके महाकाव्य में, जिसका दूसरा नाम 'यशोधरमहाराज चरित' भी है, सज्जनों की बुद्धि प्रवृत्त हो । ४९० ।।
अष्टसहस्री नामवाले ( आठ हजार दलोक परिमाणवाले ) इस यशस्तिलक महाकाव्य को निरन्तर माचार्यपरम्परा का अनुसरण करके विचार करनेवाला विद्वान कवितारूपी स्त्रो का भोग प्राप्त करता है अथवा कविता के मूलतत्व का विश्वास प्राप्त करता है और अपनों कीर्ति को समुद्र पर्यन्स विस्तारित करता है ।।४९१।।
ग्रन्थ कर्ता की प्रशस्ति देवसंघ के आभूषण श्रीमान् 'यशोदेव' नाम के आचार्य थे, उनके शिष्य प्रशस्त सम्यग्ज्ञानादि गुणों की निधि श्रीनेमिदेव नामके आचार्य थे। आश्चर्यकारिणी तप की मर्यादापाल और तेरानवे वार महावादियों पर विजयश्री प्राप्त करनेवाले उस नेमिदेव आचार्य के शिष्य, श्रीमत् सोमदेवसूरि द्वारा, जो कि गङ्गधारा नगरी में हुए है, रचा हुआ यह 'यशस्तिलकचम्पू महाकाव्य है ।। ४९२ ॥ १. रे बाणाम्मितीरे पच्छिमभावम्मि सिद्धवरकटे। दो पक्की दहकप्पे आहूडकोडिनि बुदं बंदे ॥ २. समधितव्रताः :
३. प्रवणः सरन्। ४. अभिलापवनं । ५. सरस्वती कवित्वशाक्तिर्वा । ६. कविता। ७. कर्मतिः । ८. सुभाषितं । *. विचारयन् । ९. कविता एवं स्त्रो। १०. भोग। ११. यशोदेवः । १२. ९३ । १३. चितवीरेग 1 १४. नाम्ना लेखकोन ।
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अष्टम आश्वासः
अपि । यस्याक्षराबसिरमौरविलोपामिराकाष्यते मनशासनलेवनेषु ।
तस्मै 'बिक्रियु न यच्छति रछुकाय को नाम लेखातामणिनामधेयम् ॥४९४५
धाकनमकालातीतसंवरसरशतेष्वष्टस्वकाशोत्मषिकेषु गते ( अद्भुतः ८८१) सिद्धार्थसं यस्सरान्तर्गतचंत्रमासमरनत्रयोदश्यां पापडय-सिंहल-चोल-बेरमप्रमातोन्महीपतीन्प्रसाथ्य मल्याटोप्रवर्षमानराज्यप्रभाधे श्रीकृष्ण राजवे सति तपादपनोपजीविनः समधिगतपञ्चमहाशवमहासामन्ताधिपतेश्धालुक्यफुलजन्मतः सामन्तचूरामणेः श्रीमदरिकेसरिणः प्रथमपुत्रस्य श्रीमद्वागराजस्य लक्ष्मीप्रवर्षमान सुधाराया" गङ्गाधारायां विनिर्मापिसमिव काध्यमिति ।
सकसलाकिलोकचूडामणेः बीमन्नेमिदेवभगवतः शिष्येण सोनवद्यगचपर्यावद्याधरचकच्चायतिशिक्षणभण्डमीभवस्वरणकमलेन भोसोमदेवमूरिणा विरचिते यशोधरमहाराजचरिते यशस्तिलकापरनाम्नि महाकाव्ये धर्मामृतवर्षमहोत्सवो नामाष्टम बाश्वासः ।
[अब लेखक का परिचय देते हैं-] श्रीमत्सोमदेवसूरि द्वारा रचे गए और सज्जन-समह द्वारा प्रशंसनीय गुणरूपी रत्नों की उत्पत्ति के लिए पर्बत-सरीखे 'यशोधरमहाराजचरित' की सुन्दर लिपिवाली पुस्तक (शास्त्र ) ऐसे 'रच्छुक' नामके लेखक द्वारा लिखी गई है, जिसका हृदय का नोना विदा भी लीलारूपी जन टु पत है ।। ४९३ ॥
उस लेखक की विशेषता यह है
जिसकी अक्षर-पक्ति चञ्चल नेत्रोंवाली कमनीय कामिनियों द्वारा कामदेव के शामन लिखने में आकांक्षा की जाती है, ऐसे उस रच्छुक' नाम के लेखक के लिए विद्वानों के मध्य में कौन सा बिद्वान् 'समस्त लेखक-शिरोमणि' नामको पदवी प्रदान नहीं करता ? ॥ ४९४ ॥
ग्रन्थकर्ता का समय व स्थान शक संवत् ८८१ ( विक्रम संवत् १०१६ ) की सिद्धार्थसंवत्मर ( वीरसंवत् ) के अन्तर्गत चैत्रमास को मदनत्रयोदशी ( शुक्लपक्ष की त्रयोदशो ) में, जब [ राष्ट्रकूट या राठौर वंश के महाराजा | श्री कृष्णराजदेव (तृतीय कृष्ण ) पाण्डय, सिंहल, चोल व घेरम वगैरह राजाओं पर विजयश्री प्राप्त करके अपना राज्यप्रभाव ( सैनिकशक्ति ) मल्याटी ( मेलपाटी) नामक सेना शिविर में वृद्धिंगत कर रहे थे, तब उनके चरणकमलों का आश्रय करनेवाला चालुक्यवंशज ऐसा अरिकेसरि नामक सामन्त राजा था, जो कि सामन्तराजाओं में चूड़ामणि-सा श्रेष्ठ है और जो पंचमहाशब्दों ? का निश्चय करनेवाले महासामन्तों का अधिपति है, उसके चागराज ( वद्दिग ) नाम के ज्येष्ठ पुत्र को राजधानी गंगाधारा नाम की नगरी में, जिसमें लक्ष्मी फो कृपा से द्रव्य-प्रवाह वृद्धिमत हो रहा है, यह यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य रचा गया।
इसप्रकार समस्त दार्शनिक विद्वत्समूह में चूड़ामणि-सरीने सर्वश्रेष्ठ श्रीमत्पूज्य नेमिदेव आचार्य के शिष्य ऐसे श्रोमसोमदेवसूरि द्वारा, जिनके चरणकमल तत्कालीन निर्दोष गद्य-पद्य काव्यों के रचयिता विद्वत्समूह के चक्रवर्तियों के मस्तक पर अलङ्कार रूप से शोभायमान हैं, रचे हुए 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य में, जिसका दूसरा नाम 'यशोधरमहाराजचरित है, धर्मामृतवर्षमहोत्सव नाम का यह आठवा आश्वास पूर्ण हुआ।
१. स्वीभिः । २. विवेकिषु मध्ये । ३. द्रव्य । ४. नाम नगर्याम् ।
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४८२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये वर्षः पवं वाक्यविधिः समासो लिङ्ग क्रिया कारकमन्यतन्त्रम् ।
छन्यो रसो रीतिरक्रियार्क लोकस्थितिश्चात्र चतुबंश स्पुः ॥४९५11 इस महाकाव्य में निम्न प्रकार चौदह वस्तुएँ पाई जाती हैं, वर्ण, पद, वाक्य ( पद-समूह ), समास, लिङ्ग, क्रिया, कारक ( क्रिया से अन्वय रखने वाला ), अन्य तन्त्र ( अन्य शास्त्रों के सिद्धान्त ), छन्द ( अनुष्टुप्-आदि ), रस ( शृङ्गार-आदि ), रीति, अलङ्कार, अर्थ ( वाच्यार्थ) और लोकव्यवहार पटुता (नीतिशास्त्र ) ॥४९५|| इसप्रकार दार्शनिक-चूडामणि श्रीमदम्बादास शास्त्री, श्रीमत्पूज्य आध्यात्मिक सन्त श्री १०५ भुल्लक गणेशप्रसाद वर्णी न्यायाचार्य एवं वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय के भूतपूर्व साहित्यविभाग के अध्यक्ष, 'न्यायाचार्य' 'साहित्याचार्य' व कवि-चक्रवर्ती श्रीमत्मुकुन्दशास्त्री खिस्ते के प्रधानशिष्य, 'नोत्तिवाक्यामृत' के अनुसन्धानपूर्वक भाषाटीकाकार, सम्पादक व प्रकाशक, जेनन्यायतीर्थ, प्नाचीनन्यायतीर्थ, काव्यतीर्थ, आयुर्वेदविशारद एवं महोपदेशक-आदि अनेक उपाधि-विभूपित्त, सागर निवासी व परवार जैन जातीय श्रीमत्सुन्दरलाल शास्त्री द्वारा रची हुई श्रीमत्सोमदेव सूरि के 'यशस्तिलकचम्पू' महाकाव्य की 'यशस्तिलक दीपिका' नामकी भाषाटीका में 'धर्मामृतवर्ष महोत्सव नामका अष्टम आश्वास समाप्त हुआ।
इति भद्रं भूयात्--
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अन्त्य मङ्गल व आत्म-परिचय
जो है सत्यमार्ग का नेता, अरु रागादि-विजेता है ।
जिसकी पूर्णज्ञान- रश्मि से, जग प्रतिभासित होता है ।। जिसको चरणकमळ-सेपा से, यह अनुवाद राय है।
ऐसे 'ऋषभदेव' को हमने, शव-शव शोश नवाया है ॥१॥
बोहा
सागर नगर मनोज्ञतम, धर्म धान्य आगार । वर्णाश्रम- आचार का शुभ्ररूप साकार ||२|| जैनी जन, बहु बसें, दयाधर्मं निजधार । पूज्यचरण वर्णी लसें, जिनसे हों भवपार ॥३॥ जैन जाति परवार में, जनक 'कन्हैयालाल' । जननी 'हीरादेवि थीं, कान्तरूप गुणमाल ॥४॥ पुत्र पाँच उनसे भये, पहले 'पन्नालाल' । दूजे 'कुंजीलाल' अरु, वीजे 'छोटेलाल' ||५|| चौथे 'सुन्दरलाल' बा, पंचम 'भगवतळाल' । प्रायः सब ही बन्धुजन, रहें मुदित खुशहाल ||६|| वर्तमान में बन्धु दो, विलसत है अमलान । बड़े 'छोटेलाल' वा 'सुन्दरलाल' सुजान ॥ भाई 'छोटेलाल' तो करें वणिज व्यापार | जिनसे रहती है सदा, कमला मुदित अपार ||८|| बाल्यकाल के मम रुचि, प्रकटी विद्या हेत । तातें हम काशी गये, ललित कला संकेत ||२९||
चौपाई
द्वादश वर्ष साधना करी । गुरु-पदपङ्कज में चित दई ॥
उन्नति की गड़ी ||१०||
"मातृसंस्था' में शिक्षा व्ही । गैल सदा व्याकरण, काव्य, कोश, अतिमाना । तर्क, धर्म अरु नीति वखाना ॥ Rate दि का परधाना । नानाविध सिख भयो सुनाना ||११ ॥
वोहा
कलकत्ता कालेज की, तीथं उपाधि महान । जो हमने उत्तीर्ण की, तिनका करूँ बखान ॥ १२॥
श्रीपाई
पहली 'न्याय तीर्थ' कूं जानो । दूजी 'प्राचीनग्याय प्रमानों ॥
तीजी 'काव्यतीर्थ' को मानों । जिसमें साहित्य सकल समानों || १३||
१. श्री स्याद्वाद जैन महाविद्यालय वाराणसी का स्नातक-सम्पादक । २. वक्तृत्वकला । ३. विश्वान् ४. भारतीय षड्दर्शनशास्त्र ।
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४८४
गुरुजन मेरे विद्यासागर । ललितकला के सरस सुधाकर ।। पहले शास्त्री 'अम्बावत' । जो थे दर्शनशास्त्र महत ॥१४॥ दूजे श्रीमद्गुरु 'गणेश' थे, न्यायाचार्य अरु तीर्थ-समान । वर्णी बापू थे अति दार्शनिक, सौम्यप्रकृति वा सन्त महान ।।१५।।
दोहा सरस्वती मेरी प्रिया, उनसे हुई सन्तान । एक पुत्र पुत्री-उभय, जो हैं बहु गुणखान ||१६|| पत्नी मम दुर्दैव ने, सद्यः लोनी छीन है वंशवेलि बढ़ावने, सुत 'मनहर 'परवीन ||१५|| मेरी शिष्य परम्परा, भी है अति विद्वान । जिसका अति संक्षेप से. अब हम करें बखान ।।१८।। पहले 'महेन्द्रकुमार' हैं, दूजे 'पवनकुमार' । 'मनरजन तीजे लसे, चौथे 'कनककुमार' ॥१९॥
चौपाई वि० संवत् बीस सै अठ वीस. ज्येष्ठ शुक्ल तेरस दिन ईश। पूर्ण नका. साहु, सुमस्या का नाम फल हुआ |२०||
दोहा अल्पवुद्धि परमादल, भूलचूक जो होय | सुबी सुधार पड़ी सदा, जाते सम्मान होय ॥२१॥
सुन्दरलाल शास्त्री
प्राचीनन्याय-काव्यतीर्थ-सम्पादक
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[ अ ]
अप्रार्थितोऽपि जायत
अधाश्या कोऽपि न वर्तसे ते
अहोरात्रं यथा हेतुः
अवक्षेपेण हि सता
अस्मादृशां स धर्मः
अस्ति भक्तिस्तत्र देवतेषु अन्सने विज्ञाय मुषानुरागिता
अज्ञानभावादथ चापलाहा
अज्ञानभावादथवा प्रभावा
अन्येऽपि में स्त्रीरतचित्ता अन्यत्र कुरुते जन्तु - अहं पिता पूर्वभवेऽस्य राज्ञः अलिकुलमिदं लूतासन्तु — अहो दिवेकशून्याना - अकर्ता निर्गुणः शुद्धो अनुभचत पिवत खादत
अन्यथा लोकपाण्डित्यं
अग्निवत्सर्वभक्षोप
अम्रमाधिकरी बास् अकर्तापि पुमान् भोक्तर अदुष्टविग्रहाच्छान्ताअशो जन्तुरनीशीय-अनं रामनाथ म ऊर्ध्वं वा प्राणी
अहं प्रजानां मम देवतय
४०
अरालकालव्यालेन
४९
अज्ञातपरमार्थाना -
५३
अव्यक्तनरयोनित्यं
५६ अनेकजन्मसंतते-
५८
अत्मोप्यामात्पुंसि
६० अजस्तिलोत्तमाचितः
६०
अदृष्टविग्रहाच्छान्ताच्
६०
६९
अथायमाप्तः पर एव न स्था-असंशयं हेतुविशेषभावा
७०
अङ्गारद्धि न जात - ७० भोषमेतद्वाभिि
७०
अमज्जनमनाचामो
अनुनयत वदत मधुरं
८२ अर्दन्यासङ्गवैराग्य
अन्त: पूरे भूमिपतिर्मदान्ध:
८८
परिशिष्ट १
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
८९
२४
अश्मा हेम जलं मुक्ता
अनयक दिशा चिन्त्यं
अन्योन्यानुप्रवेशेन ਕਾਲਜ ਇਕ
१५७
१५८
१५९
१६०
१७०
१७३
अदेवे देवताबुद्धि-~अमेको न मे कश्चि-
अपुत्रस्य गतिर्नास्ति
धौर विधिवद्वेदात् अन्तस्तस्वविहीनस्य अन्तर्दुरन्तसंचारं
अभिमानस्य रक्षार्थ
११७
१२४
१२७
१५२
१५२
अशतस्थापन
१५५ १५४
अलकखलपरम्यं भ्रूलतानर्तकान्तं
अन्तःसारवारीरेषु
१५४ अलकवल्यावर्त भ्रान्ता
अमिषित संपत्तिः
अद्वैतान्न परं तवं
अबुद्धिपूर्षापेक्षाया
अक्षाज्ज्ञानं चिर्मीलाद्
अधर्मकर्मनिर्मुक्ति
अल्पात् क्लेशात् सुतं सुष्टु
१७७
१७७
१८७
अतिप्रसङ्गहानाय १८९ अहिंसावतरक्षार्थ
१९२ अमिश्र मिश्रमुत्सगि
१९७ बघ्नन्नपि भवत्पापी १९८
अदत्तस्य परस्त्रस्य
२०१
अत्युक्तिमन्यदोपोषित
२०२
असत्यं सत्यगं विचित् अल्पेरपि समर्थः स्यात्
२०३
अस्थाने बद्धकक्षा
२.६
१०७
अनङ्गामली के
२०९
अनवरत जलार्द्रा
अन्तर्गत स
२१०
२११ अत्यर्थमर्थकाङ्क्षायाम्
अनदण्डनिर्मोक्षाद्
२१२
२१८
२१८
२१९
२३४
२३९
अश्वरथोकुवर लक्ष
अणुव्रतानि पञ्चव
૧૪૬
२५३
२६२
२६७
अन्तः शुद्धि वहिः शुद्धि
अद्भिः शुद्धि निराकुर्वन्
अर्हन्नतनुर्मध्ये अपास्तैकान्तवादीन्द्रान्
अष्टाङ्गं भुवनत्रयाचितनिदं—
अत्यल्पायतिरक्षा मतिरियं
अमृत कृत कणिकेऽस्मिन्
अवमत हगनदहनं
बर्हन्तममिलनोवि
२७० अनुपम केवल पुषं
२७३ अम्भश्चन्दनत दुलोद्गमविर
२८३ अद्वैतं तस्वं वदति कोऽपि २८८ अमरतरुणीनेत्रानन्दे महोत् २९१ अनन्वगुणसन्निधौ
२९८ मङ्गुष्टे मोक्षार्थी
२११
३०६
३०७
३०७
३०७
३०९
३२५
३३४
३२५
३३९.
૪૭
૬
३६२
२६८
३६८
३७५
३७६
३७७
३८०
३८३
३८७
३८८
४००
४०२
Ya
४०३
४०३
४१०
४१२
४१२
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४८६
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
४२९
४५०
४७१
अत्रामुत्र च नियत अभिलपितकामधनौ अलाभः मनिवास्थर्यम् अरहस्ये यथा लोके बही मिथ्यातमः पुंसां अकृनिमो विचित्रात्मा अनुयार्चत नायूंषि अताबकगुणं सर्व अनुपायानिलोद्धान्त अनीत्य सर्वशास्त्राणि अपवित्रः पवित्रो वा अत्यन्तं मलिनो देहः अनपेक्षाप्रतिलेखन अभयाहारभैषज्य अभयं सर्वसत्वानाम् अभक्तानां कदर्याणां मज्ञाततत्त्वचेतीमिर अहंदूपे नमोऽस्तु स्याद् अनुबीचीवचो माध्य अतद्गुणेषु भावेषु अभिमानस्य रक्षार्थ अङ्गपूर्वप्रकीर्णाक्त अस्त्रधारणवद् वाह्ये अध्यधिव्रतमारोह अद्रोहः सवरा त्वेष अध्यात्माग्नौ दयामन्त्रः अहिसः सद्भती शानी अनुमान्या समुद्दे क्या अनानं क्रमेण हेर्म अदुनत्वं विनया विषकाः असूयकार्य माठताऽविचारो अनुयामगुणस्थान अधोमव्योग्रलोकेषु अनिहितवीर्यस्य अन्तबंहिमलप्लोषाद अभङ्गानतियाराम्यां
४१५ अभयाचिरवापस
४७९ आधिव्याधिविपर्यास ४१५ अभिथाननिघानेऽस्मिन ४८. आत्मशः संचितं दोपं [
आशास्महें तदेतेषा आपरमानं प्रतस्नान
आत्माय वोघिसंपत्ते४२६ आतङ्कशौकामयकेतनस्प
६५ आदी मध्वमधूप्रान्त ४२६ आत्मानं सततं रक्षेद
८४ आहुस्तस्मात्परं ब्रह्म ४२९ आकन्पं परिपूर्णकामिलफला:- १४ आत्मनः प्रेमरोऽन्येपां ४३१ आत्मनि सति परसंज्ञा
१५५ आत्मविसपरित्यागात ४३२ भास्ता तवान्यदपि तावदतल्यकक्ष १६. आवेशिकाथितजाति
४५१ ४३४ आसीच्चन्द्रमतिर्यशोधरनुपर
आगामिगुणयोग्मोऽर्थों ४३४ आनन्दी ज्ञानमैश्वर्य
१९४ आतिथ्यं स्वयं यत्र ४३७ आमागमपदापनिां
आत्माशुद्धिकरै यस्य ४ मानास्थितिका
आराध्य रलयमित्यमों ४४६ आत्मलाभ विदर्मो
२०७ आचार्योपासनं श्रद्धा ४४७ आप्तागमपार्थाना२०७ आदितः पञ्च तिर्यक्षु
४१४ ४४९ आप्तागमाविशुद्धत्वे २३५ मापाने सुन्दरारम्भर
४७८ ४५२ आत्मनि मोक्ष ज्ञाने ४५४ आधिव्याधिनिरुद्धस्म
२७० इयं हि साधज्जननी मदीया ४५४ आसन्नमव्यताकर्म
२८२ इहव वात्स्यायनगोत्रजस्म ४५५ आप्ते श्रुते ते तत्त्वे
२८४ इच्छन्गृहस्यात्मन एवं शान्ति ४५७ आज्ञामार्गसमुष्टुभव २८५ इयता अन्धेन मया
१७८ ४५८ आत्मा कर्ता स्वपर्याय २८८ इत्थं शङ्कितचित्तस्य
२१२ ४५९ आसनं शयनं मार्ग३०६ इत्थं प्रयतमानस्य
३०८ ४६१ आश्रितेषु च सर्वेषु
३०७ इत्थं येन समुन कन्दरसरः४६५ आत्मदेशापरिस्पन्दो
३११ इति तदमृतनाथ स्मरबार-- ४१२ ४६५ आप्रवृनिवृत्तिम ३१२ इममेव मन्त्रमन्ते
४१४ ४६६ आयुष्मान् सुभमः श्रीमान् ३१२ इत्थं मनो मनसि वाद्यमवाद्यवृत्ति ४१५ ४६६ आत्मभाजितमपि द्रव्यं ३२५ इति चिन्तयतो घय
४२७ ४६९ आशादेशप्रमाणस्य
३७४ इत्य्यं नियतवृत्तिः स्याद ४०० आदी सामायिक कर्म ६७६ इत्येष गृहिणां धर्मः ४७० आप्तसेचोपदेशः स्पाल ३७६ इत्थं मुद्वितयधर्मकथावतारं । ४७९ ४७२ आप्तस्यासन्निधानेऽपि
[ई] ४७३ आपलतः संपलुलस्वान्तः ३७७ ईशानशीपोषितविभ्रमाणि १२१ ४७४ आयुः प्रजासु परमं भवतात् सदैव ३९८ ईत मुक्तिः यदेवान ४७४ आलस्याबपुषो हषीकहरण- ४०४ ४७८ आदिल्यासुः परं ज्योनि- ४१५ उरसि नक्षतपंक्ति
१८५
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२१२
१८३
~ M o .ornar
३०९ कपाया
२११
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः
४८७ उमाः पाना सदृशं प्रसन्ते ६० एक एव हि भूतात्मा १९४ करिमकरमुखोद्गीर्ण
१२० उमापतिः स्कन्दपिता त्रिशूली ६८ एकः खेऽनेकधान्यत्र १९४ कुळकपा मग्नसनी मयि स्या- १२.१ उद्गतमकरन्दरजः १२० एभिर्दोपविनिर्मुषतः १२७ कि पुण्यपुजनिकर स्त्रिजगज्जनाना १४९ उद्दष्टीनापहजडिम्भमाकुलभवन- १२३ एकान्तः शपथवनव
१९९ कार्य क्षुत्प्रभवं कदनमगनं- १५२ उल्लोलकल्लोलकरप्रचारात १२९ एकान्त संशयाजानं
२०७ कर्ता न ताबदिह कोऽपि धिर्यच्या या९६१ उधत्य शास्त्रजलनितले निमग्नः १७८ एबमालोच्य लोकस्म
२०१ कायाकारेषु भूते उच्चावचप्रसूतीनां १२७ एकान्तरं त्रिरात्र वा
२१०
कुतश्चित्पित्तनाशेऽपि उपाये सस्युप्रेयस्य २०२ एतत्तत्त्वमिदं तस्व
कामधेनुरस्खिलोल्स वसम उत्पत्ति स्थितिसंहार
२०५ एप एवं भवेद्देवरउररीकृतनिहि
का किराया २२२ एफापि समथैर्य
फपी दोपवानेष
१९८ उदश्वितेव माणिक्यं
२२६ एकस्मिन् वासरे मद्यउचिते स्थानके ग्रस्य
२०८
कपायाः क्रोषभानाधा२२६ एकस्मिन् मनसः कोणे उद्भिन्ने स्तनकुमले स्कूटरमे- २२७ एका जीवदमकत्र
३१२ क्लेदायव क्रियामी' उपगृहस्थितीकारी
२४६ एपेन्दियद्रुमसमुल्लसनाम्बुवृष्टिः ३५७ को देवः किमिदं ज्ञानं २३५ उपेक्षायां तु जायेत २४२ एतविधि धर्माय ३७८ कादम्बताध्यगोसिंह
२४५ उद्घान्ताभकगर्भेऽस्मिन् २९९ एलालवडकडोल ३९८ कर्णावतंसमुखमण्डनकपठभूषा
२५३ उपकाराय सर्वस्य ३०५ एकस्तम्भ नवढार
४३८ कर्ममा क्षयत: शान्तः २८४ उदङमुखः स्वयं तिष्ठत् ३९५ एक पदं बहुपदापि ददाखि तष्टा ४४१ लेशाय कारणं कर्म २८८ उक्तं लोकोसरं ध्यान ४३४ एतामष्टसहस्रीम्-
४८०
कर्माकल्पमपि प्राणी २९८ उच्छिष्टं नीचलोकार्ह
[] कुर्वन्नप्रतिभिः सार्व
३०० उच्चावचजनप्रायः
५ ऐश्वमेकं तिमिरं मराणा- ७३ कषायोदयशीवात्मा उत्तरोत्तरभावन
ऐश्वर्यमप्रतिहतं सहजो विरागर-१५९ कायेन मनसा वाचा उत्तमं सात्विकं दानं
ऐदंपर्यमतो मुफ्त्वा
३५५ शस्यचित्संनिविष्टस्य उपवासादिभिरके
४८ ऐड्वोधार्यशौण्डीर्य
३५६ कियान्पत्र क्रमेण स्थात []
[औ]
केवलि तसर्थेषु-- अधिोगतिहेतु--
औषिलायाः महादेव्याः २७० कुण्जे पष्टिरशोति: स्पाद ३३९ औषध्वः पशवो वृक्षार- ३५२ कृतप्रमाणाल्लोभेन
३६८ ऋचः प्तामान्यथर्वाणि
६३ [क]
कपिलो यदि बाञ्छति चित्तिमचिति ४०७ [ए] को नाम न जगति जनः ४७ कुर्यात्करयोन्यास
४१४ एतदेव द्वयं तस्मात
३३ कृत्वा मिषं देवमयं हि लोको ५५ कल्पेरप्यम्बुधिः शममर--
५० को भगवन्निह षों एण्वर्येषु पान हिंसन्
४२३
१७ काश्यपि यदीमानि एतदेवार्थशास्त्रस्य ८७ किं दनिमिदमाह
५८ कुर्यात्तपो जगेमन्त्रान् एकैकमेणां गुणमाफलम्य
८५ क्रीत्वा स्त्रयं वा झुस्पाद्य ६६ कलधौलकमलमौकिवा-- एकान्तमालोक्य विकीर्य केशान् १४ कालश्च सफदम्यति
८७ काले काली चले पित्ते
४५२ एषोऽहं मम फर्म शर्म हरते- १४२ कुर्वन्भूपतिमन्दि रेषु करिणा- ९१ कारुण्यादपवौचित्यात् ४४२
३०९
३३५
४३४
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________________
२४०
२८८
३९८
४८८
यशस्तिलकचम्पकाव्ये कामः क्रोधी मदो माया
[च]
जले तेलमितिा कात्मिनोविका यः ४६४ चपि लाक्षारागः
२० जिने जिनागमें सूरी
२७१ कान्तिकेशपाया
४६८ चत्वार एते सहनाः समुन्द्रा ६४ जीवन्तु वा नियन्तां वा कवलीघातयदायुषि ४६९ पलकलहंस बालक
१२० जीवयोगाविशेषण कषायेंन्द्रियदण्डानां ४७४ चिलीचिमनिरीक्षणा
१२१ जातयोनादयः सर्वार--- ३७८ किमिनीलीवपुर्लेप ४७६ चित्तं स्वभावमृदु कोमलमेतदङ्ग- १७४ जिनसिद्धमूरिदेशका
३८७ चित्त बिन्तामणिर्यस्य
२२६ जन्मस्नेहच्छिदपि जगतःखसुसादीपनिर्वाणे
४३१ बिबालेखनवागंभिर्मनमिज- २५४ जय निखिलनिलिम्पालापकरम्प चयपत्यालयनिस्
२५७ जय लक्ष्मीकरकमलास्प्तिान पलिने नितम्वदेशात
२० बातुर्वर्ण्यस्य संझस्य २७१ जगन्नेत्र पात्र निखिलविषयगुणग्नामविलोपेषु
३२ चक्रिीः संप्रयोत्फण्टा २८७ ज्योतिबिन्दुः कला नादः ४२० गत्पतरं जन्मकृतां पितृणां ६१ चण्डोवन्ति मातनः ३०५ जन्तोरनन्तसंसार
४२५ गुणाः कुतस्तस्य भवन्ति गम्याः ६९ चित्तं द्वयोः पुरत एवं निवंदनीयं ३६० ज्वलनशनमाघत्त
४२५ गतः स कालः खलु यष पुषः ७१ चेतनाचेतनासलाद ३६७ जाने तत्त्वं ययतिज्ञ
४२८ गोब्राह्मणस्त्रामुनि देवतानां २ चित्तस्य वित्तचिन्तायो ३६८ जन्मयौवनसंयोग गनिष्ठिरस्यापि मया पुरस्तात् ९० चित्ते रिसे विशति करणे- ३९४ जगतां कौमुदीचन्द्रं
४३२ गन्धर्वा सर्वपनिकनिनदनदत- १२८ नितं न विचारकमक्षजनितम् ४०९ ज्योतिरेक पर बंध: गुरूपासनमभ्यामो १६५ चित्तस्यैकाग्रता घ्यानं
४१६ जीवः शिवः शिवो जीव: ४३७ गभिणीनां मनख्नेदात
१६८ चित्तेजन्तप्रभावेऽस्मिन ४१८ ज्योतिर्मन्त्रनिमिसशः ग्रहगोत्रगतोऽप्येष
२०० चश्नुपरं करणकन्दरदूरितेऽर्थे ४२ जिल्वेन्द्रिपाणि सर्वाणि गहिना समवृतस्य
२०४ चिन्तामणित्रिदिवधेनुसुद्धमाधाः ४४२ जातिर्जरा मृतिः पुंसां गतिस्थिरमप्रतीपात
२०६ [छ ]
जीवितमरणाशंस गोपृष्ठान्तनमस्कार - छत्रं दधामि किमु घामरमुरिक्षपामि ३९. जातिपूजाकुलजान
४७१ गृहस्थों वा यति पि २८६
जीवाजीदपरिझान गृहकार्याणि सर्वाणि ३०६
जीवस्थानगुणस्थान प्रामस्वामिस्वकार्मेषु ३१. जरैव धन्या वनिताजनानां
जयतु जगदानन्दस्पन्दी
___४.० गोरवे सुरभि हत्याद् ३५२ जीवः को यत्रते
[ गुणैः सुरभिवात्मानजन्मकमात्माधिगमो द्वितीयं
] ४३१ जन्मकमात्मा गुल्फोतानकराङ्गुठ
४४. जातिजरामृत्युरथामयाद्या ७४ तहचानस्विषि जातकस्मषमपि प्रामान्तरात्मभानीत ४४८ जलदेवीकरयन्त्र
१२० त्वं मन्दिरद्रविणदारतनूवाहा --- ४७ गृहस्थो वा यति पि
४५३ असान्मुक्तानल: काचाच- १६४ सजाने के उपाय: ग्राम्यम बहिश्चान्तर ४६४ जलादिपु तिमीभूता---
१६४ तैरेव गर्भवासे गहनं न शरीरम्य हि
४६७ जनागमोचितमपास्य तपश्चिराप १७२ तिलसर्पपमा यो ग्रही यतः स्वसिद्धान्त ४७३ जैमिन्यादेर्नरत्वेऽपि
१९३ तथा मांसं घचाण्डाल [ ]
ज्वालोरबूकबोजाः १९४ तत्रोपदेशः खलु किं न कुर्याधृष्यमाणो यथाङ्गारः १५३ जनमेकं मतं मुफ्त्वा २०३ तदस्य दुःस्वप्नविधेः शमा
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________________
४८९
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१२१ १३२ १५३
१५३
१८६
श्लोकानामकाराद्यनुक्रमः [त] सुरोयं वर्जयेन्नित्यं
३३६ दोषस्त्वगीयां पुनरंक एवं तिलौयिनि७३ तथा कुर्वन् प्रजायेत
३३६ देवाभिकार्यनवाईनानि तथाप्यमीभिः कुदालोपदेश-- ९. तामहधिर
३३६ दपेन मार्गेण जगत्प्रवृत्तं तदेतदित्यं मम दुनयन ९० तत्वेषु प्रणयः परोस्य मनस:- ३८७ दाहच्छेदकपाशुद्धे तया सुतेन स्नुषमा च मात्रा ९४ ते खुर्वन्तु तपांसि दुर्धरधियो- ३८८ दप्तानुपानं सकलैः प्रमाणत्वं सर्वस्य सदागलिजिनपते- १६ त्वं सर्वदोषरहितः सुनर्म वचस्ते ३९०
देवेप चान्येषु विचारचक्षुतरुणीचरणास्फालन १५२ तथापि स्वस्य पुण्यार्थ ३९५
द्वौ मानौ मत्स्यमांसेन तदहजस्तनेहातो
१६३ तीदिवाणिसुवर्णदोपतात ९६ Zा पास्तु लागानि तत्त्वं गुरोः समधिगम्य यथाधरूपं १६६ तदपि ददेयं किमपि जिन त्वयि ४०५
देवमनुष्यरम गक्षसी त्वं वीर वरिवनितानयनंन्दुकान्त १७१ तदलमतुलत्वाद्ग्वाणी
देवे तु पुंसः प्रतिकूलवृत्ती तथागमान्मुनेर्मान्यात १७९ तत्वचिन्तामृताम्भोधी
देवानाराङ्गविधो जनाना लदर्जस्तनेहालो १९० तरयमामरं मार्त्य
दण्ड एव हि नीचाना तुम्छोऽभावो न फस्मापि
द्वादशवर्षा योपा तस्य कालं वदन्त्यन्तर ४५८
दशनीमंदिशाः कुर्वन् सदातिहतो नस्य १९४ सत्कालमपि तवधान
४१९
दृष्टास्ययातत्त्वमदृष्टमेय तथाप्यत्र तदावासे १९४ तन्नास्ति पदहं सोके
देहात्मिका देहकार्या श्रलोक्यं जटरे यस्य १९८ ताः शासनाधिरक्षार्थ
दिषां न कांचिटिदिया न कांचिन् तत्त्वभावनयोद्भुतं २०२ तच्छासनफभक्तीनां
दिन कांचिहिथिर्शन काचिन ते तु यस्ववमन्येत २०३ तन्दामबहकक्षाणा
दृष्टान्ताः सन्त्यसंख्येयाः तथामि यदि मूढ़त्वं
२११
सपः श्रुतविहीनोऽपि तत्त्वं ज्ञाते रिपो दृष्टे २१२
दुराग्रहग्रहास्ते तोयमध्ये यथा तेलं लत्कुष्टयन्तरोद्भुता- २२६
दोक्षाक्षणान्तरात्पूर्व तालविभागमध्यातिः
दुहिणाधोक्षजेशान तपस्तौन जिनेन्द्रा २३१ तनरन्तर्यसान्तर्य
४४३
दाहच्छेदकपाशुद्धे तइतिह्ये च देहे च २३१ तेनाधीतं थतं सर्व
४४७
ताताश्रयः शाक्यः तसंस्तवं प्रशंसां बा २३५ तपोदानाचनाहीनं
दृष्टादृष्टमवंत्यर्थ तपसः प्रत्ययस्यस्त २४९ लदुत्तमं भवसायं
देवमादौ परीक्षेत तहानज्ञानविज्ञान २५८ ते नामस्थापनाद्रव्य
दृष्टेऽर्थ वचसोध्यक्षातुणकल्प: श्रीकल्पः २६५ तत्तद्गुणप्रधानत्वाद् ४६१
दर्शनाई हदोपस्य तद्वविद्यया वित्तैः २७१ तत्त्वे पुमान् मनः पुंसि ४६४
दोपं गृहति नो जातं तुण्डकण्डूहरं शास्त्र २९२ तदलमिद परिपक्वं
४६७
दण्डी हि केवलो लोकं तत्स्वस्य हितमिच्छन्तो २९१ लस्मान्मनोनिकेतस्मिन
४७७
द्विविधं त्रिविर्ष दशाविष--- सवव्यदातृपात्राणां
[व]
दृष्टिहीनः पुमानेति लच्छाक्यसायचार्वाक ३०२ दन्तक्षतमिदमघरे
देशतः प्रथमं तत्स्यात् तत्राहिसा कृतो यत्र ३०८ वष गच्छन्त्युपेक्षायां
३३ देशतः सर्वतो वापि सपोगुणाधिके पुंसि ०८ देवस्यापि वचः प्रायः
४३ दृतिप्राग्रेप पानीयं लसत्यमपि नो वाच्यं ३३४ दुःस्वप्नशाना लव चेदयास्ति ५. विजापडनिहन्तणां
२.
१८७
१८८
४४०
१९९
२०० २०२ २०४
२४६
२८३ २८९
२९२
२९२
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Yी -
७९
यशस्तिलक चम्पकाध्ये देवतातिथिपिअर्थ
३०६ दीक्षायोग्यास्त्रो वर्णाश्दर्शनस्पर्शसंकल्प
३०७ दीक्षायात्राप्रतिष्ठाद्याः द्विदल द्विदलं प्राश्य
३०७ देघाल्लब्धं धनं धन्धर दीनाम्युद्धरणे बुद्धिः
३०८ दुष्कर्मदुर्जनास्पी दर्पण वा प्रमादादा
३१० द्वादशवाणि नमः द्वादशागधरोऽध्येको
३१० देवसेवा गुरूपास्ति: देयादायुविराम स्यात् ३१२ दुश्चिन्तनं दुरालार्प दोपतोयर्गुणग्रीष्मः देहद्रविणसंस्कार दिग्देवानर्थदण्डानां
ध्यानानुष्टानामात्मा
३७४ दिक्षु सर्वास्वनःप्रोवं ३.१४
धर्म प्रमाण खलु वेद एवं दिग्देशनियमादेवं
भूतेषु मायाविप दुर्जनेगु इन्समापनशुद्धास्यो
भन्ने यद्विकिराकीर्ण
धर्मवगतोश्यप दानशानचरित्रसंयमनय
धर्मात्किलंग जन्तुदूराम्हढे प्रणिवितरणा- ३९२ धर्माधर्मो नमः कालो देहारामेऽम्युपरतधियः- ६९३ धर्माच्छमभुजां धर्म देहेस्मिन् विहिताचने नितदति- ३९७ धर्मभूमी स्वभावेन द्राक्षावजूरचोचेक्षु
३९७ धनायाविबुदीनाम्
धर्म योगिनरेद्रस्य देवपूजामनिर्माय
घ्यानावलोकविगलतिमिरप्रताने दिविनकुञ्जरमौलिमन्दार
धर्मेगु धर्मनिरतात्मसु धर्महतो मोक्षासु तासि वचसि त्वयि नु ४११
धरणीधरधरणिप्रति सृजत्ति देव त्वयि कोऽपि तथापि चिमुख-४११
ध्यातात्मा ध्येयमात्मैव देवं देवसभासीनं
घ्यायद्वा वाङ्गमायं ज्योतिर् देवं जगत्त्रयोनेत्र
ध्यान्विन्यस्य देहेस्मिन् दोपहस्तो यथा कश्चित ४३६
ध्यानामुतामतृप्तस्य दधिभावगलं क्षीरं
४३६
घुमवनिर्वमेत मा दग्धे धीजे पथात्पन्न
४३६
घर्मेपु स्वामिरोचायां दघन: सपिरिबारमाध्यम् ४३७
धर्मकर्मफलेनीही दण्टस्बं जिन मेदितोऽसि नितरां ४४२
ध्यानं सिदिगिरीदेवागारे गिरो वापि दुष्पक्वस्य निषिद्धस्य दातृपात्रविधिद्रव्य
४४६ सनननिदानरभिरश्रप्रवाह: दातानुरागसंपन्नः
४४६ नायिनि मलिनमखत्वं धानमन्यदु भन्मा था ४४७ नोवेत्तियेषां दचिसपि: पयोमक्ष्य
४४९ नंता रूप प्रतीक्षन्ने
४५० नापयन्ति मनः सही ४५३ नमान्तकसंपर्कात ४५५ मिष्कपटक राज्यमिदं प्रबुद्ध४६५ मर्द बयनास्तरास्तकण्यो ४६८ न कुर्वीत स्वयं हिंसा ४७१ न तर्पणं देवपितद्विजानां ४७८ नामापि पूर्व न समस्त्यमीषा
निनिमितं न कोऽपीह न स्त्रीभिः संगमो यस्य निघ्नन्ति नि:संशयमेव भूपाः न कापि पुंसः पृरुषार्थसिद्धिः
न मांसभक्षणे दोषी ११५ नान्यंग पाप मनसा विचिन्त्य १७० नाहं स्वर्गफलोपभोगतषिती१८२ नरेष संकल्पक्शेन मामधो २०६ नास्ति स्त्रीणां पृथग्यज्ञो २९८ नचापि मे सन्ति विनीतचेतसर
नत्यः सम बाविलासिनीना ३६७
न व्रतमस्थिग्रहणं ३८७
नभः परिच्छत्तमिवोधतस्य ३९०
नमें संतानकपारिजात निर्मातास्यः कपिलनयन.नित्येऽमते सदा सि न हि वे सारीरस्य
न केवलं तच्छभनृपस्य १३१ नमस्यामो देवाननु हतविर
नाहं नैव परो न कर्ममिरिह४५०
ने विलासविरले शरपाकमावड़ नग्नत्वं सहज लोके नवान्तस्तत्त्वमस्तीह निःशष्ट्रारमप्रवृत्तेः स्याद
न्यक्षवीक्षाविनिक्षि १३ निर्बीजतेव तन्त्रण २१ नियतं न बहुत्वं चेत् २१ निराघारी निरालमा ३१ नै लम्मं अगत्त्वापि
४०४
४०४
१५८
४.८ ४२९ ४३४
AM.
४६३
१६७ १७. १८५ १८९
.
.
१९२
२०० २०२ २०८ २०८
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इलाकामामकाराद्यनुक्रमः
१६३
२४९
२१
१८८
३५
२०४
६१
निष्पन्दाविविधौ धक्ने २१. नवोपचारसंपन्नः ४४७ पयोषरभरालसा:
१५५ नैकिचन्यमहिंसा च २१. नाहरन्ति महासरवाए
४४९ पश्यन्ति ये जन्म मृतस्य जन्तोः १५६ न स्वर्गीय स्थिते क्ति- २१० नतेर्गोत्रं श्रिी दामाद
४६१ पृथिव्यादिवदात्माममदोनदसमुद्रेषु २११ निर्ममो निरहंकारी
४६३ सि तिति तिष्ठन्ति ने स्वतो जन्तवः प्रेय
२११ [प]
पित्तप्रकृति(मान नवः संदिग्धनिर्वाई
पापिष्ठं पापहेलु पुष्पेष्वस्तशिलीमुखाबलिरभून् न वापरं तत्व २७२
प्रायः संप्रति कोपाम प्रियोपचारसंचार
१८७ निसर्गोऽधिगमो वापि २८२
पात्रायंगादिवमन्यापौरचल्याचलपित्तत्यान् निश्चयोचितचारित्रः
पिहिले कारागार २८७ पातालमूलंक मुजङ्गपालो
परस्परविरुद्धार्थ नास्मा कर्म न कर्मारमा
२८८ परोपरोषादयमेवमात्मा निहत्य निखिल पार्ष ३११ प्राणाधातानिवृत्तिः परधनहरणे
पित्रोः शुद्धो यथामत्यै न स्तूयावात्मनात्मानं ३३६ पुत्रस्य पित्रानुचरस्म भी
पूर्वापरविरोधेन
२०४ न व्रतमस्थिग्रहणं ३४६ पर्वतीर्थातिथिधाख
प्रेस से कम जीवन निफार्म कामकामात्मा ३५४ पद्मिनी राजहंसाश्च ६४ प्रकृतिस्थित्यनुभाग
२०६ नित्य स्नाम गृहस्थस्य ३७६ परेषु योगेषु सनोषयाऽन्यः ६५ पाणिपात्र मिलत्येत नरोरगसुराम्भोज ३८१ प्रोक्षितं भक्षन्मांसं
६६ परीपहव्रत्तोद्विग्न
२४९ नेत्र हिताहितालोके ३८६ प्रसिविरत प्रबास्य ६७ पुष्मं वा पायं या
२६५ नन्यापर्तस्वस्तिक ३९८ प्रमाण व्यवहारेऽपि
६७ पुण्यायापि भवेद् दुःखं २८९ नमवमरमौलिमण्डल४०४ पुराणं मानबो घम:
६८ प्रकुर्वाणः क्रियास्तास्ताः २९० नमदमरमोलिमन्दिरतटान्त ४०६ पिबेद्विषं यद्यम विचिन्त्य ७४ पुण्यं तेजोमयं प्राहुः निजकीजवलाम्मलिनापि ४०६ परस्य जीवेन यदि स्वरक्षा ७४ परिणागमेव कारण
३०१ नासेषु महत्त्वं यः सहेत ४११ पुसामसारसस्वानों
८२ प्राय इत्युच्यते लोकर
३१० निष्किञ्चनोऽपि जगतेन कानि ४१२ प्रायः सरलचित्तानां
८२ पञ्चकृत्वः किलैकस्प
३२४ नियमितकरणग्रामः १४ प्रशास्ति यः श्रोतृवशेन धर्म
८९ परग्रमोषतोषेण नाक्षमित्वमदिघ्नाय ४१५ प्रवर्तते यो नृपतिः खलानां
८१ पादमामानिधि कुर्यात
३२७ नरेधीरे वृथा वर्म
४१५ प्रतिक्षणं संशयितायुषो ये ९. प्रियशीलः प्रियाचारः निषिधारावतारासु
४१५ प्रजाविलोपो नृपतीच्छया स्यात् ९. परस्त्रीराजविनिष्ट निर्मनस्के मनोहंसे
४१८ पिष्टं च मांसं परिकल्प्य तस्य ९४ पूराणं मानवो घर्ग: नामी ने ललाटेच ४२१ पाताले पावमूलोपलविलसङ्गि- ९९ परस्त्रीसंगमानहग
३५५ निरञ्जन अमापीशं
४३० पान्धः पल्लवलुण्टनं करदिभिः- १०२ प्राओं ये न माद्यन्ति नम्रामकिरीटांशु१३. प्रवणशरणागतोद्धरणकुलवीतयः १०६ पापाख्यानाशुभाध्यान
३७४ नौरूपं रूपिताशेष
४१. प्रासादमण्डनमणी रमणौविनोदे १०९ पोषणं क्रूरसम्वानां न ते गुणा न तज्ज्ञानं ४३५ पादान्तलक्ष्मीरपरः पयोधिः १२९ पादजानुकटिनोवा
३७७ नाभी चेतसि नासाने ४३७ प्रपञ्चरहितं यास्त्रं
१५४ प्रत्नकर्मविनिमुसान् ३८२ न सास्कृतिन कण्डूतिर- ४४० पैया सुरा प्रियतमामुखमीक्षणीयं १५४ पुष्पं त्वदीयवरणानपीठसमाच् ३९० न फुदि दूरदृपावं ४४० यः पश्यत्यात्मानं
१५५ पादाम्बुजायमिदं तव वेव यस्य ३१.
३०८
३२६
३५२
३६८
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७४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये प्रस्तावना पुराकर्म ३९५
भूषितोऽपि चरेद्धर्म पायः पूर्णान्कुम्भान् ३९६ फलस्तताणाममृतानुकूल- ९५ भवदीजाकुरमथना पष्पद्रमश्चिरमयं नवपल्लवीर ३९७ फल्गजन्मामय हो
४१७ भूता भविष्यन्ति भवन्ति चान्य पुग्योपार्जनशरणं
भवनकृश्यावहितो हि लोकः प्राविधिस्तर पदाम्दाना अमेगा ४०४
भ्रश्यत्वर्णवतंसकाः सरलित-- १२२ परिमाणमिवातिशयेन वियति ४०७ बालस्य मोग्ध्यात्र तपोऽधिकारो ५३ भोग्यागाहुः प्रकृतिमपयर- १० पुरुषत्रयमवलासक्तमूति ४०९ बालासकोटावपि यत्र राजे
६५ माव: पवाग मवेंद्राज्ञां पातालमत्यक्षेचर
४१३ यलामीभिविपर्यवरामः ७३ भेदोऽयं मयविद्या स्याद पुष्पः पर्दभिरम्बुज- ४१३ वहिर्मुदुलंपत्यानः
१३ भक्षनर्तमनग्न प्रभावैश्वर्यविज्ञान
४१८ ब्रह्माजिहिातमण्डला हरिकुल- ११६ भमिभामजटायोट परे ब्रह्मण्यनूचानो ४२४ बन्धमोशी सुख दुःख १५७ भूपयःपवनाग्नीनां
३१० प्रमाणनयनिक्षेपः ४२५ युद्धि प्रति यदीध्येत १६५ मर्जे फलके सिचये
३८० प्रवीणोभयकार्माण
४२८ ब्रह्मपुत्रविधिना राह मात्रा १७२ भौमव्यन्सरम|भास्वरसुरप्रमवं सर्वविद्याना ४३० बहिः शरीराद्यद्रुप
१८६ भवदुःखानलशान्तिः प्रणिधानप्रदीपेषु ४३३ वोघोघा दिवानन्दो
१९२ मादामतेन मनसि प्रतिलम्वद्धिः ३९४ परापरपर देव४३३ वाले ग्राहो मलापण्यात १९३ मक्त्या नतामराशय
४०३ पञ्चमूर्तिमयं बीजं
४३५ ब्रह्म क यदि सिस्थान १९४ मक्तिनित्यं जिनचरणयो:- ४०४ पप्रमुत्थापयेत् पूर्व
बन्धस्य कारणं प्रोक्तं
२०७ भूपषनवनानलतत्वकेप पुमामोदौ तरुछाये
ब्रह्मचर्योपपताना--- २०९ भूमो जन्मेति रलानां
५१८ पाणि प्रोषधान्याकुर
बालमगवण्यनान् २३४ भेदं विजिनाभेद--
૪૨૭ {मः कृतोपवासस्य ४४३ यहिः क्रिया बहिष्कम
२८७ मुवमानन्दमस्थानापरिमाप तयोः कुर्याच्---
बहिष्कासिमर्थेऽपि २९. भाज्यं भोजनशक्तिप्रच
४५. वहिस्तास्ताः क्रियाः कुर्वन्
२५४ भयलोभोपरांधाय: पलाण्डकेतकोनिम्ब
४४५ बाह्याङ्गरते पुसि ३६८ भनि.मात्रप्रदान हि
४५४ परलोकधिया कश्चित्
ब्रह्मचर्योपपत्रस्य परलोकैहिकौचित्ये
३७७ भावपुष्पर्यजेद्देवं बहिविहत्य मप्राप्तो
३७७ प्रतिग्रहोबासनपाटपूजा ४४८
[म] नोचापगाप्रवाहण पुष्पादिरशनादिर्वा वोचोग्यविःश्नुत्तमोपनिरूपितार्थ
मनसिजकल मोऽयं नुनमस्मिन् प्रदेशो २१ पात्र दत्तं भवेदन
४५२
चौधत्रयविदिविधेयतन्त्र ४०६ मधुप च यज्ञेच पात्रापानसमावेक्ष्यम्
बहिरन्तस्तमोवात
४१७ मत्येषु चेत् सबसु नाकिना वा ६१ प्रत्रयोत्साहनानन्द
४५८ बोध्यागमकपादे ने
मोनार्थमुझुनधियां नराणां परिमारित्यागी बुद्धिपौरुषयुक्तष
মফিার্মর पपेन्द्रियप्रवृत्त्याच्यास बहिस्तपः स्वतोम्यति
मानवं व्यासवासिष्टं प्रतिदिवसं बिजहदल
मला: समा मन्मथतत्त्वविद्धि पंसो यथा संदायिताशयस्य ४७०
मन्त्रण शस्त्रगलपीडनाद्वा प्रत्यास्मानस्वभावा: स्युः ४७५ भवति कचनच्योगात्
२० मुना वहति लोको पाषाणभूरजोवारि ४७६ भ्रूधमुर्दृष्टयो यागार
३३ मया वागर्थसंभारे
४०७
४२८
४३१
३८४
४५६
४२५
४५३
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२०६
२८१.
९७
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.)
९७
4
प
११५
4
१२१
4
श्लोकानामकारानुक्रमः मध्यमधुलुब्धमयफर १२. मन्मणोन्माथितस्वान्तः
६७ यो दयारकाधन मेळं मन्दस्पन्दीभवति हृदये-- १३. ममेवमिति संकल्पी
३६७ यथात्मनि शारीरस्य मेस्पदिषिद्धमवन्ध्यशिरो- १४१ मत्स्नयष्टकया वापि
३७७ पावन्ति पशुरोमाणि मदनशरचित्रकान्त
१५१ मुक्तिलक्ष्मीलतामूलं ३८५ य: कार्यवादेषु करोति संघां मलकलुषतायात
१५१ मिथ्यातमःपटल भेदनकारणाय ३८९ येनापि केनापि मिण मान्महादपि पाप विघलति १७३ मिध्यामहान्यप्तमसावतमप्रबोष ३९० यावत्समचं वपुरूदताया मार्दवाधिकतरंकलयात .१७४ मनीमायोचितायापि
१९२ यथाजनाकृतमयं प्रवृत्तः मायारामसमा रमा सुलमिदं
४०० यो मारते दोषभनियमानं ११ मद्भाविलक्ष्मीतिकावनस्य मन्त्रपन्नियतोष्येपो
मन्दमदमदनदमन
४०२ युवा निजादेशानियेशितनीः मनोवाक्कापकर्माणि
४११ यथा जलै पचजिनीदलाना मनुजत्वपूर्वनयनायकस्य
२०८ मायासयमिन्युत्स
२४९ मनुजदिविजलक्ष्मी--
४१३ यथा मम प्राणिवधे भवत्या
मन्त्रागामखिलानामहापद्मसुतो विष्णु
४१४ पयोच्छिन्बगदा मण्डूक्यो मन्योऽयमेव सेव्यः
४१५ यती यथार्थ वदतां नराणामायानिदानमिथ्याल
मृत्युजयं यदन्तेषु मुम्रर्य मदारचाष्टो
यत्तुङ्गजात्रविलम्बिविम्बः मति गति दष्टे मार्ग समन्ताः
पाश्चत्रमधाम्बरमण्डिताङ्गः महाभागोहमद्यास्मि मद्यमांसमपुत्पागः
यग्निमोद्गमस्थल मन्त्रोऽयं स्मृलिवाराभिए ४३४ मद्येन यादबा नष्ट
यस्याः प्रधाइः सरितः प्रकामं मन्दं मन्द क्षिद्धाय मक बिन्दुसंपन्नाः
यत्र सुन्खं या दुःखं मभिषिकोभिपवाज्जिनानामनोमोहस्य हेतुत्वान्
यत्राम्बुधिः पुष्करवत् स्थिताने मिथ्यात्यपस्तविशेष मद्यमांसमधुप्राय २९९
मः कोपः सागरापंषु मूलोप्तरगुणश्लाघ्यर
४५३ मामादिषु दया नास्ति २९९
यामेवं प्रादुष्पद-- मान्यं ज्ञानं तपोहीनं
૪૫૪ मक्षिकागर्भसंभूत
पथा स्नेहक्षयाहीपः मुनिभ्यः शाकरिण्डोऽपि ४५७ मद्यादिस्वादिगेहेषु ३००
यावज्जीवन सुखं जीवेन्मुनीनां व्याधियकानां
४५८ मर्सि जीवशरीरं ५००
यः स्यावापि सर्वयोनिकालयमुलवतं व्रतान्यचर्चा मंत्रीप्रमोदकारुण्य ३०८
यस्मादम्युदयः पुंसां मानमायामदाम मनसा कर्मणा वाचा
यस्तु पश्यति राम्यन्ते ममेदं स्यादनुठानं भदेमियनादि
पत्र नेत्रादिकं मास्ति मानदावाग्निदाया मन्दिर पदिर नीरे
पस्तत्वदेशनाद् दुःख मोक्षमार्ग स्वयं जानन् ३३५
यस्यात्मनि श्रुते सत्य मन्त्रभेदः परीवादः ३३५ पदर्थ घ महो त्यक्ता
३५ मद दुश्मनुमान छ मुखस्याई शरीरं स्पाद ३३९ यावज्जरा जन्यते न शरीरशनि ४७ येविचायं पुनर्देवं महोशो वा महाजो वा ३५१ यातु द्विषत्पक्षमदः समीक्षितुं ४८ यो हि वायुर्न शक्तोऽत्र मानवं व्यासवासिष्ठ ३५२ यज्ञार्य गशवः सुधाः
५. यंप्लांवन्ति पानीयभूधोधादीनवोद्योगात ३५३ अदुपचितमन्मजन्मनि
५२ यदेवाङ्गमशुद्ध स्यामदनोद्दीपनवृत्तर
३५४ यथैय पुण्यस्य मुकर्ममाजां ५४ यतः समयकार्यार्थी मर्थ अतमुपदव्यं
३५५ या शस्त्रवृत्तिः समरे रिपुः स्यात् ५४ यद्रागादिपु दोषेषु
4
१२७ १२९
४५२
१४८ १५५
१७७
१८२ १९३
३१०
४७३
४७७
[य]
१९७ १९५ १९९ २०४
२८४
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________________
परास्तिलकचम्पूकाव्ये
३२६
३८०
बम्जानाति यथावस्थ २९० यजमान सदर्थानां
४३१ राज्यस्थित मामवहाय यैपा धष्ट्रियजनुषाघस्य २९. वंयमध्यात्ममार्गेपु
४३२ रकमान्तविलोललोचनयुग:-- १२७ यद्यणे दशितेऽपि स्याज २९० यत्र यत्र हुपीकेऽस्मिन् ४३५ रिक्तस्य जन्लोजर्जातस्य यत्परत्र करोतीह
२९९ यायाद् ज्योम्नि जले तिष्ठन्- ४३७ रागाापहृतः शंभू यस्तु लौल्पेन मांसाठी ३०२ यस्या. पदह यरल कृतियुग्मयोग्यं ४४० रपः लोणी यन्तायस्स्यात्प्रमादयोगन
३०६ यामन्तरेण सकलासमर्थनाऽपि ४.. रत्नाय स्कान्तवातादे पदन्तः सुषिरप्रायं
३०७ या स्वल्परचनापि मितप्रवृत्तिः ४१ राजन्यशोधनृपतिः पलिनं विलोक्य १७२ गोतवन्यूनताधिक्य ३२५ यद् बीजमयमपि सज्जनधीपरायां ४४१ रागाढा द्वेषाद्वा
१९७ यस्परस्य प्रियं कुर्याद ३२६ मा स्पष्टताधिकाविधिःपरतन्त्रनीति: ४४ा रागादिदोषसंभूति
१९७ यथा यथा मरम्वेलम् ३३६ यः सवृत्लेच्क्त भावः ४४४ रागरोगधरे नित्यं
२८४ पज्ञार्ग मशवः सृष्टाः ३५१ यमश्च नियमवति ४१४ वचिस्तत्त्वेषु सम्यमल्ल
२९२ यस्य द्वनयभ्यस्मिन ३६८ यथाविधि यथादेश
विर्ष निधिनिधानीत्थं
३२५ यवधान्तिनिर्मुक्ति ३७८ युक्तं हि श्रद्धया साघु
४५१ रनरलाङ्गरत्नस्त्री यद्देवैः शिरसा धुझ गणधर:- ३८८ यथा पूज्यं जिनेन्द्राग्यां
रक्ष्यमाणे हि बहन्ति
३५४ यचिन्तामणिरीमित वसतिः । ३८९ यत्र रत्नत्रयं नास्ति
४५२ राज्य प्रवर्धते सस्य
१६२ मेग लगानिमिरभित्र- 1.:: गणा एप-निशिगन्ने
४५४ रक्षन्निदं प्रयलेन
३७४ मेषामसस्तदमृतरसा३९३ यदात्मवर्णनप्राय
४५६ रलत्रय पुरस्काराः येषामा मलयजरमः ३९३ यहत्तं तदमुन म्याद्
रत्नाम्बुभिः सुशकृशानुभिरात्तश्वी ३१५ यदज्ञानी युगः कर्म योगाभोगाचरणचसुरे
को मति चितेपि ४१९ मेषां ध्येयाषायकुबलया - यो हताशः प्रशान्ताशर
रेणुवजन्सबस्तत्र यः श्रीजन्मपयोनिधिमनसि व यः पापपाशनामाय
रूपं स्पर्श रसं गन्धं
४३६ ४६३ ३९५ यस्म स्थान निभुवनशिरः
रज्जुभिः कृष्यमाणः स्याद् मः कर्मद्वि तयातीसर
रक्षा संहरणं सृष्टि ४३९ यागेऽस्मिन् नाकनाथ ज्वलन पितृपते २९७ योश्वगम्य यथाम्नायं
रत्नदयेन समलंकृतचित्तवृत्तिः ४७९ योऽमस्तेनेम्वविश्वस्त येषां कर्मभुजङ्गनिषिविधी ३९८
रसत्यागकभक्तक
४४३ यमनियमस्वाध्यायास
४६८ यशदावमुयभाग्निरुपास्य देवं- ४०३
रेषणात् कलेशराशीनाम् ४६३ यो भदात् समय स्थानाम् पस्त्वाममितगुणं जिन ४०५ ययोपकिया रिता
[स] यदेन्द्रियाणि पश्चापि
यावस्मामानिशालेशो यशामिन्द्रियग्रामो
४७७ लम्जा न सज्जा कुशलं न शीलं ६५
यस्थाारावलि यद्यस्मिन् मनःक्षेत्र
लोके विनिन्ा परदारकम ४१८ यः कण्टकैस्तुदल्पग
लोलेन्द्रियर्लोकमनोनुकूल..
[र] योऽविपारितरम्यपु
लोलेन्द्रिया दुराम्नायाः रमयति मनो नितान्त
२० लीलाविलाराविलसन्नयनोत्पलायाः २५४ पस्पेन्द्रियार्थातृष्णापि
४२३
राशि धषि धर्मिष्ठाः ५३ लङ्घनौषधसाध्यानां ३११ पः स्खलत्यल्पत्रोधानां ४२६ रागद्वेषमदोन्मत्ताः
६२ लक्ष्मीकल्पलत समुल्लस जना- .. यदा बकास्ति मे घेतर ४२९ रजस्तमोम्यां बगुलस्य पसः ७४ लाभेऽलाभ बने वासे
४२४ यो दुरामयदुर्दशें ४२९ रकभावं समस्तानां
८३ लेशतोऽपि मनो भाषद्
४६२
४६४
४.७७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
७३
१४८
इलोकानामकाराद्यनुक्रमः
४२५ लोकधित्वकविशयर ४५४ बरार्थ लोकवार्तार्थ- २११ श्रुतान्यधीतानि मही प्रसाविता ४२ लोल्यत्यागातपोवृद्धिर ४५७ बस्तुन्येव भवद् भक्तिः २११ शुक्रशोणितसंभूतलोमीकसबिहानि ४७७ विशुधमनसां सां
२५२ श्रमणं ललिताचं विद्याविभूतिम्रूपाचा:
२८७ शौच निकाम मनिपुंगवानां ६५ विशुद्ध वस्तुधीष्टि
२८७ शूद्रानं शूद्रशुश्रूषा विषवत् परिपाकेषु
अलमग्निरूपायो घीः
२९.२ श्रुतात्स देवः श्रुतमेतदस्माविमाननाच मान्यानां
विविएनेकैवलं शुद्ध ३०१ थियां मनोदपंकरविलासविमत्सरः कुपलालः
विकथाक्षकषायाणां ३०६ शूरोऽपि सस्चयनोऽपि विष्णोर्भागवता मयाश्च मदितु
वषो वचसो वापि
३०९ श्रीमानशेषभुवनाधिपििजनेन्द्रर- ६६ वदन्ति जनारल मिहाप्तमेले
६५ ववित्तस्त्रियो हित्वा ३५३ थीविलासोत्सवस्खलिदसुरसमितयः १०५ विचक्षणः किं तु परोपदेशे
चिपद्विषयाः पुंसाम् ३५४ श्रीरेषा स्वसिन्धीविषं विषस्यौपद्यमग्निरग्ने
विधुगुरोः कलोण विलासिनीविनमर्पणानि
३६० शिघ शक्तिविनाशेन
१५४ विशीला कामवृत्तो वा
वघवन्धनसंगंध ३७४ शुद्धोऽपि देहसंबद्धो
१५८ वञ्चनारम्भहिसानाम्
३७५ धीमानत्रान्तरे मुरिः निहाय शास्त्राण्यत्रमत्य मन्त्रिणो
१७९ विज्ञानिनां शिल्पविशेपमावा-
३७७ श्रद्धा श्रेयोथिमा श्रेय:९४
वातातपादिसंसृष्ट वैधाय दूताः पहिसा हि यावद
विचार्य सर्वमविह्म
३८२ शून्यं तत्त्वमह वादी
वाग्देवतावर इथायमुगासकाना- ३९४ श्रुति वेदमिह प्राहुविहाय देहस्य मुखानि येषां १५४
२०३ वेदप्रामाण्यं कस्यचित कावादः
वोतोपलेपचपुषो न मलानुपगम् ३९५ थेडो गुणगृहस्थः स्थात् २०४ ब्याक्रोधी व्यापहासी था १५७ विज्ञानप्रमुखाः सन्ति विमुचि ४०८ शवाकाङ्क्षाविनिन्दान्य-- विश्वव्यापी भवेदात्मा १५८ वचसा वा मनसा वा ४१४ शृङ्गारसारममृतद्युतिमिन्दुकान्ति २२८ विशुद्ध ज्ञानदेहाय १५८ विपक्षे पलेशराचीनां
४१८ श्रुतिशाक्यशिवाम्नायाः २३४ यक्ता नैव सदाशिव बिकरणर १५९ वैराग्यं ज्ञानसंपत्तिः
४१९ शौचं भज्जनमाषामः
२३५ विधिविधामा निर्यातः स्वभावः १६१
४२८ शारीरमानसागन्तु विष्टिकर्मकराधीनां
१६१ व्योम, छायानरोत्सलि ४३३ शुलमार्गमतोद्योगः
२८९ विरुद्धगुणसंसर्गा
विक्षेपाक्षेपसंमोहY° शुद्ध दुग्धं न गोमांसं
३01 विज्ञानसुखदुःखादि विशुध्यन्नान्तसमायं
शरीरावयवत्वपि विवणं बिरस मिद्ध
४४८ शोकसंतापसंक्रन्द विहानी यथाग्नेः स्ता
चालम्लानतपःक्षीण
४४९ धीभूतिः स्तंगदोषेण बने वा नगरे वापि १०० विवक वेदयेदुचर ४६६ शिनण्डिकुक्कुटश्येन
६७४ बिधाय विधिवत्सूरे:
विप्रकीर्थिघाक्यानाम् ४७० शये वस्तुनि संकल्पः विस्मयो जनम निद्रा
२७६ वेणुमूलरजागृङ्गर वसुटेश्वः पिता यस्य १९८
४७६ ओकेतनं वाग्बनितानिदास ३१४
वैराग्यभावना नियं विषसामर्थ्यवन्मन्त्रात्
४०० २००
विद्याविनोदवनवासित-- ४८० वनसा नैव सदाशिवो विकरण २०१
प्रया सुप्टिभक्तिर
४४८ वर्ण:पदं वाक्यविधिः समासो कामक्षिणमार्गस्यो २०३
शाठ गर्षमवज्ञानं वाग्विमुद्धापि दुष्टा स्याद् २०४
[ ]
शिल्पिकाएकवाक्पण्य विकारें विदुषां षो २१० श्रीमानस्ति समस्तवस्तूविषय- १ शाश्यनास्तिकयांगज्ञ
४५१
२८
४४४
३०
३०८
W
१७९
१९७
४७८
विशुद्धदोषस्य
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--------------------------------------------------------------------------
________________
२८८
१५८
३७३ सोऽहं तदेव पात्र
३
२९४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये श्रुतस्य प्रश्रयायः ४५७ सैवेयं नगरी तदेव भवनं- १०४ सवित्रोव तनुजानाशारीरमानसागरंतु
४५७ सस्यसंपत्तिसंक्षिप्तसीमाभुवः १०५ स्नानानुलेपवसनाभरणप्रसून श्रुतासत्वपरिज्ञान
४५८ समरभरभागिभटमाबवादोत्कटा: १०५ सुदतीसङ्गमासक्त शब्दति हॉर्न गौः शुद्धा ४५६ सोसेघसीपशिखराभयशातकुम्भ १०६ समर्थश्चित्त वित्ताभ्या- २५७ श्रुते ते प्रसंख्याने
४६३ सिंहः सुखं निवसतादचलोपफण्ठे ११० स्वाध्याये संयमें संघ शुचिविनयसंपन्न ४७२ संपन्नपुरच्छायं १२१ सन्नसंश्च समावेय
૨૭ शिलास्तम्भास्यिसाढ़ेंधम- ४७६ स्तेनतिपदिषयाल
१२९ स्वमेव हन्तुमीहेत श्रीमानस्ति स देवसंघनिलको- ४८० स्वामिद्रोहः, स्लोवघो बालहिंसा, १२७ सरागवीतरागात्म
२८३ मुखदुःखानुमवार्य १२७ सत्त्वे सर्वत्र चित्तस्प
२८४ पटकर्मकार्यार्थमयाननस
स्त्रीमुद्रां भगकेतनस्य महतीं १५६ सम्यक्त्वं नाङ्गोन स्पाद
२८६ बमासांपडागमांसेन ७३ स्तोतु निन्दतु वा लोको।
१५७
स्वत: सर्व स्वभावेष पटवरणलितजलाह- १२. समस्तेषु वस्तुष्वनुस्यूतमेके
सुखदुःखाविघासापि
२८९ पट्यतानि नियुज्यन्ते ३५१ स्वयं कर्म करोत्यात्मा
सम्यक्त्वात्सुगतिः प्रोक्ता पाठयाः क्षितस्तुतीय स्मिल
सम्यक्त्वस्याश्रयश्चित्त परत गहिणो जैयार
४६१ संतानोन निरन्वये विसदशे- १६२ सबंदीपोदयो मधान् षोडशानामुशारात्मा ४६५ सुखानुभवने नग्नो
१७० समुत्पद्य विपद्येह पदस्वर्थेपू विसर्पन्ति ४४७ स प्रवृत्तिनिवृत्त्यात्मा १८२ स्वभावाशुचि दुर्गन्ध[स]
सम्यक्त्वज्ञानचारित्र- १८३ स सुयं सेवमानोऽपि २९८ सम्यक्त्वं भावनामाहु
१८३ स्तनगलकपोलभुजगा
स पुमाननु लोकेऽस्मिन् २१८ सम्यक्त्वज्ञानचारित्र स्त्रीषु साक्षाद्विपं टी
स भूमारः परं प्राणी २१८ सर्व चेतसि भासेत सकृति ज्ञातसारेषु
स मूर्खः स जडः सोऽजः २९८ सत्यं न धर्मः क्रियते यदि स्याद
स्वभावान्तरसंभति
१६० स विद्वान् म महाम्राज्ञः स्वयं कृवं जन्तुषु कर्म नो चेत् ५२
सर्वज्ञ सर्वलोकेशं १६६ स धर्मो यत्र नाधर्म
२९९ सन्तर्पणार्थ विजदेवताना
स्वगुणः पलाध्यतां याति
१६७ स्वकीयं जीवितं यत् २६९ स्वतः कर्मभिरेष
१९८ स्त्रोत्खयत्वसामान्या स्नाला यजेताममधागमं वा ६२ सिद्धान्तेऽन्यत् प्रमाणेऽन्यत् १५६ संकल्पपूर्वक्र: मन्चे
३०६ सरिस्मारोवारिधिवापिकासु ६२ साँवस्थितिसंहार
२०२ संघानं पान धान्य समग्रं शनिना दृष्टः
६३ समस्तमुक्तिनिमुक्तः २०४ सा किया काग नास्तीह ३०८ संदिग्धेऽपि परलोके ६६ सन्तो गुणेषु तुष्यन्ति २०४ संचलेशाभिनिवेदशेन
३२५ बापामेष यत्पाप६६ सगे कापालिकानयो २१. सुप्रयुक्न दम्भेन
३२९ सयः प्रतिष्ठितोवन्त ६. सूर्यायों महणानानं
२११ सत्यवाक सत्यसामर्याद् ३३६ सर्गस्थितिप्रत्यवहारवत्त- ६६. समयान्तरपापण्ड
२११ सर्वा क्रियानुलोमा स्यात् स्वयं स कुष्ठो पद्योः किलार्क: ७१ स्पां देवः स्यामहं यक्ष: २२६ स्वाध्यापध्यानधर्माद्याः ३५५ संवत्सरं सु गव्यैन
७३ स्वस्यैव हि स दोषोश्य २३१ सा दूतिकाभिमतकार्यविधौ धुषानां ३५८ संत्यय पाम्पमाहारं
८५ स्वतः शुखमपि व्योम २३१ होनु घभ्यात्र गङ्गक ३९१ सर्वेषु सस्वैप हतेषु यम्मे १४ स्वस्याम्पस्य च कायौऽयं २३१ स्त्रीणां वपुबन्धुभिरग्निसाक्षिकं ३६१
१८३
M
२९८
१८ सदा शिवकला बढे
३०१
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--------------------------------------------------------------------------
________________
समिष्यत्वास्त्रयो वेदा सहसंभूतिरप्येष
स श्रीमानपि निःश्रीकः
सत्पात्र विनियोगेन
संभोगाय विशुद्धधर्म सर्वारम्भविजृम्भस्य स्वजात्येव विशुद्धानां सर्व एव हि जैनान
मंसाराम्दु त्रिसेतुबन्धमरामसम्यग्ज्ञानत्रयेण प्रविदित निखिल - २६२
सुरपति युवतिश्रवसाम्
स्तोत्रे यत्र महामुनिपना: सुरपतिविरचित संस्तच दलितासोऽहं योऽमूदं बालवयसि सर्वाश्चिरणामाक्षर— संपूर्ण मतिस्पष्टं
रामवसरना="
सोऽयं जिनः सुरगिरिर्मन पौठमेत ३९६ मि
स्वर्गापवर्ग संगतिविषायिनं
सूक्ष्मप्राणयमायामः संयोगे विप्रलम्भे च सुखात सुधासू ति सम्यगेत्तरसुधाम्भोधेर्
सर्वसंस्तुत्यमस्तुत्यं
स्तूयमानमनूचानैर् स्थूल सूक्ष्मं द्विधा ध्यानं
सर्वपापात्र क्षीणे
साकार नश्वरं सर्व
संन्यस्ताभ्याम घोङ्घ्रिभ्याम्
स्याद्वादभूषरभवा मुनिमाननीया
स्नानगन्धाससंस्कार
सौरूप्यमभयात्राहु
सत्कारादिविघावेषां
समयी साधकः साधुः
३६७ सर्वारम्भप्रवृत्तानां
३६७ साकारे वा निराकारे
३६७ सौमनस्यं सदाचर्य
६३.
श्लोकानामका राद्यनुक्रमः
३६८ सुणिवज्ज्ञानमेवास्य १७६ स्वरूपं रचना बुद्धिर्
३७७ सायं समितनिक्षिप्त
३७८ संसाराग्निशिखाच्छेदो
३७९ सा जातिः परलोकाय ३८८ स वीवो यः शिवज्ञात्मा
सविधा पापकृतेरिव
श्रु
सुरौ प्रवचनकुमाले
स्नपनं पूजनं स्तो
४०२ ४०३ सम्यक्त्वं घ्नन्त्यन्तानु४०५ []
४०५
इताः कृपाणेन वनेऽपि जन्तवो
होमस्नान सपोजाय
४०५ ४०९
हित। हितावेदि जगमित्रगंतः
४१३ हरिः पुनः क्षत्रिय एव कश्चि ४१५ हिमालपाद्दक्षिण दिनकपोल: ४१६ हृतं ज्ञानं क्रियाशून्यं
४२४ हेयोपादेयरूपेणा
४२९ हासा पितुश्चतुर्धऽस्मिन्
४३० हिताहिल विमोहन ४३० हेतु शुद्धेः श्रुते वियात् ४३० पयः पेयं
४३५ हिंसास्तेयानृता श्रह्म ४३६ हिंसायामनृते चोर्या
४३७ हिंसनाब्रह्मचौर्यादि ४३९६ हिरण्यपशुभूमीनां ४४२
४४३
४४७ होमभूतवली पू
४५२ हस्ते स्वर्गसुत्रान्यत कितभवास् ४५३ हेतावनेकधर्मप्रबृद्धि -
हरिव हृतप्रीतिः
हिंसनं साहसं ह
४५४ हस्ते चिन्तामणिस्तस्य
४५५
४५८
४५९
४६०
४६०
[क्ष ]
क्षोयेताय क्षणालोकः
क्षुत्पिपासाभयं द्वेपर
माकपक्षत्वे
५५
५६
६७
पुत्रोऽविक्षिप्त:
वाल्या सत्येन शौचेन
क्षुद्रमत्स्य. किलैकस्तु
४६४
४६६
४६६
क्षयामयसमः कामः ४६७ पान्यं धनं वास्तु
४६८ श्रान्तियति यो सत
४६९
[*]
४७१
४७६
स्थावरभेदेन
त्रयमार्ग त्रयीरूपं
[ ज्ञ ]
ज्ञानवानपि कार्येषु
ज्ञानध्यानतपः पूताः
१७० ज्ञानादवगमोज्यांना
९७ ज्ञानहीने किया पुंसि
१८९ ज्ञानं पची क्रिया चान्धे
२०४ ज्ञानवान्ग्यते कश्चित्
२३० ज्ञाता दृष्टा महान सूक्ष्मः २९४ ज्ञानदर्शनशून्यस्य
२९६ शाने तपसि पूजायां
३०१ ज्ञातुरेव स दोषोऽयं
३०६ ज्ञानमेकं पुनद्वेषा १०६ ज्ञातीनामत्ययं वित्त३११ ज्ञानं दुभंगदेहमण्डनमित्र - ३११ ज्ञानकाण्डे क्रियाकाण्डे
३५४ ज्ञानभावनया होने ३५५ ज्ञानी पट्टस्तदेव स्याद्
३७८ ज्ञानं श्रह्य दया य
३८९ ज्ञानर्मनी वर्
४१० ज्ञानहीनो दुराचारो
४२.७
४४४
१४१
१९७
२०५
२२५
२४६
३०४
३५५
३६७
४६४
२०६
४३१
८२
१७०
१८८
te
१८९
१९६
२०६
२०६
२५७
२९१
२९१
३२५
३८९
४५३
४५९
४५९
**
४६५
४६६
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________________
पृष्ठ-पकि
६-६
परिशिष्ट २
अप्रया-क्लिष्टतम शब्द-निघण्टुः [श्री० पूज्य भट्टारक मुनीन्द्रीति दि. जैन सरस्वती भवन नागौर ( राजस्थान ) की श्रीदेव-विरचित यशस्तिलक-पञ्जिका के आधार से संकलित ] दाव बर्थ
पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ नवयानविपि-सा सर्वकर्मनिमलिनी ध्यानविद
अभिनय
करणं शय्यागमनकालश्च इत्यस्या
१-३ घनुष्या:--उत्तमगाव: प्रैलोक्यभित्रैलोक्यं क्षोभयतीति
१-३ रम्भितं-गोष्वनिः दत्तयापककुमि-कृतमेव फकुप्सु तरस्थो लोको पत्र १-३ दुश्च्यवनः-शनः ब्रह्मतरुः-पलाश:
२-२ हरिहस्ती-ऐरावणः ससान्तं-- पृष्पं
खण्डपरशुचूडामणिः-खण्डपरपारीश्वरस्तच्चूबक्षोत्पल:-पिता
डामणिश्चन्द्र अवस्कन्दः-'दाधा
३-८ निजसुह-समुद्रस्य चन्द्र एष दितिमुतशनुः हरिः
४-१ उद्दण्डा:--उल्लोला: ब्रह्मासनं ध्यान
४-१ विरहिणी--विरहोत्कण्ठिता पापणी-मदिरा [ पश्चिमा ] दिग् वा
सितिमा-श्वेतत्वं मन्दरगिरि:-अस्ताचल: ४-२ लक्षता-धवलता
७.३ दरम्-ईषत्
जडिमा-जडत्वं सुरनदीसंभेदः-गङ्गा-यमुना-संगमः* ४- कलधौन-रजतेऽपि
७-६ कृष्णागुरुपिञ्जरिलकर्णपालीषु
'४-८ अतु-लाक्षा नीलोपल:-इन्द्रनीला
५-४ रदी-दन्ती सुलाकोटि:-नूपुरं
५-४ नमुधिरिपुः--इन्द्रः कृष्णला--गुञ्जा
मणितिः- गणना प्रदोष:-शयनयोग्यः ५-७ कुमुदपक्षः-चन्द्र:
८-४ मुनिद्रुमः-- अगस्तिः
६- कुमुदर्दधुः-चन्द्रः सपाटी---पुस्तकावयवः
६-१ सितं-कपरं
।
।
*. वृत्तं वा हि निविष्ट वा प्रसिदं षा तथा क्यचित् । परामुशति तच्छम्दो मुख्यं वा भाव्यमेव च ॥ १॥ १. 'राविसंवन्धिनी घाटी' स टो० ए०७-२ । *. कथं सुरनदी यमुनेतिधन ? गङ्गासन्नित्रानात तया च गनुवचने देवनद्योयंदम्तमिति । २. कृष्णागुरुपिञ्जरितकानां पात्यः पर्यन्तास्तास्ववमुत्तरत्रापि योज्ये, न पुनरेवविध गृहीतव्यं कृष्णागुरुपिञ्जरिताश्च ताः
कर्णपाल्यश्चेति । नीलोत्पलादेन्यत्र धर्मधारयस्य महाकवीनामसम्मतत्वात् । * तथा पक्तिं-'अनेककार्यव्यास गावस्या नागच्छति प्रियः । तस्या नाम सुदुःखार्ता विरहोकप्पिना मता ॥ १ ॥
सं० टी० ५० १३०० ९-१० ।
"
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--------------------------------------------------------------------------
________________
मर्थ
ܕܽܚ€?
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टु: घाब्द
-- अर्थ
पृष्ठ-गति मापणा:-अखाः विपणयश्च* ९-५ अधिरोहिणी-निणिः
१५-८ संचारिका-दूती
सरणिः-मार्ग:
१५-८ अवग्रहः-वृष्टिप्रतिबंधोस्माचन्द्वात्
अन्तरान्तरत्यादि-मध्य मध्ये उत्पातरविमंडलात--प्रति विशेषणमभूपपत्रमप्यु
उपधानम्-उपाशीर्षक, उच्छोरंक पपलमेव
१०-३ अमरासूरगुरू-बृहस्पतिको प्रवसितपथिकवनिता-प्रोषितभर्तृका
संवेश:-सुरतं अन्तर्वशिका:--राशीरक्षणनियुक्ताः
सागराम्परा-भः नि:शेषभापा:-मागध्यवरितकादयः १३-३ 'वासकसज्जिका-शृङ्गारकारिणी
१७-६ खदिरिका-धूर्ता
१४-१
__ दक्षिमाशाप्रनुत्तमामत:-इत्यनेनेयमुकम् गृहायग्रहणी-देहली १४-६ पारिप्लब-चपलत्वं
१८-५ आकेकरा:-कटाक्षाः
अनन्यजः-कामः
१८-६ वशा-करिणी
परिभाषा-संगापणं मास्त्रं च
१९-१ सहेलं-युगपत् सलोलं वा
उपोद्घात -विवक्षितस्प बस्तुनोत्रसारणक्रमः १५-१ सान्द्रः-विलेपनविशेषः ।
*अनुतन्त्राणि पश्चात् सुरतानि पक्ष वातिकानि १९-१ कूर्चस्थान-संभोगोपकरणस्थापनप्रदेश:
मकरन्दपानेनेत्यादिना-अधरग्रहणं तल्लंडन १९-२ संचारिमा-संचारेण निवृता संचारिमा
१५.५ नम्सप्रदानालिहनसंवेंशनानि--कुचपरामर्शन तुहिनं--कपूर
१५-५
तावनसुरतावसानानि निवेदितानि पालीका-पट्टिका
१५-५
ध्वनेरलंकारस्थाश्रयणातळ १९-२ से ११-५ साराः-पासकाः ? खदिरादिवृक्षविशेषाः' १५- अपश्चिम-चरम
२०-२ कुत-वाद्य १५-७ अन्तःकरण-मनः
२२-१ आचमनकानि-उदकपानानि १५-७ उपविधाय--कृत्वा
२२-४ कलमूकाः-पण्डाः १५-७ बहायकं-कारटकं
२३-७ *. त एष काश्मीरमलयजागुरुशब्दस्य परिनिपातो लक्षणं हेतोः क्रियायाः इत्ति ज्ञापकात् । १. तबाह-अभिधेयस्थातथ्यं तदनुपपन्न निकाममुपपन्नमेष पत्र स्पुर्वक्तृणागृन्मादोत्यर्थमुत्कां वा । २. तथा चोकम्-मागध्यावन्तिका प्राच्या सौरसेम्यधमागधी 1 वाल्हीको दाक्षिणात्या च ससभाषाः प्रकीर्तिताः ।
सं० टी० ए०२१ से संकलित-सम्पादक । *. ोषिकोऽयं मि-म प्रत्ययः । ३. संशोधितः परिवतितदच-सम्पादका ४. अन्तरान्सरेत्यादिवाक्यचतुष्टयस्य उत्फुल्लकमलेल्यागुणमानचतुष्टयं यथासंख्यं योग्यं । ५. तथा चोक्तं चिते वासके या तु रतिसंभोगलालसा । मण्डनं कुरुते हष्टा सा व वासकसज्जिका ।।१।। ६. तथा चोक्त स्वरोदयशास्त्रे-'दाक्षिणात्योऽनिल: श्रेयान् कामसंग्रामयोगा ।
क्रियास्वन्यास्वन्यः स्यावामनाहीप्रभञ्जनः' ॥१॥ ७. देखिए पृ० १८ की टिप्पणी नं० २। *. संस्कृतीकामनुसृत्य संशोधित परिवर्तितमिदं पर्द-गुम्पादकः यतः पञ्जिकाकारस्तु केवल वातिकानि' आहे । *. ध्वन्यलंकारः।
तथा चोक्तं-'अन्यार्थवाचकर्यत्र पदरम्यार्थ उभ्यते । सोऽलंकारोब्धनिशयो वक्तराषायसूचनात् ।। १ ।।
Page #536
--------------------------------------------------------------------------
________________
५००
मान्द
अर्थ
आकूतपरिपार्क - अभिप्रायावसानं पदवी मार्गः
अपाश्रयः शय्यास्थानं
कटङ्कराः - वृक्षशाखा:
वसंतृणं
अनुपदीना — उपानत् नासीरं—नासायामपि
वराटकाः — कपर्दिका:
धमनी - सिरानद्धं
क्रिटिका -कुटीद्वारपिधानं
गोनस :-- सर्गः
क्षिपस्तिः करः पिण्डिकाः–जङ्घाप्रवेशाः घुण्टिका – गुलकं
विपादिकाः
*विचचिका पादस्फोटाः
पादस्फुटन रेखा:
मण्डूर लोहमल
अष्टवः अव नामधेय : लेसिकापसद:
लेखिका: — हस्तिपकाः
अस्लीलं ग्राम्यं
विधुंतुदः – राहुः संबंध: - आशयः
वासतेयी - - रात्रिः
परवती-परायत्ता
तपनः कामः कात्यायनी - चण्डिका
बेलजं — द्वारम् दुरभिसन्धिः — दुरीति
मास्तिलक चम्पूकाव्ये
पृष्ठांति बान्द
२४-१
२४-५
२४-१
२४-६
२४-७
२४-८
२२-११
२३-१
२३-२
२३ - ३
२३-३
२३-४
२१-६
२३-७
२३-७
२३-८
२३-८ हरिद्वारा गहृदयः — अस्थिरचित्तः
२३-८
* सप्ताचिः --- अग्निः
कैकसी राक्षसी
२३-९
२३-१०
अनुer: - लौकिको श्रुतिः
२३-१०
अहल्या — गौतमभार्या
उपपतिः -- जारः
२४-९
२४-१०
२४-१०
२५-३
२५-६
२५-७
अर्थ
मामीयं— मातृलीयं
अर्थयतः मर्थ माझागस्य
२ याचमानस्य सं० टी० । ३. शेखरकवीजमिव प्रचटिकेव' सं० टी० पृ० ६९ ।
कारवाणं — कूपतिकः ( कञ्चुकमिति सं. टी. )
फौम्रोद्यम् – आलस्यं
निषादो - व्यामः
अवगणा – एकाकिनी
असंस्तुताः - अपरिचिताः
कञ्चरं कुत्सितं
पाण्डुरपृष्ठा – कुलटा निमांग्या वा किंणाकः - विषतरुः
उपानत्करः -- चकारः
अनुपनीतं— अकृतसंस्कारं
गोगनिवारणं - गोमक्षिकाणामपनयनाय
चीरमफलव्यजनं
कादम्बरी--मदिरा
जनुषा — जन्मना
अनर्थः धनवशयादि
अजिह्यानि – ऋजूनि
-
कलानां - गीतनृत्तवाचादीनां
याचितकं – परकीयं
अपामार्ग प्रत्यक पुष्पं ?
* पुष्पातिं पदं संस्कृतटीकातः संकलितं - सम्पादकः
१. उक्तं च- 'कटिपादहस्तवक्षः पृष्ठाननकण्ठनिटिलदेशेषु वक्रो यस्मात्तस्माद्विज्ञेयो ह्यष्टवक इति ।
३५-१
उपलोम्य -वशयित्वा ( लोमं दर्शयित्वा सं. टी.) १५-७
३६-३
३६--३
पृष्ठ- पंक्ति
२६-८
२७-२
२८-१
* 'असिततिरग्निः' इति हु० कि० क प्रतो० ।
२८-७
२८-७
२८-१०
३०-४
३०-४
३१-३
३२-१
३२-४
३३-८
३३-९
३४-५
३४-६
३६-४
३७-६
919-19
३७-७
३७-०८
३७-१
३७-१०
३९-५
संस्कृतीका ०४१ से संकलित - सम्पादक
Page #537
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________________
शब्द
श्रायमं-- श्रेयस्करं
राममा — प्रव्रज्या घधलं — व्यसनं
पोर्ध - मिथ्योक्तिः
'ब्रह्मोद्यकर्मणेयसे माथा - परवश्चनोपायः
मातुः - निजजनन्याः
मारः -- कामदेव सदृशः
अर्थ
गुणमयी नाम सत्वरजस्तमभिनिवृत्तरत्रात् दोपमयी - यारी - वातपित्तकफन तात् लोकालोकाचल एव – उदयाचल इत्र अस्तायल इव
रसाला - भञ्जिका – शिखरिणी
मग:--- गिरिः
निगमो मार्ग :
गोपुराणि - नगरद्वाराणि
उत्तानवेदी- अस्थिरः
औषस्य — प्राभाविकं
गोसगँ — प्रसृषः परिष्वङ्गः — संबंध:
उद्गमनीयं - घोतं
ईषत्प्राग्भारः - मोक्षः
यातयामं वृद्धं
उपसंव्यानं - उत्तरीयं
मजितम् — यवनतं
तनूरहः – पुत्रः आयन्छन्– निर्गच्छन्ति
स्वोपज्ञ - स्वकृतं
उत्थितं - स्वप्नः प्रतीक्ष्याः -पूज्याः
स्नुषा बघः
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द निघण्टुः
पृष्ठ- पंक्ति शब्द
ब्रह्म
बुधमङ्गः - विचक्षण:
३९-११
३९-११
Y0-4
४०-८
४०-८
४०-९
४०-१३
४० - १३
४२-३
४२-३
४४ - १
४४-३
४४-७
४४-८
४४-८
४५-१
४५-२
४५-२
४५-३
४५-४
४५-६
४५-१०
४६-२
४६-४
४०-३
४८-६
४८-९
४८-९
४८-१०
४८-११
अर्थ
रक्षार्थं निछोवनकणिका:
आचारान्त्रः- मूर्खः
अनलः - पित्तं
पीनसः कफः
कार्याणी स्वामिनी
भूदेवैः — द्विजैः मन्दविसर्पिणी—यूका
कारोरी - अप्रसूता गौ: उदर्क:-आयतिः
कर्करः - पापाण:
पूर्वपक्ष:- बाद्यो विकल्प निष्कण्टकमित्यादि
निरीक्षितोऽस्ति इत्यन्तः
गर्भः -- शुकातंबजीवसंयोगः
अवसानं - मरणं आत्मनो विवक्षितैः शरीरेन्द्रिय
विषयेदियोग इति यावत्
तयोरन्तरे—मध्ये
चित्तमित्यादि — आत्मस्वरूप भेदद्वारेण द्रत्रोष्णता
त्मकत्वात् पृथिवीपवनपावकानां ज्ञानसुखादिरूपत्वाच्चात्मनः
शिक्षा: - अनन्तरायाः
अमीषां वयः प्रभूतीनां
तत्र दण्डः - अलुप्त प्रजननस्य प्रयजतः पूर्वः साहसदण्ड इति वचनं
मध्यः मध्यमनयाः
राजव्यञ्जन राजचिह्नवानपरो नरः
मध्यमः - दुःस्वप्ना त्यादिकः विश्वामित्रसृष्टिः वर्णसंकरादिकः अनपचपः-- अविरुद्धः
प्रमहः स्वीकारः
५०१
पृष्ठ- पंक्ति
४९-१
४१-२
४९-२
४९-४
४९-४
४९-५
४९-६
४९-१२
१. तदुर्कन नर्मयुक्तं नृतं हिनस्ति न स्त्रीषु राजन्न विवाहकाले । प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपालकानि ॥ १ ॥
इति कर्णपर्वणि जिष्णुं प्रति कृष्णोक्तिः सं० डी० पृ० ७२ से संकलित - सम्पादक
५०-६
५१-१
५१-१
५१-४
५१-७
५१-१७
५१-७
५२-१
५२-४
५२-६
५३-१
५३-१
५३-४
५३-५
५४-२
५४–६
५६-८
Page #538
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________________
पृष्ट-पंक्ति
७०-४
७१-१२
७२-१ ७३-५ ७३-८.
७४-२
७४-४ ७५-८
५०२
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये शब्द अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ दा:-अमावास्या
सिद्धान्त:, पोवागानि, सप्तैद मातर: पौर्णमासी-पौर्णमासी
इत्यादि उपहताः-प्रणादिदूषिताः
५६-१२ १...मादिक्षाग. वात:-वासना
५७-२ सोम:-चन्द्रः कूटपाकल:- सद्यः प्राथहरो वरः
नाडीजचः-वानर कापेयं-चापलं
५७-६ सुरभितनया-सौरमेयो हध्यकत्र्ये-देवपितका
उरभं-मेषमांसं उभा:-अलस्थिताः
वार्षीणसः-शल्यकाः संवा-प्रतिज्ञा
वसु-मालिसिक्थमत्स्पयोरुपाल्पाने कविरुतास्त्र घटकर्माणि-स्तम्भनमोहनादीनि
विस्तरेण स्वयमेव वक्ष्यति सुघान्धसः-देवाः
६२-५
पुसौ-नौतमादेः अङ्गानि-शिक्षा कल्पो व्याकरणं छन्दी ज्योलिपं
प्राग्वंश:-यज्ञः निरक्तमितिइतिहासः–भारतं रामायणं च पुराणं वा प्रोक्तम् ६३-३
बङ्गलीय-मुद्रिका
अनुपदं-पश्चात् च शब्दान्मीमांसान्यायशास्त्र-परिग्रहः मया:-यत्र देवप्रतिष्ठा नाम व्यवहारश्च ते मयाः ६४-३
बेटल्य-दामस्य समयाः-जिनमिनिशामयशंकरागमाः, त एवं चत्वाय
प्रस्तर-पापाणः सोस्यलोकायताधिकाः षड्दर्शनानि
स्तभः-छागः भवन्ति
६४-१० बाबा:-बाह्मणाः *उद्गता-ऊर्ध्वता
६५-१ निसष्टार्थाः--स्वतन्त्राः काम्मा-इच्छा
६६-" सायुज्य-साम्मे क्रज्यादाः स्तेनव्याघ्रादयः
अत्यामादयन्-तिरस्कुर्वन्न् निगमें वे
६७-१०
गहमधिनौऽपि मुनयः इत्यादि दसानुपात्र-स्वोकृतव्यवहारं
गुणपामिनः-राक्षसाः च्याप्रादयो वा अन्यत्र स्वर्गादौ
६८-९
उभयानि-कुशलाफुदालानि स्कन्द:-कार्तिकेयः प्रत्यवहारः-संहारः
बोयाधिपलिः--आत्मा हिमातपाम्भः यमवा:-हेमन्तग्रीष्मवर्षाकाला: बहुत्वं-नियमनती प्रचुरता
७०-४ जानुभजिनी-यन्त्रविशेषः अन्यत्र-परमते, तथाहि-त्रय एव पुरुषाः, चत्वार प्रतिश्रुत-अम्युपगतं
एव वेदाः, पञ्च ओतोविनिर्गत एव शंव. रोक्षा--गुचा ( 'चोक्षा' मु० प्रतो )
७५-१२ ७६-१
७७-१
७७-१२ ७८-५
७९-१ ७२-४ ७९-४ ७९-५
६९-८
इयं-माता
७९-८
*. 'उम्मृता' इति मु. प्रती पाकः परन्तु पञिकाकारण स्वीकृतः पाठः सम्यगामाति-सम्पादक:
Page #539
--------------------------------------------------------------------------
________________
शब्य
अर्थ
ऋतथा च लौकिकी श्रुतिरित्यादि —
शतक्रतुः – इन्द्रः
वाम्जीवनः वदी
पौलस्त्यः- रावणः
दाण्डक्य:- राजा
प्रजापतिः धा कृकवाकुः — कुर्कुटः
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द निघण्टुः
पृष्ठ- पंक्ति
८०-१
८० - २
८०-२
८०-५
८०-५
८०-६
८० - १० कर्णीसुतः— मूलदेवः
८१-१
८१०९
८१-११
नीहार - हिमं
परती परिणीता अकुहनः— मनीष्मः
कृत्या - देवता सा किल आराधिता सती आराध
यितारमेव च खात
पञ्चता - मरणं
अक्षिगतः द्वेष्यः
उत्तायक : - अस्थिरः
उदभवत् -
-उत्कलत्
निःशलाकम् — एकान्तः
तामः – गडः
नवग्रहः – सद्योगृहीतः
पर्यनुयोगः -- प्रश्नः
मिथुन नरः – कोकः
पांशुला - सायरामा कुलटा च
मन्मथः कामः उद्वेगश्च
क स्वभाषा --- तिकस्वभावा विरसस्वभाषा घ
नोचानुगता - निम्नानुगा नीचानुगामिनी
परभागः – शोभा अन्यपुष्यं च साध्वी-सतो
प्रायोपवेशनम् - अनशनम्
परीषादः - अपवाद:
८६-९
८३-१०
८४-६
८५-१
८५- १
८५-२
८५-३
८५-३
८६-३
८६६
शब्द
وام با مے
अर्थ
प्रवहणं—गणभोजनं पूर्वभुस्थापितात्-आस्तामसी ताम्रघुङ - इत्यादिकात्
वीरपत्यतात्
अवहित्था --- आकारसंवरणं
इहुँच – उज्जयिन्य
तोलयति--- संशमं नयति
८१ - ११
८२-१
८२-१ उपाकृताः शास्त्र वाह्याः
८२-४
८२-६
८३-६
८३-८
*कुचुगारः — धूर्तशास्त्रप्रणेता
-
बल्वः—खळातिः
नितिन मिना तीक्ष्णधारेण
कबरी केशविन्यासः
दुर्दुर:
मण्डूकः
अत्ययः - कालातिपातः
वरिष्ठकः - तन्त्रपाल: ( 'क्षेत्रपाल : ' सं० टी० }
भैरवी - चण्डिका
८८-८
८९-२
८९-६
वेषविधायिनी टंकिका (सं० टी० घण्टा ) ६० - ३
नमसितं— उपयाचितकं
९१-७
११-०९
पलक्षण:---बातः
अकत्थन: - बलाधनीयः
अपाचीनः—प्रतिकूलः
आदित्यमुत: --- काकः उपलिङ्गानि दुर्निमित्तानि
त्रिशूलिनी—ण्डिका
प्रोक्षिला - दत्ता
५०३
पृष्ठ - पंक्ति
८६-७
तस्य -- कुर्कुटस्य
स्म इति — किलार्थ
८६-९
८६-११
८७-२
८७-४
८७-५
तुला ६
८७-७
८८-६
८८-७
९२-२
९३-१
९३-९
६३-९
९९-१०
९३-१०
९३-११
९४-१
९४-२
९४-६
इति चतुर्थ आश्वासः
सदागतिः वातः सदा सर्वकालं गतिः भक्ति मार्ग: ९६ ३
* स्वर्गे किल सभायामेव विवादभूत् । मनुष्यलोककृतैवेह प्राणितां शिष्टेतरव्यवस्था नामीयाचारनिबंधनेति । इदं बृहस्पतिरसमानः सर्वाभरणविभूषितमवृद्धाह्मणप्रमादाय बुङ्कारनगरे प्रविशन् हारितसर्वस्वन लोचनानहरनाम्ना कितवेन कणमेकं याचितो नादात् । पुनस्तेन कुपितचेतसा एषः खलु हिजो न भवति साधुः किन्तु ठकोऽयं संप्रत्येव स्वाध्यायिनां मंडलों निपात्मागतोऽयमिति दूषितस्तत्र पुरे प्रवेशनलभमानः 'निविचारो मनुष्यलोक इत्युक्त्वा नाफलोकं गतः प्रवेशं नालभतॆति । * 'कुमार' मु० प्रतौ ।
Page #540
--------------------------------------------------------------------------
________________
अर्थ
९९-१
५०४
यास्तिलकचम्पूकाव्ये शब्द पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति कर्मान्त:-कविसानः, भूः पृथ्वी, विनयजनस्य
समदनः-मदन: तरः ( राजवृक्षः सं० टी.), संपनिमित्तं भुवमवतीति भूः, अवतेः
सम्यक अदनं यस्य, सह मदनन स्मरेण वा विपि सति वस्य संग्रसारण सन्धिकार्य च
वर्तत इति च कृतं भूरिति भवति
९६-६ चेतक:- हरीतकः, चिती संज्ञान चेतन चेतः, लेज दाता-यजमानः वितरिता शीलार्थे नन् ६६-३ चेतेन सह वर्तत इति
९८-५ ते-लोकप्रसिद्ध ९६-३ कीमत्सुः-पाय.
१८-५ ज्योतिषी-जानदर्शवलक्षणेन ।
१६-३ कपयो मर्कटाः, वजास्तरवः तेजः- अग्नि: आपश्च ९६-४ मेरुवासिनः-हरः
२८-६ अनङ्गन-आकाशं; अविद्यमाना अङ्गना यस्य ९६-४ दुर्गाणि---विषमाः प्रदेशाः, दुर्गा-गौरी ब ९८-६ तमस्त:-अज्ञानात्, अनेनाष्टमूर्तिमत्वं भगवतः उक्तं ९६-४ भोगिनी-सर्पिणी, अवरुद्धवधूश्च
९८-६ शका---पूर्णमासी १७-५ रेवतीपतिः-बलभद्रः
९८-६ चामरं-चमरोणां समूहश्चामरं तदवयवश्च ९४-६ विडिका--पक्षिण्यः, कावटिश्च
९८-६ किटि:-मूकरः
९७-७ प्रारभार:-विस्तारा दरद-इत्यव्ययं [ दरदेहाः विदार्यमाणशरीराः
अधित्यका-पर्वतस्योपरितनो भाग: सं० टी० पृ० १६९-१४ ] १७-८ पुण्यजना: यक्षाः
९९-५ आवापः--आश्रयः
९९-५ दौलेयः-कच्छमः
९७-८ नेत्राणि-तमजटाः मृगविशेपाः वा लोचनानि च ९५-८
वर्णा:-हरितपीलादयो ब्राह्मणादयश्च १००-७
दलानि-पत्राणि कारणानि च पावतिः-इन्द्रः
९७-८ उपत्यका-पर्वतस्य अधस्तनो देश:
९८-१
कापुस्स्यः-रामः तटाघात:--विवारणं
पलाशाः-पल्लवाः राक्षसाश्च
१०१-१ कुशिकसुतः--उलूक: पकश्व
द्विजराजा:--पनि प्रधानाः विप्रमुख्यादव १०१-१ कमला:--मृगाः अन्जानि न
९८-३ पादाः-अक्षरसंघाताः मूलानि च ।
१०१-२ पुण्डरीकः--व्याघ्रः सिताब्ज च
पत्राणि-वाहनानि बलानि च समीक्षा--सांस्यशास्त्र
९८-३ प्रापूर्णका:-आगन्तवः
१०१-४ कपिलः–यकंटः, मुनिश्च
९८-३ उपयाचित-नमसिन
१०१-५ कञ्चुकिनः-सर्पाः अन्तःपुररक्षफाश्त्र
गो-पशु भुवं च सदन्तोत्सर्ग:--सन्ति नक्षत्राणि अन्ते यस्योत्सर्गस्य
विनायकः-धीनां ( पक्षिणां ) नायकाः गाडादयो स सदन्तः उत्सगों व्याप्तिर्यस्य
सस्य, गणपतिश्च पवनमार्गस्य मदन्तः सतटश्च ९८-४ वनमाला सक, काननपक्तिश्च पारापता:-पक्षिणः कमालानि च ९८-४ ययः-अवस्था, वयांसि पक्षिणः
१०१-६ हेरम्ब:-महिपः विनायकरच
९८४ शुचिच्छदपरिच्छदः--[ शुधिभिः पवित्रछपः पणे पिङ्गलेश्वणः-कटः
९८-५ परिच्छदः परिवृतः आच्छादितश्च, पक्षे शुनियादो साक्वरः-गौः
९८-५ हंसपक्षी स परिच्छदो वाहनो यस्य स तथा ] १. 'कमलस्तु मगान्तर' इति ईमः ।
९८-२
Page #541
--------------------------------------------------------------------------
________________
대학
अर्थ
*शुभ प्रदानि च'
सुरवाहिनी सुरसेना मङ्गा च
प्रवाल-- विनुमं बालपल्लवश्च प्रियालोकन: - प्रियदर्शनः
संपाक:--आकृतिमालकः ? ( वृविशेपः )
तृणराज:- तालः
पूतीकः करः
विपिनमधिवसतीत्यत्र 'उपान्वध्याङ्ग वसः' इत्यनेनाधिकरणे द्वितीया
उद्गमः पृष्पं सूरुम्बः———वत्तंसः
दुश्च्यवनः - शक्रः
प्रतीचीनः -- विपरीतः
चिक्क:- अल्पः [ रानतिरि-साल
सस्य सं० डी० पृ० १७९ /
विश्वणः आसक्तः
पक्वर्ण – भिल्लपल्ल
वातप्रभो — बातमृगः
★ वीतंसः पक्षिणां पाशः
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द निघण्टुः
पूछ-पंक्ति शब्य
अर्थ
१०२-१ वरारोहा -- स्त्री ( वरारोहाः मत्तकामिन्यः सं० टी० पृ० १८१ )
१०२-१
१०४-२
१०२-२
१०२०५
१०२६
१०२-६
मृगबन्धं — मृगबन्धनं
परिणं - यत्र स्थित्वा मृगा हन्यन्ते स प्रदेश: पलिश उच्यते
पक्षति – पमूलं
रोदस्योः~–श्चावाभूम्योः कारागारक्रियः – वन्दी
प्रचलाकप्रचयः — पिच्छकलापः
सारे - समीपे ? [ साराणि पुरुपरत्नादीनि इति
सं० टी० १० १८० ] कृशोदरी —स्त्री
१०३-१
१०३-१
१०३-२
१०३ -२
१०३ - ८
निकायं—– गृहं
उपचाय्यंमानः प्रतिपात्यमानः
जेमनं—भोजनम्
सभास्तार:-सभ्यः
इतिः- उपद्रवः
शातकुम्भं - हेम
रहन्ति - त्यजन्ति
१०४ - ३ १०४-४
मण्डलवाल वा
वर्करकः साधिशुः
पिकः — मेषः
निचिकी -मुक्षा गौः
१०३०८ १०३ - ८ १०३-८द्गुणः - १०४ - १ द्वृषणः — मुद्गरः १०४-१ रकाशः --- महिषः
-उद्यतः
१०४-२
१०४-६ १०४ - ९
राजेष् शकृत्करिः वत्सः
अमनिदेषा:- तुणभक्षणद्रोणी
सं. टी० पू० १८५] प्रष्ठोहो--गणी गौः स्त्रीवा ausमणो — प्रोत्सा १०४-४ गृहावग्रहणी -- देहली
१०४-५
माहेयी - गौः
१०४-५
नाथहरिः अलभद्रः [*नाथहरयो वृषभाः
५०५
पृष्ठ- पंक्ति
१०५-१
१०५-१
१०५-१
१०५-२
१०५-२-३
१०५-१०
१०६-४
१०६-५
१०६-७
१०६-७
20-19
१०६-९
१०६-९
१०६-९
१०६-१०
१०६-१०
१०६-१०
१०६-१०
१०६-११
१०६-११
१०६-११
१०६-११
१०७--१
व्याहारः शब्दः
१०७-१
छि:- प्रथमप्रसूता गौः [ सकृत्प्रसूता सं. टी. ] १०७-२ परेष्टुका — बहुप्रसूतिः गौः
१०७-२
समांसमीना - प्रतिवर्ष प्रसूः
१०७-२
★ अयं कोष्याङ्कितः पाठः संस्कृतटीकालः ( ० १७६ ) संकलितः सम्पादकः ।
१. यश० परिजका । * उक्तं च-वीतं शस्त्रोपकरणं बन्धने मृगपक्षिणाम् 1' सं० टी० ५० १७९ से संकलित - सम्पादकः
*. 'नाथहरि' सदस्य 'षभः' इति सं० टोकाकारस्यार्थः प्रकरणतावच्छेदेन सम्यक् प्रतीयते-- सम्पादकः
२. 'मांसमीना तु या सा प्रतिवर्ष प्रजायते' इत्यभिधानचिन्तामणिः सं० टी० ५० १८६ को टिप्पणी से संकलित - सम्पादक
६४.
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________________
مي هو
બ૦૬
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये शब्द अर्थ पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति सुन्नता--सुश्वदोह्या
१०७-३ वाङ्गलो-स्थगिका ? [वालीमालेन पुगफलादि पलिक्नी-अल्पदिनमा
१०७-३ प्रसववेन सं. टी. प. १९०-११] १०४-१० बेहत-गलितगर्मा
१०७-३ अनुषदीना-पान वसा-सन्ध्या
१०७-३ बावर्ष:-फलक अवलोका-विषाणविकला १०७-३ भषिष्ठल:---या
१०९-५ उस्रा:-गाव:
१०७-३ दिवसकरात्मजः-यमः बालेयक-गदमः
उपमन्नता-मरणं आरंया-मैपः
मायाकार ---प्रतीहार ! मृगदंश-पाळावफा कौलयक-विश्वक-वित्य
भूवेवा:-द्विजाः बागरुक-सारमेय यक्षपुरुप
अन्धाहाय-मृलस्य मासिको विधि:
११०-४ ऐतसस? बराइवरी-वांतादाः श्वपर्याया: १.७-४,५,६,
निगद्यागमः-णितशास्त्रं ७,१०,१३,१५,
वामेशणा-खी श्वेतपिङ्गलः-सिंहः 10७-६ खङ्गाः-गाणाः मृगविशेषाश्त्र
१११-२ मार्गायुक:--मृगयाकुशलः
१०४-६ महद्भिः अजगरश्न । पारमा-गुनी
१०७-११ दन्तिन: पर्वताः गजारच, 'सटो रक्षश्च दन्तान' दंष्ट्रायुधः-वराहः
इति वचनात
१११-३ हर्यश्नः-सिंहः १०७-११,१२ अष्टापद -ज्यालविशेषः कैलाशश्न
१११-३ निशान्तं-अन्तःपुर १०८-२ नाटेर:-नट:
१५१-३ माम्मली-दासी
१०८-२ चित्र-मण्डल अधिरोहण-सोपानं
१०८-४
चित्रका:- मुगविपाः [ चित्रत्राः व्याघ्नविदोषाः प्रतीपदशिनी-स्थी
सं.टी. प. १९४] मोहन-सुरतं
मेघरावः-जलवशब्दः मयूरमन्च प्रोटिः-नन्तः
१११-४ गल्क-खण्डं
१०८-७
मागम्रो- गुदक्षिणा दिलीपपत्नीति यावत् तस्याः फुक:-करणः ? [ पिारीग्रीवा . टी. पृ. १९०] १०८-८
प्रभवः, पिप्पली च
११.१.४ संवाधा-पीड़ा
अमृतं- सुधा, अमृता गुरूची छ
१११-४ १०८-२
विजया--गौरीसखी हरोतकीच विरञ्च:--स्वरः [ 'पीडाशब्देन सावधानसमोप
जम्बुका-जयणः शृगालश्च शारीरिकथा' सं. टी. प. १९०-९ संशोचित न प्रतितः यता मृ० प्रती
सुदर्शनं-चक्र, सुदर्शनः औषधिश्च न वरीवति ।
'मद्भवाः-अर्जुननकुलसहदेवाः, लतापादप जीबट
भाटवियोषाः, मनभयो भीमश्च' इति पखिकाबारः सुप्रतिधः-पसद्ग्रहः [ ताम्बूलादिभाजनसंपुटक
। गरुभवार्जुननकुलसहदेवानृगं मरुद्भवी बालोत्पत्तिः, वं० टी० १० १९० ]
२०८-९ अर्जनः केकी अर्जुनो भविशेषः, नकुलः सर्पवरी, तालवन्तं-व्यजनं
१०४-१० सहदेवा बम, मरुद्भवार्जुननकुलराहदेवास्ताननुगच्छप्रकीर्णक-चामर
१०८-१० तीति पराभवार्जुननकुलसद्ददेवानृगं । कमिव
.
.
.
१०८-६
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अप्रयुक्त क्लिप्टतम शब्द-निघण्टुः
५०७ पाच्य बर्थ पृ-पवित ____ छाम्न अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति युधिष्ठिरमिव, यशा युधिष्ठिरो मरुद्भवेन भीमसेगेन निःश्रेणी-खजूरो
११३-२ अर्जुनेन पार्थेन अनुगच्छति अनुगमनं करोति । अथवा लेखपत्त्र-तालः
११३-२ मण्यार्जुननकुलसहदेवा अनुगाः यस्य स तथा नम्-१११-५ त्रिनेत्रः-सालिकरं
११३-२ अभीग:-शूरः लताविशेषश्च' १११-६ लम्बस्तनी-चिष्मा
११३-२ लक्ष्मी:-श्रीः लताविदोषश्य
१११-६ कवच:-पटक: बुहती-छन्दो जातिः वीर विशेषच १११-६ रक्ततुष्टः--शुक:
११४-१ समय:-आश्रमः
उच्चिमि-दाडिम
११४-१ सपस्विनी--प्रजिता मण्डिताच ११२-१ अपचयः-उञ्छनं
११४-१ चन्दलेखा--आशिकला याचिका च
उपलाथा--लता कलि-कालविगेप: बिभीतकापत्र ११२-१ प्रलम्बः-प्रतानं
११४-२ अर्फ:---रवि: वीरुतिशेषश्व
११२-२ जानका:-वृषभाः [अरण्यवर्षमाः बानरा बेति सम्बरिष-रणं ११२-२ सं. टी. प. १९८]
११४-२ भारमंदा-अरीणां मदः वाविप्रोषः अरिभेदः
वैल्लिकाः-सुताः [विलातल्लिकाः भिल्लानां तमविशेषश्च शिवप्रियः-वतरक:
____ पालकाः सं० टी० पृ. १९८ ] गायत्री--पदिरः
चुरो-चालुकावापिका चुण्टोति यावत् ११४-४ कालिदारा:-चूत:
डामरिकाः-चौराः
११२-३ प्रह्मचारी-पलाशः
प्रकाण्डः-शाला [प्रकाण्डाः समूहा संटी०प०१९९] ११४-८ वर्षमान:-एरण्यः
ट्रमला:-दुमसमूहाः दिग्गजकुलं
स्वञ्जनः-जन्तुविशेफः वामनः--मदनतरुश्च
११३-१ चित्रकः-चमूर: [ चित्रकाः व्याघ्रविशेषसमहाः मोमः-सोमबल्ली [ 'हरीतकीवृक्षः'
सं. टी. पृ. २००] म. टो० पु. १६६] ११३-१ उदग्या-तृट्
११४-१. पूतना-हरीतकी
११३-१ रक-मृगयिपः मातृनन्दन--करमः १९३-१ शल्लकरल्लको अपि-गविशेषो
११५-१-२
*. सं. टो• पृ० १९४ से संकलित-सम्पादक १. अभौफरिन्दीवरी, उक्त च-यातमूलो बहसुला अमोरिन्दीवरी स्थिरपत्ता' इति यावत् । सं० टी० १० १९५ । २. तपस्विनी-प्रणिता, मुण्डीकलारा च सं० टो• पृ० ११५ । ३. 'विट स्वदिरः सं०टी० पु. १९५ । ४. उक्तं च-रावणः पुण्डरीको वागनः कुमुदोऽञ्जनः । पुष्पदन्तः सार्वभौमः सुप्रतीकश्न दिग्गजाः !!
ऐरावणः पुण्डरीकः पुष्पदन्तोऽय वामनः । मुमतीकाजनो सार्वभौमः कुमुद इत्यपि ।। इति पञ्जिकाकारः ।
अभ्रमृचव कपिला ताम! घ वामनः । अनृपाञ्जमवत्यौ च शुभ्रदन्ती च पिङ्गलाः ।।' इति दिग्गजामा भार्याश्चताः ५. मुक्तं सत् चमनं कारयति वामनो मवनवृक्षः-सं० टी० पृ० १९६ । *. सं. टीकायाः अर्थः सम्यक् प्रतिभाति-सम्पादकः
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५०८
पृष्ट-पंक्ति
पशस्तिलकचम्पूकाध्ये शब्द अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ *मगादनी-लताविदोपः ११५-३ पभावतो-उज्जयिनी
११८-२ 'व्याघ्री-वृहती ( 'भटकटैया' इति भाषा ) ११५-३ भोगवती–अहिपुरी
११८-४ निस्त्रिशपत्त्रः-निहुण्डः
पन:-सर्पविशेषः ब्रह्माण:- पलाशाः
११६-१ संबर:-जलं मृगश्च हरयः-सिंहाः
लक्ष्मणा:-सारसाः पक्षे सौमित्रिः
११८-५ स्थाणयः-छिन्नाग्रभागस्तरुप्रकाण्डः, पो बहा
धार्तराष्ट्रा:-कौरवाः हंसाश्च विष्णुमहेश्वराधन
पा:-नुनिः विकार
११८-६ मधुः-दानवःक्षाद्रं च ११६-२ आस्फूजिल:-यक्र:
११८-६ मदनः-फामस्तरुपच
धलि:-दानवः पूमा ध चिल्ल-दूधिकोपहत
१९६-३
सौगन्धिका:-सुगन्धिवस्तुपण्याः पुष्पाणि च । ११८-७ अणक-कृत्सितं
ग्राहाः-मकराः अबगाढं--प्राप्त
११६-३ कमठा:-पूर्माः
११८-७ पाण-मास्त्रोनेजनयन
११६-४
पत्रिणः-पक्षिणः अशना-क्षुत्
भराला:-हंसाः पवनाशना:-सपाः
दार्वाधाटा:-सारसाः शक्रा:-वल्मीकाः
कारण्डा:-पक्षिण: शिखायला-मयूरः
११७-२ काण्डः-जाणः
११९-२ अग्निजन्मा-श्या
११५-२
मल्लिकाक्षा:-हंसविटीपा: वषः-धर्मः मूर्षिकाच
। ११५-३ अनहाराः-जलव्यालाः [ग्राहाः सं० टी० पृ० २०८] ११९-५ विपं-जलं गरल च
११७-३ दीवय:-जलसाः सरीसृपः-सर्पः ११७-४ मूककाः-भेकाः
११९-६ बामलूर:-बल्मीकः ११७-४ वाली-पीची ।
११९-९ पुरीतत-अन्
११७-४ आमलक-स्फटिक अनन्ता-भूः ११७-५ वानीरो-वैतसो गतः
१२०-२ असुग्वरा-त्वक ११७-६ वजुल:-लताविशेष:
१२०-२ क्षतर्ज-रुधिर ११५-६ दुर्वर्ण-रजतं
१२०६ सरर्स-मांस
११७-७ पटचरणः-भ्रमरः पृपदाफ:-सर्पः
११७-८ भाई-भाजन इन्दुणिः-चन्द्रकान्तः ११८-२ सरिद्वरा--गङ्गा
१९१-२
* पहें मृमानदन्ति भक्षयन्ति मृगादन्यो लुब्धकभार्याः प्रायेण, सं० टी० पृ. २००। १. पक्षे व्याधी द्वीपिनी । २. सेहण्डवृक्षः, पो मिस्त्रिमापत्त्राः निर्दयवाहनजीवाः सं० टी० पृ० २०१ । * उनकं च-रक्तकोः संचरण 'राजहंसान् विभावयेत् ।।
श्यामलमल्लिकाक्षास्तु धार्तराष्ट्राः सितेतरैः ।।' सं० टी० पु. २०८ ।
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________________
अर्थ
शब्द चिलीचिमा:-मत्स्याः पमस्य-दधि कुलवन्ती नदी ध्यक्ष:-समस्तः पालाक्ष:-महिपः चुलुकी-शिदामारभार्या तदपत्यं बौलफेयः
शिशुमारः लगुष्ठः--दण्डः तरी-नोः १२३-५ तर्पः तृणमयः लरमः-फलक वैडिका-शुद्रा नौः खडपः-चमविनद्धः तमतम् --कमयमास्तरणं अजिन-धर्म जणं--पल्याणं बम्बूलबदरीकरीरा:-सिद्धाः उरचाः-मेषाः अतिकामन–अतिगच्छन् अविकट:- मेष-समूहः सौम्यधातु:-शुक्र विपक्षा:-मासाः कार्दमिक कर्दमेण रक्त कृष्णवर्णमित्यर्थः दण्डक:-क्षुद्रमार्ग: सकाण्डं-बाणसहितं कोणा:-दण्डाः चित्रगुप्तः-यमाचपटलिका भयोमुखः-दाणः अवलपन:-मध्यः शकली-मत्स्यः प्रमीत:-मृतः दुललिता-सका विदादाता:-मासाः प्रोथ:-नासा कासर:..-महिषः प्रस्फोटनः--सूपं
अप्रयुच-क्लिष्टतम शब्द-निघण्टुः
५०९ पूरा-पंक्ति शब्द अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति १२१-५ त्र्यूषण:-विकटकं
१२८-५ १२२-६ (शुण्ठीमरिचपिप्पलीचूर्ण) १२२-६ आलन्द्रक -भाजन
१२८-५ १२- गोर्वर:-नोमयः
१२८-५ १२२-७ हरमनः-वयाम्निः
१२८-६ उचानं-चुल्लो
१२८-७ १२२-७ लिपस्तिः-भुजः
१२८-१० १२३-४ पादान्तलक्ष्मी:-पादपङ्क्तिशोमा
१२९-१ १२३-५ फुतपी-तुरी [ मादंङ्गिक सं० टी०१० २२९ ] १९९-३ १२३-५ उपवीणनं-वीणावादनं
१२६-६ १२३-५ भयुः-किन्नरः
१२२-६ १२३-५ निदर्र-कन्दरं
१२५-६ १२४६ सूर्यप्रविमागत:-कायोत्सर्गः १२४-६ अरे कदाचाराचार-अरे कूरिसताचार! १३१-५ १२४-६ पराक्रदुरात्मन्-परावन वधेन दुरात्मा तस्य १२४-६ संधोधनं क्रियते अरे पराक्रदुरात्मन १२४.७ खेट:-अघमः, सप्तत्रासको वा खिट उत्तवासने १२४-८ इति धातो: पाठात १२४-८ याप्य:-निन्धः
१३१-५ १२५-१ फुमतिः-माया
१३१-६ १२५-२ मटहः-लघुः १२५-४ ब्रह्मासनं-च्यानं
१३१-७ १२५-५ समुनद्धभार्च-दृप्तत्वं
१३१-८ १२५-५ अवनतमुखाज:--अधोमुखवमल: १२५-६ अनुक्रोश:--अनुकम्पा
२३२-७ १२६-१ मेदिनी-म्लेच्छस्थी भूश्च
अकारणं-अकुत्सितं, मुद्धं निनिमित्तं च १३३-५ १२६-४ तका:-याचकाः १२६-४ निवहग-निगकरणं
१३३-८ १२:-५ रिपवर्ग:-कामक्रोषलोभमानमदहः १३४-३ १२६-७ हुन्द्वानि-परिमितत्वं कालहरणमित्येक द्वन्द्वं, १२७-६ प्राणादर्शन श्रवणगतत्वमिति द्वितीयं, अवधारण१२७-८ मनवसरः इति तृतीयं, महासात्विकर्मश्वर्यमिति १२७-१ चतुर्थ इन्१२८-३ दान्यता-त्यागिता
१३४-९
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________________
अर्थ
पृष्ठ-पति
यशस्तिलफचम्पूकान्ये शब्द
५९ पंक्ति सन्द बपाश्रयः-निपटा
पक्रोश्नगर्दभः [ आश्रयः सं० टी० पृ० २४.] १३६-१ बालाजिर-शरावं नपयजः-ग्रामः
मास्यनितं मनः मापदं—'फालक [ अष्टापदभूमिका-तुरङ्गफल
गणरात्रा:--रात्रिसमूहाः
१४२-४ भूमिका इति सं० टी० पृ. २४२-४] १३७-१ नवविधा-नगमस्थिथिधों द्रव्यपर्यागोभयभेदन, गमः-यानं [ गमः परगृहे यानमित्यर्थ: सं० टी० संग्रहण्यवहारादयश्व पभेदाः पृ० २४२-२]
१६७-२ वरदयर'---चांभरादितीर्थकरश्च उद्धवः----गः
१३५-५ कपिलतालयशालिनी-कपिलता लयः समः स्वम्हिम्न:-विप्लयः (विष्यषः-विनाश: संदी
पावासिः तेन शालत इत्येवं शीला, पक्षे कपिपृ. २४३)
भि तालयश्च शालिनी गोममाना १४२-७ सम्पराय:--संग्रामः १३७-८ परलोकः-स्वर्गादिः प्रतिपधारन्च
१४३-१ अमत्राणि-भाजनानि
१३८-२ निमोग-नियोगभायनादयो वाक्यार्थः, नियोगः साल, -प्राकारः
आचरणादिप्रश्नः, भावना:-दर्शनविशुद्धि समलं-अशुचि
रिस्मादिकाः पोडश अत्याधानम्-अधस्तन
१३९-६ योगाचार:- ज्ञानाद्वैतवादी, योगः-आमागमकाष्ठं-उपयोपः ? ( काष्ठं दार हत्यमरः) १३६-६
पदार्थयाथात्म्यज्ञानानविद्धसपरिस्पन्दात्मभ्रदेशः, सुरवं विदन्तोऽपीतिनिर्देशः विदेःशत्तुर्वसुरित्यत्र
उपात्तागामिनकर्मक्षयप्रतिबन्धहेतुराचारश्च १४३-१ विकल्पस्पष्टत्वात् १२९-६ 'सत्सचिड:
१४३-२ पुष्प-कूष्माण्डं १३९-८ कुमारः-कुहकवियोपाध्याय:
१४३आदीनब:-दोषः १४०.३ बाहुबलि:-ईश्वरः केवली च
१४३-३ प्रतिसरः--काण्डपटः
१४०-४ पाश्चगित:-चित्रकर्मणि सविधोपः तीर्थकरलेखा:--देवाः १४०-४ विघोषागतं घ
१४३-३ पगनगमनाः-खेचराः
१४०-६ अचोक:-तरुः राजा ध उदाहरण--पदाः
१४०-८ मेटिणी-तरः राज्ञी च निचोल:--निवलकः ( निचुलस्तु निचोले स्यान इति घरणे-मक्षणं, करणं-उस्फुल्लविज़म्भादिक विश्वः, निचोलः प्रच्छदपटः अंगरखा इति भाषायां
चरणकरण-आगमविदॉपी
१४४-२ सम्पादकः) १४०-८ परन्दर इत्यादिना चित्रालिखितास्वप्नावली वर्णति १४४-१ पोष्करयं---कमलं १४१-१ रमा-श्री:
१४४-२ मेवागारिक-मलिम्लच-पाटच्चरन्तक्षप्रवाणिजकाः
पलाशःनाक्षयः परलयश्व चोरपर्यायाः
परभाग:-शोभा परांदयं च * धर्मस्थोमाः १४१-४ देहलीबेहरी
१४७-२
*, तदुर्ग-सर्ववर्णाश्रमाचारविचारोचितचेतसः । दण्टदाची यथावोषं धर्मस्थीयाः प्रकीर्तिताः ॥१॥ १. सदुपत-संपत्तीः स्वामिनः स्वस्य विपत्तीस्तदरातिमु । यः सापयति बद्धव तं विदुः सचिवं धाः ।। १ ।।
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________________
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टः शन्द गर्य पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ
पृष्ठ-पति बरराणि-कपाटानि
१४७--२ स्वलक्षणं-सजातीयविज्ञालोयल्यावृत्तक्षणिकयोग्या-अभ्यासः
१४७-३ निरापरमाणमात्र विलय:-विनाशः पक्षिसंथयश्च
१४७-५ असाध्य-अनुपलभ्यमानफलं लिपिकरा:-लेखवा:
१४७-५ वन-जलं अद्यानं-उद्गमन
तदात्मशात्यादिमतदाह
१५६-८ गोपानसी-महान्छादनपटलकदेवा:
स्वरितस्वर:-मध्यमध्वनि:
१५७-१० उटण-तणयुटीरक
शेफस-पाचनस्य
१६०-३ छादिः-पटलं
१५०-१ शतधतिः-इन्द्रः
१६-४ कङ्कः-पक्षी
अगेन्द्र:-गरः
१६०-६ कृष्णलेश्या-गद्रपरिणामः
रथचरणपाणि:--नारायणः करटा:-काका मुगव्यदः-दवानः
१५०-२
प्रामहर-शोभन जनंगम:-माल: ( चण्डाल:)
प्रवह च-शोभन
१५०-२ श्वपत्र:-अन्तावमायी-दिवाकीर्तिश्चानडालाः
तायागत- मयि बौढ़े मापदंश:-मार्जारः
अतितः-आगमतः आणिका:-क्रीडा:
१५०-५ विघन्-कुबन "विध विधाने इत्यस्यरूपं, १६३उत्कुष्टः-वाचवार: ? ( कुक्कुटः )
१५०-५ कुलाल:-कुम्भकारः नवहिता-तत्परा
१५०-६ समावन:--नित्यः निगृह्य-निस्अिश्य ?
१५०-६
उर्वरा-पृथ्वी पुष्परयकीरधौयानविशेषो
प्रभवभाष:-कार्यकारणभाव:
१६५-५ *पीठगर्दनिषिदएकनायकशामाजिकानां लक्ष
श्वेडे-विष गानि पूर्योकानि
१५१-३
पाण्डतनया विति निदर्शनमयक्तं पण्डकर्मादिका उपकार्या-मठमन्दिरादि राजसदनं
पाण्वनयानामभावादिति तन्नः
१६७-१ खरपर्द-ठम्नशास्त्र
१५१-६ निगरणः-लालः
५६७-६ साधुकः-निजभायाँभगिनीपतिः १५५-५ फरलो-संहतिः
१६७-७ दुःखत्रर्थ- आध्यात्मिकाधिभोलिकाधिवैविक दंन १५१- विवाघुष्ट-घोषणा बोपवान् आत्मा १५३-३ कल्यपाला:-मद्यसंचामिनः
१६८-३ बहुधानक-प्रकृतिः अत्र्पत च
भादि-मकारादिपवनयस्य मधुमासमधलक्षणस्य १६८-४ ताधिपः-वर्ग:
१५३-८ चिक्यसा-खिल्लाः - ... १. चण्डालालवमातंगदिवाकीतिजनंगमाः इत्यमरः-सम्पादक: *. दरबार १० १५५ टिक नं. २ २. तदुक्तं-दहारिमका देहकार्या देहस्य च गुणी मत्तिः । मतऋयमिहात्रिस्य नास्त्यम्पारास्य गोचरः ।। १ ।। ३. तदुक्तं-आराद् दूरसम वस्तु, कालात्ययात्पुराऽपि यत् ।
संभाव्यते न तद्वक्ता तथात्वन बदन् जड़ः । तथा भवतु वा मा वादृष्टाल्पक्षनरकाशिकं । न जातु दोषभाक् बक्ता स्वकालापेक्षया वंदन लस्कालापेक्षया सर्व भावाः कविगोचरा: तत्सबंज्ञादपरस्यास्ति न काव्यप्रसरोऽन्यथा |
इति वचनात् ।
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________________
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पृष्ठ-पंक्ति
१७९-१
मुकुरुस्व:---दर्पणः
पृष्ठ-पंक्ति द अर्थ मावी--प्रसूतिथ्यथा
१६८-१० मदागर्भ-मुनिकुमारयुगल-पुरदेवत्ता-पुरेश्वर-पौरदोरा:-श्वानः
जनागमनं जोषः-सेवा
१६९- संयमधी:-तोपां मारिवत्तादीनामागमने प्राणियो विधीतं-करू
माभूदिति बुद्धिः आविग्न-उद्विग्नं
१६९-२ कन्दलानि-शिरः नकलानि पल्लवानि वा १७९-४ बहका:-वणिजः
१६९-१० मेलिहाना:-सर्पाः मन्युः--कोप: १६१-१० त्रिदिवदीधिका-गङ्गा
१७९-६ १७०-२ अर्जुनाम्बुज-मिलाम्बुज
१७१-६ आवंशिक:-अतिथि:
१७५-४ भिदुः-घुणकोटाः
१८०-२ पंचशाख:-हस्तः
::- ..-५::
१८०-४ मस्तुकारा:-अभिमसाः
१७१-७ दयोंचिताचरणानन्दिताः बिनीतावनिपालदारा येन अष्टाङ्गमहानिमितानि१७२-४ शेषाद्वेति का वारकः इति
१८०-४ सभाजन-प्रीतिः
१७२-६ दारक:-विदारणशील:
१८०-४ *प्रायोपवेशनं
१७२-११ क्षुद्राः-पुरावाराः
१८१-२ अदभूतमासमेत:-आश्चर्यलक्ष्मोसमन्वितः २७२-१२
कादवेया:--सर्गः ब्रह्मपुत्र:-विर्ष
१७२-१३ अनुजपर्य:-पश्चाजन्मपर्यायः
१८१-३ सोल्किकेयं च-विर्ष
अभ्युदयः-शरीरेन्द्रियविषयप्राप्तिलक्षणःस्वर्गः १८२-६ गन्धन-प्रकाशन
नि:प्रेयर्स-निखिलमलदिलयलक्षणम
१८२-६ कोलोमना-दुरपवादः
१७४-५ आम्नाय:---आगमः
१८२-६ परिषत-कर्दमः
१७५-२ मिध्यावादि-भिख्यात्वाविरलिकपाययोगाः घनसार-कपूरः १७५-३ मोहः-अज्ञानं
१८३-२ अवकूल-अपतसः
१७६-५ सन्देहः--इदं तत्वमिदं वास्तत्वमिति चलन्ती पतिविदग्या:-बुधाः १७६-५ पत्तिः सन्देहः
१८३-२ समावर्तनं-आचार्यपद
१७७-१ विनान्तिः-अतस्थे तत्वाध्यवसायो आस्तिः १८३-२ अराला-दीर्घः
१७७-८ काये-स्वरूप लोता:-दराः
१७७-८. तरस-मांस नितले-तले १७८-१ शक्तिः-स्त्रीपतिः
१८४-४ पर्यागत:-निषणः? निष्पन्नः १७८-६ मद्रा-योनिमुद्रा
१८४-४ इति पञ्चम आश्वासः कृष्णया-मबिरया
१८४-४
१८१-२
१. तथा पोक्त-अन्तरिक्षं स्वरो मोगमंग भ्यञ्जनरलक्षणं । छिन्नं स्वप्न इति प्रामुनिमितान्यष्ट तडिवः ॥ १ ॥
ज्योतिभूविवरादेहोरेखाछन्नादिभिर्यसः । छेदस्वप्नाषिकनु णां ज्ञास्यते आत्मा दामाधाम ।। २ 11 * तथा पोक्तं-बाहल्ये भुक्तभावे च प्रायमाहुविचक्षणाः । ___ *. अयं प्रामाणिकोऽर्थः 'क' प्रतित: संकलितः-सम्पादकः
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________________
पृह-पंकि २१०-१ २१२-३
२१३-१०
२१४-२ २१४-७ २१४-५
२१४-८
२१५-२ २१५-२
२१५-६ २१५-६ २१५-७ २१५-७ २१५-८
अप्रयुक्त-क्लिष्टतम-शब्द-निघण्टु: शुष्ठद अर्थ.
पृष्ट-पत्ति शब अर्थ दशवक्ष:-बुद्धः
१८५-1 आप्रत्य-स्नास्वा निराश्रय-निरन्वयं
१८६-४ कान्तिः -मरणं ताथागताः--बौद्धाः
१८६-४ सनिकार--सपरिभर्ष अव्यक्त-प्रधान
१८९-५ प्रमीला---निद्रा न्यक्षा:-समस्ता.
१९-२ व्यं-भोक्तव्य मोक्षो-मुक्तः
१९२-२ है मत है मातः! षट्मु पातालेप- पार्करावालुकादिषु १९५- एरं-अतीव [ कठिन दि. ] ध्यन्तरेष-किश्वरकिम्पुरुषादिषु
१९५४ विशस्य--मारयित्वा भवनषासिपु-अमरनागादिपु
१९५-४ संपर्या-पूजा ज्योतिष्केषु-चन्द्रादिषु
१९५-४ पक्षाशी-तमः सपर्बुधः-अग्निः
१९६-१ निरुत:-निर्गत: जाम्बूनदं--सुषणं
१९६-१ अहमालीं-आलिङ्गनं प्राणितं-जीवितं
१९६-३ वाता-फुपाल मोगायतनं-शरीरं
१९६.४ एकतानम्-एकानं | কালীঘাঁ —দ্ধি
११७-८ बशिवताति:--सकल्याणं दुहिणः-या
१९५-१० उटजं-तृणगृहं अधोक्षमा-विष्णुः
१९७-१० समन्ले-समीपे द्वतं-गम्यागम्ययो: प्रवृत्तिपरिहारवृद्वितं २००-४ समथः -आश्रमः अद्वैत-सर्वत्र प्रवृत्तिनिरङ्कुशत्वमटतं २००-४ ओतुः-मारि: योगा:-वशेषिकाः
२०१-९ तितउ:-चालनिका सायुज्यं-साम्य
२०२-३-४ अमत्र-पात्रं गतिस्थित्यादि-- सर्वत्र वस्तुना गतिनिबंधन धर्मः, स्थिति- कुशाशयः-जलायायः निबंधनमधर्मः, अप्रतीपातनिबंधनं नमः
पत्ररथ:-पक्षी परिणामनिबंधनः काल:
२.६-३ अलोल:-यक्तः प्रकृत्यादि:
२०६-१ कलापा:-पत्राणि व्यत्यासः-विपर्यय:
२०७-५ उलुपः - तृणविशेष: चतुविधा:- अनन्सानुबंध्यप्रत्याभ्यानप्रत्यास्यामसं. कासर:-महिषः ज्वलनदेन
२०८-१ उपा-राषिः पवमानः-पायु:
२०८-३ निमः---तत्परः अनाः--पर्वताः
२०८-५ विरोक:-किरणः पोत्री-दाकरः
२०८-५ सर्ग:-अभिप्रायः विष्टप-भुवन
२०९-४ महिमा महि पूजायामस्यौणादिक इम प्रत्ययः आत्रेयो-रजस्वला
२१.-१ दथिनो-सेना . . - - . प्रकृतिः स्यारस्वभावोऽत्र स्वभावावधुतिः स्पितिः । तमोऽप्यनुभागः स्यात्प्रदेश: स्यादियतत्वं ॥१॥
२१५-१.
२१६-२ २१६-२ २१७-२ २१७-५ २१८-२ २१८-१० २१८-१. २१९-७ २२.०३ २२०-३. २२०-५ २२०-५ २२१- २२१-७
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________________
५१४
२२३-३
शब्द
पर्य प्रतिषः-विघ्नः 'सुवन-निराफरणं नूतन-नर्ष भूच्छाया-तिमिर पासपो-रात्रिः जातुधाना:--राक्षसाः न्यक्षासु-सर्वासु अवमण:-एकांकी मागधेयी बलिः पतिम्बरा-कन्या इष्टिः -पूजा इतबाहन:-अग्मिः कव्यावा-राक्षसा: ताविष्याः-साविपी मामकायाः उदाहृत्य-उबरवा तलवर:-सलार: वृषन्-प्रधानः शेमुषी-मतिः फेसरं-बकुलः मोमायतनं -धारमा सदस्वितं-तक्र वयस्या-सखी सराणि-कुल्याः पंचालिकाः-पुत्तलिकाः किल-पटु मोहन-सुरत अकूपार:-- समुद्रः पालिन्दी-वौची निचायिता-अवलोकिसा पनवणं-परितः प्लोष:-दाहा विरविः-माथिका प्याल:-मैथुनकः
१. 'मधः सूदन-निराकरण' 'क'
यास्तिलकचम्पूकाव्ये पृष्ट-पंक्ति, चन्द अर्ष
१४-पंकि २२१-८ चतुर्थ-बह्मचर्य
२३०४८ २२१-९ मरण:-गल: २२२-१ अनर्गलम् अनवरत
२३२-४ २२३-१ मासीर-नासिकायामपि
२३२-५ २२३-१ सूक्का--प्रोपर्यन्त:
२३२-६ २२१-१ विशिखा-वीपी
२३२-६ २२३-२ उत्पात निमाता-उत्पवननिपातनक्रिया:
२३२-७ २२२-२ विप्पा--भोर
२३२-८ अध्ोषगम्-अथिता
२३२-८ २२३-३
भास्वनितं मनः २२३-४ उदानोय-उद्धृत्य
२३३-२ २२३-७ अशनाया:-क्षत् २२३-८ अपचन-अङ्गम् २२३-९ अप्रतिघं-निविन २२३-११ वितर्वि-विका २२४-१ उपकुष्ठं सुप्तम्
२३३-६ इन्दिरा-श्रीः
२३३-3 २३३-८
२३३-८ स्थाम-बल २२५-६
त्रिदिवः-देवाः २२५-७
२३३-११ समज्या-कीर्तिः २२६-३
२३३-११ निषित:-सविस्मयं निश्चित:
२३४-१ मनिमिषा:-देवा:
मल:-यज्ञः २२७-६ भर्मि-परवंचनकर: आडम्बरः
२३४-१० वृसी-पदूकः ( फुशासन)
२३४-११ २२८-२ आघाम: ...आवमनं
२३५-१ संस्तष:-मनसा कायेन वा सरकारकरणं २३५-४ २२८-५ ज्ञान मन्त्रवादादिविषयं ज्ञानं २२८-७ निर्वाजीकरणादिविषयं
२३५-४ २२९-६ विधुरा:-राक्षसाः २२१-६ पारावार:-समुद्रः ।।
२३५-६ २३.-३ बालमहानिमित्तानि-मौमस्वरारीरव्यम्जन
लक्षापछिन्नभिन्न स्वप्नाः २३५-३
२२५-३
ममिः--पूर्तत्वं
२२७-६
२२८-५
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________________
अर्थ
२४२-३ २४२-४ २४२-४
२४२-४
२४२-७ २४२-९ २४२-९ २४२-१ २४२-९ २४२-१
२४३-२
अप्रयुक्त-क्लिष्टतम-शब्द-निघण्टुः शब्द
पृ-क्ति शब्द वर्ष । गगनगमना:-विद्यापराः
२३६-१ नाल-कमलं बोधः-विशद.
२३६-२ शाबंगला प्रधिः---पोरसपतः निलिम्पा:-क्षेवाः
२३६-२ सरसुप्ता-श्रीः दोहदः-मनोरथः
२३६-५ खनश्चरण-च पदवी--स्पानं मार्गों या
२३६-८ नन्दक:-खड्गः यावश्यक-नियमता
२३६-८ अक्षणानुजा-ग:: *चित्तं-आरमा
२३५-९ कौमोदकी-गदा मसाल -भाजन
२३७-१ पाचभूत्-वरुणः किशा:-सालकं अप्रविभागमित्यर्थ: २३७-३ शाश्वरः-वृषभः मतिस्पष्टा:-असंकीर्णाः
२२७-४ अन्धक-पश्चात् विकटाः-महान्तः
२६७-४ नगनन्दना-गौरी जयसितं-स्थान
२३७-५ निविरीध:-मिविरः अगदम्-औषत्रम्
२३७-८ उद्भिवा:-तरवः वाक्प्रक्रमासिः-वाक्प्रक्रम एव असिः खड्गः २३८-३ पिण्डु-कायः नीहार:-पुरीष
२३८-७ अम्बकं-लोपन प्रतीक्षा---पूजा
२३९-१ भालं-लसाट मावायत्काय:-शुन्यत्रीर,ये देशोषणे
गगनाटना:-देवाः त्यस्य रूप
२३९-२ तटिनी-नधी निचाधिका:-निचायो दर्शन स विद्यते येषामिति २३९-४ प्रायकर:-चन्द्रः आदोन-दोषः
२३९-६ विरोकाः-किरणा: वशिक-शून्यं
२३९-८ सार:--करं सर्ग:-निश्चयः
२४.-१ आजकार्य-धनुः बहिति-वाह्याचार
२४०-२ कोटा:-इस्ताः अमृतान्धसः-देवाः
२४१-१ स्तम्वरमासुर:-मासुर: फुत्तमा:-दर्भाः ( कुशाः )
२४१-१ अनलोद्भषः---गृह: सम्भौष:-ब्रह्मा
२४१-४ हेरम्भः-बिनायकः कीनाण:-यमः
२४१-९ पारिषदाः गणाः पवनाशनेश्वरः-शेष:
२४१-९ अहिष्न:-द्रः सिषय-वस्त्र
२४१-१० वल्लवी गोपी अमाः -देवाः
२४२-१ जनयतिः-वार्ता पक्षवयं-कृष्णशुषलपनौ
२४२-२ कालिन्दीसोदर:-यमः पवञ्चरोकाः-भ्रमसः
२४२-३ वापतेयं-धनं • 'बुद्धशरमनी या' इति टिप्पणीकारः । १. 'धारकः' पति यावत् । २. 'कमकीत्मनस्य पाह्मणो रूप प्राप्य' इति टि।
२४३-३
२४१-३ २४३-४
२४३-५
२४०-५ २४३-६
२४३-६ २४३-७ २४१-८ २४६-८ २४३-१२४४-२
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________________
५१६.०
राज्य
अयोमुखासनं षणं थां
निपाः — घटाः
इरावती नदी
भर्य
धनुः
"पर्यात्मधामनि
गोषर: – आहारः वैयात्यं— धूर्त त्वं रचन: — संबंध:
मिटीमा
योगनाने
* खादित- अमहत्
कादम्ब:- हंसः
ताक्ष्यः
इड
सवित्री - माता पोहर:- वीरः
सनोई - समीपं
मनिम्बुषाः --- पौराः
शौकः—-आवासः
कैौरवं – कुमुर्द
अर्जुनज्योतिः -- चन्द्रः
प्रत्यवस्यन्तं – चलन्तं
पंचजनः मनुष्यः
गोत्रा — भूः
अभिषेणः - सेनया अभियातीति वर्ण:
:-उद्यतः
संवीण.. प्रवीणः
मृगामितुं - पलायितुं
अमिलं चक्रं
निवाय्य - अवलोक्य सोतालं - त्वरितं
आत्महितस्योपकरिष्ये - आत्महितस्य
खिमः उसे: अगदंकरम् औषधं
प्रतियत्ने कृव् इति
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पृष्ठ- पंक्ति
२४४ २
२४४-३
२४४-६
२४४-८
२४४-१०
२४५-१
२४७-२
२४७-३
२४८-१
२४९ - १
२४१-१-२
२४९-७
२४९-९
२५०-२
२५० - २
शब्द
२१२-४
२५२-७
२५२-९
पृदाकुः-सर्पः नारिषेण ऋषिणा
२४५-१
२४५-४
अद्धा - लघुः शीघ्रं )
१४५१
सरागं - मंचकादिकं
२४५-६
आविद्धं – निर्भर: बाभुग्लो वा
२४५-८
मराल:-- हंस:
२४५-८ चळनः— चरणः
२४६-४ कीकसम् अस्थि
२४६-१
१. 'परि-समस्येन आत्मधामनि' टि० ।
+ टिप्पणी मनुसृत्य संशोधितं परिवर्तितं च--सम्पादकः
वक्षोजो— स्तनो
प्रत्यवसानं भोजनं
मनु- टिवि
उदकंम् — मायतिः
अर्थ
इत्यत्र 'ऋत्यकः' इत्यनेन
प्रकृतिभावान्न सन्धिः
भ्रातृजाया- भ्रातृभार्या
चद्भवः – दर्पः
शकलितं - डि
अमुत्र - परलोके अन्तली-गाणी
शिफा :—जटाः
प्रवानिनो लता
दैचिकेयं कमलं
मित्रेण—रविणा
माकन्द-रसाल- पिकप्रिय - कालिदासा:चूतपर्याया:---
२५०-३
२५०-३
२५०-९ प्रसोली- वरडिकर
२५१-७ कर्वजोः ऊर्ध्वज्ञानी:
२५२-१
२५२-१
'आपावित्रा' मु. प्रती ।
यतिव्रत विद्या प्रभावाः
शङ्कुः कीलकः
इलामातुलः – चन्द्रमुखी ? [ 1 चन्द्रः ]
कलिः– अशोकः
पोषं - बालस्य पेयं दुग्धादि
माम :- ज्येष्ठभगिनोपति :
प्रारभार:- विस्तार:
पृछ-पंक्ति
२५३-५
२५३-६
२५३–९
२५४-८
२५४-९
२५५-१
२५५-२
२५५-३
२५५-५
२५५-७
२५९-७
२५६-२
२५६-४
२५७ - १
२५७-१-२
२५७-९
२५८-५
२५८-५
२५८-६
२५८-६
२५९–५
२५९-५
२५१-५
२५९-६
२६-६
२६०-१०
२६१–५–६
२६२-६
२६२–७
२६३-४
२९३-९
● टिप्पणी मनुसृत्य संघोषितं परिवर्तितं च — सम्मादकः
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________________
पृष्ठ-पंक्ति २७०-१ २७०-४
शब्द भय खतिव-वन शयालु:-अजगरः प्रत्यूहः----विघ्नः तोरिणी-फनमालिनी च–नदी परषित:---परपोषितः अपनेवारी-जातिकरणावि क्रियाकारी पुण्यजना:-राक्षसाः चिलषिकोपहतं घिफिन- अल्पं प्रतीक्ष्य:--पूज्यः अनुहारे:-सदृशः गोत्रण-नाम्ना भ्रमरका:-अलकाः (केयाः ) कावम्बरी--मदिरा सविधे-समोपे निवार्य एकत्री कृत्य रणरणक:-कलमकः । घरविक्षनकः ) धरण ---गह शुद्धोदनतनयःवृद्धः अहानि-दिनानि अर्हणा - पूजा प्रत्यवाय:-विनः आयतनं कारणं वेलित-हस्तमुखसंयोगजो ध्वनिः सामयिकः-यात्रोचितः कुम्भीरं-जलपरविशेष: शकुन्तेश्वर:---रुडः मद्रकुम्भाः पूर्णकुम्भाः पाया:-इस्ताः कीरथ:-शिविका भम्भाः- हटुक्काः
अप्रयुक्त-क्लिष्टतम शब्द-निषष्ठः
पृष्ठ-पंक्ति शब्द अर्थ २६३-११ विहायोधिहागः-खेचराः
चक्रवरपा:-रथ. २६४-२ सोनित्य-सोमनस्य २६४-३-६
सब्रह्मचारी--समानदीस: विविघातका:-शरीरमानधागन्तुभेदाः
सुधांधसो-वेवाः २६५-६
विशाला--उज्जयिनी २६५-९ काश्यपी-भू २६५-१
नक्र-मकरः २६६-१ दिवस्पतिः-इन्द्रः २६६-८ अजिह्मः-पदु: २६६-८
प्रास्तम्ब-भुवनप्रयं २६६-१
उद्याय:-सकः २६६-१० मेदिनीमन्दना:-तरवः २६७- समूहन ---सम्यक सही यस्य । २५७-६ मनन्दः --दर्पण: २६७-८ कलि:-विभोतकतरः २६७-८ कि:-कायोग्यो शिः २३८-४ प्रवेका:-मुख्या: २६८-४ हलि:-महद्धलं २६८-९ इला-भूः २६८-९ वाजे,—वादिनः, क्वेरीणादिकः प्रत्ययः २६९-१ करिणः-गजात २६९-२ प्रभिल-प्रभेदनं २६९-२ अलि:-अमरः २६९-४ समनिसर्ग:-निश्चयः २६९-४ मातलि:- सारथि: २६१-५ विदुष:-बुधः २६९-५ भट्टः—अविद्वान २६१-५ सभाजनं—प्रीतिः २६९-६ सालीलम्-अनन्य
२७०-१० २७१-३ २७१-४ २७१-४ २७१-५ २०१-५ २७१-५ २७१-८ २७१-८ २७२-१ २७२-३ २७२-३ २७२-५ २७२-७ २७२-८ २७३-५ २०३-१ २७३-५
२७३-६ २७३-८-१ २७३-१. २७६-१.
२७४-२ २७४-३-४
२७४-४ २७४-१ २७४-६ २७४-७
• अलोजस्त्री नपुंसकलिगत्वात् । स्त्रीलिङ्ग शपि डी विधी व सति अहा, अहो इति च भवति, बटाला इल्पभूत् ।
अस्याः स्त्रियाँ रुप्य अशाहा, अहाही अष्टाहीति । १. दुष्टवृषः शक्तोऽन्यपूर्वहः दि० ।
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________________
५१८
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये सन्ध मई पृष्ठ-पक्ति शा अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति मन्दापयं-सज्जा २७४-७ शायघर:-वरणः
२८१-४ शिवता-अकल्याणं २७५-१ चक्रवाल:-मानुषोत्तरो गिरि:
२८१-४ हिमवती-गङ्गा २७५-३ निदानं कारणं
२८२-४ वादलि:-गजागमाचार्य: २७५-४ सगन्धः--समानः
२८२-६ सूक्ष्मणं-परिभवः २७५-१. निम्पानं-[प्रतिमाश्वलोकन टि.
२८२-७ फालेयं मम् २७६-१ 'निहालन, वाहन-दर्शन
२८२-७ सुरसरित्-गंगा २७६-१ नाकिषु-देवेषु
२८२-८ संवीण:-प्रवीणः २७६-७ आधिमुक्तिः-श्रद्धा
२८३-२ सर्वधुरीण:-सर्षकर्ममि काल: २ .७ अंशमान-नि:
२८३-३ नवस्कन्द:-घाटक:
२७६-९ निवहोग-निरसनं अबसपा:-परा:
२७६-९ विविधस्य-दादशाङ्गचतुर्दयापूर्वप्रकीर्णकभेवेन २८५-६ अभ्यमिश्रोणं-व-अभिमुखं
२७६-९ एकादविध:-मूलन्नतं नतान्या इत्यादिभेदेन २८६-१ अलक...-स्वामिन
२७७-३ चतुर्विधः-ऋषि-यति-मुन्यनगारमेदेन २८६-१ अलर्क:-महिलाच
२७७-८ मूत्रयस्य मदानां च विकलन कविः स्वयमेबो समाशाखः—मास:
२७७-१ तरत्र वक्ष्यतिअजन्य-उपदवं
२७७-१० अनायतनानिषद-देवतवालयतदागम इत्यर्थः २८७-१ तमी--रात्रि २७८-१ अप्रसङ्गः–अप्रतिषेधः
२८७-१ समोरमार्ग:-आका
२७८-२ इविरिपु:--लका चमुरः--व्याघ्रः २७८.२ "ज्ञानमित्यादि
२११-२ ऊनाभ:--लूता
इति यश पञ्जिकायां पष्ठ आश्वास: ॐ शालाजिरं-रावं २७५-७ वेकटवर्म–पोषनादिक्रिया
२९४-१ सप्सतस्तु: - यज्ञ: २७९-८ निदानत्वात्-कारणस्वात
२९४-११ तृतीयेन--उदासन
२७९-८ उपाख्यान-रुपानकं आक्यानक तस्य चेदं लक्षणम् २१५-१ सवनेन–स्वरेण
२७९-८ अखब:—महाम
२७१-१ एकचक्र—पोदनपर सत्र-यज्ञमण्डपः
२८०-१ पलं-मांस बालू करकः [ भंगारं मारी टि.] २८०-३ कश्यं हारहरं च-मचं
२९५-४ संक्रादन:-शक्रः
२८०-४ आशुशुक्षिणि:.....अग्नि: सरिनाथ:--समुद्रः
२८.-५ तरसं-मांसं गोधः-पुरुषः २८१-१ मत्तालय:--मसभ्रमरा:
२९६-६ ---- -- - .. शरायो वर्धमानकः इत्यमरः । १. हल विशोषने, वह परिकल्पने अनयोः रूपं । २ देखिए पु० २९१ की टि.नं. ३३ ३ इतिहासः पुरावृत्तं प्रबन्धरचना कथा । इटोपलव्धकयनं वदन्यास्पानकं घुषाः ॥ १॥
विरिवच:---ब्रह्मा
.---
-
-
-
-
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________________
अप्रयुक्त विसतम-शब्द-निघण्टुः
अर्थ
अर्थ
पत्र-पंक्ति
३.८-२
३१४-4
शब्द मात्रं-छिद्रं खरपटागमः-ठमशास्त्र मलिम्लुचा:--चौराः मरे--मद्य यष्टायष्टि, मुशामुष्टि इत्यत्र पूर्वपदात्तस्यात्वमीप
सल्यानं चिरत्राय-चिरं उप-आयस्यां ( अागामिकाले ) आनुशंस्य-दया दृतिः-मस्या, 'धर्म माहेषु' टि. ऋतुपः--चर्ममयं स्नेहभाजनं मयः-उष्ट्र: विपद्रो:--विषतरो: सद्यावन्दिरा--उत्सवधीः आसदी—रामानं आङ्गल-मांस निवर्हणमतीति निवर्हणात—अदयः पृदाकुपाकः- उपशिााः अनिमिषचरी-भूतपूर्वमत्स्यो एकानस्यां उज्जयिन्यां परासुता-मरणं दर्शन-मांसपिरादीनो, पनि सुनकरजःस्थलाधीनां, संकल्प:-इदं मसिमिदं रुधिरमित्यापायः, संसर्ग:--मूलजीवजन्त्वादिमिरशुद्धता, त्यक्तमोजिता-परिहृताम्यवहार प्राशप्रत्यूहः--भोजनविनः अमिश्र-केवलं भिन्न--संयुक्त उस्समि-निरपवाद १तथा कालाश्रयं, देशाधयं अबस्थापयं च इल्ली-गुडूच्यादिका कादः-सूरणादिकः
पृष्ठ-क्ति शब्द २९६-७ द्विदलं-माषमदगवणकाविधान्यं २९६-८ शिम्भय:---फलयः २९६-८ साधिता:--रखाः २९५-३ परिदेवनं.-रोदनं
कुचन-प्रायश्चित्तं २९७-३ पृथुरोमा-मत्स्थः २९७-७ पाकळी, सारिणः, अषडशीण पाठीनच२९८-६ मत्स्यः २९९-६ निघाय्य-अवलोक्य ३००-३ आनाये-जाले ३.०-३ प्रमापयितश्य:-हिंसित्तन्य: ३.०-४ वकिनी-दी ३.१-४ अरंपाट २०२-५ मित्रं-पाकलं ३०३...५ मरोस्प:--.-सर्पः ३०२-६ म्युष्ट-प्रभात ३०२-६ उपर्बुधः-अग्निः ३०२-२ द्रविणोदाघ-अग्निः ३.६-७ कुलपालिका-फुलस्त्री
समापनसत्वा-गमिणी ३०५-२ पाञ्चजनीन:-अण्डप्रियः
कल-अधनं भार्याच स्थापतेय-धनं बनाशयः-जलाशयः प्रतिग्रहः- स्वीकारः
उदगमनीयं-धोतवस्त्र ३०४-१ ववरकः-दोर; ३०७-६ वामो-वासरः
उदयसितंाई .. परिसरः-अङ्गार्य ३.७-६ विशीयमाणा-लायन्तो ३०५-७ निष्याय-दृष्ट्वा ३०४-५ प्रतीक्ष्याय-पूज्याय
१४-११ ३१४-११
३१५-६ ३१५-७
३१५-८ ३१५-८-९
३१५-१ ३१५-१
१. एसज्न देशान्तरं पिहाट पादिशास्त्रेभ्यो विस्तारेण प्रतिपत्तव्यं ।
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________________
५२०
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
वान्द
पृष्ठ-पक्ति
३१८-७
३१८-८ ३१९-१ ३१९-२
३१९-२ ३१९-४
३१९-४
३२०-१
३२०-३
अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति शन्द अर्थ वृष:-मुख्यः
३१६-१ कमलेशः धौपतिः अधिष्टानं-बाश्रयः
वरुवी-गोपी देवषि:--निषिः
३१६-२ कामन्दा-काम: सालिन्दका
३१६-४ प्रजः-प्रकृष्टत्रानुः चित्रभानुः-अग्निः
३१६-६ पौतब-तुला मानं ५ उपांशुदण्ड:-गूठवषः
३१६-६ विष्य: विषेण वक्ष्य: प्रमीत:-मृतः
३१६-७ मुशल्यः-मुशलेन वष्यः वपरः, जमंगमः, अत्यावसायी
३१६-६ एकानसो-उज्जयिनी दिवाकीर्तिश्च -माण्डाल:
३१६-८-१ पदिरः - मार्गः जिह्या-कुटिल
३१६-८ पिकप्रिय -वृतः ब्राह्मी-वाणी
३१६-८ कोट:-कण्ठरेखा स्तम्यप:-शिशुः
३१६-८ अर्जुन-तृणं *रामरमिः हरिणकिरण वैतभावान यति
नई - सहानीय यावत् ३१६-१० यूपद:- सहिरण्यकन्यादायं जामातदेयं वस्तु निःशलाक:-एकान्तः
३१६-१० वेदमुखः-दह्निः पर्ण-व्यवहार:
३१७-२ विशिखा:-मार्ग: शण्ठाः -वृषभा:
३१७-२ मामुन्य-वध्वा गोपीनं-गोकुलस्थान
३१७-३ कच्चरं-कुत्सितं सनोई-समीपं
महारजनं-कृसुंभ सपन-मुख
३१७-३ मोर मयूरः तानकाः-वृषभाः
1१७- मौकुलि:-काक: बात-बाल
३१७-४ सवगणा:-एकाको पीनाथ:-पमः
२१७-७ असंस्तुतः-अपरिचितः दोकम-अपत्यं
३१७-८ उपयाचितं- मतितं संजपनं-मारणं
३१७-१ स्पयितुं-बातुं उपतरं-रहः
३१७-१ निकाय्यं- गहं उपमाता-धात्री
३१८-२ बंधयो-निर्भाग्यः हभा--गोश्तं
३१८-३ प्रवासयितपो-मारयितव्य; उपचान्तरं-समोसे
३१८-३ भेल:-अविचारक: सरोजसुहृदि -- आदित्ये
३१८-४ कुरुण्ड:- मारि बल्लवा;- गोकुलिका:
३१८-५ तोदक:-व्ययकः इन्दिरा-धीः
३१८-६ श्याव:-कर्दमः
१२०-४ ३२०-४ ३२०-८ ३२०-१. ३२.-१. ३२०-१.
३२१-३ ३२१-३ ३२१-४
३२१-६ ३२१.७ ३२१-७ ३२१-८
३२१-१ ३२२-१
१. प्रमाणपघणालिन्दा बहिरिप्रकोष्ठो हत्यमरः । • रामः सितेऽपि निर्दिष्टो हरिणच तथा मतः इति वचनात् ।
Page #557
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________________
५२१
अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति ३२७-१
३२२-४
आप्य-आगत्य पापेन-पित्रा दशमीस्थ:-मृतः पतिषः-विघ्नः पद्मावती-उज्जयिनी तुजा-पुत्रेण रमा-श्रीः अभ्रियः बचाग्निः विवान्यः--विदग्धः वदान्यः-त्यागी अपदानं-साहस मित्रयुः-व्यवहारवेदी तस्प भावो मयिका मन्तुः-खेदः कन्तु:-कामः सक्त-मधुरः दमनसि-वह्रो वचन-वचन दोषजः-अतीन्द्रियज्ञः निरजन्यं--निविघ्नं सायुज्यं-चाम्यं राषि-घने रिष-द्रव्य स्वस्प-घनस्य वापराय-संशयाय तत:-स्तेनात् अनिमिषा:-देवाः मुल्पिा:-दालाः यवस-तृणं भटीरा:-मटा पीठमाई:-नाटकाचार्य: समामिः—बन्धुः पुण्यश्लोक-सत्यवान
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टुः पृच-पंक्ति शब्द अर्थ
अनिधिः-स्थापनीय द्रव्य ३२२-५ वस्तु कन-बस्तुसमूह ३२२-८ यद्भविष्य:-देवावलम्बनपरः १२२-८ क्षणदा-रात्रि. ३२३-२
वशिक:-न्यः २३३--
वासिता-स्त्री ३२३-६
विश्वकर्मणि-आदित्य ३२३-६
संद्रवर्ण-विनाश ३२३-८ अन्तमनस्ता-दुःखिता ३२३-८ छात:-कूवाः ३२३-८ पटच्चर-जीणं ३२३-१ कपटि:-नि:स्व: ३२३-९ पस्स्य -गह ३२३-९ अवर्ता-निर्जीविका ३२४-१ धक्का-तृष्णा ३२४-३ दुईस्टः दुराग्रही ३२४-५ लजिका–वासी ३२४-६ पाटचरस-चार: ३२४-७ अणका-फुत्सितः ३२४-८ प्रत्यमिक:-विश्वास्यः ३२५-४ अतिवेलं-अत्तीय ३२५-५ शम्बाल:-छापाल: ३२५-५ पालिन्द:-राजा ३२५-१ *अन्याय्यं-असंगतं ३२५-८ अनस्तित:--नापरहित: ३२६-५ तानकः-वृषभः ३२६-२ चिक्कण:-अपरिपछेदक: ३२६-१ स्वाध्यापिन:- मटिकाप्रतिववाः ३२६-१. महापरिषदः-न्यायचिन्तनापिकूताः ३२७-१ बघीनधी:-गरवामुद्धिः ३२७-४ अशाशका-स्पिरास्थिरा ३२७-६ नेम-समीर
३२८-२ ३२८-३ ३२८-४
३२८-५ ३२८-५-६
३२८-६ ३२८-६ ३२८-७ ३२८-७ ३२८-७ ३२८-७ ३२८-७ ३२९-२ ३२९-२ ३२१-४ ३२९-७ ३२९-७ ३२९-७ ३२९-७ ३२९-१ ३२९-९ ३२९-१०
१२९-१० ३३०-३
३३०-४ ३३०-४
- इदं पदमुपलब्यान कासुचित्प्रतिषु न वरीवति-पम्पादक: १. 'लोमिष्टः' इति टि।
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________________
५२२
जयं
शब्द
तमस्थिनो - रात्रिः
यद्वद: असम्बद्धप्रलापी सर्वपरिवर्त:उपसवित्री घाटी
नं:- संवत्सरः
अनुकोश:- अनुग्रहः परिष्कृतः गृहीतः परिवत्सरदलं संवत्सराई
व्याहारः - बालाप:
मन्त्रे:- मन्त्रिण:
अभ्य के अम्बा
गुदा कुत्सितः
कुक्कुटी — माया
ऊमिका - मुद्रा विलिपिका-चिना
विषमणिः - अग्निः
संगीतिः — संकेत:
स्वस्त्येभाविनि
अध्येष्य - प्राभ्यं
नन्दनं देवोद्यानं वैदेहिनन्दन:- वैश्यपुत्रः
विष्टया पुष्पेन
उपयिकं उचितं
स्तिभी हृदय कौलीनता —दुरपवाव न्यु — अधोमुखं इरिणी स्वर्णप्रतिमा
सूर्मी — लोहप्रतिमा सोमपामिन:- ब्राह्मणाः मैत्रेयः — निर्माध्यः
कुशिका :- ब्राह्मणाः
पांसनं—दूपणं
१. जरा विश्रोतिषच्यते इति वचनात् ।
● देखिए पू ३३८ की टि. नं० ४
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पृष्ठ- पंक्ति
३३०-५
३३०-७
६३०-८
शब्द
अर्थ
वेदधिकः वेदानुष्ठानरतः
विश्व भोजः अग्निः
चैत्यं आसप
३३१-१ दुर्गतिक:
३३१-२
:-जारः
चतरुः -- भूर्जवयः
"विश्रो- जरा
३३१-३
३३१-४
३३१-४
१३१-५
३३१०५
उद्गतिं भृत
३५१-६
शाला जिरं- शरावं
१३१-६ किमिर: कर्यर ३३१-६ परिषत् — कदमः
३३१-७
प्रमाष्टिः – विलेपन
३३१-८
परिष्कृतः अलङ्कृतः
वयोधाः -युवा
अभिघारं घृतं
विश्ववेदाः अग्निः
.
३३१-९
वालेयक/गर्दभः
३३१-९ हिरण्यरेताः अग्निः
३३१-१०
अन्ववायेबंदी
३३२-२
रोहिवश्वः अग्निः शेर:- सर्पः
३३२-२
३३२ - ३ आनुवांसघीः पराद्रोहबुद्धिः
३३२-८ परीषाद: असम्बद्ध लिप ३३२-८ बन्धांसि अन्नानि ३३२-९ मास्थाय प्रतिज्ञाय
३१२-१०
परिवादयेत् — निन्दत्
३३२ - १०
प्रतिकमं* नैपुण्यं २ विप्रश्नविद्या
३१२-१०
३३३-१
३ कथा - चित्रार्थया
३३३-१
४ आख्यायिका - ख्यातार्था
२३३-२
प्रवाह्निका — प्रदेशिका
३३३-२
संवीणता-पता
पृष्ठ- पंक्ति
३३३-३
३३३-४
३३३-४
३३३-४
३३३-५
३६३-५
५३३६
R३३-६
३३३-६-७
५३३-८
३३३-८
३३४-१
३३४-१
३३४-२
३३४-२
३३४-२
३३४-३-४
३३४-४
३.३४-७
३३४-७
३३५-१
३३५-४
३३५-७
३३१-८
३३६-२
२३८-३
३३८-३
३३८-३
६३८-३
३३८-४
२ राक्षरादिभिः अथवा महोशय्यादिभिः परचितज्ञानं । ३-४. देखिए पृ. ३३८ की टिप्पणी नं० ६
Page #559
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________________
५२३
शब्द
अर्थ
११-पंक्ति ३४४-२
३४४.७
३४-८
१४४-९
३४१-२
विधिका-परवंचनोपायः -कात्यायिनी.जंगरं-प्रतिज्ञा चाम्पेयं- चम्पक: मोमायतनं-शरीर निरनुक:-असहायः 'जशाकरिक:-पर: अशना--भुषा वाष्पीहा--जातकः कलमयु:-श्रमः मन्दिरं-मण्डपः कविष्यः-यास्थिोपदेशयोग्यः विदुषं—पण्डितः आशीतिः--भाशयः ध्यक्ष:--सर्वः ज्वालामाली-पावकः तपस्वी-प्टः एकायनं-एका जन्युः-पुत्रः विदुष्या:-विचक्षणाः विव:- स्फेटितः उपाध्यायात्एफसर्ग:-एकाभिप्रायः ससचि:-अग्निः समियः-गोधूमपूर्ण अयः-उरणः हव्यवाहवाइन:
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द-निघण्टुः
पृष्ठ-पंक्ति शब्द अघं ५३८-६ अपसदः उपसदोवा-गत: ३३८-६ अन्तवासिन:-शिया: ३३८-८ पसा -गततृतीयव एव ३३९-४ पर--सात वर्षे ३४०-१ सज़:-सह ३४-२ द्वापर:-शियः ३४.-३ अद्यस्वीने-पुराणे ३४०-३ मारवान् --स्वतंत्रः ३४०-४ साविधीने३४५-४ अस्तुकारं- असंगत ३४०-४ रसवाहिनी-जिल ३४०-५ कशिपू-मोजनामछादने ३४०-५ .आचिव:---भार: ३४७-६ अन्तर्धानं–तिरोषानं ३४.- इन्दिन्दिर:-अमरः
- शरन्यीकृते-पक्ष्यीकृते ३४०-१ अपराधेषुः-लक्ष्यच्युतबागः ३४०-१ उत्फुर्वाण:-प्रकाश्यन् ३४१-९ उद्भिदः-तरुः ३४२-६ असमीक्ष्यं—अपरोक्षणीयं ३४२-७ मन्यु:-दुःख ३४२-७ लोहले-अध्यन २४२-७ काहले---- चन्द्रे २४२-११ प्रजा--दिपाः ३४३-४ मतभूः-विलासिनी ३४३-४ उदकारिचारिका—कुण्डिका ३४३-५ होणाता-लज्जा ३४३-६ दलल:--शालाका ३४३-६ गणेयं–नायितुमदास्पं ३४१-८ पिछोला---वंशः
३४५-८ ३४६-५ ३४६-६ ३४७-७ ३४६-८ ३४६-१ ३४-१ ३४७-२ ३४७-२
३४७-५ ३४७.१ ३४७-१ ३४८-४ ३४८-५
फुडपं-भित्तिः हुघणः-वेषः
३४८-६
• देखिए पृ. ३३८ की टिप्पणी नं० १० । १. चरणपर; पादचारी। २. उपाधैरसदाचारस्य आय: उत्पादो येन सः तस्मात् । 1. हव्यवाहवाहनः, उरभःः, वृष्णिक मेषः ।
४. 'कुम्बा' सर्वत्र प्रतिषु । ५. मादृशां विधिस्तस्प इने ईश्वरे । * इदं पदं मु० एवं० ह. लि. प्रतिषु नास्ति ।
Page #560
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________________
५२४
सव
-पंक्ति
पायहनमोणकरणं
३५५-६
३५५-७ ३५६-७ ३५७-१ ३५७-२
३५७-६
विश्वपघुष्टं-गुरपवादघोषणा . श्रीफल-विल्वं द्वीपिनी नाम नदी उत्ताप:-घरमा - निवर:-निर्वरः पोजम्- पद्दशनः कापिशायिन-मथ घेत-जामन् *उपयस्यमान:भायेगेन-शोकेन साततस्तूमां-पत्रामा ईतिमि:-सर्पकण्टकामि ' युतिधृतिः-बामा क्ली-मापुसकं जित्या-कृषिः सावर्या-मायया प्सास्वा खादित्वा वीतिहोत्र:- अग्निः वाघोषः-दीपंतर अग्नामीपतिः----अग्निः धनजयश्च..-अग्निः . एव्य-देवदेयं कर्म-पितदेयं शोचिष्क:-अग्निः जीन:-क्षीणः आदीन-दोषः इसप्रीति:-अग्निः भावाप्ति:-रतिरसपातिः तृतीया प्रकृति:---जपंसकः
पशस्तिलकचम्यूकाव्ये पुत्र-पंक्ति शब्द
अयं ३४८-६ इन्धे-बी पिते
४८-७ अभियान-काला २४८-८ सपयम:--विवाहः १४९-१ उपायं-पत्रलिङ्गलेपा विप्रयोगः १४९-१ थाट्या-एवमेव विहरण ३४-५ पारीमाई-असूयकत्व ३४१-५ पचा---श्री: ६४९७ पिङ्गः--विटः ३४९-११ अराल-चाय ३४१-११ अपक्षीणे-वसुलोचने १५.-१ पारणे-गृहे ३५०-४ मुनयायतनपतनादिभि:३५०-५ अधध्यसाध्यमिलि क्रियाविशेषणं ३५०-८ कूतम्-अभिप्रेसे ३२५-९ धोत्यं-प्रकापयं ३५१-२ तरमो:-वेगयोः ३५२-६ अविरल - लघु ( शीघ्र ) ३५२-७ अकि-एवमेतत् ३५२-९ वर्व:-बचने: ३५२-९ पास्तु - गृह ३५३-१ इत्वरी-कुलटा ३५३-१-२ तपोडास:-अबतारणकमः
२५३-२ दश्चर्मा-काः ३५३-२ "कुसुमकिसाक्षः-काम: २५३-२ पुष्पंधय.-भमरः २५३-३ रसाट:-वृतः ३५३-३ स्कन्द:-क्षयरोगः ३५३-५ सनता-चेष्टाभावक्षीणता १५४-३ जला-वध्यजन ३५४-५ काह-कर्णमूसं ३५४-६ एवमेष-कडारमिङ्गस्वामभिलषतोति
३५८-१ ३५८-१ ३५८-१ ३५९-३
३५९-८ ३५९-८
३६१-६
३६१-१०
३६२-१ ३६२-४
१. 'निष्टर:' दिखा। .. उपसर्गादस्यत्यूहोत्मिने पदं । २. देखिए पृ० ३५० को टि. न. ११-१२।
३. आध्यान । * सुनयायतनपतनमयन्ति विनाशयन्ति इत्येवंशीलैः । ४. देखिए-पृ. ३६१ की टिप्पणी गं. ३ ।
Page #561
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२५
अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति
.-४ ३७१-७ ३७०-७ ३७०-७ ३७०-८ ३७ -८ ३७१-४
अप्रयुक्त क्लिष्टतम-शब्द-निघण्टुः शब्द
पृष्ठ-पंक्ति पाद अर्थ वासुरेषु-पक्षिषु
३६२-८ मालवल्ली-बदरी स्वारस्यहिमाचलस्प
३६३-१ का पर्ण-मान मतालय:-प्रमरा:
३६३-२ बलोकान्त-गृहपटललम्बिता ? वृक्षोत्पलं-कणिकार:
३६३-२ मुकुरः-अपंगाः सम्पासे-समीपे
३६३-३ निकाध्यं गृहं प्रवया:--वृद्धः
३६३-
८ ऊपबुक: एरण्ट: पायतनं कारणं
नवोम:--मन: सुमजन:-रात्रिमध्य:
३६४-१ कदर्या:--लधा: प्रतीका:--अवयवाः
३६५-४ विषारगन्—विध विधाने आकल्प:-वैधः
३६५-५ मितपचः-सुधा:
३६६-४ वर्षिकाः, परिस्कन्दा:, काचतृणेहि-हिनस्मि
- २.६६-७ वहाय एकार्या:सत्री-यजमानः
३६५-८ घनः--दिवस: आक्षारण:परिमवः
२६६-८ अपस्नातयं....मृतस्नान कर्तव.. कुप्यं वस्त्रकम्बलादि
२६७-४ उपह—षान्ने भाण्ड-लोहवरतैलादि
३६६-४ शिलापुषक: पाषाण. धंदा:-स्त्रीपुनसकभावाः
२५७-५ वहिकन्यजन:-बाणिकपः राणप्रणिधि: हास्यरत्यरतिबोकमयजुगुप्सा:
३६७-५ प्राचीनहिरिन्द्र: धनायाधिशः गई:
३६७-७ वभुः नफुल: ज्यामि हानि
३६८-६ % वृषाक्रिया:वन्द्वः परिग्रहः
३६८-७ सम्पराय:--संचारः उपशल्ये समीप
१६१-१ सुहत्ता-मैत्री संभारादि तप्लादि
३६९-५ इति यशस्तिमकपञ्जिकायो सप्तम बाबास: प्रसभाम्यवहुति'-गतिभोजन
३६९-६ साय:-गरुडः करजर-बान्यतृण
३६९- सूवन-अपनीदमम् ध्वजा:---तलिकाः
३६९-७ दौश्चित्यम्-आर्तरीमध्याने पितृप्रिया:-तिला:
३६९-८ दुर्जन:-चाण्डालरज:स्वलादि मन्त्र-घाटक: (पाणी)
३६९-८ ब्रह्मजिह्मण्य-ब्रह्मचर्यमन्दस्य प्रत्यवसानं-मोजन
३६१-९ मरस्ना---अजन्तुका भूमिः स्यालोविलीयंबईति
३६९-१. निर्मलता-गन्धलेपहानिः । अन्तिसोम फाजिक
३६९-१० याप्लत: स्नातः विष्णसर:-पिप्पल:
३७-१ संप्लुतं-अध्यय - --- - १. बहु भुज्यते इत्यपः । की निष्प्रयोजनं भूखनन; अलस्फालनं, अमलसमेन्धन, पचनकरणमेकेन्द्रियहि सनं च ।
३७१-१ ३७२-१-३ ३७१-१० ३७२-३ ३७२-४ ३७१-१ ३७३-३
२७४-६
३७४-८
३७६-१ ३७६-५ ३७६-४ ३७६-६ ३७४-४ ३७-६
३७७-८ २७७-८
Page #562
--------------------------------------------------------------------------
________________
५२६
पाब्द
उपस्थं दुग्धं
लौकिको विधि:- विवाहः श्रुतगी:- :- उपाध्यायः दृक् — दर्शनं
अवगमः -- ज्ञानं
तं चारित्रं
अर्थ
सिपये — पत्
संकते - पुलिने
अरि:- मोहनीयं
रजः --- ज्ञानावरणं दर्शनावरणं
* रहः - अशुभाचारः हर्क -- इन्द्रजाल
लाजवजवीभावः संसारः
पोतिका - वालिका
अवीचिः - निरयः
मणिमकरिका - पुलिफा
विक्राकारः - टंक: ? ( जड़िया स्वर्णकार )
विरोचनः --- रविः
चावत्रयं मतिः श्रुतमत्रधिश्च अभिनिवेश: सम्यक्त्वं
गुरुणा अहंता
प्रश्नं पुराणं नूत्नं—नं
उदिवोदित - जास्याचरणशुद्धं विनियोगःयाख्यानं
उपनयनं — दीक्षानवारोपणं विधिः
द्विषात्मकया — गृहस्थाश्रयः
सम्परायः – संसार:
प्रमाण - वस्तुया चात्म्यप्रतिपत्तिहेतु
नयः '
निक्षेप. -
यशस्तिलकचम्पूकाव्ये
पृष्ठ- पंक्ति शब्द
३७८-२
३७९-१
३८०-१
* 'अन्तरायकर्म' दि. 1
१,२,३, देखिए . ३८५ की टि. नं० ५,६,७ ॥ ४. देखिए १. ३८३ टि. नं. ०
३८०-१
३८०-१
३८०-१
३८०-२
७८९-२
३८०-८
३८०-८
३८०-८
३८०-८
३८०-८
१८०-१०
३८० - १०
३८०-११
३८१-१
३८१-२
२८१-३
५८१-७
३८२-२
१८२-४ कौतुकं कङ्कणं
३८२-४
३८२-५
१८२ -
१८२-६
३८२-६
३८३-१
३८३-३
३८२-३
३८३३
अर्थ
अनुयोग : 8
अवगाहनं – विमर्शनं
प्रयोग: शास्त्रार्थज्ञापनं वचनं
वाभिस्वं ४
त्रिपथगा --- गंगा
प्रातः--समूहः---
अचीमं - अभिवं
विधिः- ब्रह्मा
मानस : – तापमः
प्रत्यूह: - विघ्नः
अवधारणहय^प्राकाम्यं—आकाङ्क्षा
अवह्लादन - विचिकित्सा मनेकविषविशेषा:
वर्ष - क्षेत्रम्
सत्यंकारं — व्यवस्थातुलनम
घनसार्थ इति सोकभाषा
अनवद्यविद्या केवलज्ञानं
मिक्षानं कारणं
पञ्चलयात्मनः
अत्यल्पायतिः स्वल्पव्यापारा
रश्मिभिः किरण, रज्जुभिश्च
भोगाः — मवनवासिनः
वित्तवृत्तिपचार: आत्मेन्द्रियमनसां च्या
सङ्गपार
उपतये परिपयामि
सदकाः तण्डुलाः
आरामः परिग्रहः
ऊम्मयः — पिपामादयः
विब्बोका:- विलासा:
५०३८४ नं १४ ।
लिए--- १. १८५ की टिप्पणी नं. २ ।
६. देखिए पृ० ३८७ को टिप्पणी नं. ६ ।
पृष्ठ- पंक्ति
३८३-३
נו
21
4 17
३८३-३
३८३-७
३८४-२
३८४-२
"
1/
"
SF
३८४-३
१८४-८
३८४-१
३८४-९
३८५-१
३८५-२
३८५-४
१८७-१
३८७-१
३८७-४
१८८-६
३८९-५
३९०-१०
३९१७
१९२-७
३९२-९
३९३-२
३९३-३
३९३-१
३९३–५
Page #563
--------------------------------------------------------------------------
________________
अप्रयुक्त क्लिष्टतम शब्द निघण्टुः
५२७
अर्थ
पृष्ठ-पंक्ति ३९३-६
शब्द पुरुहूतः शक्रः ३९३ - ७ पुरुदेवं – आदिदेव
पृष्ठ- पंक्ति ४०२-१
४०२-१
अयं अनुषङ्गः - श्राशयः सविधे - समीपे अपचिसो-पूजायां प्रजापतिनिकेशन प्रस्थानं अमत्यक्षितिभूति सुरशैले लक्ष्मी नागमनवीजे:— श्रीसरस्वतीबीजंः
४०२–३
३३४-२ ३१५-१० ३९१-२
४०५-१
४०५-२
अथमं - दोष: वक्सो— कर्णानां मुञ्जरः- प्रधान: उद्धवः- गर्वः विप्ति:- ज्ञानं ३९६-८ चिति अचेतने, प्रधान इति यावत्
४०६-४
३९६-६
४०७-३ ४०७-३ ४०७-५
४०७-६
४०८-१
३९७१ धिषण: - बृहस्पतिः विदिज्ञाने विमुचि — मुक्त fr:-2: अाज मितं — निर्विकल्पर्क अनेकधमं प्रवृद्धि: - पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्वाद्धिका ४१०-३
४०८-३
४०९-५
'श्रीं ह्रीं' सव: अभिषेकः पितृपतिः -- यमः नैगमेयः नैऋतिः प्रचेताः- वरुणः रंद: – धनदः उडुपः- तशी क्षेपीयः पो भूति: मह हरिता दूर्वा चोच - नालिकेरं प्राचीनामलकं—फलवियोषः पूर्ण क्रमुकं चीन-तं चन्दनं मम्भा - हुक्का
१९७-१ ३९७-१ ३९७-२ ३१७-२ ३९७-४ १९७ - ६ महेतु पूजागत ३९७-६ विवृशि विगतदर्शने ( अच्छे ) ३९७-९ इन: - रविः ३९७-९ अर्यमा रविः छात्रमित्रेति कयेरवेदनंक नाम
-
TH
४११-१
४११-८ ४११-८
५९७-०९ ३९८-२ अभिगानात्- अविप्रतिपत्तेः समवायें समाजे मेळाप
४६२-५ ४१३-४ ४१३
मलयं
३९८-७
४१३-७
धनं वासादिकं
३९९-३ देवयात्राया— तीर्थङ्करपूजार्या ३९९-४ अर्ककान्तं -सूर्यकान्तः ३९९ - ४ प्रयं स्थित पर्य लक्षणं
४१३-७ ४१३-८ ४१६-१
ततं वीणादि अवनद्धं मुरजादि
४१६-२
मतं स्तुतिः भालं कलाट
३५९-४ ३१९–६
यमः प्रवेशः व्यायाम: - निर्गमः पान्त: - निश्चल:
१९९-६
यावत्कीर्ण:
परिषत् समवसरणसभा सभाहाराः - वृद्धाः आवजित: --- उपास उसरोदर्क : मेघोदकैः सोदकैव
पाणघटितः याचन्यत्र व्यापाराभावः
३९९-७ ३९९-७ ४००-३ ४००-६ ४००-15 लोयस्वं
४१६-२ ४१६-२ ४१६-२ ४१६-४ ४१६-४ ४१६-५
एकाग्रता श्यामना करणग्रामनियन्त्रणा ट्र्यालिगः - दोषरोपाभ्यां विनिर्मुकः
अमृतकृतकण – अमृतं पवः कला :अकारादयः पौश
४१६-६
दन्यत्वं व्यासङ्ग व्याकुलता
४००-३
४१७-१
१. देखिए पृ० ४०० की टिप्पणी नं १०-११-१२ ।
शब्द
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________________
५२८
शब्द
ari
वैराग्यं दृष्टागामिविषयेषु वैतृष्ण्यं ज्ञानं बंधमोक्षोपायविवेकः
असङ्गः – ह्याभ्यन्तरपरिग्रहत्यागः स्थिरचित्तता तपःस्वाध्यायानकर्मणि मनसोऽ
विचलित प्रयत्नः कमिस्मगसत्वं शारीरमानसाग होने क
विजयित्वं
★ योगतत्वं
आधि:- दीर्मतस्
व्याधिः- दोषवैषम्यं
विपर्यास अत्लत्वाभिनिवेशः
प्रमादः ..
आलस्य २विभ्रमः
इत्यादि
अभिषिक्तारमा - संपुरताचयः धूति: मंत्री- "दया—
संयोगः ७, विप्रलम्भ: निदानं : ९, परिदेवनं १०
I
भेदं पृथक्त्वं
विवर्जिता मेद----एकएवरहितं अर्थव्यञ्जन योगान्तरेषु संक्रमातू अभेदं — एकरवं
भेदवजितं - - पृथक्त्वरहितमयं व्यंजन योगान्तरेसंक्रमात् '
15
सूक्ष्म क्रियाशुवः
३] निष्क्रियं योगं -
1
यानं
प्रसंख्यानं
५४ चतुस्त्रिशद्गुणोपेतं -
यशस्तिलक चम्पूकाव्ये
पृष्ठ-पं
४१९-४
४१९-४
४१९-४
४१९-४
४१९४
४१९-४
४१९–५
१९-५
४१९-५
४१९-५
४१९-५
४२०- १
४२४-२
४२४४
४२७-२
४२७- २
४२७-२
शब्द
अर्च
सरखागमं सुखमागमं १५ सदोपनिर्वाण
देखिए पृ० ४१९, टि० नं० १२ ।
१.२.३, देखिए – पृ० ४१९ टि० नं० १६-२१ । ४.५.९. देखिए ० ४२४ टि० नं० ३-५ । ७- १०, देखिए - १० ४२४ टि० नं. ८-११ * बनेन पृक्तचितकं वीचाराख्यं शुक्लध्यानमुक्तं 1 ११. अनेन एकरतिमोचाराख्यं शुक्लध्यानमुक्तं ।
त्रयीमार्ग, त्रयोपमित्यादि
मन्दर मुद्रा - पंचमेहमुद्रा
१८ सनामा दिवणहिं
पंचमूर्ति — ॐकारं
संगमे वो
क्षिपेत् — मुश्चेत्
एकस्तम्भं– आयुर्भु पञ्च इन्द्रियाणि
पञ्चजनाः— मनुष्यास्तैराश्रितं
अनेककक्ष — म्नाभिब्रह्मरन्ध्रादिभेदेन
गोमुद्रा - सुरभिपुद्रा
गुरुवोजेन – हुंकारेण अवकेशी बन्ध्यः
सुरदुः—सुरनुमः पर्वसन्धि अष्टमी
चतुर्थ --- उपवासं
घनाघनः -- मेषः
प्रतिग्रहः - अभ्पुरथानं
विधा - आहारः
प्रमृतं यदुतं धान्यं न प्रतिदान फलति
४२७-२
४२७-२ पारिवं नपलता
४२७-२
कदर्याः धाः
४२८-३
वाक्पण्या: - वन्दिनः
४३०.३
संभली कुट्टिनी
इति श्रीदेवविरचितायां या स्कायो अष्टम बाश्वासः ।
१२. देखिए -१० ४२७ टि० नं० ७ । १३. देखिए - पृ० ४२७ टि. नं० ८-९ । १४ देखिए ५० ४३० टि० नं० २ । १५. देखिए - १०४३१ टि० मं० ६ । १६१७. देखिए -१० ४३१ टि० नं० ८-१२ १८. देखिए - ० ४३४ टि० नं० ५ ।
पृष्ठ- पंक्ति
४३०-९
४३१-५
४३४-३
४३४-३
४३५-१
४३५-१
४३६-४
४३८-२
४३८-२
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"
17
४३९-३
४३९-४
४४०-१०
४४०-११
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४४६०१
४४८-१
४४८-२
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४४९–३
४४९-४
४५०-४
४५०-४
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________________ शुद्धि-पत्र गुद्ध पृष्ठ-पंक्ति 220-10 247 टि.नं. २६०टि. पंक्तिर 2066 सुनि राज तिरोदप न ह्याप्ताना पुनरयमितप्रम: भोगवती शिक्षा पुरुषाणा मुनि काहले५ मवेन्न वा धानुिरोधबुद्धमा देशेऽपसदः अहंतनुमंध्ये साधुस्तदनु रलत्रय आरमा भनित्य स्मररस मनाम कोऽपि मतुलल्वाद यदेन्द्रियाणि 302.5 पशुब्ब पृष्ठ-नि अशुद्ध पललद पल्लव तिरोध विहित पिहित 7-5 ह्याप्ताना स्वागत स्वागत पृनयमित पितृदवन पितृदेवत भोगमती वासर वासर 61-7 णिती स्मृतीनिहाल स्मृतीतिहास पृरुषाणां दिमृत्य विमृश्य पिष्टय पिष्टं च 94-4 काहले खादृहास साहास 93-7 भवन वा विश्वकरवानीन्द्राणां विश्वकदर बनीन्द्रागां 107-6 धर्मा पुरोधःबुझया सबर्धमादम् सवर्धमानम् বাহুত্বে: नित्योत्सव नित्योत्सव 118-2 अहनतसमध्ये पत्ति पनि 118-7 साधस्लदनु पाव्यय अपयं 125-1 रत्तत्रय नामिमण्डला मिमण्डला 120-3 ग्रात्माज ता मन्द्रिय दिलास बिलास 165-11 स्मरस रुची मनम् कुषान कुपाये कोपि पन्चम षष्ठ 183-1 मतुलवा मुग्वघोषा मुग्धबोधा यदेन्द्रियाणि सीध श्रीषा अनन्य अन्य 172-18 ह्रीं दूसरे से यदि दूसरे से 200-28 भूयामि नास्विककत्वसझाव तात्विकै कारवसवावे 2054 पीठोपकण्ठ मोतुः-पार्जार: ओतु: मार्जार! २१६-१टि. चरणन धिषणन धिषणेन 229-1 पूजाक्षण मादि मामा 221-2 कि जलता विचने विद्यते २३१टि.नं.५ दाने -- 380-1 380-1 380-4 तणं 395-1 402-5 रुची सीषु पती 439-20 अयामि पीठोगकण्ठे चरणन 281-6 पूजाक्षणे न कि जलता दानं 445 दि.०५